رضوی

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आयतुल्लाह मोहम्मद हसन अख़्तरी ने कहा है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान की शानदार सफलता और सियोनिस्ट दुश्मन की ऐतिहासिक हार ने न केवल ईरानी राष्ट्र की प्रतिष्ठा को बढ़ाया है, बल्कि प्रतिरोध की पंक्तियों में आशा और दृढ़ता को कई गुना बढ़ा दिया है।

मजमए जहानी अहलेबैत अ.स. की उच्च परिषद के अध्यक्ष हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन मोहम्मद हसन अख़्तरी ने एक वार्ता में कहा कि आज प्रतिरोध पहले से कहीं अधिक मजबूत, जागरूक और सक्रिय है और हिज़्बुल्लाह, हमास, अंसारुल्लाह तथा अन्य प्रतिरोधी समूह दुश्मनों के सामने पूरी बहादुरी के साथ डटे हुए हैं।

उन्होंने कहा कि ये सभी समूह किसी भी हालत में सियोनिस्ट सरकार और अमेरिका की अतार्किक मांगों या अंतरराष्ट्रीय कानूनों के उल्लंघन को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं हैं। उनका यह दृढ़तापूर्ण रुख सराहनीय है। 

हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन अख़्तरी ने जोर देकर कहा कि अपनी भूमि और अधिकारों की रक्षा करना एक तार्किक, शरई और मानवीय कर्तव्य है, जिसे लेबनान, यमन और फिलिस्तीन सहित सभी मजलूम कौमों का वैध अधिकार माना जाना चाहिए।

उन्होंने वैश्विक समुदाय से आग्रह किया कि वह सियोनिस्ट सरकार की आक्रामकता और बर्बरता के खिलाफ न्यायसंगत और समझदारी भरा रुख अपनाए, क्योंकि अगर इस अत्याचारी सरकार को नहीं रोका गया, तो इसके खतरे न केवल क्षेत्र तक सीमित रहेंगे, बल्कि पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले सकते हैं। 

उन्होंने ईरान पर सियोनिस्ट सरकार के हालिया हमले की कड़ी निंदा करते हुए कहा कि ईरानी राष्ट्र ने हमेशा दुश्मन के सामने अद्वितीय वीरता दिखाई है। अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं को चाहिए कि वे इस आक्रमण की निंदा करें और ईरान को हुए नुकसान की भरपाई करें। दुश्मन को इतनी सख्त सजा दी जानी चाहिए कि वह न केवल ईरान, बल्कि किसी भी इस्लामी देश पर फिर से हमला करने की हिम्मत न कर सके। 

आयतुल्लाह अख़्तरी ने आगे कहा कि दुनिया भर के उलेमा को सियोनिस्ट और अमेरिकी आक्रमण के खिलाफ जोरदार मुहिम चलाने और इन अत्याचारों की निंदा करने में सक्रिय भूमिका निभानी चाहिए।

उन्होंने कहा कि हुज्जतुल इस्लाम आयतुल्लाह मक़ारिम शिराज़ी और हुज्जतुल इस्लाम आयतुल्लाह नूरी हमदानी द्वारा जारी किए गए बयान एक क्रांतिकारी शुरुआत थे, जिन्हें अन्य उलेमा का समर्थन प्राप्त हुआ, लेकिन इस संबंध में और प्रयासों की आवश्यकता है। 

उन्होंने 12-दिवसीय युद्ध में इस्लामी गणतंत्र ईरान की जीत को सियोनिस्ट दुश्मन की ऐतिहासिक हार बताते हुए कहा कि इस सफलता ने प्रतिरोध मोर्चे में नई जान फूंकी है और हमें अपनी रक्षा क्षमता बढ़ाने तथा जनता में जागरूकता पैदा करने के लिए और प्रयास करने होंगे।

 

 कर्बला की घटना के बाद, जब उमर बिन साद की सेना मैदान छोड़कर वापस लौटी, तो इस क्षेत्र के पास “ग़ाज़रिया” नामक गाँव में रहने वाले बनी असद जनजाति ने कर्बला के शहीदों के शवों को देखा और घटना स्थल पर पहुँचे। उस समय, इमाम सज्जाद (अ), जिन्हें अत्यंत कठिन परिस्थितियों के बावजूद कर्बला पहुँचना था, ने उनका मार्गदर्शन किया।

कर्बला की घटना के बाद, जब उमर बिन साद की सेना मैदान छोड़कर वापस लौटी, तो इस क्षेत्र के पास “ग़ाज़रिया” नामक गाँव में रहने वाले बनी असद जनजाति ने कर्बला के शहीदों के शवों को देखा और घटना स्थल पर पहुँचे। उस समय, इमाम सज्जाद (अ), जिन्हें अत्यंत कठिन परिस्थितियों के बावजूद कर्बला पहुँचना था, ने उनका मार्गदर्शन किया। इमाम हुसैन (अ) के शव को उसी स्थान पर दफनाया गया जहां आज उनका पवित्र मज़ार स्थित है।

यह कार्रवाई न केवल कर्बला के शहीदों की रक्षा के लिए थी बल्कि पैगंबर के अहले बैत के प्रेम और वफादारी का व्यावहारिक प्रमाण भी थी। बनी असद ने इमाम सज्जाद (अ) की मदद की और कर्बला के शहीदों की पहचान की और उनके बताए तरीके के अनुसार उन्हें दफनाया।

ऐतिहासिक और हदीस स्रोतों में बताया गया है कि जैसे ही उमर बिन साद कर्बला से कूफ़ा चले गए, बनी असद जनजाति के सदस्य मौके पर पहुंचे, इमाम हुसैन (अ) और उनके साथियों के लिए जनाज़ा की नमाज़ पढ़ी और उन्हें दफ़नाया। इमाम हुसैन (अ) को उसी स्थान पर दफ़नाया गया जहां आज उनका मज़ार है।

उसी स्थान के पास अहले बैत (अ) के अन्य शहीदों और साथियों के लिए एक सामूहिक कब्र खोदी गई और उन सभी को उसमें दफ़नाया गया। हज़रत अब्बास (अ) को उस जगह दफ़न किया गया जहाँ उनकी शहादत हुई थी, जो ग़ाज़रिया की सड़क पर स्थित है और उनकी कब्र आज भी वहाँ मौजूद है।

शेख़ सदूक ने अपनी “ओयून अख़बार अल-रज़ा में इमाम मूसा इब्न जाफ़र (अ की शहादत के बारे में कई हदीसें बयान की हैं जो साबित करती हैं कि सिर्फ़ मासूम इमाम ही मासूम इमाम के गुस्ल और दफ़न के लिए ज़िम्मेदार है। इमाम सादिक़ (अ) से रिवायत है कि किसी इमाम को ग़ुस्ल देना और कफन पहनाना सिर्फ़ इमाम के अलावा कोई और नहीं कर सकता।

“इहतेजाज” में इमाम रज़ा (अ) ने वक़्फ़िया (एक विचलित संप्रदाय) के ख़िलाफ़ एक विरोध बयान किया है, जिसमें अली इब्न हमज़ा ने पूछा: हमने आपके पूर्वजों से सुना है कि एक इमाम के मामलों (ग़ुस्ल और दफ़न) की देखभाल केवल एक इमाम ही कर सकता है जो उसका उत्तराधिकारी हो। इमाम रज़ा (अ) ने कहा: इमाम हुसैन (अ) इमाम थे या नहीं?

अली इब्न हमज़ा ने कहा: हाँ, वे इमाम थे।

इमाम रज़ा (अ) ने पूछा: उनके मामलों की देखभाल कौन कर रहा था?

अली इब्न हमज़ा ने कहा: इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ)

इमाम रज़ा (अ) ने कहा: लेकिन अली इब्न हुसैन (अ) उस समय इब्न ज़ियाद की जेल में थे!

अली ने उत्तर दिया: वे गुप्त रूप से जेल से निकलकर कर्बला गए और अपने पिता का अंतिम संस्कार और दफ़न किया और फिर वापस आ गए।

इमाम रज़ा (अ) ने कहा: वही ईश्वर जिसने अली इब्न हुसैन को जेल से आज़ाद किया और उन्हें कर्बला पहुँचने की शक्ति दी, वही इस इमाम को बगदाद पहुँचने की शक्ति भी दे सकता है ताकि वे अपने पिता के मामलों को अंजाम दे सकें, जबकि वे न तो जेल में हैं और न ही गिरफ़्तार हैं।

इमाम (अ) के इस कथन से यह स्पष्ट हो जाता है कि इमाम हुसैन (अ) को दफ़न करने की ज़िम्मेदारी इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ) ने ही निभाई थी, क्योंकि वह उस वक़्त के इमाम थे। जैसा कि शेख़ सदूक कहते हैं: इस हदीस के आधार पर वक़्फ़ी बारहवीं शियो पर ऐतराज़ नहीं कर सकते क्योंकि इमाम सादिक (अ) ने सिर्फ़ इतना कहा है कि इमाम इमाम को ग़ुस्ल देता है, लेकिन अगर इमाम के अलावा कोई और किसी मजबूरी की वजह से यह काम करता है, तो इससे इमामत ख़राब नहीं होती।

इसलिए कर्बला के शहीदों को दफ़न करने में बनी असद कबीले की भागीदारी सिर्फ़ इमाम सज्जाद (अ) के मददगार होने की हैसियत से थी। शहीदों की पहचान और दफ़न की असली निगरानी और नेतृत्व इमाम सज्जाद (अ) के हाथों में था और बनी असद ने उनके आदेश के अनुसार इस प्रक्रिया को अंजाम दिया। इमाम के लिए ये प्रक्रिया बेहद आसान और सरल थी।

हवाला:

  1. शेख मुफीद, "अल-अरशद", भाग 2, पेज 114
  2. फत्तल नेशाबुरी, "रौज़ातुल वाएज़ीन", पेज 222
  3. शेख तूसी, "ग़ैयबा", पेज 84

 

इमाम हुसैन (अ.) का क़ियाम व आंदोलन उस समय हुआ जब इस्लामी समाज यज़ीद, जो मुआविया का बेटा और बनी उमय्या की ख़ानदान से था, की हुकूमत में विनाश की ओर बढ़ रहा था और लोगों के बीच ईश्वरीय आदेश तथा नैतिकताएँ भुलाई जा रही थीं।

इमाम हुसैन (अ.) ने उच्च उद्देश्यों के साथ आंदोलन-ए-अशूरा की शुरुआत की और अपनी शहादत के ज़रिए इस्लाम  धर्म को जीवित रखा।

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने भाई इमाम हसन (अ.) की शहादत के बाद, जिन्होंने छह महीने तक मुसलमानों की खिलाफ़त संभाली थी, अपने भाई की संधि का पालन करने और साथ ही मुआविया द्वारा कुछ इस्लामी प्रतीकों के पालन के कारण क़ियाम नहीं किया लेकिन मुआविया द्वारा फैलाए गए अत्याचार, अन्याय और नवाचारों व बिदअतों के सामने वे चुप भी नहीं रहे और जहां तक संभव हुआ, भाषणों और विरोधी पत्रों के माध्यम से मुआविया के विरुद्ध अपना विरोध प्रकट करते रहे।

इसका एक स्पष्ट उदाहरण यज़ीद जैसे भ्रष्ट, शराबी और नैतिक रूप से गिर चुके व्यक्ति को उत्तराधिकारी बनाए जाने का विरोध था, जो मुआविया के शासनकाल में हुआ। इस संबंध में इमाम हुसैन (अ.) ने हज जैसे विशाल धार्मिक सम्मेलन में भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उमय्या शासन के ज़ुल्म व ज़्यादतियों को उजागर किया। इस भाषण ने सरकार के खिलाफ़ एक बड़ा प्रचार आंदोलन खड़ा किया और क़ियाम व आंदोलन की नींव रखी।

यज़ीद-क भ्रष्ट शासक

इमाम हुसैन (अ.) के दौर में सत्ता ऐसे व्यक्ति के हाथ में आ गई थी जिसे मुआविया ने पाला-पोसा था। वह इस्लामी शासन के नाम पर जनता पर शासन करना चाहता था जबकि उसे इस्लाम में कोई आस्था नहीं थी। वह एक अत्याचारी, वासना में डूबा हुआ, व्यभिचारी, धर्मविरोधी और खुला पापी व्यक्ति था।

यज़ीद जब सत्ता में आया तो वह अपने पिता की तरह कम से कम धार्मिक दिखावा भी न कर सका और उसने खुलेआम इस्लामी पवित्रताओं का अपमान करना शुरू कर दिया। वह शराब का आदी और भ्रष्ट व्यक्ति था, जो स्पष्ट रूप से पैग़म्बर (स.) पर ईश्वरीय संदेश के उतरने और उनकी पैग़म्बरी का भी इनकार करता था।

प्रसिद्ध इस्लामी इतिहासकार मसऊदी लिखते हैं: "यज़ीद ने लोगों के साथ ऐसा व्यवहार किया जैसा फ़िरऔन करता था बल्कि फ़िरऔन का व्यवहार उससे बेहतर था।"

यज़ीद की हुकूमत में इस्लाम का फ़ातेहा यानी विनाश व समाप्ति

इमाम हुसैन (अ.) ने उन्हीं दिनों जब मदीने में स्थानीय शासक द्वारा जबरन बैअत लेने का दबाव था तो उसके उत्तर में फरमाया: अब जब मुसलमान यज़ीद जैसे शासक के अधीन हो गए हैं तो इस्लाम का फ़ातेहा पढ़ लेना चाहिए। यानी इस्लाम के ख़त्म होने का फ़ातेहा पढ़ लेना चाहिये।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.) के अहलुलबैत के अनुयायियों के तीसरे इमाम ने, जब कूफ़ावासियों के निमंत्रण-पत्रों का उत्तर दिया, तो मुसलमानों के नेता की विशेषताओं को इस प्रकार बयान किया।

"... मुसलमानों का इमाम और नेता वह है जो अल्लाह की किताब पर अमल करता हो, न्याय और सत्य का मार्ग अपनाए, सत्य का अनुसरण करे और पूरे दिल से अल्लाह के आदेशों का पालन करे।

यज़ीद ऐसा व्यक्ति नहीं था जिसमें इस्लामी शासन के नेतृत्व की योग्यताएँ हों और यदि उसका शासन जारी रहता, तो इस्लाम नाम की कोई चीज़ बाक़ी न रहती। इसीलिए मुआविया की मृत्यु के बाद इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम में जो रुकावटें थीं, वे दूर हो चुकी थीं और अब समय आ गया था कि वे अपने नाना के धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए उठ खड़े हों और यज़ीद की अवैध हुकूमत के विरुद्ध अपने विरोध की घोषणा करें।

आशूरा के क़ियाम व आंदोलन के कारण

आशूरा के क़ियाम व आंदोलन राजनीतिक, धार्मिक और सामाजिक कारणों के मेल से उत्पन्न हुआ। इसका सबसे मुख्य कारण, पैग़म्बर (स.) की वफ़ात के बाद इस्लाम के मार्ग में आए गहरे भ्रष्टाचार और यज़ीद की भ्रष्ट हुकूमत का सत्ता में आना था जिसने धर्म को केवल सत्ता का साधन बना लिया था। समाज की चुप्पी, अत्याचार, अन्याय और धार्मिक सच्चाइयों के बदले जाने के सामने खामोशी ने इमाम हुसैन (अ.) को इस पर मजबूर कर दिया कि वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की उम्मत के सुधार और धर्म को पुनर्जीवित करने के लिए क़ियाम करें। समाज के प्रति ज़िम्मेदारी, ईश्वरीय मूल्यों की रक्षा और ज़ालिम सरकार की वैधता को रोकना यह सब इस ऐतिहासिक आंदोलन के प्रमुख प्रेरक तत्व व कारण थे।

क्या यदि यज़ीद की ओर से बैअत के लिए दबाव और कूफ़ावालों का निमंत्रण न होता, तो भी इमाम हुसैन (अ.) विरोध करते?

इस प्रश्न का उत्तर यह है कि इमाम हुसैन (अ.) मुआविया के जीवनकाल में ही यज़ीद के उत्तराधिकारी होने का कड़ा विरोध कर चुके थे और मुआविया की मृत्यु के बाद भी उन्होंने मदीने के शासक द्वारा यज़ीद की खिलाफ़त के लिए बैअत की मांग को स्पष्ट रूप से अस्वीकार कर दिया था क्योंकि यज़ीद की बैअत करना न केवल एक भ्रष्ट व्यक्ति की खिलाफ़त को स्वीकार करना होता, बल्कि मुआविया द्वारा स्थापित राजशाही और वंशानुगत सत्ता को भी वैधता देना होता।

 इमाम ने कई बार स्पष्ट किया कि वे किसी भी कीमत पर, किसी भी दबाव के तहत, यज़ीद की बैअत नहीं करेंगे। इसलिए, अगर बैअत का दबाव भी न होता, तब भी इमाम हुसैन (अ.) इस अवैध हुकूमत का विरोध करते क्योंकि यज़ीद में मुसलमानों के नेतृत्व और खिलाफ़त की कोई योग्यता नहीं थी।

इमाम हुसैन (अ.) अमर बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर अर्थात "अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना" के नारे के साथ मदीना से चले थे क्योंकि इस्लामी दुनिया बुराई और भ्रष्टाचार से भर गई थी और तत्कालीन शासन स्वयं इन बुराइयों का स्रोत बन चुका था। इमाम (अ.) ने ईश्वरीय कर्तव्य और धार्मिक ज़िम्मेदारी के तहत क़ियाम किया ताकि अपने नाना की उम्मत को गुमराही से बचा सकें।

इमाम हुसैन (अ.) की ज़बानी क़ियाम के उद्देश्यों की व्याख्या

इमाम हुसैन (अ.) ने विभिन्न अवसरों पर अपने ख़ुत्बों, पत्रों, प्रभावशाली बयानों और अपनी वसीयत में क़ियाम-ए-अशूरा के उद्देश्यों और प्रेरणाओं के बारे में स्पष्ट रूप से बात की है। उन्होंने उमय्या  के शासकों के अपराधों के सामने चुप्पी और उनके साथ समझौते को एक माफ़ न करने वाला पाप करार दिया।

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम व आंदोलन के कुछ प्रमुख उद्देश्य, जिन्हें संक्षेप में इस प्रकार बताया जा सकता है:

  1. अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना

इमाम हुसैन (अ.) ने भूला दी गयी धार्मिक ज़िम्मेदारी को अपने आंदोलन के उद्देश्यों को लागू करने का एक व्यावहारिक साधन बनाया और यह बहुत प्रभावी सिद्ध हुआ। इस विषय में उन्होंने फ़रमाया हे खुदा! मुझे अच्छाई प्रिय है और मैं बुराई और पाप से घृणा करता हूँ।

  1. पैग़म्बर (स.) की उम्मत का सुधार

जब यज़ीद इस्लामी समाज का ख़लीफ़ा व शासक बना और इमाम हुसैन (अ.) ने उससे बैअत नहीं की, तब मदीना से मक्का के लिए रवाना होने से पहले उन्होंने अपने भाई मोहम्मद हनफ़िया को एक वसीयतनामा लिखते हुए अपने क़ियाम का उद्देश्य इस प्रकार स्पष्ट किया:

"... मैं मदीना से न तो किसी निजी चाहत, घमंड या भोगविलास की इच्छा से निकल रहा हूँ और न ही फ़साद फैलाने या ज़ुल्म करने के लिए; बल्कि मेरा उद्देश्य अपने नाना की उम्मत में फैली बुराइयों का सुधार करना है। मेरा मक़सद अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना है। मैं अपने नाना पैग़म्बर (स.) और अपने पिता अली बिन अबी तालिब की परंपराओं को ज़िंदा करना चाहता हूँ। जो कोई भी इस मार्ग में अल्लाह के हक़ का सम्मान करते हुए मेरा साथ देगा मैं उसे अपनाऊँगा। फिर अल्लाह मेरे और इस क़ौम के बीच फ़ैसला करेगा और वही सबसे बेहतर फ़ैसला करने वाला है।"

  1. नवाचारों व बिदअतों से संघर्ष और पैग़म्बर (स.) की सुन्नत का पुनर्जीवन

इमाम हुसैन (अ.) ने मक्का पहुँचने के बाद बसरा के क़बीलाई सरदारों को एक पत्र लिखा जिसमें उन्होंने फ़रमाया:

मैं अपने दूत को यह पत्र लेकर आपकी ओर भेज रहा हूँ। मैं आपको अल्लाह की किताब और पैग़म्बर (स.) की सुन्नत की ओर बुलाता हूँ; क्योंकि ऐसी स्थिति उत्पन्न हो गई है कि पैग़म्बर (स.) की सुन्नत पूरी तरह मिटा व भूला दी गई है और बिदअतें जीवित कर दी गई हैं। यदि आप मेरी बात सुनें तो मैं आपको सीधे रास्ते की ओर मार्गदर्शन करूँगा। अल्लाह की सलामती, रहमत और बरकतें आप पर हों।

  1. खुलेआम फैलाए गए भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने क़ियाम का उद्देश्य यज़ीद जैसे अत्याचारी और खुलेआम भ्रष्टाचार फैलाने वाले शासक के विरुद्ध संघर्ष बताया।

उन्होंने इराक़ की ओर जाते हुए रास्ते में, "हुर" के सैनिकों को संबोधित करते हुए एक ख़ुत्बे में फ़रमाया:

"लोगों! जान लो कि ये लोग यानी बनी उमय्या अल्लाह के आदेश को त्याग चुके हैं और शैतान की पैरवी को अपने ऊपर अनिवार्य बना लिया है। उन्होंने भ्रष्टाचार को फैलाया है और अल्लाह की सीमाओं व शरीअत को नष्ट कर दिया है।"

  1. असत्य के विरुद्ध संघर्ष और सत्य पर अमल करना

इमाम हुसैन (अ.) ने इराक़ की यात्रा के दौरान एक स्थान पर अपने साथियों को संबोधित करते हुए यह भाषण दिया:

"बुराइयाँ खुलकर सामने आ चुकी हैं और अच्छाई व नैतिकताएँ हमारे समाज से उठ चुकी हैं… क्या तुम नहीं देखते कि अब न तो सत्य पर अमल हो रहा है और न ही असत्य से रोका जाता है? ऐसे हालात में एक सच्चे मोमिन के लिए अपने अल्लाह से मिलने की तड़प होना स्वाभाविक है।

मैं ऐसे अपमानजनक और दूषित वातावरण में मृत्यु को सौभाग्य और अत्याचारियों के साथ जीवन को केवल पीड़ा, अपमान और दुख समझता हूँ।

यह लोग दुनियापरस्त हैं और धर्म केवल उनकी ज़बान की लुग़त बनकर रह गया है। जब तक उनका जीवन सुख-सुविधा में बीतता है तब तक वे धर्म का साथ देते हैं, लेकिन जब परीक्षा का समय आता है, तो सच्चे धार्मिक लोग बहुत कम ही मिलते हैं।

  1. अपमानजनक और घटिया दुनिया की ज़िंदगी को स्वीकार न करना

इमाम हुसैन (अ.) ने, जब उबयदुल्लाह बिन ज़ियाद ने उन्हें मारे जाने या यज़ीद से बैअत करने का विकल्प दिया, तब फ़रमाया

"हम कभी भी अपमान और बेइज़्ज़ती को स्वीकार नहीं करेंगे। अल्लाह, उसका रसूल और मोमिन इसे हमारे लिए स्वीकार नहीं करते।"

कहीं और उन्होंने फरमाया:

"हम (पैग़ंबर के परिवार) कभी भी अपमान स्वीकार नहीं करेंगे, अल्लाह और उसका रसूल इसे हमारे लिए स्वीकार नहीं करते। हमारे पवित्र पिता और माताएं भी हमारे लिए अपमान को मंजूर नहीं करतीं।"

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम की कुछ विशेषताएँ:

ईश्वरीय मक़सद और उद्देश्यपूर्ण होना

यह क़ियाम केवल राजनीतिक नहीं था, बल्कि धर्म की पुनर्स्थापना और इस्लामी मूल्यों में हुई भ्रांतियों के विरुद्ध एक दिव्य आंदोलन था।

विश्वव्यापी संदेश

आशूरा का संदेश सीमाओं और धर्मों से परे है जो अत्याचार और अन्याय के खिलाफ खड़े होने की प्रेरणा देता है।

निःस्वार्थ बलिदान और शहादत की चाह

इमाम हुसैन (अ.) और उनके साथी पूरी जागरूकता के साथ अपने अंत को जानते हुए भी सच के लिए अपनी जानें कुर्बान कर गए। आशूर की रात, अर्थात युद्ध शुरू होने से एक रात पहले, इमाम ने अपने साथियों को आज़ाद कर दिया कि जो चाहे चला जाए और कहा कि जो कल तक उनके साथ रहेगा  वह मारे जाएगा। इसके बावजूद वे सभी रहे और शहादत को स्वीकार किया।

  1. महिलाओं की महत्वपूर्ण भूमिका, विशेष रूप से हज़रत ज़ैनब (स.)

आशूरा के बाद आंदोलन को जारी रखने और उसके उद्देश्यों को स्पष्ट करने में हुसैनी कारवां की महिलाओं की बहादुरी और जागरूकता का बड़ा योगदान रहा।

  1. ऐतिहासिक और सांस्कृतिक स्थायित्व

यह क़ियाम न केवल इतिहास में अमर रहा, बल्कि मुसलमानों और गैर-मुसलमानों दोनों के सांस्कृतिक और धार्मिक रीति-रिवाजों में गहराई से समा गया।

 हालांकि इमाम हुसैन (अ.) और उनके साथी शहीद हो गये। क्या उनका क़ियाम अपने उद्देश्यों में सफल हुआ?

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम के दीर्घकालिक प्रभावों में निम्नलिखित बिंदुओं का उल्लेख किया जा सकता है:

स्वतंत्रता की भावना और बड़े अत्याचारियों के खिलाफ संघर्ष का पुनरुत्थान, अच्छाई का आदेश देना और बुराई से रोकना

इमाम हुसैन (अ.) ने अपने महाआंदोलन के माध्यम से असली आज़ादी, बहादुरी और अत्याचार के विरुद्ध दृढ़ता का अर्थ प्रस्तुत किया।

इमामत की स्थिति और पैग़म्बर के अहलुलबैत की सत्यता की पुष्टि

इस क़ियाम ने असली इमामत को ज़ालिम और ज़ालेमाना खिलाफ़त से अलग किया और उस अहलुलबैत की आध्यात्मिक महानता को जिसे क़ुरान ने पवित्र बताया है, आने वाली पीढ़ियों के लिए स्पष्ट किया।

  1. असली मुहम्मदी इस्लाम (स.) को जीवित रखना

इमाम हुसैन (अ.) की इस पहल ने भ्रष्ट शासकों द्वारा नकली इस्लाम को असली इस्लाम के रूप में पेश करने और धर्म को सत्ता के लिए एक साधन बनाने से रोका।

  1. इतिहास में सभी धार्मिक और न्याय की लड़ाइयों के लिए प्रेरणा

आशूरा का क़ियाम अत्याचार के खिलाफ़ संघर्ष का एक आदर्श बन गया जिसने कई बाद की सदियों में आज़ादी के आंदोलनों और सच्चाई के लिए लड़ने वालों को मार्गदर्शन दिया।

  1. यज़ीद और उमय्या सरकार के असली चेहरे को उजागर करना

अशूरा ने उमय्या शासन के छलपूर्ण चेहरे से पर्दा हटाया और उनके अपराधों को सार्वजनिक किया।

  1. न्याय और ईमान के लिए शहादत और बलिदान की संस्कृति को फैलाना

इमाम और उनके साथियों की शहादत ने मुसलमानों के बीच न्याय और ईमान के लिए समर्पण की भावना को मजबूती से स्थापित किया।

  1. उम्मत और पैग़म्बर के अहलुलबैत (अ.) के बीच गहरा भावनात्मक और बोधगम्य संबंध मजबूत करना

यह घटना लोगों को पैग़म्बर के परिवार से और अधिक गहरे भावनात्मक और धार्मिक रूप से जोड़ती है और उनकी प्रेम व वफादारी को धर्म के सबसे सही मार्ग के रूप में बढ़ावा देती है।

  1. इस्लामी समाज में राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक जिम्मेदारी को बढ़ावा देना
  2. इस्लामी समाज में राजनीतिक जागरूकता और सामाजिक ज़िम्मेदारी का बढ़ना

इमाम हुसैन (अ.) के क़ियाम के प्रकाशमान संदेशों ने आने वाले वर्षों में बहुत से लोगों को निश्चेतना की नींद से जागने पर मजबूर किया।

अंतिम शब्द:

अगर हम इमाम हुसैन (अ.) के उद्देश्य को स्पष्ट करना चाहें, तो कहना होगा कि उनका मक़सद धर्म के एक महान फर्ज़ को पूरा करना था, जिसे किसी ने उनसे पहले यहाँ तक कि पैग़म्बर (स.) ने भी नहीं किया था। न तो पैग़म्बर ने यह फर्ज़ निभाया, न अमीरुल-मोमिनीन ने, न इमाम हसन मुजतबा ने, क्योंकि उनके समय इस तरह का संकट मौजूद नहीं था। लेकिन यह महान फर्ज़ था इस्लामी समाज को सही, तोहिदी अर्थात एकेश्वरवादी और क़ुरानी मार्ग पर वापस लाना। यह एक ऐसा फ़र्ज़ है जो मुसलमानों पर हमेशा का फ़र्ज़ है।

 

अंसारुल्लाह यमन ने इजरायली बंदरगाहों की ओर जा रहे एक व्यापारिक जहाज को निशाना बनाया है जिसके परिणामस्वरूप जहाज समुद्र में पूरी तरह डूब गया।

यमनी सशस्त्र बलों के प्रवक्ता मेजर जनरल याहया सरिया ने पुष्टि की है कि इजरायली बंदरगाहों की ओर जाने के बारे में लगातार चेतावनी को नजरअंदाज करने के बाद मैजिक सीज को निशाना बनाया गया और यह जहाज लाल सागर की गहराइयों में पूरी तरह डूब गया। 

याहया सरिया ने एक बयान में कहा,अल्लाह के फजल से मैजिक सीज पूरी तरह डूब चुका है। जहाज की मालिक कंपनी ने बार-बार यमन द्वारा जारी चेतावनी को नजरअंदाज करते हुए फिलिस्तीनी बंदरगाहों का रुख किया था।

उन्होंने आगे खुलासा किया कि हाल के दिनों में उक्त कंपनी के तीन अन्य जहाज भी इजरायली बंदरगाहों में दाखिल हुए थे, जो यमनी नौसेना द्वारा दी गई स्पष्ट चेतावनियों की खुली अवहेलना थी। 

यमनी मीडिया ने मैजिक सीज के विनाश और डूबने के दृश्यों को वीडियो के रूप में प्रसारित किया है, जिसमें जहाज पर मिसाइल हमले और उसके बाद डूबने के सभी चरण स्पष्ट रूप से देखे जा सकते हैं। 

यह घटना ऐसे समय पर हुई है जब अंसारुल्लाह ने घोषणा की है कि जब तक गाजा पर हमले बंद नहीं किए जाते और इजरायल फिलिस्तीनी जनता के खिलाफ अत्याचारों से बाज नहीं आता, तब तक जायोनी हितों और उनसे जुड़े व्यापारिक जहाजों को निशाना बनाया जाता रहेगा। 

 

सांस्कृतिक और बौद्धिक क्षेत्र के प्रख्यात हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद मेहदी मीर बाक़री ने कहा है कि मराज़य ए इकराम द्वारा विलायत-ए फकीह का अपमान करने को हराम घोषित करने वाला फतवा ज़ायोनिज़्म और वैश्विक साम्राज्यवाद के सिर पर तलवार की तरह लटक रही है।यह फतवा वैश्विक साम्राज्यवादी ताकतों के लिए असुरक्षा का कारण बन सकता है।

सांस्कृतिक और बौद्धिक क्षेत्र के प्रख्यात हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद मेहदी मीर बाक़री ने कहा है कि मराज़य ए इकराम द्वारा विलायत-ए फकीह का अपमान करने को हराम घोषित करने वाला फतवा ज़ायोनिज़्म और वैश्विक साम्राज्यवाद के सिर पर तलवार की तरह लटक रही है।यह फतवा वैश्विक साम्राज्यवादी ताकतों के लिए असुरक्षा का कारण बन सकता है। 

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद मेहदी मीरबाक़री ने अपने पेज पर लिखा,मराज़ए तक़लीद और इस्लामी विद्वानों ने जो फ़तवा दिया है कि विलायत-ए फ़कीह की बेअदबी और उस पर हमला करना हराम है, यह फ़तवा दुनिया भर के साम्राज्यवादी नेताओं और उनके सांस्कृतिक व आर्थिक संरक्षकों के लिए भी असुरक्षा और डर का संदेश है। 

उन्होंने आगे कहा,अगर यह शरई आदेश व्यावहारिक रूप ले लेता है, तो साम्राज्यवाद और ज़ायोनिज़्म के मुखिया कभी भी दुनिया में शांतिपूर्ण जीवन नहीं जी पाएंगे, और उनका अंजम सलमान रुश्दी जैसा होगा, जो अपना बाकी जीवन छिपकर बिताने पर मजबूर हो गया।

हुज्जतुल इस्लाम मीरबाक़री ने कहा कि यह सच्चाई खुद ज़ायोनी यहूदी भी अच्छी तरह समझते हैं कि अगर इस्लामी उम्माह अपने विश्वास, ग़ैरत और इस्लामी आदेशों की रोशनी में उठ खड़ी हुई, तो ताग़ूती ताकतों के लिए ज़मीन तंग हो जाएगी। 

 

 

ब्राजील के राष्ट्रपति लुइज इनासियो लूला दा सिल्वा ने विश्व समुदाय से इजराइल के खिलाफ एकजुट और गंभीर कार्रवाई करने का आग्रह किया है। उन्होंने कहा कि विश्व को गाजा में हो रहे नरसंहार के प्रति उदासीन नहीं रहना चाहिए।

ब्राजील के रियो डी जनेरियो में ब्रिक्स सम्मेलन की आम बैठक में अपने भाषण में, राष्ट्रपति ने कहा:

"हम इजराइल के अपराधी शासन द्वारा गाजा में हो रहे नरसंहार, निर्दोष नागरिकों की हत्या और भूख को एक सामूहिक हत्या के हथियार के रूप में इस्तेमाल करने के खिलाफ चुप नहीं रह सकते। यह एक असमान युद्ध है और हम इसे नजरअंदाज नहीं कर सकते।"

उन्होंने सभी देशों से इस मानवता विरोधी अपराध के खिलाफ कड़ा कदम उठाने की मांग की।

 

ईरानी सशस्त्र बलों के प्रवक्ता जनरल शिकरी ने कहा है कि 12-दिवसीय युद्ध में इज़राइल को मुंह की खानी पड़ी, जिसके कारण उसने फिर से आक्रामकता दिखाने की हिम्मत नहीं की।

ईरानी सशस्त्र बलों के प्रवक्ता ब्रिगेडियर जनरल अबुलफज़ल शिकरची ने चेतावनी दी है कि ईरानी सशस्त्र बल किसी भी भविष्य की इज़राइली आक्रामकता के मामले में पहले से कहीं अधिक शक्तिशाली और विनाशकारी जवाबी कार्रवाई के लिए पूरी तरह तैयार हैं। 

उन्होंने कहा,क़ुद्स (यरुशलम) पर क़ब्ज़ा जमाए ज़ायोनी शासन के किसी भी संभावित हमले का हमारा जवाब अधिक शक्तिशाली, तीव्र और प्रभावी होगा, जिससे दुश्मन को गहरा पछतावा होगा।

जनरल शिकरची ने आगे कहा कि अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञों का बहुमत इस बात पर सहमत है कि ईरान ने हाल के 12-दिवसीय युद्ध में इज़राइली सरकार को हराया और उसे भारी नुकसान पहुंचाया हमने अपने हमलों के जरिए इस अपराधी शासन को अपनी आक्रामकता रोकने पर मजबूर कर दिया।

जनरल शिकरची के अनुसार, ईरानी सशस्त्र बल पूरी तरह से तैयार हैं उन्होंने ज़ायोनी शासन को कड़ी चेतावनी देते हुए कहा,अगर ज़ायोनी शासन ने फिर से कोई कार्रवाई की, तो उसे सबसे कठोर प्रतिक्रिया का सामना करना पड़ेगा। 

इससे पहले शुक्रवार को इस्लामिक रिवोल्यूशनरी गार्ड्स कोर (IRGC) के प्रवक्ता ब्रिगेडियर जनरल अली मोहम्मद नायनी ने कहा था,अगर इज़राइल ने फिर से ईरान पर हमला किया, तो इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान किसी भी प्रकार की 'लाल रेखा' का सम्मान नहीं करेगा।

 

इज़राईल द्वारा फिलिस्तीन के मजलूम लोगों पर बर्बर हमले जारी हैं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अपराधिक खामोशी के साये में गाज़ा पर बमबारी और तेज होती जा रही है। ताज़ा जानकारी के मुताबिक, पिछले 24 घंटों में जायोनी हमलों में 112 फिलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं।

इज़राईल द्वारा फिलिस्तीन के मजलूम लोगों पर बर्बर हमले जारी हैं और अंतरराष्ट्रीय संगठनों की अपराधिक खामोशी के साये में गाजा पर बमबारी और तेज होती जा रही है। ताजा जानकारी के मुताबिक, पिछले 24 घंटों में जायोनी हमलों में 112 फिलिस्तीनी शहीद हो चुके हैं। 

लेबनानी चैनल «अल-मयादीन» ने चिकित्सा सूत्रों के हवाले से बताया है कि मंगलवार सुबह से बुधवार सुबह तक गाजा पट्टी पर इजरायली हवाई और जमीनी हमलों के नतीजे में कम से कम 112 फिलिस्तीनियों ने अपनी जान गंवा दी है। 

अलमयादीन के संवाददाता ने बताया कि जायोनी ड्रोन ने गाजा शहर के पश्चिम में स्थित अशशाटी शिवणी की आबादी को निशाना बनाया, जिसके नतीजे में कई लोग शहीद और घायल हो गए। 

दूसरी ओर नासिर मेडिकल कॉम्प्लेक्स ने एक बयान में कहा है कि खान यूनिस के दक्षिण में स्थित अल-मवासी इलाके में शरणार्थियों के तंबुओं पर की गई बमबारी में 52 फिलिस्तीनी शहीद हो गए। 

स्पष्ट है कि इन बर्बर हमलों में आम नागरिक, महिलाएं, बच्चे और बुजुर्ग सभी निशाने पर हैं, जबकि अंतरराष्ट्रीय संगठन और मानवाधिकार संस्थाएं इस नरसंहार पर अपराधिक खामोशी बनाए हुए हैं। 

फिलिस्तीनी लोग लगातार प्रतिरोध और कुर्बानियों के जरिए अपनी धरती और आज़ादी की रक्षा की लड़ाई जारी रखे हुए हैं और इस्लामी दुनिया से इन मजलूमों की व्यावहारिक समर्थन और जायोनी अपराधों के खिलाफ आवाज उठाने की अपील कर रहे हैं।

 

सेंट पीटर्सबर्ग माइनिंग यूनिवर्सिटी के कुलपति ने 12-दिवसीय युद्ध में इज़रायल और अमेरिका की कार्रवाइयों की निंदा करते हुए कहा: "ईरानी सशस्त्र बलों ने अपने वैज्ञानिकों और इंजीनियरों के अथक प्रयासों से विकसित अद्वितीय हथियारों का कुशलतापूर्वक उपयोग करके अपनी क्षमता का प्रदर्शन किया।

समाचार एजेंसी पार्सटुडे के अनुसार प्रोफ़ेसर व्लादिमीर लिटविनेंको ने इमाम हुसैन यूनिवर्सिटी के कुलपति मोहम्मद रेज़ा हसनी आहनगर को लिखे पत्र में यह बात कही, जिसकी एक प्रति मंगलवार को मॉस्को स्थित आईआरएनए कार्यालय को सौंपी गई।

 सेंट पीटर्सबर्ग माइनिंग यूनिवर्सिटी के कुलपति ने ज़ोर देकर कहा: "हालिया इज़राइली हमलों में ईरानी वैज्ञानिकों, उनके परिवारों और अन्य नागरिकों की हत्या मानव जीवन के मौलिक अधिकार और अंतरराष्ट्रीय मानवीय कानूनों का स्पष्ट उल्लंघन है जिसकी वैश्विक स्तर पर निंदा होनी चाहिए।"

 विश्व बहुध्रुवीय व्यवस्था की ओर आगे बढ़ रहा है

पत्र में उन्होंने इज़राइल और अमेरिका द्वारा इस्लामिक रिपब्लिक ईरान पर सैन्य आक्रमण का कारण विश्व की एकध्रुवीय व्यवस्था से बहु-ध्रुवीय व्यवस्था की ओर अग्रसर होने की प्रक्रिया में देखा। उन्होंने कहा:

"उदारवाद का संकट मानव जीवन के सभी पहलुओं में स्पष्ट है। इसने हमारी सभ्यता को न केवल सांस्कृतिक, वैचारिक, वैज्ञानिक, तकनीकी और आर्थिक गतिरोध में धकेल दिया है बल्कि इसके अस्तित्व को भी गंभीर खतरे में डाल दिया है।

 अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में हाल के वर्षों में हुए परिवर्तनों का उल्लेख करते हुए लिटविनेंको ने कहा:

तब से अब तक विश्व मूलभूत रूप से बदल गया है और क्षेत्रीय व्यवस्था का एक नया युग शुरू हो गया है।

 उन्होंने आगे कहा: इस संदर्भ में, उदारवादी विचारधारा पतन, विघटन और मृत्यु के संकेत प्रदर्शित कर रही है। साथ ही, हम पतनकारी सांस्कृतिक प्रसार, विकृतियों का वैधीकरण, पारिवारिक संस्था का विध्वंस, अल्पसंख्यकों का तानाशाही रवैया, जन्म दर में गिरावट, सार्वजनिक रूप से शैतानवाद का प्रचार और वैचारिक व राजनीतिक हितों के लिए विज्ञान के साधनात्मक दुरुपयोग को देख रहे हैं।

 ईरान पर हमला निराधार था

सेंट पीटर्सबर्ग माइनिंग यूनिवर्सिटी के कुलपति का मानना है:

"वर्तमान परिस्थितियों में हम राष्ट्रीय संप्रभुता को नष्ट करने, वैध सरकारों को गिराने और सशस्त्र संघर्ष भड़काने के प्रयास देख रहे हैं। परमाणु विश्वयुद्ध द्वारा मानवता के विनाश की धमकी अब कोई भयावह कल्पना नहीं, बल्कि एक ठोस वास्तविकता बन चुकी है। जैसा कि ईरान में हुआ - बिना किसी उचित कारण के अमेरिका ने अपनी पूर्व शक्ति का प्रदर्शन करने हेतु परमाणु प्रौद्योगिकी विकसित करने की संभावना वाले केंद्रों पर बमबारी की।"

 राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा में अग्रणी ईरान

लिटविनेंको ने पत्र के एक अन्य भाग में उल्लेख किया:

"पारंपरिक मूल्यों पर आधारित ईरान, वैश्विक उदारवाद-विरोधी इस परिवर्तन और पश्चिम के विरोध में, राष्ट्रीय संप्रभुता की रक्षा करने वाले अग्रणी देशों की पंक्ति में खड़ा है।

 शोक संदेश

पत्र के अंत में इमाम हुसैन विश्वविद्यालय के कुलपति को संबोधित करते हुए उन्होंने लिखा:

"कृपया हमारे विश्वविद्यालय के शैक्षणिक स्टाफ और कर्मचारियों की हार्दिक संवेदनाएँ निर्दोष पीड़ितों के परिवारों और गौरवशाली ईरानी जनता तक पहुँचाएँ। हमारी आशा है कि यह दुःख आपके राष्ट्र को स्वयं की संप्रभुता की रक्षा के मार्ग में और अधिक एकजुट करेगा।"

 सेंट पीटर्सबर्ग माइनिंग यूनिवर्सिटी ने अपनी वेबसाइट पर इस पत्र को प्रकाशित करते हुए लिखा है: "पिछले कुछ हफ्तों में, इस्लामिक रिपब्लिक ईरान के कई प्रतिष्ठित और विश्व-विख्यात शोधकर्ता आतंकवादी कार्यवाहियों के शिकार होकर शहीद हुए हैं।

 रूसी विश्वविद्यालय ने आगे कहा: "इनमें से अनेक वैज्ञानिक हस्तियाँ हमारे विश्वविद्यालय के शिक्षाविदों के लिए परिचित थीं, क्योंकि ईरान के प्रमुख विश्वविद्यालयों के साथ सहयोग के दौरान उनके साथ घनिष्ठ संपर्क था।"

 रिपोर्ट में जोड़ा गया: "रूसी संघ के एक रणनीतिक साझेदार के रूप में रूसी विशेषज्ञों के ईरान में प्रशिक्षण कार्यक्रम और ईरानी शोधकर्ताओं की रूस की उत्तरी राजधानी सेंट पीटर्सबर्ग की वैज्ञानिक यात्राएँ हमेशा पूरी तरह से रचनात्मक और शैक्षणिक प्रकृति की रही हैं। इस संदर्भ में तेल निष्कर्षण एवं प्रसंस्करण, ऊर्जा, खनिज संसाधनों की खोज और पहचान जैसे क्षेत्रों में अंतर्राष्ट्रीय समूह बने हैं और सफलतापूर्वक कार्य कर रहे हैं।

 विश्वविद्यालय ने बताया: "दोनों देशों के प्रतिष्ठित प्रोफेसरों के मार्गदर्शन में छात्र पारस्परिक समर स्कूलों में भाग लेते रहे हैं। 'हम साथ में अधिक मजबूत हैं' का नारा न केवल पिछले सहयोगों का केंद्रबिंदु रहा है बल्कि संयुक्त कार्यक्रम 'उम्मीद-मोबाइल इंटेलिजेंस' का मुख्य आदर्श वाक्य बना हुआ है। 

 

 ग़ाज़ा युद्ध, विशेषकर हाल के हफ़्तों में ज़ायोनी शासन के हताहतों में वृद्धि के लिए चार मुख्य कारक ज़िम्मेदार हैं।

अल-मयादीन टीवी चैनल ने मंगलवार को एक लेख में बताया कि ग़ाज़ा पट्टी में ज़ायोनी शासन द्वारा "ऑपरेशन गिडियन्स चारियट्स" शुरू करने के बाद से, इस शासन के हताहतों की संख्या अभूतपूर्व रूप से बढ़ गई है। हाल के हफ्तों में ख़ान यूनिस और शुजाईया क्षेत्रों में प्रतिरोध बलों द्वारा कई हमले किए गए हैं।

 इन ऑपरेशनों, विशेष रूप से ख़ान यूनिस में एक बख़्तरबंद वाहन में 16 ज़ायोनी सैनिक मारे गये। यह कार्यवाही बहुत ही साहसिक तरीके से अंजाम दी गयी और यह लंबे समय तक जारी रहेगी। 8 मार्च को ज़ायोनी शासन द्वारा ग़ाज़ा पर फिर से हमला करने से पहले ऐसा नहीं देखा गया था।

 हाल के हफ्तों में ग़ाज़ा में संघर्ष की गतिशीलता में उल्लेखनीय बदलाव आया है। ज़ायोनी शासन द्वारा व्यापक सेंसरशिप के बावजूद, ऑपरेशनल और सामरिक स्तर पर कई घटनाएँ घटी हैं जिन्होंने ज़ायोनी सैनिकों को तहस-नहस कर दिया है। इन घटनाओं के कारण कई सैनिक युद्ध जारी रखने के खिलाफ़ नाराज़ हैं और कुछ ने रिज़र्व फोर्सेज में शामिल होने से इनकार कर दिया है।

 नए विस्फोटक सामग्री तक पहुँच

 इन परिवर्तनों में से एक विशेष रूप से अल-क़स्साम और अल-कुद्स ब्रिगेड्स द्वारा नए प्रकार के हस्तनिर्मित बमों का उपयोग है। इनमें से कुछ जैसे "शोवाज़" और "साक़िब" बम ज़मीन में दबाए जाते हैं और दुश्मन के भारी टैंकों और सैन्य वाहनों को निशाना बनाते हैं जबकि कुछ "एंटी-पर्सनल" बम हैं जो टैंकों और वाहनों के बाहर मौजूद दुश्मन सैनिकों को भारी नुकसान पहुँचाते हैं।

 यह एक महत्वपूर्ण प्रगति है जिसका एक बड़ा नतीजा यह है कि प्रतिरोध समूहों ने अत्यधिक विस्फोटक क्षमता वाली बड़ी मात्रा में विस्फोटक सामग्री हासिल कर ली है जो पहले उनके पास नहीं थी। ऐसा लगता है कि "सी-4" जैसे उच्च-शक्तिशाली विस्फोटकों तक पहुँच, जासूसों और भाड़े के सैनिकों द्वारा किए जाने वाले विध्वंसक अभियानों के लिए भेजे गए सामानों को ज़ब्त करके हासिल की गई है। प्रतिरोध ने इन सामग्रियों को अंधेरे बिंदुओं अर्थात अंधेरे स्थानों में पाया और अपने नए बमों के निर्माण में इनका उपयोग कर रहा है। इनमें से एक बड़ा हिस्सा एंटी-आर्मर बम बनाने में प्रयोग किया जा रहा है जो ज़ायोनी दुश्मन के बख़्तरबंद उपकरणों में आसानी से घुसपैठ करने की क्षमता रखते हैं।

 प्रतिरोध की संयुक्त कार्यवाहियों की रणनीतिक क्षमता का विस्तार

 दूसरी ओर फिलिस्तीनी प्रतिरोध की रणनीतिक क्षमताएं, विशेष रूप से संयुक्त हमलों को अंजाम देने के मामले में, बढ़ी हुई प्रतीत होती हैं। वे अलग-अलग क्षेत्रों में इस प्रकार की कार्यवाहियों को कर रहे हैं। ये हमले आमतौर पर बड़े पैमाने के विस्फोटकों से शुरू होते हैं जिसके बाद हल्की और मध्यम मशीनगनों से सीधी मुठभेड़ की जाती है। कुछ दिन पहले शुजाईया क्षेत्र में हुआ "अल-हुदा हमला" भी इसी प्रकार का था।

 संयुक्त घात लगाने और हमला करने की एक महत्वपूर्ण विशेषता यह है कि यह दुश्मन सैनिकों को आराम करने या उचित प्रतिक्रिया देने का मौका नहीं देता बल्कि उन्हें गलत परिचालनात्मक निर्णय लेने के लिए मजबूर करता है। कई मामलों में, इससे दुश्मन के नुकसान और भी बढ़ जाते हैं।

 इज़राइली शासन के युद्ध योजनाओं की पुनरावृत्ति

 तीसरा महत्वपूर्ण रणनीतिक कारक - जिसका महत्व पिछले बिंदुओं से कम नहीं है - वह है ज़ायोनी शासन की सेना द्वारा बार-बार एक ही तरह की परिचालन योजनाओं का उपयोग। इससे प्रतिरोधक बलों को इज़राइली सेना के हमलों के तरीके, उनके मार्ग और उनके द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले हथियारों की पूर्व जानकारी हो जाती है। कई वीडियो साक्ष्य दिखाते हैं कि ज़ायोनी सैनिक लंबे समय तक प्रतिरोध बलों की निगरानी में रहते हैं।

 अवैध अधिकृत क्षेत्रों में ज़ायोनी शासन के सैन्य कमांडरों की कड़ी आलोचना हो रही है। उन पर सेना और सैन्य नेतृत्व को नई युद्ध योजनाओं की कमी और लड़ने की इच्छाशक्ति खोने का आरोप लगाया जा रहा है। यह सिर्फ अधिकारियों और सैनिकों के मनोबल में कमी का मामला नहीं है बल्कि यह "रणनीतिक दिवालियापन" का परिणाम है जो युद्ध के लंबे खिंच जाने के कारण पैदा हुआ है। यह ग़ाज़ा में तैनात बड़ी संख्या में ज़ायोनी सैनिकों में पनप रही निराशा और हताशा को और बढ़ा रहा है।

 ज़ायोनी शासन द्वारा पुराने और अप्रचलित उपकरणों व हथियारों का उपयोग

 तेल अवीव के नुकसान बढ़ने का चौथा प्रमुख कारण यह है कि ज़ायोनी सेना अपने अभियानों में कई ऐसे उपकरणों का उपयोग कर रही है जिन्हें पिछले कई वर्षों से अप्रचलित घोषित किया जा चुका था। इससे प्रतिरोध बलों के हमलों के कारण होने वाली क्षति और हताहतों की संख्या में वृद्धि हुई है जिससे इज़राइल को भारी जान-माल का नुकसान उठाना पड़ा है।

 विशेष रूप से हाल के महीनों में ज़ायोनी बलों ने मुख्य रूप से पुराने और जर्जर टैंकों तथा बख्तरबंद वाहनों का उपयोग किया है जो अक्सर पूरी तरह से नष्ट हो जाते हैं या विस्फोटों में जलकर खाक हो जाते हैं। यह स्थिति ज़ायोनी सेना के बख्तरबंद डिवीजन में उपकरणों की कमी के कारण पैदा हुई है जिसकी पुष्टि इज़राइली सेना के प्रमुख जनरल हेरज़ल हेलेवी ने भी की थी।

 इनमें "बूमा", "शोज़ारित" और "एम-113" बख्तरबंद वाहनों के साथ-साथ तीसरी पीढ़ी के "मिर्कावा" टैंक शामिल हैं जिन्हें कई साल पहले सेवामुक्त कर दिया गया था लेकिन अब उन्हें फ़िर से युद्ध क्षेत्र में उतारा गया है। इज़राइली सेना को "डी-9" बुलडोज़रों की भी कमी का सामना करना पड़ रहा है जिसके कारण उसे कम सुरक्षा वाले उपकरणों और वाहनों का उपयोग करना पड़ रहा है। इससे प्रतिरोध बलों को न्यूनतम प्रयास से ही इन उपकरणों को नुकसान पहुँचाने का अवसर मिल जाता है।

 अल-मयादीन ने अपनी रिपोर्ट के अंत में स्पष्ट किया है कि युद्धविराम वार्ताओं से अलग - जिन्हें कई लोग जटिल मानते हैं - ज़ायोनी सेना पर युद्ध के बढ़ते खर्च का आंतरिक मोर्चे और मैदान में तैनात इज़राइली सैनिकों पर गहरा मनोवैज्ञानिक प्रभाव पड़ रहा है। इससे ज़ायोनी शासन के इस युद्ध के लक्ष्यों का दायरा सिमट रहा है और अंततः यह अधिकृत भूमि में चरमपंथी दक्षिणपंथी सरकार के पतन का कारण बन सकता है।

 इस्लामिक रिपब्लिक ईरान के साथ सीधे टकराव में ज़ायोनी शासन की भारी हार के बाद यह बात विशेष रूप से और अधिक स्पष्ट हो गई है। अब यह महसूस किया जा रहा है कि ज़ायोनी शासन की सैन्य और राजनीतिक स्थिति पहले से कहीं अधिक कमज़ोर हुई है जिससे उसके आंतरिक मोर्चे पर दबाव बढ़ता जा रहा है।