رضوی

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 कुरआन में अल्लाह ने मुमिनों को हिम्मत और ताकत से लैस होने की सलाह दी है ताकि वे न केवल अपने आप को बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित रख सकें।

हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनेई ने फरमाया,कुरआन में अल्लाह ने मुमिनों को हिम्मत और ताकत से लैस होने की सलाह दी है ताकि वे न केवल अपने आप को बल्कि दूसरों को भी सुरक्षित रख सकें।

दुश्मन जब महसूस करता है कि आप कमज़ोर हैं तो यह एहसास उसे हमले पर उकसाता है और जब वह महसूस करता है कि आप ताक़तवर हैं तो अगर वो हमले का इरादा रखता भी होगा तो दोबारा सोचने पर मजबूर हो जाता है।

इसलिए अल्लाह फ़रमाता हैः “ताकि तुम उस (जंगी तैयारी) से ख़ुदा के दुश्मन और अपने दुश्मन को ख़ौफ़ज़दा कर सको।” (सूरए अन्फ़ाल, आयत-60)

इस तैयारी से जिस पर क़ुरआन मजीद में बल दिया गया है कि जिससे दुश्मन ख़ौफ़ज़दा हो सके, मुल्क में शांति वसुरक्षा क़ायम है। इसीलिए आप देखते हैं कि एक मुद्दत तक(अमरीकी) बार बार कहा करते थे कि फ़ौजी कार्यवाही का आप्शन मेज़ पर है।

अब काफ़ी समय से यह बात दोहराई नहीं जाती। यह बात महत्वहीन हो गयी है, वो जानते हैं कि यह बात निरर्थक हो चुकी है। ये आपकी सलाहियतों की वजह से है।

गुरुवार, 16 अक्टूबर 2025 11:51

क़यामत, अल्लाह तआला की रहमत, दया

क़यामत, अल्लाह तआला की रहमत, दया, हिकमत, नीति और उसके न्याय की नुमाइश का स्थान है इस बारे में क़ुर्आने मजीद में यह फ़रमाता हैः

उसने अपने ऊपर रहमत को लिख लिया है निश्चित रूप से वह तुम्हे क़यामत के दिन एक जगह जमा करेगा, जिसमें कोई शक नहीं है।

रहमत, अल्लाह तआला के उन गुणों में से जिन्हें सिफ़ाते कमालिया कहा जाता है और जिसका मतलब यह है कि अल्लाह तआला मख़लूक़ात (जीवों) की ज़रूरतों का पूरा करने वाला है और उनमें से हर एक को उसके कमाल व कौशल की तरफ़ रहनुमाई करके इसके मुनासिब व उचित स्थान तक पहुँचाता है। इंसानी ज़िन्दगी की विशेषताएं साफ़ तौर पर इंसान की अबदी व अनन्त ज़िन्दगी को बयान करती हैं इसलिए एक ऐसी जगह होना ज़रूरी है कि जहाँ इंसान अबदी ज़िन्दगी बिता सके।

क़यामत अल्लाह की नीति के अनुसार भी है क्योंकि यह दुनिया, कि जो लगातार हरकत और तब्दीली में है अगर यह उस प्वाइंट तक न पहुँचे कि जहाँ ठहराव हो तो यह दुनिया अपने आख़री लक्ष्य, मक़सद और मंज़िल तक नहीं पहुँचेगी और अल्लाह तआला से जो हर प्रकार से हकीम व नीतिज्ञ है, बेमक़सद काम अन्जाम पाना असम्भव है, जैसा कि इरशाद होता हैः

क्या तुमने यह सोच रखा है कि हमने तुमको बेकार पैदा किया है और तुम हमारी तरफ़ पलटा कर नहीं लाये जाओगे?
दूसरे स्थान पर यह बयान करने के बाद कि आसमान और ज़मीन और जो कुछ इनके बीच है अल्लाह तआला ने उन सब को बेकार पैदा नहीं किया है। क़यामत को बयान करने के बाद यह फ़रमाता हैः

क़यामत का एक और फ़लसफ़ा यह है कि अच्छे और बुरे तथा मोमिन और काफ़िर के बारे में अल्लाह तआला का न्याय पूरी तरह से लागू हो जाए क्योंकि दुनिया में सारे इन्सानों के एक साथ ज़िन्दगी गुज़ारने के आधार पर अल्लाह तआला के न्याय के अनुसार इनाम व सज़ा देने के क़ानून पर पूरी तरह अमल नामुमकिन है इस आधार पर एक ऐसी जगह का होना ज़रूरी है कि जहाँ अल्लाह तआला के इनाम व सज़ा पर आधारित क़ानून के लागू होने का इमकान पाया जाता हो, इस बारे में क़ुरआने मजीद में इरशाद होता हैः

 क्या हम मोमिनों और अच्छे काम करने वालों को ज़मीन पर फ़साद व उपद्रव फैलाने वालों और परहेज़गारों व सदाचारियों को गुनाहगारों व पापियों के बराबर क़रार देंगे?

इसी तरह इरशाद होता हैः

क्या हम बात मानने वालों को अपराधियों के बराबर क़रार देंगे, तुम्हे क्या हो गया है, कैसे फ़ैसला करते हो?

 

हज़रत आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा: जो व्यक्ति लापरवाह हो और बिना सोच-विचार के कोई कदम उठाए, उसे पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा; लेकिन जो व्यक्ति एहतियात, दूरअंदेशी और समझ-बूझ का मालिक हो, वह सलामती और सफलता हासिल करेगा।

मस्जिद-ए-अज़म क़ुम मे हज़रत आयतुल्लाह जवादी आमोली में साप्ताहिक दर्स-ए-अख़लाक़ में लोगों की बड़ी संख्या मौजूद थी। जिसमे आप ने कहा: जो व्यक्ति लापरवाह हो और बिना सोच-विचार के कोई कदम उठाए, उसे पछतावे के सिवा कुछ नहीं मिलेगा; लेकिन जो व्यक्ति एहतियात, दूरअंदेशी और समझ-बूझ का मालिक हो, वह सलामती और सफलता हासिल करेगा।

आपने नहजुल बलाग़ा की 181वीं हिकमत की तफ़सीर में कहा: “ثَمَرَةُ التَّفْرِیطِ النَّدَامَةُ، وَثَمَرَةُ الْحَزْمِ السَّلَامَةُ समरतुत तफ़रीतिन निदामतो, व समरतुल हज़्मिस सलामतो” यानी लापरवाही और कोताही का परिणाम पछतावा है, और सतर्कता व दूरअंदेशी का फल सलामती है। इंसान को बिना सोच-विचार, समझ और दूरअंदेशी के कोई काम नहीं करना चाहिए, क्योंकि उसका व्यक्तिगत आचरण समाज से जुड़ा होता है और हर निजी फ़ैसला सामाजिक व्यवस्था पर असर डालता है।

हज़रत आयतुल्लाह जवादी आमोली ने कहा कि अक़्ल-ए-नज़री (सिद्धांतक बुद्धि) सोच-विचार और हक़-बातिल की पहचान की ज़िम्मेदार है, जबकि अक़्ल-ए-अमली (व्यावहारिक बुद्धि) निर्णय और इच्छा की ज़िम्मेदार होती है। ये दोनों तंत्र एक-दूसरे से अलग हैं, लेकिन मज़बूत रूह, इंसानी नफ़्स और ईमान ही इन दोनों को समन्वित करता है ताकि इंसान की ज़िंदगी सही रास्ते पर आगे बढ़े।

उन्होंने कहा कि असली जिहाद-ए-दाख़िली (आंतरिक संघर्ष) यह है कि इंसान अपनी आंतरिक शक्तियों को पहचान ले, हर एक की जिम्मेदारी समझे और उन्हें इस तरह समायोजित करे कि उससे सही निर्णय और नेक अमल प्रकट हो। हौज़ा और विश्वविद्यालयों में जो काम होता है, वह अक़्ल-ए-नज़री के दायरे में आता है, जिसका उद्देश्य ज्ञान और शिक्षा के ज़रिए अज्ञानता मिटाना है। लेकिन नैतिक शिक्षकों और सामाजिक सुधारकों का काम अक़्ल-ए-अमली का क्षेत्र है, जो व्यवहारिक अज्ञानता (मुर्खता) को दूर करते हैं। अज्ञानता मनुष्य के निर्णयों और व्यावहारिक व्यवहार में दिखाई देती है; जैसे समाज का प्रशासन या जीवन की जिम्मेदारियाँ। जबकि अनजानेपन का संबंध जानकारी की कमी से है।

उन्होंने एक प्रसिद्ध हदीस का हवाला देते हुए कहा: “رُبَّ عَالِمٍ قَدْ قَتَلَهُ جَهْلُهُ، وَ عِلْمُهُ مَعَهُ لَا یَنْفَعُهُ रुब्बा आलेमिन क़द कतलहू जहलेहू, व इल्मोहू मअहू ला यंफ़ओहू” — कितने ही लोग ज्ञान रखते हैं लेकिन अपने अज्ञान के कारण विनाश को प्राप्त होते हैं और उनका ज्ञान उन्हें कोई लाभ नहीं देता। बहुत से लोग पढ़े-लिखे होते हैं मगर उनके व्यवहार में अज्ञानता उतर आती है और वे अपने निर्णयों में बुद्धिमानी से काम नहीं लेते। इसलिए इंसान को चाहिए कि उसका आंतरिक निर्णय-निर्माण केंद्र अक़्ल और परहेज़गारी के आधार पर काम करे, और वही उसके व्यवहार को संचालित करे। केवल ज्ञान काफी नहीं है; बहुत से ज्ञानी लोग व्यावहारिक अक़्ल और सही निर्णय लेने की क्षमता न होने के कारण अपने आचरण में अज्ञानता का शिकार हो जाते हैं।

उन्होंने नहजुल-बलाग़ा की 48वीं हिकमत का हवाला देते हुए कहा कि व्यक्तिगत और सामाजिक सफलता तभी मिलती है जब निर्णय ठीक सोच-विचार, सलाह-मशवरे और विचारों के विश्लेषण पर आधारित हो। सही सोच तभी पूरी होती है जब इंसान राज़दारी और भेद-रक्षा का पालन करे।

अंत में हज़रत आयतुल्लाह जवादी आमोली ने दोबारा ज़ोर देकर कहा: जो व्यक्ति लापरवाही से काम करता है उसे पछतावा ही मिलेगा, लेकिन जो सोच-समझकर, एहतियात और दूरअंदेशी से काम करता है, वह सलामती और सफलता पाएगा।

 

आयतुल्लाह मोहसिन अराकी ने प्रांतीय धार्मिक शिक्षण केंद्रों के प्रचार विभागों के अधिकारियों के बीच कहा कि शर्म-अश-शैख़ सम्मेलन इस्लामी देशों के कुछ नेताओं के लिए ट्रंप के सामने अपमान का दृश्य था। ट्रंप ने मुस्लिम देशों के प्रमुखों का अपमान किया, जबकि वही लोग इज़राईल और अमेरिका की सेवा में लगे रहते हैं। मिस्र के राष्ट्रपति, जिन्होंने वर्षों तक प्रतिरोध को खत्म करने की कोशिश की, ट्रंप के सामने अपमानित हुए।

आयतुल्लाह मोहसिन अराकी ने प्रांतीय धार्मिक शिक्षण केंद्रों के प्रचार विभागों के अधिकारियों के बीच कहा कि शर्म-अश-शैख़ सम्मेलन इस्लामी देशों के कुछ नेताओं के लिए ट्रंप के सामने अपमान का दृश्य था। ट्रंप ने मुस्लिम देशों के प्रमुखों का अपमान किया, जबकि वही लोग इज़राईल और अमेरिका की सेवा में लगे रहते हैं। मिस्र के राष्ट्रपति, जिन्होंने वर्षों तक प्रतिरोध को खत्म करने की कोशिश की, ट्रंप के सामने अपमानित हुए।

उन्होंने कहा कि दुश्मन का सबसे ख़तरनाक हथियार "मनोवैज्ञानिक युद्ध" है। सैन्य युद्ध में दुश्मन हार जाएगा, लेकिन संघर्ष से पहले वह भय, भ्रम और निराशा पैदा कर हमें कमजोर करता है। हमारा फ़र्ज़ है कि इस मानसिक युद्ध का सामना करें और दुश्मन को दिखाएँ कि हम वास्तव में शक्तिशाली हैं।

आयतुल्लाह अराकी ने कहा कि इस्लामी क्रांति की सफलता और उपलब्धियों को खासकर युवा पीढ़ी के सामने रखना बेहद ज़रूरी है, ताकि वे समझ सकें कि दुश्मन क्रांति से क्यों नफ़रत करता है और उनका ईमान व अंतर्दृष्टि मज़बूत हो।

उन्होंने कहा कि दुनिया ने ईरान की प्रशंसा की कि उसने उस सम्मेलन में भाग नहीं लिया—यह इज़्ज़त हमारे ईमान और आत्मनिर्भरता का फल है। हमें यह देखना चाहिए कि मानसिक मोर्चे पर हमने कितना काम किया और आगे कैसी रणनीति अपनाएँ।

आयतुल्लाह अराक़ी ने स्पष्ट किया कि ईमान ताक़त और आत्मविश्वास का स्रोत है। जो समाज ईमान रखता है, वह न डरता है और मुश्किलों को पार करता है। उन्होंने कुरआन की आयत पढ़ी: ":وَلَا تَهِنُوا وَلَا تَحْزَنُوا وَأَنتُمُ الْأَعْلَوْنَ إِن کُنتُم مُّؤْمِنِینَ वला तहेनू वला तहज़नू व अन्तुमुल आलौना इन कुन्तुम मोमेनीन]"—सुस्ती न करो, उदास मत हो; यदि मोमिन हो, तो तुम ही श्रेष्ठ हो।

उन्होंने कहा कि हमें इस्लाम के शुरुआती युद्धों—जैसे ख़ैबर,अहज़ाब—को आज के लिए एक पाठशाला के रूप में समझाना चाहिए। ये केवल युद्ध नहीं थे, बल्कि ईमान, बहादुरी और समझदारी के सबक थे। जब मोमिनों ने कठिन हालात में ईमान के सहारे विजय पाई, उसी तरह आज भी वही यक़ीन हमें मानसिक और सांस्कृतिक हमलों से बचा सकता है। उन्होंने बताया कि हर काम में सफलता की कुंजी "ख़ालिस नियत" है। अगर कार्य अल्लाह के लिए होगा, तो वह मदद और तौफ़ीक़ देगा। प्रचार और सांस्कृतिक कार्य तब ही असर डालेंगे जब नीयत ईमानदार और दिशा इलाही होगी। उन्होंने कहा कि हमें अपने शैक्षिक व प्रचार तंत्र को इस्लामी सिद्धांतों पर बनाना चाहिए—जहाँ ईमान, यक़ीन और इमाम व विलायत की इताअत हर कदम की नींव हो। हमारे सभी निर्णय निश्चितता और अंतर्दृष्टि पर टिके हों।

अंत में आयतुल्लाह अराकी ने ज़ोर दिया कि अगर हम यक़ीन पर अडिग रहें, तो दुश्मन मानसिक युद्ध में हमें परास्त नहीं कर सकता। उन्होंने प्रचारकों और सांस्कृतिक अधिकारियों से अपील की कि योजना-बद्ध तरीक़े से काम करें, युवाओं को इस्लामी क्रांति के आदर्शों, इतिहास और ईरान की क्षमताओं से परिचित कराएँ और सांस्कृतिक मोर्चे को दुश्मन के मानसिक हमले के सामने मज़बूत क़िला बना दें।

 

मिस्र के पुरातत्व विभाग ने उस स्थान का पता लगाने का दावा किया है जहां उसके अनुसार अल्लाह ने पहली बार हज़रत मूसा (अ.स.) को संबोधित किया था।

अलआरबिया डॉट नेट की रिपोर्ट के अनुसार मिस्र के पुरातत्व विभाग ने जिस स्थान का पता लगाया है वह स्थान वही है जहां अल्लाह ने अपने पैग़म्बर हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहा था 'अपने जूते उतार दो, तुम पवित्र स्थान पर खड़े हो।

मिस्र के पुरातत्व विभाग के वरिष्ठ अधिकारी डॉक्टर अब्दुल रेहान ने बताया कि मिस्र में स्थित सीना के पहाड़ में मौजूद पवित्र स्थान “सेंट कैथरीन” वह स्थान है जहां अल्लाह ने हज़रत मूसा अ.स को संबोधित किया।

डॉक्टर रेहान का मानना है कि यही वह बातें हैं जो अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मोहम्मद स.ल. से की हैं जो पवित्र क़ुरान में भी मौजूद है।

अब्दुल रेहान बताते हैं कि सभी अनुसंधान रिपोर्टों से यह सिद्ध होता है कि यह वही स्थान है जहां अल्लाह ने प्रत्यक्ष्य रूप से हज़रत मूसा से वार्ता की थी। डॉक्टर रेहान के शोध के अनुसार इस पवित्र स्थान में एक ऐसी झाड़ी मौजूद है जिसके बारे में माना जाता है कि ये जलने वाली झाड़ी है जहां अल्लाह ने हज़रत मूसा से बात की।

उल्लेखनीय है कि है कि इससे पहले यह बात तो सबको पता थी कि अल्लाह ने मिस्र में मौजूद सीना पहाड़ पर, जिसको “तूर का पहाड़ भी कहते हैं”, हज़रत मूसा से बात की थी मगर किसी स्पष्ट स्थान के बारे में यह दावा पहली बार सामने आया है।

 

सामान्य धारणा के विपरीत, बच्चों के बीच झगड़ा वास्तव में उनके नैतिक और सामाजिक विकास का एक साधन बन सकता है। इस साक्षात्कार में बचपन से लेकर किशोरावस्था तक झगड़े के विभिन्न चरणों और इस चुनौती को अवसर में बदलने के व्यावहारिक तरीकों की व्याख्या की गई है।

क्या आपके बच्चों के दैनिक झगड़े आपको परेशान कर रहे हैं? क्या आप अपने किशोर भाई-बहनों के लगातार झगड़े से असहाय महसूस करते हैं? यह सवाल अक्सर माता-पिता के दिमाग में आता है: "क्या ये झगड़े सामान्य हैं या यह हमारे परिवार में किसी गहरी समस्या का संकेत है?"

इस बातचीत में ज़हरा इब्राहीमी, एक शोधकर्ता और इस्लामिक प्रचार कार्यालय में नैतिक शिक्षा की विशेषज्ञ, ने इस मुद्दे की इल्मी और अमली जांच की है। यह साक्षात्कार व्यावहारिक सुझाव देकर एक शांतिपूर्ण और विकासशील परिवार की नींव रखने का प्रयास करता है।

किशोरावस्था में भाई-बहनों के बीच झगड़े के कारणों को समझने के लिए इस उम्र की विशेषताओं को जानना आवश्यक है। अगर हम किशोर को सही ढंग से समझ लें, तो हम उनके बीच मतभेदों और झगड़ों की जड़ों को बेहतर ढंग से जान सकते हैं।

यह शैक्षिक बातचीत, परिवारों की शैक्षिक जागरूकता में सुधार लाने की उम्मीद में, विशेषज्ञों, माता-पिता और प्रिय पाठकों के सामने प्रस्तुत की जा रही है।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम

नौजवानी में भाई-बहनों के बीच झगड़ों के कारणों को समझने के लिए इस उम्र की विशेषताओं को जानना जरूरी है। अगर हम किशोर को ठीक से समझ लें, तो हम उनके बीच मतभेदों और झगड़ों की जड़ों को बेहतर ढंग से जान सकते हैं।

उदाहरण के लिए, नौजवानो की एक विशेषता स्वायत्तता की भावना है। जहां भी नौजवान को लगता है कि उसकी स्वायत्तता को खतरा है, वहां झगड़ा हो सकता है।

इसी तरह, भावनात्मक प्रतिक्रिया इस उम्र की एक अन्य विशेषता है। यानी नौजवान छोटी से छोटी बात पर तीव्र भावनात्मक प्रतिक्रिया दे सकता है।

ये प्रतिक्रियाएं जो इस उम्र के लिए पूरी तरह स्वाभाविक और विशिष्ट हैं, कभी-कभी झगड़े का कारण बनती हैं। ऐसे अवसरों पर, हो सकता है कि उसके भाई या बहन ने कोई विशेष काम न किया हो या कोई विशेष परेशानी न दी हो, लेकिन भावनात्मक संवेदनशीलता के कारण झगड़ा हो जाता है।

मतभेद पैदा करने में माता-पिता की केंद्रीय भूमिका

जब हम भाई-बहनों के बीच झगड़े और लड़ाई के कारण जानना चाहते हैं, तो हमें केवल नौजवानो को ही केंद्रीय दोषी नहीं मानना चाहिए। कभी-कभी नौजवान खुद इन झगड़ों में दोषी नहीं होते। इस संबंध में एक महत्वपूर्ण कारक माता-पिता का लगातार तुलना करना है। जब माता-पिता बार-बार बच्चों की आपस में तुलना करते हैं, तो उनके बीच एक अस्वास्थ्यकर प्रतिस्पर्धा की भावना पैदा होती है। इस तरह भाई-बहन धीरे-धीरे एक-दूसरे की नजर में गिर जाते हैं।

कई मामलों में, माता-पिता अपने बच्चों के बीच अंतर करते हैं। एक को पसंदीदा, बेहतर या अधिक प्यारा बच्चा मानते हैं और दूसरे को अनजाने में नजरअंदाज कर देते हैं। यही व्यवहार उनके बीच झगड़े और मतभेदों को बढ़ाने का कारण बनता है।

अगर हम मामले को गहराई से देखें, तो इन झगड़ों का एक कारण नौजवानो में "ध्यान की आवश्यकता" की भावना है। नौजवान चाहता है कि उसे देखा जाए और वह ध्यान पाने के तरीके ढूंढता है। यह मामला भी परिवार के काम करने के तरीके से जुड़ा हुआ है। जब माता-पिता अपने बच्चे को सही ढंग से नहीं देखते, उसकी प्रशंसा नहीं करते, आवश्यक प्यार नहीं देते और लगातार डांटते हैं, तो नौजवान इस भावनात्मक खालीपन को भरने के लिए हर संभव प्रयास करता है। ऐसी स्थिति में, लड़ाई अपनी उपस्थिति दर्ज कराने और ध्यान पाने के लिए एक प्रतीकात्मक कार्य बन सकती है।

जैसा कि बताया गया है, भाई-बहनों के झगड़े में माता-पिता की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि नौजवान इस उम्र में बहुत संवेदनशील होता है और जल्दी नाराज हो जाता है। यह संवेदनशीलता इस उम्र की विशिष्ट मनोवैज्ञानिक संवेदनशीलता के कारण होती है। परिणामस्वरूप, नौजवान मामूली सी नाइंसाफी या अन्याय पर भी तीव्र प्रतिक्रिया देता है, चाहे माता-पिता के नजरिए से उसका कोई अक़ली कारण ही क्यों न हो, और परेशान हो जाता है।

दूसरी ओर, कुछ झगड़े भाई-बहनों के अपने व्यवहार और एक-दूसरे की सीमाओं की अनजानी के कारण होते हैं। निजता, अकेलापन और शांति की आवश्यकता जैसी शारीरिक और मनोवैज्ञानिक सीमाएं, अक्सर नौजवानो के लिए गंभीर होती हैं। जब उनमें से कोई अपने कमरे में अकेला रहना चाहता है, अपने मोबाइल फोन पर बात कर रहा हो या किसी से निजी तौर पर चैट कर रहा हो, तो दूसरे भाई या बहन का बिना अनुमति के अंदर आना या सिर्फ जिज्ञासा में देखना उसकी निजता पर हमला माना जा सकता है और झगड़े का कारण बन सकता है।

इन सीमाओं की अनजानी और हर व्यक्ति की निजी सीमाओं का सम्मान न करना, एक महत्वपूर्ण कारक है जो किशोरों के बीच विवाद का कारण बन सकता है।

उम्र के अंतर का झगड़ों पर प्रभाव

एक और बात जिस पर ध्यान देने की आवश्यकता है, वह है उम्र के अंतर का प्रभाव। बच्चों के बीच उम्र का अंतर जितना कम होगा, उनके बीच झगड़े की संभावना उतनी ही अधिक होगी। यह एक स्वाभाविक बात है। क्योंकि जिन बच्चों की उम्र में थोड़ा सा अंतर होता है (उदाहरण के लिए एक या दो साल), उनकी समझ, पहचान और परिपक्वता का स्तर एक जैसा होता है और कोई भी इतना बड़ा नहीं होता कि उससे अधिक समझदार व्यवहार की उम्मीद की जा सके। इसके विपरीत, जब उम्र का अंतर अधिक होता है और एक बड़ा होता है और दूसरा छोटा, तो माता-पिता के लिए मामले को संभालना बहुत आसान हो जाता है। इसलिए, जिन बच्चों की उम्र में थोड़ा सा अंतर हो या वे जुड़वां हों हम उनके बीच अधिक झगड़े देखेंगे। 

झगड़ा: विकास का एक अनिवार्य हिस्सा

यह उम्मीद कि भाई-बहनों के बीच झगड़ा पूरी तरह खत्म हो जाए, एक अवास्तविक सपना और गलत अपेक्षा है। जैसा कि बताया गया है, इन लड़ाइयों की कई जड़ें बचपन और किशोरावस्था की प्राकृतिक और विकासात्मक विशेषताओं से जुड़ी हैं। ये झगड़े नौजवान की पहचान बनाने और विकास की प्रक्रिया का एक अनिवार्य हिस्सा हैं।

इन झगड़ों को पूरी तरह खत्म करने की उम्मीद करना वास्तव में मानव की प्राकृतिक विकास प्रक्रिया को नजरअंदाज करना है।

मैं माता-पिता के रूप में इन मतभेदों पर ध्यान कैसे दिलाऊँ?

जब नौजवान झगड़े की स्थिति में होता है, तो वह भावनाओं के अधीन होता है, और उसका दिमाग केवल अपने बचाव या जीत पर केंद्रित होता है, इसलिए उस समय कोई भी सलाह या तर्क असरदार नहीं होता।

असली समस्या हमारे पालन-पोषण के तरीके में है। हम बच्चों को एक जैसा बनाने पर जोर देते हैं, बजाय इसके कि उनके आपसी अंतर को समझें और उसे स्वीकार करना सिखाएं।

माता-पिता के रूप में, बेहतर तरीका यह है कि बच्चों को यह सिखाया जाए कि वे एक-दूसरे के अंतरों को पहचानें और उनका सम्मान करें। अगर उन्हें यही समझाया जाए कि सभी को एक जैसा होना चाहिए, तो उनके झगड़े कभी नहीं खत्म होंगे। सही पालन-पोषण यह है कि हर बच्चे को उसकी व्यक्तिगतता के साथ स्वीकार किया जाए।

झगड़े के समय माता-पिता को यह समझना चाहिए कि उस पल नसीहत या शिक्षा देने का समय नहीं होता, क्योंकि भावनात्मक तीव्रता के कारण बच्चा सुनने या सोचने की स्थिति में नहीं होता।

ऐसे में माता-पिता का असली कर्तव्य भावनाओं को संभालना है, न कि तुरंत हस्तक्षेप करना। अगर झगड़ा छोटा है तो बेहतर है कि माता-पिता सीधे हस्तक्षेप न करें और माहौल को शांत होने दें।

जब भावनाएं शांत हो जाएं, तो उसके बाद बच्चे से शांत और निर्माणात्मक बातचीत की जाए।

अगर झगड़े के समय बच्चे माफी या नरमी नहीं दिखा पाते, तो इसका मतलब है कि नैतिक मूल्य अभी तक उनके दिल में जमे नहीं हैं — शायद इसलिए कि माता-पिता ने खुद भी उन मूल्यों को अपने जीवन में मजबूती से नहीं अपनाया है।

 

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शिया धर्म विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर मौलाना असग़र एजाज़ काएमी की अरबी कविता की पुस्तक नुज़हतुल आतिरा फी फज़ाइलिल अतरतिल ताहिरा' का पिछले दिनों इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, दिल्ली में तकरीबी समारोह आयोजित किया गया।

अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के शिया धर्म विभाग के प्रोफेसर डॉक्टर मौलाना असग़र एजाज़ काएमी की अरबी कविता की पुस्तक नुज़हतुल आतिरा फी फज़ाइलिल अतरतिल ताहिरा' का पिछले दिनों इंडिया इस्लामिक कल्चरल सेंटर, दिल्ली में तकरीबी समारोह आयोजित किया गया।

इस समारोह में ईरान गणराज्य के राजदूत डॉक्टर इराज इलाही, भारत में इस्लामी गणराज्य ईरान के सर्वोच्च नेता आयतुल्लाहिल-उज़मा सैयद अली खामेनेई के प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन डॉक्टर अब्दुल मजीद हकीम इलाही और मौलाना सैय्यद अकील अलग़रवी उपस्थित थे।

इस अवसर पर अहलेबैत के कवि और संयोजक डॉक्टर असग़र इजाज़ काएमी ने इन तीनों महत्वपूर्ण हस्तियों की सेवा में अपनी पुस्तक भेंट की और मौलाना सैय्यद अकीलुल ग़रवी ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि इस पुस्तक के माध्यम से डॉक्टर काएमी की अरबी साहित्य में अनमोल सेवा को माना जाना चाहिए।

 

गुनाहगार और ज़ालिम लोग कम मुश्किलात में क्यों मुब्तिला नज़र आते हैं और उनकी ज़िन्दगी बेहतर दिखाई देती है? यह वो सवाल है जिसका हुज्जतुल इस्लाम क़राअती, जो कुरआन के उस्ताद और मुफस्सिर हैं, एक वाज़ेह और दिलचस्प मिसाल के साथ खूबसूरत जवाब देते हैं।

यह सवाल बहुत से लोगों के ज़हन में आता है। जब हम देखते हैं कि कुछ लोग न ख़ुदा और रसूल को मानते हैं न ही रहमदिल हैं और न ही नेककार मगर फिर भी उनकी ज़िन्दगी सुकून, ख़ुशी और आसाइश में गुज़रती है जबकि अहले ईमान तरह-तरह की मुसीबतों और आज़माइशों में मुब्तिला नज़र आते हैं तो दिल में ये ख़्याल पैदा होता है कि शायद ख़ुदा उन बे-ईमानों पर ज़्यादा मेहरबान है।

इसी नुक्ते की वज़ाहत हुज्जतुल इस्लाम मोहसिन क़राएती अपने दर्से कुरआन में करते हैं।

वो फ़रमाते हैं,हम कहते हैं कि अगर लोग ज़कात न दें तो बारिश नहीं होगी, मगर कुछ लोग जवाब देते हैं,जनाब! फलाँ मुल्क के लोग तो दीन को मानते ही नहीं मगर वहाँ तो सुबह-शाम बारिश होती रहती है!

हम कहते हैं अगर गुनाह करोगे तो सज़ा मिलेगी वो कहते हैं,साहब! फलाँ शख़्स के गुनाह तो हमसे ज़्यादा हैं मगर उसके साथ तो कुछ भी नहीं होता, बल्कि उसकी ज़िन्दगी तो बड़ी ख़ुशी से गुज़र रही है!

यहाँ एक नुक्ता है जिसे समझना ज़रूरी है।

उस्ताद क़राएती मिसाल देते हैं: जब चाय का एक क़तरा चश्मे पर गिरता है, हम फ़ौरन कपड़ा लेकर साफ़ कर देते हैं।

अगर यही क़तरा कपड़ों पर गिर जाए तो कहते हैं: चलो रहने दो, बाद में धो लेंगे।

और अगर चाय कालीन या फ़र्श पर गिर जाए तो कहते हैं अभी नहीं, बाद में मसलन ईद से पहले धो लेंगे।

यानी हम ख़ुद भी तीन तरह के रवैये रखते हैं।

इसी तरह ख़ुदा भी अपने बन्दों के साथ मुख़्तलिफ़ अंदाज़ में बरताव करता है।

अगर कोई शफ़ाफ़ दिल या नेक बन्दा गुनाह करे तो ख़ुदा फ़ौरन उसे मुतवज्जह करता है ताकि वह जल्दी तौबा कर ले।

लेकिन अगर कोई गुनहगार और बदकार शख़्स हो तो ख़ुदा उसे फ़ौरन नहीं पकड़ता बल्कि कहता है अभी नहीं बाद मे।

और अगर वह बहुत ही बद-किरदार हो तो ख़ुदा उसकी सज़ा को "क़यामत" के लिए मोख़र कर देता है।

मुसीबतों पर भी शुक्र ज़रूरी है

उस्ताद क़राएती के मुताबिक कभी-कभी ख़ुदा अपने बन्दे को मुश्किलात और आज़माइशों में मुब्तिला करता है, जिनके पीछे यक़ीनन कोई हिकमत छिपी होती है।

वो फ़रमाते हैं,हमें सिर्फ नेमतों पर ही नहीं बल्कि मुसीबतों पर भी शुक्र अदा करना चाहिए। सारी तल्ख़ियाँ, बीमारियाँ, सेलाब, ज़लज़ले, माली नुक़सान, हादिसात, यहाँ तक कि अज़्दवाजी नाकामियाँ, सबमें शुक्र का पहलू है। मसला यह है कि हमारी निगाह सतही होती है हम गहराई से नहीं देखते।

मसलन कोई शख़्स सड़क पर जा रहा हो अचानक उसकी गाड़ी किसी रेलिंग से टकरा जाए। वह नाराज़ हो जाता है, मगर जब बाहर निकलकर देखता है तो कहता है, अलहम्दुलिल्लाह! क्यों? क्योंकि अगर वह रेलिंग न होती तो गाड़ी सीधी खाई में जा गिरती।

यानी कभी-कभी जो मुसीबत हमें नज़र आती है, दरअस्ल वह एक बड़ी बला से बचाने का ज़रिया होती है, और हम इस हक़ीक़त से बे-ख़बर होते हैं, जबकि ख़ुदा सब कुछ जानता है और वही सबसे ज़्यादा हकीम है।

 

आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने ज़ोर देकर कहा है कि इंसान जितनी कोशिश ईमान और अच्छे अमल के रास्ते में करता है तकलीफ़ सहता है और दुख-मुश्किल झेलता है वह सब उसी के फायदे में है लेकिन अगर वह अपने नफ्स को आज़ाद छोड़ दे तो यह उसके लिए नुकसानदेह साबित होता है।

आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने ज़ोर देकर कहा कि इंसान जितनी कोशिश ईमान और अच्छे अमल के रास्ते में करता है तकलीफ़ सहता है और दुख-मुश्किल झेलता है, वह सब उसी के फायदे में है लेकिन अगर वह अपने नफ्स को आज़ाद छोड़ दे तो यह उसके लिए नुकसानदेह साबित होता है।

मदरसा ए इल्मिया क़ाएम शहर चीज़र के संस्थापक, आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने अख़लाक़ की कक्षा के दौरान बात करते हुए कहा कि ज़ुल्म की कई किस्में हैं, जिनमें सबसे खतरनाक ज़ुल्म वह है जो इंसान खुद पर करता है। अमीरुलमोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने फरमाया,
«اَلنّاسُ مَعادِنُ کمَعادِنِ الذَّهَبِ وَ الْفِضَّهِ»

यानी इंसान सोने-चांदी की तरह कीमती धातु की तरह हैं, इसलिए हर इंसान को चाहिए कि वह अपने नफ्स को नुकसान से बचाए।

उन्होंने सूरए अस्र की तरफ इशारा करते हुए कहा कि खुदावंद-ए-मुतआल ने इस सूरह में इंसान के नुकसान की हकीकत को साफ़ किया है। अल्लाह तआला ने कसम खाकर फरमाया है कि इंसान नुकसान में है, सिवाय उनके जिनमें दो बुनियादी सिफात पाए जाते हैं ईमान और अमल-ए-सालेह।

एक का ताल्लुक अक़ीदे. से है और दूसरे का अमल से। ईमान यानी अल्लाह, उसकी वहदानियत क़यामत अंबिया आसमानी किताबों और आइम्मा ए अतहार अलैहिमुस्सलाम पर पक्का यक़ीन रखना।

आयतुल्लाह हाशमी अलीया ने वज़ाहत की कि ईमान दिल का काम है जबकि अमल-ए-सालेह अंगों से अंजाम पाता है। खुदा ने ईमान को जिस्म के सारे अंगों पर वाजिब क़रार दिया है और हर अंग की अपनी एक ज़िम्मेदारी है।

उन्होंने कहा कि सबसे बड़ा जिहाद यह है कि इंसान किसी पर ज़ुल्म न करे, यहाँ तक कि खुद पर भी नहीं। जो इंसान अपने नफ्स पर ज़ुल्म करता है, वह असल में अभी जिहाद-ए-नफ्स के मुकाम तक नहीं पहुँचा।

हौज़ा एल्मिया के उस्ताद ने आगे कहा कि कभी-कभी बीमारी या तंगदस्ती (गरीबी) भी खुदा की मस्लहत (योजना) में होती है और यह इंसान के लिए लुत्फ-ए-इलाही है, इसलिए मोमिन को इन हालात में राजी और साबिर रहना चाहिए। अगर कोई शख्स मजालिस-ए-दीनी (धार्मिक सभाओं) में शिरकत (भाग लेने) के बावजूद अपने नफ्स की इस्लाह (सुधार) न करे तो वह खुदा के अज़ाब (यातना) का मुस्तहिक (हकदार) ठहरता है।

उन्होंने इस बात पर भी ज़ोर दिया कि जो कुछ नबी-ए-अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि व सल्लम और आइम्मा ए अतहार अलैहिमुस्सलाम से हम तक पहुँचा है, वह सब खुदा की तरफ से है, इसलिए दीन के किसी हुक्म को रद्द नहीं किया जा सकता। अगर कोई शख्स नमाज़ या हिजाब जैसे किसी ज़रूरी हुक्म-ए-दीन का इनकार करे तो वह ईमान से ख़ारिज है।

आयतुल्लाह हाशमी अलिया ने कहा,वह औरतें जो नमाज़-ओ-ज़िक्र करती हैं मगर हिजाब का इहतिमाम (प्रबंध) नहीं करतीं, उन्हें यह नहीं कहना चाहिए कि हिजाब को नहीं मानतीं, बल्कि कहना चाहिए कि मानती हैं मगर अमल में कमज़ोर हैं। यही फर्क ईमान और इनकार के दरमियान हद-ए-फासिल है।

उन्होंने आगे फरमाया कि जो शख्स अपने नफ्स से जिहाद करे और गुनाहों से पाक रहे, वह कामिल ईमान का हामिल (धारक) है और उसका अंजाम जन्नत है। रोज़-ए-क़यामत इंसान के अंग और ज्वारिह खुद उसके अमाल की गवाही देंगे।

 

कताइब सय्यदुश शोहदा इराक के क़ुम स्थित सांस्कृतिक प्रतिनिधि ने कहा कि अमेरिका ने इस आंदोलन पर इसलिए पाबंदी लगाई है क्योंकि इसे जनता का समर्थन प्राप्त है और वॉशिंगटन को डर है कि इराक के आने वाले चुनावों पर प्रतिरोध का असर पड़ेगा।

कताइब सय्यदुश शोहदा इराक के क़ुम स्थित सांस्कृतिक प्रतिनिधि हसन अल-एबादी ने कहा कि अमेरिका ने इस आंदोलन पर इसलिए पाबंदी लगाई है क्योंकि इसे जनता का समर्थन प्राप्त है और वॉशिंगटन को डर है कि इराक के आने वाले चुनावों पर प्रतिरोध का असर पड़ेगा।

हसन अल-एबादी ने बताया कि इस संगठन के उद्देश्यों में प्रतिरोध के विचार को बढ़ावा देना, विश्वविद्यालयों और धार्मिक स्कूलों में प्रतिरोधी मोर्चे की आवाज़ पहुँचाना, पुस्तक मेलों और सांस्कृतिक प्रदर्शनियों में भाग लेना, प्रतिरोध से जुड़ी नई किताबों के प्रकाशन कार्यक्रम और शहीदों की याद में आयोजित समारोह शामिल हैं।

उन्होंने कहा कि इस्लामी गणराज्य ईरान की समर्थन करना एक धार्मिक और वैचारिक कर्तव्य माना जाता है। सर्वोच्चन नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई को प्रतिरोध आंदोलन का नेता माना जाता है, और उनसे जुड़ाव कताअिब सैय्यदुश शोहदा के मुजाहिदीन के लिए सम्मान की बात है।

हसन अल-अब्बादी ने 12-दिनी जंग का ज़िक्र करते हुए बताया कि उन दिनों तेहरान में स्थित कताअिब सैय्यदुश शोहदा के मौक़िब पर सीधा हमला किया गया, लेकिन दुश्मन नाकाम रहा। इसी दौरान संगठन के एक कमांडर हैदर अल-मूसवी ईरान की यात्रा पर थे, जहाँ उन पर हमला हुआ और वे शहीद हो गए।

उन्होंने कहा कि अमेरिका द्वारा कताअिब सैय्यदुश शोहदा पर पाबंदी का असली कारण इराकी जनता में इस आंदोलन की गहरी सामाजिक पकड़ है। इसी वजह से अमेरिका राजनीतिक दबाव के ज़रिए जनता से जुड़े इन समूहों के प्रभाव को खत्म करने की कोशिश कर रहा है।