رضوی

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ग़ज़्ज़ा में 8 महीने से लगातार क़त्ले आम में लगी ज़ायोनी सेना को अमेरिका से भरपूर सैन्य सहायता मिल रही है। वहीँ भारत की ओर से भी हथियार आपूर्ति की खबरों के बीच इस्राईल को भारतीय गोला बारूद की खबरों पर भारत में भारी वबाल हुआ था। अब ऐसी ही एक खबर सामने आ रही है जिस से एक बार फिर हंगामा मचना तय है।

अतिक्रमणकारी ज़ायोनी सेना ने हाल ही में ग़ज़्ज़ा में संयुक्‍त राष्‍ट्र की ओर से संचालित स्‍कूल पर मिसाइल हमले किए थे। अब दावा किया जा रहा है कि इस हमले में ज़ायोनी सेना ने भारत में बनी मिसाइल का इस्‍तेमाल किया था। इस मिसाइल का एक वीडियो वायरल हो गया है।

फिलिस्तीन की कुद्स न्‍यूज की रिपोर्ट के मुताबिक इस मिसाइल का अवशेष मिला है और उस पर 'मेड इन इंडिया' लिखा हुआ है। इससे सोशल मीडिया में बवाल मचा हुआ है। बताया जा रहा है कि ज़ायोनी सेना ने यह हमला 6 जून को किया था। इससे पहले भारत के अवैध राष्ट्र इस्राईल को विस्‍फोटक भेजने पर भी बवाल मचा था।

नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में केंद्र में सरकार गठन से पहले ही एनडीए गठबंधन के अहम् दल टीडीपी के नेता ने बड़ा बयान देते हुए कहा है कि मुस्लिम आरक्षण जारी रहेगा।

टीडीपी नेता ने कहा कि आंध्र प्रदेश में मुस्लिम आरक्षण जारी रखेगा, इसमें कोई समस्या नहीं है। टीडीपी नेता रविंद्र कुमार ने कहा कि एनडीए की दूसरी बैठक में सहयोगी दलों से कुछ सहायता ली जाएगी। उन्होंने कहा कि आंध्र प्रदेश का पुनर्निर्माण किया जाएगा, क्योंकि यह 25 साल पीछे जा चुका है।

फिलिस्तीन की आज़ादी के लिए सशस्त्र आंदोलन हमास के ग़ज़्ज़ा प्रमुख याह्या अल सिनवार ने वार्ताकार टीम के माध्यम से साफ़ शब्दों में कहा है कि स्थायी संघर्ष विराम के अलावा हम किसी भी स्थिति में संघर्ष रोके जाने के पक्ष में नहीं हैं।

वॉल स्ट्रीट जर्नल ने कहा कि ग़ज़्ज़ा में हमास के नेता ने अरब वार्ताकारों को सूचित किया है कि वह बाइडन के प्रस्ताव को तब तक स्वीकार नहीं करेंगे जब तक कि "इस्राईल" स्थायी युद्धविराम के लिए प्रतिबद्ध न हो।

सिनवार ने अपने छोटे से संदेश में स्पष्ट रूप से कहा है  कि जब तक यहाँ स्थायी युद्ध विराम न हो, तब तक न तो हमास सशत्र संघर्ष का रास्ता छोड़ेगा और न ही इस्राईल के साथ किसी शांति समझौते पर हस्ताक्षर करेगा।

 

शुक्रवार, 07 जून 2024 06:48

इमाम मौ. तक़ी अलैहिस्सलाम

इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था.

ईश्वरीय दायित्व के उचित ढंग से निर्वाह के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक ने अपने काल में हर कार्य के लिए तार्किक और प्रशंसनीय नीति अपनाता था ताकि ईश्वरीय मार्गदर्शन जैसे अपने दायित्व का निर्वाह उचित ढंग से किया जा सके।

इन महापुरूषों के जीवन में ईश्वर पर केन्द्रियता उनका मूल मंत्र रही। इस प्रकार न्याय को लागू करने, ईश्वर के बिना किसी अन्य की दासता से मनुष्यों को मुक्ति दिलाने और व्यक्तिगत एवं समाजिक संबन्धों में सुधार जैसे विषयों पर उनका विशेष ध्यान था।

यद्यपि यह महापुरूष बहुत छोटे और सीमित कालखण्ड में ही सरकार के गठन में सफल रहे किंतु उनकी दृष्टि में न्याय को स्थापित करने, अधिकारों को दिलवाने, अन्याय को समाप्त करने और ईश्वर के धर्म को फैलाने जैसे कार्य के लिए सत्ता एक माध्यम है। क्योंकि यह महापुरूष अपनी करनी तथा कथनी में मानवता और नैतिक मूल्यों का उदाहरण थे अतः वे लोगों के हृदयों पर राज किया करते थे। रजब जैसे अनुकंपाओं वाले महीने की दसवीं तारीख़, पैग़म्बरे इस्लाम के एक परिजन के शुभ जन्मदिवस से सुसज्जित है।

आज के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के एसे परिजन का जन्म दिवस है जो दान-दक्षिणा के कारण जवाद के उपनाम से जाने जाते थे। जवाब का अर्थ होता है अतिदानी। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी क़मरी को मदीना नगर में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, वाकपटुता तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था। वे बचपन से ही ज्ञान, तत्वदर्शिता, शालीनता और अन्य विशेषताओं में अद्वितीय थे।

इमाम मुहम्मद तक़ी के ईश्वरीय मार्गदर्शन के काल में अब्बासी शासन के दो शासक गुज़रे मामून और मोतसिम। क्योंकि अब्बासी शासक, इस्लामी शिक्षाओं को लागू करने में गंभीर नहीं थे और वे केवल "ज़वाहिर" को ही देखते थे अतः यह शासक, धर्म के नियमों में परिवर्तन करने और उसमें नई बातें डालने के लिए प्रयासरत रहते थे। इस प्रकार के व्यवहार के मुक़ाबले में इमाम जवाद (अ) की प्रतिक्रियाओं और उनके विरोध के कारण व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और यही विषय, अब्बासी शासन की ओर से इमाम और उनके अनुयाइयों को पीडि़त किये जाने का कारण बना।

पैग़म्बरे इस्लाम के अन्य परिजनों की ही भांति इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम, अब्बासी शासकों के अत्याचारों और जनता को धोखा देने वाली उनकी कार्यवाहियों के मुक़ाबले में शांत नहीं बैठते और कठिनतम परिस्थितियों में भी जनता के समक्ष वास्तविकताओं को स्पष्ट किया करते थे। अत्याचार के मुक़ाबले में इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की दृढ़ता और वीरता, साथ ही उनकी वाकपुटा कुछ इस प्रकार थी जिसको सहन करने की शक्ति अब्बासी शासकों में नहीं थी। यही कारण है कि इन दुष्टों ने मात्र २५ वर्ष की आयु में इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को शहीद करवा दिया।इमाम जवाद अलैहिस्सलाम के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रयासों के आयामों में से एक, पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों के उन विश्वसनीय कथनों को प्रस्तुत करना और उन गूढ़ धार्मिक विषयों को पेश करना था जिनपर उन लोगों ने विभिन्न आयाम से प्रकाश डाला था।

इमाम जवाद अलैहिस्लाम एक ओर तो पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों के कथनों का वर्णन करते हुए समाज में धर्म की जीवनदाई संस्कृति और धार्मिक शिक्षाओं को प्रचलित कर रहे थे तो दूसरी ओर समय की आवश्यकता के अनुसार तथा जनता की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक क्षमता के अनुरूप विभिन्न विषयों पर भाषण दिया करते थे। ईश्वरीय आदेशों को लागू करने के लिए इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का एक उपाय या कार्य, पवित्र क़ुरआन और लोगों के बीच संपर्क स्थापित करना था।

उनका मानना था कि क़ुरआन की आयतों को समाज में प्रचलित किया जाए और मुसलमानों को अपनी कथनी-करनी और व्यवहार में पवित्र क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं से लाभान्वित होना चाहिए। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम ईश्वरीय इच्छा की प्राप्ति को लोक-परलोक में कल्याण की चाबी मानते थे। वे पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं के आधार पर इस बात पर बल दिया करते थे कि ईश्वर की प्रसन्नता हर वस्तु से सर्वोपरि है। ईश्वर सूरए तौबा की ७२वीं आयत में अपनी इच्छा को मोमिनों के लिए हर चीज़, यहां तक स्वर्ग से भी से बड़ा बताता है। इसी आधार पर इमाम नक़ी अलैहिस्सलाम लोगों से कहते थे कि वे केवल ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के बारे में सोच-विचार करें और इस संदर्भ में वे अपने मार्गदर्शन प्रस्तुत करते थे। अपने मूल्यवान कथन में एक स्थान पर इमाम जवाद कहते हैं-तीन चीज़े ईश्वर की प्रसन्नता का कारण बनती हैं। पहले, ईश्वर से अधिक से अधिक प्रायश्यित करना दूसरे कृपालू होना और तीसरे अधिक दान देना।ईश्वरीय की ओर से मनुष्य को प्रदान की गई अनुकंपाओं में से एक अनुकंपा, प्रायश्यित अर्थात अपने पापों के प्रति ईश्वर से क्षमा मांगना है।

प्रायश्चित, ईश्वर के दासों के लिए ईश्वर की अनुकंपाओं के द्वार में से एक है। ईश्वर से पापों का प्रायश्चित करने से पिछले पाप मिट जाते हैं और इससे मनुष्य को इस बात का पुनः सुअवसर प्राप्त होता है कि वह विगत की क्षतिपूर्ति करते हुए उचित कार्य करे और अपनी आत्मा को पवित्र एवं कोमल बनाए। इसी तर्क के आधार पर मनुष्य को तौबा या प्रायश्चित करने में विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पछतावा ही हाथ आता है। इस्तेग़फ़ार का अर्थ है क्षमाचायना और पश्चाताप।

इससे तात्पर्य यह है कि मनुष्य ईश्वर से चाहता है कि वह उसके पापों को क्षमा कर दे और उसे अपनी कृपा का पात्र बनाए। इस संबन्ध में हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैं कि धरती पर ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहने के केवल दो ही मार्ग थे। इन दोनों में से एक पैग़म्बरे इस्लाम का असितत्व था जो उनके स्वर्गवास के साथ हटा लिया गया किंतु दूसरा मार्ग प्रायश्यित है जो सबके लिए प्रलय के दिन तक मौजूद है अतः उससे लौ लगाओ और उसे पकड़ लो। प्रायश्चित, लोक-परलोक के उस प्रकोप को मनुष्य से दूर कर सकता है जो उसके बुरे कर्मों की स्वभाविक प्रतिक्रिया हैं इस प्रकार इमाम नक़ी के कथनानुसार मानव ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त कर सकता है। पवित्र क़ुरआन की आयतों की छाया में प्रायश्चित के महत्वपूर्ण प्रभावों में ईश्वरीय प्रकोप से सुरक्षित रहना, पापों का प्रायश्चित, आजीविका में वृद्धि, संपन्नता तथा आयु में वृद्धि की ओर संकेत किया जा सकता है।

इमाम जवाद के अनुसार शालीतना उन अन्य उपायों में से है जिसके माध्यम से ईश्वरीय प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है।उसके पश्चात दूसरे और तीसरे भाग में मनुष्य को लोगों के साथ संपर्क के ढंग से परिचित कराते हैं। दूसरे शब्दों में ईश्वर को प्रसन्न करने का मार्ग ईश्वर के बंदों और उनकी सेवा से गुज़रता है। इस संपर्क को विनम्रता और दयालुता के साथ होना चाहिए।

निश्चित रूप से विनम्र व्यवहार विनम्रता का कारण बनता है जो मानव को घमण्ड से दूर रखता है। घमण्ड, दूसरों पर अत्याचार का कारण होता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम अपने भाषण के अन्तिम भाग में ईश्वर की प्रसन्नता प्राप्त करने के तीसरे कारण को दान-दक्षिणा के रूप में परिचित करवाते हैं। स्वयं वे इस मानवीय विशेषता के प्रतीक थे। इसी आधार पर उन्हें जवाद अर्थात अत्यधिक दानी के नाम से जाना जाता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम लोगों को उस मार्ग का निमंत्रण देते थे जिसे उन्होंने स्वयं भी तय किया और उसके बहुत से प्रभावों को ईश्वर की कृपादृष्टि को आकृष्ट करने में अनुभव किया। दूसरों को सदक़ा या दान देने का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में बहुत से स्थान पर ईश्वर की प्रार्थना अर्थात नमाज़ के साथ किया गया है। इस प्रकार इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि ईश्वर की उपासना के दो प्रमुख पंख हैं। इनमें से एक ईश्वर के साथ सही एवं विनम्रतापूर्ण संबन्ध और दूसरा लोगों के साथ मधुर एवं विनम्रतापूर्ण व्यवहार है। यह कार्य दान से ही संभव होता है जिससे व्यक्ति ईश्वर की इच्छा प्राप्त कर सकात है।

मनुष्य अपनी संपत्ति में से जिस मात्रा में भी चाहे ईश्वर के मार्ग में वंचितों को दान कर सकता है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि दान-दक्षिणा में संतुलन होना चाहिए। एसा न हो कि यह मनुष्य के लिए निर्धन्ता का कारण बने। दान और परोपकार हर स्थिति में विशेषकर धन-दौलत का दान उन कार्यों में से एक है जो मनुष्य को ईश्वर की प्रसन्नता की ओर बढ़ाता है। क्योंकि मनुष्य के पास जो कुछ है उसे वह ईश्वर के मार्ग में दान दे सकता है। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के भौतिक लगाव को त्यागते हुए केवल ईश्वर की प्रशंसा की प्राप्ति चाहते हैं।इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के एक कथन से इस लेख का अंत कर रहे हैं।

जैसा कि आप जानते हैं कि बहुत से लोग धन-दौलत, सत्ता, जातिवाद तथा इसी प्रकार की बातों को गर्व और महानता का कारण मानते हैं तथा जिन लोगों में यह चीज़ें नहीं पाई जातीं उन्हें वे तुच्छ समझते हैं किंतु इमाम जवाद अलैहिस्सलाम वास्तविक शालीनता का कारण उस ज्ञान को मानते हैं जो व्यक्ति के भीतर निखार का कारण बने। वे महानता को आध्यात्मिक विशेषताओं में से मानते हैं।

एक स्थान पर आप कहते हैं-वास्तविक सज्जन वह व्यक्ति है जो ज्ञान से सुसज्जित हो और वास्तविक महानता उसी के लिए है जो ईश्वरीय भय और ईश्वरीय पहचान के मार्ग को अपनाए।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की तरह हमारे आइम्मा अलैहिमुस्सलाम भी लोगों की तालीमो तर्बियत मे हमेशा कोशीश करते रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का तरीकाऐ तालीम और तरबियत को तालीमी और तरबियती इदारो की सरगर्मियों पर क्यास नहीं किया जा सकता है। तालीमी इदारे खास औक़ात में तालीम देते हैं और बकीया औकात मोअत्तल रहते हैं। लेकिन आइम्मा अलैहेमुस्सलाम की तालीमो तरबियत के लिये कोई खास वक्त मोअय्यन नहीं था। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम लोगों की तालीमो तरबियत मे मसरूफ रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का हर गोशा , उन की रफ्तारो गुफ्तार , अवाम की तर्बियत का बेहतरीन ज़रिया था। जब भी कोई मुलाक़ात का शरफ हासिल करता था। वो आइम्मा के किरदार से फायदा हासिल करता था और मजलिस से कुछ न कुछ ले कर उठता था। अगर कोई सवाल करना चाहता था तो उसका जवाब दिया जाता था।

वाज़ेह रहे कि इस तरह का कोई मदरसा दुनिया मे कहीं मौजूद नहीं है। इस तरह का मदरसा तो सिर्फ अम्बिया अलैहेमुस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है ज़ाहिर सी बात है कि इस तरह के मदरसे के असारात फायदे और नताएज बहुत ज़्यादा ताज्जुब खैज़ हैं। बनी अब्बास के खलीफा ये जानते थे कि अगर अवाम को इस मदरसा की खुसूसियात का इल्म हो गया और वो उस तरफ मुतावज्जेह हो गए तो वो खुद-बखुद आइम्मा अलैहिमुस्सलाम की तरफ खिंचते चले जाएगे और इस सूरत मे ग़ासिबों की हुकूमत खतरो से दो-चार हो जाएगी। इस लिये खलीफा हमेशा ये कोशिश करते रहे कि अवाम को आइम्मा अलैहेमुस्सलाम को दूर रखा जाए और उन्हे नज़्दीक न होने दिया जाए। सिर्फ इमाम मौहम्मद बाक़िर (अ.स) के ज़माने मे जब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की हुकूमत थी और इमाम जाफर सादिक़ (अ.स) के इब्तेदाई दौर में जब बनी उमय्या और बनी अब्बास आपस मे लड़ रहे थे और बनी अब्बास ने ताज़ा ताज़ा हुकूमत हासिल की थी और हुकूमत मुस्तहकम नहीं हुई थी। उस वक्त अवाम को इतना मौका मिल गया कि वो आज़ादी से अहलेबैत से इस्तेफादा कर सकें। लेहाज़ा हम देखते हैं कि इस मुख्तसर सी मुद्दत में शागिर्दों और रावियों की तादाद चार हज़ार तक पहुंच गयी।

( रेजाल शैख तूसी , पेज न 142 , 342 )

लेकिन इसके अलावा बक़िया आइम्मा के ज़मानो मे शागिर्दों की तादाद बहुत कम नज़र आती है। मसलन इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के शागिर्दों और रावियों की तादाद 110 है।

(रेजाल शैख तूसी , पेज न. 397 , 409)

इससे ये पता चलता है कि इस दौर मे अवाम को इमाम (अ.स) से कितना दूर रखा जाता था। लेकिन इस मुख्तसर सी तादाद में भी नुमाया अफराद नज़र आते हैं। यहा नमूने के तौर पर चन्द का ज़िक्र करते हैः

अली बिन महज़ियार

इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और इमाम के वकील थे। आप का शुमार इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम अली नक़ी (अ.स) के असहाब मे भी होता है। बहुत ज़्यादा इबादत करते थे , सजदे की बना पर पूरी पेशानी पर घट्टे पड़ गए थे। तोलूवे आफताब के वक्त सर सजदे मे रखते और जब तक एक हज़ार मोमिनो के लिये दुआ न कर लेते थे। उस वक्त तक सर ना उठाते थे। और जो दुआ अपने लिये करते थे वही उन के लिये भी।

अली बिन महज़ियार अहवाज़ मे रहते थे , आप ने 30 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं।

ईमानो अमल के उस बुलन्द मर्तबे पर फाएज़ थे कि एक मर्तबा इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आप की कद्रदानी करते हुए आप को एक खत लिखाः

बिसमिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम

ऐ अली। खुदा तुम्हे बेहतरीन अज्र अता फर्माए , बहिश्त मे तुम्हे जगह दे दुनियाओ आखेरत की रुसवाई से महफूज़ रखे और आखेरत मे हमारे साथ तुम्हे महशूर करे। ऐ अली। मैंने तुम्हे उमूर खैर , इताअत , एहतराम और वाजेबात की अदाएगी के सिलसिले मे आज़माया है। मैं ये कहने मे हक़ बजानिब हुं कि तुम्हारा जैसा कहीं नहीं पाया। खुदा वंदे आलम बहिश्ते फिरदोस मे तुम्हारा अज्र करार दे। मुझे मालूम है कि तुम गर्मियों , सर्दियों और दिन रात क्या क्या खिदमत अन्जाम देते हो। खुदा से दुआ करता हूं कि जब रोज़े कयामत सब लोग जमा होंगे उस वक्त रहमते खास तुम्हारे शामिले हाल करे। इस तरह कि दूसरे तुम्हे देख कर रश्क करें। बेशक वो दुआओ का सुनने वाला है।

(ग़ैबत शैख तूसी पेज न. 225 , बिहारुल अनवार जिल्द 50 पेज न. 105)

अहमद बिन मौहम्मद अबी नस्र बरनती

कूफे के रहने वाले इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और उन दोनो इमामो के नज़्दीक अज़ीम मन्ज़ेलत रखते थे , आपने बहुत-सी किताबें तहरीर की। जिनमे एक किताब अल जामेआ है। ओलामा के नज़्दीक आपकी फिक्ही बसीरत मशहूर है। फोक़्हा आप के नज़रयात को एहतरामो इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं।

(मोअज्जिम रेजाल अल हदीस जिल्द 2 पेज न. 237 वा रेजाल कशी पेज न. 558)

आप उन तीन आदमियों मे हैं जो इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे शरफयाब हुए और इमाम ने उन लोगो को खास इज़्ज़तो एहतराम से नवाज़ा।

ज़करया बिन आदम कुम्मी

शहरे क़ुम मे आज भी उनका मज़ार मौजूद है। इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के खास असहाब मे से थे। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आपके लिये दुआ फर्मायी। आपको इमाम (अ.स) के बावफा असहाब मे शुमार किया जाता है।

(रजाल कशी पेज न. 503)

एक मर्तबा इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुए। सुब्ह तक इमाम ने बातें की। एक शख्स ने इमाम रज़ा (अ.स) से दर्याफ्त कियाः मैं दूर रहता हूं और हर वक्त आपकी खिदमत मे हाज़िर नहीं हो सकता हूं। मैं अपने दीनी एहकाम किससे दर्याफ्त करुं।

(मुन्तहल आमाल सवानेह उमरी इमाम रज़ा (अ.स) पेज न. 85)

फर्मायाः ज़कर्या बिन आदम से अपने दीनी अहकाम हासिल करो। वो दीनो दुनिया के मामले मे अमीन है।

(रिजाल कशी पेज न. 595)

मौहम्मद बिन इस्माईल बिन बज़ी

इमाम मूसा काज़िम , इमाम रज़ा और इमाम मौहम्मद तक़ी अलैहिमुस्सलाम के असहाब मे ओलामा शिया के नज़्दीक मोअर्रिद एतमाद ,बुलंद किरदार और इबादत गुज़ार थे। मोतदिद किताबें तहरीर की हैं। बनी अब्बास के दरबार मे काम करते थे।

(रिजाले नजाशी पेज न. 254)

इस सिलसिले मे इमाम रज़ा (अ.स) ने आपसे फर्मायाः

सितमगारों के दरबार मे खुदा ने ऐसे बंदे मुअय्यन किये हैं। जिन के ज़रीये वो अपनी दलील और हुज्जत को ज़ाहिर करता है। उन्हे शहरों मे ताकत अता करता है ताकि उनके ज़रीये अपने दोस्तो को सितमगारों के ज़ुल्मो जौर से महफूज़ रखे। मुसलमानो के मामलात की इस्लाह हो। ऐसे लोग हवादिस और खतरात मे साहेबाने ईमान की पनाहगाह हैं। हमारे परेशान हाल शिया उन की तरफ रुख करते हैं और अपनी मुश्किलात का हल उन से तलब करते हैं। ऐसे अफराद के ज़रिये खुदा मोमिनो को खौफ से महफूज़ रखता है। ये लोग हक़ीकी मोमिन हैं। ज़मीन पर खुदा के अमीन हैं। उन के नूर से क़यामत नूरानी होगी। खुदा की क़सम ये बहिश्त के लिये और बहिश्त इन के लिये है। नेमतें इन्हें मुबारक हों।

उस वक्त इमाम (अ.स) ने फर्मायाः तुममे से जो चाहे इन मक़ामात को हासिल कर सकता है।

मौहम्मद बिन इस्माईल ने अर्ज़ किया। आप पर क़ुर्बान हो जाऊ। किस तरह हासिल कर सकता हूं।

 

इमाम ने फर्मायाः सितमगारों के साथ रहे। हमें खुश करने के लिये हमारे शियों को खुश करे। (यानी जिस ओहदा और मनसब पर हो। उस का मकसद मोमिनो से ज़ुल्मो सितम दूर करना हो।)

मौहम्मद बिन इस्माईल ,जो बनी अब्बास के दरबार मे वज़ारत के ओहदे पर फाएज़ थे। इमाम ने आखिर में उन से फर्मायाः ऐ मौहम्मद। तुम भी इन मे शामिल हो जाओ।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

हुसैन बिन खालिद का बयान है कि एक गिरोह के हमराह इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुआ। दौरान गुफ्तगू मौहम्मद बिन इस्माईल का ज़िक्र आया। इमाम (अ.स) ने फर्मायाः मैं चाहता हूं कि तुममे ऐसे अफराद हों।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

मौहम्मद बिन अहमद याहिया का बयान है कि मैं , मौहम्मद बिन अली बिन बिलाल , के हमराह मौहम्मद बिन इस्माईल बज़ी की कब्र की ज़ियारत को गया।मौहम्मद बिन अली कब्र के किनारे क़िबला रुख बैठे और फर्माया कि साहिबे क़ब्र ने मुझ से बयान किया कि इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने फर्मायाः जो शख्स अपने बरादर मोमिन की क़ब्र की ज़ियारत को जाए , क़िबला रुख बैठे और क़ब्र पर हाथ रख कर 7 मर्तबा सूरह इन्ना अन्ज़लना की तेलावत करे , खुदा वंदे आलम उसे क़यामत की परेशानियों और मुशकलात से नजात देगा।

(रेजाल कशी पेज न. 564)

मौहम्मद बिन इस्माईल की रिवायत है कि मैने इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) से एक लिबास की दरख्वास्त की कि अपना एक लिबास मुझे इनायत फर्माए ताकि उसे अपना कफन करार दूं। इमाम ने लिबास मुझे अता फर्माया और फर्मायाः इस के बटन निकाल लो।

(रेजाल कशी पेज न. 245-564)

हिजरी क़मरी कैलेंडर के सातवें महीने रजब को उपासना और अराधना का महीना कहा जाता है जबकि इस पवित्र महीने के कुछ दिन पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में कुछ महान हस्तियों से जुड़े हुए हैं जिनसे इस महीने की शोभा और भी बढ़ गई है। इस प्रकार की तारीख़ें बड़ा अच्छा अवसर होती हैं कि इंसान इन हस्तियों की जीवनी पर दृष्टि डाले और उनके आचरण से मिलने वाले पाठ को अपने जीवन में उतारे और सफल जीवन गुज़ारने का गुण सीखे।

दस रजब सन 195 हिजरी क़मरी को पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ और मानव जाति के मार्गदर्शन का एक और सूर्य जगमगाने लगा। हमें ईश्वर का आभर व्यक्त करना चाहिए कि उसने इस प्रकार के प्रकाशमय आदर्शों के माध्यम से संसार को ज्योति प्रदान की ताकि लोग जीवन के विभिन्न चरणों और परीक्षाओं में ज्ञान और शिष्टाचार के इन ख़ज़ानों का सहारा ले सकते हैं तथा उनके चरित्र और जीवनशैली को अपना उदाहरण बना सकते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिजन केवल मुसलमानों नहीं बल्कि उन सभी इंसानों के लिए महान पथप्रदर्शक हैं जो कल्याण और मोक्ष की जिज्ञासा में रहते हैं। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस पर हम उनके जीवन के कुछ आयामों की समीक्षा करेंगे तथा लोगों के बीच आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए अपनाए गए उपायों पर एक नज़र डालेंगे।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अपने पिता इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के शहीद हो जाने के बाद बहुत कम आयु में ही इस्लामी जगत के आध्यात्मिक नेता और मार्गदर्शक बन गए। उस समय इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की आयु मात्रा 17 साल थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस्लामी ज्ञान और शिक्षाओं को सही रूप में प्रचारित करने में लगा दिया। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने यह बताया कि लोगों से मिलने जुलने और बात करने लिए क्या शैली अपनाई जाए।

इंसान समाजी प्राणी है और उसे अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे इंसानों से सहयोग की आवश्यकता होती है वह दूसरों की सहायता और संपर्क के बग़ैर अपनी क्षमताओं और योग्यताओं पर निखार भी नहीं ला सकता। जीवन में हर मनुष्य को दूसरों से संबंध रखना पड़ता है और संबंध का उत्तम मार्ग दोस्ती करना है। जो व्यक्ति दोस्त और दोस्ती जैसी विभूति से वंचित हो वह सबसे बड़ा ग़रीब और सबसे अकेला है। एसे व्यक्ति की बुद्धि भी विकसित नहीं हो पाती और उसकी गतिविधियों में उत्साह का अभाव होता है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि मित्रों से मुलाक़ात करते रहना और संपर्क रखना उत्साह और बुद्धि के विकास का मार्ग है चाहे यह मुलाक़ात बहुत छोटी ही क्यों न हो।

दूसरों से दोस्ती अगर ईश्वर के लिए हो, सांसारिक लोभ के तहत न हो तो टिकाऊ होती है क्योंकि इसका आधार ईश्वर की इच्छा और प्रसन्नता है। इस प्रकार की मित्रता समाज के लोगों के विकास व उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम सच्ची दोस्ती के बारे में कहते हैः जो भी ईश्वर की राह में किसी को दोस्त बनाए वह स्वर्ग में अपने आवास का निर्माण करता है।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के कथनों से यह तथ्य पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि यदि मित्रता ईश्वर की प्रसन्नता को दृष्टिगत रखकर की जाए तो इससे सदाचारी व मोमिन मनुष्य को स्वर्ग और ईश्वरीय विभूतियां मिलती हैं। इंसान अगर भले लोगों के साथ उठता बैठता है तो उसके अस्तित्व में अच्छाई और भलाई की प्रवृत्ति प्रबल होती है और इसका परिणाम कल्याण और सफलता है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के कथनों से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि एसे लोगों से दोस्ती करना चाहिए जिन पर ईश्वर की कृपा हो। ईमान से रिक्त और अभद्र लोगों से दूर रहने पर इस लिए बहुत अधिक बल दिया गया है कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के अनुसार यह दूरी तलवार के घाव से मुक्ति पाने के समान है।

उनका कथन है कि बुरे लोगों के साथ से बचो क्योंकि वह खिंची हुई तलवार की भांति होता है जिसका विदित रूप तो चमकीला है मगर उसका काम ख़तरनाक और अप्रिय है। एक अन्य स्थान पर भी इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम लोगों को बुरे तत्वों से दूर रहने की सलाह देते हुए कहा है कि बुरे लोगों के साथ उठना बैठना अच्छे लोगों के बारे में भी ग़लत सोच और ग़लत दृष्टिकोण का कारण बनता है।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम मित्रता को मज़बूत करने के लिए अपने कथनों और व्यवहार में कई बिंदुओं को रेखांकित किया है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि मोमिन इंसान को चाहिए कि एसे हर कार्य से बचे जिससे यह लगे कि वह दूसरों पर किए गए उपचार को जताना चाहता है। एक व्यक्ति इमाम के पास आय बड़ा ख़ुश दिखाई दे रहा था।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम उससे उसकी ख़ुशी का कारण पूछा तो उसने उत्तर दिया कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से सुना है कि मनुष्य के लिए ख़ुशी मनाने का सबसे उचित दिन वह है जिस दिन वह अपने मित्रों पर उपकार करे। आज मेरे पास दस ग़रीब दोस्त बाए और मैंने उनमें से हर किसी को कुछ न कुछ प्रदान किया। इसी लिए मैं इतना ख़ुश हैं। इमाम ने कहा कि यह तो बहुत अच्छी बात है कि ख़ुश रहो किंतु इस शर्त पर कि अपने इस उपकार को जताकर इस ख़ुशी का विनाश न करो। इसके बाद इमाम ने सूरए बक़रह आयत नंबर २६४ की तिलावत की जिसमें ईश्वर कहता है कि हे ईमान लाने वालो अपने आर्थिक उपकारों को जताकर और दूसरों को परेशान करके नष्ट न करो।

सलाह लेना और परामर्श करना भी मित्रता को मज़बूत करने का एक मार्ग है। कभी एसा होता है कि इंसान फ़ैसला लेने की स्थिति में नहीं होता एसे में उसे चाहिए कि भले लोगों से परामर्श ले और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में उनके विचारों और सुझावों का प्रयोग करे। इस बारे में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जिस व्यक्ति के भीतर भी तीन आदतें कभी भी अपने किसी काम पर पछताने पर विवश नहीं होगा। काम में जल्दबाज़ी न करे। मित्रों और निकटवर्ती लोगों से परामर्श लेता हो और जब कोई फ़ैसला कर रहा हो ईश्वर पर भरोसा करके फ़ैसला करे। जब हम किसी से सलाह लेते हैं तो उसके विचार से हमें लाभ भी पहुंचता है और हम एक प्रकार से उसका सम्मान भी कर रहे होते हैं इससे हमारे प्रति उसके भीतर भी आदरभाव उत्पन्न होता है और हमसे उसका प्रेम भी बढ़ता है।

दोस्तों को अपनी ओर आकर्षित करने और मित्रता को मज़बूत करने का एक तरीक़ा अच्छा स्वभाव भी है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि तुम धन देकर तो लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकते अतः प्रयास करो कि उनसे अच्छे स्वभाव से मिलो ताकि वे तुमसे ख़ुश रहें। अच्छा बर्ताव बारिश के पानी की भांति हरियाली और ताज़गी बिखेर देता है। मैत्रीपूर्ण व्यवहार कभी कभी चमत्कार का काम करता है और गहरे परिवर्तन उत्पन्न कर देता है और यह क्रम जारी रहे तो इससे मित्रता और दोस्ती की जड़ें गहरी तथा मज़बूत होती हैं और समाज के भीतर लोगों के बीच सहयोग बढ़ता है। इस्लाम धर्म की महान हस्तियां लोगों से मैत्रीपूर्ण और हार्दिक संबंध रखने को विशेष महत्व देते थे अतः उनकी ओर लोग खिंचे चले आते थे।

बहुत से लोग अपनी समस्याओं के बारे में इमामों से सहायता और मार्गदर्शन लेते थे। बक्र बिन सालेह नामक एक व्यक्ति का कहना है कि मैंने इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को पत्र लिखा कि मेरे पिता मुसलमान नहीं हैं और बड़े कठोर स्वभाव के हैं तथा मुझे बहुत परेशान करते हैं। आप मेरे लिए दुआ कीजिए और मुझे बताइए के मैं क्या करूं। क्या मैं हर हाल में अपने पिता की सेवा करूं या उनके पास से हट जाऊं। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने उसके जवाब में लिखा कि मैंने पिता के बारे में तुम्हारा पत्र पढ़ा। मैं तुम्हारे लिए नियमित रूप से दुआ करूंगा। तुम अपने पिता के साथ सहनशीलता का बर्ताव करो यही बेहतर है।

कठिनाई के साथ आसानी भी होती है, धैर्य रखो कि अच्छा अंजाम नेक लोगों की क़िस्मत है। तुम जिस मार्ग पर चल रहे ईश्वर तुम्हें उस पर अडिग रखे। बक्र बिन सालेह कहते हैं कि मैंने इमाम के सुझाव का पालन किया और अपने पिता की और सेवा करने लगा। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की दुआ का परिणाम यह निकला कि मेरे पिता मेरे लिए बहुत कृपालु हो गए और कभी मुझ पर कोई सख़ती नहीं करते थे। लोगों के साथ अच्छा बर्ताव, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की विशेषताओं में रहा है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम भी इस मामले में उदाहरणीय थे। वह कहते थे कि इंसान तीन विशेषताओं की सहायता से ईश्वर को प्रसन्न कर सकता है। एक यह कि बार बार ईश्वर के समक्ष क्षमायाचना करे। दूसरे यह कि नर्म स्वभाव रखे और तीसरे यह कि बहुत अधिक दान दे।

 

 

नाम व अलक़ब(उपाधियां)

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का नाम मुहम्मद व आपकी मुख्य उपाधियाँ तक़ी व जवाद है।

जन्म व जन्म स्थान

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म सन् 195 हिजरी क़मरी मे रजब मास की दसवी (10) तिथि को हुआ था।

माता पिता

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम व आपकी माता हज़रत सबीका थीं। जिनको ख़ीज़रान भी कहा जाता है।

शहादत (स्वर्गवास)

हज़रत इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 220 हिजरी क़मरी मे ज़ीक़ादाह मास की अन्तिम तिथि को हुई। आपको अब्बासी शासक मोतासिम के आदेश पर आपकी पत्नि उम्मे फ़ज़्ल ने विष दिया। उम्मे फ़ज़्ल अब्बासी शासक मोतासिम के भाई मामून की पुत्री थी।

समाधि

इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम की समाधि बग़दाद के समीप काज़मैन नामक स्थान पर है। जहाँ पर हर समय हज़ारों श्रद्धालु आपकी समाधि के दर्शन हेतू उपस्थित रहते हैं।

।। अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद।।

शुक्रवार, 07 जून 2024 06:21

इमाम तक़ी अ.स. का एक मुनाज़ेरा

इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी से करना चाहा। इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने लगे और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें। मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते

इमाम तक़ी अ.स. का एक मुनाज़ेरा

इमाम रज़ा अ.स. को शहीद करने के बाद मामून चाहता था कि किसी तरह से इमाम तक़ी अ.स. पर भी नज़र रखे और इस काम के लिये उसने अपनी बेटी उम्मे फ़ज़्ल का निकाह इमाम तक़ी  से करना चाहा।

इस बात पर तमाम अब्बासी मामून पर ऐतेराज़ करने लगे और कहने लगे कि अब जबकि अ़ली इब्ने मूसा रिज़ा अ.स. इस दुनिया से चले गये और खि़लाफ़त दुबारा हमारी तरफ़ लौटी है तो तू चाहता है कि फिर से खि़लाफ़त को अ़ली की औलाद को दे दे हम किसी भी हाल में यह शादी नहीं होने देगें।

मामून ने पूछाः तुम क्या चाहते हो? उन लोगों ने कहा ये लड़का नौजवान है और न ही इसके पास कोई इल्मो हिक्मत है तो मामून ने जवाब मे कहा तुम इस ख़ानदान को नहीं पहचानते अगर तुम चाहो तो आज़मा कर देख लो और किसी आलिम को बुला लाओ और इन से बहस करा लो ताकि मेरी बात की सच्चाई रौशन हो जाये।

अब्बासी लोगों ने याहिया बिन अक़सम नामक व्यक्ति को उसके इल्म की शोहरत की वजह से इमाम तक़ी अ.स. से मुनाज़रे के लिये चुना।

मामून ने एक जलसा रखा कि जिस में इमाम तक़ी अ.स. के इल्म और समझ को तौला जा सकता है। जब सब लोग हाज़िर हो गये तो याहिया ने मामून से पूछाः

क्या आपकी इजाज़त है कि मैं इस लड़के से सवाल करूं?

मामून ने कहा ख़ुद इन से इजाज़त लो, याहिया ने इमाम से इजाज़त ली तो इमाम ने फ़रमायाः जो कुछ भी पूछना चाहता है पूछ ले।

याहिया ने कहाः उस शख़्स के बारे में आप की क्या नज़र है कि जिसने अहराम की हालत में शिकार किया हो?

इमाम  ने फ़रमायाः इस शख़्स ने शिकार को हिल मे मारा है या हरम में?

वो शख़्स अहराम की हालत में शिकार करने की मनाही को जानता था या नहीं जानता था??

उसने जानवर को जान के मारा है या ग़लती से??

ख़ुद वो शख़्स आज़ाद था या ग़ुलाम?

वह शख़्स छोटा था या बड़ा?

पहली बार यह काम किया था या पहले भी कर चुका था?

शिकार परिन्दा था या ज़मीनी जानवर?

छोटा जानवर था या बड़ा?

फिर से इस काम को करना चाहता है या अपनी ग़लती पर शरमिंदा है?

शिकार दिन में किया था या रात में?

 अहराम उमरे का था या हज का?

याहिया बिन अक़सम अपने सवाल के अंदर होने वाले इतने सारे सवालों को सुन कर सकते में आ गया, उसकी कम इल्मी और कम हैसियती उसके चेहरे से दिखाई दे रही थी उसकी ज़बान ने काम करना बंद कर दिया था और तमाम मौजूदा लोगों ने उसकी हार को मान लिया था।

मामून ने कहा कि ख़ुदा का शुक्र कि जो मैं ने सोचा था वही हुआ है ओर फिर अपने रिश्तेदारों और ख़ानदान वालों से कहाः क्या अब उस बात को जान गये हो कि जिसे नहीं मान रहे थे?

कुछ देर बाद जलसा ख़त्म हो गया और सिवाये ख़लीफ़ा के ख़ास लोगों के सब लोग चले गये मामून ने इमाम तक़ी अ.स. की तरफ मुंह किया और इमाम के बयान किये हुवे हर एक मसले का जवाब इमाम से मालूम किया।

(ये आरटीकल जनाब मेहदी पेशवाई की किताब सीमाये पीशवायान से लिया गया है।)

 

हर आंदोलन और क्रांति के आरंभ और अंत का एक बिंदु होता है।

इस्लामी क्रांति की मुख्य चिंगारी भी उसकी सफलता से पंद्रह साल पहले वर्ष 1963 में फूटी थी। यद्यपि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह का चेतनापूर्ण आंदोलन कुछ समय पहले ही शुरू हो चुका था लेकिन 1963 के जून महीने के आरंभ में ईरानी जनता का रक्तरंजित आंदोलन ही था जिसने अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध उन्हें इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में पेश किया। अत्याचारी शाही सरकार के विरुद्ध इमाम ख़ुमैनी के पूरे संघर्षपूर्ण जीवन में 15 ख़ुर्दाद या पांच जून का आंदोलन एक अहम मोड़ समझा जाता है और इस्लामी क्रांति को इसी आंदोलन का क्रम बताया जाता है।

यह आंदोलन एक ऐसा संघर्ष था जिसके तीन अहम स्तंभ इस्लाम, इमाम ख़ुमैनी व जनता थे। यद्यपि जून 1963 के इस आंदोलन को बुरी तरह कुचल दिया गया और उसके एक साल बाद इमाम ख़ुमैनी को तुर्की और वहां से इराक़ निर्वासित कर दिया गया था लेकिन इसी आंदोलन के बाद ईरान में अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी और उसके अमरीकी समर्थकों के ख़िलाफ़ संघर्ष ने व्यापक रूप धारण कर लिया। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के अस्तित्व में आने की वजह ईरान में नहीं बल्कि ईरान के बाहर थी। 1960 में अमरीका में हुए राष्ट्रपति चुनाव के बाद, जिसमें डेमोक्रेट प्रत्याशी जॉन एफ़ केनेडी विजयी हुए थे, अमरीका की विदेश नीति में काफ़ी बदलाव आया।

केनेडी, रिपब्लिकंज़ के विपरीत तीसरी दुनिया में अपने पिट्ठू देशों के संकटों से निपटने के बारे में अधिक लचकपूर्ण नीति में विश्वास रखते थे। उनका मानना था कि अमरीका की पिट्ठू सरकारों में सैनिक समझौतों के बजाए आर्थिक समझौते किए जाने चाहिए, सेना के प्रयोग के बजाए सुरक्षा व गुप्तचर तंत्र को अधिक सक्रिय बनाना चाहिए, सांस्कृतिक कार्यक्रमों का प्रचलन किया जाना चाहिए, नियंत्रित चुनावों का प्रचार होना चाहिए और तय मानकों वाले प्रजातंत्र को प्रचलित किया जाना चाहिए। असैनिक पिट्ठू सरकारों को सत्ता में लाना इस लक्ष्य को पूरा करने के लिए केनेडी सरकार के मुख्य हथकंडों में शामिल था।

तत्कालीन ईरानी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी वर्ष 1953 में अमरीका व ब्रिटेन द्वारा ईरान में कराए गए विद्रोह और डाक्टर मुसद्दिक़ की सरकार गिरने के बाद अमरीका की छत्रछाया में आ गया था। उसके पास अपना शाही शासन जारी रखने और अमरीका को ख़ुश करने के लिए केनेडी की नीतियों को लागू करने और दिखावे के सुधार करने के अलावा और कोई मार्ग नहीं था। ये सुधार, श्वेत क्रांति के नाम से ईरानी समाज से इस्लाम को समाप्त करने और पश्चिमी संस्कृति को प्रचलित करने के उद्देश्य से किए जा रहे थे। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने शाह के इस्लाम विरोधी षड्यंत्रों की ओर सचेत करते हुए देश की जनता को पिट्ठू सरकार की इन साज़िशों से अवगत कराने का प्रयास किया।

इमाम ख़ुमैनी के भाषणों के कारण श्वेत क्रांति के नाम से शाह के तथाकथित सुधारों के ख़िलाफ़ आपत्ति और विरोध की लहर निकल पड़ी। शाह ने कोशिश की कि फ़ैज़िया नामक मदरसे पर हमला करके और धार्मिक छात्रों व धर्मगुरुओं को मार पीट कर इन आपत्तियों को दबा दे लेकिन हुआ इसके विपरीत और उसकी इन दमनकारी नीतियों के कारण जनता के विरोध में और अधिक वृद्धि हो गई। तेहरान और ईरान के अन्य शहरों व ग्रामीण क्षेत्रों में हर दिन शाह के ख़िलाफ़ जुलूस निकलने लगे, दीवारों पर उसकी सरकार के ख़िलाफ़ क्रांतिकारी नारे लिखे जाने लगे और इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में वृद्धि होने लगी। वर्ष 1342 हिजरी शमसी में आशूरा के दिन इमाम ख़ुमैनी ने फ़ैज़िया मदरसे में जो क्रांतिकारी भाषण दिया उसके बाद से जनता के आंदोलन में विशेष रूप से क़ुम, तेहरान और कुछ अन्य शहरों में वृद्धि हो गई।

शाह की सरकार और उसके इस्लाम विरोधी कार्यक्रमों में वृद्धि के बाद, शासन ने समझा के उसके पास इमाम ख़ुमैनी को गिरफ़्तार करने के अलावा कोई मार्ग नहीं है और उसने उन्हें गिरफ़्तार कर लिया। क़ुम नगर में इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़्तारी के बाद इस नगर में और फिर तेहरान व अन्य नगरों में जनता के विरोध प्रदर्शनों में अभूतपूर्व वृद्धि हो गई। शाह की सरकार ने बड़ी निर्दयता व क्रूरता से इन प्रदर्शनों को कुचलने की कोशिश की और सैकड़ों लोगों का जनसंहार कर दिया जबकि हज़ारों लोगों को गिरफ़्तार किया गया। शाह सोच रहा था कि इमाम ख़ुमैनी और उनके साथियों को गिरफ़्तार और पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का दमन करके उसने अपने विरोध को समाप्त कर दिया है।

यह ऐसी स्थिति में था कि इमाम ख़ुमैनी के रुख़ में कोई परिवर्तन नहीं आया था, उनकी लोकप्रियता में कमी नहीं आई थी और न ही लोग मैदान से हटे थे। इमाम ख़ुमैनी के, जो अब आंदोलन के नेता के रूप में पूरी तरह से स्थापित हो चुके थे, भाषण जारी रहे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में क़ुम के उच्च धार्मिक शिक्षा केंद्र में जो आंदोलन आरंभ हुआ था, वह शाह की अत्याचारी सरकार की ओर से निर्दयतापूर्ण दमन के बावजूद समाप्त नहीं हुआ बल्कि वह ईरान की धरती में एक बीज की तरह समा गया जो पंद्रह साल बाद फ़रवरी 1979 में एक घने पेड़ की भांति उठ खड़ा हुआ और उसने ईरान में अत्याचारी तानाशाही व्यवस्था का अंत कर दिया।

इमाम ख़ुमैनी ने सन 1979 में इस्लामी क्रांति की सफलता के बरसों बाद पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन के बारे में कहा था कि यह आंदोलन इस वास्तविकता का परिचायक था कि अगर किसी राष्ट्र के ख़िलाफ़ कुछ तानाशाही शक्तियां अतिक्रमण और धौंस धांधली करें तो सिर्फ़ उस राष्ट्र का संकल्प है जो अत्याचारों के मुक़ाबले में डट सकता है और उसके भविष्य का निर्धारण कर सकता है। पंद्रह ख़ुर्दाद, ईरानी राष्ट्र का भविष्य बदलने का एक शुभ आरंभ था जो यद्यपि इस धरती के युवाओं के पवित्र ख़ून से रंग गया लेकिन समाज में राजनैतिक व सामाजिक जीवन की दृष्टि से एक नई आत्मा फूंक गया।

इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी ने इसी प्रकार कहा थाः पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन में जो चीज़ बहुत अहम है वह शाही सरकार की दिखावे की शक्ति का चूर चूर होना था जो अपने विचार में स्वयं को जनता का स्वामी समझ बैठी थी लेकिन एक समन्वित क़दम और एक राष्ट्रीय एकता के माध्यम से अत्याचारी शाही सरकार का सारा वैभव अचानक ही धराशायी हो गया और उसका तख़्ता उलट गया।

 

पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन ने इसी तरह शाह की सरकार से संघर्ष करने वाले इस्लामी धड़े और अन्य राजनैतिक धड़ों के अंतर को भी पारदर्शी कर दिया। यह आंदोलन ईरानी जनता के बीच एक ऐसे संघर्ष का आरंभ बन गया जो पूरी तरह से इस्लामी था। इस आंदोलन का इस्लामी होना, इसके नेता के व्यक्तित्व से ही पूरी तरह उजागर था क्योंकि इसके नेता इमाम ख़ुमैनी एक वरिष्ठ धर्मगुरू थे। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के कारण शाह की सरकार द्वारा बरसों से धर्म और राजनीति को अलग अलग बताने के लिए किया जा रहा कुप्रचार भी व्यवहारिक रूप से विफल हो गया और ईरान के मुसलमानों ने एक ऐसे संघर्ष में क़दम रखा जिस पर चलना उनके लिए नमाज़ और रोज़े की तरह ही अनिवार्य था।

इस्लाम, इस संघर्ष की विचारधारा था और इसके सिद्धांत, क़ुरआन और पैग़म्बर व उनके परिजनों के चरित्र से लिए गए थे। पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन की दूसरी विशेषता, शाह की सरकार से संघर्ष के इस्लामी आंदोलन के नेता के रूप में इमाम ख़ुमैनी की भूमिका का अधिक प्रभावी होना था। इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व ने राजनीति से धर्म के अलग होने के विचार को हमेशा के लिए समाप्त कर दिया। शाह की सरकार से संघर्ष में इमाम ख़ुमैनी का रुख़, संसार में साम्राज्य विरोधी वामपंथी व धर्म विरोधी संघर्षकर्ताओं जैसा नहीं था बल्कि उनके विचार में यह एक ईश्वरीय आंदोलन था जो धार्मिक दायित्व के आधार पर पूरी निष्ठा के साथ चलाया गया था। इस आंदोलन की तीसरी विशेषता इसका जनाधारित होना था। पंद्रह खुर्दाद के आंदोलन का संबंध किसी ख़ास वर्ग से नहीं था बल्कि समाज के सभी वर्ग इसमें शामिल थे जिनमें शहर के लोग, गांव के लोग, व्यापारी, छात्र, महिला, पुरुष, बूढ़े और युवा सभी मौजूद थे। जिस बात ने इन सभी लोगों को मैदान में पहुंचाया और आपस में जोड़ा था, वह इस्लाम था।

इमाम ख़ुमैनी ने क्रांति के आरंभ में ही अमरीका, ब्रिटेन और सोवियत यूनियन को ईरानी जनता के पिछड़ेपन के लिए दोषी बताया था और विदेशी शक्तियों के साथ संघर्ष आरंभ किया था। ईरान की जनता, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में राजनैतिक स्वाधीनता का सबसे बड़ा जलवा देख रही थी। यही वह बातें थीं जो पंद्रह ख़ुर्दाद के आंदोलन का कारण बनीं थीं और इन्हीं के कारण ईरान की इस्लामी क्रांति भी सफल हुई और इस समय भी यही बातें इस्लामी गणतंत्र ईरान की प्रगति और विकास का आधार बनी हुई हैं। ईरान की क्रांति का इस्लामी होना, जनाधारित होना और जनता की ओर से क्रांति के नेतृत्व का भरपूर समर्थन करना वे कारक हैं जिनके चलते इस्लामी गणतंत्र ईरान पिछले तीस बरसों में अमरीका और उसके घटकों की विभिन्न शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों के मुक़ाबले में सफल रहा है। यही विशेषताएं, क्षेत्रीय राष्ट्रों के लिए ईरान के आदर्श बनने और अत्याचारी व अमरीका की पिट्ठू सरकारों के ख़िलाफ़ आंदोलन आरंभ होने का कारण बनी हैं।

 

 

ईरान की इस्लामी क्रांति इमाम खुमैनी की उस पुकार से आंरभ हुई

जिस की ध्वनि आज विश्व के कोने कोने में सुनाई दे रही है।

ईरान के शोषित समाज में जिस पर शक्तिशाली व अत्याचारी शासकों का राज था पीड़ा से कराहती, जनता के कानों से अचानक एक धर्मगुरू की पुकार टकराई अत्याचार व शोषण की दीवारें ढह गयीं और स्वतंत्रता व स्वाधीनता के गीत कानों में रस घोलने लगे और फिर स्वतंत्रता का यह गीत ईरानी राष्ट्र के हर सदस्य की ज़बान पर आ गया और अन्ततः रूहुल्लाह मूसवी खुमैनी नामक एक महान व अद्वीतीय व्यक्तिव ने इतिहास की एक अत्यन्त आश्चर्यजनक घटना अर्थात क्रांति को अस्तित्व प्रदान कर दिया और शताब्दियों तक स्वतंत्रता व स्वाधीनता के वियोग में छटपटाते राष्ट्र में स्वाधीनता व स्वतंत्रता स्थापित कर दी। यही कारणा है कि ईरान की इस्लामी क्रांति की इमाम खुमैनी से अलग कोई कल्पना नहीं की जा सकती।

ईरान की जिस इस्लामी कांति ने वर्तमान विश्व में जो परिवर्तन किये और जिस की सफलता व शक्ति ने विश्ववासियों को दांतों तले उंगुली दबाने पर विवश कर दिया उस का नेतृत्व करने वाली हस्ती अर्थात इमाम खुमैनी का व्यक्तित्त संभवतः इस क्रांति से भी अधिक आश्चर्य जनक है।

इमाम खुमैनी के महान कार्य उन की व्यक्तिगत विशेषताओं की ही भांति अनगिनत हैं किंतु यदि देखा जाए तो इमाम खुमैनी ने जो पहला संदेश दिया वह ईश्वर पर भरोसा और विश्व साम्राज्य विशेषकर अमरीका के चंगुल से छुटकारा प्राप्त करना था ।

इमाम खुमैनी के अनुसार सरकार को जनता के लिए जनता के साथ और जनता की सेवा में होना चाहिए वे सदैव आत्मविश्वास और स्वाधीनता पर अत्याधिक बल देते थे क्योंकि पूर्वी व पश्चिमी शक्तियों के हस्तक्षेपों को समाप्त करने के लिए आत्मविश्वास के अतिरिक्त कोई अन्य साधन नहीं है और यह भावना उसी समय उत्पन्न होती है जब मनुष्य के अस्तित्व में कोई बड़ी क्रांति आए।

इमाम खुमैनी का आशय समस्त क्षेत्रों में स्वाधीनता था किंतु इस के साथ ही वे आत्ममुग्धता को स्वाधीनता के मार्ग की बाधा समझते थे तथा आत्मविश्वास और आत्मनिर्भरता को स्वाधीनता बल्कि मानसिक स्वाधीनता के लिए आवश्यक समझते थे। इमाम खुमैनी ने वर्ष उन्नीस सौ इक्यासी में ईरान के शिक्षा मंत्री से भेंट में कहाः

हमें वर्षों तक परिश्रम करना होगा स्वंय को खोजना होगा, अपने पैरों पर खड़ा होना और स्वाधीनता तक पहुंचना होगा इस स्थिति में हमें पूरब या पश्चिचम की आवश्यकता नहीं होगी और यदि हम ऐसा करने में सफल हो गये तो विश्वास रखें कि कोई भी शक्ति हमें अघात नहीं लगा सकता। यदि हम वैचारिक दृष्टि से स्वाधीन होंगे तो वे किस प्रकार से हमें नुकसान पहॅंचा सकते हैं।

इमाम खुमैनी ने इसी प्रकार अपने एक भाषण में कहाः आप विश्वास करें यदि चाहेंगे तो हो जाएगा यदि जाग जाए तो चाहेंगे । आप जागें यह समझें कि जर्मन जाति आर्य जाति से और पश्चिम वाले हम से श्रेष्ठ नहीं हैं। यदि कोई राष्ट्र यह विश्वास कर लें कि हम बड़ी शक्तियों के सामने डट सकते हैं तो उस का यह विश्वास उस में वह क्षमता उत्पन्न कर देगा जिस के बल पर वह बड़ी शक्तियों के सामने डट जाएगा। यह जो सफलता आप को मिली है उसका यह कारण है कि आप को विश्वास हो गया था कि आप में इस की क्षमता है।

इमाम खुमैनी का एक अन्य महान कार्य जिसे एक चमत्कार भी कहा जा सकता है यह था कि उन्हों ने अपने महान अभियान द्वारा सैंकड़ों वर्षों से जारी उस षडयन्त्र को एक झटके में विफल कर दिया जिसके अंतर्गत यह प्रचार किया जा रहा था कि धर्म का राजनीति से कोई संबंध नहीं है और कोई भी धर्म विशेषकर इस्लाम सरकार चलाने की क्षमता नहीं रखता ।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई इमाम खुमैनी द्वारा इस्लाम के आधार पर सरकार गठन के संदर्भ में कहते हैः

जिस विषय की मुस्लिम और गैर मुस्लिम कल्पना भी नहीं करते थे वह धर्म और वह भी इस्लाम धर्म के आधार पर एक राजनीतिक व्यवस्था का गठन था यह वह लक्ष्य था जिस की साधारण मुसलमान कल्पना भी नहीं कर सकता था और न ही उस के बारे में सोच सकता था इमाम खुमैनी ने इस कल्पना को व्यवहारिक बनाया जिसे यदि चमत्कार कहा जाए तो अतिश्योक्ति न होगी।

इमाम खुमैनी रहमतुल्लाह ने राजनीति में इस्लामी शैलियों को व्यवहारिक बनाया तथा इस के साथ ही उन्हों ने शासकों के लिए जो वर्जनाए और सीमाएं निर्धारित कीं उससे इस पूरी व्यवस्था की आधार शिला को सुदृढ़ता प्राप्त हो गयी।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई इस संदर्भ में कहते हैः

विश्व में यह विषय स्वीकार किया जा चुका है कि जो लोग सरकार में होते हैं या जिन के कांधों पर समाज के नेतृत्व का बोझ होता है उन में कुछ विशेष नैतिक गुण होने चाहिएं घंमड , ऐश्वर्य प्रेम , सुखभोग ,अहंकार और स्वार्थ एसी वस्तुएं हैं जिन के बारे में विश्व वासियों ने यह सोच लिया है कि यह चीज़ें शासकों और राजनेताओं में होती ही हैं यहां तक कि उन देशों में भी जहां क्रांति के बाद सरकार बनी है जो लोग कल तक क्रांतिकारी के रूप में शिविरों में रहते थे गुफाओं में छुपे रहते थे वह लोग भी सरकार में आते ही अपनी जीवन शैली बदल लेते हैं और उन का ढब वही हो जाता है जो अन्य शासकों का होता है इसे हम ने निकट से देखा है और यह वस्तु अब जनता के लिए भी आश्चर्य जनक नहीं है किंतु इमाम खुमैनी ने इस गलत धारणा को समाप्त कर दिया उन्हों ने यह दर्शा दिया कि किसी राष्ट्र का एक अत्यन्त लोकप्रिय नेता और विश्व भर के मुसलमानों का नेता अत्यन्त साधारण जीवन शैली अपना सकता है और भव्य महलों के स्थान पर एक छोटे से इमाम बाड़े में अपने अतिथियों का स्वागत कर सकता है।

इमाम खुमैनी के बारे में पश्चिम के पत्रकार राबिन वूड्स वर्थ ने उन से उन के घर में भेंट के पश्चात लिखा। जैसे ही इमाम खुमैनी द्वार से भीतर आए मुझे लगा कि उन के अस्तित्व से आध्यात्म का पवन बह रहा है । मानो उन के कत्थई लबादे , काली पगड़ी और सफेद दाढ़ी के पीछे से आत्मा व जीवन की लहरें उठ रही हैं यहां तक कि कमरे में उपस्थित सारे लोग उन के व्यक्तित्तव में खो गये , उस समय मुझे लगा कि उन के आते ही हम सब बहुत छोटे हो गये और यह लगने लगा कि जैसे वहां उन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है। उन्हों ने मेरे सारे मापदंडो और शब्दों को उलट पुलट दिया जिनके द्वार मुझे लगता था कि मैं उन के व्यक्तित्व का वर्णन कर सकता हूं। मुझे लगा मानो वह मेरे अस्तित्व पर छा गये तो क्या कोई साधारण व्यक्ति एसा हो सकता है ? मै ने तो आज तक किसी भी बड़े नेता या बड़ी हस्ती को उन से अधिक महान नहीं पाया , मैं उन की छोटी सी प्रशसां में बस यही कह सकता हूं कि वह मानो अतीत में ईश्वरीय दूतों की भांति हैं या फिर यह कि वे इस्लाम के मूसा हैं जो फिरऔन को अपनी भूमि से बाहर निकालने के लिए आए हों ।

निश्चित रूप से इस पश्चिमी पत्रकार ने इमाम खुमैनी को किसी सीमा तक पहचान लिया था। फिरऔन वास्तव में अत्याचारी तानाशाह और स्वंय को सब से बड़ा समझने वाले हर शासक का प्रतीक है। ईश्वरीय दूत हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम ने प्राचीन मिस्र के अत्याचारी शासक और स्वंय को ईश्वर कहने वाले फिरऔन के विरुद्ध संघर्ष किया और उस का विनाश किया था। इमाम खुमैनी ने भी विश्व में वर्तमान फिरऔनों के विरूद्ध संघर्ष की जो लहर उत्पन्न की थी आज वह राष्ट्रों में तूफान का प्रंचड रूप धार कर शक्ति व सत्ता के बल पर मनमानी करने वाली शक्तियों की नैया डूबो रही है और साम्राज्यवाद के डगमगाते बेड़ों के बौखलाए नाविक इसी लिए ईरान और ईरान की इस्लामी क्रांति तथा इस्लामी व्यवस्था को विभिन्न षडयन्त्रों का लक्ष्य बना रहे हैं किंतु इमाम खुमैनी के मार्ग पर चलने वाला ईरानी राष्ट्र हर वर्ष इमाम खुमैनी के बरसी के अवसर पर विशेषरूप से यह प्रतिज्ञा करता है कि उन के मार्ग पर चलते हुए अत्याचारियों व साम्राज्यवादियों के विरूद्ध संघर्ष जारी रखेगा।

इस संसार में जीवन और मृत्यु का चक्र किसी से न रुका है और न ही रूकेगा जीवन व मृत्यु का यह क्रम , धूप छांव और दिन रात की भांति अनवरत जारी है मृत्यु व विनाश हर शरीर के लिए है इस बात की घोषणा कुरआने मजीद ने की है किंतु यदि यह एक अटल वास्तविकता है तो फिर कुछ लोगों को अमर क्यों कहा जाता है ? वास्तव में हमने कभी सोचा कि अमरत्व प्राप्त कैसे होता है? यदि इस विषय पर विचार किया जाए तों हमें पता चलेगा कि मृत्यु व विनाश शरीर के लिए होता है विचार मृत्यु व विनाश चक्र की परिधि से बाहर होते हैं विचारों में इतनी शक्ति होती है कि वह जीवन व मृत्यु के अनवरत चलते इस चक्र को जीवन बिन्दु पर रोक देता है।

यही कारण है कि शारीरिक रूप से नज़रों से ओझल हो जाने के बावजूद महापुरूष अपने विचारों के कारण सदैव जीवित रहते हैं। इस वास्तविकता को यदि कोई आज के युग में अपनी आंखों से देखना चाहे तो उसे ईरान और विश्व के उन क्षेत्रों की यात्रा करनी चाहिए जहां साम्राज्यवाद के विरुद आंदोलन चल रहा है या उस की आहटें सुनाई देने लगी हैं । इन स्थानों में उसे आज भी कि जब इस्लामी ईरान के संस्थापक इमाम खुमैनी रहमतुल्लाह अलैह की उन्नीसवीं बरसी मनाई जा रही है इमाम खुमैनी अपने विचारों व संदेशों के कारण जीवित नज़र आएंगे।

रचना से रचनाकार की महानता का बोध होता है ईरान की इस्लामी क्रांति इमाम खुमैनी के अनथक प्रयासों और निरंतर संघर्ष तथा ईश्वर के मार्ग में त्याग का परिणाम है जिसे स्वंय इमाम खुमैनी ने ईश्वरीय चमत्कार कहा है वे कहते हैः

समाज में एक समाज की मानसिकता में परिवर्तना आया जिसे मैं सिवाए इस के कि यह एक ईश्वरीय चमत्कार व ईश्वरीय सकंल्प था कोई और नाम नहीं दे सकता।

इसी प्रकार वे एक अन्य स्थान पर कहते हैः

इस में ईश्वर का हाथ है यह ईश्वरीय मामला है लोग स्वंय ही ऐसी शक्ति के स्वामी नहीं हो सकते यह ईश्वर का निर्णय था जिसने भौतिकवाद में विश्वास रखने वालों के सारे समीकरण बिगाड़ दिये ।

इस संदर्भ में केनेडा के बुद्धिजीवी राबर्ट कैलिस्टोन कहते हैः

मैं पश्चिम का नागरिक और गैर मुस्लिम हूं किंतु मेरी दृष्टि में यह एक चमत्कार है कि एक धार्मिक क्रांति वर्तमान समय में इस प्रकार से सफल हो जाए और न्याय की स्थापना की ओर अग्रसर हो इस क्रांति को निश्चित रूप से ईश्वरीय सहायता प्राप्त है।

 

यही कारण है कि विश्व के एक अत्यन्त संवेदनशील क्षेत्र में इमाम खुमैनी के नेतृत्व में आने वाली इस्लामी क्रांति ने विश्व साम्राज्य की शांत व सुरक्षित समझी जाने वाली छावनी अर्थात ईरान में पांव पसार कर बैठे अमरीकी साम्राज्य को बौखलाकर भागने पर विवश कर दिया।

ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के साथ ही पहली बार एक मुस्लिम देश ने पश्चिम की महाशक्तियों को सफलता के साथ चुनौती दी, उन की अक्षमता को सिद्ध किया और उन के हितों के लिए गंभीर ख़तरे उत्पन्न कर दिये। इमाम खुमैनी ने ईश्वर व धर्म पर भरोसा करके एक ऐसा आंदोलन आरंभ किया और फिर उसे सफल बनाया जिसने धर्म व आध्यात्म के पतन की भविष्यवाणी करने वाले समस्त पश्चिमी विचारकों व बुद्धिजीवियों के भौतिकवाद पर आधारित ज्ञान के खोखलेपन को सिद्ध कर दिया।

यदि देखा जाए तो इस्लामी क्रांति सोलहवीं शताब्दी के बाद से पश्चिम के मुक़ाबले में इस्लाम की प्रथम विजय समझी जा सकती है। रोचक तथ्य तो यह है कि ईरान की क्रांति का निर्देशक इस्लाम था और नेशनलिज्म , कैप्टालिज़्म कम्यूनिज्म और सोशलिज्म जैसे किसी भी पश्चिमी इज्म या विचारधारा की इस क्रांति में कोई भूमिका नहीं थी। ईरान की इस्लामी क्रांति से पश्चिम की शत्रुता का संभवतः एक कारण यह भी है।

इमाम खुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने ईश्वर की असीम शक्ति पर भरोसे के साथ ही क्रांति की सफलता में जनता की महत्वपूर्ण भूमिका पर भी बहुत बल दिया है। ईरान में इस्लामी क्रांति के इतिहास का ज्ञान रखने वालों को भलीभांति ज्ञान है कि इमाम खुमैनी ने इस्लामी क्रांति की पूरी प्रक्रिया में जनता पर अत्याधिक भरोसा किया और उसे आगे ले आए।

फ्रांस के प्रसिद्ध समाजशास्त्री व विचारक मिशल फोको ने जो इस्लामी क्रांति की सफलता के समय ईरान में उपस्थित थे लिखा हैः

मैं यह बात स्वीकार करता हूं कि १८ वीं शताब्दी के बाद से समस्त समाजिक परिवर्तन आधुनिकता की दिशा में थे किंतु केवल ईरान की क्रांति एक ऐसा समाजिक आंदोलन है जो आधुनिकता के सामने खड़ी हो गयी।

इमाम खुमैनी ने वर्तमान युग में धर्म की क्षमताओं को उजागर कर दिया और ईरान में इस्लाम के आधार पर एक सरकार का गठन करके यह सिद्ध कर दिया कि जो इस्लाम पैगम्बरे इस्लाम सल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम लाए थे वह किस प्रकार सर्वकालिक है। लगभग तीन दशकों से इस्लामी गणतंत्र ईरान की सफलता इस का सब से बड़ा प्रमाण है।