رضوی

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हज़रत इमाम ख़ुमैनी (र) ने उसी समय इन परिवर्तनों पर गहरी नज़र डाली और वे इस मामले में चिंतित थे कि कहीं ऐसा न हो कि पूर्वी ब्लॉक का पतन पश्चिमी ब्लॉक की सफलता साबित हो और पूर्वी ब्लॉक के देश भी पश्चिम और अमेरिका की गोदी में चले जाएं और पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था को आदर्श के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित हो जाएं।

दो दशको के दौरान इस्लामी क्रांति के प्रभाव और प्रतिक्रिया केवल ईरान के भीतर, मध्य पूर्व या मुस्लिम जगत तक सीमित नहीं थे, बल्कि ऐसा लगता है कि इस क्रांति ने क्षेत्र से परे, विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था पर भी अपने प्रभाव डाले हैं।

यह बात ध्यान देने योग्य है कि ईरान में इस्लामी क्रांति एक ऐसे समय में हुई, जब दुनिया पर द्विध्रुवीय व्यवस्था हावी थी और दुनिया दो ब्लॉकों, पूर्व और पश्चिम में विभाजित थी। दुनिया की दो बड़ी ताकतें, यानी अमेरिका और सोवियत संघ, इन दो ब्लॉकों की नेतृत्व कर रही थीं। हालांकि 1957 में 'तीसरी दुनिया' या 'गैर-संरेखित देशों' का एक गठबंधन अस्तित्व में आया था और धीरे-धीरे आकार ले रहा था, लेकिन यह गठबंधन द्विध्रुवीय व्यवस्था पर कोई प्रभाव नहीं डाल सका।

दूसरे विश्वयुद्ध के बाद द्विध्रुवीय व्यवस्था के अस्तित्व में आने के समय से यह सवाल उठता रहा था और व्यवहार में इसका परीक्षण किया जा रहा था कि दुनिया में होने वाली हर घटना या परिवर्तन या विभिन्न देशों के सिस्टम में होने वाली कोई भी बदलाव एक ब्लॉक की ताकत के संतुलन में लाभ या नुकसान के रूप में परिवर्तन ला सकती है। इसलिए इन दोनों बड़ी शक्तियों का मुकाबला इस घटना के अस्तित्व में आने और इसके कार्यप्रणाली के दायरे में महत्वपूर्ण था। द्विध्रुवीय व्यवस्था का चालीस साल का ऐतिहासिक अनुभव इस सिद्धांत का समर्थन करता है।

1949 में चीन की क्रांति की सफलता, 1952 में कोरिया युद्ध, मध्य पूर्व के अरब देशों में सैनिक विद्रोह, हंगरी संकट, बर्लिन दीवार, क्यूबा मिसाइल संकट और इसी तरह वियतनाम युद्ध कुछ ऐसे घटनाएँ थीं जो इन दो बड़ी शक्तियों में से एक की सहायता से घटीं और टकराव का कारण बनीं।

ध्यान देने योग्य बात यह है कि ईरान में क्रांति से पहले होने वाली घटनाओं में भी इन दोनों बड़ी शक्तियों की प्रतिस्पर्धा स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। उदाहरण के लिए, इस संदर्भ में सोवियत सैनिकों के माध्यम से अजरबैजान पर कब्जा, तेल के राष्ट्रीयकरण की मुहिम 28 मर्दाद (19 अगस्त) की साजिश और 1950 के दशक की घटनाएँ उल्लेखनीय हैं। हालांकि 1953 में तख्तापलट की साजिश के बाद ईरान को पश्चिमी ब्लॉक के एक हिस्से के रूप में पहचाना गया था और पश्चिमी सैन्य, राजनीतिक और आर्थिक समझौतों में सदस्यता प्राप्त करने के कारण यह उसका अभिन्न हिस्सा था, फिर भी ईरान की 2500 किलोमीटर लंबी सीमा पूर्वी शक्ति से साझा होने और असाधारण सैनिक परिस्थितियों के मद्देनजर सोवियत संघ की सरकार ईरान के मामलों के बारे में निश्चिंत नहीं रह सकती थी और सामान्यत: ईरान के बाहरी मामलों पर प्रतिक्रिया व्यक्त करती थी।

इमाम खुमैनी (रह.) की नेतृत्व में इस्लामी आंदोलन की शुरुआत से 5 जून 1963 को इसके चरम तक पहुँचने के बावजूद इमाम (रह.) के हमलों का मुख्य निशाना अक्सर अमेरिका हुआ करता था, फिर भी यह तथ्य सोवियत संघ के लिए इस अमेरिका विरोधी आंदोलन के बारे में सकारात्मक रुख अपनाने का कारण नहीं बना। सोवियत संघ ने न केवल इस आंदोलन का समर्थन नहीं किया, बल्कि एक अजीब स्थिति में यह देखा गया कि इस जन क्रांति के खिलाफ अमेरिका के सहयोगी देशों की तरह उसने नकारात्मक रुख अपनाया। यह नीति दो कारणों से थी:

आंदोलन की धार्मिक और इस्लामी प्रकृति। पूर्व और पश्चिम की शक्तियों के बीच आपसी मतभेद होने के बावजूद, वे धार्मिक, विशेषकर इस्लामी आंदोलनों के खिलाफ समान रुख रखते थे।

इमाम खुमैनी (रह.) ने अपने आंदोलन की शुरुआत में ही इन दोनों बड़ी शक्तियों के बारे में अपनी स्थिति घोषित की थी और उनका प्रसिद्ध वाक्य था: "अमेरिका इंग्लैंड से बदतर है, इंग्लैंड अमेरिका से बदतर है और सोवियत संघ दोनों से बदतर है, ये सभी एक दूसरे से अधिक गंदे हैं, लेकिन आज हमारा काम इन दुष्टों से है, अमेरिका से है।" और या यह मतलब था कि "हम अंतरराष्ट्रीय साम्यवाद से उतनी ही लड़ाई में हैं जितनी पश्चिमी साम्राज्यवादी ताकतों से अमेरिका की नेतृत्व में हैं।"

इन वाक्यों में इन दोनों बड़ी शक्तियों के लिए यह संदेश था कि दोनों शक्तियाँ इस आंदोलन के बढ़ने और सफल होने से नुकसान उठा चुकी हैं और इस क्रांति ने वैश्विक व्यवस्था में उनकी श्रेष्ठता को चुनौती दी है।

1978 और 1979 में इस्लामी क्रांति के शिखर तक पहुँचने और "न पूर्व, न पश्चिम, इस्लामी लोकतंत्र" का नारा लगाने के बाद, दोनों बड़ी शक्तियों द्वारा शाह का समर्थन और इस्लामी क्रांति के शत्रुओं, विशेष रूप से इराकी सरकार द्वारा सामूहिक रूप से युद्ध में मदद करना यह साबित करता है कि इस्लामी क्रांति द्विध्रुवीय व्यवस्था के लिए अस्वीकार्य थी, बल्कि क्रांतिकारी मुस्लिमों द्वारा प्राप्त सफलता और जन सेना और स्वयंसेवकों की इराक-ईरान युद्ध के दौरान स्थिरता और दृढ़ता ने द्विध्रुवीय व्यवस्था की नींव की कमजोरी को साबित किया।

यह कहना कोई अतिशयोक्ति नहीं होगा कि इस्लामी क्रांति की सफलता और इसकी दोनों बड़ी शक्तियों में से किसी एक पर निर्भर न होने की नीति द्विध्रुवीय व्यवस्था के पतन में प्रभावी थी।

मिखाइल गोर्बाचोव के कम्युनिस्ट पार्टी के जनरल सचिव और सोवियत संघ के राष्ट्रपति के रूप में सत्ता में आने और "पेरिस्ट्रोइका" और "ग्लासनोस्त" पर आधारित नीति पेश करने के परिणामस्वरूप, पूर्वी ब्लॉक और साथ ही द्विध्रुवीय व्यवस्था के पतन के संकेत दिखाई देने लगे।

इमाम खुमैनी (रह.) ने इसी समय में इन परिवर्तनों पर गहरी नजर डाली और वह इस बारे में चिंतित थे कि कहीं ऐसा न हो कि पूर्वी ब्लॉक का पतन पश्चिमी ब्लॉक की सफलता साबित हो और पूर्वी ब्लॉक के देश भी पश्चिम और अमेरिका की गोद में चले जाएं और पश्चिमी पूंजीवादी व्यवस्था को मॉडल के रूप में अपनाने के लिए प्रेरित किया जाए। उन्होंने गोर्बाचोव को भेजे गए अपने एक ऐतिहासिक पत्र में उसे इन खतरों से आगाह किया और पूर्वी ब्लॉक की असली समस्या, यानी भगवान से युद्ध, के बारे में उसे चेतावनी दी और पूरी ताकत से ऐलान किया कि इस्लाम का सबसे बड़ा और शक्तिशाली केंद्र, इस्लामी गणराज्य ईरान, सोवियत संघ के लोगों के धार्मिक शून्यता को भर सकता है।

विभिन्न रिवायतें स्पष्ट रूप से बताती हैं, कि हक़ और बातिल की जंग की तारीख़ में चार महत्वपूर्ण मोड़ ऐसे आए जिन पर शैतान ने आहें भरीं और विलाप किया,पहला, जब उसे अल्लाह के दरबार से निकाला,दूसरा,जब उसे ज़मीन पर उतारा गया,तीसरा,हज़रत पैगंबर मुहम्मद स.ल.की बेसत का दिन, जो इंसानियत की हिदायत का एक नया दौर था,और चौथा, ग़दीर का वाक़या जिसने नुबूवत के रास्ते को जारी रखने की गारंटी दी।दिलचस्प बात यह है कि अमीरुल मोमिनीन अ.स. इन निर्णायक पलों में से एक के गवाह थे,वह मुकाम जिसे पैगंबर स.ल. ने स्पष्ट रूप से तस्दीक किया।

हज़रत पैगंबर मुहम्मद स.ल.व.की नुबूवत के आरंभिक क्षणों की एक अद्भुत रिवायत बयान की गई है जिसमें अमीरुल मोमिनीन अली अ.स.व.ने वह समय देखा और सुना जब वह़ी नाज़िल हो रही थी और शैतान के नालों और विलाप की आवाज़ सुनाई दी।

यह आवाज़ उस समय शैतान की पराजय और हिदायत के नूर के सामने उसकी निराशा का प्रतीक थी रिवायत और उसकी व्याख्या इस प्रकार है।

 

रिवायत में आया है कि अमीरुल मोमिनीन अली अ.स. ने कहा,मैंने वह़ी के नुज़ूल (अवतरण) के समय शैतान के नाले की आवाज़ सुनी।

मैंने पूछा,या रसूलल्लाह स.ल. यह नाला कैसा था?

रसूल अल्लाह (स) ने जवाब दिया,यह शैतान है, जो अब अपनी इबादत से निराश हो चुका है और इस तरह नाला कर रहा है।

फिर रसूल अल्लाह स.ल.व. ने इमाम अली अ.ल.स.से फरमाया,निस्संदेह तुम वही सुनते हो जो मैं सुनता हूं और वही देखते हो जो मैं देखता हूं लेकिन तुम नबी नहीं हो बल्कि, तुम मेरे वज़ीर (सहयोगी) और मददगार हो और भलाई के रास्ते पर हो।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अ.स.से एक अन्य रिवायत में आया है,इबलीस ने चार बार नाला किया।

जिस दिन उसे अल्लाह की बारगाह से निकाला गया।

जिस दिन उसे धरती पर उतारा गया।

जिस दिन मुहम्मद (स.ल.स.) को नुबूवत मिली।

जिस दिन ग़दीर का वाक़या पेश आया।

यह रिवायतें यह स्पष्ट करती हैं कि हक़ और बातिल (सत्य और असत्य) की जंग में चार अहम मोड़ आए जब शैतान ने नाला किया:

अल्लाह की बारगाह से निकाला जाना।

धरती पर उतार दिया जाना।

पैगंबर मुहम्मद स.ल.व. की नुबूवत, जो इंसानियत के लिए हिदायत का नया दौर था।

ग़दीर का वाक़या जिसने नुबूवत के रास्ते को जारी रखने की गारंटी दी।

दिलचस्प बात यह है कि अमीरुल मोमिनीन अली अ.ल. अपनी उच्च स्थिति और स्थान की वजह से इन निर्णायक क्षणों के गवाह थे यह वही स्थान है जिसे रसूल अल्लाह स.ल.व. ने स्पष्ट रूप से प्रमाणित किया।

संदर्भ:

नहजुल बलाग़ा, ख़ुतबा 190

अल-ख़िसाल, जिल्द 1, पृष्ठ

आयतुल्लाहिल उज़्मा जवादी आमोली ने कहा कि अल्लाह तआला ने पड़ोसियों केअधिकारो का ख़्याल रखना वाजिब करार दिया है जो व्यक्ति इन हुक़ूक़अधिकारो का का ख़याल नहीं रखता, वह कुरआन की आयत "وَیَقْطَعُونَ مَا أَمَرَ اللَّهُ بِهِ أَنْ یُوصَلَ" (जो अल्लाह ने जोड़े रखने का हुक्म दिया है उसे तोड़ देते हैं,के दायरे में आता है।

,हुज्जतुल इस्लाम आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा कि अल्लाह तआला ने पड़ोसियों के अधिकारो का ख़याल रखना वाजिब करार दिया है जो व्यक्ति इन अधिकारो की परवाह नहीं करता वह कुरआन के आयत "وَیَقْطَعُونَ مَا أَمَرَ اللَّهُ بِهِ أَنْ یُوصَلَ" (जो अल्लाह ने जोड़े रखने का हुक्म दिया है, उसे तोड़ देते हैं) के दायरे में आता है।

मुसलमान भाई का ख़याल रखना:

आयतुल्लाह जवादी आमोली ने लिखा कि मुसलमान आपस में भाई-भाई हैं जैसा कि कुरआन में कहा गया है: إِنَّمَا الْمُؤْمِنُونَ إِخْوَةٌ (सूरह हुजुरात, आयत 10)। अगर कोई मुसलमान अपने दूसरे मुसलमान भाई की इज़्ज़त और अधिकारो का ख़याल नहीं रखता, तो यह أَمَرَ اللَّهُ بِهِ أَنْ یُوصَلَ" (अल्लाह के जोड़े रखने का हुक्म) की खिलाफ़वरज़ी है।

दोस्ती और रिश्तेदारी का दर्जा:

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया: जो कोई किसी के साथ बीस साल तक दोस्ती करता है, वह दोस्ती रिश्तेदारी का दर्जा हासिल कर लेती है" (बिहारुल अनवार, जिल्द 71, पृष्ठ 157)। इस तरह की दोस्ती पर रिश्तेदारी के अधिकार लागू होते हैं। इसलिए, कोई व्यक्ति अपने बीस साल पुराने दोस्त को तकलीफ नहीं पहुंचा सकता और न ही उससे रिश्ता तोड़ सकता है।

पड़ोसियों के अधिकार और उनका दायरा:

आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा कि पड़ोसियों के अधिकार सिर्फ़ 40 घरों तक सीमित नहीं हैं। यह अधिकार न केवल क्षैतिज (horizontal) दिशा में हैं बल्कि ऊर्ध्वाधर (vertical) दिशा में भी हैं। इसका मतलब यह है कि बहुमंजिला इमारतों में ऊपर और नीचे के फ्लैटों में रहने वाले भी पड़ोसी माने जाएंगे, और उनके अधिकारों का सम्मान करना वाजिब है।

तफ़सीर-ए- तस्नीम, भाग 2, पेज 561

इंसान की अपनी बुध्दि और ज्ञान उसके जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक, दुनिया और आख़ेरत के सुख और सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँचा सकते पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत का सबसे अहम मक़सद लोगों को हिदायत का रास्ता दिखाया जाना है, जिस से लोगों को असली सुख, सफ़लता और निजात प्राप्त हो सके।

इंसान की अपनी बुध्दि और ज्ञान उसके जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक, दुनिया और आख़ेरत के सुख और सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँचा सकते,

पैग़म्बरे इस्लाम की बेसत का सबसे अहम मक़सद लोगों को हिदायत का रास्ता दिखाया जाना है, जिस से लोगों को असली सुख, सफ़लता और निजात प्राप्त हो सके।

इंसान नबियों और अल्लाह की ओर से नबियों पर आने वाली ख़बरों के बिना उन सुख, सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँत सकता क्योंकि इंसान की अपनी बुध्दि और ज्ञान उसके जीवन की बहुत सी आवश्यकताओं को तो पूरा कर सकते हैं लेकिन व्यक्तिगत, सामाजिक, आध्यात्मिक दुनिया और आख़ेरत के सुख और सफ़लता और निजात तक नहीं पहुँचा सकते, इसलिए अगर इंसानी बुध्दि और उसके निजी ज्ञान के अलावा इन तक पहुँचने के लिए कोई और रास्ता न हो तो अल्लाह की रचना पर सवाल खड़ा हो जाएगा।

ऊपर दिये गए विश्लेषण के बाद यह परिणाम सामने आता है कि अल्लाह की हिकमत ने इस आवश्यकता को समझते हुए इंसानी बुध्दि और ज्ञान से मज़बूत चीज़ को इंसान के जीवन के सभी क्षेत्र के विकास के लिए रखा, अब इंसान ख़ुद अपने आपको इतना पवित्र कर ले कि उस स्थान तक पहुँच जाए या कुछ दूसरे पवित्र लोगों द्वारा वह फ़ार्मूला हासिल कर ले और उस सिलसिले का नाम, वही,है, जिसको अल्लाह ने नबियों से विशेष कर रखा है।

नबी सीधे अल्लाह से और बाक़ी सभी नबियों के द्वारा अल्लाह के संदेश को हासिल करते हैं और वह सारी चीज़ें जो असली सुख, सफ़लता औल निजात के लिए अनिवार्य हैं उन्हें हासिल कर लेते हैं। (आमूज़िशे अक़ाएद, पेज 178)

आपकी बेसत का दूसरा सबसे महत्वपूर्ण लक्ष्य न्याय प्रणाली और समानता को स्थापित करना था, जैसा कि क़ुर्आन फ़रमाता है कि हम ने अपने पैग़म्बरों को लोगों की हिदायत और उन्हें सही दिशा दिखाने के लिए दलीलों और न्याय प्रणाली के साथ भेजा ताकि लोग न्याय और समानता के उसूलों पर चलें। (सूरए हदीद, आयत 25)

क्या आप जानते हैं कि अल्लाह ने नबियों और रसूलों को क्या लक्ष्य दे कर भेजा है? क्या बेसत का लक्ष्य यह था कि हर दौर से अन्याय अत्याचार और जेहालत को हमेशा के लिए उखाड़ कर इंसानी सभ्यता को स्थापित कर सकें? या लक्ष्य यह था कि लोगों को नैतिक सिध्दांत और समाजिक प्रावधानों से परिचित करा सकें जिस से लोग इसी आधार पर अपने जीवन संबंधों को सुधार सकें?

इस सवाल का जवाब इस प्रकार उचित होगा कि ऊपर जो भी कहा गया नबी का लक्ष्य और उद्देश्य इन सब से ऊँचे स्तर का होता है, ऊपर लक्ष्यों का नाम लिया गया है वह नबी के लक्ष्य और उद्देश्य का एक हिस्सा है, और वह लक्ष्य अत्याचार और अन्याय का सफ़ाया कर के व्यक्तिगत और समाजिक क्षेत्र में न्याय प्रणाली की स्थापना है।

और हक़ीकत में यह लक्ष्य दूसरे तमाम लक्ष्यों को हासिल करने का बुनियादी ढ़ाँचा और पेड़ है, बाकी लक्ष्य इसी के टहनी हैं, क्योंकि अल्लाह की इबादत, नैतिक सिध्दांत, समाजिक प्रावधान और इंसानी सभ्यता से दूरी का कारण सही न्याय प्रणाली का न होना है।

'ग़ोर ग़रबी' गांव, जो हुम्स शहर के बाहरी इलाके में स्थित है, पिछले कुछ दिनों से हिंसा और अत्याचार का सामना कर रहा है। लेकिन यह पीड़ा नई नहीं है। इसका आरंभ सीरियाई शासन के पतन के समय हुआ, जब गांव के निवासियों को अपने घरों को छोड़ने और लेबनान और सीरिया की सीमाओं की ओर पलायन करने के लिए मजबूर होना पड़ा। यह पलायन सुरक्षा की आशंका और संभावित खतरों से बचने के लिए था।

कुछ समय बाद, तहरीर अल-शाम, जिसने देश के प्रशासन की जिम्मेदारी संभाली, ने ग्रामीणों को आश्वासन दिया कि वे अपने घरों को लौट सकते हैं, हथियार जमा कर सकते हैं, और अपने हालात से प्रशासन को आगाह कर सकते हैं। इन आश्वासनों ने ग्रामीणों को लौटने के लिए प्रेरित किया।

हालिया घटनाएं:

गांव में अस्थायी शांति के बाद, पिछले मंगलवार को तहरीर अल-शाम के सशस्त्र लड़ाके गांव में घुस आए। स्थानीय सूत्रों के अनुसार, उन्होंने अत्यंत बर्बरता के साथ गांव में अंधाधुंध गोलीबारी शुरू कर दी। इसके साथ ही, उन्होंने गांव के आसपास चौकियां स्थापित कर दीं और ग्रामीणों को अपमानजनक संप्रदायिक गालियां दीं, जैसे "तुम काफिर हो" और "हम तुम्हें नहीं बख्शेंगे।"

नरसंहार:

इस हिंसा में गांव के कई निवासी मारे गए। पहले चरण में, बासिल क़ासिम और मोहम्मद सईद जुरूद, जो कि 69 वर्षीय सेवानिवृत्त पुलिस अधिकारी थे, को मार दिया गया। मोहम्मद सईद, जो 2011 में गृहयुद्ध शुरू होने से पहले ही सेवानिवृत्त हो चुके थे, एक छोटी सी स्टेशनरी की दुकान चलाते थे।

इसके बाद, अहमद जर्दो, एक अन्य ग्रामीण, को उनकी ही आंखों के सामने उनकी पत्नी और बच्चों के बीच मार डाला गया, क्योंकि उन्होंने अपने घर को ध्वस्त करने का विरोध किया था। उनके घर को ध्वस्त कर दिया गया, उनकी पत्नी का अपमान किया गया, और उनके शहीद भाई के सीरियाई सेना के मेडल को अपमानित किया गया।

महिलाओं और परिवारों पर अत्याचार:

उम्म सामी सालेह, जिन्होंने अपने बेटे को गिरफ्तार करने से रोकने की कोशिश की, उन्हें "तुम्हारा कत्ल जायज़ है" जैसी संप्रदायिक गालियों का सामना करना पड़ा।

मौजूदा हालातः

गांव इस समय पूरी तरह से घेराबंदी में है। न तो कोई खाद्य सामग्री, न सब्जियां, और न ही अन्य आवश्यक वस्तुएं गांव तक पहुंच रही हैं। इस स्थिति के जारी रहने से ग्रामीणों के बीच कुपोषण की गंभीर समस्या हो सकती है।

इस हिंसा को रोकने में नई सीरियाई सरकार की उदासीनता स्पष्ट है। स्थानीय सूत्रों के अनुसार, इन अत्याचारों को "अबू अल-बरा अल-अक्शी" और "अहमद बकोरी" द्वारा नेतृत्व किए गए समूहों ने अंजाम दिया है।

गांव 'ग़ोर ग़रबी' के निर्दोष नागरिकों पर हो रहे इन अत्याचारों ने इंसानियत को झकझोर कर रख दिया है। इस समस्या का समाधान और ग्रामीणों की सुरक्षा सुनिश्चित करना बेहद जरूरी है।

हिज़बुल्लाह के प्रमुख शेख नईम क़ासिम ने कहा है कि लेबनान, इस्राइल के साथ हुए युद्ध के दौरान ईरान और इराक द्वारा दिये गये समर्थन को कभी नहीं भूलेगा। उन्होंने कहा इन देशों द्वारा दी गई सामग्री, सैन्य और राजनीतिक सहायता का आभार व्यक्त किया, जिसने लेबनान की प्रतिरोध और रक्षा प्रयासों में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

ईरान की भूमिका

ईरान, जो हज़बुल्लाह का लंबे समय से साथी है, ने वित्तीय सहायता, उन्नत हथियारों और रणनीतिक मार्गदर्शन प्रदान किया।शेख नईम क़ासिम ने यह स्पष्ट किया कि अगर ईरान का समर्थन न होता, तो लेबनान के लिए इस्राइली आक्रमण का मुकाबला करना बहुत मुश्किल हो जाता।

इराक़ का योगदान

शेख नईम ने इराकी समूहों और नेताओं का भी उल्लेख किया, जिन्होंने अपनी आंतरिक चुनौतियों के बावजूद लेबनान को युद्ध के संकटपूर्ण क्षणों में अपना समर्थन दिया।

 

उन्होंने क्षेत्रीय चुनौतियों का सामना करने में एकजुटता और गठबंधनों की महत्वपूर्णता पर जोर दिया। नईम क़ासिम का बयान उस समय आया है जब मध्य पूर्व में तनाव बढ़ा हुआ है, और उनका यह संदेश हिज़बुल्लाह, ईरान और इराक के बीच गहरे रिश्तों को दर्शाता है।

 

ग़ज़्ज़ा में नरसंहार और तबाही के समर्थक ब्रिटेन ने ट्रंप की अपमानजनक सलाह पर प्रतिक्रिया व्यक्त की और डाउनिंग स्ट्रीट में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के प्रवक्ता ने इसे खारिज कर दिया।

ब्रिटेन ने अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के उस प्रस्ताव को खारिज कर दिया जिसमें उन्होंने फ़िलिस्तीनियों को ग़ज़्ज़ा से पड़ोसी देशों में स्थानांतरित करने का सुझाव दिया था।

डाउनिंग स्ट्रीट में ब्रिटेन के प्रधानमंत्री के प्रवक्ता ने एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में ट्रंप के प्रस्ताव को खारिज करते हुए कहा,फ़िलिस्तीनी नागरिकों को अपने घरों में लौटने और अपनी ज़िंदगी फिर से बनाने का मौका मिलना चाहिए।

हालांकि ग़ज़्ज़ा के पीड़ित लोगों के खिलाफ ज़ायोनी शासन के नरसंहार को ब्रिटेन द्वारा अंतरराष्ट्रीय मंचों पर समर्थन देने की हमेशा आलोचना होती रही हैं।

डाउनिंग स्ट्रीट ने आगे कहा,जैसा कि विदेश मंत्री ने कहा है ग़ज़्ज़ा के लोगों के लिए जिनमें से कई ने अपने प्रियजनों घरों या ज़िंदगियों को खो दिया है, पिछले 14 महीने संघर्ष का एक जीवित दुःस्वप्न रहे हैं। यही कारण है कि ब्रिटेन लगातार ग़ज़्ज़ा में संघर्ष का समाधान खोजने की कोशिश कर रहा है।

अमेरिका ने साफ कर दिया है कि आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस (एआई) के मामले में चीन के साथ उसकी टक्कर बहुत गंभीर है। एआई एक ऐसी तकनीक है जो मशीनों को इंसानों की तरह सोचने और काम करने की ताकत देती है। यह आने वाले समय में हर देश की ताकत और तरक्की का सबसे बड़ा जरिया बन सकती है।

चीन और अमेरिका की ये रेस क्यों इतनी अहम है?

तकनीक में आगे निकलने की होड़:

एआई का इस्तेमाल अब हर जगह हो रहा है – दवा बनाने में, स्कूलों में पढ़ाई में, और यहां तक कि सेनाओं में भी। जो देश एआई में सबसे आगे रहेगा, वही बाकी दुनिया पर दबदबा बना सकेगा।

सुरक्षा और हथियार:

अमेरिका और चीन एआई का इस्तेमाल अपनी सेनाओं को और स्मार्ट बनाने के लिए कर रहे हैं। इसमें रोबोट, ड्रोन और साइबर हमलों से बचाव की तकनीकें शामिल हैं।

आर्थिक फायदे:

एआई की मदद से देशों की फैक्ट्रियां तेज़ी से काम कर सकती हैं, बिज़नेस को बढ़ावा मिल सकता है, और नई नौकरियां पैदा हो सकती हैं।

अमेरिका को चिंता क्यों है? चीन की तेज़ी:

चीन एआई के विकास में बहुत पैसा लगा रहा है और उसने 2030 तक इस क्षेत्र में दुनिया में सबसे आगे निकलने का लक्ष्य रखा है।

डेटा का फायदा: चीन के पास बड़ी आबादी है, जिससे उसे काफी डेटा मिलता है। डेटा एआई को स्मार्ट बनाने के लिए सबसे जरूरी चीज है।

अमेरिका की बढ़त पर खतरा: अमेरिका अब तक एआई में सबसे आगे था, लेकिन चीन तेजी से उसकी बराबरी कर रहा है। अमेरिका क्या कर रहा है? ज्यादा पैसा लगा रहा है:

अमेरिका एआई के रिसर्च और विकास पर बड़ा बजट खर्च कर रहा है।

नियम-कानून बना रहा है:

अमेरिका चाहता है कि एआई का इस्तेमाल सही तरीके से हो। वो चीन पर आरोप लगाता है कि वह इसका गलत इस्तेमाल कर रहा है, जैसे लोगों की जासूसी और सेंसरशिप।

दोस्त देशों के साथ मिलकर काम: अमेरिका जापान, भारत और यूरोप जैसे अपने सहयोगियों के साथ मिलकर चीन को चुनौती देने की कोशिश कर रहा है।

 चीन का मकसद क्या है?

चीन सिर्फ अमेरिका से आगे नहीं निकलना चाहता, बल्कि एआई की मदद से दुनिया में अपनी पकड़ मजबूत करना चाहता है। वह अपनी टेक्नोलॉजी को हर जगह इस्तेमाल करने के लिए धकेल रहा है।

नतीजा:

अमेरिका और चीन की यह होड़ सिर्फ टेक्नोलॉजी तक सीमित नहीं है। यह आने वाले वक्त में तय करेगी कि दुनिया की सबसे ताकतवर और असरदार देश कौन होगा। एआई के इस मुकाबले का असर हर किसी की जिंदगी पर पड़ेगा।

पैगंबर के समय दुनिया में बड़े साम्राज्य खत्म हो रहे थे, जैसे सासानी और रोमन साम्राज्य। उस समय बड़े धर्म जैसे ईसाई और ज़रोस्त्रियन धर्म भी गलत मान्यताओं से मिल गए थे। लोग अज्ञानता और ज़ुल्म का शिकार थे, जगह-जगह हंगामे और धोखाधड़ी थी। समाज में बुरे कानून, वर्ग भेद, जनजातीय लड़ाईयाँ, गलत भेदभाव, और महिलाओं के साथ खराब व्यवहार था। इसलिए, क़ुरआन ने उस समय को "स्पष्ट गुमराही" कहा है। इसे इस्लामी स्रोतों में "जाहिलियत का दौर" कहा जाता है।

पैग़म्बर के आने से पहले अरब के हालात

राजनीतिक स्थिति: अरब में कोई एक बड़ा राज्य नहीं था। लोग क़बीले (जनजातियों) में रहते थे और हर क़बीले का अपना नेता होता था। मक्का में क़ुरैश क़बीला का प्रभुत्व था, और मदीना में भी कई क़बीले थे। इस समय कोई केंद्रीय सरकार नहीं थी, और लोग अपने-अपने क़बीले के अनुसार चलते थे।

धार्मिक स्थिति: अधिकांश लोग  कीअसनाम की पूजा करते थे। मक्का में काबा में कई ख़ुदा रखे जाते थे, जिनकी लोग इबादत करते थे। इसके अलावा, कुछ लोग यहूदी और ईसाई थे, लेकिन उनकी संख्या कम थी। किताबों में यह बताया गया है कि लोग असली धर्म से भटक चुके थे और बहुत सी गलत बातें फैल चुकी थीं।

आर्थिक स्थिति: अरब की ज्यादातर अर्थव्यवस्था व्यापार और खेती पर आधारित थी। मक्का एक प्रमुख व्यापारिक शहर था, क्योंकि यह दो बड़े व्यापार मार्गों के बीच था। यहाँ पर व्यापार से क़ुरैश क़बीला को बहुत फायदा होता था।

सामाजिक स्थिति: समाज में असमानताएँ थीं। लोग अपने क़बीले के हिसाब से जीवन जीते थे, और महिलाओं की स्थिति बहुत कमजोर थी। किताबों में बताया गया है कि इस समय कुछ क़बीले अपनी बेटियों को ज़िंदा दफन कर देते थे, जो एक बहुत ही खराब प्रथा थी। इसके अलावा, लोग ज्यादातर अनपढ़ थे और बहुत सी गलत बातें मानते थे।

इस स्थिति को बदलने के लिए, इस्लाम आया और पैगंबर ने लोगों को एक नया और सही रास्ता दिखाया।

आज 28 जनवारी 27रजब हैं,जिस दिन हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व. के ईश्वरीय दूत होने की घोषणा की गई।

आज 28 जनवारी 27रजब हैं,जिस दिन हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व. के ईश्वरीय दूत होने की घोषणा की गई।

27 रजब को जब पैग़म्बरे इस्लाम की आयु 40 वर्ष थी, हिरा नामक ग़ुफ़ा में जिबरईल ने अल्लाह की ओर से उन्हें ईश्वरीय दूत घोषित किया।

इस प्रकार, आमुल फ़ील के 40वें वर्ष में मोहम्मद मुस्तफ़ा अंतिम ईश्वरीय दूत घोषित हुए, ताकि लोगों को जिहालत से निकालकर नैतिकता का पाठ पढ़ाएं और इंसानियत को नई ऊंटाईयों पर लेकर जाएं।

पैग़म्बरे इस्लाम को अंतिम ईश्वरीय दूत घोषित करने की घटना को इस्लाम में बेसत कहा जाता है, जो दुनिया में इस्लामी और नैतिक सभ्यता की शुरूआत का दिन है।

पैग़म्बरे इस्लाम ने मानवता के मार्गदर्शन के लिए आदर्श के रूप में अपने आचरण के साथ ही ईश्वरीय किताब क़ुरान को पेश किया, ताकि रहती दुनिया तक लोग इसके प्रकाश में सही मार्ग पर आगे बढ़ सकें।

आज के दिन ईरान और दुनिया भर में मुसलमान ईदे बेसत मना रहे हैं और मिठाईयों के साथ ही एक दूसरे को बधाई प्रस्तुत कर रहे हैं।

इस मौके पर हम आपकी खिदमत में अपनी पूरी टीम की तरफ से ईद ए बेसत की बहुत सारी बधाई पेश करते हैं।