رضوی

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आयतुल्लाह फ़क़ीही ने कहा कि उलेमाओं और मोमिनीन की निरंतर ज़ियारतें, मक़बरे से प्रकट होने वाले करामात व मोज्ज़ात, और इस हरम की रूहानी फ़िज़ा इस बात की स्पष्ट निशानी है कि यह बारगाह हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा से मंसूब होना बेबुनियाद नहीं बल्कि दलीलों से मोअय्यद है।

जामिया मुदर्रेसीन हौज़ा ए इल्मिया क़ुम के सदस्य आयतुल्लाह फ़क़ीही ने एक इस्तिफ़्ता के जवाब में इस बात की पुष्टि की है कि ऐतिहासिक रिवायतों और किताब-ए-मक़ातिल के अनुसार, इमाम हुसैन (अ) की एक बेटी हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा के नाम से मशहूर थीं, जिनकी क़ब्र मुताह्हर सीरिया की राजधानी दमिश्क़ में स्थित है। 

उन्होंने कहा कि हालांकि कुछ इतिहासकारों ने इस मुबारक नाम का ज़िक्र विस्तार से नहीं किया है, लेकिन मोतबर मक़ातिल और इतिहास की कुछ रिवायतें इस बात की ताईद करती हैं कि हज़रत सय्यदुश शोहदा (अ) की एक बेटी रुक़य्या नाम की थीं जिन्होंने वाक़ए-ए-करबला के बाद सीरिया के वीरान खंडहर में शहादत पाई। 

आयतुल्लाह फ़क़ीही ने आगे कहा कि उलेमाओं और मोमिनीन की निरंतर ज़ियारतें, मक़बरे से प्रकट होने वाले करामात व मोज्ज़ात, और इस हरम की रूहानी फ़िज़ा इस बात की स्पष्ट निशानी है कि यह बारगाह, हज़रत रुक़य्या सलामुल्लाह अलैहा से मंसूब होना बेबुनियाद नहीं बल्कि दलीलों से मोअय्यद है। 

उन्होंने दुआ की कि ख़ुदावंद-ए-मुतआल हमें दुनिया में उनकी ज़ियारत और क़यामत के दिन उनकी शफ़ाअत फ़रमाए।

 

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन दरगाही ने कहा: इमाम हुसैन (अ) की बेटी हज़रत रुकय्या (स) ने आशूरा की घटना के बाद असहनीय कष्टों को सहन करके आशूरा के संदेश को जीवित रखने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई और समाज के जागरण के माध्यम से एक बड़ी सफलता हासिल की।

हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लेमीन मीसम दरगाही ने हज़रत रुक़य्या (स) की शहादत के अवसर पर कहा: हज़रत रुक़य्या (स) का नाम "रुक़य्या" शब्द "रुकी" से लिया गया है जिसका अर्थ है उन्नति और प्रगति।

उन्होंने कहा: कुछ स्रोतों के अनुसार, यह संभव है कि उनका असली नाम फ़ातिमा था और "रुक़य्या" उनकी उपाधि थी। चूँकि इमाम हुसैन (अ) की बेटियों में "रुक़य्या" नाम का ज़िक्र कम ही होता है, इस महान महिला का असली महत्व आशूरा के क़याम में उनके अद्वितीय प्रभाव में है।

हौज़ा ए इल्मिया खुरासान के निदेशक ने कहा: हज़रत रुक़य्या (स) ने ऐसी महान सफलता प्राप्त की जो आज भी हृदय में व्याप्त है।

हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन दरगाही ने कहा: वास्तव में, इमाम हुसैन (अ) के क़याम में करुणा और भावनाओं के तत्व को समाज के जागरण के लिए एक अत्यंत प्रभावी तत्व माना जाता है।

उन्होंने आगे कहा: भावनाएँ मौन और मृत प्रकृति को पुनर्जीवित और जागृत कर सकती हैं। इसलिए, हज़रत सय्यद उश-शोहदा (अ) ने अपने विद्रोह में इस बहुमूल्य संसाधन का उपयोग किया। कैदी कारवान के प्रत्येक व्यक्ति ने अपने-अपने स्थान पर उपदेशों, मरसीयो और कथनों के माध्यम से आशूरा की घटना के तथ्यों को स्पष्ट और प्रकाशित किया।

 

हिज़्बुल्लाह महासचिव ने अपने भाषण में कहा: "जो कोई भी आज हिज़्बुल्लाह से हथियार डालने की माँग कर रहा है, दरअसल वह चाहता है कि ये हथियार इज़राइल को सौंप दिए जाएँ; हममें से किसी को भी शांति या आत्मसमर्पण की बात नहीं करनी चाहिए।"

हिज़्बुल्लाह महासचिव शेख नईम क़ासिम ने प्रसिद्ध कमांडर, शहीद फ़वाद शकर की पहली बरसी पर बोलते हुए कहा: फ़वाद शकर ने 1982 से पहले "कॉवेनेंट ग्रुप" नामक 10 मुजाहिदीनों का एक समूह बनाया था, जिसने इज़राइल से लड़ने और हमेशा अग्रिम मोर्चे पर मौजूद रहने का संकल्प लिया था। इस समूह के 9 सदस्यों की शहादत के बाद, फ़वाद शकर ने 35 वर्षों तक शहादत का इंतज़ार किया।

शेख नईम ने कहा कि फ़वाद शकर इमाम खुमैनी के गहरे भक्त थे और उनकी मृत्यु के बाद, वे इस्लामी क्रांति के नेता, इमाम ख़ामेनेई के अनुयायी बन गए। वह हिज़्बुल्लाह के संस्थापकों में से एक और शुरुआती सैन्य कमांडरों में से एक थे।

उन्होंने आगे बताया कि शहीद अब्बास अल-मूसवी की शहादत के बाद फ़वाद शकर ने कुफ़्रा और यतीर की लड़ाइयों का नेतृत्व किया। जब हिज़्बुल्लाह ने बोस्निया में मुजाहिदीन भेजने का फ़ैसला किया, तो उनका नेतृत्व भी उन्हें ही सौंपा गया। वह हिज़्बुल्लाह की नौसैनिक इकाई के संस्थापक भी थे।

शेख नईम क़ासिम के अनुसार, फ़वाद शकर युद्ध मोर्चे के रणनीतिक और कमान केंद्र में एक महत्वपूर्ण पद पर थे और सय्यद हसन नसरुल्लाह की शहादत तक उनके लगातार संपर्क में थे। वह न केवल लोगों के बीच रहते थे, बल्कि एक अद्वितीय रणनीतिकार भी थे।

उन्होंने आगे कहा: हम शहीद इस्माइल हनिया को भी श्रद्धांजलि देते हैं, जिन्होंने फ़िलिस्तीन का झंडा बुलंद किया और इस मुद्दे को दुनिया की पहली प्राथमिकता बनाया।

ज़ायोनी अपराधों की निंदा करते हुए उन्होंने कहा कि इज़राइल और संयुक्त राज्य अमेरिका हर दिन ग़ज़्ज़ा में संगठित और जानबूझकर अपराध कर रहे हैं। आज की दुनिया में इज़राइली क्रूरता और बर्बरता का कोई उदाहरण नहीं है, और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को इज़राइल के खिलाफ एकजुट होना चाहिए ताकि मानवता के खिलाफ यह क्रूरता बंद हो।

शेख नईम क़ासिम ने फ़िलिस्तीन समर्थक लेबनानी कैदी जॉर्ज अब्दुल्लाह को भी सलाम किया, जो 41 साल से जेल में हैं लेकिन अपने विचारों से कभी पीछे नहीं हटे। उन्होंने कहा कि जॉर्ज अब्दुल्लाह भी प्रतिरोध के इतिहास का हिस्सा हैं।

शेख नईम ने कहा: "लेबनान में प्रतिरोध ने साबित कर दिया है कि यह एक स्थिर राज्य की स्थापना का आधार है। हम दो मोर्चों पर काम कर रहे हैं: पहला दुश्मन से मुक्ति और दूसरा जनभागीदारी के माध्यम से एक मजबूत राज्य का निर्माण। हमारा प्रतिरोध केवल प्रतीकात्मक नहीं है, बल्कि सेना, जनता और प्रतिरोध की एक त्रि-आयामी व्यावहारिक शक्ति है।"

उन्होंने आगे कहा: "युद्धविराम समझौता लेबनान और इज़राइल दोनों के लिए एक सफलता थी। हमने सरकार की मदद की ताकि इसे दक्षिणी लेबनान में लागू किया जा सके। अगर कोई युद्धविराम को आत्मसमर्पण से जोड़ता है, तो उन्हें बता दें कि यह एक आंतरिक मामला है।"

शेख नईम क़ा्सिम ने स्पष्ट शब्दों में कहा: "उन्हें लगा कि हिज़्बुल्लाह कमज़ोर हो गया है, लेकिन शहीदों के अंतिम संस्कार में जनता की भागीदारी, हमारी राजनीतिक उपस्थिति और स्थानीय चुनावों में हमारी मज़बूती ने दुश्मन को चौंका दिया। हिज़्बुल्लाह अभी भी राजनीतिक और सामाजिक रूप से मज़बूत है।"

उन्होंने कहा: "प्रतिरोधक हथियार लेबनान से जुड़े हैं, इज़राइल से नहीं। अमेरिकी प्रतिनिधि होचस्टीन ने इज़राइल को युद्धविराम का आश्वासन दिया, और वर्तमान अमेरिकी प्रतिनिधि, ताम बराक, लेबनान के इस रुख़ से हैरान थे कि हम युद्धविराम से पहले हथियारों पर बात करने को तैयार नहीं हैं।"

शेख नईम ने आगे कहा: "इज़राइल पाँच कब्ज़े वाले क्षेत्रों तक ही सीमित नहीं रहेगा, वह प्रतिरोध को निरस्त्र करने और और ज़्यादा कब्ज़े और बस्तियाँ बनाने की कोशिश करेगा। हमने सीरिया में देखा है कि कैसे दुश्मन बमबारी और नरसंहार के ज़रिए सीमाओं और भविष्य का निर्धारण करता है।"

उन्होंने चेतावनी दी कि लेबनान आज इज़राइल, आईएसआईएस और अमेरिका की नई मध्य पूर्व योजना से अस्तित्व के लिए ख़तरा है।

उन्होंने ज़ोर देकर कहा: "हम लेबनान को इज़राइल का हिस्सा कभी नहीं बनने देंगे, चाहे पूरी दुनिया इस पर सहमत हो जाए। हम अपनी आखिरी साँस तक इसका विरोध करेंगे। जो लोग हथियार सौंपने की बात करते हैं, वे असल में इज़राइल के हाथ मज़बूत करना चाहते हैं।"

उन्होंने स्पष्ट किया: "हम अपनी मातृभूमि की रक्षा करेंगे, भले ही हममें से कई शहीद हो जाएँ, लेकिन हम दुश्मन के आक्रमण को बर्दाश्त नहीं करेंगे। हम कोई धमकी नहीं दे रहे हैं, बल्कि रक्षात्मक रुख़ अपना रहे हैं, और हमारी रक्षा को किसी सीमा या बंधन की ज़रूरत नहीं है, चाहे इसके लिए हमें अपनी जान ही क्यों न देनी पड़े।"

उन्होंने सरकार से आह्वान किया: "हमलों को रोकने और देश के पुनर्निर्माण की दो बुनियादी ज़िम्मेदारियाँ उठाएँ, भले ही यह अपने ख़ज़ाने से ही क्यों न हो। जो कोई भी लेबनान के अंदर या बाहर हथियारों की वापसी की माँग करता है, वह इज़राइली योजना का सहयोगी है।"

अंत में, उन्होंने कहा: "पहले आक्रमण रोकें, इज़राइल को पीछे हटने दें और कैदियों को वापस आने दें, फिर आकर हमसे बात करें। हम संप्रभुता, स्वतंत्रता और स्वतंत्र निर्णयों में विश्वास करते हैं। सरकार को आक्रमण के विरुद्ध दृढ़ रहना चाहिए, देश का निर्माण करना चाहिए और देशद्रोही तत्वों को रोकना चाहिए।"

उन्होंने नारा लगाया: "आइए हम सब मिलकर यह नारा लगाएँ: 'अपनी एकता से, इज़राइल को खदेड़ें और अपनी मातृभूमि का पुनर्निर्माण करें!' हम इस बारे में बात करने के लिए तैयार हैं कि कैसे ये हथियार लेबनान की ताकत बन सकते हैं, लेकिन हम इन्हें इज़राइल को कभी नहीं देंगे। चाहे पूरी दुनिया एकजुट हो जाए और हम सब शहीद हो जाएँ, इज़राइल लेबनान को बंधक नहीं बना सकता।"

 

 

मजमआ उलेमा व खुतबा-ए हिंद ने गोदी मीडिया द्वारा रहबर-ए-इंकेलाब इस्लामी की तौहीन पर गहरा दुख और गुस्सा जताते हुए कहा है कि इंडिया टीवी चैनल और हिंदुस्तान टाइम्स ने रहबर-ए-मुअज़्ज़म हज़रत आयतुल्लाह सैयद अली खामेनाई पर झूठा इल्ज़ाम और तोहमत लगाकर अपनी नीचता और घटिया सोच का सबूत दिया है।

मुम्बई स्थित मजमआ उलमा व खुतबा-ए हिंद ने गोदी मीडिया द्वारा रहबर-ए-इंकेलाब इस्लामी की तौहीन पर गहरा दुख और गुस्सा जताते हुए कहा है कि इंडिया टीवी चैनल और हिंदुस्तान टाइम्स ने रहबर-ए-मुअज़्ज़म हज़रत आयतुल्लाह सैयद अली खामेनाई पर झूठा इल्ज़ाम और तोहमत लगाकर अपनी नीचता और घटिया सोच का सबूत दिया है।

बयान का पूरा मज़मून कुछ इस प्रकार है:

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

इंसाफ और अदल इस दुनिया की सबसे अहम ज़रूरत है जिसका दावा तो सभी करते हैं, लेकिन हक़ीक़ी माईने में अगर कोई इसका अलमबरदार है तो वह रहबर-ए-मुअज़्ज़म हैं यही वजह है कि दुनिया के तमाम ज़ालिमों की नींदें हराम हो चुकी हैं और वह अब नीच और घटिया हरकतें करने लगे हैं।

इसी की एक मिसाल है इंडिया टीवी और हिंदुस्तान टाइम्स जिन्होंने रहबर-ए-मुअज़्ज़म पर इल्ज़ाम लगा कर न सिर्फ़ अपनी बेहूदी और नाकाबिले-बर्दाश्त सोच को उजागर किया है, बल्कि यह भी दिखा दिया है कि अब इनका काम खबर देना नहीं, बल्कि चापलूसी करना और अपनी झुंझलाहट निकालना रह गया है।

मजमआ उलमा व खुतबा मुम्बई ने इस घटिया और निंदनीय हरकत की कड़ी निंदा करते हुए दुनियाभर के तमाम इंसाफ पसंद और अदल पसंद लोगों से अपील की है कि वे इस तौहीन की सख्त मुखालिफत करें और सोशल मीडिया या अन्य माध्यमों से खुलकर इसकी निंदा करें।

 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा न कहा कि दीनदारी और इल्म, ईरानी मिल्लत का वह ताक़तवर तर्क़ीब है जिससे दुश्मन डरता है और शहीद उसी राह में जान फ़िशानी की रौशन मिसाल बने हैं।

मशहद के इमाम जुमा आयतुल्लाह सय्यद अहमद अलम उल हुदा ने मशहद के नौगान इलाक़े में स्थित हुसैनिया अली-ए-अकबरीहा में 12-दिवसीय जंग में शहीद हुए ख़ुरासान रिज़वी प्रांत के 29 शहीदों की याद में आयोजित तक़रीर को संबोधित किया। 

उन्होंने कहा कि दीनदारी और इल्म, ईरानी मिल्लत का वह ताक़तवर तर्क़ीब है जिससे दुश्मन डरता है, और शहीद उसी राह में जान-फ़िशानी की रौशन मिसाल बने हैं।उन्होंने शहीदों को इस्लामी समाज के रौशन सितारे क़रार देते हुए कहा कि उनकी क़ुरबानी ने इंक़िलाब का रास्ता आने वाली नस्लों के लिए रौशन कर दिया। 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा ने क़ुरआन करीम की आयत का हवाला देते हुए कहा,जो लोग राह-ए-ख़ुदा में क़त्ल होते हैं,उन्हें मुर्दा न कहो वह ज़िंदा हैं लेकिन तुम समझते नहीं। उन्होंने शहादत को फ़ना नहीं बल्कि बक़ा का रास्ता बताया। 

उन्होंने शहीदों के अहले ख़ाना को तस्लीयत और मुबारकबाद पेश करते हुए कहा,आपने अपनी सबसे कीमती धन राह-ए-इस्लाम में क़ुरबान किया, और यह क़ुरबानी क़यामत के दिन फ़ख़्र का सबब बनेगी।

उन्होंने हज़रत रुक़य्या (स) की मज़लूमियत और शहीदों के परिवार के दर्द को करबला के ग़म से जोड़ते हुए फ़रमाया कि यह दुख़ भी इलाही तिस्कीन का वसीला है। 

आयतुल्लाह अलम उल हुदा ने ताक़ीद की कि दुश्मन मिल्लत-ए-ईरान से दीन और दानिश को छीनना चाहता है, लेकिन शहीदों ने इन दोनों उसूलों की हिफ़ाज़त के लिए जान दी और उम्मत को इत्तेहाद व इस्तिक़ामत का दर्स दिया।

 

 

जायोनी शासन में "इज़राइल बेतेनू" पार्टी के नेता अविगडोर लिबरमैन ने मंगलवार रात कहा कि 7 अक्टूबर की नाकामी का ज़िम्मेदार वही है जो दुनिया में इज़राइल के बढ़ते राजनीतिक पतन के लिए ज़िम्मेदार है।

अविगडोर लिगरमैन ने ज़ोर देकर कहा कि प्रधानमंत्री बेन्यामीन नेतन्याहू के विध्वंसक कामों की वजह से जायोनी शासन का राजनीतिक पतन तेज़ी से हो रहा है। उन्होंने कहा, "अब अधिक देश फिलिस्तीन नामक एक देश को मान्यता देने पर विचार कर रहे हैं।"

 इस्राइली नेता ने बताया कि ब्रिटेन सहित कई देश फिलिस्तीन को मान्यता देने की योजना बना रहे हैं। उन्होंने कहा, "ब्रिटेन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का एक प्रमुख सदस्य है, और वह फिलिस्तीन को मान्यता देना चाहता है।"

 लिबरमैन के ये बयान ऐसे समय में आए हैं जब कई विशेषज्ञ, खासकर पश्चिमी, इज़राइल की आंतरिक अराजकता का हवाला देते हुए "नेतन्याहू युग के अंत की शुरुआत" और "मक़बूज़ा क्षेत्रों में अभूतपूर्व विभाजन" की बात कर रहे हैं।

 इसी संदर्भ में, लंदन के अखबार द गार्जियन ने अपने नए संस्करण में लिखा: "इज़राइल के लिए असली खतरा बाहरी धमकियां नहीं, बल्कि घरेलू मोर्चे पर थकान और मोहभंग है।"

 प्रकाशित रिपोर्टों और विश्लेषकों की राय से पता चलता है कि ईरान पर हालिया आक्रमण के बाद इज़राइल की सबसे बड़ी विफलता न केवल वैश्विक स्तर पर सैन्य और राजनयिक नुकसान है, बल्कि आंतरिक एकता का टूटना, अविश्वास और अधिकृत क्षेत्रों के भीतर राजनीतिक उथल-पुथल भी है।

 इसी कड़ी में, हिब्रू अखबार कालकलीत ने बताया कि ईरानी मिसाइल हमलों से क्षतिग्रस्त क्षेत्रों के पुनर्निर्माण के लिए नेतन्याहू सरकार की योजना विफल हो गई है। अखबार ने लिखा: "इस्राइली शासन की अंतिम रिपोर्ट का सार यह है कि यह योजना आगे नहीं बढ़ेगी।"

 अख़बार ने आगे कहा कि इसका मतलब यह है कि प्रभावित इज़राइली बस्तीवासियों के पास अब कोई विकल्प नहीं है, और सरकार की ओर से सहायता की अनिश्चितता के कारण वे मुश्किल में फंस गए हैं।

 23 जून 2025 को जायोनी शासन द्वारा ईरान पर हमला किए जाने के बाद, जिसमें सैन्य और असैन्य स्थलों को निशाना बनाया गया और कई कमांडरों, आम नागरिकों और परमाणु वैज्ञानिकों को शहीद किया गया, ईरान ने "वादा-ए-सादिक 3" ऑपरेशन शुरू किया और अधिकृत क्षेत्रों पर सफलतापूर्वक मिसाइल हमले किए, जिससे जायोनियों को भारी नुकसान हुआ।

 

हम इज़राईली अपराधों के खिलाफ चुप नहीं रह सकते ब्राज़ील ने ज़ायोनी सरकार को हथियारों का निर्यात निलंबित करने और दक्षिण अफ्रीका के मामले का समर्थन करने की घोषणा की हैं।

ब्राज़ील ने फिलिस्तीन के गाजा क्षेत्र में जारी ज़ायोनी अपराधों और नरसंहार को देखते हुए इज़राइल पर प्रतिबंध लगाने की घोषणा की है। 

विवरण के अनुसार, ब्राज़ील के विदेश मंत्री मौरो वियेरा ने कहा कि उनका देश इज़राइल द्वारा गाजा में किए जा रहे अत्याचारों के प्रति चुप नहीं रह सकता। 

वियेरा के अनुसार, इन प्रतिबंधों में ब्राज़ील से इज़राइल को युद्ध सामग्री के निर्यात को निलंबित करना शामिल है, जो यह संकेत देता है कि ब्राज़ील अपनी नैतिक और मानवीय जिम्मेदारियों को गंभीरता से ले रहा है। 

मौरो वियेरा ने यह भी स्पष्ट किया कि ब्राज़ील उन सभी उत्पादों की सख्त जाँच करेगा जो अवैध रूप से कब्ज़ाए गए वेस्ट बैंक की ज़ायोनी बस्तियों से आयात किए जाते हैं, ताकि मानवाधिकारों और अंतरराष्ट्रीय कानूनों का उल्लंघन करने वाले उत्पादों की आपूर्ति को रोका जा सके। 

उन्होंने आगे कहा कि ब्राज़ील आधिकारिक तौर पर दक्षिण अफ्रीका द्वारा अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) में इज़राइल के खिलाफ नरसंहार के मामले का समर्थन करता है।

 

उन्होंने कहा कि एक हज़ार साल से शिया समाज में यह भ्रम फैला हुआ है कि नहजुल बलाग़ा एक कठिन किताब है जबकि वास्तविकता यह है कि यह एक सरल और आसान किताब है यहाँ तक कि प्राथमिक स्तर के बच्चे भी इससे लाभ उठा सकते हैं।

नहजुल बलाग़ा वैश्विक मुहिम के प्रमुख हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन हमीदरेज़ा महदवी अरफ़ा ने ईरान के शहर कुरद में आयोजित एक प्रशिक्षण सत्र को संबोधित करते हुए कहा कि नहजुल बलाग़ा पवित्र कुरआन की सर्वश्रेष्ठ व्याख्या और इस्लामी ज्ञान का खजाना है, और इसे आम लोगों के लिए सुलभ बनाने की आवश्यकता है। 

उन्होंने कहा कि एक हज़ार साल से शिया समाज में यह भ्रम फैला हुआ है कि नहजुल बलाग़ा एक कठिन किताब है, जबकि वास्तविकता यह है कि यह एक सरल और आसान किताब है, यहाँ तक कि प्राथमिक स्तर के बच्चे भी इससे लाभ उठा सकते हैं।

हुज्जतुल इस्लाम महदवी अरफ़ा ने जोर देकर कहा कि इस भ्रम को दूर करने के लिए अनुवाद से शुरुआत की जाए, रोज़ाना सिर्फ 10 मिनट का अध्ययन किया जाए, किताब को अंत से शुरू किया जाए, और शुरुआत में सिर्फ सहज पठन पर ही ध्यान दिया जाए।

अंत में उन्होंने कहा कि यदि हम प्रचार के सिद्धांतों के साथ आगे बढ़ें, तो नहजुल बलाग़ा इंसान की बौद्धिक जीवन में पहली प्राथमिकता बन सकता है।

 

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने ईरानी सुप्रीम लीडर का अपमान और मीडिया की गिरती साख से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना  सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा  न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने ईरानी सुप्रीम लीडर का अपमान और मीडिया की गिरती साख से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।  इस बात चीत को अपने प्रिय पाठको के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैः

हाल ही में कुछ मीडिया चैनलों ने रहबर-ए-मुअज़्ज़म के खिलाफ शर्मनाक और झूठे आरोप लगाये हैं। आप इसे किस नज़रिए से देखते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः ये एक सुनियोजित मीडिया हमला है। रहबर-ए-मुअज़्ज़म सिर्फ ईरान के ही नहीं, बल्कि पूरी उम्मत के एक मज़बूत, मुत्तक़ी और मुतफ़क्किर लीडर हैं। उन पर ऐसा आरोप लगाना, सिर्फ झूठ फैलाने की कोशिश नहीं, बल्कि एक सस्ती पब्लिसिटी और सच्चाई पर सीधा हमला है।

क्या आपको लगता है कि इस तरह की रिपोर्टिंग के पीछे कोई वैश्विक एजेंडा है?

मौलाना साजिद रज़वीः बिल्कुल। जब भी कोई मज़हबी लीडर मज़लूमों की आवाज़ बनता है  चाहे वो फ़िलस्तीन हो या कोई दूसरा देश या व्यक्ति  तो साम्राज्यवादी ताक़तें उन्हें बदनाम करने लगती हैं। रहबर की मुख़ालिफ़त दरअसल इस्लामी जागरूकता और इन्क़िलाब से दुश्मनी है।

क्या इस पर कोई क़ानूनी कार्रवाई की जानी चाहिए?

मौलाना साजिद रज़वीः हां, ज़रूर। ये सिर्फ़ तौहीन नहीं, एक अवाम की भावनाओं के साथ खिलवाड़ है। ऐसे चैनलों पर ना सिर्फ़ शिकायत दर्ज होनी चाहिए, बल्कि उनकी साख की समीक्षा भी ज़रूरी है। मीडिया की आज़ादी, झूठ फैलाने की आज़ादी नहीं होती।

इंडिया टीवी की छवि पर इसका क्या असर पड़ा है?

मौलाना साजिद रज़वीः इंडिया टीवी ने पहले ही अपनी साख़ खो दी थी। लेकिन इस हरकत ने साफ़ कर दिया कि ये चैनल अब किसी एजेंडे का हिस्सा बन चुका है। अब लोगों को ख़ुद फ़ैसला करना है कि वो ज़िम्मेदार मीडिया देखना चाहते हैं या बिकाऊ एजेंडे।

आम मुसलमानों और हक़ पसंद लोगों को क्या करना चाहिए?

मौलाना साजिद रज़वीः क़ानूनी कार्रवाई के अलावा सबसे पहले ऐसे झूठे चैनलों का बहिष्कार करें। दूसरा, सोशल मीडिया पर शांति और अक़्लमंदी के साथ सच्चाई को फैलाएं। तीसरा, दुआ और जागरूकता  यही सबसे बड़ा जवाब है ज़ुल्म पर।

क्या आप इस घटना को सिर्फ़ एक तौहीन मानते हैं या इससे आगे कुछ?

मौलाना साजिद रज़वीः ये तौहीन से बढ़कर है  ये एक हक़ को दबाने की कोशिश है। ये हमला हर उस आवाज़ पर है जो मज़लूमों के साथ खड़ी होती है। लेकिन हक़ को दबाया नहीं जा सकता, रहबर की इज्ज़त उनके किरदार से है, मीडिया की नहीं।

 

 क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना सय्यद साजिद रज़वी से हौज़ा न्यूज़ एजेंसी के पत्रकार ने अरबईन हुसैनी से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।

क़ुम अल मुक़द्देसा मे रहने वाले भारतीय शिया धर्मगुरू, कुरआन और हदीस के रिसर्चर मौलाना  सय्यद साजिद रज़वी ने अरबईन हुसैनी से संबंधित विषय पर विशेष बातचीत की।  इस बात चीत को अपने प्रिय पाठको के लिए प्रस्तुत किया जा रहा हैः

अरबईन क्या है? इसे चेहलुम क्यों कहते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन का मतलब होता है ‘चालीसवां दिन’। यह इमाम हुसैन (अ) और उनके वफादार साथियों की शहादत के चालीसवें दिन मनाया जाता है। कर्बला की जंग 10 मुहर्रम को हुई थी और उससे 40 दिन बाद 20 सफर को यह दिन आता है। यह केवल एक तारीख नहीं, बल्कि ज़ुल्म के खिलाफ़ आवाज़ और इंसाफ़ की जिंदा पहचान है।

अरबईन मनाने की शुरुआत कब और कैसे हुई?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन की शुरुआत उस वक़्त हुई जब कर्बला से कैद होकर गए इमाम अली इब्न हुसैन (सैयदे सज्जाद) और बीबी ज़ैनब (स.)  और आपका लुटा हुआ क़ाफ़ेला कैदखाना ए शाम से रेहा हुआ और  ये लुटा हुआ क़ाफ़ेला 20 सफर को कर्बला पहुँचा। वहीं पर पहले ज़ायर हज़रत जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह अंसारी भी कर्बला आए थे। यह दिन तब से इमाम हुसैन (अ.) की ज़ियारत और याद का मखसूस  दिन बन गया।

अरबईन की फज़ीलत क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः इमाम हसन अस्करी (अ.) से रिवायत है:
"हमारे शिया की पहचान पाँच चीजों से होती है, उनमें से एक है अरबईन की ज़ियारत।"
(मिस्बाहुल मुतहज्जिद, शेख तूसी)
अरबईन इमाम हुसैन (अ.) की कुर्बानी की दुनिया भर में याद है, जो ज़ुल्म, नाइंसाफी और बर्बरता के खिलाफ खड़ा होने की ताक़त देती है।

क्या अरबईन की पैदल ज़ियारत का कोई इतिहास भी है या ये हाल की शुरू की गई रस्म है?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन की पैदल ज़ियारत का सिलसिला नया नहीं, बहुत पुराना है। इसकी जड़े जाबिर बिन अब्दुल्लाह अंसारी (र.अ.) तक जाती हैं, जो पहले ज़ायरीन में से हैं जिन्होंने 20 सफर को कर्बला में हाज़िरी दी।
हर दौर में मुख्तलिफ़ शक्लों में ये सिलसिला जारी रहा  खामोशी से, मौत के साआए में या खुलकर।
आज जो हुजूम है, वो उसी सच्ची मुहब्बत का मुसलसल सफ़र है।

अरबईन का पैग़ाम आज के इंसान के लिए क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः "ज़ालिम चाहे कितना भी ताक़तवर हो, आख़िर हारेगा; और हक़ हमेशा जीतेगा।"
यह सबक़ है हिम्मत, इंसाफ़, इख़लास, और बलिदान का।
यह बताता है कि चुप्पी भी ज़ुल्म का साथ है  और अगर हुसैनी बनना है, तो आवाज़ उठानी होगी।

अरबईन कैसे मनाना चाहिए?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन कोई रस्म नहीं  यह इबादत है। इसे मनाने के सही तरीके हैं:

इमाम की याद में मजलिस करना

उनके पैग़ाम को समझना

पैदल ज़ियारत (अगर मुमकिन हो)

ग़रीबों की मदद

और सबसे अहम  हुसैनी अख़लाक़ को अपनाना और अपने अंदर उतार लेना।
अरबईन का जहानी (अंतरराष्ट्रीय) पहलू क्या है?

मौलाना साजिद रज़वीः अरबईन अब एक ग्लोबल इवेंट है। हर साल 100 से ज्यादा देशों से लोग कर्बला आते हैं  ईरान, भारत, पाकिस्तान, लेबनान, अमेरिका, यूरोप, अफ्रीका, जापान और ऑस्ट्रेलिया तक से। यह यात्रा बताती है कि इमाम हुसैन (अ.) का पैग़ाम सिर्फ़ एक क़ौम नहीं, पूरी इंसानियत के लिए है।

क्या दूसरे धर्मों के लोग भी अरबईन में शामिल होते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः जी हाँ। हिंदू, ईसाई, सिख, जैन और यहां तक कि नास्तिक (atheists) लोग भी अरबईन में शरीक होते हैं।

हिंदू इमाम हुसैन (अ.) को धर्म की रक्षा के लिए बलिदान देने वाला मानते हैं।

ईसाई उन्हें "Jesus-like sacrifice" का प्रतीक समझते हैं।
अरबईन मज़हबी सीमाओं को पार कर इंसानियत के इत्तेहाद की आवाज़ है।

अरबईन में शरीक होने वालों के क्या तास्सुरात होते हैं?

मौलाना साजिद रज़वीः बहुत सारे अरबईन से लौटने वाले कहते हैं:

"हमने अपने अंदर सब कुछ बदलते हुए महसूस किया"

"यह सफर नहीं, एक रूहानी क्रांति थी"

"इमाम हुसैन (अ.) की याद ने हमारी ज़िंदगी का मक़सद बदल दिया"
अरबईन का असर दिलों पर ऐसा होता है कि हर ज़ायर हक़ और इंसाफ़ का पैरोकार बनकर लौटता है।

सद्दाम हुसैन के दौर में और आज के अरबईन में क्या फर्क है?

मौलाना साजिद रज़वीः सद्दाम के दौर में ज़ियारत-ए-हुसैन (अ.) एक जुर्म थी। पैदल चलना तो दूर, कर्बला जाना भी मौत को दावत देना था। फ़ौजी पहरे, गिरफ़्तारियाँ और सज़ा-ए-मौत तक का ख़तरा हर मोड़ पर होता था। लेकिन इश्क़-ए-हुसैन (अ.) के दीवाने तब भी किसी तरह, जान हथेली पर रखकर ज़ियारत करते थे।

आज वही इराक़ अरबईन का मर्कज़ है। हर साल करोड़ों ज़ायरीन दुनिया भर से कर्बला पहुंचते हैं। और इराक़ी अवाम की मेहमाननवाज़ी ऐसा एहसास देती है कि जैसे जन्नत ज़मीन पर उतर आई हो। कोई खाना पेश करता है, कोई पानी, कोई ज़ायरीन के पाँव दबाता है। हर सेवा एक इबादत बन चुकी है।

जो ज़ियारत कल खामोशी से होती थी, आज "लब्बैक या हुसैन" की गूंज के साथ खुलेआम होती है। यह है हुसैनी पैग़ाम की ताक़त  जो हर दौर की बंदिशों को तोड़ती चली आई है