
رضوی
ईद-उल-अज़हा/ क़ुर्बानी/ इब्राहीम का बलिदान
क़ुर्बानी (अरबी : قربانى ), क़ुर्बान, या उधिय्या (uḍḥiyyah) ( أضحية ) के रूप
में में निर्दिष्ट इस्लामी कानून , अनुष्ठान है पशु बलि के दौरान एक पशुधन जानवर की ईद-उल-अज़हा। शब्द से संबंधित है हिब्रू קרבן कॉर्बान (qorbān) "भेंट" और सिरिएक क़ुरबाना "बलिदान", सजातीय अरबी के माध्यम से "एक तरह से या किसी के करीब पहुंचने के साधन" या "निकटता"। [1] इस्लामिक कानून में, उदियाह एक विशिष्ट जानवर के बलिदान का उल्लेख करता है, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा अल्लाह की ख़ुशनूदी और इनाम की तलाश के लिए विशिष्ट दिनों में पेश किया जाता है। क़ुरबान शब्द कुरान में तीन बार दिखाई देता है: एक बार पशु बलि के संदर्भ में और दो बार किसी भी कार्य के सामान्य अर्थों में. दुनिया की चीज़ों को त्याग या बलिदान करके अल्लाह के करीब हुवा जा सकता है। इसके विपरीत, ज़बीहा (धाबीहा), आम दिनों में किया जाता है, जब कि उदियाह किसी ख़ास मौके पर जैसे ईद-उल-अज़हा पर किया जाता है।
मूल
इस्लाम ने हाबील और क़ाबील (हेबेल और कैन) की क़ुरबानी का इतिहास का पता देता है, जिसका ज़िक्र क़ुरआन में वर्णित है। [2] हाबिल अल्लाह के लिए एक जानवर की बलि देने वाला पहला इंसान था। इब्न कथिरवर्णन करता है कि हाबिल ने एक भेड़ की पेशकश की थी जबकि उसके भाई कैन ने अपनी भूमि की फसलों का हिस्सा देने की पेशकश की थी। अल्लाह की निर्धारित प्रक्रिया यह थी कि आग स्वर्ग से उतरेगी और स्वीकृत बलिदान का उपभोग करेगी। तदनुसार, आग नीचे आ गई और एबेल द्वारा वध किए गए जानवर को आच्छादित कर दिया और इस प्रकार एबेल के बलिदान को स्वीकार कर लिया, जबकि कैन के बलिदान को अस्वीकार कर दिया गया था। इससे कैन के हिस्से पर ईर्ष्या पैदा हुई जिसके परिणामस्वरूप पहली मानव मृत्यु हुई जब उसने अपने भाई हाबिल की हत्या कर दी। अपने कार्यों के लिए पश्चाताप न करने के बाद, कैन को भगवान द्वारा माफ नहीं किया गया था।
इब्राहीम का बलिदान
क़ुर्बानी की प्रथा का पता हज़रात इब्राहीम से लगाया जा सकता है, जिसने यह सपना देखा था कि अल्लाह ने उसे उसकी सबसे कीमती चीज़ का त्याग करने का आदेश दिया था। इब्राहीम दुविधा में थे क्योंकि वह यह निर्धारित नहीं कर सकता थे कि उसकी सबसे कीमती चीज क्या थी। तब उन्होंने महसूस किया कि यह उनके बेटे का जीवन है। उसे अल्लाह की आज्ञा पर भरोसा था। उन्होंने अपने बेटे को इस उद्देश्य से अवगत कराया कि वह अपने बेटे को उनके घर से क्यों निकाल रहा थे। उनके बेटे इस्माइल ने अल्लाह की आज्ञा का पालन करने के लिए सहमति व्यक्त की, हालांकि, अल्लाह ने हस्तक्षेप किया और उन्हें सूचित किया कि उनके बलिदान को स्वीकार कर लिया गया है। और उनके बेटे को एक भेड़ से बदल दिया। यह प्रतिस्थापन या तो स्वयं के धार्मिक संस्थागतकरण की ओर इशारा करता है, या भविष्य में इस्लामिक पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों (जो इश्माएल की संतान से उभरने के लिए किस्मत में था) के आत्म-बलिदान को उनके विश्वास के कारण इंगित करता है। उस दिन से,साल में एक बार हर ईद उल - अदहा, दुनिया भर के मुसलमान इब्राहिम के बलिदान और खुद को त्यागने की याद दिलाने के लिए एक जानवर का वध करते हैं।
क़ुरबानी का दर्शन (तत्वज्ञान)
उधिय्या के पीछे दर्शन यह है कि यह अल्लाह को प्रस्तुत करने का एक प्रदर्शन है, अल्लाह की इच्छा या आज्ञा का पूरा पालन करना और अपनी खुशी के लिए अपना सब कुछ बलिदान करना है। इब्राहिम ने सबमिशन और बलिदान की इस भावना का बेहतरीन तरीके से प्रदर्शन किया। जब प्यार और निष्ठा की चुनौती का सामना किया, तो उन्होंने अल्लाह को बिना शर्त प्रस्तुत करने का विकल्प चुना और अपने परिवार और बच्चे के लिए व्यक्तिगत इच्छा और प्रेम को दबा दिया। क़ुर्बानी नफरत, ईर्ष्या, गर्व, लालच, दुश्मनी, दुनिया के लिए प्यार और दिल की ऐसी अन्य विकृतियों पर साहस और प्रतिरोध की छुरी रखकर एक जन्मजात इच्छाओं के वध का आह्वान करती है।
क़ुरबानी का अनुष्ठान
इस्लाम में, एक जानवर की क़ुरबानी इस्लामी कैलेंडर के ज़ुल हज्जा महीने की 10 वीं तारीख़ से 13 वीं के सूर्यास्त तक दी जा सकती है। इन दिनों दुनिया भर के मुसलमान क़ुरबानी की पेशकश करते हैं जिसका अर्थ है कि विशिष्ट दिनों में किसी जानवर की क़ुरबानी देना। इसे इब्राहिम द्वारा अपने बेटे के स्थान पर एक दुम्बे (भेड़) के बलिदान की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति के रूप में समझा जाता है, यहूदी धर्म में एक महत्वपूर्ण धारणा और इस्लाम समान है। इस्लामी उपदेशक इस अवसर का उपयोग इस तथ्य पर टिप्पणी करने के लिए करेंगे कि इस्लाम बलिदान का धर्म है और इस अवसर का उपयोग मुसलमानों को याद दिलाने के लिए किया जाता है अपने समय, प्रयास और धन के साथ मानव जाति की सेवा करने का उनका कर्तव्य।
फ़िक़्ह के अधिकांश स्कूल स्वीकार करते हैं कि पशु का वध ढिबाह के नियमों के अनुसार किया जाना चाहिए और यह कि पशु को एक पालतू बकरी, भेड़, गाय या ऊँट का होना चाहिए।
ईदुल अज़हा ; नफ़्स ए अम्मारा की क़ुर्बानी का दिन
अहले सुन्नत के इमामे जुमआ शहर सनंदज और मजलिसे ख़बरगान-ए-रहबरी के सदस्य मौलवी फाएक़ रुसतमी ने कहा कि ईदुल अज़हा न केवल हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की कुर्बानी और त्याग की याद का दिन है बल्कि यह दिन मन की बुरी इच्छाओं (नफ़्स-ए-अम्मारा) की कुर्बानी देने और अल्लाह की आज्ञा का व्यावहारिक पाठ सीखने का भी दिन है।
अहले सुन्नत इमामे जुमआ शहरे सनंदज और मजलिसे ख़बरगान-ए-रहबरी के सदस्य मौलवी फाएक़ रुसतमी ने कहा कि ईदुल-अज़हा न सिर्फ़ हज़रत इब्राहीम अ.स. की क़ुर्बानी और उनके त्याग की याद का दिन है, बल्कि यह दिन नफ़्स-ए-अम्मारा (मन की बुरी इच्छाओं) की क़ुर्बानी और अल्लाह की आज्ञापालन का व्यावहारिक सबक भी है।
आज सुबह सनंदज शहर की जामा मस्जिद में अहले सुन्नत वल जमाअत द्वारा ईदुल-अज़हा की नमाज़ जमाअत के साथ अदा की गई, जिसमें शहर के उलमा, आम लोग और विभिन्न वर्गों के लोगों ने भाग लिया। नमाज़ के ख़ुत्बे में मौलवी फाएक़ रुसतमी ने इस्लाम के बुनियादी उसूलों को इंसानी गरिमा और सच्चाई पर आधारित बताया और कहा कि इस्लाम इंसानियत को बराबरी इंसाफ़ और एकता का पैग़ाम देता है।
उन्होंने हज के अरकान और मक्का मुअज़्ज़मा में जारी महान इज्तिमा की ओर इशारा करते हुए कहा,हज, रंग, नस्ल और क़ौमियत से ऊपर उठकर पूरी उम्मते मुस्लिमा की एकता और यकजहती की शानदार निशानी है। यह मुक़द्दस इज्तिमा हमें याद दिलाता है कि हमारा ख़ुदा एक है और हम सबकी वापसी उसी की तरफ़ है।
मौलवी रुसतमी ने रसूल-ए-अकरम स.अ.व. के उस पैग़ाम को दोहराया कि कोई भी इंसान किसी दूसरे इंसान पर कोई बड़ाई नहीं रखता सब बराबर हैं, और यही उसूल इंसानी समाज में इंसाफ़, बराबरी और आपसी इज़्ज़त का ज़ामिन है।
अपने ख़ुत्बे में उन्होंने फ़िलिस्तीन और ग़ज़्ज़ा के मज़लूम लोगों पर जारी इस्राईली ज़ुल्म की सख़्त निंदा की और कहा,आज हम अपनी आंखों से देख रहे हैं कि मज़लूमों पर ज़ुल्म हो रहा है, और यह वक़्त है कि इंसानी ज़मीर जागे और मज़लूमों के साथ खड़ा हो।
उन्होंने आगे कहा,ख़ुदावंद मुतआल हर इंसान को इस दुनिया में आज़माता है, और हमें चाहिए कि इन इम्तिहानों में सब्र, ताअत और तक़वा (धार्मिकता) के साथ कामयाबी हासिल करें।
हज़रत इब्राहीम अ.स. की क़ुर्बानी के वाक़े का ज़िक्र करते हुए उन्होंने कहा,हज़रत इब्राहीम अ.स. ने अल्लाह के हुक्म के आगे पूरी तरह सर झुकाते हुए अपने बेटे हज़रत इस्माईल अ.स. को क़ुर्बान करने की तैयारी की और यही उनका बुलंदी और कामयाबी का सबब बना। अल्लाह ने उन पर रहमत नाज़िल की।
ख़ुत्बे के आख़िर में मौलवी रुस्तमी ने कहा,ईदुल-अज़हा, हज़रत इब्राहीम अ.स. के त्याग और क़ुर्बानी की याद का दिन है। साथ ही यह हर मुसलमान के लिए एक मौका है कि वह अपनी नफ़्सानी ख्वाहिशों, खुदपरस्ती और नफ़्स-ए-अम्मारा को क़ुर्बान करके अल्लाह की बंदगी की सच्ची राह पर चले।
इज़राइल को पिछली कार्रवाइयों से भी ज़्यादा सख़्त जवाब देंगे।जनरल सलाामी
ईरान की इस्लामिक रिवॉल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के कमांडर इन चीफ़ जनरल सलाामी ने ऐलान किया है कि ईरान किसी भी संभावित स्थिति से निपटने के लिए पूरी तरह तैयार है।
अलमयादीन टीवी चैनल ने ईरान के राजनीतिक और सैन्य अधिकारियों से अमेरिका के साथ चल रही बातचीत इज़राइल की धमकियों और अन्य क्षेत्रीय मुद्दों पर बात की है।
इस इंटरव्यू में जनरल सलाामी ने कहा कि ईरान किसी भी खतरे का सामना करने के लिए पूरी तरह तैयार है और देश की संप्रभुता व ईरानी जनता के अधिकारों की रक्षा के लिए प्रतिबद्ध है।
उन्होंने इज़राइली अधिकारियों की हालिया धमकियों का ज़िक्र करते हुए कहा,इज़राइली हमारी ताक़तों से वाक़िफ़ हैं वे कोई भी मूर्खता करने से पहले सौ बार सोचेंगा।
जनरल सलाामी ने चेतावनी दी कि अगर ईरान पर हमला किया गया तो उसका जवाब ऑपरेशन वादा-ए-सादिक़ 1 और 2 से कहीं ज़्यादा विनाशकारी और डरावना होगा।
हज के शुभ अवसर पर विशेष कार्यक्रम- 5
बाप- बेटे मक्का के पहाड़ से काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को लाये थे और उन्हें तराश कर उन्होंने काबे की आधारशिला रखी थी। बाप-बेटे ने महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के आदेश से बड़े और सादे घर का निर्माण किया। इस पावन घर का नाम उन्होंने काबा रखा। यही साधारण घर काबा समूची दुनिया में एकेश्वरवाद का प्रतीक और पूरी दुनिया का दिल बन गया। जिस तरह आकाशगंगा महान ईश्वर का गुणगान कर रही है ठीक उसी तरह यह पावन घर है जिसकी दुनिया के लाखों मुसलमान परिक्रमा करते हैं। हज महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान का प्रतिबिंबन है। हज महान हस्तियों की बहुत सी कहानियों की याद दिलाता है।
हज एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो जाति और राष्ट्र से ऊपर उठकर है यानी इसमें सब शामिल होते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी जाति या राष्ट्र से हो। ग़रीब, अमीर, काला, गोरा, अरब और ग़ैर अरब सब इसमें भाग लेते हैं। हज के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और एकेश्वरवाद का नारा समस्त आसमानी धर्मों के मध्य निकटता का कारण बन सकता है।
पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहस्सलाम ने महान ईश्वर के आदेश से हज की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” और हे पैग़म्बर! हज के लिए लोगों के मध्य घोषणा कर दीजिये ताकि लोग हर ओर से सवार और पैदल, दूर और निकट से तुम्हारी ओर आयें और उसके बाद हज को अंजाम दें, अपने वचनों पर अमल करें और बैते अतीक़ यानी काबे की परिक्रमा करें।“
केवल कुछ संस्कारों को अंजाम देना हज नहीं है बल्कि हज के विदित संस्कारों के पीछे एक अर्थपूर्ण वास्तविकता नीहित है। अतः हज का अगर केवल विदित रूप अंजाम दिया जाये तो वह अपने वास्तविक अर्थ व प्रभाव से खाली होगा। यानी वह नीरस और बेजान हज होगा। एक विचारक व बुद्धिजीवी ने हज की उपमा शिक्षाप्रद एसी महाप्रदर्शनी से दी है जिसके पास बोलने की ज़बान है और उस कहानी व महाप्रदर्शनी में कुछ मूल हस्तियां हैं। हज़रत इब्राहीम, हज़रत हाजर और हज़रत इस्माईल इस कहानी के महानायक हैं। हरम, मस्जिदुल हराम, सफा और मरवा, मैदाने अरफात, मशअर और मेना में कुछ संस्कार अंजाम दिये जाते हैं। रोचक बात यह है कि इन संस्कारों को सभी अंजाम दे सकते हैं चाहे वह मर्द हो या औरत, धनी हो या निर्धन, काला हो या गोरा। जो भी हज के महासम्मेलन में भाग लेता है वह हज संस्कारों को अंजाम देता है और मुख्य भूमिका निभाता है। सभी उन महान ऐतिहासिक हस्तियों के स्थान पर होते हैं जिन्होंने महान ईश्वर की उपासना की और अनेकेश्वरवाद से मुकाबला किया ठीक उसी तरह हाजी एकेश्वरवाद का एहसास और अनेकेश्वरवाद से मुकाबले का अनुभव करते हैं।
जो लोग हज करने जाते हैं सबसे पहले वे मीक़ात नाम की जगह पर एहराम नाम का सफेद वस्त्र धारण करते हैं। एहराम में सफेद कपड़े के दो टुकड़े होते हैं। इसका अर्थ हर प्रकार के गर्व, घमंड को त्याग देना है। इसी प्रकार हर प्रकार के बंधन से मुक्त करके दिल को महान व सर्वसमर्थ की याद में लगाना है।
हज करने वाला जब एहराम का सफेद वस्त्र धारण करता है तो वह अपने कार्यों के प्रति सजग रहता है, उन पर नज़र रखता है लोगों के साथ अच्छे व मृदु स्वभाव में बात करता है, जब बोलता है तो सही बात करता है। इसी तरह वह संयम व धैर्य का अभ्यास करता है। एहराम की हालत में कुछ कार्य हराम हैं और इस कार्य से इच्छाओं से मुकाबला करने में इंसान के अंदर जो प्रतिरोध की शक्ति है वह मज़बूत होती है। जैसे एहराम की हालत में शिकार करना, जानवरों को कष्ट पहुंचाना, झूठ बोलना, महिला से शारीरिक संबंध बनाना और दूसरों से बहस करना आदि हराम हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम जब मेराज पर जा रहे थे यानी आसमानी यात्रा पर थे तो एक आवाज़ ने उन्हें संबोधित करके कहा कि क्या तुम्हारे पालनहार ने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें शरण नहीं दी और तुम्हें गंतव्य से दूर नहीं पाया और तुम्हारा पथप्रदर्शन नहीं किया? उस वक्त पैग़म्बरे इस्लाम ने लब्बैक कहा। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की बारगाह में कहा” अल्लाहुम्मा लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमा लका वलमुल्का ला शरीका लका लब्बैक” अर्थात हे पालनहार तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं, बेशक समस्त प्रशंसा, नेअमत और बादशाहत तेरी है। तेरा कोई भागीदार व समतुल्य नहीं है। (पालनहार!) तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं।
हज के आध्यात्मिक वातावरण में दिल को छू जाने वाली आवाज़ लब्बैक अल्ला हुम्मा लब्बैक गूंज रही है। यह वह आवाज़ है जो हर हाजी की ज़बान पर है। यह आवाज़ इस बात की सूचक है कि हाजी महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं वे पूरे तन- मन से महान ईश्वर के आदेशों को स्वीकार करते और उसकी मांग का उत्तर दे रहे हैं। समस्त हाजियों की ज़बान पर है कि हे ईश्वर तेरा कोई समतुल्य नहीं है और हम तेरे घर की परिक्रमा करने के लिए तैयार हैं।
काबे की परिक्रमा हज का पहला संस्कार है। हाजी जब सामूहिक रूप से काबे की परिक्रमा करते हैं तो वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि महान ईश्वर ही ब्रह्मांड का स्रोत व रचयिता है और जो कुछ भी है सबको उसी ने पैदा और अस्तित्व प्रदान किया है। जो हाजी तवाफ़ व परिक्रमा कर रहे हैं वे पूरी तरह महान ईश्वर की याद में डूबे हुए हैं। मानो ब्रह्मांड का कण- कण उनके साथ हो गया है। सब उनके साथ तवाफ कर रहे हैं। तवाफ के बाद वे नमाज़े तवाफ़ पढ़ते हैं, अपने कृपालु व दयालु ईश्वर के सामने सज्दा करते हैं और उसकी सराहना व गुणगान करते हैं।
हज का एक संस्कार सफा व मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच सात बार चक्कर लगाना है।
हज का एक संस्कार सई करना है। सई उस महान महिला के प्रयासों की याद दिलाता है जो अपने पालनहार की असीम कृपा से कभी भी निराश नहीं हुई और सूखे व तपते हुए मरुस्थल में अपने प्यासे बच्चे के लिए पानी की खोज में दौड़ती रही। जब हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाजर अपने बच्चे के लिए पानी के लिए दौड़ती रहीं और सात बार वे सफा और मरवा का चक्कर लगा चुकीं तो महान ईश्वर की असीम कृपा से पानी का सोता फूट पड़ा जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 158वीं आयत में कहता है” सफा और मरवा ईश्वर की निशानियों में से है। इस आधार पर जो लोग अनिर्वाय या ग़ैर अनिवार्य हज करते हैं उन्हें चाहिये कि वे सफा और मरवा के बीच सई करें यानी उनके बीच चक्कर लगायें।
सई करके हाजी उस महान ऐतिहासिक घटना की याद ताज़ा करके महान ईश्वर पर धैर्य और भरोसा करने और एकेश्वरवाद का पाठ लेते हैं और महान ईश्वर की असीम कृपा को देखते हैं।
ज़िलहिज्जा महीने की नवीं तारीख़ की सुबह को हाजियों का जनसैलाब अरफात नामक मैदान की ओर रवाना होता है। अरफ़ात पहचान का मैदान है। एक पहचान यह है कि इंसान अपने पालनहार को पहचाने। अरफात के मैदान में हाजी का ध्यान स्वयं की ओर जाता है। हाजी अपना हिसाब- किताब करता है और अगर वह देखता है कि उसने कोई पाप या ग़लती की है तो उससे सच्चे दिल से तौबा व प्रायश्चित करता है। अरफात के विशाल मैदान में प्रलय के बारे में सोचता है और प्रलय की याद करके हिसाब- किताब करता है और हाजी दुआ करता है। कहा जाता है कि अगर इंसान का दिल और आत्मा अरफात के मैदान में परिवर्तित हो जाते हैं तो मशअर नामक मैदान में बैठने से महान ईश्वर की याद इस हालत को शिखर पर पहुंचा देती है और हज करने वाले ने एसा हज अंजाम दिया है जिसे महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है।
अपने अंदर से शैतान को भगाना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की एक शैली है और वह हज संस्कार का भाग है। मिना नामक मैदान में कंकर फेंकने का अर्थ स्वयं से शैतान को भगाना है और केवल महान ईश्वर की उपासना और उसके आदेशों के समक्ष नतमस्तक होना है। हाजियों ने जो कंकरी मशअर के मैदान से एकत्रित की है उससे वे शैतान के प्रतीक को मारते हैं और हज़रत इब्राहीम की भांति महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं और कभी भी वे अपने नफ्स या शैतानी उकसावे पर अमल नहीं करते हैं।
हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहस्सलाम फरमाते हैं” इसी जगह पर” यानी जहां हाजी कंकरी फेंकते हैं” शैतान हज़रत इब्राहीम के समक्ष प्रकट हुआ था और उन्हें उकसाया था कि हज़रत इस्माईल को कुर्बानी करने का इरादा छोड़ दें परंतु हज़रत इब्राहीम ने पत्थर फेंक कर उसे स्वयं से दूर किया था।“
वास्तव में कंकरी का फेंकना दुश्मन की पहचान और उससे संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियां विभिन्न शैलियों के माध्यम से मुसलमानों के खिलाफ शषडयंत्र रचती रहती हैं इन दुश्मनों और उनकी चालों को पहचानना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कि जब तक दुश्मन और उसकी चालों को नहीं पहचानेंगे तब तक उसका मुकाबला नहीं कर सकते। दुश्मन और उसकी चालों से बेखबर रहना बहुत बड़ी ग़लती है और यह एसी ग़लती है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और उसकी चालें मुसलमानों के बीच फूट या इस्लामी जगत की शक्ति को आघात पहुंचने का कारण बन सकती हैं।
कुर्बानी कराना हज का अंतिम संस्कार है। जिस दिन कुर्बानी कराई जाती है उसे ईदे कुर्बान कहा जाता है। ईदे कुरआन के दिन सर मुंडवाया जाता है या फिर सिर के बाल और नाखून को छोटा कराया जाता है। हज के दिन महान ईश्वर की बारगाह में स्वीकार हज अंजाम देने वाले प्रसन्न होते हैं और वे अपने पालनहार का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उन्हें हज करने का सामर्थ्य प्रदान किया। उसके बाद हाजियों का जनसैलाब एक बार फिर काबे का तवाफ करता है और उसके बाद नमाज़े तवाफ पढ़ता है। जब वे काबे का तवाफ कर रहे होते हैं तो जिस तरह से चुंबक लोहे या उसके कण को अपनी ओर खींचता है उसी तरह खानये काबा हर हाजी को अपनी ओर खींचता व आकर्षित करता है।
इस प्रकार हज संस्कार समाप्त हो जाते हैं और हाजी अपने अंदर आत्मिक शांति व सुरक्षा का आभास करता है। वह भीतर से परिवर्तित हो चुका होता है। महान ईश्वर की याद उसके सामिप्य का कारण बनती है और महान विधाता व परम-परमेश्वर की याद सांसारिक बंधनों से मुक्ति का कारण बनती है। इसी प्रकार महान व कृपालु ईश्वर की याद इंसान के महत्व और उसकी प्रतिष्ठा को अधिक कर देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हाजियों द्वारा अंजाम दिये गये हज संस्कारों के गूढ़ अर्थों पर ध्यान देते हुए फरमाते हैं” नमाज़, हज, तवाफ और दूसरे संस्कारों के अनिवार्य होने से तात्पर्य ईश्वर की याद को कायेम व जीवित करना है। तो जब तुम्हारा दिल ईश्वर की महानता को न समझ सके जो हज का मूल उद्देश्य है तो ज़बान से ईश्वर को याद करने का क्या लाभ है?
हज क्या है?
यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं........... यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय
यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं...........
यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय लाखों की संख्या में मुसलमान ईश्वरीय संदेश की भूमि मक्के में एकत्रित हो रहे हैं। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग गुटों और जत्थों में ईश्वर के घर की ओर जा रहे हैं और एकेश्वरवाद के ध्वज की छाया में वे एक बहुत व्यापक एकेश्वरवादी आयोजन का प्रदर्शन करेंगे। हज में लोगों की भव्य उपस्थिति, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना के स्वीकार होने का परिणाम है जब हज़रत इब्राहमी अपने बेटे इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को इस पवित्र भूमि पर लाए और उन्होंने ईश्वर से कहाः प्रभुवर! मैंने अपनी संतान को इस बंजर भूमि में तेरे सम्मानीय घर के निकट बसा दिया है। प्रभुवर! ऐसा मैंने इसलिए किया ताकि वे नमाज़ स्थापित करें तो कुछ लोगों के ह्रदय इनकी ओर झुका दे और विभिन्न प्रकार के फलों से इन्हें आजीविका दे, कदाचित ये तेरे प्रति कृतज्ञ रह सकें।शताब्दियों से लोग ईश्वर के घर के दर्शन के उद्देश्य से पवित्र नगर मक्का जाते हैं ताकि हज जैसी पवित्र उपासना के लाभों से लाभान्वित हों तथा एकेश्वरवाद का अनुभव करें और एकेश्वरवाद के इतिहास को एक बार निकट से देखें। यह महान आयोजन एवं महारैली स्वयं रहस्य की गाथा कहती है जिसके हर संस्कार में रहस्य और पाठ निहित हैं। हज का महत्वपूर्ण पाठ, ईश्वर के सम्मुख अपनी दासता को स्वीकार करना है कि जो हज के समस्त संस्कारों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इन पवित्र एवं महत्वपूर्ण दिनों में हम आपको हज के संस्कारों के रहस्यों से अवगत करवाना चाहते हैं। मनुष्य की प्रवृत्ति से इस्लाम की शिक्षाओं का समन्वय, उन विशेषताओं में से है जो सत्य और पवित्र विचारों की ओर झुकाव का कारण है। यही विशिष्टता, इस्लाम के विश्वव्यापी तथा अमर होने का चिन्ह है। इस आधार पर ईश्वर ने इस्लाम के नियमों को समस्त कालों के लिए मनुष्य की प्रवृत्ति से समनवित किया है। हज सहित इस्लाम की समस्त उपासनाएं, हर काल की परिस्थितियों और हर काल में मनुष्य की शारीरिक, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत तथा समाजी आवश्यकताओं के बावजूद उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इस्लाम की हर उपासना का कोई न कोई रहस्य है और इसके मीठे एवं मूल्यवान फलों की प्राप्ति, इन रहस्यों की उचित पहचान के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से कदापि संभव नहीं है। हज भी इसी प्रकार की एक उपासना है। ईश्वर के घर के दर्शन करने के उद्देश्य से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग हर प्रकार की समस्याएं सहन करते हुए और बहुत अधिक धन ख़र्च करके ईश्वरीय संदेश की धरती मक्का जाते हैं तथा “मीक़ात” नामक स्थान पर उपस्थित होकर अपने साधारण वस्त्रों को उतार देते हैं और “एहराम” नामक हज के विशेष कपड़े पहनकर लब्बैक कहते हुए मोहरिम होते हैं और फिर वे मक्का जाते हैं। उसके पश्चात वे एकसाथ हज करते हैं। पवित्र नगर मक्का पहुंचकर वे सफ़ा और मरवा नामक स्थान पर उपासना करते हैं। उसके पश्चात अपने कुछ बाल या नाख़ून कटवाते हैं। इसके बाद वे अरफ़ात नामक चटियल मैदान जाते हैं। आधे दिन तक वे वहीं पर रहते हैं जिसके बाद हज करने वाले वादिये मशअरूल हराम की ओर जाते हैं। वहां पर वे रात गुज़ारते हैं और फिर सूर्योदय के साथ ही मिना कूच करते हैं। मिना में विशेष प्रकार की उपासना के बाद वापस लौटते हैं उसके पश्चात काबे की परिक्रमा करते हैं। फिर सफ़ा और मरवा जाते हैं और उसके बाद तवाफ़े नेसा करने के बाद हज के संस्कार समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार हाजी, ईश्वरीय प्रसन्नता की प्राप्ति की ख़ुशी के साथ अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।हज जैसी उपासना, जिसमें उपस्थित होने का अवसर समान्यतः जीवन में एक बार ही प्राप्त होता है, क्या केवल विदित संस्कारों तक ही सीमित है जिसे पूरा करने के पश्चात हाजी बिना किसी परिवर्तन के अपने देश वापस आ जाए? नहीं एसा बिल्कुल नहीं है। हज के संस्कारों में बहुत से रहस्य छिपे हुए हैं। इस महान उपासना में निहित रहस्यों की ओर कोई ध्यान दिये बिना यदि कोई हज के लिए किये जाने वाले संस्कारों की ओर देखेगा तो हो सकता है कि उसके मन में यह विचार आए कि इतनी कठिनाइयां सहन करना और धन ख़र्च करने का क्या कारण है और इन कार्यों का उद्देश्य क्या है? पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में इब्ने अबिल औजा नामक एक बहुत ही दुस्साहसी अनेकेश्वरवादी, एक दिन इमाम सादिक़ (अ) की सेवा में आकर कहने लगा कि कबतक आप इस पत्थर की शरण लेते रहेंगे और कबतक ईंट तथा पत्थर से बने इस घर की उपासना करते रहेंगे और कबतक उसकी परिक्रमा करते रहेंगे? इब्ने अबिल औजा की इस बात का उत्तर देते हुए इमाम जाफ़र सादिक़ अ. ने काबे की परिक्रमण के कुछ रहस्यों की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह वह घर है जिसके माध्यम से ईश्वर ने अपने बंदों को उपासना के लिए प्रेरित किया है ताकि इस स्थान पर पहुंचने पर वह उनकी उपासना की परीक्षा ले। इसी उद्देश्य से उसने अपने बंदों को अपने इस घर के दर्शन और उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया और इस घर को नमाज़ियों का क़िब्ला निर्धारित किया। पवित्र काबा, ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति का केन्द्र और उससे पश्चाताप का मार्ग है अतः वह जिसके आदेशों का पालन किया जाए और जिसके द्वारा मना किये गए कामों से रूका जाए वह ईश्वर ही है जिसने हमारी सृष्टि की है। इसलिए कहा जाता है कि हज का एक बाह्य रूप है और एक भीतरी रूप। ईश्वर एसे हज का इच्छुक है जिसमें हाजी उसके अतिरिक्त किसी अन्य से लब्बैक अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया न कहे और उसके अतिरिक्त किसी अन्य की परिक्रमा न करे। हज के संस्कारों का उद्देश्य, हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल, और हज़रत हाजरा जैसे महान लोगों के पवित्र जीवन में चिंतन-मनन करना है। जो भी इस स्थान की यात्रा करता है उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से मुक्त होना चाहिए ताकि वह हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल जैसे महान लोगों की भांति ईश्वर की परीक्षा में सफल हो सके। इस्लाम में हज मानव के आत्मनिर्माण के एक शिविर की भांति है जिसमें एक निर्धारित कालखण्ड के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम निर्धारित किये गए हैं। एक उपासना के रूप में हज, मनुष्य पर सार्थक प्रभाव डालती है। हज के संस्कार कुछ इस प्रकार के हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अहंकार और अभिमान को किसी सीमा तक दूर करते हैं। अल्लाहुम्म लब्बैक के नारे के साथ अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया, ईश्वर के घर की यात्रा करने वाले लोग अन्य क्षेत्रों में भी एकेश्वर की बारगाह में अपनी श्रद्धा को प्रदर्शित करने को तैयार हैं। लब्बैक को ज़बान पर लाने का अर्थ है ईश्वर के हर आदेश को स्वीकार करने के लिए आध्यात्मिक तत्परता का पाया जाना।इस प्रकार हज के संस्कार, मनुष्य को उच्च मानवीय मूल्यों और भौतिकता पर निर्भरता को दूर करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस मानवीय यात्रा की प्रथम शर्त, हृदय की स्वच्छता है अतःहृदय को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग करना चाहिए। जबतक मनुष्य पापों में घिरा रहता है उस समय तक ईश्वर के साथ एंकात की मिठास का आभास नहीं कर सकता। ईश्वर से निकटता के लिए पापों से दूरी का संकल्प करना चाहिए। हज के स्वीकार होने की यह शर्त है। जब दैनिक गतिविधियां मनुष्य को हर ओर से घेर लेती हैं और उच्चता क
हज का विशेष कार्यक्रम- 3
एक बार हज के समय बसरा शहर से लोगों का गुट हज के लिए मक्का गया।
जब वे लोग मक्का पहुंचे तो देखा कि मक्कावासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना है। मक्के में पानी की बहुत कमी थी। मौसम बहुत गर्म था और पानी कमी की वजह से मक्कावासी बहुत परेशान थे। बसरा के कुछ लोग काबे के पास गए ताकि परिक्रमा करें। उन्होंने ईश्वर से बहुत गिड़गिड़ा के दुआ कि वह मक्कवासियों के लिए अपनी कृपा से वर्षा भेजे। उन्होंने बहुत दुआ की लेकिन उनकी दुआ क़ुबूल होने का कोई चिन्ह ज़ाहिर न हुआ। लोग बेबस थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस दौरान एक जवान काबे की ओर बढ़ा। उस जवान ने कहाः ईश्वर जिसे दोस्त रखता है उसकी दुआ स्वीकार करेगा। यह कहकर जवान काबे के पास गया। अपना माथा सजदे में रखा और ईश्वर से दुआ की।
वह जवान सजदे में ईश्वर से कह रहा थाः "हे मेरे स्वामी! तुम्हें मेरी मित्रता की क़सम इन लोगों की बारिश के पानी से प्यास बुझा दे।" अभी जवाब की दुआ पूरी भी न हुयी था कि मौसम बदलने लगा। बादल ज़ाहिर हुआ और बारिश होने लगी। बारिश इतनी मुसलाधार हो रही थी मानो मश्क से पानी बह रहा हो। जवान ने सजदे से सिर उठाया। एक व्यक्ति ने उस जवान से कहाः हे जवान! आपको कहां से पता चला कि ईश्वर आपको दोस्त रखता है, इसलिए आपकी दुआ क़ुबूल करेगा।
जवान ने कहाः चूंकि ईश्वर ने मुझे अपने दर्शन के लिए बुलाया था, इसलिए मैं समझ गया कि वह मुझे दोस्त रखता है। इसलिए मैंने ईश्वर से अपनी दोस्ती के अधिकार के तहत बारिश का निवेदन किया और मेहरबान ईश्वर ने मेरी दुआ सुन ली। यह कह कर जवान वहां से चला गया।
बसरावासियों में से एक व्यक्ति ने पूछाः हे मक्कावासियो! क्या इस जवान को पहचानते हो? लोगों ने कहाः ये पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम हैं।
ईश्वर के घर के सच्चे दर्शनार्थी उसकी कृपा के पात्र होते हैं और ईश्वर उनकी दुआ क़ुबूल करता है।
पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः "जो भी काबे को उसके अधिकार को समझते हुए देखे तो ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देता है और जीवन के ज़रूरी मामलों को हर देता है। जो कोई हज या उम्रा अर्थात ग़ैर अनिवार्य हज के लिए अपने घर से निकले, तो घर से निकलने के समय से लौटने तक ईश्वर उसके कर्म पत्र में दस लाख भलाई लिखता और 10 लाख बुराई को मिटा देता है।"
पैग़म्बरे इस्लाम आगे फ़रमाते हैः "और वह ईश्वर के संरक्षण में होगा। अगर इस सफ़र में मर जाए तो ईश्वर उसे स्वर्ग में भेजेगा। उसके पाप माफ़ कर दिए गए, उसकी दुआ क़ुबूल होती है तो उसकी दुआ को अहम समझो क्योंकि ईश्वर उसकी दुआ को रद्द नहीं करता और प्रलय के दिन ईश्वर उसे एक लाख लोगों की सिफ़ारिश करने की इजाज़त देगा।"
कार्यक्रम के इस भाग में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम हज के बारे में बताएंगे जो पूरा नहीं हो पाया था।
यह साठ हिजरी का समय था। यज़ीद बिन मोआविया सिंहासन पर बैठा था। उसके एक हाथ में शराब का जाम होता था तो दूसरे हाथ से वह अपने बंदर के सिर को सहलाता था जिसे वह अबाक़ैस के नाम से पुकारता था। यज़ीद बंदर को इतना पसंद करता था कि उसे रेशन के कपड़े पहनाता था। उसे दूसरों से ऊपर अपने बग़ल में बिठाता था। यज़ीद भी अपने बाप मुआविया की तरह बादशाही क़ायम करने की इच्छा रखता था लेकिन उसके विपरीत वह इस्लाम के आदेश का विदित रूप से भी पालन नहीं करता था। इस्लामी जगत के लोग इसलिए सीरिया या बग़दाद की हुकुमत का पालन करते थे कि उसे इस्लामी ख़िलाफ़त समझते थे लेकिन दूसरे के मुक़ाबले में यज़ीद का मामला अलग था। वह ज़ाहिरी तौर पर भी इस्लामी आदेशों का पालन करने के लिए तय्यार नहीं था और खुल्लम खुल्लम इस्लाम के आदेशों का उल्लंघन करता था।
मोआविया ने 15 रजब सन 60 हिजरी में दुनिया से जाने से पहले बहुत कोशिश की कि कूफ़ा और मदीना के लोगों से अपने बेटे यज़ीद के आज्ञापालन का वचन ले ले मगर इसमें उसे कामयाबी न मिल सकी। वह मदीना के कुलीन वर्ग के लोगों के पास गया और अपनी मीठी मीठी बातों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और अब्दुल्लाह बिन उमर से जिनका मदीनावासी सम्मान करते थे, यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने की कोशिश की लेकिन इन लोगों ने इंकार कर दिया। मोआविया ने अपनी मौत के वक़्त यज़ीद को नसीहत करते हुए कहाः "हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम के साथ नर्म रवैया अपनाना। वह पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और मुसलमानों में उनका ऊंचा स्थान है।" मोआविया जानता था कि अगर यज़ीद ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम से दुर्व्यवहार किया और अपने हाथ को उनके ख़ून से साना तो वह हुकूमत नहीं कर पाएगा और सत्ता अबू सुफ़ियान के परिवार से निकल जाएगी। यज़ीद खुल्लम खुल्ला पाप करता था, वह भोग विलास के माहौल में पला बढ़ा था और इन्हीं चीज़ों में वह मस्त रहता था। उसमें राजनीति की समझ न थी। वह जवानी व धन के नशे में चूर था।
मोआविया की मौत के बाद यज़ीद ने अपने पिता की नसीहत के विपरीत मदीना के गवर्नर को एक ख़त लिखा जिसमें उसने अपने पिता की मौत की सूचना दी और उसे आदेश दिया कि वह मदीना वासियों से उसके आज्ञापालन का प्रण ले जिसे बैअत कहते हैं। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को लिखा कि हुसैन बिन अली से भी आज्ञापालन का प्रण लो अगर वह प्रण न लें तो उनका सिर क़लम करके मेरे पास भेज दो। मदीना के राज्यपाल ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलवाया और उन्हें मोआविया की मौत की सूचना दी और उनसे कहा कि वह यज़ीद के आज्ञापालन का प्रण लें। इसके जवाब में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "हे शासक! हम पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से हैं। वह ख़ानदान जिनके घर फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है। यज़ीद शराबी, क़ातिल और खुल्लम खुल्ला पाप करता है। खुल्लम खुल्ला अपराध करता है। मुझ जैसा उस जैसे का आज्ञापालन नहीं कर सकता।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने कर मक्का जाने का फ़ैसला किया। वह 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीने से मक्का चले गए।
कूफ़े के लोगों को इस बात का पता चल गया कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने से इंकार किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों ने उन्हें बहुत से ख़त लिखे और उनसे कूफ़ा आने का निवेदन किया। कूफ़ेवासियों ने अपने ख़त में लिखाः "हमारी ओर आइये हमने आपकी मदद के लिए बहुत बड़ा लश्कर तय्यार कर रखा है।" 8 ज़िलहिज सन 60 हिजरी को उमर बिन साद एक बड़े लश्कर के साथ मक्के में दाख़िल हुआ। उसे हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को हज के दौरान जान से मारने के लिए कहा गया था। 8 ज़िलहिज जिसे तरविया दिवस कहा जाता और इस दिन हाजी अपना हज शुरु करते हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने हज को उम्रे से बदल कर मक्के से निकलने पर मजबूर हुए ताकि पवित्र काबे का सम्मान बना रहे। दूसरी बात यह कि अगर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज के दौरान क़त्ल हो जाते तो लोग यह न समझ पाते कि उन्हें अत्याचारी यज़ीद का आज्ञापालन न करने की वजह से शहीद किया गया है।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि कूफ़ावासी वचन के पक्के नहीं हैं। वह जानते थे कि उनका अंजाम शहादत है लेकिन वह यज़ीद जैसे अत्याचारी की हुकूमत के संबंध में चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने मक्के से निकलने से पहले अपना वसीयत नामा अपने भाई मोहम्मद बिन हन्फ़िया को दिखा जिसमें आपने फ़रमायाः "लोगो! जान लो कि मै सत्तालोभी, भ्रष्ट व अत्याचारी नहीं हूं और न ही ऐसा कोई लक्ष्य रखता हूं। मेरा आंदोलन सुधार लाने के लिए है। मैं उठ खड़ा हुआ हूं ताकि अपने नाना के अनुयाइयों को सुधारूं। मैं भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना चाहता हूं।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मक्के से निकलते वक़्त लोगों से बात की और अपनी बातों से उन्हें समझाया कि उन्होंने यह मार्ग पूरी सूझबूझ से चुना है और जानते हैं कि इसका अंजाम ईश्वर के मार्ग में शहादत है। जो लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद करना चाहते थे वे उनसे रास्ते में कहते रहते थे कि इस आंदोलन का अंजाम सत्ता की प्राप्ति नहीं है।
इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथ चलने वालों से कहते थे "आपमें से वहीं मेरे साथ चले जो अपनी जान को ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बान करने और उससे मुलाक़ात करने का इच्छुक हो।"
यह वादा कितनी जल्दी पूरा हुआ और 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी को आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथियों के साथ ईश्वर के मार्ग में शहीद हो गए लेकिन अत्याचार को सहन न किया। श्रोताओ! इन्हीं हस्तियों पर पवित्र क़ुरआन के क़मर नामक सूरे की आयत नंबर 54 और 55 चरितार्थ होती है जिसमें ईश्वर कहता हैः "निःसंदेह सदाचारी स्वर्ग के बाग़ में रहेंगे। उस पवित्र स्थान पर जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है।"
हज का विशेष कार्यक्रम- 4
एक बार की बात है एक व्यक्ति बहुत दूर से बड़ी कठिनाइयों के साथ हज करने मक्का पहुंचा।
ईश्वर से प्रेम और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की क़ब्र का दर्शन करने के उत्साह ने उसके लिए कठिनाइयों को आसान कर दिया था। उसने हज के संस्कार बहुत उत्साह से अंजाम दिए। उसे इस बात की मनोकामना थी कि ईश्वर उसके कर्म को स्वीकार कर ले। दूसरे हाजियों के साथ वह भी मिना नामक स्थान पर गया ताकि वहां के विशेष संस्कार अंजाम दे। जो रात मिना में बिताते हैं वहां उसने स्वप्न में देखा कि ईश्वर ने दो फ़रिश्ते भेजे जो हाजियों के सिरहाने खड़े हें। फ़रिश्ते कुछ लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह व्यक्ति हाजी है" अर्थात इसका हज ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है लेकिन कुछ दूसरे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह हाजी नहीं है।" उस व्यक्ति ने देखा कि दो फ़रिश्ते उसके भी सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं "यह व्यक्ति हाजी नहीं है।"
इस व्यक्ति की डर के मारे आंख खुल गयी। उसने अपने आस-पास देखा। दिल पर काफ़ी बोझ महसूस कर रहा था। उसने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहाः "हे ईश्वर! इतनी कठिनाइयां सहन करते हुए आया हूं कि तेरा हज अंजाम दूं। आख़िर किस वजह से मेरा हज क़ुबूल नहीं है?" वह अपने कर्म के बारे में सोच रहा था। विगत के बारे में सोच रहा था कि किस बुरे कर्म की वजह से वह ईश्वर की कृपा से दूर हो गया है। जिस जगह हाजियों के पाप क्षमा किए जाते हैं, उससे कौन सा ऐसा पाप हुआ है कि जो क्षमा योग्य नहीं है।
कुछ सोचने के बाद उसे लगा कि उसने ख़ुम्स और ज़कात नामक विशेष कर नहीं दिए है। उसने अपने बच्चों को ख़त लिखा और कहाः "मैं इस साल मक्के में रह जाउंगा। मेरी पूरी संपत्ति का हिसाब करो और संपत्ति में ख़ुम्स या ज़कात बाक़ी हो तो निकाल दो।"
जब उस व्यक्ति का ख़त उसके बेटों को मिला तो उन्होंने पिता के आदेश पर अमल किया। अगले साल फिर उस व्यक्ति ने हज के संस्कार शुरु किये। पिछली बार कि तरह जब वह मिना में रात में रुकने के लिए ठहरा तो उसने स्वप्न में उन्हीं दो फ़रिश्तों को देखा जो हाजियों के सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं कि अमुक व्यक्ति हाजी है और अमुक व्यक्ति हाजी नहीं है। जब फ़रिश्ते उसके सिरहाने पहुंचे तो उन्होंने फिर कहा कि वह हाजी नहीं है। वह व्यक्ति नींद से जागा तो बहुत दुखी व हैरान था। वह जानना चाहता था कि किस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हो रहा है। उसे याद आया कि उसका पड़ोसी जो ग़रीब था और उसका घर छोटा था। जिस वक़्त उसने चाहा कि अपना घर बनाए तो पड़ोसी ने उससे कहा था कि घर को ज़्यादा ऊंचा न करे कि सूरज की रौशनी आना रुक जाए और उसके घर में अंधेरा छा जाए। लेकिन उस व्यक्ति ने पड़ोसी की बात को अहमियत न दी और कई मंज़िला घर बना लिया। उसे लगा कि शायद इस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हुआ।
इस व्यक्ति ने एक बार फिर अपने घर वालों को ख़त लिखा जिसमें उसने कहाः "मैं इस साल भी मक्के में रुकुंगा। तुम अमुक पड़ोसी से बात करो कि वह अपना घर बेच दे और अगर न बेचे तो घर की दो मंज़िलों को गिरा दो ताकि पड़ोसी के घर में अंधेरा न रहे।" इस व्यक्ति के परिवार वाले पड़ोसी के पास गए उससे बात की तो वह घर बेचने के लिए तय्यार न हुआ। मजबूर होकर उन्होंने अपने घर के दो मंज़िले गिरा दिए ताकि पड़ोसी राज़ी हो जाए। फिर हज का महीना आ पहुंचा। उस व्यक्ति ने मिना नामक स्थान में स्वप्न में उन्हीं दोनों फ़रिश्तों को देख़ा लेकिन इस बार मामला अलग था। जब दोनों फ़रिश्ते उस व्यक्ति के सिरहाने पहुंचे तो कई बार कहाः "यह व्यक्ति हाजी है। यह व्यक्ति हाजी है।" पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "ईश्वर उस व्यक्ति पर प्रलय के दिन कृपा नहीं करेगा जो अपने रिश्तेदारों से संबंध विच्छेद करे और पड़ोसी के साथ बुराई करे।"
अब्दुर्रहमान बिन सय्याबा नामक व्यक्ति कूफ़े में रहता था। जवानी में उसके पिता की मौत हो गयी। जब उसके पिता की मौत हुयी तो उसे मीरास में पिता से कुछ नहीं मिला। एक ओर पिता की मृत्यु दूसरी ओर निर्धनता व बेरोज़गारी से अब्दुर्रहमान की चिंता दुगुनी हो गयी थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। किस तरह अपनी और अपनी मां की ज़िन्दगी के सफ़र को आगे बढ़ाए। एक दिन इसी सोच में बैठा हुआ था कि किसी व्यक्ति ने घर का दरवाज़ा खटखटाया। जब उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि उसके पिता के दोस्त खड़े हैं। पिता के दोस्त ने उसे पिता के मरने पर सांत्वना दी और पूछा कि पिता से मीरास में कुछ धन मिला है जिससे अपना जीवन निर्वाह कर सके। अब्दुर्रहमान ने सिर नीचे किया और कहाः नहीं।
उस व्यक्ति ने पैसों से भरा एक थैला अब्दुर्रहमान को दिया और कहाः "यह एक हज़ार दिरहम हैं। इससे व्यापार करो और व्यापार से हासिल मुनाफ़े से जीवन चलाओ।" वह व्यक्ति यह कह कर अब्दुर्रहमान से विदा हुआ। अब्दुर्रहमान ख़ुशी ख़ुशी अपनी मां के पास आया और पैसों की थैली मां को दिखाते हुए पूरी घटना बतायी।
अब्दुर्रहमान ने अपने पिता के दोस्त की नसीहत पर अमल करने का फ़ैसला किया। उसने उसी दिन पैसों से कुछ चीज़ें ख़रीदी और एक दुकान लेकर व्यापार शुरु कर दिया। ज़्यादा समय नहीं गुज़रा था कि अब्दुर्रहमान का व्यापार चल निकला। उसने उन पैसों से अपने जीवन यापन के ख़र्च निकालने के साथ साथ पूंजि भी बढ़ायी। जब उसे लगा कि अब वह हज का ख़र्च उठा सकता है तो उसने हज करने का फ़ैसला किया। वह मां के पास गया और मां को अपने इरादे के बारे में बताया। मां ने कहा कि पहले पिता के दोस्त का क़र्ज़ लौटाओ जिसने तुम्हें क़र्ज़ दिया था। उनका पैसा हमारे लिए बर्कत का कारण बना। पहले उनका क़र्ज़ लौटाओ फिर मक्का जाओ।
अब्दुर्रहमान अपने पिता के दोस्त के पास गया। एक हज़ार दिरहम से भरी थैली उनके सामने रखी तो उन्होंने उस थैले को देखकर पूछा कि यह क्या है?
अब्दुर्रहमान ने कहा कि ये वही हज़ार दिरहम हैं जो आपने मुझे क़र्ज़ दिए थे। उस व्यक्ति ने कहा कि अगर हज़ार दिरहम से तुम्हारी मुश्किल हल नहीं हुयी और तुम अपने लिए उचित कारोबार न कर सके तो मैं और पैसे देता हूं। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं पैसे कम नहीं थे बल्कि इन पैसों से बहुत बर्कत हुयी अब मुझे इन पैसों की ज़रूरत नहीं है। मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूं। चूंकि हज करने जाना चाहता हूं इसलिए आपके पास आया कि पहले आपका क़र्ज़ अदा करूं। वह व्यक्ति ख़ुश हुआ और उसने अब्दुर्रहमान को दुआ दी।
अब्दुर्रहमान हज के लिए गया। हज के संस्कार के बाद वह पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में मदीना पहुंचा। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के घर पर बहुत भीड़ थी। अब्दुर्रहमान सबसे पीछे बैठ गया और इंतेज़ार करने लगा कि लोगों की भीड़ कुछ कम हो। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान की ओर इशारा किया और वह उनके निकट गया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः कोई काम है? अब्दुर्रहमान ने कहाः मैं कूफ़े के निवासी सय्याबा का बेटा अब्दुर्रहमान हूं। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान से उसके पिता का कुशलक्षेम पूछा कि वह कैसे हैं। अब्दुर्रहमान ने कहा कि वह तो परलोक सिधार गए। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहाः ईश्वर उन पर अपनी कृपा करे। क्या पिता की मीरास से कुछ बचा है। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं, उनकी मीरास से कुछ नहीं बचा है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः फिर किस तरह तुम हज का ख़र्च वहन कर सके?
अब्दुर्रहमान ने अपनी ग़रीबी और पिता के दोस्त की ओर से मदद की घटना का वर्णन किया और कहाः "मैं ने उन पैसों से हासिल हुए मुनाफ़े से हज किया है।"
जैसे ही अब्दुर्रहमान ने यह कहा इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उससे पूछाः तुमने पिता के दोस्त के हज़ार दिरहम का क्या किया?
अब्दुर्रहमान ने कहाः मां से बात करके मैंने हज पर रवाना होने से पहले ही क़र्ज़ चुका दिया।
इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "शाबाश! हमेशा सच बोलो और ईमानदार रहो। ईमानदार व्यक्ति की लोग अपने धन से मदद करते हैं।"
हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील अ.स. की शहादत के मौके संक्षिप्त परिचय
सन 60 हिजरी में जब मुआविया की मौत की ख़बर कूफ़ा पहुँची तो सुलैमान बिन सुरद ख़ुज़ाई के घर में एक राजनीतिक बैठक हुई. यह उस समय की बात है जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम यज़ीद की बैअत से इन्कार करके मक्का की ओर हिजरत कर चुके थे और इस बैठक में शामिल लोग इमाम हुसैन (अ.स.) के इस क़दम से वाक़िफ़ थे।
،सन 60 हिजरी में जब मुआविया की मौत की ख़बर कूफ़ा पहुँची तो सुलैमान बिन सुरद ख़ुज़ाई के घर में एक राजनीतिक बैठक हुई. यह उस समय की बात है जब इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम यज़ीद की बैअत से इन्कार करके मक्का की ओर हिजरत कर चुके थे और इस बैठक में शामिल लोग इमाम हुसैन (अ.स.) के इस क़दम से वाक़िफ़ थे।
इस बैठक में यह तय किया गया कि सब मिलकर इमाम हुसैन (अ) की मदद करेंगे, उन्हें अकेला नहीं छोड़ेंगे और अपनी जानें भी उन पर क़ुर्बान कर देंगे. फिर बैठक के आयोजकों ने मिलकर इमाम हुसैन (अ) को एक ख़त लिखा, जिसमें आप (अ) को कूफ़ा आने की दावत दी गई।
इस ख़त पर सुलैमान बिन सुरद ख़ुज़ाई, मुसैयब बिन नजबा, रिफ़ाआ बिन शद्दाद और हबीब इब्ने मज़ाहिर के दस्तख़त थे और यह लोग हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम के पैरोकार थे।
यह ख़त इमाम हुसैन (अ) की ख़िदमत में 10 रमज़ान 60 हिजरी को पहुँचा, जब आप (अ) मक्का में ठहरे हुए थे और यह अहले कूफ़ा की तरफ़ से पहला ख़त था। जब इस ख़त की ख़बर कूफ़ा में आम हुई, तो दूसरे कूफ़ियों ने भी इमाम हुसैन (अ) को ख़त लिखना शुरू कर दिए।
ताकि कूफ़ा पर इमाम हुसैन (अ) की हुकूमत क़ायम हो जाने की सूरत में उन्हें भी इक़्तेदार में कोई हिस्सा मिल सके। यह लोग इमाम अली (अ) के शीआ व पैरोकार नहीं थे, बल्कि मनफ़'अत तलब ख़ारजी लोग थे।
लिहाज़ा जब हालात बदले और कूफ़ा पर उबैदुल्लाह इब्ने ज़ियाद मलऊन मुसल्लत हो गया, तो यही लोग करबला में मौजूद यज़ीदी लश्कर में शामिल हो गए और इमाम हुसैन (अ) के ख़िलाफ़ तलवारें उठा लीं. तारीख़ लिखने वालों ने इनके नाम शबस बिन रबई, हज्जार बिन अब्जर, यज़ीद बिन अल-हारिस, यज़ीद बिन रोयम, अज़रा बिन क़ैस, अम्र बिन अल-हज्जाज ज़ुबैदी और मुहम्मद बिन उमैर तमीमी लिखे हैं...
इन लोगों ने इमाम हुसैन (अ) को लिखा था: "माहौल साज़गार है, फल तैयार हैं, तेज़ रफ़्तार घोड़े भी तैयार हैं, बस अगर आप (अ) इरादा कर लें तो तशरीफ़ ले आएँ, एक तैयार लश्कर आप (अ) के लिए मौजूद होगा."
ख़त का मज़मून बता रहा है कि लिखने वाले शीआ व पैरोकार ए इमाम नहीं हैं, क्योंकि शीओं ने इमाम हुसैन (अ) को जो ख़त लिखा था उसमें बनी उमय्या, ख़ासकर यज़ीद की हुकूमत तस्लीम न करने का ज़िक्र है और आप (अ) को बतौरे हाकिम व इमाम क़ुबूल करने की तरफ़ इशारा है, और कूफ़ा के हाकिम नोमान बिन बशीर के पीछे नमाज़ न पढ़ने का तज़किरा भी मौजूद है।
जबकि शबस बिन रबई वग़ैरह के ख़त में कहीं से कहीं तक ऐसा मफ़हूम मौजूद नहीं है. फिर रोज़े आशूर इमाम हुसैन (अ) ने शबस बिन रबई और उसके साथियों को नाम-ब-नाम बुलंद आवाज़ से पुकारा था और यह पूछा था कि क्या तुमने मुझे ख़त नहीं लिखा था? और कूफ़ा आने की दावत नहीं दी थी? (तो अब क्यों मेरे ख़िलाफ़ तलवारें खींच लीं?)
इसके अलावा और भी ख़त व ख़ुतूत कूफ़ा से आप (अ) की सेवा में पहुँचे।
दूसरी तरफ़, मक्का में आप (अ) का मुहासिरा शुरू हो चुका था और पूरी सल्तनते इस्लामी में किसी भी शहर वालों ने आप (अ) की हिमायत का एलान नहीं किया था और न ही किसी ने आप (अ) को अपने पास आने की दावत दी थी।
*हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील (अ) की कूफ़ा रवानगी*
इन हालात में, यह जानते हुए भी कि कूफ़ा वाले आप (अ) को दुश्मन के हवाले कर देंगे, कूफ़ा में जो पहला रद्दे अमल यज़ीद के ख़िलाफ़ सामने आ चुका था, उसे इमाम हुसैन (अ) नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे, बावजूद इसके कि आप (अ) उसके अंजाम से वाक़िफ़ थे और जानते थे कि हालात का ऊँट किस करवट बैठेगा।
एक बेदार और बा-सलाहियत इमाम, क़ाएद व रहबर की हैसियत से जो बात आप पर लाज़िम बनती थी, वह यह थी कि आप (अ) कूफ़ा की जानिब फ़ौरी तौर पर अपना नुमाइंदा रवाना कर दें और इस क़दम में किसी क़िस्म की ताख़ीर न फ़रमाएँ।
कूफ़ा में यज़ीदी हुकूमत के ख़िलाफ़ जो अवामी लहर उठी थी, उसे आप नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते थे, बल्कि जिस क़दर भी मुमकिन था इमाम हुसैन (अ) ने उसे अपने हक़ में इस्तेमाल किया, और इंक़लाबी सोच में यह बात दुरुस्त भी नहीं थी कि कूफ़ा का जो समाज तब्दीली का ख़्वाहा था, उसे वादा-ख़िलाफ़ी के डर से अहमियत न दी जाए लिहाज़ा, इमाम हुसैन (अ) ने अपने चचाज़ाद भाई हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील को अपना सफ़ीर बनाकर कूफ़ा रवाना कर दिया।
इमाम हुसैन (अ) का कूफ़ा वालों के मुतालिबे पर अपनी जानिब से नुमाइंदा-ए-ख़ास रवाना करना और ख़ुद तशरीफ़ न ले जाना, यह उन तमाम एतराज़ करने वालों के लिए जवाब है जो यह ख़याल करते हैं कि इमाम हुसैन (अ) को कूफ़ा वालों की ज़हनियत का इल्म न था और यह कि आप (अ) इस तहरीक के अंजाम से बेख़बर थे।
बहरहाल! इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने हज़रत मुस्लिम इब्ने अक़ील को कूफ़ा रवाना किया और ख़त के ज़रिए कूफ़ा वालों को आपका इस तरह तारुफ़ कराया कि "वह (मुस्लिम बिन अक़ील) मेरे चचाज़ाद भाई हैं, वह मेरे अहले-बैत (अ) से हैं और मेरे मोतमद हैं."
इमाम हुसैन (अ) के यह जुमले हज़रत मुस्लिम की अज़मत को वाज़ेह करते हैं।
हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील रसूल अल्लाह (स.अ) से बहुत मुशाबेह थे, इस बात को इब्ने हजर ने सहीह बुख़ारी की शरह में भी बयान किया है और बहुत से अफ़राद ने हज़रत मुस्लिम से रिवायतें नक़्ल की हैं।
बुख़ारी का क़ौल है कि सफ़वान बिन मौहब ने मुस्लिम बिन अक़ील से ख़ुद सुना और सफ़वान से अम्र बिन दीनार और अता ने रिवायत की है।
हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील की विलादत 7 या 8 हिजरी मदीना ए मुनव्वरा में हुई. आपके वालिद हज़रत अक़ील इब्ने अबीतालिब हैं जो हज़रत अमीरुल मोमिनीन अली इब्ने अबी तालिब अलैहिस्सलाम के बड़े भाई थे. हज़रत मुस्लिम की वालिदा-ए-माजिदा जनाब सैयदा ख़लीला थीं, जिनका तअल्लुक़ कूफ़ा और बसरा के दरमियान एक आबादी से था, और ख़ानदानी तौर पर आप क़बीलए बनी नबत से तअल्लुक़ रखती थीं, जिनके बारे में हज़रत अली (अ) से रिवायत है कि यह नबीउल्लाह हज़रत इब्राहीम (अ) की क़ौम हैं।
जिसका मतलब यह हुआ कि आप क़ुरैश की अस्ल व बुनियाद हैं. लिहाज़ा, यह क़िस्सा बेबुनियाद है कि: "हज़रत अक़ील ने मुआविया से एक कनीज़ की दरख़्वास्त की थी और यह कहा था कि मैं उससे शादी करूँगा और उससे एक बेटा पैदा होगा जो तेरे बेटे के ख़िलाफ़ लड़ेगा..."
इस क़िस्से का झूठ इतना वाज़ेह है जिस पर किसी दलील की ज़रूरत नहीं है, क्योंकि जब सफ़र 37 हिजरी में अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपनी फ़ौज को सिफ़्फ़ीन के लिए तैयारी का हुक्म दिया, तो अपनी फ़ौज के मैमनेह पर इमाम हसन (अ), इमाम हुसैन (अ), अब्दुल्लाह बिन जाफ़र और मुस्लिम बिन अक़ील (अ) को क़रार दिया।
अब जो लोग मुआविया की कनीज़ से जनाब मुस्लिम को मुतवल्लिद बताते हैं, उनके हिसाब से जनाबे मुस्लिम की उम्र शहादत के वक़्त 30 साल से कम होती है और आपकी शहादत 60 हिजरी में हुई है, तो सिफ़्फ़ीन के वक़्त आपकी उम्र 10 साल से कम ही रहेगी, जबकि इमाम अली (अ) 10 साल से कम उम्र के बच्चे को मैमनह सुपुर्द नहीं फ़रमा सकते. फिर बनी हाशिम के दूसरे जवान जिन्हें इमाम अली (अ) ने सिफ़्फ़ीन में मैमनह सुपुर्द फ़रमाया था, उनकी उम्रें भी 30 साल से ज़ियादा थीं और इस मौक़े पर जनाब मुस्लिम की उम्र भी तक़रीबन 30 बरस थी और शहादत के वक़्त 53 या 52 साल।
जिस तरह हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम की वालिदा के इंतख़ाब में करबला का ख़ास ख़याल रखा गया था और इसमें हज़रत अक़ील ने हज़रत अली (अ) की मदद की थी, उसी तरह, क्या ख़ुद हज़रत अक़ील ने हज़रत मुस्लिम की वालिदा के इंतख़ाब में इस बात का लिहाज़ न रखा होगा?
यक़ीनन हज़रत अक़ील के पेशेनज़र वह कारनामा ज़रूर रहा होगा जिसे हज़रत मुस्लिम ने कूफ़ा में अंजाम दिया और फिर यही एहतमाल हज़रत अक़ील की उन दूसरी औलादों के बारे में क्यों नहीं दिया जा सकता जिन्होंने करबला में अपनी क़ीमती जानें राहे-हक़ में क़ुर्बान कर दीं? लिहाज़ा, हज़रत मुस्लिम की वालिदा के इंतख़ाब में तमाम अक़्ली और अख़लाक़ी पहलुओं और सिफ़ात का ज़रूर ख़याल रखा गया होगा जो अपने बच्चों में शौक़े-शहादत, ईसार, फ़िदाकारी और राहे-हक़ में क़ुर्बानी का जज़्बा कूट-कूट कर भर दे और यह सिफ़ात व जज़्बात मुआविया के दरबार की परवरदा किसी भी कनीज़ से बईद और दूर हैं।
दूसरे यह कि 60 हिजरी में कूफ़ा के सियासी हालात धमाकाख़ेज़ थे. इन बोहरानी हालात में इमाम हुसैन (अ) ने मुस्लिम बिन अक़ील जैसे पुख़्ता सियासी बसीरत रखने वाले निहायत तजुर्बेकार शख़्स का इंतख़ाब फ़रमाया।
जब हम कूफ़ा में हज़रत मुस्लिम की मौजूदगी के ज़माने का तज़ज़िया करते हैं, तो हज़रत मुस्लिम बिन अक़ील को एक जंग-आज़मूदा, सियासी बसीरत रखने वाला और ऐसे हालात में बेहतरीन मंसूबा बंदी करने वाले के तौर पर पाते हैं।
कूफ़ा में इंक़लाब की सूरत-ए-हाल थी, हालात बहुत ख़राब थे. इन हालात में एक ना-तजुर्बेकार जवान को इमाम हुसैन (अ.स.) की जानिब से भेजा जाना सहीह मालूम नहीं होता और फिर जो कुछ हज़रत मुस्लिम ने इक़्दामात किए उनसे भी यही ज़ाहिर होता है कि आप एक मंझे हुए सियासतदान और तजुर्बेकार दिलावर थे, न कि ना-तजुर्बेकार जवान!
हज़रत मुस्लिम ने इस्लामी फ़ुतूहात में भी बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया था. मोर्रिख़ वाक़िदी ने अपनी किताब "फ़ुतूह अश-शाम" में इसका तज़किरा किया है।
बहरहाल! हज़रत मुस्लिम 5 शव्वाल 60 हिजरी को कूफ़ा में दाख़िल हुए और इमाम हुसैन (अ) की नसीहत के मुताबिक़ कूफ़ा में सबसे ज़ियादा मोतमद शख़्स के घर में उतरे।
शैख़ मुफ़ीद ने यह घर जनाबे मुख़्तार स़क़फ़ी का लिखा है और मसऊदी, इब्ने हजर और शैख़ अब्बास क़ुम्मी ने "औसजा" का लिखा है जिनके बेटे "मुस्लिम" करबला में शहीद हुए।
हज़रत मुस्लिम कूफ़ा में मख़्फ़ियाना तौर पर वारिद हुए और राज़दारी के साथ हज़रत इमाम हुसैन (अ) के लिए बैअत और हिमायत लेने का अमल शुरू किया और 12 से 18 हज़ार तक लोगों ने आपकी बैअत की।
जनाबे मुस्लिम ने यह तमाम हालात इमाम हुसैन (अ.स.) को लिख भेजे और कूफ़ा आने की दरख़्वास्त की. इमाम हुसैन (अ) 8 ज़ील हिज्ज 60 हिजरी मक्का से कूफ़ा के लिए रवाना हो गए, लेकिन आप (अ) से पहले यज़ीद का भेजा हुआ इब्ने ज़ियाद मलऊन कूफ़ा में दाख़िल हो गया. इब्ने ज़ियाद ख़बीस ने नक़ाब डाल रखी थी और लोगों को हिजाज़ी सलाम कर रहा था, जिससे लोगों ने यह धोखा खाया कि यह इमाम हुसैन (अ) हैं।
इब्ने ज़ियाद मलऊन ने लालच, धोखा, धौंस, धमकी के ज़रिए अपना तसल्लुत कूफ़ा पर बरक़रार कर लिया और जनाबे मुस्लिम के मददगारों को गिरफ़्तार करना शुरू कर दिया. जनाबे मुस्लिम तन्हा व बे यार व मददगार रह गए. हज़रत मुस्लिम कूफ़े की गलियों में इस तरह तन्हा और बे-सहारा फिर रहे थे कि उन्हें रास्ता बताने वाला भी कोई नहीं था. रात की तारीकी में हैरान व परेशान जिधर रुख़ होता उधर चल पड़ते यहाँ तक कि आप मोहल्ला किन्दा में पहुँच गए. वहाँ आपने देखा कि एक औरत दरवाज़े पर खड़ी अपने बेटे का इंतज़ार कर रही है. तो'अह नाम की इस ख़ातून ने आपको पनाह दी और अपने घर के अंदर ले गई, और फिर उसके बेटे ने मुस्लिम को अपने घर में देखकर इनाम के लालच में इब्ने ज़ियाद ख़बीस को ख़बर कर दी।
इब्न ज़ियाद मलऊन ने मुहम्मद इब्ने अश'अस इब्ने क़ैस किंदी की सरपरस्ती में लश्कर भेज कर हज़रत मुस्लिम को अमान देने के नाम पर धोके से गिरफ़्तार करा लिया। जब तक आप ज़ख़्मों से चूर न हो गए, किसी की हिम्मत न हो सकी कि आपके नज़दीक आ जाता। इसके बाद मलऊन इब्ने ज़ियाद ने 9 ज़ील हिज्ज 60 हिजरी निहायत बेदर्दी से दारुल-इमाराह से नीचे गिरवा दिया और फिर पहले बनी हाशिम के शहीद का सर तन से जुदा करके लाश को कूफ़ा के गली-कूचों में रस्सी बांधकर घसीटा गया और इस तरह बनी उमय्या ने बनी हाशिम की एक और शख़्सियत के ख़ून से अपने दामन को आलूदा कर लिया।
जनाबे मुस्लिम की इस क़ुर्बानी के नतीजे में तक़रीबन 60 कूफ़ियों ने कूफ़ी ईमान से बराअत का ऐलान किया और वह सैय्यदुश्शुहदा इमाम हुसैन (अ) के साथ करबला में शहीद हो गए और उन्होंने यह साबित कर दिया कि कूफ़ा पर छाई हुई फ़ज़ा का तअल्लुक़ कूफ़ा और इराक़ के जुग़राफ़िया से नहीं है, बल्कि इसका तअल्लुक़ एक बीमारी से है. इस बीमारी में हर वह इंसान मुब्तला हो सकता है जिसमें क़ुव्वते-मुदाफ़ियत और ताक़त मौजूद न हो. वह बीमारी है ईमान का ज़अफ़ व कमज़ोरी और दुनियावी लालच! इस वजह से हर वह इंसान इस बीमारी में मुब्तला हो सकता है जिसका ईमान ज़ईफ़ हो चाहे उसका तअल्लुक़ किसी भी इलाक़े से हो।
हज का सामूहिक और वैश्विक महत्व - मुस्लिम उम्माह की एकता का एक व्यावहारिक प्रदर्शन
हज केवल एक व्यक्तिगत इबादत ही नहीं है, बल्कि एक वैश्विक समागम भी है जो दुनिया भर के मुसलमानों को एक मंच पर लाता है। यह समागम न केवल धार्मिक है, बल्कि इसका सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक महत्व भी है। हज मुस्लिम उम्माह के बीच एकता, भाईचारे, समानता और सार्वभौमिक भाईचारे का सबसे बड़ा प्रदर्शन है।
हज केवल एक व्यक्तिगत इबादत ही नहीं है, बल्कि एक वैश्विक समागम भी है जो दुनिया भर के मुसलमानों को एक मंच पर लाता है। यह समागम न केवल धार्मिक है, बल्कि इसका सांस्कृतिक, सामाजिक, नैतिक और राजनीतिक महत्व भी है। हज मुस्लिम उम्माह के बीच एकता, भाईचारे, समानता और सार्वभौमिक भाईचारे का सबसे बड़ा प्रदर्शन है।
- रंग और नस्ल से परे: समानता की अभिव्यक्ति
दुनिया की कोई भी ताकत इंसानों के बीच रंग, नस्ल, भाषा और सामाजिक स्थिति को पूरी तरह से खत्म करने में सफल नहीं हुई है, लेकिन हज एक ऐसी इबादत है जिसमें:
अरब और गैर-अरब एक साथ खड़े होते हैं, काले और गोरे एक जैसे कपड़े पहनते हैं, अमीर और गरीब एक ही धरती पर सोते हैं।
यह वह वास्तविकता है जिसे पवित्र पैगंबर (स) ने अपने विदाई उपदेश में कहा था: "एक अरब किसी गैर-अरब पर श्रेष्ठ नहीं है, न ही एक गैर-अरब किसी अरब पर, सिवाय धर्मपरायणता के।"
- मुस्लिम उम्मा की एकता: सार्वभौमिक भाईचारा
हज हर साल दुनिया भर के मुसलमानों को एक साथ लाता है। हर क्षेत्र, हर देश और हर भाषा के लोग एक जगह इकट्ठा होते हैं और अल्लाह के सामने झुकते हैं। यह जमावड़ा दर्शाता है कि:
मुस्लिम उम्मा एक शरीर की तरह है; उनके दर्द, खुशियाँ, लक्ष्य और मंज़िल एक हैं। हज इस एकता की व्यावहारिक अभिव्यक्ति है।
यह समागम उम्माह को राजनीतिक, बौद्धिक और आध्यात्मिक शक्ति प्रदान करता है।
- वर्तमान की भाषा से संदेश: हम एक हैं
चाहे कोई अंग्रेजी, अरबी, उर्दू, फारसी या स्वाहिली बोलता हो - तलबिया, तवाफ, नमाज़ और दुआएं एक ही तरीके से की जाती हैं। भाषाएं अलग-अलग हैं लेकिन दिलों की धड़कन एक है। यह सार्वभौमिक संदेश है जो दुनिया का कोई भी सम्मेलन, बैठक या संगठन इतनी तीव्रता से नहीं दे सकता।
- इस्लामी संस्कृति और सभ्यता का प्रदर्शन
हज के दौरान:
इस्लामी पोशाक (इहराम) प्रदर्शित की जाती है
तक़वा, धैर्य, सहनशीलता और सहिष्णुता की इस्लामी शिक्षाओं का व्यावहारिक रूप से प्रदर्शन किया जाता है
इस्लामी इतिहास और पूर्वजों को याद किया जाता है
ये सभी तत्व इस बात का प्रमाण देते हैं कि इस्लाम जीवित और स्वस्थ है।
- वैश्विक मुद्दों के बारे में जागरूकता
हज के दौरान, विभिन्न क्षेत्रों के मुसलमान एक-दूसरे से मिलते हैं, अपने-अपने क्षेत्रों की स्थितियों, कठिनाइयों और सफलताओं का वर्णन करते हैं। इस आदान-प्रदान से:
एक-दूसरे की समस्याओं के प्रति जागरूकता पैदा होती है
उम्माह में सहानुभूति, सहयोग और बौद्धिक जागरूकता पैदा होती है
वैश्विक एकता की दिशा में एक व्यावहारिक कदम उठाया जाता है
- एक आदर्श समाज का व्यावहारिक मॉडल
हज के दौरान, लाखों लोग कुछ दिनों के लिए एक ही स्थान पर रहते हैं:
कोई झगड़ा नहीं, कोई अव्यवस्था नहीं
हर कदम पर धैर्य, त्याग, समानता और भाईचारा दिखाई देता है
यह सब इस बात का संकेत है कि अगर इस्लामी शिक्षाओं को अपनाया जाए तो दुनिया में शांति, न्याय और भाईचारा कायम हो सकता है।
सारांश
हज मुस्लिम उम्माह के लिए एक वैश्विक अभ्यास है:
जहां व्यवहार में एकता का प्रदर्शन किया जाता है
जहां रंग और नस्ल की मूर्तियों को तोड़ा जाता है
जहां एक उम्माह की अवधारणा को पुनर्जीवित किया जाता है
यह वह भावना है जिसे अगर हम पूरे साल अपने जीवन में बनाए रखें तो न केवल मुस्लिम उम्माह मजबूत होगा, बल्कि दुनिया में शांति, प्रेम और न्याय का माहौल स्थापित हो सकता है।
हज के प्रभाव, लाभ और स्थायी संदेश - क़यामत के दिन के लिए एक निमंत्रण
हज इबादत का एक अस्थायी कार्य नहीं है, बल्कि एक व्यापक प्रशिक्षण है जिसका तीर्थयात्री के पूरे जीवन पर प्रभाव होना चाहिए। हज केवल एक तीर्थयात्रा नहीं है, बल्कि यह एक संदेश है - एक आह्वान - जो सदियों पहले पैगम्बर अब्राहम (उन पर शांति हो) के मुख से आया था, और आज भी दिलों को जगाता है, और क़यामत के दिन तक जारी रहेगा।
- व्यक्तिगत स्तर पर प्रभाव
(अ) पापों से शुद्धि
हज के दौरान पश्चाताप, प्रार्थना, रोना और विलाप करना, और अराफात के मैदान पर खड़े होना व्यक्ति को उसके पापों से शुद्ध करता है।
"जो कोई भी हज करता है और अश्लील भाषण और पापों से बचता है, वह उतना ही पवित्र होकर लौटता है, जैसे कि वह अपनी माँ के गर्भ से पैदा हुआ हो।" (सहीह बुखारी)
(ब) आध्यात्मिक विकास
हज व्यक्ति में ये गुण पैदा करता है:
अल्लाह पर भरोसा
विनम्रता
कृतज्ञता
त्याग की भावना
ये गुण जीवन के हर पहलू में सुधार लाते हैं।
(ज) अनुशासन
हज का हर तत्व हमें व्यवस्था और संगठन सिखाता है। एक निश्चित समय, स्थान, विधि और शिष्टाचार के साथ, हज की रस्में हमें अनुशासन, समय की पाबंदी और समुदाय की भावना सिखाती हैं।
- समुदाय स्तर पर प्रभाव
(अ) उम्माह की एकता का व्यावहारिक अभ्यास
जब दुनिया भर के मुसलमान एक ही पोशाक में और एक ही कलमा दोहराते हुए अल्लाह के घर की परिक्रमा करते हैं, तो यह दृश्य उम्माह के लिए आशा और शक्ति का स्रोत बन जाता है। यह समागम राष्ट्रों के बीच की दूरी को कम करता है और उम्माह को एक शरीर की तरह एकजुट करता है।
(ब) वैश्विक इस्लामी चेतना का जागरण
विभिन्न देशों के मुसलमानों का एक जगह एकत्र होना:
उम्माह की समस्याओं के बारे में जागरूकता पैदा करता है
बौद्धिक एकता को बढ़ावा देता है
एक साझा एजेंडे का मार्ग प्रशस्त करता है
- हज का स्थायी संदेश
(अ) एकेश्वरवाद की केंद्रीयता
काबा की परिक्रमा हमें याद दिलाती है कि जीवन का हर क्षेत्र अल्लाह के इर्द-गिर्द घूमना चाहिए। हज का संदेश हर रिश्ते, हर फैसले, हर काम को अल्लाह की रजा से जोड़ना है।
(ब) समय का महत्व
हज का हर तत्व समय से जुड़ा हुआ है। चाहे वह अराफात का दिन हो, या मुजदलिफा की तीर्थयात्रा हो, या जमरात फेंकना हो - हर काम एक निश्चित समय पर किया जाना चाहिए। यह प्रशिक्षण व्यक्ति को समय के महत्व को समझाता है।
(ज) त्याग की महानता
हज़रत इब्राहीम (अ.स.) और हज़रत इस्माइल (अ.स.) की कुर्बानी हमें सिखाती है कि अगर हमें अल्लाह की खुशी के लिए अपनी इच्छाएँ, बच्चे, धन, समय या यहाँ तक कि अपनी जान भी देनी पड़े तो संकोच न करें। यही आज्ञाकारिता है जिसकी हमसे अपेक्षा की जाती है।
- आज के मनुष्य के लिए
हज का संदेश
(अ) आत्म-नियंत्रण
हज हमें सिखाता है:
क्रोध पर नियंत्रण
अश्लीलता से बचें
झगड़ों से बचें
ये वे गुण हैं जो सामाजिक शांति का आधार बनते हैं।
(ब) सार्वभौमिक भाईचारा
आज की दुनिया, जो नफरत, पूर्वाग्रह, नस्लीय और जातीय विभाजन और राष्ट्रवाद से टूटी हुई है - हज एक व्यावहारिक उपाय है। हज का संदेश है: "तुम सब आदम की संतान हो, और आदम मिट्टी से बनाया गया था।"
(ज) स्थायी परिवर्तन
हज एक अवसर है जो हमें जीवन को नए सिरे से शुरू करने के लिए आमंत्रित करता है:
पुराने पापों को त्यागें
एक नई प्रतिबद्धता बनाएं
अल्लाह की सेवा में जीवन जिएं
निष्कर्ष
हज एक इबादत है, एक प्रशिक्षण है, एक समागम है, एक क्रांति है। यह दिलों को झकझोरता है, आत्माओं को शुद्ध करता है, उम्माह को एकजुट करता है, और हमें दुनिया के हर कोने में अल्लाह के धर्म को फैलाने के लिए आमंत्रित करता है। पैगम्बर इब्राहीम (उन पर शांति हो) का "अज़ान बिल-हज" (हज के लिए आह्वान) का आह्वान आज भी गूंजता है, और हर साल लाखों दिल "लब्बैक अल्लाहुम् लब्बैक" कहकर जवाब देते हैं।
सवाल यह है:
क्या हम इस हज से सिर्फ़ एक रस्म के तौर पर लौटते हैं?
या क्या हम वाकई इसके संदेश के ज़रिए अपनी और अपनी उम्माह की नियति बदलने के लिए निकल पड़ते हैं?
लेखक: मौलाना सययद ज़हीन काज़मी
लेबनानी सेना ने दक्षिण लेबनान में एक इस्राइली ड्रोन मार गिरा
लेबनान की सेना ने बताया है कि एक इस्राइली ड्रोन दक्षिण लेबनान में देखा गया जिसको हमारी सेना ने मार गिराया।
बुधवार रात लेबनानी मीडिया के हवाले से बताया कि सेना ने एक बयान में कहा है कि यह ड्रोन दक्षिण लेबनान के कफरकला (Kfarkela) कस्बे के पास मार गिराया।
बयान के अनुसार, सेना की एक गश्ती टीम ने मौके को घेर लिया और ड्रोन को आगे की जांच के लिए अपने कब्जे में ले लिया।
बुधवार इस्राइली सेना ने लेबनान की हवाई, समुद्री और जमीनी सीमा का उल्लंघन करते हुए एक लेबनानी मछुआरे को अगवा कर लिया।
इस्राइली सैनिकों ने लेबनान की समुद्री सीमा में घुसकर एक नाव को रोका और उस पर सवार मछुआरों में से एक को उठा लिया।
इसके अलावा इस्राइली लड़ाकू विमानों ने आज दोपहर बाअलबक (Baalbek) के हवाई क्षेत्र में बहुत ही कम ऊंचाई पर उड़ान भरी।इसी तरह, एक इस्राइली ड्रोन ने राजधानी बेरूत और उसके आसपास के इलाकों में गश्त लगाई।