
رضوی
इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन का उद्देश्य मीडिया द्वारा वर्णित किया जाना चाहिए
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन क़बांची ने कहा: हमें इस युग के दौरान मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) के आंदोलन के उद्देश्य को समझाने की ज़रूरत है, इसलिए हमें इसे सार्वजनिक करना चाहिए और इसे सभी तक फैलाना चाहिए।
नजफ अशरफ के इमामे जुमा हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन सैयद सदरुद्दीन कबांची ने नजफ अशरफ में हुसैनियाह फातिमा में नमाज जुमा के खुत्बे मे कहा: हमारा लक्ष्य मीडिया के माध्यम से इमाम हुसैन (अ) को बढ़ावा देना है। मुझे समझाने की जरूरत है इसलिए हमें इसे पूरी दुनिया में प्रचारित और प्रसारित करना चाहिए।
अंतर्राष्ट्रीय युवा दिवस के अवसर पर बोलते हुए, उन्होंने कहा: इस्लाम कहता है कि युवाओं को मार्गदर्शन करने के अलावा, उनके पास कुछ अन्य अधिकार भी हैं, अल्लाह के रसूल (स) एक हदीस में कहा गया है: मैं आपकी कामना करता हूं युवाओं के प्रति दयालु रहें, क्योंकि युवा सबसे दयालु लोग हैं।
इमाम जुमा नजफ अशरफ ने कहा: लेकिन पश्चिमी सभ्यता कहती है कि युवाओं को भटकने का पूरा अधिकार है।
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लेमीन कबानची ने कहा: गाजा के शहीदों की संख्या 40 हजार तक पहुंच गई है और यहूदियों का कहना है कि गाजा के लोगों और उनके बच्चों का नरसंहार किया जाना चाहिए और यह नरसंहार हमारा अधिकार है और न्याय कहता है कि हम उनका नरसंहार करते हैं।
उन्होंने कहा: इज़राइल के सामने आत्मसमर्पण करने का मतलब है दो मिलियन फ़िलिस्तीनियों को मारना, इसलिए प्रतिरोध हर कीमत पर जारी रहना चाहिए और भगवान ने हमें जीत का वादा किया है और हमारी जीत होगी।
नजफ अशरफ के इमाम जुमा ने कहा: इमाम हुसैन (अ) का दौरा करना बहुत सराहनीय है और इस संबंध में इमाम अतहर (अ) की ओर से अनगिनत परंपराएं रही हैं।
इमाम हुसैन की विचारधारा जीवन्त और प्रेरणादायक
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन, एक एसी घटना है जिसमें प्रेरणादायक और प्रभावशाली तत्वों की भरमार है। यह आंदोलन इतना शक्तिशाली है जो हर युग में लोगों को संघर्ष और प्रयास पर प्रोत्साहित कर सकता है। निश्चित रूप से यह विशेषताएं उन ठोस विचारों के कारण हैं जिन पर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आंदोलन आधारित है।
इस आंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मूल उद्देश्य ईश्वरीय कर्तव्यों का पालन था। ईश्वर की ओर से जो कुछ कर्तव्य के रूप में मनुष्य के लिए अनिवार्य किया गया है वह वास्तव में हितों की रक्षा और बुराईयों से दूरी के लिए है। जो मनुष्य उपासक के महान पद पर आसीन होता है और जिसके लिए ईश्वर की उपासना गर्व का कारण होता है, वह ईश्वरीय कर्तव्यों के पालन और ईश्वर को प्रसन्न करने के अतिरिक्त किसी अन्य चीज़ के बारे में नहीं सोचता। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कथनों और उनके कामों में जो चीज़ सब से अधिक स्पष्ट रूप से नज़र आती है वह अपने ईश्वरीय कर्तव्य का पालन और इतिहास के उस संवेदनशील काल में उचित क़दम उठाना है। इस उद्देश्य की पूर्ति के लिए बुराईयों से रोकने की इमाम हुसैन की कार्यवाही, उनके विभिन्न प्रयासों का ध्रुव रही है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एक उद्देश्य, ऐसी प्रक्रिया से लोहा लेना था जो धर्म और इस्लामी राष्ट्र की जड़ों को खोखली कर रहे थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने एसे मोर्चे से टकराने का निर्णय लिया जो समाज को धर्म की सही विचारधारा और उच्च मान्यताओं से दूर करने का प्रयास कर रही थी। यह भ्रष्ट प्रक्रिया, यद्यपि धर्म और सही इस्लामी शिक्षाओं से दूर थी किंतु स्वंय को धर्म की आड़ में छिपा कर वार करती थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को भलीभांति ज्ञान था कि शासन व्यवस्था में व्याप्त यह बुराई और भ्रष्टाचार इसी प्रकार जारी रहा तो धर्म की शिक्षाओं के बड़े भाग को भुला दिया जाएगा और धर्म के नाम पर केवल उसका नाम ही बाक़ी बचेगा। इसी लिए यज़ीद की भ्रष्ट व मिथ्याचारी सरकार से मुक़ाबले के लिए विशेष प्रकार की चेतना व बुद्धिमत्ता की आवश्यकता थी। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपने आंदोलन के आरंभ में मदीना नगर से निकलते समय कहा थाः मैं भलाईयों की ओर बुलाने और बुराईयों से रोकने के लिए मदीना छोड़ रहा हूं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचार धारा में अत्याचारी शासन के विरुद्ध आंदोलन, समाज के राजनीतिक ढांचे में सुधार और न्याय के आधार पर एक सरकार के गठन के लिए प्रयास भलाईयों का आदेश देने और बुराईयों से रोकने के ईश्वरीय कर्तव्य के पालन के उदाहरण हैं। ईरान के प्रसिद्ध विचारक शहीद मुतह्हरी इस विचारधारा के महत्व के बारे में कहते हैं
भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने के विचार ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अत्याधिक महत्वपूर्ण बना दिया। अली के पुत्र इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम भलाईयों के आदेश और बुराईयों से रोकने अर्थात इस्लामी समाज के अस्तित्व को निश्चित बनाने वाले सब से अधिक महत्वपूर्ण कार्यवाही की राह में शहीद हुए और यह एसा महत्वपूर्ण सिद्धान्त है कि यदि यह न होता तो समाज टुकड़ों में बंट जाता।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम एक चेतनापूर्ण सुधारक के रूप में स्वंय का यह दायित्व समझते थे कि अत्याचार, अन्याय व भ्रष्टाचार के सामने चुप न बैठें। बनी उमैया ने प्रचारों द्वारा अपनी एसी छवि बनायी थी कि शाम क्षेत्र के लोग, उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम के सब से निकटवर्ती समझते थे और यह सोचते थे कि भविष्य में भी उमैया का वंश ही पैग़म्बरे इस्लाम का सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी होगा। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को इस गलत विचारधारा पर अंकुश लगाना था और इस्लामी मामलों की देख रेख के संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की योग्यता और अधिकार को सब के सामने सिद्ध करना था। यही कारण है कि उन्होंने बसरा नगर वासियों के नाम अपने पत्र में, अपने आंदोलन के उद्देश्यों का वर्णन करते हुए लिखा थाः
हम अहलेबैत, पैग़म्बरे इस्लाम के सब से अधिक योग्य उत्तराधिकारी थे किंतु हमारा यह अधिकार हम से छीन लिया गया और अपनी योग्यता की जानकारी के बावजूद हमने समाज की भलाई और हर प्रकार की अराजकता व हंगामे को रोकने के लिए, समाज की शांति को दृष्टि में रखा किंतु अब मैं तुम लोगों को कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम की शैली की ओर बुलाता हूं क्योंकि अब परिस्थितियां एसी हो गयी हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम की शैली नष्ट हो चुकी है और इसके स्थान पर धर्म से दूर विषयों को धर्म में शामिल कर लिया गया है। यदि तुम लोग मेरे निमंत्रण को स्वीकार करते हो तो मैं कल्याण व सफलता का मार्ग तुम लोगों को दिखाउंगा।
कर्बला के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा इस वास्तविकता का चिन्ह है कि इस्लाम एक एसा धर्म है जो आध्यात्मिक आयामों के साथ राजनीतिक व समाजिक क्षेत्रों में भी अत्याधिक संभावनाओं का स्वामी है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में धर्म और राजनीति का जुड़ाव इस पूरे आंदोलन में जगह जगह नज़र आता है। वास्तव में यह आंदोलन, अत्याचारी शासकों के राजनीतिक व धार्मिक भ्रष्टाचार के विरुद्ध क्रांतिकारी संघर्ष था। सत्ता, नेतृत्व और अपने समाजिक भविष्य में जनता की भागीदारी, इस्लाम में अत्याधिक महत्वपूर्ण और संवेदनशील विषय है।
इसी लिए जब सत्ता किसी अयोग्य व्यक्ति के हाथ में चली जाए और वह धर्म की शिक्षाओं और नियमों पर ध्यान न दे तो इस स्थिति में ईश्वरीय आदेशों के कार्यान्वयन को निश्चित नहीं समझा जा सकता और फेर बदल तथा नये नये विषय, धर्म की मूल शिक्षाओं में मिल जाते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इन परिस्थितियों को सुधारने के विचार के साथ संघर्ष व आंदोलन का मार्ग अपनाया। क्योंकि वे देख रहे थे कि ईश्वरीय दूत की करनी व कथनी को भुला दिया गया है और धर्म से अलग विषयों को धर्म का रूप देकर समाज के सामने परोसा जा रहा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की दृष्टि में मानवीय व ईश्वरीय आधारों पर, समाज-सुधार का सबसे अधिक प्रभावी साधन सत्ता है। इस स्थिति में पवित्र ईश्वरीय विचारधारा समाज में विस्तृत होती है और समाजिक न्याय जैसी मानवीय आंकाक्षाएं व्यवहारिक हो जाती हैं।
आशूर के महाआंदोलन में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा का एक आधार, न्यायप्रेम और अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष था। न्याय, धर्म के स्पष्ट आदेशों में से है कि जिसका प्रभाव मानव जीवन के प्रत्येक आयाम पर व्याप्त है। उमवी शासन श्रंखला की सब से बड़ी बुराई, जनता पर अत्याचार और उनके अधिकारों की अनेदेखी थी। स्पष्ट है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जैसी हस्ती इस संदर्भ में मौन धारण नहीं कर सकती थी। क्योंकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के विचार में चुप्पी और लापरवाही, एक प्रकार से अत्याचारियों के साथ सहयोग था। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम इस संदर्भ में हुर नामक सेनापति के सिपाहियों के सामने अपने भाषण में कहते हैं।
हे लोगो! पैग़म्बरे इस्लाम ने कहा है कि यदि कोई किसी एसे अत्याचारी शासक को देखे जो ईश्वर द्वारा वैध की गयी चीज़ों को अवैध करता हो, ईश्वरीय प्रतिज्ञा व वचनों को तोड़ता हो, ईश्वरीय दूत की शैली का विरोध करता हो और अन्याय करता हो, और वह व्यक्ति एसे शासक के विरुद्ध अपनी करनी व कथनी द्वारा खड़ा न हो तो ईश्वर के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि उस व्यक्ति को भी उसी अत्याचारी का साथी समझे। हे लोगो! उमैया के वंश ने भ्रष्टाचार और विनाश को स्पष्ट कर दिया है, ईश्वरीय आदेशों को निरस्त कर दिया है और जन संपत्तियों को स्वंय से विशेष कर रखा है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के तर्क में अत्याचारी शासक के सामने मौन धारण करना बहुत बड़ा पाप है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अस्तित्व में स्वतंत्रता प्रेम, उदारता और आत्मसम्मान का सागर ठांठे मार रहा था। यह विशेषताएं इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अन्य लोगों से भिन्न बना देती हैं। उनमें प्रतिष्ठा व सम्मान इस सीमा तक था कि जिसके कारण वे यजीद जैसे भ्रष्ट व पापी शासक के आदेशों के पालन की प्रतिज्ञा नहीं कर सकते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में ऐसे शासक की आज्ञापालन की प्रतिज्ञा का परिणाम जो ईश्वर और जनता के अधिकारों का रक्षक न हो, अपमान और तुच्छता के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा। इसी लिए वे, अभूतपूर्व साहस व वीरता के साथ अत्याचार व अन्याय के प्रतीक यजीद की आज्ञापालन के विरुद्ध मज़बूत संकल्प के साथ खड़े हो जाते हैं और अन्ततः मृत्यु को गले लगा लेते हैं। वे मृत्यु को इस अपमान की तुलना में वरीयता देते हैं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की विचारधारा में मानवीय सम्मान का इतना महत्व है कि यदि आवश्यक हो तो मनुष्य को इसकी सुरक्षा के लिए अपने प्राण की भी आहूति दे देनी चाहिए।
इस प्रकार से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन में एसे जीवंत और आकर्षक विचार नज़र आते हैं जो इस आंदोलन को इस प्रकार के सभी आंदोलनों से भिन्न बना देते हैं। यही कारण है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का स्वतंत्रताप्रेमी आंदोलन, सभी युगों में प्रेरणादायक और प्रभावशाली रहा है और आज भी है।
इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के आदाब
अहले बैत अ.स. द्वारा इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के लिए दिशा-निर्देश हदीसों में मौजूद हैं जिनको अपना कर हम ज़ियारत की बरकत से और भी अधिक फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, और उनको अनदेखा करने से हमारी ज़ियारत की बरकतों में ज़रूर कमी रहेगी, और रिवायतों में ज़ियारत के सवाब को लेकर जो मतभेद दिखाई देता है उसका कारण भी यही है कि जो शख़्स उन मासूमीन अ.स. द्वारा बताए गए आदाब को ध्यान में रखता हुआ ज़ियारत पढ़ता है उसका सवाब उन आदाब को अनदेखा करने वाले से अधिक है।
यह आदाब 2 तरह के हैं, कुछ वह आदाब हैं जिनका संबंध हमारे ज़ाहिर से है, और कुछ का संबंध हमारे नफ़्स (बातिन) से है। हम इन दोनों में से जिनकी ओर अधिक ध्यान देने को कहा गया है इस लेख में पेश कर रहे हैं।
बातिन के आदाब
1- मारेफ़त बहुत सारी हदीसों में इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के नतीजे में मिलने वाली बरकत के लिए आपके हक़ की मारेफ़त की शर्त पाई जाती है, हक़ीक़त में यह शर्त इंसान की जेहालत को दूर करने के लिए है, इसीलिए इमाम हुसैन अ.स. के ज़ाएर के लिए जो सबसे ज़रूरी चीज़ है वह यह है कि सबसे पहले इमाम अ.स. के हक़ को समझे, कि इमाम अ.स. को क्यों शहीद किया गया? हक़ को साबित करने के लिए किन किन ज़िम्मेदारियों को पूरा किया? और इस सवाल के जवाब के लिए ज़रूरी है कि समाज में आशूरा के कल्चर और इमाम हुसैन अ.स. के इंक़ेलाब को ज़िंदा और बाक़ी रखा जाए, और यही आशूराई कल्चर इंसान को इमाम के हक़ को समझने और उनकी मारेफ़त को हासिल करने में मदद करता है। याद रहे जितनी अधिक ज़ाएर की मारेफ़त होगी उतना ही अधिक सवाब भी उसे मिलेगा और उतना ही अधिक वह ज़ियारत की बरकतों को हासिल कर पाएगा।
2- ख़ुलूस किसी भी इबादत चाहे नमाज़ रोज़ा वग़ैरह हो या दुआ मुनाजात और ज़ियारत इन सब में मारेफ़त के बाद सबसे ज़रूरी चीज़ ख़ुलूस का होना है, ख़ुलूस के भी मारेफ़त की तरह कई दर्जे हैं, जिस दर्जे का ज़ाएर का ख़ुलूस होगा वह उतना ही अपनी ज़ियारत को कामयाब बना सकता है।
3- ज़ियारत पर ध्यान केंद्रित करना ज़ियारत में अगर ज़ाएर का ध्यान इमाम अ.स. की ओर से हट गया तो फिर उसे ज़ियारत नहीं कहा जा सकता, और अगर ज़ाएर का पूरा ध्यान इमाम अ.स. की ज़ियारत में होगा तो इसके नतीजे में इमाम अ.स. की पैरवी भी करेगा।
4- शौक़ ज़ियारत के आदाब में से एक ज़ियारत के लिए शौक़ का पाया जाना है, और इस अदब की जड़ें इमाम अ.स. से मुहब्बत और और उनकी मारेफ़त से जुड़ी हैं, जितनी अधिक इमाम हुसैन अ.स. की मारेफ़त होगी उतना ही अधिक आपकी ज़ियारत का शौक़ बढ़ेगा, और अगर हदीसों की बात की जाए तो हदीसों में आया है कि जो अधिक शौक़ के साथ इमाम अ.स. की ज़ियारत को जाएगा उसको आपके असहाब में जगह मिलेगी, और क़यामत में आपके परचम के नीचे खड़ा होगा, और जन्नत में आपके साथ होगा।
5- ग़म बहुत सारी हदीसों में इस बात पर ज़ोर दिया गया है कि जब इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के लिए जाओ तो ऐसे जाओ कि मन दुखी हो, कपड़े मिट्टी में अटे हों और बाल बिखरे हों। अगर ध्यान दिया जाए तो यह अदब भी इमाम अ.स. की मारेफ़त से ही जुड़ा हुआ है, क्योंकि जब इमाम अ.स. की मारेफ़त होगी तो इंसान के सामने उनकी भूख, प्यास और वह सारे अत्याचार जो यज़ीद की ओर से आप पर किए गए वह उसकी निगाहों के सामने होंगे, ज़ाहिर है जब यह सब मंज़र निगाहों में होगा तो हर वह दिल जिसमें इंसानियत हो वह ज़रूर दुखी होगा।
ज़ाहिर के आदाब
1- ग़ुस्ल ज़ाएर को चाहिए कि वह ज़ियारत करने जाने से पहले ग़ुस्ल करे, क्योंकि ग़ुस्ल से न केवल इंसान का जिस्म पाक साफ़ हो जाता है बल्कि उसका बातिन भी पाक होता है, यानी उसके गुनाह भी ज़ाहिरी गंदगी के साथ धुल जाते हैं।
2- पाक साफ़ कपड़े पहनना कुछ हदीसों में बताया गया है कि ग़ुस्ल के बाद ज़ाएर को पाक साफ़ कपड़े पहन कर ज़ियारत के लिए निकलना चाहिए, कुछ हदीसों में यहां तक कहा गया है कि सबसे अधिक पाक कपड़े पहन कर ज़ियारत को जाना चाहिए, इसमें कि. तरह का कोई शक भी नहीं किया जा सकता क्योंकि इंसान सासूम इमाम अ.स. की बारगाह में उसके सामने हाज़िरी देने जा रहा है।
3- ख़शबू और सजने संवरने से परहेज़ इंसान का बस ज़ाहिर ठीक होना चाहिए, इसीलिए इमाम हुसैन अ.स. की बारगाह में हाज़िर होने के लिए न केवल यह गया कि ख़ुशबू और सजने संवरने से परहेज़ करे बल्कि यह भी हदीस में है कि उदास और दुखद हालत में इमाम अ.स. के हरम में दाख़िल हो।
4- शोर शराबे से परहेज़ इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस है कि, इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत करने वाले को इमाम अ.स. के हरम में मौजूद फ़रिश्तों की पैरवी करते हुए ख़ामोश रहना चाहिए, नेक और अच्छे अमल के अलावा कुछ और ज़बान पर नहीं होना चाहिए। इस हदीस में नेक और अच्छे अमल का मतलब नमाज़, दुआ, ज़िक्र और ज़ियारत वगैरह का पढ़ना है।
5- सुकून और आराम से क़दम उठाएं इमाम हुसैन अ.स. की ज़ियारत के आदाब में से यह भी है कि ज़ाएर जब हरम की ओर जाए तो बहुत सुकून और आराम से क़दम ज़मीन पर रखे, ऐसा करने से ज़ाएर का पूरा ध्यान केवल ज़ियारत ही की ओर रहेगा।
6- अंदर जाने की अनुमति मांगना इमाम हुसैन अ.स. का हरम हक़ीक़त में पैग़म्बर स.अ. के कुंबे का ही घर है, इसी लिए बिना अनुमति वहां दाख़िल होना अच्छी बात नहीं है, अदब यही कहता है कि अहले बैत अ.स. के घर में दाख़िन होने से पहले उनसे अनुमति मांगें, ध्यान देने की बात है कि अनुमति मांगने के प्रभाव के बारे में इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस है कि, (अनुमति मांगते समय) अगर तुम्हारा दिल दुखी हो जाए और आंखों से आंसू निकल आएं, समझ लेना कि अनुमति मिल गई है, अब हरम में दाख़िल हो जाओ। कर्बला में दाख़िल होते समय दिल में ग़म और आंखों में आंसू ही इमाम हुसैन अ.स. के हरम में जाने की अनुमति है, अगर ज़ाएर में यह हालत पाई गई तो समझो उसे अनुमति मिल गई, और अगर यह हालत नहीं पैदा हुई तो उसे अंदर जाने से रुक जाना चाहिए, शायद अल्लाह की ख़ास नज़र उस पर हो जाए और उसके अंदर यह हालत पैदा हो जाए।
7- पहले दाहिना पैर आगे बढ़ाएं सभी पवित्र जगहों पर जाते समय ध्यान रहे कि पहले दाहिना क़दम आगे बढ़ाएं, विशेष कर इमाम हुसैन अ.स. के हरम में दाख़िल होने से पहले, क्योंकि सफ़वान ने इमाम सादिक़ अ.स. से हदीस नक़्ल की है जिसमें साफ़ शब्दों में इस अदब की ओर ध्यान दिलाया गया है।
8- किताब में मौजूद ज़ियारतों का पढ़ना ज़ाएर जिस तरह भी चाहे इमाम अ.स. से बातें और दिल का दर्द बयान कर सकता है, लेकिन इसमें कोई शक नहीं कि अहले बैत अ.स. से जो ज़ियारतें नक़्ल हुई हैं उनका पढ़ना अधिक सवाब रखता है, क्योंकि इमाम अ.स. द्वारा बताई गई ज़ियारतों में उनके दिशा-निर्देश का पालन होने के साथ साथ मारेफ़त के वह अहम दरया जो उन शब्दों में छिपे हुए हैं हम उनसे भी फ़ायदा हासिल कर सकते हैं, और इमाम अ.स. द्वारा बताई गईं यह मारेफ़त वाली ऐसी ज़ियारतें हैं जो किसी और जगह हमें नहीं दिखाई देती हैं। ध्यान रहे कि अहले बैत अ.स. के हरम में पढ़ी जाने वाली ज़ियारतों में सबसे अधिक अपने अंदर मारेफ़त का दरया समेटे हुए जो ज़ियारत है वह जामए कबीरा है।
इमाम हुसैन (अस) : संक्षिप्त परिचय
पिछले 1400 वर्षों के दौरान, साहित्य की एक अभूतपूर्व राशि दुनिया की लगभग हर भाषा में इमाम हुसैन (अस) , पर लिखी गयी है, जिसमे मुख्य रूप से इमाम हुसैन (अस) के सन 61हिजरी में कर्बला में अवर्णनीय बलिदान का विशेष अस्थान और सम्मान है!
इस्लाम धर्म के सबी मुसलमान इस बात पर सहमत हैं के कर्बला के महान बलिदान ने इस्लाम धर्म को विलुप्त होने से बचा लिया ! हालांकि, कुछ मुसलमान इस्लाम की इस व्याख्या से असहमत हैं और कहते हैं की इस्लाम में कलमा के "ला इलाहा ईल-लल्लाह" के सिवा कुछ नहीं है! मुसलमान का कुछ गिरोह हजरत मुहम्मद को भी कलमा के एक अनिवार्य अंग मानते हुए कलमा में "मुहम्मद अर रसूल-अल्लाह" को भी पहचाना है! इस्लाम धर्म के मुख्य स्तम्भ (तौहीद, अदल, नबूअत और कियामत) में तो सभी विश्वास रखते हैं परंतू यह समूह पैगम्बर (स अ ) द्वारा बताये, सिखाये और दिखाए[1] हुए “इमामत” को ना तो पहचानता ही है और ना ही इसको कलमा का एक अभिन्न अंग मानता है!
मुसलमानों के केवल एक छोटे तबके ने इमामत को पहचाना और यह विश्वास करते हैं की इमामत के प्रत्येक सदस्य अल्लाह के प्रतिनीधि और नियुक्ती हैं! यह अल्लाह के ज्ञान में था कुछ मुसलमान हजरत अली (अस) को "अमीर उल मोमनीन" के रूप में स्वीकार नहीं करेंगे! इसलिए अल्लाह ने इन लोगों का परीक्षण करने के लिए और अपनी स्वीकृति पर लोगों को विलाए-अली (अस) की स्वीकृति/अस्वीकृति के अनुसार इनाम / सज़ा देने का फैसला किया था ! अल्लाह ने इनके अस्वीकृति के फलसवरूप हजरत मुहम्मद द्वारा यह घोषणा कर दी के इनके (हजरत अली (अस) के ) बिना कोई भी कर्म या पूजा के कृत्यों इनके लिए नहीं जमा किये जायेंगे और ना ही अल्लाह इनके धर्मो कर्मो को स्वीकार करेगा! इसी कारण हजरत मुहम्मद (स अ व ), उनकी पुत्री हजरत फातिमा ज़हरा (स:अ) ने सारी ज़िंदगी अल्लाह के इस फैसले को बचाने में निछावर कर दी! और इन्ही कारणों से उन्हें शहीद भी कर दिया गया!
जब इमाम हुसैन (अस) कुफा के रेगिस्तान से कर्बला की तरफ जा रहे थे तो किसी ने उनसे उनकी यात्रा का उद्देश्य पुछा! इमाम (अस) ने कहा, मै कर्बला, इस्लाम को पुनर्जीवित करने के लिए जा रहा हूँ और मै उन
हत्यारों को उजागर करने जा रहा हूँ जिसने मेरे नाना मुहम्मद मुस्तफा (स अ व ) , मेरी माँ फातिमा ज़हर (स:अ), मेरे भाई हजरत हसन (अस) को क़त्ल किया है और इस्लाम को नेस्त-ओ-नाबूद करने में कोई कसार नहीं छोड़ी है!
इमाम हुसैन (अस) पर यह संक्षिप्त लेख उत्तरार्द्ध सिद्धांत के अनुयायियों को समर्पित है.
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम : इमाम हुसैन (अल हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब, यानि अबी तालिब के बेटे अली के बेटे अल हुसैन, 626-680 ) अली अ० के दूसरे बेटे और पैग़म्बर मुहम्मद के नाती थे! आपकी माता का नाम फ़ातिमा जाहरा था । आप अपने माता पिता की द्वितीय सन्तान थे। आप शिया समुदाय के तीसरे इमाम हैं!
आपका जन्म 3 शाबान, सन 4 हिजरी, 8 जनवरी 626 ईस्वी को पवित्र शहर मदीना, सऊदी अरब) में हुआ था और आपकी शहादत 10 मुहर्रम 61 हिजरी (करबला, इराक) 10 अक्टूबर 680 ई. में वाके हुई!
आप के जन्म के बाद हज़रत पैगम्बर(स.) ने आपका नाम हुसैन रखा, आपके पहले "हुसैन" किसी का भी नाम नहीं था। आपके जनम के पश्चात हजरत जिब्रील (अस) ने अल्लाह के हुक्म से हजरत पैगम्बर (स) को यह सूचना भेजी के आप पर एक महान विपत्ति पड़ेगी, जिसे सुन कर हजरत पैगम्बर (स) रोने लगे थे और कहा था अल्लाह तेरी हत्या करने वाले पर लानत करे।
आपकी मुख्य अपाधियाँ निम्नलिखित हैं :
* मिस्बाहुल हुदा
* सैय्यिदुश शोहदा
* अबु अबदुल्लाह
* सफ़ीनातुन निजात
इतिहासकार मसूदी ने उल्लेख किया है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम छः वर्ष की आयु तक हज़रत पैगम्बर(स.) के साथ रहे। तथा इस समय सीमा में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को सदाचार सिखाने ज्ञान प्रदान करने तथा भोजन कराने का उत्तरदायित्व स्वंम पैगम्बर(स.) के ऊपर था। पैगम्बर(स.) इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अत्यधिक प्रेम करते थे। वह उनका छोटा सा दुखः भी सहन नहीं कर पाते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से प्रेम के सम्बन्ध में पैगम्बर(स.) के इस प्रसिद्ध कथन का शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों के विद्वानो ने उल्लेख किया है। कि पैगम्बर(स.) ने कहा कि हुसैन मुझसे हैऔर मैं हुसैन से हूँ। अल्लाह तू उससे प्रेम कर जो हुसैन से प्रेम करे।
हज़रत पैगम्बर(स.) के स्वर्गवास के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम तीस (30) वर्षों तक अपने पिता हज़रत इमामइमाम अली अलैहिस्सलाम के साथ रहे। और सम्स्त घटनाओं व विपत्तियों में अपने पिता का हर प्रकार से सहयोग करते रहे।
हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद दस वर्षों तक अपने बड़े भाई इमाम हसन के साथ रहे। तथा सन् पचास (50) हिजरी में उनकी शहादत के पश्चात दस वर्षों तक घटित होने वाली घटनाओं का अवलोकन करते हुए मुआविया का विरोध करते रहे । जब सन् साठ (60) हिजरी में मुआविया का देहान्त हो गय, व उसके बेटे यज़ीद ने गद्दी पर बैठने के बाद हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत (आधीनता स्वीकार करना) करने के लिए कहा, तो आपने बैअत करने से मना कर दिया।और इस्लामकी रक्षा हेतु वीरता पूर्वक लड़ते हुए शहीद हो गये।
हज़रत मुहम्मद (स.) साहब को अपने नातियों से बहुत प्यार था मुआविया ने अली अ० से खिलाफ़त के लिए लड़ाई लड़ी थी । अली के बाद उनके ज्येष्ठ पुत्र हसन को खलीफ़ा बनना था । मुआविया को ये बात पसन्द नहीं थी । वो हसन अ० से संघर्ष कर खिलाफ़त की गद्दी चाहता था । हसन अ० ने इस शर्त पर कि वो मुआविया की अधीनता स्वीकार नहीं करेंगे, मुआविया को खिलाफ़त दे दी । लेकिन इतने पर भी मुआविया प्रसन्न नहीं रहा और अंततः उसने हसन को ज़हर पिलवाकर मार डाला । मुआविया से हुई संधि के मुताबिक, हसन के मरने बाद 10 साल (यानि 679 तक) तक उनके छोटे भाई हुसैन खलीफ़ा बनेंगे पर मुआविया को ये भी पसन्द नहीं आया । उसने हुसैन साहब को खिलाफ़त देने से मना कर दिया । इस दस साल की अवधि के आखिरी 6 महीने पहले मुआविया की मृत्यु हो गई । शर्त के मुताबिक मुआविया की कोई संतान खिलाफत की हकदार नहीं होगी, फ़िर भी उसका बेटा याज़िद प्रथम खलीफ़ा बन गया और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि, अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। आप ने इसका विरोध किया, इस कुकर्मी शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के लिए इमाम हुसैन (अस) को शहीद कर दिया गया, इसी कारण आपको इस्लाम में एक शहीद का दर्ज़ा प्राप्त है। आपकी शहादत के दिन को अशुरा (दसवाँ दिन) कहते हैं और इसकी याद में मुहर्रम (उस महीने का नाम) मनाते हैं ।
करबला की लडाई
करबला ईराक का एक प्रमुख शहर है । करबला, इराक की राजधानी बगदाद से 100 किलोमीटर दूर उत्तर-पूर्व में एक छोटा-सा कस्बा है! यह क्षेत्र सीरियाई मरुस्थल के कोने में स्थित है । करबला शिया स्मुदाय में मक्का के बाद दूसरी सबसे प्रमुख जगह है । कई मुसलमान अपने मक्का की यात्रा के बाद करबला भी जाते हैं । इस स्थान पर इमाम हुसैन का मक़बरा भी है जहाँ सुनहले रंग की गुम्बद बहुत आकर्षक है । इसे 1801 में कुछ अधर्मी लोगो ने नष्ट भी किया था पर फ़ारस (ईरान) के लोगों द्वारा यह फ़िर से बनाया गया ।
यहा पर इमाम हुसैन ने अपने नाना मुहम्मद स्० के सिधान्तो की रक्षा के लिए बहुत बड़ा बलिदान दिया था । इस स्थान पर आपको और आपके लगभग पूरे परिवार और अनुयायियों को यजिद नामक व्यक्ति के आदेश पर सन् 680 (हिजरी 58) में शहीद किया गया था जो उस समय शासन करता था और इस्लाम धर्म में अपने अनुसार बुराईयाँ जेसे शराबखोरि,अय्याशी, वगरह लाना चाह्ता था। ।
करबला की लडा़ई मानव इतिहास कि एक बहुत ही अजीब घटना है। यह सिर्फ एक लडा़ई ही नही बल्कि जिन्दगी के सभी पहलुओ की मार्ग दर्शक भी है। इस लडा़ई की बुनियाद तो ह० मुहम्मद मुस्त्फा़ स० के देहान्त के के तुरंत बाद रखी जा चुकी थी। इमाम अली अ० का खलीफा बनना कुछ अधर्मी लोगो को पसंद नहीं था तो कई लडा़ईयाँ हुईं अली अ० को शहीद कर दिया गया, तो उनके पश्चात इमाम हसन अ० खलीफा बने उनको भी शहीद कर दिया गया। यहाँ ये बताना आवश्यक है कि, इमाम हसन को किसने और क्यों शहीद किया? असल मे अली अ० के समय मे सिफ्फीन नामक लडा़ई मे माविया ने मुँह की खाई वो खलीफा बनना चाहता था परी न बन सका। वो सीरिया का गवर्नर पिछ्ले खलिफाओं के कारण बना था अब वो अपनी एक बडी़ सेना तैयार कर रहा था जो इस्लाम के नही वरन उसके अपने लिये थी, नही तो उस्मान के क्त्ल के वक्त खलिफा कि मदद के लिये हुक्म के बावजूद क्यों नही भेजी गई? अब उसने वही सवाल इमाम हसन के सामने रखा या तो युद्ध या फिर अधीनता। इमाम हसन ने अधीनता स्वीकार नही की परन्तु वो मुसलमानो का खून भी नहीं बहाना चाहते थे इस कारण वो युद्ध से दूर रहे अब माविया भी किसी भी तरह सत्ता चाहता था तो इमाम हसन से सन्धि करने पर मजबूर हो गया इमाम हसन ने अपनी शर्तो पर उसको सिर्फ सत्ता सोंपी इन शर्तो मे से कुछ ये हैं: -
वो सिर्फ सत्ता के कामो तक सीमित रहेगा धर्म मे कोई हस्तक्षेप नही कर सकेगा।
वो अपने जीवन तक ही सत्ता मे रहेगा मर्ने से पहले किसी को उत्तराधिकारी न बना सकेगा।
उसके म्ररने के बाद इमाम हसन खलिफा़ होगे यदि इमाम हसन कि मृत्यु हो जाये तो इमाम हुसैन को खलिफा माना जायगा।
वो सिर्फ इस्लाम के कानूनों का पालन करेगा।
इस प्रकार की शर्तो के द्वारा वो सिर्फ नाम मात्र का शासक रह गया, उसने अपने इस संधि को अधिक महत्व नहीं दिया इस कारण करब्ला नामक स्थान मे एक धर्म युध हुआ था जो मुहम्म्द स्० के नाती तथा अधर्मी यजीद (पुत्र माविया पुत्र अबुसुफियान पुत्र उमेय्या)के बीच हुआ जिसमे वास्त्व मे जीत इमाम हुसेन अ० की हुई परय जाहिरी जीत यजीद कि हुई क्योकि इमाम हुसेन अ० को व उन्के सभी साथीयो को शहीद कर दिया गया था उन्के सिर्फ् एक पुत्र अली अ० (जेनुलाबेदीन्)जो कि बिमारी के कारन युध मे भाग न ले सके थे बचे आज यजीद नाम इतना जहन से गिर चुका हे कोई मुसलमान् अपने बेटे का नाम यजीद नही रखता जबकी दुनिया मे ह्सन व हुसेन नामक अरबो मुस्ल्मान हे यजीद कि नस्लो का कुछ पता नही पर इमाम हुसेन कि औलादे जो सादात कहलाती हे जो इमाम जेनुलाबेदीन अ० से चली दुनिया भरा मे फेले हे
इमाम हुसैन (अस) विरोध और उसका उद्देश्य
हज़रत इमाम हुसैन (अस) ने सन् (61) हिजरी में यज़ीद के विरूद्ध क़ियाम (किसी के विरूद्ध उठ खड़ा होना) किया। उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को अपने प्रवचनो में इस प्रकार स्पष्ट किया कि
जब शासकीय यातनाओं से तंग आकर हज़रत इमाम हुसैन (अस) मदीना छोड़ने पर मजबूर हो गये तो उन्होने अपने क़ियाम के उद्देश्यों को इस प्रकार स्पष्ट किया। कि मैं अपने व्यक्तित्व को चमकाने या सुखमय जीवन यापन करने या उपद्रव फैलाने के लिए क़ियाम नहीं कर रहा हूँ। बल्कि मैं केवल अपने नाना (पैगम्बरे इस्लाम) की उम्मत (इस्लामी समाज) में सुधार हेतु जारहा हूँ। तथा मेरा निश्चय मनुष्यों को अच्छाई की ओर बुलाना व बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैगम्बर(स.) व अपने पिता इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) पर चलूँगा।
एक दूसरे अवसर पर कहा कि ऐ अल्लाह तू जानता है कि हम ने जो कुछ किया वह शासकीय शत्रुत या सांसारिक मोहमाया के कारण नहीं किया। बल्कि हमारा उद्देश्य यह है कि तेरे धर्म की निशानियों को यथा स्थान पर पहुँचाए। तथा तेरी प्रजा के मध्य सुधार करें ताकि तेरी प्रजा अत्याचारियों से सुरक्षित रह कर तेरे धर्म के सुन्नत व वाजिब आदेशों का पालन कर सके।
जब आप की भेंट हुर पुत्र यज़ीदे रिहायी की सेना से हुई तो, आपने कहा कि ऐ लोगो अगर तुम अल्लाह से डरते हो और हक़ को हक़दार के पास देखना चाहते हो तो यह कार्य अल्लसाह को प्रसन्न करने के लिए बहुत अच्छा है। ख़िलाफ़त पद के अन्य अत्याचारी व व्याभीचारी दावेदारों की अपेक्षा हम अहलेबैत सबसे अधिक अधिकारी हैं।
एक अन्य स्थान पर कहा कि हम अहलेबैत शासन के उन लोगों से अधिक अधिकारी हैं जो शासन कर रहे है।
इन चार कथनों में जिन उद्देश्यों की और संकेत किया गया है वह इस प्रकार हैं,
- इस्लामी समाज में सुधार।
- जनता को अच्छे कार्य करने का उपदेश ।
- जनता को बुरे कार्यो के करने से रोकना।
- हज़रत पैगम्बर(स.) और हज़रत इमाम अली (अस) की सुन्नत(शैली) को किर्यान्वित करना।
- समाज को शांति व सुरक्षा प्रदान करना।
- अल्लाह के आदेशो के पालन हेतु भूमिका तैयार करना।
यह समस्त उद्देश्य उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब शासन की बाग़ डोर स्वंय इमाम के हाथो में हो, जो इसके वास्तविक अधिकारी भी हैं। अतः इमाम ने स्वंय कहा भी है कि शासन हम अहलेबैत का अधिकार है न कि शासन कर रहे उन लोगों का जो अत्याचारी व व्याभीचारी हैं।
इमाम हुसैन (अस) के विरोध के परिणाम
बनी उमैया के वह धार्मिक षड़यन्त्र छिन्न भिन्न हो गये जिनके आधार पर उन्होंने अपनी सत्ता को शक्ति प्रदान की थी।
बनी उमैया के उन शासकों को लज्जित होना पडा जो सदैव इस बात के लिए तत्पर रहते थे कि इस्लाम से पूर्व के मूर्खतापूर्ण प्रबन्धो को क्रियान्वित किया जाये।
कर्बला के मैदान में इमाम हुसैन (अस) की शहादत से मुसलमानों के दिलों में यह चेतना जागृत हुई; कि हमने इमाम हुसैन (अस) की सहायता न करके बहुत बड़ा पाप किया है।
इस चेतना से दो चीज़े उभर कर सामने आईं एक तो यह कि इमाम की सहायता न करके जो गुनाह (पाप) किया उसका परायश्चित होना चाहिए। दूसरे यह कि जो लोग इमाम की सहायता में बाधक बने थे उनकी ओर से लोगों के दिलो में घृणा व द्वेष उत्पन्न हो गया।
इस गुनाह के अनुभव की आग लोगों के दिलों में निरन्तर भड़कती चली गयी। तथा बनी उमैया से बदला लेने व अत्याचारी शासन को उखाड़ फेकने की भावना प्रबल होती गयी।
अतः तव्वाबीन समूह ने अपने इसी गुनाह के परायश्चित के लिए क़ियाम किया। ताकि इमाम की हत्या का बदला ले सकें।
इमाम हुसैन (अस) के क़ियाम ने लोगों के अन्दर अत्याचार का विरोध करने के लिए प्राण फूँक दिये। इस प्रकार इमाम के क़ियाम व कर्बला के खून ने हर उस बाँध को तोड़ डाला जो इन्क़लाब (क्रान्ति) के मार्ग में बाधक था।
इमाम के क़ियाम ने जनता को यह शिक्षा दी कि कभी भी किसी के सम्मुख अपनी मानवता को न बेंचो । शैतानी ताकतों से लड़ो व इस्लामी सिद्धान्तों को क्रियान्वित करने के लिए प्रत्येक चीज़ को नयौछावर कर दो।
समाज के अन्दर यह नया दृष्टिकोण पैदा हुआ कि अपमान जनक जीवन से सम्मान जनक मृत्यु श्रेष्ठ है।
अमर सच्चाई, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम
ईश्वर की श्रद्धा और उपासना उनके अस्तित्व में इस प्रकार समा गई थी कि वह बड़े ही आश्चर्यजनक और अनुदाहरणीय व्यक्तित्व के स्वामी हो गए थे।
ईश्वर का बोध और ईश्वर के प्रति श्रद्धा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समाज सुधारक आंदोलन और उनके बलिदान का आधार थी।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की उच्च विशेषताएं उनकी , उपासनाएं और प्रार्थनाएं ऐसी थीं कि ईश्वरप्रेमियों की भीड़ उनके आसपास एकत्रित रहती थी।
इमाम हुसैन के आंदोलन का भाग बनने वाले सारे व्यक्ति जिन्होंने इतिहास के इस स्वतंत्रता
प्रसारक मार्गदर्शक की पाठशाला में साहस व वीरता का पाठ सीखा था ऐसे सदाचारी और उच्च स्वभाव के लोग थे जो उस समय के अंधकारमय क्षितिज पर तारों की भांति चमके।
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने एक विख्यात वाक्य में कहा है कि हे लोगो, ईश्वर ने अपने बंदों की रचना केवल इस लिए की है कि
वह उसे पहचानें और जब उसे पहचान लें तो उसकी उपासना करें। इस वाक्य में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मनुष्य की रचना का रहस्य ईश्वर की पहचान प्राप्त करना बताया है
क्योंकि ईश्वरीय पहचान के माध्यम से ही मनुष्य सांसारिक और इच्छा के बंधनों से मुक्ति प्राप्त कर सकता है और वास्तविक स्वतंत्रता पा सकता है।
ऐसे समाज में जहां प्रेम स्नेह और मानवीय संबंधों को भुला दिया गया था हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने नई धारा प्रवाहित की जिससे नैतिक मूल्यों को नया जीवन
और मानवीय संबंधों को बल मिला। लोगों से प्रेम व मनुष्यों के साथ उपकार हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के निकट सर्वोपरि सिद्धांतों में था। इस संदर्भ में उनका कहना थाः
हे लोगो, उच्च नैतिक मूल्यों के साथ जीवन व्यतीत कीजिए और मोक्ष व कल्याण की पूंजी प्राप्त करने के लिए प्रयास कीजिए।
यदि आप ने किसी के साथ भलाई की और उसने आपका उपकार न माना तो चिंतित न होइए क्योंकि ईश्वर सबसे अच्छा पारितोषिक देने वाला है।
याद रखिए कि लोगों को आपकी आवश्यकता हो तो यह आप पर ईश्वर की अनुकंपा है। तो अनुकंपाओं को न गंवाइए वरना ईश्वरीय प्रकोप का पात्र बन जाएंगे।
इतिहास में आया है कि हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बड़े अतिथि प्रेमी थे। लोगों की आवश्याकताएं पूरी करते थे, रिश्तेदारों से मिलने जाते और ग़रीबों का ध्यान रखते थे।
वह ग़रीबों के साथ उठते बैठते थे। समाज में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का सम्मान इस लिए भी था कि वह हमेशा आम लोगों के बीच रहते कभी उनसे दूर नहीं होते थे।
उनके पास न भव्य महल थे न अंग रक्षक। वह लोगों से बड़ी विनम्रता से मिलते। एक दिन वह एसे कुछ भिखारियों के पास से गुज़र रहे थे जो बैठक सूखी रोटी खा रहे थे। उन्होंने इमाम हुसैन को खाने के लिए निमंत्रित किया और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बड़ी विनम्रता से उनके साथ बैठे गए और उन्होंने उनके साथ खाना खाया। इस अवसर पर उन्होंने कहा कि ईश्वर घमंड करने वालों को पसंद नहीं करता। इसके बाद उन्होंने इन लोगों को अपने घर खाने पर आमंत्रित किया। अपने घर उनकी बड़ी आवभगत की और सबको उपहार में कपड़े दिए।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम संपूर्ण मनुष्य और महान आदर्श हैं। वह ऐसे महापुरुषों में हैं जिन्होंने समूची मानवता को जीने और स्वतंत्र रहने की सीख दी।
उनकी जीवनी प्रकाशमान सूर्य के समान सफल मानवीय जीवन का मार्ग दिखाती है। हम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के
शुभ जन्म दिवस पर एक बार फिर अपने सभी श्रोताओं को हार्दिक बधाइयां प्रस्तुत करते हैं और उनके कुछ मूल्यवान कथनों पर यह कार्यक्रम समाप्त कर रहे हैं।
उनका कथन है। जो कठिनाइयों में घीर जाए और उसकी समझ में यह न आए कि क्या करे तो उसकी कठिनाइयों के समाधान की कुंजी लोगों से विनम्रता, स्नेह और सहिष्णुता है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एक अन्य कथन है। सबसे अधिक क्षमाशील व्यक्ति वह है जो शक्ति रखते हुए भी क्षमा कर दे।
मोहसिने इंसानियत इमाम हुसैन (अ)
तीन शाबान, 4 हिजरी को, मदीना मुनव्वरा के बनी हाशिम परिवार में एक ऐसी महान शख्सियत का जन्म हुआ, जिसे समय ने "अबू अब्दिल्लाह" के उपनाम से, "सय्यदश शबाब अहले जन्ना" (जन्नत के जवानों के सरदार), "सिब्तुन नबी" (नबी के पोते), "मुबारक" और "सय्यदुश शोहदा" (शहीदों के सरदार) जैसे कई उपनामों से नवाज़ा। ये शख्सियत कोई और नहीं, बल्कि इमाम हुसैन (अ) थे।
इमाम हुसैन (अ) का जीवन इंसानियत का प्रतीक है। आपने अपनी पूरी ज़िंदगी में न केवल संघर्ष और दृढ़ता की मिसाल पेश की, बल्कि अपने खून से हक और सच्चाई की झंकार भी की। आपने समाज में न्याय, शांति, और इंसाफ की स्थापना की, और दुनिया भर के लोगों को इंसानियत के मूल्य सिखाए। जब अरब में ज़ुल्म और अत्याचार अपने चरम पर था, और इंसानियत अपना अस्तित्व खो रही थी, तब इमाम हुसैन (अ) ही थे जिन्होंने अपनी जान की क़ीमत पर इंसानियत को नया जीवन दिया।
इमाम हुसैन (अ) की ज़िंदगी का मुख्य उद्देश्य समाज के संकटों से छुटकारा दिलाना, लोगों को न्याय दिलाना और समाज में शांति और सद्भाव को स्थापित करना था। आपकी ज़िन्दगी का यह उद्देश्य इतना महान है कि हमारी संस्कृति में आपकी याद को पूजा जाता है। इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की याद में मनाना हमारी श्रद्धा का एक रूप है, क्योंकि उनका उल्लेख हमेशा इंसानियत के उच्चतम स्तर तक पहुंचाने में मदद करता है।
इमाम हुसैन (अ) की शहादत पर ग़म और आँसू बहाना एक आत्मिक बदलाव का कारण बनता है, और यह हमें यह सिखाता है कि अपने विश्वास के लिए हमें अपनी जान की कुर्बानी देने में भी कोई हिचकिचाहट नहीं होनी चाहिए। इमाम हुसैन (अ) की याद दुनिया की बड़ी क्रांतिकारी आंदोलनों में गूंजती रही है। उनका संदेश आज भी जीवित है और सभी समुदायों, धर्मों और संस्कृतियों में फैल रहा है।
इमाम हुसैन (अ) की शहादत ने न केवल इस्लाम को बल्कि पूरी मानवता को एक सार्वभौमिक संदेश दिया। महात्मा गांधी ने कहा था: "हुसैनी सिद्धांतों पर अमल करके इंसान मुक्ति पा सकता है।" पंडित नेहरू ने कहा: "इमाम हुसैन (अ) की शहादत में एक विश्वव्यापी संदेश है।" प्रसिद्ध लेखक कार्लाइल ने कहा था: "इमाम हुसैन (अ) की शहादत पर जितना विचार किया जाएगा, उतना ही इसके उच्चतम अर्थ खुलेंगे।" भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने कहा था: "इमाम हुसैन (अ) की कुर्बानी किसी एक देश या जाति तक सीमित नहीं है, बल्कि यह पूरी मानवता की महान धरोहर है।" बांग्लादेश के प्रसिद्ध लेखक रवींद्रनाथ ठाकुर ने कहा: "सत्य और न्याय को बनाए रखने के लिए सैनिकों और हथियारों की ज़रूरत नहीं होती, बल्के कुर्बानियां देकर भी विजय प्राप्त की जा सकती है, जैसे इमाम हुसैन (अ) ने करबला में दी। निःसंदेह, इमाम हुसैन (अ) इंसानियत के नेता हैं।"
इमाम हुसैन (अ) ने अपनी कुर्बानी से इंसानियत को अमर बना दिया, और उनकी याद हमेशा इंसानी समाजों में जिंदा रहेगी। इस पवित्र अवसर पर, मैं दुनिया भर के सभी इंसानियत प्रेमियों और खासकर इमाम हुसैन (अ) के अनुयायियों को बधाई देता हूँ और अल्लाह से दुआ करता हूँ कि ज़हरा के चाँद की सच्चाई के लिए, दुनिया से ज़ुल्म और अत्याचार को समाप्त कर दे और आखिरी हज़रत (अ) का ज़ुहूर फर्मा दे। आमीन, और अलहम्दुलिल्लाह रब्बिल आलमीन।
इमाम हुसैन (अ) का जन्म: एक ऐतिहासिक और धार्मिक दृष्टिकोण
इमाम हुसैन (अ) पैगंबर हज़रत मुहम्मद (स.) के पोते और हज़रत अली (अ) और हज़रत फातिमा (स) के बेटे थे। इमाम हुसैन (अ) का जन्म इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार 3 शाबान, 5 हिजरी को मदीना में हुआ। उनके जन्म ने इस्लामिक समुदाय में न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया।
इमाम हुसैन (अ) इस्लामी इतिहास में एक महत्वपूर्ण और प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में प्रतिष्ठित हैं। वे पैगंबर हज़रत मुहम्मद (स.) के पोते और हज़रत अली (अ) और हज़रत फातिमा (स) के बेटे थे। इमाम हुसैन (अ) का जन्म इस्लामिक कैलेंडर के अनुसार 3 शाबान, 5 हिजरी को मदीना में हुआ। उनके जन्म ने इस्लामिक समुदाय में न केवल धार्मिक बल्कि सामाजिक और नैतिक दृष्टिकोण से भी एक महत्वपूर्ण मोड़ लाया।
इमाम हुसैन (अ) का जन्म उस समय हुआ जब इस्लाम अपने प्रारंभिक चरण में था और मदीना में मुस्लिम समाज अपनी धार्मिक और सामाजिक पहचान को स्थापित कर रहा था। उनके जन्म के समय, हज़रत अली (अ) और हज़रत फातिमा (स) पहले से ही पैगंबर मुहम्मद (स.) के प्रिय और सबसे सम्मानित व्यक्तित्वों में से थे।
शिया स्रोतों में वर्णित है कि जब इमाम हुसैन (अ) का जन्म हुआ, तो हज़रत अली (अ) और हज़रत फातिमा (स) बेहद खुश थे। पैगंबर मुहम्मद (स.) ने उनके जन्म के अवसर पर उन्हें विशेष आशीर्वाद दिए थे। इस संबंध में शिया किताबों में विशेष रूप से "कामिल उज ज़ियारात" और "तफ़सीर अली बिन इब्राहीम" जैसी किताबों में विस्तृत वर्णन मिलता है।
इमाम हुसैन (अ) के जन्म के बाद, पैगंबर मुहम्मद (स.) ने उन्हें अपनी गोदी में लिया और उनके साथ बहुत स्नेह और प्रेम दिखाया। एक प्रसिद्ध घटना है जिसमें पैगंबर ने इमाम हुसैन (अ) और उनके भाई इमाम हसन (अ) के बारे में कहा था, "ये दोनों मेरे घराने के फूल हैं।" यह घटना शिया स्रोतों में "अल-मुसन्नफ" और "तफ्सीर अली बिन इब्राहीम" में उल्लेखित है।
इमाम हुसैन (अ) के जन्म के समय के घटनाक्रम को शिया इतिहासकारों ने अपनी किताबों में दर्ज किया है। विशेष रूप से "निहायतुल-आराब" और "ताफसीरुल-आयात" जैसी किताबों में उनके जन्म के बारे में विस्तार से बताया गया है। इन किताबों में यह भी उल्लेख है कि इमाम हुसैन (अ) का जन्म न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से बल्कि मानवता के लिए एक आदर्श बनकर सामने आया।
इमाम हुसैन (अ) का जन्म इस्लामिक इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना है, जो न केवल शिया समुदाय बल्कि समूचे इस्लामी विश्व के लिए प्रेरणा का स्रोत बना। उनका जीवन उनके उच्च नैतिक और धार्मिक आदर्शों का प्रतीक है, जिनका पालन मुसलमानों द्वारा किया जाता है। उनका जन्म एक ऐसे समय में हुआ था, जब इस्लाम के पालन-पोषण के लिए संघर्ष आवश्यक था, और उनके जीवन ने सत्य, न्याय और धर्म के प्रति समर्पण की मिसाल प्रस्तुत की।
इमाम हुसैन (अ) के जीवन और उनके संघर्ष को समझना न केवल धार्मिक दृष्टिकोण से महत्वपूर्ण है, बल्कि यह हमें समाज में न्याय और समानता की स्थापना के लिए प्रेरित करता है।
राहे खुदा में पैसा खर्च करने से कम नहीं होता
मौलाना सैयद रज़ा हैदर जैदी ने जुमआ के खुतबे में अमीरुल मोमिनीन अ.स. की हदीस बयान करते हुए कहा,ख़ुदावंदे आलम ने दौलतमंदों के माल में फ़क़ीरों की रोज़ी फर्ज़ की है कोई फ़क़ीर भूखा नहीं सोता मगर ये कि मालदार ने उसके हक़ को रोक लिया है और अल्लाह इस सिलसिले में उससे सवाल करेगा।अगर हमारे समाज में कोई भूखा है तो इसका मतलब यह है कि अमीरों ने लापरवाही की है।
लखनऊ / शाही आसिफी मस्जिद में 31 जनवरी 2025 को जुमा की नमाज हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैयद रज़ा हैदर जैदी साहब क़िब्ला प्रिंसिपल हौज़ा इल्मिया हज़रत ग़ुफ़रानमाब लखनऊ की इमामत में अदा की गई।
मौलाना सैयद रज़ा हैदर जैदी ने नमाज़ियों को तक़वा-ए-इलाही की नसीहत करते हुए फ़रमाया,मैं अपने आप को और आप तमाम हज़रात को तक़वा-ए-इलाही इख्तियार करने की नसीहत कर रहा हूँ। परवरदिगार हम सब को इतनी तौफ़ीक़ दे कि हमारे दिलों में उसका तक़वा मौजूद हो हम हमेशा उससे डरते रहें और उसके अहकाम पर अमल करते रहें।
मौलाना सैयद रज़ा हैदर जैदी ने अमीरुल मोमिनीन अ.स. के खुत्बा-ए-ग़दीर को बयान करते हुए फ़रमाया,जो ग़दीर के दिन कुछ मोमिनों की किफालत की ज़िम्मेदारी लेगा तो अमीरुल मोमिनीन अ.स. ज़ामिन होंगे कि उस शख्स की मौत कुफ्र पर न हो और न ही वह तंगदस्त हो।
मौलाना ने हदीस की रौशनी में आगे फ़रमाया,अगर कोई मोमिनों की किफालत की ज़िम्मेदारी ले और उसे मौत आ जाए तो उसका अज्र अल्लाह पर है।
मौलाना ने इमाम जाफ़र सादिक़ अ.स. की हदीस बयान करते हुए कहा,हमारे शिया अहल-ए-मुरव्वत होते हैं बा इज़्ज़त होते हैं, सख़ी होते हैं, कंजूस नहीं होते, करीम होते हैं और अपने भाइयों की हाजत पूरी करने वाले होते हैं।
मौलाना ने अमीरुल मोमिनीन अ.स. की हदीस दोहराते हुए कहा,ख़ुदावंदे आलम ने दौलतमंदों के माल में फ़क़ीरों की रोज़ी फर्ज़ की है कोई फ़क़ीर भूखा नहीं सोता मगर ये कि मालदार ने उसके हक़ को रोक लिया है और अल्लाह इस सिलसिले में उससे सवाल करेगा।अगर हमारे समाज में कोई भूखा है तो इसका मतलब यह है कि अमीरों ने लापरवाही की है।
बहरैन में शिया समुदाय के खिलाफ एक नया भड़काऊ कदम
बहरैन की संसद ने एक नया कानून पारित किया है जिसके तहत सुन्नी और शिया औक़ाफ़ को शूरा-ए-आला बराए इस्लामी उमूर के अधीन कर दिया जाएगा इस फैसले को शिया समुदाय की स्वायत्तता को सीमित करने का एक और प्रयास माना जा रहा है।
बहरैन की संसद ने एक नया कानून पारित किया है, जिसके तहत सुन्नी और जाफरी (शिया) औक़ाफ़ को "शूरा-ए-आला बराए इस्लामी उमूर" (उच्च इस्लामी मामलों की परिषद) के अधीन कर दिया जाएगा। इस फैसले को शिया समुदाय की स्वायत्तता को सीमित करने का एक और प्रयास माना जा रहा है।
संसद का फैसला और सरकारी तर्क
बहरैनी संसद ने बहुमत से इस कानून को मंज़ूरी दी जिससे दोनों औक़ाफ़ की निगरानी और प्रबंधन अब "शूरा-ए-आला बराए इस्लामी उमूर" के तहत आ जाएगा सरकार का कहना है कि इस कदम का उद्देश्य मस्जिदों और औक़ाफ़ के बेहतर प्रबंधन को सुनिश्चित करना है।
संसद के एक सदस्य अहमद कराता ने कहा कि चूंकि शूरा-ए-आला के अधीन मस्जिदों का प्रबंधन बेहतर है इसलिए सुन्नी और जाफरी औक़ाफ़ को भी इसके अधीन लाना ज़रूरी है ताकि उनकी सुरक्षा सुनिश्चित की जा सके।
शिया औक़ाफ़ की स्वायत्तता पर प्रभाव
यह निर्णय बहरैन की धार्मिक विविधता की नीति के विपरीत है और शिया समुदाय के धार्मिक, सांस्कृतिक और वित्तीय अधिकारों को सीधे प्रभावित करेगा।
इतिहास में शिया औक़ाफ़ को एक स्वतंत्र दर्जा प्राप्त था, विशेष रूप से शाह हमद बिन ईसा के शासन से पहले, जब सरकार औक़ाफ़ के मामलों या न्यायिक निर्णयों में हस्तक्षेप नहीं करती थी।
इस कानून से यह साफ़ होता है कि सरकार एक विशेष धार्मिक दृष्टिकोण को थोप रही है और शिया समुदाय के फैसलों को अपने नियंत्रण में लेना चाहती है।
लोकतंत्र और राजनीतिक असंतोष
यह निर्णय एक ऐसी संसद द्वारा लिया गया है, जिसमें जनता की वास्तविक भागीदारी नहीं है। 2018 और 2022 के चुनावों में विपक्ष को भाग लेने से रोका गया था जिससे संसद जनता की भावनाओं का सही प्रतिनिधित्व नहीं करती। कई राजनीतिक विरोधियों को या तो निर्वासित कर दिया गया है या जेल में डाल दिया गया है, और चुनावी क्षेत्रों के विभाजन भी सरकार के पक्ष में किए गए हैं।
शिया समुदाय के लिए संभावित परिणाम
यह कदम शिया समुदाय के बचे हुए धार्मिक और वित्तीय अधिकारों को खत्म करने की कोशिश है इस फैसले के बाद सरकार सीधे तौर पर शिया औक़ाफ़ के वित्तीय मामलों ज़मीन और अन्य संपत्तियों पर नियंत्रण हासिल कर लेगी जिससे आर्थिक शोषण का खतरा बढ़ जाएगा।
धार्मिक स्वतंत्रता और उलेमा की बेबसी
बहरीन में सरकार पहले से ही शिया औक़ाफ़ पर कड़ा नियंत्रण रखती है और उलेमा की स्वायत्तता की मांगों को खारिज कर चुकी है औक़ाफ़ के आंतरिक सदस्य भी सरकारी फैसलों पर आपत्ति जताने के लिए स्वतंत्र नहीं हैं क्योंकि ऐसा करने पर उन्हें उनके पद से हटा दिया जा सकता है।
2011 में इसका एक उदाहरण देखने को मिला जब बहरैनी राजा ने शिया औक़ाफ़ के सभी 10 सदस्यों को बर्खास्त कर दिया क्योंकि उन्होंने मस्जिदों को ध्वस्त किए जाने के खिलाफ एक विरोधी बयान जारी किया था।
इस कानून से शिया समुदाय की धार्मिक स्वतंत्रता और वित्तीय स्वायत्तता पर गंभीर प्रभाव पड़ सकता है। सरकार द्वारा धार्मिक मामलों पर बढ़ता नियंत्रण बहरीन में धार्मिक स्वतंत्रता और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए एक चुनौती बन सकता है।
खुशी के महीने आज़ादी के नहीं बल्कि इबादत के महीने हैं
मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने जुमआ के खुत्बे में नमाज़ियों को मुतवज्जह करते हुए फ़रमाया,खुशी के महीने आज़ादी के नहीं बल्कि इबादत के महीने हैं ख़ुदावंदे आलम ने यह महीने, यह मौसम इबादतों, नमाज़ों, दुआओं और इस्तग़फार के लिए रखा है।
मुंबई/ ख़ोजा शिया इस्ना अशरी जामा मस्जिद, पालागली में 31 जनवरी 2025 को जुमआ की नमाज़ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी की इमामत में अदा की गई।
मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने फ़रमाया:माहे मुक़द्दस शाबान आपकी ख़िदमत में हाज़िर है और यह हज़रत रसूल-ए-ख़ुदा स.अ.व.व. का महीना है यह बरकतों का महीना है, जिसमें अल्लाह ने बड़ी बड़ी नेमतें अता की हैं हज़रत ज़ैनब (स.अ.), इमाम हुसैन सैय्यदुश्शोहदा (अ.), हज़रत अबुल फ़ज़ल अब्बास (अ.), हज़रत अली अकबर (अ.) और हज़रत इमाम-ए-ज़माना (अ.ज.फ) की विलादत इसी महीने में हुई है।
मौलाना ने आगे फ़रमाया:यह महीना बरकतों, अज़मतों और मग़फ़िरत का महीना है यह नेक आमाल और रोज़े रखने का महीना है। जो शख़्स इस महीने में रोज़ा रखेगा अल्लाह उसे जहन्नम की आग से दूर कर देगा।
इबादत की अहमियत पर तज़किरा करते हुए मौलाना ने कहा,ख़ुशी के महीने आज़ादी के नहीं बल्कि इबादत के महीने हैं ख़ुदावंदे आलम ने यह महीने इबादतों, नमाज़ों, दुआओं और इस्तग़फ़ार के लिए मुक़र्रर किए हैं।
मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने एक रिवायत बयान करते हुए कहा,तौबा जन्नत का दरख़्त है और ज़क़्क़ूम जहन्नम का दरख़्त है। जो नेकी के आमाल अंजाम देता है वह दरख़्त-ए-तूबा की शाख़ से मुतमस्सिक (लिपटा) होता है, और जो बुरे आमाल अंजाम देता है, वह दरख़्त-ए-ज़क़्क़ूम की शाख़ से जुड़ जाता है। ये शाख़ें इंसान को उसकी अस्ल तक ले जाती हैं।
अच्छी आवाज़ में अज़ान और दुआ पढ़ने पर ज़ोर देते हुए मौलाना ने कहा,रिवायात में आया है कि अज़ान देने वाला ख़ुश-लहजा हो और उसकी आवाज़ दिलों को छूने वाली हो।
मौलाना सैयद अहमद अली आबिदी ने माहे शाबान में सलवाते शाबानिया की अहमियत को बयान करते हुए कहा,हमें अपने इमाम, अपने साहिब, अपने मौला इमाम-ए-ज़माना अ.ज.फ. की तरफ़ मुतवज्जेह रहना चाहिए और उनसे तवस्सुल करना चाहिए।