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साम्राज्यवादी शक्तियां अपनी इच्छा थोपने के लिए विभिन्न हथकंडे अपनाती हैं, वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने सोमवार की शाम वरिष्ठ अधिकारियों और पालिकाओं के प्रमुखों से भेंट में कहा कि देश के सही संचालन के लिए अनुभवों से फायदा उठाना चाहिए और सब से अहम अनुभव राष्ट्रीय एकता और अमरीका पर भरोसा न करना है।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने गत 19 मई को ईरान में आयोजित राष्ट्रपति चुनाव का उल्लेख करते हुए कहा कि हालिया राष्ट्रपति और नगर व ग्रामीण परिषद चुनाव बहुत बड़ा काम था और चुनाव से ईरानी जनता के दिल में इस्लामी व्यवस्था और क्रांति की शक्ति का प्रदर्शन हुआ हालांकि अंतरराष्ट्रीय मीडिया इस महत्वपूर्ण बिंदू की ओर कोई इशारा नहीं करता।
वरिष्ठ नेता ने ईरान में राष्ट्रपति चुनाव के बाद प्रतिबंध लगाने की अमरीका की आलोचनीय कार्यवाही का उल्लेख करते हुए कहा कि इस प्रकार की शत्रुता के मुक़ाबले में देश के विकास के संयुक्त मक़सद के लिए नया वातावरण बनाए जाने की ज़रूरत है और इस में हरेक की भूमिका होनी चाहिए।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि साम्राज्यवादी ताक़तें अपनी इच्छा को थोपने के लिए विभिन्न प्रकार के हथकंडे अपनाती हैं और उनका एक हथकंडा अंतरराष्ट्रीय नियम के ढांचे में अपने उद्देश्यों की पूर्ति है और इस रास्ते से वह अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने वाले स्वाधीन देशों पर अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन का आरोप लगाते हैं।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि हालिया दिनों में अमरीकियों ने ईरान के बारे में अपने बयानों में क्षेत्र को अस्थिर करने की बात की है उनके जवाब में कहना चाहिए कि पहली बात तो यह है कि इस क्षेत्र से आप लोगों का क्या संबंध और दूसरी बात यह है कि इस क्षेत्र की अस्थिरता के ज़िम्मेदार आप और आप के एजेन्ट हैं।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने आतंकवादी गुट दाइश के गठन और उसकी सैन्य मदद के सिलसिले में अमरीकियों के रोल का उल्लेख करते हुए कहा कि दाइश के खिलाफ गठजोड़ बनाने का दावा, झूठ है अलबत्ता अमरीकी, बेक़ाबू दाइश के विरोधी हैं किंतु अगर कोई वास्तव में दाइश को खत्म करना चाहता है तो यह अमरीकी उसके सामने खड़े हो जाते हैं।
वरिष्ठ नेता ने ईरान व अमरीका के संबंधों के बारे में कहा कि अमरीका के साथ हमारी बहुत सी समस्याओं का मूल रूप से समाधान संभव नहीं है क्योंकि हम से अमरीका की परेशानी की अस्ल वजह, परमाणु ऊर्जा और मानवाधिकार नहीं है बल्कि उनकी समस्या, इस्लामी गणतंत्र के सिद्धान्त से है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि ईरानी राष्ट्र जीवित और इस्लामी क्रांति उत्साह से भरी है और यह निश्चित रूप से उज्जवल भविष्य का शुभ संकेत है और हमें उम्मीद है कि ईरानी जनता की दशा बेहतर से बेहतर होती जाएगी और वह चुनौतियों से भली भांति निपट सकेगी।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई के भाषण से पहले राष्ट्रपति डॅाक्टर हसन रूहानी ने चुनाव के लिए जनता और वरिष्ठ नेता के प्रति आभार प्रकट किया और कहा कि चुनाव में विजय जनता की हुई है और प्रतिस्पर्धा का दौर गुज़र गया और अब जनता की मांगों और ज़रूरतों पर ध्यान देना चाहिए।
अल अजहर के कर्मचारियों के लिए हिफ्ज़े कुरान प्रतियोगिता
अंतर्राष्ट्रीय कुरान समाचार एजेंसी ने «albawabhnews» समाचार एजेंसी के अनुसार बताया कि हिफ्ज़े और तज्वीदे कुरान प्रतियोगिता (मिस्र के अल अजहर विश्वविद्यालय अल अजहर शेख के कार्यालय के कर्मचारियों के लिए चौथे वर्ष के लिए 11 जून को काहिरा में आयोजित किया जाएगा।
हिफ्ज़े और तज्वीदे कुरान प्रतियोगिता कुरान चार भाग़ हिफ्ज़, पुरे कुरआन की तज्वीद, आधे कुरआन की तज्वीद, एक चौथाई कुरआन की तज्वीद, के लिए एक दूसरे के साथ प्रतिस्पर्धा करेंगे।
अजहर Mshykhh कार्यालय रमजान के पवित्र महीने के लेने वाले अपना नाम 12 रमज़ान से पहले रजिस्टर का सकते हैं
ऑस्ट्रेलियाई चर्च, रोज़ेदारों के इफ्तार भोजन का मेजबान
अंतरराष्ट्रीय कुरान समाचार एजेंसी ने "एबीसी"समाचार के अनुसार बताया कि मुस्लिम और पर्थ के ईसाई चर्च समुदाय के लोग़ इस साल पहली बार पर्थ चर्च में इस्लाम और ईसाइयत के सहयोग़ से इफ्तार का आयोजन किया ताकि एक दुसरे के साथ अधिक परिचित हों।
पर्थ शहर के मुसलमानों के इमामे जुमा "फैज़ल" का इरादा है कि चर्च की इमारत के प्रवेश द्वार के बगल में जल्द ही मस्जिद बनाई जाए उन्होंने इस बारे में कहा: कि इस समय जब इस्लाम गलतफहमी में घिरा हुआ है, इस्लाम और ईसाइयत के सहयोग़ से इफ्तार सबसे अच्छा तरीका है।
ईसाई मुस्लिम "Humphreys" ने कहा: कि इस्लाम और ईसाइयत एक कहानी का हिस्सा है और इसके पुराने के सभी निशान एक इंसान और एकता को दर्शाता है।
मुसलमानों की वकील "आयशा नोवाकोविच" ने कहा कि मुसलमानों के इमामे जुमा और पीटर"चर्च के पादरी के बीच दोस्ती आकर्षण है वो भी एसे समय में जब दुनिया लोग़ों के बीच फुट डालना चाहती है इन दो धार्मिक नेता के बीच दोस्ती हमें और पूरी दुनिया को बताती है कि जब नेतृत्व अच्छा होता है तो हम एकता तक पहुँच सकते हैं
यूरोपीय संघ ने की इस्राईल की कड़ी आलोचना
यूरोपीय संघ ने फ़िलीस्तीनी क्षेत्रों में नई यहूदी बस्तियों के निर्माण पर ज़ायोनी शासन की कड़े शब्दों में आलोचना की है।
प्राप्त समाचारों के अनुसार यूरोपीय संघ ने इस्राईल की निंदा करते हुए कहा है कि फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में यहूदी बस्तियों के निर्माण के कारण मध्यपूर्व की स्थिति अधिक जटिल होती जा रही है।
यूरोपीय संघ की ओर से जारी बयान में इस बात पर बल दिया गया है कि यूरोपीय संघ अपने वैश्विक और क्षेत्रीय सहयोगियों के साथ फ़िलिस्तीन और ज़ायोनी शासन के बीच शांति प्रयासों को आगे बढ़ाने के लिए तैयार है।
उल्लेखनीय है कि इससे पहले शांति के लिए काम करने वाले एक संगठन ने कहा था कि इस्राईल, अधिकृत फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में पंद्रह सौ नई आवासीय इकाई स्थापित करना चाहता है। प्राप्त सूचना के अनुसार ज़ायोनी शासन द्वारा बनाई जा रही अधिकांश बस्तियां एक नए शहर के रूप में स्थापति की जाएंगी। ज्ञात रहे कि इन नई कालोनियों के निर्माण का आदेश इस्राईल ने हाल ही में जारी किया है।
याद रहे कि संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने दिसम्बर 2016 में एक विधेयक के माध्यम से इस्राईल से फ़िलिस्तीनी क्षेत्रों में नई बस्तियों का निर्माण रोकने की मांग की थी। राष्ट्र संघ के विधेयक के बाद ज़ायोनी शासन के प्रधानमंत्री ने कहा था कि इस्राईल के लिए राष्ट्र संघ का यह विधेयक बाध्यकारी नहीं होगा।
हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अलैहा का स्वर्गवास।
पवित्र रमज़ान का महीना इस्लामी जगत की उस महान महिला के स्वर्गवास की याद दिलाता है जो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की बहुत अच्छी जीवन साथी थीं।
ऐसी महिला जिसने पैग़म्बरे इस्लाम के हर सुख-दुख में साथ दिया और ईश्वरीय दायित्व पैग़म्बरी के निर्वाह में पैग़म्बरे इस्लाम के हमेशा साथ खड़ी रहे।
सलाम हो हज़रत ख़दीजा पर! ऐसी महान महिला जिससे पैग़म्बरे इस्लाम विभिन्न मामलों में सलाहकार के तौर पर मदद लेते थे। सलाम हो सत्य की गवाही देने वाली महान महिला हज़रत ख़दीजा पर।
हज़रत ख़दीजा सदाचारिता, सौंदर्य, व्यक्तित्व व महानता की दृष्टि से अपने समय की महिलाओं की सरदार थीं। वह ऐसे वंश से थीं जो अपने अदम्य साहस के लिए मशहूर था। वह उच्च व्यक्तित्व, स्थिर विचार और सही दृष्टिकोण की स्वामी महिला थीं।
मोहद्दिस क़ुम्मी कहते हैं, “हज़रत ख़दीजा अलैहस्सलाम का ईश्वर के निकट इतना उच्च स्थान था कि उनकी पैदाइश से पहले ईश्वर ने हज़रत ईसा को संदेश में हज़रत ख़दीजा को मुबारका अर्थात बरकत वाली और स्वर्ग में हज़रत मरयम की साथी कहा था क्योंकि बाइबल में पैग़म्बरे इस्लाम के चरित्र चित्रण की व्याख्या में आया है कि उनका वंश एक महान महिला से चलेगा।”
वह इस्लाम के प्रसार में दृढ़ता और न्याय के मार्ग में आश्चर्यजनक हद तक क्षमाशीलता के कारण न सिर्फ़ क़ुरैश की महिलाओं बल्कि दुनिया की महिलाओं की सरदार कही गयीं। पैग़म्बरे इस्लाम ने उनकी प्रशंसा में फ़रमाया, “ईश्वर ने महिलाओं में 4 श्रेष्ठ महिलाओं हज़रत मरयम, हज़रत आसिया, हज़रत ख़दीजा और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा को चुना।” उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने आगे फ़रमाया, “हे ख़दीजा! तुम ईमान लाने वालों की बेहतरीन मां हो, दुनिया की महिलाओं में सर्वश्रेष्ठ और उनकी सरदार हो।”
अरब में अज्ञानता के काल में बहुत सी महिलाएं उस दौर की बुराइयों में ग्रस्त थीं लेकिन हज़रत ख़दीजा उस दौर में भी चरित्रवान थीं और इसी शुचरित्रता की वजह से उन्हें पवित्र कहा जाता था। उस काल में हज़रत ख़दीजा का हर कोई सम्मान करता और महिलाओं की सरदार कहता था।
वह अपने यहां काम करने वाले उच्च नैतिक मूल्यों से संपन्न एक महान इंसान के व्यक्तित्व से सम्मोहित हो गयीं। उस महान इंसान का नाम मोहम्मद था जो हज़रत ख़दीजा का व्यापारिक काम करते थे। हज़रत ख़दीजा ने तत्कालीन समाज की रीति-रिवाजों के विपरीत ख़ुद अपने विवाह का प्रस्ताव इस निर्धन जवान के सामने रखा जो निर्धन तो था मगर उसकी ईमानदारी का चर्चा था। हज़रत ख़दीजा ने पैग़म्बरे इस्लाम के साथ संयुक्त जीवन ईश्वर पर आस्था, प्रेम व बुद्धिमत्ता के माहौल में शुरु किया। हज़रत ख़दीजा अपने जीवन साथी से अथाह श्रद्धा रखती थीं, काम में उनकी मदद करतीं थीं और जीवन के हर कठिन मोड़ पर पैग़म्बरे इस्लाम का साथ देती थीं। हज़रत ख़दीजा पहली महिला हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम पर ईमान लायीं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम क़ासेआ नामक अपने भाषण में कहते हैं, “जिस दिन पैग़म्बरे इस्लाम ईश्वरीय दूत नियुक्त हुए, इस्लाम का प्रकाश पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत ख़दीजा के घर के सिवा किसी और घर में न पहुंचा और में उनमें तीसरा था जो ईश्वरीय संदेश वही व ईश्वरीय दायित्व के प्रकाश को देखता और पैग़म्बरी की ख़ुशबू को सूंघता था।”
इस्लाम का प्रकाश हज़रत ख़दीजा के अस्तित्व में समा गया और उस प्रकाश ने उनका मार्गदर्शन किया। इस्लाम की एक विशेषता यह है कि यह क्रान्तिकारी आस्था इंसान की बुद्धि व प्रवृत्ति से समन्वित है। यह प्रकाश जिस मन में पहुंच जाए उसमें बलिदान व त्याग की भावना पैदा कर देता है। यही भावना हज़रत ख़दीजा में भी जागृत हुयी।
हज़रत ख़दीजा उस समय की कटु राजनैतिक व सामाजिक बातों के प्रभाव को कि जिनसे पैग़म्बरे इस्लाम को ठेस पहुंचती थी, अपनी साहसी बातों से ख़त्म कर देती थीं और पैग़म्बरे इस्लाम की ईश्वरीय मार्ग पर चलने में मदद करती थीं। इसी आस्था व बलिदान के नतीजे में हज़रत ख़दीजा उस स्थान पर पहुंची कि ईश्वर ने उन्हें सलाम कहलवाया।
अबू सईद ख़दरी कहते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमाया, “जब मेराज की रात जिबरईल मुझे आसमानों पर ले गए और उसकी सैर करायी तो लौटते वक़्त मैने जिबरईल से कहा, मुझसे कोई काम है? जिबरईल ने कहा, “मेरा काम यह है कि ईश्वर और मेरा सलाम ख़दीजा को पहुंचा दीजिए।” पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम जब ज़मीन पर पहुंचे तो हज़रत ख़दीजा तक ईश्वर और जिबरईल का सलाम पहुंचाया। हज़रत ख़दीजा ने कहा, ईश्वर की हस्ती सलाम है, सलाम उसी से है, सलाम उसी की ओर पलटता है और जिबरईल पर भी सलाम हो।”
हज़रत ख़दीजा सलामुल्लाह अलैहा ने पैग़म्बरे इस्लाम के साथ 24 साल वैवाहिक जीवन बिताया। इस दौरान उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम और इस्लाम की बहुत सेवा की। उन्होंने उस समय पैग़म्बरे इस्लाम की आत्मिक, भावनात्मक और वित्तीय मदद की और उनकी पैग़म्बरी की पुष्टि की जब पैग़म्बरे इस्लाम को पैग़म्बर मानने के लिए कोई तय्यार न था। अनेकेश्वरवादियों के मुक़ाबले में हज़रत ख़दीजा की पैग़म्बरे इस्लाम को मदद, उनकी मूल्यवान सेवा का बहुत बड़ा भाग है। हज़रत ख़दीजा जब तक ज़िन्दा रहीं उस वक़्त तक अनेकेश्वरवादियों को इस बात की इजाज़त न दी कि वे पैग़म्बरे इस्लाम को यातना दें। जब पैग़म्बरे इस्लाम दुख से भरे घर लौटते थे तो हज़रत ख़दीता उनकी ढारस बंधातीं और उनके मन को हलका करती थीं। हज़रत ख़दीजा अरब प्रायद्वीप की सबसे धनवान महिला थीं। वह कितनी धनवान थी इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि उनके पास लगभग 80000 ऊंट थे और ताएफ़, यमन, सीरिया और मिस्र सहित दूसरे क्षेत्रों में दिन रात उनके व्यापारिक कारवां का तांता बंधा रहता था। उन्होंने अपने सारे दास-दासियों और धन को पैग़म्बरे इस्लाम के अधिकार में दे दिया था और अपने चचेरे भाई वरक़ा बिन नोफ़ल से कहा, “लोगों के बीच एलान करो कि ख़दीजा ने अपनी सारी संपत्ति हज़रत मोहम्मद को भेंट की है। हज़रत ख़दीजा की संपत्ति इस्लाम के आगमन के आरंभ से इस्लाम की सेवा व प्रसार में ख़र्च होने लगी। यहां तक कि हज़रत ख़दीजा के धन का अंतिम भाग हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मक्के से मदीना पलायन के समय ख़र्च किया।”
इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम फ़रमाते हैं, “कोई भी संपत्ति मेरे लिए ख़दीजा अलैहस्सलाम की संपत्ति से ज़्यादा लाभदायक न थी।”
हज़रत ख़दीजा अलैहस्सलाम का इस्लाम के समर्थन में साहसिक दृष्टिकोण वह भी अज्ञानता भरे काल में, बहुत बड़ा कारनामा था जिसने इस्लाम के प्रसार का रास्ता खोला। इस बारे में तबरसी लिखते हैं, “ख़दीजा और अबू तालिब पैग़म्बरे इस्लाम के दो सच्चे व भरोसेमंद साथी थे। दोनों ही एक साल में इस नश्वर संसार से चल बसे और इस प्रकार पैग़म्बरे इस्लाम को दो दुख सहने पड़े। हज़रत अबू तालिब और ख़दीजा की मौत का दुख! यह ऐसी हालत में था कि हज़रत ख़दीजा एक बुद्धिमान व वीर सलाहकार थीं और उनके निडर व वीरता भरे समर्थन ने पैग़मबरे इस्लाम की बड़ी बड़ी समस्याओं का सामना करने में मदद की और वह अपनी मोहब्बत से उनके मन को सुकून पहुंचाती थीं।”
यह चीज़ हज़रत ख़दीजा और पैग़म्बरे इस्लाम की अन्य महिलाओं के बीच अंतर को स्पष्ट करती है। यही वह अंतर था जिसकी वजह से पैग़म्बरे इस्लाम उनके जीवन के अंतिम क्षण तक उनसे प्रेम करते रहे।
पैग़म्बरे इस्लाम की एक पत्नी हज़रत आयशा कहती हैं, “पैग़म्बर की किसी भी पत्नी से मुझे इस हद तक ईर्ष्या नहीं थी जितनी ख़दीजा से थी क्योंकि वह पैग़म्बरे इस्लाम के मन के संवेदनशील भाग पर इस तरह विराजमान थीं कि पैग़म्बरे इस्लाम हर उस चीज़ व व्यक्ति को जिसका उनसे संबंध होता था, अलग ही नज़र से देखते थे।”
पैग़म्बरे इस्लाम की कुछ बीवियां यह सोचती थीं कि पैग़म्बरे इस्लाम चूंकि समाज के मुखिया व मार्गदर्शक हैं, भविष्य में उन्हें धनवानों जैसा जीवन प्रदान करेंगे लेकिन वर्षों बीतने के बाद भी धनवानों जैसे जीवन की कोई ख़बर न थी। इस्लाम के प्रसार के बाद कुछ बीवियां हर जगह हर चीज़ में पैग़म्बरे इस्लाम से बहस करतीं और उनसे ज़्यादा ख़र्च की मांग करती थीं यहां तक कि पैग़म्बरे इस्लाम की नसीहत भी उन पर असर न करती थी। रवायत में है कि एक दिन हज़रत अबू बक्र पैग़म्बरे इस्लाम के पास पहुंचे तो देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम की बीवियां भी उनके पास मौजूद थीं। उन्होंने देखा कि पैग़म्बरे इस्लाम दुखी हैं। जब उन्हें लगा कि उनकी बेटी हज़रत आयशा ने अपनी मांगों से पैग़म्बरे इस्लाम को दुखी किया है तो वे अपनी जगह से उठे ताकि उन्हें सज़ा दें। उस समय अहज़ाब सूरे की आयत नंबर 28 और 29 नाज़िल हुयी जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम की बीवी को यह अख़्तियार दिया गया कि वे विलासमय जीवन और पैग़म्बरे इस्लाम के बीच किसी एक को चुनें। तब उन्हें पता चला कि सबसे बड़ी संपत्ति पैग़म्बरे इस्लाम का साथ है।
हज़रत ख़दीजा ने, जिन पर ईश्वर का दुरूद हो, उस समय जब पैग़म्बरे इस्लाम और उनके साथियों की दुश्मनों ने शेबे अबु तालिब नामक घाटीमें आर्थिक व सामाजिक नाकाबंदी कर रखी थी, कुछ लोगों को खाना-पानी ख़रीदने के लिए भेजती जो छिप कर बहुत महंगी क़ीमत पर खाना पानी ख़रीदते और उसे नाकाबंदी में घिरे पैग़म्बरे इस्लाम और उनके साथियों तक पहुंचाते। हज़रत आयशा कहती हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम जब कोई भेड़-बकरी ज़िबह करते तो पहला हिस्सा हज़रत ख़दीजा की सहेलियों को भिजवाते थे। एक बार मैंने इस पर आपत्ति की कि आप कब तक हज़रत ख़दीजा का गुणगान करते रहेंगे? उन्होंने कहा, क्योंकि वह उस समय मुझ पर ईमान लायीं जब लोग नास्तिक थे। उस समय उन्होंने मेरी पुष्टि की जब लोग मुझे झूठा कहते थे और अपनी संपत्ति मेरे हवाले कर दी जब लोगों ने मुझे वंचित कर रखा था।
अलख़साएसुल फ़ातेमिया नामक किताब में आया है, “यह बात मशहूर है कि जिस समय हज़रत ख़दीजा का देहांत हुआ, ईश्वर ने फ़रिश्तों के हाथों हज़रत ख़दीजा के लिए विशेष कफ़न पैग़म्बरे इस्लाम को भिजवाया। यह चीज़ हज़रत ख़दीजा की महानता का पता देने के साथ साथ पैग़म्बरे इस्लाम के सुकून का सबब भी बनी।”
रमज़ान का नवॉं दिन।
इस साल स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बरसी 9 रमज़ान को पड़ रही ।
इमाम ख़ुमैनी ने ईरान में ऐसी क्रान्ति का नेतृत्व संभाला जिसकी सफलता से अंतर्राष्ट्रीय समीकरण उलट पलट गए। ऐसी क्रान्ति जो थोड़े समय में अन्य देशों की जनता को अपना समर्थक बनाने में सफल हुयी। इमाम ख़ुमैनी का व्यक्तित्व या शख़सियत ईरानी राष्ट्र में आध्यात्मिक बदलाव लाने में सबसे अहम तत्व था। इस्लामी क्रान्ति के दौरान और फिर इराक़ द्वारा थोपी गयी आठ वर्षीय जंग में जनता की भव्य उपस्थिति और जनता में इस्लामी मूल्यों की ओर रुझान का श्रेय इमाम ख़ुमैनी को जाता है। एक ऐसा नेता जो साम्राज्य के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने के साथ साथ आत्मज्ञानी व धर्मपरायण विद्वान थे। इमाम ख़ुमैनी आध्यात्मिक हस्ती होने के साथ साथ पीड़ितों की रक्षा और अत्याचारियों का मुक़ाबला करने में पूरी तरह दृढ़ थे। ज्ञान, राजनीति और अध्यात्म के संगम से हासिल अतुल्य शक्ति इमाम ख़ुमैनी के व्यक्तित्व के आकर्षक जलवे थे। एक ऐसी हस्ती जो ज्ञान व अध्यात्म के जटिल चरणों को तय करते हुए शिखर पर पहुंचे और साथ ही एक सामाजिक व राजनैतिक दृष्टि से प्रभावी नेता भी हो। ऐसी हस्ती इतिहास की सबसे ज़्यादा आश्चर्य में डालने वाली सच्चाई है। उनका संतुष्ट दिखाई देने वाला चेहरा, ईश्वरीय अनुकंपाओं पर गहरी आस्था की देन था। धैर्य के ऐसे चरण पर थे कि सख़्त से सख़्त हालात भी उन्हें डिगा न सके। इमाम ख़ुमैनी की नज़र में यह संसार ईश्वर की जलवागाह है अर्थात जिस तरफ़ नज़र उठाओ ईश्वर का जलवा नज़र आएगा। इसी प्रकार वह ईश्वरीय कृपा पर आस्था रखते थे। जो भी इमाम ख़ुमैनी के जीवन की समीक्षा तो वह पाएगा कि पवित्र क़ुरआन की छत्रछाया में जीवन बिताते थे। इस बारे में वह कहते थे, “अगर हम अपनी ज़िन्दगी के हर क्षण ईश्वर का इस बात के लिए आभार व्यक्त करने हेतु सजदे में रहें कि क़ुरआन हमारी किताब है, तब भी हम इसका हक़ अदा नहीं कर सकते।”
पवित्र क़ुरआन को समझने के लिए सबसे पहला क़दम यह है कि उसे हमेशा पढ़ें क्योंकि ऐसा न करने की स्थिति हम पवित्र क़ुरआन के तर्क व अर्थ को नहीं समझ पाएंगे। इमाम ख़ुमैनी के इराक़ के पवित्र नगर नजफ़ में देश निकाला के जीवन के समय साथ रहने वाले एक व्यक्ति का कहना है, “जिन दिनों में नजफ़ में इमाम ख़ुमैनी रह रहे थे, उन्हें अनेक मुश्किलों का सामना था। पवित्र रमज़ान के महीने में हर दिन 10 पारह पढ़ते थे और इस तरह तीन दिन में पूरा क़ुरआन पढ़कर ख़त्म कर देते थे।”
क़ुरआन की दुनिया में क़दम रखने के संबंध में यह बात अहम है कि सोच-समझ कर क़ुरआन पढ़ने की बहुत अहमियत है और क़ुरआन की आयतों पर चिंतन मनन से ही हम इस ख़ज़ाने से लाभ उठा सकते हैं। इमाम ख़ुमैनी इस तरह क़ुरआन पढ़ने पर बहुत बल देते थे। वह अपनी एक बहू से अनुशंसा करते हुए कहते हैं, “ईश्वर की कृपा के स्रोत क़ुरआन में चिंतन मनन करो। हालांकि महबूब ख़त समान इस किताब को पढ़ने का सुनने वाले पर अच्छा असर पड़ता है लेकिन इसमें सोच विचार से इंसान का उच्च स्थान की ओर मार्गदर्शन होता।”
इमाम ख़ुमैनी की एक संतान उनके बारे में कहती है, “पवित्र रमज़ान में उनका उपासना का कार्यक्रम यूं होता था कि रात से सुबह तक नमाज़ और दुआ पढ़ते थे और सुबह की नमाज़ पढ़ने और थोड़ा आराम के बाद अपने काम के लिए तय्यार होते थे। पवित्र रमज़ान को विशेष रूप से अहमियत देते थे। इतनी अहमियत देते थे कि इस महीने में कुछ काम नहीं करते थे ताकि पवित्र रमज़ान की विभूतियों से ज़्यादा से ज़्यादा फ़ायदा उठाएं। वह अपनी ज़िन्दगी में इस विशेष महीने में बदलाव लाते थे। बहुत कम खाना खाते थे। यहां तक कि लंबे दिनों में सहरी और इफ़्तार के समय इतना कम खाते थे कि हमें लगता था कि हुज़ूर ने कुछ खाया ही नहीं है।”
सूरे निसा की 69वीं आयत में ईश्वर कह रहा है, “जो लोग ईश्वर और उसके दूतों का पालन करते हैं वे ईश्वरीय दूतों, सच्चों, शहीदों और सदाचारियों के साथ होंगे कि जिन्हें ईश्वर अपनी अनुकंपाओं से नवाज़ता है और ऐसी लोग अच्छे साथी हैं।”
इस आयत का अर्थ यह है कि जो लोग ईश्वर और उनके दूत के आदेश का पालन करते हुए ख़ुद को समर्पित कर देते हैं, वे ऐसे लोगों के साथ होंगे जिन्हें ईश्वर अपनी नेमतों से नवाज़ता है। पवित्र क़ुरआन के हम्द नामक सूरे में कि जिसे मुसलमान कम से कम हर दिन 10 बार पढ़ता है, इस प्रकार के लोगों का उल्लेख है। जैसा कि सूरे हम्द में जब हम यह कहते हैं कि इहदिनस सिरातल मुस्तक़ीम अर्थात ईश्वर हमारा सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन कर, तो इसके बाद वाले टुकड़े में सीधा मार्ग उन लोगों का मार्ग कहा गया है जिन पर ईश्वर की अनुकंपाएं नाज़िल होती हैं। जो लोग सीधे मार्ग पर चलते हैं वह तनिक भी नहीं भटकते।
निसा सूरे की आयत नंबर 69 उन लोगों के बारे में हैं जिन पर ईश्वर की अनुकंपाएं पूरी हुयीं। इसमें पहला गुट ईश्वरीय दूतों का है जो लोगों को सीधे मार्ग की ओर बुलाने का बीड़ा उठाते हैं। उसके बाद सिद्दीक़ीन अर्थात सच बोलने वालों का गुट है। सिद्दीक़ीन उन्हें कहते हैं जो सच बोलते हैं और अपने व्यवहार व चरित्र से अपनी सच्चाई को साबित करते हैं और यह दर्शाते हैं कि वह सिर्फ़ दावा नहीं करते बल्कि ईश्वरीय आदेश पर उन्हें आस्था व विश्वास है। इस आयत से स्पष्ट होता है कि नबुव्वत अर्थात ईश्वरीय दूत के स्थान के बाद सच्चों से ऊंचा किसी का स्थान नहीं है।
इसके बाद शोहदा का स्थान है। शोहदा वे लोग हैं जो प्रलय के दिन लोगों के कर्मों के गवाह होंगे। यहां शोहदा से अभिप्राय जंग में शहीद होने वाले नहीं है। आख़िर में सालेहीन अर्थात सदाचारियों का स्थान है। ये वे लोग हैं जो सार्थक व लाभ दायक कर्म करते हैं। ईश्वरीय दूतों का पालन करके ऐसे स्थान पर पहुंचे कि ईश्वरीय अनुकंपाओं के पात्र बन सकें। स्पष्ट है कि ऐसे लोग भले साथी हैं।
दूसरी ओर यह आयत इस सच्चाई की ओर भी इशारा करती है एक इंसान की दूसरे इंसान के साथ संगत इतनी अहम है कि परलोक में स्वर्ग की अनुकंपाओं को संपूर्ण करने के लिए उन्हें दूसरी अनुकंपाओं के साथ साथ ईश्वरीय दूतों, सच्चों, शहीदों और सदाचारियों के साथ रहने का अवसर भी मिलेगा।
निसा सूरे की आयत नंबर 69 की व्याख्या में ख़्वाजा अब्दुल्लाह अंसारी कहते हैं, “सौबान पैग़म्बरे इस्लाम के विशेष साथियों में थे। उन्हें पैग़म्बरे इस्लाम से बहुत गहरी श्रद्धा थी। एक दिन पैग़म्बरे इस्लाम ने उनसे पूछा, बहुत ज़्यादा कठिनाई सहन कर रहे हो कि इतने कमज़ोर हो गए हो? सौबान ने कहा, “मुझे इस बात की चिंता सता रही है कि आप परलोग में स्वर्ग के सबसे उच्च स्थान में होंगे और हम आपका दीदार न कर पाएंगे।” तो यह आयत उनके बारे में उतरी।”
हम ने पवित्र रमज़ान के महीने में पोषक तत्वों से भरपूर खाद्य पदार्थ के सेवन और सेहत पर उसके असर के बारे में बताया। यह बिन्दु भी बहुत अहम कि पवित्र रमज़ान में किस प्रकार का खाद्य पदार्थ हो और उसे किस तरह उपभोग करें। रोज़ेदारों की यह कोशिश होती है कि अपने परिजनों के लिए हलाल व पाक आजीविका कमाए। क्योंकि हलाल रोज़ी व आजीविका से ही इंसान में नैतिक गुण पनपते हैं। कृपालु व आजीविका देने वाला ईश्वर इस बात का उल्लेख करते हुए कि सृष्टि में उसने उपभोग के लिए बहुत सी अनुकंपाएं इंसान के लिए मुहैया की हैं, इंसान पर बल देता है कि वह पाक व हलाल आजीविका हासिल करे। पवित्र क़ुरआन में पाक खाने और सदकर्म पर बहुत बल दिया गया है। जैसा कि मोमेनून नामक सूरे की आयत नंबर 51 में ईश्वर अपने दूतों से कह रहा है कि वे पाक खाना खाएं और उससे हासिल ऊर्जा को लाभदायक कर्म में इस्तेमाल करें। ईश्वर ने पाक रोज़ी को मानव जाति की अन्य प्राणियों पर श्रेष्ठता का तत्व कहा है। पाक व हलाल रोज़ी अच्छी बातों की तरह इंसान के व्यक्तित्व के विकास में प्रभावी होती है। उसे आध्यात्मिक आत्मोत्थान व नैतिक मूल्यों की रक्षा में मदद देती है और स्वच्छ बारिश की तरह इंसान के अस्तित्व में नैतिकता का पौधा उगाती है। खाना स्वच्छ, हलाल, पाक, गंदगी से दूर, मूल पदार्थ और उसका बर्तन उचित हो और उसमें खाद्य पदार्थ के सभी प्रकार के गुट शामिल हों। ये वे बिन्दु हैं जिन पर भोजन के संबंध में ध्यान देने की ज़रूरत है।
पाक लुक़मे से ही इंसान की प्रवृत्ति संतुलित रहती है। अपनी मेहनत से हासिल भोजन के सेवन से इंसान संतुष्टि का आभास करता है। विशेषज्ञों का मानना है कि इंसान की हलाल व पाक आजीविका, उसे सेहत व शिफ़ा देती है।
पवित्र क़ुरआन में ऐसी अनेक आयतें हैं जिनमें ऐसे फलों व खाद्य पदार्थ का उल्लेख है जो इंसान की सेहत के लिए बहुत अहम हैं। इस्लामी रवायतों में इन खाद्य पदार्थ के इंसान के व्यवहार व शिष्टाचार पर पड़ने वाले कुछ प्रभाव का उल्लेख किया गया है। जैसा कि इस्लामी रिवायत में आया है, “मुध या शहद खाने से याददाश्त बढ़ती है। खजूर से इंसान में धैर्य आता है।” इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम ज़ैतून खाने की अनुशंसा करते हुए फ़रमाते हैं, “ज़ैतून का तेल खाने से अमाशय साफ़ रहता है, स्नायु तंत्र मज़बूत होता है, इंसान में शिष्टाचार विकसित होता है और आत्मा को सुकून मिलता है।” अंगूर भी उन फलों में है जिससे दुख ख़ुशी में बदल जाता है। आहार विशेषज्ञों का कहना है कि रोज़ा रखने वालों इन फलों व मेवों को अपने खाने में शामिल करना चाहिए।
पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन की वर्षगांठ।
हर आंदोलन और क्रांति के आरंभ और अंत का एक बिंदु होता है।
इस्लामी क्रांति की मुख्य चिंगारी भी उसकी सफलता से पंद्रह साल पहले वर्ष 1963 में फूटी थी। यद्यपि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का चेतनापूर्ण आंदोलन कुछ समय पहले ही शुरू हो चुका था लेकिन 1963 के जून महीने के आरंभ में ईरानी जनता का रक्तरंजित आंदोलन ही था जिसने अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध उन्हें इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में पेश किया। अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध इमाम ख़ुमैनी के पूरे संघर्षपूर्ण जीवन में 15 ख़ुर्दाद या पांच जून का आंदोलन एक अहम मोड़ समझा जाता है और इस्लामी क्रांति को इसी आंदोलन का क्रम बताया जाता है।
यह आंदोलन एक ऐसा संघर्ष था जिसके तीन अहम स्तंभ इस्लाम, इमाम ख़ुमैनी व जनता थे। यद्यपि जून 1963 के इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया और उसके एक साल बाद इमाम ख़ुमैनी को तुर्की और वहां से इराक़ निर्वासित कर दिया गया था लेकिन इसी आंदोलन के बाद ईरान में अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी और उसके अमरीकी समर्थकों के ख़िलाफ़ संघर्ष ने व्यापक रूप धारण कर लिया। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के अस्तित्व में आने की वजह ईरान में नहीं बल्कि ईरान के बाहर थी। 1960 में अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद, जिसमें डेमोक्रेट प्रत्याशी जॉन एफ़ केनेडी विजयी हुए थे, अमरीका की विदेश नीति में काफ़ी बदलाव आया।
केनेडी, रिपब्लिकंज़ के विपरीत तीसरी दुनिया में अपने पिट्ठू देशों के संकटों से निपटने के बारे में अधिक लचकपूर्ण नीति में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अमरीका की पिट्ठू सरकारों में सैनिक समझौतों के बजाए आर्थिक समझौते किए जाने चाहिए, सेना के प्रयोग के बजाए सुरक्षा व गुप्तचर तंत्र को अधिक सक्रिय बनाना चाहिए, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रचलन किया जाना चाहिए, नियंत्रित चुनावों का प्रचार होना चाहिए और तय मानकों वाले प्रजातंत्र को प्रचलित किया जाना चाहिए। असैनिक पिट्ठू सरकारों को सत्ता में लाना इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए केनेडी सरकार के मुख्य हथकंडों में शामिल था।
तत्कालीन ईरानी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी वर्ष 1953 में अमरीका व ब्रिटेन द्वारा ईरान में कराए गए विद्रोह और डाक्टर मुसद्दिक़ की सरकार गिरने के बाद अमरीका की छत्रछाया में आ गया था। उसके पास अपना शाही शासन जारी रखने और अमरीका को ख़ुश करने के लिए केनेडी की नीतियों को लागू करने और दिखावे के सुधार करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था। ये सुधार, श्वेत क्रांति के नाम से ईरानी समाज से इस्लाम को समाप्त करने और पश्चिमी संस्कृति को प्रचलित करने के उद्देश्य से किए जा रहे थे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने शाह के इस्लाम विरोधी षड्यंत्रों की ओर सचेत करते हुए देश की जनता को पिट्ठू सरकार की इन साज़िशों से अवगत कराने का प्रयास किया।
इमाम ख़ुमैनी के भाषणों के कारण श्वेत क्रांति के नाम से शाह के तथाकथित सुधारों के ख़िलाफ़ आपत्ति और विरोध की लहर निकल पड़ी। शाह ने कोशिश की कि फ़ैज़िया नामक मदरसे पर हमला करके और धार्मिक छात्रों व धर्मगुरुओं को मार पीट कर इन आपत्तियों को दबा दे लेकिन हुआ इसके विपरीत और उसकी इन दमनकारी नीतियों के कारण जनता के विरोध में और अधिक वृद्धि हो गई। तेहरान और ईरान के अन्य शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में हर दिन शाह के ख़िलाफ़ जुलूस निकलने लगे, दीवारों पर उसकी सरकार के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी नारे लिखे जाने लगे और इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में वृद्धि होने लगी। वर्ष 1342 हिजरी शमसी में आशूरा के दिन इमाम ख़ुमैनी ने फ़ैज़िया मदरसे में जो क्रांतिकारी भाषण दिया उसके बाद से जनता के आंदोलन में विशेष रूप से क़ुम, तेहरान और कुछ अन्य शहरों में वृद्धि हो गई।
शाह की सरकार और उसके इस्लाम विरोधी कार्यक्रमों में वृद्धि के बाद, शासन ने समझा के उसके पास इमाम ख़ुमैनी को गिरफ़्तार करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है और उसने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी के बाद इस नगर में और फिर तेहरान व अन्य नगरों में जनता के विरोध प्रदर्शनों में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई। शाह की सरकार ने बड़ी निर्दयता व क्रूरता से इन प्रदर्शनों को कुचलने की कोशिश की और सैकड़ों लोगों का जनसंहार कर दिया जबकि हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया। शाह सोच रहा था कि इमाम ख़ुमैनी और उनके साथियों को गिरफ़्तार और पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का दमन करके उसने अपने विरोध को समाप्त कर दिया है।
यह ऐसी स्थिति में था कि इमाम ख़ुमैनी के रुख़ में कोई परिवर्तन नहीं आया था, उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई थी और न ही लोग मैदान से हटे थे। इमाम ख़ुमैनी के, जो अब आंदोलन के नेता के रूप में पूरी तरह से स्थापित हो चुके थे, भाषण जारी रहे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में जो आंदोलन आरंभ हुआ था, वह शाह की अत्याचारी सरकार की ओर से निर्दयतापूर्ण दमन के बावजूद समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह ईरान की धरती में एक बीज की तरह समा गया जो पंद्रह साल बाद फ़रवरी 1979 में एक घने पेड़ की भांति उठ खड़ा हुआ और उसने ईरान में अत्याचारी तानाशाही व्यवस्था का अंत कर दिया।
इमाम ख़ुमैनी ने सन 1979 में इस्लामी क्रांति की सफलता के बरसों बाद पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के बारे में कहा था कि यह आंदोलन इस वास्तविकता का परिचायक था कि अगर किसी राष्ट्र के ख़िलाफ़ कुछ तानाशाही शक्तियां अतिक्रमण और धौंस धांधली करें तो सिर्फ़ उस राष्ट्र का संकल्प है जो अत्याचारों के मुक़ाबले में डट सकता है और उसके भविष्य का निर्धारण कर सकता है। पंद्रह ख़ुर्दाद, ईरानी राष्ट्र का भविष्य बदलने का एक शुभ आरंभ था जो यद्यपि इस धरती के युवाओं के पवित्र ख़ून से रंग गया लेकिन समाज में राजनैतिक व सामाजिक जीवन की दृष्टि से एक नई आत्मा फूंक गया।
इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने इसी प्रकार कहा थाः पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन में जो चीज़ बहुत अहम है वह शाही सरकार की दिखावे की शक्ति का चूर चूर होना था जो अपने विचार में स्वयं को जनता का स्वामी समझ बैठी थी लेकिन एक समन्वित क़दम और एक राष्ट्रीय एकता के माध्यम से अत्याचारी शाही सरकार का सारा वैभव अचानक ही धराशायी हो गया और उसका तख़्ता उलट गया।
पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन ने इसी तरह शाह की सरकार से संघर्ष करने वाले इस्लामी धड़े और अन्य राजनैतिक धड़ों के अंतर को भी पारदर्शी कर दिया। यह आंदोलन ईरानी जनता के बीच एक ऐसे संघर्ष का आरंभ बन गया जो पूरी तरह से इस्लामी था। इस आंदोलन का इस्लामी होना, इसके नेता के व्यक्तित्व से ही पूरी तरह उजागर था क्योंकि इसके नेता इमाम ख़ुमैनी एक वरिष्ठ धर्मगुरू थे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के कारण शाह की सरकार द्वारा बरसों से धर्म और राजनीति को अलग अलग बताने के लिए किया जा रहा कुप्रचार भी व्यवहारिक रूप से विफल हो गया और ईरान के मुसलमानों ने एक ऐसे संघर्ष में क़दम रखा जिस पर चलना उनके लिए नमाज़ और रोज़े की तरह ही अनिवार्य था।
इस्लाम, इस संघर्ष की विचारधारा था और इसके सिद्धांत, क़ुरआन और पैग़म्बर व उनके परिजनों के चरित्र से लिए गए थे। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन की दूसरी विशेषता, शाह की सरकार से संघर्ष के इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में इमाम ख़ुमैनी की भूमिका का अधिक प्रभावी होना था। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व ने राजनीति से धर्म के अलग होने के विचार को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। शाह की सरकार से संघर्ष में इमाम ख़ुमैनी का रुख़, संसार में साम्राज्य विरोधी वामपंथी व धर्म विरोधी संघर्षकर्ताओं जैसा नहीं था बल्कि उनके विचार में यह एक ईश्वरीय आंदोलन था जो धार्मिक दायित्व के आधार पर पूरी निष्ठा के साथ चलाया गया था। इस आंदोलन की तीसरी विशेषता इसका जनाधारित होना था। पंद्रह खुर्दाद के आंदोलन का संबंध किसी ख़ास वर्ग से नहीं था बल्कि समाज के सभी वर्ग इसमें शामिल थे जिनमें शहर के लोग, गांव के लोग, व्यापारी, छात्र, महिला, पुरुष, बूढ़े और युवा सभी मौजूद थे। जिस बात ने इन सभी लोगों को मैदान में पहुंचाया और आपस में जोड़ा था, वह इस्लाम था।
इमाम ख़ुमैनी ने क्रांति के आरंभ में ही अमरीका, ब्रिटेन और सोवियत यूनियन को ईरानी जनता के पिछड़ेपन के लिए दोषी बताया था और विदेशी शक्तियों के साथ संघर्ष आरंभ किया था। ईरान की जनता, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में राजनैतिक स्वाधीनता का सबसे बड़ा जलवा देख रही थी। यही वह बातें थीं जो पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का कारण बनीं थीं और इन्हीं के कारण ईरान की इस्लामी क्रांति भी सफल हुई और इस समय भी यही बातें इस्लामी गणतंत्र ईरान की प्रगति और विकास का आधार बनी हुई हैं। ईरान की क्रांति का इस्लामी होना, जनाधारित होना और जनता की ओर से क्रांति के नेतृत्व का भरपूर समर्थन करना वे कारक हैं जिनके चलते इस्लामी गणतंत्र ईरान पिछले तीस बरसों में अमरीका और उसके घटकों की विभिन्न शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों के मुक़ाबले में सफल रहा है। यही विशेषताएं, क्षेत्रीय राष्ट्रों के लिए ईरान के आदर्श बनने और अत्याचारी व अमरीका की पिट्ठू सरकारों के ख़िलाफ़ आंदोलन आरंभ होने का कारण बनी हैं।
इस्लामी क्रांति, इमाम खुमैनी का सब से बड़ा कारनामा, वरिष्ठ नेता
इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक इमाम खुमैनी की 28वीं बरसी के कार्यक्रम स्थानीय समयानुसार शाम ६ बजे आरंभ हुई जिसमें भाषण देते हुए इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने इमाम खुमैनी के व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं पर प्रकाश डाला और विश्व व ईरान के ज्वलंत मुद्दों पर अपने विचार रखे।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इमाम खुमैनी के बारे में जानकार लोगों ने अब तक बहुत कुछ कहा है किंतु यह बात याद रखनी चाहिए कि इमाम खुमैनी और क्रांति एक दूसरे से जुड़े हैं और इस संदर्भ में अब भी बहुत कुछ कहा जाना बाकी है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इमाम खुमैनी और क्रांति एक दूसरे से अलग नहीं हो सकते और इस्लामी क्रांति, इमाम खुमैनी का सब से बड़ा कारनामा है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि सच्चाई को बार बार दोहराना चाहिए वर्ना उसमें फेर-बदल की संभावना पैदा हो जाती है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि ईरान की इस्लामी क्रांति ईश्वर की कृपा से इमाम खुमैनी द्वारा सफल हुई किंतु वह वास्तव में एक राजनीतिक बदलाव नहीं था बल्कि पूरे समाज को उसकी पहचान के साथ बदलना था।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि इमाम खुमैनी हमारे बीच से उठ गये हैं किंतु उसकी आत्मा हमारे बीच है और उनका संदेश हमारे समाज में जीवित है।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने कहा कि बहरैन में सऊदी अरब की उपस्थिति आतार्किक है किसी दूसरे देश को बहरैन में सैनिक भेजने की क्या ज़रूरत है और वह क्यों किसी राष्ट्र पर अपनी इच्छा थोपना चाहता है।
वरिष्ठ नेता ने कहा कि सऊदी अरब अगर कई अरब डॅालर की रिश्वत से भी अमरीका को अपने साथ करना चाहेगा तब भी उसे सफलता नहीं मिलेगी और वह यमन की जनता के सामन जीत नहीं सकता।
वरिष्ठ नेता ने क्षेत्रीय देशों में प्राॅक्सी वार की दुश्मनों की साज़िश का उल्लेख करते हुए कहा कि आज आतंकवादी गुट दाइश, अपनी जन्मस्थली अर्थात सीरिया और इराक़ से खदेड़ा जा चुका है और अब अफगानिस्तान, पाकिस्तान बल्कि फिलिपीन और युरोप जैसे क्षेत्रों में जा रहा है और यह वह आग है जिसे खुद उन लोगों ने भड़काया था और अब खुद उसका शिकार हो रहे हैं।
वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने इसी प्रकार ईरान में हालिया दिनों में राष्ट्रपति चुनाव के भव्य आयोजन का उल्लेख करते हुए बल दिया कि ज़रा देखें दुश्मन किस सीमा तक दुष्ट है कि अमरीका के राष्ट्रपति एक क़बाइली व अत्याधिक गिरी हुई सरकार के साथ तलवार का नाच नाचते हैं और ईरानी जनता के चार करोड़ के वोटों पर टीका टिप्पणी करते हैं।
इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की बरसी।
शायद ईरानी जनता ने अपने पूरे राजनैतिक जीवन में 4 जून 1989 से ज़्यादा दुखी दिन का अनुभव नहीं किया होगा।
यह वह दिन है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह इस नश्वर संसार से चले गये। एक ऐसी हस्ती जिसने ईरान के इतिहास पर गहरा व निर्णायक असर डाला और साथ ही जनता के इरादे को इस्लामी गणतंत्र ईरान के सांचे में पेश किया। इमाम ख़ुमैनी ईरानी राष्ट्र सहित सारे मुसलमानों के लिए सिर्फ़ एक राजनेता ही नहीं बल्कि वह एक बड़े धर्मगुरू, सादा जीवन बिताने वाले और अत्याचार व अन्याय के ख़िलाफ़ संघर्ष के प्रतीक भी थे। यही वजह है कि इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास को आज 28 साल गुज़रने के बाद भी उनकी याद लोगों के दिलों में उसी तरह बाक़ी और उनकी बातें लोगों के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं।
आज की दुनिया में जो अत्याचार व अन्याय से भरी हुयी है, इमाम ख़ुमैनी की भेदभाव व अतिक्रमण के ख़िलाफ़ डटे रहने की शिक्षाएं, मार्गदर्शक का काम कर रही हैं। उनका मानना था, “इस संसार में पहले इंसान के क़दम रखते ही अच्छे और बुरे लोगों के बीच विवाद का द्वार खुल गया।” इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक इस्लाम को अत्याचारियों के ख़िलाफ़ संघर्ष के लिए प्रेरणा का बेहतरीन माध्यम मानते थे, क्योंकि इस धर्म की शिक्षाओं में अत्याचार के विरोध पर साफ़ तौर पर बल दिया गया है। वह साफ़ तौर पर कहते थे, “हमारे धार्मिक आदेशों ने कि जिनके ज़रिए सबसे ज़्यादा प्रगति की जा सकती है, हमारे लिए मार्ग निर्धारित किए हैं। हम इन आदेशों और दुनिया के महान नेता हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम के नेतृत्व के सहारे उन सभी शक्तियों के ख़िलाफ़ संघर्ष करेंगे जो हमारे राष्ट्र पर अतिक्रमण करने का इरादा रखती हैं।” यही वजह है कि जब हम इमाम ख़ुमैनी के ईरान में अत्याचारी पहलवी शासन, अमरीका और ज़ायोनी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष पर नज़र डालते हैं तो पाते हैं उनका यह संघर्ष इस्लामी मूल्यों के आधार पर था जो अत्याचार को पसंद नहीं करता और अत्याचारियों के ख़िलाफ़ संघर्ष पर बल देता है।
देश के भीतर अत्याचार और विश्व साम्राज्य के ख़िलाफ़ संघर्ष में वीरता और दृढ़ता इमाम ख़ुमैनी के व्यक्तित्व की स्पष्ट विशेषताएं थीं। उनमें ये विशेषताएं ईश्वर पर भरोसे से पैदा हुयी थी। वह हर काम में ईश्वर पर भरोसा करते थे। इस्लामी क्रान्ति के संस्थापक को पवित्र क़ुरआन के मोहम्मद सूरे की आयत नंबर 7 पर गहरी आस्था थी जिसमें ईश्वर कह रहा है, “अगर तुम ईश्वर की मदद करो तो वह तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हारे क़दम जमा देगा।” यही वजह है कि इमाम ख़ुमैनी पहलवी शासन के ख़िलाफ़ संघर्ष के दौरान कभी भी निराश नहीं हुए। अमरीकी हथकंडों और उसकी दुश्मनी के सामने कभी नहीं घबराए। क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ईश्वर को सर्वशक्तिमान मानते थे और उसे अपना और लोगों का मददगार समझते थे। इस महान शक्ति के भरोसे दुनिया के राष्ट्रों को अमरीकी वर्चस्ववाद और आंतरिक स्तर पर मौजूद अत्याचारियों के ख़िलाफ़ प्रतिरोध के लिए प्रेरित करते और उन्हें यह वचन देते थे कि अगर वे ऐसा करेंगे तो सफलता उनके क़दम चूमेगी।
ईश्वर के बाद इमाम ख़ुमैनी जनता की शक्ति पर भरोसा करते थे। उनका मानना था कि अगर आम लोग जागरुक व एकजुट हो जाएं तो कोई भी शक्ति उनके सामने टिक नहीं सकती। इमाम ख़ुमैनी इस्लामी क्रान्ति में जनता की भूमिका के बारे में कहते हैं, “इस बात में शक नहीं कि इस्लामी क्रान्ति के बाक़ी रहने का रहस्य भी वही है जो उसकी सफलता का रहस्य है और राष्ट्र सफलता के रहस्य को जानता है और आने वाली पीढ़ियां भी इतिहास में यह पढेंगी कि उसके दो मुख्य स्तंभ इस्लामी शासन जैसे उच्च उद्देश्य की प्राप्ति की भावना और इस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पूरे राष्ट्र की एकजुटता थी।”
इमाम ख़ुमैनी अपने वंशज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम का अनुसरण करते थे और पवित्र क़ुरआन के फ़त्ह नामक सूरे की अंतिम आयत उन पर चरितार्थ होती थी कि जिसमें ईश्वर कह रहा है, “मोहम्मद ईश्वरीय दूत हैं। जो लोग उनके साथ हैं वे नास्तिकों के ख़िलाफ़ कठोर लेकिन आपस में मेहरबान हैं।” इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह हमेशा देश के अधिकारियों पर बल देते थे कि आम लोगों की मुश्किलों को हल करें। इसी प्रकार वह ख़ुद भी एक मेहरबान पिता के समान आम जनता का समर्थन करते थे। लोग भी उनसे गहरी श्रद्धा रखते थे और उनके निर्देशों को पूरी तनमयता से स्वीकार करते और उस पर अमल करते थे। इमाम ख़ुमैनी व जनता के बीच यह संबंध शाह के पतन के लिए जारी संघर्ष और इराक़ के पूर्व तानाशाह सद्दाम के हमले से ईरान की भूमि की रक्षा के दौरान पूरी तरह स्पष्ट था।
एक ओर इमाम ख़ुमैनी इस्लाम और जनता के दुश्मनों का दृढ़ता से मुक़ाबला करते तो दूसरी ओर इस्लामी जगत के भीतर हमेशा एकता, समरस्ता व भाईचारे के लिए कोशिश करते थे। वह राष्ट्रों से भी और सरकारों से भी एकता की अपील करते हुए बल देते थे, “अगर इस्लामी सरकारें जो सभी चीज़ों से संपन्न हैं, जिनके पास बहुत ज़्यादा भंडार हैं, आपस में एकजुट हो जाएं, तो इस एकता के नतीजे में उन्हें किसी दूसरी चीज़, देश या शक्ति की ज़रूरत नहीं पड़ेगी।” इसके साथ ही इमाम ख़ुमैनी ने इस बिन्दु की ओर भी ध्यान था कि इस्लाम के दुश्मनों के साथ इस्लामी जगत के भीतर भी कुछ सरकारें व गुट मौजूद हैं जो मुसलमानों के बीच एकता के ख़िलाफ़ हैं ताकि इस प्रकार अपने पश्चिमी दोस्तों के हितों का रास्ता समतल करें। इमाम ख़ुमैनी की नज़र में मुसलमानों के बीच एकता के मार्ग में सबसे बड़ी रुकावट सऊदी सरकार है कि जिसका आधार पथभ्रष्ट वहाबी मत की शिक्षाए हैं। एक स्थान पर इमाम ख़ुमैनी फ़रमाते हैं, “जैसे ही एकता के लिए कोई आवाज़ उठती है तो उसी वक़्त हेजाज़ से एक व्यक्ति यह कहता हुआ नज़र आता है कि पैग़म्बरे इस्लाम का शुभ जन्म दिवस मनाना शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद है। मुझे नहीं मालूम कि यह बात किस आधार पर कही जा रही है, यह कैसे अनेकेश्वरवाद हो सकता है? अलबत्ता ऐसा कहने वाला वहाबी है। वहाबियों को सुन्नी मत के लोग भी नहीं मानते। ऐसा नहीं है कि सिर्फ़ हम उन्हें नहीं मानते बल्कि सुन्नी भाई भी उन्हें नहीं मानते।”
इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का मानना था कि वहाबियत एक पथभ्रष्ट विचारधारा है जो मुसलमानों के पिछड़ेपन का कारण बनेगी। जैसा कि मौजूदा दौर में हम यह देख रहे हैं कि इस हिंसक व आधारहीन मत के अनुयायी इराक़, सीरिया, अफ़ग़ानिस्तान, यमन, और लीबिया में लोगों के ख़ून से होली खेल रहे हैं। वास्तव में ये लोग इस्लाम के दुश्मनों की सेवा कर रहे हैं। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह आले सऊद और वहाबियों के बारे में बहुत ही गहरी बात कहते हैं,“क्या मुसलमानों को यह नज़र नहीं आ रहा है कि आज दुनिया में वहाबियत के केन्द्र साज़िश व जासूसी के गढ़ बन चुके हैं जो एक ओर कुलीन वर्ग के इस्लाम, अबू सुफ़ियान के इस्लाम, दरबारी कठमुल्लों के इस्लाम, धार्मिक केन्द्रों व यूनिवर्सिटियों के विवेकहीन लोगों का बड़ा पवित्र दिखने वाले इस्लाम, तबाही व बर्बादी में ले जाने वाले इस्लाम, धन व ताक़त के इस्लाम, धोखा, साज़िश व ग़ुलाम बनाने वाले इस्लाम, पीड़ितों व निर्धनों पर पूंजिपतियों के इस्लाम, और एक शब्द में अमरीकी इस्लाम का प्रचार कर रहे हैं और दूसरी ओर पूरी दुनिया को लूटने वाले अमरीकियों के सामने अपना सिर झुकाते हैं।”
इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह जो बातें सऊदियों की इस्लामी जगत से ग़द्दारी के बारे में कह गए, ऐसा लगता है कि वे हमारे बीच मौजूद हैं और अपनी आंखों से ये होता हुआ देख रहे हैं। जैसा कि पवित्र मक्का में ईरानी श्रद्धालुओं के जनसंहार की बरसी के अवसर पर अपने संदेश में लिखते हैं, “मुसलमान यह नहीं जानता कि यह दर्द किससे बांटे कि आले सऊद इस्राईल को यक़ीन दिलाता है कि हम अपने हथियार तुम्हारे ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं करेंगे और अपनी बात को साबित करने के लिए ईरान के साथ संबंध विच्छेद करता है।”
इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने सभी कठिनाइयों व रुकावटों के बावजूद ईरान में एक ऐसी सरकार की बुनियाद रखी जो पथभ्रष्ट व रूढ़ीवादी वहाबी विचारधारा के मुक़ाबले में प्रगतिशील इस्लाम की प्रतीक और प्रजातांत्रिक है। आज 38 साल गुज़रने के बाद भी इस्लामी गणतंत्र ईरान दुनिया में एक शक्तिशाली शासन के तौर पर पहचाना जाता है कि जिसका आधार इस्लामी सिद्धांत और जनता की राय है।
ईरान में 19 मई को ताज़ा चुनाव आयोजित हुए जो पूरी आज़ादी व प्रतिस्पर्धा के साथ संपन्न हुए कि जिसके दौरान जनता ने अपने मतों से राष्ट्रपति और नगर परिषद के सदस्यों को चुना। यह ऐसा चुनाव है जिसकी सऊदी अरब की जनता सहित फ़ार्स खाड़ी के शाही शासन वाले ज़्यादातर देशों की जनता कामना करती है। इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी नियमों और जनता पर भरोसे के सहारे शुरु में भी शासन व्यवस्था के चयन का अख़्तियार जनता को सौंप दिया और जनता के राय से शासन व्यवस्था का गठन हुआ। इमाम ख़ुमैनी के योग्य उत्तराधिकारी वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई जनता के संबंध में इमाम ख़ुमैनी के दृष्टिकोण के बारे में कहते हैं, “इमाम जब जनता के बारे में बात करते थे तो यह बातें भावनात्मक नहीं होती थीं। जैसे बहुत से देशों के नेताओं की तरह सिर्फ़ बातों की हद तक जनता पर निर्भरता की बातें नहीं करते थे बल्कि वे व्यवहारिक रूप से जनता के स्थान को अहमियत देते थे। ऐसे लोग बहुत कम नज़र आते हैं जो इमाम के जितना आम लोगों से मन की गहराई से प्रेम करे और उन पर भरोसा करे क्योंकि उन्हें जनता की आस्था व वीरता पर भरोसा था।”
इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के बाद उनकी भव्य शवयात्रा और उनकी शोकसभाएं ख़ुद इस बात का पता देती हैं कि आम लोग इमाम ख़ुमैनी से कितनी गहरी श्रद्धा रखते थे। क्योंकि इमाम ख़ुमैनी ऐसे नेता थे जिन्होंने पूरा जीवन आम लोगों के उत्थान के लिए समर्पित कर दिया था और वे मन की गहरायी से आम लोगों से प्रेम करते थे। जनता और इमाम ख़ुमैनी के बीच इस गहरे लगाव की वजह से 38 साल गुज़रने के बाद भी इमाम ख़ुमैनी के क्रान्तिकारी विचार न सिर्फ़ ईरान बल्कि दुनिया के अन्य देशों में लोकप्रिय हो रहे हैं।
क्या मोरनी, मोर के आंसु से गर्भवती होती है ? 1400 साल पहले हज़रत अली (अ) ने जवाब दिया था
हज़रत अली अलैहिस्सलाम, पैगम्बरे इस्लाम के चचेरे भाई और दामाद हैं, उनका जन्म हिजरत से 23 साल पहले ( 601 ईसवी में) मक्का में काबे के भीतर हुआ था। चौथी सदी हिजरी में सैयद रज़ी नामक प्रसिद्ध धर्मगुरु ने उनके कथनों का संकलन प्रकाशित किया जिसे" नहजुलबलागा" कहा जाता है।
यह हज़रत अली अलैहिस्सलाम के कथनों और भाषणों का संकलन है। भारत के राष्ट्रीय पक्षी मोर के बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने एक भाषण दिया था जिसे सैयद रज़ी ने " नहजुलबलागा" में लिखा है। नहजुल बलागा में दर्ज भाषण नंबर 165 में हज़रत अली ने विस्तार से मोर और उसकी रचना पर बात की है, एक हिस्सा इस तरह हैः
... रचना की दृष्टि से सबसे अधिक आश्चर्यजनक, ''मोर '' होता है जिसे उसने अत्यधिक मज़बूत संतुलन से बनाया और उसके रंगों को अत्यधिक व्यवस्था से सजाया है, ऐसे पंख दिए जिसके पर एक दूसरे पर चढ़े हुए हैं और लम्बी दुम बनाई कि जब वह अपनी मादा के पास जाता है तो उसे फैला कर उससे छतरी की भांति अपने सिर पर छाया कर लेता है जैसे वह किसी नौका का बादबान हो जिसे माँझी ने फैला दिया हो। अपने रंगों पर इतराता है, मस्ती में अपनी दुम इधर-उधर हिलाता है, मुर्ग़ों की भांति समागम करता है और कामेच्छा में मस्त होकर नर की भांति मादा को गर्भवती करता है। यदि विश्वास नहीं है तो तुम स्वयं जाकर देख लो, मैं उस व्यक्ति की भांति नहीं हूँ जो कमज़ोर हवालों का सहारा लेता हो। यदि कोई यह सोचता है कि मोर अपनी आँखों से निकलने वाले आँसू की बूंद से अपनी मादा को गर्भवती करता है इस प्रकार से कि आँसू की बूंद उसकी पलकों पर ठहरती है और उसकी मादा उसे पी जाती है जिसके बाद वह यही आँसू पीने के कारण अंडे देती है न कि नर के समागम के कारण तो उसकी यह सोच उस व्यक्ति की सोच से अधिक आश्चर्यजनक नहीं है जो यह समझता है कि कौआ, अपनी चोंच से मादा को चारा खिला कर गर्भवती करता है। ''
( नहजुलबलागा भाषण 165)