
رضوی
अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी उर्दू ज़बान के अल्लामा मजलिसी थे,
नई दिल्ली में “जलसा-ए-तौकीर-ए-तकरीम” नामक अंतर्राष्ट्रीय शैक्षणिक सत्र में अल्लामा ज़ीशान हैदर जवादी ताबा सराह की 25वीं बरसी पर श्रद्धांजलि अर्पित की गई।
नई दिल्ली की एक रिपोर्ट के अनुसार/ इस्लामी विचारक और पवित्र कुरान के मुफ़स्सिर अल्लामा सय्यद जीशान हैदर जवादी ताबा सराह की 25वीं बरसी के अवसर पर, विलायत फाउंडेशन, अल्लामा जवादी के कार्यों के प्रकाशन और संरक्षण संस्थान और तंजीमुल मुकातिब द्वारा ऐवान-ए-ग़ालिब, नई दिल्ली में “जलसा-ए-तौकीर-ए-तकरीम” नामक एक अंतरराष्ट्रीय शैक्षणिक सम्मेलन का आयोजन किया गया।
बैठक की अध्यक्षता हजरत आयतुल्लाह मोहसिन क़ुमी ने की। विशेष अतिथियों में भारत के सर्वोच्च नेता के पूर्व प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अका महदी महदवी (म द), और भारत मे सर्वोच्च नेता के नए प्रतिनिधि हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन अब्दुल मजीद हकीम इलाही (म), हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन सय्यद कमाल हुसैनी, तथा ऑस्ट्रेलिया के शिया उलेमा काउंसिल के अध्यक्ष मौलाना सय्यद अबुल कासिम रिजवी शामिल थे, जो न केवल विशेष अतिथि के रूप में शामिल हुए, बल्कि भाषण भी दिया।
आस्ट्रेलिया के मेलबर्न स्थित इमाम जुमा ने अल्लामा जवादी को उर्दू का अल्लामा मजलिसी घोषित किया और उन्होंने अपना भाषण सूर ए यासीन की आयत न 21 से शुरू करते हुए कहा कि अल्लामा जीशान हैदर जवादी के समय में काम में बरकत थी, कर्म में बरकत थी, कलम में बरकत थी, आंदोलन में बरकत थी। अल्लामा बहुत धन्य थे। उनका जीवन 22 रजब को शुरू हुआ और आशूरा के दिन मजलिस के बाद उन्होंने अंतिम सांस ली। ऐसा जीवन जिसका सपना केवल मनुष्य ही देख सकता है। अल्लाह ने उनके आमाल को स्वीकार किया और उन्हें 63 वर्ष का जीवन प्रदान किया।
उन्होंने आगे कहा कि यह हम सभी के लिए गर्व की बात है, जैसा कि फिराक गोरखपुरी ने कहा, जिन्होंने अल्लामा जवादी के कार्यकाल को देखा और उनके भाषणों से लाभ उठाया।
आने वाली पीढ़ियाँ आप पर गर्व करेंगी, हम अस्र
जब भी उनको ध्यान आएगा कि तुमने फ़िराक को देखा है।
अल्लामा एक जीनीयस थे, वे एक living legend थे, उनकी छवि हर जगह है, वे क़ौम के सम्मान और गरिमा थे।
14 देशों के नागरिकों के लिए सऊदी अरब ने उमराह वीज़ा पर प्रतिबंध लगाया
सऊदी अरब ने 14 देशों के लिए वीज़ा जारी करना निलंबित कर दिया है, जिससे तीखी प्रतिक्रिया समाने आ रही है।
सऊदी अरब ने इंडोनेशिया, अल्जीरिया, मिस्र, नाइजीरिया, इथियोपिया, ट्यूनीशिया, भारत, बांग्लादेश और पाकिस्तान सहित 14 देशों के नागरिकों के लिए उमराह, पारिवारिक यात्रा और व्यावसायिक वीजा जारी करने को 2025 हज सीजन के अंत तक निलंबित कर दिया है।
वीज़ा जारी करने पर अचानक रोक लगाने का उद्देश्य अनधिकृत प्रवेश को रोकना और आगामी धार्मिक समारोहों के दौरान भीड़ को नियंत्रित करना है।
सऊदी अधिकारियों ने घोषणा की है कि यह प्रतिबंध एक अस्थायी उपाय है और सुरक्षा तथा रसद दक्षता सुनिश्चित करने के लिए उठाया गया है, विशेष रूप से 2024 में हुई एक दुखद घटना के बाद, जिसमें भीड़भाड़ और अत्यधिक गर्मी के कारण एक हजार से अधिक लोग मारे गए थे।
यह नए प्रतिबंध जो जून 2025 के मध्य तक लागू रहेंगे, हाल के वर्षों में सऊदी अरब द्वारा लगाए गए सबसे सख्त वीज़ा उपायों में से एक हैं।
इस कदम से एशिया और अफ्रीका के लाखों तीर्थयात्रियों और यात्रियों के लिए गंभीर व्यवधान उत्पन्न हो गया है, तथा दुनिया भर में यात्रा योजनाएं, उड़ान बुकिंग और धार्मिक तीर्थयात्राएं पहले से ही बाधित हो रही हैं। स्थानीय मीडिया सूत्रों और राजनयिक चैनलों के अनुसार, यह निलंबन एक अस्थायी उपाय है और हज सीजन के अंत तक जारी रहेगा।
सऊदी अधिकारियों ने स्पष्ट किया है कि यह वीज़ा प्रतिबंध कोई दंडात्मक उपाय नहीं है, बल्कि सार्वजनिक सुरक्षा बनाए रखने के लिए एक निवारक प्रतिक्रिया है, विशेष रूप से 2024 के हज आपदा के बाद, जिसमें भीड़भाड़ और अत्यधिक गर्मी के कारण एक हजार से अधिक तीर्थयात्रियों की मृत्यु हो गई थी।
10 ब्रिटिश नागरिकों पर ग़ज़्ज़ा में युद्ध अपराध का आरोप लगा
फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र ने इस बात पर जोर दिया कि इजरायली हमलों को आत्मरक्षा कहना फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का लाइसेंस है। ब्रिटिश सरकार को भी कानून का शासन कायम रखना चाहिए।
एक प्रमुख वकील और कानूनी जांच दल ने ब्रिटिश राजधानी लंदन में मेट्रोपॉलिटन पुलिस को एक व्यापक रिपोर्ट प्रस्तुत की, जिसमें 10 ब्रिटिश नागरिकों पर घेरे गए गाजा पट्टी में युद्ध अपराधों में शामिल होने का आरोप लगाया गया। सोमवार को प्रस्तुत की गई 240 पृष्ठों की रिपोर्ट, प्रमुख ब्रिटिश मानवाधिकार वकील माइकल मैन्सफील्ड के.सी. और हेग स्थित शोधकर्ताओं की एक टीम द्वारा तैयार की गई थी, तथा इसे मेट्रोपॉलिटन पुलिस आतंकवाद-रोधी कमान की युद्ध अपराध टीम के समक्ष प्रस्तुत किया गया। यह अनुरोध फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र और ब्रिटेन स्थित पब्लिक इंटरेस्ट लॉ सेंटर (पीआईएलसी) द्वारा किया गया था, जो गाजा और ब्रिटेन में फिलीस्तीनियों का प्रतिनिधित्व करता है।
यह अपनी तरह की पहली रिपोर्ट है जो गाजा में गंभीर अपराधों में ब्रिटिश नागरिकों की कथित संलिप्तता के बारे में विस्तृत, पूर्ण शोध और ठोस सबूत उपलब्ध कराती है। इसमें विशेष रूप से 10 ब्रिटिश संदिग्धों की पहचान की गई है तथा इजरायली सेना द्वारा किए गए "युद्ध अपराधों और मानवता के विरुद्ध अपराधों" में उनकी संलिप्तता के साक्ष्य प्रस्तुत किए गए हैं। रिपोर्ट में ब्रिटिश नागरिकों की जांच की मांग की गई है, जिसका उद्देश्य गिरफ्तारी वारंट जारी करना तथा ब्रिटिश अदालतों में उन पर मुकदमा चलाना है। यह कदम अंतर्राष्ट्रीय कानूनी समूह ग्लोबल 195 की स्थापना और अपील के बाद उठाया गया है, जो फिलिस्तीन में कथित युद्ध अपराधों के लिए जवाबदेही की मांग कर रहा है।
रिपोर्ट प्रस्तुत करने से पहले कानूनी टीम ने स्कॉटलैंड यार्ड के बाहर पत्रकारों से बात की। पीआईएलसी के कानूनी निदेशक पॉल हेरॉन ने कहा कि यह रिपोर्ट छह महीने की अवधि में एकत्र किये गए व्यापक साक्ष्य पर आधारित है। हमने मेट्रोपॉलिटन पुलिस की युद्ध अपराध टीम को सौंपी अपनी याचिका में पूर्ण एवं शीघ्र जांच तथा आपराधिक मुकदमा चलाने की मांग की है। उन्होंने कहा कि युद्ध अपराधों और मानवता के खिलाफ अपराधों में हत्या, जानबूझकर फिलिस्तीनियों को बहुत दर्द पहुंचाना, गंभीर चोट पहुंचाना और उनके साथ क्रूर व्यवहार करना, नागरिकों पर हमले, जबरन स्थानांतरण और निर्वासन, मानवीय कर्मियों पर हमले और फिलिस्तीनी लोगों के खिलाफ इजरायली सेना की कार्रवाई से संबंधित उत्पीड़न शामिल हैं। उन्होंने कहा कि चूंकि इजरायल पिछले 14 दिनों से गाजा में अपना नया आक्रमण जारी रखे हुए है, इसलिए यह अनुरोध इससे अधिक सामयिक नहीं हो सकता था।
फिलीस्तीनी मानवाधिकार केंद्र (पीसीएचआर) के निदेशक राजी सोरानी ने इस बात पर जोर दिया कि इजरायली हमलों को आत्मरक्षा कहना फिलीस्तीनी नागरिकों को मारने का लाइसेंस है। इजरायली हमलों में अमेरिका, ब्रिटेन और यूरोप की मिलीभगत का आरोप लगाते हुए सोरानी ने कहा कि अभी भी इजरायल को हथियार भेजे जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि ब्रिटिश सरकार को कानून का शासन कायम रखना चाहिए।
हालांकि, यूके लॉयर्स फॉर इजराइल (यूकेएलएफआई) के जोनाथन टर्नर ने कहा कि यह रिपोर्ट महज एक "प्रचार स्टंट" है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि कथित अपराध अंतर्राष्ट्रीय आपराधिक न्यायालय के अभियोजक के मुख्य आरोपों से भिन्न हैं, जिसमें कहा गया था कि इजरायल ने युद्ध के हथियार के रूप में भुखमरी का इस्तेमाल किया।" इजरायल समर्थक एनजीओ मॉनिटर के कानूनी सलाहकार ऐनी हर्ज़बर्ग ने दावा किया कि यह रिपोर्ट ब्रिटेन में रहने वाले यहूदियों को डराने का एक प्रयास है।
क्या पैग़म्बरे इस्लाम पर सलाम पढ़ना शिर्क है?
आज के युग में यह वहाबी टोला और उसके साथियों ने क़सम खा रखी है कि मुसलमानों की हर आस्था और उनके हर विश्वास पर टिप्पणी अवश्य करेंगे चाहे वह सही हो या न हो, और कितने आश्चर्य की बात है कि यह सब करने के बाद भी यह वहाबी अपने आप को मुसलमान कहते हैं,
इनके इन्हीं बेबुनियाद ऐतेराज़ों में से एक पैग़म्बर और औलिया पर सलाम पढ़ना है, यह कहते हैं कि अगर कोई मुसलमान पैग़म्बर पर सलाम भेज रहा है तो यह अनेकेश्वरवाद है और वह शिर्क कर रहा है, (जब्कि यह लोग भूल जाते हैं कि हर मुसलमान अपनी नमाज़ों में कम से कम पांच समय पैग़म्बर पर अवश्य सलाम भेजता है)
अगरचे इन हबाबियों के सामने क़ुरआन की आयतों का पढ़ना ऐसा ही है जैसे भैंस के आगे बीन बजाना, लेकिन फिर भी हम यहां पर क़ुरआन से वह दलीले प्रस्तुत करने जा रहे हैं जो यह बताती हैं कि न केवल यह शिर्क नहीं है बल्कि यही सच्चा इस्लाम है, और यह दलीले देने का हमारा मक़सद केवल यही है कि अगर हमारा कोई मुसलमान भाई मुसलमानों की सूरत रखने वाले इन वहाबियों की ज़हरीली बातों से प्रभावित हो गया हो, या जिसको इस बारे में जानकारी न हो उसके सामने वास्तविक्ता रौशन हो जाए।
क्या पैग़म्बरे इस्लाम और नेक बंदों पर सलाम पढ़ना शिर्क है?
अगर ऐसा है तो ईश्वर न करें सारे मुसलमान...
क्या क़ुरआन नहीं फरमा रहा हैः
وَسَلَامٌ عَلَيْهِ يَوْمَ وُلِدَ وَيَوْمَ يَمُوتُ وَيَوْمَ يُبْعَثُ حَيًّا (सुरा मरयम आयत 15)
और सलाम हो यहया पर जिस दिन वह पैदा हुए और जब मरेगें और जिस दिन दोबारा जीवित किए जाएंगे
سَلَامٌ عَلَىٰ مُوسَىٰ وَهَارُونَ
(अलसाफ़्फ़ात आयत 120)
सलाम हो मूसा और हारून पर
فَسَلَامٌ لَّكَ مِنْ أَصْحَابِ الْيَمِينِ
(अलवाक़ेआ आयत 91)
तो सलाम हो तुम पर कि तुम असहाबे यमीन में से हो
यह आयतें साफ़ बता रही हैं कि नबियों पर सलाम करना कोई शिर्क नहीं है तो अगर एक आम नबी पर सलाम करना क़ुरआन के अनुसार शिर्क नहीं है तो वह पैग़म्बर जो सबसे बड़ा नबी है, वह नबी जिसको ईश्वर ने ख़ुद अपना हबीब कहा है उसपर सलाम करना शिर्क कैसे हो सकता है?।
अब अगर इन आयतों को देखने के बाद भी कोई यह मानने को तैयार नहीं है कि सलाम भेजना शिर्क नहीं है तो उससे हमारा प्रश्न है कि
क्या क़ुरआन हमको शिर्क करना सिखा रहा है?
क्या शिया पैग़म्बर और अहलेबैत की ज़ियारत के समय इसके अतिरिक्त कुछ और कहते हैं कि
सलाम हो पैग़म्बर और एबादे सालेहीन पर।
अब हम इन वहाबियों जो कि भेड़ की खाल में छिपे भेड़िये हैं से कुछ प्रश्न करते हैं
वहाबियत जो ज़ियारत का विरोध करती है उसकी दलील क्या है?
क्या यह लोग भी यज़ीद की भाति पैग़म्बर के अहलेबैत को इस्लाम के बाहर मानते हैं?
क्या यह लोग शहीदों को जिन्हें क़ुरआन जीवित मानता है विश्वास नहीं रखते हैं?
क्या यह लोग पैग़म्बर की शहीदों से भी कम मानते हैं?
क्या यह लोग क़ुरआन की इन आयतें पर ईमान नहीं रखते हैं?
क्या यह लोग भी मैटेरियालिस्टों की भाति मौत को समाप्त हो जाना मानते हैं?
यह लोग क़ुरआन के इस वाक्य السلام علیک ایها النبی.. के बारे में क्या कहेंगे?
क्या नमाज़ में السلام علیک ایها النبی.. बेकार हैं?
कुरआने करीम मे इमामो के नाम
ने इस मे हर चीज़ को बयान किया है जैसा कि कुरआने करीम मे इरशाद हुआ हैः
” وَ نَزَّلْنا عَلَیْکَ الْکِتابَ تِبْیاناً لِکُلِّ شَیْءٍ
हमने आप पर किताब नाजिल की है जिस मे हर चीज़ की वज़ाहत मौजूद है।
(सूराऐ नहल आयत न. 89)
ما فَرَّطْنا فِی الْکِتابِ مِنْ شَیْءٍ“
हमने किताब मे किसी चीज़ के बयान मे कोई कमी नही की।
(सूराऐ इनआम आयत न. 38)
और नहजुल बलाग़ा मे भी इस बात का ज़िक्र हुआ हैः
وفی القرآن نباٴ ما قبلکم وخبر ما بعدکم و حکم ما بینکم
किताबे खुदा मे गुज़रे और आने वाले ज़माने की खबरे और ज़रूरत के अहकाम मौजूद है।
अहले सुन्नत ने भी मशहूर सहाबी इब्ने मसऊद से नक्ल किया है कि वो कहते है कुरआने करीम मे अव्वलीन व आखेरीन का इल्म है।
इस के बावजूद हम मुख्तलिफ जुज़ई अहकाम को देखते है कि जो कुरआने करीम मे नही मिलते है जैसे नमाज़ की रकअतो की तादाद, ज़कात की जिंस और निसाब, मनासिके हज, सफा व मरवा मे सई की तादाद, तवाफ की तादाद और इस्लामी हदो, क़ज़ावत के मामलात और शराएत और इमामो के नाम वग़ैरा।
बाज़ अहलेसुन्नत या वहाबी इन बातो की तरफ तवज्जो किये बिना जो कुरआने करीम मे बयान नही हुई है, इस मसले को पेश करते है कि हज़रत अली (अ.स.) का नाम कुरआने करीम मे क्यो नही आया।
और इस तरह वो कोशिश करते है कि इस मसले से शियो के विलायत और इमामत के दावे के खिलाफ इस्तेफादा करें।
लेकिन ये इस मकाले से ये बात साबित होती है कि हर चीज़ का नाम कुरआन मे नही है इसी लिऐ अहले सुन्नत का ये दावा ग़लत है कि अगर तुम्हारे इमाम हकीकी है तो उनका नाम कुरआन मे क्यो नही आया है।
क़ुरआन मे तहरीफ नही हुई
क़ुरआन की फेरबदल से सुरक्षा
पैगम्बरों और र्इश्वरीय दूतो के उद्देश्यों की पूर्ति के लिए यह आवश्यक था कि र्इश्वरीय संदेश सही अवस्था और बिना किसी फेर-बदल के लोगों तक पहुँचाऐ ताकि लोग अपना लोक-परलोक बनाने के लिए उससे लाभ उठा सकें।
इस आधार पर, लोगों तक पहुँचने से पूर्व तक क़ुरआने करीम का हर प्रकार के परिर्वतन से सुरक्षित रहना अन्य सभी र्इश्वरीय पुस्तकों की भाँति चर्चा का विषय नही है किंतु जैसा कि हमे मालूम है अन्य र्इश्वरीय किताबें लोगों के हाथों में आने के बाद थोड़ी बहुत बदल दी गयीं या कुछ दिनों बाद उन्हे पुर्ण रूप से भूला दिया गया जैसा कि हज़रत नूह और हजरत इब्राहीम (अ.स) की किताबों का कोर्इ पता नही हैं और हज़रत मूसा व हज़रत र्इसा (अ.स) की किताबो के मूल रूप को बदल दिया गया हैं।
इस बात के दृष्टिगत, यह प्रश्न उठता हैं कि हमें यह कैसे ज्ञात है कि अंतिम र्इश्वरीय संदेश के नाम पर जो किताब हमारे हाथो में है यह वही क़ुरआन है जिसे पैगम्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) पर उतारा गया था और आज तक उसमे किसी भी प्रकार का फेर-बदल नही किया गया और न ही उसमे कोर्इ चीज़ बढार्इ या घटार्इ गई।
जबकि जिन लोगों को इस्लामी इतिहास का थोड़ा भी ज्ञान होगा और क़ुरआन की सुरक्षा पर पैगम्बर इस्लाम और उन के उत्तराधिकारयों द्वारा दिए जाने वाले विशेष ध्यान के बारे मे पता होगा तथा मुसलमानो के मध्य क़ुरआन की सुरक्षा के बारे में पाई जाने वाली संवेदनशीलता की जानकारी होगी तो वह इस किताब में किसी प्रकार के परिवर्तन की संभावना का इन्कार बड़ी सरलता से कर देगा। क्योकि इतिहासिक तथ्यो के अनुसार केवल एक ही युध्द में क़ुरआन को पूरी तरह से याद कर लेने वाले सत्तर लोग शहीद हुए थे। इससे क़ुरआन के स्मंरण की परपंरा का पता चलता है जो निश्चित रूप से क़ुरआन की सुरक्षा में अत्याधिक प्रभावी है। इस प्रकार गत चौदह सौ वर्षो के दौरान क़ुरआन की सुरक्षा में किए गये उपाय, उस की आयतो और शब्दो की गिनती आदि जैसे काम भी इस संवेदनशीलता के सूचक हैं। किंतु इस प्रकार के विश्वस्त ऐतिहासिक प्रमाणो से हटकर भी बौध्दिक व ऐतिहासिक तथ्यों पर आधारित एक तर्क द्रवारा क़ुरआन की सुरक्षा को सिध्द किया जा सकता है अर्थात सबसे पहले क़ुरआन में किसी विषय की वृध्दि को बौध्दिक तर्क द्रवारा सिध्द किया जा सकता है और जब यह सिध्द हो जाए कि वर्तमान क़ुरआन ईश्वर की ओर से भेजा गया है तो उसकी आयतो को प्रमाण बना कर सिध्द किया जा सकता है कि उसमे से कोई वस्तु कम भी नही हुई है।
इस प्रकार से हम क़ुरआन मे फेर-बदल न होने को दो अलग- अलग भागो मे सिध्द करेगें।
1.क़ुरआन में कुछ बढाया नही गया हैं
इस विषय पर मुसलमानों के सभी गुट सहमत हैं बल्कि विश्व के सभी जानकार लोगों ने भी इसकी पुष्टि की है और कोई भी ऐसी घटना नही घटी हैं जिस के अन्तर्गत क़ुरआन में जबरदस्ती कुछ बढाना पड़ा हो और इस प्रकार की संभावना का कोई प्रमाण भी मौजूद नही है।किंतु इसी के साथ क़ुरआन में किसी वस्तु के बढ़ाए जाने की संभावना को बौध्दिक तर्क से भी इस प्रकार रद्द किया जा सकता हैः
अगर यह मान लिया जाए कि कोई एक पूरा विषय क़ुरआन में बढ़ा दिया गया हैं तो फिर उसका अर्थ यह होगा कि क़ुरआन जैसी रचना दूसरे के लिए संभव है किंतु यह संभावना क़ुरआन के चमत्कारी पहलू और क़ुरआन का जवाब लाने में मनुष्य की अक्षमता से मेल नही खाती। और यह अगर मान लिया जाए कि कोई एक शब्द या एक छोटी-सी आयत उसमे बढा दी गयी हैं तो उसका अर्थ यह होगा कि क़ुरआन की व्यवस्था व ढॉचा बिगढ़ गया जिस का अर्थ होगा कि क़ुरआन में वाक्यों के मध्य तालमेल का जो चमत्कारी पहलू था वह समाप्त हो गया है और इस दशा में यह भी सिध्द हो जाएगा कि क़ुरआन में शब्दो की बनावट और व्यवस्था का जवाब लाना संभव हैं क्योंकि क़ुरआनी शब्दो का एक चमत्कार शब्दों का चयन तथा उनके मध्य संबंध भी है और उन में किसी भी प्रकार का परिवर्तन, उसके खराब होने का कारण बन जाऐगा।
तो फिर जिस तर्क के अंतर्गत क़ुरआन के मौजिज़ा होने को सिध्द किया गया था उसका सुरक्षित रहना भी उन्ही तर्को व प्रमाणो के आधार पर सिध्द होता है किंतु जहाँ तक इस बात का प्रश्न है कि क़ुरआन से किसी एक सूरे को इस प्रकार से नही निकाला गया है कि दूसरी आयतों पर उसका कोई प्रभाव ना पड़े तो इसके लिए एक अन्य तर्क की आवश्यकता है।
- क़ुरआन से कुछ कम नही हुआ हैं
शिया और सुन्नी समुदाय के बड़े बड़े धर्म गुरूओं ने इस बात पर बल दिया है कि जिस तरह से क़ुरआन में कोई चीज़ बढ़ाई नही गयी है उसी तरह से उसमें से किसी वस्तु को कम भी नही किया गया है। और इस बात को सिध्द करने के लिए उन्होने बहुत से प्रमाण पेश किये हैं किंतु खेद की बात है कि कुछ गढ़े हुए कथनों तथा कुछ सही कथनों की गलत समझ के आधार पर कुछ लोगों ने यह संभावना प्रकट की है बल्कि बल दिया है कि क़ुरआन से कुछ आयतों को हटा दिया गया है।
किंतु क़ुरआन में किसी भी प्रकार के फेर बदल न होने के बारे में ठोस ऐतिहासिक प्रमाणों के अतिरिक्त स्वंय क़ुरआन द्वारा भी उसमें से किसी वस्तु के कम होने को सिध्द किया जा सकता हैं।
अर्थात जब यह सिध्द हो गया कि इस समय मौजूद क़ुरआन ईश्वर का संदेश है और उसमें कोई चीज़ बढ़ाई नही गयी है तो फिर क़ुरआन की आयतें ठोस प्रमाण हो जाएगी। और क़ुरआन की आयतों से यह सिध्द होता है कि ईश्वर ने अन्य ईश्वरीय किताबों को विपरीत कि जिन्हे लोगों को सौंप दिया गया था, क़ुरआन की सुरक्षा की ज़िम्मेदारी स्वंय ली हैं।
उदाहरण स्वरूप सुरए हिज्र की आयत 9 में कहा गया हैः
إِنَّا نَحْنُ نَزَّلْنَا الذِّكْرَ وَإِنَّا لَهُ لَحَافِظُونَ
निश्चित रूप से स्मरण(1) को उतारा है और हम ही उसकी सुरक्षा करने वाले हैं।
यह आयत दो भागों पर आधारित है। पहला यह कि हम ने क़ुरआन को उतारा है जिससे यह सिध्द होता है कि क़ुरआन ईश्वरीय संदेश है और जब उसे उतारा जा रहा था तो उसमें किसी प्रकार का फेर-बदल नही हुआ और दूसरा भाग वह है जिस में कहा गया हैं वह अरबी व्याकरण की दृष्टि से निरतरंता को दर्शाता है अर्थात ईश्वर सदैव क़ुरआन की सुरक्षा करने वाला हैं।
यह आयत हाँलाकि क़ुरआन में किसी वस्तु की वृध्दि न होने को भी प्रमाणित करती है किंतु इस आयत को क़ुरआन मे किसी प्रकार की कमी के न होने के लिऐ प्रयोग करना इस आशय से है कि अगर क़ुरआन मे किसी विषय के बढ़ाऐ न जाने के लिऐ इस आयत को प्रयोग किया जाऐगा तो हो सकता है यह कल्पना की जाऐ कि स्वंय यही आयत बढ़ाई हुई हो सकती है इस लिऐ हमने क़ुरआन मे किसी वस्तु के बढ़ाऐ न जाने को दूसरे तर्को और प्रमाणो से सिध्द किया है और इस आयत को क़ुरआन मे किसी वस्तु के कम न होने को सिध्द करने के लिऐ प्रयोग किया है। इस प्रकार से क़ुरआन मे हर प्रकार के फेरबदल की संभावना समाप्त हो जाती है।
अंत मे इस ओर संकेत भी आवश्यक है कि क़ुरआन के परिवर्तन व बदलाव के सुरक्षित होने का अर्थ ये नही है कि जहाँ भी क़ुरआन की कोई प्रति होगी वह निश्चित रूप से सही और हर प्रकार की लिपि की ग़लती से भी सुरक्षित होगी या ये कि निश्चित रूप उसकी आयतो और सूरो का क्रम भी बिल्कुल सही होगा तथा उसके अर्थो की किसी भी रूप मे ग़लत व्याख्या नही की गई होगी।
बल्कि इसका अर्थ ये है कि क़ुरआन कुछ इस प्रकार से मानव समाज मे बाक़ी रहेगा कि वास्तविकता के खोजी उसकी सभी आयतो को उसी प्रकार से प्राप्त कर सकते है जैसे वह ईश्वर द्वारा भेजी गई थी।इस आधार पर क़ुरआन की किसी प्रति में मानवीय गलतियों का होना हमारी इस चर्चा के विपरीत नही हैं।
(1) यहाँ पर क़ुरआन के लिऐ ज़िक्र का शब्द प्रयोग किया गया है जिसका अर्थ स्मरण और आशय क़ुरआन है।
इस्लाम में मुतआ और चार शादियों का स्थान
और कहते हैं कि मुतआ मर्दों की शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति और अलग अलग महिला की चाहत के लिए हलाल किया गया है और यह एक प्रकार की अशलीलता है।
हम को यह याद रखना चाहिए कि इस्लाम ने इन्सानी समाज को एक आदर्श स्थिति दी है और वह चाहता है कि किसी भी सूरत में इन्सानी समाज की व्यवस्था भंग न होने पाए, और इसके लिए आवश्यक है कि समाज के हर व्यक्ति की हर आवश्यकता को पूरा किया जाए।
इस्लाम यह चाहता है कि समाज में कोई एक भी स्त्री अविवाहित न रह जाए इसीलिए इस्लाम ने कई शादियों और मुतआ के बारे में फ़रमाया है।
लोग यह समझते हैं कि यह मुतआ केवल मर्द को ध्यान में रखते हुए और उसकी इच्छाओं की पूर्ति के लिए रखा गया है लेकिन अगर घ्यान से देखा जाए तो यह मुतआ और कई शादियों का समअला महिलाओं के हक़ में है और उनके इससे अधिक लाभ है।
क्योंकि यह एक वास्तविक्ता है कि इस समाज की हम महिला की तीन आवश्यकताएं होती हैं
- शारीरिक आवश्यकता
- आत्मिक आवश्यकता
- आर्थिक आवश्यकता
और इन आवश्यकताओं की पूर्ति का सबसे बेहतरीन रास्ता शादि या मुतआ है, क्योंकि अगर कोई महिला शादी ता मुतआ करती है तो उसकी शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति सही और हलाल तरीक़े से हो जाती है लेकिन अगर कोई महिला शादी या मुतआ न करे तो वह अपनी इस आवश्यकता को पूरा करने के लिए या तो बहुत मुत्तक़ी हो जाए जो कि बहुत ही कठिन है या फिर ग़लत रास्ते पर चल पड़े जिससे स्वंय उसको भी हानि होगी और उस समाज को भी।
दूसरी आत्मिक आवश्यकता है जब कोई महिला किसी रिश्ते में होती है तो वह रिश्ता उसकी आत्मिक आवश्यकताओं को भी पूरा करता है लेकिन अगर महिला शादी न करे तो वह डिप्रेस्ड हो जाएगी और अनःता उसको हास्पिटल जाना पड़ेगा।
तीसरी और सबसे महत्वपूर्ण आवश्यकता आर्थिक है, और इसका भी हल शादी से हो जाता है कि जब कोई महिला शादी करती है तो इसके भरण पोषण का ख़र्चा उसके पति पर वाजिब होता है, लेकिन अगर इस्लाम के इस क़ानून को स्वीकार न किया जाए तो उस महिला को नौकरी आदि करनी होगी जिसकी अनपी समस्याएं है जिनको उनके स्थान पर बयान किया जाएगा।
यह बता सदैव ध्यान रखना चाहिए कि इस्लाम इस समाज की किसी भी महिला को अविवाहित नहीं देखना चाहता है और मुतआ एवं कई शादियों की बात केवल वहीं पर व्यवहारिक है जब किसी समाज में महिलाओं की संख्या पुरुषों से अधिक हो अगर किसी समाज में पुरुष 1000 और महिलाएं उससे 1200 हों तो अंत में 200 महिलाएं अविवाहित रह जाएंगी और अगर हम कई शादियों या मुतआ को हराम कर दें तो इन 200 महिलाओं की ऊपर बताई गई तीनों आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला कोई नहीं होगा, और पूर्ती न होने की सूरत में ऊपर बताए गए नुक़साना को उठाना पड़ेगा, इसलिए आवश्यक है कि हम कई शादियों या मुतआ को हलाल मानें।
और एक बात यह भी है कि बहुत संभव है कि यह 200 महिलाएं जो पुरुषों से अधिक हैं उनमें से कुछ की आयु उस सीमा को पहुंच चुकी हो कि जब कोई आदमी उनसे शादी न करना चाहे या उनकी सूरत शकल ऐसी हो कि शादी के लिए कोई उनको न मिले, लेकिन उनकी तीनों आवश्यकताएं अपने स्थान पर बाक़ी हैं, इसलिए अगर हम मुतआ को हलाल मान लें जिसको इस्लाम ने बताया है तो बहुत संभव है कि इस प्रकार की महिलाओं को भी उनका कोई साथी मिल जाए, और इस प्रकार उनकी आवश्यकताएं पूरी हो जाएं।
मुतआ क़ुरआन में
مَا اسْتَمْتَعْتُم بِهِ مِنْهُنَّ فَآتُوهُنَّ أُجُورَهُنَّ فَرِيضَةً ۚ وَلَا جُنَاحَ عَلَيْكُمْ فِيمَا تَرَاضَيْتُم بِهِ مِن بَعْدِ الْفَرِيضَةِ ۚ إِنَّ اللَّـهَ كَانَ عَلِيمًا حَكِيمًا
फिर उनसे दाम्पत्य जीवन का आनन्द लो तो उसके बदले उनका निश्चित किया हुए हक़ (मह्रि) अदा करो और यदि हक़ निश्चित हो जाने के पश्चात तुम आपम में अपनी प्रसन्नता से कोई समझौता कर लो, तो इसमें तुम्हारे लिए कोई दोष नहीं। निस्संदेह अल्लाह सब कुछ जाननेवाला, तत्वदर्शी है (सूरा निसा आयत 24 अनुवाद फ़ारूक़ खान एवं अहमद)
मुतआ इस्लामी इतिहास में
इस्लामी समाज की हर सम्प्रदाय इस बात को मानता है कि मुतआ पैग़म्बर के युग में हलाल था और उनके सहाबी इस कार्य को अंजाम दिया करते थे, और यह मुतआ पैग़म्बर के पहले ख़लीफ़ा अबूबक्र के काल में भी हलाल था, लेकिन जब दूसरे ख़लीफ़ा उमर ने गद्दी संभाली तो कुछ कारणों से इस मुतआ को जिसको अल्लाह और उसके रसूल ने हलाल किया था हराम कर दिया और कहा कि दो मुतअे पैग़म्बर के युग में हलाल थे और आज में उनको हराम कर रहा हूँ और जो भी उसको करेगा उसको सज़ा दूंगा।
दूसरी तरफ़ हर मुसलमान सम्प्रदाय इस बात को भू स्वीकार करता है कि पैग़म्बर के अतिरिक्त किसी दूसरे को यह हक़ हासिल नहीं है कि वह दीन में कुछ दाख़िल करे या दीन से कुछ बाहर कर दे और इस्लाम में कुछ ज़्यादा या कम करना बिदअत है (जैसा कि स्वंय उमर ने किया है)
इसीलिए इमाम अली (अ) ने फ़रमाया है कि अगर मुतआ हराम न किया जाता तो कोई भी व्यक्ति ज़िना नहीं करता मगर यह कि वह शक़ी होता।
लेकिन इस सबके बावजूद वह चीज़ जो पैगम़्बर के युग में हलाल थी वह हराम कर दी गई, जब्कि इसको अगर देखा जाए तो यह हराम करने वाला यह कहना चाहता है कि जो कुछ मुझे समझ में आ रहा है वह अल्लाह और उसके रसूल को समझ में नहीं आया।
और इसका नतीजा यह हुआ कि जिन लोगों ने मुतआ को हराम किया और वही वहाबी लोग सेक्स जिहाद, लवात, समलैगिग्ता आदि को हलाल बता रहे हैं!!!!
इस्लाम में बालिग़ होने से पहले भी शादी की जा सकती है बालिग़ होने के बाद एक मुस्तहेब कार्य है जिसकी बहुत ताकीद की गई है, लेकिन जैसे ही शादी न होने के कारण कोई पहला पाप होता है तो इस्लाम में शादी वाजिब हो जाती है। इस्लाम यह नहीं चाहता है कि इन्सान अपने जीवन के किसी भी समय में ईश्वर से दूर हो और पाप करे इसीलिए उसको रोकने के लिए कभी एक शादी कभी कई शादियाँ और कभी मुतआ जैसे रास्ते बताएं हैं।
मेरा मानना यह है कि जो लोग मुतआ को नहीं मानते हैं या कई शादियों को हराम समझते हैं वह एक आइडियल समाज बनाने के लिए कोई और रास्ता नही दिखा सकते हैं सिवाये इसके कि उस समाज में या तो वेश्ववृति हो या फिर शारीरिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए सेक्स ट्वायज़ का सहारा लिया जाये जैसा कि पश्चिम में हो
सुअर का गोश्त क्यों हराम है
- सूअर के मांस का कुरआन में निषेध कुरआन में कम से कम चार जगहों पर सूअर के मांस के प्रयोग को हराम और निषेध ठहराया गया है। देखें पवित्र कुरआन 2:173, 5:3, 6:145 और 16:115 पवित्र कुरआन की निम्र आयत इस बात को स्पष्ट करने के लिए काफी है कि सूअर का मांस क्यों हराम किया गया है: ''तुम्हारे लिए (खाना) हराम (निषेध) किया गया मुर्दार, खून, सूअर का मांस और वह जानवर जिस पर अल्लाह के अलावा किसी और का नाम लिया गया हो। (कुरआन, 5:3)
- बाइबल में सूअर के मांस का निषेध ईसाइयों को यह बात उनके धार्मिक ग्रंथ के हवाले से समझाई जा सकती है कि सूअर का मांस हराम है। बाइबल में सूअर के मांस के निषेध का उल्लेख लैव्य व्यवस्था (Book of Leviticus) में हुआ है : ''सूअर जो चिरे अर्थात फटे खुर का होता है, परन्तु पागुर नहीं करता, इसलिए वह तुम्हारे लिए अशुद्ध है। '' इनके मांस में से कुछ न खाना और उनकी लोथ को छूना भी नहीं, ये तुम्हारे लिए अशुद्ध हैं। (लैव्य व्यवस्था, 11/7-8) इसी प्रकार बाइबल के व्यवस्था विवरण (Book of Deuteronomy) में भी सूअर के मांस के निषेध का उल्लेख है : ''फिर सूअर जो चिरे खुर का होता है, परंतु पागुर नहीं करता, इस कारण वह तुम्हारे लिए अशुद्ध है। तुम न तो इनका मांस खाना और न इनकी लोथ छूना। (व्यवस्था विवरण, 14/8)
- सूअर का मांस बहुत से रोगों का कारण है ईसाइयों के अलावा जो अन्य गैर-मुस्लिम या नास्तिक लोग हैं वे सूअर के मांस के हराम होने के संबंध में बुद्धि, तर्क और विज्ञान के हवालों ही से संतुष्ट हो सकते हैं। सूअर के मांस से कम से कम सत्तर विभिन्न रोग जन्म लेते हैं। किसी व्यक्ति के शरीर में विभिन्न प्रकार के कीड़े (Helminthes) हो सकते हैं, जैसे गोलाकार कीड़े, नुकीले कीड़े, फीता कृमि आदि। सबसे ज्य़ादा घातक कीड़ा Taenia Solium है जिसे आम लोग Tapworm (फीताकार कीड़े) कहते हैं। यह कीड़ा बहुत लंबा होता है और आँतों में रहता है। इसके अंडे खून में जाकर शरीर के लगभग सभी अंगों में पहुँच जाते हैं। अगर यह कीड़ा दिमाग में चला जाता है तो इंसान की स्मरणशक्ति समाप्त हो जाती है। अगर वह दिल में चला जाता है तो हृदय गति रुक जाने का कारण बनता है। अगर यह कीड़ा आँखों में पहुँच जाता है तो इंसान की देखने की क्षमता समाप्त कर देता है।
अगर वह जिगर में चला जाता है तो उसे भारी क्षति पहुँचाता है। इस प्रकार यह कीड़ा शरीर के अंगों को क्षति पहुँचाने की क्षमता रखता है। एक दूसरा घातक कीड़ा Trichura Tichurasis है। सूअर के मांस के बारे में एक भ्रम यह है कि अगर उसे अच्छी तरह पका लिया जाए तो उसके भीतर पनप रहे उपरोक्त कीड़ों के अंडे नष्ट हो जाते हैंं। अमेरिका में किए गए एक चिकित्सीय शोध में यह बात सामने आई है कि चौबीस व्यक्तियों में से जो लोग Trichura Tichurasis के शिकार थे, उनमें से बाइस लोगों ने सूअर के मांस को अच्छी तरह पकाया था। इससे मालूम हुआ कि सामान्य तापमान में सूअर का मांस पकाने से ये घातक अंडे नष्ट नहीं हो पाते।
4.सूअर के मांस में मोटापा पैदा करने वाले तत्व पाए जाते हैं सूअर के मांस में पुट्ठों को मज़बूत करने वाले तत्व बहुत कम पाए जाते हैं, इसके विपरीत उसमें मोटापा पैदा करने वाले तत्व अधिक मौजूद होते हैं। मोटापा पैदा करने वाले ये तत्व $खून की नाडिय़ों में दाखिल हो जाते हैं और हाई ब्लड् प्रेशर (उच्च रक्तचाप) और हार्ट अटैक (दिल के दौरे) का कारण बनते हैं। इसमें कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि पचास प्रतिशत से अधिक अमेरिकी लोग हाइपरटेंशन (अत्यन्त मानसिक तनाव) के शिकार हैं। इसका कारण यह है कि ये लोग सूअर का मांस प्रयोग करते हैं।
- सूअर दुनिया का सबसे गंदा और घिनौना जानवर है सूअर ज़मीन पर पाया जाने वाला सबसे गंदा और घिनौना जानवर है। वह इंसान और जानवरों के बदन से निकलने वाली गंदगी को सेवन करके जीता और पलता-बढ़ता है। इस जानवर को खुदा ने धरती पर गंदगियों को साफ करने के उद्देश्य से पैदा किया है। गाँव और देहातों में जहाँ लोगोंं के लिए आधुनिक शौचालय नहीं हैं और लोग इस कारणवश खुले वातावरण (खेत, जंगल आदि) में शौच आदि करते हैं, अधिकतर यह जानवर सूअर ही इन गंदगियों को सा$फ करता है। कुछ लोग यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि कुछ देशों जैसे आस्ट्रेलिया में सूअर का पालन-पोषण अत्यंत सा$फ-सुथरे ढ़ंग से और स्वास्थ्य सुरक्षा का ध्यान रखते हुए अनुकूल माहौल में किया जाता है। यह बात ठीक है कि स्वास्थ्य सुरक्षा को दृष्टि में रखते हुए अनुकूल और स्वच्छ वातावरण में सूअरों को एक साथ उनके बाड़े में रखा जाता है। आप चाहे उन्हें स्वच्छ रखने की कितनी भी कोशिश करें लेकिन वास्तविकता यह है कि प्राकृतिक रूप से उनके अंदर गंदगी पसंदी मौजूद रहती है। इसीलिए वे अपने शरीर और अन्य सूअरों के शरीर से निकली गंदगी का सेवन करने से नहीं चुकते। 6. सूअर सबसे बेशर्म (निर्लज्ज) जानवर है इस धरती पर सूअर सबसे बेशर्म जानवर है। केवल यही एक ऐसा जानवर है जो अपने साथियों को बुलाता है कि वे आएँ और उसकी मादा के साथ यौन इच्छा पूरी करें। अमेरिका में प्राय: लोग सूअर का मांस खाते हैं परिणामस्वरूप कई बार ऐसा होता है कि ये लोग डांस पार्टी के बाद आपस में अपनी बीवियों की अदला-बदली करते हैं अर्थात् एक व्यक्ति दूसरे से कहता है कि मेरी पत्नी के साथ तुम रात गुज़ारो और तुम्हारी पत्नी के साथ में रात गुज़ारूँगा (और फिर वे व्यावहारिक रूप से ऐसा करते हैं) अगर आप सूअर का मांस खाएँगे तो सूअर की-सी आदतें आपके अंदर पैदा होंगी। हम भारतवासी अमेरिकियों को बहुत विकसित और साफ-सुथरा समझते हैं। वे जो कुछ करते हैं हम भारतवासी भी कुछ वर्षों के बाद उसे करने लगते हैं।
Island पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार पत्नियों की अदला-बदली की यह प्रथा मुम्बई के उच्च और सम्पन्न वर्गों के लोगों में आम हो चुकी है।
जन्नत उल बक़ीअ क्या है, क्यों होता है विरोध प्रदर्शन?
20वीं सदी की शुरुआत में, सऊदी सरकार ने जन्नतुल बाक़ी कि मकबरों को नष्ट कर दिया इस कब्रिस्तान में इस्लाम के कई महत्वपूर्ण शख्सियत, जैसे पैगंबर मोहम्मद के कुछ परिवार के सदस्य और साथियों की कब्रें हैं इस कब्रिस्तान को पुनर्निर्माण की मांग को लेकर धरना प्रदर्शन करते है।
जन्नतुल बाक़ी सऊदी अरब के मदीना में स्थित एक ऐतिहासिक कब्रिस्तान है। इस कब्रिस्तान में इस्लाम के कई महत्वपूर्ण शख्सियत, जैसे पैगंबर मोहम्मद के कुछ परिवार के सदस्य और साथियों की कब्रें हैं।
इसे इस्लाम की धार्मिक महत्ता का स्थान माना जाता है और हर साल कई पर्यटक यहां जाते हैं।20वीं सदी की शुरुआत में, सऊदी सरकार ने जन्नत उल बाक़ी के कई मकबरों को नष्ट कर दिया,
जिसमें फातिमा ज़हरा (स) की भी कब्र शामिल थी। इस तोड-फोड का कई मुस्लिमों और इस्लाम प्रेमियों के कड़े विरोध का सामना सउदी सरकार को करना पडा है।
आज भी अहेले बैत (अ.स.) के चहाने वाले मुसलमान दुनियाभर मे सउदी सरकार से रौज़ा फातेमा ज़हेरा (अ.स.)के पुनर्निर्माण की मांग को लेकर धरना-प्रदर्शन,करते है।
जन्नतुल बकी मे दफ्न अहम शख्सियात
जन्नतुल बकीअ मदीना मुनव्वरा, सऊदी अरब में एक बहुत ही पवित्र कब्रिस्तान है इसे "बकीउल गरक़द" भी कहा जाता है यहाँ इस्लाम की कई अहम और मुक़द्दस शख्सियतें दफ्न हैं।
जन्नतुल बकीअ मदीना मुनव्वरा, सऊदी अरब में एक बहुत ही पवित्र कब्रिस्तान है इसे "बकीउल गरक़द" भी कहा जाता है यहाँ इस्लाम की कई अहम और मुक़द्दस शख्सियतें दफ्न हैं।
जिसमें से
- जनाबे फातेमा ज़हरा (स.अ.) 11 हिजरी
इमाम हसन अलैहिस्सलाम 50 हिजरी
इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम 94 हिजरी
इमाम मौहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम 114 या 116 हिजरी
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम 148 हिजरी
जनाबे इब्राहिम इब्ने रसूले खुदा (स.अ.व.व)
जनाबे मौहम्मदे हनफया इब्ने इमाम अली (अ.स) 80- हिजरी
जनाबे फातेमा बिन्ते असद
जनाबे अक़ील इब्ने अबुतालिब
10. जनाबे अब्दुल्लाह इब्ने जाफर इब्ने अबुतालिब 80 हिजरी
11. जनाबे इस्माईल इब्ने इमाम सादिक़
12. जनाबे अब्बास इब्ने अब्दुल मुत्तलिब 33 हिजरी
13. जनाबे सफीया बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब
14. जनाबे आतेका बिन्ते अब्दुल मुत्तलिब
रसूले अकरम की बीवीया
15. जनाबे जैनब बिन्ते खज़ीमा 4 हिजरी
16. जनाबे रिहाना बिन्ते ज़ुबैर 8 हिजरी
17. जनाबे मारीया क़िब्तिया 16 हिजरी
18. जनाबे ज़ैनब बिन्ते जहश 20 हिजरी
19. उम्मे हबीबा बिन्ते अबुसुफयान 42 हिजरी
20. हफ्सा बिन्ते उमर 50 हिजरी
21. आयशा बिन्ते अबुबकर 57 या 58 हिजरी
22. जनाबे सफीया बिन्ते हई बिन अखतब 50 हिजरी
23. जनाबे जुवेरीया बिन्ते हारिस 50 या 56 हिजरी
24. जनाबे उम्मे सलमा 61 हिजरी
तारीखी किताबो मे मिलता है कि इन हज़रात के अलावा भी दूसरे सहाबा, ताबेईन और आले मौहम्मद की कब्रे भी जन्नतुल बक़ी मे मौजूद है।
लेकिन अफसोस के साथ कहना पढ़ता है कि आले सऊद की जो अस्ल मे खैबर के यहूदीयो की एक शाख़ है' ने 8 शव्वाल 1343 मुताबिक़ मई 1925 को इस अज़ीम क़ब्रिस्तान मे बनी हुई तमाम गुम्बदो और रोज़ो को शहीद कर दिया।