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नेतन्याहू है आतंकी, पाकिस्तान ने कई उत्पादों पर लगाया प्रतिबंध
अवैध राष्ट्र के खिलाफ कड़ा रुख अपनाते हुए पाकिस्तान की सरकार ने कहा है कि वह इस्राईल के प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू को आतंकवादी मानती है। पाकिस्तान ने मांग की कि फिलिस्तीनियों के खिलाफ युद्ध अपराध के लिए नेतन्याहू को न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए।
प्रधानमंत्री शहबाज शरीफ के राजनीति और सार्वजनिक मामलों पर सलाहकार राणा सनाउल्लाह ने कहा कि 'नेतन्याहू एक आतंकवादी है और युद्ध अपराध का दोषी है।'
राणा सनाउल्लाह ने कहा कि पाकिस्तान में ऐसी कंपनियों और उत्पादों की पहचान के लिए एक समिति भी गठित की गई है, जो प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से इस्राईल या फिलिस्तीनियों के खिलाफ युद्ध अपराध करने वाली ताकतों को बढ़ावा दे रही हैं।
इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता ने ईरान में प्रभावी व उपयोगी, धार्मिक और क्रांतिकारी सरकार के गठन पर बल दिया
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने रविवार 21 जुलाई 2024 की सुबह तेहरान में इमाम ख़ुमैनी इमामबाड़े में संसद सभापति और सांसदों से मुलाक़ात की।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने इस मुलाक़ात में अपने ख़ेताब के दौरान क़ानून बनाने और उसकी ज़रूरी व ग़ैर ज़रूरी बातों के मैदान में संसद की ज़िम्मेदारियों के बारे में अहम बिंदु बयान करते हुए सरकार के साथ सहयोग, मुल्क के सभी अहम विभागों की ओर से एक ही आवाज़ सुनाई देने और विदेशी मसलों और विदेश नीति के मैदान में संसद की सक्रियता और उसकी ओर से गंभीर किरदार अदा किए जाने पर बल दिया।
उन्होंने अंतर्राष्ट्रीय मसलों के संबंध में संसद की सलाहियतों और गुंजाइशों की ओर इशारा करते हुए कहा कि संसद एक अहम स्तंभ है और दुनिया की सरकारें अपने अहम मामलों में संसद से मदद लेती हैं।
उन्होंने ग़ज़ा के मसले को विदेशी मसलों में संसद की सरगर्मियों का एक उदाहरण बताया और इस सिलसिले में काम की अहमियत पर बल देते हुए कहा कि ग़ज़ा का मसला बदस्तूर इस्लामी दुनिया का सबसे अहम मसला है। उन्होंने कहा कि दुष्ट व क़ाबिज़ ज़ायोनी सरकार के अपराध शुरू होने को महीनों बीत जाने के बाद कुछ लोगों में इन अपराधों की भर्त्सना और उनके मुक़ाबले के सिलसिले में पाया जाने वाला आरंभिक जोश कम हो गया है लेकिन ग़ज़ा के मसले की अहमियत आरंभिक दिनों से भी ज़्यादा है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने प्रतिरोध की दिन- प्रतिदिन बढ़ती ताक़त की ओर इशारा करते हुए कहा कि अमरीका जैसी एक बड़ी राजनैतिक, आर्थिक और सैन्य ताक़त क़ाबिज़ ज़ायोनी सरकार के साथ मिलकर प्रतिरोध के नाम वाले एक छोटे से गिरोह से लड़ रही है और चूंकि ये दोनों दुष्ट ताक़तें हमास और प्रतिरोध को ख़त्म करने में कामयाब नहीं हुई हैं इसलिए अपने बम अस्पतालों, स्कूलों, बच्चों, औरतों और मज़लूम लोगों पर गिरा रही हैं।
उन्होंने कहा कि यह अपराध और बर्बरता दुनिया के लोगों की नज़रों के सामने हो रही है और वो क़ाबिज़ व दुष्ट सरकार के ख़िलाफ़ फ़ैसला कर रहे हैं और यह मसला बदस्तूर जारी है।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने विदेशी मसलों में संसद की ओर से किरदार अदा किए जाने के सिलसिले में कहा कि संसद इस सिलसिले में सरकार के हाथ मज़बूत कर सकती है और विदेश नीति के सिलसिले में संसद के अच्छे व प्रभावी कामों में से एक ग्यारहवीं संसद का स्ट्रैटेजिक ऐक्शन क़ानून है, अलबत्ता कुछ लोगों ने इस क़ानून पर एतेराज़ किया और इसमें कमियां निकालीं जो पूरी तरह बेबुनियाद हैं।
उन्होंने विश्व स्तर पर बदलाव और कूटनीति के क्षेत्र में संसद की ओर से किरदार अदा किए जाने को प्रभावी बताया और कहा कि ब्रिक्स की बैठक में संसद सभापति की प्रभावी मौजूदगी सहित संसद सभापति और सांसदों के दौरे और मुलाक़ातें प्रभावी रही हैं और विदेश नीति के मसलों के बारे में कभी कभी सांसदों का सिर्फ़ एक बयान या घोषणापत्र भी बहुत अहम और प्रभावी होता है।
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने सरकारों की ओर से संसद के उपयोग को दुनिया में एक प्रचलित शैली बताया और कहा कि इसकी एक मिसाल सीसादा (CISADA) के नाम से जाना जाने वाला इस्लामी गणराज्य के ख़िलाफ़ अमरीका की व्यापक पाबंदियों का क़ानून है जिसे अमरीकी संसद ने पास किया और उस वक़्त के रिपब्लिकन राष्ट्रपति ने जो पाख़ंडी इंसान था, इस पर दस्तख़त किए।
उन्होंने पाबंदियों और उन्हें नाकाम बनाने में संसद के रोल पर रौशनी डालने हुए कहा कि हम पाबंदियों को अच्छे तरीक़ों से दूर कर सकते हैं बल्कि नाकाम बना सकते हैं। पाबंदियों को नाकाम बनाने के साधन हमारे हाथ में हैं और उसके लिए अच्छे रास्ते भी पाए जाते हैं और संसद इस मसले में अहम किरदार अदा कर सकती है।
आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने सरकार, न्यायपालिका और विधिपालिका के बीच सहयोग और समन्वय पर बल देते हुए कहा कि सिस्टम के मुख़्तलिफ़ तत्वों को एक संयुक्त प्लेटफ़ॉर्म बनाना चाहिए और इसके लिए उनके दरमियान सहयोग, एकता और कभी कभी अनदेखी भी ज़रूरी है।
उन्होंने कहा कि संसद को जो एक काम फ़ौरन करना है वह जनाब पिज़िश्कियान साहब के मंत्रीमंडल को विश्वास का वोट देना है। उन्होंने निर्वाचित राष्ट्रपति के मंत्रीमंडल के लिए ज़रूरी ख़ुसूसियतों और मानकों के बारे में कहा कि ऐसे शख़्स को मैदान में लाना चाहिए जो मोमिन, ईमानदार, सच्चा, घर्मपरायण, दिल से इस्लामी गणराज्य पर भरोसा करने वाला और भविष्य की ओर से आशावान हो।
इस्लामी क्रांति के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने आर्थिक, सांस्कृतिक, अंतरराष्ट्रीय और दूसरे मामलों में श्री पिज़िश्कियान की कामयाबी को सबकी कामयाबी बताया और कहा कि सबको चाहिये कि दायित्वों के निर्वाह में ईरान के निर्वाचित राष्ट्रपति की मदद करें और दिल की गहराइयों से विश्वास करें कि उनकी कामयाबी हम सबकी कामयाबी है।
इस्लामी क्रांति के नेता से सांसदों की मुलाक़ात में ईरान के निर्वाचित राष्ट्रपति उपस्थित
इस्लामी इंक़ेलाब के नेता ने उम्मीद जतायी कि इन मानकों पर अमल और राष्ट्रपति व संसद की ओर से संयुक्त ज़िम्मेदारी अदा किए जाने से एक अच्छे, उपयोगी, धर्मपरायण, और इंक़ेलाबी मंत्रिमडल का गठन होगा जो मुल्क के मामलों को आगे बढ़ा सकेगा।
इमाम हुसैन का नाम लिया और मिनी माउंट एवरेस्ट पर चढ़ गयीं
एक ईरानी महिला पर्वतारोही ने पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हज़रत इमाम हुसैन का नाम लेकर जॉर्जिया की काज़बेक चोटी को सर करने में कामयाब रहीं जिसे मिनी एवरेस्ट के रूप में याद किया जाता है।
5047 मीटर ऊंची काज़बेक की चोटी जॉर्जिया में सेंट्रल काकेशस पर्वत श्रृंखला के पूरब में स्थित है जिसे स्माल एवरेस्ट का नाम दिया गया है। से जाना जाता है।
ईरान की महिला पर्वतारोही ज़हरा अब्बासी ने कहा: लगभग 24 घंटे की निरंतर कोशिशों और ग्लेशियरों, बर्फ़ के पहाड़ों और टीलों से गुज़रते हुए बर्फ़ीली हवाओं का सामना करते हुए अस्थिर मौसम की परेशानियों से गुजरने के बाद, वह काज़बेक चोटी पर चढ़ने में कामयाब हुईं जिस पर चढ़ना और इसकी परेशानी व कठिनाई की डिग्री हिमालय की चोटी के बराबर ही है।
इस ईरानी महिला ने 14 साल पहले पर्वतारोहण शुरू किया था थी और अब तक ईरान के 31 प्रांतों की कई चोटियां फतह कर चुकी हैं।
उन्होंने कहा: पर्वतारोहण मेरी जीवनशैली है और विशेष और प्राकृतिक दृश्यों को देखकर मुझे एहसास होता है कि सृष्टि के निर्माता ने दुनिया को कितना व्यवस्थित बनाया है।
उनका कहना था कि इसमें कोई संदेह नहीं है कि ऊंचाई और ख़राब मौसम की समस्या, मुझे मेरी मंज़िल तक ले जाती है और मुझे याद दिलाती है सर्वशक्तिमान ईश्वर का नाम जिस चीज़ ने पर्वतारोण की ख़राब परिस्थितियों में हमेशा मेरी आत्मा हज़रत फ़ातेमा ज़हरा और उनके प्राण प्रिय पुत्र हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के गुणगान से शांत बनाए रखा।
आयतुल्लाह अब्दुल करीम क़ज़वीनी का निधन, ईरान समेत कई देशों में शोक की लहर
ईरान और इराक समेत दुनिया के कई देशों में खिदमत करने वाले मशहूर धार्मिक विद्वान आयतुल्लाह अब्दुल करीम क़ज़वीनी का निधन हो गया।
वह आयतुल्लाह खुई और शहीद बाकिर अल सद्र के विशेष शागिर्दों में शामिल थे । मस्जिदे इमाम हसन असकरी से हज़रत मासूमा ए कुम के रौज़े तक तशी के बाद उनके शव को नजफे अशरफ़ भेज दिया गया जहां उन्हें सुपुर्द-ए-खाक किया गया।
इमाम हुसैन का ज़िक्र करने वालों का नाम फ़ातेमा ज़हरा की लिस्ट में
किताबे " चेहरये दरख़शाँ हुसैन इबने अली अलैहिमस्सलाम " के पेज न0 227 और 230 पर इस तरह लिखा है महान आलिम हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लमीन जनाब हाज मुर्तज़ा मुज्तहेदी सीस्तानी इस तरह बयान करते हैः
मेरे चाचा जनाब सय्यद इब्राहीम मुज्तहेदी सीस्तानी इमाम-ए-रज़ा अलैहिस्सलाम के पुराने ज़ाकरीन में से थे. मेरे स्वर्गीय चाचा ने एक सपने मे सिद्दीक़ए कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा को देखा कि एक सूची उन के सामने रखी है जो खुली हुई है मैं ने उन इस बारे में पूछा कि यह किस की सूची है ?
सिद्दीक़ए कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा ने फ़रमायाः मेरे बेटे हुसैन की मजलिस पढ़ने वालों का नाम इस सूची में है।
मेरे स्वर्गीय चाचा ने देखा कि कुछ मजलिस पढ़ने वालों का नाम उस सूची में है और वह पैसा कि जो उन को मजलिस पढ़ने का उस मोहर्रम में दिया गया था वह भी उस सूची में लिखा है।
मेरे स्वर्गीय चाचा ने अपना भी नाम उस सूची में देखा और यह भी देखा कि उन के नाम के आगे लिखा था 30 तूमान (ईरानी पैसे को तूमान कहते हैं।)
नींद से जागे तो जो सपना उन्हों ने देखा था बहुत आश्चर्यचकित हुए क्योंकि 30 तुमान उस ज़माने में एक मजलिस का बहुत ज़्यादा पैसा था मगर दो महीने और ज़्यादा मजलिसों के कारण इत्ना पैसा हो सकता था लेकिन संजोग से उसी वर्ष वह बीमार हो गए यहाँ तक कि घर से निकलने की भी ताक़त नही थी और उन की बीमारी हर दिन बढ़ती ही जा रही थी यहाँ तक कि मोहर्रम और सफ़र को महीना ख़तम होने का था। इस दो महीने में सिर्फ़ एक दिन उन की हालत कुछ ठीक हुई और सिर्फ़ एक ही मजलिस में जा सके मजलिस के बाद जिसने मजलिस करवाई थी उस ने उन को एक पैकेट दिया कि जिस में 30 तूमान था ।
इस बात से उन के सपने को सच होना सिध्द है और यह भी सिध्द होता है कि सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा मजलिस पढ़ने वालों पर कृपा करती हैं और सब कुछ उस महान हस्ती के कन्टरोल में है ।
मजलिस पढ़ने वालों का सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा की नज़र में क्या पद है और वह लोग कित्ने महान है उन की नज़र में, इस बात का पता इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम की इस बात से चलता हैः
कोई भी ऐसा नहीं है कि जो इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर आंसू बहाये और रोये मगर यह कि उस का रोना सिद्दीक़ये कुबरा हज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा तक पहुँचता है और सिद्दीक़ये कुबराहज़रत फ़ातिमा ज़हरा सलामुल्लाहे अलैहा इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोने वालों की सहायता करती हैं, और उस का रोना रसूले ख़ुदा तक भी पहुंचता है और वह इन आंसूओं की क़ीमत अदा करते हैं।
एक दूसरी रेवायत मे भी इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोने के सिलसिले में इमाम-ए-जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से वारिद हुआ है कि आप ने फ़रमायाः
जो कोई इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम पर रोता है इमाम उस को देखते हैं और उस के लिए इस्तिग़फ़ार करते हैं और हज़रत अली अलैहिस्सलाम से भी कहते हैं कि वह भी रोने वालों के लिए इस्तिग़फ़ार करें और रोने वालों से कहते हैः
अगर तुम लोगों को मालूम हो जाये कि इश्वर ने तुम लागों के लिए क्या तय्यार किया है तो तुम जित्ना ज़्यादा दुखी होते उस से ज़्यादा उस के लिए ख़ुश होते और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम उस के लिए इस्तिग़फ़ार करते हैं हर उस गुनाह के लिए जो उस ने किया है।
इमामे हुसैन अलैहिस्सलाम के दुख में एक बूंद आँसु सारे गुनाह को ख़त्म कर देता है रेवायतों में आया है कि जो भी व्यक्ति इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस में आता है उस को चाहिए कि उन के सम्मान का ध्यान रखे।
एक अहम बात यह है कि जो कोई इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम कि मजलिस में रोता है उस को चाहिए कि वह इमाम-ए-ज़माना आज्जल्लाहू फ़रजहुश्शरीफ़ के ज़हूर के लिए दुआ करे और ईश्वर से यह दुआ करे कि वह इमाम के ज़हूर में जल्दी करे ताकि इमाम-ए-ज़माना की दुआ का मुस्तहेक़ हो।
एक जगह इमाम-ए-ज़माना आज्जल्लाहू फ़रजहुश्शरीफ़ ने फ़रमायाः
मैं हर उस व्यक्ति के लिए दुआ करता हूँ जो इमाम-ए-हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस मे मेरे लिए दुआ करता है।
इमाम हुसैन (अ) की शहादत के बाद
इमाम हुसैन (अ) की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बरे इस्लाम (स) का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था।
इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं। थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था। 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता। इमाम हुसैन (अ) शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है। उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे। इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे।
इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं। इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ) ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”। इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं। तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा। इस पर इमाम हुसैन (अ) बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है।
इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये। ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन (अ) बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे। वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन (अ) पर हमला करता। बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे। इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”। इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया। हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन (अ) घोड़े की पीठ से गिर पड़े।
इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा। तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था। इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था। अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन (अ) के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन (अ) (अ) की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया।
फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन (अ) का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन (अ) को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया। इमाम हुसैन (अ) तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है।
शहादत के बाद:
इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये। इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई। उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया।
इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया। इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ। असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था।
इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया। जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”। इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया। तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”। इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें। अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता। हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया। मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते।”
उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया। कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं।
यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया। इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है।” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है। यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं। तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”।
इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी। इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया। इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी। इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे। पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें। दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें। ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे। उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे।
क्रांति की आग:
कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया। यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा।
मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया। इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है)। मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे। सारा शहर लूट लिया गया। हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था। मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे। इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे। इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता।
जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई।(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे)। मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ। इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं।
मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा। मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी। लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया। उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा। उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई। लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका। इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया। इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा।
यज़ीद की मौत:
यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है। कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया। लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली।
जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं। अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”। यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया। लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ। यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था। यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया।
कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे। मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई।
यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया। भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई। इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए। इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है।
ख़ून के बदले का अभियान:
मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं। वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा। इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया। लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए। और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे। तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके।
इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली। जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे। इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली। अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए।
मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी। उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की। उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया। उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए। कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी। मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा।
इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला। इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा। इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया।
उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे। यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई।
हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे।
इतिहास रचने वाली कर्बला की महिलाएं
बहुत से महापुरुष और वे लोग जिन्होंने इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उनकी सफलता के पीछे दो प्रकार की महिलाओं का बलिदान और त्याग रहा है। पहला गुट उन मोमिन और बलिदानी माताओं का है जो इस प्रकार के बच्चों के पालन पोषण में सफल हुईं। दूसरा गुट उन महिलाओं का है जो अपने पति के कांधे से कांधा मिलाकर कठिन से कठिन घटनाओं के समक्ष डट गयीं। इस प्रकार से घटना के पीछे या विभिन्न मंचों पर परोक्ष रूप से महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती।
इस्लामी इतिहास की अद्वितीय और अनुदाहरणीय घटना जिसने इस्लामी समाज में मूल परिवर्तन उत्पन्न कर दिया, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का महा आन्दोलन और क्रांति है। इस पवित्र महा आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गुटों में से एक महिलाओं का गुट था। इस महा आन्दोलन में महिलाओं ने दर्शा दिया कि जब भी धर्म के समर्थन, न्याय और सत्य की स्थापना की चर्चा होगी तो वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी ऐतिहासिक और प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में महिलाओं की उपस्थिति एक प्रकार से हज़रत हमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन को परिपूर्णता तक पहुंचाने वाला महत्वपूर्ण कारक था और उन महिलाओं ने इस सिलसिले में अनोखी भूमिका निभाई थी। आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में यज़ीदी सेना के हज़ारों पथभ्रष्ट सैनिक कुछ गिने चुने सत्य प्रेमियों के मुक़ाबले पर आ गये। स्पष्ट सी बात है ऐसी परिस्थिति में वही व्यक्ति प्रतिरोध कर सकता है जो वीरता, साहस और ईमान के श्रेष्ठतम स्थान पर हो। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों में कुछ ऐसे थे जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मार्ग के सही और सच्चा होने में संदेह और शंका नहीं रखते थे और कोई भी चीज़ उनको सत्य की रक्षा में बाधित नहीं कर सकती थी किन्तु दूसरा गुट आरंभ में शंका ग्रस्त था। इन लोगों में ज़ुहैर इब्ने क़ैन थे। वे आरंभ में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता करने से दूर रहे किन्तु अपनी पत्नी दैलम बिन्ते अम्र के प्रेरित करने से इमाम हुसैन के मार्ग पर चल निकले।
ज़ुहैर इब्ने क़ैन के एक मित्र का कहना है कि हम सन 60 हिजरी क़मरी में हज करने मक्का गये। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्लाम की ख़तरों भरी यात्रा की सूचना के दृष्टिगत, हमने इमाम हुसैन अलैहिस्लाम के कारवां से दूर ही रहने का प्रयास ताकि उनसे आमना सामना न हो जाए। जब हमारा कारवां एक पड़ाव पर पहुंचा तो इमाम हुसैन और उनके साथियों का कारवां भी वहां पहुंच गया। अभी हमने खाना खाना आरंभ ही किया था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सला का दूत हमारे पास आया और सलाम करने के बाद उसने ज़ुहैर से कहा कि इमाम हुसैन ने तुम्हें याद किया है। यह बात सुनकर ज़ुहैर इतना आश्चर्य चकित हुए कि जो कुछ भी उनके हाथ में था ज़मीन पर गिर पड़ा। उसी आश्चर्य और मौन के वातावरण में अचानक ज़ुहैर की पत्नी की आवाज़ गूंजी, वाह-वाह क्या बात है?! पैग़म्बरे इस्लाम का नाती तुम्हें अपने पास बुला रहा है और तुम उनके पास नहीं जा रहे हो, तुम्हें क्या हो जाएगा यदि उनके पास गए और उनकी बात सुनी।
ज़ुहैर की पत्नी के शब्द ऐसी निष्ठा और दिल की गहराईयों से निकले थे कि इन्हीं एक-दो वाक्यों ने ज़ुहैर को अंदर से झंझोड़ दिया और उन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्लाम से भेंट की और उनके साथ हो गए।
यदि ज़ुहैर के भाग्य में ऐसी पत्नी न होती तो उन्हें ईश्वर के मार्ग में शहादत और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहने का गौरव प्राप्त न होता। ज़ुहैर की पत्नी ने विदाई के समय ज़ुहैर से इच्छा जताई कि वे प्रलय के दिन हज़रत इमाम हुसैन से उनकी सिफ़ारिश करेंगे।
करबला की वीर महिलाओं में से एक वहब की मां थीं। वे अपने इकलौते पुत्र वहब और अपनी बहू के साथ एक स्थान पर हमाम हुसैन के कारवां से मिलीं और उनके साथ हो गयीं। वहब की मां हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आध्यात्मिक और मानसिक सदगुणों में ऐसा खो गयीं थीं कि उनकी सहायता के लिए उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। करबला में महा आन्दोलन के दिन वहब बार बार अपनी माता के उत्साह बढ़ाने और प्रेरित करने से रणक्षेत्र गये और साहस पूर्ण युद्ध किया और शहीद हो गये। उनकी माता उनके शव पर आईं और वहब के चेहरे से रक्त साफ़ करती जा रहीं थी और कह रही थीं कि धन्य है वह ईश्वर जिसने हुसैन इब्ने अली के साथ तुम्हारी शहादत से मुझे गौरान्वित कर दिया। अपने सुपुत्र की शहादत के पश्चात तंबू के स्तंभ की लकड़ी को लेकर वह शत्रु सैनिकों पर टूट पड़ीं और शहीद हो गईं। वह करबला की पहली शहीद महिला हैं।
अम्र बिन जुनादह की माता भी एक अन्य वीर और त्यागी महिला हैं जिन्होंने आशूर के दिन इतिहास में ऐसी शौर्य-गाथा रची जो कभी न भुलाई जाएगी। जब उनका पुत्र अम्र शहीद हो गया तो शत्रुओं ने उनके पुत्र के सिर को मां के पास भेजा, अम्र की माता ने जब अपने पुत्र के सिर को देखा तो उन्होंने सिर को रणक्षेत्र में फेंक दिया और कहा कि मैंने जो चीज़ ईश्वर के मार्ग में न्योछावर कर दी है उसे वापस नहीं लूंगी।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में उपस्थित वीर महिलाओं के व्यवहार और कथन से धर्म के लक्ष्यों की रक्षा में उनकी निष्ठा और महत्त्वकांक्षा के स्तर को समझा जा सकता है। इन महिलाओं ने जबकि वे अपने कांधों पर दुःखों के पहाड़ उठाए हुए थीं, पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के पवित्र नाती की सहायता की और सत्य की रक्षा की।
इन त्यागी और बलिदानी महिलाओं की मुखिया हज़रते ज़ैनब हैं। ऐसी महिला जिन्होंने हज़रत अली और हज़रत फ़ात्मा से प्रशिक्षण प्राप्त किया और ज्ञान के मोती चुने। करबला की घटना में हज़रते ज़ैनब की जिस महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया जाता है वह वास्तव में उन विशेषताओं और परिपूर्णताओं का प्रकट होना है जिससे उन्होंने स्वयं को बाल्याकाल में ही सुसज्जित कर लिया था। हज़रते ज़ैनब मानसिक परिपूर्णता के उस चरण में पहुंच चुकी थीं कि करबला की घटना और तथा अपने प्रियजनों की शहादत को उन्होंने ईश्वरीय परीक्षा माना और भ्रष्ट यज़ीद के समक्ष जो उनको अपमानित करने का उद्देश्य रखता था, तेज़ आवाज़ में कहा कि यज़ीद मैंने करबला में सुंदरता के अतिरिक्त कुछ और नहीं देखा।
इस घटना में हज़रते ज़ैनब का धैर्य अद्वितीय है। ऐसे समय में कि केवल सुबह से दोपहर तक जिसके भाई, भतीजे और पुत्र शहीद हो चुके हों, वह करबला की साहसी महिला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पवित्र शरीर के पास खड़ी हुई। दृढ़ संकल्प और भावना से ओतप्रोत होकर कहती है कि हे ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से इस क़ुरबानी को स्वीकार कर। क्योंकि हज़रते ज़ैनब एक बड़ी ज़िम्मेदारी, महान दायित्व और उद्देश्य के बारे में सोच रही थीं। ऐसी ज़िम्मेदारी जो हज़रते इमाम हुसैन ने अपनी शहादत से पूर्व बारम्बार हज़रत ज़ैनब को सौंपा था। हज़रत इमाम हुसैने ने करबला में मौजूद महिलाओं से इच्छा व्यक्त की थी कि अपनी बुद्धि और युक्ति पर भावनाओं को वरीयता दें और अपने दायित्वों के विपरीत कोई कार्य न करें।
हज़रत इमाम हुसैन जब अपने परिजनों से विदा होकर रणक्षेत्र जा रहे थे तो उन्होंने कहा कि कठिन से कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहो और यह जान लो कि ईश्वर तुम्हारा समर्थक और रक्षक है और तुम को शत्रुओं की उदंडता से मुक्ति देता है, तुम लोगों को भले अंत तक पहुंचाएगा और तुम्हारे शत्रुओं को विभिन्न प्रकार से प्रकोप में ग्रस्त करेगा। ईश्वर इन समस्त कठिनाइयों और मुसीबतों के बदले विभिन्न प्रकार के अनुकंपाएं देगा। शिकायत मत करना और ऐसी बातें ज़बान पर मत लाना जिससे तुम्हारी प्रतिष्ठा में कमी हो।
इस प्रकार से करबला के महा आन्दोलन का दूसरा भाग इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के बाद, इमाम हुसैन के संदेश को आगे बढ़ाने के महिलाओं के दायित्व के साथ आरंभ हुआ। इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के बाद आरंभिक क्षणों में ही लूट-खसोट मच गई और अगली सुबह दुःखी बच्चों और महिलाओं को बंदी बना लिया गया। जब शत्रुओं ने बंदी कारवां को करबला से कूफ़ा ले जाना चाहा तो उन्होंने महिलाओं को शहीदों के शवों के पास से गुज़ारा। यह दुःखी महिलाएं अपने परिजनों के शवों के पास पहुंची तो ऐसा दृश्य सामने आया जिसने कठोर से कठोर हृदय वाले व्यक्ति को भी प्रभावित कर दिया। इन प्रभावित कर देने वाले दृश्यों में से एक वह बात है जो जनाबे ज़ैनब ने अपने भाई के पवित्र शरीर से कही।
बंदियों की यात्रा के दौरान पैगम्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक महिला ने उचित अवसरों पर भाषण दिया और लोगों वास्तविकता से अवगत कराया। जनाबे ज़ैनब के अतिरिक्त इमाम हुसैन की पुत्री हज़रत फ़ातेमा और इमाम हुसैन की दूसरी बहन उम्मे कुलसूम हर एक ने कूफ़े में ऐसा भाषण दिया कि कूफ़े के बाज़ार में हलचल मच गई और लोग दहाड़े मार कर रोने लगे। इतिहास में आया है कि कूफ़े की महिलाओं ने जब यह भाषण सुने तो उन्हें अपने सिरों पर मिट्टी डाली और अपने मुंह पर तमाचे मारे और ईश्वर से अपनी मृत्य की कामना की।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की महिलाओं का प्रयास करबला की घटना के विवरण का उल्लेख करना था। यह विषय, जनता की भावना को भड़काने के अतिरिक्त करबला की घटना को फेर बदल से सुरक्षित रखने का कारण भी बना और इसने बनी उमैया से हर प्रकार की भ्रांति फैलाने का अवसर छीन लिया। वास्तव में महिलाओं ने अत्याचार से संघर्ष में उपयोगी शस्त्र के रूप में अपने बंदी काल का प्रयोग किया और भ्रष्ट और मिथ्याचार के चेहरे से नक़ाब उलट दी। इन महिलाओं ने इस्लामी जगत के तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों कूफ़ा, सीरिया और मदीने में लोगों को जागरूक बनाने का प्रयास किया। यद्यपि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का महा आन्दोलन अपनी सत्यता और सच्चाई के लिए ठोस और सुदृढ प्रमाण रखता था किन्तु महिलाओं ने इस घटना के भावनात्मक आयामों की गहराई से लोगों के मन को आकृष्ट करने के लिए एक अन्य क़दम उठाया। करबला की महिलाओं ने अपने सुदृढ़ और तर्क संगत भाषणों द्वारा लोगों का सत्य के मोर्चे की ओर मार्गदर्शन किया।
शहीद ए कर्बला में सवारा इब्ने अमीर अलमेहरानी की महान शहादत
आपका पूरा नाम सवार इब्ने मनगम जबिस इब्ने अबी अमीर इब्ने नैह्मल हमदानी है।आप हमदान के रहने वाले थे । आशूर के पहले दूसरी और दसवी के अन्दर किसी तारिख को कर्बला पहुचे थे आपके नाम के साथ लफ्ज़ “नेहमी”अपने दादा की तरफ इंतेसाब की वजह से लगा हुआ है बाज़ उलमा ने नेहमी को फहमी तहरीर फरमाया है।
कर्बला में आपकी महान कुर्बानी,आपका पूरा नाम सवार इब्ने मनगम जबिस इब्ने अबी अमीर इब्ने नैह्मल हमदानी है आप हमदान के रहने वाले थे।
आशूर के पहले दूसरी और दसवी के अन्दर किसी तारिख को कर्बला पहुचे थे आपके नाम के साथ लफ्ज़ “नेहमी”अपने दादा की तरफ इंतेसाब की वजह से लगा हुआ है बाज़ उलमा ने नेहमी को फहमी तहरीर फरमाया है लेकिन ये मेरे नज़दीक गलत है आप ने यौमे आशूर के पहले हमले में जामे शाहदत नौश फ़रमाया है।
आप के बारे में बाज़ किताबो में है की आप हमला-ऐ-अववल में ज़ख़्मी होकर गिरे तो सवार की कौम के लोगो ने उन्हें उठा लिया और इब्ने साद से इजाज़त के बाद छ: माह अपने पास रखा बिल आखिर आप ने शहादत पाई।
मोरक्को के 41 शहरों में गाज़ा के समर्थन में प्रदर्शन
मोरक्को के 41 शहरों में गाज़ा के समर्थन में 95 प्रदर्शन हुए, जिनमें हज़ारों लोगों ने भाग लिया।
हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के अनुसार ,एक रिपोर्स के अनुसार, मोरक्को के एक गैरसरकारी संगठन सपोर्टिंग नेशंस इश्यूज़ ने एक बयान प्रकाशित किया जिसमें घोषणा की है की गाजा में ज़ायोनी शासन द्वारा किए गए अपराधों की निंदा करने के लिए मोरक्को के लोग लगातार 41वें सप्ताह सड़कों पर उतरे और विरोध प्रदर्शन किया है।
इस बयान के मुताबिक, शुक्रवार को उत्तर में अल नज़ुर, अलनजौर, मोरक्को के पूर्व में टैंजियर, मेकनेस और अहफिर शहर में फिलिस्तीन के समर्थन में प्रदर्शन देखा गया हैं।
प्रदर्शनकारियों ने फ़िलिस्तीनी झंडे लहराए और ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ नारे लगाए और गाजा में युद्ध जारी रखने की निंदा की हैं।
मोरक्को के प्रदर्शनकारियों ने पहले देश की सरकार से इज़रायली सरकार के साथ संबंध तोड़ने का आह्वान किया हैं।
गौरतलब है कि पिछले साल 15 अक्टूबर से गाजा में इजरायली सेना के हमलों में 38,000 से ज्यादा फिलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं और हज़ारों फिलिस्तीनी अभी भी लापता हैं और हजारों लोग मलबे में दबे हुए हैं।
तेलअवीव पर यमन का ड्रोन हमला
तेलअवीव में ज़ायोनी सरकार के केन्द्र में शुक्रवार को सुबह ड्रोन हमला किया गया जिसमें एक ज़ायोनी मारा गया और सात अन्य घायल हो गये।
इस हमले के बाद यमन की सशस्त्र सेना ने कहा है कि यह हमला यमनी सेना ने याफ़ा ड्रोन से अंजाम दिया है। याफ़ा अरबी और अतिग्रहण से पहले तेलअवीव का असली नाम है।
याफ़ा वह ड्रोन है जो राडार की पकड़ में नहीं आता है और इसे यमन ने बनाया है और वह आधुनिकतम सिस्टम को पार कर सकता है। इसी प्रकार यह ड्रोन लगभग दो हज़ार किलोमीटर तक उड़ सकता है।
ज़ायोनी संचार माध्यमों ने इस ड्रोन के पहलुओं को बड़ा बताया और कहा है कि यह ड्रोन समुद्र की तरफ़ से कम ऊंचाई पर तेलअवीव के निकट हुआ और प्रतिरक्षा के समस्त सिस्टमों को पार करके तेलअवीव पहुंचा।
इस हमले से ज़ायोनी सरकार के अधिकारी और उसके पश्चिमी घटक बहुत क्रोधित हुए हैं।
पार्सटुडे ने इस हमले पर कुछ पहलुओं से दृष्टि डाली है। यहां हम कुछ बिन्दुओं की ओर संकेत कर रहे हैं जिन पर ज़ायोनी सरकार और उसके समर्थकों को ध्यान देना चाहिये।
यमन के भयानक हमले जारी
यह यमन के अंसारुल्लाह और यमनियों की ओर से ज़ायोनी सरकार की तथाकथित राजधानी तेलअवीव पर पहला हमला
यमन की सशस्त्र सेना ने इससे पहले कहा था कि जब तक ज़ायोनी सरकार ग़ज़ा पट्टी पर अपने हमलों और इस क्षेत्र के लोगों की हत्या व नरसंहार को बंद नहीं करती और इसी प्रकार उनके ख़िलाफ़ मानवता प्रेमी कार्यवाहियों को बंद नहीं करती है तब तक वह न केवल अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन की ओर जाने वाले जहाज़ों पर हमलों को बंद नहीं करेगी बल्कि इस्राईल के अंदर भी हमले करेगी।
तेलअवीव पर यमन का ड्रोन हमला
इस संबंध में यमनी सेना के प्रवक्ता ने बल देकर कहा है कि हम ज़ायोनी दुश्मन के अंदर मोर्चे पर ध्यान केन्द्रित करेंगे और इस सरकार के केन्द्र को लक्ष्य बनायेंगे। हमारे पास अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन में लक्ष्य बनाने के बैंक मौजूद हैं कि उनमें से सैनिक और संवेदनशील लक्ष्य हैं। इसी प्रकार उन्होंने बल देकर कहा कि हम ग़ज़ा के संघर्षकर्ताओं और इस्लामी और अरब उम्मत का समर्थन जारी रखेंगे। जब तक जंग और ग़ज़ा में फ़िलिस्तीनी जनता का परिवेष्टन जारी रहेगा तब तक हमारे हमले भी जारी रहेंगे।