رضوی

رضوی

बांग्लादेश के मुख्य चुनाव आयुक्त  एएमएम नासिर उद्दीन ने कहा है कि आयोग किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन या विरोध करने का इरादा नहीं रखता है और तटस्थ रहने की कसम खाई है।

बांग्लादेश के मुख्य चुनाव आयुक्त  एएमएम नासिर उद्दीन ने कहा है कि आयोग किसी भी राजनीतिक दल का समर्थन या विरोध करने का इरादा नहीं रखता है और तटस्थ रहने की कसम खाई है।

उन्होंने कहा,हम आयोग में राजनीति में शामिल नहीं होना चाहते हैं हम किसी भी राजनीतिक दल के पक्ष या विरोध में खड़े नहीं होना चाहते हैं उन्होंने कहा,हम तटस्थ रहना चाहते हैं।

उन्होंने रविवार को राजधानी के निर्वचन भवन में चुनाव और लोकतंत्र के लिए रिपोर्टर्स फोरम की वार्षिक आम बैठक और पुरस्कार वितरण समारोह को संबोधित करते हुए ये टिप्पणियां कीं। नासिर उद्दीन ने यह भी कहा कि चुनाव आयोग पर राजनीतिक नियंत्रण इसकी भूमिका की आलोचना का मुख्य कारण है।

 उन्होंने कहा यही सबसे बड़ा कारण है कि चुनाव आयोग को राजनीतिक नियंत्रण में रखा गया है। इसके सैकड़ों कारण हो सकते हैं, लेकिन मेरा मानना ​​है कि चुनाव आयोग पर राजनीतिक नियंत्रण सबसे महत्वपूर्ण कारक है।

सीईसी ने स्वतंत्र निष्पक्ष और विश्वसनीय तरीके से चुनाव कराने के लिए आयोग की प्रतिबद्धता की पुष्टि की। यह बयान संघर्ष से ग्रस्त बांग्लादेश में लोकतंत्र की बहाली के लिए उम्मीद की किरण दिखाता है।

शेख हसीना का एक बड़े राजनीतिक तख्तापलट द्वारा बेवजह बाहर निकलना लोकतंत्र के लिए एक झटका था। बांग्लादेश में बड़े पैमाने पर हिंसा ने न केवल उसके नाजुक लोकतंत्र को झटका दिया है, बल्कि एक धर्मनिरपेक्ष राज्य होने की क्षमता को भी कमजोर कर दिया है। बांग्लादेश में 2025 के अंत या 2026 की शुरुआत में चुनाव होने वाले हैं जिसे देश में मौजूदा संकट का एकमात्र व्यवहार्य समाधान माना जा रहा है।

पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना के अचानक पद से हटने और उसके बाद के राजनीतिक नतीजों ने मोहम्मद यूनुस के नेतृत्व वाली मौजूदा कार्यवाहक सरकार के लिए निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए व्यवस्था बहाल करना चुनौतीपूर्ण बना दिया है।

अगस्त में पैदा हुए राजनीतिक और सुरक्षा शून्य ने पहले ही छात्र समूहों और कट्टरपंथी जमात-ए-इस्लाम जैसे कई नए अभिनेताओं को जन्म दे दिया है। शेख मुजीबुर रहमान के ऐतिहासिक निवास, धानमंडी 32 का हाल ही में हुआ विनाश बांग्लादेश में एक नाजुक व्यवस्था का स्पष्ट बयान है।

लेबनानी सेना ने घोषणा की है कि उसने सीरिया से तोपखाने की गोलाबारी के जवाब में जवाबी हमले शुरू किए हैं और ताबड़तोड़ कई हमले किए।

लेबनानी सेना ने घोषणा की है कि उसने सीरिया से तोपखाने की गोलाबारी के जवाब में जवाबी हमले शुरू किए हैं।

एक बयान में सेना ने रविवार को लेबनानी सीमा क्षेत्रों पर बार बार गोलाबारी की सूचना दी और पुष्टि की कि उसकी इकाइयाँ उसी के अनुसार जवाब देना जारी रखती हैं

एक बयान के अनुसार, सीमा पर असाधारण सुरक्षा उपाय लागू किए जा रहे हैं जिसमें निगरानी बिंदु, गश्त और अस्थायी चौकियाँ स्थापित करना शामिल है। सेना ने इस बात पर जोर दिया कि वह स्थिति पर बारीकी से नज़र रख रही है और ज़रूरत पड़ने पर उचित उपाय करेगी।

शनिवार को लेबनानी सेना के मार्गदर्शन निदेशालय ने घोषणा की कि सीरियाई क्षेत्र से गोलाबारी का जवाब देने के लिए उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर सैन्य इकाइयाँ तैनात की गई हैं।

और इसके जवाब में कई हमले किए गए।

रविवार को बताया कि सीरिया से दागे गए रॉकेट पूर्वी लेबनान के कई गांवों में गिरे और सीमा क्षेत्र में दो सीरियाई ड्रोन को मार गिराया गया। लेबनानी-सीरियाई सीमा के करीब हरमेल के पास लेबनानी कबीलों और सशस्त्र समूहों के बीच झड़पों में पिछले कुछ दिनों में हताहत हुए हैं।

इससे पहले लेबनानी सेना ने कहा था कि उसने सीरियाई सीमा पर तैनात सैनिकों को सीरियाई क्षेत्र से होने वाली गोलीबारी का जवाब देने का आदेश दिया है। सेना ने एक बयान में कहा कि उसने लेबनान के राष्ट्रपति जोसेफ औन के निर्देशों पर काम किया है, जिसमें उत्तरी और पूर्वी सीमाओं पर सैन्य इकाइयों को सीरियाई क्षेत्र से आने वाली गोलीबारी के स्रोतों का जवाब देने और लेबनानी क्षेत्रों को निशाना बनाने का आदेश दिया गया है।

बयान में कहा गया है कि इकाइयों ने हाल ही में हुई झड़पों के बाद उचित हथियारों के साथ जवाब देना शुरू कर दिया है, जिसमें कई लेबनानी क्षेत्रों पर गोलाबारी हुई थी।

सऊदी अरब और इस्राइली राज्य के बीच बढ़ती हुई तनाव की पृष्ठभूमि में सऊदी सरकारी टीवी चैनल अल एक़बरिया ने इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पर कड़ी आलोचना की है यह हमला नेतन्याहू के हालिया बयान के बाद सामने आया है जिसमें उन्होंने कथित रूप से फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए सऊदी जमीन की पेशकश की थी।

सऊदी अरब और इस्राइली राज्य के बीच बढ़ती हुई तनाव की पृष्ठभूमि में सऊदी सरकारी टीवी चैनल अल-अख़बरिया ने इस्राइली प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू पर कड़ी आलोचना की है यह हमला नेतन्याहू के हालिया बयान के बाद सामने आया है जिसमें उन्होंने कथित रूप से फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना के लिए सऊदी जमीन के एक हिस्से की पेशकश की थी।

रूसी समाचार एजेंसी रूसिया अलयूम के अनुसार, अल-अख़बरिया ने अपनी हालिया रिपोर्ट में नेतन्याहू को कड़ी आलोचना का शिकार बनाते हुए कहा कि आक्रमणकारी कब्जे का कोई अच्छा या बुरा चेहरा नहीं होता बल्कि केवल एक चेहरा होता है और वह है नेतन्याहू रिपोर्ट में उनके पारिवारिक पृष्ठभूमि और कट्टरपंथी नीतियों का उल्लेख करते हुए उन्हें सियोनी का बेटा सियोनी कहा गया।

रिपोर्ट में आगे कहा गया कि नेतन्याहू ने कट्टरपंथिता को अपने परिवार से विरासत में प्राप्त किया है क्योंकि उनके दादा एक कट्टरपंथी रब्बी थे और उनके पिता एक कट्टर सियोनी विचारक थे चैनल के अनुसार, नेतन्याहू खुद को "ईश्वर का दान मानते हैं, और इसी कारण उन्होंने अपना नाम "नेतन्याहू" रख जो इस अर्थ को व्यक्त करता है।

अलअख़बरिया ने अपनी रिपोर्ट में कहा कि नेतन्याहू पिछले तीन दशकों से अद्वितीय हिंसा में लिप्त रहे हैं और "वह न तो शांति को समझते हैं, न ही वार्ता को, बल्कि केवल युद्ध और ताकत की भाषा में बात करते हैं।

चैनल ने आगे कहा कि कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय द्वारा चार साल पहले प्रकाशित एक मानसिक अध्ययन में कट्टरपंथी व्यक्तित्वों के विश्लेषण के दौरान यह पाया गया था कि नेतन्याहू में हिंसा की प्रवृत्ति कमजोर स्मृति, जल्दी निर्णय लेने की आदत और रणनीति में लापरवाही" जैसे मानसिक कारक पाए जाते हैं।

रिपोर्ट के अनुसार, नेतन्याहू एक ऐसे अंजाम की ओर बढ़ रहे हैं जिसे वह खुद देख नहीं पा रहे हैं, और "अपनी महानता के भ्रम में एक ऐसी कब्र खोद रहे हैं जो न केवल अस्थायी हार बल्कि पूरी तबाही का कारण बनेगी।

यह कड़ी मीडिया आलोचना उस समय सामने आई है जब हाल के दिनों में नेतन्याहू के बयान के बाद सऊदी अरब और इजराइल के बीच संबंधों में तनाव और बढ़ गया है, जिसमें उन्होंने कथित रूप से सऊदी जमीन के एक हिस्से पर फिलिस्तीनी राज्य की स्थापना की पेशकश की थी।

 

इमाम ख़ामनेई से पहले इमाम ख़ुमैनी (1902-1989) ईरान की इस्लामिक क्रांति के संस्थापक और इस्लामी गणराज्य ईरान के नेता थे। उन्होंने यह दिखाया कि इस्लामिक धर्मशास्त्र और राजनीतिक दर्शन को सही वक़्त और सही जगह पर इस्तेमाल किया जाए तो इससे समाज में बदलाव और उसके प्रबंधन के नए रास्तों को खोला जा सकता है।

प्रथम वलीए फ़कीह अर्थात सर्वोच्च धार्मिक नेता के रूप में इमाम ख़ुमैनी के विचारों ने जिस तरह ईरानी समाज के हर पहलुओं को कामयाबी तक पहुंचाया है वह उल्लेनीय है। इमाम ख़ुमैनी के विचारों ने कल्चरल, विज्ञान, राजनीति और सैन्य मैदान में ईरान को बहुत ऊंचाईयों तक पहुंचाया है। इसी संदर्भ में विशेषकर पश्चिम एशिया में लेबनान से लेकर यमन तक उपनिवेशवाद के ख़िलाफ़ एक सक्रिय प्रकार की आज़ादी की मांग करना बहुत महत्वपूर्ण है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने इस्लामी सरकार के सिद्धांत को पुनर्जीवित करके सैद्धांतिक दृष्टिकोण से ईरान के इस्लामी आंदोलन की शुरुआत की। उन्होंने शाही सरकार को अवैध घोषित कर दिया और ईश्वरीय शिक्षाओं पर आधारित सरकार के अलावा किसी भी अन्य सरकार को अस्वीकार कर दिया।

स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी (र.ह) की तस्वीरें।

इमाम ख़ुमैनी ने ख़िलाफत, शाही संविधान और विलायते फ़क़ीह के सिद्धांत को "इस्लामिक गणराज्य के सिद्धांत" के तहत आगे बढ़ाया। यह वही सिद्धांत है जो इमाम ख़ुमैनी (र.ह) के इस्लामी आंदोलन और पिछली शताब्दी के अन्य इस्लामी आंदोलनों के बीच बुनियादी अंतरों में से एक है। ईरान के शाही शासन का अंत और इस्लामी गणराज्य की स्थापना, वह भी एक धार्मिक नेता के नेतृत्व में, यह वह चीज़ है कि जो समकालीन युग में इस्लामी जागृति आंदोलन की सबसे महत्वपूर्ण जीत है। इमाम ख़ुमैनी (र.ह) और उनके साथियों की सबसे महत्वपूर्ण सैद्धांतिक उपलब्धि, इस्लामी गणतंत्र के संविधान की मंज़ूरी मानी जाती है। पहली बार, आधुनिक युग के समय और स्थान की आवश्यकताओं के अनुसार इस्लामी समाज को चलाने के सिद्धांत को व्यावहारिक तरीक़े से कोडिफाइड किया गया और इसे ईरानी राष्ट्र के अभिजात वर्ग और चुने हुए लोगों द्वारा अनुमोदित अर्थात अप्रूव किया गया।

इस्लामिक गणराज्य ईरान का संविधान इस्लामी सिद्धांतों, प्रबंधन अनुभव और मानवता के सामान्य ज्ञान के संयोजन से रेनेसांस (Renaissance) अर्थात पुनर्जागरण के बाद का ध्यान रखता है। संविधान की सामग्री इस्लाम और उसकी रूपरेखा मानव समूह के सामान्य बुद्धि के आधार पर इनोवेशन के दौर में है। इसलिए, शूरा अर्थात परिषदों और संस्थाओं का सिद्धांत जनता की सहभागिता को निर्धारण करने में महत्वपूर्ण है। यही वजह है कि हम देखते हैं कि किस तरह ईरान में इस्लामी गणराज्य के सिद्धांतों के तहत अलग-अलग परिषदों और संस्थाओं का गठन किया गया है ताकि जनता कि अधिकारों की पूरी तरह से रक्षा हो सके। संविधान में सशक्तिकरण के सिद्धांत के रूप में कार्यपालिका, न्यायपालिका, मजलिसे शूराये इस्लामी अर्थात संसद, शूरये निहेगबान अर्थात संरक्षक परिषद, मजलिसे ख़ुबरेगान अर्थात गॉर्जियन परिषद, शूराये तश्ख़ीसे मसलहते नेज़ाम अर्थात हित संरक्षक परिषद, शूराये आली अमनियते मिल्ली अर्थात राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद और इसी तरह शहरों की शूरा जिसे नगर पालिका भी कह सकते हैं यह सब इस्लामी गणराज्य के सिद्धांत की ताक़त को दिखाती हैं। इमाम ख़ुमैनी ने एक साथ पूर्व और पश्चिम की साम्राज्यवादी ताक़तों के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला और उसका मज़बूती के साथ सामना किया। इसी तरह उन्होंने अमेरिका और ज़ायोनीवाद के आतंकवाद और अत्याचारों से मुक़ाबले के लिए इस्लामी प्रतिरोध आंदोलनों की बुनियाद डाली। ईरान की इस्लामी क्रांति ने इमाम ख़ुमैनी (र.ह) के नेतृत्व में न केवल इस्लामी जगत के समाजिक और राजनीतिक समीकरणों की बदल दिया बल्कि इसका असर पूरी दुनिया की समाजिक और राजनीतिक व्यवस्था पर देखने को मिलता है। इस्लामी क्रांति की सफलता के प्रभाव में एक नया युग "इस्लामी क्रांति का युग", "सियासी इस्लाम" और "धार्मिक शासन" के रूप में अंतर्राष्ट्रीय मंचों और राजनीतिक-क्रांतिकारी विचारों की दुनिया में आरंभ हुआ।

इमाम ख़ुमैनी (र.ह) आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामनेई।

इमाम ख़ुमैनी के राजनीतिक विचारों के सिद्धांत:

इमाम ख़ुमैनी (र.ह) के नज़रिए के अनुसार वह जनता को और उनसे जुड़े मुद्दों को शीर्ष पर मानते हैं। इसके अलावा उपनिवेशवाद से टकराव और मुसलमानों का एकीकरण इमाम ख़ुमैनी का मुख्य राजनीतिक सिद्धांत रहा है। जनता की इच्छा और राय को क़ानून निर्माण और निर्णय लेने में शामिल करना उनके महत्वपूर्ण धार्मिक दृष्टिकोणों में से एक है जो उन्होंने इस्लामी नारे के साथ तिरस्कारी और अत्याचारी सोच के साथ मुक़ाबला करने के लिए अपनाया है।

इमाम ख़ुमैनी के कुछ ऐसे बयान जो उनके राजनीतिक और शासनिक दृष्टिकोण के आयाम को दर्शाते हैं, उनमें यहां कुछ का उल्लेख करते हैं:

  1. इस्लामी सरकार के मूल सिद्धांत

तीन मूल सिद्धांत इस्लामी सरकार के कुछ इस तरह हैं। पहला सिद्धांत इस्लामी राज्य में न्याय की ज़रूरत को बयान करता है। दूसरा सिद्धांत इस्लामी राज्य में अपना नेता चुनने के लिए पूरी तरह आज़ादी ताकि वे अपनी क़िस्मत का पूरी स्वतंत्रता के साथ फ़ैसला ले सकें। तीसरा सिद्धांत इस्लामी देश की आज़ादी को विदेशियों की हस्तक्षेप और उनके हितों और अधिकारों पर नियंत्रण के ख़िलाफ़ रक्षा करता है।

  1. गणतंत्र का प्रकार

इस्लामिक गणराज्य की सरकार अन्य गणराज्यों की तरह एक गणतंत्र है, लेकिन इसका क़ानून इस्लामी क़ानून है।

  1. इस्लामी गणतंत्र की ज़िम्मेदारियां

इस्लामिक गणराज्य के मूल काम शामिल हैं: राष्ट्र की स्वतंत्रता और जनता की स्वतंत्रता की सुनिश्चिति, भ्रष्टाचार और अनैतिकता के ख़िलाफ़ लड़ाई, और इस्लामी मानकों के आधार पर सभी क्षेत्रों में आवश्यक सुधार करना, जैसे कि आर्थिक, राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक। यह सुधारात्मक क़दम सभी लोगों की पूरी सहभागिता के साथ होगा और इसका पहला उद्देश्य किसी भी ग़रीबी को ख़त्म करना और बहुमत लोगों के लिए जीवन की स्थितियों को सुधारना है जो सभी दिशाओं से उत्पीड़ित हो गए हैं।

  1. संसद और विधान की स्थिति

नेशनल असेंबली का मतलब यह है कि लोग पूरी आज़ादी के साथ जनता एक प्रतिनिधि को चुनें और वह बैठकर देश के कामों में सलाह दें।

  1. चुनाव और सामान्य इच्छा

शाह के पतन के बाद मामलों को संभालने वाले समूह के सबसे महत्वपूर्ण प्राथमिक कर्तव्यों में से एक स्वतंत्र चुनाव के लिए स्थितियां प्रदान करना है जिसमें चुनावों में किसी भी वर्ग या समूह की कोई शक्ति और प्रभाव नहीं होगा।

  1. विदेश नीति के सिद्धांत और आधारभूत तत्व

इस्लामिक रिपब्लिक की नीति, स्वतंत्रता, राष्ट्र और सरकार की आज़ादी और देश की रक्षा करना होगा और स्वतंत्रता के बाद साथी सम्मान करना होगा, और शक्तिशाली और अन्य लोगों के बीच किसी भी तरह का भेदभाव नहीं होगा।

  1. फ़िलिस्तीन का मुद्दा और विश्व में स्वतंत्रता के पक्षधरों का मुद्दा।

ईरानी लोगों ने हमेशा सभी स्वतंत्रता प्रिय लोगों के संघर्ष, विशेष रूप से अवैध ज़ायोनी शासन के अतिक्रमण ख़िलाफ़ संघर्ष करने वाली फ़िलिस्तीनी जनता का हर स्तर पर समर्थन किया है और जितना संभव हुआ उनकी सहायता की है।

  1. मुस्लिम एकता

मुसलमानों और इस्लामी राज्यों की एकता का विचार मेरे जीवन की योजनाओं में सबसे ऊपर है। मैं इस्लामिक सरकारों के विवादों से चिंतित हूँ। मुझे उस घटनाओं से डर लगता है जो मुस्लिमों और उनकी सरकारों के बीच दरार पैदा करती है।

  1. कमज़ोर और ग़रीबों का समर्थन और सामाजिक न्याय

मुझे उम्मीद है कि इस्लामी गणतंत्र की सफलता और हमारी आपकी कामयाबी के साथ, हम इस्लामी न्याय की बुनियाद रख सकें, ताकि हम सभी की मुश्किलें हल हों, कर्मचारियों की मुश्किलें हल हों, मज़दूरों की मुश्किलें हल हों। इस्लामी गणराज्य में ग़रीबों का समर्थन किया जाना चाहिए। ग़रीबों को मज़बूत किया जाना चाहिए।

  1. आज़ादी

आज़ादी इंसानों का अधिकार है। क़ानून स्वतंत्रता प्रदान करता है। ईश्वर लोगों को आज़ादी देता है। इस्लाम स्वतंत्रता देता है। संविधान लोगों को स्वतंत्रता देता है।

  1. न्याय

इस्लाम ऐसा धर्म है कि जिसके नज़रिए से अल्लाह आदिल है, अल्लाह द्वारा भेजे गए दूत भी न्यायकारी हैं और इमाम भी आदिल हैं। निर्णय करने वाले या न्यायधीश पर लोग उसी समय भरोसा करते हैं कि जब वह स्वयं आदिल होते हैं।

  1. मानव अधिकार

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, चुनाव की स्वतंत्रता, मीडिया की स्वतंत्रता, रेडियो-टेलीविज़न की स्वतंत्रता, प्रचार की स्वतंत्रता, यह मानवाधिकारों में से हैं और सबसे मौलिक मानवाधिकार हैं। जब तक मानवता का आधार आध्यात्मिक नहीं होगा तब तक वह सुधरने योग्य नहीं होगी। दूसरे शब्दों में इसको इस तरह कह सकते हैं कि मानव को सुधारना और मानव अधिकारों की रक्षा करना उस समय तक संभव नहीं हो सकता है कि जब तक उसकी निर्भरता का बिंदु आध्यात्मिक मूल न हो।

  1. साम्राज्यवाद

इस्लामी देशों के प्रमुखों के बीच मौजूदा मतभेद, जो क़बीलाई राजतंत्रों और बर्बरता के युग की विरासत है  और राष्ट्रों को पीछे रखने के लिए विदेशियों के हाथों बनाया गया और इसके ज़रिए उन्होंने उन्हें सामग्री के बारे में सोचने के अवसर से वंचित कर दिया है। उबाऊ और निराशा की भावना जो उपनिवेश में लोगों में है, यहां तक कि इस्लामी नेताओं में भी उन्हें समस्या की उपाय ढूंढने की सोच से वंचित कर दिया है। आशा है कि युवा पीढ़ी, जो अभी बुढ़ापे की ठंड और शरीर की कमज़ोरियों तक नहीं पहुंची है, जितनी भी संभावना हो, उन्हें चाहिए कि राष्ट्रों को जागरूक करें।

  1. अमेरिका की आलोचना

लाखों मुसलमानों के अधिकारों को छीनना और गुंडों से दबंगई कराके मुसलमानों के अधिकारों की हड़पना, इस्राईल जैसे अवैध और दिखावटी शासन को मुसलमानों के अधिकारों को हड़पने और उन्हें स्वतंत्रता से वंचित करने और सेंचुरी डील करने की अनुमति देना, यह वे अपराध हैं जो अमेरिकी राष्ट्रपतियों के दस्तावेज़ों में दर्ज हैं।

सारांशः

इमाम ख़ुमैनी (र.ह) ने सिद्ध किया कि वे नए तरीक़े से इस्लामी समाज का प्रबंधन करने के लिए कोशिश करेंगे, जो वक़्त और जगह की आधुनिक ज़रूरतों को ध्यान में रखता है। उन्होंने इस रास्ते पर कई इनोवेटिव आईडियोलॉजिकल प्रस्ताव पेश किए और दिखाया कि इस्लामी न्यायशास्त्र और राजनीतिक दर्शन, समय और स्थान के अनुसार, समाज के प्रबंधन के लिए नई योजनाएं बनाने की क्षमता रखते हैं। इस्लामी राजनीतिक विचार का सार सत्ता का उचित वितरण और अपने भाग्य की योजना बनाने में लोगों की व्यावहारिक भागीदारी है। सरकार का अंतर्निहित कर्तव्य लोगों की आजीविका का प्रबंधन करना और स्वतंत्रता और न्याय स्थापित करना है।

चार जून सन 1989 ईसवी को दुनिया एक ऐसी महान हस्ती से बिछड़ हो गई जिसने अपने चरित्र, व्यवहार, हिम्मत, समझबूझ और अल्लाह पर पूरे यक़ीन के साथ दुनिया के सभी साम्राज्यवादियों ख़ास कर अत्याचारी व अपराधी अमरीकी सरकार का डटकर मुक़ाबला किया और इस्लामी प्रतिरोध का झंडा पूरी दुनिया पर फहराया। इमाम खुमैनी की पाक और इलाही ख़ौफ़ से भरी ज़िंदगी इलाही रौशनी फ़ैलाने वाला आईना है और वह पैगम्बरे इस्लाम (स) की जीवनशैली से प्रभावित रहा है। इमाम खुमैनी ने पैगम्बरे इस्लाम (स) की ज़िंदगी के सभी आयामों को अपने लिये आदर्श बनाते हुये पश्चिमी और पूर्वी समाजों के कल्चर की गलत व अभद्र बातों को रद्द करके आध्यात्म एंव अल्लाह पर यक़ीन  की भावना समाजों में फैला दी और यही वह माहौल था जिसमें बहादुर और ऐसे जवानों का प्रशिक्षण हुआ जिन्होने इस्लाम का बोलबाला करने में अपने ज़िंदगी को क़ुरबान करने में भी हिचकिचाहट से काम नहीं लिया।

पैगम्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद (स) की पैगम्बरी के ऐलान अर्थात बेसत की तारीख़ भी जल्दी ही गुज़री है इसलिये हम इमाम खुमैनी के कैरेक्टर पर इस पहलू से रौशनी डालने की कोशिश करेंगे कि उन्होने इस युग में किस तरह पैगम्बरे इस्लाम (स) के चरित्र और व्यवहार को व्यवहारिक रूप में पेश किया।

पश्चिमी दुनिया में घरेलू कामकाज को महत्वहीन समझा जाता है। यही कारण है कि अनेक महिलायें अपने समय को घर के बाहर गुज़ारने में ज़्यादा रूचि रखती हैं। जबकि पैगम्बरे इस्लाम (स) के हवाले से बताया जाता है कि पैगम्बरे इस्लाम (स) ने एक दिन अपने पास मौजूद लोगों से पूछा कि वह कौन से क्षण हैं जब औरत अल्लाह से बहुत क़रीब होती है? किसी ने भी कोई उचित जवाब नहीं दिया। जब हज़रत फ़ातिमा की बारी आई तो उन्होने कहा वह क्षण जब औरत अपने घर में रहकर अपने घरेलू कामों और संतान के प्रशिक्षण में व्यस्त होती है तो वह अल्लाह के बहुत ज़्यादा क़रीब होती है।  इमाम खुमैनी र.ह भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पदचिन्हों पर चलते हुये घर के माहौल में मां की भूमिका पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देते थे। कभी-कभी लोग इमाम ख़ुमैनी से कहते थे कि औरत क्यों घर में रहे तो वह जवाब देते थे कि घर के कामों को महत्वहीन न समझो, अगर कोई एक आदमी का प्रशिक्षण कर सके तो उसने समाज के लिये बहुत बड़ा काम किया है। मुहब्बत व प्यार औरत में बहुत ज़्यादा होता है और परिवार का माहौल और आधार प्यार पर ही होता है।

इमाम खुमैनी अपने अमल और व्यवहार में अपनी बीवी के बहुत अच्छे सहायक थे। इमाम खुमैनी की बीवी कहती हैः चूंकि बच्चे रात को बहुत रोते थे और सवेरे तक जागते रहते थे, इस बात के दृष्टिगत इमाम खुमैनी ने रात के समय को बांट दिया था। इस तरह से कि दो घंटे वह बच्चों को संभालते और मैं सोती थी और फिर दो घंटे वह सोते थे और मैं बच्चों को संभालती थी। अच्छी व चरित्रवान संतान, कामयाब ज़िंदगी का प्रमाण होती है। माँ बाप के लिये जो बात बहुत ज़्यादा महत्व रखती है वह यह है कि उनका व्यवसाय और काम तथा ज़िंदगी की कठिनाइयां उनको इतना व्यस्त न कर दें कि वह अपनी संतान के पालन पोषण एवं प्रशिक्षण की अनदेखी करने लगें।

पैगम्बरे इस्लाम (स) की हदीस हैः अच्छी संतान, जन्नत के फूलों में से एक फूल है इसलिये ज़रूरी है कि माँ-बाप अपने बच्चों के विकास और कामयाबियों के लिये कोशिश करते रहें।

इमाम ख़ुमैनी बच्चों के प्रशिक्षण की ओर से बहुत ज़्यादा सावधान रहते थे। उन्होने अपनी एक बेटी से, जिन्होंने अपने बच्चे की शैतानियों की शिकायत की थी कहा थाः उसकी शैतानियों को सहन करके तुमको जो सवाब मिलता है उसको मैं अपनी सारी इबादतों के सवाब से बदलने को तैयार हूं। इस तरह इमाम खुमैनी बताना चाहते थे कि बच्चों की शैतानियों पर क्रोधित न हों, और संतान के पालने पोसने में मायें जो कठिनाइयां सहन करती हैं वह अल्लाह की निगाह में भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और परिवार व समाज के लिये भी इनका महत्व बहुत ज़्यादा है।

इमाम खुमैनी र.ह के क़रीबी संबंधियों में से एक का कहना है कि इमाम खुमैनी का मानना था कि बच्चों को आज़ादी दी जाए। जब वह सात साल का हो जाये तो उसके लिये सीमायें निर्धारित करो। वह इसी तरह कहते थे कि बच्चों से हमेशा सच बोलें ताकि वह भी सच्चे बनें, बच्चों का आदर्श हमेशा माँ बाप होते हैं। अगर उनके साथ अच्छा व्यवहार करें तो वह अच्छे बनेंगे। आप बच्चे से जो बात करें उसे व्यवहारिक बनायें।

हजरत मोहम्मद (स) बच्चों के प्रति बहुत कृपालु थे। उन्हें चूमते थे और दूसरों से भी ऐसा करने को कहते थे। बच्चों से प्यार करने के संबंध में वह कहते थेः जो भी अपनी बेटी को ख़ुश करे तो उसका सवाब ऐसा है जैसे हजरत इस्माईल पैगम्बर की संतान में से किसी दास को ग़ुलामी से आज़ाद किया हो और वह आदमी जो अपने बेटे को ख़ुश करे वह ऐसे आदमी की तरह है जो अल्लाह के डर में रोता रहा हो और ऐसे आदमी का इनाम व पुरस्कार जन्नत है।

पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ज़िंदगी बहुत ही साधारण, बल्कि साधारण से भी नीचे स्तर की थी।  हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके ज़िंदगी के बारे में बताते हैं कि पैग़म्बर (स) ग़ुलामों की दावत को स्वीकार करके उनके साथ भोजन कर लेते थे।  वह ज़मीन पर बैठते और अपने हाथ से बकरी का दूध दूहते थे।  जब कोई उनसे मिलने आता था तो वह टेक लगाकर नहीं बैठते थे।  लोगों के सम्मान में वह कठिन कामों को भी स्वीकार कर लेते और उन्हें पूरा करते थे।

इमाम ख़ुमैनी र.ह भी अपनी ज़िंदगी के सभी चरणों में चाहे वह क़ुम के फ़ैज़िया मदरसे में उनकी पढ़ाई का ज़माना रहा हो या इस्लामी रिपब्लिक ईरान की लीडरशिप का समय उनकी ज़िंदगी हमेशा, साधारण स्तर की रही है।  वह कभी इस बात को स्वीकार नहीं करते थे कि उनकी ज़िंदगी का स्तर देश के साधारण लोगों के स्तर से ऊपर रहे।

इमाम ख़ुमैनी के एक साथी का कहना है कि जब वह इराक़ के पाक शहर नजफ़ में रह रहे थे तो उस समय उनका घर, किराये का घर था जो नया नहीं था।  वह ऐसा घर था जिसमें साधारण स्टूडेंट्स रहते थे।  इस तरह से कहा जा सकता है कि इमाम ख़ुमैनी की जीवन स्तर साधारण स्टूडेंट्स ही नहीं बल्कि उनसे भी नीचे स्तर का था।  ईरान में इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद हुकूमती सिस्टम का नेतृत्व संभालने के बाद से अपनी ज़िंदगी के अंत तक जमारान इमामबाड़े के पीछे एक छोटे से घर में रहे।  उनकी ज़िंदगी का आदर्श चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) थे इसलिये उन्होंने अपने घर के भीतर आराम देने वाला कोई छोटा सा परिवर्तन भी स्वीकार नहीं किया और इराक़ द्वारा थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध में भी वह अपने उसी साधारण से पुराने घर में रहे और वहीं पर अपने छोटे से कमरे में दुनिया के नेताओं से मुलाक़ात भी करते थे।

पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण, व्यवहार और शिष्टाचार के दृष्टिगत इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेतृत्व की कठिनाइयों को कभी बयान नहीं किया और कभी भी स्वयं को दूसरों से आगे लाने की कोशिश भी नहीं की। वह हमेशा यही मानते और कहते रहे कि “मुझे अगर जनता का सेवक कहो तो यह इससे अच्छा है कि मुझे नेता कहो”।

इमाम ख़ुमैनी जब भी जंग के जियालों के बीच होते तो कहते थे कि मैं जेहाद और शहादत से पीछे रह गया हूं इसलिये आपके सामने लज्जित हूं।  जंग में हुसैन फ़हमीदे नामक नौजवान के शहीद होने के बाद उसके बारे में इमाम ख़ुमैनी का यह कहना बहुत मशहूर है कि हमारा नेता बारह साल का वह किशोर है जिसने अपने नन्हे से दिल के साथ, जिसकी क़ीमत हमारी सैकड़ों ज़बानों और क़लम से बढ़कर है हैंड ग्रेनेड के साथ ख़ुद को दुश्मन के टैंक के नीचे डाल दिया, उसे उड़ा दिया और ख़ुद भी शहीद हो गया।

लोगों के प्यार का पात्र बनना और उनके दिलों पर राज करना, विभिन्न कारणों से होता है और उनकी अलग-अलग सीमाएं होती हैं।  कभी भौतिक कारण होते हैं और कभी निजी विशेषताएं होती हैं जो दूसरों को आकर्षित करती हैं और कभी यह कारण आध्यात्मिक एवं इलाही होते हैं और आदमी की विशेषताएं अल्लाह और धर्म से जुड़ी होती हैं।  अल्लाह ने पाक क़ुरआन में वचन दिया है कि जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए और भले काम करते हैं, अल्लाह उनका प्यार दिलों में डाल देता है।  इस इलाही वचन को पूरा होते हम सबसे ज़्यादा हज़रत मुहम्मद (स) के कैरेक्टर में देखते हैं कि जिनका प्यार दुनिया के डेढ अरब मुसलमानों के दिलों में बसा हुआ है।

इमाम ख़ुमैनी भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्यार में डूबे हुए दिल के साथ इस ज़माने के लोगों के दिलों में बहुत बड़ी जगह रखते हैं।  इमाम ख़ुमैनी के बारे में उनके संपर्क में आने वाले ईरानियों ने तो उनके कैरेक्टर के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा है ही, विदेशियों ने भी माना है कि इमाम ख़ुमैनी समय और स्थान में सीमित नहीं थे।  दुनिया के विभिन्न नेताओं यहां तक कि अमरीकियों में भी जिसने इमाम ख़ुमैनी से मुलाक़ात की वह उनके कैरेक्टर और बातों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका।  इमाम ख़ुमैनी पूरे संतोष के साथ साधारण शब्दों में ठोस और सुदृढ़ बातें करते थे।  उनके शांत मन और ठोस संकल्प को बड़ी से बड़ी घटनाएं और ख़तरे भी प्रभावित नहीं कर पाते थे।  दुनिया को वह अल्लाह का दरबार मानते थे और अल्लाह की कृपा और मदद पर पूरा यक़ीन रखते थे तथा यह विषय, नेतृत्व संबन्धी उनके इरादों के बारे में बहुत प्रभावी था।  इस बात को साबित करने के लिए बस यह बताना काफ़ी होगा कि जब सद्दाम की फ़ौज ने इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के फ़ौरन बाद ईरान पर अचानक हमला किया तो इमाम ख़ुमैनी ने जनता से बड़े ही सादे शब्दों में कहा था कि “एक चोर आया, उसने एक पत्थर फेंका और भाग गया”।  इमाम के यह सादे से शब्द, रौशनी और शांति का स्रोत बनकर लोगों में शांति तथा हिम्मत भरने लगे और चमत्कार दिखाने लगे।  हमारी दुआ है कि उनकी आत्मा शांत और उनकी याद सदा जीवित रहे।

हज़रत इमाम ख़ुमैनी (र) ने उसी समय इन परिवर्तनों पर गहरी नज़र डाली और वे इस मामले में चिंतित थे कि कहीं ऐसा न हो कि पूर्वी ब्लॉक का पतन पश्चिमी ब्लॉक की सफलता साबित हो और पूर्वी ब्लॉक के देश भी पश्चिम और अमेरिका की गोदी में चले जाएं और पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था को आदर्श के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित हो जाएं।

दो दशको के दौरान इस्लामी क्रांति के प्रभाव और प्रतिक्रिया केवल ईरान के भीतर, मध्य पूर्व या मुस्लिम जगत तक सीमित नहीं थे, बल्कि ऐसा लगता है कि इस क्रांति ने क्षेत्र से परे, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर भी अपने प्रभाव डाले हैं।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि ईरान में इस्लामी क्रांति एक ऐसे समय में हुई, जब दुनिया पर द्विध्रुवीय व्यवस्था हावी थी और दुनिया दो ब्लॉकों, पूर्व और पश्चिम में विभाजित थी। दुनिया की दो बड़ी ताकतें, यानी अमेरिका और सोवियत संघ, इन दो ब्लॉकों की नेतृत्व कर रही थीं। हालांकि 1957 में 'तीसरी दुनिया' या 'गैर-संरेखित देशों' का एक गठबंधन अस्तित्व में आया था और धीरे-धीरे आकार ले रहा था, लेकिन यह गठबंधन द्विध्रुवीय व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद द्विध्रुवीय व्यवस्था के अस्तित्व में आने के समय से यह सवाल उठता रहा था और व्यवहार में इसका परीक्षण किया जा रहा था कि दुनिया में होने वाली हर घटना या परिवर्तन या विभिन्न देशों के सिस्टम में होने वाली कोई भी बदलाव एक ब्लॉक की ताकत के संतुलन में लाभ या नुकसान के रूप में परिवर्तन ला सकती है। इसलिए इन दोनों बड़ी शक्तियों का मुकाबला इस घटना के अस्तित्व में आने और इसके कार्यप्रणाली के दायरे में महत्वपूर्ण था। द्विध्रुवीय व्यवस्था का चालीस साल का ऐतिहासिक अनुभव इस सिद्धांत का समर्थन करता है।

1949 में चीन की क्रांति की सफलता, 1952 में कोरिया युद्ध, मध्य पूर्व के अरब देशों में सैनिक विद्रोह, हंगरी संकट, बर्लिन दीवार, क्यूबा मिसाइल संकट और इसी तरह वियतनाम युद्ध कुछ ऐसे घटनाएँ थीं जो इन दो बड़ी शक्तियों में से एक की सहायता से घटीं और टकराव का कारण बनीं।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि ईरान में क्रांति से पहले होने वाली घटनाओं में भी इन दोनों बड़ी शक्तियों की प्रतिस्पर्धा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, इस संदर्भ में सोवियत सैनिकों के माध्यम से अजरबैजान पर कब्जा, तेल के राष्ट्रीयकरण की मुहिम 28 मर्दाद (19 अगस्त) की साजिश और 1950 के दशक की घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। हालांकि 1953 में तख्तापलट की साजिश के बाद ईरान को पश्चिमी ब्लॉक के एक हिस्से के रूप में पहचाना गया था और पश्चिमी सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक समझौतों में सदस्यता प्राप्त करने के कारण यह उसका अभिन्न हिस्सा था, फिर भी ईरान की 2500 किलोमीटर लंबी सीमा पूर्वी शक्ति से साझा होने और असाधारण सैनिक परिस्थितियों के मद्देनजर सोवियत संघ की सरकार ईरान के मामलों के बारे में निश्चिंत नहीं रह सकती थी और सामान्यत: ईरान के बाहरी मामलों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी।

इमाम खुमैनी (रह.) की नेतृत्व में इस्लामी आंदोलन की शुरुआत से 5 जून 1963 को इसके चरम तक पहुँचने के बावजूद इमाम (रह.) के हमलों का मुख्य निशाना अक्सर अमेरिका हुआ करता था, फिर भी यह तथ्य सोवियत संघ के लिए इस अमेरिका विरोधी आंदोलन के बारे में सकारात्मक रुख अपनाने का कारण नहीं बना। सोवियत संघ ने न केवल इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया, बल्कि एक अजीब स्थिति में यह देखा गया कि इस जन क्रांति के खिलाफ अमेरिका के सहयोगी देशों की तरह उसने नकारात्मक रुख अपनाया। यह नीति दो कारणों से थी:

आंदोलन की धार्मिक और इस्लामी प्रकृति। पूर्व और पश्चिम की शक्तियों के बीच आपसी मतभेद होने के बावजूद, वे धार्मिक, विशेषकर इस्लामी आंदोलनों के खिलाफ समान रुख रखते थे।

इमाम खुमैनी (रह.) ने अपने आंदोलन की शुरुआत में ही इन दोनों बड़ी शक्तियों के बारे में अपनी स्थिति घोषित की थी और उनका प्रसिद्ध वाक्य था: "अमेरिका इंग्लैंड से बदतर है, इंग्लैंड अमेरिका से बदतर है और सोवियत संघ दोनों से बदतर है, ये सभी एक दूसरे से अधिक गंदे हैं, लेकिन आज हमारा काम इन दुष्टों से है, अमेरिका से है।" और या यह मतलब था कि "हम अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद से उतनी ही लड़ाई में हैं जितनी पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों से अमेरिका की नेतृत्व में हैं।"

इन वाक्यों में इन दोनों बड़ी शक्तियों के लिए यह संदेश था कि दोनों शक्तियाँ इस आंदोलन के बढ़ने और सफल होने से नुकसान उठा चुकी हैं और इस क्रांति ने वैश्विक व्यवस्था में उनकी श्रेष्ठता को चुनौती दी है।

1978 और 1979 में इस्लामी क्रांति के शिखर तक पहुँचने और "न पूर्व, न पश्चिम, इस्लामी लोकतंत्र" का नारा लगाने के बाद, दोनों बड़ी शक्तियों द्वारा शाह का समर्थन और इस्लामी क्रांति के शत्रुओं, विशेष रूप से इराकी सरकार द्वारा सामूहिक रूप से युद्ध में मदद करना यह साबित करता है कि इस्लामी क्रांति द्विध्रुवीय व्यवस्था के लिए अस्वीकार्य थी, बल्कि क्रांतिकारी मुस्लिमों द्वारा प्राप्त सफलता और जन सेना और स्वयंसेवकों की इराक-ईरान युद्ध के दौरान स्थिरता और दृढ़ता ने द्विध्रुवीय व्यवस्था की नींव की कमजोरी को साबित किया।

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस्लामी क्रांति की सफलता और इसकी दोनों बड़ी शक्तियों में से किसी एक पर निर्भर न होने की नीति द्विध्रुवीय व्यवस्था के पतन में प्रभावी थी।

मिखाइल गोर्बाचोव के कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सचिव और सोवियत संघ के राष्ट्रपति के रूप में सत्ता में आने और "पेरिस्ट्रोइका" और "ग्लासनोस्त" पर आधारित नीति पेश करने के परिणामस्वरूप, पूर्वी ब्लॉक और साथ ही द्विध्रुवीय व्यवस्था के पतन के संकेत दिखाई देने लगे।

इमाम खुमैनी (रह.) ने इसी समय में इन परिवर्तनों पर गहरी नजर डाली और वह इस बारे में चिंतित थे कि कहीं ऐसा न हो कि पूर्वी ब्लॉक का पतन पश्चिमी ब्लॉक की सफलता साबित हो और पूर्वी ब्लॉक के देश भी पश्चिम और अमेरिका की गोद में चले जाएं और पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था को मॉडल के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। उन्होंने गोर्बाचोव को भेजे गए अपने एक ऐतिहासिक पत्र में उसे इन खतरों से आगाह किया और पूर्वी ब्लॉक की असली समस्या, यानी भगवान से युद्ध, के बारे में उसे चेतावनी दी और पूरी ताकत से ऐलान किया कि इस्लाम का सबसे बड़ा और शक्तिशाली केंद्र, इस्लामी गणराज्य ईरान, सोवियत संघ के लोगों के धार्मिक शून्यता को भर सकता है।

सुप्रीम लीडर ने 8 फ़रवरी सन 1979 को एयरफ़ोर्स के विशेष दस्ते "हुमाफ़रान" की ओर से इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की ‘बैअत’ (आज्ञापालन का एलान) किए जाने की घटना की सालगिरह के मौक़े पर हर साल की तरह इस साल भी इस्लामी गणराज्य ईरान की एयरफ़ोर्स और एयर डिफ़ेंस विभाग के कमांडरों और जवानों से शुक्रवार 7 फ़रवरी 2025 को तेहरान के इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में मुलाक़ात की और इस ऐतिहासिक दिन को कामयाब आत्मनिर्भर और पहचान से समृद्ध सेना का जन्म दिवस कहा।

सुप्रीम लीडर ने 8 फ़रवरी सन 1979 को एयरफ़ोर्स के विशेष दस्ते "हुमाफ़रान" की ओर से इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की ‘बैअत’ (आज्ञापालन का एलान) किए जाने की घटना की सालगिरह के मौक़े पर हर साल की तरह इस साल भी इस्लामी गणराज्य ईरान की एयरफ़ोर्स और एयर डिफ़ेंस विभाग के कमांडरों और जवानों से शुक्रवार 7 फ़रवरी 2025 को तेहरान के इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में मुलाक़ात की और इस ऐतिहासिक दिन को कामयाब आत्मनिर्भर और पहचान से समृद्ध सेना का जन्म दिवस कहा।

हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने वार्ता के संबंध में अख़बारों और सोशल मीडिया पर होने वाली बहसों और बातों और इस संदर्भ में कुछ लोगों की बयानों की ओर इशारा किया और कहा कि इन बातों का मुख्य बिंदु अमरीका से वार्ता का विषय है और वार्ता को एक अच्छी चीज़ के तौर पर याद करते हैं मानो कोई वार्ता के अच्छा होने का विरोधी भी है।

 उन्होंने देश के विदेश मंत्रालय की वार्ता के मैदान में व्यस्तता और दुनिया के सभी देशों में आवाजाही और उनके साथ समझौते करने का ज़िक्र किया और बल दिया कि इस संबंध में सिर्फ़ एक अपवाद मौजूद है और वह अमरीका है। अलबत्ता ज़ायोनी शासन का नाम अपवाद में इसलिए नहीं है क्योंकि यह शासन अस्ल में सरकार नहीं बल्कि एक अपराधी और एक सरज़मीन पर नाजायज़ क़ब्ज़ा करने वाला गैंग है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने वार्ता से अमरीका को अपवाद रखने की वजह को बयान करते हुए कहाः "कुछ लोग ऐसा ज़ाहिर करते हैं कि अगर वार्ता की मेज़ पर बैठेंगे तो मुल्क की फ़ुलां मुश्किल हल हो जाएगी लेकिन जिस हक़ीक़त को हमें सही तरह समझना चाहिए वह यह है कि अमरीका के साथ वार्ता मुल्क की मुश्किल को हल करने में कोई असर नहीं रखती।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने मौजूदा सदी के दूसरे दशक में अमरीका सहित कुछ दूसरे देशों से क़रीब दो साल वार्ता के नतीजे में होने वाले समझौते और इस समझौते के कड़वे अनुभव को, अमरीका के साथ वार्ता के बेफ़ायदा होने की दलील बताया और कहा कि हमारी तत्कालीन सरकार ने उनके साथ बैठक की, अधिकारी आए-गए, वार्ता की, हंसे, हाथ मिलाया, दोस्ती की, सभी काम किए और एक समझौता हुआ कि जिसमें ईरानी पक्ष ने सामने वाले पक्ष के साथ बहुत ज़्यादा उदारता दिखाई और उसे ज़्यादा कंसेशन दिए लेकिन अमरीकियों ने उस पर अमल नहीं किया। 

उन्होंने अमरीका के मौजूदा राष्ट्रपति के, उनके इससे पहले वाले दौर में परमाणु समझौते जेसीपीओए को फाड़ने और उस पर अमल न करने से संबंधित बयान की ओर इशारा करते हुए कहा कि उनसे पहले वाली सरकार ने भी जिसने समझौते को क़ुबूल किया था, उस पर अमल नहीं किया, तय यह हुआ था कि पाबंदियां हटा ली जाएंगी, लेकिन नहीं हटायी गयीं और संयुक्त राष्ट्र संघ के संबंध में भी मुश्किल हल नहीं हुयी ताकि वह ईरान के सर पर ख़तरे के तौर पर हमेशा मौजूद रहे।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने 2 साल की वार्ता, उसमें कंसेशन देने और पीछे हटने के बावजूद उसका नतीजा न मिलने के अनुभव से फ़ायदा उठाने पर बल दिया और कहा कि अमरीका ने उस समझौते का कि जिसमें कमियां थीं, उल्लंघन किया और उससे निकल गया, इसलिए ऐसी सरकार से वार्ता अक़्लमंदी नहीं है,

समझदारी नहीं है, शराफ़तमंदाना नहीं है, उससे वार्ता नहीं करनी चाहिए। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने मुल्क की भीतरी और अवाम के बड़े भाग की आर्थिक मुश्किलों की ओर इशारा करते हुए कहा कि जो चीज़ मुश्किल को हल करती है वह आंतरिक तत्व यानी प्रतिबद्ध अधिकारियों की हिम्मत और एकजुट राष्ट्र का सहयोग है कि जिसका प्रतीक 11 फ़रवरी की रैली है और इसमें इंशाअल्लाह इस साल भी हम इस एकता को देखेंगे। 

उन्होंने अमरीकियों की दुनिया के नक़्शे को बदलने की कोशिश की ओर इशारा किया और कहा कि इस काम की कोई हक़ीक़त नहीं है बल्कि यह सिर्फ़ काग़ज़ पर है, अलबत्ता वे हमारे बारे में भी विचार व्यक्त करते हैं, बात करते हैं और धमकी देते हैं। 

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने बल देकर कहा कि अगर उन्होंने हमको धमकी दी तो हम भी उन्हें धमकी देंगे, अगर उन्होंने अपनी धमकी पर अमल किया तो हम भी अपनी धमकी पर अमल करेंगे और अगर हमारी राष्ट्रीय सुरक्षा पर हमला हुआ तो निश्चित तौर पर हम भी उन पर हमला करेंगे।

 आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अपनी स्पीच के दूसरे भाग में 8 फ़रवरी सन 1979 को एक यादगार व शानदार दिन बताया और कहा कि उन जवानों के शौर्य से भरे क़दम ने, नई सेना के लिए मार्ग निर्धारित कर दिया जो इस बात का सबब बना कि सेना के मुख़्तलिफ़ तत्व और कैडर, उस आज्ञापलन से प्रेरित होकर राष्ट्र से मिल जाएं।

 आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने अमरीका के सैन्य तंत्र के अधीन काम करने वाली देश की सेना की स्थिति के संबंध में पहलवी शासन की ओर से उठाए गए क़दम की ओर इशारा करते हुए कहा कि सैन्य संगठन, उसके हथियार और सैनिकों की ट्रेनिंग अमरीकियों के हाथ में थी।

अहम उपकरणों स्थापित करने और हथियारों को किस तरह इस्तेमाल करना है, इस संबंध में भी अमरीकियों की इजाज़त लेनी पड़ती थी और निर्भरता इस हद तक थी कि ईरानियों को कलपुर्ज़े खोलने और उसकी मरम्मत करने की भी इजाज़त नहीं थी।

उन्होंने अक्तूबर सन 1964 में कैप्चुलेशन क़ानून के विरोध में इमाम ख़ुमैनी के भाषण को, सेना और मुल्क पर अमरीका के अपमानजनक वर्चस्व पर किया गया एतेराज़ बताया और कहा कि कैप्चुलेशन क़ानून की बुनियाद पर कि जिसे राष्ट्रपति से लेकर पहलवी शासन के निचले अधिकारियों तक सबने क़ुबूल किया था, कोई भी अमरीकी जो भी जुर्म करता उसके ख़िलाफ़ ईरान में कोई भी न्यायिक कार्यवाही नहीं हो सकती थी।

आंतरिक मंत्री टोनी बर्क ने इन कानूनों को "ऑस्ट्रेलिया के इतिहास में नफरत आधारित अपराधों के खिलाफ नाजी सलामी पर अनिवार्य जेल सजा के कानून को अब तक का सबसे कड़ा कानून" बताया।

यहूदियों के खिलाफ हाल की बढ़ती नफरत को रोकने के लिए ऑस्ट्रेलिया ने नफरत आधारित अपराधों के खिलाफ सख्त कानून पेश किए हैं, जिनमें सार्वजनिक रूप से नाजी सलामी देने पर अनिवार्य जेल सजा का प्रावधान है। नए कानूनों के तहत नफरत आधारित अपराधों और नफरत प्रतीकों की प्रदर्शनी पर कम से कम 12 महीने की सजा और आतंकवाद से जुड़े अपराधों के लिए कम से कम 6 साल की सजा का प्रावधान है। आंतरिक मंत्री टोनी बर्क ने कहा कि ये बदलाव "ऑस्ट्रेलिया के इतिहास में नफरत आधारित अपराधों के खिलाफ अब तक के सबसे कड़े कानून हैं"।

ऑस्ट्रेलियाई प्रधानमंत्री एंथनी अल्बेनीज़ ने स्काई न्यूज से कहा, "मैं चाहता हूं कि जो लोग यहूदी विरोधी गतिविधियों में शामिल हैं, उनका हिसाब लिया जाए, उन पर आरोप लगाया जाए और उन्हें जेल में डाला जाए।" यह ध्यान देने योग्य है कि अल्बेनीज़ ने पहले नफरत आधारित अपराधों के लिए अनिवार्य कम से कम सजा के खिलाफ आपत्ति जताई थी। अल्बेनीज़ को दाएंपंथी विपक्षी दलों ने यहूदियों के खिलाफ बढ़ते अपराधों से निपटने में असफल रहने पर आलोचना का शिकार किया है। लिबरल-नेशनल गठबंधन ने पिछले महीने नफरत से जुड़े अपराधों के बिल में अनिवार्य न्यूनतम सजा को शामिल करने की मांग की थी।

सरकार ने पहली बार नफरत आधारित अपराधों के कानून को पिछले साल संसद में पेश किया था, जिसमें नस्ल, धर्म, जातीयता, राष्ट्रीय या नस्ली मूल, राजनीतिक विचार, लिंग, यौन अभिविन्यास, लिंग पहचान और अंतर लिंग स्थिति जैसे आधारों पर शक्ति या हिंसा की धमकियां देने जैसे अपराधों को शामिल किया गया था।

ऑस्ट्रेलिया में अधिकतर यहूदी विरोधी हमले न्यू साउथ वेल्स राज्य में हुए हैं। बुधवार को राज्य ने घोषणा की कि पश्चिमी ऑस्ट्रेलिया और विक्टोरिया में पहले से मौजूद कानूनों को नफरत आधारित भाषण के खिलाफ और अधिक सख्त किया जाएगा। यह भी ध्यान देने योग्य है कि पिछले कुछ महीनों में ऑस्ट्रेलिया भर में यहूदी पूजा स्थलों, इमारतों और कारों पर हमलों में वृद्धि हुई है। हाल ही में सिडनी में एक कारवां में विस्फोटक सामग्री बरामद हुई थी, जिसके साथ यहूदी लक्ष्यों की सूची भी मिली थी।

हमास की नेतृत्व परिषद के प्रमुख और सदस्यों ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से शनिवार 8 फ़रवरी 2025 को सुबह तेहरान में मुलाक़ात की।

हमास की नेतृत्व परिषद के प्रमुख और सदस्यों ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से शनिवार 8 फ़रवरी 2025 को सुबह तेहरान में मुलाक़ात की।

इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में हमास की नेतृत्व परिषद के प्रमुख मोहम्मद इस्माईल दरवीश ने ग़ज़ा में रेज़िस्टेंस की बड़ी जीत की बधाई देते हुए इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से कहा, "हम इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के दिनों में ग़ाज़ा में रेज़िस्टेंस को मिलने वाली कामयाबी को अच्छे शगून के तौर पर देखते हैं और हमें उम्मीद है कि यह घटना क़ुद्स और मस्जिदुल अक़्सा की आज़ादी की भूमिका बनेगी।

हमास के पोलित ब्यूरो के उपप्रमुख ख़लील अलहय्या ने भी इस मुलाक़ात के आग़ाज़ में ग़ज़ा में रेज़िस्टेंस की कामयाबी की बधाई देते हुए इस्लामी इंक़ेलाब के नेता से कहा, "आज हम ऐसी हालत में आप से मुलाक़ात के लिए आए हैं कि हम सब कामयाब हुए हैं और यह बड़ी कामयाबी हमारी और इस्लामी गणराज्य की संयुक्त कामयाबी है।"

आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने भी इस मुलाक़ात में ग़ज़ा के शहीदों, शहीद कमांडरों और ख़ास तौर पर शहीद इस्माईल हनीया के प्रति आदरभाव प्रकट करते हुए हमास के नेताओं से कहा, "अल्लाह ने आपको और ग़ज़ा के अवाम को इज़्ज़त और कामयाबी दी और ग़ज़ा इस आयत की मिसाल क़रार पाया जिसमें वह कहता, "ख़ुदा के हुक्म से कई छोटी जमाअतें बड़ी जमाअतों पर ग़ालिब आ जाती हैं..." इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने बल दिया कि आप ज़ायोनी शासन पर हावी हो गए बल्कि हक़ीक़त में आप अमरीका पर हावी हो गए और अल्लाह की कृपा से वे अपने किसी भी लक्ष्य तक नहीं पहुंच पाए।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने पिछले डेढ़ साल से ग़ज़ा के अवाम की मुसीबतों की ओर इशारा करते हुए, कहा कि इन सभी तकलीफ़ों और मुसीबतों का नतीजा अंत में बातिल पर हक़ की जीत थी और ग़ज़ा के अवाम उन सभी लोगों के लिए जो दिल से रेज़िस्टेंस के साथ हैं, आदर्श हो गए।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने हमास के वार्ताकारों की सराहना करते हुए, समझौते से हासिल हुयी उपलब्धि को बहुत अहम बताया और कहा कि आज पूरे इस्लामी जगत और रेज़िस्टेंस का सपोर्ट करने वाले सभी लोगों का यह फ़रीज़ा है कि ग़ज़ा के अवाम की उनकी तकलीफ़ों और दुखों को कम करने के लिए मदद करें।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने सांस्कृतिक कामों और मौजूदा मार्ग को जारी रखने के लिए सैन्य मामलों के साथ साथ प्रचारिक कामों को जारी रखने और ग़ज़ा के पुनर्निर्माण पर ज़ोर दिया और कहा, "रेज़िस्टेंस फ़ोर्सेज़ और हमास ने प्रचारिक और मीडिया के क्षेत्र में अच्छा काम किया और इसी स्ट्रैटेजी को जारी रखना चाहिए।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने ईमान को दुश्मन के मुक़ाबले में रेज़िस्टेंस मोर्चे का मुख्य तत्व और असमान हथियार बताया और कहा कि इसी ईमान की वजह से इस्लामी गणराज्य और रेज़िस्टेंस मोर्चा दुश्मनों के मुक़ाबले में कमज़ोरी महसूस नहीं करता।

आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने इस्लामी गणराज्य और ईरानी अवाम को अमरीका की हालिया धमकियों की ओर इशारा करते हुए बल दिया कि इस तरह की धमकियों से हमारी क़ौम, हमारे अधिकारी, जवान नस्ल और मुल्क के लोग तनिक भी प्रभावित नहीं होते।  उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीन की रक्षा और फ़िलिस्तीन के अवाम के प्रति सपोर्ट के मसले में भी ईरानी अवाम के मन में किसी तरह का कोई सवाल नहीं है और यह एक तयशुद मसला है।

इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने कहा कि फ़िलिस्तीन का मसला हमारे लिए मुख्य मसला और फ़िलिस्तीन की फ़तह हमारे लिए एक यक़ीनी हक़ीक़त है।  उन्होंने इस बात पर बल देते हुए कि आख़िरकार निश्चित फ़तह फ़िलिस्तीनी अवाम की ही होगी, कहा कि वाक़यात और उतार चढ़ाव, संदेह का सबब न बनने पाएं बल्कि ईमान और उम्मीद की ताक़त के साथ आगे बढ़ना चाहिए और अल्लाह की मदद की ओर से आशावान रहना चाहिए।

उन्होंने आख़िर में हमास के नेताओं से कहा कि अल्लाह की कृपा से वह दिन ज़रूर आएगा जब आप फ़ख़्र के साथ इस्लामी जगत के लिए क़ुद्स के मसले को हल कर चुके होंगे और वह दिन निश्चित तौर पर आएगा।

इस मुलाक़ात में हमास की नेतृत्व परिषद के प्रमुख मोहम्मद इस्माईल दरवीश, हमास के पोलित ब्यूरो के उपप्रमुख ख़लील अलहय्या और वेस्ट बैंक में हमास के प्रमुख ज़ाहिर जब्बारीन ने रेज़िस्टेंस के शहीद नेताओं ख़ास तौर पर इस्माईल हनीया, शहीद हसन नसरुल्लाह, शहीद यहया सिनवार और शहीद सालेह अलआरूरी को श्रद्धांजलि पेश की और वेस्ट बैंक और इसी तरह हासिल होने वाली जीत और कामयाबियों और मौजूदा हालात के बारे में एक रिपोर्ट पेश की और इस्लामी गणराज्य ईरान और ईरानी अवाम की ओर से हमेशा से जारी सपोर्ट का शुक्रिया अदा किया।

जर्मन चांसलर ने गाजा से फिलिस्तीनियों को जबरन बाहर निकालने की योजना का कड़ा विरोध करने की घोषणा की है।

जर्मन चांसलर ओलाफ शोल्ज़ ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप की उस योजना का कड़ा विरोध किया है, जिसमें ग़ज़्ज़ा के निवासियों को जबरन वहां से निकालकर मिस्र और जॉर्डन में बसाने का प्रस्ताव दिया गया है।

रिपोर्ट के अनुसार, ओलाफ शोल्ज़ ने कहा, "मैं ग़ज़्ज़ा के निवासियों की जबरन बेदखली से संबंधित ट्रंप की योजना का पूरी तरह से विरोध करता हूं। फिलिस्तीनियों का मिस्र और जॉर्डन में बसाया जाना अस्वीकार्य और अव्यावहारिक है।"

यह ध्यान देने योग्य है कि अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने ग़ज़्ज़ा से फिलिस्तीनियों की बेदखली के बाद अमेरिकी कब्जे की भी योजना पेश की थी, जिसे अधिकांश अरब देशों और सभी फिलिस्तीनी समूहों ने नकारा है। इसके अलावा, कई इस्लामी और यूरोपीय देशों ने भी ट्रंप की इस योजना का विरोध किया है।