رضوی

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ग़ज़्ज़ा में जनसंहार कर रहा अवैध राष्ट्र इस्राईल हथियारों की आपूर्ति में हो रही देरी की वजह से बौखलाया हुआ है। बताया जा रहा है कि ज़ायोनी प्रधानमंत्री बेंजामिन नेतन्याहू अमेरिकी राष्ट्रपति बाइडन से नाराज है। नेतन्याहू ने बाइडन प्रशासन पर इस्राईल को गोलाबारूद और हथियार मुहैया नहीं कराने का आरोप लगाया है। नेतन्याहू ने अमेरिका को अपना सबसे करीबी दोस्त तो बताया साथ में ये शिकायत भी की है कि पिछले कुछ महीने से बाइडन प्रशासन हथियार देने में देरी कर रहा है, जो अवैध राष्ट्र के लिए हैरान करने वाला है।

 बता दें कि पिछले साल अक्टूबर में हमास ने दशकों से चले आ रहे दमन और हर दिन हो रहे हमलों और क़त्ल के जवाब में इस्राईल पर ज़बरदस्त हमला किया था जिसके बाद ज़ायोनी सेना फिलिस्तीन में लगातार जनसंहार में लगी हुई है और अब तक 38 हजार फिलिस्तीनी नागरिकों का क़त्ले आम कर चुकी है।

बुधवार, 19 जून 2024 10:23

हजः संकल्प करना-7

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए.............

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना। वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए.............

हज का शाब्दिक अर्थ होता है संकल्प करना।  वे लोग जो ईश्वर के घर के दर्शन का संकल्प करते हैं, उनको इस यात्रा की वास्तविकता से अवगत रहना चाहिए और उसको बिना पहचान के संस्कारों को पूरा नहीं करना चाहिए। इसका कारण यह है कि उचित पहचान और परिज्ञान, ईश्वर के घर का दर्शन करने वाले का वास्तविकताओं की ओर मार्गदर्शन करता है जो उसके प्रेम और लगाव में वृद्धि कर सकता है तथा कर्म के स्वाद में भी कई गुना वृद्धि कर सकता है।  ईश्वर के घर के दर्शनार्थी जब अपनी नियत को शुद्ध कर लें और हृदय को मायामोह से अलग कर लें तो अब वे विशिष्टता एवं घमण्ड के परिधानों को अपने शरीर से अलग करके मोहरिम होते हैं। मोहरिम का अर्थ होता है बहुत सी वस्तुओं और कार्यों को न करना या उनसे वंचित रहना। लाखों की संख्या में एकेश्वरवादी एक ही प्रकार के सफेद कपड़े पहनकर और सांसारिक संबन्धों को त्यागते हुए मानव समुद्र के रूप में काबे की ओर बढ़ते हैं। यह लोग ईश्वर के निमंत्रण को स्वीकार करने के लिए वहां जा रहे हैं। पवित्र क़ुरआन के सूरए आले इमरान की आयत संख्या ९७ में ईश्वर कहता है कि लोगों पर अल्लाह का हक़ है कि जिसको वहाँ तक पहुँचने का सामर्थ्य प्राप्त हो, वह इस घर का हज करे।    एहराम बांधने से पूर्व ग़ुस्ल किया जाता है जो उसकी भूमिका है।  इस ग़ुस्ल की वास्तविकता पवित्रता की प्राप्ति है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि मोहरिम हो अर्थात दूरी करो हर उस वस्तु से जो तुमको ईश्वर की याद और उसके स्मरण से रोकती है और उसकी उपासना में बाधा बनती है।मोहरिम होने का कार्य मीक़ात नामक स्थान से आरंभ होता है।  वे तीर्थ यात्री जो पवित्र नगर मदीना से मक्का जाते हैं वे मदीना के निकट स्थित मस्जिदे शजरा से मुहरिम होते हैं। इस मस्जिद का नाम शजरा रखने का कारण यह है कि इस्लाम के आरंभिक काल में पैग़म्बरे इस्लाम (स) इस स्थान पर एक वृक्ष के नीचे मोहरिम हुआ करते थे।  अब ईश्वर का आज्ञाकारी दास अपने पूरे अस्तित्व के साथ ईश्वर का सामिप्य प्राप्त करने के लिए आगे बढ़ता है। अपने विभिन्न प्रकार के संस्कारों और आश्चर्य चकित करने वाले प्रभावों के साथ हज, लोक-परलोक के बीच एक आंतरिक संपर्क है जो मनुष्य को प्रलय के दिन को समझने के लिए तैयार करता है।  हज एसी आध्यात्मिक उपासना है जो परिजनों से विदाई तथा लंबी यात्रा से आरंभ होती है और यह, परलोक की यात्रा पर जाने के समान है।  हज यात्री सफ़ेद रंग के वस्त्र धारण करके एकेश्वरवादियों के समूह में प्रविष्ट होता है और हज के संस्कारों को पूरा करते हुए मानो प्रलय के मैदान में उपस्थित है। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम हज करने वालों को आध्यात्मिक उपदेश देते हुए कहते हैं कि महान ईश्वर ने जिस कार्य को भी अनिवार्य निर्धारित किया और पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने जिन परंपराओं का निर्धारण किया है, वे चाहे हराम हों या हलाल सबके सब मृत्यु और प्रलय के लिए तैयार रहने के उद्देश्य से हैं।  इस प्रकार ईश्वर ने इन संस्कारों को निर्धारित करके प्रलय के दृश्य को स्वर्गवासियों के स्वर्ग में प्रवेश और नरक में नरकवासियों के जाने से पूर्व प्रस्तुत किया है।    हज करने वाले एक ही प्रकार और एक ही रंग के वस्त्र धारण करके तथा पद, धन-संपत्ति और अन्य प्रकार के सांसारिक बंधनों को तोड़कर अपनी वास्तविकता को उचित ढंग से पहचानने का प्रयास करते हैं अर्थात उन्हें पवित्र एवं आडंबर रहित वातावरण में अपने अस्तित्व की वास्तविकताओं को देखना चाहिए और अपनी त्रुटियों एवं कमियों को समझना चाहिए।  ईश्वर के घर का दर्शन करने वाला जब सफेद रंग के साधारण वस्त्र धारण करता है तो उसको ज्ञात होता है कि वह घमण्ड, आत्ममुग्धता, वर्चस्व की भावना तथा इसी प्रकार की अन्य बुराइयों को अपने अस्तित्व से दूर करे।  जिस समय से तीर्थयात्री मोहरिम होता है उसी समय से उसे बहुत ही होशियारी से अपनी गतिविधियों और कार्यों के प्रति सतर्क रहना चाहिए क्योंकि उसे कुछ कार्य न करने का आदेश दिया जा चुका है। मानो वह ईश्वर की सत्ता का अपने अस्तित्व में आभास कर रहा है और उसे शैतान के लिए वर्जित क्षेत्र तथा सुरक्षित क्षेत्र घोषित करता है। इस भावना को मनुष्य के भीतर अधिक प्रभावी बनाने के लिए उससे कहा गया है कि वह अपने उस विदित स्वरूप को परिवर्ति करे जो सांसारिक स्थिति को प्रदर्शित करता है और सांसारिक वस्त्रों को त्याग देता है।  जो व्यक्ति भी हज करने के उद्देश्य से सफ़ेद कपड़े पहनकर मोहरिम होता है उसे यह सोचना चाहिए कि वह ईश्वर की शरण में है अतः उसे वैसा ही व्यवहार करना चाहिए जो उसके अनुरूप हो।यही कारण है कि शिब्ली नामक व्यक्ति जब हज करने के पश्चात इमाम ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की सेवा में उपस्थित हुआ तो हज की वास्तविकता को स्पष्ट करने के लिए उन्होंने शिब्ली से कुछ प्रश्न पूछे।  इमाम सज्जाद अ. ने शिब्ली से पूछा कि क्या तुमने हज कर लिया? शिब्ली ने कहा हां, हे रसूल के पुत्र। इमाम ने पूछा कि क्या तुमने मीक़ात में अपने सिले हुए कपड़ों को उतार कर ग़ुस्ल किया था?  शिब्ली ने कहा जी हां। इसपर इमाम ने कहा कि जब तुम मीक़ात पहुंचे तो क्या तुमने यह संकल्प किया था कि तुम पाप के वस्त्रों को अपने शरीर से दूर करोगे और ईश्वर के आज्ञापालन का वस्त्र धारण करोगे? शिब्ली ने कहा नहीं।  अपने प्रश्नों को आगे बढ़ाते हुए इमाम ने शिब्ली से पूछा कि जब तुमने सिले हुए कपड़े उतारे तो क्या तुमने यह प्रण किया था कि तुम स्वयं को धोखे, दोग़लेपन तथा अन्य बुराइयों से पवित्र करोगे? शिब्ली ने कहा, नहीं।  इमाम ने शिब्ली से पूछा कि हज करने का संकल्प करते समय क्या तुमने यह संकल्प किया था कि ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग रहोगे?  शिब्ली ने फिर कहा कि नहीं।  इमाम ने कहा कि न तो तुमने एहराम बांधा, न तुम पवित्र हुए और न ही तुमने हज का संकल्प किया।    एहराम की स्थिति में मनुष्य को जिन कार्यों से रोका गया है वे कार्य आंतरिक इच्छाओं के मुक़ाबले में मनुष्य के प्रतिरोध को सुदृढ़ करते हैं। उदाहरण स्वरूप शिकार पर रोक और पशुओं को क्षति न पहुंचाना, झूठ न बोलना, गाली न देना और लोगों के साथ झगड़े से बचना आदि। यह प्रतिबंध हज करने वाले के लिए वैस तो एक निर्धारित समय तक ही लागू रहते हैं किंतु मानवता के मार्ग में परिपूर्णता की प्राप्ति के लिए यह प्रतिबंध, मनुष्य का पूरे जीवन प्रशिक्षण करते हैं।  एहराम की स्थिति में जिन कार्यों से रोका गया है यदि उनके कारणों पर ध्यान दिया जाए तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि पशु-पक्षियों और पर्यावरण की सुरक्षा तथा छोटे-बड़े समस्त प्राणियों का सम्मान, इन आदेशों के लक्ष्यों में से है। इस प्रकार के कार्यों से बचते हुए मनुष्य, प्रशिक्षण के एक एसे चरण को तै करता है जो तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय की प्राप्ति के लिए व्यवहारिक भूमिका प्रशस्त करता है। इन कार्यों में से प्रत्येक, मनुष्य को इस प्रकार से प्रशिक्षित करता है कि वह उसे आंतरिक इच्छाओं के बहकावे से सुरक्षित रखे और अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण की शक्ति प्रदान करता है।हज के दौरान जिन कार्यों से रोका गया है वास्तव में वे एसे कार्यों के परिचायक हैं जो तक़वे तक पहुंचने की भूमिका हैं। एहराम बांधकर मनुष्य का यह प्रयास रहता है कि वह एसे वातावरण में प्रविष्ट हो जो उसे ईश्वर के भय रखने वाले व्यक्ति के रूप में बनाए।  हज के दौरान “मोहरिम”

 

बुधवार, 19 जून 2024 10:20

हज,इस्लाम की पहचान- 6

जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के सामाजिक, राजनीतिक और आस्था संबंधी आयाम के बड़े

    जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है

 जिस तरह से ईश्वरीय धर्म इस्लाम ने मनुष्य के आत्मिक और आध्यात्मिक आदि पहलुओं पर भरपूर ध्यान दिया है, हज में इस व्यापकता को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के सामाजिक, राजनीतिक और आस्था संबंधी आयाम के बड़े भाग को प्रतिबिम्बित करता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि हज इस्लाम की पताका है। ज़िलहिज्जा का महीना वहि अर्थात ईश्वरीय संदेश उतरने की भूमि में महान ईश्वर पर आस्था रखने वालों के महासम्मेलन का महीना है। आज इस महीने का पहला दिन है। इस महान महीने की पहली तारीख को हम अपने हृदयों को वहि की मेज़बान भूमि की ओर ले चलते है तथा महान ईश्वर के प्रेम व श्रद्धा में डूबे लाखों व्यक्तियों की आवाज़ से आवाज़ मिलाते हैं जो हज के संस्कारों में भाग लेने की तैयारी कर रहे हैं, लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैकहे ईश्वर हमने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया। यह पावन ध्वनि ईश्वरीय उपासना और प्रेम की वास्तविकता की सूचक है जो ईश्वर के घर का दर्शन करने वालों की ज़बान पर जारी है। हज उपासना एवं बंदगी व्यक्त करने का एक अन्य अवसर है और उससे ऐसी महानता प्रदर्शित व प्रकट होती है जिसका वर्णन शब्दों में नहीं किया जा सकता। इस महानता को समझने के लिए हज के आध्यात्मिक महासम्मेलन में उपस्थित होकर उपासना के लिए माथे को ज़मीन पर रख देना चाहिये। अब विश्व के कोने कोने से हज़ारों मनुष्य काबे की ओर जा रहे हैं। वास्तव में कौन धर्म और पंथ है जो इस प्रकार मनुष्यों को उत्साह के साथ एक स्थान पर एकत्रित कर सकता है। इस का कारण इसके अतिरिक्त कुछ और नहीं है कि महान ईश्वरीय धर्म इस्लाम लोगों के हृदयों पर शासन कर रहा है और यह इस धर्म की विशेषता है जो श्रृद्धालुओं को इस तरह काबे की ओर ले जा रहा है जैसे प्यासा व्यक्ति पानी के सोते की ओर जाता है। काबे के समीप लाखों मुसलमानों के एकत्रित होने से पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम के जीवन के कुछ भागों की याद ताज़ा हो जाती है। पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने जीवन के अंतिम हज में मुसलमानों को भाई चारे और एकता का आह्वान किया तथा एक दूसरे के अधिकारों का हनन करने से मना किया और कहा हे लोगो! मेरी बात सुनो शायद इसके बाद मैं तुमसे इस स्थान पर भेंट न करूं। हे लोगों! तुम्हारा जीवन और धन एक दूसरे के लिए आज के दिन और इस महीने की भांति उस समय तक सम्मानीय हैं जब तुम ईश्वर से भेंट करोगे और उन पर हर प्रकार का अतिक्रमण हराम है। अब मुसलमानों के विभिन्न गुट व दल इस्लामी जगत के प्रतिनिधित्व के रूप में सऊदी अरब के पवित्र नगर मक्का और मदीना गये हैं ताकि इस्लामी इतिहास की निर्णायक एवं महत्वपूर्ण घटनाओं की याद ताजा करें। पैग़म्बरे इस्लाम की अनुशंसाओं को याद करें और एक दूसरे के साथ भाई चारे व समरसता के साथ उपासना की घाटी में क़दम रखें। विशेषकर इस वर्ष कि जब इस्लामी जागरुकता व चेतना तथा मुसलमानों की पहचान की रक्षा, बहुत महत्वपूर्ण विषय हो गई है। इस बात में कोई संदेह नहीं है कि इस्लामी जागरुकता हज के मौसम में मुसलमानों के एक स्थान पर एकत्रित होने का एक प्रतिफल है। इस आधार पर इस्लामी जागरुकता को मज़बूत करने के लिए हज का मौसम एक मूल्यवान अवसर है जो विभिन्न धर्मों व सम्प्रदायों के लोगों के मध्य एकता व वैचारिक समरसता से व्यवहारिक होगा। इस्लाम एक परिपूर्ण धर्म के रूप में मनुष्य की समस्त आवश्यकताओं पर ध्यान देता है और वह मनुष्य की समस्त प्राकृतिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला है। इस्लाम ने मनुष्य के अस्तित्व की पूर्ण पहचान के कारण महान ईश्वर ,मनुष्य और मनुष्यों के एक दूसरे के साथ संबंध के बारे में विशेष व्यवहार व क़ानून निर्धारित किया है। हज और उसके संस्कार इसी कार्यक्रम में से हैं जो मनुष्य की प्रगति व विकास में प्रभावी हो सकता है। जिस प्रकार धर्म ने मनुष्य के आध्यात्म एवं चरित्र आदि जैसे पहलुओं पर ध्यान दिया है हज के मौसम में उसकी व्यापकता को देखा जा सकता है। हज इस्लाम की एक पहचान है और वह धर्म के राजनीतिक सामाजिक एवं आस्था संबंधी पहलुओं के बड़े भाग को प्रतिबिंबित करने वाला है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन है कि हज इस्लाम की पताका है। पताका वह प्रतीक होता है जिसके माध्यम से एक संस्कृति की विशेषताओं को बयान करने का प्रयास किया जाता है। पूरे विश्व से मुसलमान हज के महासम्मेलन में एकत्रित होते हैं। भौतिक सीमाओं से हटकर विभिन्न राष्ट्रों के काले- गोरे समस्त मुसलमान एक स्थान पर एकत्रित होते हैं और व्यक्तिगत, सामाजिक, राष्ट्रीय और सांस्कृतिक विशेषताओं व अंतरों पर ध्यान दिये बिना वे समान व संयुक्त कार्य अंजाम देते हैं। यह संयुक्त कार्य किसी विशेष व्यक्ति या राष्ट्र से विशेष नहीं है। इस प्रकार के महासमारोह में है कि इसके संस्कार उसके लक्ष्यों की जानकारी के साथ मनुष्य का मार्गदर्शन एक पहचान की ओर करता है। इस आधार पर धार्मिक पहचान की प्राप्ति को हज का एक प्रतिफल समझा जा सकता है। इस प्रकार से कि एक पूर्वी मामलों के विशेषज्ञ Bernard lewis स्वीकार करते हैं" परेशानी की घड़ी में इस्लामी जगत में मुसलमानों ने बारम्बार यह दर्शा दिया है कि वे धार्मिक समन्वय के परिप्रेक्ष्य में अपनी धार्मिक पहचान बहाल कर लेते हैं। वह पहचान जिसका मापदंड राष्ट्र या क्षेत्र नहीं होता, बल्कि इस की परिभाषा इस्लाम ने की है। ईश्वरीय संदेश उतरने की पावन भूमि में हज आयोजित होने से हज करने वाले के लिए इस्लामी संस्कृति की विशेषताओं व इस्लामी पहचान सेअवगत होने की भूमि प्रशस्त होती है और हज करने वाला दूसरी संस्कृतियों के मध्य अपनी इस्लामी संस्कृति की पहचान उत्तम व बेहतर ढंग से प्राप्त कर सकता है। विश्वस्त इस्लामी स्रोतों पर संक्षिप्त दृष्टि डालने से दावा किया जा सकता है कि हज इस्लाम की व्यापकता का उदाहरण है। पैग़म्बरे इस्लाम हज के कारणों को बयान करते हुए उसकी तुलना समूचे धर्म से करते हैं। मानो महान ईश्वर नेविशेष रूप से इरादा किया है कि हज को उसके समस्त आयामों के साथ एक उपासना का स्थान दे। हज के हर एक संस्कार व कर्म का अपना एक अलग रहस्य है और यही रहस्य है जो हज को विशेष अर्थ प्रदान करता है तथा हज करने वाले के भीतर गहरे परिवर्तिन का कारण बनता है। हज में सफेद वस्त्र धारण करने से लेकर सफा व मरवा नाम की पहाड़ियों के मध्य तेज़ तेज़ चलने, काबे की परिक्रमा, अरफात और मेना नाम के मैदानों में उपस्थिति तक क्रमशः मनुष्य की आत्मा रचनात्मक अभ्यास के चरणों से गुज़रती है ताकि हाजी के मस्तिष्क एवं व्यवहार में गहरा परिवर्तन उत्पन्न हो सके। इस उपासना का पहला लाभ यह है कि हज यात्रा आरंभ होने के साथ सांसारिक लगाव व मोहमाया समाप्त होने लगती है। हज भौतिकि लगाव से मुक्ति पाने का बेहतरीन मार्ग है। हज पर जाने वाला व्यक्ति मानो हाथों और पैरों में पड़ी भौतिक लालसाओंकी बैड़ियों से मुक्ति प्राप्त करके महान परिवर्तन की ओर बढ़ता है। हर प्रकार के व्यक्तिगत, जातीय और वर्गिय भेदभाव से मुक्ति हज का दूसरा सुपरिणाम है। सफेद वस्त्र धारण करने का एक रहस्य यही है कि मनुष्य रंग और हर उस चीज़ से दूर व अलग हो गया है जो सामाजिक एवं जातीय भेदभाव का सूचक हो। इस्लाम में उपासना का रहस्य यह है कि मनुष्य धार्मिक दायित्वों के निर्वाह से स्वयं को सर्वसमर्थ व महान ईश्वर से निकट कर सकता है। हज में उपासना की एक विशेषता यह है कि इस आध्यात्मिक यात्रा में मनुष्य ईश्वरीय भय एवं सामाजिक सदगुणों से सुसज्जित होता है। यह इस्लाम द्वारा मनुष्य के व्यक्तिगत और सामाजिक तथा विभिन्न पहलुओं पर ध्यान दिये जान

 

बुधवार, 19 जून 2024 10:20

हज में महिलाओं की भूमिका

हज का वातावरण हज़रत हाजेरा और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से ही, पुरुषों के साथ महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में मानवीय व लैंगिक दोनों आयामों को दृष्टि में रखा गया है...

हज का वातावरण हज़रत हाजेरा और हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम के काल से ही, पुरुषों के साथ महिलाओं को समान अधिकार प्रदान करता है और इस प्रक्रिया में मानवीय व लैंगिक दोनों आयामों को दृष्टि में रखा गया है। हज एक ऐसा मंच है जो महिलाओं को समाजिक स्तर पर नये अनुभव प्राप्त करने और अन्य लोगों के साथ व्यवहार की शैलियों से परिचित कराता है। इस्लाम के सब से बड़े प्रशिक्षण कार्यक्रम के रूप में हज अधिवेशन, वर्ष में एक बार आयोजित होता है। हज के नियम व संस्कार कुछ इस प्रकार से हैं कि उसमें, लिंगभेद, जाति , पद व सामाजिक स्थिति पर ध्यान दिए बिना सभी लोगों को समान समझा गया है। सभी को हज के संस्कार करना होते हैं और स्वार्थ व अहंकार से निकलना होता है ताकि ईश्वर से निकट हुआ जा सके और स्वंय को एक नये मनुष्य के रूप में ढाला जा सके। हज संस्कारों में महिलाओं की प्रभावशाली व सराहनीय भूमिका स्पष्ट रूप से देखी जा सकती है। ईश्वरीय धर्म के प्राचीन इतिहास में जिन महिलाओं को ईश्वर पर आस्था, उसके प्रति ज्ञान व उसकी पहचान का प्रतीक समझा गया, उनके साथ हज संस्कारों को कुछ इस प्रकार से जोड़ दिया गया है कि आज भी हज के बहुत से संस्कार और नियमों में उनकी झलक देखी जा सकती है। हज अत्यन्त प्राचीन संस्कार है। मक्का नगर में काबा, पृथ्वी के पहले मुनष्य हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के युग में बनाया गया था और उस समय से अब तक, एकेश्वरवादियों और ईश्वर में आस्था रखने वालों का उपासनास्थल रहा है। हज़रत इब्राहीम के युग में कि जब हज के अधिकांश संस्कारों की आधारशिला रखी गयी, सब से मुख्य भूमिका हज़रत हाजेरा नामक एक महान महिला ने निभाई। वे हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की पत्नी और हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम की माता हैं। उनकी महानता वास्तव में उन परीक्षाओं, संघर्षों, ईश्वर पर भरोसा और उसमें आस्था का परीणाम है जो उनके जीवन में जगह जगह देखने को मिलती है जिनकी याद मक्का के वातावरण और हज के संस्कार से दिलायी गयी है। मक्का के सूखे मरुस्थल में ईश्वर पर भरोसा और अपने पुत्र इस्माईल के लिए एक घूंट पानी के लिए इधर इधर व्याकुलता में हज़रत हाजरा का दौड़ना ईश्वरीय चिन्हों में गिना गया है। हज में हाजियों को सफ़ा और मरवा नामक दो पहाड़ियों के मध्य दौड़ कर हज़रत हाजरा के उसी संघर्ष को याद करना और ईश्वर पर भरोसे में का पाठ लेना होता है। हज़रत हाजेरा ने यह सिखा दिया कि अकेलेपन और बेसहारा हो जाने के बाद किस प्रकार से कृपालु ईश्वर से आशा रखनी चाहिए। यह कहा जा सकता है कि हज़रत इब्राहीम के साथ हज़रत हाजेरा की जीवनी, वास्तव में उपासना और ईश्वर पर आस्था का इतिहास है। निसंदेह हर मनुष्य किसी न किसी प्रकार इस तरह की परीक्षा का सामना करता है और यह परीक्षा कभी कभी बहुत कठिन होती है। इस स्थिति में संकटों और समस्याओं से निकलने के लिए, हज़रत इब्राहीम और हज़रत हाजेरा जैसे आदर्शों के पदचिन्हों पर चलना चाहिए। कु़रआने मजीद के सूरए मुमतहेना की आयत नंबर चार में कहा गया है कि तुम ईश्वर पर आस्था रखने वालों के लिए अत्यन्त सराहनीय व अच्छी बात यह है कि इब्राहीम और उनके साथ रहने वालों का अनुसरण करो।

हज़रत हाजेरा की महानता का एक अन्य आयाम, ईश्वरीय आदेशों के सामने नतमस्तक होना है। जब उन्हें अपने बेटे इस्माईल की बलि चढ़ाने के ईश्वरीय आदेश का ज्ञान हुआ तो शैतानी बहकावा अपनी चरम सीमा पर पहुंच गया। शैतान उनके पास गया कहने लगा कि इब्राहीम तुम्हारे बेटे को मार डालना चाहते हैं। हज़रत हाजेरा ने कहा कि क्या विश्व में एसा कोई है जो अपने ही बेटे को मार डाले? शैतान ने कहा वह दावा करते हैं कि यह ईश्वर का आदेश है। हज़रत हाजेरा ने कहा कि चूंकि यह ईश्वर का आदेश है इस लिए उसका पालन होना चाहिए। जो ईश्वर को पसन्द है मैं उसी में खुश हूं। ईश्वर के प्रति आस्था से परिपूर्ण हज़रत हाजेरा की इस बात ने उनकी महानता में चार चांद लगा दिये। आज हज़रत हाजेरा और हज़रत इस्माईल की क़ब्रें, हजरे इस्माईल नामक स्थान पर ईश्वरीय दूतों के साथ हैं। यह स्थान काबे के पास ही गोलार्ध आकार में मौजूद है। जो हाजी काबे की परिक्रमा करना चाहते हैं उन्हें काबे के साथ ही इस स्थान की भी परिक्रमा करनी होती है इस प्रकार से वह महिला जो ईश्वरीय आदेश के कारण मरुस्थल में अकेली रही और जिसने ईश्वरीय आदेश को सह्रदय स्वीकार किया, अन्य लोगों के लिए आदर्श बन गयी। हज़रत हाजेरा पहली महिला हैं जिन्होंने काबे के प्रति अपनी आस्था प्रकट करने के लिए उसके द्वार पर पर्दा डाला। इस्लामी संस्कृति में यदि मनुष्य पवित्रता की सीढ़िया तय कर ले और महानता प्राप्त करने में सफल हो जाए तो वह अन्य लोगों के लिए आदर्श बन सकता है और इससे कोई अंतर नहीं पड़ता कि वह महिला है या पुरुष। कु़रआने मजीद में चार आदर्श महिलाओं की बात की गयी है जिन्हें ईश्वर ने धर्म में आस्था रखने वालों के लिए आदर्श कहा है। सूरए तहरीम की आयत नंबर ११ में कहा गया है और ईश्वर ने मोमिनों के लिए फिरऔन की पत्नी का उदाहरण दिया है जब उसने कहा हे पालनहार! तू मेरे लिए स्वर्ग में एक घर बना और मुझे नास्तिक फिरऔन, उसके चरित्र और अत्याचारी जाति से छुटकारा दिला। इसके बाद की आयत में ईश्वर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की माता हज़रत मरयम को, जिनकी एसी विशेषताए हैं जो किसी अन्य में नहीं हैं, सभी महिलाओं व पुरुषों का आदर्श बताया गया है। काबे के एक कोने में जिसे रुक्ने यमानी कहा जाता है, फातेमा बिन्ते असद नाम की एक अत्यन्त पवित्र महिला का चिन्ह देखा जा सकता है। वे हज़रत अली अलैहिस्सलाम की माता हैं जिन्होंने अपने पुत्र के जन्म में सहायता के लिए काबे को सहारा बनाया था। इतिहासकारों ने प्रत्यक्षदर्शियों के हवाले से लिखा है कि अचानक काबे की दीवार फटी और फातेमा बिन्ते असद काबे के भीतर चली गयीं और तीन दिन बाद, अपने बच्चे को गोद में लिए उसी स्थान से बाहर निकलीं । यह वास्तव में ईश्वरीय संदेश के स्थान और काबे में महिलाओं के लिए एक अन्य सम्मान व गौरव है तथा इस से पवित्र महिलाओं की महानता व महत्व का भी पता चलता है।

इस्लाम के उदय के बाद कुछ तथ्य, महिलाओं के हज से परोक्ष व अपरोक्ष रूप से संबंध को दर्शाते हैं। हज़रत ख़दीजा वह एकमात्र महिला हैं जो इस्लाम के उदय के कठिन समय में पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ काबे में जाकर उपासना करती थीं। इन तीन हस्तियों ने क़ुरैश क़बीले की अनेकेश्वरवादी रीति रिवाजों के विपरीत एक नयी परंपरा की आधार शिला रखी और उसका प्रदर्शन किया। इस संस्कृति में महिला व पुरुष कांधे से कांधा मिलाकर अनन्य ईश्वर के घर काबे में जाते हैं। इस्लाम के विशेष नियमों के संकलन के यह आंरभिक क़दम, भविष्य में हज के व्यापक संस्कारों की भूमिका बने। इतिहास में महिलाओं के लिए यह भी एक गौरव लिख लिया गया है कि इस्लाम के उदय के दिनों में महिलाओं ने इस्लाम के विस्तार में पैगम्बरे इस्लाम के साथ भूमिका निभाई और काबे में इस्लामी संस्कृति की आधारशिला रखी। हज के दौरान महिलाओं द्वारा पैगम्बरे इस्लाम के समक्ष आज्ञापालन की प्रतिज्ञा भी महिलाओं की महानता का एक अन्य चिन्ह है। मक्का नगर में पैग़म्बरे इस्लाम ने अपने ७३ साथियों के साथ मक्का के लोगों के साथ अक़बा नामक दूसरा जो समझौता किया था उस समय ७३ लोगों में कई महिलाएं शामिल थीं। इन लोगों ने आज्ञापालन की प्रतिज्ञा के लिए पैगम्बरे इस्लाम से समय मांगा। पैग़म्बरे इस्लाम ने मिना के मैदान में आज्ञापालन की प्रतिज्ञा का समय निर्धारित किया। उन लोगों ने १३ ज़िलहिज्जा की रात पैगम्बरे इस्लाम से बात की

बाप- बेटे मक्का के पहाड़ से काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को लाये थे और उन्हें तराश कर उन्होंने काबे की आधारशिला रखी थी। बाप-बेटे ने महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के आदेश से बड़े और सादे घर का निर्माण किया। इस पावन घर का नाम उन्होंने काबा रखा। यही साधारण घर काबा समूची दुनिया में एकेश्वरवाद का प्रतीक और पूरी दुनिया का दिल बन गया। जिस तरह आकाशगंगा महान ईश्वर का गुणगान कर रही है ठीक उसी तरह यह पावन घर है जिसकी दुनिया के लाखों मुसलमान परिक्रमा करते हैं। हज महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान का प्रतिबिंबन है। हज महान हस्तियों की बहुत सी कहानियों की याद दिलाता है।

हज एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो जाति और राष्ट्र से ऊपर उठकर है यानी इसमें सब शामिल होते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी जाति या राष्ट्र से हो। ग़रीब, अमीर, काला, गोरा, अरब और ग़ैर अरब सब इसमें भाग लेते हैं। हज के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और एकेश्वरवाद का नारा समस्त आसमानी धर्मों के मध्य निकटता का कारण बन सकता है।

पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहस्सलाम ने महान ईश्वर के आदेश से हज की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” और हे पैग़म्बर! हज के लिए लोगों के मध्य घोषणा कर दीजिये ताकि लोग हर ओर से सवार और पैदल, दूर और निकट से तुम्हारी ओर आयें और उसके बाद हज को अंजाम दें, अपने वचनों पर अमल करें और बैते अतीक़ यानी काबे की परिक्रमा करें।“

केवल कुछ संस्कारों को अंजाम देना हज नहीं है बल्कि हज के विदित संस्कारों के पीछे एक अर्थपूर्ण वास्तविकता नीहित है। अतः हज का अगर केवल विदित रूप अंजाम दिया जाये तो वह अपने वास्तविक अर्थ व प्रभाव से खाली होगा। यानी वह नीरस और बेजान हज होगा। एक विचारक व बुद्धिजीवी ने हज की उपमा शिक्षाप्रद एसी महाप्रदर्शनी से दी है जिसके पास बोलने की ज़बान है और उस कहानी व महाप्रदर्शनी में कुछ मूल हस्तियां हैं। हज़रत इब्राहीम, हज़रत हाजर और हज़रत इस्माईल इस कहानी के महानायक हैं। हरम, मस्जिदुल हराम, सफा और मरवा, मैदाने अरफात, मशअर और मेना में कुछ संस्कार अंजाम दिये जाते हैं। रोचक बात यह है कि इन संस्कारों को सभी अंजाम दे सकते हैं चाहे वह मर्द हो या औरत, धनी हो या निर्धन, काला हो या गोरा। जो भी हज के महासम्मेलन में भाग लेता है वह  हज संस्कारों को अंजाम देता है और मुख्य भूमिका निभाता है। सभी उन महान ऐतिहासिक हस्तियों के स्थान पर होते हैं जिन्होंने महान ईश्वर की उपासना की और अनेकेश्वरवाद से मुकाबला किया ठीक उसी तरह हाजी एकेश्वरवाद का एहसास और अनेकेश्वरवाद से मुकाबले का अनुभव करते हैं।

जो लोग हज करने जाते हैं सबसे पहले वे मीक़ात नाम की जगह पर  एहराम नाम का सफेद वस्त्र धारण करते हैं। एहराम में सफेद कपड़े के दो टुकड़े होते हैं। इसका अर्थ हर प्रकार के गर्व, घमंड को त्याग देना है। इसी प्रकार हर प्रकार के बंधन से मुक्त करके दिल को महान व सर्वसमर्थ की याद में लगाना है।

हज करने वाला जब एहराम का सफेद वस्त्र धारण करता है तो वह अपने कार्यों के प्रति सजग रहता है, उन पर नज़र रखता है लोगों के साथ अच्छे व मृदु स्वभाव में बात करता है, जब बोलता है तो सही बात करता है। इसी तरह वह संयम व धैर्य का अभ्यास करता है। एहराम की हालत में कुछ कार्य हराम हैं और इस कार्य से इच्छाओं से मुकाबला करने में इंसान के अंदर जो प्रतिरोध की शक्ति है वह मज़बूत होती है। जैसे एहराम की हालत में शिकार करना, जानवरों को कष्ट पहुंचाना, झूठ बोलना, महिला से शारीरिक संबंध बनाना और दूसरों से बहस करना आदि हराम हैं।

 

पैग़म्बरे इस्लाम जब मेराज पर जा रहे थे यानी आसमानी यात्रा पर थे तो एक आवाज़ ने उन्हें संबोधित करके कहा कि क्या तुम्हारे पालनहार ने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें शरण नहीं दी और तुम्हें गंतव्य से दूर नहीं पाया और तुम्हारा पथप्रदर्शन नहीं किया? उस वक्त पैग़म्बरे इस्लाम ने लब्बैक कहा। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की बारगाह में कहा” अल्लाहुम्मा लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमा लका वलमुल्का ला शरीका लका लब्बैक” अर्थात हे पालनहार तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं, बेशक समस्त प्रशंसा, नेअमत और बादशाहत तेरी है। तेरा कोई भागीदार व समतुल्य नहीं है। (पालनहार!) तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं।

हज के आध्यात्मिक वातावरण में दिल को छू जाने वाली आवाज़ लब्बैक अल्ला हुम्मा लब्बैक गूंज रही है। यह वह आवाज़ है जो हर हाजी की ज़बान पर है। यह आवाज़ इस बात की सूचक है कि हाजी महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं वे पूरे तन- मन से महान ईश्वर के आदेशों को स्वीकार करते और उसकी मांग का उत्तर दे रहे हैं। समस्त हाजियों की ज़बान पर है कि हे ईश्वर तेरा कोई समतुल्य नहीं है और हम तेरे घर की परिक्रमा करने के लिए तैयार हैं।

काबे की परिक्रमा हज का पहला संस्कार है। हाजी जब सामूहिक रूप से काबे की परिक्रमा करते हैं तो वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि महान ईश्वर ही ब्रह्मांड का स्रोत व रचयिता है और जो कुछ भी है सबको उसी ने पैदा और अस्तित्व प्रदान किया है। जो हाजी तवाफ़ व परिक्रमा कर रहे हैं वे पूरी तरह महान ईश्वर की याद में डूबे हुए हैं। मानो ब्रह्मांड का कण- कण उनके साथ हो गया है। सब उनके साथ तवाफ कर रहे हैं। तवाफ के बाद वे नमाज़े तवाफ़ पढ़ते हैं, अपने कृपालु व दयालु ईश्वर के सामने सज्दा करते हैं और उसकी सराहना व गुणगान करते हैं।

हज का एक संस्कार सफा व मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच सात बार चक्कर लगाना है।

हज का एक संस्कार सई करना है। सई उस महान महिला के प्रयासों की याद दिलाता है जो अपने पालनहार की असीम कृपा से कभी भी निराश नहीं हुई और सूखे व तपते हुए मरुस्थल में अपने प्यासे बच्चे के लिए पानी की खोज में दौड़ती रही। जब हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाजर अपने बच्चे के लिए पानी के लिए दौड़ती रहीं और सात बार वे सफा और मरवा का चक्कर लगा चुकीं तो महान ईश्वर की असीम कृपा से पानी का सोता फूट पड़ा जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 158वीं आयत में कहता है” सफा और मरवा ईश्वर की निशानियों में से है। इस आधार पर जो लोग अनिर्वाय या ग़ैर अनिवार्य हज करते हैं उन्हें चाहिये कि वे सफा और मरवा के बीच सई करें यानी उनके बीच चक्कर लगायें।

सई करके हाजी उस महान ऐतिहासिक घटना की याद ताज़ा करके महान ईश्वर पर धैर्य और भरोसा करने और एकेश्वरवाद का पाठ लेते हैं और महान ईश्वर की असीम कृपा को देखते हैं।

ज़िलहिज्जा महीने की नवीं तारीख़ की सुबह को हाजियों का जनसैलाब अरफात नामक मैदान की ओर रवाना होता है। अरफ़ात पहचान का मैदान है। एक पहचान यह है कि इंसान अपने पालनहार को पहचाने। अरफात के मैदान में हाजी का ध्यान स्वयं की ओर जाता है। हाजी अपना हिसाब- किताब करता है और अगर वह देखता है कि उसने कोई पाप या ग़लती की है तो उससे सच्चे दिल से तौबा व प्रायश्चित करता है। अरफात के विशाल मैदान में प्रलय के बारे में सोचता है और प्रलय की याद करके हिसाब- किताब करता है और हाजी दुआ करता है। कहा जाता है कि अगर इंसान का दिल और आत्मा अरफात के मैदान में परिवर्तित हो जाते हैं तो मशअर नामक मैदान में बैठने से महान ईश्वर की याद इस हालत को शिखर पर पहुंचा देती है और हज करने वाले ने एसा हज अंजाम दिया है जिसे महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है। 

अपने अंदर से शैतान को भगाना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की एक शैली है और वह हज संस्कार का भाग है। मिना नामक मैदान में कंकर फेंकने का अर्थ स्वयं से शैतान को भगाना है और केवल महान ईश्वर की उपासना और उसके आदेशों के समक्ष नतमस्तक होना है। हाजियों ने जो कंकरी मशअर के मैदान से एकत्रित की है उससे वे शैतान के प्रतीक को मारते हैं और हज़रत इब्राहीम की भांति महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं और कभी भी वे अपने नफ्स या शैतानी उकसावे पर अमल नहीं करते हैं।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहस्सलाम फरमाते हैं” इसी जगह पर” यानी जहां हाजी कंकरी फेंकते हैं” शैतान हज़रत इब्राहीम के समक्ष प्रकट हुआ था और उन्हें उकसाया था कि हज़रत इस्माईल को कुर्बानी करने का इरादा छोड़ दें परंतु हज़रत इब्राहीम ने पत्थर फेंक कर उसे स्वयं से दूर किया था।“

वास्तव में कंकरी का फेंकना दुश्मन की पहचान और उससे संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियां विभिन्न शैलियों के माध्यम से मुसलमानों के खिलाफ शषडयंत्र रचती रहती हैं इन दुश्मनों और उनकी चालों को पहचानना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कि जब तक दुश्मन और उसकी चालों को नहीं पहचानेंगे तब तक उसका मुकाबला नहीं कर सकते। दुश्मन और उसकी चालों से बेखबर रहना बहुत बड़ी ग़लती है और यह एसी ग़लती है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और उसकी चालें मुसलमानों के बीच फूट या इस्लामी जगत की शक्ति को आघात पहुंचने का कारण बन सकती हैं।

कुर्बानी कराना हज का अंतिम संस्कार है। जिस दिन कुर्बानी कराई जाती है उसे ईदे कुर्बान कहा जाता है। ईदे कुरआन के दिन सर मुंडवाया जाता है या फिर सिर के बाल और नाखून को छोटा कराया जाता है। हज के दिन महान ईश्वर की बारगाह में स्वीकार हज अंजाम देने वाले प्रसन्न होते हैं और वे अपने पालनहार का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उन्हें हज करने का सामर्थ्य प्रदान किया। उसके बाद हाजियों का जनसैलाब एक बार फिर काबे का तवाफ करता है और उसके बाद नमाज़े तवाफ पढ़ता है। जब वे काबे का तवाफ कर रहे होते हैं तो जिस तरह से चुंबक लोहे या उसके कण को अपनी ओर खींचता है उसी तरह खानये काबा हर हाजी को अपनी ओर खींचता व आकर्षित करता है।

इस प्रकार हज संस्कार समाप्त हो जाते हैं और हाजी अपने अंदर आत्मिक शांति व सुरक्षा का आभास करता है। वह भीतर से परिवर्तित हो चुका होता है। महान ईश्वर की याद उसके सामिप्य का कारण बनती है और महान विधाता व परम-परमेश्वर की याद सांसारिक बंधनों से मुक्ति का कारण बनती है। इसी प्रकार महान व कृपालु ईश्वर की याद इंसान के महत्व और उसकी प्रतिष्ठा को अधिक कर देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हाजियों द्वारा अंजाम दिये गये हज संस्कारों के गूढ़ अर्थों पर ध्यान देते हुए फरमाते हैं” नमाज़, हज, तवाफ और दूसरे संस्कारों के अनिवार्य होने से तात्पर्य ईश्वर की याद को कायेम व जीवित करना है। तो जब तुम्हारा दिल ईश्वर की महानता को न समझ सके जो हज का मूल उद्देश्य है तो ज़बान से ईश्वर को याद करने का क्या लाभ है?

बाप- बेटे मक्का के पहाड़ से काले पत्थर के कुछ टुकड़ों को लाये थे और उन्हें तराश कर उन्होंने काबे की आधारशिला रखी थी। बाप-बेटे ने महान व सर्वसमर्थ ईश्वर के आदेश से बड़े और सादे घर का निर्माण किया। इस पावन घर का नाम उन्होंने काबा रखा। यही साधारण घर काबा समूची दुनिया में एकेश्वरवाद का प्रतीक और पूरी दुनिया का दिल बन गया। जिस तरह आकाशगंगा महान ईश्वर का गुणगान कर रही है ठीक उसी तरह यह पावन घर है जिसकी दुनिया के लाखों मुसलमान परिक्रमा करते हैं। हज महान ईश्वर की प्रशंसा व गुणगान का प्रतिबिंबन है। हज महान हस्तियों की बहुत सी कहानियों की याद दिलाता है।

हज एक ऐसा धार्मिक संस्कार है जो जाति और राष्ट्र से ऊपर उठकर है यानी इसमें सब शामिल होते हैं चाहे उनका संबंध किसी भी जाति या राष्ट्र से हो। ग़रीब, अमीर, काला, गोरा, अरब और ग़ैर अरब सब इसमें भाग लेते हैं। हज के अंतरराष्ट्रीय आयाम हैं और एकेश्वरवाद का नारा समस्त आसमानी धर्मों के मध्य निकटता का कारण बन सकता है।

पवित्र कुरआन की आयतों के अनुसार हज़रत इब्राहीम अलैहस्सलाम ने महान ईश्वर के आदेश से हज की सार्वजनिक घोषणा कर रखी है। महान ईश्वर पवित्र कुरआन में कहता है” और हे पैग़म्बर! हज के लिए लोगों के मध्य घोषणा कर दीजिये ताकि लोग हर ओर से सवार और पैदल, दूर और निकट से तुम्हारी ओर आयें और उसके बाद हज को अंजाम दें, अपने वचनों पर अमल करें और बैते अतीक़ यानी काबे की परिक्रमा करें।“

केवल कुछ संस्कारों को अंजाम देना हज नहीं है बल्कि हज के विदित संस्कारों के पीछे एक अर्थपूर्ण वास्तविकता नीहित है। अतः हज का अगर केवल विदित रूप अंजाम दिया जाये तो वह अपने वास्तविक अर्थ व प्रभाव से खाली होगा। यानी वह नीरस और बेजान हज होगा। एक विचारक व बुद्धिजीवी ने हज की उपमा शिक्षाप्रद एसी महाप्रदर्शनी से दी है जिसके पास बोलने की ज़बान है और उस कहानी व महाप्रदर्शनी में कुछ मूल हस्तियां हैं। हज़रत इब्राहीम, हज़रत हाजर और हज़रत इस्माईल इस कहानी के महानायक हैं। हरम, मस्जिदुल हराम, सफा और मरवा, मैदाने अरफात, मशअर और मेना में कुछ संस्कार अंजाम दिये जाते हैं। रोचक बात यह है कि इन संस्कारों को सभी अंजाम दे सकते हैं चाहे वह मर्द हो या औरत, धनी हो या निर्धन, काला हो या गोरा। जो भी हज के महासम्मेलन में भाग लेता है वह  हज संस्कारों को अंजाम देता है और मुख्य भूमिका निभाता है। सभी उन महान ऐतिहासिक हस्तियों के स्थान पर होते हैं जिन्होंने महान ईश्वर की उपासना की और अनेकेश्वरवाद से मुकाबला किया ठीक उसी तरह हाजी एकेश्वरवाद का एहसास और अनेकेश्वरवाद से मुकाबले का अनुभव करते हैं।

जो लोग हज करने जाते हैं सबसे पहले वे मीक़ात नाम की जगह पर  एहराम नाम का सफेद वस्त्र धारण करते हैं। एहराम में सफेद कपड़े के दो टुकड़े होते हैं। इसका अर्थ हर प्रकार के गर्व, घमंड को त्याग देना है। इसी प्रकार हर प्रकार के बंधन से मुक्त करके दिल को महान व सर्वसमर्थ की याद में लगाना है।

हज करने वाला जब एहराम का सफेद वस्त्र धारण करता है तो वह अपने कार्यों के प्रति सजग रहता है, उन पर नज़र रखता है लोगों के साथ अच्छे व मृदु स्वभाव में बात करता है, जब बोलता है तो सही बात करता है। इसी तरह वह संयम व धैर्य का अभ्यास करता है। एहराम की हालत में कुछ कार्य हराम हैं और इस कार्य से इच्छाओं से मुकाबला करने में इंसान के अंदर जो प्रतिरोध की शक्ति है वह मज़बूत होती है। जैसे एहराम की हालत में शिकार करना, जानवरों को कष्ट पहुंचाना, झूठ बोलना, महिला से शारीरिक संबंध बनाना और दूसरों से बहस करना आदि हराम हैं।

 

पैग़म्बरे इस्लाम जब मेराज पर जा रहे थे यानी आसमानी यात्रा पर थे तो एक आवाज़ ने उन्हें संबोधित करके कहा कि क्या तुम्हारे पालनहार ने तुम्हें अनाथ नहीं पाया और तुम्हें शरण नहीं दी और तुम्हें गंतव्य से दूर नहीं पाया और तुम्हारा पथप्रदर्शन नहीं किया? उस वक्त पैग़म्बरे इस्लाम ने लब्बैक कहा। महान व सर्वसमर्थ ईश्वर की बारगाह में कहा” अल्लाहुम्मा लब्बैक, इन्नल हम्दा वन्नेमा लका वलमुल्का ला शरीका लका लब्बैक” अर्थात हे पालनहार तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं, बेशक समस्त प्रशंसा, नेअमत और बादशाहत तेरी है। तेरा कोई भागीदार व समतुल्य नहीं है। (पालनहार!) तेरी आवाज़ पर लब्बैक कहता हूं।

हज के आध्यात्मिक वातावरण में दिल को छू जाने वाली आवाज़ लब्बैक अल्ला हुम्मा लब्बैक गूंज रही है। यह वह आवाज़ है जो हर हाजी की ज़बान पर है। यह आवाज़ इस बात की सूचक है कि हाजी महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक हैं वे पूरे तन- मन से महान ईश्वर के आदेशों को स्वीकार करते और उसकी मांग का उत्तर दे रहे हैं। समस्त हाजियों की ज़बान पर है कि हे ईश्वर तेरा कोई समतुल्य नहीं है और हम तेरे घर की परिक्रमा करने के लिए तैयार हैं।

काबे की परिक्रमा हज का पहला संस्कार है। हाजी जब सामूहिक रूप से काबे की परिक्रमा करते हैं तो वे इस बात को स्वीकार करते हैं कि महान ईश्वर ही ब्रह्मांड का स्रोत व रचयिता है और जो कुछ भी है सबको उसी ने पैदा और अस्तित्व प्रदान किया है। जो हाजी तवाफ़ व परिक्रमा कर रहे हैं वे पूरी तरह महान ईश्वर की याद में डूबे हुए हैं। मानो ब्रह्मांड का कण- कण उनके साथ हो गया है। सब उनके साथ तवाफ कर रहे हैं। तवाफ के बाद वे नमाज़े तवाफ़ पढ़ते हैं, अपने कृपालु व दयालु ईश्वर के सामने सज्दा करते हैं और उसकी सराहना व गुणगान करते हैं।

हज का एक संस्कार सफा व मरवा नामक दो पहाड़ों के बीच सात बार चक्कर लगाना है।

हज का एक संस्कार सई करना है। सई उस महान महिला के प्रयासों की याद दिलाता है जो अपने पालनहार की असीम कृपा से कभी भी निराश नहीं हुई और सूखे व तपते हुए मरुस्थल में अपने प्यासे बच्चे के लिए पानी की खोज में दौड़ती रही। जब हज़रत इस्माईल की मां हज़रत हाजर अपने बच्चे के लिए पानी के लिए दौड़ती रहीं और सात बार वे सफा और मरवा का चक्कर लगा चुकीं तो महान ईश्वर की असीम कृपा से पानी का सोता फूट पड़ा जिसे आबे ज़मज़म के नाम से जाना जाता है। महान ईश्वर सूरे बकरा की 158वीं आयत में कहता है” सफा और मरवा ईश्वर की निशानियों में से है। इस आधार पर जो लोग अनिर्वाय या ग़ैर अनिवार्य हज करते हैं उन्हें चाहिये कि वे सफा और मरवा के बीच सई करें यानी उनके बीच चक्कर लगायें।

सई करके हाजी उस महान ऐतिहासिक घटना की याद ताज़ा करके महान ईश्वर पर धैर्य और भरोसा करने और एकेश्वरवाद का पाठ लेते हैं और महान ईश्वर की असीम कृपा को देखते हैं।

ज़िलहिज्जा महीने की नवीं तारीख़ की सुबह को हाजियों का जनसैलाब अरफात नामक मैदान की ओर रवाना होता है। अरफ़ात पहचान का मैदान है। एक पहचान यह है कि इंसान अपने पालनहार को पहचाने। अरफात के मैदान में हाजी का ध्यान स्वयं की ओर जाता है। हाजी अपना हिसाब- किताब करता है और अगर वह देखता है कि उसने कोई पाप या ग़लती की है तो उससे सच्चे दिल से तौबा व प्रायश्चित करता है। अरफात के विशाल मैदान में प्रलय के बारे में सोचता है और प्रलय की याद करके हिसाब- किताब करता है और हाजी दुआ करता है। कहा जाता है कि अगर इंसान का दिल और आत्मा अरफात के मैदान में परिवर्तित हो जाते हैं तो मशअर नामक मैदान में बैठने से महान ईश्वर की याद इस हालत को शिखर पर पहुंचा देती है और हज करने वाले ने एसा हज अंजाम दिया है जिसे महान व सर्वसमर्थ ईश्वर ने स्वीकार कर लिया है। 

अपने अंदर से शैतान को भगाना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की एक शैली है और वह हज संस्कार का भाग है। मिना नामक मैदान में कंकर फेंकने का अर्थ स्वयं से शैतान को भगाना है और केवल महान ईश्वर की उपासना और उसके आदेशों के समक्ष नतमस्तक होना है। हाजियों ने जो कंकरी मशअर के मैदान से एकत्रित की है उससे वे शैतान के प्रतीक को मारते हैं और हज़रत इब्राहीम की भांति महान ईश्वर के आदेशों के समक्ष नतमस्तक रहते हैं और कभी भी वे अपने नफ्स या शैतानी उकसावे पर अमल नहीं करते हैं।

हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहस्सलाम फरमाते हैं” इसी जगह पर” यानी जहां हाजी कंकरी फेंकते हैं” शैतान हज़रत इब्राहीम के समक्ष प्रकट हुआ था और उन्हें उकसाया था कि हज़रत इस्माईल को कुर्बानी करने का इरादा छोड़ दें परंतु हज़रत इब्राहीम ने पत्थर फेंक कर उसे स्वयं से दूर किया था।“

वास्तव में कंकरी का फेंकना दुश्मन की पहचान और उससे संघर्ष का प्रतीक है। दुनिया की वर्चस्ववादी शक्तियां विभिन्न शैलियों के माध्यम से मुसलमानों के खिलाफ शषडयंत्र रचती रहती हैं इन दुश्मनों और उनकी चालों को पहचानना बहुत ज़रूरी है। इसलिए कि जब तक दुश्मन और उसकी चालों को नहीं पहचानेंगे तब तक उसका मुकाबला नहीं कर सकते। दुश्मन और उसकी चालों से बेखबर रहना बहुत बड़ी ग़लती है और यह एसी ग़लती है जिसकी भरपाई नहीं की जा सकती और उसकी चालें मुसलमानों के बीच फूट या इस्लामी जगत की शक्ति को आघात पहुंचने का कारण बन सकती हैं।

कुर्बानी कराना हज का अंतिम संस्कार है। जिस दिन कुर्बानी कराई जाती है उसे ईदे कुर्बान कहा जाता है। ईदे कुरआन के दिन सर मुंडवाया जाता है या फिर सिर के बाल और नाखून को छोटा कराया जाता है। हज के दिन महान ईश्वर की बारगाह में स्वीकार हज अंजाम देने वाले प्रसन्न होते हैं और वे अपने पालनहार का आभार व्यक्त करते हैं कि उसने उन्हें हज करने का सामर्थ्य प्रदान किया। उसके बाद हाजियों का जनसैलाब एक बार फिर काबे का तवाफ करता है और उसके बाद नमाज़े तवाफ पढ़ता है। जब वे काबे का तवाफ कर रहे होते हैं तो जिस तरह से चुंबक लोहे या उसके कण को अपनी ओर खींचता है उसी तरह खानये काबा हर हाजी को अपनी ओर खींचता व आकर्षित करता है।

इस प्रकार हज संस्कार समाप्त हो जाते हैं और हाजी अपने अंदर आत्मिक शांति व सुरक्षा का आभास करता है। वह भीतर से परिवर्तित हो चुका होता है। महान ईश्वर की याद उसके सामिप्य का कारण बनती है और महान विधाता व परम-परमेश्वर की याद सांसारिक बंधनों से मुक्ति का कारण बनती है। इसी प्रकार महान व कृपालु ईश्वर की याद इंसान के महत्व और उसकी प्रतिष्ठा को अधिक कर देती है। पैग़म्बरे इस्लाम हाजियों द्वारा अंजाम दिये गये हज संस्कारों के गूढ़ अर्थों पर ध्यान देते हुए फरमाते हैं” नमाज़, हज, तवाफ और दूसरे संस्कारों के अनिवार्य होने से तात्पर्य ईश्वर की याद को कायेम व जीवित करना है। तो जब तुम्हारा दिल ईश्वर की महानता को न समझ सके जो हज का मूल उद्देश्य है तो ज़बान से ईश्वर को याद करने का क्या लाभ है?

बकरीद जिसे ईद उल अजहा और ईद उल जुहा (Eid al-Adha) के नाम से भी जाना जाता है। इस त्योहार को देख जाए तो कुबार्नी के त्योहार पर मनाया जाता है। जिन लोगों को इस त्योहार के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं है तो हम उन्हें बता दें मीठी ईद के महज 2 महीने बाद इस त्योहार को मनाया जाता है। इस दिन मुस्लिम समुदाय के लोग बकरे की कुर्बानी देते हैं। आप में से ज्यादातर लोगों के मन में ये सवाल जरूर उठाता होगा कि आखिरी बकरे ही क्यों बाकी किसी चीजें की कुर्बानी इस दिन क्यों नहीं दी जाती तो हम आपको बात दें कि हर उस जानवर की कुर्बानी दी जा सकती है जो आपके प्रिय हो, लेकिन बकरे की कुर्बानी का अपना ही अलग महत्व होता है। चलिए जानते हैं बकरीद से जुड़े बाकी कई अहम बातें।

जानिए क्यों दी जाती है बकरे की कुर्बानी?

इस त्योहार को भले ही बकरीद के नाम से जाना जाता है, लेकिन इस शब्द का तुलाक बकरों से नही हैं। यहां तक की ये उर्दू नहीं बल्कि अरबी शब्द है। यानी अरबी में बकर का मतलब होता है बड़ा जानवर जो जिबह यानि काटा जाता है। इसलिए इसे शब्द को यहां से लिया गया। आज भारत, पाकिस्तान व बांग्ला देश में इसे ‘बकरा ईद’ कहा जाता है| ईद-ए-कुर्बां का मतलब होता है बलिदान की भावना। अरबी में ‘क़र्ब’ नजदीकी या बहुत पास रहने को कहते हैं| इसका मतलब ये होता है कि इस मौके पर भगवान इंसान के बहुत करीब हो जाता है। कुर्बानी उस पशु के जि़बह करने को कहते हैं जिसे 10, 11, 12 या 13 जि़लहिज्ज (हज का महीना) को खुदा को खुश करने के लिए ज़िबिह किया जाता है। कुरान में लिखा गया है : हमने तुम्हें हौज़-ए-क़ौसा दिया तो तुम अपने अल्लाह के लिए नमाज़ पढ़ो और कुर्बानी करो।

जानिए बकरीद के पीछे की कहानी

हजरत इब्राहिम को अल्लाह का पैगंबर कहा जाता है। वह पूरी जिंदगी दुनिया की भलाई के लिए ही काम करते रहे, लेकिन 90 साल के जाने के बाद भी उन्हें कोई संतान नहीं हुई। उन्होंने खुदा की इबादत की और उन्हें एक बेटा मिला जिसका नाम था इस्माइल। हजरत इब्राहिम को सपने में ये आदेश मिला कि वह खुदा की राह में कुर्बानी दे। ऐसे में उन्होंने पहले ऊंट की कुर्बानी दी। इसके बाद उन्हें ये सपना आया कि वह सबसे प्यारी चीज की अपनी कुर्बानी दी। इस पर उन्होंने अपने सभी जानवर को कुर्बान कर डाला। इसके बाद उन्हें फिर वहीं सपना आया। इसके बाद उन्होंने खुद पर विश्वास जताते हुए अपने बेटे की कुर्बानी करने का फैसला लिया। जिसके बाद हजरत इब्राहीम अपने दस वर्षीय पुत्र इस्माइल को ईश्वर की राह पर कुर्बान करने निकल गए|

अल्लाह ने जब उनका विश्वास अपने प्रति देखा तो उन्होंने उनके बेटे की कुर्बानी को बकरे की कुर्बानी में बदल दिया। दरअसल हजरत ने अपने जब अपने बेटे की कुर्बानी दी तो उन्होंने अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। बाद में जब उन्होंने पट्टी खोली तो अपने बेटे इस्माइल को जिंदा पाया और उसकी जगह एक बकरे को कुर्बान होते हुए देखा। इस्लामिक इतिहास में इस घटना के बाद से बकरे की कुर्बानी देने की परंपरा काफी वक्त से चली आ रही है। क्या आपको पता है कि किसी भी जानवर की कुर्बानी के बाद उसे तीन भागों में बांटा गया है; एक हिस्सा रिश्तेदारों, दोस्तों और पड़ोसियों को दिया जाता है, दूसरा हिस्सा जरूरतमंद और गरीबों को दिया जाता है और तीसरा हिस्सा अपने पास रखा जाता है।

ईद उल अजहा हमें देता है दो सीख

हजरत मुहम्मद साहब का जन्म भी इसी वंश में हुआ था। ईद उल अजहा के दो संदेश है पहला परिवार के बड़े सदस्य को स्वार्थ के परे देखना चाहिए और खुद को मानव उत्थान के लिए लगाना चाहिए और दूसरा ये कि ईद उल अजहा यह याद दिलाता है कि कैसे एक छोटे से परिवार में एक नया अध्याय लिखा।

क़ुर्बानी (अरबी : قربانى ), क़ुर्बान, या उधिय्या (uḍḥiyyah) ( أضحية ) के रूप

में में निर्दिष्ट इस्लामी कानून , अनुष्ठान है पशु बलि के दौरान एक पशुधन जानवर की ईद-उल-अज़हा। शब्द से संबंधित है हिब्रू קרבן कॉर्बान (qorbān) "भेंट" और सिरिएक क़ुरबाना "बलिदान", सजातीय अरबी के माध्यम से "एक तरह से या किसी के करीब पहुंचने के साधन" या "निकटता"। [1] इस्लामिक कानून में, उदियाह एक विशिष्ट जानवर के बलिदान का उल्लेख करता है, जो किसी विशिष्ट व्यक्ति द्वारा अल्लाह की ख़ुशनूदी और इनाम की तलाश के लिए विशिष्ट दिनों में पेश किया जाता है। क़ुरबान शब्द कुरान में तीन बार दिखाई देता है: एक बार पशु बलि के संदर्भ में और दो बार किसी भी कार्य के सामान्य अर्थों में. दुनिया की चीज़ों को त्याग या बलिदान करके अल्लाह के करीब हुवा जा सकता है। इसके विपरीत, ज़बीहा (धाबीहा), आम दिनों में किया जाता है, जब कि उदियाह किसी ख़ास मौके पर जैसे ईद-उल-अज़हा पर किया जाता है।

मूल

इस्लाम ने हाबील और क़ाबील (हेबेल और कैन) की क़ुरबानी का इतिहास का पता देता है, जिसका ज़िक्र क़ुरआन में वर्णित है। [2] हाबिल अल्लाह के लिए एक जानवर की बलि देने वाला पहला इंसान था। इब्न कथिरवर्णन करता है कि हाबिल ने एक भेड़ की पेशकश की थी जबकि उसके भाई कैन ने अपनी भूमि की फसलों का हिस्सा देने की पेशकश की थी। अल्लाह की निर्धारित प्रक्रिया यह थी कि आग स्वर्ग से उतरेगी और स्वीकृत बलिदान का उपभोग करेगी। तदनुसार, आग नीचे आ गई और एबेल द्वारा वध किए गए जानवर को आच्छादित कर दिया और इस प्रकार एबेल के बलिदान को स्वीकार कर लिया, जबकि कैन के बलिदान को अस्वीकार कर दिया गया था। इससे कैन के हिस्से पर ईर्ष्या पैदा हुई जिसके परिणामस्वरूप पहली मानव मृत्यु हुई जब उसने अपने भाई हाबिल की हत्या कर दी। अपने कार्यों के लिए पश्चाताप न करने के बाद, कैन को भगवान द्वारा माफ नहीं किया गया था।

इब्राहीम का बलिदान

क़ुर्बानी की प्रथा का पता हज़रात इब्राहीम से लगाया जा सकता है, जिसने यह सपना देखा था कि अल्लाह ने उसे उसकी सबसे कीमती चीज़ का त्याग करने का आदेश दिया था। इब्राहीम दुविधा में थे क्योंकि वह यह निर्धारित नहीं कर सकता थे कि उसकी सबसे कीमती चीज क्या थी। तब उन्होंने महसूस किया कि यह उनके बेटे का जीवन है। उसे अल्लाह की आज्ञा पर भरोसा था। उन्होंने अपने बेटे को इस उद्देश्य से अवगत कराया कि वह अपने बेटे को उनके घर से क्यों निकाल रहा थे। उनके बेटे इस्माइल ने अल्लाह की आज्ञा का पालन करने के लिए सहमति व्यक्त की, हालांकि, अल्लाह ने हस्तक्षेप किया और उन्हें सूचित किया कि उनके बलिदान को स्वीकार कर लिया गया है। और उनके बेटे को एक भेड़ से बदल दिया। यह प्रतिस्थापन या तो स्वयं के धार्मिक संस्थागतकरण की ओर इशारा करता है, या भविष्य में इस्लामिक पैगंबर मुहम्मद और उनके साथियों (जो इश्माएल की संतान से उभरने के लिए किस्मत में था) के आत्म-बलिदान को उनके विश्वास के कारण इंगित करता है। उस दिन से,साल में एक बार हर ईद उल - अदहा, दुनिया भर के मुसलमान इब्राहिम के बलिदान और खुद को त्यागने की याद दिलाने के लिए एक जानवर का वध करते हैं।

क़ुरबानी का दर्शन (तत्वज्ञान)

उधिय्या के पीछे दर्शन यह है कि यह अल्लाह को प्रस्तुत करने का एक प्रदर्शन है, अल्लाह की इच्छा या आज्ञा का पूरा पालन करना और अपनी खुशी के लिए अपना सब कुछ बलिदान करना है। इब्राहिम ने सबमिशन और बलिदान की इस भावना का बेहतरीन तरीके से प्रदर्शन किया। जब प्यार और निष्ठा की चुनौती का सामना किया, तो उन्होंने अल्लाह को बिना शर्त प्रस्तुत करने का विकल्प चुना और अपने परिवार और बच्चे के लिए व्यक्तिगत इच्छा और प्रेम को दबा दिया। क़ुर्बानी नफरत, ईर्ष्या, गर्व, लालच, दुश्मनी, दुनिया के लिए प्यार और दिल की ऐसी अन्य विकृतियों पर साहस और प्रतिरोध की छुरी रखकर एक जन्मजात इच्छाओं के वध का आह्वान करती है।

क़ुरबानी का अनुष्ठान

इस्लाम में, एक जानवर की क़ुरबानी इस्लामी कैलेंडर के ज़ुल हज्जा महीने की 10 वीं तारीख़ से 13 वीं के सूर्यास्त तक दी जा सकती है। इन दिनों दुनिया भर के मुसलमान क़ुरबानी की पेशकश करते हैं जिसका अर्थ है कि विशिष्ट दिनों में किसी जानवर की क़ुरबानी देना। इसे इब्राहिम द्वारा अपने बेटे के स्थान पर एक दुम्बे (भेड़) के बलिदान की प्रतीकात्मक पुनरावृत्ति के रूप में समझा जाता है, यहूदी धर्म में एक महत्वपूर्ण धारणा और इस्लाम समान है। इस्लामी उपदेशक इस अवसर का उपयोग इस तथ्य पर टिप्पणी करने के लिए करेंगे कि इस्लाम बलिदान का धर्म है और इस अवसर का उपयोग मुसलमानों को याद दिलाने के लिए किया जाता है अपने समय, प्रयास और धन के साथ मानव जाति की सेवा करने का उनका कर्तव्य।

फ़िक़्ह के अधिकांश स्कूल स्वीकार करते हैं कि पशु का वध ढिबाह के नियमों के अनुसार किया जाना चाहिए और यह कि पशु को एक पालतू बकरी, भेड़, गाय या ऊँट का होना चाहिए।

हज पर जाने वालों के नाम इस्लामी इंक़ेलाब के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई का पैग़ामः

   बिस्मिल्लाह अर्रहमान अर्रहीम

सारी तारीफ़ कायनात के मालिक के लिए और दुरूद व सलाम हो कायनात की सबसे अच्छी हस्ती हमारे सरदार मोहम्मद मुस्तफ़ा और उनकी पाक नस्ल, चुने हुए साथियों और नेकी में उनका अनुपालन करने वालों पर क़यामत तक के लिए।

मन को आनंदित करने वाली हज़रत इब्राहीम की आवाज़# ने, जो अल्लाह के हुक्म से हर दौर के सभी मुसलमानों को हज के मौक़े पर काबे# की ओर बुलाती है, इस साल भी पूरी दुनिया के बहुत से मुसलमानों के दिलों को तौहीद व एकता के इस केन्द्र की ओर सम्मोहित कर दिया है, लोगों की इस शानदार व विविधता से भरी सभा को वजूद प्रदान किया है और इस्लाम के मानव संसाधन की व्यापकता और उसके आध्यात्मिक पहलू की ताक़त को अपनों और ग़ैरों के सामने नुमायां कर दिया है।

हज के विशाल समूह और इसकी जटिल क्रियाओं को जब भी ग़ौर व फ़िक्र की नज़र से देखा जाए, वह मुसलमानों के लिए दिल की मज़बूती और इत्मेनान का स्रोत है और दुश्मन व बुरा चाहने वालों के लिए ख़ौफ़, भय व रोब का सबब हैं।

अगर इस्लामी जगत के दुश्मन व बुरा चाहने वाले, हज के फ़रीज़े के इन दोनों पहलुओं को ख़राब करने और उन्हें संदिग्ध बनाने की कोशिश करें, चाहे धार्मिक व राजनैतिक मतभेदों को बड़ा दिखाकर और चाहे इनके पाकीज़ा व आध्यात्मिक पहलुओं को कम करके, तो हैरत की बात नहीं है।

क़ुरआन मजीद हज को बंदगी, ज़िक्र और विनम्रता का प्रतीक, इंसानों की समान प्रतिष्ठा का प्रतीक, इंसान की भौतिक व आध्यात्मिक ज़िंदगी की बेहतरी का प्रतीक, बरकत व मार्गदर्शन का प्रतीक, अख़लाक़ी सुकून और भाइयों के बीच व्यवहारिक मेल-जोल का प्रतीक और दुश्मनों के मुक़ाबले में ‘बराअत’ और बेज़ारी तथा ताक़तवर मोर्चाबंदी का प्रतीक बताता है।

हज के बारे में क़ुरआन की आयतों पर ग़ौर व फ़िक्र और इस बेनज़ीर फ़रीज़े की क्रियाओं पर चिंतन, इन चीज़ों और हज की जटिल क्रियाओं के इन्हीं जैसे रहस्यों को हम पर ज़ाहिर कर देता है।

हज अदा करने वाले आप भाई और बहन इस वक़्त इन रौशन हक़ीक़तों और शिक्षाओं के अभ्यास के मैदान में हैं। अपनी सोच और अपने अमल को इसके क़रीब से क़रीबतर कीजिए और इन उच्च अर्थों से मिश्रित और नए सिरे से हासिल हुयी पहचान के साथ घर आइये। यह आपके हज के सफ़र की हक़ीक़ी व मूल्यवान सौग़ात है।

इस साल ‘बराअत’ का विषय, विगत से ज़्यादा नुमायां है। ग़ज़ा की त्रासदी ऐसी है कि हमारे समकालीन इतिहास में इस जैसी कोई और त्रासदी नहीं है और बेरहम व संगदिल तथा बर्बरता की प्रतीक और साथ ही पतन की ओर बढ़ रही ज़ायोनी सरकार की गुस्ताख़ियों ने किसी भी मुसलमान शख़्स, संगठन, सरकार और संप्रदाय के लिए किसी भी तरह की रवादारी की गुंजाइश नहीं छोड़ी है। इस साल ‘बराअत’ हज के मौसम और हज की ‘मीक़ात’ से आगे बढ़कर पूरी दुनिया के सभी मुसलमान मुल्कों और शहरों में जारी रहनी चाहिए। यह सिर्फ़ हाजियों तक सीमित न रहे बल्कि हर शख़्स इसे अंजाम दे।

ज़ायोनी सरकार और उसके मददगारों ख़ास तौर पर अमरीकी सरकार से यह ‘बराअत’ क़ौमों और सरकारों के अमल और बयान में नज़र आनी चाहिए और जल्लादों का जीना हराम कर देना चाहिए।

फ़िलिस्तीन और ग़ज़ा के साबिर व मज़लूम अवाम के फ़ौलादी प्रतिरोध को, जिनके सब्र और दृढ़ता ने दुनिया को उनकी तारीफ़ और सम्मान पर मजबूर कर दिया है, हर ओर से सपोर्ट मिलना चाहिए।

अल्लाह से उनके लिए पूरी और तत्काल फ़तह की कामना करता हूं और आप आदरणीय हाजियों के लिए, हज के क़ुबूल होने की दुआ करता हूं। हज़रत इमाम महदी (हमारी जान उन पर क़ुरबान) की दुआ जो क़ुबूलशुदा है, आपकी मददगार रहे।

आप सब पर सलाम और अल्लाह की रहमत व बरकत हो

सैयद अली ख़ामेनेई

4 ज़िलहिज्जा 1445

11 जून 2024

22 ख़ुर्दाद 1403

मोहर्रम का दुखद: महीना वह महीना है जिसमें ख़ून ने तलवार पर विजय प्राप्त की। यह महीना पैग़म्बरे इस्लाम के प्राण प्रिय पौत्र हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के एतिहासिक आंदोलन की याद दिलाता है। इसी महीने में खून ने तलवार पर विजय प्राप्त की। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का एतिहासिक आंदोलन मानवता के लिए अविस्मरणीय सीख है। आज के कार्यक्रम में हम आपको हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के शूरवीर एवं साहसी दूत जनाब मुस्लिब बिन अक़ील से आपको परिचित करायेंगे।

हम आपको यह बतायेंगे कि हज़रत मुस्लिम कौन थे? जनाब मुस्लिम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के भाई जनाब अक़ील के बेटे थे। जनाब मुस्लिम का लालन पालन जिस परिवार में हुआ वह पैग़म्बरे इस्लाम का ही परिवार था। आप जिस परिवार में बड़े हुए वह आध्यात्मिक गुणों का स्रोत और मानवता के लिए आदर्श है। बाल्याकाल से ही बनी हाशिम के युवाओं विशेषकर हज़रत इमाम हुसैन और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम के मध्य बड़े हुए तथा धार्मिक व शिष्टाचारिक शिक्षाओं के साथ त्याग और बलिदान की भी शिक्षा ली। जनाब मुस्लिम वह महान व्यक्ति हैं जिनके कई बेटों ने अपने प्राण हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम पर न्वौछावर किये। ३६ से ४० हिजरी क़मरी के मध्य हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में जनाब मुस्लिम कुछ सैनिक पदों पर भी थे। सिफ्फैन नामक युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इमाम हसन, इमाम हुसैन, अब्दुल्लाह बिन जाफर और मुस्लिम बिन अक़ील को अपनी सेना में महत्वपूर्ण स्थानों पर रखा था। जनाब मुस्लिम के सदगुणों को परिवार में खोजने से पूर्व उनके सदाचरण में खोजना चाहिये जो उनके व्यक्तित्व से परिचित होने का श्रेष्ठतम मार्ग है। जनाब मुस्लिम हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शासन काल में न्याय की प्रतिमूर्ति हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अनुसरणकर्ता थे और उनकी शहादत के बाद उनके प्राणप्रिय सुपुत्रों हज़रत इमाम हसन और इमाम हुसैन अलैहिमस्सलाम से कभी भी अलग नहीं हुए यहां तक अपने प्राण को फ़ातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा के प्राणप्रिय सुपुत्र हज़रत इमाम हुसैन पर न्यौछावर कर दिया।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की, जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बड़े सुपुत्र और दूसरे इमाम थे, १० वर्षीय इमामत के काल में जनाब मुस्लिम पूरी निष्ठा के साथ आपकी सेवा में रहे और आपकी गिनती हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के वफ़ादार साथियों में होती थी। हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद लोगों के मार्गदर्शन की ज़िम्मेदारी हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कांधों पर आ गयी यहां तक १० वर्षों बाद मोआविया के मरने के पश्चात जनाब मुस्लिम हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहे। इस बीस वर्ष की अवधि में अर्थात हज़रत अली अलैहिस्सलाम की शहादत से लेकर कर्बला की दुखद एतिहासिक घटना तक धमकी, लालच आदि के कारण बहुत से लोग पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों का साथ छोड़कर मोआविया की ओर चले गये या उन्होंने अलग थलग का जीवन अपना लिया पंरतु जिन लोगों के हृदय ईमान से ओत प्रोत थे उन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों को अकेला नहीं छोड़ा और तन, मन, धन से उनका साथ दिया।

हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने भाई जनाब अक़ील की प्रशंसा में पैग़म्बरे इस्लाम के हवाले से एक कथन का वर्णन किया है जिसमें पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमाया है" मैं दो कारणों से अक़ील से प्रेम करता हूं एक स्वयं अक़ील के कारण और दूसरे इस कारण कि अक़ील के पिता अबुतालिब उनसे प्रेम करते थे। अंत में पैग़म्बरे इस्लाम ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को संबोधित करते हुए कहा, हे अली अक़ील का बेटा मुस्लिम तुम्हारे बेटे के प्रेम में शहीद किया जायेगा, मोमिनों अर्थात ईश्वर पर ईमान रखने वाले व्यक्ति उस पर आंसू बहायेंगे और ईश्वर के निकटवर्ती फरिश्ते उस पर सलाम भेजते हैं"

 

मोआविया २० वर्ष तक अत्याचारपूर्ण ढंग से शासन करने के बाद मर गया और उसके बाद उसका बेटा यज़ीद सिंहासन पर बैठा तथा लोभ एवं धमकी द्वारा उसने स्थिति पर आधिपत्य जमा लिया। उसने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से बैअत तलब की अर्थात अपने आदेशों के अनुसरण की मांग की जिसे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने ठुकरा दिया और गोपनीय ढंग से अपने परिवार के कुछ सदस्यों के साथ मदीना से बाहर निकल कर मक्का पहुंचे ताकि हज के उचित दिनों में लोगों को जागरुक बनायें। ६० हिजरी क़मरी थी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम चार महीने तक मक्का में रहे जिसके दौरान उन्होंने बैंठके और लोगों से वार्ता करके उन्हें यज़ीद की बैअत न करने का कारण समझा दिया। विशेषकर कूफा के लोग हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की क्रातिकारी कार्यवाही सुनकर प्रसन्न और आशान्वित हो गये। कूफा के लोगों को हज़रत अली अलैहिस्सलाम का चार वर्षीय शासन काल याद था और इस नगर में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के चाहने वाले बहुत व्यक्ति थे और इसी आधार पर कूफा में जाने पहचाने शीया मुसलमानों के हस्ताक्षर एवं मोहर से लोगों ने हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को पत्र लिखा जिनकी संख्या हज़ारों में थी। कूफा के लोग अपने पत्रों में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से अपने यहां आने और बैअत करने का आग्रह करते थे तथा इस बात का बार बार आग्रह करते थे कि इमाम कूफा आकर लोगों से बैअत लें तथा यज़ीद को शासन से हटा दें।

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कूफावासियों के निरंतर आग्रह और बारम्बार के निमंत्रण के उत्तर में प्रतिक्रिया दिखाने और कार्यवाही करने का निर्णय लिया। कूफा की स्थिति का सही मूल्यांकन, लोगों के प्रेम की सीमा का आंकलन, आवश्यक भूमि उपलब्ध करना और क्रांतिकारी बलों के गठन के लिए आवश्यक था कि कोई पहले कूफा जाकर इन कार्यों को अंजाम दे तथा नगर और नगरवासियों की सूक्ष्म व सही जानकारी उन्हें दे। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने इस गुप्त कार्यवाही के लिए सबसे उचित व योग्य व्यक्ति जनाब मुस्लिम बिन अक़ील को समझा क्योंकि ईश्वर से भय रखने के साथ साथ वह पर्याप्त राजनीतिक जानकारी भी रखते थे और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से निकट भी थे। कूफावासियों की ओर से आये प्रतिनिधियों से इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने कहा कि मैं अपने चचरे भाई मुस्लिम को तुम्हारे साथ भेज रहा हूं यदि लोगों ने उनसे बैअत की अर्थात आज्ञा पालन का वचन दिया तो मैं भी आऊंगा। यह कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जनाब मुस्लिम को अपने भाई और विश्वास पात्र व्यक्ति के रूप में याद किया, यही उनकी योग्यता को समझने के लिए काफी है। फ़िर आपने जनाबे मुस्लिम को बुलाया और उनसे फरमाया, कूफे जाओ और देखो यदि लोगों की ज़बान एवं दिल एक है जैसाकि इन पत्रों में लिखा है और लोग एकजुट हैं, उनके माध्यम से कुछ किया जा सकता है तो इस संबंध में अपनी राय हमें लिखो।

 

हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने जनाब मुस्लिम को तक़वा अर्थात ईश्वरीय भय आदि की सिफारिश की और फरमाया कि नर्मी एवं प्रेम से काम को आगे बढ़ाओ, अपनी गतिविधियों को गुप्त रखो यदि लोगों में समन्वय हो उनके मध्य मतभेद न हो तो हमें सूचित करो। जनाब मुस्लिम का भेजा जाना कूफा से हजारों की संख्या में आये पत्रों का उत्तर था।

जनाब मुस्लिम दो व्यक्तियों के साथ पवित्र नगर मक्का से कूफे पहुंचे। शिया मुसलमान कूफे में जनाब मुख्तार के घर में आकर जनाब मुस्लिम को देखने और उनके हाथ पर बैअत करने लगे यहां तक कि कई दिनों के भीतर जनाब मुस्लिम के हाथ पर बैअत करने वालों की संख्या हज़ारों में हो गयी। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के समर्थन में इतने सारे बैअत करने वालों और यज़ीद की सरकार को उखाड़ फेंकने वालों की स्थिति की सूचना जनाब मुस्लिम ने एक पत्र लिखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम को दी और प्रतिरोध के लिए स्थिति को उपयुक्त देखकर इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से कूफा आने का अनुरोध किया।

उधर यज़ीद ने कूफे पर अपना शासन बाक़ी रखने के लिए अब्दुल्लाह बिन ज़ियाद जैसे क्रूर व्यक्ति को, जो बसरा का गवर्नर था, कूफे का भी गवर्नर बना दिया और इब्ने ज़ियाद को यह दायित्व सौंपा कि वह कूफे जाकर जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करे और उसके बाद उन्हें जेल में डाल दे या कहीं भेज या फिर उनकी हत्या कर दे। जिन लोगों ने जनाब मुस्लिम के हाथों बैअत किया था वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आने की प्रतीक्षा में थे पर इब्ने ज़ियाद के आते ही स्थिति परिवर्तित हो गयी और अगले दिन सुबह व्यक्ति जो नमाज़ पढ़ने के लिए आये थे इब्ने ज़ियाद ने उन्हें सबोधित करके कहा, मुझे अमीरुल मोमेनीन यज़ीद ने इस नगर का गवर्नर और तुम्हारा शासक एवं जनकोष का रक्षक बनाया है और मुझे आदेश दिया है कि अत्याचारग्रस्त लोगों के साथ न्याय और वंचितों के साथ भलाई करूं तथा जो लोग मेरे आदेश का विरोध करें उनके साथ कड़ाई से पेश आऊं तो फिर हर व्यक्ति को चाहिये कि वह डरे और मेरी बात की सच्चाई अमल के समय स्पष्ट हो जायेगी। उस हाशिमी व्यक्ति को यानी जनाब मुस्लिम को बता दो कि वह मेरे क्रोध से डरे" इसके बाद स्थिति पूरी तरह परिवर्तित हो गयी। इब्ने ज़ियाद ने कूफे नगर के विभिन्न मोहल्लों एवं क़बीलों के नेताओं को बुलाया और उन्हें डराया, धमकाया तथा उनसे मांग की कि वे यज़ीद के विरोधियों की सूचना हमें दें यन्यथा उनकी जान व माल ख़तरे में है। लालच, धमकी, जासूसी और सत्ता की दूसरी की संभावनाओं से इब्ने ज़ियाद ने पूरे कूफे नगर में भय एवं आतंक का वातारण व्याप्त कर दिया संक्षेप में यह कि लोगों को गिरफ्तार और उनके साथ कठोर व निर्दयतापूर्ण बर्ताव करके पूरी स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। जनाब मुस्लिम बिन अक़ील मुख्तार के घर में थे और स्थिति परिवर्तित हो चुकी थी। चूंकि इब्ने ज़ियाद जनांदोन व प्रतिरोध को कुचलने की चेष्टा में था और वह प्रतिरोध के नेता मुस्लिम बिन अक़ील को गिरफ्तार करने के प्रयास में था इसलिए जनाब मुस्लिम मुख्तार के घर से हानी के घर में चले गये। हानी बिन उरवह कूफा नगर के जाने पहचाने लोगों में से थे और इस नगर में उनका बहुत प्रभाव था। उस समय हानी बिन उरवह की उम्र लगभग ९० वर्ष थी, वह पैग़म्बरे इस्लाम और हज़रत अली अलैहिस्सलाम के भी काल में थे तथा जमल, नहरवान एवं सिफ्फैन नामक युद्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की सेना में थे और पैग़म्बरे इस्लाम एवं पवित्र उनके परिजनों के प्रति विशेष श्रृद्धा व निष्ठा रखते थे। अब एक बार फिर परीक्षा की घड़ी आ गयी थी कि वह अपनी सच्चाई, ईमान और न्याय प्रेम के प्रति अपनी निष्ठा को दर्शाते। ख़तरनाक एवं संकटग्रस्त स्थिति में उन्होंने जनाब मुस्लिम को अपना मेहमान बनाया और उन्हें भलिभांति पता था कि क्रूर अत्याचारी इब्ने ज़ियाद जनाबमुस्लिम को गिरफ्तार करने के प्रयास में है और जनाब मुस्लिम को अपने यहां रखने के परिणाम से भी अवगत थे पर उन्होंने किसी बात की परवाह न की और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के दूत को अपना अतिथित्य बनाया।

उधर इब्ने ज़ियाद जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करने और प्रतिरोध को समाप्त करने की कुचेष्टा में था और इस कार्य को व्यवहारिक बनाने के लिए उसने दो षडयंत्र रचे

प्रथम यह कि जनाब मुस्लिम और उनके चाहने वालों का पता लगाना और दूसरे नगर में प्रभाव रखने वाले व्यक्तियों को लोभ व लालच देकर खरीदना इब्ने ज़ियाद ने जनाब मुस्लिम के रहने का स्थान और प्रतिरोध के कार्यक्रमों का पता लगाने के लिए माक़ल नाम के व्यक्ति को तीन हज़ार दिरहम दिया और उसे अपना जासूस बनाकर भेजा तथा उसे आदेश दिया गया कि वह अपने आपको जनाब मुस्लिम का चाहने वाला दर्शाये और साथ ही यह भी दिखाये कि उसके पास तीन हज़ार दिरहम हैं जिसे वह प्रतिरोध के लिए शस्त्र आदि खरीदने के लिए जनाब मुस्लिम को देना चाहता है। इस प्रकार वह जनाब मुस्लिम का पता लगाने में सफल हो गया तथा उसने हानी बिन उरवह के घर, उनके साथ मौजूद व्यक्तियों की संख्या आदि की सूचना इब्ने ज़ियाद को भेद दी और अपने साथ मौजूद तीन हज़ार दिरहम भी जनाब मुस्लिम को दे दिया। इस प्रकार इब्ने ज़ियाद के जासूस ने अपने आपको जनाब मुस्लिम का चाहने वाला एवं प्रतिरोध का पक्षधर दिखाने में सफल हो गया। सुबह सबसे पहले जनाब मुस्लिम के पास आता था और रात को सबसे देर में उनके पास से जाता था इस प्रकार वह प्रतिरोध के भीतर की समस्त गतिविधियों की जानकारी इब्ने ज़ियाद को भेजता था। इस प्रकार जब इब्ने ज़ियाद को जनाब मुस्लिम के रहने का स्थान और प्रतिरोध के प्रभावी व्यक्तियों का पता चल गया तो उसने ख़तरे का अधिक आभास किया और इससे पहले कि स्थिति नियंत्रण से बाहर हो जाये उसने प्रतिरोध एवं उसमें प्रभावी व्यक्तियों के दमन का निर्णय किया।

प्रतिरोध में हानी बिन उरवह की भूमिका बहुत अधिक थी इसलिए इब्ने ज़ियाद ने पहले उन्हें गिरफ्तार करने का निर्णय लिया। क्योंकि वह जानता था कि जब तक हानी बिन उरवह अपने स्थान पर रहेंगे तब तक जनाब मुस्लिम बिन अक़ील को गिरफ्तार करना संभव नहीं है। इसके बाद उसने एक षडयंत्र रचकर हानी बिन उरवह को दारुल इमारह अर्थात राजभवन बुलाया और उन्हें वही पर गिरफ्तार करके उनके तथा जनाब मुस्लिम के बीच दूरी उत्पन्न कर दी। अब कूफे में जनाब मुस्लिम हानी बिन उरवह जैसे वफादार साथी से अकेले हो गये हैं रात बिताने के लिए कूफे की गलिईयों में टहल रहे हैं और उन्हें नहीं पता कि वह कहां जायें। कूफे के हर घर का दरवाज़ा जनाब मुस्लिम के लिए बंद हो चुका है कई दिनों के बाद जनाब मुस्लिम को एक महिला ने अपने घर में शरण दी परंतु उस महिला के विपरीत उसका बेटा इब्ने ज़ियाद का समर्थक था रात को जब वह अपने घर आया तो अपनी मां के व्यवहार से समझ गया कि कोई असाधारण बात है काफी पूछने के बाद उसकी मां ने बताया कि जनाब मुस्लिम के अतिरिक्त हमारे घर में कोई नहीं है यह सुनना था कि उसका बेटा बहुत प्रसन्न हो गया और सोचा कि यदि यह खबर इब्ने ज़ियाद को दे तो वह उसे इनाम देगा। जबकि उसने अपनी मां को वचन दिया था कि इस बात को वह किसी से नहीं कहेगा पर उसने यह बात इब्ने ज़ियाद से बता दी और फिर क्या था इब्ने ज़ियाद ने जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार करने के लिए कुछ सैनिक भेजे परंतु वे सब जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार न कर सके, जनाब मुस्लिम ने बड़ा साहसिक युद्ध किया यहां तक इब्ने ज़ियाद के सैनिकों ने उससे और सैनिक भेजने की मांग की तो उसने कहा कि एक व्यक्ति को गिरफ्तार करने के लिए कितने सैनिकों की आवश्यकता है तो उत्तर मिला कि यह हाशिम खानदान का जवान है कोई आम व्यक्ति नहीं है अंत में इब्ने ज़ियाद ने और सैनिकों को भेजा, घमासान लड़ाई हुई पर जनाब मुस्लिम को गिरफ्तार न कर सके तो उन्होंने एक गढढा खोदा और उसे घास आदि से ढक दिया तथा जनाब मुस्लिम को धोखा देकर उस गढढे के पास लाये जिसमें वह गिर गये जिसके बाद इब्ने जियाद के सैनिक उन्हें गिरफतार करके इब्ने ज़ियाद के पास ले गये। इब्ने ज़ियाद ने उनसे कहा कि तुमने अपने स्वामी को सलाम नहीं किया, मुस्लिम ने उत्तर दिया कि मेरा स्वामी केवल हुसैन है।

क्रूर एवं निर्दयी इब्ने ज़ियाद ने उनकी हत्या का आदेश देने से पूर्व उनकी अंतिम इच्छा जानना चाही तो हज़रत मुस्लिम ने तीन इच्छायें प्रकट की जिनमें से एक यह थी कि इमाम हुसैन को यह संदेश दे दिया जाये कि कूफा वाले अपने वचन से पीछे हट गये हैं अत: वे कूफे की ओर न आयें। इज़रत मुस्लिम की कोई इच्छा पूरी नहीं की गयी और इब्ने ज़ियाद के आदेश पर उन्हें राजभवन की छत से से गिरा कर शहीद कर दिया गया।