رضوی

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बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम सारी तारीफ़ पूरी कायनात के पालनहार के लिए है और दुरूद व सलाम हो अल्लाह की बेहतरीन मख़लूक़ मोहम्मद मुस्तफ़ा, उनकी पाकीज़ा नस्ल और चुने हुए सहाबियों और उन पर जो भलाई में उनका पालन करते हैं, क़यामत के दिन तक।

हज मोमिनों की आरज़ू, मुश्ताक़ लोगों की ईद और सौभाग्यशालियों की आध्यात्मिक रोज़ी है और अगर उसके गहरे अर्थों वाले इशारों की मारेफ़त के साथ अंजाम पाए तो न सिर्फ़ इस्लामी जगत बल्कि पूरी इंसानियत की मुख्य पीड़ाओं का इलाज है।

हज का सफ़र, दूसरे सफ़र की तरह नहीं है जो व्यापार या पर्यटन या दूसरे लक्ष्यों के लिए अंजाम पाते हैं और कभी कभार उसमें कोई इबादत या भला काम भी अंजाम पाता है; हज का सफ़र आम ज़िंदगी से वांछित ज़िंदगी की ओर हिजरत है। वांछित ज़िंदगी, तौहीद पर आधारित ज़िंदगी है कि जिसमें सत्य के ध्रुव पर निरंतर तवाफ़, कठिन चोटियों के दरमियान हमेशा कोशिश, हमेशा कंकरी मारकर दुष्ट शैतान को भगाना, 'वुक़ूफ़' की हालत में अल्लाह की याद और उसकी प्रार्थना, ग़रीब और सफ़र में मजबूर हो जाने वाले राहगीर को खाना खिलाना, इंसानों के रंग, नस्ल, ज़बान और भौगोलिक स्थिति को एक नज़र से देखना, सभी हालत में सेवा के लिए तैयार रहना, अल्लाह की पनाह चाहना और सत्य की रक्षा का ध्वज उठाना ज़िंदगी के मुख्य और स्थायी तत्व हैं।

हज के संस्कारों में इस ज़िंदगी के प्रतीक के नमूने मौजूद हैं और वे हज करने वालों को उससे परिचित कराते और उसे अपनाने की दावत देते हैं। इस दावत पर ध्यान देना चाहिए। दिल, आँख और अंतरात्मा को खोलना चाहिए। इस सबक़ को सीखना चाहिए और इसे उपयोग करने के लिए कमर कस लेना चाहिए। हर शख़्स अपनी क्षमता भर इस रास्ते की ओर क़दम बढ़ाए और ओलमा, बुद्धिजीवियों और राजनैतिक पदों पर बैठे और उच्च सामाजिक स्थिति से संपन्न लोगों की, दूसरों से ज़्यादा इस दिशा में क़दम बढ़ाने की ज़िम्मेदारी है।

इस्लामी जगत को आज हमेशा से ज़्यादा इस पाठ पर अमल करने की ज़रूरत है। यह दूसरा हज है जो ग़ज़ा और वेस्ट एशिया के दर्दनाक वाक़यों के दौरान अंजाम पा रहा है। फ़िलिस्तीन पर क़ाबिज़ अपराधी ज़ायोनी गैंग ने नाक़ाबिले यक़ीन दरिंदगी, अभूतपूर्व निर्दयता और दुष्टता के साथ ग़ज़ा की त्रासदी को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है कि जिस पर यक़ीन नहीं आता। इस वक़्त फ़िलिस्तीनी बच्चे बमों, गोलों और मीज़ाइलों के अलावा भूख और प्यास से मर रहे हैं। अपने अज़ीज़ों, जवानों और माँ बाप को खोने वाले दुखी घरानों की तादाद दिन ब दिन बढ़ती जा रही है। इस मानव त्रासदी को रोकने के लिए किसे डटना चाहिए?

इस बात में शक नहीं कि सबसे पहले यह इस्लामी हुकूमतों का फ़रीज़ा है और फिर क़ौमों का जो अपनी सरकारों से इस फ़रीज़े को अंजाम देने का मुतालेबा करें। मुसलमान सरकारें शायद मुख़्तलिफ़ मसलों में आपस में राजनैतिक मतभेद रखती हों लेकिन ये मतभेद ग़ज़ा के दर्दनाक मसले पर संयुक्त स्टैंड अपनाने और आज की दुनिया के सबसे मज़लूम इंसानों की रक्षा में सहयोग के सिलसिले में उनके आड़े न आएं। मुसलमान सरकारों को ज़ायोनी सरकार को मदद पहुंचाने वाले सारे रास्तों को बंद कर देना चाहिए और इस अपराधी को ग़ज़ा में उसकी निर्दयी करतूतों को जारी रखने से बाज़ रखना चाहिए। अमरीका, ज़ायोनी सरकार के अपराधों में निश्चित तौर पर भागीदार है, इस इलाक़े में और दूसरे इस्लामी क्षेत्रों में अमरीका के संपर्क में रहने वाले लोग, मज़लूम के सपोर्ट के सिलसिले में क़ुरआन मजीद की आवाज़ सुनें और अमरीका की साम्राज्यवादी सरकार को इस ज़ालेमाना व्यवहार को रोकने के लिए मजबूर करें। हज में बराअत का एलान, इस राह में एक क़दम है।

ग़ज़ा के अवाम के हैरतअंगेज़ प्रतिरोध ने फ़िलिस्तीन के मुद्दे को इस्लामी जगत और दुनिया के तमाम आज़ादी के समर्थक इंसानों के ध्यान का सबसे बड़ा केन्द्र बना दिया है। इस मौक़े से फ़ायदा उठाना चाहिए और इस मज़लूम क़ौम के सपोर्ट के लिए आगे आना चाहिए। फ़िलिस्तीन के मसले को भुला दिए जाने की साम्राज्यावादियों और ज़ायोनी सरकार के समर्थकों की कोशिशों के बावजूद इस सरकार के हुक्मरानों की दुष्ट प्रवृत्ति और उनकी मूर्खतापूर्ण नीति ने ऐसी स्थिति पैदा कर दी है कि आज फ़िलिस्तीन का नाम पहले से ज़्यादा उज्जवल है और ज़ायोनियों और उनके समर्थकों से नफ़रत, पहले से ज़्यादा है और यह इस्लामी जगत के लिए एक अहम मौक़ा है।

वक्ताओं और उच्च सामाजिक स्थिति के लोगों के लिए ज़रूरी है कि वे क़ौमों को जागरुक बनाएं, उन्हें संवेदनशील बनाएं और फ़िलिस्तीन से संबंधित मुतालबों को ज़्यादा से ज़्यादा फैलाएं। आप सौभाग्यशाली हाजी भी, हज के संस्कारों के दौरान दुआ और अल्लाह से मदद तलब करने के मौक़े को हाथ से जाने न दें और अल्लाह से ज़ालिम ज़ायोनियों और उनके समर्थकों पर विजय की दुआ कीजिए।

अल्लाह का दुरूद व सलाम हो पैग़म्बरे इस्लाम, उनकी पाकीज़ा नस्ल और सलाम व दुरूद हो ज़मीन पर अल्लाह की आख़िरी हुज्जत इमाम महदी पर अल्लाह उन्हें जल्द से जल्द ज़ाहिर करे।

सैयद अली ख़ामेनेई

3 ज़िलहिज्जा 1446 हिजरी क़मरी

30 मई 2025

 

 पैगम्बर मुहम्मद (स) ने एक रिवायत में बताया है कि जो व्यक्ति अराफात के मैदान से निराशा में लौटता है, वह सबसे बड़ा गुनाहगार होता है।

निम्नलिखित रिवायत को "बिहार उल-अनवार" पुस्तक से लिया गया है। इस रिवायत का पाठ इस प्रकार है:

قال رسول اللہ صلی اللہ عليه وآله:

أعظَمُ أهلِ عَرَفاتٍ جُرماً مِنِ انصَرَفَ وهُوَ یَظُنُّ أنَّهُ لَن یُغفَرَ لَهُ

पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया:

अराफ़ात के लोगों का सबसे बड़ा गुनाह यह है कि वह भटक जाता है और सोचता है कि उसे माफ नहीं किया जाएगा।

बिहार उल-अनवार, भाग 99, पेज 248

 

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुसलेमीन रहिमियान ने कहा: अरफात के दिन के लिए अल्लाह के रहस्यों और ज़रूरतों और गुनाहों की माफ़ी के लिए विशेष दुआ की सिफ़ारिशें हैं।

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुसलेमीन अब्बास रहिमियान ने ज़िलहिज्जा की नौवीं तारीख़ यानी “अरफ़ात के दिन” की महानता और महत्व को बताया और इस दिन इबादत, दुआ और माफ़ी मांगने पर ज़ोर दिया।

अल्लाह तआला की ओर से एक आम निमंत्रण

उन्होंने कहा कि अराफात का दिन वह दिन है जब हाजी अरफ़ात के मैदान में खड़े होकर इबादत करते हैं, लेकिन यह दिन सिर्फ़ हाजियों के लिए नहीं है, बल्कि अल्लाह तआला ने अपने सभी बंदों के लिए अपनी रहमत का दस्तरखान बिछाया है और सभी को इबादत करने और अल्लाह के करीब आने का निमंत्रण दिया है।

शैतान की नाराज़गी और स्वर्गीय क्षमा का द्वार

हुज्जतुल इस्लाम रहिमियान ने आगे कहा: अरफा का दिन शैतान के लिए बहुत कठिन और क्रोध का स्रोत है, क्योंकि इस दिन, मानव पापों को क्षमा कर दिया जाता है, दुआए स्वीकार की जाती हैं, और बंदे अपने अल्लाह के करीब हो जाते हैं। यहां तक ​​​​कि मां के गर्भ में पल रहे बच्चे भी इस दिन की बरकतों से वंचित नहीं रहते।

इमाम सज्जाद की चेतावनी: अल्लाह के अलावा किसी और से मदद न मांगें

उन्होंने इमाम सज्जाद (अ) की एक रिवायत की ओर इशारा करते हुए कहा: पैगंबर ने एक भिखारी को देखा जो अरफा के दिन लोगों से मदद मांग रहा था। इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने उससे कहा: "हाय तुम पर! क्या तुम ऐसे दिन अल्लाह के अलावा किसी और से मदद मांगते हो?"

इमाम हुसैन (अ) की ज़ियारत; हज और जिहाद से भी बड़ा सवाब

यह धार्मिक विशेषज्ञ आगे कहते हैं: अरफा के दिन सबसे महत्वपूर्ण मुस्तहब आमाल में से एक इमाम हुसैन (अ) की जियारत करना है, जिस पर बहुत जोर दिया गया है। कुछ रिवायतों के अनुसार, इस दिन इमाम हुसैन (अ) की जियारत करने का सवाब एक हजार हज, एक हजार उमराह और एक हजार जिहाद के बराबर है, और कुछ रिवायतों में यह हज से भी बेहतर है। इस दिन अल्लाह तआला सबसे पहले सय्यद अल-शोहदा (अ) के हाजियों पर रहमत की निगाह से देखता है, फिर हाजियों पर।

अरफा की दुआ और दुआएँ: ग़ुस्ल, नमाज़ और इस्तगफ़ार

उन्होंने कहा कि अरफा के दिन की इबादतों में नमाज़ की दो रकत का विशेष रूप से उल्लेख किया गया है, जिन्हें दुआ से पहले खुले आसमान के नीचे अदा किया जाना चाहिए, और जिसमें व्यक्ति अपने पापों का कबूल करता है। इस कार्य से व्यक्ति के पाप क्षमा हो जाते हैं और वह हज के सवाब में शामिल हो जाता है। दिन के दूसरे भाग में सांसारिक मामलों से दूर रहने और केवल पूजा, नमाज़ और पश्चाताप में संलग्न होने की सिफारिश की जाती है।

इमाम हुसैन (अ) की दुआ; प्रेमपूर्ण प्रार्थनाओं की पराकाष्ठा

अंत में, हुज्जतुल इस्लाम रहिमियान ने अरफात पर इमाम हुसैन (अ) की दुआ की ओर इशारा करते हुए कहा: यह दुआ रहस्यमय विषयों से भरी है, जिसे इमाम हुसैन (अ) ने अरफात के मैदान में खड़े होकर आंसू भरी आँखों से पढ़ा था। हम सभी के लिए दुआ में शामिल होना, क्षमा मांगना और अरफात की दोपहर को इस दुआ को पढ़ना उचित है, भले ही थोड़े समय के लिए ही क्यों न हो, क्योंकि कभी-कभी जीवन के कुछ क्षण किसी व्यक्ति के आध्यात्मिक विकास के लिए सदियों के बराबर प्रभाव डालते हैं।

 

राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ ने कहा, अमेरिका का पतन एक ऐसी सच्चाई है जिसे नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता और हम निकट भविष्य में उसके बदलाव और ज़वाल को देखेंगे।

फ़ोआद इज़दी जो एक राजनीतिक मामलों के विशेषज्ञ हैं, ने इमामैन-ए-इंक़लाब के गुफ़्तगू का विस्तार" शीर्षक से आयोजित एक राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लिया यह सम्मेलन "इमाम खुमैनी (र.ह)" शैक्षिक और शोध संस्थान द्वारा "यावरे मदी कॉम्प्लेक्स" में आयोजित किया गया था।

उन्होंने अमेरिका की नीतियों को सही ढंग से समझने की अहमियत पर ज़ोर देते हुए कहा कि इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद अमेरिका की वैश्विक और ईरान में भूमिका का विश्लेषण करना इस बात की पहचान में मदद करता है कि सही रास्ता कौन-सा है और गुमराही का रास्ता कौन सा।

इज़दी ने कहा कि क्रांति के पहले दशक में इमाम खुमैनी (रह) का अमेरिका को लेकर दृष्टिकोण पूरी तरह स्पष्ट था यहाँ तक कि जो लोग आज सुधारवादी गुट से माने जाते हैं, उन्होंने भी उस समय अमेरिका के खिलाफ तीखे रुख अपनाए थे।

लेकिन समय के साथ कुछ लोगों ने अमेरिका के साथ संबंधों को लेकर एक काल्पनिक और अप्रामाणिक चित्र पेश किया और यहां तक कि अमेरिका की ईरान में निवेश की वकालत भी की, जिसके नतीजे में बाद में देश की नीति में कई समस्याएं पैदा हुईं।

उन्होंने यह भी कहा कि आयतुल्ला खामेनेई ने कई बार यह बात दोहराई है कि किसी व्यक्ति का अमेरिका के प्रति रवैया उसकी विश्वदृष्टि (worldview) को दर्शाता है।

उन्होंने चेताया कि आज भी कुछ विदेशी और फारसी भाषा के दुश्मन मीडिया यह कहकर एक ग़लतफ़हमी फैलाने वाला मनोवैज्ञानिक युद्ध चला रहे हैं कि अमेरिका वार्ता चाहता है लेकिन ईरान के सर्वोच्च नेता इसमें बाधा बन रहे हैं। यह एक योजना है जो तथ्यों को उल्टा करके पेश कर रही है।

इज़दी ने स्पष्ट किया कि ईरान और अमेरिका के बीच मूल समस्या यूरेनियम संवर्धन जैसी चीज़ों में नहीं है, बल्कि अमेरिका की नीतियों और उसके व्यवहार में है अमेरिका ने अंतरराष्ट्रीय संधियों का उल्लंघन किया है और ईरानी वैज्ञानिकों की हत्या जैसे कृत्यों से यह साबित किया है कि उस पर भरोसा नहीं किया जा सकता।

उन्होंने कहा कि आज अमेरिका पतन के रास्ते पर है और यहाँ तक कि म्यूनिख सुरक्षा सम्मेलन की वार्षिक रिपोर्ट "पोस्ट-वेस्ट" (Post-West) के शीर्षक के साथ इस गिरावट को स्वीकार कर चुकी है उस रिपोर्ट में कहा गया है कि वैश्विक शक्ति और संपत्ति अब पूरब की ओर बढ़ रही है, जो वैश्विक व्यवस्था में परिवर्तन का संकेत है।

उन्होंने इस्लामी क्रांति की शुरुआत से ही पूरब और पश्चिम दोनों की सत्ता के खिलाफ थी और आज अमेरिका से दुश्मनी उसकी नीति के कारण है, न कि उसकी जातीय पहचान के कारण। सुप्रीम लीडर हमेशा इस बात पर ज़ोर देते रहे हैं कि अमेरिका का पतन वास्तविक है और यह वापसी का रास्ता नहीं है।

इज़दी ने कहा कि अमेरिका के नीति निर्माताओं की तरफ़ से चलाया जा रहा यह मनोवैज्ञानिक युद्ध” इस उद्देश्य से हो रहा है कि इस्लामी व्यवस्था को अकार्यक्षम साबित किया जा सके। इसलिए, हमें सजग रहना चाहिए और अमेरिका को लेकर अपने विश्लेषण को वास्तविकता और पिछले अनुभवों के आधार पर ही बनाना चाहिए।

अंत में उन्होंने कहा कि आज दुनिया भर, ख़ास तौर पर अमेरिका के विश्वविद्यालयों में फ़िलिस्तीन के समर्थन की जागरूकता तेज़ी से बढ़ रही है। यह बात दर्शाती है कि मुक़ावमत (प्रतिरोध) की सोच अब ताक़तवर हो चुकी है और पश्चिमी धुरी कमज़ोर होती जा रही है।

 

गुरुवार, 05 जून 2025 06:38

हज में महिलाओं की भूमिका

हज का वातावरण हज़रत हाजेरा और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से ही, पुरुषों के साथ महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में मानवीय व लैंगिक दोनों आयामों को दृष्टि में रखा गया है...

हज का वातावरण हज़रत हाजेरा और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से ही, पुरुषों के साथ महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में मानवीय व लैंगिक दोनों आयामों को दृष्टि में रखा गया है। हज एक ऐसा मंच है जो महिलाओं को समाजिक स्तर पर नये अनुभव प्राप्त करने और अन्य लोगों के साथ व्यवहार की शैलियों से परिचित कराता है। इस्लाम के सब से बड़े प्रशिक्षण कार्यक्रम के रूप में हज अधिवेशन, वर्ष में एक बार आयोजित होता है। हज के नियम व संस्कार कुछ इस प्रकार से हैं कि उसमें, लिंगभेद, जाति , पद व सामाजिक स्थिति पर ध्यान दिए बिना सभी लोगों को समान समझा गया है। सभी को हज के संस्कार करना होते हैं और स्वार्थ व अहंकार से निकलना होता है ताकि ईश्वर से निकट हुआ जा सके और स्वंय को एक नये मनुष्य के रूप में ढाला जा सके। हज संस्कारों में महिलाओं की प्रभावशाली व सराहनीय भूमिका स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ईश्वरीय धर्म के प्राचीन इतिहास में जिन महिलाओं को ईश्वर पर आस्था, उसके प्रति ज्ञान व उसकी पहचान का प्रतीक समझा गया, उनके साथ हज संस्कारों को कुछ इस प्रकार से जोड़ दिया गया है कि आज भी हज के बहुत से संस्कार और नियमों में उनकी झलक देखी जा सकती है। हज अत्यन्त प्राचीन संस्कार है। मक्का नगर में काबा, पृथ्वी के पहले मुनष्य हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के युग में बनाया गया था और उस समय से अब तक, एकेश्वरवादियों और ईश्वर में आस्था रखने वालों का उपासनास्थल रहा है। हज़रत इब्राहीम के युग में कि जब हज के अधिकांश संस्कारों की आधारशिला रखी गयी, सब से मुख्य भूमिका हज़रत हाजेरा नामक एक महान महिला ने निभाई। वे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की पत्नी और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की माता हैं। उनकी महानता वास्तव में उन परीक्षाओं, संघर्षों, ईश्वर पर भरोसा और उसमें आस्था का परीणाम है जो उनके जीवन में जगह जगह देखने को मिलती है जिनकी याद मक्का के वातावरण और हज के संस्कार से दिलायी गयी है। मक्का के सूखे मरुस्थल में ईश्वर पर भरोसा और अपने पुत्र इस्माईल के लिए एक घूंट पानी के लिए इधर इधर व्याकुलता में हज़रत हाजरा का दौड़ना ईश्वरीय चिन्हों में गिना गया है। हज में हाजियों को सफ़ा और मरवा नामक दो पहाड़ियों के मध्य दौड़ कर हज़रत हाजरा के उसी संघर्ष को याद करना और ईश्वर पर भरोसे में का पाठ लेना होता है। हज़रत हाजेरा ने यह सिखा दिया कि अकेलेपन और बेसहारा हो जाने के बाद किस प्रकार से कृपालु ईश्वर से आशा रखनी चाहिए। यह कहा जा सकता है कि हज़रत इब्राहीम के साथ हज़रत हाजेरा की जीवनी, वास्तव में उपासना और ईश्वर पर आस्था का इतिहास है। निसंदेह हर मनुष्य किसी न किसी प्रकार इस तरह की परीक्षा का सामना करता है और यह परीक्षा कभी कभी बहुत कठिन होती है। इस स्थिति में संकटों और समस्याओं से निकलने के लिए, हज़रत इब्राहीम और हज़रत हाजेरा जैसे आदर्शों के पदचिन्हों पर चलना चाहिए। कु़रआने मजीद के सूरए मुमतहेना की आयत नंबर चार में कहा गया है कि तुम ईश्वर पर आस्था रखने वालों के लिए अत्यन्त सराहनीय व अच्छी बात यह है कि इब्राहीम और उनके साथ रहने वालों का अनुसरण करो।

हज़रत हाजेरा की महानता का एक अन्य आयाम, ईश्वरीय आदेशों के सामने नतमस्तक होना है। जब उन्हें अपने बेटे इस्माईल की बलि चढ़ाने के ईश्वरीय आदेश का ज्ञान हुआ तो शैतानी बहकावा अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। शैतान उनके पास गया कहने लगा कि इब्राहीम तुम्हारे बेटे को मार डालना चाहते हैं। हज़रत हाजेरा ने कहा कि क्या विश्व में एसा कोई है जो अपने ही बेटे को मार डाले? शैतान ने कहा वह दावा करते हैं कि यह ईश्वर का आदेश है। हज़रत हाजेरा ने कहा कि चूंकि यह ईश्वर का आदेश है इस लिए उसका पालन होना चाहिए। जो ईश्वर को पसन्द है मैं उसी में खुश हूं। ईश्वर के प्रति आस्था से परिपूर्ण हज़रत हाजेरा की इस बात ने उनकी महानता में चार चांद लगा दिये। आज हज़रत हाजेरा और हज़रत इस्माईल की क़ब्रें, हजरे इस्माईल नामक स्थान पर ईश्वरीय दूतों के साथ हैं। यह स्थान काबे के पास ही गोलार्ध आकार में मौजूद है। जो हाजी काबे की परिक्रमा करना चाहते हैं उन्हें काबे के साथ ही इस स्थान की भी परिक्रमा करनी होती है इस प्रकार से वह महिला जो ईश्वरीय आदेश के कारण मरुस्थल में अकेली रही और जिसने ईश्वरीय आदेश को सह्रदय स्वीकार किया, अन्य लोगों के लिए आदर्श बन गयी। हज़रत हाजेरा पहली महिला हैं जिन्होंने काबे के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने के लिए उसके द्वार पर पर्दा डाला। इस्लामी संस्कृति में यदि मनुष्य पवित्रता की सीढ़िया तय कर ले और महानता प्राप्त करने में सफल हो जाए तो वह अन्य लोगों के लिए आदर्श बन सकता है और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। कु़रआने मजीद में चार आदर्श महिलाओं की बात की गयी है जिन्हें ईश्वर ने धर्म में आस्था रखने वालों के लिए आदर्श कहा है। सूरए तहरीम की आयत नंबर ११ में कहा गया है और ईश्वर ने मोमिनों के लिए फिरऔन की पत्नी का उदाहरण दिया है जब उसने कहा हे पालनहार! तू मेरे लिए स्वर्ग में एक घर बना और मुझे नास्तिक फिरऔन, उसके चरित्र और अत्याचारी जाति से छुटकारा दिला। इसके बाद की आयत में ईश्वर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की माता हज़रत मरयम को, जिनकी एसी विशेषताए हैं जो किसी अन्य में नहीं हैं, सभी महिलाओं व पुरुषों का आदर्श बताया गया है। काबे के एक कोने में जिसे रुक्ने यमानी कहा जाता है, फातेमा बिन्ते असद नाम की एक अत्यन्त पवित्र महिला का चिन्ह देखा जा सकता है। वे हज़रत अली अलैहिस्सलाम की माता हैं जिन्होंने अपने पुत्र के जन्म में सहायता के लिए काबे को सहारा बनाया था। इतिहासकारों ने प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से लिखा है कि अचानक काबे की दीवार फटी और फातेमा बिन्ते असद काबे के भीतर चली गयीं और तीन दिन बाद, अपने बच्चे को गोद में लिए उसी स्थान से बाहर निकलीं । यह वास्तव में ईश्वरीय संदेश के स्थान और काबे में महिलाओं के लिए एक अन्य सम्मान व गौरव है तथा इस से पवित्र महिलाओं की महानता व महत्व का भी पता चलता है।

इस्लाम के उदय के बाद कुछ तथ्य, महिलाओं के हज से परोक्ष व अपरोक्ष रूप से संबंध को दर्शाते हैं। हज़रत ख़दीजा वह एकमात्र महिला हैं जो इस्लाम के उदय के कठिन समय में पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ काबे में जाकर उपासना करती थीं। इन तीन हस्तियों ने क़ुरैश क़बीले की अनेकेश्वरवादी रीति रिवाजों के विपरीत एक नयी परंपरा की आधार शिला रखी और उसका प्रदर्शन किया। इस संस्कृति में महिला व पुरुष कांधे से कांधा मिलाकर अनन्य ईश्वर के घर काबे में जाते हैं। इस्लाम के विशेष नियमों के संकलन के यह आंरभिक क़दम, भविष्य में हज के व्यापक संस्कारों की भूमिका बने। इतिहास में महिलाओं के लिए यह भी एक गौरव लिख लिया गया है कि इस्लाम के उदय के दिनों में महिलाओं ने इस्लाम के विस्तार में पैगम्बरे इस्लाम के साथ भूमिका निभाई और काबे में इस्लामी संस्कृति की आधारशिला रखी। हज के दौरान महिलाओं द्वारा पैगम्बरे इस्लाम के समक्ष आज्ञापालन की प्रतिज्ञा भी महिलाओं की महानता का एक अन्य चिन्ह है। मक्का नगर में पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने ७३ साथियों के साथ मक्का के लोगों के साथ अक़बा नामक दूसरा जो समझौता किया था उस समय ७३ लोगों में कई महिलाएं शामिल थीं। इन लोगों ने आज्ञापालन की प्रतिज्ञा के लिए पैगम्बरे इस्लाम से समय मांगा। पैग़म्बरे इस्लाम ने मिना के मैदान में आज्ञापालन की प्रतिज्ञा का समय निर्धारित किया। उन लोगों ने १३ ज़िलहिज्जा की रात पैगम्बरे इस्लाम से बात की

गुरुवार, 05 जून 2025 06:37

हज क्या है?

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं........... यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं...........

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय लाखों की संख्या में मुसलमान ईश्वरीय संदेश की भूमि मक्के में एकत्रित हो रहे हैं।  विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग गुटों और जत्थों में ईश्वर के घर की ओर जा रहे हैं और एकेश्वरवाद के ध्वज की छाया में वे एक बहुत व्यापक एकेश्वरवादी आयोजन का प्रदर्शन करेंगे। हज में लोगों की भव्य उपस्थिति, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना के स्वीकार होने का परिणाम है जब हज़रत इब्राहमी अपने बेटे इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को इस पवित्र भूमि पर लाए और उन्होंने ईश्वर से कहाः प्रभुवर! मैंने अपनी संतान को इस बंजर भूमि में तेरे सम्मानीय घर के निकट बसा दिया है। प्रभुवर! ऐसा मैंने इसलिए किया ताकि वे नमाज़ स्थापित करें तो कुछ लोगों के ह्रदय इनकी ओर झुका दे और विभिन्न प्रकार के फलों से इन्हें आजीविका दे, कदाचित ये तेरे प्रति कृतज्ञ रह सकें।शताब्दियों से लोग ईश्वर के घर के दर्शन के उद्देश्य से पवित्र नगर मक्का जाते हैं ताकि हज जैसी पवित्र उपासना के लाभों से लाभान्वित हों तथा एकेश्वरवाद का अनुभव करें और एकेश्वरवाद के इतिहास को एक बार निकट से देखें।  यह महान आयोजन एवं महारैली स्वयं रहस्य की गाथा कहती है जिसके हर संस्कार में रहस्य और पाठ निहित हैं।  हज का महत्वपूर्ण पाठ, ईश्वर के सम्मुख अपनी दासता को स्वीकार करना है कि जो हज के समस्त संस्कारों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  इन पवित्र एवं महत्वपूर्ण दिनों में हम आपको हज के संस्कारों के रहस्यों से अवगत करवाना चाहते हैं।    मनुष्य की प्रवृत्ति से इस्लाम की शिक्षाओं का समन्वय, उन विशेषताओं में से है जो सत्य और पवित्र विचारों की ओर झुकाव का कारण है।  यही विशिष्टता, इस्लाम के विश्वव्यापी तथा अमर होने का चिन्ह है।  इस आधार पर ईश्वर ने इस्लाम के नियमों को समस्त कालों के लिए मनुष्य की प्रवृत्ति से समनवित किया है।  हज सहित इस्लाम की समस्त उपासनाएं, हर काल की परिस्थितियों और हर काल में मनुष्य की शारीरिक, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत तथा समाजी आवश्यकताओं के बावजूद उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।  इस्लाम की हर उपासना का कोई न कोई रहस्य है और इसके मीठे एवं मूल्यवान फलों की प्राप्ति, इन रहस्यों की उचित पहचान के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से कदापि संभव नहीं है।  हज भी इसी प्रकार की एक उपासना है।  ईश्वर के घर के दर्शन करने के उद्देश्य से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग हर प्रकार की समस्याएं सहन करते हुए और बहुत अधिक धन ख़र्च करके ईश्वरीय संदेश की धरती मक्का जाते हैं तथा “मीक़ात” नामक स्थान पर उपस्थित होकर अपने साधारण वस्त्रों को उतार देते हैं और “एहराम” नामक हज के विशेष कपड़े पहनकर लब्बैक कहते हुए मोहरिम होते हैं और फिर वे मक्का जाते हैं।  उसके पश्चात वे एकसाथ हज करते हैं।  पवित्र नगर मक्का पहुंचकर वे सफ़ा और मरवा नामक स्थान पर उपासना करते हैं।  उसके पश्चात अपने कुछ बाल या नाख़ून कटवाते हैं।  इसके बाद वे अरफ़ात नामक चटियल मैदान जाते हैं।  आधे दिन तक वे वहीं पर रहते हैं जिसके बाद हज करने वाले वादिये मशअरूल हराम की ओर जाते हैं।  वहां पर वे रात गुज़ारते हैं और फिर सूर्योदय के साथ ही मिना कूच करते हैं।  मिना में विशेष प्रकार की उपासना के बाद वापस लौटते हैं उसके पश्चात काबे की परिक्रमा करते हैं।  फिर सफ़ा और मरवा जाते हैं और उसके बाद तवाफ़े नेसा करने के बाद हज के संस्कार समाप्त हो जाते हैं।  इस प्रकार हाजी, ईश्वरीय प्रसन्नता की प्राप्ति की ख़ुशी के साथ अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।हज जैसी उपासना, जिसमें उपस्थित होने का अवसर समान्यतः जीवन में एक बार ही प्राप्त होता है, क्या केवल विदित संस्कारों तक ही सीमित है जिसे पूरा करने के पश्चात हाजी बिना किसी परिवर्तन के अपने देश वापस आ जाए?  नहीं एसा बिल्कुल नहीं है।  हज के संस्कारों में बहुत से रहस्य छिपे हुए हैं।  इस महान उपासना में निहित रहस्यों की ओर कोई ध्यान दिये बिना यदि कोई हज के लिए किये जाने वाले संस्कारों की ओर देखेगा तो हो सकता है कि उसके मन में यह विचार आए कि इतनी कठिनाइयां सहन करना और धन ख़र्च करने का क्या कारण है और इन कार्यों का उद्देश्य क्या है?  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में इब्ने अबिल औजा नामक एक बहुत ही दुस्साहसी अनेकेश्वरवादी, एक दिन इमाम सादिक़ (अ) की सेवा में आकर कहने लगा कि कबतक आप इस पत्थर की शरण लेते रहेंगे और कबतक ईंट तथा पत्थर से बने इस घर की उपासना करते रहेंगे और कबतक उसकी परिक्रमा करते रहेंगे?  इब्ने अबिल औजा की इस बात का उत्तर देते हुए इमाम जाफ़र सादिक़ अ. ने काबे की परिक्रमण के कुछ रहस्यों की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह वह घर है जिसके माध्यम से ईश्वर ने अपने बंदों को उपासना के लिए प्रेरित किया है ताकि इस स्थान पर पहुंचने पर वह उनकी उपासना की परीक्षा ले।  इसी उद्देश्य से उसने अपने बंदों को अपने इस घर के दर्शन और उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया और इस घर को नमाज़ियों का क़िब्ला निर्धारित किया।  पवित्र काबा, ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति का केन्द्र और उससे पश्चाताप का मार्ग है  अतः वह जिसके आदेशों का पालन किया जाए और जिसके द्वारा मना किये गए कामों से रूका जाए वह ईश्वर ही है जिसने हमारी सृष्टि की है।    इसलिए कहा जाता है कि हज का एक बाह्य रूप है और एक भीतरी रूप।  ईश्वर एसे हज का इच्छुक है जिसमें हाजी उसके अतिरिक्त किसी अन्य से लब्बैक अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया न कहे और उसके अतिरिक्त किसी अन्य की परिक्रमा न करे।  हज के संस्कारों का उद्देश्य, हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल, और हज़रत हाजरा जैसे महान लोगों के पवित्र जीवन में चिंतन-मनन करना है।  जो भी इस स्थान की यात्रा करता है उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से मुक्त होना चाहिए ताकि वह हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल जैसे महान लोगों की भांति ईश्वर की परीक्षा में सफल हो सके।  इस्लाम में हज मानव के आत्मनिर्माण के एक शिविर की भांति है जिसमें एक निर्धारित कालखण्ड के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम निर्धारित किये गए हैं।  एक उपासना के रूप में हज, मनुष्य पर सार्थक प्रभाव डालती है।  हज के संस्कार कुछ इस प्रकार के हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अहंकार और अभिमान को किसी सीमा तक दूर करते हैं।  अल्लाहुम्म लब्बैक के नारे के साथ अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया, ईश्वर के घर की यात्रा करने वाले लोग अन्य क्षेत्रों में भी एकेश्वर की बारगाह में अपनी श्रद्धा को प्रदर्शित करने को तैयार हैं।  लब्बैक को ज़बान पर लाने का अर्थ है ईश्वर के हर आदेश को स्वीकार करने के लिए आध्यात्मिक तत्परता का पाया जाना।इस प्रकार हज के संस्कार, मनुष्य को उच्च मानवीय मूल्यों और भौतिकता पर निर्भरता को दूर करने के लिए प्रेरित करते हैं।  इस मानवीय यात्रा की प्रथम शर्त, हृदय की स्वच्छता है अतःहृदय को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग करना चाहिए।  जबतक मनुष्य पापों में घिरा रहता है उस समय तक ईश्वर के साथ एंकात की मिठास का आभास नहीं कर सकता।  ईश्वर से निकटता के लिए पापों से दूरी का संकल्प करना चाहिए।  हज के स्वीकार होने की यह शर्त है।  जब दैनिक गतिविधियां मनुष्य को हर ओर से घेर लेती हैं और उच्चता क

 

बाप- बेटे मक्का के पहाड़ से काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को लाये थे और उन्हें तराश कर उन्होंने काबे की आधारशिला रखी थी। बाप-बेटे ने महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के आदेश से बड़े और सादे घर का निर्माण किया। इस पावन घर का नाम उन्होंने काबा रखा। यही साधारण घर काबा समूची दुनिया में एकेश्वरवाद का प्रतीक और पूरी दुनिया का दिल बन गया। जिस तरह आकाशगंगा महान ईश्वर का गुणगान कर रही है ठीक उसी तरह यह पावन घर है जिसकी दुनिया के लाखों मुसलमान परिक्रमा करते हैं। हज महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान का प्रतिबिंबन है। हज महान हस्तियों की बहुत सी कहानियों की याद दिलाता है।

हज एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो जाति और राष्ट्र से ऊपर उठकर है यानी इसमें सब शामिल होते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी जाति या राष्ट्र से हो। ग़रीब, अमीर, काला, गोरा, अरब और ग़ैर अरब सब इसमें भाग लेते हैं। हज के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और एकेश्वरवाद का नारा समस्त आसमानी धर्मों के मध्य निकटता का कारण बन सकता है।

पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहस्सलाम ने महान ईश्वर के आदेश से हज की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” और हे पैग़म्बर! हज के लिए लोगों के मध्य घोषणा कर दीजिये ताकि लोग हर ओर से सवार और पैदल, दूर और निकट से तुम्हारी ओर आयें और उसके बाद हज को अंजाम दें, अपने वचनों पर अमल करें और बैते अतीक़ यानी काबे की परिक्रमा करें।“

केवल कुछ संस्कारों को अंजाम देना हज नहीं है बल्कि हज के विदित संस्कारों के पीछे एक अर्थपूर्ण वास्तविकता नीहित है। अतः हज का अगर केवल विदित रूप अंजाम दिया जाये तो वह अपने वास्तविक अर्थ व प्रभाव से खाली होगा। यानी वह नीरस और बेजान हज होगा। एक विचारक व बुद्धिजीवी ने हज की उपमा शिक्षाप्रद एसी महाप्रदर्शनी से दी है जिसके पास बोलने की ज़बान है और उस कहानी व महाप्रदर्शनी में कुछ मूल हस्तियां हैं। हज़रत इब्राहीम, हज़रत हाजर और हज़रत इस्माईल इस कहानी के महानायक हैं। हरम, मस्जिदुल हराम, सफा और मरवा, मैदाने अरफात, मशअर और मेना में कुछ संस्कार अंजाम दिये जाते हैं। रोचक बात यह है कि इन संस्कारों को सभी अंजाम दे सकते हैं चाहे वह मर्द हो या औरत, धनी हो या निर्धन, काला हो या गोरा। जो भी हज के महासम्मेलन में भाग लेता है वह  हज संस्कारों को अंजाम देता है और मुख्य भूमिका निभाता है। सभी उन महान ऐतिहासिक हस्तियों के स्थान पर होते हैं जिन्होंने महान ईश्वर की उपासना की और अनेकेश्वरवाद से मुकाबला किया ठीक उसी तरह हाजी एकेश्वरवाद का एहसास और अनेकेश्वरवाद से मुकाबले का अनुभव करते हैं।

जो लोग हज करने जाते हैं सबसे पहले वे मीक़ात नाम की जगह पर  एहराम नाम का सफेद वस्त्र धारण करते हैं। एहराम में सफेद कपड़े के दो टुकड़े होते हैं। इसका अर्थ हर प्रकार के गर्व, घमंड को त्याग देना है। इसी प्रकार हर प्रकार के बंधन से मुक्त करके दिल को महान व सर्वसमर्थ की याद में लगाना है।

हज करने वाला जब एहराम का सफेद वस्त्र धारण करता है तो वह अपने कार्यों के प्रति सजग रहता है, उन पर नज़र रखता है लोगों के साथ अच्छे व मृदु स्वभाव में बात करता है, जब बोलता है तो सही बात करता है। इसी तरह वह संयम व धैर्य का अभ्यास करता है। एहराम की हालत में कुछ कार्य हराम हैं और इस कार्य से इच्छाओं से मुकाबला करने में इंसान के अंदर जो प्रतिरोध की शक्ति है वह मज़बूत होती है। जैसे एहराम की हालत में शिकार करना, जानवरों को कष्ट पहुंचाना, झूठ बोलना, महिला से शारीरिक संबंध बनाना और दूसरों से बहस करना आदि हराम हैं।

 

पैग़म्बरे इस्लाम जब मेराज पर जा रहे थे यानी आसमानी यात्रा पर थे तो एक आवाज़ ने उन्हें संबोधित करके कहा कि क्या तुम्हारे पालनहार ने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें शरण नहीं दी और तुम्हें गंतव्य से दूर नहीं पाया और तुम्हारा पथप्रदर्शन नहीं किया? उस वक्त पैग़म्बरे इस्लाम ने लब्बैक कहा। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की बारगाह में कहा” अल्लाहुम्मा लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमा लका वलमुल्का ला शरीका लका लब्बैक” अर्थात हे पालनहार तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं, बेशक समस्त प्रशंसा, नेअमत और बादशाहत तेरी है। तेरा कोई भागीदार व समतुल्य नहीं है। (पालनहार!) तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं।

हज के आध्यात्मिक वातावरण में दिल को छू जाने वाली आवाज़ लब्बैक अल्ला हुम्मा लब्बैक गूंज रही है। यह वह आवाज़ है जो हर हाजी की ज़बान पर है। यह आवाज़ इस बात की सूचक है कि हाजी महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं वे पूरे तन- मन से महान ईश्वर के आदेशों को स्वीकार करते और उसकी मांग का उत्तर दे रहे हैं। समस्त हाजियों की ज़बान पर है कि हे ईश्वर तेरा कोई समतुल्य नहीं है और हम तेरे घर की परिक्रमा करने के लिए तैयार हैं।

काबे की परिक्रमा हज का पहला संस्कार है। हाजी जब सामूहिक रूप से काबे की परिक्रमा करते हैं तो वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि महान ईश्वर ही ब्रह्मांड का स्रोत व रचयिता है और जो कुछ भी है सबको उसी ने पैदा और अस्तित्व प्रदान किया है। जो हाजी तवाफ़ व परिक्रमा कर रहे हैं वे पूरी तरह महान ईश्वर की याद में डूबे हुए हैं। मानो ब्रह्मांड का कण- कण उनके साथ हो गया है। सब उनके साथ तवाफ कर रहे हैं। तवाफ के बाद वे नमाज़े तवाफ़ पढ़ते हैं, अपने कृपालु व दयालु ईश्वर के सामने सज्दा करते हैं और उसकी सराहना व गुणगान करते हैं।

हज का एक संस्कार सफा व मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच सात बार चक्कर लगाना है।

हज का एक संस्कार सई करना है। सई उस महान महिला के प्रयासों की याद दिलाता है जो अपने पालनहार की असीम कृपा से कभी भी निराश नहीं हुई और सूखे व तपते हुए मरुस्थल में अपने प्यासे बच्चे के लिए पानी की खोज में दौड़ती रही। जब हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाजर अपने बच्चे के लिए पानी के लिए दौड़ती रहीं और सात बार वे सफा और मरवा का चक्कर लगा चुकीं तो महान ईश्वर की असीम कृपा से पानी का सोता फूट पड़ा जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 158वीं आयत में कहता है” सफा और मरवा ईश्वर की निशानियों में से है। इस आधार पर जो लोग अनिर्वाय या ग़ैर अनिवार्य हज करते हैं उन्हें चाहिये कि वे सफा और मरवा के बीच सई करें यानी उनके बीच चक्कर लगायें।

सई करके हाजी उस महान ऐतिहासिक घटना की याद ताज़ा करके महान ईश्वर पर धैर्य और भरोसा करने और एकेश्वरवाद का पाठ लेते हैं और महान ईश्वर की असीम कृपा को देखते हैं।

ज़िलहिज्जा महीने की नवीं तारीख़ की सुबह को हाजियों का जनसैलाब अरफात नामक मैदान की ओर रवाना होता है। अरफ़ात पहचान का मैदान है। एक पहचान यह है कि इंसान अपने पालनहार को पहचाने। अरफात के मैदान में हाजी का ध्यान स्वयं की ओर जाता है। हाजी अपना हिसाब- किताब करता है और अगर वह देखता है कि उसने कोई पाप या ग़लती की है तो उससे सच्चे दिल से तौबा व प्रायश्चित करता है। अरफात के विशाल मैदान में प्रलय के बारे में सोचता है और प्रलय की याद करके हिसाब- किताब करता है और हाजी दुआ करता है। कहा जाता है कि अगर इंसान का दिल और आत्मा अरफात के मैदान में परिवर्तित हो जाते हैं तो मशअर नामक मैदान में बैठने से महान ईश्वर की याद इस हालत को शिखर पर पहुंचा देती है और हज करने वाले ने एसा हज अंजाम दिया है जिसे महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है। 

अपने अंदर से शैतान को भगाना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की एक शैली है और वह हज संस्कार का भाग है। मिना नामक मैदान में कंकर फेंकने का अर्थ स्वयं से शैतान को भगाना है और केवल महान ईश्वर की उपासना और उसके आदेशों के समक्ष नतमस्तक होना है। हाजियों ने जो कंकरी मशअर के मैदान से एकत्रित की है उससे वे शैतान के प्रतीक को मारते हैं और हज़रत इब्राहीम की भांति महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं और कभी भी वे अपने नफ्स या शैतानी उकसावे पर अमल नहीं करते हैं।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहस्सलाम फरमाते हैं” इसी जगह पर” यानी जहां हाजी कंकरी फेंकते हैं” शैतान हज़रत इब्राहीम के समक्ष प्रकट हुआ था और उन्हें उकसाया था कि हज़रत इस्माईल को कुर्बानी करने का इरादा छोड़ दें परंतु हज़रत इब्राहीम ने पत्थर फेंक कर उसे स्वयं से दूर किया था।“

वास्तव में कंकरी का फेंकना दुश्मन की पहचान और उससे संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियां विभिन्न शैलियों के माध्यम से मुसलमानों के खिलाफ शषडयंत्र रचती रहती हैं इन दुश्मनों और उनकी चालों को पहचानना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कि जब तक दुश्मन और उसकी चालों को नहीं पहचानेंगे तब तक उसका मुकाबला नहीं कर सकते। दुश्मन और उसकी चालों से बेखबर रहना बहुत बड़ी ग़लती है और यह एसी ग़लती है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और उसकी चालें मुसलमानों के बीच फूट या इस्लामी जगत की शक्ति को आघात पहुंचने का कारण बन सकती हैं।

कुर्बानी कराना हज का अंतिम संस्कार है। जिस दिन कुर्बानी कराई जाती है उसे ईदे कुर्बान कहा जाता है। ईदे कुरआन के दिन सर मुंडवाया जाता है या फिर सिर के बाल और नाखून को छोटा कराया जाता है। हज के दिन महान ईश्वर की बारगाह में स्वीकार हज अंजाम देने वाले प्रसन्न होते हैं और वे अपने पालनहार का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उन्हें हज करने का सामर्थ्य प्रदान किया। उसके बाद हाजियों का जनसैलाब एक बार फिर काबे का तवाफ करता है और उसके बाद नमाज़े तवाफ पढ़ता है। जब वे काबे का तवाफ कर रहे होते हैं तो जिस तरह से चुंबक लोहे या उसके कण को अपनी ओर खींचता है उसी तरह खानये काबा हर हाजी को अपनी ओर खींचता व आकर्षित करता है।

इस प्रकार हज संस्कार समाप्त हो जाते हैं और हाजी अपने अंदर आत्मिक शांति व सुरक्षा का आभास करता है। वह भीतर से परिवर्तित हो चुका होता है। महान ईश्वर की याद उसके सामिप्य का कारण बनती है और महान विधाता व परम-परमेश्वर की याद सांसारिक बंधनों से मुक्ति का कारण बनती है। इसी प्रकार महान व कृपालु ईश्वर की याद इंसान के महत्व और उसकी प्रतिष्ठा को अधिक कर देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हाजियों द्वारा अंजाम दिये गये हज संस्कारों के गूढ़ अर्थों पर ध्यान देते हुए फरमाते हैं” नमाज़, हज, तवाफ और दूसरे संस्कारों के अनिवार्य होने से तात्पर्य ईश्वर की याद को कायेम व जीवित करना है। तो जब तुम्हारा दिल ईश्वर की महानता को न समझ सके जो हज का मूल उद्देश्य है तो ज़बान से ईश्वर को याद करने का क्या लाभ है?

गुरुवार, 05 जून 2025 06:34

हज का विशेष कार्यक्रम- 4

एक बार की बात है एक व्यक्ति बहुत दूर से बड़ी कठिनाइयों के साथ हज करने मक्का पहुंचा।

ईश्वर से प्रेम और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की क़ब्र का दर्शन करने के उत्साह ने उसके लिए कठिनाइयों को आसान कर दिया था। उसने हज के संस्कार बहुत उत्साह से अंजाम दिए। उसे इस बात की मनोकामना थी कि ईश्वर उसके कर्म को स्वीकार कर ले। दूसरे हाजियों के साथ वह भी मिना नामक स्थान पर गया ताकि वहां के विशेष संस्कार अंजाम दे। जो रात मिना में बिताते हैं वहां उसने स्वप्न में देखा कि ईश्वर ने दो फ़रिश्ते भेजे जो हाजियों के सिरहाने खड़े हें। फ़रिश्ते कुछ लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह व्यक्ति हाजी है" अर्थात इसका हज ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है लेकिन कुछ दूसरे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह हाजी नहीं है।" उस व्यक्ति ने देखा कि दो फ़रिश्ते उसके भी सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं "यह व्यक्ति हाजी नहीं है।"

इस व्यक्ति की डर के मारे आंख खुल गयी। उसने अपने आस-पास देखा। दिल पर काफ़ी बोझ महसूस कर रहा था। उसने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहाः "हे ईश्वर! इतनी कठिनाइयां सहन करते हुए आया हूं कि तेरा हज अंजाम दूं। आख़िर किस वजह से मेरा हज क़ुबूल नहीं है?" वह अपने कर्म के बारे में सोच रहा था। विगत के बारे में सोच रहा था कि किस बुरे कर्म की वजह से वह ईश्वर की कृपा से दूर हो गया है। जिस जगह हाजियों के पाप क्षमा किए जाते हैं, उससे कौन सा ऐसा पाप हुआ है कि जो क्षमा योग्य नहीं है।

कुछ सोचने के बाद उसे लगा कि उसने ख़ुम्स और ज़कात नामक विशेष कर नहीं दिए है। उसने अपने बच्चों को ख़त लिखा और कहाः "मैं इस साल मक्के में रह जाउंगा। मेरी पूरी संपत्ति का हिसाब करो और संपत्ति में ख़ुम्स या ज़कात बाक़ी हो तो निकाल दो।"              

जब उस व्यक्ति का ख़त उसके बेटों को मिला तो उन्होंने पिता के आदेश पर अमल किया। अगले साल फिर उस व्यक्ति ने हज के संस्कार शुरु किये। पिछली बार कि तरह जब वह मिना में रात में रुकने के लिए ठहरा तो उसने स्वप्न में उन्हीं दो फ़रिश्तों को देखा जो हाजियों के सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं कि अमुक व्यक्ति हाजी है और अमुक व्यक्ति हाजी नहीं है। जब फ़रिश्ते उसके सिरहाने पहुंचे तो उन्होंने फिर कहा कि वह हाजी  नहीं है। वह व्यक्ति नींद से जागा तो बहुत दुखी व हैरान था। वह जानना चाहता था कि किस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हो रहा है। उसे याद आया कि उसका पड़ोसी जो ग़रीब था और उसका घर छोटा था। जिस वक़्त उसने चाहा कि अपना घर बनाए तो पड़ोसी ने उससे कहा था कि घर को ज़्यादा ऊंचा न करे कि सूरज की रौशनी आना रुक जाए और उसके घर में अंधेरा छा जाए। लेकिन उस व्यक्ति ने पड़ोसी की बात को अहमियत न दी और कई मंज़िला घर बना लिया। उसे लगा कि शायद इस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हुआ।         

इस व्यक्ति ने एक बार फिर अपने घर वालों को ख़त लिखा जिसमें उसने कहाः "मैं इस साल भी मक्के में रुकुंगा। तुम अमुक पड़ोसी से बात करो कि वह अपना घर बेच दे और अगर न बेचे तो घर की दो मंज़िलों को गिरा दो ताकि पड़ोसी के घर में अंधेरा न रहे।" इस व्यक्ति के परिवार वाले पड़ोसी के पास गए उससे बात की तो वह घर बेचने के लिए तय्यार न हुआ। मजबूर होकर उन्होंने अपने घर के दो मंज़िले गिरा दिए ताकि पड़ोसी राज़ी हो जाए। फिर हज का महीना आ पहुंचा। उस व्यक्ति ने मिना नामक स्थान में स्वप्न में उन्हीं दोनों फ़रिश्तों को देख़ा लेकिन इस बार मामला अलग था। जब दोनों फ़रिश्ते उस व्यक्ति के सिरहाने पहुंचे तो कई बार कहाः "यह व्यक्ति हाजी है। यह व्यक्ति हाजी है।" पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "ईश्वर उस व्यक्ति पर प्रलय के दिन कृपा नहीं करेगा जो अपने रिश्तेदारों से संबंध विच्छेद करे और पड़ोसी के साथ बुराई करे।"             

अब्दुर्रहमान बिन सय्याबा नामक व्यक्ति कूफ़े में रहता था। जवानी में उसके पिता की मौत हो गयी। जब उसके पिता की मौत हुयी तो उसे मीरास में पिता से कुछ नहीं मिला। एक ओर पिता की मृत्यु दूसरी ओर निर्धनता व बेरोज़गारी से अब्दुर्रहमान की चिंता दुगुनी हो गयी थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। किस तरह अपनी और अपनी मां की ज़िन्दगी के सफ़र को आगे बढ़ाए। एक दिन इसी सोच में बैठा हुआ था कि किसी व्यक्ति ने घर का दरवाज़ा खटखटाया। जब उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि उसके पिता के दोस्त खड़े हैं। पिता के दोस्त ने उसे पिता के मरने पर सांत्वना दी और पूछा कि पिता से मीरास में कुछ धन मिला है जिससे अपना जीवन निर्वाह कर सके। अब्दुर्रहमान ने सिर नीचे किया और कहाः नहीं।

उस व्यक्ति ने पैसों से भरा एक थैला अब्दुर्रहमान को दिया और कहाः "यह एक हज़ार दिरहम हैं। इससे व्यापार करो और व्यापार से हासिल मुनाफ़े से जीवन चलाओ।" वह व्यक्ति यह कह कर अब्दुर्रहमान से विदा हुआ। अब्दुर्रहमान ख़ुशी ख़ुशी अपनी मां के पास आया और पैसों की थैली मां को दिखाते हुए पूरी घटना बतायी।

अब्दुर्रहमान ने अपने पिता के दोस्त की नसीहत पर अमल करने का फ़ैसला किया। उसने उसी दिन पैसों से कुछ चीज़ें ख़रीदी और एक दुकान लेकर व्यापार शुरु कर दिया। ज़्यादा समय नहीं गुज़रा था कि अब्दुर्रहमान का व्यापार चल निकला। उसने उन पैसों से अपने जीवन यापन के ख़र्च निकालने के साथ साथ पूंजि भी बढ़ायी। जब उसे लगा कि अब वह हज का ख़र्च उठा सकता है तो उसने हज करने का फ़ैसला किया। वह मां के पास गया और मां को अपने इरादे के बारे में बताया। मां ने कहा कि पहले पिता के दोस्त का क़र्ज़ लौटाओ जिसने तुम्हें क़र्ज़ दिया था। उनका पैसा हमारे लिए बर्कत का कारण बना। पहले उनका क़र्ज़ लौटाओ फिर मक्का जाओ।                

अब्दुर्रहमान अपने पिता के दोस्त के पास गया। एक हज़ार दिरहम से भरी थैली उनके सामने रखी तो उन्होंने उस थैले को देखकर पूछा कि यह क्या है?

अब्दुर्रहमान ने कहा कि ये वही हज़ार दिरहम हैं जो आपने मुझे क़र्ज़ दिए थे। उस व्यक्ति ने कहा कि अगर हज़ार दिरहम से तुम्हारी मुश्किल हल नहीं हुयी और तुम अपने लिए उचित कारोबार न कर सके तो मैं और पैसे देता हूं। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं पैसे कम नहीं थे बल्कि इन पैसों से बहुत बर्कत हुयी अब मुझे इन पैसों की ज़रूरत नहीं है। मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूं। चूंकि हज करने जाना चाहता हूं इसलिए आपके पास आया कि पहले आपका क़र्ज़ अदा करूं। वह व्यक्ति ख़ुश हुआ और उसने अब्दुर्रहमान को दुआ दी।

अब्दुर्रहमान हज के लिए गया। हज के संस्कार के बाद वह पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में मदीना पहुंचा। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के घर पर बहुत भीड़ थी। अब्दुर्रहमान सबसे पीछे बैठ गया और इंतेज़ार करने लगा कि लोगों की भीड़ कुछ कम हो। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान की ओर इशारा किया और वह उनके निकट गया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः कोई काम है? अब्दुर्रहमान ने कहाः मैं कूफ़े के निवासी सय्याबा का बेटा अब्दुर्रहमान हूं। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान से उसके पिता का कुशलक्षेम पूछा कि वह कैसे हैं। अब्दुर्रहमान ने कहा कि वह तो परलोक सिधार गए। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहाः ईश्वर उन पर अपनी कृपा करे। क्या पिता की मीरास से कुछ बचा है। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं, उनकी मीरास से कुछ नहीं बचा है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः फिर किस तरह तुम हज का ख़र्च वहन कर सके?

अब्दुर्रहमान ने अपनी ग़रीबी और पिता के दोस्त की ओर से मदद की घटना का वर्णन किया और कहाः "मैं ने उन पैसों से हासिल हुए मुनाफ़े से हज किया है।"

जैसे ही अब्दुर्रहमान ने यह कहा इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उससे पूछाः तुमने पिता के दोस्त के हज़ार दिरहम का क्या किया?

अब्दुर्रहमान ने कहाः मां से बात करके मैंने हज पर रवाना होने से पहले ही क़र्ज़ चुका दिया।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "शाबाश! हमेशा सच बोलो और ईमानदार रहो। ईमानदार व्यक्ति की लोग अपने धन से मदद करते हैं।"

गुरुवार, 05 जून 2025 06:32

हज का विशेष कार्यक्रम- 3

एक बार हज के समय बसरा शहर से लोगों का गुट हज के लिए मक्का गया।

जब वे लोग मक्का पहुंचे तो देखा कि मक्कावासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना है। मक्के में पानी की बहुत कमी थी। मौसम बहुत गर्म था और पानी कमी की वजह से मक्कावासी बहुत परेशान थे। बसरा के कुछ लोग काबे के पास गए ताकि परिक्रमा करें। उन्होंने ईश्वर से बहुत गिड़गिड़ा के दुआ कि वह मक्कवासियों के लिए अपनी कृपा से वर्षा भेजे। उन्होंने बहुत दुआ की लेकिन उनकी दुआ क़ुबूल होने का कोई चिन्ह ज़ाहिर न हुआ। लोग बेबस थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस दौरान एक जवान काबे की ओर बढ़ा। उस जवान ने कहाः ईश्वर जिसे दोस्त रखता है उसकी दुआ स्वीकार करेगा। यह कहकर जवान काबे के पास गया। अपना माथा सजदे में रखा और ईश्वर से दुआ की।

वह जवान सजदे में ईश्वर से कह रहा थाः "हे मेरे स्वामी! तुम्हें मेरी मित्रता की क़सम इन लोगों की बारिश के पानी से प्यास बुझा दे।" अभी जवाब की दुआ पूरी भी न हुयी था कि मौसम बदलने लगा। बादल ज़ाहिर हुआ और बारिश होने लगी। बारिश इतनी मुसलाधार हो रही थी मानो मश्क से पानी बह रहा हो। जवान ने सजदे से सिर उठाया। एक व्यक्ति ने उस जवान से कहाः हे जवान! आपको कहां से पता चला कि ईश्वर आपको दोस्त रखता है, इसलिए आपकी दुआ क़ुबूल करेगा।

जवान ने कहाः चूंकि ईश्वर ने मुझे अपने दर्शन के लिए बुलाया था, इसलिए मैं समझ गया कि वह मुझे दोस्त रखता है। इसलिए मैंने ईश्वर से अपनी दोस्ती के अधिकार के तहत बारिश का निवेदन किया और मेहरबान ईश्वर ने मेरी दुआ सुन ली। यह कह कर जवान वहां से चला गया।

बसरावासियों में से एक व्यक्ति ने पूछाः हे मक्कावासियो! क्या इस जवान को पहचानते हो? लोगों ने कहाः ये पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम हैं।           

ईश्वर के घर के सच्चे दर्शनार्थी उसकी कृपा के पात्र होते हैं और ईश्वर उनकी दुआ क़ुबूल करता है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः "जो भी काबे को उसके अधिकार को समझते हुए देखे तो ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देता है और जीवन के ज़रूरी मामलों को हर देता है। जो कोई हज या उम्रा अर्थात ग़ैर अनिवार्य हज के लिए अपने घर से निकले, तो घर से निकलने के समय से लौटने तक ईश्वर उसके कर्म पत्र में दस लाख भलाई लिखता और 10 लाख बुराई को मिटा देता है।"

पैग़म्बरे इस्लाम आगे फ़रमाते हैः "और वह ईश्वर के संरक्षण में होगा। अगर इस सफ़र में मर जाए तो ईश्वर उसे स्वर्ग में भेजेगा। उसके पाप माफ़ कर दिए गए, उसकी दुआ क़ुबूल होती है तो उसकी दुआ को अहम समझो क्योंकि ईश्वर उसकी दुआ को रद्द नहीं करता और प्रलय के दिन ईश्वर उसे एक लाख लोगों की सिफ़ारिश करने की इजाज़त देगा।"               

कार्यक्रम के इस भाग में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम हज के बारे में बताएंगे जो पूरा नहीं हो पाया था।

यह साठ हिजरी का समय था। यज़ीद बिन मोआविया सिंहासन पर बैठा था। उसके एक हाथ में शराब का जाम होता था तो दूसरे हाथ से वह अपने बंदर के सिर को सहलाता था जिसे वह अबाक़ैस के नाम से पुकारता था। यज़ीद बंदर को इतना पसंद करता था कि उसे रेशन के कपड़े पहनाता था। उसे दूसरों से ऊपर अपने बग़ल में बिठाता था। यज़ीद भी अपने बाप मुआविया की तरह बादशाही क़ायम करने की इच्छा रखता था लेकिन उसके विपरीत वह इस्लाम के आदेश का विदित रूप से भी पालन नहीं करता था। इस्लामी जगत के लोग इसलिए सीरिया या बग़दाद की हुकुमत का पालन करते थे कि उसे इस्लामी ख़िलाफ़त समझते थे लेकिन दूसरे के मुक़ाबले में यज़ीद का मामला अलग था। वह ज़ाहिरी तौर पर भी इस्लामी आदेशों का पालन करने के लिए तय्यार नहीं था और खुल्लम खुल्लम इस्लाम के आदेशों का उल्लंघन करता था।

मोआविया ने 15 रजब सन 60 हिजरी में दुनिया से जाने से पहले बहुत कोशिश की कि कूफ़ा और मदीना के लोगों से अपने बेटे यज़ीद के आज्ञापालन का वचन ले ले मगर इसमें उसे कामयाबी न मिल सकी। वह मदीना के कुलीन वर्ग के लोगों के पास गया और अपनी मीठी मीठी बातों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और अब्दुल्लाह बिन उमर से जिनका मदीनावासी सम्मान करते थे, यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने की कोशिश की लेकिन इन लोगों ने इंकार कर दिया।  मोआविया ने अपनी मौत के वक़्त यज़ीद को नसीहत करते हुए कहाः "हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम के साथ नर्म रवैया अपनाना। वह पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और मुसलमानों में उनका ऊंचा स्थान है।" मोआविया जानता था कि अगर यज़ीद ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम से दुर्व्यवहार किया और अपने हाथ को उनके ख़ून से साना तो वह हुकूमत नहीं कर पाएगा और सत्ता अबू सुफ़ियान के परिवार से निकल जाएगी। यज़ीद खुल्लम खुल्ला पाप करता था, वह भोग विलास के माहौल में पला बढ़ा था और इन्हीं चीज़ों में वह मस्त रहता था। उसमें राजनीति की समझ न थी। वह जवानी व धन के नशे में चूर था।

मोआविया की मौत के बाद यज़ीद ने अपने पिता की नसीहत के विपरीत मदीना के गवर्नर को एक ख़त लिखा जिसमें उसने अपने पिता की मौत की सूचना दी और उसे आदेश दिया कि वह मदीना वासियों से उसके आज्ञापालन का प्रण ले जिसे बैअत कहते हैं। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को लिखा कि हुसैन बिन अली से भी आज्ञापालन का प्रण लो अगर वह प्रण न लें तो उनका सिर क़लम करके मेरे पास भेज दो। मदीना के राज्यपाल ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलवाया और उन्हें मोआविया की मौत की सूचना दी और उनसे कहा कि वह यज़ीद के आज्ञापालन का प्रण लें। इसके जवाब में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "हे शासक! हम पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से हैं। वह ख़ानदान जिनके घर फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है। यज़ीद शराबी, क़ातिल और खुल्लम खुल्ला पाप करता है। खुल्लम खुल्ला अपराध करता है। मुझ जैसा उस जैसे का आज्ञापालन नहीं कर सकता।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने कर मक्का जाने का फ़ैसला किया। वह 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीने से मक्का चले गए।

कूफ़े के लोगों को इस बात का पता चल गया कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण  लेने से इंकार किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों ने उन्हें बहुत से ख़त लिखे और उनसे कूफ़ा आने का निवेदन किया। कूफ़ेवासियों ने अपने ख़त में लिखाः "हमारी ओर आइये हमने आपकी मदद के लिए बहुत बड़ा लश्कर तय्यार कर रखा है।" 8 ज़िलहिज सन 60 हिजरी को उमर बिन साद एक बड़े लश्कर के साथ मक्के में दाख़िल हुआ। उसे हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को हज के दौरान जान से मारने के लिए कहा गया था। 8 ज़िलहिज जिसे तरविया दिवस कहा जाता और इस दिन हाजी अपना हज शुरु करते हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने हज को उम्रे से बदल कर मक्के से निकलने पर मजबूर हुए ताकि पवित्र काबे का सम्मान बना रहे। दूसरी बात यह कि अगर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज के दौरान क़त्ल हो जाते तो लोग यह न समझ पाते कि उन्हें अत्याचारी यज़ीद का आज्ञापालन न करने की वजह से शहीद किया गया है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि कूफ़ावासी वचन के पक्के नहीं हैं। वह जानते थे कि उनका अंजाम शहादत है लेकिन वह यज़ीद जैसे अत्याचारी की हुकूमत के संबंध में चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने मक्के से निकलने से पहले अपना वसीयत नामा अपने भाई मोहम्मद बिन हन्फ़िया को दिखा जिसमें आपने फ़रमायाः "लोगो! जान लो कि मै सत्तालोभी, भ्रष्ट व अत्याचारी नहीं हूं और न ही ऐसा कोई लक्ष्य रखता हूं। मेरा आंदोलन सुधार लाने के लिए है। मैं उठ खड़ा हुआ हूं ताकि अपने नाना के अनुयाइयों को सुधारूं। मैं भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना चाहता हूं।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मक्के से निकलते वक़्त लोगों से बात की और अपनी बातों से उन्हें समझाया कि उन्होंने यह मार्ग पूरी सूझबूझ से चुना है और जानते हैं कि इसका अंजाम ईश्वर के मार्ग में शहादत है। जो लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद करना चाहते थे वे उनसे रास्ते में कहते रहते थे कि इस आंदोलन का अंजाम सत्ता की प्राप्ति नहीं है।

इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथ चलने वालों से कहते थे "आपमें से वहीं मेरे साथ चले जो अपनी जान को ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बान करने और उससे मुलाक़ात करने का इच्छुक हो।"

यह वादा कितनी जल्दी पूरा हुआ  और 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी को आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथियों के साथ ईश्वर के मार्ग में शहीद हो गए लेकिन अत्याचार को सहन न किया। श्रोताओ! इन्हीं हस्तियों पर पवित्र क़ुरआन के क़मर नामक सूरे की आयत नंबर 54 और 55 चरितार्थ होती है जिसमें ईश्वर कहता हैः "निःसंदेह सदाचारी स्वर्ग के बाग़ में रहेंगे। उस पवित्र स्थान पर जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है।"

इमाम खुमैनी र.ह. के नेतृत्व में शाह का तख्तापलट और ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

इमाम खुमैनी र.ह. के नेतृत्व में शाह का तख्तापलट और ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता से मुसलमानों के ज़ायोनी-विरोधी संघर्ष तेज़ हो गए और फ़िलिस्तीनियों के संघर्ष की दिशा बदल गई। शाह के शासन को पश्चिम एशिया के संवेदनशील क्षेत्र में पश्चिम और इस्राईल का एक मज़बूत सहयोगी माना जाता था।

शाह के समय में ईरान, इस्राईली वस्तुओं और उत्पादों के आयात का एक बड़ा बाज़ार था जिससे अवैध अतिग्रहणकारी शासन की अर्थव्यवस्था मज़बूत हो रही थी जबकि दूसरी ओर शाह ने इस्राईल की ज़रूरत के तेल का निर्यात करके और उसकी ज़रूरतों को पूरा करके इस शासन की मदद की। दूसरे शब्दों में यूं कहा जा सकता है कि ईरानी तेल, इस्राईली अर्थव्यवस्था और उद्योगों में वह गोली और हथियार बन गया जो फ़िलिस्तीनियों के सीनों को निशाना बना रहे थे।

ईरान, इस्राईली जासूसी अभियानों और क्षेत्र में अरबों के नियंत्रण का अड्डा बन चुका था। इस्राईल के साथ शाह के गुप्त और खुले संबंधों को उजागर करना और मुसलमानों के संयुक्त दुश्मन को शाह की निसंकोच सहायता का विरोध करना, इमाम खुमैनी के आंदोलन के मक़सदों में था। वह ख़ुद ही इस बारे में कहते थे: शाह का विरोध करने के कारणों में एक जिसने हमें शाह के मुक़ाबले में खड़ा कर दिया है, वह शाह द्वारा इस्राईल की मदद थी।

मैंने हमेशा अपने लेखों में कहा है कि शाह ने आरंभ से ही इस्राईल का सहयोग किया है और जब इस्राईल और मुसलमानों के बीच युद्ध अपने चरम पर पहुंचा तो शाह ने मुसलमानों का तेल हड़पना और उसे इस्राईल को देना जारी रखा, मेरे शाह के विरोध का यह ख़ुद ही एक कारण है।

शाह का तख्तापलट और इमाम खुमैनी के नेतृत्व में ईरान में इस्लामी व्यवस्था का शासन, ऐसा घातक और भीषण झटका था जिसने ज़ायोनीवादियों के विस्तारवादी लक्ष्यों को गंभीर रूप से ख़तरे में डाल दिया था।

इस्लामी क्रांति के संदेश और उसके नेतृत्व का जनमत पर प्रभाव इतना व्यापक था कि जब अनवर सादात ने कैंप डेविड में समझौते पर हस्ताक्षर किए तो मिस्र सरकार को अरब जिरगा और यहां तक ​​कि रूढ़ीवादी अरब शासन के ग्रुप से निकाल दिया गया और मिस्र पूरी तरह से अलग थलग पड़ गया।

बैतुल मुक़द्दस पर क़ब्ज़ा करने वाले शासन के मुख्य समर्थक अमेरिका और यूरोपीय सरकारें जब इमाम खुमैनी के आंदोलन का सामना करने में हार गयीं तो वे ईरान की इस्लामी क्रांति को रोकने और स्थिति को बदलने के लिए एक प्लेटफ़ार्म पर जमा हो गयीं।

इन्होंने अपने पूर्वी प्रतिद्वंद्वी (पूर्व सोवियत संघ) के साथ गठबंधन कर लिया जोड़ लिया और इस मुद्दे पर इतनी हद तक बढ़ गये कि उन्होंने ईरानी क्षेत्रों पर क़ब्ज़ा करने के लिए सद्दाम को उकसाया और ईरान की नवआधार क्रांति और इराक़ के बीच लंबे युद्ध के सभी चरणों में इराक़ के लिए दो महाशक्तियों का भरपूर समर्थन देखने को मिला।

थोपे गए युद्ध को इस्लामी क्रांति को समाप्त करने, ईरान के टुकड़े करने और उसपर क़ब्ज़ा करने के उद्देश्शय से आंरभ किया गया था।  इस्लामी गणतंत्र ईरान जो, दुनिया के वंचितों के लिए संघर्ष करने के उद्देश्य से भूमिका निभाना चाहता था और जो इस नारे के साथ आगे बढ़ना चाहता था कि "आज ईरान, कल फ़िलिस्तीन। 

अब वह अपनी क्रांति के अस्तित्व की सुरक्षा के लिए न चाहते हुए भी युद्ध में खीच लिया गया।  यह थोपा गया युद्ध पश्चिमी और अन्य नेताओं के कथनानुसार इस्लामी क्रांति को समाप्त करने के लिए शुरू किया गया था। 

इसका एक अन्य उद्देश्य, मुसलमान राष्ट्रों को इस्लामी क्रांति से रोकना था।  इस तरह से सद्दाम ने इस्लाम दुश्मन शक्तियों के उकसावे में आकर एक लंबा युद्ध आरंभ किया।  इस बारे में इमाम ख़ुमैनी कहते हैं कि जो बहुत खेद का विषय है वह यह है कि महाशक्तियां विशेषकर अमरीका ने सद्दाम को उकसाकर हमारे देश पर हमला करवाया ताकि ईरान की सरकार को अपने देश की सुरक्षा करने में व्यस्त कर दिया जाए जिससे अवैध ज़ायोनी शासन को वृहत्तर इस्राईल के गठन का मौक़ा मिल जाए जो नील से फ़ुरात तक निर्धारित है।

शाह की अत्याचारी सरकार के दौर में इमाम ख़ुमैनी ने इस्राईल और शाह के शासन के बीच संबन्धों का पर्दाफ़ाश किया था।  वे इस्लामी जगत के लिए इस्राईल को बड़ा ख़तरा मानते थे।  स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ही वे पहले वरिष्ठ धर्मगुरू थे जिन्होंने फ़िलिस्तीन के लिए संघर्ष को ज़कात और सदक़े के माध्यम से जारी रखने का समर्थन किया था। 

आरंभ से ही उन्होंने सताए गए फ़िलिस्तीनी राष्ट्र को संगठित करने और उनसे मुस्लिम राष्ट्रों का समर्थन प्राप्त करने के लिए सबसे अधिक प्रभावशाली तरीक़ा पेश किया।  उन्होंने अरब जाति की वरिष्ठता, राष्ट्रवादी दृष्टिकोण और दूसरी आयातित ग़ैर इस्लामी विचारधाराओं पर भरोसा करके बैतुल मुक़द्दस की आज़ादी के लिए संघर्ष को, मार्ग से भटकना बताया।

उनको कुछ इस्लामी देशों के नेताओं की अक्षमता तथा निर्भर्ता की जानकारी थी और साथ ही वे इस्लामी जगत की आंतरिक समस्याओं से भलिभांति अवगत थे।  इसी के साथ वे धार्मिक मतभेदों के विरोधी थे और इस्लामी राष्ट्रों के नेताओं को एकता का आहवान करते थे।  उनका यह भी मानना था कि जबतक सरकारें आम मुसलमानों की इच्छाओं के हिसाब से उनके साथ रहेंगी उस समय तक वे उनका नेतृत्व कर सकती हैं।  यदि एसा न हो तो उन राष्ट्रों को वैसा ही करना चाहिए जैसा कि ईरानी राष्ट्र ने शाह के साथ किया।

यहां पर फ़िलिस्तीन के विषय के संदर्भ में ज़ायोनी दुश्मन के विरुद्ध संघर्ष को लेकर इमाम ख़ुमैनी ने कुछ बिदु पेश किये हैं।

अमरीका और इस्राईल के विरुद्ध तेल रणनीति का प्रयोगः

उनहोंने नवंबर 1973 के युद्ध की वर्षगांठ पर इस्लामी देशों को संबोधित करते हुए अपने संदेश में कहा थाः तेल से संपन्न इस्लामी देशों को चाहिए कि वे अपने पास मौजूद सारी संभावनाओं को इस्राईल के विरुद्ध हथकण्डे के रूप में प्रयोग करें।  वे उन सरकारों को तेल न बेचें जो इस्राईल की सहायता करते हैं। फ़िलिस्तीन की आज़ादी, इस्लामी पहचान की बहाली पर निर्भरः

हम जबतक इस्लाम की ओर वापस नहीं आते, रसूल अल्लाह के इस्लाम की ओर, उस समय तक मुश्क़िलें बाक़ी रहेंगी।  ऐसे में हम न तो फ़िलिस्तीन समस्या का समाधान करा पाएंगे न अफ़ग़ानिस्तान का और न ही किसी दूसरे विषय का।

बारंबार वृहत्तर इस्राईल के गठन का रहस्योदघाटनः

इस्राईल की संसद का मुख्य नारा यह था कि इस्राईल की सीमाएं नील से फ़ुरात तक हैं।  उनका यह नारा उस समय भी था जब अवैध ज़ायोनी शासन के गठन के समय ज़ायोनियों की संख्या कम थी।  स्वभाविक सी बात है कि शक्ति आने पर वे उसको व्यवहारिक बनाने के प्रयास अवश्य करेंगे।

इमाम ख़ुमैनी ने हमेशा ही इस्राईल की विस्तारवादी नीतियों के ख़तरों और उसका अपनी वर्तमान सीमाओं तक सीमित न रहने के प्रति सचेत किया।  वे यह भी कहा करते थे कि इस लक्ष्य पर इस्राईल की ओर से पर्दा डालने का काम आम जनमत को धोखा देने के उद्देश्य से है जबकि इसको चरणबद्ध ढंग से हासिल करने की वह कोशिश करता रहेगा।

ज़ायोनिज़्म और यहूदी में अंतरः

वास्तव में ज़ायोनिज़्म, यहूदी धर्म की आड़ में विस्तारवादी, जातिवादी और वर्चस्ववादी एक एसी प्रक्रिया है जो धर्म के चोले में यहूदी धर्म के लक्ष्यों को पूरा करने का दिखावा करता है।  हालांकि जानकार इस बात से भलिभांति अवगत हैं कि इस नाटक के अन्तर्गत ज़ायोनी, फ़िलिस्तीनियों पर अत्याचार करने और उनकी ज़मीनों पर क़ब्ज़ा करने का औचित्य पेश कर सकें।  यह काम आरंभ में ब्रिटेन के माध्यम से शुरू हुआ था किंतु वर्तमान समय में यह, वाइट हाउस को सौंप दिया गया है।  यह बात बहुत ही स्पष्ट है कि नया साम्राज्यवाद, केवल अपने निजी हितों पर ही नज़र रखता है।  इमाम ख़ुमैनी, इस वास्तविकता को समझते हुए हमेशा ही ज़ायोनिज़म और यहूदियत में फ़र्क़ के क़ाएल थे।  वे ज़ायोनिज़्म को एक राजनीतिक प्रक्रिया मानते थे जो ईश्वरीय दूतों की शिक्षाओं से बिल्कुल अलग और दूर है।

फ़िलिस्तीन की मुक्ति का रास्ताः

एक अरब से अधिक मुसलमानों पर ज़ायोनियों के एक छोटे से गुट के शासन को इमाम ख़ुमैनी बहुत शर्मनाक मानते थे।  वे कहते थे कि एसा क्यों है कि वे देश जो सबकुछ रखते हैं और उनके पास शक्ति भी है, उनपर इस्राईल जैसा हुकूमत करे? एसा क्यों है? यह इसलिए है कि राष्ट्र, एक-दूसरे से अलग हैं।  सरकारें और राष्ट्र अलग हैं।  एक अरब मुसलमान अपनी सारी संभावनाओं के बावजूद बैठे हुए हैं और इस्राईल, लेबनान और फ़िलिस्तीन पर अत्याचार कर रहे है।

ज़ायोनिज़्म के विरुद्ध राष्ट्रों का आन्दोलन और अमरीका पर निर्भर न रहनाः

इमाम ख़ुमैनी ने 16 दिसंबर 1981 को न्यायपालिका के अधिकारियों के साथ मुलाक़ात में इस ओर संकेत किया था कि मुसलमान सरकारों की अमरीका पर निर्भर्ता ही मुसलमानों की समस्याओं का मुख्य कारण हैं।  उन्होंने कहा कि मुसलमान बैठे न रहें कि उनकी सरकारें, इस्लाम को ज़ायोनियों के पंजों से मुक्ति दिलाएं। 

वे न बैठे रहें कि अन्तर्राष्ट्रीय संगठन उनके लिए काम करें।  राष्ट्रों को इस्राईल के सामने उठना होगा।  राष्ट्र स्वयं आन्दोलन करके अपनी सरकारों को इस्राईल के मुक़ाबले में खड़ा करें।  वे केवल मौखिक भर्त्सना को काफी न समझें।  वे लोग जिन्होंने इस्राईल के साथ भाइयों जैसे संबन्ध बनाए हैं वे ही उसकी भर्त्सना भी करते हैं किंतु वास्तव में यह निंदा तो मज़ाक़ की तरह है।  अगर मुसलमान बैठकर यह सोचने लगें कि अमरीका या उसके पिट्ठू उनके लिए काम करेंगे तो फिर यह काफ़ला हमेशा ही लंगड़ाता रहेगा।