رضوی

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वेबसाइट Responsible Statecraft ने एक आर्टिकल में पश्चिम द्वारा ईरान के बारे की जाने वाली ग़लतियों का विश्लेषण किया है।

Responsible Statecraft ने हाल ही में एक लेख में लिखा: "जब ईरानी अधिकारी अपने अमेरिकी समकक्षों के साथ परमाणु कार्यक्रम पर छठे दौर की वार्ता के लिए तैयार हो रहे थे, तभी इज़राइल ने एक अचानक सैन्य हमला कर दिया।" पार्सटुडे की रिपोर्ट के अनुसार, अमेरिका और यूरोप ने इस हमले की निंदा करने के बजाय उदासीनता दिखाई और इसे प्रोत्साहित भी किया। जर्मनी के चांसलर ने इसे "वह गंदा काम जो इज़राइल हम सभी के लिए करता है" क़रार दिया।

 इस घटना ने ईरानी नेताओं के उस विश्वास को और मज़बूत कर दिया जो वे लंबे समय से रखते आए हैं कि ईरान लगातार विश्वासघात और आक्रमण के ख़तरे में है, दुनिया उसके आत्मसमर्पण की माँग करती है और उसे अकेला छोड़ देती है।

 अगर पश्चिम ईरान के इतिहास और वह मानसिकता समझना शुरू नहीं करता जो ईरानी नेताओं में बसी हुई है, तो वह तेहरान के क़दमों को गलत समझता रहेगा। बाहर से जो आक्रामकता या ज़िद्दीपन दिखता है, वह ईरानी नीति-निर्माताओं के मन में एक रक्षात्मक कदम है जिसकी जड़ें राष्ट्रीय स्मृति में गहराई तक धंसी हुई हैं।

 सदियों से ईरान पश्चिम के आक्रमण और विश्वासघात के साये में जीता आया है, और उसके आधुनिक इतिहास का हर अध्याय उसके नेताओं को यही निष्कर्ष देता है: चाहे वार्ता की मेज़ के दूसरी ओर कोई भी बैठा हो, सुधारवादी, उदारवादी या कट्टरपंथी, ईरान को सिर्फ़ खुद पर भरोसा करना चाहिए।

 परिवेष्टन की यह भावना न तो 2025 में इज़राइल के हमलों से शुरू हुई, न ही 1980 में सद्दाम (बासिस्ट इराक के गद्दार तानाशाह) के आक्रमण से। ईरान उन चोटों से प्रभावित है जो हज़ार साल पुरानी हैं: चौथी शताब्दी ईसा पूर्व में सिकंदर का आक्रमण, सातवीं सदी में अरबों का हमला, तेरहवीं सदी में मंगोलों के आक्रमण, और तुर्कों व मध्य एशिया के बार-बार के हमले। हाल के दौर में, ज़ारिस्ट रूस के साथ युद्धों में ईरान ने अपने क्षेत्र खोए, और दोनों विश्व युद्धों में मित्र राष्ट्रों द्वारा कब्ज़ा झेला, भले ही उसने तटस्थता की घोषणा की थी। बार-बार, ईरान को विदेशी ताक़तों का सामना करना पड़ा, और हर बार, मदद के लिए कोई नहीं आया।

 एक गहरा ऐतिहासिक घाव

 यह गहरा ऐतिहासिक घाव ईरानी नेताओं के फैसलों को किसी भी भाषण से बेहतर समझाता है। यही कारण है कि वे सैन्य आत्मनिर्भरता को आक्रामकता नहीं, बल्कि एक बीमा के रूप में देखते हैं। यही वजह है कि वे कूटनीति को संदेह की नज़र से देखते हैं, और तेहरान में बैठे उदारवादी भी पश्चिम के इरादों पर भरोसा करने में हिचकिचाते हैं।

 आधुनिक दौर में, अमेरिका द्वारा कम से कम चार बड़े विश्वासघात किए गए हैं जो ईरान के मन में विदेशी छल का डर बनाए हुए हैं।

 पश्चिम ने ईरान के साथ कौन-कौन से विश्वासघात किए?

 पहला विश्वासघात: 1953 में सीआईए और MI6 की मदद से प्रधानमंत्री मोहम्मद मुसद्दिक़ का तख्तापलट। मुसद्दिक़ लोकतांत्रिक तरीके से चुने गए थे और ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रभाव के खिलाफ संतुलन बनाने के लिए अमेरिका से सहयोग चाहते थे। लेकिन अमेरिका ने ब्रिटेन के तेल हितों की रक्षा के लिए उनके तख्तापलट का समर्थन किया।

 दूसरा विश्वासघात: जॉर्ज डब्ल्यू बुश के समय ईरान को "एक्सिस ऑफ इविल" (बुराई की धुरी) का हिस्सा घोषित किया गया।

 तीसरा विश्वासघात: 2015 के परमाणु समझौते (JCPOA) के साथ धोखा। ईरान ने इतिहास के सबसे सख्त परमाणु निरीक्षण प्रोटोकॉल को स्वीकार किया। 2016 से 2018 के बीच IAEA ने 15 बार ईरान के समझौते का पालन करने की पुष्टि की। लेकिन 2018 में डोनल्ड ट्रम्प ने एकतरफा समझौता तोड़ दिया और पहले से भी ज्यादा कठोर प्रतिबंध लगाए।

 चौथा और सबसे बड़ा विश्वासघात: जून 2025 में हुआ। ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास इराकी और अमेरिकी प्रतिनिधि स्टीव वैह्टकॉफ के बीच ओमान की मध्यस्थता में पांच दौर की वार्ता के बाद छठे दौर की तैयारी चल रही थी। दोनों पक्ष अपनी-अपनी शर्तों पर अड़े थे, लेकिन बातचीत जारी थी। ईरान शांतिपूर्ण उद्देश्यों के लिए यूरेनियम संवर्धन के अपने अधिकार की मान्यता चाहता था, जबकि अमेरिका चाहता था कि ईरान अपनी धरती पर संवर्धन बिल्कुल न करे।

 13 जून 2025 की सुबह - अगले दौर से सिर्फ दो दिन पहले - इजरायल ने ईरान पर बिना किसी चेतावनी के हमला कर दिया। परमाणु स्थलों के साथ-साथ नागरिक लक्ष्यों पर हमले किए गए। शीर्ष वैज्ञानिक और सैन्य कमांडर मारे गए। ये कोई चेतावनी भरे हमले नहीं थे, बल्कि सोच-समझकर किए गए ऐसे हमले थे जिनका मकसद कूटनीतिक प्रक्रिया को ध्वस्त करना था। हालांकि शुरुआती हमला इजरायल ने किया था, लेकिन बाद में अमेरिका भी इसमें शामिल हो गया। अमेरिकी स्टील्थ बॉम्बरों ने फोर्डो और नतंज पर 30,000 पाउंड के बंकर बस्टर बम गिराए। हमलों से पहले ट्रम्प ने ईरान से "बिना शर्त आत्मसमर्पण" की मांग की थी। हमलों के बाद उन्होंने खुले तौर पर इस ऑपरेशन की प्रशंसा करते हुए इसे सफल बताया और चेतावनी दी कि ईरान को "शांति बनानी चाहिए वरना और हमले झेलने होंगे"।

 ईरानी नेताओं के लिए यह सबक साफ़ था: पश्चिम बातचीत की भाषा बोल सकता है, लेकिन वह बल प्रयोग और हिंसा की भाषा में ही काम करता है।

 अब पश्चिम को क्या उम्मीद करनी चाहिए?

 ईरान अब उन गलतियों को दोहराने को तैयार नहीं है जो उसने अतीत में की थीं। वह अपनी सुरक्षा और संप्रभुता के लिए किसी भी हद तक जाने को तैयार है। पश्चिम अगर सच में शांति चाहता है, तो उसे ईरान के साथ सम्मानजनक और न्यायसंगत व्यवहार करना होगा। धमकियाँ और हमले केवल ईरान के संकल्प को और मजबूत करेंगे। ईरानी लोगों और नेतृत्व ने साबित कर दिया है कि वे दबाव में झुकने वाले नहीं हैं। अगर पश्चिम वास्तव में इस क्षेत्र में स्थिरता चाहता है, तो उसे ईरान के साथ समान स्तर पर बातचीत करनी होगी, न कि धौंस जमाने की कोशिश करनी चाहिए।

ईरान की मानसिकता: पश्चिम पर अविश्वास की गहरी जड़ें

 चाहे ईरान पर किसी का भी शासन हो, एक मूलभूत साझा विश्वास सभी में होता है: "पश्चिम पर भरोसा नहीं किया जा सकता। न वह अपने वादों पर टिकता है, न समझौतों का सम्मान करता है, और न ही ईरान की संप्रभुता को मान्यता देता है।"

 यह सोच इस्लामी गणतंत्र से बहुत पहले की है। रज़ा शाह और उसके बेटे मोहम्मद रज़ा शाह भी जिसे पश्चिमी ताकतों की अंतर्निहित मदद से सत्ता मिली थी, विदेशी सरकारों के प्रति गहरा संदेह रखते थे और लगातार उनके इरादों पर सवाल उठाते थे। 1979 की क्रांति के बाद यह रवैया खत्म नहीं हुआ, बल्कि और मजबूत हुआ और राजनीतिक स्पेक्ट्रम में व्यापक सहमति बन गई।

 इसका मतलब यह नहीं कि ईरान लचीला नहीं है या बातचीत करने में असमर्थ है। लेकिन उसकी शुरुआती धारणा "भरोसा" नहीं, बल्कि "सावधानी" है। समय के साथ यह सावधानी और गहरी हुई है, खासकर जब से पश्चिम बार-बार कूटनीति के बजाय "विकल्पों" (यानी सैन्य या आर्थिक दबाव) का सहारा लेता रहा है। हर बार ऐसा होता है, ईरान के भीतर वार्ता का विरोध करने वाले गुट मजबूत हो जाते हैं।

 पश्चिम के लिए सबक

 यह मानसिकता पश्चिमी राजनयिकों को निराश कर सकती है, लेकिन इसे नजरअंदाज करना ऐसी नीतियों को जन्म देगा जो असफल होने के लिए अभिशप्त हैं। अगर पश्चिम ईरान के साथ अलग नतीजे चाहता है, तो उसे यह दिखावा छोड़ना होगा कि वह किसी "खाली स्लेट" (बिना इतिहास के नए पन्ने) के साथ बातचीत कर रहा है।

 इतिहास, किसी भी वार्ता कक्ष में, बिना एक शब्द बोले ही मौजूद होता है। और ईरान के लिए, इतिहास एक ही बात कहता आया है :"तुम अकेले हो, इसलिए उसी के मुताबिक काम करो।"

 जब तक यह नैरेटिव नहीं बदलता, हवाई हमलों से नहीं, बल्कि ठोस और विश्वसनीय प्रतिबद्धताओं से, ईरानी नेता वही करेंगे जो इतिहास ने उन्हें सिखाया है: "प्रतिरोध"। 

 

इमामुल मुत्तक़ीन, अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम नहजुल बलाग़ा के कलेमाते क़ेसार की 89वीं हदीस में इरशाद फ़रमाते हैं:

अगर इंसान अपने और ख़ुदा के दरमियान इस्लाह कर ले तो ख़ुदावंदे आलम उसके और लोगों को दरमियान इस्लाह कर देता है।

इंसान की एक ख़ुसूसियत उसकी समाजी ज़िन्दगी है और समाजी ज़िन्दगी का लाज़िमा मुख़्तलिफ़ तरह के तअल्लुक़ात है जिनके मा तहत समाज के फर्द का मुख़्तलिफ़ गिरोहों, तबक़ों, सिन्फ़ों और समाज के दीगर अफ़राद से तअल्लुक़ात बर क़रार होता है।

मामूलन यह तअल्लुक़ मुख़्तलिफ़ अफ़राद से उनकी निस्बत के मुताबिक़ अंजाम पाता है जो उसके और उन अफ़राद के दरमियान है। सिन्फ़ी, सियासी, इदारी, कारोबारी, क़बीलई, क़ौमी, ख़ानदानी, दोस्ताना, आलमी, दीनी, सक़ाफ़ती, इक़तेसादी, रूही, मअनवी, अखलाक़ी तअल्लुक़ात की तरह मुख़्तलिफ़ ऐसे तअल्लुक़ात हैं जो इंसानों के एक फ़र्द या बहुत से अफ़राद के दूसरे इंसानों से बर क़रार होते हैं और उन तअल्लुक़ात में दूसरे शख़्स या अशख़ास के लिये मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियां और तवक़्क़ोआत और किरदार निभाना यक़ीनन ज़रूरी है।

वह अफ़राद जिनसे आपके तअल्लुकात हैं और आपके मुतअल्लिक़ तरह तरह की ज़िम्मेदारियों का एहसास दिलाते हैं। अगर आप उस एहसासे ज़िम्मेदारी के बदले उनसे अपनी तवक़्क़ोआत और ख़ुद से उनकी बेजा या बजा तवक़्क़ोआत करने की एक फ़ेहरिस्त बना लें तो मालूम होगा कि किस तरह हर शख़्स कितने वसीअ और पेचीदा रवाबित के नेटवर्क में ख़्वामाख़ाह फंसा हुआ है।

और उसको इस नेटवर्क को मुनज़्ज़म करना चाहिये। इस रवाबित के नेटवर्क को मोअतदिल और मुनज़्ज़म करना वह भी इस तरह से कि इंसान, हैरानी, तज़ाद व तआरुज़ से दोचार न हो और उन रवाबित के पेचीदा और बिल मुक़ाबिल जाल में इंसान अपने आपसे ग़ाफ़िल न रह जाये और अपनी अबदी कामयाबी और इंतेहाई कमाल को ग़फ़लत और भूल चूक के सुपुर्द न कर दे, यह काम बहुत दुश्वार और अहम है लेकिन क़िस्मत साज़ है।

बाज़ लोग इस वजह से कि वह अपने रवाबित में ऐसी तवज्जो और तआदुल बर क़रार नही कर सकते, हैरानी और परेशानी में मुबतला हो जाते हैं। और आख़िरकार अपने हर तरह के रवाबित में मद्दे मुक़ाबिल की तवक़्क़ोआत और ज़िम्मेदारी के मुताबिक़ अपना किरदार निभाते हैं और नेफ़ाक़ का शिकार हो जाते हैं। यहां तक कि वह ख़ुद और उसके इर्द गिर्द के लोग उसके तज़ाद और तआरुज़ से आगाह हो जाते हैं लेकिन उसको इतना अहम नही समझते।

यहां तक कि कभी कभी यह ख़्याल किया जाता है कि समाजी ज़िन्दगी का लाज़िमा यही है कि हर शख़्स और जमाअत से वही मख़सूस राबेता रखा जाये जो उस शख़्स या जमाअत के लिये ख़ास तौर पर मुनासिब मालूम होता है। यहां पर जो बात भूली जाती है वह यह है कि इंसान की कामयाबी की राह, हक़ीक़ी और अबदी हयात के लवाज़िम और ज़रुरतें किस राह और रफ़तार व गुफ़तार की तालिब हैं। अलबत्ता इंसान के रवाबित की जिद्दत और मुख़्तलिफ़ रवाबित में मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियां और तवक़्क़ोआत, तबीई तौर पर अलग अलग बर्ताव की मुजिब हैं।

लेकिन अगर यह अलग अलग तरह के बर्ताव एक उसूल के तहत बयान न हों और एक क़ानून के दायरे में न आयें तो इंसान को नेफ़ाक़ से दोचार कर देता है। जो अंदरुनी तआरुज़ और रूही कशमकश का बाइस होता है।

अगर इंसान अपने दोस्तों, साथियों, मा फ़ौक़ अफ़राद और मा तहतों, वालेदैन, बीवी वच्चों, पड़ोसियों, महल्ले वालों, मरबूत इदारों, हुकूमतों, हम मज़हबों, हम शहरियों वग़ैरह के दरमियान अगर एक मुअय्यन उसूल की रिआयत न करे और अपने तअल्लुक़ात को मुनज़्ज़म करने के बा वुजूद मुख़्तलिफ़ ज़िम्मेदारियों और तवक़्क़ोआत के एक क़ानून को जारी व सारी न करे तो कतई तौर पर हैरानी व सर गर्दानी से दोचार हो जायेगा।

और आख़िरकार मुम्किन है कि नेफ़ाक़ में मुबतला हो जाये। अब सवाल यह है कि हमें क्या करना चाहिये कि मुख़्तलिफ़ और पेचीदा समाजी रवाबित में ऐसे नतायज से रू बरू न हो।

बाज़ लोगों ने जब इंसानों के मुस्तक़बिल में इस अहम और हयाती नुक्ते पर तवज्जो की तो उन्होने इंसानी और अख़लाक़ी उसूल की रिआयत और सही व सालिम नफ़्स की हिफ़ाज़त के लिये जो इंसान की कामयाबी में कतई तौर पर असर अंदाज़ है, इस परेशानी के हल का रास्ता रवाबित कम करना और समाज से कट कर रहना माना है।

बाज़ अख़लाक़ी और इरफ़ानी किताबों और तहरीरों में भी अज़लत (गोशा नशीनी) समाज से किनारा कशी करने और समाज के मुख़्तलिफ़ गिरोहों, सिन्फ़ों और तबक़ात से राबेता कम करने के मायने में बयान किया गया है। और समाज से दूरी इख़्तियार करने और ज़्यादा और ग़ैर ज़रुरी मेल जोल से परहेज़ करने की नसीहत की गई है।

बाज़ लोगों ने भी (दानिस्ता या न दानिस्ता) नेफ़ाक़ और चंद तरह की बातें करने को समाज के इजतेनाब ना पज़ीर उसूल के तौर पर मान लिया है और उनको उसूल और आदाबे मुआशेरत समझ लिया है। और उनकी नज़र में हर जमाअत के रंग में रंग जाना, दीनदारों से दीन दारी का इज़हार करना और फ़ासिक़ों के साथ गुनहगार बन जाना। उन्होने समाजी उसूल और आदाब में मान लिया है।

उन अफ़राद की नज़र में ज़िन्दगी का बसर होना और इंसान के लिये सहूलियात का मुहैय्या होना, इसी उसूल के तहत है कि इंसान हर माहौल में और सिन्फ़ और तबक़े और जमाअत के साथ उनके लिहाज़ से बर्ताव करे। इस रविश का नतीजा यह होता है कि इंसान इस तरह ज़िन्दगी बसर करे जैसा कि लोग चाहते हैं न यह कि जैसा ख़ुद वह चाहता है।

इस सूरत में इंसान ख़ुद बख़ुद ऐसा काम करते हैं जिसका माहौल और हालात चाहते हैं न यह कि इस तरह अमल करें जो कामयाबी और कमाल का लाज़िमा व मुक़द्देमा है। वह ऐसी बात करते हैं जो लोगों को पसंद है और लोगों में मक़बूल है न कि वह बात जो उनके अक़ीदे और आरज़ू से बुलंद होती है और कहने सुनने वाले के लिये मुफ़ीद व लाज़िम है।

समाजी ज़िन्दगी में इस रविश का तबीई नतीजा शख़्स का जमईयत में खो जाना और कमज़ोर हो जाना और अफ़राद का अपनी पहचान खो देना है। जिसका नतीजा अपने से ग़फ़लत और ख़ुद को भूला देना है।

इमाम अली अलैहिस सलाम ने मुख़्तसर जुमलों में एक तीसरी रविश को इस अहम और मुश्किल मसले के हल के लिये बयान किया है जिस में न तो समाज से कट कर रहना और मुख़्तलिफ़ वसीअ रवाबित जो समाजी ज़िन्दगी का लाज़िमा है उससे किनारा कश होना है और न ही समाज में हज़्म और फ़ना हो जाना और कई कई चेहरे और कई कई ज़बान बदलना है बल्कि दूसरों से राब्ता क़ायम करना, अपने और ख़ुदा के दरमियान राब्ते को मुनज़्ज़म करने की बुनियाद पर हो।

जी हां, समझदार और मोतक़िद इंसान वह है जो अपनी ज़िन्दगी में उसूल और मंतेक़ी हक़ीक़ी क़वायद रखता हो और अपने लिये कुछ क़द्र और असलियत का क़ायल हो। कोई ऐसा भी है जो यह नही चाहता कि अपनी ज़िन्दगी को दूसरों की पसंद के मुताबिक़ मुनज़्ज़ करे बल्कि वह अपनी कामयाबी और कमाल के फिक्र में है और दूसरों से राब्ते को (तंनव्वो, पेचीदगी और ज़रुरत के बावुजूद) अपने रुश्द और बुलंदी का ज़मीना मानता है और इस मुतनव्वे और पेचीदा रवाबित को ख़ुदा से राब्ते के तूल में क़रार देता है और दूसरों के साथ ऐसा बर्ताव करता है कि जिसकी वजह से अहम और मुस्तक़बिल साज़ इलाही राब्ते पर बुरा असर न पड़े।

पहले तो ख़ुदा के साथ अपने इरफ़ानी, विलायती, इबादी और इलाही राब्ते को मुनज़्ज़म करता है फिर दूसरों के साथ चाहे वह कोई भी हो और किसी भी तबक़े से हो और किसी भी निस्बत, दर्जा और गिरोह से मुतअल्लिक़ हो और चाहे वह उस से कोई भी उम्मीद या तवक़्क़ो रखते हों।

ऐसे रवाबित मुनज़्ज़म करता है जो उनको बंद ए ख़ुदा मानते हुए है। और जिस तरह उनसे तअल्लुक़ात रखने में ख़ुदा ने मसलहत क़रार दी है और अक़्ल और वही के ज़रिये उसकी रहनुमाई की है। इस सूरत में अव्वल तो समाज से कट कर रहने की कोई ज़रुरत नही है। दूसरे यह कि वह तअल्लुक़ात और रवाबित जो एक शख़्स दूसरे शख़्स से बर क़रार करता है।

वह इंसान की तकामुली सैर और कामयाबी की राह से मुताबिक़ व मुवाज़िन होंगे। तीसरे यह कि मुख़्तलिफ़ जमाअतों और गिरोहों से इंसान की गुफ़तार व रफ़तार में कोई तआरुज़ व तज़ाद नही पाया जायेगा और आख़िर कार ज़ाहिर दारी, लिहाज़, दूसरों को ख़ुश आमदगोई कहना, आने पर लान व तान करना, तारीफ़ व तमजीद, या बाज़ मामलात में लोगों  की रद्द और इंकार में इंसान का किरदार नही ढलेगा बल्कि यह सब मामलात और असबाब जहां अपनी किरदार निभाते हैं और मोवस्सिर होते हैं वहीं इंसान और ख़ुदा के दरमियान राब्ते के क़ानून में ढल जायेगें।

और इस राह में ऐसा नही है कि समाजी मसलहत, अख़लाक़ी लिहाज़, माहौल के ख़ास तक़ाज़े और ज़मान व मकान के हालात और मवाक़े एक इंसान के दूसरे से राब्ते में असर अंदाज़ न होते हों। लेकिन यह सब असबाब भी एक बा मक़सद दायर ए कार में इंसान के ख़ुदा से राब्ते के अंदर जाने पहचाने और मुनज़्ज़म किये जाते हैं।

जी हां, जो शख़्स अपने और खुदा के दरमियान राब्ते की इस्लाह कर ले और उसको मुनज़्ज़म कर ले यानी ख़ालिस ख़ुदा का बंदा हो जाये और महज़ ख़ुदा की मारेफ़त, मुहब्बत, इबादत और इताअत तक पहुच जायेगा और उसके अलावा किसी को अपना मतलूब, महबूब और मुराद नही माने तो ख़ुदा उसके और दूसरों के दरमियान यानी तमाम अफ़राद, जमाअतों, हक़ीक़ी अशख़ास और इदारों, गिरोहों, सिन्फ़ों और तबकात वग़ैरह के दरमियान राब्ते का इंतेज़ाम कर देगा और उन्हे बेहतर बना देगा।

इस सूरत में हमारे और दूसरों के रवाबित में यह इंतेज़ाम और इस्लाह जो तशरीई और तकवीनी दोनों पहलु से ख़ुदा की जानिब से ही है और इस मायना में है कि जो दीने ख़ुदा में किरदारी और अख़लाक़ी उसूल व क़वायद बयान हुए हैं। उनकी बुनियाद पर यह रवाबित मुनज़्ज़म होते हैं और यह कि रवाबित में दूसरी जानिब के अफ़राद के ज़ेहन, दिल और किरदार भी उसी सिम्त हिदायत किये जाते हैं।

जो इंसान की मसलहत और उसके कमाल से मुतअल्लिक़ है और ख़ुदा दिलों का मुख़्तार है और जो कुछ उस के एक हक़ीक़ी मोमिन और सच्चे बंदे के लिये ख़ैर व मसलहत में है ख़ुद इंसान के अपने हिसाब किताब और मलफ़ूज़ात से भी बेहतर तरीक़े से उस के लिये फ़राहम करेगा। अलबत्ता यह दिलों की हिदायत, उस वक़्त होती है जब हम ख़ुदा के तशरीई इंतेज़ाम और इस्लाह का ख़्याल रखें।

और उस पर तवज्जो रखें और उस पर अमल पैरा हों। पैग़म्बराने इलाही के पैग़ाम का दिलों में रासिख़ हो जाना, इंसानी मुआशरों में शरीयत और इलाही सक़ाफ़त का फैलना और अवलिया ए इलाही की कामयाबियां, यह सब इमामुल मुत्तक़ीन, अमीरुल मोमिनीन अली अलैहिस सलाम के कलाम को दुरुस्त साबित करती हैं।

और इस बात में कोई शक नही छोड़ती कि हमारा दूसरों से बेहतर तअल्लुक़ात बनाने और इस्लाह करने का वाहिद रास्ता (चाहे इंफ़ेरादी सतह पर हो या समाजी तौर पर) यह है कि हम अपने और दूसरे के रवाबित को अपने और ख़ुदा के दरमियान रवाबित के तूल में समझें और तूलमें ही क़रार दें और बजाय इसके हम रवाबित के अज़ीम व वसीअ चैनल को मुनज़्ज़म और हमनवा करने की कोशिश और तदबीर करें फ़क़त एक राब्ते को, जो मुस्तक़बिल साज़, इतमिनान बख़्श, पुर ऐतेमाद और अटूट है।

उसको मुनज़्ज़म करें और उसको ही बुनियाद और उसूल क़रार दें। इस तरह से हमारा दूसरों से तअल्लुक़ भी बहाल हो जायेगा और हम हर क़िस्म की तशवीश, कशमकश और इज़तेराब ख़त्म हो जायेगा और यह हक़ीक़ी तौहीद का एक बेहतरीन, ख़ूबसूरत तरीन, कारसाज़ तरीन और अहम तरीन जलवा है।

जो इंसान के समाजी रवाबित को बहाल करने में बुनियादी किरदार निभाता है। ऐसा किरदार जो बे नज़ीर है। जिसके बग़ैर इंसान इस कोशिश में कामयाब नही हो सकता कि अपने से दूसरों के दरमियान रवाबित के अहम मसले को नेफ़ाक़, बेख़ुदी और अपनी असलीयत को खोये बग़ैर हल कर सके।

इस मोजिज़ नुमा कलाम को सिवा ए हज़रत अली बिन अबी तालिब अलैहिस सलाम के कौन बयान कर सकता है। जिन्होने ख़ुद मारेफ़त और अमल में इस रविश को बुलंद तरीन मिसदाक़ के साथ आज़माया हुआ है। और सिवाय इस राह के और कौन सा ऐसा रास्ता है जो तौहीद की रविश पर कामिल इमाम (अलैहिस सलाम) की पैरवी में तय किया जा सके? और हम इस तरह अपनी इस्लाह में एक क़दम उठा सकते हैं।

 

इंतेज़ार में अधीरता और जल्दबाजी न केवल निराशा और आस्था की कमजोरी का कारण बन सकती है बल्कि कई बार यह फिरकापरस्ती, विचलन और अनैतिक कार्यों को भी इसी जल्दबाजी में औचित्य देने का कारण बन जाती है।

हज़रत इमाम मेंहदी अ.ज. के ज़ुहूर का इंतज़ार एक महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य है, लेकिन यह इंतज़ार सब्र, समझदारी और जिम्मेदारी के साथ होना चाहिए। यदि इसमें जल्दबाजी और अधीरता शामिल हो जाए, तो यह आफ़ते इस्तेअजाल" (जल्दबाजी की आपदा) का रूप ले लेता है जो धर्म आस्था और समाज को गंभीर खतरों में डाल देता है।

 जैसा कि इमाम जवाद (अ.स.) ने फरमाया,निस्संदेह उनकी (अ.ज.)ग़ैबत लंबी होगी और केवल सच्चे लोग ही उनके इंतज़ार में रहेंगे, जबकि संदेह करने वाले लोग इनकार कर देंगे।

उलमा ए किराम के अनुसार, ज़ुहूर के बारे में जल्दबाजी और अधीरता इंसान को निराशा, इनकार और यहां तक कि गुमराही तक ले जा सकती है। कुछ लोग ज़ुहूर में देरी से निराश होकर झूठे मेहदी होने का दावा करने वालों के जाल में फंस जाते हैं, या धार्मिक भावनाओं का फायदा उठाने वालों की झूठी बातों पर भरोसा कर बैठते हैं।

जल्दबाजी का एक और नुकसान यह भी है कि लोग ज़ुहूर की शर्तों को पूरा करने के बजाय सिर्फ सतही और बिना सबूत वाले संकेतों के पीछे लग जाते हैं, और अपने अंदर वह योग्यता पैदा नहीं कर पाते जो ज़ुहूर के समय इमाम के सिपाही बनने के लिए ज़रूरी है।

इस आफ़त से बचने के लिए ज़रूरी है कि सब्र और दृढ़ता अपनाई जाए।व्यक्तिगत और सामाजिक सुधार की कोशिश की जाए।विश्वसनीय उलमा और मराजे की पालना की जाए। ज़ुहूर के वास्तविक संकेतों और शर्तों पर ध्यान दिया जाए न कि झूठे दावों पर।

यदि इंतज़ार ज्ञान और समझ के साथ, सब्र और दृढ़ संकल्प के साथ किया जाए, तो यह न केवल ईमान को सुरक्षित रखता है बल्कि ज़ुहूर का मार्ग भी प्रशस्त करता है। वहीं, समझ से खाली और भावुक जल्दबाजी सिर्फ आस्था को कमजोर करने और दुश्मन को मजबूत करने का कारण बन सकती है।

ईरान के विदेश मंत्री ने 'फ़ाइनेंशियल टाइम्स' के साथ बातचीत में पिछले महीने ईरान के ख़िलाफ़ युद्ध के दौरान हुए नुकसान की भरपाई की मांग की और ज़ोर देकर कहा कि अमेरिका को 12 दिनों के युद्ध में हुए नुकसान की भरपाई करनी चाहिए।

ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने यह सवाल उठाते हुए कि अमेरिका को यह स्पष्ट करना चाहिए कि वार्ता के बीच में हम पर हमला क्यों किया गया, कहा: "अमेरिका को यह गारंटी देनी चाहिए कि भविष्य में ऐसा दोबारा नहीं होगा।"

ईरानी कूटनीति प्रमुख ने बातचीत के कुछ हिस्सों में उल्लेख किया कि: "मैंने और अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि स्टीव वाइटकॉफ़ ने युद्ध के दौरान और बाद में संदेशों का आदान-प्रदान किया है और मैंने उन्हें बताया है कि ईरान के परमाणु संकट को हल करने के लिए 'विन-विन' समाधान खोजना होगा।"

 ईरान के विदेश मंत्री अराक़ची ने ज़ोर देकर कहा: "जब तक अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प ईरान में पूर्ण संवर्धन रोकने की मांग करते रहेंगे, तब तक कोई समझौता संभव नहीं होगा। हालांकि, वाशिंगटन वार्ता के माध्यम से अपनी चिंताओं को रख सकता है। हम बातचीत कर सकते हैं - वे अपने तर्क दे सकते हैं और हम अपने तर्क प्रस्तुत करेंगे।"

 उन्होंने इस बात पर बल दिया कि वार्ता का रास्ता तंग व संकीर्ण है लेकिन असंभव नहीं है, यह कहते हुए: "वाइटकॉफ़ ने मुझे यह समझाने का प्रयास किया है कि यह संभव है और वार्ता फिर से शुरू करने का प्रस्ताव रखा है लेकिन हमें उनकी ओर से विश्वास निर्माण के वास्तविक क़दमों की आवश्यकता है - जिसमें वित्तीय मुआवजा और पुनर्वार्ता के दौरान ईरान पर हमले न करने की गारंटी शामिल होनी चाहिए।"

 ईरानी विदेश मंत्री ने स्पष्ट किया: "हालिया हमले ने साबित कर दिया कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम के लिए कोई सैन्य समाधान नहीं है लेकिन एक वार्ता द्वारा समाधान खोजा जा सकता है। ईरान अपने शांतिपूर्ण और गैर-सैन्य परमाणु कार्यक्रम के प्रति प्रतिबद्ध है, अपनी विचारधारा नहीं बदलेगा और इस्लामी क्रांति के नेता आयतुल्लाह ख़ामेनेई के 20 साल पुराने फ़तवे का पालन करेगा जिसमें परमाणु हथियारों के विकास पर प्रतिबंध लगाया गया है।"

 उन्होंने आगे कहा: "इस हमले ने अमेरिकी राष्ट्रपति ट्रम्प के प्रति अविश्वास को और गहरा कर दिया है। ट्रम्प ने अपने पहले कार्यकाल में 2015 के परमाणु समझौते को रद्द कर दिया था जो ईरान ने बराक ओबामा सरकार और अन्य वैश्विक शक्तियों के साथ किया था। तेहरान के पास अभी भी यूरेनियम संवर्धन की क्षमता है। इमारतों को फिर से बनाया जा सकता है। मशीनों को बदला जा सकता है क्योंकि प्रौद्योगिकी मौजूद है। हमारे पास बड़ी संख्या में वैज्ञानिक और तकनीशियन हैं जो पहले हमारे परमाणु संयंत्रों में काम कर चुके हैं लेकिन हम कब और कैसे संवर्धन फिर से शुरू करते हैं, यह परिस्थितियों पर निर्भर करेगा।

 

अरबईन के आगमन से ठीक पहले कर्बला की ओर जाने वाले रास्तों पर कई मुकिब सज चुके हैं जो ज़ायरीन की सेवा करके इराक में एक आध्यात्मिक और उत्साहपूर्ण माहौल बना रहे हैं।

अरबईन के आगमन से ठीक पहले कर्बला की ओर जाने वाले रास्तों पर कई मुकिब सज चुके हैं जो ज़ायरीन की सेवा करके इराक में एक आध्यात्मिक और उत्साहपूर्ण माहौल बना रहे हैं।

अर्बइन शिया मुसलमानों के तीसरे इमाम सय्यदुश शोहदा (अ.स.) की शहादत के चालीसवा दिन है इमाम हुसैन अ.स.अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ.स.) और हज़रत फातिमा (स.ल.) के बेटे तथा पैगंबर मुहम्मद (स.ल.) के नवासे हैं जिन्हें कर्बला की धरती पर शहीद कर दिया गया।

अर्बइन ए हुसैनी के दिनों में कई शिया मुसलमान इराक की यात्रा करते हैं ताकि उनकी पवित्र मज़ार पर ज़ियारत कर सकें। यह समारोह एक निश्चित समय में दुनिया का सबसे बड़ा पैदल मार्च माना जाता है इस समारोह में भाग लेने वालों की संख्या 45 मिलियन से अधिक हो जाती है। 

 

 

आयतुल्लाह कअबी ने कहा, 12 दिनों का युद्ध वास्तव में दूसरा पवित्र रक्षा युद्ध था, जिसका उद्देश्य ईरानी राष्ट्र की सांस्कृतिक नीव को नष्ट करना था.लेकिन राष्ट्र ने एकता, प्रतिरोध और नेतृत्व की बुद्धिमत्ता से दुश्मन को हरा दिया।

आयतुल्लाह अब्बास काबी नेता परिषद के सदस्य ने 12 दिनों के युद्ध के संदर्भ में ईरान पर जायोनी और अमेरिकी हमले को इस्लामी संस्कृति को नष्ट करने का मिशन बताया है उन्होंने कहा कि इस युद्ध का उद्देश्य न केवल इस्लामी क्रांति बल्कि ईरानी सभ्यता.इतिहास, पहचान और सम्मान को मिटाना था। 

उन्होंने कहा कि इस्लाम के दुश्मनों ने पहले ईरान को पश्चिमी सभ्यता में मिलाने की कोशिश की, फिर इस्लामी क्रांति के प्रभावों को सीमित करना चाहा और जब ये दोनों विफल हो गए तो सभ्यता को खत्म करने की ओर बढ़े। इस उद्देश्य के लिए दाइश (ISIS) जैसे संगठनों को खड़ा किया गया और अब सीधे ईरान को निशाना बनाया गया। 

आयतुल्लाह काबी के अनुसार, ईरानी राष्ट्र ने इस हमले के जवाब में अभूतपूर्व राष्ट्रीय एकता आस्थापूर्ण प्रतिरोध और सांस्कृतिक जागरूकता का प्रदर्शन किया उन्होंने कहा,यह युद्ध न केवल सैन्य बल्कि सांस्कृतिक लड़ाई थी, जिसमें ईरानी जनता ने अपनी इस्लामी-ईरानी पहचान का बचाव किया और दुश्मन को पीछे हटने पर मजबूर किया।

उन्होंने कहा कि यदि दुश्मन ने फिर आक्रमण किया तो ईरानी राष्ट्र उससे भी अधिक कड़ी प्रतिक्रिया देगा। उन्होंने कहा कि हमें राष्ट्रीय एकता बनाए रखनी चाहिए, दुश्मन के प्रचार से सावधान रहना चाहिए, और सर्वोच्च नेता के सात-बिंदु संदेश के अनुसार हर वर्ग को अपनी जिम्मेदारी निभानी चाहिए। 

आयतुल्लाह काबी ने अंत में कहा,यह सभ्यता पतनशील नहीं है.बल्कि एक उभरती हुई वैश्विक शक्ति बन चुकी है, और इसका बचाव केवल सैन्य नहीं, बल्कि धार्मिक, बौद्धिक, नैतिक और सांस्कृतिक स्तर पर भी करना हमारा कर्तव्य है।

 

हज़रत आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनेई ने अरबईन ज़ियारती मार्च में महिलाओं की पैदल भागीदारी से संबंधित एक सवाल का जवाब दिया है।

अरबईन की ज़ियारत दुनिया के सबसे बड़े धार्मिक आयोजनों में से एक है और हमेशा से अहले-बैत (अ) के श्रद्धालुओं और जाएरीन के लिए आकर्षण का केंद्र रही है। इस अवसर पर, कुछ महिलाओं ने पूछा कि क्या शरई हुक्म के अनुसार उनके लिए इस तीर्थयात्रा में भाग लेना जायज़ है। इस संबंध में, हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने एक सवाल के जवाब में स्पष्टीकरण दिया।

प्रश्न: अरबईन पद यात्रा में महिलाओं के भाग लेने पर शरई हुक्म क्या है?

उत्तर: यदि शरीयत की सीमाओं, कानूनों और संबंधित नियमों का पालन किया जाता है, तो महिलाओं के लिए अरबईन मार्च में पैदल भाग लेना जायज़ है और इसमें कोई बुराई नहीं है।

 

 

अंसारुल्लाह के नेता ने ग़ज़्ज़ा के लोगों पर ज़ायोनी दुश्मन के अत्याचारों के सामने अरब देशों की चुप्पी की कड़ी आलोचना करते हुए कहा: ग़ज़्ज़ा के साथ हमारा समर्थन जारी रहेगा, और कब्ज़ाधारियों के खिलाफ नौसैनिक नाकाबंदी का चौथा चरण एक आवश्यक कदम था।

यमन के अंसारुल्लाह आंदोलन के नेता, सय्यद अब्दुल मलिक अल-हौसी ने अपने हालिया भाषण में ग़ज़्ज़ा की भयावह मानवीय स्थिति पर प्रकाश डालते हुए कहा:

ग़ज़्ज़ा में ज़ायोनी उत्पीड़न की पराकाष्ठा:

उन्होंने कहा कि ज़ायोनी दुश्मन अपने हमलों में मासूम शिशुओं को भी निशाना बना रहा है। ये बच्चे दुश्मन की नियमित योजना के शिकार हैं। भूख और अकाल के कारण हर दिन कई फ़िलिस्तीनी शहीद हो रहे हैं, और वास्तविक संख्या आधिकारिक आंकड़ों से कहीं अधिक है।

ग़ज़्ज़ा के लोग खाने के लिए तड़प रहे हैं:

उन्होंने आगे कहा कि इज़राइली क्रूरता इस हद तक पहुँच गई है कि प्रसव के दौरान भी महिलाओं को निशाना बनाया जा रहा है। फ़िलिस्तीनी लोगों की हालत यह है कि वे अकाल, जबरन विस्थापन और संकीर्ण इलाकों में फँसे हुए हैं। दुश्मन ने लाखों ग़ज़्ज़ावासियों को सिर्फ़ बारह प्रतिशत क्षेत्र तक सीमित कर दिया है, और इन तथाकथित "सुरक्षित क्षेत्रों" पर भी बमबारी की जा रही है।

खाने की तलाश में मारे गए लोग:

उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि मारे जा रहे ज़्यादातर फ़िलिस्तीनी वे हैं जो अपने बच्चों और महिलाओं के लिए खाने की तलाश में निकले थे। ज़ायोनी दुश्मन इन भूखे लोगों को "मौत के जाल" में फँसाकर मार रहा है। ग़ज़्ज़ा के लोग कंकालों में बदल रहे हैं और उनकी तस्वीरें पूरी मानवता के लिए, खासकर उन पश्चिमी देशों के लिए शर्म की बात हैं जो खुद को "सभ्यता के चैंपियन" कहते हैं।

हवाई सहायता का नाटक:

सय्यद अब्दुल मलिक अल-हौसी ने ज़ायोनी धोखे का पर्दाफ़ाश करते हुए कहा कि हवाई मार्ग से भेजी गई सहायता सिर्फ़ एक धोखा है। सहायता सामग्री जानबूझकर उन इलाकों में फेंकी जाती है जिन्हें "रेड ज़ोन" घोषित किया गया है, और फ़िलिस्तीनियों को इन इलाकों में कदम रखते ही मार दिया जाता है। ऐसी सहायता वास्तव में फ़िलिस्तीनियों के सम्मान और जीवन से खिलवाड़ करने के समान है। दुश्मन द्वारा घोषित "मानवीय युद्धविराम" और हवाई सहायता के जाल में नहीं फँसना चाहिए।

ग़ज़्ज़ा को मिटाने का प्रयास:

उन्होंने कहा कि दुश्मन का लक्ष्य ग़ज़्ज़ा को पूरी तरह से तबाह करना और वहाँ जीवन का नामोनिशान मिटा देना है। यह क्रूरता और विनाश पूरी दुनिया के सामने है। जबकि मानवीय होने का दावा करने वाली पश्चिमी सरकारें भी इन उत्पीड़ित लोगों की आवाज़ दबा रही हैं।

अरब तेल, ज़ायोनी विमानों के लिए ईंधन:

उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीनियों पर अमेरिकी बम बरसाने वाले ज़ायोनी युद्धक विमान अरब के तेल से चल रहे हैं। अमेरिका अरब देशों से प्राप्त खरबों डॉलर में से 22 अरब डॉलर ग़ज़्ज़ा युद्ध में इस्तेमाल कर रहा है।

अरब सरकारें जन समर्थन को रोक रही हैं:

उन्होंने इस बात पर खेद व्यक्त किया कि अरब सरकारें अपने लोगों को फ़िलिस्तीन के पक्ष में विरोध प्रदर्शन या रैलियाँ करने से रोक रही हैं, जबकि अपने हवाई अड्डे और हवाई गलियारे दुश्मन इज़राइल के लिए खोल रही हैं। अरब और इस्लामी देश इज़राइल को हज़ारों टन सामान भेज रहे हैं, जबकि ग़ज़्ज़ा में बच्चे भूख से मर रहे हैं।

इस्लामी दुनिया को एकजुट होना चाहिए:

उन्होंने अरब और मुस्लिम देशों को संबोधित करते हुए कहा: इज़राइल की साज़िश न केवल फ़िलिस्तीन को नष्ट करने की है, बल्कि आपकी गुलामी और पहचान को मिटाने की भी है। इस्लामी उम्माह को एकजुट होकर व्यावहारिक कदम उठाने चाहिए। ग़ज़्ज़ा के प्रतिरोध सेनानी अत्यंत सीमित संसाधनों के बावजूद 22 महीनों से दुश्मन से लड़ रहे हैं। उनकी बहादुरी पूरे इस्लामी जगत के लिए एक सबक है।

ज़ायोनी दुश्मन की हार:

उन्होंने आगे कहा कि इज़राइल की हार और विनाश तय है, और यह ईश्वर का वादा है जो निश्चित रूप से पूरा होगा। अकेले इस हफ़्ते, "अल-क़स्साम" ने 14 सफल जिहादी अभियान चलाए, और "सरया अल-क़ुद्स" सहित अन्य फ़िलिस्तीनी समूहों ने भी महत्वपूर्ण अभियान चलाए।

यमनी घेराबंदी, चौथा चरण:

उन्होंने घोषणा की कि यमन ने इज़राइल के ख़िलाफ़ अपनी नौसैनिक नाकाबंदी का चौथा चरण शुरू कर दिया है। अब, इज़राइल के साथ वाणिज्यिक संबंध रखने वाले या उसके लिए सामान ले जाने वाले किसी भी जहाज़ को निशाना बनाया जाएगा। वर्तमान मानवीय संकट के संदर्भ में यह कदम अपरिहार्य है।

यमनी विद्वानों और लोगों की भूमिका:

उन्होंने यमनी विद्वानों के प्रयासों और लोगों के निरंतर समर्थन पर गर्व व्यक्त किया, और अन्य अरब और इस्लामी देशों से भी फ़िलिस्तीन के लिए शैक्षिक और जागरूकता गतिविधियों में शामिल होने का आह्वान किया। अंत में, उन्होंने यमनी लोगों से ग़ज़्ज़ा के समर्थन में अपनी साप्ताहिक रैलियाँ जारी रखने की अपील की, क्योंकि यही बात दुश्मन को सबसे ज़्यादा परेशान करती है।

 

कुछ दशक पहले तक, अमेरिका में इज़राइल का समर्थन न केवल एक राजनीतिक रुख था, बल्कि कई नागरिकों की राष्ट्रीय पहचान का हिस्सा भी था। राजनीतिक, मीडिया और शैक्षणिक हलकों में इज़राइल से वफ़ादारी को एक साझा अमेरिकी मूल्य माना जाता था। लेकिन आज, वही समाज, खासकर युवा पीढ़ी के बीच, इस नज़रिए में एक गहरी और स्पष्ट खाई देख रहा है।

सर्वेक्षणों के आंकड़े, विश्लेषणात्मक रिपोर्ट्स और यहां तक कि अमेरिकी मीडिया का मौजूदा माहौल, सभी युवाओं के बीच इज़राइल की लोकप्रियता में तेज़ी से आई "गिरावट" की ओर इशारा करते हैं। यह परिवर्तन सिर्फ़ जनमत में एक बदलाव नहीं है, बल्कि दशकों से चली आ रही आधिकारिक कहानियों के बारे में व्यापक जागृति और पुनर्विचार का संकेत है।

 दिसम्बर 2023 के हार्वर्ड-हैरिस सर्वे के अनुसार, 18 से 24 साल के 50% से अधिक अमेरिकी युवाओं का मानना था कि ग़ज़ा संकट का समाधान केवल इज़राइल के वजूद को समाप्त करने और फिलिस्तीनियों के आत्मनिर्णय के अधिकार को साकार करने से ही संभव है। इसी तरह, अप्रैल 2024 में प्यू रिसर्च सेंटर द्वारा प्रकाशित एक रिपोर्ट में स्पष्ट रूप से पाया गया कि 18 से 29 साल के केवल 14% अमेरिकी युवा, इज़राइल का समर्थन करते हैं, जबकि 33% खुलकर फिलिस्तीनी लोगों से सहानुभूति व्यक्त करते हैं।

 लेकिन अमेरिकी युवाओं की सोच में ऐसा बदलाव क्यों आया है? इसका जवाब मीडिया, सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक परिवर्तनों की कई परतों में छिपा है। सबसे पहले, सोशल मीडिया के उदय ने, एक अनौपचारिक लेकिन शक्तिशाली माध्यम के रूप में, सीधे तथ्यों तक पहुंच को संभव बनाया है। अब मुख्यधारा के मीडिया के एकतरफा फिल्टर्स नहीं रहे। आज के अमेरिकी किशोर और युवा, फिलिस्तीनी माताओं के आंसू, मारे गए बच्चों और ध्वस्त घरों की तस्वीरों को बिना किसी सेंसर के सीधे देख रहे हैं।

जब सच्चाई बिना किसी फिल्टर के लोगों की आँखों और दिलों तक पहुँचती है, तो मुख्यधारा के मीडिया के प्रचारित नैरेटिव का असर खत्म होने लगता है। ट्विटर, इंस्टाग्राम, टिकटॉक और यूट्यूब जैसे प्लेटफॉर्म अब सूचना सेंसरशिप के खिलाफ एक वास्तविक मोर्चा बन चुके हैं। ग़ज़ा और दूसरे मक़बूज़ा इलाकों के लोगों की आवाज़, मोबाइल फोन और एमेच्योर कैमरों के जरिए, वैश्विक दर्शकों तक पहुँच रही है और पश्चिम के युवाओं की अंतरात्मा को झकझोर रही है।

इस अभूतपूर्व मीडिया बेदारी ने अमेरिकी विश्वविद्यालयों में ज़ायोनी विरोधी छात्र आंदोलनों को भी जन्म दिया है। व्यापक विरोध प्रदर्शन, छात्र हड़तालें, और इज़राइल से जुड़ी कंपनियों में विश्वविद्यालयों के निवेश के ख़िलाफ़ मुहिम, ये सभी युवाओं की सोच में गहरे और स्थायी बदलाव के स्पष्ट संकेत हैं।

 वहीं, अमेरिका के राजनीतिक माहौल में बदलाव ने भी इस प्रवृत्ति को गति दी है। यहाँ तक कि रिपब्लिकन युवाओं (जो परंपरागत रूप से इज़राइल के कट्टर समर्थक माने जाते थे) में भी सिर्फ 28% इस राष्ट्र का समर्थन करते हैं, जबकि 47% डेमोक्रैट युवा फिलिस्तीनी लोगों के साथ खड़े हैं। यह विभाजन सिर्फ भू-राजनीतिक नहीं, बल्कि नैतिक और पहचान से जुड़ा भी है।

 ध्यान देने वाली बात यह है कि यह बदलाव सिर्फ अमेरिका तक सीमित नहीं है। इज़राइली राष्ट्रीय सुरक्षा अध्ययन संस्थान (INSS) की रिपोर्ट के मुताबिक, अक्टूबर 2023 से मार्च 2024 के बीच, दुनिया भर में हर महीने औसतन 2,000 से ज्यादा इज़राइल-विरोधी विरोध प्रदर्शन दर्ज किए गए। यमन के बाद, सबसे ज्यादा प्रदर्शन और विरोध रैलियां अमरीका में हुई हैं।

 इस पैमाने पर वैश्विक प्रतिक्रिया, खासकर अमेरिकियों की ओर से, ज़ायोनी शासन को गहरी चिंता में डाल दिया है। क्योंकि अमेरिका का बिना शर्त समर्थन,खासकर आम लोगों का, न कि सिर्फ सरकारों का,हमेशा से इज़राइल की रणनीतिक जीवनरेखा रहा है। अब यह स्तंभ दरकने लगा है। और जो हम आज देख रहे हैं, वह पश्चिमी युवाओं के मन-मस्तिष्क में इज़राइल के प्रति एक 'सॉफ्ट कोलैप्स' (नरम पतन) है।

 अतीत के विपरीत, अब इस सच्चाई को मीडिया कूटनीति या सरकारी प्रचार से छुपाया नहीं जा सकता। नई पीढ़ी ने, जिसका ज़मीन जाग चुका है, जिसका मन जागरूक है और जिसकी आँखें ग़ज़ा के खंडहरों में सच्चाई ढूँढ़ती हैं, तय कर लिया है कि वह इन अपराधों का साझीदार नहीं बनेगी। यह पीढ़ी अब इज़राइल को पसंद नहीं करती, न कट्टरता से, बल्कि जागरूकता से। न जोश में, बल्कि सच्चाई के सीधे सामने आने से।

वह दुनिया जिसके युवाओं ने आवाज़ उठाई है, अब पहले जैसी नहीं रह सकती। इज़राइल आज न सिर्फ युद्ध के मैदान में, बल्कि जनमत की लड़ाई में भी अपनी पकड़ खो रहा है और शायद, मानवता के ज़मीर में यह धीमी गिरावट, किसी भी भू-राजनीतिक चुनौती से ज़्यादा बड़ा खतरा साबित होगी।

 जिस तरह पारंपरिक मीडिया ने कभी कहानियाँ गढ़ीं, आज नए मीडिया ने उन्हें फिर से लिख दिया है। और इस बार, अमेरिकी युवाओं ने साफ़ सुना स्वर में अतीत को पीछे छोड़ दिया है। इज़राइल अब उनके दिलों की धड़कन नहीं रहा  क्योंकि सच्चाई ने प्रचार की धूल को चीरकर खुद को उजागर कर दिया है।

 

ज़ुल्म और इमाम ज़ामाना (अ) के ज़ुहूर के बीच हमेशा चर्चा होती रही है। क्या ज़्यादा ज़ुल्म, ज़ुहूर के लिए ज़मीना साज़ है, या फिर ये इस बात का मतलब है कि इंसान को और तैय्यार होना चाहिए ताकि न्याय कायम हो सके? कुछ गलतफहमियां ऐसी हो सकती हैं कि लोग बेपरवाह हो जाएं, लेकिन धार्मिक विद्वान कहते हैं कि ज़ुल्म के खिलाफ लड़ना असली इंतजार का हिस्सा है, न कि ज़ुहूर में बाधा।

धार्मिक शिक्षाओं में इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर से पहले का समय ऐसा बताया गया है जब दुनिया ज़ुल्म और अन्याय से भर जाती है। इस बात को कई हदीसों में जोर देकर कहा गया है, जिनमें से पैग़म्बर मुहम्मद (स) की एक मशहूर हदीस है: "ज़मीन को उस तरह से इंसाफ और न्याय से भर देंगे जैसे वो ज़ुल्म और अन्याय से भरी हुई थी।" (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)।

लेकिन सवाल यह है:

"हम कैसे समझें कि दुनिया में अत्याचार बढ़ने और इमाम ज़माना (अ) के ज़ुहूर के बीच क्या रिश्ता है? क्या अत्याचार का बढ़ना ज़ुहूर होने को शीघ्र करता है, या यह केवल वह हालत है जिसमें ज़ुहूर होगा?"

और "क्या इसका मतलब यह है कि हमें अन्याय के सामने चुप रहना चाहिए ताकि ज़ुहूर का रास्ता बने? क्या ऐसी सोच हमें सामाजिक जिम्मेदारियों और अन्याय के खिलाफ लड़ाई से दूर कर सकती है?"

इस मुद्दे की जांच के लिए, हमने इस सवाल को नैतिक संशयों के विशेषज्ञ हुज्जतुल इस्लाम रज़ा पारचा बाफ़ से पूछा, उन्होंने आयतों, हदीसों और बड़े विद्वानों के विचारों के हवाले से ज़ुल्म और ज़ुहूर के बीच के रिश्ते को समझाया। आगे इस बातचीत का पूरा विवरण हम आपके साथ साझा कर रहे हैं।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्राहीम

ज़ुल्म को ज़ुहूर के लिए एक जरूरी शर्त माना गया है, न कि सीधा कारण, जैसा कि पैग़म्बर मुहम्मद (स) की मशहूर हदीस में है: «یَمْلَأُ الْأَرْضَ قِسْطًا وَعَدْلًا کَمَا مُلِئَتْ ظُلْمًا وَجَوْرًا यम्ला उल- अर्ज़ा क़िस्तन व अदलन कमा मोलेअत ज़ल्मन व जोरन» “ज़मीन को इंसाफ और न्याय से वैसी ही भर देगा जैसे वह ज़ुल्म और अन्याय से भरी होगी।” (बिहार उल-अनवार, भाग 52, पेज 340)

आल़्लामा तबातबाई ने इस बारे में कहा है: दुनिया का ज़ुल्म से भर जाना, ज़ुहूर के लिए आवश्यक जरुरी माहौल की निशानी है, न कि ज़ुल्म ज़ुहूर का कारण है। (अल मीज़ान, भाग 12, पेज 327)

हमें व्यक्तिगत और सामाजिक जिम्मेदारियों में फर्क करना चाहिए। व्यक्तिगत स्तर पर, ग़ैबत के दौर में नही अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) और अम्र बिल मारूफ़ (भलाई का आदेश देना) जरूरी है (आले इमरान: 110)। सामाजिक स्तर पर, ग़ैबत के दौर में न्यायपूर्ण व्यवस्था बनाना ज़ुहूर की तैयारी के लिए अनिवार्य है।

उदाहरण के लिए, इमाम हुसैन (अ) का ज़ुल्म के खिलाफ क़याम ज़ुहूर से पहले के संघर्ष का एक नमूना था।

शहीद मुताहरी ने "इंतेज़ार-ए-फ़आल" का सिद्धांत समझाया है, जहां वे कहते हैं: "इंतेज़ार का मतलब है ज़ुहूर की तैयारी करना, जो ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई के जरिए होता है।" (क़याम व इंक़ेलाब-ए-महदी, पेज 25)

इसी आधार पर, सामाजिक गतिविधियां जैसे न्याय की मांग, नैतिक शिक्षा और भ्रष्टाचार से मुकाबला करना भी इंतेज़ार के उदाहरण हैं।

"नफ़ी ए-सबील" के नियम (सुर ए नेसा की आयत न 141) के अनुसार, इस्लामी समाज की आज़ादी और स्वायत्तता को अत्याचारियों के शासन से बचाना शरई फर्ज़ है।

जैसे कि इमाम सादिक़ (अ) की हदीस है: "مَنْ أَصْبَحَ وَلَا یَهْتَمُّ بِأُمُورِ الْمُسْلِمِینَ فَلَیْسَ بِمُسْلِمٍ मन अस्बहा वला यहतम्मो बेउमूरिल मुस्लेमीना फ़लैसा बेमुस्लेमिन" जो सुबह उठकर मुसलमानों के मामलों की परवाह नहीं करता, वह मुसलमान नहीं है।" (क़ाफी, भाग 2, पेज 164)

इसलिए, ज़ुल्म ज़ुहूर के लिए एक ज़रूरी शर्त है, लेकिन उसे समाप्त करने की जिम्मेदारी मोमेनीन की है।

ज़ुल्म बढ़ने के बावजूद न्याय की स्थापना निश्चित है, इसका मतलब ज़ुल्म को बढ़ावा देना नहीं है। बल्कि यह दिखाता है कि न्याय अनुकूल परिस्थितियों के बावजूद जरूर आएगा।

इमाम खुमैनी (रह) का इस्लामी सरकार की स्थापना का काम भी "ज़ुहूर की तैयारी" माना जाता है।

इसके नतीजे में कहा जा सकता है: ज़ुल्म ज़ुहूर की आवश्यकता के लिए जरुरी माहौल पैदा करता है, लेकिन यही कारण नहीं होता।

ज़ुल्म के खिलाफ लड़ाई इंतजार-ए-फर्ज़ के उदाहरण हैं और चुप रहना गलत है।

न्याय की मांग करने वाले संस्थानों को मजबूत करना (अपने सामर्थ्य के अनुसार) शरई फर्ज़ है।

शहीद सद्र के शब्दों में: "इंतजार, जागरूकता का सार है, नींद का आस्वाद नहीं।" अतः हर ज़ुल्म के खिलाफ क़दम ज़ुहूर की ओर एक कदम है।