
رضوی
पुर्तगाल में “फ़ात्मा नगर” की अद्भुत कहानी
8 मार्च 2017 का दिन था, मुझे एक संक्षिप्त धार्मिक दौरे के उद्देश्य से पुर्तगाल की राजधानी लेस्बन जाना हुआ। पुर्तगाल में धार्मिक मामलों में व्यस्तता के साथ विभिन्न ऐतिहासिक स्थलों और शहरों में घूमने का भी अवसर मिला।
मुझे यह सुनकर बहुत आश्चर्य हआ कि इस देश में एक ऐसा शहर भी है जिसका नाम “फ़ात्मा” है और इस शहर में एक ऐसा स्थल है जहां फ़ात्मा नाम की पवित्र हस्ती से संबंधित एक दर्शनस्थल भी है, इस पवित्र स्थल का निर्माण ईसाई धर्म के अनुयायियों ने किया है।
इन सब बातों के बाद भला कैसे संभव था कि मैं इस शहर और स्थल को निकट से न देखूं, इसीलिए लेस्बन में मौजूद स्थानीय धर्म गुरु मौलाना आबिद हुसैन साहब जिन से कई वर्षों से विभिन्न मामलों से निकट पहचान हो गयी थी, के साथ 11 मार्च की सुबह हम राजधानी से फ़ात्मा शहर की ओर से रवाना हुए।
यात्रा के दौरान हम “फ़ात्मा शहर में स्वागत” के बड़े बड़े साइन बोर्ड को देख सकते थे, इन साइन बोर्डस के सहारे जब हम शहर के भीतर प्रविष्ट हुए तो हमको एक ऐसा बोर्ड नज़र आया जिस पर लिखा हुआ था (shrine of Fatima)।
इसी यागदार स्थल के निकट गाड़ियों से खचा खच पार्किंग एरिए में हमने भी अपनी गाड़ी पार्क की, लोगों की एक बड़ी संख्या पवित्र स्थल की ओर बढ़ रही थी, हम भी लोगों के साथ उस स्थल की ओर चल पड़े, जैसे ही हम उस स्थल के भीतर पहुंच तो हमने अपने सामने एक बड़ा दालान देखा जिसके चारों ओर दीवारें दीं और दोनों ओर दो बड़ी बड़ी इमारतें बनी हुई थीं जबकि प्रांगड़ के बीच में चबूतरा बना हुआ था जहां बहुत से लोग खड़े होकरर किसी पादरी का लेक्चर सुन रहे थे।
प्रांगड़ के दूसरी ओर चबूतरे की ओर से जाते हुए संगे मरमर की उस पगडंडी ने हमारा ध्यान अपनी ओर आकृष्ट कर लिया जिस पर एक व्यक्ति घुटनों के बल आगे बढ़ रहा था, पता चला कि संगे मरमर का यह विशेष रास्ता उन लोगों के लिए बनाया गया है जो आत्मा की शांति या दूसरी धार्मिक आस्थाओं को प्रकट करने के लिए घुटने या कोहनियों के बल चलकर इस पवित्र प्रांगड़ को पार करते हैं।
हमने एक ऐसे नेपाली व्यक्ति को देखा जो घुटनों के बल चलते हुए उस प्रांगड़ के अंतिम छोर के निकट पहुंच चुका था, हमारे पूछने पर पता चला कि यह व्यक्ति न तो मुसलमान है और न ही ईसाई बल्कि इस का संबंध हिन्दु धर्म से है। हमारे पूछने पर उस व्यक्ति का कहना था कि आत्मिक शांति के लिए यह काम किया जाता है और इससे पहले भी कई बार यह काम कर चुका है। जब हम आगे बढ़े तो हमने चबूतरे पर एक पादर को देखा जो धार्मिक शिक्षाओं के अनुसार प्रार्थना में व्यस्त था। लोगों की एक बड़ी संख्या उसके इर्द गिर्द खड़ी प्रार्थना में व्यस्त थी।
कुछ देर हम यह दृश्य देखते रहे और फिर आगे बढ़ गये, आगे बढ़ने के बाद हमें किसी प्रकार का कोई धार्मिक स्थल या मज़ार नज़र नहीं आया कि जिसकी कल्पना हम कर रहे थे कि शायद यहां किसी का मज़ार होगा। दूर तक फैली इस जगह पर बहुत अधिक प्रयास के बाद भी हमें कोई साइन बोर्ड या चिन्ह नज़र नहीं आया जो उस स्थल के बारे में विस्तार से बताए, ढूंढते ढूंढते जब हम पादरी के विशेष कार्यालय के भीतर गये तो गेट के अंदर घुसते हुए लंबे चौड़े पादरी साहब हमारे सामने थे जो भीतर की इमारत से बाहर निकल रहे थे, अधेड़ उम्र के पादरी को देखकर हमने सम्मान में उन्हें स्थानीय भाषा और अंग्रेज़ी में सलाम किया और उनसे पूछा कि क्या आप को अंग्रेज़ी बोल सकते हैं? पादरी ने बड़े संतोष से सिर हिलाया और हल्की सी आवाज़ में कहा यस- यस।
आरंभिक बातचीत के बाद हमने उनसे इस स्थान के इतिहास और धार्मिक महत्व के बारे में पूछा तो हमें बहुत आश्चर्य हुआ कि हमारे प्रश्न पर उनके चेहरे का रंग बदल गया, इसी बीच उन्होंने अंग्रेज़ी में बड़े रुखे अंदाज़ में केवल इतना कहा कि (I DON,T KNOW ANY THING) मैं कुछ नहीं जानता। हमें एक ईसाई पवित्र स्थल पर एक ईसाई पादरी से इस प्रकार के रवैये की तनिक भी आशा नहीं थी। इसके बाद वहां एक उनके प्रोटोकोल गार्ड मेंबर्स में से किसी एक ने बड़े सम्मान के साथ हमारा मार्ग दर्शन करते हुए एक छोटे से इन्फ़ार्मेश्न सेन्टर की ओर हमारा मार्गदर्शन किया जहां एक मध्य आयु की एक महिला मौजूद थीं जिनके काउंटर पर बहुत से ब्रोशर्ज़ पड़े हुए थे।
महिला से बातचीत के दौरान हमें इस विस्तृत स्थान के बारे में जो कुछ पता चला वह इस प्रकार हैः (जारी है)
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्ससलाम की शहादत।
आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहिस्सलाम व सल्लम के एक पौत्र इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत का दिन है।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम २५ रजब १८३ हिजरी कमरी को शहीद हुए थे जिससे पूरा इस्लामी जगत शोकाकुल हो गया।
अधिक उपासना और त्याग के कारण इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम को अब्दुस्सालेह अर्थात नेक बंदे की उपाधि दी गयी। इसी प्रकार इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने क्रोध को पी जाते थे जिसके कारण उनकी एक प्रसिद्ध उपाधि काज़िम है।
इतिहास में आया है कि राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक दृष्टि से इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के जीवन का समय बहुत कठिन था। उस समय दो अत्याचारी शासकों की सरकारें रहीं। एक अब्बासी ख़लीफा मंसूर और दूसरा हारून था। उस समय इन अत्याचारी शासकों ने लोगों की हत्या करके बहुत से जनआंदोलनों का दमन कर दिया था। दूसरी ओर इन्हीं अत्याचारी शासकों के काल में जिन क्षेत्रों पर विजय प्राप्त की गयी वहां से प्राप्त होने वाली धन- सम्पत्ति इन शासकों की शक्ति में वृद्धि का कारण बनी। इसी प्रकार उस समय समाज में बहुत से मतों की गतिविधियां ज़ोर पकड़ गयीं थीं इस प्रकार से कि धर्म और संस्कृति के रूप में हर रोज़ एक नई आस्था समाज में प्रविष्ट हो रही थी और उसे अब्बासी सरकारों का समर्थन प्राप्त था। शेर, कला, धर्मशास्त्र, कथन और यहां तक कि तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय का दुरुपयोग सरकारी पदाधिकारी करते थे। घुटन का जो वातावरण व्याप्त था उसके कारण बहुत से क्षेत्रों के लोग सीधे इमाम से संपर्क नहीं कर सकते थे। इस प्रकार की परिस्थिति में जो चीज़ इस्लाम को उसके सही रूप में सुरक्षित कर सकती थी वह इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का सही दिशा निर्देश और अनथक प्रयास था।
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने समय की परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए अपने पिता के मार्ग को जारी रखा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने इस्लामी संस्कृति में ग़ैर इस्लामी चीजों के प्रवेश को रोकने तथा अपने अनुयाइयों के सवालो के उत्तर देने को अपनी गतिविदियों का आधार बनाया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज की आवश्यकताओं से पूर्णरूप से अवगत थे इसलिए उन्होंने विभिन्न विषयों के बारे में शिष्यों की प्रशिक्षा की। सुन्नी मुसलमानों के प्रसिद्ध विद्वान और मोहद्दिस अर्थात पैग़मबरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों के ज्ञाता इब्ने हजर हैयतमी अपनी किताब सवायक़ुल मुहर्रेक़ा में लिखते हैं” इमाम मूसा काज़िम, इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम के उत्तराधिकारी हैं। ज्ञान, परिपूर्णता और दूसरों की गलतियों की अनदेखी कर देने तथा बहुत अधिक धैर्य करने के कारण उनका नाम काज़िम रखा गया। इराक के लोग उनके घर को बाबुल हवाएज के नाम से जानते थे क्योंकि उनके घर से लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति की जाती थी। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने समय के सबसे बड़े उपासक थे। उनके समय में कोई भी ज्ञान और दूसरों को क्षमा कर देने में उनके समान नहीं था”
भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना ईश्वरीय धर्म इस्लाम के दो महत्वपूर्ण सिद्धांत हैं। पवित्र कुरआन और पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों ने इसके बारे में बहुत अधिक बातें की हैं। इस प्रकार से कि इन दो सिद्धांतों के बारे में इस्लाम के अलावा दूसरे आसमानी धर्मों में भी बहुत बल दिया गया है। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने भी अपने पावन जीवन में इन चीज़ों पर बहुत दिया है।
बिश्र बिन हारिस हाफी की कहानी को इस संबंध में एक अनुपम आदर्श के रूप में देखा जा सकता है। बिश्र बिन हारिस हाफ़ी ने कुछ समय तक अपना जीवन ईश्वर की अवज्ञा एवं पाप में बिताया। एक दिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम उस गली से गुज़रे जिसमें बिश्र बिन हारिस हाफी का घर था। जिस समय इमाम बिश्र के दरवाज़े के सामने पहुंचे संयोगवश उनके घर का द्वार खुला और उनकी एक दासी घर से बाहर निकली। इमाम काज़िम अलैहिस्सलाम ने उस दासी से पूछा तुम्हारा मालिक आज़ाद है या ग़ुलाम? दासी ने उत्तर दिया आज़ाद है। इमाम ने अपना सिर हिलाया और कहा एसा ही है जैसे तुमने कहा। क्योंकि अगर वह दास होता तो बंदों की भांति रहता और अपने ईश्वर के आदेशों का पालन करता। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने यह बातें कहीं और रास्ता चल दिये। दासी जब घर में आई तो बिश्र ने उससे विलंब से आने का कारण पूछा। उसने इमाम के साथ हुई बातचीत को बताया तो बिश्र नंगे पैर इमाम के पीछे दौड़े और उनसे कहा हे मेरे स्वामी! जो कुछ आपने इस महिला से कहा एक बार फिर से बयान कर दीजिए। इमाम ने अपनी बात फिर दोहराई। उस समय ब्रिश्र के हृदय पर ईश्वरीय प्रकाश चमका और उन्हें अपने किये पर पछतावा हुआ। उन्होंने इमाम का हाथ चूमा और अपने गालों को ज़मीन पर रख दिया इस स्थिति में कि वह रो और कह रहे थे कि हां मैं बंदा हूं हां मैं बंदा हूं”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने अच्छाई का आदेश देने और बुराई से रोकने के लिए बहुत ही अच्छी शैली अपनाई। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने एक छोटे से वाक्य से बिश्र का ध्यान उनकी ग़लती की ओर केन्द्रित करा और वह इस प्रकार बदल गये कि उन्होंने अपनी ग़लतियों व पापों से प्रायश्चित किया और अपना शेष जीवन सही तरह से व्यतीत किया।
अब्बासी ख़लीफ़ा अपनी लोकप्रियता और अपनी सरकार की वैधता तथा इसी प्रकार लोगों के दिलों में आध्यात्मिक प्रभाव के लिए स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकारी और उनका वंशज बताते थे। अब्बासी खलीफा पैग़म्बरे इस्लाम के चाचा जनाब अब्बास के वंश से थे और इसका वे प्रचारिक लाभ उठाते और स्वयं को पैग़म्बरे इस्लाम का उत्तराधिकार बताते थे। वे दावा करते थे कि पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजन हज़रत फातेमा के वंशज से हैं और हर इंसान का संबंध उसके पिता और दादा के वंश से होता है इसलिए वे पैग़म्बरे इस्लाम के वंश नहीं हैं। इस प्रकार की बातें करके वास्तव में वे आम जनमत को दिग्भ्रमित करने के प्रयास में थे। इसलिए इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने पवित्र कुरआन का सहारा लेकर उन लोगों का मुकाबला किया। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने हारून रशीद से जो शास्त्रार्थ किये हैं वह खिलाफत के बारे में अहले बैत अलैहिस्सलाम का स्थान समझने के लिए काफी है। एक दिन हारून रशीद ने इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम से पूछा आप किस प्रकार दावा करते हैं कि आप पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं जबकि आप अली की संतान हैं? इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने उसके उत्तर में पवित्र कुरआन के सूरये अनआम की आयत नंबर ८५ और ८६ की तिलावत की जिसमें महान ईश्वर फरमाता है” इब्राहीम की संतान में से दाऊद और सुलैमान और अय्यूब और यूसुफ और मूसा और हारून और ज़करिया और यहिया और ईसा हैं और हम अच्छे लोगों को इस प्रकार प्रतिदान देते हैं” उसके बाद इमाम ने फरमाया जिन लोगों की गणना इब्राहीम की संतान में की गयी है उनमें एक ईसा हैं जो मां की तरफ से उनकी संतान में से हैं जबकि उनका कोई बाप नहीं था और केवल अपनी मां मरियम की ओर से उनका रिश्ता पैग़म्बरों तक पहुंचता है। इस आधार पर हम भी अपनी मां फातेमा की ओर से पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं।
हारून रशीद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का तार्किक जवाब सुनकर चकित रह गया और उसने इस संबंध में इमाम से अधिक स्पष्टीकरण मांगा। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम ने मुबाहेला की घटना का उल्लेख किया जिसमें महान ईश्वर ने सूरे आले इमरान की ६१वीं आयत में पैग़म्बरे इस्लाम को आदेश दिया है कि जो भी आप से ईसा के बारे में बहस करें इसके बाद कि आपको उसके बारे में जानकारी प्राप्त हो जाये तो उनसे आप कह दीजिये कि आओ हम अपनी बेटों को लायें और तुम अपने बेटों को लाओ और हम अपनी स्त्रियों को लायें और तुम अपनी स्त्रियों को लाओ और हम अपने आत्मीय लोगों को ले आयें और तुम अपने आत्मीय लोगों को ले आओ उसके बाद हम शास्त्रार्थ करते हैं और झूठों पर ईश्वर के प्रकोप व धिक्कार की प्रार्थना करते हैं” इस आयत में पैग़म्बरे इस्लाम के बेटों से तात्पर्य हसन और हुसैन तथा स्त्री से तात्पर्य फातेमा और अपने आत्मीय लोगों के रूप में अली थे” हारून रशीद यह जवाब सुनकर संतुष्ट हो गया और उसने इमाम की प्रशंसा की।
इंसान की मुक्ति व सफलता के लिए पवित्र कुरआन सबसे बड़ा ईश्वरीय उपहार है। इंसान को परिपरिपूर्णता तक पहुंचने में इस आसमानी किताब की रचनात्मक भूमिका सब पर स्पष्ट है। पवित्र कुरआन पैग़म्बरे इस्लाम का एसा चमत्कार है जो प्रलय तक बाक़ी रहेगा और उसने अरब के भ्रष्ट समाज में राजनीतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक परिवर्तन उत्पन्न कर दिया। यह परिवर्तन इस प्रकार था कि सांस्कृतिक पहलु से उसने मानव समाज में प्राण फूंक दिया। सकलैन नाम से प्रसिद्ध हदीस में पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने पवित्र परिजनों को कुरआन के बराबर बताया है और मुसलमानों का आह्वान किया है कि जब तक वे इन दोनों से जुड़े रहेंगे तब तक कदापि गुमराह नहीं होंगे और ये दोनों एक दूसरे से अलग नहीं होंगे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम लोगों को इस किताब से अवगत कराने के लिए विशेष ध्यान देते थे। इमाम लोगों का आह्वान न केवल इस किताब की तिलावत के लिए करते थे बल्कि इस कार्य में स्वयं दूसरों से अग्रणी रहते थे। प्रक्यात धर्मगुरू शेख मुफीद ने अपनी एक किताब इरशाद में इस प्रकार लिखा है” इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम अपने काल के सबसे बड़े धर्मशास्त्री, सबसे बड़े कुरआन के ज्ञाता और लोगों की अपेक्षा सबसे अच्छी ध्वनि में कुरआन की तिलावत करने वाले थे”
इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन पर जो विशेष ध्यान देते थे वह केवल व्यक्तिगत आयाम तक सीमित नहीं था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य पवित्र कुरआन की व्याख्या करना था। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम समाज के लोगों के ज्ञान का स्तर बढाने के लिए बहुत प्रयास करते थे। इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम पवित्र कुरआन की आयतों की व्याख्या में उन स्थानों पर विशेष ध्यान देते थे जहां पर पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के स्थान की ओर संकेत किया गया है। उदाहरण स्वरूप सूरेए रूम की १९वीं आयत में महान ईश्वर कहता है” हम ज़मीन को मुर्दा होने के बाद पुनः जीवित करेंगे।“ इमाम से पूछा गया कि ज़मीन के ज़िन्दा करने से क्या तात्पर्य है? इमाम ने इसके उत्तर में फरमाया ज़मीन का जीवित होना वर्षा से नहीं है बल्कि ईश्वर एसे लोगों को चुनेगा जो न्याय को जीवित करेंगे और ज़मीन न्याय के कारण जीवित होगी और ज़मीन में ईश्वरीय क़ानून का लागू होना चालीस दिन वर्षा होने से अधिक लाभदायक है” हज़रत इमाम मूसा काजिम अलैहिस्सलाम इस रवायत में समाज में न्याय स्थापित होने को ज़मीन के जीवित होने से अधिक लाभदायक मानते हैं। वास्तव में पवित्र कुरआन की आयतों की इस प्रकार की व्याख्या इमामत के स्थान को बयान करने के लिए थी कि जो स्वयं इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम का एक सांस्कृतिक कार्य था।
इस्लाम के कारण हो रहा है ईरान का विरोधः वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने कहा है कि ईरान से अमरीका और ज़ायोनी शासन के विरोध का कारण इस्लाम है।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने मंगलवार को तेहरान में मुसलमान देशों के राजदूतों और देश के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ भेंट में कहा है कि अमरीका और ज़ायोनी शासन, इस्लामी गणतंत्र ईरान का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि वह उनकी मांगों के आगे सिर नहीं झुकाता।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) की पैग़म्बरी की घोषणा के दिवस पर आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि इस्लामी देशों को यह बात समझनी चाहिए कि अमरीका, एक इस्लामी देश के साथ मित्रता और दूसरे से शत्रुता का उद्देश्य, मुसलमानों की एकता को तोड़ना और उसमें बाधाएं डालना है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस्लाम के नाम पर आतंकवादी गुटों का गठन करके इस्लामी देशों के बीच मतभेद फैलाना, अमरीका और ज़ायोनी शासन का षडयंत्र है। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कहा कि विध्वंसकारियों के साथ कुछ क्षेत्रीय देश साज़िश में शामिल हैं। उन्होंने कहा कि इस काम को आगे बढ़ाने के लिए इस्लामी गणतंत्र ईरान या शिया विचारधारा को अपना शत्रु बता रहे हैं। वरिष्ठ नेता ने कहा कि सबको यह जानना चाहिए कि वर्चस्ववादियों के मुक़ाबले में प्रतिरोध ही इस्लामी जगत की प्रगति का मार्ग है।
उन्होंने कहा कि अमरीका के वर्तमान और पूर्व अधिकारियों द्वारा ईरानी राष्ट्र का विरोध, उनकी भ्रष्ट नियत को दर्शाता है। उन्होंने कहा कि अमरीकियों ने ईरान को नुक़सान पहुंचाने के लिए हर संभव प्रयास किया किंतु उसे इसमें विफलता ही मिली। वरिष्ठ नेता ने कहा कि जो भी ईरानी राष्ट्र को क्षति पहुंचाने का प्रयास करेगा वह ख़ुद ही घाटा उठाएगा।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों को संबोधित करते हुए उनसे कहा है कि वे लोग जनता को वचन दे कि देश के विकास के लिए विदेश से आस नहीं लगाएंगे।
ईरान की चाबहार बंदरगाह भारत के लिए बहुत महत्वपूर्ण: गडकरी
भारत के परिवहन मंत्री ने ईरान में चाबहार बंदरगाह परियोजना को महत्वपूर्ण बताते हुए उसके विस्तार पर बल दिया है।
प्राप्त समाचारों के अनुसार भारत के परिवहन मंत्री नितिन गडकरी ने क्षेत्र के देशों के बीच व्यापारिक मामलों में वृद्धि को लेकर ईरान के चाबहार बंदरगाह के महत्व की ओर इशारा करते हुए कहा है कि चाबहार बंदरगाह विस्तार परियोजना पर तेज़ी से काम हो रहा है।
नितिन गडकरी ने मंगलवार को अपने एक बयान में कहा कि भारत सरकार ने दक्षिणी ईरान में स्थित चाबहार बंदरगाह के विकास के लिए वहाँ एक अंतर्राष्ट्रीय कंपनी की स्थापना भी की है। उन्होंने कहा कि हमारा प्रयास है कि हम जितनी जल्दी हो सके इस परियोजना को पूरा कर लें।
उल्लेखनीय है कि चाबहार बंदरगाह परियोजना में भारत द्वारा पचास लाख डॉलर का निवेश किया जा रहा है साथ ही दो जेटियों के निर्माण समझौते पर पिछले साल ईरान और भारत के परिवहन मंत्रियों ने हस्ताक्षर किए थे, जबकि त्रिपक्षीय ट्रांज़िट समझौते पर पिछले साल भारतीय प्रधानमंत्री के ईरान दौरे के अवसर पर भारत, अफ़ग़ानिस्तान और ईरान के राष्ट्राध्यक्षों ने हस्ताक्षर किए थे।
ज्ञात रहे कि चाबहार बंदरगाह, भारत के लिए बहुत अधिक महत्वपूर्ण है। इस बंदरगाह के माध्यम से भारत की पहुंच अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक बहुत आसान हो जाएगी।
तबस में अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ
तबस में अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ मनाई गई।
पूर्वी ईरान के तबस मरूस्थल में मंगलवार को अमरीकी हमले की विफलता की वर्षगांठ मनाई गई। तबस नगर के इमामे जुमा हुज्जतुल इस्लाम इब्राहीम महाजिरयान ने इस अवसर पर कहा कि यहां पर एक एसा संग्रहालय बनाया जाए जिसमें अमरीका के विफल हमले के बाद वहां पर मौजूद चीज़ों को रखा जाए।
ज्ञात रहे कि अमरीका ने तेहरान में अपने जासूसों को स्वतंत्र कराने के लिए 25 अप्रैल 1980 को पूर्वी ईरान में स्थित तबस मरूस्थल में एक पुराने हवाई अडडे को प्रयोग करके कार्यवाही करने की योजना बनाई थी किंतु रेत के तूफ़ान के कारण उनकी योजना विफल हो गई।
इस घटना के बाद वहां पर मिलने वाले उपकरणों और जले हुए जहाज़ के मलबे के अध्धयन से पता चलता है कि अमरीका ने अपने जासूसों को आज़ाद कराने के लिए कितनी गहराई से योजना बनाकर उसे क्रियान्वित करने का प्रयास किया था किंतु ईश्वर की कृपा से वह विफल रही।
अगली जंग में इस्राईल की हार तय है, हिज़्बुल्लाह उप प्रमुख
लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन के उप महासचिव शैख़ नईम क़ासिम ने कहा है कि यह हिज़्बुल्लाह की व्यापक स्तर की तय्यारी है जिसने इस्राईल को लेबनान पर नए अतिक्रमण से रोक रखा है। इसके साथ ही उन्होंने चेतावनी भी दी कि भविष्य में इस तरह की जंग में ज़ायोनी शासन की हार निश्चित है।
शैख़ नईम क़ासिम ने गुरुवार को अलअख़बार से इंटर्व्यू में कहा, सभी संकेत इस सच्चाई का पता देते हैं कि इस्राईल भयभीत है। इस समय लेबनान के ख़िलाफ़ नए आक्रमण के बारे में उसने फ़ैसला नहीं किया है। इसका कारण यह नहीं है कि इस्राईल नैतिकता की बुनियाद पर ऐसा नहीं कर रहा है बल्कि उसे यह बात समझ में आ गयी है कि लेबनान के ख़िलाफ़ किसी भी प्रकार की जंग में इस्राईल की हार निश्चित है।
ग़ौरतलब है कि अतिग्रहित फ़िलिस्तीनी क्षेत्र के मध्य में स्थित हत्ज़र हवाई छावनी में ‘डेविड्स स्लिंग’ मीज़ाईल सिस्टम के इस्राईल द्वारा अनावरण किए जाने के बाद, 2 अप्रैल को लेबनानी प्रधान मंत्री साद हरीरी ने चेतावनी दी कि इस्राईल का हालिया क़दम यह दर्शाता है कि वह नए टकराव का इरादा रखता है।
गुरुवार को हिज़्बुल्लाह ने लेबनानी सीमा पर पत्रकारों को आमंत्रित किया ताकि वे इस बात को कवरेज दें कि इस्राईल द्वारा उठाए गए क़दम नई जंग की तय्यारी का पता देते हैं।
हिज़्बुल्लाह के प्रवक्ता मोहम्मद अफ़ीफ़ ने कथित ब्लू लाइन के बग़ल में एक पहाड़ी के ऊपर कहा, “इस दौरे का उद्देश्य दुश्मन द्वारा किए गए रक्षात्मक उपाय को दिखाना है।”
शिकागो विश्वविद्यालय में "मानवीयत" सप्ताह का आयोजन
अंतर्राष्ट्रीय कुरान समाचार एजेंसी ने "UChicago" समाचार एजेंसी के अनुसार बताया कि "मानवीयत" सप्ताह में विभिन्न कार्यक्रमों जुमे की नमाज, धर्मों और धार्मिक परंपराओं का तआरूफ मुसलमानों के इस विशेष समारोह का हिस्सा है।
"मानवीयत"सप्ताह के आयोजन का उद्देश्य विभिन्न धर्मों के अनुयायियों को धर्मों और धार्मिक परंपराओं से परिचित के लिए आमंत्रित किया है।
यह तैय है कि शनिवार 22 अप्रैल को भी दक्षिण एशिया में मुसलमानों और हिंदुओं के गठन को धार्मिक कला के विकास में उनकी भूमिका के लिए विश्वविद्यालय में सम्मानित करने के लिए कार्यक्रम आयोजित किया जाएगा।
संयम और प्रतिरोध की पर्याय हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा
पैग़म्बरे इस्लाम की नवासी और हज़रत अली व हज़रत फ़ातेमा ज़हेरा अलैहिमुस्सलाम की पुत्री हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की शहादत की बर्सी के अवसर पर हम हार्दिक संवेदना व्यक्त करते हैं और इसी उपलक्ष्य में एक विशेष चर्चा लेकर आपकी सेवा में उपस्थित हैं।
अच्छी मिट्टी हो तो वहां हरियाली उगती है और फूल महकते हैं, बंजर ज़मीन पर कंटीली झाड़ियां ही नज़र आती हैं। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का जन्म एसे परिवार में हुआ जो पवित्रता का स्रोत था और जिसने मानवीय मूल्यों और महानताओं को सींचा। उनके नाना पैग़म्बरे इस्लाम को क़ुरआन मजीद ने सारी सृष्टि के लिए ईश्वर की दया व कृपा की संज्ञा दी है।
जब हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के जन्म का समय निकट आया तो ईश्वर के फ़रिश्ते हज़रत जिबरईल धरती पर उतरे और पैग़म्बरे इस्लाम से कहा कि आप इस बच्ची का नाम ज़ैनब रखिए। इसके बाद हज़रत जिबरईल रोने लगे। पैग़म्बरे इस्लाम ने उनसे रोने की वजह पूछी तो बताया कि यह बच्ची अपने जीवन के आरंभ से अंत तक दुखों और पीड़ाओं का सामना करती रहेगी। कभी आपकी जुदाई का ग़म मनाएगी, कभी हज़रत फ़ातेमा ज़हेरा की शहादत पर रोएगी और कभी अपने पिता हज़रत अली और भाई हसन का ग़म मनाएगी। सबसे बढ़कर इस बच्ची को कर्बला में दुखों और पीड़ाओं का सामना करना पड़ेगा और यह मुसीबतें उसे बूढ़ कर देंगी। यह सुनकर सब रोने लगे। हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने सवाल किया कि मेरी बेटी ज़ैनब पर रोने का क्या सवाब होगा तो पैग़म्बरे इस्लाम ने जवाब दिया कि उस पर रोने का सवाब हुसैन पर रोने के सवाब के बराबर होगा।
जब हज़रत ज़ैनब विवाह की आयु को पहुंची तो उनका विवाह चाचा के बेटे अब्दुल्लाह इब्ने जाफ़र से हुआ। अब्दुल्लाह को अरब जगत के धनवान लोगों में गिना जाता था। मगर हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा न कभी भी भौतिकवाद से ख़ुद को क़रीब नहीं किया। उनके सामने तो बहुत बड़ा ध्येय कर्बला में पेश की जाने वाली क़ुरबानी थी। उन्होंने अपने जीवन में यह पाठ सीखा था कि कभी भी सच्चाई को अत्याचारियों के स्वार्थों पर न्योछावर नहीं होने देना चाहि। इसी लिए उन्होंने अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मिशन की ज़िम्मेदारी संभाली और धर्म के शुद्धिकरण और समाज के सुधार के लिए क़दम आगे बढ़ाया। शादी के समय हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अपने पति हज़रत अब्दुल्लाह के सामने यह शर्त रखी थी कि वह सभी परिस्थितियों में अपने भाई इमाम हुसैन का साथ देंगी। अब्दुल्लाह ने यह शर्त मान ली। अतः जब इमाम हुसैन ने अपना एतिहासिक सफ़र शुरू किया और मदीना से कर्बला गए तो इस सफ़र में हज़रत ज़ैनब भी उनके साथ थीं और उन्होंने भ्रष्ट व अत्याचारी उमवी शासक यज़ीद के मुक़ाबले में कर्बला की महान शौर्यगाथा में एक नया रंग भरा।
यदि हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के गुणों की बात की जाए तो उनका त्याग, उपासना, कठिन परिस्थितियों का साहस और दृढ़ता से मुक़ाबला आदि बहुत स्पष्ट विशेषताएं हैं। वह मात्र छह साल की थीं जब उनकी माता हज़रत फ़ातेमा ज़हरा ने मस्जिदे नबी में फ़ेदक नामक बाग़ और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अधिकार के बचाव में अपना एतिहासिक ख़ुतबा दिया। हज़रत ज़ैनब को उसी समय यह ख़ुतबा याद हो गया। कूफ़े की प्रतिष्ठित हस्ती बशीर इब्ने ख़ुज़ैम असदी कहते हैं कि मैंने लज्जा की चादर ओढ़े रहने वाली किसी महिला को हज़रत ज़ैनब की तरह भाषण देते कभी नहीं सुना। वह जब भाषण देती थीं तो ऐसा लगता था कि हज़रत अली भाषण दे रहे हैं। उन्होंने भाषण की कला अपने पिता से सीखी थी। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की सामाजिक स्थिति यह थी कि उनके पति अब्दुल्लाह भी उन्हें अली की बेटी और बनी हाशिम ख़ानदान की बुद्धिमान महिला कहकर पुकारते थे। कूफ़ा में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के उस ख़ुतबे के बाद जिसमें उन्होंने सुनने वालों को हिलाकर रख दिया था, हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन ने कहा कि आप गुरू के बग़ैर ही महान विचारक और ज्ञानी हैं।
हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के व्यक्ति को समझने के लिए सबसे अच्छा तरीक़ा यह है कि कर्बला की घटना और इसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के लोगों को यज़ीद द्वारा क़ैदी बनाए जाने की घटना का जायज़ा लिया जाए। समय के अत्याचारियों से निपटने की शैली हज़रत अली अलैहिस्सलाम की बेटी की महानता की गवाही देती है। वह अपने पति अब्दुल्लाह की अनुमति से जो बीमारी के कारण यात्रा में इमाम हुसैन के साथ न जा सके इमाम हुसैन के साथ कर्बला गईं। उन्होंने कर्बला की घटना में भी महान साहस का परिचय दिया और इसके बाद चौथे इमाम हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की रक्षा और देखभाल और साथ ही इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मिशन के उद्देश्यों के प्रचार में अनुदाहरणीय भूमिका निभाई। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा वास्तव में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मिशन की पूरक थीं। यदि ईश्वर ने हज़रत ईसा के साथ उनकी माता हज़रत मरियम को रखा, पैग़म्बरे इस्लाम के साथ उनकी बेटी हज़रत फ़ातेमा को रखा तो इमाम हुसैन के साथ उनकी बहन हज़रत ज़ैनब को रखा जिन्होंने ईश्वरीय मिशन में बड़ी केन्द्रीय भूमिका निभाई। यदि हज़रत ज़ैनब की भूमिका न होती तो इमाम हुसैन का कर्बला मिशन अपनी मंज़िल तक नहीं पहुंच पाता। वैसे इमाम हुसैन ने इस यात्रा में अपने घर वालों को साथ रखने का फ़ैसला इसी लक्ष्य के तहत किया था। कर्बला से दमिश्क़ की यात्रा में इमाम हुसैन और उनके साथियों के कटे हुए सिरों को भालों पर उठाया गया और पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान की महिलाओं और बच्चों को क़ैदी बनाया गया जो यज़ीद और उसके साथियों की दुष्टता को साबित करने के लिए काफ़ी है। इसी तरह हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा और हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम ने अलग अलग अवसरों पर जो ख़ुतबे दिए वह सच्चाई को सामने लाने में बहुत प्रभावी साबित हुए।
सत्य की रक्षा और कठिनाइयों को सहन करने के संबंध में एक मुसलमान महिला की क्या भूमिका होती है यह हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने अपने आचरण से दिखाया। पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि आज़ाद इंसान हर हाल में आज़ाद रहता है। यदि उस पर दुख पड़ता है तो संयम का परिचय देता है, यदि दुखों का सिलसिला जारी रहता है तो भी उसका संयम नहीं टूटता, यदि उसे क़ैदी बना लिया जाए, उसे परास्त कर दिया जाए और उसका आराम कठिनाइयों में बदल जाए तो हज़रत युसुफ़ की तरह उसकी स्वाधीनता पर क़ैद और दासता से भी कोई आंच नहीं आती।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा की विशेषताओं का उल्लेख करते हुए कहते हैं कि हज़रत ज़ैनब एक संपूर्ण मुस्लिम महिला का प्रतीक थीं। अर्थात इस्लाम ने महिलाओं के प्रशिक्षण के लिए जो आदर्श रखा है उसे हज़रत ज़ैनब ने दुनिया वालों के सामने पेश किया। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के व्यक्तित्व की कई पहलू हैं। वह ज्ञानी और बहुत महान हस्ती हैं, उनके सामने बड़े बड़े बुद्धिमान और ज्ञानी नत मस्तक हो जाता है। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने भावना और भावुकता को एक मोमिन इंसान के हृदय में पायी जाने वाली दृढ़ता और महानता से जोड़ दिया। उन्होंने अपना हृदय और अस्तित्व ईश्वर के सिपुर्द कर दिया जिसके नतीजे में वह इतनी महानता पर पहुंच गईं कि बड़ी से बड़ी घटना भी उनकी नज़र में तुच्छ थी, कर्बला जैसी घटना भी उनके हौसले को नहीं तोड़ सकी।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की कर्बला में शहादत के बाद हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा डेढ़ साल से ज़्यादा जीवित नहीं रहीं। वर्ष 62 हिजरी क़मरी में रजब के महीने में 56 साल की आयु में हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा इस दुनिया से चली गईं। बहरुल मसाएब पुस्तक के लेखक ने लिखा है कि कर्बला की घटना और इसके बाद के कठिन हालात ने हज़रत ज़ैनब को बूढ़ कर दिया। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा के लिए अपने भाई इमाम हुसैन के बग़ैर जीवन व्यतीत करना बहुत कठिन था। वैसे तो कर्बला की घटना ही इतनी बड़ी घटना थी कि हज़रत ज़ैनब का इसके बाद एक पल के लिए भी जीवित रह पाना कठिन था लेकिन उन्होंने हालात को देखा, अपने ज़िम्मेदारी को समझा, अपने भाई के मिशन को पूरा करने के दायित्वों का आभास किया और एसे संयम का प्रदर्शन किया जिसका कोई और उदाहरण नहीं हो सकता। अपने दायित्व पूरा कर लेने और अपने भाई इमाम हुसैन का संदेश लोगों तक पहुंचा देने के बाद हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने इस दुनिया से विदा ली।
"बाल्टीमोर" में अमेरिका के मुसलमानों की बड़ी सभा आयोजित की गई
अंतर्राष्ट्रीय कुरान समाचार एजेंसी खबर साइट«बाल्टीमोर सन»के अनुसार,इस साल की सभा, "सच्ची सफलता के लिए प्रास: मूसा, ईसा और मुहम्मद (PBUH) के दिव्य संदेश" विषय के साथ आयोजित की गई।
इस सम्मेलन में जो उत्तरी अमेरिका के इस्लामी ब्यूरो (ICNA) द्वारा आयोजन किया गया है प्रमुख आंकड़ों सहित 150 से भी अधिक वक्ताओं ने भाग लिया।
इस तीन दिवसीय बैठक में जो आज, 16 अप्रैल को समाप्त होरही है, सामाजिक और मनोरंजक गतिविधियां भी आयोजित की गई।
बच्चों के लिए कुरान प्रतियोगिता, बाजार और मनोरंजक गतिविधियां, हर साल इस सभा का हिस्सा होती हैं।
इस वर्ष भी इसी तरह विभिन्न धर्मों के समूहों और बाल्टीमोर इस्लामिक सोसायटी के सहयोग से, 750 से अधिक सहायता पैकेज बेघरों के लिए और 1000 गर्म भोजन के पैकेज जरूरतमंद लोगों को वितरित किऐ गऐ।
इस तरह की बैठकें "इस्लामोफोबिया से मुक़ाबला", "राष्ट्रपति ट्रम्प के समय अपने अधिकारों की रक्षा" और "कठिन समय में सक्रिय होना" जैसे विषयों के साथ आयोजित की गईं और उनमें मुसलमानों के खिलाफ नफरत के आधार पर अपराधों में वृद्धि और ट्रम्प सरकार की इस्लामी देशों के नागरिकों के प्रवेश पर प्रतिबंध लगाने की कार्रवाइयों पर भी चर्चा की गई।
"सूतबी'लंदन की नीलामी बाज़ार में ख़त्ती कुरान+ तस्वीरें
अंतर्राष्ट्रीय कुरान समाचार ऐजेंसी खबर "अल्यौमुस्साबेअ" के अनुसार, लंदन का सूदबी नीलामी मार्केट 26 अप्रेल को "इस्लामी दुनिया की कला" शीर्षक के साथ नीलामी का आयोजन करेगा और उसमें कुरान की पांडुलिपियां और सैकड़ों वर्षों पुराने कुरानों को नीलामी के लिऐ पेश किया जाऐगा।
इस नीलामी में दुआओं की पुस्तकें और चौदहवीं शताब्दी ई से संबंधित आयतों को भी नीलामी के लिऐ पेश किया जाऐगा और उनकी कीमत 6 से 8 हजार पाउंड घोषणा की गई है।
इसी तरह फारसी कवि अब्दुर्रहमान जामी के हाथ से लिखी कुरान की पांडुलिपि कि सोलहवीं सदी के अंतर्गत आता है इस नीलामी में मूल्य 2 से 3 हजार पाउंड तक बेचने के लिऐ रखा जाऐगा।
सूतबी नीलामी बाज़ार इसी तरह मुस्तफ़ा अज़्ज़हनी के हाथ का लिखा दौरे उस्मानी का क़ीमती क़ुरआन जो कि 18वीं शताब्दी ई के अंतर्गत आता है 20 से 30 हज़ार पाउंड और ऐक क़ुरआन इस्तांबूल का 1124 से 1712 शताब्दी के अंतर्गत 180 से 250 हज़ार पाउंड की कीमत पर नीलामी के लिऐ रखेगा।