رضوی

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मौलाना सय्यद नक़ी महदी ज़ैदी ने तारागढ़ अजमेर (भारत) में नमाज़े जुमा के ख़ुत्बों में नमाज़ियों को तक़्वा-ए-इलाही की नसीहत के बाद इमाम हसन अस्करी (अ) के वसीयत-नामा की तशरीह और तफ़्सीर के बयान में जलन के मोहलिक असरात पर रोशनी डालते हुए कहा कि हसद सिर्फ़ एक अख़लाक़ी बीमारी नहीं, बल्कि इंसान के ईमान को खा जाने वाला गुनाह है।

हुज्जतुल इस्लाम मौलाना सय्यद नक़ी महदी ज़ैदी ने तारागढ़ अजमेर (भारत) में नमाज़े जुमा के ख़ुत्बों में नमाज़ियों को तक़्वा-ए-इलाही की नसीहत के बाद इमाम हसन अस्करी (अ) के वसीयत-नामा की तशरीह में जलन के नुकसान और गुनाह की शिद्दत पर बयान करते हुए कहा कि जलन एक ऐसी बुराई है जो इंसान के ईमान को जला देती है।

उन्होंने कहा कि हज़रत इमाम अली रज़ा (अ) ने इरशाद फ़रमाया: ایَّاکُمْ وَ اَلْحِرْصَ وَ اَلْحَسَدَ فَإِنَّهُمَا أَهْلَکَا اَلْأُمَمَ اَلسَّالِفَةَ وَ إِیَّاکُمْ وَ اَلْبُخْلَ فَإِنَّهَا عَاهَةٌ لاَ تَکُونُ فِی حُرٍّ وَ لاَ مُؤْمِنٍ إِنَّهَا خِلاَفُ اَلْإِیمَانِ यानी लालच और हसद से बचो — क्योंकि इन्हीं दो सिफ़तों ने पिछली उम्मतों को तबाह किया; और कंजूसी से भी दूर रहो — क्योंकि कंजूसी एक बीमारी है जो किसी आज़ाद या सच्चे मोमिन में नहीं होती; यह ईमान के ख़िलाफ़ है।

मौलाना ज़ैदी ने कहा कि हसद वह बुराई है जो कायनात की शुरुआत से मौजूद है। इतिहास के अध्य्यन से हमें कुरआन में जलन की कई मिसालें मिलती हैं:

१. इब्लीस का इंसान से हसद:
आसमान में पहला गुनाह जो हुआ, वह हसद था — जब इब्लीस ने हज़रत आदम (अ.) से हसद किया। जब खुदा ने फ़रिश्तों को आदम (अ.) को सज्दा करने का हुक्म दिया, तो इब्लीस ने इंकार किया और कहा: "ایَّاکُمْ وَ اَلْحِرْصَ وَ اَلْحَسَدَ فَإِنَّهُمَا أَهْلَکَا اَلْأُمَمَ اَلسَّالِفَةَ وَ إِیَّاکُمْ وَ اَلْبُخْلَ فَإِنَّهَا عَاهَةٌ لاَ تَکُونُ فِی حُرٍّ وَ لاَ مُؤْمِنٍ إِنَّهَا خِلاَفُ اَلْإِیمَانِ — "मैं उससे बेहतर हूं, तूने मुझे आग से पैदा किया और उसे मिट्टी से।" इब्लीस ने सोचा कि जो दर्जा आदम (अ.) को मिला है, उसका हक़ तो मुझे था — मैं ऊँचे माद्दे से पैदा हुआ हूं, जबकि वह निचले माद्दे (मिट्टी) से। इस तकब्बुर और हसद के चलते उसने खुदा को चैलेंज कर दिया और कहा: "मैं तेरी इस मख़लूक़ को गुमराह कर दूँगा।" यही हसद पहला गुनाह था — जिसने इब्लीस को जन्नत से निकाल दिया। जो आज हसद करता है, वह उसी पहले शैतान के नक़्श-ए-कदम पर चलता है।

२. क़ाबील और हाबील का वाक़ेआ:
ज़मीन पर पहला गुनाह भी हसद की वजह से हुआ — जब क़ाबील ने अपने भाई हाबील को मार डाला। दोनों ने अल्लाह की बारगाह में क़ुर्बानी पेश की; हाबील की क़ुर्बानी कबूल हुई, जबकि क़ाबील की न हुई। दोनों ने क़ुर्बानियाँ मैदान में रखीं तो हाबील की क़ुर्बानी को आसमानी आग ने जला दिया जो कि क़बूलियत की निशानी थी, जबकि क़ाबील की क़ुर्बानी को आसमानी आग ने नहीं जलाया। इसी जलन में कि — "हाबील की क़ुर्बानी क्यों क़बूल हुई?" — क़ाबील ने हाबील को क़त्ल कर डाला, हालाँकि करने का काम यह था कि वह अपनी ग़लती सुधार लेता। सूरह माइदा में अल्लाह ने इस वाक़े का तफ़सीली ज़िक्र किया है: وَاتلُ عَلَيهِم نَبَأَ ابنَى ءادَمَ بِالحَقِّ إِذ قَرَّ‌با قُر‌بانًا فَتُقُبِّلَ مِن أَحَدِهِما وَلَم يُتَقَبَّل مِنَ الءاخَرِ‌ قالَ لَأَقتُلَنَّكَ ۖ قالَ إِنَّما يَتَقَبَّلُ اللَّهُ مِنَ المُتَّقينَ" और उन्हें आदम के दोनों बेटों का क़िस्सा सच्चाई के साथ सुना दो — जब दोनों ने क़ुर्बानी पेश की तो एक की क़बूल हुई और दूसरे की नहीं हुई। उस (क़ाबील) ने कहा, "मैं ज़रूर तुझे क़त्ल कर दूँगा।" इस पर हाबील ने कहा, "अल्लाह तो परहेज़गारों से ही क़ुबूल करता है।" क़ाबील को यह हसद महसूस हुआ कि हाबील का दर्जा और उसकी क़ुर्बानी बारगाहे इलाही में क़ुबूल होकर ऊँचा हो गया है। जबकि हाबील ने उसकी वजह भी बयान कर दी थी कि — "अल्लाह तो सिर्फ परहेज़गारों की क़ुर्बानी कबूल करता है।" हाबील की उम्दा क़ुर्बानी और उसकी खालिस नीयत ने उसे अल्लाह की बारगाह में क़ुर्ब (निकटता) और शरीफ़ दर्जा अता किया था। पीछे रह जाने और नाकामी के एहसास ने क़ाबील को हाबील के क़त्ल पर उकसाया, जबकि उसे अपनी ग़लती सुधारनी चाहिए थी। हसद की यह क़िस्म हमारे मौजूदा समाज में भी पाई जाती है — जहाँ अफ़राद किसी ताक़तवर या असरदार शख्सियत की नज़र में ऊँचा मक़ाम, क़ुरबत या शोहरत हासिल करने की कोशिश में रहते हैं। चाहे वह क्लासरूम हो, दफ़्तर हो, कोई इदारा (संस्था) हो या घर — ऐसे लोग क़ाबील की तरह अपने साथी को तरक़्क़ी करता देखकर खुद को नाकाम महसूस करते हैं और जलन में आकर उसे नुक़सान पहुँचाने की कोशिश करने लगते हैं।

३. भाईयों का यूसुफ़ (अ.) से हसद:
हज़रत यूसुफ़ (अ.) अपनी अख़लाक़ और अच्छे किरदार की वजह से अपने पिता याक़ूब (अ.) के महबूब थे। उनके भाइयों को यह पसंद नहीं आया और उन्होंने यूसुफ़ (अ.) को क़त्ल या कुएं में फेंक देने की साज़िश की।"اقتُلوا يوسُفَ أَوِ اطرَ‌حوهُ أَر‌ضًا يَخلُ لَكُم وَجهُ أَبيكُم وَتَكونوا مِن بَعدِهِ قَومًا صـٰلِحينَ"  यानी "यूसुफ़ को मार डालो या कहीं फेंक दो ताकि तुम्हारे बाप की तवज्जो सिर्फ़ तुम पर रहे।" मगर इस हसद के बावजूद अल्लाह ने यूसुफ़ (अ.) को नबी और बादशाह का मुकाम दिया — और भाइयों को कोई फ़ायदा न हुआ।

मौलाना नक़ी ज़ैदी ने कहा कि यहूद और नसारा का इस्लाम और मुसलमानों से हसद भी पुरानी और गहरी हकीकत है। यहूदियों को उम्मीद थी कि आख़िरी नबी उनकी नस्ल से होंगे, लेकिन जब अल्लाह ने अपनी हिकमत से नबी-ए-आख़िर (स) को बनी इस्माईल में माबूस किया, तो उन्होंने हसद में इंकार कर दिया। क़ुरआन कहता है: "وَإِذا خَلَوا عَضّوا عَلَيكُمُ الأَنامِلَ مِنَ الغَيظِ ۚ قُل موتوا بِغَيظِكُم" जब वे अकेले होते हैं, तो गुस्से में अपनी उंगलियाँ काटते हैं। उन्होंने नबी पर क़ातिलाना हमले किए, जादू किया, कुरआन से इंकार किया — सब कुछ हसद की वजह से।

आख़िर में, उन्होंने कहा कि मुश्रेकीन-ए-मक्का भी इसी हसद के मरीज थे। जब नबी करीम (स.) ने नबूवत का ऐलान किया, तो अबू जहल ने कहा: "हम और बनी अब्दे मुनाफ़ बराबर थे इज़्ज़त में — अब वे कहते हैं कि उनमें एक नबी है जिस पर आसमान से वह्यी आती है; हम कैसे मानें?"  बस इसी हसद ने उन्हें इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मन बना दिया — और उन्होंने नबी के क़त्ल की साज़िशें रचाईं, मुसलमानों पर ज़ुल्म ढाए, क़ुरआन से इंकार किया और जंगें लड़ीं।

मौलाना ज़ैदी ने कहा: "हसद किसी और को नहीं, बल्कि ख़ुद इंसान को जला देता है। यह ईमान को खा जाता है और इंसान को इब्लीस व क़ाबील और अबू जहल के रास्ते पर ले जाता है। मोमिन को चाहिए कि वह हसद से दूर रहे और दूसरों की नेमत पर खुश होकर अल्लाह का शुक्र अदा करे।"

 

मुंबई ख़ोजा शिया अस्ना-अशरी जामा मस्जिद, पाला गली में 24 अक्टूबर 2025 को नमाज़-ए-जुमआ हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लमीन मौलाना सैयद रूहे ज़फर रिज़वी साहब क़िब्ला की इमामत में अदा की गई।

मौलाना सैयद रूहे ज़फर रिज़वी ने नमाज़ियों को तक़वा-ए-इलाही (ईश्वर से डरने और उसकी आज्ञा मानने) की नसीहत करते हुए फ़रमाया, तक़वा से दिल रोशन और मुनव्वर होते हैं और क़यामत के दिन नजात मिलती है।

मौलाना ने आगे कहा,हर इंसान नजात चाहता है और अल्लाह ने नजात इंसान के अपने हाथों में दे दी है जैसा अमल करोगे, वैसी ही नजात पाओगे। इसलिए इंसान की मुक्ति का ज़ामिन (ज़िम्मेदार) खुद उसका अमल है यानी जो अल्लाह ने वाजिब किया है उसे अदा करे और जो हराम ठहराया है, उससे बचे।

उन्होंने क़ुरआनी आयतों और अहले बैत (अ.स.) की रिवायतों का हवाला देते हुए कहा, अमल-ए-सालेह (नेकी का काम) में जहाँ अल्लाह के हक़ की अदायगी ज़रूरी है, वहीं उसके बंदों के हक़ अदा करना भी लाज़िमी है। इसलिए इंसान न तो अल्लाह की इबादत से ग़ाफ़िल रहे और न ही उसके बंदों की ख़िदमत से।

मौलाना ने फ़रमाया, सिर्फ़ तलवार या हथियार से हमला करने वाला ज़ालिम नहीं होता, बल्कि झूठ बोलने वाला, ग़ीबत (पीठ पीछे बुराई करने वाला), और तोहमत (इल्ज़ाम) लगाने वाला भी ज़ालिम है। जो इंसान इन ज़ुल्मों से खुद को बचाएगा, उसी का अमल “अमल-ए-सालेह” कहलाएगा। और क़ुरआन के मुताबिक़, क़यामत के दिन राई के दाने बराबर भी नेकी या बुराई का हिसाब लिया जाएगा।

हक़ूक़ुल इबाद (बंदों के हक़) की अहमियत पर अमीरुल मोमिनीन इमाम अली (अ.स.) की हदीस बयान करते हुए मौलाना ने कहा,शिर्क वो गुनाह है जो कभी माफ़ नहीं होगा, लेकिन अल्लाह अपने हक़ को माफ़ कर सकता है,मगर बंदों के हक़ को तब तक माफ़ नहीं करेगा जब तक कि वो शख्स खुद माफ़ न करे, जिस पर ज़ुल्म हुआ है।

मौलाना ने इमाम अली (अ.) की हदीस “दुनिया की तमाम तकलीफ़ें मेरे लिए आसान हैं, मगर ये मुश्किल है कि मेरी गर्दन पर किसी का हक़ हो।” बयान करते हुए कहा: हम इमाम अली (अ.) के शिया और मुहिब हैं, हमें अपना मुहासिबा (आत्मनिरीक्षण) करना चाहिए कि कहीं मेरी गर्दन पर किसी का हक़ तो नहीं है? अफ़सोस, हम अपनी ख़्वाहिशों को ख़ुदा का हुक्म समझते हैं और असल हुक्म-ए-ख़ुदा से ग़ाफ़िल हैं।लेकिन याद रखो, अगर हम ख़ुदा के हुक्म की पैरवी करेंगे तो जन्नती होंगे, और अगर अपनी ख़्वाहिशों की पैरवी करेंगे तो जहन्नमी होंगे!

मौलाना ने र'वायत “अल्लाह कर्ज़ के अलावा शहीद के सारे गुनाह माफ़ कर देता है।” बयान करते हुए कहा: शब-ए-आशूर इमाम हुसैन (अ.) ने अपने असहाब से यही कहा था कि जिसकी गर्दन पर किसी का हक़ हो, वो चला जाए — यानी जिसके ऊपर लोगों का हक़ है, वो कारवाने हक़ में शामिल होने के लायक़ नहीं। इसलिए हमें अपना मुहासिबा ज़रूर करना चाहिए।

मौलाना ने हदीस-ए-नबवी बयान करते हुए कहा: सबसे बड़ा घाटा उस इंसान का है जिसकी गर्दन पर लोगों का हक़ है, जिसने ग़ीबत की, तोहमत लगाई, दूसरों की तौहीन की, या लोगों के ख़िलाफ़ साज़िशें कीं।

मौलाना ने माह-ए-जमादी-उल-अव्वल की मुनासेबतों का ज़िक्र करते हुए कहा: इख़लास (निष्कपटता) के साथ अहले बैत (अ.) का ज़िक्र करें, ख़ास तौर पर अज़ा-ए-फ़ातिमी में इख़लास का ख़ास ख़्याल रखें।

मुस्लिम मुल्कों के सरबराहों की ख़यानत और “शर्म-अश-शेख़” के मुआहिदे को “शर्मनाक समझौता” बताते हुए मौलाना ने कहा: अगर मुस्लिम देशों के जिम्मेदार सिर्फ़ संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट पढ़ लेते, तो देखते कि हज़ारों मासूम बच्चों समेत समाज के हर तबक़े के लोग उन हमलों में मारे गए। इस शर्मनाक समझौते को 14 दिन हो गए, लेकिन आज तक उसकी किसी एक भी शर्त पर अमल नहीं हुआ। दुश्मन से समझौते के बजाय मुस्लिम देशों के सरबराहों को इस्तेक़ामत (दृढ़ता) दिखानी चाहिए थी।

वक़्फ़ कानून का ज़िक्र करते हुए मौलाना ने कहा: न सिर्फ़ मुसलमान बल्कि हर आज़ाद ख़याल इंसान जानता है कि यह कानून मुनासिब नहीं है।कानूनी दायरे में रहते हुए इस कानून के ख़िलाफ़ एहतजाज (विरोध) करें। हुकूमत ने 5 दिसंबर तक का वक़्त दिया है कि सारे औक़ाफ़ (वक़्फ़) को रजिस्टर कराया जाए, इसलिए आपसी इख़्तिलाफ़ (मतभेद) और मुतवल्लियों (संरक्षकों) के झगड़ों को छोड़कर हर छोटे-बड़े वक़्फ़ को जल्द से जल्द रजिस्टर कराएँ।

वक़्फ़ कानून के सिलसिले में ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड के इक़दामात की हिमायत करते हुए मौलाना ने कहा:अब तक बोर्ड ने सारे काम क़ानून के दायरे में किए हैं और इंशा अल्लाह आगे भी यही करेंगे, इसलिए हमें इस मसले में उनकी पूरी हिमायत करनी चाहिए।

आख़िर में मौलाना सैयद रूहे ज़फर रिज़वी ने नौजवानों की तालीम पर ज़ोर देते हुए कहा:हमें अपनी क़ौम के बच्चों की तालीम और तरबियत पर ख़ास ध्यान देना चाहिए और उन्हें आगे बढ़ने के लिए हौसला देना चाहिए।

 

अंतर्राष्ट्रीय कांफ़्रेंस "मिर्ज़ा नाईनी" के अंतर्राष्ट्रीय मेहमानों से मुलाक़ात के दौरान जामेअतुल मुसतफ़ा अल-आलमिय्या के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन डॉक्टर अब्बासी ने इस्लामी उलूम व संस्कृति के वैश्विक महत्व पर रोशनी डाली।

"मिर्ज़ा नाईनी" अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन के अंतर्राष्ट्रीय मेहमानों से मुलाक़ात के दौरान जामेअतुल मस्तफ़ा अल-आलमिय्या के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन डॉक्टर अब्बासी ने इस्लामी उलूम और संस्कृति के वैश्विक महत्व पर तफ़सील से बयान किया।

इस मौके पर डॉक्टर अब्बासी ने मेहमानों का इस्तेक़बाल करते हुए कहा कि हौज़ाते इल्मिया हमेशा इल्मी और शख्सियती तौर पर असरअंदाज़ शख्सियात की परवरिश का मरकज़ रहा है। मरहूम मिर्ज़ा नाईौनी भी उन्हीं शख्सियात में से एक हैं जिनकी ख़िदमात हमारे लिए गर्व का बाइस हैं, और उम्मीद है कि जामेअतुल मस्तफ़ा भी ऐसे प्रभावित उलमा की तर्बियत करेगा।

उन्होंने जामेअतुल मस्तफ़ा को हौज़ाए इल्मिया का एक अंतरराष्ट्रीय सिलसिला क़रार देते हुए बताया कि इस्लामी क्रांति के बाद दुनिया भर के नौजवानों में दीन और इल्म की तालीम का शौक़ बहुत बढ़ा है, और इसी ज़रूरत के तहत ये मरकज़ स्थापित किया गया। आज ये इदारा लगभग 130 विभिन्न देशो के छात्रों को इल्मी तालीम दे रहा है और अहले बैत (अ) की तालीमात को आलमी सतह पर फैलाने के ख़्वाब को हक़ीक़त में तब्दील कर रहा है।

हुज्जतुल इस्लाम डॉक्टर अब्बासी ने जामेअतुल मस्तफ़ा के अंतरराष्ट्रीय सहयोग की भी वज़ाहत की, जिनमें चार सौ से ज़्यादा इल्मी और सांस्कृतिक समझौते शामिल हैं। उन्होंने बताया कि ये तआवुन यहां तक कि ग़ैर मुस्लिम यूनिवर्सिटियों के साथ भी जारी है, जैसे हर दो साल बाद चीन की यूनिवर्सिटी यूनियन के साथ साझा कांफ़्रेंस होती है।

उन्होंने आलमी सतह पर अहले बैत (अ) की तालीमात के फ़रोग़ की ज़रूरत पर ज़ोर देते हुए कहा कि अगरचे अब तक कुछ इक़्दामात हुए हैं, लेकिन मज़ीद मेहनत की सख़्त ज़रूरत है ताकि मक़सूद सतह तक पहुंचा जा सके।

हुज्जतुल इस्लाम डॉक्टर अब्बासी ने आलमी तमद्दुन व साक़ाफ़त और फ़िक्री मुक़ाबले की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि एक तरफ मादी और इस्तेअमारी मग़रिबी तमद्दुन है, जो अपने आप को दुनिया पर ग़ालिब तसव्वुर करता है, और दूसरी तरफ इस्लामे नाब और इंक़लाबे इस्लामी है, जो नई साक़ाफ़त, तमद्दुन और निज़ामे ज़िंदगी पेश करता है। यही इस मग़रिबी तहज़ीब का वाहिद रक़ीब है।

उन्होंने कहा कि सिहयोनी हुकूमत भी मग़रिबी तहज़ीब की सफ़े अव्वल में है और आलमी साक़ाफ़ती जंग में अहम किरदार अदा कर रही है। यही वजह है कि मुसलमानों और इस्लाम के साथ मग़रिब की दुश्मनी में शिद्दत पैदा हो चुकी है।

डॉक्टर अब्बासी ने कहा कि जामिअतुल मस्तफ़ा, इंक़लाबे इस्लामी की तरह, खुद को एक आलमी साक़ाफ़ती मिशन का ज़िम्मेदार समझता है और तुल्बा को ये यक़ीन दिलाया जाता है कि वे यहां महमान नहीं बल्कि साहिबे मक़ान हैं। उन्होंने वाज़ेह किया कि मुस्तक़बिल सालेहीन और मोमिनीन के लिए है, और हक़ के मोर्चे पर बहाया गया ख़ून ज़रूर फ़त्ह की राह हमवार करेगा।

 

 आयतुल्लाह आराफ़ी ने कहा कि मिर्ज़ा नाईनी ने दिखाया कि एक फकीह न केवल इल्मी या दीनी मुद्दों का अनुसरण कर सकता है, बल्कि राजनीतिक और सामाजिक मंचों पर भी सक्रिय और प्रभावशाली भूमिका निभा सकता है।

इराक के कुछ विद्वानों ने आयतुल्लाह अली रज़ा आराफ़ी से अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन "मिर्ज़ा नाईनी" के अवसर पर मुलाकात और बातचीत की।

हौज़ा इल्मिया के निदेशक ने इस मुलाकात में कहा कि नजफ़ और क़ुम के हौज़े इस्लामी दुनिया के दो महत्वपूर्ण केंद्र हैं। नजफ़ और क़ुम के इन पवित्र शिक्षण केंद्रों का आपसी सहयोग और एकता, इस्लाम और शिया मत की उन्नति के लिए बहुत महत्वपूर्ण है। इन सम्मेलनों के आयोजन का एक बड़ा लाभ यह है कि इससे इराक, ईरान और अन्य इस्लामी देशों के विद्वानों के बीच नज़दीकी और संपर्क मज़बूत होता है।

उन्होंने आगे कहा कि मिर्ज़ा नाईनी के वैचारिक, राजनीतिक और वैज्ञानिक पहलुओं पर ध्यान देने से यह स्पष्ट होता है कि वह अपने समय के हालात के प्रति बहुत संवेदनशील और सूक्ष्म दृष्टि वाले थे। इंग्लैंड के उपनिवेशवाद के खिलाफ संघर्ष, इस्लामी समाज की स्वतंत्रता की रक्षा, और इस्लामी शासन व्यवस्था की स्थापना में उनकी भूमिका अत्यंत महत्वपूर्ण थी।

आयतुल्लाह आराफ़ी ने बताया कि उस समय इस्लामी दुनिया में बड़े राजनीतिक और सामाजिक परिवर्तन हो रहे थे, और मिर्ज़ा नाईनी ने परिस्थितियों की गहरी समझ और सटीक विश्लेषण के आधार पर ऐसे सिद्धांत और रणनीतियाँ प्रस्तुत कीं जिनमें धार्मिक और राजनीतिक दोनों दृष्टिकोण शामिल थे।

मजलिस खुबरेगान रहबीर के सदस्य ने कहा कि मरहूम मिर्ज़ा नाईनी ने अपने समय के मुद्दों को गहराई से समझकर धार्मिक शिक्षाओं और समाज की व्यावहारिक ज़रूरतों के बीच संतुलन स्थापित किया, और इस्लामी समाज का मार्गदर्शन करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। उन्होंने यह भी दिखाया कि एक फकीह न केवल इल्मी और दीनी विषयों पर कार्य कर सकता है, बल्कि राजनीति और समाज में भी प्रभावशाली उपस्थिति रख सकता है।

 

ईरान के राष्ट्रपति डॉक्टर मसूद पिज़िश्कियान ने मस्जिद को आवामी सेवा का केंद्र बताते हुए कहा: मस्जिद लोगों की समस्याएँ और मुश्किलों के हल में बुनियादी और महत्वपूर्ण किरदार अदा करती है।

ईरान के राष्ट्रपति डॉ. मसूद पिज़िश्कियान ने पश्चिमी आज़रबाइजान प्रांत की यात्रा के दौरान, वहाँ के उलमा और धार्मिक शख्सियतों से मुलाकात में कहा: "धर्म इंसानों की सेवा और उन के लिए रहमत, मग़फ़ेरत और बख़्शिश का ज़रिया है। हम समाज के अलग-अलग वर्गो के बारे में लापरवाह नहीं रह सकते। अगर समाज में कोई मुश्किल है तो इसका अर्थ है कि हम कसूरवार हैं, शायद हम लोगों की सेवा में सच्चाई और मेहनत से काम नहीं ले सके।"

उन्होंने मस्जिद को मोहल्लों में लोगो की सेवा का केंद्र बताया और कहा: "मस्जिद लोगों की मुश्किलों के हल में सबसे अहम किरदार निभा सकती है। चाहिए कि मोहल्लों की समस्याओं को मस्जिद की सरपरस्ती में, रूहानियों और इमामों की मदद से हल करने की कोशिश करें।"

डॉ. मसूद पिज़िश्कियान ने कुरआनी शिक्षाओ की ओर इशारा करते हुए कहा: "कौमियत और रुचि की परवाह किए बिना सेवा करना, इस्लामी संस्कृति और इलाही शिक्षा का हिस्सा है। अगर हम सच्चाई के साथ लोगों की सेवा करें तो कोई परेशानी बाक़ी नहीं रहेगी। हुकूमत के ज़िम्मेदारों को जनता का सेवादार होना चाहिए और उनकी मुश्किलों के हल और ज़िंदगी के स्तर के विकास के लिए प्रयास करना चाहिए।"

राष्ट्रपति ने 12 दिवसीय युद्ध को ईरानी क़ौम की वहदत और इत्तिहाद का निशान क़रार देते हुए कहा: "जब दुश्मन ने हमला किया, तो वे तबके भी जो कुछ मसाइल में एतराज़ रखते थे, मैदान में आ गए और इमाम व रहबर के नज़रियात का दिफ़ा किया। हमें दुश्मन से डर नहीं, हमें आंतरिक इख़्तिलाफ़ से डर है। हमें किसी ऐसे ज़ुल्म और कोताही से बचना चाहिए जो क़ौम को हम से दूर कर दे। इख़लास और मेहरबानी के साथ सेवा करें, ताकि मुल्क अपनी बेहतरीन मंजिल तक पहुंच सके।"

 

मौलाना फ़िरोज़ अब्बास ने मोहल्ला पुरानी बस्ती बखरी, मुबारकपुर (भारत) में मौलाना मस्रूर हसन मजीदी क़ुम्मी मरहूम की अहलिया मरहूमा की मजलिसे सोयम से ख़िताब करते हुए कहा कि मोमिन की पहचान इबादतों से नहीं बल्कि उसके मआमलात से होती है।

मोहल्ला पुरानी बस्ती बखरी, मुबारकपुर में मौलाना मस्रूर हसन मजीदी क़ुम्मी मरहूम की अहलिया मरहूमा की मजलिसे सोयम आयोजित हुई, जिसमें मोमेनीन और उलमा-ए-इराम ने बड़ी सख्या मे भाग लिया।

मजलिस से हुज्जतुल इस्लाम मौलाना फ़िरोज़ अब्बास ने ख़िताब करते हुए कहा कि मोमिन की पहचान इबादतों से नहीं बल्कि उसके मआमलात से होती है; यह मत देखो कि वह कितना बड़ा नमाज़ी है, यह मत देखो कि वह कितना बड़ा रोज़ेदार है, यह मत देखो कि उसने कितनी बार हज किया है या कितनी ज़्यादा इबादतें करता है, बल्कि यह देखो कि वह लोगों के साथ कैसा सुलूक करता है; क्या वह बंदों के हक़ भी अदा करता है या नहीं। जो व्यक्ति अल्लाह के हक़ के साथ-साथ इंसानों के हक़ भी अदा करता है, वही असली मोमिन है, और वही अल्लाह के नज़दीक मुक़र्रम है। इस सिलसिले में अहले बैत (अ) की सीरत तमाम इंसानों के लिए एक रौशन नमूना-ए-अमल है।

सदरुल उलमा हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन मौलाना मस्रूर हसन साहब क़िबला मजीदी क़ुम्मी मुबारकपुरी (ताबस सराह) सुल्तानुल मदारिस लखनऊ से सदरुल अफ़ाज़िल, मदरसा वाएज़ीन लखनऊ से वाएज़, लखनऊ यूनिवर्सिटी से एम.ए. और हौज़ाए इल्मिया क़ुम (ईरान) से फ़ाज़िल क़ुम थे।

उन्होंने मदरसा वाएज़ीन लखनऊ के वाएज़ की हैसियत से मुल्क और बाहर मुल्क में तब्लीगी दौरे किए थे। फिर 1983 में वह इस्लामी तब्लीग़ाती मरकज़, ईरान से मुत्तसिल हुए और अफ़्रीका व लंदन आदि में तब्लीगी दौरों पर रहे।

मरहूम एक लंबी मुद्दत तक मॉरिशस में इमामे जुमा व जमाअत रहे; दिसंबर 2009 में कामठी (नागपुर) में दिल का दौरा पड़ने से इंतिक़ाल कर गए। जनाज़ा वतन लाया गया और ऊँची तकिया क़ब्रिस्तान, मुबारकपुर में दफन किया गया।

मरहूम उम्दा क़लमकार, ख़तीब और मुबल्लिग़ थे; उन्होंने कई किताबें तस्नीफ़ व तालीफ़ कीं। उन्होंने तफ़्सीरे कुरआन लिखने का इरादा किया था, मगर अफ़सोस कि मजीदुल बयान फी तफ़्सीरे कुरआन नामी पहली जिल्द ही प्रकाशित हो सकी और फिर मौत ने मोहलत न दी। बीते रोज़ 22 अक्टूबर को मौलाना मरहूम की अहलिया अहमदी बानो बिंत इक़बाल हुसैन मरहूम भी दुनिया से रुख़सत कर गईं और ऊँची तकिया क़ब्रिस्तान, मुबारकपुर में दफ़न हुईं।

मरहूमा बहुत ही दींदार और नमाज़-रोज़े की पाबंद ख़ातून थीं। उनका इकलौता बेटा हुज्जतुल इस्लाम मौलाना नसीरुल महदी मुबारकपुरी क़ुम्मी है, जो अक्सर क़ुम (ईरान) में रहते हैं।

मरहूमा की मजलिसे सोयम में मौलाना इब्ने हसन अमलवी, मौलाना जव्वाद हैदर कर्बलायी, मौलाना नाज़िम अली ख़ैराबादी, मौलाना मिनहाल रज़ा, मौलाना नफ़ीस अख़्तर, मौलाना मुहम्मद दाऊद, मौलाना कर्रार हुसैन अज़हरी, मौलाना हसन अख़्तर आबिदी, मौलाना मिर्क़ाल रज़ा, मौलाना कौनैन रज़ा, मौलाना काज़िम हुसैन, मौलाना इक्तदार हुसैन समेत बड़ी तादाद में मुमिनीन ने शिरकत की।

मरहूमा के इसाले सवाब के लिए ख़वातीन की मजलिसे सोयम उसी रोज़ दोपहर 2 बजे बैतुल मजीद, मोहल्ला पुरानी बस्ती बखरी मे आयोजित हुई। जिसमे बड़ी सख्या मे खवातीन ने भाग लिया।

 

 

अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से अपील की वह इस्राईल की मानवता-विरोधी कार्रवाइयों पर निर्णायक कदम उठाएं।

ईरान ने लेबनान पर इस्राईल के हमलों को आसंवैधानिक बताते हुए इसकी कड़ी निंदा की है। अलआलम के अनुसार, ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता बक़ाई ने दक्षिण और बेक़ा क्षेत्र में इस्राईली हमलों को आतंकी अपराध करार देते हुए उसकी कड़ी निंदा की है।

उन्होंने शहीदों के परिवारों और लेबनान की जनता के प्रति संवेदना व्यक्त की और ज़ोर दिया कि इस्राईली शासन को अपने किए गए अपराधों के लिए अंतरराष्ट्रीय अदालत में जवाबदेह ठहराया जाना चाहिए।

ईरानी प्रवक्ता ने कहा कि अमेरिका के भरपूर समर्थन के कारण इस्राईल लगातार बिना किसी सज़ा के अपराध करता जा रहा है, और लेबनान की राष्ट्रीय संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के बार-बार उल्लंघन तथा युद्धविराम समझौते की लगातार अनदेखी इस शासन की आतंकी और विस्तारवादी सोच का सबूत हैं।

उन्होंने अंतरराष्ट्रीय समुदाय और संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद से अपील की कि वह इस्राईल की कानून-रोधी और मानवता-विरोधी कार्रवाइयों पर निर्णायक कदम उठाएं

 

लोहा, जो मनुष्य के लिए एक जीवनदायी तत्व है और क़ुरआन मजीद में शक्ति का प्रतीक बताया गया है, वह़ी और मानव ज्ञान के बीच के अद्भुत तालमेल को दर्शाता है। इसमें मौजूद जानकारी, संकेत और अर्थों की गहराई इस तरह से एक-दूसरे में जुड़ी हुई है कि यह मनुष्य को अल्लाह की हिकमत पर विचार करने और वह़ी में छिपे वैज्ञानिक रहस्यों को खोजने की ओर आमंत्रित करती है।

 पवित्र कुरआन में सूरा नंबर 57 का नाम "हदीद" अर्थात लोहा रखा गया है। इस सूरत में एक आयत आती है जो हमेशा चिंतन और विचार का विषय रही है:

۔۔۔  وَأَنْزَلْنَا الْحَدِيدَ فِيهِ بَأْسٌ شَدِيدٌ وَمَنَافِعُ لِلنَّاسِ ۔۔۔  ...वअंज़लनल हदीदा फ़ीहे बासुन शदीदुन व मनाफ़ेओ लिन्नासे ...

और हमने लोहा उतारा जिसमें बड़ी शक्ति है और लोगों के लिए अनेक लाभ हैं। (कुरआन 57:25)

लोहा मानव जीवन और सभ्यता के लिए एक मूलभूत तत्व है। यह तत्व आवर्त सारणी (Periodic Table) में 26वें स्थान पर है — ऐसी सारणी जिसे कुरआन के नुज़ूल के कई शताब्दियों बाद तैयार किया गया। इसके प्राकृतिक स्थिर समस्थानिकों (isotopes) में से एक प्रमुख समस्थानिक ^57Fe है, जो दुबारा उसी संख्या 57 की ओर संकेत करता है।

आश्चर्यजनक बात यह भी है कि अगर कुरआन के सूरो को शुरुआत से आख़िर तक या विपरीत अर्थात आख़िर से शुरुआत तक गिना जाए, तो सूरत “हदीद” ठीक मध्य में आता है — यानी कुल 114 सूरो में यह 57वां सूरा है। इसके अलावा, अबजद नियम (अरबी अक्षरों के संख्यात्मक मूल्य) के अनुसार, हदीद शब्द का मान 26 और “अल-हदीद” का मान 57 आता है।

क़ुरआन मजीद और मानवीय ज्ञान के बीच पाए जाने वाले ये अद्भुत सामंजस्य, विशेषज्ञों के अनुसार, सोच-विचार और चिंतन के संकेत हैं। निःसंदेह, इन बातों को सामान्य अर्थ में “वैज्ञानिक प्रमाण” नहीं कहा जा सकता, लेकिन ये ऐसे आश्चर्यजनक सामंजस्य हैं जो इस्लाम की आसमानी किताब की ईश्वरीय प्रकृति की समझ को और गहरा करते हैं, तथा इंसान को उसकी उच्च और गहन शिक्षाओं पर मनन करने के लिए प्रेरित करते हैं।

 

वेटिकन लाइब्रेरी ने शोध यात्राओं के दौरान मुस्लमानो के लिए नमाज़ पढ़ने के लिए एक छोटा सा क्षेत्र निर्धारित किया है।

वेटिकन लाइब्रेरी के उप निदेशक फादर गियाकोमो कार्डिनली ने ला रिपब्लिका अखबार को दिए एक साक्षात्कार में बताया कि मुस्लिम विद्वानों ने स्वयं इस प्रकार के स्थान के निर्माण का अनुरोध किया था। हौज़ा न्यूज़ एजेंसी ने इकना के हवाले से बताया कि लाइब्रेरी प्रबंधन ने अनुरोध स्वीकार कर लिया और इस उद्देश्य के लिए उपयुक्त कालीन सहित एक हॉल तैयार किया।

15वीं शताब्दी के मध्य में स्थापित, वेटिकन लाइब्रेरी दुनिया के सबसे महत्वपूर्ण शोध केंद्रों में से एक है। इसमें लगभग 80,000 पांडुलिपियाँ, 50,000 अभिलेखीय दस्तावेज़, लगभग 20 लाख मुद्रित पुस्तकें, और लाखों सिक्के, पदक, उत्कीर्णन और प्रिंट हैं।

कार्डिनल ने इस बात पर ज़ोर दिया कि इस संग्रह में पवित्र कुरान की प्राचीन प्रतियों के साथ-साथ हिब्रू, एबिसिनियन, अरबी और चीनी कृतियाँ भी सम्मिलित हैं, जो इस खजाने की वैश्विक पहुँच को दर्शाता है।

उन्होंने लाइब्रेरी को एक “वैश्विक लाइब्रेरी” बताया जो सभी राष्ट्रीयताओं और धार्मिक विश्वासों के शोधकर्ताओं के लिए खुला है।

 

एक राहत संगठन का कहना है कि गाजा की सतह से विस्फोट न हुए गोले साफ करने में 30 साल लग सकते हैं।

एक राहत संगठन का कहना है कि गाजा की सतह से विस्फोट न हुए गोले साफ करने में 30 साल लग सकते हैं।

ह्यूमनिटेरियन एंड डिमाइनिंग नामक एक राहत संगठन ने खुलासा किया है कि गाजा पट्टी की सतह से विस्फोट न हुए गोले और बारूद साफ करने में 20 से 30 साल तक का समय लग सकता है। उन्होंने गाजा को एक डरावने और अनिश्चित विस्फोटक सामग्री से भरा हुआ क्षेत्र बताया है।

इस संगठन के विस्फोटक सामग्री विशेषज्ञ निक ओल्स ने "अल-मॉनिटर" वेबसाइट को बताया कि अगर पूरी तरह सफाई की बात करें तो यह कभी भी संभव नहीं होगा, क्योंकि बहुत सी सामग्री जमीन के नीचे दबी हुई है जो आने वाली पीढ़ियों के लिए खतरा बनेगी।

उन्होंने कहा कि "सतह पर मौजूद सामग्री को साफ करना लगभग एक पीढ़ी के दौरान संभव है, मेरे विचार में इसमें 20 से 30 साल लगेंगे और इस प्रक्रिया को "एक बेहद बड़ी समस्या से निपटने के लिए बहुत धीमी प्रक्रिया बताया।

निक ओल्स ने यह भी पुष्टि की कि उनकी सात सदस्यीय टीम अगले हफ्ते से अस्पतालों और बेकरियों जैसी महत्वपूर्ण इमारतों में मौजूद युद्धग्रस्त स्थलों की पहचान का काम शुरू करेगी। उन्होंने स्पष्ट किया कि अब तक इज़राइल ने बारूद साफ करने या जरूरी सामान आयात करने की पूरी अनुमति राहत संगठनों को नहीं दी है।

उन्होंने गाजा में एक अस्थायी सुरक्षा बल के गठन का समर्थन करते हुए कहा कि गाजा के किसी भी भविष्य के लिए एक ऐसा सुरक्षा बल चाहिए जो राहत कार्यकर्ताओं को सुरक्षित तरीके से अपना काम करने दे।

संयुक्त राष्ट्र के आंकड़ों के अनुसार, गाज़ा पर इज़राइली युद्ध के दौरान 53 से अधिक लोग विस्फोट न हुए गोले/बारूद के फटने से मारे गए हैं और सैकड़ों घायल हुए हैं, जबकि राहत संगठनों का कहना है कि वास्तविक आंकड़े इससे कहीं अधिक हैं।

सरकारी मीडिया कार्यालय ने पिछले दिन बताया था कि गाजा में 65 से 70 मिलियन टन मलबा और लगभग 20,000 विस्फोट न हुए इज़राइली गोले और मिसाइलें मौजूद हैं, जिसे उन्होंने आधुनिक इतिहास में सबसे बुरी निर्माण और मानवीय तबाही बताया था।