
رضوی
हम अपने किरदार और शोऊर में हुसैनी बने।शेख़ अली नजफी
आयतुल्लाहिल उज़्मा हाफिज़ बशीर हुसैन नजफी के पुत्र और उनके केंद्रीय कार्यालय के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन शेख़ अली नजफी ने शब-ए-आशूरा के मौके पर कर्बला-ए-मोअल्ला स्थित हुसैनिया अल हाज जासिम हनून में आयोजित मजलिस-ए-अज़ा में शिरकत की और मोमिनीन को संबोधित किया।
आयतुल्लाहिल उज़्मा हाफिज़ बशीर हुसैन नजफी के पुत्र और उनके केंद्रीय कार्यालय के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन शेख़ अली नजफी ने शब-ए-आशूरा के मौके पर कर्बला-ए-मोअल्ला स्थित हुसैनिया अल हाज जासिम हनून में आयोजित मजलिस-ए-अज़ा में शिरकत की और मोमिनीन को संबोधित किया।
अपने भाषण में उन्होंने इमाम हुसैन अ.स.के आंदोलन को एक बहुआयामी सुधारवादी आंदोलन बताते हुए कहा कि सय्यदुश शोहदा (अ.स.) ने अपनी जान, अपने परिवार और साथियों की कुर्बानी देकर उम्मत को गुमराही और पथभ्रष्टता से बचाया।
इमाम (अ.स.) का उद्देश्य एक शाश्वत संदेश है, जो व्यक्ति के आचरण, उसके कर्मों, सामाजिक संबंधों और अल्लाह से रिश्ते को सुधारने से जुड़ा हुआ है।
शेख अली नजफी ने कहा कि इमाम हुसैन (अ.स.) का आंदोलन वास्तव में समाज के सुधार का आंदोलन है, और यह सुधार अल्लाह से गहरे संबंध, शरियत का पालन और नफ्स (अहं) की तरबियत के माध्यम से ही संभव है। यही वह सच्चाई है जिसका इमाम अ.स. ने मैदान-ए-कर्बला में प्रदर्शन किया।
उन्होंने मोमिनीन पर जोर देकर कहा कि हमें अपने व्यवहार, आचरण और चेतना में हुसैनी बनना चाहिए, जैसा कि इमाम हुसैन (अ.स.) हमें देखना चाहते हैं उन्होंने शुआर-ए-हुसैनी (इमाम हुसैन के प्रतीकों)के पुनरुत्थान, मातमी मजलिसों के आयोजन और ज़ियारत-ए-सय्यदुश शोहदा (अ.स.) के महत्व पर भी बल दिया।
अपने भाषण के अंत में उन्होंने अहल-ए-बैत अ.स.की हदीसों का हवाला देते हुए कहा कि इमाम हुसैन (अ.स.) के जायरीनों की अज़मत और उनके उच्च आध्यात्मिक स्थान को रौशन किया गया है उन्होंने कहा कि जो लोग शुद्ध नियत से शुआर-ए-हुसैनी को जीवित रखते हैं, उनके नाम नूरानी किताबों में दर्ज हैं।
लेबनान के हिज़्बुल्लाह ने हुज्जतुल इस्लाम शेख़ रसूल शहूद की हत्या की कड़ी निंदा की
लेबनान के हिज़्बुल्लाह ने एक बयान जारी कर सीरिया के हुम्स शहर के प्रख्यात धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम शेख़ रसूल शहूद की नृशंस हत्या की कड़ी निंदा की है बयान में कहा गया है कि यह भयानक अपराध उन आपराधिक और गद्दार तत्वों ने किया है, जो सीरिया की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचाना चाहते हैं और सांप्रदायिक व धार्मिक संघर्ष को हवा दे रहे हैं।
लेबनान के हिज़्बुल्लाह ने एक बयान जारी कर सीरिया के हुम्स शहर के प्रख्यात धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम शेख़ रसूल शहूद की नृशंस हत्या की कड़ी निंदा की है बयान में कहा गया है कि यह भयानक अपराध उन आपराधिक और गद्दार तत्वों ने किया है, जो सीरिया की एकता और अखंडता को नुकसान पहुँचाना चाहते हैं और सांप्रदायिक व धार्मिक संघर्ष को हवा दे रहे हैं।
हिज़्बुल्लाह ने अपने बयान में कहा कि शेख रसूल शहूद एक महान धार्मिक व्यक्तित्व थे जिन्होंने अपना जीवन धर्म और समाज की सेवा में समर्पित कर दिया था। वह कुरानिक स्कूलों के समर्थक, युवाओं के शैक्षिक और आध्यात्मिक मार्गदर्शक, सच्चे प्रचारक और मजलूमों के हिमायती थे उनकी शहादत सभी वैज्ञानिक, धार्मिक और शैक्षणिक संस्थानों से पूर्ण निंदा की माँग करती है।
बयान के अंत में हिज़्बुल्लाह ने हत्यारों को पकड़ने और उन्हें सख्त सजा देने पर जोर दिया। साथ ही कहा कि इस जघन्य अपराध में शामिल हर व्यक्ति को न्याय के कटघरे में लाया जाना चाहिए।
हिज़्बुल्लाह ने विश्वास जताया कि सीरियाई लोग अतिवादी सोच को खारिज करेंगे, जो सामाजिक एकता और देश की स्थिरता के लिए खतरा है और उदारवादी व प्रबुद्ध विचारों को निशाना बनाती है।
गाज़ा में गर्मी और पानी की कमी के कारण भयानक परिणाम
संयुक्त राष्ट्र की राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) ने गाजा पट्टी में पीने के पानी और सफाई व्यवस्था की भारी कमी तथा चल रहे युद्ध और गर्मी के कारण स्वास्थ्य संबंधी गंभीर संकट की चेतावनी दी है।
संयुक्त राष्ट्र की राहत एवं कार्य एजेंसी (UNRWA) ने गाजा पट्टी में पीने के पानी और सफाई व्यवस्था की भारी कमी तथा चल रहे युद्ध और गर्मी के कारण स्वास्थ्य संबंधी गंभीर संकट की चेतावनी दी है।
एजेंसी ने जोर देकर कहा कि गाजा पट्टी की नाकाबंदी तुरंत हटाई जानी चाहिए और वहां के नागरिकों को तत्काल मानवीय सहायता पहुंचाई जानी चाहिए।
UNRWA ने मांग की कि हमें गाजा में स्वच्छता सामग्री, पीने का पानी और अन्य आवश्यक मानवीय सहायता भेजने की अनुमति दी जाए।
एक रिपोर्ट के अनुसार, गाजा के अस्पताल सूत्रों ने बताया है कि आज सुबह से जारी इस्राइली हमलों में 26 लोग शहीद हो चुके हैं, जिनमें से 13 गाजा शहर के निवासी थे।
पीने के पानी की भारी कमी के कारण लोगों को गंदा पानी पीने के लिए मजबूर होना पड़ रहा है जिससे बीमारियां फैल रही हैं।गर्मी और बिजली की कटौती के कारण अस्पतालों व शरणार्थी कैंपों में हालात बेहद खराब हैं। युद्ध के कारण स्वास्थ्य सेवाएं ध्वस्त हो चुकी हैं, और दवाओं की भारी कमी है।
ईरानी युवाओं ने एशियाई फ्रीस्टाइल कुश्ती प्रतियोगिता में शानदार प्रदर्शन किया
ईरान के युवा पहलवानों ने एशियाई फ्रीस्टाइल कुश्ती चैंपियनशिप में उत्कृष्ट प्रदर्शन करके देश का नाम रोशन किया। वहीं 2025 का टेनिस सीजन भी ईरानी खिलाड़ियों के लिए ऐतिहासिक रहा जिन्होंने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर शानदार उपलब्धियां हासिल कीं।
इन सफलताओं ने ईरानी खेल जगत को नई ऊर्जा दी है और यह साबित किया है कि देश का युवा प्रतिभा से भरपूर है तथा अंतरराष्ट्रीय मंच पर अपनी क़ाबिलियत का लोहा मनवाने में सक्षम है।
एशियाई युवा फ्रीस्टाइल कुश्ती चैंपियनशिप के पहले पाँच वज़न वर्गों में ईरानी पहलवानों ने 2 स्वर्ण, 1 रजत और 1 कांस्य पदक जीते।
रिपोर्ट के अनुसार क़िरक़िज़िस्तान में आयोजित प्रतियोगिता में:
इब्राहिम एलाही 70 किग्रा और इरफ़ान अलीज़ादे 97 किग्रा ने स्वर्ण जीता।
अबुलफ़ज़ल शमसीपूर 79 किग्रा ने रजत प्राप्त किया।
अर्शिया हद्दादी 57 किग्रा ने कांस्य पदक जीता।
2025 टेनिस सीजन में ऐतिहासिक उपलब्धि
टेनिस इतिहास में पहली बार विश्व के नंबर 1 और 2 खिलाड़ी एक ही सीजन में तीन ग्रैंड स्लैम फाइनल में आमने-सामने हुए:
विंबलडन 2025 फाइनल: नंबर 1 यानिक सिनर बनाम नंबर 2 कार्लोस अल्कराज़
रोलैंड गैरोस 2025 फाइनल: अल्कराज़ ने सिनर को 5 सेट में हराया।
ऑस्ट्रेलियन ओपन 2025 फाइनल: तत्कालीन नंबर 1 सिनर ने नंबर 2 अलेक्जेंडर ज़्वेरेव को 3-0 से पराजित किया।
वॉलीबॉल नेशंस लीग: जापान की 'जायंट-किलिंग' शैली
महिला वॉलीबॉल नेशंस लीग के तीसरे सप्ताह में, शीर्ष 24-पॉइंट वाली टीमों जापान और पोलैंड के बीच हुए मुकाबले में जापान ने 3-1 (25-21, 23-25, 25-23, 25-22) से शानदार जीत दर्ज की। पोलैंड की टीम केवल दूसरा सेट जीत पाई।
ईरान के प्रतिनिधि ने विश्व सैन्य मुय थाई चैंपियनशिप में स्वर्ण जीता
थाईलैंड के बैंकॉक में आयोजित CISM विश्व सैन्य मुय थाई चैंपियनशिप के 75 किग्रा फाइनल में, ईरानी खिलाड़ी हुसैन फराहानी ने मेज़बान थाईलैंड के प्रतिद्वंद्वी को 30-27 से हराकर स्वर्ण पदक अपने नाम किया। तीन राउंड के इस रोमांचक मुक़ाबले में फराहानी ने उत्कृष्ट प्रदर्शन किया।
फीफ़ा क्लब विश्व कप फाइनल की रेफ़री ईरान की अलीरेज़ा फ़गानी होंगी
चेल्सी और पेरिस सेंट-जर्मेन (पीएसजी) टीमें रविवार रात 10:30 बजे फीफ़ा क्लब विश्व कप 2023 के फ़ाइनल मुकाबले में आमने-सामने होंगी। फीफ़ा द्वारा जारी घोषणा के अनुसार प्रतिष्ठित ईरानी रेफ़री अलीरेज़ा फ़गानी को इस महत्वपूर्ण फाइनल मैच की जिम्मेदारी सौंपी गई है। यह टूर्नामेंट का पहला संस्करण है जिसमें विश्व चैंपियन का खिताब तय होगा।
फ़गानी का चयन अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उनके अनुभव और निष्पक्ष निर्णय क्षमता को मान्यता देता है।
ईरान ने हमेशा गरिमा, तर्क और आपसी सम्मान के साथ बातचीत का रास्ता चुना है
ईरानी विदेश मंत्री ने एक फ्रांसीसी पत्रिका को दिए साक्षात्कार में कहा है कि अगर अमेरिका अपनी गलतियाँ सुधार ले, तो बातचीत फिर से शुरू हो सकती है।
विदेश मंत्री सैय्यद अब्बास अराक्ची ने फ्रांसीसी अखबार ले मोंडे को दिए एक साक्षात्कार में कहा कि तेहरान गरिमा और आपसी सम्मान के आधार पर अमेरिका के साथ बातचीत फिर से शुरू करने के लिए तैयार है।
उन्होंने कहा: अमेरिका को सबसे पहले अपना रवैया बदलना होगा और यह गारंटी देनी होगी कि वह बातचीत के दौरान ईरान पर फिर से हमला नहीं करेगा।
ईरानी विदेश मंत्री ने कहा: ईरान ने हमेशा गरिमा, तर्क और आपसी सम्मान के साथ बातचीत का रास्ता चुना है। अभी भी, कुछ मित्र देशों या मध्यस्थों के माध्यम से एक राजनयिक हॉटलाइन स्थापित की जा रही है।
उन्होंने कहा कि कूटनीति एक द्विपक्षीय मामला है। चूँकि अमेरिका ही वह था जिसने बातचीत तोड़कर कार्रवाई शुरू की थी, इसलिए अब यह ज़रूरी है कि वह अपनी गलतियों की ज़िम्मेदारी स्वीकार करे और अपने व्यवहार में स्पष्ट बदलाव लाए। हमें इस बात की गारंटी चाहिए कि आगामी वार्ता के दौरान अमेरिका किसी भी सैन्य कार्रवाई से परहेज करेगा।
सैय्यद अब्बास अरकची ने आगे कहा: हाल के अमेरिकी हमलों ने ईरान की परमाणु सुविधाओं को नुकसान पहुँचाया है। ईरान को इस नुकसान का आकलन करने के बाद मुआवज़ा माँगने का अधिकार है। इन नुकसानों के लिए मुआवज़ा माँगना हमारा कानूनी और तार्किक अधिकार है। यह कहना कि एक कार्यक्रम नष्ट हो गया है और किसी देश को ऊर्जा, चिकित्सा, फार्मास्यूटिकल्स, कृषि और विकास संबंधी शांतिपूर्ण परमाणु परियोजनाओं को छोड़ने के लिए मजबूर किया जा सकता है, वास्तव में एक गंभीर गलतफहमी है। आईएआईए की रिपोर्टों ने लगातार साबित किया है कि ईरान के शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम में कोई सैन्य विचलनकारी गतिविधि नहीं पाई गई।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि ईरान का परमाणु कार्यक्रम केवल इमारतों तक सीमित नहीं है, बल्कि एक राष्ट्रीय संपत्ति है जिसे आसानी से नष्ट नहीं किया जा सकता।
ईरानी विदेश मंत्री ने कहा: वास्तविक नुकसान वैश्विक परमाणु अप्रसार व्यवस्था को हुआ है। आईएआईए की निगरानी में सुविधाओं पर हमला और पश्चिमी देशों द्वारा इसकी निंदा न करना, अंतर्राष्ट्रीय कानून, विशेष रूप से परमाणु अप्रसार व्यवस्था पर सीधे हमले के समान है।
उन्होंने कहा, "बातचीत की बहाली तभी संभव है जब अमेरिका अपने पिछले विनाशकारी व्यवहार की ज़िम्मेदारी स्वीकार करे।" उन्होंने 2015 के परमाणु समझौते के तहत प्रतिबंध तंत्र को सक्रिय करने के तीन यूरोपीय देशों के प्रस्तावों पर भी कड़ी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा कि ऐसा कोई भी कदम सैन्य हमले के समान होगा। इस तरह के कदम के परिणामस्वरूप, यूरोपीय देशों को वार्ता प्रक्रिया में अपनी भूमिका पूरी तरह से खोनी पड़ेगी।
इज़राईली मज़दूरों की बड़ी संख्या इजराइल छोड़ना चाहती है।ज़ायोनी अख़बार
एक इजराइल अख़बार ने खुलासा किया है कि 73% मज़दूर इजराइल छोड़कर अमेरिका जाने पर विचार कर रहे हैं।
प्रमुख ज़ायोनी अख़बार येदियोत आहरोनोत ने बताया है कि इजराइल में अधिकांश मज़दूर वर्ग विदेश जाने की योजना बना रहा है।
हाल के एक सर्वे में पता चला है कि 73% इजरायली मज़दूर गंभीरता से देश छोड़ने पर विचार कर रहे हैं, जो पिछले पाँच वर्षों में सबसे अधिक दर है।
अमेरिका इजरायली कामगारों के लिए सबसे पसंदीदा गंतव्य बना हुआ है, जहाँ न्यूयॉर्क सबसे ऊपर है, जबकि लॉस एंजेलिस और मियामी जैसे शहर भी पलायन के लिए लोकप्रिय स्थानों में शामिल हैं।
अख़बार ने यह भी बताया कि यूरोपीय देशों की ओर इजरायलियों के पलायन में उल्लेखनीय कमी आई है, जिसकी मुख्य वजहें यूरोप में यहूदी-विरोधी भावनाओं का बढ़ना और मुस्लिम आबादी में वृद्धि हैं। इन कारकों ने इजरायली कामगारों को यूरोप के बजाय अमेरिका की ओर आकर्षित किया है।
रिपोर्ट में यह भी स्पष्ट किया गया है कि अब इजरायली मज़दूर केवल आर्थिक या रोज़गार के अवसरों के लिए पलायन पर विचार नहीं कर रहे, बल्कि उनके फैसलों में सुरक्षा संबंधी चिंताएँ और भावनात्मक कारक भी शामिल हो गए हैं। यह रुझान दर्शाता है कि ज़ायोनी समाज में आंतरिक असुरक्षा और असंतोष बढ़ता जा रहा है।
12 दिवसीय युद्ध के बाद ईरान ने नया जीवन पाया
शहीदों की शक्ति के सम्मान में आयोजित एक कार्यक्रम में हुज्जतुल इस्लाम हाजती ने ईरान को विभाजित करने के दुश्मनों के प्रयासों और राष्ट्रीय सुरक्षा को बचाने में हाल के शहीदों की महत्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया, साथ ही इस ऐतिहासिक वीरता के महत्व पर जोर दिया।
अंदीमेश्क शहर में शनिवार रात, 21 तीर (ईरानी कैलेंडर) को नाहिया-ए मुक़ावमत-ए बसीज द्वारा शहीदों के परिवारों, धार्मिक नेताओं, सैन्य और सुरक्षा बलों तथा आम लोगों की उपस्थिति में हुसैनिया-ए सारुल्लाह में यह समारोह आयोजित किया गया।
हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन मीर अहमद रज़ा हाजती ने इस कार्यक्रम में राष्ट्रीय सुरक्षा की रक्षा में हाल के शहीदों की रणनीतिक भूमिका पर प्रकाश डालते हुए कहा,दुश्मनों ने 12-दिवसीय युद्ध के लिए 20 साल तक प्रयास किए, उन्होंने सटीक निगरानी की और हमारे कमांडरों के घरों की पहचान की, ताकि वे अपनी कल्पना में ईरान को विभाजित और नष्ट कर सकें।
उन्होंने आगे कहा,हमारे सामने सिर्फ़ इज़राइली शासन नहीं था, बल्कि संयुक्त राज्य अमेरिका, नाटो के 32 सदस्य देश और उनके क्षेत्रीय अड्डे भी मौजूद थे। दुश्मन को लगता था कि हमले की सुबह लोग विद्रोह कर देंगे और शाम तक इस्लामी गणतंत्र का पतन हो जाएगा।
हुज्जतुल इस्लाम हाजती ने बताया,युद्ध शुरू होते ही पश्चिमी ईरान के मिसाइल बेस पर भारी हमला किया गया, ताकि अलगाववादी ताकतों के लिए रास्ता खोला जा सके। लेकिन सर्वोच्च नेता की दूरदर्शिता और कमांडरों के त्वरित प्रतिस्थापन के कारण, 17 घंटे से भी कम समय में तेल अवीव ईरानी मिसाइलों के निशाने पर था।
उन्होंने अंदीमेश्क के शहीद सरदार अमीन पूरजुदकी की भूमिका का उल्लेख करते हुए कहा,ऑपरेशन 'वादा-ए सादिक़ 2' में, इस महान शहीद के अनुसार, हमने वह काम किया जिससे नाटो की तकनीक घुटनों पर आ गई दुश्मन एआई का उपयोग करके हमारे ड्रोन को धोखा देने की कोशिश कर रहा था, लेकिन हमने उनके सिस्टम को पराजित कर दिया।
इस्लामी क्रांति के इस शोधकर्ता ने जोर देकर कहा,ईरानी मिसाइलों ने दुश्मन के महत्वपूर्ण लक्ष्यों को सटीकता से नष्ट किया, और 10वें दिन के बाद से, कब्जे वाले क्षेत्रों का आकाश वस्तुतः रक्षाहीन हो गया। ईरान इज़राइली शासन पर आकाश का निर्विवाद शासक बन गया।
उन्होंने इस जीत के वैश्विक प्रभाव का उल्लेख करते हुए कहा,अमेरिकी विदेश संबंध परिषद से जुड़े सबसे पुराने राजनीतिक पत्रिकाओं में से एक ने अपने हेडलाइन में लिखा,12-दिवसीय युद्ध के बाद ईरान ने नया जीवन पाया।
कार्यक्रम के अंत में, हुज्जतुल इस्लाम हाजती ने शहीदों के उच्च स्थान के बारे में बात की और कहा,अगर शहीदों का बलिदान नहीं होता, तो आज हम यहां नहीं होते। शहीदों के खून के आशीर्वाद से, इस्लामी ईरान कभी घुटने नहीं टेकेगा और न ही आत्मसमर्पण करेगा।
12 दिनों के युद्ध के बाद सऊदी सीधे तौर पर ईरान से बातचीत की कोशिश में
ऑनलाइन पत्रिका "क्रैडल" ने लिखा: सऊदी अरब, इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान को क्षेत्र में एक अनदेखी नहीं की जाने वाली शक्ति के रूप में देखता है, जिसके साथ सीधे संवाद की आवश्यकता है।
ऑनलाइन पत्रिका "क्रैडल" ने एक रिपोर्ट में स्पष्ट किया: 12-दिवसीय युद्ध में जातीवादी व नस्लभेदी इस्राइली शासन की आक्रामकता के जवाब में ईरान द्वारा अपनाई गई सोची-समझी युद्ध रणनीति ने इस्राइल की कमजोरियों और अमेरिकी सुरक्षा छत्र के पतन को उजागर किया, जिससे सऊदी अरब को क्षेत्रीय सुरक्षा के अपने पुराने अनुमानों को छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। अब वह ईरान को क्षेत्र में एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में देखता है, जिसके साथ सीधे संवाद आवश्यक है।
ईरानी छात्र समाचार एजेंसी इस्ना के हवाले से बताया कि ईरान और रंगभेदी इस्राइली शासन के बीच हालिया टकराव, जिसने क्षेत्रीय शक्ति समीकरणों, विशेष रूप से फार्स की खाड़ी में, एक निर्णायक बदलाव को दर्शाया, ईरान की सीधी और सोची-समझी सैन्य प्रतिक्रिया ने तेल अवीव की रणनीतिक कमज़ोरियों को उजागर कर दिया। इसने फार्स की खाड़ी के देशों की राजधानियों, विशेष रूप से रियाज़, को क्षेत्रीय सुरक्षा के अपने दीर्घकालिक अनुमानों पर पुनर्विचार करने के लिए मजबूर किया।
इस्राइली रंगभेद शासन का आक्रामक सैन्य हमला 13 जून की सुबह ईरान पर शुरू हुआ। इस हमले में परमाणु प्रतिष्ठानों, सैन्य केंद्रों और असैनिक स्थलों जैसे अस्पतालों, एविन जेल और आवासीय क्षेत्रों को निशाना बनाया गया जिसमें कई वरिष्ठ सैन्य कमांडरों, परमाणु वैज्ञानिकों और नागरिकों की शहादत हुई।
अमेरिका ने भी रविवार, 22 जून को इस्राइली शासन के साथ मिलकर ईरान के तीन परमाणु संयंत्रों फ़ोर्दू, इस्फ़हान और नतंज़ को बंकर-भेदी बमों से निशाना बनाया। यह आक्रामक हमला ईरान की क्षेत्रीय अखंडता और राष्ट्रीय संप्रभुता के खिलाफ़ तब हुआ जब तेहरान-वाशिंगटन के बीच परमाणु कार्यक्रम पर प्रतिबंधों और ईरान पर लगे प्रतिबंधों को हटाने को लेकर अप्रत्यक्ष वार्ता चल रही थी।
अमेरिकी राष्ट्रपति ने धोखा देने के लिए कूटनीति के अवसर की बात की, जबकि वे इस्राइली शासन द्वारा ईरान पर हमले की योजना के बारे में जानते थे और उसका पूरा समर्थन कर रहे थे।
इसके जवाब में इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ़ ईरान ने "वादा-ए-सादिक 3" और "बशारत-ए-फ़तह" ऑपरेशन के तहत इन आक्रामक हमलों का मुंहतोड़ जवाब दिया। अंततः, 24 जून को अमेरिका द्वारा युद्धविराम का प्रस्ताव देने के बाद ईरान पर हमले रुक गए।
ऑनलाइन पत्रिका "क्रैडल" ने अपनी रिपोर्ट में लिखा: अमेरिका और इस्राइल के अधीन राजनीतिक, सैन्य और कूटनीतिक विफ़लताओं के वर्षों ने फ़ार्स खाड़ी के देशों को अधिक स्थिर और ग़ैर-टकराव वाली सुरक्षा रणनीतियों की ओर मोड़ दिया है लेकिन अब हम जो देख रहे हैं, वह पुराने गठबंधनों का धीरे-धीरे खत्म होना और तेहरान के साथ व्यावहारिक एवं लाभ-आधारित संवाद के नए रास्ते खुलना है।
पत्रिका ने कहा कि "ईरान की युद्ध रणनीति ने क्षेत्रीय अपेक्षाओं को बदल दिया" और लिखा: तेहरान ने हाल के सैन्य संघर्ष में सटीक प्रहार, क्षेत्रीय गठजोड़ और सोची-समझी कार्रवाइयों के माध्यम से एक नए स्तर की रोधक क्षमता का प्रदर्शन किया है।
12 दिन के युद्ध में शहीद हुए ईरानी बच्चों की यादगार तस्वीरें
12 दिन के युद्ध के दौरान शहीद हुए नन्हे ईरानी और मासूम बच्चों की तस्वीरें दिल दहला देती हैं। ये छोटे-छोटे फ़रिश्ते, जिन्होंने अपनी जान गंवाकर वतन की हिफ़ाज़त की, आज भी ईरानी जनता के दिलों में जिंदा हैं।
ये तस्वीरें न सिर्फ उनकी याद दिलाती हैं, बल्कि उस बर्बरता की भी गवाही देती हैं जिसने इन मासूमों को हमसे छीन लिया। ईरान इन शहीद बच्चों के सपनों को हमेशा संजोकर रखेगा।
तेहरान के ज़मान संग्रहालय में किडल कैफ़े में इस्राइली और अमेरिकी शासन के खिलाफ 12 दिन के युद्ध में शहीद हुए बच्चों की स्मृति में एक कार्यक्रम आयोजित किया गया।
रिपोर्ट के अनुसार अंतर्राष्ट्रीय समर्थन के साये में इस्राइल ने गैर-सैनिकों को निशाना न बनाने के दावों के बावजूद ईरानी भूमि पर व्यापक हमले किए और एक बार फिर बच्चों के हत्यारे के रूप में अपनी वास्तविक पहचान दिखाई।
ये बच्चे न तो सैनिक थे, न राजनेता, न परमाणु वैज्ञानिक। उनके पास अपने भविष्य के लिए कई सपने थे - ऐसे सपने जो अब कभी सुबह का सूरज नहीं देख पाएंगे।
हर युद्ध और सैन्य आक्रमण में मारे गए बच्चों की तस्वीरें मानव इतिहास के सबसे काले पन्नों को दर्शाती हैं। फर्क़ नहीं पड़ता कि ये बच्चे ग़ाज़ा में मारे गए हों या यूक्रेन में, तेहरान के दिल में हों या दुनिया के किसी अन्य कोने में - उनकी मौत की तस्वीरें हर जागृत विवेक को झकझोर देती हैं।
तेहरान की सुबह की खामोशी को भीषण विस्फोटों ने तोड़ दिया और कुछ ही घंटों बाद शहीद बच्चों की तस्वीरों ने लोगों को गहरे सदमे और अवसाद में डाल दिया।
संयुक्त राष्ट्र में ईरान के राजदूत ने सुरक्षा परिषद की बैठक में, जो इस्राइली शासन द्वारा ईरान पर आक्रमण के संबंध में आयोजित की गई थी, शहीद हुए ईरानी बच्चों की तस्वीरों को पेश करते हुए कहा कि ये तस्वीरें इस्राइल के उस झूठ का सबूत हैं जिसमें वह केवल सैन्य लक्ष्यों को निशाना बनाने का दावा करता है।
ऑशविट्ज़ शिविरों में अपनी मजबूरी की दास्ताँ सुनाने वाला ज़ायोनी शासन, अपने युद्धों में बच्चों को सबसे पहले और सबसे असहाय शिकार बनाता है। यह कड़वी सच्चाई न केवल विश्व राजनीति के इतिहास पर एक कलंक है, बल्कि आज की दुनिया में मानवता की गहराई को मापने का एक आईना भी है।
अभी भी कई शहीदों के शवों की पहचान नहीं हो पाई है। यह घिनौना अपराध एक बार फिर ज़ायोनी शासन का असली चेहरा दुनिया के सामने लाया है।
इमाम हुसैन (ा.स) की शहादत के बाद
इमाम हुसैन (अ) की शहादत: हज़रत अली असग़र की शहादत के बाद अल्लाह का एक पाक बंदा, पैग़म्बरे इस्लाम (स) का चहीता नवासा, हज़रत अली का शेर दिल बेटा, जनाबे फातिमा की गोद का पाला और हज़रत हसन के बाज़ू की ताक़त यानी हुसैन-ए-मज़लूम कर्बला के मैदान में तन्हा और अकेला खड़ा था।
इस आलम में भी चेहरे पर नूर और सूखे होंटों पर मुस्कराहट थी, खुश्क ज़ुबान में छाले पड़े होने के बावजूद दुआएँ थीं। थकी थकी पाक आँखों में अल्लाह का शुक्र था। 57 साल की उम्र में 71 अज़ीज़ों और साथियों की लाशें उठाने के बाद भी क़दमों का ठहराव कहता था की अल्लाह का यह बंदा कभी हार नहीं सकता। इमाम हुसैन (अ) शहादत के लिए तैयार हुए, खेमे में आये, अपनी छोटी बहनों जनाबे जैनब और जनाबे उम्मे कुलसूम को गले लगाया और कहा कि वह तो इम्तिहान की आखिरी मंज़िल पर हैं और इस मंज़िल से भी वह आसानी से गुज़र जाएँगे लेकिन अभी उनके परिवार वालों को बहुत मुश्किल मंज़िलों से गुज़रना है। उसके बाद इमाम उस खेमे में गए जहाँ उनके सब से बड़े बेटे अली इब्नुल हुसैन(जिन्हें इमाम ज़ैनुल आबिदीन कहा जाता है)थे। इमाम तेज़ बुखार में बेहोशी के आलम में लेटे थे।
इमाम ने बीमार बेटे का कन्धा हिलाया और बताया की अंतिम कुर्बानी देने के लिए वह मैदान में जा रहें हैं। इस पर इमाम ज़ैनुल आबिदीन (अ) ने पूछा कि “सारे मददगार, नासिर और अज़ीज़ कहाँ गए?”। इस पर इमाम ने कहा कि सब अपनी जान लुटा चुके हैं। तब इमाम ज़ैनुल आबिदीन ने कहा कि अभी मै बाक़ी हूँ, में जिहाद करूँगा। इस पर इमाम हुसैन (अ) बोले कि बीमारों को जिहाद की अनुमति नहीं है और तुम्हें भी जिहाद की कड़ी मंजिलों से गुज़ारना है मगर तुम्हारा जिहाद दूसरी तरह का है।
इमाम खैमे से रुखसत हुए और मैदान में आये। ऐसे हाल में जब की कोई मददगार और साथी नहीं था और न ही विजय प्राप्त करने की कोई उम्मीद थी फिर भी इमाम हुसैन (अ) बढ़ बढ़ कर हमले कर रहे थे। वह शेर की तरह झपट रहे थे और यज़ीदी फ़ौज के किराए के टट्टू अपनी जान बचाने की पनाह मांग रहे थे। किसी में इतनी हिम्मत नहीं थी की वह अकेले बढ़ कर इमाम हुसैन (अ) पर हमला करता। बड़े बड़े सूरमा दूर खड़े हो कर जान बचा कर भागने वालों का तमाशा देख रहे थे। इस हालत को देख कर यज़ीदी फ़ौज का कमांडर शिम्र चिल्लाया कि “खड़े हुए क्या देख रहे हो? इन्हें क़त्ल कर दो, खुदा करे तुम्हारी माएँ तुम्हें रोएँ, तुम्हे इसका इनाम मिलेगा”। इस के बाद सारी फ़ौज ने मिल कर चारों तरफ से हमला कर दिया। हर तरफ से तलवारों, तीरों और नैज़ों की बारिश होने लगी आखिर में सैंकड़ों ज़ख्म खाकर इमाम हुसैन (अ) घोड़े की पीठ से गिर पड़े।
इमाम जैसे ही मैदान-ए-जंग में गिरे, इमाम का क़ातिल उनका सर काटने के लिए बढ़ा। तभी खैमे से इमाम हसन का ग्यारह साल का बच्चा अब्दुल्लाह बिन हसन अपने चाचा को बचाने के लिए बढ़ा और अपने दोनों हाथ फैला दिए लेकिन कर्बला में आने वाले कातिलों के लिए बच्चों और औरतों का ख्याल करना शायद पाप था। इसलिए इस बच्चे का भी वही हश्र हुआ जो इससे पहले मैदान में आने वाले मासूमों का हुआ था। अब्दुल्लाह बिन हसन के पहले हाथ काटे गए और बाद में जब यह बच्चा इमाम हुसैन (अ) के सीने से लिपट गया तो बच्चों की जान लेने में माहिर तीर अंदाज़ हुर्मलाह ने एक बार फिर अपना ज़लील हुनर दिखाया और इस मासूम बच्चे ने इमाम हुसैन (अ) (अ) की आग़ोश में ही दम तोड़ दिया।
फिर सैंकड़ों ज़ख्मों से घायल इमाम हुसैन (अ) का सर उनके जिस्म से जुदा करने के लिए शिम्र आगे बढ़ा और इमाम हुसैन (अ) को क़त्ल करके उसने मानवता का चिराग़ गुल कर दिया। इमाम हुसैन (अ) तो शहीद हो गए लेकिन क़यामत तक यह बात अपने खून से लिख गए कि जिहाद किसी पर हमला करने का नाम नहीं है बल्कि अपनी जान दे कर इंसानियत की हिफाज़त करने का नाम है।
शहादत के बाद:
इमाम हुसैन की शहादत के बाद यज़ीद की सेनाओं ने अमानवीय, क्रूर और बेरहम आदतों के तहत इमाम हुसैन की लाश पर घोड़े दौड़ाये। इमाम हुसैन के खेमों में आग लगा दी गई। उनके परिवार को डराने और आतंकित करने के लिए छोटे छोटे बच्चों के साथ मार पीट की गई। पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पवित्र घराने की औरतों को क़ैदी बनाया गया, उनका सारा सामन लूट लिया गया।
इसके बाद इमाम हुसैन और उनके साथ शहीद होने वाले अज़ीज़ों और साथियों के परिवार वालों को ज़ंजीरों और रस्सियों में जकड़ कर गिरफ्तार किया गया। इस तरह इन पवित्र लोगों को अपमानित करने का सिलसिला शुरू हुआ। असल में यह उनका अपमान नहीं था, खुद यज़ीद की हार का ऐलान था।
इमाम हुसैन के परिवार को क़ैद करके पहले तो कूफ़े की गली कूचों में घुमाया गया और बाद में उन्हें कूफ़े के सरदार इब्ने ज़ियाद(इब्ने ज़ियाद यज़ीद की फ़ौज का एक सरदार था जिसे यज़ीद ने कूफ़े का गवर्नर बनाया था) के दरबार में पेश किया गया, जहाँ ख़ुशी की महफ़िलें सजाई गईं और और जीत का जश्न मनाया गया। जब इमाम हुसैन के परिवार वालों को दरबार में पेश किया गया तो इब्ने ज़ियाद ने जनाबे जैनब की तरफ इशारा करके पूछा यह औरत कौन है? तो उम्र सअद ने कहा की “यह हुसैन की बहन जैनब है”। इस पर इब्ने ज़ियाद ने कहा कि “ज़ैनब!, एक हुसैन कि ना-फ़रमानी से सारा खानदान तहस नहस हो गया। तुमने देखा किस तरह खुदा ने तुम को तुम्हारे कर्मों कि सज़ा दी”। इस पर ज़ैनब ने कहा कि “हुसैन ने जो कुछ किया खुदा और उसके हुक्म पर किया, ज़िन्दगी हुसैन के क़दमों पर कुर्बान हो रही थी तब भी तेरा सेनापति शिम्र कोशिश कर रहा था कि हुसैन तेरे शासक यज़ीद को मान्यता दे दें। अगर हुसैन यज़ीद कि बैयत कर लेते तो यह इस्लाम के दामन पर एक दाग़ होता जो किसी के मिटाए न मिटता। हुसैन ने हक़ कि खातिर मुस्कुराते हुए अपने भरे घर को क़ुर्बान कर दिया। मगर तूने और तेरे साथियों ने बनू उमय्या के दामन पर ऐसा दाग़ लगाया जिसको मुसलमान क़यामत तक धो नहीं सकते।”
उसके बाद इमाम हुसैन की बहनों, बेटियों, विधवाओं और यतीम बच्चों को सीरिया कि राजधानी दमिश्क़, यज़ीद के दरबार में ले जाया गया। कर्बला से कूफ़े और कूफ़े से दमिश्क़ के रास्ते में इमाम हुसैन कि बहन जनाबे ज़ैनब ने रास्तों के दोनों तरफ खड़े लोगों को संबोधित करते हुए अपने भाई की मज़लूमी का ज़िक्र इस अंदाज़ में किया कि सारे अरब में क्रांति कि चिंगारियां फूटने लगीं।
यज़ीद के दरबार में पहुँचने पर सैंकड़ों दरबारियों की मौजूदगी में जब हुसैनी काफ़िले को पेश किया गया तो यज़ीद ने बनी उमय्या के मान सम्मान को फिर से बहाल करने और जंग-ए-बद्र में हज़रत अली के हाथों मारे जाने वाले अपने काफ़िर पूर्वजों की प्रशंसा की और कहा की आज अगर जंग-ए-बद्र में मरने वाले होते तो देखते कि किस तरह मैंने इन्तिक़ाम लिया। इसके बाद यज़ीद ने इमाम ज़ैनुल आबिदीन से कहा कि “हुसैन कि ख्वाहिश थी कि मेरी हुकूमत खत्म कर दे लेकिन मैं जिंदा हूँ और उसका सर मेरे सामने है।” इस पर जनाबे ज़ैनब ने यज़ीद को टोकते हुए कहा कि तुझ को तो खुछ दिन बाद मौत भी आ जायेगी मगर शैतान आज तक जिंदा है। यह हमारे इम्तिहान कि घड़ियाँ थीं जो ख़तम हो चुकीं। तू जिस खुदा के नाम ले रहा है क्या उस के रसूल(पैग़म्बर) की औलाद पर इतने ज़ुल्म करने के बाद भी तू अपना मुंह उसको दिखा सकेगा”।
इधर इमाम हुसैन के परिवार वाले क़ैद मैं थे और दूसरी तरफ क्रांति की चिंगारियाँ फूट रही थी और अरब के विभिन्न शहरों मैं यज़ीद के शासन के ख़िलाफ़ आवाज़ें बुलंद हो रही थी। इन सब बातों से परेशान हो कर यज़ीद के हरकारों ने पैंतरा बदल कर यह कहना शुरू कर दिया था की इमाम हुसैन का क़त्ल कूफ़ियों ने बिना यज़ीद की अनुमति के कर दिया। इन लोगों ने यह भी कहना शुरू कर दिया कि इमाम हुसैन तो यज़ीद के पास जाकर अपने मतभेद दूर करना चाहते थे या मदीने मैं लौट कर चैन की ज़िन्दगी गुज़ारना चाहते थे। लेकिन सच तो यह है की इमाम हुसैन कर्बला के लिये बने थे और कर्बला की ज़मीन इमाम हुसैन के लिए बनी थी। इमाम हुसैन के पास दो ही रास्ते थे। पहला तो यह कि वह यज़ीद कि बैयत करके अपनी जान बचा लें और इस्लाम को अपनी आँखों के सामने दम तोड़ता देखें। दूसरा रास्ता वही था कि इमाम हुसैन अपनी, अपने बच्चों और अपने साथियों कि जान क़ुर्बान करके इस्लाम को बचा लें। ज़ाहिर है हुसैन अपने लिए चंद दिनों कि ज़िल्लत भरी ज़िन्दगी तलब कर ही नहीं सकते थे। उन्हें तो अल्लाह ने बस इस्लाम को बचाने के लिए ही भेजा था और वह इस मैं पूरी तरह कामयाब रहे।
क्रांति की आग:
कर्बला के शहीदों का लुटा काफ़िला जब दमिश्क से रिहाई पा कर मदीने वापस आया तो यहाँ क्रांति की चिंगारियाँ आग में बदल गईं और ग़ुस्से में बिफरे लोगों ने यज़ीद के गवर्नर उस्मान बिन मोहम्मद को हटा कर अब्दुल्लाह बिन हन्ज़ला को अपना शासक बना लिया। यज़ीद ने इस क्रांति को ख़तम करने के लिए एक बहुत बड़े ज़ालिम मुस्लिम बिन अक़बा को मदीने की ओर भेजा।
मदीना वासियों ने अक़बा की सेना का मदीने से बाहर हर्रा नामक स्थान पर मुकाबला किया। इस जंग में दस हज़ार मुसलमान क़त्ल कर दिए गए ओर सात सो ऐसे लोग भी क़त्ल किये गए जो क़ुरान के हाफ़िज़ थे(जिन लोगों को पूरा क़ुरान बिना देखे याद हो, उन्हें हाफ़िज़ कहा जाता है)। मदीने के लोग यज़ीद की सेना के सामने ठहर न सके और यज़ीदी सेनाओं ने मदीने में घुस कर ऐसे कुकर्म किये कि कभी काफ़िर भी न कर सके थे। सारा शहर लूट लिया गया। हज़ारों मुसलमान लड़कियों के साथ बलात्कार किया गया, जिसके नतीजे में एक हज़ार ऐसे बच्चे पैदा हुए जिनकी माताओं के साथ बलात्कार किया गया था। मदीने के सारे शहरी इन ज़ुल्मों की वजह से फिर से यज़ीद को अपना राजा मानने लगे। इमाम ज़ैनुल आबिदीन इस हमले के दौरान मदीने के पास के एक देहात में रह रहे थे। इस मौके पर एक बार फिर इमाम हुसैन के परिवार ने एक ऐसी मिसाल पेश की कि कोई इंसान पेश नहीं कर सकता।
जब मदीने वालों ने अपना शिकंजा कसा तो उसमें मर-वान की गर्दन भी फंस गई।(मर-वान वही सरदार था जिसने मदीने मे वलीद से कहा था कि हुसैन से इसी वक़्त बैयत ले ले या उन्हें क़त्ल कर दे)। मर-वान ने इमाम ज़ैनुल-आबिदीन से पनाह मांगी और कहा कि सारा मदीना मेरे खिलाफ हो गया है, ऐसे में, मैं अपने बच्चों के लिए खतरा महसूस करता हूँ तो इमाम ने कहा की तू अपने बच्चों को मेरे गाँव भेज दे मैं उनकी हिफाज़त का ज़िम्मेदार हूँ। इस तरह इमाम ने साबित कर दिया कि बच्चे चाहे ज़ालिम ही के क्यों न हों, पनाह दिए जाने के काबिल हैं।
मदीने को बर्बाद करने के बाद मुस्लिम बिन अक़बा मक्के की तरफ़ बढ़ा। मक्के में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर की हुकूमत थी। लेकिन अक़बा को वक़्त ने मोहलत नहीं दी और वह मक्का के रास्ते में ही मर गया। उस की जगह हसीन बिन नुमैर ने ली और चालीस दिन तक मक्के को घेरे रखा। उसने अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर को मात देने की कोशिश में काबे पर भी आग बरसाई गई। लेकिन जुबैर को गिरफ्तार नहीं कर सका। इस बीच यज़ीद के मरने की खबर आई और मक्के में हर तरफ़ जश्न का माहोल हो गया और शहर का नक्शा ही बदल गया। इब्ने जुबैर को विजय प्राप्त हुई और हसीन बिन नुमैर को भाग कर मदीने जाना पड़ा।
यज़ीद की मौत:
यज़ीद की मौत को लेकर इतिहासकारों में अलग अलग राय है। कुछ लोगों का मानना है कि एक दिन यज़ीद महल से शिकार खेलने निकला और फिर जंगल में शिकार का पीछा करते हुए अपने साथियों से अलग हो गया और रास्ता भटक गया और बाद में खुद ही जंगली जानवरों का शिकार बन गया। लेकिन कुछ इतिहासकार मानते हैं 38 साल कि उम्र में क़ोलंज के दर्द(पेट में उठने वाला ऐसा दर्द जिसमें पीड़ित हाथ पैर पटकता रहता है) का शिकार हुआ और उसी ने उसकी जान ली।
जब यज़ीद को अपनी मौत का यकीन हो गया तो उस ने अपने बेटे मुआविया बिन यज़ीद को अपने पास बुलाया और हुकूमत के बारे में कुछ अंतिम इच्छाएँ बतानी चाहीं। अभी यज़ीद ने बात शुरू ही की थी कि उसके बेटे ने एक चीख मार कर कहा “खुदा मुझे उस सल्तनत से दूर रखे जिस कि बुनियाद रसूल के नवासे के खून पर रखी गई हो”। यज़ीद अपने बेटे के यह अलफ़ाज़ सुन कर बहुत तड़पा मगर मुविया बिन यज़ीद लानत भेज कर चला गया। लोगों ने उसे बहुत समझाया की तेरे इनकार से बनू उमय्या की सल्तनत का ख़ात्मा हो जाएगा मगर वह राज़ी नही हुआ। यज़ीद तीन दिन तक तेज़ दर्द में हाथ पाँव पटक पटक कर इस तरह तड़पता रहा कि अगर एक बूँद पानी भी टपकाया जाता तो वह तीर की तरह उसके हलक़ में चुभता था। यज़ीद भूखा प्यासा तड़प तड़प कर इस दुनिया से उठ गया तो बनू उमय्या के तरफ़दारों ने ज़बरदस्ती मुआविया बिन यज़ीद को गद्दी पर बिठा दिया। लेकिन वह रो कर और चीख़ कर भागा और घर में जाकर ऐसा घुसा की फिर बाहर न निकला और हुसैन हुसैन के नारे लगाता हुआ दुनिया से रुखसत हो गया।
कुछ लोगों का मानना है कि 21 साल के इस युवक को बनू उमय्या के लोगों ने ही क़त्ल कर दिया क्योंकि गद्दी छोड़ने से पहले उसने साफ़ साफ़ कह दिया था कि उस के बाप और दादा दोनों ने ही सत्ता ग़लत तरीकों से हथियाई थी और इस सत्ता के असली हक़दार हज़रत अली और उनके बेटे थे। मुआविया बिन यज़ीद की मौत के बाद मर-वान ने सत्ता पर क़ब्ज़ा कर लिया और इस बीच उबैद उल्लाह बिन ज़ियाद ने इराक पर क़ब्ज़ा कर लिया और मुल्क में पूरी तरह अराजकता फ़ैल गई।
यज़ीद की मौत की खबर सुन कर मक्के का घेराव कर रहे यजीदी कमांडर हसीन बिन नुमैर ने मदीने की ओर रुख किया और इसी आलम में उसका सारा अनाज और गल्ला ख़तम हो गया। भटकते भटकते मदने के करीब एक गाँव में इमाम हुसैन के बेटे हज़रत जैनुल आबिदीन मिले तो इमाम ने भूख से बेहाल अपने इस दुश्मन की जान बचाई। इमाम ने उसे खाना और गल्ला भी दिया और पैसे भी नहीं लिए। इस बात से प्रभावित हो कर हसीन बिन नुमैर ने यज़ीद की मौत के बाद इमाम से कहा की वह खलीफ़ा बन जाएँ लेकिन इमाम ने इनकार कर दिया और यह साबित कर दिया की हज़रत अली की संतान की लड़ाई या जिहाद खिलाफत के लिए नहीं बल्कि दुनिया को यह बताने के लिए थी कि इस्लाम ज़ालिमों का मज़हब नहीं बल्कि मजलूमों का मज़हब है।
ख़ून के बदले का अभियान:
मक्के, मदीने के बाद कूफ़े में भी क्रांति की चिंगारियां भड़कने लगीं। वहाँ पहले एक दल तव्वाबीन(तौबा करने वालों) के नाम से उठा। इस दल के दिल में यह कसक थी कि इन्हीं लोगों ने इमाम हुसैन को कूफ़ा आने का न्योता दिया। लेकिन जब इमाम हुसैन कूफ़ा आये तो इन लोगों ने यज़ीद के डर और खौफ़ के आगे घुटने टेक दिए। और जिन 18 हज़ार लोगों ने इमाम हुसैन का साथ देने कि कसम खायी थी, वह या तो यज़ीद द्वारा मार दिए गए थे या जेल में डाल दिए गए थे। तव्वाबीन, खूने इमाम हुसैन का बदला लेने के लिए उठे लेकिन शाम(सीरिया) की सैनिक शक्ति का मुकाबला नहीं कर सके।
इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने में सिर्फ़ हज़रत मुख़्तार बिन अबी उबैदा सक़फ़ी को कामयाबी मिली। जब इमाम हुसैन शहीद किए गए तो मुख्तार जेल में थे। इमाम हुसैन की शहादत के बाद हज़रत मुख़्तार को अब्दुल्लाह बिन उमर कि सिफ़ारिश से रिहाई मिली। अब्दुल्लाह बिन उमर, मुख़्तार के बहनोई थे और शुरू शुरू में यज़ीद की बैयत न करने वालों में आगे आगे थे लेकिन बाद में वह बनी उमय्या की ताक़त से दब गए।
मुख़्तार ने रिहाई मिलते ही इमाम हुसैन के क़ातिलों से बदला लेने की योजना बनाना शुरू कर दी। उन्होंने हज़रत अली के सब से क़रीबी साथी मालिके अशतर के बेटे हज़रत इब्राहीम बिन मालिके अशतर से बात की। उन्होंने इस अभियान में मुख्तार का हर तरह से साथ देने का वायदा किया। उन दिनों कूफ़े पर ज़ुबैर का क़ब्ज़ा था और इन्तिक़ामे खूने हुसैन का काम शुरू करने के लिए यह ज़रूरी था कि कूफ़े को एक आज़ाद मुल्क घोषित किया जाए। कूफ़े को क्रांति का केंद्र बनाना इस लिए भी ज़रूरी था कि इमाम हुसैन के ज़्यादातर क़ातिल कूफ़े में ही मौजूद थे और अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर सत्ता पाने के बाद इन्तिक़ाम-ए-खूने हुसैन के उस नारे को भूल चुके थे जिसके सहारे उन्होंने सत्ता हासिल की थी। मुख्तार और इब्राहीम ने अपना अभियान कूफ़े से शुरू किया और इब्ने ज़ुबैर के कूफ़ा के गवर्नर अब्दुल्लाह बिन मुतीअ को कूफ़ा छोड़ कर भागना पड़ा।
इस के बाद हज़रत मुख़्तार और हज़रत इब्राहीम की फ़ौज ने इमाम हुसैन और उनके परिवार वालों को क़त्ल करने वाले क़ातिलों को चुन चुन कर मार डाला। इमाम हुसैन के क़त्ल का बदला लेने के लिए जो जो लोग भी उठे उन में हज़रत मुख्तार और इब्राहीम बिन मालिके अशतर का अभियान ही अपने रास्ते से नहीं हटा। इस अभियान की ख़ास बात यह थी कि इन लोगों ने सिर्फ़ क़ातिलों से बदला लिया, किसी बेगुनाह का खून नहीं बहाया।
उधर मदीने में अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिवार वालों से नाराज़ हो चुके थे। यहाँ तक कि इब्ने ज़ुबैर ने इमाम हुसैन के छोटे भाई मोहम्मद-ए-हनफ़िया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) के चचेरे भाई इब्ने अब्बास को एक घर में बंद करके ज़िन्दा जलाने की कोशिश भी कि लेकिन इसी बीच हज़रत मुख़्तार का अभियान शुरू हो गया और उन दोनों कि जान बच गई।
हज़रत मुख्तार और इब्ने ज़ुबैर की फ़ौजों में टकराव हुआ और मुख़्तार हार गए लेकिन तब तक वह क़ातिलाने इमाम हुसैन को पूरी तरह सजा दे चुके थे।