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दक्षिणी लेबनान में इज़रायल द्वारा किए गए हमलों में छह लेबनानी नागरिक शहीद हो गए जबकि दो अन्य घायल हो गए।

एक रिपोर्ट के अनुसार ,दक्षिणी लेबनान में इज़रायल द्वारा किए गए हमलों में छह लेबनानी नागरिक शहीद हो गए जबकि दो अन्य घायल हो गए।

एक इज़रायली ड्रोन ने सूर जिले के तैयारदबा इलाके में एक कार और एक वैन को निशाना बनाया यह हमला शुक्रवार को हुआ जिसमें ये दोनों नागरिक वाहन बुरी तरह क्षतिग्रस्त हो गए।

इसके अलावा आरटी के एक संवाददाता ने बताया कि दक्षिणी लेबनान के अईता अलशआब इलाके में बनी हयान क्षेत्र पर भी इज़रायल ने नए हमले किए इस हमले ने स्थानीय क्षेत्र में तनाव और भय का माहौल पैदा कर दिया है।

लेबनानी मीडिया ने यह भी जानकारी दी कि लेबनानी सेना ने आइतरून इलाके में प्रवेश किया, जहां इज़रायली सेना ने कुछ रास्तों को बंद कर दिया था सेना ने इन अवरोधों को हटाने के लिए कदम उठाए ताकि स्थानीय लोगों की आवाजाही सामान्य हो सके।

 

इन हमलों के खिलाफ लेबनान ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में औपचारिक शिकायत दर्ज कराई है यह शिकायत इज़रायल की ओर से लगातार किए जा रहे उल्लंघनों और संघर्ष-विराम की शर्तों की अनदेखी के खिलाफ की गई है।

लेबनानी सरकार ने संघर्ष-विराम की निगरानी करने वाले देशों से अपील की है कि वे इज़रायल के इन बार-बार के उल्लंघनों के खिलाफ सख्त और स्पष्ट रुख अपनाएं लेबनान का आरोप है कि इज़रायल के इन हमलों से क्षेत्र में तनाव बढ़ रहा है और संघर्ष-विराम की शर्तों का खुला उल्लंघन हो रहा है।

मजलिस ए उलेमा हिंद के अध्यक्ष और जामेअतुल -इमाम अमीर-उल-मोमिनीन (अ) (नजफी हाउस) के प्रोफेसर हुज्जतुल-इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद हुसैन मेहदी हुसैनी ने ईरान की अपनी यात्रा के दौरान हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के केंद्रीय कार्यालय का दौरा किया और हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के संवाददाता से समसामयिक विषयों पर बातचीत की।

मजलिस ए उलेमा हिंद के अध्यक्ष और जामेअतुल -इमाम अमीर-उल-मोमिनीन (अ) (नजफी हाउस) के प्रोफेसर हुज्जतुल-इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद हुसैन मेहदी हुसैनी ने ईरान की अपनी यात्रा के दौरान हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के केंद्रीय कार्यालय का दौरा किया और हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के संवाददाता से समसामयिक विषयों पर बातचीत की, जिसका पहला भाग पाठकों के समक्ष प्रस्तुत किया जा रहा है:

हौज़ा न्यूज़ एजेंसी में आपका स्वागत है। सबसे पहले अपने बारे में और अपनी शिक्षा यात्रा के बारे में बताइए। यह यात्रा कहाँ से शुरू हुई और आपको किन शिक्षकों से लाभ मिला?

अगर मैं अपने अतीत पर नज़र डालूं तो उसका इतिहास बहुत पुराना है। मेरी शिक्षा का सफ़र मदरसा जवादिया और मदरसा अल-वाएज़ीन से शुरू हुआ। उस समय मदरसा जवादिया मौलाना ज़फ़रुल हसन साहब क़िबला और मदरसा अल-वाएज़ीन नादेरत अल-ज़मान मौलाना इब्न हसन साहिब नौनहरवी के प्रबंधन मे चलता था। फिर मैं हौज़ा ए इल्मिया क़ुम आया, जहाँ मैंने उस्ताद विजदानी फ़ख़र की शिक्षाओं से लाभ उठाया, जो उस समय लुमा के शिक्षक थे, और सैद्धांतिक शिक्षक उस्ताद शेख अली पनाह। अब तक इन सभी का निधन हो चुका है। आज भी, हमारे कुछ शिक्षक, जैसे आयतुल्लाहिल उज़्मा मकरिम शिराज़ी, अभी जीवित हैं।

उस समय फैजिया मदरसे के प्रभारी हुज्जतुल इस्लाम मलका हुआ करते थे। उन्होंने हमारा फ़िक्ह और उसूल की परीक्षा ली और मदरसे फैज़िया में रहने के लिए एक कमरा दिया। उनकी दयालुता और उदारता के कारण हम पढ़ाई करने में सक्षम हुए। मदरसा फैज़िया में सुप्रीम लीडर के साथ मुलाकात की। हम उनसे भी मिले, और कई बार मिलने का सम्मान मिला।

आज के उन्नत युग में लोग मानते हैं कि इस्लाम में इस युग के लिए प्रासंगिक शिक्षाओं का अभाव है। आपकी राय में, अहले-बैत (अ) की शिक्षाएँ आज के युग के लिए, विशेषकर युवाओं के लिए किस प्रकार मार्गदर्शक साबित हो सकती हैं?

जिसने भी यह प्रश्न पूछा है, उससे पूछा जाना चाहिए: मुझे बताइए, मानव जीवन का वह कौन सा पहलू है जिसका उत्तर देने में इस्लाम असमर्थ है?

इस्लाम जीवन की हर समस्या का जवाब है। सूरज एक है मौसम के हिसाब से रोशनी मिलती है। कभी सर्दियों में सूरज दूर निकलता है, तो कभी गर्मियों में सिर के ऊपर से निकलता है। सूरज हमेशा निकलता है। लेकिन कभी-कभी सूरज देर से आता है और सीधे नहीं आ सकता। अहले बैत (अ), पैगम्बर (स) और कुरान शरीफ का अस्तित्व प्रकाश है। अगर हमने जिस क्षेत्र में खुद को रखा है वह ठंडा क्षेत्र है, तो यह दोपहर के घेरे से है जब हम दूर होंगे तो ऐसी स्थिति में हमें कम रोशनी मिलेगी और जब हम सूर्य के मार्ग और मार्ग के बहुत करीब होंगे तो उसे निरंतर रोशनी मिलेगी। आज का समाज ईश्वर से दूर होता जा रहा है । जब कोई दिव्य प्रकाश से दूर जा रहा है, तो ऐसा इसलिए है क्योंकि उसे प्रकाश की कमी महसूस हो रही है।

आज की दुनिया में युवाओं को धर्म की ओर आकर्षित करने का व्यावहारिक तरीका क्या है और हम उन्हें धर्म की ओर कैसे आकर्षित कर सकते हैं?

थका देने वाले काम नहीं करने चाहिए। आज पूरी दुनिया में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर 40 मिनट के व्याख्यान होते हैं। 40 मिनट के व्याख्यान में भी श्रोता कई बार परेशान हो जाते हैं। ईरान में मेरी मुलाक़ात कुरान के व्याख्याता हुज्जतुल इस्लाम कराअती को देखा है उनके इस्लामी पाठ तीन मिनट, डेढ़ मिनट या कुछ सेकंड के बहुत छोटे क्लिप होते हैं। इसका मतलब है कि आपको समय की ज़रूरत महसूस हो रही है। जब आपको ज़रूरत महसूस हो, तो लंबी लंबी क्लिप नही बल्कि  छोटे-छोटे शब्द बोलें जो इंसानियत भरे हों। अगर हम अहले बैत (अ) के इंसानियत भरे शब्दों को फैलाएंगे तो नतीजा यह होगा कि वह पहले इंसान बनेगा और बाद में ईमान लाएगा। इंसान जानवर क्यों है वह विवेकशील है, इसलिए वह पहले मनुष्य बनेगा फिर विश्वास करेगा, जैसे हर घोड़े को दौड़ में नहीं उतारा जाता, पहले उसे पोशाक दी जाती है फिर उसे दौड़ में उतारा जाता है, इसलिए यह मनुष्य है एक विवेकशील प्राणी, जब मनुष्य बनेगा, तब वह धर्म के अधिक निकट होगा।

इस युग में इस्लामी समाज के लिए सबसे बड़ी चुनौतियाँ क्या हैं? विशेष रूप से गाजा और लेबनान आदि में हो रहे अत्याचारों के प्रति हमारी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए, तथा एक मुसलमान के रूप में हमारी क्या प्रतिक्रिया होनी चाहिए?

مَنْ أَصْبَحَ لا یَهْتَمُّ بِأُمورِ الْمُسْلمینَ فَلَیْسَ بِمُسْلِمٍ मन अस्बहा ला यहतम्मो बेउमूरिल मुस्लेमीना फ़लैसा बेमुस्लिम,  (जो कोई मुसलमानों के मामलों के प्रति उदासीन हो जाता है, वह मुसलमान नहीं है)

यह गुटों की जंग है। अगर आप गुटों की जंग का इतिहास पढ़ेंगे तो पाएंगे कि दुश्मन हार गया, काफिरों की हार पैगम्बर साहब के सामने हुई। इसलिए उन्होंने लड़ने के लिए गुटों का सहारा लिया और हर राष्ट्र ने एक दूसरे को हराया। और कबीलों ने लोगों को इकट्ठा करके गुटों की जंग शुरू कर दी। इस समय गुटों में इजरायल, सऊदी अरब, अमेरिका, लंदन और संयुक्त अरब अमीरात शामिल हैं। ये सभी मिलकर इस्लाम को दबाने की कोशिश कर रहे हैं। इसलिए इस्लाम के बचे रहने के लिए बेहतर यही होगा कि वही तरीका अपनाया जाए जो पैगम्बर (स) ने अपनाया था। कभी पैगम्बर (स) जंग पर निकल पड़ते थे और कभी इस्लाम के लोग जंग पर निकल पड़ते थे। पैगंबर (स) ने स्पष्ट रूप से सुलैह हुदैबिया स्थापित की, सुलैह हुदैबिया स्पष्ट रूप से उस समय के सहाबा की नजर में, पैगंबर (स) ने दबाव के साथ शांति स्थापित की थी, और शांति समझौते में जो पैगम्बर (स) ने सुहैल से लिखवाया था, बाहर की आँखों ने देखा कि यह हमारी हार है, लेकिन वास्तव में यह हार नहीं थी, यह एक महान विजय थी। इसलिए इस वर्तमान युग में तुम्हारा कोई सहयोगी या साझीदार नहीं है। अगर विश्वास की ताकत बढ़ गई तो जीत हमारी होगी। अगर सीरिया की सेना में विश्वास की ताकत पाई जाती तो सीरिया का पतन नहीं होता।

इस समय, रक्षा की आवश्यकता है, और पवित्र कुरान कहता है, "और उनके लिए अपनी शक्ति तैयार करो।" जितना अधिक हम आधुनिक बल को मजबूत करेंगे, उतना ही दुश्मन पराजित होगा। यदि हम आधुनिक कारकों को ध्यान में न लें, तो हमारी सफलता खतरे में पड़ जायेगी।

शनिवार, 11 जनवरी 2025 15:59

हजः संकल्प करना

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना।  वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उचित पहचान और परिज्ञान, ईश्वर के घर का दर्शन करने वाले का वास्तविकताओं की ओर मार्गदर्शन करता है जो उसके प्रेम और लगाव में वृद्धि कर सकता है तथा कर्म के स्वाद में भी कई गुना वृद्धि कर सकता है।  ईश्वर के घर के दर्शनार्थी जब अपनी नियत को शुद्ध कर लें और हृदय को मायामोह से अलग कर लें तो अब वे विशिष्टता एवं घमण्ड के परिधानों को अपने शरीर से अलग करके मोहरिम होते हैं। मोहरिम का अर्थ होता है बहुत सी वस्तुओं और कार्यों को न करना या उनसे वंचित रहना। लाखों की संख्या में एकेश्वरवादी एक ही प्रकार के सफेद कपड़े पहनकर और सांसारिक संबन्धों को त्यागते हुए मानव समुद्र के रूप में काबे की ओर बढ़ते हैं। यह लोग ईश्वर के निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए वहां जा रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९७ में ईश्वर कहता है कि लोगों पर अल्लाह का हक़ है कि जिसको वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य प्राप्त हो, वह इस घर का हज करे।    एहराम बांधने से पूर्व ग़ुस्ल किया जाता है जो उसकी भूमिका है।  इस ग़ुस्ल की वास्तविकता पवित्रता की प्राप्ति है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मोहरिम हो अर्थात दूरी करो हर उस वस्तु से जो तुमको ईश्वर की याद और उसके स्मरण से रोकती है और उसकी उपासना में बाधा बनती है।मोहरिम होने का कार्य मीक़ात नामक स्थान से आरंभ होता है।  वे तीर्थ यात्री जो पवित्र नगर मदीना से मक्का जाते हैं वे मदीना के निकट स्थित मस्जिदे शजरा से मुहरिम होते हैं। इस मस्जिद का नाम शजरा रखने का कारण यह है कि इस्लाम के आरंभिक काल में पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस स्थान पर एक वृक्ष के नीचे मोहरिम हुआ करते थे।  अब ईश्वर का आज्ञाकारी दास अपने पूरे अस्तित्व के साथ ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है। अपने विभिन्न प्रकार के संस्कारों और आश्चर्य चकित करने वाले प्रभावों के साथ हज, लोक-परलोक के बीच एक आंतरिक संपर्क है जो मनुष्य को प्रलय के दिन को समझने के लिए तैयार करता है।  हज एसी आध्यात्मिक उपासना है जो परिजनों से विदाई तथा लंबी यात्रा से आरंभ होती है और यह, परलोक की यात्रा पर जाने के समान है।  हज यात्री सफ़ेद रंग के वस्त्र धारण करके एकेश्वरवादियों के समूह में प्रविष्ट होता है और हज के संस्कारों को पूरा करते हुए मानो प्रलय के मैदान में उपस्थित है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हज करने वालों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए कहते हैं कि महान ईश्वर ने जिस कार्य को भी अनिवार्य निर्धारित किया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिन परंपराओं का निर्धारण किया है, वे चाहे हराम हों या हलाल सबके सब मृत्यु और प्रलय के लिए तैयार रहने के उद्देश्य से हैं।  इस प्रकार ईश्वर ने इन संस्कारों को निर्धारित करके प्रलय के दृश्य को स्वर्गवासियों के स्वर्ग में प्रवेश और नरक में नरकवासियों के जाने से पूर्व प्रस्तुत किया है।    हज करने वाले एक ही प्रकार और एक ही रंग के वस्त्र धारण करके तथा पद, धन-संपत्ति और अन्य प्रकार के सांसारिक बंधनों को तोड़कर अपनी वास्तविकता को उचित ढंग से पहचानने का प्रयास करते हैं अर्थात उन्हें पवित्र एवं आडंबर रहित वातावरण में अपने अस्तित्व की वास्तविकताओं को देखना चाहिए और अपनी त्रुटियों एवं कमियों को समझना चाहिए।  ईश्वर के घर का दर्शन करने वाला जब सफेद रंग के साधारण वस्त्र धारण करता है तो उसको ज्ञात होता है कि वह घमण्ड, आत्ममुग्धता, वर्चस्व की भावना तथा इसी प्रकार की अन्य बुराइयों को अपने अस्तित्व से दूर करे।  जिस समय से तीर्थयात्री मोहरिम होता है उसी समय से उसे बहुत ही होशियारी से अपनी गतिविधियों और कार्यों के प्रति सतर्क रहना चाहिए क्योंकि उसे कुछ कार्य न करने का आदेश दिया जा चुका है। मानो वह ईश्वर की सत्ता का अपने अस्तित्व में आभास कर रहा है और उसे शैतान के लिए वर्जित क्षेत्र तथा सुरक्षित क्षेत्र घोषित करता है। इस भावना को मनुष्य के भीतर अधिक प्रभावी बनाने के लिए उससे कहा गया है कि वह अपने उस विदित स्वरूप को परिवर्ति करे जो सांसारिक स्थिति को प्रदर्शित करता है और सांसारिक वस्त्रों को त्याग देता है।  जो व्यक्ति भी हज करने के उद्देश्य से सफ़ेद कपड़े पहनकर मोहरिम होता है उसे यह सोचना चाहिए कि वह ईश्वर की शरण में है अतः उसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जो उसके अनुरूप हो।यही कारण है कि शिब्ली नामक व्यक्ति जब हज करने के पश्चात इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की सेवा में उपस्थित हुआ तो हज की वास्तविकता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने शिब्ली से कुछ प्रश्न पूछे।  इमाम सज्जाद अ. ने शिब्ली से पूछा कि क्या तुमने हज कर लिया? शिब्ली ने कहा हां, हे रसूल के पुत्र। इमाम ने पूछा कि क्या तुमने मीक़ात में अपने सिले हुए कपड़ों को उतार कर ग़ुस्ल किया था?  शिब्ली ने कहा जी हां। इसपर इमाम ने कहा कि जब तुम मीक़ात पहुंचे तो क्या तुमने यह संकल्प किया था कि तुम पाप के वस्त्रों को अपने शरीर से दूर करोगे और ईश्वर के आज्ञापालन का वस्त्र धारण करोगे? शिब्ली ने कहा नहीं।  अपने प्रश्नों को आगे बढ़ाते हुए इमाम ने शिब्ली से पूछा कि जब तुमने सिले हुए कपड़े उतारे तो क्या तुमने यह प्रण किया था कि तुम स्वयं को धोखे, दोग़लेपन तथा अन्य बुराइयों से पवित्र करोगे? शिब्ली ने कहा, नहीं।  इमाम ने शिब्ली से पूछा कि हज करने का संकल्प करते समय क्या तुमने यह संकल्प किया था कि ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग रहोगे?  शिब्ली ने फिर कहा कि नहीं।  इमाम ने कहा कि न तो तुमने एहराम बांधा, न तुम पवित्र हुए और न ही तुमने हज का संकल्प किया।    एहराम की स्थिति में मनुष्य को जिन कार्यों से रोका गया है वे कार्य आंतरिक इच्छाओं के मुक़ाबले में मनुष्य के प्रतिरोध को सुदृढ़ करते हैं। उदाहरण स्वरूप शिकार पर रोक और पशुओं को क्षति न पहुंचाना, झूठ न बोलना, गाली न देना और लोगों के साथ झगड़े से बचना आदि। यह प्रतिबंध हज करने वाले के लिए वैस तो एक निर्धारित समय तक ही लागू रहते हैं किंतु मानवता के मार्ग में परिपूर्णता की प्राप्ति के लिए यह प्रतिबंध, मनुष्य का पूरे जीवन प्रशिक्षण करते हैं।  एहराम की स्थिति में जिन कार्यों से रोका गया है यदि उनके कारणों पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पशु-पक्षियों और पर्यावरण की सुरक्षा तथा छोटे-बड़े समस्त प्राणियों का सम्मान, इन आदेशों के लक्ष्यों में से है। इस प्रकार के कार्यों से बचते हुए मनुष्य, प्रशिक्षण के एक एसे चरण को तै करता है जो तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय की प्राप्ति के लिए व्यवहारिक भूमिका प्रशस्त करता है। इन कार्यों में से प्रत्येक, मनुष्य को इस प्रकार से प्रशिक्षित करता है कि वह उसे आंतरिक इच्छाओं के बहकावे से सुरक्षित रखे और अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है।हज के दौरान जिन कार्यों से रोका गया है वास्तव में वे एसे कार्यों के परिचायक हैं जो तक़वे तक पहुंचने की भूमिका हैं। एहराम बांधकर मनुष्य का यह प्रयास रहता है कि वह एसे वातावरण में प्रविष्ट हो जो उसे ईश्वर के भय रखने वाले व्यक्ति के रूप में बनाए।  हज के दौरान “मोहरिम”

 

जामिया अल-ज़हरा (स) की एक शिक्षक ने कहा कि "इस्लामिक नारीवाद" एक सही शब्द नहीं है क्योंकि नारीवाद के सिद्धांत इस्लाम के अनुकूल नहीं हैं, इस्लाम को नारीवाद और महिलावाद आंदोलनों की आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस्लाम में मानव समानता को लिंग (स्त्री और पुरुष) से बालातर माना जाता है।

जमीयत अल-ज़हरा (स) की एक शिक्षक ने कहा कि "इस्लामिक नारीवाद" एक सही शब्द नहीं है क्योंकि नारीवाद के सिद्धांत इस्लाम के अनुकूल नहीं हैं, जिसे इस्लाम नारीवाद और नारीवाद कहता है। आंदोलनों की कोई जरूरत नहीं है क्योंकि इस्लाम में इंसान की कीमत लिंग से परे मानी जाती है।

फरजाना हकीमजादेह ने हौजा न्यूज एजेंसी से बात करते हुए कहा कि 16वीं शताब्दी के पुनर्जागरण ने जीवन के सभी क्षेत्रों में मूलभूत परिवर्तन लाए, जिसमें महिलाओं के मुद्दे भी शामिल थे, लेकिन पुनर्जागरण ने पश्चिम को ज्ञान और उद्योग के विकास की ओर अग्रसर किया।

 उन्होंने कहा कि औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप, महिलाओं को सस्ते श्रम के रूप में इस्तेमाल किया जाता था, लेकिन जल्द ही उन्हें एहसास हुआ कि उनसे कठिन और असहनीय काम कराया जा रहा है और उन्हें पुरुषों की तुलना में कम वेतन दिया जाता है।

नारीवाद और पश्चिमी महिला आंदोलन

हकीमज़ादेह ने बताया कि उन्नीसवीं और बीसवीं सदी की शुरुआत में, महिलाओं को अपने साथ होने वाले भेदभाव का एहसास हुआ और उन्होंने अपने बुनियादी अधिकारों को हासिल करने के लिए नारीवादी आंदोलन शुरू किया। इन आंदोलनों ने महिलाओं को अधिकार दिलाने की कोशिश की, लेकिन यह भी स्पष्ट था कि इन आंदोलनों का लक्ष्य हमेशा न्याय पर आधारित नहीं था।

इस्लामी नारीवाद: एक विरोधाभासी शब्द

उन्होंने कहा कि "इस्लामिक नारीवाद" एक विरोधाभास है क्योंकि इस्लाम महिलाओं या पुरुषों के लिए कोई विशेष प्राथमिकता स्थापित नहीं करता है। इस्लाम ने पहले से ही महिलाओं को नारीवाद द्वारा मांगे गए अधिकार प्रदान किए हैं। उदाहरण के लिए, कुरान की सूरह निसा महिलाओं के अधिकारों के संबंध में एक व्यापक घोषणापत्र है।

इस्लामी अधिकारों और नारीवाद की तुलना

फरजाना हकीमजादा ने कहा कि इस्लाम ने हर पहलू में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा की है, चाहे वह घरेलू, आर्थिक या सामाजिक हो। उन्होंने कहा कि पश्चिमी महिला अधिकार आंदोलन वास्तव में गलतफहमियों पर आधारित हैं, जबकि इस्लाम में कामुकता को मानकीकृत नहीं किया गया है।

शिया और सुन्नी विचारधारा में अंतर

उन्होंने कहा कि शिया विचारधारा में महिलाओं के महत्व और उनके अधिकारों को हर पहलू में मान्यता दी गई है, जबकि अहलुस-सुन्नत में महिलाओं के अधिकारों की कभी-कभी उपेक्षा की गई, जिसके कारण कुछ अहलुस-सुन्नत व्यक्तित्व नारीवाद के आंदोलनों में शामिल हो गए। . शामिल हो गए

ग़लतफ़हमियाँ और उनके प्रभाव

फ़रज़ाना हकीमज़ादेह का दावा है कि शिरीन इबादी जैसे कुछ लोग इस्लाम और शियावाद के बारे में गलत धारणाओं के आधार पर नारीवाद की ओर मुड़ गए। उन्होंने कहा कि अगर इस्लाम में मानवीय गरिमा और गरिमा के सिद्धांतों को बेहतर ढंग से समझा जाए तो ऐसी गलतफहमियां खत्म हो सकती हैं।

उन्होंने आगे कहा कि तथ्य यह है कि पुरुषों को अधिक विरासत और दहेज मिलता है, इसका मतलब उनका अधिक मूल्य और स्थिति नहीं है, बल्कि उनकी आर्थिक जिम्मेदारियां हैं। यदि महिलाओं को अधिक आय प्राप्त होती है, तो उनका उस पर पूरा नियंत्रण होता है, जबकि पुरुषों को अपनी आय का अधिकांश हिस्सा परिवार पर खर्च करना पड़ता है।

उन्होंने कहा कि इस्लामिक देशों में महिलाओं के अधिकारों को लेकर गलतफहमियां कभी-कभी इस्लामिक नारीवाद जैसे आंदोलनों का कारण बनती हैं, लेकिन इस्लाम में ऐसे आंदोलन की कोई आवश्यकता नहीं है क्योंकि इस्लाम ने लिंग की परवाह किए बिना हर इंसान का सम्मान किया है।

शनिवार, 11 जनवरी 2025 15:55

इमाम तक़ी अ.स. का एक मुनाज़ेरा

इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी

तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी से करना चाहा। इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने लगे और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें। मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते

इमाम तक़ी अ.स. का एक मुनाज़ेरा

इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी  से करना चाहा।

इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने लगे और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें।

मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते हो? उन लोगों ने कहा ये लड़का नौजवान है और न ही इसके पास कोई इल्मो हिक्मत है तो मामून ने जवाब मे कहा तुम इस ख़ानदान को नहीं पहचानते अगर तुम चाहो तो आज़मा कर देख लो और किसी आलिम को बुला लाओ और इन से बहस करा लो ताकि मेरी बात की सच्चाई रौशन हो जाये।

अब्बासी लोगों ने याहिया बिन अक़सम नामक व्यक्ति को उसके इल्म की शोहरत की वजह से इमाम तक़ी अ.स. से मुनाज़रे के लिये चुना।

मामून ने एक जलसा रखा कि जिस में इमाम तक़ी अ.स. के इल्म और समझ को तौला जा सकता है। जब सब लोग हाज़िर हो गये तो याहिया ने मामून से पूछाः

क्या आपकी इजाज़त है कि मैं इस लड़के से सवाल करूं?

मामून ने कहा ख़ुद इन से इजाज़त लो, याहिया ने इमाम से इजाज़त ली तो इमाम ने फ़रमायाः जो कुछ भी पूछना चाहता है पूछ ले।

याहिया ने कहाः उस शख़्स के बारे में आप की क्या नज़र है कि जिसने अहराम की हालत में शिकार किया हो?

इमाम  ने फ़रमायाः इस शख़्स ने शिकार को हिल मे मारा है या हरम में?

वो शख़्स अहराम की हालत में शिकार करने की मनाही को जानता था या नहीं जानता था??

उसने जानवर को जान के मारा है या ग़लती से??

ख़ुद वो शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम?

वह शख़्स छोटा था या बड़ा?

पहली बार यह काम किया था या पहले भी कर चुका था?

शिकार परिन्दा था या ज़मीनी जानवर?

छोटा जानवर था या बड़ा?

फिर से इस काम को करना चाहता है या अपनी ग़लती पर शरमिंदा है?

शिकार दिन में किया था या रात में?

 अहराम उमरे का था या हज का?

याहिया बिन अक़सम अपने सवाल के अंदर होने वाले इतने सारे सवालों को सुन कर सकते में आ गया, उसकी कम इल्मी और कम हैसियती उसके चेहरे से दिखाई दे रही थी उसकी ज़बान ने काम करना बंद कर दिया था और तमाम मौजूदा लोगों ने उसकी हार को मान लिया था।

 मामून ने कहा कि ख़ुदा का शुक्र कि जो मैं ने सोचा था वही हुआ है ओर फिर अपने रिश्तेदारों और ख़ानदान वालों से कहाः क्या अब उस बात को जान गये हो कि जिसे नहीं मान रहे थे?

कुछ देर बाद जलसा ख़त्म हो गया और सिवाये ख़लीफ़ा के ख़ास लोगों के सब लोग चले गये मामून ने इमाम तक़ी अ.स. की तरफ मुंह किया और इमाम के बयान किये हुवे हर एक मसले का जवाब इमाम से मालूम किया।

(ये आरटीकल जनाब मेहदी पेशवाई की किताब सीमाये पीशवायान से लिया गया है।)

इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था.

ईश्वरीय दायित्व के उचित ढंग से निर्वाह के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक ने अपने काल में हर कार्य के लिए तार्किक और प्रशंसनीय नीति अपनाता था ताकि ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे अपने दायित्व का निर्वाह उचित ढंग से किया जा सके।

इन महापुरूषों के जीवन में ईश्वर पर केन्द्रियता उनका मूल मंत्र रही। इस प्रकार न्याय को लागू करने, ईश्वर के बिना किसी अन्य की दासता से मनुष्यों को मुक्ति दिलाने और व्यक्तिगत एवं समाजिक संबन्धों में सुधार जैसे विषयों पर उनका विशेष ध्यान था।

यद्यपि यह महापुरूष बहुत छोटे और सीमित कालखण्ड में ही सरकार के गठन में सफल रहे किंतु उनकी दृष्टि में न्याय को स्थापित करने, अधिकारों को दिलवाने, अन्याय को समाप्त करने और ईश्वर के धर्म को फैलाने जैसे कार्य के लिए सत्ता एक माध्यम है। क्योंकि यह महापुरूष अपनी करनी तथा कथनी में मानवता और नैतिक मूल्यों का उदाहरण थे अतः वे लोगों के हृदयों पर राज किया करते थे। रजब जैसे अनुकंपाओं वाले महीने की दसवीं तारीख़, पैग़म्बरे इस्लाम के एक परिजन के शुभ जन्मदिवस से सुसज्जित है।

आज के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एसे परिजन का जन्म दिवस है जो दान-दक्षिणा के कारण जवाद के उपनाम से जाने जाते थे। जवाब का अर्थ होता है अतिदानी। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था। वे बचपन से ही ज्ञान, तत्वदर्शिता, शालीनता और अन्य विशेषताओं में अद्वितीय थे।

इमाम मुहम्मद तक़ी के ईश्वरीय मार्गदर्शन के काल में अब्बासी शासन के दो शासक गुज़रे मामून और मोतसिम। क्योंकि अब्बासी शासक, इस्लामी शिक्षाओं को लागू करने में गंभीर नहीं थे और वे केवल "ज़वाहिर" को ही देखते थे अतः यह शासक, धर्म के नियमों में परिवर्तन करने और उसमें नई बातें डालने के लिए प्रयासरत रहते थे। इस प्रकार के व्यवहार के मुक़ाबले में इमाम जवाद (अ) की प्रतिक्रियाओं और उनके विरोध के कारण व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और यही विषय, अब्बासी शासन की ओर से इमाम और उनके अनुयाइयों को पीडि़त किये जाने का कारण बना।

 

पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य परिजनों की ही भांति इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम, अब्बासी शासकों के अत्याचारों और जनता को धोखा देने वाली उनकी कार्यवाहियों के मुक़ाबले में शांत नहीं बैठते और कठिनतम परिस्थितियों में भी जनता के समक्ष वास्तविकताओं को स्पष्ट किया करते थे। अत्याचार के मुक़ाबले में इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की दृढ़ता और वीरता, साथ ही उनकी वाकपुटा कुछ इस प्रकार थी जिसको सहन करने की शक्ति अब्बासी शासकों में नहीं थी। यही कारण है कि इन दुष्टों ने मात्र २५ वर्ष की आयु में इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को शहीद करवा दिया।इमाम जवाद अलैहिस्सलाम के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रयासों के आयामों में से एक, पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों के उन विश्वसनीय कथनों को प्रस्तुत करना और उन गूढ़ धार्मिक विषयों को पेश करना था जिनपर उन लोगों ने विभिन्न आयाम से प्रकाश डाला था।

इमाम जवाद अलैहिस्लाम एक ओर तो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों का वर्णन करते हुए समाज में धर्म की जीवनदाई संस्कृति और धार्मिक शिक्षाओं को प्रचलित कर रहे थे तो दूसरी ओर समय की आवश्यकता के अनुसार तथा जनता की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक क्षमता के अनुरूप विभिन्न विषयों पर भाषण दिया करते थे। ईश्वरीय आदेशों को लागू करने के लिए इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का एक उपाय या कार्य, पवित्र क़ुरआन और लोगों के बीच संपर्क स्थापित करना था।

उनका मानना था कि क़ुरआन की आयतों को समाज में प्रचलित किया जाए और मुसलमानों को अपनी कथनी-करनी और व्यवहार में पवित्र क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं से लाभान्वित होना चाहिए। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम ईश्वरीय इच्छा की प्राप्ति को लोक-परलोक में कल्याण की चाबी मानते थे। वे पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं के आधार पर इस बात पर बल दिया करते थे कि ईश्वर की प्रसन्नता हर वस्तु से सर्वोपरि है। ईश्वर सूरए तौबा की ७२वीं आयत में अपनी इच्छा को मोमिनों के लिए हर चीज़, यहां तक स्वर्ग से भी से बड़ा बताता है। इसी आधार पर इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम लोगों से कहते थे कि वे केवल ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के बारे में सोच-विचार करें और इस संदर्भ में वे अपने मार्गदर्शन प्रस्तुत करते थे। अपने मूल्यवान कथन में एक स्थान पर इमाम जवाद कहते हैं-तीन चीज़े ईश्वर की प्रसन्नता का कारण बनती हैं। पहले, ईश्वर से अधिक से अधिक प्रायश्यित करना दूसरे कृपालू होना और तीसरे अधिक दान देना।ईश्वरीय की ओर से मनुष्य को प्रदान की गई अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा, प्रायश्यित अर्थात अपने पापों के प्रति ईश्वर से क्षमा मांगना है।

प्रायश्चित, ईश्वर के दासों के लिए ईश्वर की अनुकंपाओं के द्वार में से एक है। ईश्वर से पापों का प्रायश्चित करने से पिछले पाप मिट जाते हैं और इससे मनुष्य को इस बात का पुनः सुअवसर प्राप्त होता है कि वह विगत की क्षतिपूर्ति करते हुए उचित कार्य करे और अपनी आत्मा को पवित्र एवं कोमल बनाए। इसी तर्क के आधार पर मनुष्य को तौबा या प्रायश्चित करने में विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पछतावा ही हाथ आता है। इस्तेग़फ़ार का अर्थ है क्षमाचायना और पश्चाताप।

इससे तात्पर्य यह है कि मनुष्य ईश्वर से चाहता है कि वह उसके पापों को क्षमा कर दे और उसे अपनी कृपा का पात्र बनाए। इस संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि धरती पर ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहने के केवल दो ही मार्ग थे। इन दोनों में से एक पैग़म्बरे इस्लाम का असितत्व था जो उनके स्वर्गवास के साथ हटा लिया गया किंतु दूसरा मार्ग प्रायश्यित है जो सबके लिए प्रलय के दिन तक मौजूद है अतः उससे लौ लगाओ और उसे पकड़ लो। प्रायश्चित, लोक-परलोक के उस प्रकोप को मनुष्य से दूर कर सकता है जो उसके बुरे कर्मों की स्वभाविक प्रतिक्रिया हैं इस प्रकार इमाम नक़ी के कथनानुसार मानव ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकता है। पवित्र क़ुरआन की आयतों की छाया में प्रायश्चित के महत्वपूर्ण प्रभावों में ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहना, पापों का प्रायश्चित, आजीविका में वृद्धि, संपन्नता तथा आयु में वृद्धि की ओर संकेत किया जा सकता है।

इमाम जवाद के अनुसार शालीतना उन अन्य उपायों में से है जिसके माध्यम से ईश्वरीय प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है।उसके पश्चात दूसरे और तीसरे भाग में मनुष्य को लोगों के साथ संपर्क के ढंग से परिचित कराते हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग ईश्वर के बंदों और उनकी सेवा से गुज़रता है। इस संपर्क को विनम्रता और दयालुता के साथ होना चाहिए।

निश्चित रूप से विनम्र व्यवहार विनम्रता का कारण बनता है जो मानव को घमण्ड से दूर रखता है। घमण्ड, दूसरों पर अत्याचार का कारण होता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम अपने भाषण के अन्तिम भाग में ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के तीसरे कारण को दान-दक्षिणा के रूप में परिचित करवाते हैं। स्वयं वे इस मानवीय विशेषता के प्रतीक थे। इसी आधार पर उन्हें जवाद अर्थात अत्यधिक दानी के नाम से जाना जाता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम लोगों को उस मार्ग का निमंत्रण देते थे जिसे उन्होंने स्वयं भी तय किया और उसके बहुत से प्रभावों को ईश्वर की कृपादृष्टि को आकृष्ट करने में अनुभव किया। दूसरों को सदक़ा या दान देने का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में बहुत से स्थान पर ईश्वर की प्रार्थना अर्थात नमाज़ के साथ किया गया है। इस प्रकार इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि ईश्वर की उपासना के दो प्रमुख पंख हैं। इनमें से एक ईश्वर के साथ सही एवं विनम्रतापूर्ण संबन्ध और दूसरा लोगों के साथ मधुर एवं विनम्रतापूर्ण व्यवहार है। यह कार्य दान से ही संभव होता है जिससे व्यक्ति ईश्वर की इच्छा प्राप्त कर सकात है।

मनुष्य अपनी संपत्ति में से जिस मात्रा में भी चाहे ईश्वर के मार्ग में वंचितों को दान कर सकता है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि दान-दक्षिणा में संतुलन होना चाहिए। एसा न हो कि यह मनुष्य के लिए निर्धन्ता का कारण बने। दान और परोपकार हर स्थिति में विशेषकर धन-दौलत का दान उन कार्यों में से एक है जो मनुष्य को ईश्वर की प्रसन्नता की ओर बढ़ाता है। क्योंकि मनुष्य के पास जो कुछ है उसे वह ईश्वर के मार्ग में दान दे सकता है। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के भौतिक लगाव को त्यागते हुए केवल ईश्वर की प्रशंसा की प्राप्ति चाहते हैं।इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के एक कथन से इस लेख का अंत कर रहे हैं।

जैसा कि आप जानते हैं कि बहुत से लोग धन-दौलत, सत्ता, जातिवाद तथा इसी प्रकार की बातों को गर्व और महानता का कारण मानते हैं तथा जिन लोगों में यह चीज़ें नहीं पाई जातीं उन्हें वे तुच्छ समझते हैं किंतु इमाम जवाद अलैहिस्सलाम वास्तविक शालीनता का कारण उस ज्ञान को मानते हैं जो व्यक्ति के भीतर निखार का कारण बने। वे महानता को आध्यात्मिक विशेषताओं में से मानते हैं।

एक स्थान पर आप कहते हैं-वास्तविक सज्जन वह व्यक्ति है जो ज्ञान से सुसज्जित हो और वास्तविक महानता उसी के लिए है जो ईश्वरीय भय और ईश्वरीय पहचान के मार्ग को अपनाए।

 

 

(1) इमाम अली रज़ा (अ.स) की शहादत के बाद मुखतलिफ शहरो से 80 ओलामा और दानिशमंद हज करने के लिये मक्का रवाना हुए। वो सफर के दौरान मदीना भी गए , ताकि इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) की ज़ियारत भी करलें। उन लोगो ने इमाम सादिक़ (अ.स) के एक खाली घर में क़याम किया।

इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) जो उस वक्त कमसिन थे। उन की बज़्म में तशरीफ लाए ,मौफिक़ ,नामी शख्स नें लोगों से आप का तारुफ कराया। सब ही ऐहतेराम में खड़े हो गए ,और सब ने आपको सलाम किया। उसके बाद उन लोगोनें सवालात करना शुरु किये। हज़रत ने हर एक का जवाब दिया (उस वाक़ए से हर एक को आपकी इमामत का मज़ीद यक़ीन हो गया) हर एक खुशहाल था। सब ने आपकी ताज़ीम की और आपके लिये दुआऐं कीं।

उनमें से एक शख्स इस्हाक़ भी थे जिस का बयान है कि मैंने एक ख़त में दस सवाल लिख लिये थे कि मौक़ा मिलने पर हज़रत से इस का जवाब चाहुंगा। अगर उन्होंने तमाम सवालों का जवाब दे दिया तो उस वक्त हज़रत से उस बात का तक़ाज़ा करुंगा कि वो मेरे हक़ में ये दुआ फरमाऐं कि मेरी ज़ौजा के हमल को खुदा फरज़ंद करार दे। नशिस्त काफी तूलानी हो गयी। लोग मुसलसल आपसे सवाल कर रहे थे और आप हर एक का जवाब दे रहे थे। ये सोच कर मैं उठा कि खत कल हज़रत की खिदमत में पेश करुंगा। इमाम की नज़र जैसे ही मुझ पर पड़ी इरशाद फरमायाः

इस्हाक़। खुदा ने मेरी दुआ क़ुबूल कर ली है। अपने फरज़ंद का नाम अहमद रखना।

मैंने कहाः खुदाया तेरा शुक्र , यक़ीनन यही हुज्जते खुदा हैं।

जब इस्हाक़ वतन वापस आया खुदा ने उसे एक फरज़ंद अता किया जिसका नाम उसने ,अहमद ,रखा।

(ऐवानुल मौजेज़ात , पेज न.109)

शियो के हालात का इल्म

(2) इमरान बिन मौहम्मद अशअरी का बयान है कि मैं हज़रत इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) की खिदमत में शरफयाब हुआ तमाम बातों के बाद इमाम से अर्ज़ किया कि।

उम्मुलहसन ने आपकी खिदमत में सलाम अर्ज़ किया है और ये दरख्वास्त की है कि आप अपना एक लिबास इनायत फरमाऐं जिसे वो अपना कफन बना सके।

इमाम ने फरमायाः वो इन चीज़ों से बेनियाज़ हो चुकी है।

मैं इमाम के इस जुम्ले का मतलब नहीं समझ सका। यहा तक की मुझ तक ये खबर पहुची कि जिस वक्त मैं इमाम की खिदमत में हाज़िर था उस से 13,14 रोज़ पहले ही उम्मुल हसन का इन्तेक़ाल हो चुका था।

(बिहारुल अनवार , जिल्द 50 , पेज न. 43 , खराइज रावंदी पेज न. 237)

लूट के माल की खबर होना

(3) अहमद बिन हदीद का बयान है कि एक काफिला के हमराह जा रहा था रास्ते में डाकूओं नें हमें घेर लिया (और हमारा सारा माल लूट लिया) जब हम लोग मदीना पहुचे एक गली में इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) से मुलाक़ात हुई। हम लोग उनके घर पहुचे और सारा वाक़ेआ बयान किया। इमाम (अ.स) ने हुक्म दिया और कपड़ा , पैसा हम को लाकर दिया गया। इमाम ने फरमायाः जितने पैसे ड़ाकू ले गए हैं उसी हिसाब से आपस में तक़सीम कर लो। हमने पैसा आपस में तक़सीम किया। मालूम ये हुआ कि जितना ड़ाकू ले गए थे उसी कद्र इमाम (अ.स) ने हमें दिया है। उस मिक़्दार से न कम था न ज़्यादा।

(बिहारुल अनवार , जिल्द 50 , पेज न. 44 , मुताबिक रिवायत खराइज रावंदी।)

इमाम का लिबास

(4) मौहम्मद बिन सहल क़ुम्मी का बयान है कि मै मक्के में मुजाविर हो गया था। वहा से मदीना गया और इमाम का मेहमान हुआ। मैं इमाम से उनका एक लिबास चाहता था मगर आखिर वक्त तक अपना मतलब बयान ना कर सका। मैंने अपने आप से कहाः अपनी इस ख्वाहिश को एक खत के ज़रिये इमाम की खिदमत में पेश करुं और मैने यही किया। उसके बाद मैं मस्जिदे नबवी चला गया और वहा ये तय किया की दो रकत नमाज़ बजा लाऊं और खुदा वंदे आलम से 100 मर्तबा तलब खैर करुं। उस वक्त अगर दिल ने गवाही दी तो खत इमाम की खिदमत में पेश करुंगा। वरना इस को फाड़ कर फेंक दूंगा।।।मेरे दिल ने गवाही नहीं दी ,मैंने खत फाड़ कर फेंक दिया और मक्का की तरफ रवाना हो गया।।।।रास्ते मे मैंने एक शख्स को देखा जिसके हाथ मे रुमाल है जिस्में एक लिबास है और वो शख्स काफिला में मुझे तलाश कर रहा है।जब वो मुझ तक पौंहचा तो कहने लगाः तुम्हारे मौला ने ये लिबास तुम्हारे लिये भेजा है।

 

(खराइज रावंदी , पेज न. 237 , बिहारुल अनवार जिल्द 50 , पेज न. 44।)

(5) दरख्त पर फलो का आ जाना

मामून ने इमाम (अ.स) को बग़दाद बुलाया और अपनी बेटी से आपकी शादी की। लेकिन आप बग़दाद में ठहरे नहीं और अपनी बीवी के साथ मदीना वापस आ गये।

जिस वक्त इमाम मदीना वापस हो रहे थे। उस वक्त काफी लोग आप को विदा करने के लिये शहर के दरवाज़े तक आपके साथ आए और खुदा हाफिज़ कहा।

मग़रिब के वक्त आप ऐसी जगह पहुचे जहा एक पुरानी मस्जिद थी। नमाज़े मग़रिब के लिये इमाम (अ.स) उस मस्जिद में तशरीफ ले गए। मस्जिद के सहन में एक बेर का दरख्त था जिस पर आज तक फल नहीं आए थे। इमाम (अ.स) ने पानी तलब किया और उस दरख्त के नीचे वुज़ु फरमाया और जमाअत के साथ मगरिब की नमाज़ अदा फरमाई। उसके बाद आपने चार रकत नमाज़े नाफेला पढ़ी। उसके बाद आप सज्दए शुक्र बजा लाए और आपने तमाम लोगों को रुख्सत कर दिया।

दूसरे ही दिन उस दरख्त में फल आ गए और बेहतरीन फल ये देख कर लोगों को बहुत तआज्जुब हुआ।

(नूरुल अबसार शबलनजी , पेज न. 179 , ऐहक़ाक़ुल हक , जिल्द 12 पेज न. 424 , काफी , जिल्द न. 1 , पेज न. 497 , इर्शाद मुफीद , पेज न. 304 ,मुनाक़िब ,जिल्द न. 4 , पेज न. 390)

जनाब शैख मुफीद अलैहिर्रहमा का बयान है कि इस वाकए के बरसों बाद मैनें खुद उस दरख्त को देखा और उस का फल खाया।

(6) इमाम रज़ा (अ.स) की शहादत का ऐलान

उमय्या बिन अली का बयान है कि जिस वक्त इमाम रज़ा (अ.स) खुरासान में तशरीफ फरमा थे उस वक्त मैं मदीने में ज़िन्दगी बसर कर रहा था और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के घर मेरा आना जाना था। इमाम के रिशतेदार आम-तौर से सलाम करने इमाम (अ.स) की खिदमत में हाज़िर होते थे। एक दिन इमाम (अ.स) ने कनीज़ से कहाः उन (औरतों) से कह दो अज़ादारी के लिये तैय्यार हो जाऐ। इमाम (अ.स) ने एक बार फिर इस बात की ताकीद फरमाई कि वो लोग अज़ादारी के लिये आमादा हो जाऐं।

लोगों ने दरयाफ्त कियाः किस की अज़ादारी के लिये।

फरमायाः रुए ज़मीन के सबसे बेहतरीन इन्सान के लिये।

कुछ अर्से के बाद इमाम रज़ा (अ.स) की शहादत की खबर मदीना आई। मालूम हुआ कि उसी दिन इमाम रज़ा (अ.स) की शहादत वाके हुई है जिस दिन इमाम (अ.स) ने फरमाया था कि अज़ादारी के लिये तैय्यार हो जाओ।

(आलामुलवरा , पेज न. 334)

(7) ऐतराफे क़ाज़ी

क़ज़ी याहिया बिन अक्सम , जो खान्दाने रिसालत व इमामत के सख्त दुशमनों में था। उस ने खुद इस बात का ऐतराफ किया है कि एक दिन रसूले खुदा (स.अ.वा.व) की क़ब्रे मुताहर के नज़दीक इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) को देखा उनसे कहा खुदा की क़सम। मैं कुछ बातें आप से दरयाफ्त करना चाहता हुं लेकिन मुझे शर्म महसूस हो रही है।

इमाम (अ.स) ने फरमायाः सवाल के बगैंर तुम्हारी बातों के जवाब दे दूंगा। तुम ये दरयाफ्त करना चाहते हो कि इमाम कौन है।

मैने कहाः खुदा की क़सम यही दरयाफ्त करना चाहता था।

फरमायाः मैं इमाम हुं ,

मैने कहाः इस बात पर कोई दलील है।

उस वक्त वो असा जो इमाम के हाथों मे था। वो गोया हुआ और उसने कहाः ये मेरे मौला हैं इस ज़माने के इमाम हैं और खुदा की हुज्जत है।

(क़ाफी , जिल्द 1 , पेज न. 353 , बिहारुल अनवार , जिल्द 50 , पेज न. 68)

 (8) पड़ौसी की नजात

अली बिन जरीर का बयान है कि मैं इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) की खिदमते अक़दस में हाज़िर था। इमाम के घर की एक बकरी ग़ायब हो गई थी। एक पडौसी को चोरी के इल्ज़ाम में खेंचते हुऐ इमाम (अ.स) की खिदमत में लाए।

इमाम ने फरमायाः

अफसोस हो तुम पर इसको आज़ाद करो इसने बकरी नहीं चुराई है। बकरी इस वक्त फलॉ घर में है जाओ वहा से ले आओ।

इमाम (अ.स) ने जहा बताया था वहा गए और बकरी को ले आए और घर वाले को चोरी के इल्ज़ाम मे गिरफ्तार किया। उस की पिटाई की उसका लिबास फाड़ ङाला और वो क़सम खा रहा था कि उसने बकरी नहीं चुराई है। उस शख्स को इमाम की खिदमत मे लाए।

इमाम ने फरमायाः वाए हो तुम पर। तुम ने इस शख्स पर ज़ुल्म किया। बकरी खुद इसके घर मे चली गयी थी। उसको खबर भी न थी।

उस वक्त इमाम ने उसकी दिलजोई के लिये और उसके नुक़सान को पूरा करने के लिये एक रक़म उसको अता फरमाई।

(बिहारुल अनवार , जिल्द 50 ,पेज न. 47 , खराइज रावंदी की रिवायत के मुताबिक)

(9) क़ैद की रेहाई

अली बिन खालिद , का बयान है कि सामर्रा मे मुझे ये ऐत्तेला मिली कि एक शख्स को शाम से गिरफतार करके यहा लाए हैं और क़ैद खाना में उसको क़ैद कर रखा है। मशहूर है कि ये शख्स नबुवत का मुददई है।

मैं क़ैदखाना गया। दरबान से नेहायत नर्मी और ऐहतराम से पेश आया। यहा तक की मैं उस क़ैदी तक पहुंच गया। वो शख्स मुझे बाहम और अक़्लमंद नज़र आया। मैने उससे दरयाफ्त किया कि तुम्हारा क्या किस्सा है।

कहने लगाः शाम मे एक जगह है जिसको रासुल हुसैन कहते हैं (जहा इमाम हुसैन (अ.स) का सरे मुक़द्दस रखा गया था) मैं वहा इबादत किया करता था। एक रात जब मैं ज़िक्रे इलाही मे मसरूफ था। एक-दम एक शख्स को अपने सामने पाया। उसने मुझ से कहा खड़े हो जाओ।

मै खड़ा हो गया। उसके साथ चन्द कदम चला। देखता क्या हुं कि मसिज्दे कूफा में हुं। उसने मुझ से पूछाः इस मस्जिद को पहचानते हो।

मैने कहाः हाँ ये मस्जिदे कूफा है।

वहा हमने नमाज़ पढ़ी फिर हम वहा से बाहर चले आए। फिर थोड़ी दूर चले थे कि देखा मदीना मे मसिज्दे नबवी मे हुं। रसूले अकरम की क़ब्रे अतहर की ज़ियारत की मसिज्द मे नमाज़ पढ़ी। फिर वहा से चले आए फिर चन्द कदम चले देखा कि मक्का मे मौजूद हुं। खानए क़ाबा का तवाफ किया और बाहर चले आए फिर चन्द कदम चले तो अपने को शाम मे उसी जगह पाया जहा। मैं इबादत कर रहा था और वो शख्स मेरी नज़रों से पोशीदा हो गया।

जो कुछ देखा था। वो मेरे लिये काफी ताअज्जुब खैज़ था। यहा तक की इस वाकऐ को कई साल गुज़र गया। एक साल बाद वो शख्स फिर आया। गुज़िशता साल की तरह इस मर्तबा भी वही सब वाकेआत पेश आए। लेकिन इस मर्तबा जब वो जाने लगा तो मैने उस को क़सम देकर पूछाः आप कौन हैं।

 

फरमायाः मौहम्मद बिन अली बिन मूसा बिन जाफर बिन मौहम्मद बिन अली इब्नुल हुसैन बिन अली इब्ने अबितालिब हुं।

ये वाकेआ मैने बाज़ लोगों से बयान किया उसकी खबर मोतसिम अब्बासी के वज़ीर मौहम्मद बिन अब्दुल मलिक ज़यात तक पहुची। उसने मेरी गिरफ्तारी का हुक्म दिया जिस की बना पर मुझे क़ैद करके यहा लाया गया है। झूठों ने ये खबर फैला दी कि मैं नबूवत का दावेदार हुं।

अली बिन खालिद का बयान है कि मैने उससे कहा कि अगर तुम इजाज़त दो तो सही हालात ज़यात को लिख कर भेजु ताकि वो सही हालात से बा खबर हो जाए।

वो कहने लगाः लिखो।

मैने सारा वाकेआ ज़यात को लिखा। उसने इसी खत की पुश्त पर जवाब लिखा कि उससे कहो कि जो शख्स एक शब मे उसे शाम से कूफा , मदीना और मक्का ले गया और वापस ले आया , उसी से रेहाई तलब करे।

ये जवाब सुन कर मै बहुत रन्जीदा हुआ। दूसरे दिन मै क़ैदखाना गया ताकि उसे सब्रो शुक्र की तल्कीन करुं और उसका हौसला बढ़ाऊं।

 जब वहा पहुचा तो देखा दरबान और दूसरे अफराद परेशान हाल नज़र आ रहे हैं। दरयाफ्त किया कि वजह किया है।

कहने लगे जो शख्स पैग़म्बरी का दावेदार था वो कल रात क़ैद खाना से नहीं मालूम किस तरह बाहर चला गया। ज़मीन मे धंस गया या आसमान मे उड़ गया। मुसलसल तलाश के बाद भी उसका कोई पता ना चला।

(इर्शाद मुफीद ,पेज न. 304 , आलामुल वुरा , पेज न. 332 , ऐहक़ाक़ुल हक़ , जि 12 , पेज न. 427 , अलफसूलुल मुहिम्मा , पेज न. 289)

अबासलत की रिहाई

(10) अबासलत हरवी इमाम रज़ा (अ.स) के मुकर्रब तरीन असहाब मे से थे इमाम रज़ा (अ.स) की शहादत के बाद मामून के हुक्म से आप को कैद कर दिया गया।

आप का बयान है कि एक साल तक कैदखाना मे रहा। आजिज़ आ गया एक रात सारी रात दुआ इबादत मे मशग़ूल रहा। पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) और अहलेबैत (अ.स) को अपने मसाएल के सिलसिले मे वास्ता क़रार देकर खुदा से दुआ मॉगी कि मुझे रेहाई अता फरमाऐ। अभी मेरी दुआ तमात भी न होने पाई थी कि देखा इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) मेरे पास मौजूद हैं। मुझ से फरमायाः ऐ अबासलत क्या क़ैद आजिज़ आ गये।

अर्ज़ कियाः ऐ मौला हा आजिज़ आ गया हु।

फरमायाः उठो आपने ज़न्जीरों पर हाथ फेरा। उसके सारे हल्के खुल गए। उन्होंने मेरा हाथ पकड़ा और क़ैद खाना से बाहर ले आए। दरबानो ने मुझे देखा मगर हज़रत के रोअबो जलाल से किसी मे ज़बान खोलने की सकत नहीं थी। जब इमाम मुझे बाहर ले आए तो मुझ से फरमायाः जाओ खुदा हाफिज़ अब न मामून तुम्हे देखेगा और ना तुम ही उसको देखोगे। जैसा इमाम (अ.स) ने फरमाया था वैसा ही हुआ।

(मुन्तहल आमाल सवानेह उम्री हज़रत इमाम रज़ा (अ.स) , पेज न. 67 , उयूने अखबार , जिल्द 2 , पेज न. 247 , बिहारुल अनवार , जिल्द 49 , पेज न. 303)

(11) मोतसिम अब्बासी की नशिस्त

ज़रक़ान , जो इब्ने अबी दाऊद (इब्ने अबी दाऊद ,मामून ,मोतसिम ,वातिक़ और मुतावक्किल के ज़माने मे बग़दाद के क़ाज़ीयों मे था।) का गहरा दोस्त था। उसका बयान है कि एक दिन इब्ने अबी दाऊद , मोतसिम की बज़्म से रन्जीदा वापस आ रहा था। मैने रन्जीदगी का सबब दरयाफ्त किया कहने लगाः ऐ काश मै बीस साल पहले मर गया होता।

पूछाः आखिर क्युं।

 कहा आज मोतसिम की बज़्म मे अबु जाफर इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) से जो सदमा मुझे पहुचा है।

पूछाः माजरा क्या है।

कहाः एक शख्स ने चोरी का एतराफ किया और मोतसिम से ये तकाज़ा किया कि वो हद जारी करके उसे पाक करदे मोतसिम ने तमाम फोक़हा को जमा किया उनमें मौहम्मद बिन अली इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) भी थे मोतसिम ने हमसे पूछा चोर का हाथ कहा से काटा जाए।

मैने कहाः कलाई से।

पूछा उसकी दलील क्या है।

मैने कहाः आयते तमय्युम मे हाथ का इत्लाक़ कलाई तक हुआ है।

अपने चेहरे और हाथों का मसह करो। कलाई तक हाथ का इत्लाक़ हुआ है। इस मसअले मे फोक़हा की एक जमाअत मेरे मवाफिक़ थी। सब का कौल यही था कि चोर का हाथ कलाई से काटा जाए। लेकिन दूसरे फोक़हा का नज़रिया ये था कि चोर का हाथ कोहनी से काटा जाए। मोतसिम ने उनसे दलील तलब की उन्होंने कहा आयये वुज़ु में हाथ का इत्लाक़ कोहनी तक हुआ है।

अपने चेहरों को धोओ और हाथों को कोहनियों तक यहा कोहनी तक हाथ का इत्लाक़ हुआ है।

उस वक्त मोतसिम ने मौहम्मद बिन अली (इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) की तरफ रुख किया और पूछा कि इस मसअले मे आपकी क्या राए है।

फरमायाः इन लोगों ने अपने नज़रयात बयान कर दिये हैं। मुझे माफ रखो।

मोतसिम ने बहुत इसरार किया और कसम दे कर कहा कि आप अपना नज़रिया ज़रूर बयान फरमाइये।

फरमायाः चूंकि तुमने कसम दी है लेहाज़ा सुनो ये सब लोग गलती पर हैं। चोर की सिर्फ चार ऊगलिया काटी जाऐगी।

मोतसिम ने दरयाफ्त किया कि इस की दलील किया है।

फरमायाः रसूले खुदा (स.अ.व.व) का इर्शाद है कि सजदा सात आज़ा पर वाजिब हैः पेशानी , हाथ की हथेलिया , दोनो घुटने और पाँव के दोनो अंगूठे।

लेहाज़ा अगर कलाई या कोहनी से चोर का हाथ काटा जाए तो वो सज्दा किस तरह करेगा और खुदा वंदे आलम का इर्शाद है।

जिन सात आज़ा पर सज्दा वाजिब है। वो सब खुदा के लिये हैं। खुदा के साथ किसी और की इबादत ना करो और जो चीज़ खुदा के लिये हो वो काटी नहीं जा सकती है।

इब्ने अबी दाऊद का कहना है कि मोतसिम ने आप का जवाब पसंद किया और हुक्म दिया कि चोर की सिर्फ चार ऊगलिया ही काटी जाएं और सब के सामने हम सब की आबरु चली गयी। उस वक्त मैने (शर्म के मारे) मौत की तमन्ना की।

(तफसीर अय्याशी , जिल्द 1 , पेज न. 319 , बिहारुल अनवार , जिल्द 50 ,पेज न. 5)

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की तरह हमारे आइम्मा अलैहिमुस्सलाम भी लोगों की तालीमो तर्बियत मे हमेशा कोशीश करते रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का तरीकाऐ तालीम और तरबियत को तालीमी और तरबियती इदारो की सरगर्मियों पर क्यास नहीं किया जा सकता है। तालीमी इदारे खास औक़ात में तालीम देते हैं और बकीया औकात मोअत्तल रहते हैं। लेकिन आइम्मा अलैहेमुस्सलाम की तालीमो तरबियत के लिये कोई खास वक्त मोअय्यन नहीं था। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम लोगों की तालीमो तरबियत मे मसरूफ रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का हर गोशा , उन की रफ्तारो गुफ्तार , अवाम की तर्बियत का बेहतरीन ज़रिया था। जब भी कोई मुलाक़ात का शरफ हासिल करता था। वो आइम्मा के किरदार से फायदा हासिल करता था और मजलिस से कुछ न कुछ ले कर उठता था। अगर कोई सवाल करना चाहता था तो उसका जवाब दिया जाता था।

वाज़ेह रहे कि इस तरह का कोई मदरसा दुनिया मे कहीं मौजूद नहीं है। इस तरह का मदरसा तो सिर्फ अम्बिया अलैहेमुस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है ज़ाहिर सी बात है कि इस तरह के मदरसे के असारात फायदे और नताएज बहुत ज़्यादा ताज्जुब खैज़ हैं। बनी अब्बास के खलीफा ये जानते थे कि अगर अवाम को इस मदरसा की खुसूसियात का इल्म हो गया और वो उस तरफ मुतावज्जेह हो गए तो वो खुद-बखुद आइम्मा अलैहिमुस्सलाम की तरफ खिंचते चले जाएगे और इस सूरत मे ग़ासिबों की हुकूमत खतरो से दो-चार हो जाएगी। इस लिये खलीफा हमेशा ये कोशिश करते रहे कि अवाम को आइम्मा अलैहेमुस्सलाम को दूर रखा जाए और उन्हे नज़्दीक न होने दिया जाए। सिर्फ इमाम मौहम्मद बाक़िर (अ.स) के ज़माने मे जब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की हुकूमत थी और इमाम जाफर सादिक़ (अ.स) के इब्तेदाई दौर में जब बनी उमय्या और बनी अब्बास आपस मे लड़ रहे थे और बनी अब्बास ने ताज़ा ताज़ा हुकूमत हासिल की थी और हुकूमत मुस्तहकम नहीं हुई थी। उस वक्त अवाम को इतना मौका मिल गया कि वो आज़ादी से अहलेबैत से इस्तेफादा कर सकें। लेहाज़ा हम देखते हैं कि इस मुख्तसर सी मुद्दत में शागिर्दों और रावियों की तादाद चार हज़ार तक पहुंच गयी।

( रेजाल शैख तूसी , पेज न 142 , 342 )

लेकिन इसके अलावा बक़िया आइम्मा के ज़मानो मे शागिर्दों की तादाद बहुत कम नज़र आती है। मसलन इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के शागिर्दों और रावियों की तादाद 110 है।

(रेजाल शैख तूसी , पेज न. 397 , 409)

इससे ये पता चलता है कि इस दौर मे अवाम को इमाम (अ.स) से कितना दूर रखा जाता था। लेकिन इस मुख्तसर सी तादाद में भी नुमाया अफराद नज़र आते हैं। यहा नमूने के तौर पर चन्द का ज़िक्र करते हैः

अली बिन महज़ियार

इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और इमाम के वकील थे। आप का शुमार इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम अली नक़ी (अ.स) के असहाब मे भी होता है। बहुत ज़्यादा इबादत करते थे , सजदे की बना पर पूरी पेशानी पर घट्टे पड़ गए थे। तोलूवे आफताब के वक्त सर सजदे मे रखते और जब तक एक हज़ार मोमिनो के लिये दुआ न कर लेते थे। उस वक्त तक सर ना उठाते थे। और जो दुआ अपने लिये करते थे वही उन के लिये भी।

अली बिन महज़ियार अहवाज़ मे रहते थे , आप ने 30 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं।

ईमानो अमल के उस बुलन्द मर्तबे पर फाएज़ थे कि एक मर्तबा इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आप की कद्रदानी करते हुए आप को एक खत लिखाः

बिसमिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम

ऐ अली। खुदा तुम्हे बेहतरीन अज्र अता फर्माए , बहिश्त मे तुम्हे जगह दे दुनियाओ आखेरत की रुसवाई से महफूज़ रखे और आखेरत मे हमारे साथ तुम्हे महशूर करे। ऐ अली। मैंने तुम्हे उमूर खैर , इताअत , एहतराम और वाजेबात की अदाएगी के सिलसिले मे आज़माया है। मैं ये कहने मे हक़ बजानिब हुं कि तुम्हारा जैसा कहीं नहीं पाया। खुदा वंदे आलम बहिश्ते फिरदोस मे तुम्हारा अज्र करार दे। मुझे मालूम है कि तुम गर्मियों , सर्दियों और दिन रात क्या क्या खिदमत अन्जाम देते हो। खुदा से दुआ करता हूं कि जब रोज़े कयामत सब लोग जमा होंगे उस वक्त रहमते खास तुम्हारे शामिले हाल करे। इस तरह कि दूसरे तुम्हे देख कर रश्क करें। बेशक वो दुआओ का सुनने वाला है।

(ग़ैबत शैख तूसी पेज न. 225 , बिहारुल अनवार जिल्द 50 पेज न. 105)

अहमद बिन मौहम्मद अबी नस्र बरनती

कूफे के रहने वाले इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और उन दोनो इमामो के नज़्दीक अज़ीम मन्ज़ेलत रखते थे , आपने बहुत-सी किताबें तहरीर की। जिनमे एक किताब अल जामेआ है। ओलामा के नज़्दीक आपकी फिक्ही बसीरत मशहूर है। फोक़्हा आप के नज़रयात को एहतरामो इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं।

(मोअज्जिम रेजाल अल हदीस जिल्द 2 पेज न. 237 वा रेजाल कशी पेज न. 558)

आप उन तीन आदमियों मे हैं जो इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे शरफयाब हुए और इमाम ने उन लोगो को खास इज़्ज़तो एहतराम से नवाज़ा।

ज़करया बिन आदम कुम्मी

शहरे क़ुम मे आज भी उनका मज़ार मौजूद है। इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के खास असहाब मे से थे। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आपके लिये दुआ फर्मायी। आपको इमाम (अ.स) के बावफा असहाब मे शुमार किया जाता है।

(रजाल कशी पेज न. 503)

एक मर्तबा इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुए। सुब्ह तक इमाम ने बातें की। एक शख्स ने इमाम रज़ा (अ.स) से दर्याफ्त कियाः मैं दूर रहता हूं और हर वक्त आपकी खिदमत मे हाज़िर नहीं हो सकता हूं। मैं अपने दीनी एहकाम किससे दर्याफ्त करुं।

(मुन्तहल आमाल सवानेह उमरी इमाम रज़ा (अ.स) पेज न. 85)

फर्मायाः ज़कर्या बिन आदम से अपने दीनी अहकाम हासिल करो। वो दीनो दुनिया के मामले मे अमीन है।

(रिजाल कशी पेज न. 595)

मौहम्मद बिन इस्माईल बिन बज़ी

इमाम मूसा काज़िम , इमाम रज़ा और इमाम मौहम्मद तक़ी अलैहिमुस्सलाम के असहाब मे ओलामा शिया के नज़्दीक मोअर्रिद एतमाद ,बुलंद किरदार और इबादत गुज़ार थे। मोतदिद किताबें तहरीर की हैं। बनी अब्बास के दरबार मे काम करते थे।

(रिजाले नजाशी पेज न. 254)

इस सिलसिले मे इमाम रज़ा (अ.स) ने आपसे फर्मायाः

सितमगारों के दरबार मे खुदा ने ऐसे बंदे मुअय्यन किये हैं। जिन के ज़रीये वो अपनी दलील और हुज्जत को ज़ाहिर करता है। उन्हे शहरों मे ताकत अता करता है ताकि उनके ज़रीये अपने दोस्तो को सितमगारों के ज़ुल्मो जौर से महफूज़ रखे। मुसलमानो के मामलात की इस्लाह हो। ऐसे लोग हवादिस और खतरात मे साहेबाने ईमान की पनाहगाह हैं। हमारे परेशान हाल शिया उन की तरफ रुख करते हैं और अपनी मुश्किलात का हल उन से तलब करते हैं। ऐसे अफराद के ज़रिये खुदा मोमिनो को खौफ से महफूज़ रखता है। ये लोग हक़ीकी मोमिन हैं। ज़मीन पर खुदा के अमीन हैं। उन के नूर से क़यामत नूरानी होगी। खुदा की क़सम ये बहिश्त के लिये और बहिश्त इन के लिये है। नेमतें इन्हें मुबारक हों।

उस वक्त इमाम (अ.स) ने फर्मायाः तुममे से जो चाहे इन मक़ामात को हासिल कर सकता है।

मौहम्मद बिन इस्माईल ने अर्ज़ किया। आप पर क़ुर्बान हो जाऊ। किस तरह हासिल कर सकता हूं।

इमाम ने फर्मायाः सितमगारों के साथ रहे। हमें खुश करने के लिये हमारे शियों को खुश करे। (यानी जिस ओहदा और मनसब पर हो। उस का मकसद मोमिनो से ज़ुल्मो सितम दूर करना हो।)

मौहम्मद बिन इस्माईल ,जो बनी अब्बास के दरबार मे वज़ारत के ओहदे पर फाएज़ थे। इमाम ने आखिर में उन से फर्मायाः ऐ मौहम्मद। तुम भी इन मे शामिल हो जाओ।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

हुसैन बिन खालिद का बयान है कि एक गिरोह के हमराह इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुआ। दौरान गुफ्तगू मौहम्मद बिन इस्माईल का ज़िक्र आया। इमाम (अ.स) ने फर्मायाः मैं चाहता हूं कि तुममे ऐसे अफराद हों।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

मौहम्मद बिन अहमद याहिया का बयान है कि मैं , मौहम्मद बिन अली बिन बिलाल , के हमराह मौहम्मद बिन इस्माईल बज़ी की कब्र की ज़ियारत को गया।मौहम्मद बिन अली कब्र के किनारे क़िबला रुख बैठे और फर्माया कि साहिबे क़ब्र ने मुझ से बयान किया कि इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने फर्मायाः जो शख्स अपने बरादर मोमिन की क़ब्र की ज़ियारत को जाए , क़िबला रुख बैठे और क़ब्र पर हाथ रख कर 7 मर्तबा सूरह इन्ना अन्ज़लना की तेलावत करे , खुदा वंदे आलम उसे क़यामत की परेशानियों और मुशकलात से नजात देगा।

(रेजाल कशी पेज न. 564)

मौहम्मद बिन इस्माईल की रिवायत है कि मैने इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) से एक लिबास की दरख्वास्त की कि अपना एक लिबास मुझे इनायत फर्माए ताकि उसे अपना कफन करार दूं। इमाम ने लिबास मुझे अता फर्माया और फर्मायाः इस के बटन निकाल लो।

(रेजाल कशी पेज न. 245-564)

मौला हज़रत अली असगर (अ) का 10 रजब, 60 हिजरी को जन्म हुआ। हज़रत उम्मे रबाब की शाखे तमन्ना पर जो कली मुस्कुराई, उसने हकीमे कर्बला के होठों पर मुस्कान बिखेरी; खानदाने इस्मत व तहारत मे शमे फ़रहत व मुसर्रत रोशन हो गई।

लेखक: मौलाना गुलज़ार जाफ़री

मौला हज़रत अली असगर (अ) का 10 रजब, 60 हिजरी को जन्म हुआ। हज़रत उम्मे रबाब की शाखे तमन्ना पर जो कली मुस्कुराई, उसने हकीमे कर्बला के होठों पर मुस्कान बिखेरी; खानदाने इस्मत व तहारत मे शमे फ़रहत व मुसर्रत रोशन हो गई। सभी नौजवानों और रईसों के चेहरे खिल गए, कर्बला की धरती को सबसे कम उम्र का शहीद मिला, वो शहजादा जिसकी पलकों पर इस्लाम धर्म का खौफ सजता था, अपनी मुस्कुराहट के साथ इस दुनिया में कदम रखता है और करीब 18 दिन बाद, जब इस्मत का यह कारवां अपने सफर पर निकला तो हकीमे कर्बला ने भी कर्बला की महान त्रासदी के लिए एक 18 दिन के निहत्थे सगीर को चुना, कारण यह था कि किसी भी विभाग में कोई भी आदेश तब तक स्वीकार्य नहीं होता जब तक उस पर छोटी सी मुहर न हो। मुहर होती तो छोटी सी है, लेकिन पूरे कागज़ का ऐतेबार बढ़ाती है। शायद इसीलिए हुसैन इब्न अली (अ) हज़रत अली असगर (अ) को अपने साथ ले गए थे, ताकि अली के नाम की आखिरी मुहर बन सके शहादत की सूची को स्वीकार करने के लिए मुहर का छोटा होना आवश्यक था, इसलिए अली असगर को अंत में पेश करके हुसैन (अ) ने उनके नाम पर हस्ताक्षर किए और इस तरह शहादत की सूची को स्वीकार करने की गारंटी हज़रत बाब अल-हवाईज के नहीफ कंधों पर रखी गई थी।

यह ज्ञान और अंतर्दृष्टि वाले लोगों के लिए, कलम और कागज़ वाले लोगों के लिए, चेतना और भावना वाले लोगों के लिए चिंतन का क्षण है; हज़रत अली असगर (अ) के बाब अल-हवाइज की तरह ब्रह्मांड में किसी भी व्यक्ति की आयु इतनी छोटी और इतनी गहरी और रहस्यमयी नहीं होगी। उम्र कम है, बुद्धि और ज्ञान आश्चर्य और विस्मय में खो गए हैं, कलम विचारों में व्याकुल है। चेतना की झीलों में एक अजीब सी उछाल है, उड़ती कल्पना प्रेम और जुनून के अंतरिक्ष में उड़ने में असमर्थ लगती है, विचारों की घाटी में एक अजीब सी खामोशी है, जब एक छोटा बच्चा, एक शिशु, एक ऐसे बच्चे का अनमोल जीवन नष्ट कर देता है जिसके वली के माथे पर उसके साहस की टूटन में "शक्ति, क्रूरता और बर्बरता" के शब्द लिखे होते हैं। जिसकी आँखों में सफलता और उपलब्धि की चमक देखी जा सकती है। गालों की लालिमा इस्लाम की नसों में बहते खून के प्रवाह का प्रतीक है। उसके सूखे होंठ शरिया की सर्वोच्चता को व्यक्त करते हैं। उसके छोटे हाथों की तहों के माध्यम से इस्लामी आस्था की सुंदरता और भव्यता देखी जा सकती है। उसकी भुजाएँ हैं इस्लाम की ताकत का अंदाजा उसकी ताकत से लगाया जा सकता है। इसकी मुबारक गर्दन पर लगा तीर शहादत की शमा का प्रतीक है जिसे किसी भी दौर की कोई बुराई नहीं बुझा सकती। इसने शहादत की शमा को अपनी मुबारक गर्दन के खून से भर दिया और आग लगा दी। आने वाली पीढ़ियों के लिए क़यामत के दिन तक शहादत का जुनून। उन्होंने आकांक्षाओं को पोषित किया, और उनके होठों पर मुस्कान ने जीवन के वृक्ष को प्रकट किया।

यह पहला अवसर था कि मृत्यु के माथे पर पसीना था, तीन नुकीले तीर अपनी लंबाई के बावजूद बौने लग रहे थे, धनुर्धर का कौशल और चालाकी धरती पर दिखाई दे रही थी, मुस्कुराते हुए शहज़ादे ने शहादत की बाहों में हथियार डाल दिए। महानता, शहादत और अनंत जीवन की निश्चितता का संदेश मानवता के लोगों के मन तक पहुँचाया गया। कर्बला की त्रासदी से परिचित हर विवेकशील व्यक्ति इस शहादत की शाश्वतता, स्थायित्व और अनित्यता को जानता है, जिसके खून की बूंदें मासूमियत का चेहरा प्रकट करती हैं, जिसकी लाली कर्बला के बुद्धिमान व्यक्ति को आशूरा की रात से लेकर ईद के दिन तक शर्मिंदा कर देती है। आशूरा, जो पालता है मैं शहादत के जुनून में अपनी भटकती चेतना को जगाता रहा हूँ, और नैनवा के रेगिस्तान में, अपने खून की धारा से आज़ादी के शब्द लिखकर, मैं इस धूल को उपचार की धूल में बदल देता हूँ, और फिर यह धूल आसमान के सातों पर्दों को फाड़ देती है और आसमान को चीर देती है। हां, रजब के दस दिनों से लेकर मुहर्रम के आशूरा तक जो लोग जिंदगी में नहीं चले, उनके पदचिह्न आज भी ज्ञान के विद्यालयों में जीवन के प्रतीक बने हुए हैं।

होठों की खामोशी से वाणी की नदियाँ बह निकलीं; हुस्न और नज़ाकत की दौलत ने हिदायत, रहमत और रहमत का सोता छोड़ा। एड़ियाँ घिसीं मगर ज़मज़म का चश्मा न फूटा। प्यास ने शहादत की शमा जलाई। अमल में आने की कोशिश कामयाब न हो सकी, मगर इस एहसास के बिना , प्रयास को कागज पर स्वीकार्य नहीं लिखा जा सकता।

ज़मज़म की बज़्म इबादत का विकास है, लेकिन नैनवा के मैदान पर शहादत का चढ़ना इसकी जगह है। माथे पर जोश का तीर तीन दिशाओं से शहादत का शब्द है, होठों पर मुस्कान की निशानी सबूत है, कर्बला शहादत का प्रतीक है और अली असगर (अ) का छोटा जीवन इसका सबूत है। रहस्यमय प्रभाव विचारशील लोगों के लिए चिंता का विषय हैं।

अल्लाह हमें सोचने, समझने और कार्य करने की क्षमता प्रदान करें।

हज़रत अली असगर (अ) के शुभ जन्म दिवस पर सभी मवालीयान ए हैदर कर्रार को बधाई!

नजफ अशरफ में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद अबू अल-कासिम रजावी की जामेअतुल इमाम अमीर अल-मोमिनिन (अ) नजफी हाउस के छात्रों के साथ बैठक।

ऑस्ट्रेलिया के प्रसिद्ध धर्मगुरु और उपदेशक और मेलबर्न के इमाम जुमा, ऑस्ट्रेलिया के शिया उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष, हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद अबू अल-कासिम रिज़वी ने हाल ही में इराक की यात्रा के दौरान नजफ़ अशरफ़ में जामेअतुल इमाम अमीर अल-मोमिनिन (अ) नजफी हाउस के छात्रों से मुलाकात की।

यह बैठक एक आध्यात्मिक और शैक्षणिक सत्र के रूप में आयोजित की गई, जहां मौलाना सैयद अबुल कासिम रिजवी ने छात्रों को संबोधित किया और धर्म के प्रचार के महत्व और आवश्यकताओं पर प्रकाश डाला। उन्होंने कहा, "धर्म का प्रचार करना केवल कर्तव्य नहीं बल्कि पैगम्बरों और इमामों की विरासत है और हमें इसे पूरी जिम्मेदारी और ईमानदारी के साथ निभाना चाहिए।"

 मौलाना ने अपने भाषण की शुरुआत दिवंगत शिक्षकों हुज्जतुल इस्लाम वा मुस्लेमीन शेख नासिरी और हुज्जतुल इस्लाम वा इस्माइल रजबी के लिए फातेहा पढ़कर की। मौलाना रिजवी ने मृतकों की क्षमा के लिए प्रार्थना की और उनकी विद्वत्तापूर्ण एवं मिशनरी सेवाओं के प्रति श्रद्धांजलि अर्पित की।

उन्होंने छात्रों को सलाह दी कि "शिक्षकों का सम्मान ज्ञान के आशीर्वाद का कारण है, और प्रत्येक छात्र के लिए शिक्षक का सम्मान और आदर करना अनिवार्य है। अल्लाह, रसूल और इमामों ने शिक्षक की भूमिका को महत्व दिया है, और हमें भी उनका अनुसरण करना चाहिए।" "हमें उनके पदचिन्हों पर चलना चाहिए।"

बैठक के दौरान मौलाना अबू अल-कासिम रिजवी ने छात्रों के सवालों के जवाब भी दिए और उनसे धर्म की सेवा के लिए अपना जीवन समर्पित करने का आग्रह किया।

अंत में मौलाना ने दुआ की कि अल्लाह तआला मृतक को दया के दायरे में स्थान प्रदान करें तथा वर्तमान छात्रों को ज्ञान और कर्म के मार्ग पर सफलता प्रदान करें।

 

यह बैठक विद्यार्थियों के लिए एक यादगार अवसर साबित हुई, जिसने उन्हें धर्म प्रचार के क्षेत्र में और अधिक लगन व समर्पण से काम करने का संकल्प दिलाया।