
رضوی
इज़राइल एक दिन बर्बाद और खत्म हो जाएगा अल्लाह का वादा हैं।सैय्यद हसन नसरुल्लाह
लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने यह बताते हुऐ कि इज़राईल शासन का विनाश कुरान में एक वादा है कहा,अलअक्सा तूफान की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है और यह लड़ाई इजराइल के बड़े खतरे के खिलाफ मुसलमानों की एकता का कारण बन गई है।
लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने यह बताते हुऐ कि इज़राईल शासन का विनाश कुरान में एक वादा है कहा,अलअक्सा तूफान की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है और यह लड़ाई इजराइल के बड़े खतरे के खिलाफ मुसलमानों की एकता का कारण बन गई है।
अलमनार के अनुसार, लेबनान हिजबुल्लाह के महासचिव ने मंगलवार शाम को अपने भाषण में इस बात पर जोर दिया कि अलअक्सा स्टॉर्म की लड़ाई की महत्वपूर्ण उपलब्धियों में से एक मुसलमानों के बीच एकता और सांप्रदायिक तनाव में कमी हैं।
सैय्यद हसन नसरुल्लाह ने आशूरा के अवसर पर अपने भाषण की शुरुआत में शोक समारोह में भाग लेने के लिए लोगों को धन्यवाद दिया और उनकी सराहना की उन्होंने हुसैनी स.ल. शोक मनाने वालों की सुरक्षा के लिए सुरक्षा बलों को भी धन्यवाद दिया और उनकी सराहना की।
नसरुल्लाह ने कल रात ओमान की राजधानी मस्कट के उपनगरीय इलाके में सैय्यद अलशोहदा के शोक समारोह के दौरान गोलीबारी की घटना का जिक्र किया और इस देश की सरकार और राष्ट्र के प्रति अपनी संवेदना व्यक्त की है।
अपने बयान के दूसरे भाग में उन्होंने अलअक्सा तूफान ऑपरेशन का उल्लेख किया और कहा: इस ऑपरेशन का एक आशीर्वाद और सहायक मोर्चों की एकजुटता यह है कि इसका सांप्रदायिक तनाव को कम करने में सकारात्मक प्रभाव पड़ा है जबकि पश्चिमी जासूसी एजेंसियां पिछले दशक में इसके लिए तनाव काम कर रही थीं और योजना बनाई थी और इस पर भरोसा किया था।
उन्होंने कहा हम एक ऐसी लड़ाई लड़ रहे हैं जिसका क्षितिज और परिप्रेक्ष्य स्पष्ट है और कुरान का वादा है कि ज़ायोनी शासन को नष्ट कर दिया जाएगा। अलअक्सा स्टॉर्म की लड़ाई सबसे लंबी और सबसे बड़ी लड़ाइयों में से एक है जिसे दुश्मन ने स्वीकार किया है, और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह लड़ाई प्रतिरोधी देशों व राष्ट्रों की लड़ाई है।
हज़रत अब्बास अलैहिस्लाम की कर्बला में शहादत
हज़रत अबूल फ़ज़'लिल अब्बास अ.स. की बेहतरीन वफ़ादारी के लिए यही काफ़ी है कि आप फ़ुरात तक गए और पानी नहीं पिया।
यह जो ज़ियादातर कहा जाता है कि इमाम हुसैन (अ) ने हज़रत अब्बास (अ) को पानी लेने भेजा था और जो कुछ मैंने मोतबर किताबों में मसलन "अल इरशाद" और किताब "लुहुफ़ इब्ने ताऊस" में पढ़ा है थोड़ा मुख़्तलिफ़ है [इन रिवायत के मुताबिक़: जो शायद कि इस वाक़िये की अहमियत को और ज़ियादा वाज़ेहतर कर दे।
इन किताबों में यह रिवायत कुछ इस तरह है कि जब आख़िरी लम्हों में अहले हरम के बच्चों, नौमौलूद और छोटी बच्चियों पर प्यास की शिद्दत इस हद तक ज़ियादा हो चुकी थी कि ख़ुद इमाम हुसैन (अ) और अबूल फ़ज़'लिल अब्बास (अ) एक साथ पानी लेने गए हैं।
हज़रत अब्बास (अ) अकेले नहीं गए। ख़ुद इमाम हुसैन (अ) और हज़रत अब्बास (अ) एक साथ पानी लेने गए हैं। आप दोनों हज़रात नहरे फ़ुरात के उस किनारे की जानिब गए जो ख़ैमों से नज़दीक था ताकि पानी ला सकें।
आप दोनों भाइयों के जंग के हवाले से बड़ी हैरानकुन बातें लिखीं गईं हैं।
इन दोनों भाइयों ने बेहद शुजाआना तरीक़े से जंग की।
इमाम हुसैन (अ) तक़रीबन 57 साल की उम्र के हैं लेकिन अपनी शुजाअत और ताक़त के लिहाज़ से बेहतरीन और बेनज़ीर हैं और हज़रत अब्बास (अ) जो 34 साल के हैं अपनी तमामतर ख़ुसूसियात के साथ यह दोनों भाई एक दूसरे के साथ शाना ब शाना दुश्मनों के समंदर के दरमियान दुश्मनों को चीरते हुए नहरे फ़ुरात की तरफ़ रवा हैं ताकि पानी तक पहुंच सकें।
इसी सख़्ततरीन जंग के दौरान अचानक इमाम हुसैन (अ) को महसूस हुआ कि इनके भाई अब्बास (अ) और इनके दरमियान फ़ासला बहुत ज़ियादा हो गया है। इसी दौरान हज़रत अब्बास (अ) पानी पर पहुंच गए।
जिस तरह से नक़्ल हुआ है कि आपने पानी की मश्क को भरा ताकि ख़ैमों तक ले जाएं।
यहां पर हर इंसान अपने को यह इजाज़त ज़रूर देगा कि एक चुल्लू पानी से अपने खुश्क हलक़ को भी तर करे लेकिन यहां वफ़ादारी की इंतिहा थी। जब अबूल फ़ज़'लिल अब्बास (अ) ने पानी की मश्क उठाई और आपकी निग़ाह पानी पर पड़ी तो आपको इमाम हुसैन (अ) के तश्ना लब याद आ गए। शायद बच्चे और बच्चियों की अल अतश की फ़रियादें याद आ गईं। शायद अली असग़र (अ) का रोना और प्यास याद आ गई।
आपने पानी नहीं पिया और नहर से बाहर आ गए। बस यहीं पर मसाएब का पहाड़ टूटा, अचानक इमाम हुसैन (अ) ने भाई की सदा सुनी जो लश्करियों के हुजूम से मैदान से आ रही थी।
ऐ भाई! अपने भाई की मदद को आओ!
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जीवन तथा उनका व्यक्तित्व विभिन्न आयामों से समीक्षा योग्य है। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम, हज़रत अली अलैहिस्सलाम और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा जैसी हस्तियों के साथ रहने से हज़रत ज़ैनब के व्यक्तित्व पर इन हस्तियों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। हज़रत ज़ैनब ने प्रेम व स्नेह से भरे परिवार में प्रशिक्षण पाया। इस परिवार के वातावरण में, दानशीलता, बलिदान, उपासना और सज्जनता जैसी विशेषताएं अपने सही रूप में चरितार्थ थीं। इसलिए इस परिवार के बच्चों का इतने अच्छे वातावरण में पालन - पोषण हुआ। हज़रत अली अलैहिस्सलाम व फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह के बच्चों में नैतिकता, ज्ञान, तत्वदर्शिता और दूर्दर्शिता जैसे गुण समाए हुए थे, क्योंकि मानवता के सर्वश्रेष्ठ प्रशिक्षकों से उन्होंने प्रशिक्षण प्राप्त किया था।
हज़रत ज़ैनब में बचपन से ही ज्ञान की प्राप्ति की जिज्ञासा थी। अथाह ज्ञान से संपन्न परिवार में जीवन ने उनके सामने ज्ञान के द्वार खोल दिए थे। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के परिजनों के कथनों के हवाले से इस्लामी इतिहास में आया है कि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा को ईश्वर की ओर से कुछ ज्ञान प्राप्त था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पौत्र हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अपने एक भाषण में हज़रत ज़ैनब को संबोधित करते हुए कहा थाः आप ईश्वर की कृपा से ऐसी विद्वान है जिसका कोई शिक्षक नहीं है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा क़ुरआन की आयतों की व्याख्याकार थीं। जिस समय उनके महान पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम कूफ़े में ख़लीफ़ा थे यह महान महिला अपने घर में क्लास का आयोजन करती तथा पवित्र क़ुरआन की आयतों की बहुत ही रोचक ढंग से व्याख्या किया करती थीं। हज़रत ज़ैनब द्वारा शाम और कूफ़े के बाज़ारों में दिए गए भाषण उनके व्यापक ज्ञान के साक्षी हैं। शोधकर्ताओं ने इन भाषणों का अनुवाद तथा इनकी व्याख्या की है। ये भाषण इस्लामी ज्ञान विशेष रूप से पवित्र क़ुरआन पर उस महान हस्ती के व्यापक ज्ञान के सूचक हैं।
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान की बहुत प्रशंसा की गई है। जैसा कि इतिहास में आया है कि इस महान महिला ने अत्यंत प्रतिकूल परिस्थितियों में भी अनिवार्य उपासना के साथ साथ ग़ैर अनिवार्य उपासना करने में भी तनिक पीछे नहीं रहीं। हज़रत ज़ैनब को उपासना से इतना लगाव था कि उनकी गणना रात भर उपासना करने वालों में होती थी और किसी भी प्रकार की स्थिति ईश्वर की उपासना से उन्हें रोक नहीं पाती थी। इमाम ज़ैनुलआबेदीन अलैहिस्सलाम बंदी के दिनों में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक लगाव की प्रशंसा करते हुए कहते हैः मेरी फुफी ज़ैनब, कूफ़े से शाम तक अनिवार्य नमाज़ों के साथ - साथ ग़ैर अनिवार्य नमाज़ें भी पढ़ती थीं और कुछ स्थानों पर भूख और प्यास के कारण अपनी नमाज़े बैठ कर पढ़ा करती थीं। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जो अपनी बहन हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के आध्यात्मिक स्थान से अवगत थे, जिस समय रणक्षेत्र में जाने के लिए अंतिम विदाई के लिए अपनी बहन से मिलने आए तो उनसे अनुरोध करते हुए यह कहा थाः मेरी बहन मध्यरात्रि की नमाज़ में मुझे न भूलिएगा।
हज़रत ज़ैनब के पति हज़रत अब्दुल्लाह बिन जाफ़र की गण्ना अपने काल के सज्जन व्यक्तियों में होती थी। उनके पास बहुत धन संपत्ति थी किन्तु हज़रत ज़ैनब बहुत ही सादा जीवन बिताती थीं भौतिक वस्तुओं से उन्हें तनिक भी लगाव नहीं था। यही कारण था कि जब उन्हें यह आभास हो गया कि ईश्वरीय धर्म में बहुत सी ग़लत बातों का समावेश कर दिया गया है और वह संकट में है तो सब कुछ छोड़ कर वे अपने प्राणप्रिय भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ मक्का और फिर कर्बला गईं।
न्होंने मदीना में एक आराम का जीवन व्यतित करने की तुलना में कर्बला की शौर्यगाथा में भाग लेने को प्राथमिकता दी। इस महान महिला ने अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ उच्च मानवीय सिद्धांत को पेश किया किन्तु हज़रत ज़ैनब की वीरता कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात सामने आई। उन्होंने उस समय अपनी वीरता का प्रदर्शन किया जब अत्याचारी बनी उमैया शासन के आतंक से लोगों के मुंह बंद थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात किसी में बनी उमैया शासन के विरुद्ध खुल कर बोलने का साहस तक नहीं था ऐसी स्थिति में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अत्याचारी शासकों के भ्रष्टाचारों का पिटारा खोला। उन्होंने अत्याचारी व भ्रष्टाचारी उमवी शासक यज़ीद के सामने बड़ी वीरता से कहाः हे यज़ीद! सत्ता के नशे ने तेरे मन से मानवता को समाप्त कर दिया है। तू परलोक में दण्डित लोगों के साथ होगा। तुझ पर ईश्वर का प्रकोप हो । मेरी दृष्टि में तू बहुत ही तुच्छ व नीच है। तू ईश्वरीय दूत पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के धर्म को मिटाना चाहता, मगर याद रख तू अपने पूरे प्रयास के बाद भी हमारे धर्म को समाप्त न कर सकेगा वह सदैव रहेगा किन्तु तू मिट जाएगा।
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की वीरता का स्रोत, ईश्वर पर उनका अटूट विश्वास था। क्योंकि मोमिन व्यक्ति सदैव ईश्वर पर भरोसा करता है और चूंकि वह ईश्वर को संसार में अपना सबसे बड़ा संरक्षक मानता है इसलिए निराश नहीं होता। जब ईश्वर पर विश्वास अटूट हो जाता है तो मनुष्य कठिनाइयों को हंसी ख़ुशी सहन करता है। ईश्वर पर विश्वास और धैर्य, हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के पास दो ऐसी मूल्यवान शक्तियां थीं जिनसे उन्हें कठिनाईयों में सहायता मिली। इसलिए उन्होंने उच्च - विचार और दृढ़ विश्वास के सहारे कर्बला - आंदोलन के संदेश को फैलाने का विकल्प चुना। कर्बला से लेकर शाम और फिर शाम से मदीना तक राजनैतिक मंचों पर हज़रत ज़ैनब की उपस्थिति, अपने भाइयों और प्रिय परिजनों को खोने का विलाप करने के लिए नहीं थी। हज़रत ज़ैनब की दृष्टि में उस समय इस्लाम के विरुद्ध कुफ़्र और ईमान के सामने मिथ्या ने सिर उठाया था। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का आंदोलन बहुत व्यापक अर्थ लिए हुए था। उन्होंने भ्रष्टाचारी शासन को अपमानित करने तथा अंधकार और पथभ्रष्टता में फंसे इस्लामी जगत का मार्गदर्शन करने का संकल्प लिया था। इसलिए इस महान महिला ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के पश्चात हुसैनी आंदोलन के संदेश को पहुंचाना अपना परम कर्तव्य समझा। उन्होंने अत्याचारी शासन के विरुद्ध अभूतपूर्व साहस का प्रदर्शन किया। उन्होंने अपने जीवन के इस चरण में पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के अधिकारों की रक्षा की तथा शत्रु को कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना से लाभ उठाने से रोक दिया। हज़रत ज़ैनब के भाषण में वाक्पटुता इतनी आकर्षक थी कि लोगों के मन में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की याद ताज़ा हो गई और लोगों के मन में उनके भाषणों का बहुत गहरा प्रभाव पड़ा। कर्बला में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की शहादत के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने जिस समय कूफ़े में लोगों की एक बड़ी भीड़ को संबोधित किया तो लोग उनके ज्ञान एवं भाषण शैली से हत्प्रभ हो गए। इतिहास में है कि लोगों के बीच एक व्यक्ति पर हज़रत ज़ैनब के भाषण का ऐसा प्रभाव हुआ कि वह फूट फूट कर रोने लगा और उसी स्थिति में उसने कहाः हमारे माता पिता आप पर न्योछावर हो जाएं, आपके वृद्ध सर्वश्रेष्ठ वृद्ध, आपके बच्चे सर्वश्रेष्ठ बच्चे और आपकी महिलाएं संसार में सर्वश्रेष्ठ और उनकी पीढ़ियां सभी पीढ़ियों से श्रेष्ठ हैं।
कर्बला की घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को इतिहास की घटनाओं की भीड़ में खोने से बचाने के लिए निरंतर प्रयास किया। यद्यपि कर्बला की त्रासदीपूर्ण घटना के पश्चात हज़रत ज़ैनब अधिक जीवित नहीं रहीं किन्तु इस कम समय में उन्होंने इस्लामी जगत में जागरुकता की लहर दौड़ा दी थी। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अपनी उच्च- आत्मा और अटूट संकल्प के सहारे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आंदोलन को अमर बना दिया ताकि मानव पीढ़ी, सदैव उससे प्रेरणा लेती रही। यह महान महिला कर्बला की घटना के पश्चात लगभग डेढ़ वर्ष तक जीवित रहीं और सत्य के मार्ग पर अथक प्रयास से भरा जीवन बिताने के पश्चात वर्ष 62 हिजरी क़मरी में इस नश्वर संसार से सिधार गईं।
एक बार फिर हज़रत ज़ैबन सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की पुण्यतिथि पर हम सभी श्रोताओ की सेवा में हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं। कृपालु ईश्वर से हम यह प्रार्थना करते हैं कि वह हम सबको इस महान हस्ती के आचरण को समझ कर उसे अपनाने का साहस प्रदान करे।
आशूरा- वास्तुकला
इस कार्यक्रम में हम कर्बला, इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों की शहादत की याद में निर्माण किए जाने वाले पवित्र स्थलों जैसे कि इमाम बाड़ा और सक्क़ा ख़ाने अर्थात प्याऊ का विवरण पेश करेंगे।
समाज, परिवार और जलवायु परिस्थितियों की भांति धर्म भी मनुष्य की जीवन शैली को प्रभावित करता है। इसका मतलब यह है कि ईसाई व्यक्ति ईसाई धर्म की शिक्षाओं से प्रभावित होता है और वह अपनी दिनचर्य की आवश्यकताओं में इन शिक्षाओं को दृष्टिगत रखता है, इसी तरह मुसलमान व्यक्ति अपने जीवन में इस्लाम धर्म के सिद्धांतों से प्रभावित होता है और उनके अनुपालन का प्रयास करता है।
धार्मिक स्थलों को किसी भी धर्म के अनुयायियों के विश्वासों का प्रतीक माना जाता है तथा उस धर्म के अनुयायियों के विश्वासों के साथ उनका मज़बूत संबंध होता है। आशूरा की घटना मानव इतिहास में एक असमान्य घटना है, तथा उससे मिलने वाले पाठ जैसे कि अत्याचार से मुक़ाबला एवं सम्मानजनक मौत अपमानजनक जीवन से बेहतर है, उसे एक समयसीमा से ऊपर उठाकर हर युग एवं हर स्थान के लिए एक संस्कृति के रूप में पेश करते हैं। आशूरा संस्कृति से प्रभावित निर्माणकार्य एवं वास्तुकला शिया समुदाय के अतिरिक्त किसी और समाज में देखने को नहीं मिलती और उनकी निर्माण शैली एक प्रकार से उस घटना की याद दिलाती है।
ईरान के शहरों और गांवों में हुसैनिये अर्थात इमामबाड़े देखने को मिलते हैं जो अच्छी तरह परिभाषित हैं और आशूरा की घटना से उनका मज़बूत संबंध है। इमामबाड़े इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी अर्थात शोक सभाओं के आयोजन से विशेष होते हैं तथा पुराने शहरों में शहर के मुख्य मार्गों या बाज़ार में स्थित होते हैं कि जो शहर का प्रमुख स्थान माने जाते हैं। मस्जिदों के विपरीत इमामबाड़ों में महराब नहीं होती, इससे मस्जिद और इमामबाड़े के प्रयोग का अंतर स्पष्ट हो जाता है।
इमामबाड़ों के नामों से पता चलता है कि उनके निर्माता सामान्य रूप से शहरों में रहने वाले धनी एवं प्रभावशाली व्यक्ति रहे हैं। इन लोगों ने इमामबाड़ों से विशेष इमारतें निर्माण करवायीं और कभी कभी यह लोग अपने निवास को मोहर्रम के महीने में इमाम हुसैन (अ) की अज़ादारी और उससे संबंधित कार्यक्रमों के आयोजन के लिए विशेष कर दिया करते थे और उन्हें मजलिसों एवं शोक सभाओं के लिए वक़्फ़ कर दिया कर देते थे। यही कारण है कि अनेक राजकुमारों एवं धनी लोगों के घर इस प्रकार से बनाए जाते थे कि आंगन में छाया की व्यवस्था कर के मजलिसों एवं सभाओं का आयोजन किया जाता था।
इमामबाड़े का भीतरी भाग अधिकतर तीन भागों में विभाजित होता है। आंगन को अब्बासिया कहा जाता है और वहां इमाम हुसैन (अ) के भाई एवं सेनापति हज़रत अब्बास अलमदार से संबंधित कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है, इमामबाड़े के पीछे के कमरे कि जन्हें ज़ैनबिया कहा जाता है महिलाओं के लिए विशेष होते हैं। स्थायी इमामबाड़ों के अलावा, मोहर्रम के महीने में ईरान के शहरों और गांवों में बड़ी संख्या में अस्थायी इमामबड़ों की व्यवस्था की जाती थी। सड़कों के किनारे एक विशेष स्थान को तैयार करना और उन पर नौहे, मरसिये अर्थात शोक गीत एवं दुआएं लिखे हुए बैनर लगाना, वास्तव में यह धार्मिक वास्तुकला का वह रूप है कि जिसे केवल आशूरा अर्थात कर्बला संस्कृति को समझकर ही समझा जा सकता है और उससे संबंध स्थापित किया जा सकता है।
ईरानी वास्तुकला संस्कृति में आशूरा संस्कृति का दूसरा प्रभाव सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ का निर्माण है। प्याऊ, सार्वजनिक रास्तों में उस छोटे से स्थल को कहते हैं कि जिसे स्थानीय लोग राहगीरों को पानी पिलाने के लिए बनाते थे। इस छोटी सी कोठरी में सभी के लिए ठंडा और स्वच्छ पानी उपलब्ध कराया जाता है। प्याऊ के निर्माण का प्रचलन शियों द्वारा कर्बला के शहीदों और प्यासों की याद में हुआ और यह एक पुण्य का कार्य समझा जाता है। प्याऊ में एक बड़ा सा घड़ा रखा जाता था जिसमें पीने का पानी डाला जाता था और उसके पास ज़ंजीर से बांधकर प्याले रखे जाते थे। कुछ प्याऊ स्थायी थे और कुछ विशेष अवसरों विशेष रूप से मोहर्रम के महीने में मातम और अज़ादारी करने वालों के लिए स्थापित किए जाते थे। रात में गुज़रने वालों का ध्यान प्याऊ की ओर दिलाने हेतु प्याऊ के पास दीप जलाये जाते थे कि जिन्हें बाद में पवित्रता का स्थान प्राप्त हो गया और लोग अपनी मनोकामना और मन्नत के पूरा होने की आशा में प्याऊ में दीप जलाते थे।
जो लोग सक़्क़ाख़ाने या प्याऊ जाते हैं और वहां प्रार्थना करते हैं धर्म में आस्था रखने वाले एवं एक प्रकार से धर्म पर गहरा विश्वास रखते हैं। वे लोग कर्बला की घटना एवं आशूरा अर्थात 10 मोहर्रम के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों के दुख दर्द की याद में इन स्थलों का सम्मान करते हैं और इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र परिजनों विशेषकर इमाम हुसैन (अ) के प्रति अपनी आस्था एवं प्रेम को प्रकट करते हैं।
ग़ौरतलब है कि यद्यपि वर्तमान समय में सक्क़ाख़ानों के निर्माण का प्रचलन नहीं है लेकिन जिन स्थानों पर लोगों के पानी पीने की व्यवस्था की जाती है वहां अच्छी एवं सुन्दर लिपि में इमाम हुसैन (अ) की याद में कथन लिखे हुए होते हैं कि जो इसी प्रकार लोगों के हृदयों में आशूरा संस्कृति का दीप जलाये हुए हैं।
शहादत इमाम हुसैन मानव इतिहास की बहुत बड़ी त्रासदी
मोहर्रम का महीना इस्लामी महीनों में कई मायनों में बहुत अहम है। इतिहास की बहुत सी अहम घटनाएं इसी महीने में हुई हैं। लेकिन दो घटनाएं ऐसी हैं जो इस महीने के विचार से बुनियादी स्तर पर जुड़ी हैं: लोग रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के मदीना हिजरत और रसूलुल्लाह के दूसरे नवासे हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की कर्बला में शहादत। हिजरत की घटना भी दुश्मनों से इस्लाम की रक्षा के लिए सामने आयी और कर्बला की घटना भी इस्लाम और इस्लामी व्यवस्था के कमज़ोर होने को जीवंत करने के लिए सच का साथ देने वालों के द्वारा उठाये गये क़दम के नतीजे में सामने आयी, इस प्रकार इन दोनों घटनाएं तर्क संगत पाई जाती हैं।
कर्बला की घटना न केवल इस्लामी बल्कि मानव इतिहास की एक बहुत बड़ी त्रासदी है। यही वजह है कि आज लगभग चौदह सौ साल गुज़रने के बावजूद ये घटना लोगों के मन में इस तरह ताज़ा है जैसे ये बस कल की बात है। मानव इतिहास की बहुत सी ऐसे घटनाएं हैं जो इंसानो के अक़्ल और ज़मीर को झिंझोड़ कर रख दिया। जो उसकी याददाश्त के अनमोल और अमिट हिस्सा बनकर रह गए। हजरत हुसैन बिन अली रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की ये घटना ऐसा ही है। ऐसी घटनाएं चाहे कितने ही दर्दनाक और दिल को दुखाने वाले ही क्यों न हों लेकिन वास्तविकता ये है कि वो ब्रह्मांड में खुदा की जारी सुन्नत और फितरत (प्रकृति) के तकाज़े के बिल्कुल मुताबिक होते हैं। अल्लाह की बनाई हुई प्राकृतिक व्यवस्था ये है कि जब भी उसके दीन को कोई खतरा होता है, अल्लाह किसी महान और पवित्र बंदे को दीन के मजबूत क़िले की सुरक्षा के लिए भेज देता है और उसके द्वारा उसकी रक्षा का काम अंजाम देता है।
एक हदीस में जो सुनन अबु दाऊद में शामिल है, बताया गया है कि अल्लाह ताला हर सदी के सिरे पर धर्म को अद्यतन करने और उसकी रक्षा के लिए किसी महान व्यक्ति को चुनता है। ये सिलसिला क़यामत तक बाक़ी रहेगा। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की गिनती इस्लाम धर्म की उन कुछ महान हस्तियों में होता है जिन्होंने अपने खून से इस्लाम के पौधे को सींचा और उसकी रक्षा करने को अपना पहला कर्तव्य माना और हक़ीकत ये है कि क़यामत तक के लिए इस्लाम के किले की रक्षा के लिए अपनी जान को न्योछावर कर डालने की एक बेनज़ीर परंपरा स्थापित की।
हक़ीकत ये है कि दुनिया की कोई ऐसी क़ौम नहीं है जिसने इस घटना से प्रेरणा और आध्यात्मिक सीख न हासिल की हो और उसके विचारों और दृष्टिकोणों पर इसका कोई असर न पड़ा हो। महात्मा गांधी कहते हैं किः मैंने इस्लाम के शहीदे आज़म इमाम हुसैन के जीवन का अध्ययन किया है और कर्बला की घटनाओं पर मैंने विचार किया है। इन घटनाओं को पढ़कर मुझे ये स्पष्ट हुआ कि अगर हिंदुस्तान अज़ादी चाहता है तो उसे हज़रत हुसैन की शैली और चरित्र का पालन करना पड़ेगा।''
इस्लामी इतिहास में इस बात पर विद्वान लोग सहमत हैं कि रसूलुल्लाह सल्लल्लाहू अलैहि वसल्लम के नवासे की इस शहादत ने इस्लाम की रगों में ताज़ा खून को दौड़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। चारों खलीफा के समय के बाद इस्लामी राजनीतिक व्यवस्था जिस फसाद और बिगाड़ का शिकार हुआ। इस्लाम की सामूहिक व राजनीतिक आत्मा इस फसाद से हमेशा परहेज़ करती रही है। लेकिन इतिहास गवाह है कि सत्तावादी होने मिजाज़ किसी भी सिद्धांत और विचारधारा का पाबंद नहीं होता। इस सत्ता और शक्ति की चाहत ने जब इस बात की कोशिश की कि इस्लामी सिद्धांतों की अपनी मनमानी व्याख्या करे, इस्लामी व्यवस्था को उसके असल रुख से मोड़ दे तो हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू ने उम्मत की तरफ से अपना कर्तव्य समझकर इस व्यवस्था की रक्षा में अपनी कीमती जान कुर्बान कर दी। इस तरह शहादत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू सत्य के लिए आखरी हद तक खुद को लुटा देने और न्योछावर कर देने के ऐतिहासिक प्रतीक बन गये। उम्मत का शहीदे आज़म इस बात में यक़ीन रखता है कि हुसैन का क़त्ल वास्तव में यज़ीद की ही मौत है और ये कि इस्लाम की ज़िंदगी कर्बला जैसी घटनाओं में ही छिपी हैः
क़त्ल हुसैन असल में मरगे यज़ीद है
इस्लाम ज़िंदा होता है हर कर्बला के बाद
इसलिए हुसैनी रूह और जज़्बा, उम्मत में हमेशा बरकरार रहा। जब भी इस्लाम के कलमे को ऊंचा करने और सबसे बड़े जिहाद (सबसे बड़ा जिहाद ज़ालिम शासक के सामने कलमए हक़ को बुलंद करना है) के तहत वक़्त की जाबिर ताक़तों के खिलाफ मुकाबला करने की ज़रूरत आई, हुसैनी जज़्बे से भरपूर उम्मत की रक्षा करने वालों ने कभी इससे पीछे नहीं हटे। इसी शहादत की भावना की विरासत को संभाले हुए फ़िलिस्तीन के पीड़ितों ने आधी सदी से अधिक समय से अपने सीनों पर गोलियां खा रहे हैं। ज़ालिम व निर्मम यहूदी शक्तियां उनके अस्तित्व का एक एक कतरा निचोड़ लेने के लिए आमादा हैं लेकिन वो अपना सिर झुकाने और मैदान से पीछे हट जाने के लिए तैयार नहीं हैं। अभी पिछले दिनों आलम अरब दुनिया में जो महान क्रांति हुई और जिसने तानाशाहों की सरकारों के तख्ते पलट दिए और शोषण करने वालों और निरंकुशों के बीच बिखराव पैदा कर दिया, जिसकी गूंज और धमक विभिन्न देशों में अब भी सुनाई दे रही थी, निस्संदेह इस के पीछे यही हुसैनी भावना काम कर रही है। इस समय इस बात की भी कोशिश हो रही है कि कर्बला में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत को नये अर्थ दिये जायें और इसे ऐसे ऐसे अर्थ पहनाए जायें जिससे इस महान घटना के असल महत्व और उपादेयता बाक़ी न रहे। ये निस्संदेह अस्लाफ इकराम के नज़रिए और मसलक और उम्मत की सामूहिक अंतरात्मा से संघर्षरत है। उसे कभी भी उम्मेत का शहीदे आज़म कुबूल और बर्दाश्त नहीं कर सकता। शहादत इमाम हुसैन के सम्बंध में किसी बहस की नई बिसात बिछाने की जरूरत महसूस नहीं होती। बल्कि मेरी नज़र में ये बिल्कुल बकवास है। अलबत्ता, अल्लामा इब्ने तैमिया ने अपने फतवा में हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत पर जो कुछ लिखा है वो यहाँ पेश कर देना मुनासिब होगा:
'' जिन लोगों ने हज़रत हुसैन का क़त्ल किया या उसका समर्थन किया या उससे सहमत हुआ, उस पर अल्लाह की, मलाइका की और तमाम लोगों की लानत, अल्लाह ताला ने हज़रत हुसैन को इस दिन (यौमे आशूरा) शहादत से सरफ़राज़ किया और इसके ज़रिए उन लोगों को जिन्होंने उन्हें क़त्ल किया था या उनके क़त्ल में मदद की थी या इससे सहमत हुए थे, उन्हें इसके ज़रिए ज़लील (अपमानित) किया। उनकी ये शहादत इस्लाम के पहले के शहीदों की पैरवी में थी। वो और उनके भाई जन्नत में जाने वाले नौजवानों के सरदार हैं। दरअसल हिजरत, जिहाद और सब्र का वो हिस्सा उनको नहीं मिल सका था जो उनके अहले बैत को हासिल था। इसलिए अल्लाह ने उनकी इज़्ज़त व करामत को पूरा करने के लिए उन्हें शहादत से सरफ़राज़ किया। उनका क़त्ल उम्मत के लिए एक बड़ी मुसीबत थी और अल्लाह ताला ने बताया कि मुसीबत के वक्त इन्ना लिल्लाहे वइन्ना एलैहि राजेऊन पढ़ा जाए। कुरान कहता है: सब्र करने वालों को खुश खबरी सुना दो। जब उनको कोई मुसीबत पेश आती है तो वो कहते हैं कि हम अल्लाह के लिए हैं और हमें अल्लाह की तरफ़ ही लौटना है। अल्लाह की उन पर नवाज़िशें और रहमतें हैं और यही लोग हिदायत याफ्ता हैं।'' (फतावा इब्ने तैमिया जिल्द 4 , सफ्हा- 4835)
सल्फ़ सालेहीन के इससे मिलते जुलते बहुत से बयान हैं। जिनका अध्ययन इस विषय पर लिखी गई किताबों में किया जा सकता है। ये अंश इसलिए दिया गया है कि जो लोग इस दृष्टिकोण से हटकर सोचते हैं उन्हें अपने दृष्टिकोण की समीक्षा करनी चाहिए। विशेष रूप से अल्लामा इब्ने तैमिया का दृष्टिकोण ऐसे लोगों की ज़बानों को बंद कर देने के लिए काफी है।
बहरहाल इतिहास में शहादत की घटनाएं हमेशा पेश आती रही हैं और पेश आती रहेंगी, लेकिन हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना के कई पहलुओं से अपने अंदाज़ में अद्वितीय घटना है। रसूलुल्लाह स.अ.व. का नवासा जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. की पीठ पर सवारी का सौभाग्य प्राप्त हो, जिसके होंठों को रसूलुल्लाह स.अ.व. ने चूमा हो जिसे रसूलुल्लाह स.अ.व. ने जन्नत के लोगों का सरदार ठहराया हो, उसे अहयाए (पुनर्जीवन) इस्लाम के जुर्म में बहुत बेदर्दी और सफ्फ़ाकी से क़त्ल कर दी जाए। इस अत्याचार और बर्बर व्यवहार पर ज़मीन और आस्मान जितना भी मातम करें कम है। हज़रत हुसैन रज़ियल्लाहू अन्हू की शहादत की घटना को उम्मत कभी भुला नहीं सकती। वो उसके मन और आत्मा का हिस्सा बन चुका है। कर्बला की घटना अपनी सभी पीड़ाओं के साथ इस्लाम और उम्मते इस्लाम की रक्षा के लिए समर्पण और बलिदान की प्रेरणा देता रहेगा।
आशूरा का रोज़ा
जैसे ही नवासा ए रसूल (स) हज़रत इमाम हुसैन (अ) के क़याम व शहादत का महीना, मोहर्रम शुरु होता है वैसे ही एक ख़ास सोच के लोग इस याद और तज़करे को कमरंग करने की कोशिशें शुरु कर देते हैं। कभी रोने (जो सुन्नते रसूल है) की मुख़ालफ़त की जाती है, तो कभी आशूर के रोज़े की इतना प्रचार किया जाता है जिस से ऐसा महसूस होता है के 10 मोहर्रम 61 हिजरी में कोई हादसा हुआ ही नहीं था। बल्कि सिर्फ़ बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का दिन है और बाज़ इस्लामी देश तो इस का ऐलान और प्रचार सरकारी पैमाने पर करते हैं और दलील के तौर पर बुख़ारी वग़ैरा की हदीसें पेश की जाती हैं, अभी कुछ साल पहले की बात है के सऊदी अरब की न्यूज़ ऐजंसी ने अपने एक बयान में अबदुल अज़ीज़ बिन अबदुल्लाह बिन मुहम्मद आले शैख़ की जानिब से ऐलान किया था के पैग़म्बर (स) से रिवायत हुई है केः
आँहज़रत (स) आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और लोगों को भी इस दिन रोज़ा रखने का शौक़ दिलाते थे, क्योंकि आशूरा वो दिन है जिस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने मूसा और उनकी क़ौम को फि़रऔन और उसकी क़ौम से निजात दी थी लेहाज़ा हर मुसलमान मर्द और औरत पर मुस्तहब है के 10 मोहर्रम को ख़ुदा के शुकराने के तौर पर रोज़ा रखें।
तअज्जुब है ! हमने सऊदी सरकार का कोई बयान हादसा ए आशूरा के बारे में न पढ़ा जिस में नवासा ए रसूल (स) की दिलसोज़ शहादत पर रंजो अलम का इज़हार किया गया हो, नबी ए इस्लाम (स) की पैरवी का दावा करने के बावजूद भी अपने नबी (स) के नवासे से इतनी बेरुख़ी! और बनी इस्राईल की नजात की यादगार से इतनी दिलचस्पी!?
अगर नबी (स) और उनकी क़ौम की नजात पर रोज़ा रखना मुस्तहब है तो फिर जिस दिन जनाबे इब्राहीम (अ) को ख़ुदा ने नमरुद की आग से नजात दी उस दिन भी रोज़ा रखना चाहिए, जिस दिन जनाबे नूह (अ) की कश्ती कोहे जूदी पर ठहरी और उनहें इनके साथियों समीत डूबने से नजात मिली उस दिन भी रोज़ा रखना मुस्तहब होना चाहिए, और ये दिन वो था जब सूरज बुर्जे हमल में जाता है जो ईसवी कलेंडर में 21 मार्च को होता है, रसूल अल्लाह (स) अगर जनाबे मूसा (अ) और उनके साथियों की नजात पर शुकराने का रोज़ा रखेंगे तो फिर दीगर अम्बिया की नजात पर भी रोज़ा रखा होगा, अगर रखा होगा तो 21 मार्च को रोज़ा रखने का प्रचार इस पैमाने पर क्यों नहीं किया जाता, ये रोज़े भी तो सुन्नत कहलाऐंगे ?
अब आईए बुख़ारी की उन रिवायतों पर तहक़ीक़ी निगाह डालते हैं जिनको बुनयाद बनाकर आशूर के रोज़े का प्रचार किया जाता है, जनाबे आएशा (र) से बुख़ारी में एक रिवायत इस तरह है केः
आशूर के दिन ज़माना ए जाहेलियत में क़ुरैश रोज़ा रखते थे, रसूले ख़ुदा (स) भी इस रोज़ (आशूर) को रोज़ा रखते थे और जिस वक़्त आप मदीना तशरीफ़ लाए तो आशूर के रोजे़ को उसी तरह बाक़ी रखा और दूसरों को भी हुक्म दिया, यहाँ तक के माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद आँहज़रत (स) ने आशूर का रोज़ा छोड़ दिया और हुक्म दिया के जो चाहे आशूर के दिन रोज़ा रखे और जो चाहे न रखे।
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 250, हदीस 2002, किताब अलसौम, बाब 69 बाब सीयामे यौमे आशूरा, मुहक्किक़ मुहम्मद ज़ुहैर बिन नासिर अल नासिर, नाशिर दारुल तौक़ अल नजात, पहला एडीशन 1422 हिजरी)
मज़कूरा रिवायत के सिलसिला ए सनद में हश्शाम बिन उरवाह मौजूद है जिसकी वजह से सिलसिला ए सनद में इशकाल पैदा हो गया है क्योंकि इब्ने क़त्तान ने हश्शाम बिन उरवाह के बारे में कहा है केः ये (हश्शाम बिन उरवाह) मैटर को बदल डालता था और ग़लत को सही में मिला दिया करता था।
अल्लामा ज़हबी ने कहा है के ये कुछ महफ़ूज़ बातों को भूल जाया करता था या उसमें शक हो जाता था।
(मीज़ानुल ऐतदाल, जिल्द 4, पेज 301, तहक़ीक़ अली मुहम्मद अलबहावी, नाशिर दारुल मारफ़त लिलतबाअत वन्नश्र, बैरुत, लेबनान, 1963 ई0)
इसके अलावा ये रिवायत बुख़ारी ही की दूसरी रिवायतों से तनाक़ुज़ रखती है और टकरा रही है, जैसे सही बुख़ारी में इब्ने अब्बास से एक रिवायत है के:
जब रसूले ख़ुदा (स) ने मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई और मदीना तशरीफ़ लाए तो यहूदयों को देखा के आशूर के दिन रोज़ा रखे हुए हैं तो आप (स) ने फ़रमाया के ये रोज़ा (उन्होने) क्यों रखा है?
जवाब मिला: ये ख़ुशी का दिन है क्योंकि इस रोज़ ख़ुदावंदे आलम ने बनी इस्राईल को दुश्मनों से नजात दी थी लेहाज़ा मूसा और उनकी क़ौम इस दिन रोज़ा रखती है, हज़रत ने फ़रमाया कि में मूसा की पैरवी करने में बनी इस्राईल से ज़्यादा सज़ावार (हक़दार) हूँ लेहाज़ा आँहज़रत (स) ने आशूर को रोज़ा रखने का हुक्म दिया के (मुसलमान भी) इस दिन रोज़ा रखे।
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, पेज 251, हदीस 2004)
पहली रिवायत तो ये कह रही है के पैग़म्बरे इस्लाम और क़ुरैश ज़माना ए जाहेलियत से ही रोज़े आशूर को रोज़ा रखते चले आ रहे हैं और ज़हूरे इस्लाम के 13 साल बाद तक भी मक्का में ये रोज़ा रखा और हिजरत के बाद मदीना में रमज़ान के रोज़े वाजिब हुए इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मुसलमानों को इखि़्तयार दिया के चाहें तो आशूर को रोज़ा रख लें और चाहें तो न रखें, लेकिन बुख़ारी की मज़कूरा दूसरी रिवायत कहती है के रसूले ख़ुदा (स) जिस वक़्त मक्का से मदीना हिजरत फ़रमाई तो न सिर्फ़ ये के आप आशूर को रोज़ा नहीं रखते थे बल्कि आपको इसके बारे में कोई इत्तला भी नहीं थी और जब आपने यहूदीयों को रोज़ा रखते हुए देखा तो तअज्जुब के साथ इस रोज़े के बारे में सवाल किया, आपने जवाब में सुना के यहूद जनाबे मूसा और बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में इस दिन रोज़ा रखते हैं, तो रसूले ख़ुदा ने फ़रमाया किः
अगर ऐसा है तो में अपने आपको कुफ़्फ़ारे मक्का के हाथों से नजात पाने की ख़ुशी में मूसा से ज़्यादा सज़ावार समझता हूँ के इस दिन रोज़ा रखूँ, इसके बाद से न सिर्फ़ ये के हज़रत (स) ने ख़ुद रोज़ा रखा बल्कि दूसरों को भी इसका हुक्म दिया ।
इन तीनों रिवायतों में कौन सी रिवायत को सही क़रार दिया जाए? दोनों एक साथ सही नहीं हो सकतीं?
बुख़ारी में एक और रिवायत इब्ने उमर से मौजूद है जो मज़कूरा इस दूसरी रिवायत से भी तनाक़ुज़ रखती है और वो ये है कि:
रसूले ख़ुदा आशूर के दिन रोज़ा रखते थे और दूसरों को भी ये रोज़ा रखने का हुक्म फ़रमाते थे। यहाँ तक के माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब हो गए, इसके बाद से रोज़े आशूर का रोज़ा छोड़ दिया गया और अबदुल्लाह इब्ने उमर ने भी इस दिन रोज़ा नहीं रखा, लेकिन अगर आशूरा ऐसा दिन होता था जिसमें मुसलमान रोज़ा रखते ही थे जैसे जुमे का दिन, तो आशूर को भी रोज़ा रख लेते थे।
(सही बुख़ारी, जिल्द 2, हदीस 1892, किताब अस्सियाम, बाँब वजूबे सौमे रमज़ान)
इस रिवायत में आशूर के रोज़े का इखि़्तयारी या इजबारी होना जि़क्र नहीं है, बल्कि आशूर के दिन रोज़ा न रखने का जि़क्र है और अब्दुल्लाह इब्ने उमर भी माहे रमज़ान के रोज़े वाजिब होने के बाद आशूर का रोज़ा नहीं रखते थे।
अब यहाँ सवाल ये पैदा होता है के अगर ये सुन्नत इतनी अहम थी तो ख़लीफ़ा ए सानी के बेटे ने इसे क्यों छोड़ दिया था?
इसके अलावा और बहुत से अहले मदीना भी आशूर के दिन रोज़ा नहीं रखते थे। एक रिवायत के मुताबिक़ मुआविया इब्ने अबुसुफ़यान को ये कहते हुए सुना गया है कि:
मुआविया इब्ने अबुसुफ़यान से आशूरा के दिन मिम्बर पर सुना, उसने कहा के ऐ अहले मदीना ! तुम्हारे उलामा किधर गए?
मैंने रसूल अल्लाह (स) को ये फ़रमाते सुना के ये आशूरा का दिन है, इसका रोज़ा तुम पर फ़र्ज़ नहीं है लेकिन में रोज़े से हूँ और अब जिसका जी चाहे रोज़े से रहे (और मेरी सुन्नत पर अमल करे) और जिसका जी चाहे न रहे।
(सही बुख़ारी, किताब अस्सियाम, हदीस 2003)
बुख़ारी की इस रिवायत में मुआविया का अंदाज़े खि़ताब बता रहा है के अहले मदीना भी आशूर के दिन रोज़ा नहीं सखते थे !
इस रिवायत के बरखि़लाफ मजमा उल ज़वाइद में हैसमी की रिवायत है क हैसमी अबू सईद ख़ुदरी से रिवायत करते हैं के:
रसूले ख़ुदा (स) ने आशूर को रोज़ा रखने का हुक्म फ़रमाया जबकि आपने ख़ुद रोज़ा नहीं रखा था।
(मजमा उल ज़वाएद, जिल्द 3, पेज 186, हदीस 5117, किताब अल सियाम, बाब फ़ी सियामे आशूरा, तहक़ीक़ हसामुद्दीन क़ुदसी, नाशिर मकतबतुल क़ुदसी, क़ाहेरा 1994 ई0)
ऐसा कभी हुआ ही नहीं के रसूले इस्लाम (स) ने मुसलमानों को कोई अमल अंजाम देने का हुक्म दिया हो और ख़ुद अमल न किया हो, इसके अलावा मज़कूरा रिवायत से रसूले ख़ुदा (स) पर अहले किताब की पैरवी का इलज़ाम भी लगता है जो के ठीक नहीं है।
बुख़ारी ने इब्ने अब्बास से एक रिवायत नक़ल की है के जो उपर जि़क्र की गई तमाम रिवायतों से तज़ाद रखती है और वो ये है के:रसूले ख़ुदा (स) को ये बात पसंद थी के जिन उमूर में ख़ुदावंदे आलम की जानिब से आप के लिए हुक्म सादिर नहीं हुआ है उसमें अहले किताब की पैरवी करें।
(सही बुख़ारी, जिल्द 4, हदीस 3558, किताबुल मनाकि़ब)
इसके अलावा इब्ने हजर असक़लानी कहते हैं के:
उन मवारिद में जिन में रसूले ख़ुदा (स) के लिए अल्लाह का हुक्म नहीं होता था तो आप (स) अहले किताब से मुआफ़क़त कर लेते थे।
(फ़तहुलबारी, इब्ने हजर असक़लानी शाफ़ेइ, जिल्द 4, पेज 245-246, बाब सियामे आशूरा, नाशिर दारुल मारफ़त, बैरुत, लेबनान, 1379 हिजरी)
समझ में नहीं आता ! ये कैसे मुमकिन है के हमारे नबी (स) ने जो अफ़ज़ले अंबिया हैं, अपने से कम अहले किताब की पैरवी किस तरह की होगी!?
ग़ौर करने का मक़ाम है के जब यहूदियों की मुख़ालफ़त में बक़ौल बुख़ारी के जूतों समीत नमाज़ पढ़ने की इजाज़त रसूले अकरम (स) ने दे दी !
(अल तिबरानी, अलमोजम अलकबीर, मुहक्किक़ हमदी बिन अबदुल मजीद सलफ़ी, नाशिर मकतबा ए इब्ने तीमिया, क़ाहेरा, दूसरा एडीशन)
हालाँकि जूतों समीत नमाज़ पढ़ने से नमाज़ का तक़द्दुस पामाल होता है, तो फिर यहूद की मुवाफ़क़त में रसूले अकरम (स) रोज़ा रखने का हुक्म किस तरह सादिर फ़रमा सकते हैं?
गोया यहूदियों की मुख़ालफ़त इतनी अहम है के इसकी वजह से नमाज़ के तक़द्दुस और एहतराम को भी नज़र अंदाज़ किया जा सकता है, तो फिर यहूदियों की मुआफ़क़त में आले रसूल (स) को किस तरह नज़र अंदाज़ कर दिया गया ?!
आशूर के दिन नबी ए अकरम (स) की बेहतरीन सीरत और सुन्नत ये है के हम इमाम हुसैन (अ) के ग़म में ग़मगीन रहें और गिरया करें और यही सीरत, उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा (र) की भी थी। बहरहाल इन तमाम रिवायतों से चंद बातें साबित होती हैं और वो ये हैं कि:
1- आशूर का रोज़ा बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी का रोज़ा है।
2- आशूर के रोज़े का हुक्म ख़ुदावंदे आलम की जानिब से नहीं आया है।
3- आशूर के दिन रोज़ा रख कर मआज़ अल्लाह नबी (स) ने बग़ैर हुक्मे ख़ुदा के यहूदियों और ईसाइयों की पैरवी की है, जो के मक़ामे रिसालत के खि़लाफ़ और मनाफ़ी है।
जिस से ये साबित होता है के आशूर को रोज़ा रखने की कोई तरजीही वजह मौजूद नहीं है, क्योंकि 61 हिजरी में आशूर के रोज़ अहलेबैते पैग़म्बर (स) पर वो ग़मो अलम के पहाड़ तोड़े गए जिसकी याद मनाना हर मुसलमान के लिए ज़रुरी है, नबी (स) के नवासे ने इस्लाम के लिए ही इतनी अज़ीम क़ुरबानी पेश की है और इस राह में वो मसाइब बरदाश्त किए हैं के जिनको सुन कर ही कलेजा मूँह को आने लगता है, लेहाज़ा ऐसी अज़ीम और अहम यादगार के होते हुए जिसने इस्लाम को नई जि़ंदगी बख़्शी हो। बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी मनाने को न तो अक़्ल कहती है और न ही इस्लामी ग़ैरत का तक़ाज़ा है, बल्कि ज़रुरी है के हर मुसलमान को अपने नबी (स) के नवासे की याद मोहर्रम में आशूर के रोज़ मनानी चाहिए और ये सुन्नते रसूल (स) है।
हज़रत उम्मे फ़ज़ल बिनते हारिस से रिवायत है के उन्होंने आँहज़रत (स) की खि़दमत में हाजि़र होकर अजऱ् कियाः या रसूल अल्लाह (स) मेंने आज रात एक बुरा ख़्वाब देखा है, आपने फ़रमायाः क्या देखा है? अर्ज़ कियाः बहुत ही सख़्त है (बयान से बाहर है) आपने फिर फ़रमायाः क्या देखा है? अर्ज़ किया: मेंने देखा है के गोया आपके जिस्मे अतहर का एक टुकड़ा काट कर मेरी गोद में डाल दिया गया है, आँहज़रत (स) ने फ़रमायाः तुमने तो बहुत अच्छा ख़्वाब देखा है अल्लाह तआला ने चाहा तो फ़ातेमा के लड़का पैदा होगा और वो बच्चा तुम्हारी गोद में रहेगा। (एसा ही हुआ) हज़रत फ़ातेमा (स) के यहाँ हज़रत हुसैन (अ) की विलादत हुई और वो जैसा के हुज़ूर (स) ने इरशाद फ़रमाया था मेरी गोद में आए। फि़र एक रोज़ में उनको लेकर आँहज़रत (स) की खि़दमते मुबारका में हाजि़र हुई और उनको आपकी आग़ोश में दे दिया, इसी असना में मेरी तवज्जोह ज़रा देर के लिए दूसरी तरफ़ हुई तो क्या देखती हूँ के रसूल (स) की आँखों से आँसू बह रहे हैं मेंने अर्ज़ कियाः या रसूल अल्लाह (स) मेरे माँ बाप आप पर निसार, आप को क्या हो गया, फ़रमायाः जिब्रील मेरे पास आए थे, उन्होंने मुझे बताया के मेरी उम्मत मेरे बेटे को अनक़रीब क़त्ल करदेगी, मेंने अजऱ् कियाः इन को, फ़रमायाः हाँ! और मुझे इनके मक़तल की लाल रेत भी लाकर दी है।
(अल मुस्तदरक अल सहीहैन लिलिहाकिम, जिल्द 3, पेज 194, हदीस 4818, तहक़ीक़ मुस्तफ़ा अबदुलक़ादिर अता, नाशिर दारुलकुतुब अल इलमिया, बैरुत, लेबनान, पहला एडीशन 1990)
हज़रत रसूले अकरम (स) का इमाम हुसैन (अ) की शहादत की ख़बर पर रोना क्या ऐसा काम नहीं है जिसकी मुसलमान आशूर के दिन पैरवी करें? तो फि़र यहूदियों की पैरवी करते हुए उनकी नजात की ख़ुशी में रोज़े क्यों रखे जाते हैं?
रसूल (स) के ग़म पर यहूदियों की ख़ुशी मुक़द्दम! ऐसा क्यों?
इसी तरह हज़रत सलमा (र) बयान करती हैं के में उम्मुल मोमेनीन हज़रत उम्मे सलमा (र) की खि़दमत में हाजि़र हुई तो देखा वो रो रही थीं, मेंने अर्ज़ किया आप क्यों रोती हैं, फ़रमाने लगीं:
मैंने रसूल अल्लाह (स) को ख़्वाब में इस हालत में देखा है के आप की दाढ़ी और सरे मुबारक पर ख़ाक पड़ी हुई थी, मेंने अजऱ् किया या रसूल अल्लाह !! आप को क्या हो गया? फ़रमायाः अभी अभी हुसैन (अ) को क़त्ल होते देखा है।
(जामे सुनन तिरमिज़ी,जिल्द 6, पेज 120, हदीस 3771, बाब 31 मनाकि़ब अलहसन वलहुसैन, मुहक्किक बशार अवाद मारुफ़, नाशिर दारुलग़रब बैरुत ,लेबनान 1998 ई0)
बाज़ लोग इस हदीस को मशकूक करने के लिए ये कह रहे हैं के उम्मुल मोमेनीन जनाबे उम्मे सलमा (र) की वफ़ात, शहादते इमामे हुसैन (अ) से 2 साल पहले हो चुकी थी लेहाज़ा ये रिवायत सही नहीं है लेकिन अहले सुन्नत के मोतबर मुवर्रिख़ अल्लामा ज़हबी ने लिखा है केः
बाज़ लोगों ने ये गुमान किया है के हज़रत उम्मे सलमा (र) की वफ़ात 59 हिजरी में हुई है, ये भी (उनका) वहम है, ज़ाहिर ये है के उनकी वफ़ात 61 हिजरी में (शहादते इमाम हुसैन के बाद ) हुई है।
(आलामुननबला, जिल्द 2, पेज 210, नाशिर मुअस्ससा अल रिसाला, तीसरा एडीशन 1985)
जिस से मालूम होता है के शहादते इमाम हुसैन (अ) के वक़्त उम्मुल मोमेनीन उम्मे सलमा जि़ंदा थीं और उन्होंने इमाम हुसैन (अ) की शहादत से बाख़बर होकर गिरया किया और रंजो ग़म का इज़हार किया।
रसूले इस्लाम (स) अपनी जि़ंदगी के बाद भी इमाम हुसैन (अ) के ग़म मे इस क़द्र रंजीदा नज़र आ रहे हैं और आप की सुन्नत पर मर मिटने वाला मुसलमान बजाए इसके के आशूर को अज़ादारी करे या ग़म मनाए, बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में रोज़ा रखता है, क्या हुज़ूर (स) से मुहब्बत का यही तक़ाज़ा है। ?
दूसरे ये के जिस रोज़े को रखने का हुक्म ख़ुदावंदे आलम की तरफ़ से न आया हो उसके रखने पर इतनी ताकीद क्यों की जाए और नबी (स) के नवासे की याद पर ऐसा ख़ुशी का रोज़ा रखने की सिवाए अदावते आले रसूल (स) के और क्या वजह हो सकती है। ?
और तीसरे ये के हमारे नबी (स) यहूदियों और ईसाइयों की मुवाफ़क़त नहीं कर सकते क्योंकि अहले सुन्नत और शीया उलोमा का अक़ीदा ये है के रसूले ख़ुदा (स) बेसत से पहले भी अपनी इबादत वग़ैरा में यहूदियों और ईसाइयों के क़वानीन और दीन की पैरवी नहीं कर सकते, फ़ख़रे राज़ी जो के अहले सुन्नत के बड़े आलिम हैं इस बारे में दलील देते हुए लिखते हैं केः रसूल अल्लाह (स) अगर बेसत से पहले किसी (मूसा, ईसा (अ)) की शरीयत के मुताबिक़ इबादत कर लेते तो लाजि़म था के उन हवादिस के मौक़ों पर जो बेसत के बाद आप पर रुनुमा हुए, अपने माक़बल शरीयतों की तरफ़ मुराजेआ कर लेते और वही का इन्तज़ार न करते, लेकिन आँहज़रत (स) ने ऐसा नहीं किया और इसकी 2 दलीलें हैं,
एक ये कि अगर हुज़ूर (स) ने ऐसा किया होता तो ज़रुर मुसलमानों के दरमियान मशहूर हो जाता दूसरे ये के एक बार हज़रत उमर ने तौरैत का एक पेज पढ़ लिया था बस इसी बात पर रसूले ख़ुदा (स) ग़ज़बनाक हो गए और फ़रमाया किः अगर मूसा जि़ंदा होते मेरी इत्तबा और पैरवी करने के अलावा उनके पास कोई रास्ता न होता (बस किस तरह कहा जा सकता है के नबी ए अकरम (स) ने यहूदियों की पैरवी में आशूर के दिन ख़ुद भी रोज़ा रखा और मुसलमानों को भी इसका हुक्म दिया? )
फ़ख़रे राज़ी ने इस मौज़ू पर और भी दलीलें दी हैं जिनको उनकी किताब (अलमहसूल, जिल्द 3, पेज 263-264, तहक़ीक़ डा0 ताहा जंबिर फ़याज़ुल उलवानी, नाशिर मुअस्ससातुल रिसाला, तीसरा एडीशन 1997 ई0) में देखा जा सकता है।
शरहे मिश्कात में रसूल अल्लाह (स) से रिवायत नक़ल की गई है के रसूल अल्लाह (स) ने फ़रमाया के:
वो हम में से नहीं है जो हमारे ग़ैर, यहूदियों और ईसाइयों की शबाहत इख़तियार करे।
( मिरक़ातुल मफ़ातीह शरहे मिशकातुल मसाबीह, अली बिन सुलतान मुहम्मद अलक़ारी, पेज 22, हदीस 4649, नाशिर दारुल फि़क्र बैरुत, लेबनान 2002 ई0)
ये कैसे मुमकिन है के जिस काम से रसूले अकरम (स) दूसरों को मना फ़रामऐं उसे ख़ुद अंजाम दें ? मज़कूरा बाला हदीस में सख़्ती से यहूदियों और ईसाइयों की शबाहत को मना फ़रमाया है और मुसलमान यहूदियों की मुवाफ़क़त और पैरवी में आशूर को रोज़ा रखने की निसबत रसूल (स) की तरफ़ दे रहा है। ! ?
एक बात और क़ाबिले जि़क्र है कि क़ुरैश का कलेंडर ‘‘क़ुसा” था और यहूदियों का कलेंडर जिसके मुताबिक़ वो अपने आमाल अंजाम देते थे वो ‘‘हिलाल 2” था और इन दोनों में फ़र्क़ है, लेहाज़ा ये मुमकिन ही नहीं है के दोनों कलेंडरों का आशूरा एक ही चीज़ हो या एक ही दिन हो लेहाज़ा ये कैसे मान लिया गया के यहूदियों के रोज़े रखने की ये सुन्नत और रस्म हर साल दसवीं मोहर्रम को होती होगी और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने आशूर के रोज़े का हुक्म यहूदियों की इत्तबा या मुख़ालफ़त में दिया?
इसके अलावा इस्लामी कलेंडर मज़कूरा दोनों कलेंडर से बिलकुल मुख़तलिफ़ है और चाँद की तारीख़ के हिसाब से चलता है बल्कि रसूल अल्लाह (स) के दौर में तो इस्लामी कलेंडर मौजूद ही नहीं था, इसकी इब्तेदा तो रसूल (स) की वफ़ात के बहुत बाद में हुई और इसमें हिजरत के साल को पहला साल तसलीम किया गया। इस्लामी कलेंडर में एक साल में 355 दिन ही होते हैं और यहूदी कलेंडर में भी 355 दिन होते हैं, मगर वो हर तीसरे या चैथे साल इसमें 10 दिन का इज़ाफ़ा करके इसे मौजूदा शम्सी (ईसवी) साल के बराबर कर देते हैं।
इसके अलावा 10 मोहर्रम सन 1 हिजरी को रसूले इस्लाम (स) मदीना पहुँचे ही नहीं बल्कि मक्का ही में तशरीफ़ रखते थे, सभी मुवर्रेख़ीन व मुहद्देसीन का इस पर इत्तेफ़ाक़ है कि रसूले इस्लाम (स) आशूरा सन 1 हिजरी के दो महीने बाद यानी 12 रबीउल अव्वल पीर के दिन मदीना पहुँचे।
(तारीख़े तबरी, जिल्द 2 पेज 392, नाशि दारुततुरास, बैरुत, लेबनान, दूसरा एडीशन 1387 हि0)
लेहाज़ा मदीना पहुँच कर हुज़ूर (स) ने यहुदियों को आशूर के दिन रोज़ा रखते हुए कहाँ से देख लिया?
इस तहक़ीक़ में इस नुक्ते पर तवज्जोह बहुत ज़रुरी है के जिसने भी रसूल अल्लाह पर ये झूठ बाँधा है वो मदीना से तअल्लुक़ नहीं रखता था बल्कि वो शामी रहा होगा, क्योंकि अगर हदीस घड़ने वाला मदीना का बाशिंदा होता तो उसे ये इल्म ज़रुर होता के जिस दिन मूसा को फ़तह हुई और फि़रऔन से नजात मिली उस दिन को यहूदी ‘‘ईद उल फ़सह कहते हैं और उस दिन वो रोज़ा नहीं रखते हैं।
आज भी आप तहक़ीक़ कर सकते हैं और यहूदियों से मालूम कर सकते हैं, यहूदियों के यहाँ रोज़ों की 6 कि़स्में हैं, जिनमें ईद उल फ़सह यानी जनाबे मूसा और बनी इस्राईल की नजात या फि़रऔन पर फ़तह का दिन इनमें शामिल नहीं है।इसकी तफ़सील आप इंटरनेट पर भी इस लिंक पर देख सकते हैं:
जो लोग आशूर के दिन रोज़ा रखने वाली रिवायतों के हामी हैं वो ये भी कहते हैं के ऐसी रिवायत में मौजूद ‘‘आशूर” का दिन यहूदियों का ‘‘यौमे कैपूर” (यौम उल ग़ुफ़रान) था जो के यहूदियों के कलेंडर के मुताबिक़ ‘‘तशरीन” महीने की 10 तारीख़ होती है। यानी ये मोहर्रम का आशूर नहीं है, अगर ऐसा है तो फि़र मोहर्रम के आशूर को रोज़ा रखने की ताकीद क्यों की जाती है ? और दूसरे ये के यौमे कैपूर का मूसा की फि़रऔन पर फ़तह से दूर दूर तक तअल्लुक़ नहीं , बल्कि यौमे कैपूर यहूदियों के लिए ‘‘तौबा का दिन” है और उसे ‘‘ अशरा ए तौबा” कहा जाता है। यहूदियों के नज़दीक यौमे कैपूर तौबा का आख़री मौक़ा होता है जिसमें यहूदी बा जमाअत होकर ख़ुदा से अपने आमाल की माफ़ी माँगते हैं लेहाज़ा ये तो किसी तरह मुमकिन ही नहीं है के यौमे कैपूर को मूसा की फि़रऔन पर फतह का दिन बना कर रोज़ा रखने वाली रिवायात घड़ दी जाऐं?
इसके अलावा ये बात भी साबित है के इस्लामी कलेंडर के मोहर्रम की 10 तारीख़ सन 1 हिजरी में यहूदियों के कलेंडर के तशरीन महीने की 10 तारीख़ को नहीं थी, इंटरनेट पर आप Gregorian-Hijri Dates Converter के ज़रिए चैक कर सकते हैं। बल्कि 25 जूलाई 622 ई0 थी और यहूदियों की ईद 30 मार्च 622 ई0 थी।
इस से भी बढ़कर अहम बात ये है के रसूल (स) की मदनी जि़ंदगी में कभी भी ये दो दिन (यानी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर) एक ही दिन नहीं आए।
इस्लामी और यहूदी कलेंडर के फ़कऱ् के मुताबिक़ ये दोनों दिन (यानी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर) रसूले इस्लाम (स) मदीना हिजरत करने के सिर्फ़ 29 साल के बाद ही एक ही दिन वाक़े हो सकते हैं, जबके रसूले इस्लाम (स) की वफ़ात 10 हिजरी में हो चुकी थी, इसका मतलब ये है के रसूले इस्लाम (स) ने आशूर के दिन बनी इस्राईल की नजात की ख़ुशी में कोई रोज़ा रखा ही नहीं और न यहूदियों को रोज़ा रखते हुए देखा!
अफ़सोस! बनी उमय्या के प्रचार से मुताअस्सिर लोग, आशूर के दिन रोज़ा रखने पर ही जि़द करते है और तरह तरह की तावीलें पेश करते हैं जैसे ये के रसूले इस्लाम (स) ,मदीना रबीउल अव्वल ही में तशरीफ़ लाए थे मगर यहूदियों को उनहोंने बाद के बरसों में रोज़ा रखते हुए देखा और मुसलमानों को रोज़ा रखने का हुक्म दे दिया, जबके ऐसे लोग ये भूल जाते हैं के रमज़ान के रोज़े 2 हिजरी में ही फ़र्ज़ हो गए थे और 2 हिजरी तो क्या रसूल (स) की तो पूरी मदनी जि़ंदगी में भी इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम और यहूदी यौमे कैपूर कभी एक साथ इकटठा नहीं हुए बल्कि 29 साल के बाद पहली मरतबा ये एक तारीख़ को एक ही दिन आए थे, तो फि़र इस्लामी आशूरा ए मोहर्रम को हर साल रोज़ा रखना क्योंकर सुन्नत हो जाऐगा। ?
ईद उल फ़सह (Passover) कि जब यहूदियों को फि़रऔन से नजात मिली , वो यहूदियों के महीने ‘‘नैसान” की 15 तारीख़ है (इस महीने की 10 तारीख़ को बनी इस्राईल मिस्र से रवाना हुए और 15 को उन्हें नजात मिली ) साइंटिफि़क कैलकूलेटर के मुताबिक़ 1 हिजरी का आशूरा ए मोहर्रम 25 जूलाई 622 ई0 के मुताबिक़ होता है, जबके उस साल यहूदियों की ईद उल फ़सह 30 मार्च 622 ई0 को हुई (इस कैलकूलेशन में ज़्यादा से ज़्यादा 10 दिन का फ़कऱ् हो सकता है) ये कैलकूलेशन आप इंटरनेट पर भी इस लिंक पर कर सकते हैं:
इसके अलावा यहूद का रोज़ा सूरज डूबने से अगले दिन सूरज डूबने तक होता है जबके इस्लाम में ऐसे रोज़े का कोई वजूद नहीं है तो जब इस तरह का रोज़ा रखना ही सही नहीं है तो इसकी पैरवी में हर साल आशूर को रोज़ा रखना कहाँ से सही हो जाएगा। ? !
ये साबित होजाने के बाद के आशूरा ए मोहर्रम के दिन रोज़ा रखने का हुक्म न अल्लाह ने दिया है और न उसके रसूल (स) ने, मानना पडेगा के ये बनी उमय्या की शरारत है के उनहोंने इमाम हुसैन (स) के क़याम और इंक़लाब को कमरंग करने के लिए इस्लामी शखि़्सयात के नाम से आशूरा के फ़ज़ाइल और रोज़ा रखने की ताकीदात के बारे में हदीसें घड़ डालीं ताके इस तरह राए आम्मा को मक़सदे इमाम हुसैन (अ) से हटा दिया जाए, लेकिन चूँकि ये इंक़लाब, इमाम हुसैन (अ) ने ख़ुदा के लिए बरपा किया था लेहाज़ा ख़ुदावंदे आलम ने इसकी हिफ़ाज़त का इंतज़ाम किया हुआ है। और ये ख़ुदा ही का इंतज़ाम है के ख़ुद अहले सुन्नत के मुवर्रेख़ीन और मुहक़्क़ेक़ीन ने फ़ज़ाइले आशूरा और आशूरा ए मोहर्रम का रोज़ा रखने वाली रिवायात को मनघड़त बताया है, जिनको हम इख़्तसार के साथ पेश कर रहे हैः
1- अबदुल्लाह इब्ने अब्बास (र) से रिवायत है के नबी (स) ने फ़रमाया कि आशूरा के दिन रोज़ा रखो और यहूदियों की इस तरह मुख़ालफ़त करो के इस से एक दिन पहले और एक दिन बाद भी रोज़ा रखो।
ये रिवायत हुज़ूर की निसबत से भी सनद के एतबार से ज़ईफ़ और मुनकर है
(नेलुल अवतार, अल शोकानी, जिल्द 4, पेज 289, तहक़ीक़ एसामुद्दीन अल सबा बती, नाशिर दारुल हदीस मिस्र, पहला एडीशन 1993 ई0 )
2- जो शख़्स आशूरा के दिन अपने अहलो अयाल पर फ़राख़ दिली से ख़र्च करेगा, अल्लाह तआला पूरो साल उसके साथ फ़राख़ दिली का मआमला करेंगे।
सऊदी अरब की तंज़ीम ‘‘ अल जमीअतुल इलमिया अल सऊदिया लिल सुन्ना वा उलूमेहा की वेबसाइट www.sunnah.org.sa पर किसी ने इसी हदीस के बारे में सवाल पूछा है के क्या ये हदीस सही है या नहीं ? तनज़ीम ने वेबसाइट पर तफ़सील से जवाब देते हुए लिखा है के ये हदीस रसूल अल्लाह (स) से मरवी नहीं है, वेबसाइट ने इमाम अहमद, इब्ने रजब, अक़ीली, हाफि़ज़, अबूज़र अतुर्राज़ी, दारे क़ुतनी, इब्ने तीमया, इब्ने अबदूल हादी, ज़हबी, इबनुल क़य्यम, और अलबानी के हवाले से लिखा है के ये हदीस मनघडत और झूठी है, ज्यादा जानकारी के लिए ये लिंक मुलाहेज़ा हो।
3- जिस शख़्स ने आशूर के दिन रोज़ा रखा, अल्लाह तआला उसके लिए 60 साल के रोज़े और उनकी रातों के क़याम की इबादत लिख देंगे, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे 10 हज़ार फ़रिशतों के अमल के बराबर अजर मिलेगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे एक हज़ार हुज्जाज और उमरा करने वालों के अमल के बराबर सवाब हासिल होगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा उसे 10 हज़ार शहीदों का अजर मिलेगा, जिसने आशूर के दिन रोज़ा रखा अल्लाह तआला उसके लिए 7 आसमानें का तमाम अजर लिख देंगे, जिस शख़्स के यहाँ किसी मोमिन ने आशूर के दिन रोज़ा अफ़तार किया तो गोया उसके यहाँ पूरी उम्मते मुहम्मद (स) ने रोज़ा अफ़तार किया, जिसने आशूर के दिन किसी भूके को पेट भरके खाना खिलाया तो उसने गोया उम्मते मुहम्मद (स) के तमाम फ़क़ीरों को खाना खिलाया, जिस शख़्स ने (इस दिन) किसी यतीम के सर पर हाथ फेरा तो उस (यतीम) के सर के बाल के बराबर उसके लिए जन्नत में एक दर्जा बुलंद किया जाएगा, इस पर सैय्यदना उमर ने अर्ज़ किया के: ए अल्लाह के रसूल (स) ! बिला शुभा, आशूर का दिन अता करके अल्लाह तआला ने हमें बड़ा ही नवाज़ा है, आपने फ़रमायाः अल्लाह तआला ने आसमानों, ज़मीन, पहाड़ों, तारों, क़लम और लौह की तख़लीक़ इसी दिन की है, इसी तरह जिब्रील, फ़रिश्तों, और आदम की तख़लीक़ भी इसी यौमे आशूर को की है, सैय्यदना इब्राहीम की विलादत भी इसी दिन हुई है, इन्हें आग से भी इसी दिन बचाया, सैय्यदना इसमाईल को क़ुर्बान होजाने से भी इसी दिन बचाया (तो फिर मुसलमान 10 जि़लहिज्ज को ईद उल अज़हा क्यों मनाते हैं? ) फि़रऔन को भी इसी दिन दरया में डुबोया (इसको हम तहक़ीक़ से साबित कर चुके हैं के ये ग़लत है) सैय्यदना इद्रीस को भी इसी दिन उठाया, उनकी पैदाइश भी उसी दिन हुई थी, हज़रत आदम की लग़जि़श भी इसी आशूर को मुआफ़ फ़रमाई (जनाबे आदम (अ) के ज़माने में तो कोई कलेंडर ही न था? तो कैसे मालूम हुआ के आशूर का दिन था।) दाऊद (अ) की लग़जि़श भी इसी दिन मुआफ़ फ़रमाई, हज़रत सुलेमान को बादशाहत भी इसी दिन अता की थी, मुहम्मद (स) की विलादत भी आशूर के दिन हुई थी (तो फिर 12 रबी उल अव्वल को ईदे मीलाद उल नबी क्यों मनाया जाता है?) अल्लाह अपने अर्श पर भी इसी दिन मुस्तवी हुआ और क़यामत भी आशूर ही के दिन बरपा होगी।
क़ारेईन! देखा आपने, आशूर के दिन के लिए बनी उमय्या के दरबारी हदीस साज़ों ने सारी मुनासबतें घड़ डालीं ताके नबी (स) के चहीते नवासे हज़रत इमाम हुसैन (अ) की दिलसोज़ शहादत और इसकी तासीर की तरफ़ से लोगों की तवज्जोह हट जाए और बनी उमय्या बड़े आराम से हुकूमत करते रहैं, ये इतनी मनसूबा बंद तूलानी रिवायत किसी भी तरह दरायत पर पूरी नहीं उतरती है, इसी लिए इस रिवायत के बारे में इमाम जोज़ी फ़रमाते हैं के:
ये बिला शुब्हा मनघड़त रिवायत है, इमाम अहमद बिन हंबल ने इसके एक रावी “हबीब बिन अबी हबीब” को रिवायते हदीस के बाब में झूठा क़रार दिया है, इब्ने अदी का उसी के बारे में कहना है के वो हदीसें घड़ा करता था, अबू हातम भी फ़रमाते हैं के ये रिवायत बिलकुल बातिल और बेबुनयाद है।
(अल मोज़ूआत, इने जोज़ी, जिल्द 2, पेज 203, नाशिर मुहम्मद अबद हुसैन, साहिबे अल मकतबा तुल सलफि़या मदीना, पहला एडीशन 1996 ई0)
4- जिस शख़्स ने मोहर्रम के इब्तेदाई 9 दिन के रोज़े रखे अल्लाह तआला उसके लिए आसमान में मीलों लंबा चौड़ा एक ऐसा गुंबद बनाऐंगे जिस के चार दरवाज़े होंगे।
ये रिवायत भी जाली रिवायतों में से है। (अल मोज़ूआत इब्ने जोज़ी, जिल्द 2, पेज 193)
इसके अलावा आशूर की फ़ज़ीलत के बारे में और भी बहुत सी मनघड़त हदीसों की निशानदही की गई है जिनको हम इख़्तसार की वजह से नक़ल नहीं कर रहे हैं।
ख़ुदावंदे आलम तमाम मुसलमानों को क़ुरआन और इतरत के दामन से लिपटाए रखे। (आमीन)
करबला..... दरसे इंसानियत
उफ़ुक़ पर मुहर्रम का चाँद नुमुदार होते ही दिल महज़ून व मग़मूम हो जाता है। ज़ेहनों में शोहदा ए करबला की याद ताज़ा हो जाती है और इस याद का इस्तिक़बाल अश्क़ों की नमी से होता है जो धीरे धीरे आशूरा के क़रीब सैले रवाँ में तबदील हो जाती है। उसके बाद आँसूओं के सोते ख़ुश्क होते जाते हैं और दिल ख़ून के आँसू बहाने पर मजबूर हो जाता है। यह कैसा ग़म है जो मुनदमिल नही
उफ़ुक़ पर मुहर्रम का चाँद नुमुदार होते ही दिल महज़ून व मग़मूम हो जाता है। ज़ेहनों में शोहदा ए करबला की याद ताज़ा हो जाती है और इस याद का इस्तिक़बाल अश्क़ों की नमी से होता है जो धीरे धीरे आशूरा के क़रीब सैले रवाँ में तबदील हो जाती है। उसके बाद आँसूओं के सोते ख़ुश्क होते जाते हैं और दिल ख़ून के आँसू बहाने पर मजबूर हो जाता है।
यह कैसा ग़म है जो मुनदमिल नही होता?।
यह कैसा अलम है जो कम नही होता?।
यह कैसा कर्ब है जिसे एफ़ाक़ा नही होता?।
यह कैसा दर्द है जिसे सुकून मयस्सर नही आता?।
सादिक़े मुसद्दक़ पैग़म्बर (सल्लल्लाहो अलैहे व आलिहि वसल्लम) ने फ़रमाया था:
बेशक क़त्ले हुसैन से मोमिनीन के दिल में ऐसी हरारत पैदा होगी जो कभी भी ख़त्म नही होगी।
वाक़ेयन यह ऐसी हरारत है जो न सिर्फ़ यह कि कम नही होती बल्कि चौहद सदियाँ गुज़रने के बाद भा बढ़ती ही जाती है, बढ़ती ही जा रही है।
मैदाने करबला में फ़रज़ंदे रसूल (स) सैय्यदुश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके अंसार व अक़रबा को तीन दिन का भूखा प्यासा शहीद कर दिया गया। करबला वालों का ऐसा कौन सा अमल है जो दूसरों की बनिस्बत ख़ास इम्तेयाज़ का हामिल है?। जहाँ हमे करबला के मैदान में अज़मते आमाल व किरदार के बहुत से नमूने नज़र आते हैं उन में एक निहायत अहम सिफ़त उन में आपस में एक दूसरे के लिये जज़्ब ए ईसार का पाया जाना है। शोहदा ए करबला की ज़िन्दगी के हर हर पहलू पर, हर हर मंज़िल पर ईसार व फ़िदाकारी व क़ुरबानी की ऐसी मिसालें मौजूद हैं जिसकी नज़ीर तारीख़े आलम में नही मिलती। शहादत पेश करने के लिये अंसार का बनी हाशिम और बनी हाशिम का अंसार पर सबक़त करना तारीख़े ईसारे आलम की सबसे अज़ीम मिसाल है।
करबला करामाते इंसानी की मेराज है।
करबला के मैदान में दोस्ती, मेहमान नवाज़ी, इकराम व ऐहतेराम, मेहर व मुहब्बत, ईसार व फ़िदाकारी, ग़ैरत व शुजाअत व शहामत का जो दर्स हमें मिलता है वह इस तरह से यकजा कम देखने में आता है। मैंने ऊपर ज़िक किया कि करबला करामाते इंसानी की मेराज का नाम है। वह तमाम सिफ़ात जिन का तज़किरा करबला में बतौरे अहसन व अतम हुआ है वह इंसानी ज़िन्दगी की बुनियादी और फ़ितरी सिफ़ात है जिन का हर इंसान में एक इंसान होने की हैसियत से पाया जाना ज़रुरी है। उसके मज़ाहिर करबला में जिस तरह से जलवा अफ़रोज़ होते हैं किसी जंग के मैदान में उस की नज़ीर मिलना मुहाल है। बस यही फ़र्क़ होता है हक़ व बातिल की जंग में। जिस में हक़ का मक़सद, बातिल के मक़सद से सरासर मुख़्तलिफ़ होता है। अगर करबला हक़ व बातिल की जंग न होती तो आज चौदह सदियों के बाद उस का बाक़ी रह जाना एक ताज्जुब ख़ेज़ अम्र होता मगर यह हक़ का इम्तेयाज़ है और हक़ का मोजिज़ा है कि अगर करबला क़यामत तक भी बाक़ी रहे तो किसी भी अहले हक़ को हत्ता कि मुतदय्यिन इंसान को इस पर ताज्जुब नही होना चाहिये।
अगर करबला दो शाहज़ादों की जंग होती?। जैसा कि बाज़ हज़रात हक़ीक़ते दीन से ना आशना होने की बेना पर यह बात कहते हैं और जिन का मक़सद सादा लौह मुसलमानों को गुमराह करने के अलावा कुछ और होना बईद नज़र आता है तो वहाँ के नज़ारे क़तअन उस से मुख़्तलिफ़ होते जो कुछ करबला में वाक़े हुआ। वहाँ शराब व शबाब, गै़र अख़लाक़ी व गै़र इंसानी महफ़िलें तो सज सकती थीं मगर वहाँ शब की तारीकी में ज़िक्रे इलाही की सदाओं का बुलंद होना क्या मायना रखता?। असहाब का आपस में एक दूसरों को हक़ और सब्र की तलक़ीन करना का क्या मफ़हूम हो सकता है?। माँओं का बच्चों को ख़िलाफ़े मामता जंग और ईसार के लिये तैयार करना किस जज़्बे के तहत मुमकिन हो सकता है?। क्या यह वही चीज़ नही है जिस के ऊपर इंसान अपनी जान, माल, इज़्ज़त, आबरू सब कुछ क़ुर्बान करने के लिये तैयार हो जाता है मगर उसके मिटने का तसव्वुर भी नही कर सकता। यक़ीनन यह इंसान का दीन और मज़हब होता है जो उसे यह जुरअत और शुजाअत अता करता है कि वह बातिल की चट्टानों से टकराने में ख़ुद को आहनी महसूस करता है। उसके जज़्बे आँधियों का रुख़ मोड़ने की क़ुव्वत हासिल कर लेते हैं। उसके अज़्म व इरादे बुलंद से बुलंद और मज़बूत से मज़बूत क़िले मुसख़्ख़र कर सकते हैं।
यही वजह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पाये सबात में लग़ज़िश का न होना तो समझ में आता है कि वह फ़रज़ंदे रसूल (स) हैं, इमामे मासूम (अ) हैं, मगर करबला के मैदान में असहाब व अंसार ने जिस सबात का मुज़ाहिरा किया है उस पर अक़्ल हैरान व परेशान रह जाती है। अक़्ल उस का तजज़िया करने से क़ासिर रह जाती है। इस लिये कि तजज़िया व तहलील हमेशा ज़ाहिरी असबाब व अवामिल की बेना पर किये जाते हैं मगर इंसान अपनी ज़िन्दगी में बहुत से ऐसे अमल करता है जिसकी तहलील ज़ाहिरी असबाब से करना मुमकिन नही है और यही करबला में नज़र आता है।
*हमारा सलाम हो हुसैने मज़लूम पर
*हमारा सलाम हो बनी हाशिम पर
*हमारा सलाम हो मुख़द्देराते इस्मत व तहारत पर
*हमारा सलाम हो असहाब व अंसार पर।
*या लैतनी कुन्तो मअकुम।
हुसैन, दुनिया के स्वतंत्रता प्रेमियों के इमाम
हुसैन बिन अली अहलेबैत और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती ने अपने महाआंदोलन से पहले फ़रमाया था कि मैंने अत्याचार और भ्रष्टाचार करने के लिए आंदोलन नहीं किया है। मैंने केवल अपने नाना की उम्मत में सुधार के लिए आंदोलन किया है।
दुनिया में कोई भी इंसान इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की भांति आज़ाद व स्वतंत्र लोगों के दिलों में जगह नहीं रखता। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम आध्यात्म, निष्ठा, बहादुरी, साहस, न्यायप्रेम, अन्याय विरोधी और साथ ही अल्लाह की बंदगी के सर्वोत्तम आदर्श है। यहां पर हम इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की जीवनी और उनसे विचारों पर एक दृष्टि डालेंगे।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम के नाती, शियों के पहले इमाम हज़रत अली बिन अबी तालिब और हज़रत फ़ातेमा ज़हरा स. के बेटे हैं। उनका जन्म चौथी हिजरी क़मरी में पवित्र नगर मदीना में हुआ था।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम के अहलेबैत में से एक हैं जिनके बारे में आयते तत्हीर नाज़िल हुई थी। इस आयत में कहा गया है कि अहलेबैत हर प्रकार की गंदगी से पाक हैं। आयते तत्हीर अहलेबैत की शान में नाज़िल हुई है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पास जो कुछ भी था उन्होंने सब कुछ अल्लाह की राह में लुटा दिया। शिया और सुन्नी मुसलमानों की एतिहासिक किताबों के अनुसार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जब पैदा हुए थे उसी समय पैग़म्बरे इस्लाम ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत की ख़बर दी थी और उनका नाम हुसैन रखा था।
पैग़म्बरे इस्लाम ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शान में जो हदीसें बयान की हैं उनका उल्लेख शिया और सुन्नी दोनों की किताबों में हुआ है जिसकी वजह से शिया-सुन्नी दोनों उनका सम्मान करते और उनके प्रति श्रृद्धा रखते हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अमवी शासक मोआविया के क्रियाकलापों पर कड़ी आपत्ति जताते थे। जिन चीज़ों पर कड़ी आपत्ति जताते थे उनमें से एक यज़ीद का मोआविया का उत्तराधिकारी होना था और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की बैअत नहीं किया। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम यज़ीद को एक तुच्छ, पस्त, अत्याचारी, भ्रष्ट और सामाजिक व मानवता विरोधी व्यक्ति मानते थे। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ख़िलाफ़त को एक ईश्वरीय पद मानते थे और उनका मानना था कि समाज का अभिभावक पैग़म्बरे इस्लाम की भांति होना चाहिये और उन सबका निर्धारण पैग़म्बरे इस्लाम अपने स्वर्गवास से पहले ही कर चुके थे।
मोआविया के मरने के बाद यज़ीद ने बैअत लेने के लिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर बहुत दबाव डाला यहां तक कि उसने कहा कि अगर इमाम हुसैन बैअत न करें तो उनकी हत्या कर दी जाये।
अंततः इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम यज़ीद और उसके मज़दूरों के भारी दबाव के कारण मदीना से मक्का चले जाते हैं। वह चार महीनों तक मक्का में रहते हैं। वहां पर कूफ़ा वासियों की ओर से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को बहुत पत्र मिलते हैं जिनमें लिखा होता था कि हम यज़ीद को शासक के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं और आप आइये और हम आपके हाथों पर बैअत करेंगे। इस प्रकार के अनुरोधों के बाद इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मुस्लिम बिन अक़ील को अपना प्रतिनिधि व उत्तराधिकारी बना कर कूफ़ा भेजा। हज़रत मुस्लिम ने कूफ़ियों के समर्थन की पुष्टि की और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम कूफ़ा रवाना हो गये। दूसरी ओर यज़ीद ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का मुक़ाबला करने के लिए सेना भेज दी।
अंततः सन् 61 हिजरी क़मरी में दोनों पक्षों का कर्बला में एक दूसरे से आमना- सामना हुआ परंतु कूफ़ा वासियों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समर्थन का जो वचन दिया था उस पर वे बाक़ी न रहे और उन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को अकेला छोड़ दिया। एतिहासिक किताबों में बयान किया गया है कि यज़ीद ने जो सेना भेजी थी उसकी संख्या लगभग 30 हज़ार थी जबकि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सैनिकों व साथियों की संख्या 72 थी परंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने बातिल की बैअत नहीं की। 10वीं मोहर्रम को घमासान की लड़ाई हुई और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के चाहने वाले साथियों व सैनिकों ने अपनी बहादुरी व शूरवीरता का इतिहास रच दिया।
यज़ीद के सिपाहियों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों पर पानी तक बंद कर दिया था और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथी भूखे और प्यासे शहीद हो गये और यज़ीद के राक्षसी सैनिकों ने इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों के सिरों को उनके शरीरों से अलग कर दिया था और वे सब इन सिरों को यज़ीद के दरबार में ले गये।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने अपनी शहादत से पहले एक पत्र में कहा था कि मैंने अत्याचार और फ़साद करने के लिए आंदोलन नहीं किया है मैंने केवल अपने नाना की उम्मत में सुधार के लिए आंदोलन किया है। मैं भलाई का आदेश देना चाहता हूं और बुराई से रोकना चाहता हूं और अपने नाना और बाबा अली बिन अबीतालिब की सीरत व आचरण पर चलता चाहता हूं।
पैग़म्बरे इस्लाम ने बारमबार इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाया है कि हुसैन मुझसे हैं और मैं हुसैन से हूं। इस हदीस का पहला भाग पूरी तरह स्पष्ट है जिसमें आपने फ़रमाया है कि हुसैन मुझसे हैं जबकि दूसरे भाग का अर्थ यह है कि मेरा धर्म हुसैन की क़ुर्बानी से ज़िन्दा रहेगा ताकि मानवता अपने वास्तविक गंतव्य तक पहुंच जाये।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके वफ़ादार साथियों की क़ब्र इराक़ के पवित्र कर्बला नगर में है और आज दुनिया के लाखों लोग उनकी ज़ियारत के लिए कर्बला जाते हैं और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत दुनिया के स्वतंत्रता प्रेमियों और कमज़ोंरों की पूंजी और आदर्श है।
ओमान में मजलिस पर आतंकी हमला, अब तक 4 आजादार शहीद
ओमान में एक मजलिसे अजा को निशाना बनाकर की गई गोलीबारी की खबर है। इस गोलीबारी में चार लोग शहीद और कई अन्य घायल हुए हैं। घायलों की स्थिति को देखते हुए मृतकों की संख्या बढ़ने की आशंका जताई जा रही है।
पुलिस के अनुसार, ओमान की राजधानी मस्कत के नजदीक स्थित अल-वादी अल-कबीर इलाके में स्थित इमाम बारगाह में गोलीबारी हुई। संदिग्ध अपने साथ हथियार लेकर घटनास्थल पर पहुंचा और लोगों पर फायरिंग शुरू कर दी।
अरब सागर के पूर्व में स्थित ओमान में इस तरह की हिंसा बेहद दुर्लभ घटना है। अमेरिकी दूतावास ने बयान जारी कर अमेरिकी नागरिकों को उस इलाके से दूर रहने की सलाह दी है। अमेरिकी दूतावास ने सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म एक्स पर लिखा, 'अमेरिकी नागरिकों को सतर्क रहना चाहिए, स्थानीय समाचारों पर नजर रखनी चाहिए और स्थानीय अधिकारियों के निर्देशों का पालन करना चाहिए।'
रिपोर्ट्स के अनुसार जिस समय हमला हुआ उस समय मजलिस में 700 से अधिक लोग मौजूद थे।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की याद में इस साल भी होगा ब्लड डोनेशन कैंप का आयोजन
हरिद्वार: उत्तराखंड के जिला हरिद्वार के मंगलौर में अतीत की भांति इस साल भी इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके साथियों की शहादत की याद में समाज सेवा और सामाजिक न्याय के संदेश के साथ द मैसेज ऑफ़ कर्बला ट्रस्ट के तत्वाधान में हुसैनी यूथ्स की ओर से रक्तदान शिविर का आयोजन किया जाएगा ।
इमाम हुसैन के नाम पर जरूरतमंदो की मदद और रोगियों की सहायता के मकसद से इस शिविर का आयोजन किया जा रहा है। चिकित्सा विशेषज्ञों के अनुसार नियमित रूप से रक्तदान करने से आयरन की अतिरिक्त मात्रा नियंत्रित हो जाती है। जो दिल की सेहत के लिए अच्छी है। उन्होंने बताया कि कई बार मरीजों के शरीर में खून की मात्रा इतनी कम हो जाती है कि उन्हें किसी और व्यक्ति से ब्लड लेने की आवश्यकता पड़ जाती है। ऐसी ही इमरजेंसी स्थिति में खून की आपूर्ति के लिए लोगों को रक्तदान करने के लिए आगे आना चाहिए।
बता दें कि द मैसेज ऑफ़ कर्बला ट्रस्ट की जानिब से 10 मोहर्रम को दिल्ली हरिद्वार हाईवे पर सबीले इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का आयोजन भी किया जाता है जिसमे राहगीरों को बोतलबंद पानी के साथ कर्बला और इमाम हुसैन से संबंधित ब्रोशर आदि भी दिए जाते हैं।