رضوی

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विश्व बैंक द्वारा 2024-2025 में ईरान की आर्थिक वृद्धि का अंदाज़ा 5 प्रतिशत घोषित किया गया था।

तेहरान के खिलाफ वाशिंगटन के अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों के बीच विश्व बैंक द्वारा ईरान की अर्थव्यवस्था की वृद्धि का अनुमान लगाया गया है।

विश्व बैंक की भविष्यवाणियों में 2024-2025 में ईरान की आर्थिक वृद्धि पांच फीसदी की दर से बढ़ने का एलान किया गया है जो 2022 के 8.3 फ़ीसदी की दर से थी।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष ने हाल ही में अपने आंकड़े में हालिया वर्षों में ईरान की आर्थिक वृद्धि का एलान किया है।

अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा जारी आंकड़ों के अनुसार, पिछले तीन वर्षों में ईरान की वार्षिक आर्थिक वृद्धि 8.3 प्रतिशत थी जो पिछले आठ वर्षों में यानी 2013 से 2021 के अंत तक आर्थिक वृद्धि का 2.5 गुना है।

उत्तर प्रदेश प्रशासन और पुलिस की ओर से शहरों में सड़क पर नमाज अदा न करने की अपील के बाद ही शहर क़ाज़ी ने मुख्ययमंत्री को पात्र लिखते हुए शाही ईद गाह के बाहर सड़क पर नमाज़ अदा करने की मांग की।

बकरीद के अवसर पर दिल्ली रोड स्थित शाही ईदगाह के बाहर सड़क पर नमाज अदा करने की अनुमति दिए जाने को लेकर शहर काजी जैनुस साजिदीन ने मुख्यमंत्री और मुख्य सचिव को पत्र लिखा है।

शहर काजी ने बताया कि अन्य धर्मों के लोगों के पर्वों पर सड़काे पर जुलूस और शोभायात्रा निकाली जाती हैं और आयोजन होते हैं और उन पर कोई रोक नहीं लगाई जाती उसी तरह बकरीद के अवसर पर शाही ईदगाह के भर जाने अकीदतमंदों को सड़कों पर नमाज अदा करने की छूट दी जाए।

सऊदी अरब में इन दिनों दुनिया भर के कोने कोने से हाजियों के पहुँचने का सिलसिला जारी है। सऊदी अरब के मक्का में बड़ी संख्या में हाजियों ने हज की आधिकारिक शुरुआत के लिए मिना की ओर जाने से एक दिन पहले गुरुवार को इस्लाम के सबसे पवित्र स्थल काबा का तवाफ़ किया। सऊदी अधिकारियों के अनुसार मंगलवार तक यहां 15 लाख से अधिक तीर्थयात्री पहुंच चुके थे। अभी और लोगों के आने की उम्मीद है।

ऐसे कुछ लोग हैं जो दुनिया के लालची हैं और उन्हों ने अपनी ख़ाहिशात को भी हासिल कर लिया हैं यहाँ तक कि उस काम का अंजाम बद नसीबी और नाकामी है। इसी के साथ ऐसा भी होता है कि कुछ लोग ऐसे होते हैं जो आख़ेरत के कामों से कतराते हैं और उन को हासिल भी कर लेते हैं लेकिन उसी के ज़रिये ख़ुशनसीबी भी हासिल कर लेते हैं। (बिहारुल अनवार)

हज़रत ने फ़रमायाः मैं तुम्हें पाँच चीज़ों की सिफ़ारिश करता हूः-

अगर तुम पर ज़ुल्म किया जाये तो तुम बदले में ज़ुल्म न करो

अगर तुम्हारे साथ धोका किया जाये तो तुम धोका न देना,

अगर तुम्हें झुटलाया जाये तो तुम नाराज़ न होना

अगर तुम्हारी तारीफ़ की जाये तो तुम ख़ुश न होना,

अगर तुम्हें बुरा कहा जाये तो तुम बेचैनी का इज़हार न करना।

 (बिहारुल अनवार दारे एहया अर्बी जिल्द )

हज़रत ने फ़रमायाः

अच्छी बातें चाहे जिस से भी हों, चाहे उस पर अमल न किया जाये फिर भी सीख लो,

 (बिहारुल अनवार दारे एहया अर्बी जिल्द सफ़्हा,170)

हज़रत ने फ़रमायाः

 कोई भी चीज़ ऐसी चीज़ से मिली नहीं है जो कि इल्म के साथ हिल्म जैसी मिला हो।

(बिहारुल अनवार दारे एहया अर्बी जिल्द सफ़्हा 172)

नाम व लक़ब (उपाधियां)आपका नाम मुहम्मद व आपका मुख्य लक़ब बाक़िरूल उलूम है।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 57 हिजरी मे रजब मास की प्रथम तिथि को पवित्र शहर मदीने मे हुआ था।

माता पिता

हज़रत इमाम बाकिर अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत फ़ातिमा पुत्री हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम हैं।

पालन पोषण

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का पालन पोषण तीन वर्षों की आयु तक आपके दादा इमाम हुसैन व आपके पिता इमाम सज्जाद अलैहिमुस्सलाम की देख रेख मे हुआ। जब आपकी आयु साढ़े तीन वर्ष की थी उस समय कर्बला की घटना घटित हुई। तथा आपको अन्य बालकों के साथ क़ैदी बनाया गया। अर्थात आप का बाल्य काल विपत्तियों व कठिनाईयों के मध्य गुज़रा।

 

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम का शिक्षण कार्य़

इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने अपनी इमामत की अवधि मे शिक्षा के क्षेत्र मे जो दीपक ज्वलित किये उनका प्रकाश आज तक फैला हुआ हैं। इमाम ने फ़िक़्ह व इस्लामी सिद्धान्तो के अतिरिक्त ज्ञान के अन्य क्षेत्रों मे भी शिक्षण किया। तथा अपने ज्ञान व प्रशिक्षण के द्वारा ज्ञानी व आदर्श शिष्यों को प्रशिक्षित कर संसार के सम्मुख उपस्थित किया। आप अपने समय मे सबसे बड़े विद्वान माने जाते थे। महान विद्वान मुहम्मद पुत्र मुस्लिम ,ज़ुरारा पुत्र आयुन ,अबु नसीर ,हश्शाम पुत्र सालिम ,जाबिर पुत्र यज़ीद ,हिमरान पुत्र आयुन ,यज़ीद पुत्र मुआविया अजःली ,आपके मुख्यः शिष्यगण हैं।

इब्ने हज्रे हीतमी नामक एक सुन्नी विद्वान इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम के ज्ञान के सम्बन्ध मे लिखता है कि इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने संसार को ज्ञान के छुपे हुए स्रोतो से परिचित कराया। उन्होंने ज्ञान व बुद्धिमत्ता का इस प्रकार वर्नण किया कि वर्तमान समय मे उनकी महानता सब पर प्रकाशित है।ज्ञान के क्षेत्र मे आपकी सेवाओं के कारण ही आपको बाक़िरूल उलूम कहा जाता है। बाक़िरूल उलूम अर्थात ज्ञान को चीर कर निकालने वाला।

अब्दुल्लाह पुत्र अता नामक एक विद्वान कहता है कि मैंने देखा कि इस्लामी विद्वान जब इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की सभा मे बैठते थे तो ज्ञान के क्षेत्र मे अपने आपको बहुत छोटा समझते थे। इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम अपने कथनो को सिद्ध करने के लिए कुऑन की आयात प्रस्तुत करते थे। तथा कहते थे कि मैं जो कुछ भी कहूँ उसके बारे मे प्रश्न कर ?मैं बताऊँगा कि वह कुरआन मे कहाँ पर है।

इमाम बाक़िर और ईसाई पादरी

एक बार इमाम बाक़िर (अ.स.) ने अमवी बादशाह हश्शाम बिन अब्दुल मलिक के हुक्म पर अनचाहे तौर पर शाम का सफर किया और वहा से वापस लौटते वक्त रास्ते मे एक जगह लोगो को जमा देखा और जब आपने उनके बारे मे मालूम किया तो पता चला कि ये लोग ईसाई है कि जो हर साल यहाँ पर इस जलसे मे जमा होकर अपने बड़े पादरी से सवाल जवाब करते है ताकि अपनी इल्मी मुश्किलात को हल कर सके ये सुन कर इमाम बाकिर (अ.स) भी उस मजमे मे तशरीफ ले गऐ।

थोड़ा ही वक्त गुज़रा था कि वो बुज़ुर्ग पादरी अपनी शानो शोकत के साथ जलसे मे आ गया और जलसे के बीच मे एक बड़ी कुर्सी पर बैठ गया और चारो तरफ निगाह दौड़ाने लगा तभी उसकी नज़र लोगो के बीच बैठे हुऐ इमाम (अ.स) पर पड़ी कि जिनका नूरानी चेहरा उनकी बड़ी शख्सीयत की गवाही दे रहा था उसी वक्त उस पादरी ने इमाम (अ.स )से पूछा कि हम ईसाईयो मे से हो या मुसलमानो मे से ?????

इमाम (अ.स) ने जवाब दियाः मुसलमानो मे से।

पादरी ने फिर सवाल कियाः आलिमो मे से हो या जाहिलो मे से ?????

इमाम (अ.स) ने जवाब दियाः जाहिलो मे से नही हुँ।

पादरी ने कहा कि मैं सवाल करूँ या आप सवाल करेंगे ?????

इमाम (अ.स) ने फरमाया कि अगर चाहे तो आप सवाल करें।

पादरी ने सवाल कियाः तुम मुसलमान किस दलील से कहते हो कि जन्नत मे लोग खाऐंगे-पियेंगे लेकिन पैशाब-पैखाना नही करेंगे ?क्या इस दुनिया मे इसकी कोई दलील है ?

इमाम (अ.स) ने फरमायाः हाँ ,इसकी दलील माँ के पेट मे मौजूद बच्चा है कि जो अपना रिज़्क़ तो हासिल करता है लेकिन पेशाब-पेखाना नही करता।

पादरी ने कहाः ताज्जुब है आपने तो कहा था कि आलिमो मे से नही हो।

इमाम (अ.स) ने फरमायाः मैने ऐसा नही कहा था बल्कि मैने कहा था कि जाहिलो मे से नही हुँ।

उसके बाद पादरी ने कहाः एक और सवाल है।

इमाम (अ.स) ने फरमायाः बिस्मिल्लाह ,सवाल करे।

पादरी ने सवाल कियाः किस दलील से कहते हो कि लोग जन्नत की नेमतो फल वग़ैरा को इस्तेमाल करेंगें लेकिन वो कम नही होगी और पहले जैसी हालत पर ही बाक़ी रहेंगे।

क्या इसकी कोई दलील है ?

इमाम (अ.स) ने फरमायाः बेशक इस दुनिया मे इसका बेहतरीन नमूना और मिसाल चिराग़ की लौ और रोशनी है कि तुम एक चिराग़ से हज़ारो चिराग़ जला सकते हो और पहला चिराग़ पहले की तरह रोशन रहेगा ओर उसमे कोई कमी नही होगी।

पादरी की नज़र मे जितने भी मुश्किल सवाल थें सबके सब इमाम (अ.स) से पूछ डाले और उनके बेहतरीन जवाब इमाम (अ.स) से हासिल किये और जब वो अपनी कम इल्मी से परेशान हो गया तो बहुत गुस्से आकर कहने लगाः

ऐ लोगों एक बड़े आलिम को कि जिसकी मज़हबी जानकारी और मालूमात मुझ से ज़्यादा है यहा ले आऐ हो ताकि मुझे ज़लील करो और मुसलमान जान लें कि उनके रहबर और इमाम हमसे बेहतर और आलिम हैं।

खुदा कि क़सम फिर कभी तुमसे बात नही करुगां और अगर अगले साल तक ज़िन्दा रहा तो मुझे अपने दरमियान (इस जलसे) मे नही देखोंगे।

इस बात को कह कर वो अपनी जगह से खड़ा हुआ और बाहर चला गया।

हज़रते इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ.स.) के कथन

१. जो शख़्स किसी मुसलमान को धोका दे या सताये वह मुसलमान नहीं।

२. यतीम बच्चों पर माँ बाप की तरह मेहरबानी करो।

३. खाने से पहले हाथ धोने से फ़ख़्र (निर्धनता) कम होता है और खाने के बाद हाथ धोने से ग़ुस्सा (क्रोध) ।

४. क़र्ज़ कम करो ताकि आज़ाद रहो और गुनाह (पाप) कम करो ताकि मौत में आसानी हो।

५. हमेशा नेक काम करो ताकि फ़ायदा उठाओ बुरी बातों से परहेज़ (बचो) करो ताकि हमेशा महफ़ूज़ (सुरक्षित) रहो।

६. ताअत (अनुसरण) व क़नाअत (आत्मसंतोष) बे नियाज़ी (बे परवाही) और इज़्ज़त का बायस है और गुनाह व लालच बदबख़्ती (अभाग्य) और ज़िल्लत का मोजिब (कारण) है।

७. जिस लज़्ज़त में अन्जाम कार पशेमानी हो नेकी नहीं।

८. दुनिया फ़क़त दो आदमियों के लिये बायसे ख़ैर (शुभ होने का कारण) है एक वह जो नेक आमाल में रोज़ इज़ाफ़ा करे ,दूसरा वह जो गुज़िश्ता गुनाहों (भूतकालीन पाप) की तलाफ़ी तौबा (प्रायश्चित) के ज़रिये करे।

९. अक़लमन्द वह है जिसका किरदार (चरित्र) उसकी गुफ़्तार (कथन) की तसदीक़ (प्रमाणित) करे और लोगों से नेकी का बर्ताव (व्यवहार) करे।

१०. बदतरीन शख़्स वह जो अपने को बेहतरीन (अच्छा) शख़्स ज़ाहिर करे।

११. अपने दोस्त के दुश्मनों से रफ़ाक़त (मित्रता) मत करो वरना अपने दोस्त को गवाँ (खो) दोगे।

१२. हर काम को उसके वक़्त (समय) पर अन्जाम (पूरा करो) दो जल्दबाज़ी से परहेज़ (बचो) करो।

१३. बड़े गुनाहों का कफ़्फ़ारा (रहजाना) बेकसों की मदद और ग़मज़दो की दिलजूई में है।

१४. जो दिन गुज़र गया वह तो पलट कर आयेगा नहीं और आने वाले कल पर भरोसा किया नहीं जा सकता।

१५. हर इन्सान अपनी ज़बान के नीचे पोशीदा (छिपा) है जब बात करता है तो पहचाना जाता है।

१६. माहे मुबारक रमज़ान के रोज़े अज़ाबे इलाही के लिये ढाल हैं।

१७. काहिली से बचो (क्योंकि) काहिल अपने हुक़ूक़ (हक़ का बहु वचन) अदा नहीं कर सकता।

१८. तुम में सबसे ज़्यादा अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह है जो नादानों (अज्ञानियों) से फ़रार ( दूर भागे) करे।

१९. बुज़ुर्गों (अपने से बड़ों का) का एहतेराम (आदर) करो क्योंकि उनका एहतेराम (आदर) ख़ुदा की इबादत (तपस्या) के मानिन्द (तरह) है।

२०. सिल्हे रहम (अच्छा सुलूक) घरों की आबादी और तूले उम्र (दीर्घायु) का बायस (कारण) है।

२१. इसराफ़ (अपव्यय) में नेकी (अच्छाई) नहीं और नेकियों में इसराफ़ का वुजूद (अस्तित्व) नहीं।

२२. जिस मामले में पूरी वाक़्फ़ियत (जानकारी) नहीं उसमें दख़्ल मत दो वरना (मौक़े की ताक में रहने वाले) बुरे और बदकिरदार (दुष्कर्मी) लोग तुमकों मलामत का निशाना बनायेंगे।

२३. हमेशा लोगों से सच बोलो ताकि सच सुनों (याद रखो) सच्चाई तलवार से भी ज़्यादा तेज़ है।

२४. लोगों से मुआशेरत (अच्छा रहन सहन) निस्फ़ (आधा) ईमान है और उनसे नर्म बर्ताव आधी ज़िन्दगी।

२५. ज़ुल्म (अन्याय) फ़ौरी (तुरन्त) अज़ाब का बायस है।

२६. नागहानिए हादसात (अचानक घटनायें) से बचाने वाली कोई चीज़ दुआ से बेहतर नहीं ।

२७. मुनाफिक़ (जिसका अन्दरुनी और बाहरी व्यवहार में अन्तर हो ) से भी ख़ुश अख़लाक़ी से बात करो ।

२८. मोमिन से दोस्ती में ख़ुलूस पैदा करो ।

२९. हक़ (सत्य) के रास्ते (पथ) पर चलने के लिए सब्र का पेशा इख़्तियार करो ।

३०. ख़ुदावन्दे आलम मज़लूमों (जिनके साथ अन्याय किया गया हो) की फ़रयाद को सुनता है और सितमगारों (जिन्होंने ज़ुल्म किया हो) के लिए कमीनगाह में है ।

३१. सलाम और ख़ुश गुफ़्तारी गुनाहों से बख़्शिश (मुक्ति) का बायस (कारण) है।

३२. इल्म (ज्ञान) हासिल (प्राप्त) करो ताकि लोग तुम्हें पहचानें और उस पर अमल करो ताकि तुम्हारा शुमार ओलमा (ज्ञानियों) में हो।

 

३३. इबादते इलाही में ख़ास ख़्याल रखो आमाले ख़ैर (शुभकार्य) में जल्दी करो और बुराईयों से इज्तेनाब (बचो) करो।

३४. जब कोई मरता है तो लोग पूछते हैं क्या छोड़ा लेकिन जब फ़रिश्ते (ईश्वरीय दूत) सवाल करते हैं क्या भेजा ?

३५. बेहतरीन इन्सान वह है जिसका वजूद दूसरों के लिये फ़ायदा रसां (लाभकारी) हो।

३६. क़ायम आले मोहम्मद (अ.स.) वह इमाम हैं जिनको ख़ुदावन्दे आलम तमाम मज़ाहब पर ग़लबा ऐनायत (प्रदान) करेगा।

३७. खाना ख़ूब चबाकर खाओ और सेर होने से पहले खाना छोड़ दो।

३८. ख़ालिस इबादत (सच्चे मन से तपस्या) यह है कि इन्सान ख़ुदा के सिवा किसी से उम्मीदवार न हो और अपने गुनाहों के अलावा किसी से डरे नहीं।

३९. उजलत (जल्दी) हर काम में नापसन्दीदा मगर रफ़े शर (बुराई को दूर करने में) में।

४०. जिस तरह इन्सान अपने लिये तहक़ीराना (अनादर) लहजा नापसन्द करता है दूसरों से भी तहक़ीराना (अनादर) लहजे में गुफ़्तगू (बात चीत) न करे।

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 114 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की सातवीँ (7) तिथि को सोमवार के दिन हुई। बनी उमैय्या के ख़लीफ़ा हश्शाम पुत्र अब्दुल मलिक के आदेशानुसार एक षड़यन्त्र के अन्तर्गत आपको विष पान कराया गया। शहादत के समय आपकी आयु 57 वर्ष थी।

समाधि

हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम की समाधि पवित्र शहर मदीने के जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान मे है। प्रत्येक वर्ष लाखो श्रृद्धालु आपकी समाधि पर सलाम व दर्शन हेतू जाते हैं।

गुरुवार, 13 जून 2024 18:08

हज क्या है?

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं........... यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं...........

यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय लाखों की संख्या में मुसलमान ईश्वरीय संदेश की भूमि मक्के में एकत्रित हो रहे हैं।  विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग गुटों और जत्थों में ईश्वर के घर की ओर जा रहे हैं और एकेश्वरवाद के ध्वज की छाया में वे एक बहुत व्यापक एकेश्वरवादी आयोजन का प्रदर्शन करेंगे। हज में लोगों की भव्य उपस्थिति, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना के स्वीकार होने का परिणाम है जब हज़रत इब्राहमी अपने बेटे इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को इस पवित्र भूमि पर लाए और उन्होंने ईश्वर से कहाः प्रभुवर! मैंने अपनी संतान को इस बंजर भूमि में तेरे सम्मानीय घर के निकट बसा दिया है। प्रभुवर! ऐसा मैंने इसलिए किया ताकि वे नमाज़ स्थापित करें तो कुछ लोगों के ह्रदय इनकी ओर झुका दे और विभिन्न प्रकार के फलों से इन्हें आजीविका दे, कदाचित ये तेरे प्रति कृतज्ञ रह सकें।शताब्दियों से लोग ईश्वर के घर के दर्शन के उद्देश्य से पवित्र नगर मक्का जाते हैं ताकि हज जैसी पवित्र उपासना के लाभों से लाभान्वित हों तथा एकेश्वरवाद का अनुभव करें और एकेश्वरवाद के इतिहास को एक बार निकट से देखें।  यह महान आयोजन एवं महारैली स्वयं रहस्य की गाथा कहती है जिसके हर संस्कार में रहस्य और पाठ निहित हैं।  हज का महत्वपूर्ण पाठ, ईश्वर के सम्मुख अपनी दासता को स्वीकार करना है कि जो हज के समस्त संस्कारों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है।  इन पवित्र एवं महत्वपूर्ण दिनों में हम आपको हज के संस्कारों के रहस्यों से अवगत करवाना चाहते हैं।    मनुष्य की प्रवृत्ति से इस्लाम की शिक्षाओं का समन्वय, उन विशेषताओं में से है जो सत्य और पवित्र विचारों की ओर झुकाव का कारण है।  यही विशिष्टता, इस्लाम के विश्वव्यापी तथा अमर होने का चिन्ह है।  इस आधार पर ईश्वर ने इस्लाम के नियमों को समस्त कालों के लिए मनुष्य की प्रवृत्ति से समनवित किया है।  हज सहित इस्लाम की समस्त उपासनाएं, हर काल की परिस्थितियों और हर काल में मनुष्य की शारीरिक, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत तथा समाजी आवश्यकताओं के बावजूद उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं।  इस्लाम की हर उपासना का कोई न कोई रहस्य है और इसके मीठे एवं मूल्यवान फलों की प्राप्ति, इन रहस्यों की उचित पहचान के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से कदापि संभव नहीं है।  हज भी इसी प्रकार की एक उपासना है।  ईश्वर के घर के दर्शन करने के उद्देश्य से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग हर प्रकार की समस्याएं सहन करते हुए और बहुत अधिक धन ख़र्च करके ईश्वरीय संदेश की धरती मक्का जाते हैं तथा “मीक़ात” नामक स्थान पर उपस्थित होकर अपने साधारण वस्त्रों को उतार देते हैं और “एहराम” नामक हज के विशेष कपड़े पहनकर लब्बैक कहते हुए मोहरिम होते हैं और फिर वे मक्का जाते हैं।  उसके पश्चात वे एकसाथ हज करते हैं।  पवित्र नगर मक्का पहुंचकर वे सफ़ा और मरवा नामक स्थान पर उपासना करते हैं।  उसके पश्चात अपने कुछ बाल या नाख़ून कटवाते हैं।  इसके बाद वे अरफ़ात नामक चटियल मैदान जाते हैं।  आधे दिन तक वे वहीं पर रहते हैं जिसके बाद हज करने वाले वादिये मशअरूल हराम की ओर जाते हैं।  वहां पर वे रात गुज़ारते हैं और फिर सूर्योदय के साथ ही मिना कूच करते हैं।  मिना में विशेष प्रकार की उपासना के बाद वापस लौटते हैं उसके पश्चात काबे की परिक्रमा करते हैं।  फिर सफ़ा और मरवा जाते हैं और उसके बाद तवाफ़े नेसा करने के बाद हज के संस्कार समाप्त हो जाते हैं।  इस प्रकार हाजी, ईश्वरीय प्रसन्नता की प्राप्ति की ख़ुशी के साथ अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।हज जैसी उपासना, जिसमें उपस्थित होने का अवसर समान्यतः जीवन में एक बार ही प्राप्त होता है, क्या केवल विदित संस्कारों तक ही सीमित है जिसे पूरा करने के पश्चात हाजी बिना किसी परिवर्तन के अपने देश वापस आ जाए?  नहीं एसा बिल्कुल नहीं है।  हज के संस्कारों में बहुत से रहस्य छिपे हुए हैं।  इस महान उपासना में निहित रहस्यों की ओर कोई ध्यान दिये बिना यदि कोई हज के लिए किये जाने वाले संस्कारों की ओर देखेगा तो हो सकता है कि उसके मन में यह विचार आए कि इतनी कठिनाइयां सहन करना और धन ख़र्च करने का क्या कारण है और इन कार्यों का उद्देश्य क्या है?  पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में इब्ने अबिल औजा नामक एक बहुत ही दुस्साहसी अनेकेश्वरवादी, एक दिन इमाम सादिक़ (अ) की सेवा में आकर कहने लगा कि कबतक आप इस पत्थर की शरण लेते रहेंगे और कबतक ईंट तथा पत्थर से बने इस घर की उपासना करते रहेंगे और कबतक उसकी परिक्रमा करते रहेंगे?  इब्ने अबिल औजा की इस बात का उत्तर देते हुए इमाम जाफ़र सादिक़ अ. ने काबे की परिक्रमण के कुछ रहस्यों की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह वह घर है जिसके माध्यम से ईश्वर ने अपने बंदों को उपासना के लिए प्रेरित किया है ताकि इस स्थान पर पहुंचने पर वह उनकी उपासना की परीक्षा ले।  इसी उद्देश्य से उसने अपने बंदों को अपने इस घर के दर्शन और उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया और इस घर को नमाज़ियों का क़िब्ला निर्धारित किया।  पवित्र काबा, ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति का केन्द्र और उससे पश्चाताप का मार्ग है  अतः वह जिसके आदेशों का पालन किया जाए और जिसके द्वारा मना किये गए कामों से रूका जाए वह ईश्वर ही है जिसने हमारी सृष्टि की है।    इसलिए कहा जाता है कि हज का एक बाह्य रूप है और एक भीतरी रूप।  ईश्वर एसे हज का इच्छुक है जिसमें हाजी उसके अतिरिक्त किसी अन्य से लब्बैक अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया न कहे और उसके अतिरिक्त किसी अन्य की परिक्रमा न करे।  हज के संस्कारों का उद्देश्य, हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल, और हज़रत हाजरा जैसे महान लोगों के पवित्र जीवन में चिंतन-मनन करना है।  जो भी इस स्थान की यात्रा करता है उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से मुक्त होना चाहिए ताकि वह हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल जैसे महान लोगों की भांति ईश्वर की परीक्षा में सफल हो सके।  इस्लाम में हज मानव के आत्मनिर्माण के एक शिविर की भांति है जिसमें एक निर्धारित कालखण्ड के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम निर्धारित किये गए हैं।  एक उपासना के रूप में हज, मनुष्य पर सार्थक प्रभाव डालती है।  हज के संस्कार कुछ इस प्रकार के हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अहंकार और अभिमान को किसी सीमा तक दूर करते हैं।  अल्लाहुम्म लब्बैक के नारे के साथ अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया, ईश्वर के घर की यात्रा करने वाले लोग अन्य क्षेत्रों में भी एकेश्वर की बारगाह में अपनी श्रद्धा को प्रदर्शित करने को तैयार हैं।  लब्बैक को ज़बान पर लाने का अर्थ है ईश्वर के हर आदेश को स्वीकार करने के लिए आध्यात्मिक तत्परता का पाया जाना।इस प्रकार हज के संस्कार, मनुष्य को उच्च मानवीय मूल्यों और भौतिकता पर निर्भरता को दूर करने के लिए प्रेरित करते हैं।  इस मानवीय यात्रा की प्रथम शर्त, हृदय की स्वच्छता है अतःहृदय को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग करना चाहिए।  जबतक मनुष्य पापों में घिरा रहता है उस समय तक ईश्वर के साथ एंकात की मिठास का आभास नहीं कर सकता।  ईश्वर से निकटता के लिए पापों से दूरी का संकल्प करना चाहिए।  हज के स्वीकार होने की यह शर्त है।  जब दैनिक गतिविधियां मनुष्य को हर ओर से घेर लेती हैं और उच्चता क

 

गुरुवार, 13 जून 2024 18:07

हज का विशेष कार्यक्रम- 4

एक बार की बात है एक व्यक्ति बहुत दूर से बड़ी कठिनाइयों के साथ हज करने मक्का पहुंचा।

ईश्वर से प्रेम और पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम की क़ब्र का दर्शन करने के उत्साह ने उसके लिए कठिनाइयों को आसान कर दिया था। उसने हज के संस्कार बहुत उत्साह से अंजाम दिए। उसे इस बात की मनोकामना थी कि ईश्वर उसके कर्म को स्वीकार कर ले। दूसरे हाजियों के साथ वह भी मिना नामक स्थान पर गया ताकि वहां के विशेष संस्कार अंजाम दे। जो रात मिना में बिताते हैं वहां उसने स्वप्न में देखा कि ईश्वर ने दो फ़रिश्ते भेजे जो हाजियों के सिरहाने खड़े हें। फ़रिश्ते कुछ लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह व्यक्ति हाजी है" अर्थात इसका हज ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है लेकिन कुछ दूसरे लोगों की ओर इशारा करते हुए कहते हैः "यह हाजी नहीं है।" उस व्यक्ति ने देखा कि दो फ़रिश्ते उसके भी सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं "यह व्यक्ति हाजी नहीं है।"

इस व्यक्ति की डर के मारे आंख खुल गयी। उसने अपने आस-पास देखा। दिल पर काफ़ी बोझ महसूस कर रहा था। उसने ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहाः "हे ईश्वर! इतनी कठिनाइयां सहन करते हुए आया हूं कि तेरा हज अंजाम दूं। आख़िर किस वजह से मेरा हज क़ुबूल नहीं है?" वह अपने कर्म के बारे में सोच रहा था। विगत के बारे में सोच रहा था कि किस बुरे कर्म की वजह से वह ईश्वर की कृपा से दूर हो गया है। जिस जगह हाजियों के पाप क्षमा किए जाते हैं, उससे कौन सा ऐसा पाप हुआ है कि जो क्षमा योग्य नहीं है।

कुछ सोचने के बाद उसे लगा कि उसने ख़ुम्स और ज़कात नामक विशेष कर नहीं दिए है। उसने अपने बच्चों को ख़त लिखा और कहाः "मैं इस साल मक्के में रह जाउंगा। मेरी पूरी संपत्ति का हिसाब करो और संपत्ति में ख़ुम्स या ज़कात बाक़ी हो तो निकाल दो।"              

जब उस व्यक्ति का ख़त उसके बेटों को मिला तो उन्होंने पिता के आदेश पर अमल किया। अगले साल फिर उस व्यक्ति ने हज के संस्कार शुरु किये। पिछली बार कि तरह जब वह मिना में रात में रुकने के लिए ठहरा तो उसने स्वप्न में उन्हीं दो फ़रिश्तों को देखा जो हाजियों के सिरहाने खड़े होकर कह रहे हैं कि अमुक व्यक्ति हाजी है और अमुक व्यक्ति हाजी नहीं है। जब फ़रिश्ते उसके सिरहाने पहुंचे तो उन्होंने फिर कहा कि वह हाजी  नहीं है। वह व्यक्ति नींद से जागा तो बहुत दुखी व हैरान था। वह जानना चाहता था कि किस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हो रहा है। उसे याद आया कि उसका पड़ोसी जो ग़रीब था और उसका घर छोटा था। जिस वक़्त उसने चाहा कि अपना घर बनाए तो पड़ोसी ने उससे कहा था कि घर को ज़्यादा ऊंचा न करे कि सूरज की रौशनी आना रुक जाए और उसके घर में अंधेरा छा जाए। लेकिन उस व्यक्ति ने पड़ोसी की बात को अहमियत न दी और कई मंज़िला घर बना लिया। उसे लगा कि शायद इस वजह से उसका हज क़ुबूल नहीं हुआ।         

इस व्यक्ति ने एक बार फिर अपने घर वालों को ख़त लिखा जिसमें उसने कहाः "मैं इस साल भी मक्के में रुकुंगा। तुम अमुक पड़ोसी से बात करो कि वह अपना घर बेच दे और अगर न बेचे तो घर की दो मंज़िलों को गिरा दो ताकि पड़ोसी के घर में अंधेरा न रहे।" इस व्यक्ति के परिवार वाले पड़ोसी के पास गए उससे बात की तो वह घर बेचने के लिए तय्यार न हुआ। मजबूर होकर उन्होंने अपने घर के दो मंज़िले गिरा दिए ताकि पड़ोसी राज़ी हो जाए। फिर हज का महीना आ पहुंचा। उस व्यक्ति ने मिना नामक स्थान में स्वप्न में उन्हीं दोनों फ़रिश्तों को देख़ा लेकिन इस बार मामला अलग था। जब दोनों फ़रिश्ते उस व्यक्ति के सिरहाने पहुंचे तो कई बार कहाः "यह व्यक्ति हाजी है। यह व्यक्ति हाजी है।" पैग़म्बरे इस्लाम ने फ़रमायाः "ईश्वर उस व्यक्ति पर प्रलय के दिन कृपा नहीं करेगा जो अपने रिश्तेदारों से संबंध विच्छेद करे और पड़ोसी के साथ बुराई करे।"             

अब्दुर्रहमान बिन सय्याबा नामक व्यक्ति कूफ़े में रहता था। जवानी में उसके पिता की मौत हो गयी। जब उसके पिता की मौत हुयी तो उसे मीरास में पिता से कुछ नहीं मिला। एक ओर पिता की मृत्यु दूसरी ओर निर्धनता व बेरोज़गारी से अब्दुर्रहमान की चिंता दुगुनी हो गयी थी। उसे समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे। किस तरह अपनी और अपनी मां की ज़िन्दगी के सफ़र को आगे बढ़ाए। एक दिन इसी सोच में बैठा हुआ था कि किसी व्यक्ति ने घर का दरवाज़ा खटखटाया। जब उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि उसके पिता के दोस्त खड़े हैं। पिता के दोस्त ने उसे पिता के मरने पर सांत्वना दी और पूछा कि पिता से मीरास में कुछ धन मिला है जिससे अपना जीवन निर्वाह कर सके। अब्दुर्रहमान ने सिर नीचे किया और कहाः नहीं।

उस व्यक्ति ने पैसों से भरा एक थैला अब्दुर्रहमान को दिया और कहाः "यह एक हज़ार दिरहम हैं। इससे व्यापार करो और व्यापार से हासिल मुनाफ़े से जीवन चलाओ।" वह व्यक्ति यह कह कर अब्दुर्रहमान से विदा हुआ। अब्दुर्रहमान ख़ुशी ख़ुशी अपनी मां के पास आया और पैसों की थैली मां को दिखाते हुए पूरी घटना बतायी।

अब्दुर्रहमान ने अपने पिता के दोस्त की नसीहत पर अमल करने का फ़ैसला किया। उसने उसी दिन पैसों से कुछ चीज़ें ख़रीदी और एक दुकान लेकर व्यापार शुरु कर दिया। ज़्यादा समय नहीं गुज़रा था कि अब्दुर्रहमान का व्यापार चल निकला। उसने उन पैसों से अपने जीवन यापन के ख़र्च निकालने के साथ साथ पूंजि भी बढ़ायी। जब उसे लगा कि अब वह हज का ख़र्च उठा सकता है तो उसने हज करने का फ़ैसला किया। वह मां के पास गया और मां को अपने इरादे के बारे में बताया। मां ने कहा कि पहले पिता के दोस्त का क़र्ज़ लौटाओ जिसने तुम्हें क़र्ज़ दिया था। उनका पैसा हमारे लिए बर्कत का कारण बना। पहले उनका क़र्ज़ लौटाओ फिर मक्का जाओ।                

अब्दुर्रहमान अपने पिता के दोस्त के पास गया। एक हज़ार दिरहम से भरी थैली उनके सामने रखी तो उन्होंने उस थैले को देखकर पूछा कि यह क्या है?

अब्दुर्रहमान ने कहा कि ये वही हज़ार दिरहम हैं जो आपने मुझे क़र्ज़ दिए थे। उस व्यक्ति ने कहा कि अगर हज़ार दिरहम से तुम्हारी मुश्किल हल नहीं हुयी और तुम अपने लिए उचित कारोबार न कर सके तो मैं और पैसे देता हूं। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं पैसे कम नहीं थे बल्कि इन पैसों से बहुत बर्कत हुयी अब मुझे इन पैसों की ज़रूरत नहीं है। मैं आपका बहुत शुक्रगुज़ार हूं। चूंकि हज करने जाना चाहता हूं इसलिए आपके पास आया कि पहले आपका क़र्ज़ अदा करूं। वह व्यक्ति ख़ुश हुआ और उसने अब्दुर्रहमान को दुआ दी।

अब्दुर्रहमान हज के लिए गया। हज के संस्कार के बाद वह पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की सेवा में मदीना पहुंचा। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के घर पर बहुत भीड़ थी। अब्दुर्रहमान सबसे पीछे बैठ गया और इंतेज़ार करने लगा कि लोगों की भीड़ कुछ कम हो। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान की ओर इशारा किया और वह उनके निकट गया। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः कोई काम है? अब्दुर्रहमान ने कहाः मैं कूफ़े के निवासी सय्याबा का बेटा अब्दुर्रहमान हूं। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अब्दुर्रहमान से उसके पिता का कुशलक्षेम पूछा कि वह कैसे हैं। अब्दुर्रहमान ने कहा कि वह तो परलोक सिधार गए। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहाः ईश्वर उन पर अपनी कृपा करे। क्या पिता की मीरास से कुछ बचा है। अब्दुर्रहमान ने कहाः नहीं, उनकी मीरास से कुछ नहीं बचा है। इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः फिर किस तरह तुम हज का ख़र्च वहन कर सके?

अब्दुर्रहमान ने अपनी ग़रीबी और पिता के दोस्त की ओर से मदद की घटना का वर्णन किया और कहाः "मैं ने उन पैसों से हासिल हुए मुनाफ़े से हज किया है।"

जैसे ही अब्दुर्रहमान ने यह कहा इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने उससे पूछाः तुमने पिता के दोस्त के हज़ार दिरहम का क्या किया?

अब्दुर्रहमान ने कहाः मां से बात करके मैंने हज पर रवाना होने से पहले ही क़र्ज़ चुका दिया।

इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "शाबाश! हमेशा सच बोलो और ईमानदार रहो। ईमानदार व्यक्ति की लोग अपने धन से मदद करते हैं।"

गुरुवार, 13 जून 2024 18:06

हज का विशेष कार्यक्रम- 3

एक बार हज के समय बसरा शहर से लोगों का गुट हज के लिए मक्का गया।

जब वे लोग मक्का पहुंचे तो देखा कि मक्कावासियों को बहुत कठिनाइयों का सामना है। मक्के में पानी की बहुत कमी थी। मौसम बहुत गर्म था और पानी कमी की वजह से मक्कावासी बहुत परेशान थे। बसरा के कुछ लोग काबे के पास गए ताकि परिक्रमा करें। उन्होंने ईश्वर से बहुत गिड़गिड़ा के दुआ कि वह मक्कवासियों के लिए अपनी कृपा से वर्षा भेजे। उन्होंने बहुत दुआ की लेकिन उनकी दुआ क़ुबूल होने का कोई चिन्ह ज़ाहिर न हुआ। लोग बेबस थे। समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करें। उस दौरान एक जवान काबे की ओर बढ़ा। उस जवान ने कहाः ईश्वर जिसे दोस्त रखता है उसकी दुआ स्वीकार करेगा। यह कहकर जवान काबे के पास गया। अपना माथा सजदे में रखा और ईश्वर से दुआ की।

वह जवान सजदे में ईश्वर से कह रहा थाः "हे मेरे स्वामी! तुम्हें मेरी मित्रता की क़सम इन लोगों की बारिश के पानी से प्यास बुझा दे।" अभी जवाब की दुआ पूरी भी न हुयी था कि मौसम बदलने लगा। बादल ज़ाहिर हुआ और बारिश होने लगी। बारिश इतनी मुसलाधार हो रही थी मानो मश्क से पानी बह रहा हो। जवान ने सजदे से सिर उठाया। एक व्यक्ति ने उस जवान से कहाः हे जवान! आपको कहां से पता चला कि ईश्वर आपको दोस्त रखता है, इसलिए आपकी दुआ क़ुबूल करेगा।

जवान ने कहाः चूंकि ईश्वर ने मुझे अपने दर्शन के लिए बुलाया था, इसलिए मैं समझ गया कि वह मुझे दोस्त रखता है। इसलिए मैंने ईश्वर से अपनी दोस्ती के अधिकार के तहत बारिश का निवेदन किया और मेहरबान ईश्वर ने मेरी दुआ सुन ली। यह कह कर जवान वहां से चला गया।

बसरावासियों में से एक व्यक्ति ने पूछाः हे मक्कावासियो! क्या इस जवान को पहचानते हो? लोगों ने कहाः ये पैग़म्बरे इस्लाम के परपौत्र अली बिन हुसैन अलैहिस्सलाम हैं।           

ईश्वर के घर के सच्चे दर्शनार्थी उसकी कृपा के पात्र होते हैं और ईश्वर उनकी दुआ क़ुबूल करता है।

पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहि व आलेही व सल्लम ने फ़रमायाः "जो भी काबे को उसके अधिकार को समझते हुए देखे तो ईश्वर उसके पापों को क्षमा कर देता है और जीवन के ज़रूरी मामलों को हर देता है। जो कोई हज या उम्रा अर्थात ग़ैर अनिवार्य हज के लिए अपने घर से निकले, तो घर से निकलने के समय से लौटने तक ईश्वर उसके कर्म पत्र में दस लाख भलाई लिखता और 10 लाख बुराई को मिटा देता है।"

पैग़म्बरे इस्लाम आगे फ़रमाते हैः "और वह ईश्वर के संरक्षण में होगा। अगर इस सफ़र में मर जाए तो ईश्वर उसे स्वर्ग में भेजेगा। उसके पाप माफ़ कर दिए गए, उसकी दुआ क़ुबूल होती है तो उसकी दुआ को अहम समझो क्योंकि ईश्वर उसकी दुआ को रद्द नहीं करता और प्रलय के दिन ईश्वर उसे एक लाख लोगों की सिफ़ारिश करने की इजाज़त देगा।"               

कार्यक्रम के इस भाग में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के जीवन के अंतिम हज के बारे में बताएंगे जो पूरा नहीं हो पाया था।

यह साठ हिजरी का समय था। यज़ीद बिन मोआविया सिंहासन पर बैठा था। उसके एक हाथ में शराब का जाम होता था तो दूसरे हाथ से वह अपने बंदर के सिर को सहलाता था जिसे वह अबाक़ैस के नाम से पुकारता था। यज़ीद बंदर को इतना पसंद करता था कि उसे रेशन के कपड़े पहनाता था। उसे दूसरों से ऊपर अपने बग़ल में बिठाता था। यज़ीद भी अपने बाप मुआविया की तरह बादशाही क़ायम करने की इच्छा रखता था लेकिन उसके विपरीत वह इस्लाम के आदेश का विदित रूप से भी पालन नहीं करता था। इस्लामी जगत के लोग इसलिए सीरिया या बग़दाद की हुकुमत का पालन करते थे कि उसे इस्लामी ख़िलाफ़त समझते थे लेकिन दूसरे के मुक़ाबले में यज़ीद का मामला अलग था। वह ज़ाहिरी तौर पर भी इस्लामी आदेशों का पालन करने के लिए तय्यार नहीं था और खुल्लम खुल्लम इस्लाम के आदेशों का उल्लंघन करता था।

मोआविया ने 15 रजब सन 60 हिजरी में दुनिया से जाने से पहले बहुत कोशिश की कि कूफ़ा और मदीना के लोगों से अपने बेटे यज़ीद के आज्ञापालन का वचन ले ले मगर इसमें उसे कामयाबी न मिल सकी। वह मदीना के कुलीन वर्ग के लोगों के पास गया और अपनी मीठी मीठी बातों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम, अब्दुल्लाह बिन ज़ुबैर और अब्दुल्लाह बिन उमर से जिनका मदीनावासी सम्मान करते थे, यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण लेने की कोशिश की लेकिन इन लोगों ने इंकार कर दिया।  मोआविया ने अपनी मौत के वक़्त यज़ीद को नसीहत करते हुए कहाः "हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम के साथ नर्म रवैया अपनाना। वह पैग़म्बरे इस्लाम की संतान हैं और मुसलमानों में उनका ऊंचा स्थान है।" मोआविया जानता था कि अगर यज़ीद ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम से दुर्व्यवहार किया और अपने हाथ को उनके ख़ून से साना तो वह हुकूमत नहीं कर पाएगा और सत्ता अबू सुफ़ियान के परिवार से निकल जाएगी। यज़ीद खुल्लम खुल्ला पाप करता था, वह भोग विलास के माहौल में पला बढ़ा था और इन्हीं चीज़ों में वह मस्त रहता था। उसमें राजनीति की समझ न थी। वह जवानी व धन के नशे में चूर था।

मोआविया की मौत के बाद यज़ीद ने अपने पिता की नसीहत के विपरीत मदीना के गवर्नर को एक ख़त लिखा जिसमें उसने अपने पिता की मौत की सूचना दी और उसे आदेश दिया कि वह मदीना वासियों से उसके आज्ञापालन का प्रण ले जिसे बैअत कहते हैं। यज़ीद ने मदीना के राज्यपाल को लिखा कि हुसैन बिन अली से भी आज्ञापालन का प्रण लो अगर वह प्रण न लें तो उनका सिर क़लम करके मेरे पास भेज दो। मदीना के राज्यपाल ने हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को अपने पास बुलवाया और उन्हें मोआविया की मौत की सूचना दी और उनसे कहा कि वह यज़ीद के आज्ञापालन का प्रण लें। इसके जवाब में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः "हे शासक! हम पैग़म्बरे इस्लाम के ख़ानदान से हैं। वह ख़ानदान जिनके घर फ़रिश्तों के आने जाने का स्थान है। यज़ीद शराबी, क़ातिल और खुल्लम खुल्ला पाप करता है। खुल्लम खुल्ला अपराध करता है। मुझ जैसा उस जैसे का आज्ञापालन नहीं कर सकता।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मदीना छोड़ने कर मक्का जाने का फ़ैसला किया। वह 28 रजब सन 60 हिजरी को मदीने से मक्का चले गए।

कूफ़े के लोगों को इस बात का पता चल गया कि पैग़म्बरे इस्लाम के नाति हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम ने यज़ीद की आज्ञापालन का प्रण  लेने से इंकार किया है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के अनुयाइयों ने उन्हें बहुत से ख़त लिखे और उनसे कूफ़ा आने का निवेदन किया। कूफ़ेवासियों ने अपने ख़त में लिखाः "हमारी ओर आइये हमने आपकी मदद के लिए बहुत बड़ा लश्कर तय्यार कर रखा है।" 8 ज़िलहिज सन 60 हिजरी को उमर बिन साद एक बड़े लश्कर के साथ मक्के में दाख़िल हुआ। उसे हुसैन बिन अली अलैहिस्सलाम को हज के दौरान जान से मारने के लिए कहा गया था। 8 ज़िलहिज जिसे तरविया दिवस कहा जाता और इस दिन हाजी अपना हज शुरु करते हैं, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने हज को उम्रे से बदल कर मक्के से निकलने पर मजबूर हुए ताकि पवित्र काबे का सम्मान बना रहे। दूसरी बात यह कि अगर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हज के दौरान क़त्ल हो जाते तो लोग यह न समझ पाते कि उन्हें अत्याचारी यज़ीद का आज्ञापालन न करने की वजह से शहीद किया गया है।

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम जानते थे कि कूफ़ावासी वचन के पक्के नहीं हैं। वह जानते थे कि उनका अंजाम शहादत है लेकिन वह यज़ीद जैसे अत्याचारी की हुकूमत के संबंध में चुप नहीं रह सकते थे। उन्होंने मक्के से निकलने से पहले अपना वसीयत नामा अपने भाई मोहम्मद बिन हन्फ़िया को दिखा जिसमें आपने फ़रमायाः "लोगो! जान लो कि मै सत्तालोभी, भ्रष्ट व अत्याचारी नहीं हूं और न ही ऐसा कोई लक्ष्य रखता हूं। मेरा आंदोलन सुधार लाने के लिए है। मैं उठ खड़ा हुआ हूं ताकि अपने नाना के अनुयाइयों को सुधारूं। मैं भलाई का आदेश देना और बुराई से रोकना चाहता हूं।" इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने मक्के से निकलते वक़्त लोगों से बात की और अपनी बातों से उन्हें समझाया कि उन्होंने यह मार्ग पूरी सूझबूझ से चुना है और जानते हैं कि इसका अंजाम ईश्वर के मार्ग में शहादत है। जो लोग इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मदद करना चाहते थे वे उनसे रास्ते में कहते रहते थे कि इस आंदोलन का अंजाम सत्ता की प्राप्ति नहीं है।

इसलिए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथ चलने वालों से कहते थे "आपमें से वहीं मेरे साथ चले जो अपनी जान को ईश्वर के मार्ग में क़ुर्बान करने और उससे मुलाक़ात करने का इच्छुक हो।"

यह वादा कितनी जल्दी पूरा हुआ  और 10 मोहर्रम सन 61 हिजरी क़मरी को आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने साथियों के साथ ईश्वर के मार्ग में शहीद हो गए लेकिन अत्याचार को सहन न किया। श्रोताओ! इन्हीं हस्तियों पर पवित्र क़ुरआन के क़मर नामक सूरे की आयत नंबर 54 और 55 चरितार्थ होती है जिसमें ईश्वर कहता हैः "निःसंदेह सदाचारी स्वर्ग के बाग़ में रहेंगे। उस पवित्र स्थान पर जो सर्वशक्तिमान ईश्वर के पास है।"

जैसाकि आप जानते हैं ज़िलहिज महीने की दस तारीख़ को हज के संस्कार अंजाम दिये जाते हैं।  इस पवित्र उपासना के लिए विश्व के कोने-कोने से मुसलमान मक्का पहुंचते हैं।  हज़ के दौरान हाजी सऊदी अरब के दो पवित्र नगरों मक्का और मदीना में ठहरते हैं।  लाखों की संख्या मे हाजी क्रमबद्ध चरणों में मक्का और मदीना जाते हैं।  मक्के में ईश्वर का घर काबा है जबकि मदीने में पैग़म्बरे इस्लाम (स) की क़ब्र स्थित है।  मदीने को पैग़म्बरे इस्लाम का नगर भी कहा जाता है।  यह नगर पैग़म्बरे इस्लाम (स) के काल की याद दिलाता।

मदीना, प्रथम इस्लामी सरकार का केन्द्र रहा है।  प्राचीनकाल में इसे यसरब के नाम से भी पुकारा जाता था।  मदीना नगर मक्के के पूर्वोत्तर में 500 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।  मक्के से मदीने की ओर पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद (स) के पलायन के पश्चात इसकी ख्याति में वृद्धि हुई।  वर्ष 622 ईसवी में हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम पलायन करके मदीना आए थे।  उसी समय से यह नगर मुसलमानों के इतिहास का आरंभिक काल बन गया।  पवित्र नगर मदीना एक प्राचीन नगर है जिसने अब आधुनिक रूप ले लिया है यह इस्लामी इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाओं का साक्षी रहा है।

सन 622 ईसवी में मक्के से मदीने के पलायन से इस नगर को विशेष महत्व प्राप्त हुआ।  यह इस्लामी सरकार की प्रथम राजधानी रह चुका है।  मदीने की जानकारी वास्तव में बहुत सी इस्लामी घटनाओं की पुनरावृत्ति के समान है।  पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने मदीना पहुंचकर जो पहला काम किया वह मुसलमानों की उपासना, उनके एक स्थान पर एकत्रित होने और उनकी समस्याओं के समाधान के लिए किसी स्थल का निर्धारण किया जाना था।  इस उद्देश्य से आपने एक मस्जिद का निर्माण किया।  जिस समय हज़रत मुहम्मद (स) मदीना पहुंचे उस समय वह एक छोटा सा नगर था।  वहां पहुंचकर उन्होंने कुछ नए क़ानूनों की घोषणा की।  मदीने में उन्होंने पहली बार बंधुत्व और समानता को बहुत ही सुन्दर ढंग से व्यवहारिक बनाया।  मक्के से पलायन के बाद अपने जीवन के अन्तिम समय तक पैग़म्बरे इस्लाम मदीने में ही रहे।  मक्के पर विजय प्राप्त करने वहां के उचित संचालन की व्यवस्था करने के बाद पैग़म्बरे इस्लाम (स) पुनः मदीने आ गए।

 मदीना नगर, इस्लाम के प्रचार एवं प्रसार का केन्द्र था।  इन नगर में मौजूद मस्जिदे नबवी, मदीने का महत्वपूर्ण एवं अति पवित्र स्थल है।  मदीने का महत्व इसलिए अधिक है कि ईश्वर के अन्तिम दूत और इस्लाम के संस्थापक हज़रत मुहम्मद की पवित्र क़ब्र वहीं पर है।  उनकी क़ब्र पर बना हरे रंग का गुंबद जो “गुंबदे ख़ज़रा” के नाम से प्रसिद्ध है, लोगों के हृदय को अपनी ओर खींचता है।  प्रत्येक मुसलमान की यह हार्दिक अभिलाषा होता है कि वह अपने जीवन में चाहे एक बार ही सही इस पवित्र नगर के दर्शन करे।  इस संबन्ध में पैग़म्बरे इस्लाम का कहना है कि जो भी मेरे जीवनकाल में मेरे या मेरी मृत्यु के पश्चात मेरा क़ब्र के दर्शन करेगा, प्रलय के दिन मेरी शरण में होगा और मैं उसकी शफाअ करूंगा।  वे कहते हैं कि जो कोई भी हज करे किंतु मेरे दर्शन न करे तो उसने मुझ पर अत्याचार किया।  एक अन्य स्थान पर पैग़म्बरे इस्लाम (स) कहते हैं कि मेरे दर्शन के लिए आने वाले लोग, उन पलायनकर्ताओं की भांति हैं जो मेरे जीवनकाल में मेरे दर्शन के लिए मदीने आया करते थे।

पवित्र नगर मदीना में पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्ललाहो अलैहे वआलेही वसल्लम की पवित्र क़ब्र के अतिरिक्त उनकी सुपुत्री हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की भी क़ब्र है।  यह क़ब्र मदीने के मश्हूर क़ब्रिस्तान बक़ी में बताई जाती है।  इस विस्तृत क़ब्रिस्तान में पैग़म्बरे इस्लाम के कुछ पवित्र परिजनों और उनके साथियों की भी क़ब्रे हैं।  बक़ी नामक क़ब्रिस्तान में पैग़म्बरे इस्लाम के चार पौत्रों, इमाम हसन मुज्तबा, इमाम ज़ैनुल आबेदीन, इमाम मुहम्मद बाक़िर और इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिमुस्सलाम की क़ब्रे हैं।  इसके अतिरिक्त पैग़म्बरे इस्लाम (स) के चचा अब्बास, हज़रत अली अलैहिस्सलाम की माता फ़ातेमा बिंते असद और मिक़दाद बिन असवद, जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी, मालिके अश्तर, उस्मान बिन मज़ऊन, सअद बिन मआज़, इब्ने मसऊद तथा मुहम्मद हनफ़िया जैसे लोगों की क़ब्रें भी बक़ी में ही हैं।  इसके अतिरिक्त मदीने के निकट ओहद नामक पर्वत के पास ओहद युद्ध के शहीदों की क़ब्रे हैं जिनकी संख्या 70 बताई गई है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स) के मज़ार के दर्शन के लिए आने वाले जानते हैं कि प्रकाश की प्राप्ति के लिए प्रकाश के केन्द्र के निकट जाना आवश्यक है।  वे इस बात को समझते हैं कि आदर्श लोगों के सम्मान के लिए उनकी क़ब्र के दर्शन करने चाहिए।  इस प्रकार के कार्य से जहां मन को शांति प्राप्त होती है वहीं पर यह परिपूर्णता का भी कारण है।  जब कोई व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम (स)  या किसी अन्य महापुरूष से निकट होता है तो वह उनके महत्व को समझता है और फिर उनकी शिक्षाओं को अपनाने के प्रयास करता है।

हालांकि सऊदी अरब की सरकार ने मक्के और मदीने में बहुत से मज़ारों और पवित्र स्थलों को ध्वस्त कर दिया है किंतु मुसलमानों के निकट उन महापुरूषों का मान-सम्मान अभी भी वैसा ही है जैसा पहले था।  इस्लाम के आरंभिक काल की इमारतें, मुसलमानों के  इतिहास और उनकी संस्कृति एवं सभ्यता की याद दिलाती हैं किंतु बड़े खेद के साथ कहना पड़ रहा है कि हालिया दशकों में सऊदी अरब की सरकार ने इस्लामी काल की बहुत सी इमारतों को तोड़कर व्यवहारिक रूप में यह सिद्ध कर दिया है कि वह इस्लामी निशानियों को मिटाने के प्रयास में है।  सऊदी अधिकारी, धार्मिक पर्यटन उद्योग में विकास के नाम पर एतिहासिक इस्लामी इमारतों को तोड़ रहे हैं।  क्या केवल पर्यटन के नाम पर इस्लामी इमारतों का तोड़ा जाना है? निश्चित रूप से हम यदि यह चाहते हैं कि पवित्र नगर मदीने को इस्लामी इतिहास के एक महत्वपूर्ण भाग के रूप में दर्शानों तो हमें वहां पर इस्लामी इमारतों के विध्वंस को रुकवाना होगा।

वर्तमान समय में हर उस इमारत को, जिसका संबन्ध प्राचीनकाल से हो, उसकी मरम्मत कराई जाती है।  इस प्रकार से उसे सुरक्षित रखा जाता है।  यह कार्य इसलिए किया जाता है कि उस इमारत की प्राचीनता से विश्व वासियों को परिचित कराया जाए।  यह एसी स्थिति में है कि जब सऊदी अरब की सरकार अबतक बड़ी संख्या में इस्लामी एतिहासिक इमारतों को तोड़ चुकी है।  मक्के और मदीने में मौजूद लगभग 95 प्रतिशत इस्लामी इमारतें तोड़ी जा चुकी हैं।

सऊदी अधिकारियों का कहना है कि यह कार्य इसलिए किया जा रहा है कि उन्हीं के कथनानुसार यह मुसलमानों को शिर्क की ओर मोड़ती हैं।  वहाबियों ने मसाजिदे सबआ को तोड़ दिया जो एतिहासिक और धार्मिक दृष्टि से विशेष महत्व की स्वामी थीं।  वहाबियों ने उस घर को तोड़ दिया जो ईश्वर के अन्तिम दूत हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे वआलेही वसल्लम का जन्म स्थल था।  इसी प्रकार हज़रत ख़दीजा के घर को भी तोड़ दिया गया।  जिस स्थान पर जंगे बद्र हुई थी उसे अब बड़ी पार्किंग में परिवर्तित कर दिया गया है।  सऊदी अरब की सरकार धार्मिक पर्यटन में विस्तार के  बहाने पवित्र स्थलों को तोड़ रही है।  इस प्रकार से वह वहाबी विचारधारा को फैला रही है।  यह एसी स्थिति में है कि यूनेस्को जैसी अन्तर्राष्ट्रीय संस्थाओं ने कहा है कि सऊदी अरब में इस्लामी धरोहरों को सुरक्षित रखने के लिए प्रयास किये जाने चाहिए।

आज पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) और उनके साथियों को बीत शताब्दियों का समय गुज़र चुका है किंतु उनकी यादें अब भी मुसलमानों के दिलों में मौजूद हैं।  हाजी पवित्र नगर मदीना पहुंचकर एक प्रकार से इस्लाम के इतिहास को निकट से देखते हैं।  एसे उचित अवसर पर कि जब हाजी पैग़म्बरे इस्लाम के नगर में मौजूद है उचित यह होगा कि वह उनके कुछ कथनों का स्मरण करे।

पैग़म्बरे इस्लाम कहते हैं कि हे मुसलमानों एसा न हो कि वह एकता जिसे एकेश्वरवाद पर भरोसे के आधार पर प्राप्त किया गया था, मेरे बाद समाप्त हो जाए।  कुछ लोग एक-दूसरे के शत्रु बन जाएं और अज्ञानता के काल की ओर वापस होने लगें।  मैं तुम्हारे बाद दो चीज़ें छोड़ रहा हूं।  यदि तुम सब उनको पकड़े रहोगे तो कभी भी पथभ्रष्ट नहीं होगे।  उनमें से एक पवित्र क़ुरआन और दूसरे मेरे परिजन हैं।     

ईश्वरीय धर्म इस्लाम का एक अंतर्राष्ट्रीय कार्यक्रम व उपासना हज है। हज इस्लाम के व्यापक कार्यक्रमों का एक छोटा साभाग है। हज ऐसी उपासना है जिसमें नमाज़ पढ़ी जाती है दुआ की जाती है धन खर्च किया जाता है बहुत से आनंदों का कुछ दिनों के लिए त्याग किया जाता है, वतन से दूरी और बहुत सारी कठिनाइयों को सहन किया जाता है।

हज करने का बहुत अधिक पुण्य है। हज के पुण्य के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों के बहुत सारे कथन मौजूद हैं। जैसाकि एक रवायत में आया है कि एक अरब, व्यक्ति पैग़म्बरे इस्लाम की सेवा में आकर कहने लगा कि मैं हज करना चाहता था लेकिन नहीं कर पाया। मेरे पास बहुत अधिक धन है आप मुझे आदेश दीजिये कि अपने धन को इस प्रकार खर्च करूं कि हज जैसा पुण्य मुझे मिले। पैग़म्बरे इस्लाम ने उसके उत्तर में कहा मक्के के अबी क़ुबैस पर्वत को देखो। अगर इस पर्वत के बराबर तुम्हारे पास लाल सोना भी हो और उसे ईश्वर के मार्ग में खर्च कर दो तब भी तुम्हें वह पुण्य नहीं मिलेगा जो एक हज करने वाले को मिलता है। उसके बाद पैग़म्बरे इस्लाम ने हज और उसके संस्कारों के बहुत सारे पुण्य को उस अरब के लिए बयान किया।

पवित्र कुरआन में बहुत सारी आयतें हैं जो हज और उसके संस्कारों के बारे में हैं। पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९७ में हम पढ़ते हैं कि लोगों पर ईश्वरीय कर्तव्य है कि जिस किसी में भी उस घर तक पहुंचने की क्षमता हो वह इस घर का हज करे और जो कोई इन्कार करे तो निःसन्देह, ईश्वर पूरे संसार से आवश्यकतामुक्त है”

इस आयत से यह समझ में आता है कि हज उन लोगों के लिए अनिवार्य है जो इसकी क्षमता रखते हैं और जो व्यक्ति क्षमता होने के बावजूद इसे अंजाम नहीं देता उसे कुफ्र अर्थात इंकार करने वालों की भांति बताया गया है। इस प्रकार के शब्द का प्रयोग केवल इसी आयत में आया है और हज को अंजाम न देने वाले को नास्तिक की भांति बताया गया है।

इस आधार पर जब एक मुसलमान के पास हज पर जाने और अपने परिवार का खर्च मौजूद हो तो उस पर हज अनिवार्य है। पवित्र कुरआन में जब हज पर जाने वालों का उल्लेख होता है तो सबसे पहले पैदल जाने वालों का वर्णन होता है। पवित्र कुरआन के सूरे हज की २७वीं आयत में आया है” हे पैग़म्बर लोगों को हज के लिए आमंत्रित करो ताकि लोग निर्बल सवारियों पर बैठकर दूर से आयें” बहुत से अवसरों पर एसा होता है कि बहुत से लोगों के पास सवारी से मक्का जाने  की क्षमता नहीं होती है। इस आधार पर वे पैदल मक्का जाते हैं किन्तु मक्का जाने की क्षमता उनके अंदर होती है इसलिए हज उन पर अनिवार्य होता है। एक रवायत में आया है कि एक व्यक्ति ने इमाम जाफर सादिक़ अलैहिस्सलाम से पूछा कि क्या हज अमीर और ग़रीब दोनों पर अनिवार्य है? इमाम ने उत्तर दिया कि हज हर छोटे बड़े इंसान पर अनिवार्य है और अगर हज पर जाने में किसी के सामने कोई मजबूरी है तो ईश्वर उसकी मजबूरी को स्वीकार करेगा”

पवित्र कुरआन काबे को ज़मीन पर एकेश्वरवाद का पहला घर बताता और उसके मुबारक होने पर बल देता है। पवित्र कुरआन के सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९६ में हम पढ़ते हैं” लोगों के लिए जो सबसे पहला घर बनाया है वह  मक्का में है जो विभूति और विश्ववासियों के मार्गदर्शन का स्रोत है”

पवित्र कुरआन के कुछ व्याख्याकर्ताओं के अनुसार काबा इस कारण विभूति और बरकत का स्रोत है कि उसमें आध्यात्मिक, भौतिक, राजनीतिक, व्यक्तिगत और सामाजिक आदि आयामों से बहुत अधिक विभूतियां है। जब हज के लिए जाने वाला इंसान स्वयं को लाखों व्यक्तियों के मध्य देखता है तो वह स्वयं को महासागर में एक बूंद की भांति पाता है और उसका प्रयास होता है कि वह भी महान ईश्वर का भला बंदा बन जाये। हज के आध्यात्मिक वातावरण में हाजी को चाहिये कि वह अपने दिल को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से पवित्र कर ले और केवल उसी पर ध्यान दे। राजनीतिक और सामाजिक दृष्टि से जब हाजी स्वयं को दूसरे हाजियों की पंक्ति में देखता है तो वह स्वयं को अकेला नहीं पाता है और अपने भीतर शक्ति का आभास करता है तथा शत्रु पर विजय व सफलता के प्रति अधिक आशान्वित हो जाता है।

काबा महान ईश्वर की शक्ति का स्पष्ट चिन्ह है। सूरे आले इमरान की आयत नंबर ९७ में काबे को स्पष्ट निशानी के रूप में याद किया गया है। काबे का पूरे इतिहास में बाक़ी रहना महान ईश्वर की शक्ति का एक चिन्ह है जबकि इतिहास में विभिन्न शत्रुओं ने इसे ध्वस्त करने का पूरा प्रयास किया था। हज़रत इब्राहीम जैसे बड़े पैग़म्बर के काल की चीज़ों का मौजूद होना स्वयं महान ईश्वर की शक्ति का चिन्ह है जैसे हजरूल असवद और हजरे इस्माईल नामक पत्थरों का मौजूद रहना जो स्वयं कई हज़ार वर्ष पुराने हैं। पवित्र कुरआन के महान ईरानी व्याख्या कर्ता अल्लामा तबातबाई इस बारे में लिखते हैं” काबे की एक बड़ी निशानी मकामे इब्राहीम अर्थात इब्राहीम नाम का स्थल है, दूसरे उसकी सुरक्षा है और तीसरे सक्षम लोगों पर हज का अनिवार्य होना है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि जिन चीज़ों का उल्लेख किया गया उनमें से हर एक में महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की निशानियां हैं। दुनिया वालों की नज़र में मक़ामे इब्राहीम, काबे की सुरक्षा और हज संस्कार से बड़ी क्या निशानी है? वह कार्य व उपासना जिसकी पुनरावृत्ति प्रतिवर्ष लाखों हाजी करते हैं।

पवित्र कुरआन के सूरे हज की २९वीं और ३३वीं आयतों में काबे को बैते अतीक़ के नाम से याद किया गया है। अतीक़ यानी स्वतंत्र। यह आज़ाद घर है और महान ईश्वर के अतिरिक्त इसका कोई दूसरा मालिक नहीं है। हाजी पूरी स्वतंत्रता के साथ काबे की परिक्रमा करते हैं ताकि स्वतंत्रता एवं आज़ादी का पाठ सीख सकें और दूसरों के दास न बनें और अपने कार्यों व मामलों की बागडोर दूसरों के हवाले न करें। काबा वह पवित्र स्थान है जिसके चारों ओर परिक्रमा करने से हाजी शैतानी इच्छाओं व सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम फरमाते हैं” इच्छाओं का दास खरीदे हुए दास से भी तुच्छ होता है और खरीदा हुआ दास उससे प्रतिष्ठित व श्रेष्ठ होता है काबे की परिक्रमा इंसान को गलत इच्छाओं व क्रोध से मुक्ति दिलाती है

काबे की महानता के लिए इतना ही काफी है कि महान ईश्वर ने उसे अपना घर बताया है यहां पर इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि जब ईश्वर निराकार और सर्वव्यापी है और निराकार एवं सर्वव्यापी चीज़ को किसी स्थान की ज़रूरत नहीं होती है तो उसने काबे को अपना घर क्यों कहा? उसका उत्तर यह है कि महान ईश्वर ने जिन कारणों से काबे को अपना घर कहा है उनमें से एक कारण यह है कि काबे में ईश्वर की उपासना की जाती है उसकी परिक्रमा की जाती है काबे के अंदर जान बूझकर किसी चींटी को भी मारना पाप है। जिस तरह से महान ईश्वर की महानता अकल्पनीय है उसी तरह से काबे की महानता की भी कल्पना नहीं की जा सकती। महान ईश्वर ने अपने दो दूतों हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल को उसके निर्माण का आदेश दिया ताकि वे उसकी दीवारों और स्तंभों को ऊपर उठायें और उसे पवित्र रखने का भी उन्हें आदेश दिया। काबा पवित्रता का घर है और जो काबे में हो तथा उसकी परिक्रमा कर रहा हो उसे भी पवित्र होना चाहिये। इस आधार पर हज़रत इब्राहीम अपने बेटे हज़रत इस्माईल की सहायता से महान ईश्वर की ओर से दिये गये आदेश का पालन करते हैं और काबे का निर्माण करते हैं और जो चीज़ भी अनेकेश्वाद की निशानी थी उसे मिटा दिया। पवित्र कुरआन ने काबे की सुरक्षा की भी सिफारिश की है और महान ईश्वर सूरे तौबा की १७वीं आयत में बल देता है कि काफिरों को मस्जिदों को आबाद करने का अधिकार नहीं है। क्योंकि जो महान ईश्वर के होने पर ईमान नहीं रखता वह उसकी उपासना भी नहीं करेगा। तो फिर वह किस तरह ईश्वर की उपासना के स्थान को आबाद करेगा? सूरे तौबा की १८वीं आयत में हम पढ़ते हैं” ईश्वर की मस्जिदों को केवल वही आबाद करेगा जो ईश्वर और प्रलय के दिन पर ईमान रखता होगा, नमाज़ पढ़ता होगा, ज़कात देता होगा और ईश्वर के अतिरिक्त किसी से नहीं डरता होगा, उम्मीद है कि इस प्रकार के गुट मार्गदर्शन प्राप्त करने वालों में होंगे”

इस आधार पर न केवल अनेकेश्वरवादियों और काफिरों को मस्जिदों विशेषकर काबा के निर्माण का अधिकार नहीं है बल्कि उन मुसलमानों को भी इस कार्य की अनुमति नहीं है जिनका ईमान कमज़ोर हो और वे शत्रुओं से डरते हों। अलबत्ता यहां इस बात का उल्लेख आवश्यक है कि मस्जिद के निर्माण और उसके पुनरनिर्माण में अंतर है और जो आयत उसके निर्माण के बारे में आई है उसकी व्याख्या में आया है कि काबे को आबाद करना उसके निर्माण से हटकर है और उसके आबाद करने में वह चीज़ें भी शामिल हैं जो सुविधाएं व सेवाएं काबे का दर्शन करने वालों के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं। जो चीज़ें मुसलमानों को एकत्रित होकर हज करने के लिए उपलब्ध कराई जाती हैं ताकि मुसलमान आसानी से हज कर सकें, नमाज़ पढ़ सकें और दुआ आदि कर सकें सब काबे को आबाद करने की पंक्ति में आती हैं। स्पष्ट है कि इस प्रकार की व्यवस्था को वर्तमान समय में प्राथमिकता प्राप्त है। इस प्रकार से कि  मस्जिदुल हराम यानी काबे और दूसरी मस्जिदों को शत्रुओं के मुकाबले में लोगों की जागरुकता का केन्द्र होना चाहिये।