رضوی

رضوی

हज़रत पैग़म्बर ए अकरम स.ल.व.व. की ज़िंदगी के अख़लाक़ी पहलू और आप की सीरत के अनेक पहलू के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका है, लेकिन आपकी ज़िंदगी का वह पहलू जिसके बारे में बहुत कम किताबों या आर्टिकल्स में मिलता है वह आप की ज़िंदगी के आख़िरी समय के हालात हैं और शायद उस समय के हालात पर कम ध्यान देने के कारण उस समय की बहुत सारी हक़ीक़तों में फेर बदल किया गया और उसके बाद इतिहास के उन हालात का सामना होता है जो पैग़म्बर ए अकरम स.ल.व.व. की वफ़ात के बाद पेश आए, इस लेख में उन्हीं कुछ अहम हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा किया गया है।

हज़रत पैग़म्बर ए अकरम स.ल.व.व. की ज़िंदगी के अख़लाक़ी पहलू और आप की सीरत के अनेक पहलू के बारे में बहुत कुछ लिखा और पढ़ा जा चुका है, लेकिन आपकी ज़िंदगी का वह पहलू जिसके बारे में बहुत कम किताबों या आर्टिकल्स में मिलता है वह आप की ज़िंदगी के आख़िरी समय के हालात हैं और शायद उस समय के हालात पर कम ध्यान देने के कारण उस समय की बहुत सारी हक़ीक़तों में फेर बदल किया गया और उसके बाद इतिहास के उन हालात का सामना होता है जो पैग़म्बर ए अकरम स.ल.व.व. की वफ़ात के बाद पेश आए, इस लेख में उन्हीं कुछ अहम हक़ीक़तों की तरफ़ इशारा किया गया है।

हज़रत पैग़म्बर ए अकरम (स) की ज़िंदगी के आख़िरी दिन थे और आप (स) हज़रत अली अलैहिस्सलाम के हाथ को पकड़ कर क़ब्रिस्तान की तरफ़ गए और क़ब्र में लेटे हुए लोगों के लिए आप (स) ने मग़फ़ेरत की दुआ की और फिर इमाम अली अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि जिब्रईल साल में एक बार मेरे सामने क़ुरआन लेकर आते थे लेकिन इस साल दो बार लेकर आए हैं और इसके पीछे मेरी मौत के क़रीब होने के अलावा कोई और राज़ नहीं है, फिर आप ने इमाम अली (अ) से फ़रमाया: अगर मैं इस दुनिया से चला गया तो तुम ही मुझे ग़ुस्ल देना।

एक रिवायत में यह भी है कि आप (स) ने साथ में मौजूद लोगों से यह भी फ़रमाया कि अगर मैंने किसी से कोई वादा किया है तो उसे बता दे ताकि मैं पूरा कर सकूं और अगर किसी का कोई क़र्ज़ मेरे ज़िम्मे है तो बता दे ताकि अदा कर सकूं।

जैसा कि कुछ रिवायतों से ज़ाहिर होता है कि पैग़म्बर ए अकरम (स) अपनी कुछ बीवियों, अपने असहाब और कुछ साथियों से नाराज़ थे, इसीलिए आप ने बिदअत को फैलाने वालों का ज़िक्र करते हुए फ़रमाया: ऐ लोगों! फ़ित्ने और फ़साद की आग भड़क चुकी है, फ़ित्ने अंधेरी रात की तरह तुम तक पहुंच चुके हैं और तुम लोगों के पास मेरे ख़िलाफ़ कोई सबूत नहीं है इसलिए कि मैंने न किसी हलाल को हराम क़रार दिया और ना ही हराम को हलाल क़रार दिया, मैंने केवल क़ुरआन द्वारा हराम की गई चीज़ों को ही हराम कहा है।

पैग़म्बर ए अकरम (स) उम्मत को फ़ित्ने की चेतावनी देने के बाद जनाबे उम्मे सलमा के घर तशरीफ़ ले गए और दो दिन वहीं रुके और फ़रमाया: ख़ुदाया! तू गवाह रहना कि मैंने हक़ीक़तों को बयान कर दिया है, इसके बाद आप (स) अपने घर तशरीफ़ ले गए और एक गिरोह को अपने पास बुलवाया और फ़रमाया: क्या मैंने तुम लोगों से कहा नहीं था कि उसामह के लश्कर के साथ जाओ? जनाबे अबू बक्र ने कहा: मैं गया था लेकिन वापस आ गया ताकि दोबारा अहद कर सकूं, उमर बिन ख़त्ताब ने कहा कि मैं नहीं गया क्योंकि मैं आपके हाल चाल पूछने के लिए किसी क़ाफ़िले का इंतेज़ार नहीं करना चाहता था।

पैग़म्बर ए अकरम (स) बहुत नाराज़ हुए और उसी बीमारी की हालत में मस्जिद तशरीफ़ ले गए और उसामह के कमांडर बनाने पर आपत्ति जताने वालों से फ़रमाया: मैं उसामह के बारे में यह कैसी बातें सुन रहा हूं, तुम लोग इससे पहले उसामह के वालिद के कमांडर बनने पर भी आपत्ति जताते थे, ख़ुदा की क़सम वह कमांडर बनने के क़ाबिल थे और उनका बेटा उसामह भी कमांडर बनने के क़ाबिल है।

पैग़म्बर ए अकरम (स) बिस्तर पर लेटकर भी लोगों से बार बार यही कह रहे थे कि उसामह के लश्कर में शामिल हो जाओ। इसके बाद पैग़म्बर (स) की तबीयत बिगड़ गई जिसे देख आप (स) के घर की औरतें और बच्चे रोने लगे, थोड़ी देर बाद पैग़म्बर ए अकरम (स) ने आंख खोली और हुक्म दिया कि क़लम और दवात ले आओ ताकि तुम्हारे लिए ऐसा नुस्ख़ा लिख दूं जिसके बाद कभी गुमराह नहीं होंगे, पैग़म्बर ए अकरम (स) के हुक्म के बाद कुछ लोग क़लम और दवात लेने चले गए इसी बीच वहीं बैठे एक शख़्स ने कहा: पैग़म्बर (स) पर बीमारी का असर है इसलिए (मआज़ अल्लाह) वह हिज़यान बक रहे हैं,

तुम लोगों के पास क़ुरआन है और वही अल्लाह की किताब तुम लोगों के लिए काफ़ी है, इस शख़्स की घटिया बातों का कुछ लोगों ने विरोध भी किया लेकिन कुछ उसके तरफ़दार भी दिखाई दिए, उसी चीख़ पुकार के बीच वह पैग़म्बर ए आज़म (स) जिन्होंने पूरी ज़िंदगी इत्तेहाद और एकता को क़ायम करने में गुज़ार दी वह यह सब हालात देखकर काफ़ी नाराज़ हुए और उन सभी को अपने पास से भगा दिया।

फिर पैग़म्बर ए करीम (स) ने इमाम अली अलैहिस्सलाम की ओर देखा और उनसे वसीयत करना शुरू की और कहा: ऐ अली! थोड़ा क़रीब आओ और फिर पास बुलाकर आप ने अपनी ज़ेरह, तलवार, अंगूठी और मोहर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को दी और फ़रमाया: ऐ अली! जाओ, अब घर चले जाओ, इसके बाद पैग़म्बर ए अकरम (स) आंख बंद कर के आराम करने लगे, कुछ देर बाद आप (स) की तबीयत फिर बिगड़ी और इस बार जब कुछ बेहतर हुई तो आप (स) ने घर की औरतों से कहा कि मेरे भाई और मेरे सबसे क़रीबी को बुलाओ, उन्होंने अबू बक्र को बुला दिया वह जब आए तो पैग़म्बर ए अकरम (स) ने फिर कहा मेरे भाई और मेरे सबसे क़रीबी को बुलाओ, उन्होंने इस बार उमर को बुला दिया उन्हें देखकर फिर पैग़म्बर (स) ने अपनी बात दोहराई,

तभी वहां मौजूद जनाबे उम्मे सलमा ने कहा कि अली (अ) को बुला रहे हैं, आख़िरकार इमाम अली अलैहिस्सलाम को बुलाया गया, इमाम अली (अ) तशरीफ़ लाए उसके बाद पैग़म्बर (स) और इमाम अली (अ) ने कुछ देर एक दूसरे के कान में कुछ बातें कीं, जब इमाम अली (अ) से इस बारे में पूछा गया तो आप ने कहा: रसूले ख़ुदा (स) ने मुझे इल्म के हज़ार दरवाज़े तालीम दिए हैं और इन में से हर दरवाज़े से हज़ार दरवाज़े खुल गए और मुझसे कुछ बातें कहीं हैं जिनपर मैं अमल करूंगा।

  ज़िंदगी के एकदम आख़िरी दिनों में जनाबे बिलाल हबशी को बुलाया ताकि लोगों को मस्जिद में जमा करें, उसके बाद आप ने एक ख़ुत्बा इरशाद फ़रमाया और लोगों से कहा अगर किसी का कोई हक़ मेरे ज़िम्मे है तो वह मांग ले, किसी ने कोई जवाब नहीं दिया, पैग़म्बर ए अकरम (स) ने इसी बात को तीन बार दोहराया तभी एक ग़ुलाम खड़ा हुआ और अपने हक़ का सवाल किया और पैग़म्बर (स) से बदला लेने के लिए एक कोड़ा हाथ में उठाया लेकिन जैसे ही पैग़म्बर (स) के पास आया आप (स) से लिपटकर रोने लगा, पैग़म्बर (स) ने फ़रमाया: यह जन्नत में मेरा साथी होगा, फिर एक बीवी का हवाला देते हुए हज़रत अली (अ) को हुक्म दिया कि कुछ पैसा उनके पास रखा है उसे लेकर ग़रीबों और फ़क़ीरों में बांट दो।

जब आप (स) का बिल्कुल आख़िरी समय आया तो आप की बेटी हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स.अ) बहुत रो रहीं थीं, आप (स) ने उन्हें अपने पास बुलाया और कुछ कहा जिससे आप और ज़ियादा रोने लगीं, थोड़ी देर बाद फिर आप (स) ने कुछ कहा जिसे सुनकर आप मुस्कुराने लगीं, जब आप (स) से रोने और मुस्कुराने की वजह पूछी गई तो आप ने फ़रमाया कि पहली बार में आप (स) ने कहा: मेरी बेटी मैं इसी तकलीफ़ में इस दुनिया से गुज़र जाऊंगा जिसे सुनकर मैं रोने लगी थी और दोबारा में आप (स) ने कहा बेटी मेरे अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम में से सबसे पहले तुम मुझ से मुलाक़ात करोगी जिसे सुनकर मुस्कुराने लगी थी।

  आप की ज़िंदगी के आख़िरी समय में आप (स) का सर इमाम अली अलैहिस्सलाम की गोद में था। पैग़म्बर ए अकरम (स) इस दुनिया से गुज़र गए, इमाम अली (अ) ने वसीयत के मुताबिक़ आप को ग़ुस्ल दिया और कफ़न पहनाया, फिर आप ने पैग़म्बर (स) के चेहरे को कफ़न से बाहर निकाला और चीख़ मारकर रोने लगे और कहा: ऐ अल्लाह के रसूल!

आप की वफ़ात से नबुव्वत और वही (क़ुरआन) का सिलसिला ख़त्म हो गया और आसमानी ख़बरों का सिलसिला भी ख़त्म हो गया, ऐ अल्लाह के नबी! अगर आप ने सब्र करने का हुक्म न दिया होता तो मैं इतना रोता कि मेरी आंखों की रौशनी चली जाती, फिर आप ने पैग़म्बर ए अकरम (स) को ख़ुद उस क़ब्र जिसे अबू उबैदा और ज़ैद इब्ने सहल ने घर के एक कमरे ही में खोदी थी उसमें दफ़्न कर दिया।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025 15:14

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम तथा आपकी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा थीं। आप अपने माता पिता की प्रथम संतान थे।

जन्म तिथि व जन्म स्थान

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जन्म रमज़ान मास की पन्द्रहवी (15) तारीख को सन् तीन (3) हिजरी में मदीना नामक शहर में हुआ था। जलालुद्दीन नामक इतिहासकार अपनी किताब तारीख़ुल खुलफ़ा में लिखता है कि आपकी मुखाकृति हज़रत पैगम्बर से बहुत अधिक मिलती थी।

पालन पोषण

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का पालन पोषन आपके माता पिता व आपके नाना हज़रत पैगम्बर (स0) की देख रेख में हुआ। तथा इन तीनो महान् व्यक्तियों ने मिल कर हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम में मानवता के समस्त गुणों को विकसित किया।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की इमामत का समय

शिया सम्प्रदाय की विचारधारा के अनुसार इमाम जन्म से ही इमाम होता है। परन्तु वह अपने से पहले वाले इमाम के स्वर्गवास के बाद ही इमामत के पद को ग्रहन करता है। अतः हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी अपने पिता हज़रत इमाम अली की शहादत के बाद इमामत पद को सँभाला।

जब आपने इमामत के पवित्र पद को ग्रहन किया तो चारो और अराजकता फैली हुई थी। व इसका कारण आपके पिता की आकस्मिक शहादत थी। अतः माविया ने जो कि शाम नामक प्रान्त का गवर्नर था इस स्थिति से लाभ उठाकर विद्रोह कर दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सहयोगियों ने आप के साथ विश्वासघात किया उन्होने धन ,दौलत ,पद व सुविधाओं के लालच में माविया से साँठ गाँठ करली। इस स्थिति में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सम्मुख दो मार्ग थे एक तो यह कि शत्रु के साथ युद्ध करते हुए अपनी सेना के साथ शहीद होजाये। या दूसरे यह कि वह अपने सच्चे मित्रों व सेना को क़त्ल होने से बचालें व शत्रु से संधि करले । इस अवस्था में इमाम ने अपनी स्थित का सही अंकन किया सरदारों के विश्वासघात व सेन्य शक्ति के अभाव में माविया से संधि करना ही उचित समझा।

संधि की शर्तें

1-माविया को इस शर्त पर सत्ता हस्तान्त्रित की जाती है कि वह अल्लाह की किताब (कुरऑन) पैगम्बर व उनके नेक उत्तराधिकारियों की शैली के अनुसार कार्य करेगा।

2-माविया के बाद सत्ता इमाम हसन अलैहिस्सलाम की ओर हस्तान्त्रित होगी व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के न होने की अवस्था में सत्ता इमाम हुसैन को सौंपी जायेगी। माविया को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने बाद किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करे।

3-नमाज़े जुमा में इमाम अली पर होने वाला सब (अप शब्द कहना) समाप्त किया जाये। तथा हज़रत अली को अच्छाई के साथ याद किया जाये।

4-कूफ़े के धन कोष में मौजूद धन राशी पर माविया का कोई अधिकार न होगा। तथा वह प्रति वर्ष बीस लाख दिरहम इमाम हसन अलैहिस्सलाम को भेजेगा। व शासकीय अता (धन प्रदानता) में बनी हाशिम को बनी उमैया पर वरीयता देगा। जमल व सिफ़्फ़ीन के युद्धो में भाग लेने वाले हज़रत इमाम अली के सैनिको के बच्चों के मध्य दस लाख दिरहमों का विभाजन किया जाये तथा यह धन रीशी इरान के दाराबगर्द नामक प्रदेश की आय से जुटाई जाये।

5-अल्लाह की पृथ्वी पर मानवता को सुरक्षा प्रदान की जाये चाहे वह शाम में रहते हों या यमन मे हिजाज़ में रहते हों या इराक़ में काले हों या गोरे। माविया को चाहिए कि वह किसी भी व्यक्ति को उस के भूत काल के व्यवहार के कारण सज़ा न दे।इराक़ वासियों से शत्रुता पूर्ण व्यवहार न करे। हज़रत अली के समस्त सहयोगियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम ,इमाम हुसैन व पैगम्बर के परिवार के किसी भी सदस्य की प्रकट या परोक्ष रूप से बुराई न कीजाये।

हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के संधि प्रस्ताव ने माविया के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलट दिया तथा लोगों को उसके असली चेहरे से परिचित कराया कि माविया का वास्तविक चरित्र क्या है।

इमाम हसन (अ) के दान देने और क्षमा करने की कहानी।

एक दिन इमाम हसन (अ) घोड़े पर सवार कहीं जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया। इमाम हसन (अ) चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे ,जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो इमाम हसन (अ) ने उसे मुसकुरा कर सलाम किया और कहने लगेः

ऐ शेख़ ,मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है ,अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं ,अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं ,अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं ,अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है।

सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

यह आदमी मदीने में इमाम हसन का मेहमान बना और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. एवं उनके अहलेबैत का श्रद्धालु बन गया। इमाम हसन (अ) की सहनशीलता व सब्र इतना मशहूर था कि “हिल्मुल- हसन ” अर्थात हसन की सहनशीलता सब की ज़बानों पर रहता था।

इबादत

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हसन भी अपने नाना और पिता की तरह अल्लाह की इबादत के प्रति बहुत ज़्यादा पाबंद एवं सावधान थे। अल्लाह की महानता का इतना आभास करते थे कि नमाज़ के समय चेहरा पीला पड़ जाता और जिस्म कांपने लगता था ,हर समय उनकी ज़बान पर अल्लाह का ज़िक्र व गुणगान ही रहता था।

इमाम हसन गरीबो के साथ

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया “ मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं ,और उससे आस लगाये रहता हूं ,इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।

हज़रत इमामे हसन (अ.स.) के कथन

१. जो शख़्स (मनुष्य) हराम ज़राये से दौलत (धन) जमा करता है ख़ुदावन्दे आलम उसे फ़क़ीरी और बेकसी में मुबतला करता है।

२. दो चीज़ो से बेहतर कोई शैय (चीज़) नहीं एक अल्लाह पर ईमान और दूसरे ख़िदमते ख़ल्क (परोपकार)।

३. ख़ामोश सदक़ा (गुप्त दान) ख़ुदावन्दे आलम के ग़ज़ब (प्रकोप) को ख़त्म कर देता है।

 

४. हमेशा नेक लोगों की सोहबत (संगत) इख़्तेयार (ग्रहण) करो ताकि अगर कोई कारे नेक (अच्छा कार्य) करो तो तुम्हारी सताएश (प्रशंसा) करें और अगर कोई ग़लती हो जाये तो मुतावज्जेह (ध्यान दियालें) करें।

५. जिसने ग़लत तरीक़े से माल जमा किया वह माल ग़लत जगहों पर और नागहानि-ए-हवादिस (अचानक घटित होने) में सर्फ़ होता है।

६. हर शख़्स की क़ीमत उसके इल्म के बराबर है।

७. तक़वा (सँयम ,ईश्वर से भय) से बेहतर लिबास ,क़नाअत (आत्मसंतोष) से बेहतर माल ,मेहरबानी व रहम से बेहतर एहसान मुझे न मिला।

८. बुरी आदतें जाहिलों की मुआशेरत (कुसंग) में और नेक ख़साएल (अच्छी आदतें) अक़्लमन्दों (बुध्दिमानों) की सोहबत (संगत) से मिलते हैं।

९. अपने दिल को वाएज़ व नसीहत (अच्छे उपदेश) से ज़िन्दा रखो।

१०. गुनाहगारों (पापियों) को नाउम्मीद (निराश) मत करो (क्योंकि) कितने गुनाहगार ऐसे गुज़रे जिनकी आक़ेबत ब-ख़ैर हुई।

११. सबसे बेचारा वह शख़्स है जो अपने लिये दोस्त (मित्र) न बना पाये।

 

१२. जो शख़्स दुनिया की बेऐतबारी को जानते हुए उस पर ग़ुरूर (घमण्ड) करे बड़ा नादान है।

१३. ख़ुश अख़लाक़ (सुशील) बनो ताकि क़यामत (महाप्रलय) के दिन तुम पर नर्मी की जाए।

१४. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह इन्सान को नेकियों से महरूम कर देता है।

१५. हमेशा नेक बात कहो ताकि नेकि से याद किये जाओ।

१६. अल्लाह की ख़ुशनूदी माँ बाप की ख़ुशनूदी के साथ है और अल्लाह का ग़ज़ब उनके ग़ज़ब के साथ है।

१७. अल्लाह की किताब पढ़ा करो और अल्लाह की नाराज़गी और ग़ज़ब से ख़बरदार रहो।

१८. बुख़्ल (कंजूसी) और ईमान एक साथ किसी के दिल में जमा नहीं हो सकता।

१९. किसी इन्सान को दूसरे पर तरजीह (प्राथमिकता) नहीं दी जा सकती मगर दीन या किसी नेक काम की वजह से।

२०. मैने किसी सितमगर को सितम रसीदा के मानिन्द नहीं देखा मगर हासिद (ईर्ष्यालु) को।

 

२१. अपने इल्म (ज्ञान) को दूसरों तक पहुँचाओ और दूसरों के इल्म (ज्ञान) को ख़ुद हासिल करो।

२२. अपने भाईयें से फ़ी सबीलिल्लाह (केवल ईशवर के लिए) भाई चारा रखो।

२३. नेकियों और अच्छाइयों का अन्जाम उसके आग़ाज़ (प्रारम्भ) से बेहतर है।

२४. अच्छाई से लज़्ज़त बख़्श कोई और मसर्रत नहीं।

२५. अक़्लमन्द (बुध्दिमान) वह है जो लोगों से ख़ुश अख़लाक़ी (सुशीलता) से पेश आती हो।

२६. जिसका हाफ़ेज़ा (याद्दाश्त) क़वी (ताक़तवर) न हो और अपना दर्स (पाठ) पूरे तौर से याद न कर पाता हो उसे चाहिये के वह उस्ताद के बयान करदा मतालिब (मतलब का बहु) पर ग़ौर करे और अपने पास महफ़ूज़ (सुरक्षित) करे ताकि वक़्ते ज़रूरत काम आये।

२७. जितना मिले उसपर ख़ुश रहना इन्सान को पाकदामनी तक ले जाता है।

२८. नुक़सान उठाने वाला वह शख़्स है जो ओमूरे दुनिया (सांसारिक कार्य) में इस तरह मश्ग़ूल रहे के आख़ेरत (आख़रत) के ओमूर रह जायें।

 

२९. धोका और मक्र (छल) ख़ासतौर से उस शख़्स के साथ जिसने तुमको अमीन (सच्चा) समझा कुफ़्र है।

३०. गुनाह क़ुबूलियते दुआ में मानेअ और बदख़ुल्क़ी शर व फ़साद का बायस (कारण) है।

३१. तेज़ चलने से मोमिन का वेक़ार (आत्मसम्मान) कम होता है और बाज़ार में चलते हुए खाना पस्ती (नीचता) की अलामत है।

३२. जब कोई तुम्हारा ख़ैर अन्देश (शुभचिन्तक) अक़्लमन्द तुमको कुछ बताये तो उसे क़ुबूल करो और उसकी ख़िलाफ़ वर्ज़ी (विरोध) से बचो क्योंकि उसमें हलाक़त है।

३३. नादानों की बातों की बेहतरीन जवाब ख़ामोशी है।

३४. हासिद (ईर्ष्यालु) को लज़्ज़त ,बख़ील (कंजूस) को आराम और फ़ासिक़ (ईशवरीय आदेशों का मन से विरोध) को एहतेराम (आदर) तमाम लोगों से कम मिलता है।

३५. बेहतरीन किरदार गुर्सना (भूखे) को खाना खिलाना और बेहतरीन काम जाएज़ काम में मशग़ूल (लिप्त) रहना।

३६. जब तुम बुरे काम से परेशान हो और नेक कामों से ख़ुशहाल तो समझ लो के तुम मोमिन हो।

३७. बेहतर यह है के तुम अपने दुश्मन पर ग़लबा (विजय) हासिल (प्राप्त) करने से पहले अपने नफ़्स पर क़ाबू पा लो।

३८. बख़ील (कंजूस) इन्सान अपने अज़ीज़ों (रिश्तेदारों) में ख़ार रहता है।

३९. गुनाहों (पापों) से बचो क्योंकि गुनाह (पाप) इन्सान के हस्नात (अच्छाइयों) को भी तबाह (बर्बाद) कर देता है।

४०. जिसके पास अज़्म (द्रढ़ता) व इरादा है वह दूसरों लोगों के मुक़ाबले में अपने ऊपर मुसल्लत (हावी) है।

शहादत (स्वर्गवास)

माविया से सुलह के बाद जबकि इमाम हसन (अ.स.) ने हुकुमत को छोड़ दिया था लेकिन फिर भी माविया का आपके वूजुदे मुबारक को बरदाश्त करना बहुत सख्त था और वैसे भी सिर्फ इमाम हसन (अ.स) ही वो शख्सियत थे कि जो माविया को अपनी मनमानी करने और यज़ीद को अपना जानशीन बनाने और खिलाफत को विरासती करने मे सबसे बड़े मुखालिफ थे और उस दौर मे सिर्फ इमाम हसन (अ.स.) ही वो सलाहियत रखते थे कि जो उम्मत की रहबरी और हिदायत के लिऐ जरूरी थी ।

और सुलह के बाद से ही हमेशा उसकी कोशीश रही कि किसी भी तरह से इमाम हसन (अ.स.) को जल्दी से जल्दी मौत के दामन मे पहुंचा दे लिहाजा पोशीदा तौर पर उसने इस काम के लिऐ मदीने की मस्जिद मे भी कई दफा इमाम हसन (अ.स.) पर हमले कराऐ लेकिन जब इन हमलो का कोई नतीजा नही निकला तो माविया ने इमाम हसन (अ.स) की ज़ौजा जोदा बिन्ते अशअस के ज़रीए आपको ज़हर दिलाकर शहीद करा दिया।

इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 50 हिजरी मे सफ़र मास की 28 तरीख को हुई।

समाधि

जब इमाम हसन (अ.स.) की शहादत का वक्त करीब आया तो आपने अपने भाई इमाम हुसैन (अ.स.) को अपने करीब बुलाया और उन हज़रत से इरशाद फरमायाः ये तीसरी मरतबा है कि मुझे ज़हर दिया गया है लेकिन इस से पहले जहर असर नही कर पाया था औऱ क्यों कि इस बार असर कर गया है तो मै मर जाऊंगा और जब मै मर जाऊं तो मुझे मेरे नाना रसूले खुदा (स.अ.व.व) के पहलु मे दफ्न कर देना क्योंकि कोई भी मुझसे ज्यादा वहाँ दफ्न होने का हक़दार नही है लेकिन अगर मेरे उस जगह दफ्न होने की मुखालिफत हो तो इस हाल मे ख़ून का एक क़तरा भी न बहने देना।

और जब इमाम शहीद हो गऐ और उनके जिस्मे अतहर को रसूले खुदा (स.अ.व.व) के रोज़ाऐ मुबारक मे दफ्न करने के लिऐ ले जाया जाने लगा तो मरवान बिन हकम और सईद बिन आस आपके वहा दफ्न होने की मुखालिफत करने लगे और उनके साथ-साथ आयशा भी मुखालिफत करने लगी और कहने लगी कि मै हसन के यही दफ्न होने की बिल्कुल इजाज़त नही दूंगी क्यो कि ये मेरा घर है।

इस पर आयशा के भतीजे कासिम बिन मौहम्मद बिन अबुबकर ने कहा कि क्या दोबारा जमल जैसा फितना खड़ा करना चाहती हो ?

जिस वक्त इमाम के वहा दफ्न की मुखालिफत की जा रही थी तो वो लोग कि जो इमाम की मैय्यत मे शिरकत के लिऐ आऐ हुऐ थे चाहते थे कि मरवानीयो के साथ जंग करे और इस काम के लिऐ इमाम हुसैन (अ.स.) से इजाज़त मांगने लगे लेकिन इमाम हुसैन (अ.स.) ने इमाम हसन की वसीयत को याद दिलाया और इमाम हसन (अ.स.) को जन्नतुल बकी मे दफ्न कर दिया।

आपका नाम मुहम्मद इब्ने अब्दुल्लाह व आपके अलक़ाब मुस्तफ़ा, अमीन, सादिक़,इत्यादि हैं।

 माता पिता

 हज़रत पैगम्बर के पिता का नाम अब्दुल्लाह था जो ;हज़रत अबदुल मुत्तलिब के पुत्र थे। तथा पैगम्बर (स) की माता का नाम आमिना था, जो हज़रत वहब की पुत्री थीं।

 जन्म तिथि व जन्म स्थान    

 हज़रत पैम्बर का जन्म मक्का नामक शहर मे सन्(1) आमुल फील मे रबी उल अव्वल मास की 17वी तारीख को हुआ था।

 

  बीवीयों के नाम    

 

ख़दीजा बीनते खुवैलीद, ज़ैनब बिन्ते खोज़ैमा, सौदा, आयशा, हफ़सा, उम्मे सल्मा, ज़ैनब बीनते जहश, ज़वेरिआ बिन्ते हारिस, उम्मे हबीबा, सफ़िया, मैमूना

 

 

 

बेटों के नाम     क़ासिम (तैय्यब), अब्दुल्लाह (ताहिर), इब्राहीम

 

 

 

बेटी का नाम     फ़ातिमा

 

 

 

घरेलू नाम      अबुल क़ासिम

 

लक़ब (उपाधि)     रसूल अल्लाह, ख़ातिम'उन नबीयीन

 

उम्र       63 साल

 

नुबुव्वत        23 साल

 

शहादत    सोमवार, 28 सफ़र 11 हिजरी को मदीना में

 

दफ़न      मदीना

 

 

 

पालन पोषण

 

 

 

हज़रत पैगम्बर के पिता का स्वर्गवास पैगम्बर के जन्म से पूर्व ही हो गया था। और जब आप 6 वर्ष के हुए तो आपकी माता का भी स्वर्गवास हो गया। अतः8 वर्ष की आयु तक आप का पलन पोषण आपके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने किया।दादा के स्वर्गवास के बाद आप अपने प्रियः चचा हज़रत अबुतालिब के साथ रहने लगे। हज़रत आबुतालिब के घर मे आप का व्यवहार सबकी दृष्टि का केन्द्र रहा। आपने शीघ्र ही सबके हृदयों मे अपना स्थान बना लिया।

 

हज़रत पैगम्बर बचपन से ही दूसरे बच्चों से भिन्न थे। उनकी आयु के अन्य बच्चे गदें रहते, उनकी आँखों मे गन्दगी भरी रहती तथा बाल उलझे रहते थे। परन्तु पैगम्बर बचपन मे ही व्यस्कों की भाँति अपने को स्वच्छ रखते थे। वह खाने पीने मे भी दूसरे बच्चों की हिर्स नही करते थे। वह किसी से कोई वस्तु छीन कर नही खाते थे। तथा सदैव कम खाते थे कभी कभी ऐसा होता कि सोकर उठने के बाद आबे ज़मज़म(मक्के मे एक पवित्र कुआ) पर जाते तथा कुछ घूंट पानी पीलेते व जब उनसे नाश्ते के लिए कहा जाता तो कहते कि मुझे भूख नही है । उन्होने कभी भी यह नही कहा कि मैं भूखा हूं। वह सभी अवस्थाओं मे अपनी आयु से अधिक गंभीरता का परिचय देते थे। उनके चचा हज़रत अबुतालिब सदैव उनको अपनी शय्या के पास सुलाते थे। वह कहते हैं कि मैने कभी भी पैगम्बर को झूट बोलते, अनुचित कार्य करते व व्यर्थ हंसते हुए नही देखा। वह बच्चों के खेलों की ओर भी आकर्षित नही थे। सदैव तंन्हा रहना पसंद करते तथा मेहमान से बहुत प्रसन्न होते थे।

 

 

 

विवाह

 

 

 

जब आपकी आयु 25 वर्ष की हुई तो अरब की एक धनी व्यापारी महिला जिनका नाम खदीजा था उन्होने पैगम्बर के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। पैगम्बर ने इसको स्वीकार किया तथा कहा कि इस सम्बन्ध मे मेरे चचा से बात की जाये। जब हज़रत अबुतालिब के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी। तथा इस प्रकार पैगम्बर(स) का विवाह हज़रत खदीजा पुत्री हज़रत ख़ोलद के साथ हुआ। निकाह स्वयं हज़रत अबुतालिब ने पढ़ा। हज़रत खदीजा वह महान महिला हैं जिन्होने अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को सौंप दी थी।

 

 

 

पैगम्बरी की घोषणा

 

हज़रत मुहम्मद (स) जब चालीस वर्ष के हुए तो उन्होने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की। तथा जब कुऑन की यह आयत नाज़िल हुई कि,,वनज़िर अशीरतःकल अक़राबीन(अर्थात ऐ पैगम्बर अपने निकटतम परिजनो को डराओ) तो पैगम्बर ने एक रात्री भोज का प्रबन्ध किया। तथा अपने निकटतम परिजनो को भोज पर बुलाया.। भोजन के बाद कहा कि मै तुम्हारी ओर पैगम्बर बनाकर भेजा गया हूँ ताकि तुम लोगो को बुराईयो से निकाल कर अच्छाइयों की ओर अग्रसरित करू। इस अवसर पर पैगम्बर (स) ने अपने परिजनो से मूर्ति पूजा को त्यागने तथा एकीश्वरवादी बनने की अपील की। और इस महान् कार्य मे साहयता का निवेदन भी किया परन्तु हज़रत अली (अ) के अलावा किसी ने भी साहयता का वचन नही दिया। इसी समय से मक्के के सरदार आपके विरोधी हो गये तथा आपको यातनाऐं देने लगे।

आर्थिक प्रतिबन्ध : मक्के के मूर्ति पूजकों का विरोध बढ़ता गया । परन्तु पैगम्बर अपने मार्ग से नही हटे तथा मूर्ति पूजा का खंण्डन करते रहे। मूर्ति पूजको ने पैगम्बर तथा आपके सहयोगियो पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये। इस समय आप का साथ केवल आप के चचा अबुतालिब ने दिया। वह आपको लेकर एक पहाड़ी पर चले गये । तथा कई वर्षो तक वहीं पर रहकर पैगम्बर की सुरक्षा करते रहे। पैगम्बर को सदैव अपने पास रखते थे। रात्रि मे बार बार आपके स्थान को बदलते रहते थे।

 

 

 

हिजरत

 

आर्थिक प्रतिबन्धो से छुटने के बाद पैगम्बर ने फिर से इस्लाम प्रचार आरम्भ कर दिया। इस बार मूर्ति पूजकों का विरोध अधिक बढ़ गया ।तथा वह पैगम्बर की हत्या का षड़यंत्र रचने लगे। इसी बीच पैगम्बर के दो बड़े सहयोगियों हज़रत अबुतालिब तथा हज़रत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। यह पैगम्बर के लिए अत्यन्त दुखः दे हुआ। जब पैगम्बर मक्के मे अकेले रह गये तो अल्लाह की ओर से संदेश मिला कि मक्का छोड़ कर मदीने चले जाओ। पैगम्बर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्के से मदीने की ओर प्रस्थान किया। मक्के से मदीने की यह यात्रा हिजरत कहलाती है। तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरम्भ हुआ। पैगम्बरी की घोषणा के बाद पैगम्बर 13 वर्षों तक मक्के मे रहे।

 

मदीने मे पैगम्बर को नये सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी साहयता से पैगम्बर ने इस्लाम प्रचार को अधिक तीव्र कर दिया। दूसरी ओर मक्के के मूर्ति पूजको की चिंता बढ़ती गयी तथा वह पैगम्बर से मूर्तियो के अपमान का बदला लेने के लिये युद्ध की तैयारियां करने लगे। इस प्रकार पैगम्बर को मक्का वासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमे मूर्ति पूजकों को पराजय का सामना करना पड़ा। अन्त मे पैगम्बर ने मक्के जाकर हज करना चाहा परन्तु मक्कावासी इस से सहमत नही हुए। तथा पैगमबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नही किया तथा सन्धि कर के मानव मित्रता का परिचय दिया। तथा सन्धि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी मे पैगम्बर ने 125000 मुस्लमानो के साथ हज किया। तथा मुस्लमानो को हज करने का प्रशिक्षण दिया।

 

 

 

उत्तराधिकारी की घोषणा :

 

जब पैगम्बर हज करके मक्के से मदीने की ओर लौट रहे थे, तो ग़दीर नामक स्थान पर आपको अल्लाह की ओर से आदेश प्राप्त हुआ, कि हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करो। पैगम्बर ने पूरे क़ाफिले को रुकने का आदेश दिया। तथा एक व्यापक भाषण देते हुए कहा कि मैं जल्दी ही तुम लोगों के मध्य से जाने वाला हूँ। अतः मैं अल्लाह के आदेश से हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करता हूँ। पैगम्बर का प्रसिद्ध कथन कि जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। इसी अवसर पर कहा गया था।

 

 

 

शहादत(स्वर्गवास)

 

सन् 11 हिजरी मे सफर मास की 28 वी तारीख को तीन दिन बीमार रहने के बाद आपकी शहादत हो गयी। हज़रत अली (अ) ने आपको ग़ुस्लो कफ़न देकर दफ़्न कर दिया। इस महान् पैगम्बर के जनाज़े (पार्थिव शरीर) पर बहुत कम लोगों ने नमाज़ पढ़ी। इस का कारण यह था कि मदीने के अधिकाँश मुसलमान पैगम्बर के स्वर्गवास की खबर सुनकर सत्ता पाने के लिए षड़यण्त्र रचने लगे थे। तथा पैगम्बर के अन्तिम संसकार मे सम्मिलित न होकर सकीफ़ा नामक स्थान पर एकत्रित थे।

 

 

 

हज़रत पैगम्बर(स. की चारित्रिक विशेषताऐं

 

हज़रत पैगम्बर को अल्लाह ने समस्त मानवता के लिए आदर्श बना कर भेजा था। इस सम्बन्ध मे कुऑन इस प्रकार वर्णन करता-लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवःतुन हसनः अर्थात पैगम्बर का चरित्र आप लोगो के लिए आदर्श है। अतः आप के व्यक्तित्व मे मानवता के सभी गुण विद्यमान थे। आप के जीवन की मुख्य विशेषताऐं निम्ण लिखित हैं।

 

 

 

सत्यता

 

सत्यता पैगम्बर के जीवन की विशेष शोभा थी। पैगम्बर (स) ने अपने पूरे जीवन मे कभी भी झूट नही बोला। पैगम्बरी की घोषणा से पूर्व ही पूरा मक्का आप की सत्यता से प्रभावित था। आप ने कभी व्यापार मे भी झूट नही बोला। वह लोग जो आप को पैगम्बर नही मानते थे वह भी आपकी सत्यता के गुण गाते थे। इसी कारण लोग आपको सादिक़(अर्थात सच्चा) कहकर पुकारते थे।

 

 

 

अमानतदारी(धरोहरिता)

 

पैगम्बर के जीवन मे अमानतदारी इस प्रकार विद्यमान थी कि समस्त मक्कावासी अपनी अमानते आप के पास रखाते थे। उन्होने कभी भी किसी के साथ विश्वासघात नही किया। जब भी कोई अपनी अमानत मांगता आप तुरंत वापिस कर देते थे। जो व्यक्ति आपके विरोधि थे वह भी अपनी अमानते आपके पास रखाते थे। क्योंकि आप के पास एक बड़ी मात्रा मे अमानते रखी रहती थीं, इस कारण मक्के मे आप का एक नाम अमीन पड़ गया था। अमीन (धरोहर)

 

 

 

सदाचारिता

 

 पैगम्बर के सदाचार की अल्लाह ने इस प्रकार प्रसंशा की है इन्नका लअला ख़ुलक़िन अज़ीम अर्थात पैगम्बर आप अति श्रेष्ठ सदाचारी हैं। एक दूसरे स्थान पर पैगम्बर की सदाचारिता को इस रूप मे प्रकट किया कि व लव कानत फ़ज़्ज़न ग़लीज़ल क़लबे ला नग़ज़्ज़ु मिन हवालीका अर्थात ऐ पैगम्बर अगर आप क्रोधी स्वभव वाले खिन्न व्यक्ति होते, तो मनुष्य आपके पास से भागते। इस प्रकार इस्लाम के विकास मे एक मूलभूत तत्व हज़रत पैगम्बर का सद्व्यवहार रहा है।

 

 

 

समय का सदुपयोग

 

हज़रत पैगम्बर की पूरी आयु मे कहीं भी यह दृष्टिगोचर नही होता कि उन्होने अपने समय को व्यर्थ मे व्यतीत किया हो । वह समय का बहुत अधिक ध्यान रखते थे। तथा सदैव अल्लाह से दुआ करते थे, कि ऐ अल्लाह बेकारी, आलस्य व निकृष्टता से बचने के लिए मैं तेरी शरण चाहता हूँ। वह सदैव मसलमानो को कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे।

 

 

 

अत्याचार विरोधी

 

हज़रत पैगम्बर अत्याचार के घोर विरोधि थे। उनका मानना था कि अत्याचार के विरूद्ध लड़ना संसार के समस्त प्राणियों का कर्तव्य है। मनुष्य को अत्याचार के सम्मुख केवल तमाशाई बनकर नही खड़ा होना चाहिए। वह कहते थे कि अपने भाई की सहायता करो चाहे वह अत्याचारी ही कयों न हो। उनके साथियों ने प्रश्न किया कि अत्याचारी की साहयता किस प्रकार करें? आपने उत्तर दिया कि उसकी साहयता इस प्रकार करो कि उसको अत्याचार करने से रोक दो।

 

 

 

बुराई के बदले भलाई की भावना

 

आदरनीय पैगम्बर की एक विशेषता बुराई का बदला भलाई से देना थी। जो उन को यातनाऐं देते थे, वह उन के साथ उनके जैसा व्यवहार नही करते थे। उनकी बुराई के बदले मे इस प्रकार प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे, कि वह लज्जित हो जाते थे।

 

यहाँ पर उदाहरण स्वरूप केवल एक घटना का उल्लेख करते हैं। एक यहूदी जो पैगम्बर का विरोधी था। वह प्रतिदिन अपने घर की छत पर बैठ जाता, व जब पैगम्बर उस गली से जाते तो उन के सर पर राख डाल देता। परन्तु पैगम्बर इससे क्रोधित नही होते थे। तथा एक स्थान पर खड़े होकर अपने सर व कपड़ों को साफ कर के आगे बढ़ जाते थे। अगले दिन यह जानते हुए भी कि आज फिर ऐसा ही होगा। वह अपना मार्ग नही बदलते थे। एक दिन जब वह उस गली से जा रहे थे, तो इनके ऊपर राख नही फेंकी गयी। पैगम्बर रुक गये तथा प्रश्न किया कि आज वह राख डालने वाला कहाँ हैं? लोगों ने बताया कि आज वह बीमार है। पैगम्बर ने कहा कि मैं उस को देखने जाऊगां। जब पैगम्बर उस यहूदी के सम्मुख गये, तथा उस से प्रेम पूर्वक बातें की तो उस व्यक्ति को ऐसा लगा, कि जैसे यह कई वर्षों से मेरे मित्र हैं। आप के इस व्यवहार से प्रभावित होकर उसने ऐसा अनुभव किया, कि उस की आत्मा से कायर्ता दूर हो गयी तथा उस का हृदय पवित्र हो गया। उनके साधारन जीवन तथा नम्र स्वभव ने उनके व्यक्तितव मे कमी नही आने दी, उनके लिए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्थान था।

 

 

 

दया की प्रबल भावना

 

आदरनीय पैगम्बर मे दया की प्रबल भावना विद्यमान थी। वह अपने से छोटों के साथ प्रेमपूर्वक तथा अपने से बड़ो के साथ आदर पूर्वक व्यवहार करते थे ।वह अनाथों व भिखारियों का विशेष ध्यान रखते थे उनको को प्रसन्नता प्रदान करते व अपने यहाँ शरण देते थे। वह पशुओं पर भी दया करते थे तथा उन को यातना देने से मना करते थे।

 

जब वह किसी सेना को युद्ध के लिए भेजते तो रात्री मे आक्रमण करने से मना करते, तथा जनता से प्रेमपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश देते थे । वह शत्रु के साथ सन्धि करने को अधिक महत्व देते थे। तथा इस बात को पसंद नही करते थे कि लोगों की हत्याऐं की जाये। वह सेना को निर्देश देते थे कि बूढ़े व्यक्तियों, बच्चों तथा स्त्रीयों की हत्या न की जाये तथा मृत्कों के शरीर को खराब न किया जाये

 

 

 

स्वच्छता

 

पैगम्बर स्वच्छता मे अत्याधिक रूचि रखते थे। उन के शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता देखने योग्य होती थी। वह वज़ू के अतिरिक्त दिन मे कई बार अपना हाथ मुँह धोते थे।वह अधिकाँश दिनो मे स्नान करते थे। उनके कथनानुसार वज़ु व स्नान इबादत है। वह अपने सर के बालों को बेरी के पत्तों से धोते और उनमे कंघा करते और अपने शरीर को मुश्क व अंबर नामक पदार्थों से सुगन्धित करते थे। वह दिन मे कई बार तथा सोने से पहले व सोने के बाद अपने दाँतों को साफ़ करते थे। भोजन से पहले व बाद मे अपने मुँह व हाथों को धोते थे तथा दुर्गन्ध देने वाली सब्ज़ियों को नही खाते थे।

 

हाथी दाँत का बना कंघा सुरमेदानी कैंची आईना व मिस्वाक उनके यात्रा के सामान मे सम्मिलित रहते थे। उनका घर बिना साज सज्जा के स्वच्छ रहता था। उन्होने चेताया कि कूड़े कचरे को दिन मे उठा कर बाहर फेंक देना चाहिए। वह रात आने तक घर मे नही पड़ा रहना चाहिए। उनके शरीर की पवित्रता उनकी आत्मा की पवित्रता से सम्बन्धित रहती थी। वह अपने अनुयाईयों को भी चेताते रहते थे कि अपने शरीरो वस्त्रों व घरों को स्वच्छ रखा करो। तथा जुमे (शुक्रवार) को विशेष रूप से स्नान किया करो। दुर्गन्ध को दूर करने हेतू शरीर व वस्त्रो को सुगन्धित करके जुमे की नमाज़ मे सम्मिलित हुआ करो ।

 

 

 

दृढनिश्चयता

 

पैगम्बर मे दृढनिश्चयता चरम सीमा तक पाई जाती थी।वह निराशावादी न होकर आशावादी थे। वह पराजय से भी निराश नही होते थे। यही कारण है कि ओहद नामक युद्ध की पराजय ने उनको थोड़ा भी प्रभावित नही किया। तथा बनी क़ुरैज़ा(अरब के एक कबीले का नाम) द्वारा अनुबन्ध तोड़कर विपक्ष मे सम्मिलित हो जाने से भी उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा।बल्कि वह शीघ्रता पूर्वक हमराउल असद नामक युद्ध के लिए तैयार होकर मैदान मे आगये।

 

 

 

सावधानी व सतर्कता

 

पैगम्बर(स.) सदैव सावधानी व सतर्कता बरतते थे। वह शत्रु की सेना का अंकन इस प्रकार करते कि उससे युद्ध करने के लिए कितने व किस प्रकार के हथियारों की आवश्यक्ता है। वह नमाज़ के समय मे भी सतर्क व सवधान रहते थे।

 

 

 

मानवता के प्रति प्रेम

 

पैगम्बर(स.) के हृदय मे समस्त मानवजाति के प्रति प्रेम था। वह रंग या नस्ल के कारण किसी से भेद भाव नही करते थे । उनकी दृष्टि मे सभी मनुष्य समान थे। वह कहते थे कि सभी मनुष्य अल्लाह से जीविका प्राप्त करते हैं। उन्होने जो युद्धों किये उनके पीछे भी महान लक्ष्य विद्यमान थे।वह सदैवे मानवता के कल्याण के लिए ही युद्ध करते थे। पैगम्बर सदैव अपने अनुयाईयों को मानव प्रेम का उपदेश देते थे।

 

 

 

पैगम्बर ने मनुष्यों को निम्ण लिखित संदेश दिया

 

1- मानवता की सफलता का संदेश

 

2- युद्ध से पूर्व शान्ति वार्ता का संदेश

 

3- बदले से पहले क्षमा का संदेश

 

4- दण्ड से पूर्व विन्रमता या क्षमा का संदेश

 

5-उच्चयतम कोटी की नेतृत्व क्षमता।

 

आदरनीय पैगम्बर को अल्लाह ने नेतृत्व की उच्चय क्षमता प्रदान की थी। उनकी इस क्षमता को अरब जाती की स्थिति को देखकर आंका जा सकता है। उन्होने उस अरब जाती का नेतृत्व किया, जो अपनी मूर्खता व अज्ञानता के कारण किसी को भी अपने से बड़ा नही समझते थे। जो सदैव रक्त पात करते रहते थे। सदाचार उनको छूकर भी नही निकला था। ऐसे लोगों को अपने नेतृत्व मे लेना बहुत कठिन कार्य था। परन्तु इन सब अवगुणो के होते हुए भी पैगम्बर ने अपने कौशल से उनको इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि सब आपके समर्थक बन गये। तथा अपने प्राणो की आहुती देने के लिए धर्म युद्ध के लिए निकल पड़े।

 

आदरनीय पैगम्बर युद्ध के लिए एक से अधिक सेना नायकों का चयन करते तथा गंभीरता पूर्वक उनके मध्य कार्यों व शक्तियों का विभाजन कर नियम बनाते थे।वह राजनीतिक तथा शासकीय सिधान्तों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते थे।उन्होने विभिन्न विभागों की नीव डाली। वह सेनापतियों का चुनाव सुचरित्र को आधार बनाकर करते थे

 

 

 

क्षमा दान की प्रबल भावना

 

आदरनीय पैगम्बर(स.) मे क्षमादान की भावना बहुत प्रबल थी।बदले की भावना उनके अन्दर बिल्कुल भी विद्यमान नही थी। उन्होने अपनी क्षमा भावना का पूर्ण परिचय मक्के की विजय के समय कराया। जब उनके शत्रुओं को बंदी बनाकर उनके सम्मुख लाया गया तो उन्होने यातनाऐं देनेवाले सभी शत्रुओं को क्षमा कर दिया। अगर पैगम्बर(स.) चाहते तो उनसे बदला ले सकते थे परन्तु उन्होने शक्ति होते हुए भी ऐसा नही किया। अपितु सबको क्षमा करके कहा कि जाओ तुम सब स्वतन्त्र हो।

 

उनकी शक्ति शाली आत्मा सदैव क्षमादान को वरीयता देती थी। ओहद नामक युद्ध मे जो पाश्विक व्यवहार उनके चचा श्री हमज़ा पुत्र श्री अब्दुल मुत्तलिब के साथ किया गया(अबु सुफियान की पत्नि व मुआविया की माँ हिन्दा ने उनके मृत्य शरीर से उनका कलेजा निकाल कर खाने की चेष्टा की) उस को देख कर वह बहुत दुखीः हुए। परन्तु पैगम्बर ने उसके परिवार के मृत्य लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नही किया। यहाँ तक कि जब वह स्त्री बंदी बनाकर लाई गई, तो आपने उससे बदला न लेकर उसे क्षमा कर दिया। यही नही अपितु पैगम्बर ने अबुक़ुतादा नामक उस व्यक्ति को भी चुप रहने का आदेश दिया जो उसको अपशब्द कह रहा था।

 

खैबर नामक युद्ध मे जब यहूदियों ने मुसलमानो के सम्मुख हथियार डाल दिये व युद्ध समाप्त हो गया तो यहूदियों ने भोजन मे विष मिलाकर पैगम्बर के लिए भेजा । पैगम्बर को उनके इस षड़यन्त्र का ज्ञान हो गया। परन्तु उन्होने इसके उपरान्त भी यहूदियों को कोई दण्ड नही दिया तथा क्षमा करके स्वतन्त्र छोड़ दिया।

 

तबूक नामक युद्ध से लौटते समय मुनाफिकों के एक संगठन ने पैगम्बर की हत्या का षड़यन्त्र रचा। जब पैगम्बर एक पहाड़ी दर्रे को पार कर रहे थे तो मुनाफिक़ीन ने योजनानुसार आप के ऊँट को भड़का दिया। ताकि पैगम्बर ऊँट से गिर कर मर जाऐं, परन्तु वह विफल रहे। और पैगम्बर ने सब को पहचान लिया परन्तु उनसे बदला नही लिय । तथा अपने दोस्तों के आग्रह पर भी उन के नाम नही बताये।

 

 

 

उच्चतम सामाजिक जीवन शैली

 

पैगम्बर(स.) का सामाजिक जीवन बहुत श्रेष्ठ था वह लोगों के मध्य सदैव प्रसन्नचित्त रहते थे। किसी की ओर घूर कर नही देखते थे। अधिकाँश उन की दृष्टि पृथ्वी पर रहती थी। दूसरों के सामने अपने पैरो कों मोड़ कर बैठते थे। किसी के भी सम्मुख वह पैर नही फैलाते थे। जब वह किसी सभा मे जाते थे तो अपने बैठने के लिए निकटतम स्थान को चुनते थे । वह इस बात को पसंद नही करते थे, कि सभा मे से कोई व्यक्ति उनके आदर हेतू खड़ा हो, या उनके लिए किसी विशेष स्थान को खाली किया जाये। वह बच्चों तथा दासों को भी स्वंय सलाम करते थे। वह किसी के कथन को बीच मे नही काटते थे। वह प्रत्येक व्यक्ति से इस प्रकार बात करते कि वह यह समझता कि मैं पैगम्बर के सबसे अधिक निकट हूँ। वह अधिक नही बोलते थे तथा धीरे धीरे व रुक रुक कर बाते करते थे। वह कभी भी किसी को अपशब्द नही कहते थे। वह बहुत अधिक लज्जावान व स्वाभीमानी थे। जब वह किसी के व्यवहार से दुखित होते तो दुखः के चिन्ह उनके चेहरे से प्रकट होते थे, परन्तु वह अपने मुख से गिला नही करते थे। वह सदैव रोगियों को देखने के लिए जाते तथा मरने वालों के जनाज़ों (अर्थी) मे सम्मिलित होते थे। वह किसी को इस बात की अनुमति नही देते थे कि उनके सम्मुख किसी को अपशब्द कहें जायें।

 

 

 

कानून व न्याय प्रियता

 

कानून का पालन व न्याय प्रियता पैगम्बर(स.) की मुख्य विशेषताएं थीं।हज़रत पैगम्बर अपने साथ दुरव्यवहार करने वाले को क्षमा कर देते थे, परन्तु कानून का उलंघन करने वालों कों क्षमा नही करते थे। तथा कानूनानुसार उसको दणडित किया जाता था। वह कहते थे कि कानून व न्याय सामाजिक शांति के रक्षक हैं। अतः ऐसा नही हो सकता कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कानून को बलि चढ़ा कर पूरे समाज को दुषित कर दिया जाये। वह कहते थे कि मैं उस अल्लाह की सौगन्ध खाकर कहता हूँ जिसके वश मे मेरी जान है कि न्याय के क्षेत्र मे मैं किसी के साथ भी पक्षपात नही करूगां। अगर मेरा निकटतम सम्बन्धि भी कोई अपराध करेगा तो उसे क्षमा नही करूगां और न ही उसको बचाने के लिए कानून को बली बनाऊँगा।

 

एक दिन पैगम्बर ने मस्जिद मे अपने प्रवचन मे कहा कि अल्लाह ने कुऑन मे कहा है कि प्रलय मे कोई भी अत्याचारी अपने अत्याचार के दण्ड से नही बच सकेगा। अतः अगर आप लोगो मे से किसी को मुझ से कोई यातना पहुंची हो या किसी का कोई हक़ मेरे ऊपर बाक़ी हो तो वह मुझ से लेले। उस सभा मे से सबादा पुत्र क़ैस नामक एक व्यक्ति खड़ा हुआ। तथा कहा कि ऐ पैगम्बर जब आप तायिफ़(एक स्थान का नाम) से लौट रहे थे तो आप के हाथ मे एक असा (लकड़ी का ड़डां) था। आप उसे घुमा रहे थे वह मेरे पेट मे लगा जिससे मुझे पीड़ा हुई। आप ने कहा कि मैं सौगन्ध के साथ कहता हूँ कि मैंने ऐसा जान बूझ कर नही किया परन्तु तू फिर भी उसका बदला ले सकता है। यह कह कर आपने अपना असा मंगाया तथा उस असा को सबादा के हाथ मे देकर कहा कि इससे तेरे शरीर के जिस भाग को पीड़ा पहुँची हो, तू इस से मेरे शरीर के उसी भाग को पीड़ा पहुँचा। उस ने कहा कि ऐ पैगमबर मैने आपको क्षमा किया । आपने कहा कि अल्लाह तुझे क्षमा करे। यह थी इस महान् पैगम्बर की न्याय प्रियता तथा सामाजिक क़ानून की रक्षा।

 

 

 

जनता के विचारों का आदर

 

जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश मौजूद होता आदरनीय पैगम्बर(स.) उन विषयों मे न स्वयं हस्तक्षेप करते और न ही किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने देते थे। वह स्वयं भी उन आदेशों का पालन करते तथा दूसरों को भी पालन करने पर बाध्य करते थे। क्योकि कुऑन के आदेशों की अवहेलना कुफ्र (अधर्मिता) है। इस सम्बन्ध मे कुऑन स्वयं कहता है कि व मन लम यहकुम बिमा अनज़ालल्लाहु फ़ा उलाइका हुमुल काफ़िरून। अर्थात वह मनुषय जो अल्लाह के भेजे हुए क़ानून के अनुसार कार्य नही करते वह समस्त काफ़िर (अधर्मी) हैं। जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश नही होता था उनमे हस्तक्षेप नही करते थे। उन विषयों मे जनता स्वतन्त्र थी तथा सबको अपने विचर प्रकट करने की अनुमति थी।

 

वह दूसरों के परामर्श का आदर करते तथा परामर्श पर विचार करते थे। बद्र नामक युद्ध के अवसर पर आपने तीन बार अपने साथियों से विचार विमर्श किया । सर्वप्रथम इस बात पर परामर्श हुआ कि कुरैश से लड़ा जाये या इनको इनके हाल पर छोड़ कर मदीने चला जाये। सब ने जंग करने को वरीयता दी । दूसरी बार छावनी के स्थान के बारे मे परामर्श हुआ। तथा इस बार हबाब पुत्र मुनीज़ा की राय को वरीयता दी गयी। तीसरी बार युद्ध बन्धकों के बरे मे मशवरा लिया गया। कुछ लोगों ने कहा कि इन की हत्या करदी जाये, तथा कुछ लोगों ने कहा कि इनको फिदया (धन) लेकर छोड़ दिया जाये। पैगम्बर ने दूसरी राय का अनुमोदन किया। इसी प्रकार ओहद नामक युद्ध मे भी पैगम्बर ने अपने साथियों से इस बात पर विचार विमर्श किया, कि शहर मे रहकर सुरक्षा प्रबन्ध किये जायें या शहर से बाहर निकल कर पड़ाव डाला जाये व शत्रु को आगे बढने से रोका जाये। विचार के बाद दूसरी राय पारित हुई । इसी प्रकार अहज़ाब नामक युद्ध के अवसर पर भी यह परामर्श हुई कि शहर मे रहकर लड़ा जाये या बाहर निकल कर जंग की जाये। काफी विचार विमर्श के बाद यह पारित हुआ कि शहर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाये। अपने पीछे की ओर पहाड़ी को रखा जाये तथा सामने की ओर खाई खोद ली जाये, जो शत्रु को आगे बढ़ने से रोक सके ।

 

जैसा कि हम सब जानते हैं कि सब मुसलमान आदरनीय पैगम्बर को त्रुटि भूल चूक तथा पाप से सुरक्षित मानते थे। तथा उनके कार्यों पर आपत्ति व्यक्त करने को अच्छा नही समझते थे। परन्तु अगर कोई पैगम्बर के किसी कार्य की आलोचना करता तो वह आलोचक को शांति पूर्ण ढंग से समझाते तथा उसको संतोष जनक उत्तर देकर उसके भम्र को दूर करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि सृष्टि के रचियता ने चिंतन आलोचना व दो वस्तुओं के मध्य एक को वरीयता दने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान की है। यह केवल सामाजिक आधार रखने वाले शक्ति शाली व्यक्तियों से ही सम्बन्धित नही है । अतः मनुष्यों से चिंतन व आलोचना के इस अधिकार को नही छीनना चाहिये।

 

 

 

शासकीय सद्व्यवहार

 

वह सदैव प्रजा के कल्याण के बरे मे सोचते थे। पैगम्बर ने स्वंय एक स्थान पर कहा कि -मै जनता कि भलाई का जनता से अधिक ध्यान रखता हूँ। तुम लोगों मे से जो भी स्वर्गवासी होगा तथा सम्पत्ति छोड़ कर जायगा वह सम्पत्ति उसके परिवार की होगी। परन्तु अगर कोई ऋणी होगा या उसका परिवार दरिद्र होगा तो उसके ऋण को चुका ने तथा उसके परिवार के पालन पोषण का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा।

 

पैगम्बर(स.) ने न्याय व दया पर आधारित अपनी इस शासन प्रणाली द्वारा संसार के समस्त शासकों को यह शिक्षा दी कि समाज मे शासक की स्थिति एक दयावान व बुद्धिमान पिता की सी है। शासक को चाहिये कि हर स्थान पर जनता के कल्याण का ध्यान रखे तथा अपनी मन मानी न करे।

 

पैगम्बर वह महान् व्यक्ति हैं जिन्होने बहुत कम समय मे मानव के दिलों मे अपने सद्व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी। उन्होने अपने सद्व्यवहार, चरित्र व प्रशिक्षण के द्वारा अरब हत्यारों को शान्ति प्रियः, झूट बोलने वालों को सत्यवादी, निर्दयी लोगों को दयावान, नास्तिकों को आस्तिक, मूर्ति पूजकों को एकश्वरवादी, असभ्यों कों सभ्य, मूर्खों को बुद्धि मान, अज्ञानीयों को ज्ञानी, तथा क्रूर स्वभव वाले व्यक्तियों को विन्रम बनाया।

 

 

 

अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद

 पैग़म्बरे इस्लाम हमेशा लोगों से सिफारिश करते थे कि वे न केवल इंसानों बल्कि अन्य प्राणियों के साथ भी अच्छे व्यवहार, नेक बर्ताव, प्रेम और दया से पेश आयें। पैग़म्बरे इस्लाम से रिवायत है जिसमें आप फरमाते हैं कि मुझे अच्छे अख़लाक़ को शिखर पर पहुंचाने के लिए भेजा गया है।

अब हम अख़लाक़ के संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम की 5 सिफारिशों का उल्लेख करते हैं। ये सिफारिशें व्यक्तिगत, पारिवारिक और सामाजिक विकास में प्रभावी हैं।

 झूठ न बोलोः एक आदमी पैग़म्बरे इस्लाम की ख़िदमत में आया और बोला हे पैग़म्बर! मुझे ऐसी चीज़ की शिक्षा दें जिसमें दुनिया व आखेरत की भलाई हो। इस पर पैग़म्बरे इस्लाम ने फरमायाः झूठ न बोलो

  लोगों से नर्मी से पेश आओ और उनसे प्रेम करने वाले बनोः इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं तुममें सबसे अच्छा अखलाक़ जिसका हो, दूसरों से प्रेम करता हो और दूसरे उससे प्रेम करते हों तो ऐसे इंसान अल्लाह के बेहतरीन बंदे हैं।

 महिलाओं का सम्मान करोः पैग़म्बरे इस्लाम की सिफ़ारिशों में से एक सिफारिश यह है कि महिलाओं का सम्मान करो और यह वह सिफारिश है जिसका पैग़म्बरे इस्लाम के सदाचरण में कई बार उल्लेख हुआ है। इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम फरमाते हैं कि  तुममें सबसे बेहतर वह है जो अपने परिवार के लिए सबसे बेहतर है। शरीफ़ और महान इंसान के अलावा कोई महिला का सम्मान नहीं करेगा और तुच्छ व पस्त इंसान के अलावा कोई महिला को गिरी हुई नज़र से नहीं देखेगा।

 सगे-संबंधियों से रिश्तेदारी निभाना और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करनाः इस संबंध में पैग़म्बरे इस्लाम से रिवायत है कि सगे- संबंधियों के साथ संबंध रखना और पड़ोसियों के साथ अच्छा व्यवहार करने से उम्र अधिक होती है।

 पशुओं की ताक़त और क्षमता को ध्यान में रखनाः पैग़म्बरे इस्लाम पशुओं व प्राणियों के अधिकारों को ध्यान में रखने की सिफारिश करते हैं।

इन सिफारिशों और पैग़म्बरे इस्लाम की शिक्षाओं को 14 सौ साल पहले बयान किया गया है जो इस बात की सूचक हैं कि इस्लाम ने समस्त प्राणियों के अधिकारों पर ध्यान दिया है। पैग़म्बरे इस्लाम ने पशुओं के साथ प्रेम से व्यवहार करने के संबंध में फरमाया है कि जानवर के 6 अधिकार उसके मालिक पर हैं।

 

 जब मालिक अपने जानवर की पीठ से नीचे उतरे तो उसे उसका चारा दे।

 जब पानी के पास से गुज़रे तो उसके सामने पानी पेश करे।

  1. उसे ना-हक़ और बिला वजह न मारे।
  2. उस पर उसकी ताक़त से अधिक बोझ न लादे।
  3. उसे उसकी ताक़त से अधिक रास्ता न चलाए।
  4. ज्यादा देर तक उस पर सवारी न करे।

क़ुम मुक़द्दस, क़ुम स्थित इस्लामी विज्ञान और संस्कृति के शोध केंद्र में आयोजित एक बैठक में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अली अकबर ज़ाकिरी ने कहा कि इमाम हसन मुजतबा (अ.स.) के जीवन में सादगी, दूसरों की ज़रूरतों का ख्याल रखना और उत्कृष्ट नैतिक व्यवहार साफ़ तौर पर दिखाई देता है।

क़ुम मुक़द्दस में इस्लामी विज्ञान और संस्कृति के शोध केंद्र में आयोजित एक बैठक में हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अली अकबर ज़ाकिरी ने कहा कि इमाम हसन मुजतबा (अ.स.) के जीवन में सादा जीवनशैली, दूसरों की ज़रूरतों की परवाह और उच्च नैतिक व्यवहार विशेष रूप से दृष्टिगोचर होता है।

उन्होंने स्पष्ट किया कि सीरत से आशय मासूमों (अ.स) के व्यावहारिक जीवन और उनके आचरण से है अर्थात वे कार्य जो उन्होंने स्वयं किए, या जिनके उनके सामने होने पर उन्होंने पुष्टि की। उनके अनुसार, ऐतिहासिक प्रमाण यह दर्शाते हैं कि कभी-कभी एक ही अमल (कर्म) भी “सीरत” बन जाता है। यही कारण है कि इमाम हसन (अ.) के जीवन के कई पहलुओं को फिक़्ही मसलों में प्रमाण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।

ज़ाकिरी ने कहा कि सामाजिक सीरत में मुसलमानों के साथ संबंध, विरोधियों से व्यवहार और पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन के सिद्धांत शामिल होते हैं।

हज़रत इमाम हसन (अ.स.) एक ऐसे घराने में पले-बढ़े जहाँ दूसरों की भलाई को स्वयं पर प्राथमिकता दी जाती थी हज़रत फ़ातिमा ज़हेरा (स.ल) की परवरिश इसका एक उज्ज्वल उदाहरण है। एक रिवायत के अनुसार, वे दुआओं में हमेशा पहले दूसरों को याद करती थीं और उसके बाद अपने लिए दुआ करती थीं। यही सोच इमाम हसन (अ.स.) के जीवन की बुनियाद बनी।

उन्होंने बचपन की एक घटना सुनाई कि इमाम हसन और इमाम हुसैन (अ.स.) ने एक बूढ़े व्यक्ति को गलत वुज़ू करते हुए देखा। सीधा आलोचना करने के बजाय, दोनों ने स्वयं वुज़ू किया और फिर उस बुज़ुर्ग को “क़ाज़ी” (निर्णायक) बनाया ताकि वह खुद फैसला करें। इस तरह, बुज़ुर्ग की इज़्ज़त भी बनी रही और उन्हें सही वुज़ू करने का तरीका भी समझ में आ गया।

इसी तरह, इमाम हसन (अ.स.) ने एक ज़रूरतमंद पड़ोसी को दो हज़ार दिरहम दिए और एक यहूदी पड़ोसी के साथ भी दया और सौम्यता से पेश आए, जिसके परिणामस्वरूप वह इस्लाम की ओर आकर्षित हुआ।

ज़ाकिरी ने आगे कहा कि इमाम हसन (अ.स.) के जीवन में करुणा और उदारता सबसे प्रमुख विशेषताएँ थीं। ये केवल उनके इमामत काल तक सीमित नहीं थीं, बल्कि हज़रत अली (अ.स.) की खिलाफ़त के दौर में भी वे अपना हिस्सा दूसरों को दे दिया करते थे।

उनके अनुसार, इमाम हसन (अ.स.) की उदारता केवल आर्थिक दान ही नहीं थी, बल्कि वह सोच-विचार और व्यावहारिक बुद्धिमत्ता पर आधारित होती थी, जो आज भी सामाजिक जीवन के लिए एक आदर्श उदाहरण है।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2025 15:06

हज़रत इमाम हसन अ.स. का अख्लाक़

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और अपने अख्लाक के जरिए से उसके इबहाम को दूर किए।

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और अपने अख्लाक के जरिए से उसके इबहाम को दूर किए।

एक दिन हज़रत इमाम हसन अ.स. घोड़े पर सवार हो कर कही जा रहे थे कि शाम अर्थात मौजूदा सीरिया का रहने वाला एक इंसान रास्ते में मिला। उस आदमी ने इमाम हसन को बुरा भला कहा और गाली देना शुरू कर दिया हज़रत इमाम हसन अ.स चुपचाप उसकी बातें सुनते रहे, जब वह अपना ग़ुस्सा उतार चुका तो हज़रत इमाम हसन अ.स. ने उसे मुस्कुरा कर सलाम किया और कहने लगे

ऐ शेख़, मेरे विचार में तुम यहां अपरिचित हो और तुमको धोखा हो रहा है, अगर भूखे हो तो तुम्हें खाना खिलाऊं, अगर कपड़े चाहिये तो कपड़े पहना दूं, अगर ग़रीब हो तो तुम्हरी ज़रूरत पूरी कर दूं, अगर घर से निकाले हुये हो तो तुमको पनाह दे दूं और अगर कोई और ज़रूरत हो तो उसे पूरा करूं। अगर तुम मेरे घर आओ और जाने तक मेरे घर में ही रहो तो तुम्हारे लिये अच्छा होगा क्योंकि मेरे पास एक बड़ा घर है तथा मेहमानदारी का सामान भी मौजूद है

सीरिया के उस नागरिक ने जब यह व्यवहार देखा तो पछताने और रोने लगा और इमाम को संबोधित करके कहने लगाः मैं गवाही देता हूं कि आप ज़मीन पर अल्लाह के प्रतिनिधि हैं तथा अल्लाह अच्छी तरह जानता है कि अपना प्रतिनिधित्व किसे प्रदान करे। आप से मिलने से पहले आपके पिता और आप मेरी निगाह में लोगों के सबसे बड़े दुश्मन थे और अब मेरे लिये सबसे से अच्छे हैं।

यह आदमी मदीने में इमाम हसन का मेहमान बना और पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. एवं उनके अहलेबैत का श्रद्धालु बन गया। इमाम हसन (अ) की सहनशीलता व सब्र इतना मशहूर था कि “हिल्मुल- हसन” अर्थात हसन की सहनशीलता सब की ज़बानों पर रहता था।

पैग़म्बरे इस्लाम के नाती और हज़रत अली के बेटे इमाम हसन भी अपने नाना और पिता की तरह अल्लाह की इबादत के प्रति बहुत ज़्यादा पाबंद एवं सावधान थे। अल्लाह की महानता का इतना आभास करते थे कि नमाज़ के समय चेहरा पीला पड़ जाता और जिस्म कांपने लगता था, हर समय उनकी ज़बान पर अल्लाह का ज़िक्र व गुणगान ही रहता था।

इतिहास में आया है कि किसी भी ग़रीब व फ़क़ीर को उन्होने अपने पास से बिना उसकी समस्या का समाधान किये जाने नहीं दिया। किसी ने सवाल किया कि आप किसी मांगने वाले को कभी ख़ाली हाथ क्यों नहीं लौटाते। तो उन्होने जवाब दिया“ मैं ख़ुद अल्लाह के दरवाज़े का भिखारी हूं,और उससे आस लगाये रहता हूं, इसलिये मुझे शर्म आती है कि ख़ुद मांगने वाला होते हुये दूसरे मांगने वाले को ख़ाली हाथ भेज दूं। अल्लाह ने मेरी आदत डाली है कि लोगों पर ध्यान दूं और अल्लाह की अनुकंपायें उन्हें प्रदान करूं।

 इमाम हसन (अ) ने 48 साल से ज़्यादा इस दुनिया में अपनी रौशनी  नहीं बिखेरी लेकिन इस छोटी सी अवधि में भी उनका समय भ्रष्टाचारियों से  लगातार जंग में ही बीता। अपने पिता की शहादत के बाद इमाम हसन (अ) ने देखा कि निष्ठावान व वफ़ादार साथी बहुत कम हैं इसलिये मोआविया से जंग का कोई सकारात्मक नतीजा नहीं निकलेगा इसलिये उन्होने मुआविया द्वारा प्रस्तावित सुलह को अपनी शर्तों के साथ स्वीकार कर लिया। इस शान्ति संधि का नतीजा यह निकला कि वास्तविक मुसलमानों को ख़्वारिज के हमलों से नजात मिल गयी और जंग में उनकी जानें भी नहीं गईं।

इमाम हसन(अ) के ज़माने के हालात के बारे में आयतुल्लाह ख़ामेनई कहते हैं“ हर क्रान्तिकारी व इंक़ेलाबी के लिये सबसे कठिन समय वह होता है जब सत्य व असत्य आपस में बिल्कुल मिले हुये हों-----(इस हालत को निफ़ाक़ या मित्थ्या कहते हैं) इमाम हसन के ज़माने में निफ़ाक़ की उड़ती धूल हज़रत अली के ज़माने से बहुत ज़्यादा गाढ़ी थी इमाम हसने मुज्तबा (अ) जानते थे कि उन थोड़े से साथियों व सहायकों के साथ अगर मुआविया से जंग के लिये जाते हैं और शहीद हो जाते हैं तो इस्लामी समाज के प्रतिष्ठत लोगों पर छाया हुआ नैतिक भ्रष्टाचार उनके ख़ून (के प्रभाव) को अर्थात उनके लक्ष्य को आगे बढ़ने नहीं देगा। प्रचार, पैसा और मुआविया की कुटिलता, हर चीज़ पर छा जायेगी तथा दो एक साल बीतने के बाद लोग कहने लगेंगे कि इमाम हसन(अ) व्यर्थ में ही मुआविया के विरोध में खड़े हुये। इसलिये उन्होने सभी कठिनाइयां सहन कीं लेकिन ख़ुद को शहादत के मैदान में जाने नहीं दिया,क्योंक् जानते थे कि उनका ख़ून अकारत हो जायेगा।

इस आधार पर इमाम हसन(अ) की एक विशेषता उनका इल्म व बुद्धिमत्ता थी। पैगम्बरे इस्लाम (स) इमाम हसन (अ) की बुद्धिमत्ता के बारे में कहते “ अगर अक़्ल को किसी एक आदमी में साकार होना होता तो वह आदमी अली के बेटे हसन होतें.

पैग़म्बर (स) की वफ़ात का दिन हमें याद दिलाता है कि पैग़म्बर (स) का मिशन उनके बाद भी जीवित रहेगा और यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनके जीवन, शिक्षाओं और नैतिक सिद्धांतों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ।

सफ़र की 28 तारीख़ वह दिन है जब ब्रह्मांड के सबसे महान व्यक्ति, सर्वलोक के रहमत, पैगम्बर (स) की वफ़ात हुई। यह एक ऐसा दुःख है जिसकी तीव्रता और गहराई मुस्लिम उम्माह के दिलों में कभी कम नहीं हुई। उनकी वफ़ात केवल एक व्यक्ति का निधन नहीं था, बल्कि यह मानवता के लिए मार्गदर्शन के एक स्रोत का निधन था, जिसने अज्ञानता, अंधकार और गुमराही के अंधकार को दूर किया और ज्ञान, प्रकाश और सत्य का दीप जलाया।

इस्लाम की पूर्णता और अंतिम संदेश

उनकी वफ़ात से कुछ समय पहले, ग़दीर ख़ुम के युद्धक्षेत्र में "आज मैंने तुम्हारे लिए तुम्हारे धर्म को पूर्ण कर दिया" (अल यौमा अकमलतो लकुम दीनाकुम) आयत अवतरित हुई। इस आयत ने स्पष्ट किया कि नबी होने का महान कर्तव्य अपनी पराकाष्ठा पर पहुँच गया था। अल्लाह के रसूल (स) ने अपने जीवन के अंतिम क्षणों तक उम्मत को एकता, भाईचारा और धर्मपरायणता की शिक्षा दी। उनका अंतिम उपदेश, जिसे विदाई तीर्थयात्रा के रूप में जाना जाता है, वास्तव में मानवता के लिए एक सार्वभौमिक दिशानिर्देश है।

उम्मत के लिए परीक्षा और परीक्षण

पैगम्बर (स) की वफ़ात उम्मत के लिए एक बड़ी परीक्षा थी। इस त्रासदी ने साबित कर दिया कि अब उम्मत को मार्गदर्शन और नेतृत्व के लिए अपनी ज़िम्मेदारियों को समझना होगा। पैगम्बर (स) ने अपनी वफ़ात से पहले जो शिक्षाएँ छोड़ीं और कुरान व अहले-बैत के रूप में जो विरासत छोड़ी, वे आज भी उम्मत के लिए मुक्ति का साधन हैं।

धैर्य और दृढ़ता का संदेश

पैगम्बर (स) की वफ़ात का दुःख हमें सिखाता है कि जीवन बड़े आघातों और परीक्षाओं से भरा है। उस समय, हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (स), हज़रत अली (अ) और उनके अन्य साथियों का दुःख ईमान और दृढ़ता का एक महान उदाहरण था। इस त्रासदी ने हमें यह भी सिखाया कि दुःख और पीड़ा के साथ-साथ, हमें अल्लाह की इच्छा से संतुष्ट रहना चाहिए और अल्लाह के रसूल (स) द्वारा छोड़े गए मार्ग पर चलते रहना चाहिए।

निष्कर्ष:

पैगम्बर (स) की वफ़ात का दिन हमें याद दिलाता है कि अल्लाह के रसूल (स) का मिशन उनके बाद भी जीवित रहेगा और यह हमारी ज़िम्मेदारी है कि हम उनकी जीवनी, शिक्षाओं और नैतिक सिद्धांतों को अपने जीवन का हिस्सा बनाएँ। यह दुःख हमें एकजुट करता है और हमें पैग्बर (स) के संदेश को फैलाने के लिए प्रोत्साहित करता है जो मानवता के लिए प्रेम, शांति और दया है।

 हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व. की वफ़ात और सिब्त अकबर इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत के मौके पर पुणे, महाराष्ट्र के मशहूर मौलना और धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम अस्करी इमाम खान से खास बातचीत

हज़रत रसूल अल्लाह स.ल.व.व. की वफ़ात और सिब्त अकबर इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत के मौके पर हौज़ा न्यूज ने पुणे, महाराष्ट्र के मशहूर मौलना और धार्मिक विद्वान हुज्जतुल इस्लाम अस्करी इमाम खान से खास बातचीत की।

मौलाना अस्करी इमाम खान ने सबसे पहले रसूल अल्लाहؐ के दुखद निधन को याद करते हुए कहा, रहमतों के रसूलؐ का इस जहाँ से जाना इंसानियत के लिए सबसे बड़ा दुखद हादसा है। उनकी शख़्सियत वह केंद्र थी जिसने बिखरे हुए समाज को एकता दी और इंसानियत को सम्मान और शान दी।

उन्होंने आगे कहा कि इसी दौर में इमाम हसन मुजतबाؑ की शहादत भी हुई, जो इस बात का संकेत है कि इस्लाम के असली वारिस और निजात देने वाले हमेशा कुर्बानी और सब्र की राह दिखाते हैं।

इमाम हसनؑ की सीरत के महत्वपूर्ण पहलुओं पर रौशनी डालते हुए मौलाना अस्करी इमाम खान ने कहा,इमाम हसनؑ ने अपनी ज़िंदगी में माफ़ करने की क्षमता, उदारता और उम्‍मत की भलाई के लिए कुर्बानी को मिसाल बनाया।

जब परिस्थितियों ने सुलह (समझौता) की मांग की तो आपने इस्लाम और मुसलमानों की जानों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी, और जब हक और बातिल का फर्क स्पष्ट करना था तो अपने सिद्धांतों पर अडिग रहे।

उन्होंने कहा कि आज की उम्‍मत को इमाम हसनؑ की इसी सीरत से सीख लेनी चाहिए।हम देखते हैं कि इमाम हसनؑ की उदारता बेमिसाल थी, उन्होंने अपनी पूरी दौलत ख़ुदा कि राह में निछावर कर दी। इसी तरह उन्होंने सामाजिक न्याय और इंसानी शराफ़त को अपनी राजनीति और चरित्र का बुनियादी आधार बनाया।

मौलाना अस्करी इमाम खान ने मौजूदा दौर की जरूरतों का ज़िक्र करते हुए कहा कि मुस्लिम उम्‍मत को इमाम हसनؑ की सुलह को कमजोरी नहीं बल्कि एक समझदारी और उम्‍मत के संरक्षण के लिए बड़ा फ़ैसला समझना चाहिए।

आज की परिस्थिति में भी हमें इमाम हसनؑ के सब्र, समझदारी और उम्‍मत से मोहब्बत की राह पर चलना चाहिए ताकि हम फूट और नफ़रत की बजाय एकता और भाईचारे को बढ़ावा दे सकें।

अंत में उन्होंने कहा कि पैग़ंबर मुहम्मद सल्लल्लाहु अलैहि वसल्लम की वफ़ात और इमाम हसनؑ की शहादत का संदेश यही है कि इस्लाम की बका कुर्बानी, स्थिरता और अहलेबैत अ.स के प्रति मोहब्बत में निहित है।

 एक यहूदी सेना के अधिकारी ने कहा कि हमास को खत्म करना और गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के योजना को लागू करना असंभव है।

एक यहूदी सेना के अधिकारी ने कहा कि हमास को खत्म करना और गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के योजना को लागू करना असंभव है।

नेतन्याहू सरकार द्वारा गाज़ा पर पूरी तरह कब्जा करने और फिलिस्तीनियों को जबरन बेदखल करने की योजना सामने आने के बाद इसे लागू करने का ऐलान किया गया है, लेकिन रक्षा विशेषज्ञ इस योजना को अमल में लाना मुश्किल बता रहे हैं।

अमेरिकी मीडिया संस्था ने एक इजरायली सैनिक के हवाले से बताया है कि गाजा में जारी युद्ध के बावजूद हमास को खत्म करने का मकसद पूरा नहीं हो पाएगा।

एक रिपोर्ट के मुताबिक, गाज़ा में तैनात एक इजरायली सैनिक ने स्वीकार किया कि वे इस बात से बेहद हैरान हैं कि अभी भी इस युद्ध के अंत की बात हो रही है, जबकि इसका अंत बहुत पहले होना चाहिए था। गाज़ा पर कब्जा करना दरअसल इजरायली कैदियों के लिए मौत की सजा के समान होगा, क्योंकि हमास को खत्म करना संभव नहीं है।

पहले भी इजरायल के पूर्व सेना प्रमुख ने माना है कि सभी इजरायली रिजर्व सैनिक दोबारा सेवा के लिए तैयार नहीं होंगे और गाजा से संबंधित वर्तमान रणनीति दोषपूर्ण और गैर-तार्किक है।दूसरी ओर, इजरायली अखबार हा-आर्ट्ज़ ने खुलासा किया है कि गाजा पर कब्जे की योजना वार्ता प्रक्रिया को रोकने में कामयाब नहीं होगी।

 

 

 

 अल्लामा सैयद साजिद नक़वी ने कहा: पवित्र पैगंबर (स) की वफ़ात और इमाम हसन (अ) की शहादत मुस्लिम उम्माह के लिए एक बड़ी त्रासदी है। इमाम हसन (अ) ने अपने दादा अमजद के उदाहरण का अनुसरण करते हुए मुसलमानों को शांति और सुरक्षा का पाठ पढ़ाया और इस्लाम की रक्षा की।

कायदे मिल्लत जाफ़रिया पाकिस्तान के अल्लामा सैयद साजिद अली नक़वी ने हज़रत ख़ातम अल-मुर्सलीन (स) की पुण्यतिथि और पवित्र पैग़म्बर (स) के नवासे हज़रत इमाम हसन (अ) की शहादत की वर्षगांठ के अवसर पर अपने संदेश में कहा: ख़तम अल-नबीन, रहमत अल-लिल-आलमीन, सरवर अल-कैनात (स) मानवता के मार्गदर्शन का केंद्र और धुरी हैं, और पवित्र कुरान के साथ, पवित्र पैगंबर (स) की सुन्नत और सीरा के रूप में मुस्लिम उम्मा के लिए एक ऐसा खजाना है, जो उनकी मृत्यु के सदियों बाद भी मानवता की दुनिया का पूरी तरह से मार्गदर्शन कर रहा है और मानवता को जीवन जीने का तरीका और हर क्षेत्र में प्रगति का मार्ग सिखा रहा है।

उन्होंने आगे कहा: यदि विशेष रूप से मुस्लिम उम्मत और सामान्य रूप से मानवता की दुनिया पैगंबर मुहम्मद (स) की सुन्नत और सीरत का पालन करे, तो धरती से सभी समस्याओं का उन्मूलन हो सकता है।

अल्लामा सैयद साजिद नक़वी ने कहा: पैगंबर मुहम्मद के निधन के बाद, पवित्र अहले बैत (अ) ने उम्मत के उद्धार के लिए उसके सभी मामलों में मार्गदर्शन किया। अहले बैत (अ) ने अपने कार्यों और चरित्र के माध्यम से मानवता की दुनिया की व्यक्तिगत और सामाजिक समस्याओं का समाधान प्रस्तुत किया।

उन्होंने कहा: पैगंबर मुहम्मद के पोते, इमाम हसन मुज्तबा (अ), अपने दादा, अल्लाह के रसूल, अमाीरुल मोमेनीन हज़रत अली (अ) और हज़रत फ़ातिमा ज़हरा (अ) के पिता की तरह, उच्च नैतिकता और गुणों का एक संयोजन थे। उनमें उदारता सहित उच्च नैतिक गुण थे, जिसके कारण उन्हें महान अहलुल बैत की उपाधि दी गई, लोगों की आवश्यकताओं की पूर्ति, दयालुता, धैर्य और सहनशीलता, क्षमा और क्षमाशीलता, जिसे उनके शत्रु भी स्वीकार करते थे, इन सभी गुणों का एक आदर्श उदाहरण थे।

जाफ़रिया क़ौम के नेता ने कहा: पवित्र पैगंबर (स) के जीवन को व्यवहार में देखने और पैगंबर (स) की सुन्नत की व्याख्या और व्याख्या करने के लिए, इमाम हसन (स) के जीवन का अध्ययन और अवलोकन करना आवश्यक है क्योंकि पवित्र पैगंबर (स), हज़रत अली (अ) और सैयदा फ़ातिमा ज़हरा (स) ने हज़रत इमाम हसन (अ) को इस तरह प्रशिक्षित किया कि हज़रत इमाम हसन (अ) हर स्तर, हर क्षेत्र, हर मोड़ और हर राह पर एक पैगंबर की तरह दिखाई दिए।

उन्होंने कहा: अल्लाह के रसूल (स) ने अपनी हदीसों में हज़रत इमाम हसन (अ) की गरिमा, स्थिति और पद का उल्लेख किया था। इमाम (अ) ने अपने दादा अमजद के जीवन का अनुसरण करते हुए शांति का मार्ग अपनाकर यह सिद्ध कर दिया कि पैगंबर (स) के अहल-उल-बैत इस्लाम धर्म की रक्षा का कर्तव्य निभाना जानते हैं।

अल्लामा साजिद नक़वी ने कहा: वर्तमान रोमांचक युग और गंभीर परिस्थितियों में, हमें अपने आपसी मतभेदों को दूर करके सैकड़ों समानताओं को ध्यान में रखना चाहिए, पैगंबर मुहम्मद (स) और उनके परिवार के उदाहरण का अनुसरण करना चाहिए और शांति, प्रेम, सहिष्णुता, सहनशीलता और धैर्य का मार्ग अपनाना चाहिए। हमें ज्ञान और धैर्य, बुद्धि और जागरूकता, विवेक और सहिष्णुता, भाईचारे और एकता के मार्ग पर चलकर सर्वशक्तिमान ईश्वर और अंतिम नबियों की प्रसन्नता प्राप्त करनी चाहिए। केवल इसी स्थिति में सांसारिक और परलोक मुक्ति संभव है।