رضوی

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मनुष्य की बुद्धि अकेले अच्छे-बुरे (ख़ैर व शर) के उदाहरणों को पहचानने में असमर्थ है और मानव जीवन के उद्देश्य को भी पूरी तरह समझने में सक्षम नहीं है। इसलिए मनुष्य को मार्गदर्शन के लिए दीन की आवश्यकता है। धर्म ऐसी बारीकियों और विवरणों को प्रदान करता है जिन्हें बुद्धि समझने में अक्षम है।

मानव बुद्धि अच्छे-बुरे की पहचान और जीवन के उद्देश्य के निर्धारण में विस्तृत विवरण देने में असमर्थ है, और इसीलिए मनुष्य धर्म के मार्गदर्शन का मोहताज है। 

  1. क्या मानव बुद्धि अकेले ही अच्छे-बुरे, सही-गलत को पहचान सकती है? 
    2. क्या बुद्धि के होते हुए भी धर्म की आवश्यकता है? 

इसका जवाब नहीं है। बुद्धि सामान्य अवधारणाओं (कुल्ली मफ़ाहीम) को समझने की क्षमता रखती है, लेकिन अधिकांश मौकों पर विभिन्न मामलों की बारीकियों और उदाहरणों को समझने में असमर्थ रहती है। 

बुद्धि कुछ विषयों की अच्छाई-बुराई को सामान्य रूप से समझ सकती है, लेकिन उनके व्यावहारिक उदाहरणों (अमली मिसालों) को पहचानने में अक्सर विफल रहती है। जैसे बुद्धि न्याय (अद्ल) को अच्छा और अत्याचार (ज़ुल्म) को बुरा समझती है, लेकिन न्याय और अत्याचार के वास्तविक उदाहरण क्या हैं? यह बुद्धि की समझ से परे है, और इसके लिए धर्म से पूछना पड़ता है। 

बुद्धि कैसे समझे कि एक पुरुष का एक से अधिक शादी करना अत्याचार है या नहीं? 
बुद्धि कैसे तय करे कि सूद (ब्याज) लेना-देना न्याय है या अत्याचार? 
इसी तरह, बुद्धि सच बोलने की अच्छाई और झूठ बोलने की बुराई को तो समझती है, लेकिन यह नहीं समझ पाती कि युद्ध में झूठ बोलना अच्छा है या बुरा? 
एक और महत्वपूर्ण बात:हालांकि बुद्धि अल्लाह के अस्तित्व, क़यामत की आवश्यकता और नबूवत (पैग़म्बरी) के महत्व को सिद्ध कर सकती है, लेकिन उनकी विस्तृत जानकारी से पूरी तरह अनजान है। 

चूंकि बुद्धि दुनियावी-आख़िरती, भौतिक-आध्यात्मिक, व्यक्तिगत-सामाजिक, मानसिक-शारीरिक लाभ-हानियों को पूरी और सटीक रूप से नहीं पहचान सकती, इसलिए वह कई मामलों की बारीकियों और उदाहरणों के बारे में चुप रहती है।

अगर धर्म हमें फ़िक्ही नैतिक और आस्था संबंधी नियम न सिखाता, तो हम कभी उनसे वाकिफ़ नहीं हो पाते ख़ासकर वे नियम जो आख़िरत से जुड़े हैं। 

बुद्धि यह सिद्ध करती है कि ब्रह्मांड का एक रचयिता (ख़ालिक़) है जो ज्ञानी और तत्वदर्शी (अलीम व हकीम) है। इसलिए, यह ब्रह्मांड और उसका हिस्सा यानी मनुष्य, बिना उद्देश्य और बेमतलब पैदा नहीं किए गए हैं। 

इस प्रकार, मनुष्य भी ब्रह्मांड की तरह एक उद्देश्य की ओर बढ़ रहा है, और उसकी एक अंतिम मंज़िल है। लेकिन बुद्धि यह नहीं जानती कि मनुष्य का वास्तविक उद्देश्य क्या है और वह किस दिशा में जा रहा है। इसलिए बुद्धि स्वीकार करती है कि उसे धर्म की आवश्यकता है  ताकि उसे पता चले कि मनुष्य के जीवन का उद्देश्य क्या है और वह अंततः कहाँ पहुँचने वाला है। 

 

 

श्रीमति नज्जार ज़ादियान ने कहा: इमाम जवाद (अ) ने तीन अच्छे गुणों के माध्यम से प्रेम करते थे: समाज में न्याय, कठिनाईयो मे हमदिली, और पाक दिल तथा पाक तीनत होना।

मदरसा फ़ातेमा महल्लात में सांस्कृतिक मामलों की प्रमुख ने कहा: इमाम जवाद (अ) जूदो व सख़ा और इल्मो तक़वा का एक आदर्श उदाहरण थे, जो केवल 25 वर्ष की आयु में अब्बासी खलीफा के गुर्गो के हाथों शहीद हो गए थे। उन्हें शिया और सुन्नियों के बीच "बाब अल-मुराद" के खिताब से जाना जाता है। उन्होंने अपना धन्य जीवन इस्लाम के प्रचार और लोगों की सेवा के लिए समर्पित कर दिया।

उन्होंने कहा: इमाम जवाद (अ) का जन्म मदीना में रजब की 10 तारीख को वर्ष 195 हिजरी में हुआ था। कई वर्षों के इंतजार के बाद उनका जन्म, अहले बैत के शियो के दिलों में उम्मीद की किरण बन गया है।

श्रीमति नज्जार ज़ादियान ने कहा: आपके पिता, इमाम रज़ा (अ) ने इस बच्चे को अपने समय का "मूसा बिन इमरान" और "ईसा बिन मरयम" कहा और खुशखबरी दी कि अल्लाह ने उन्हें एक ऐसा बेटा दिया है जो समुद्र को चीर देगा, जो पाक और पाकीज़ा है।

उन्होंने आगे कहा: इमाम जवाद (अ) का अज़ीम इल्मी और रूहानी स्थिति स्थिति न केवल शियो ने बल्कि सुन्नी विद्वानों ने भी मान्यता दी थी। अपनी युवावस्था के बावजूद, उन्होंने इमामत के दौर में अहले-बैत (अ) के स्कूल की सुरक्षा और प्रचार में प्रमुख भूमिका निभाई।

मदरसा इल्मिया फ़ातेमा महल्लात के सांस्कृतिक मामलों की प्रमुख ने कहा कि मोअतसिम अब्बासी, जो इमाम जवाद (अ) के बढ़ते प्रभाव से भयभीत था, ने उन्हें बगदाद बुला लिया और अपनी निगरानी में रखा। अंत में, इसी अत्याचारी खलीफा ने साजिश और धोखे से इमाम (अ) को जहर देकर शहीद कर दिया।

उन्होंने कहा: इमाम जवाद (अ) के पवित्र शरीर को उनके परदादा हज़रत मूसा इब्न जाफ़र (अ) के बगल में काज़मैन में दफ़न किया गया था, और इन दो महान हस्तियों की चमकदार दरगाह हमेशा से अहले-बैत (अ) के प्रेमियों और प्रशंसकों के लिए ज़ियारतगाह रही है।

 

 उस समय जब लोगों के अकीद़ो की जांच करने वाली तलवार सड़कों पर खून की प्यासी थी और गरीबी ने शिया मुसलमानों की जान और इमान को बहुत मुश्किल हालात में डाल दिया था, तब इमाम जवाद (अ) ने हिदायत का परचम संभाला। वे इस्लाम के सबसे अंधेरे दौर में, घायलों के दिलों के लिए मरहम और मुसीबतों में शियाो के लिए सहारा बने।

हौज़ा ए इल्मिया के वरिष्ठ शिक्षक हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लेमीन आबेदी ने अपनी एक बात में इमाम जवाद (अ) के समय की दो बड़ी समस्याओं की तरफ इशारा किया और कहा:

इमाम जवाद (अ) इस्लाम के इतिहास के सबसे कठिन दौरों में से एक में, जब अक़ीदो की कड़ी जांच-पड़ताल और भारी आर्थिक दबाव थे, शिया समुदाय की हिदायत और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाले हुए थे।

नवैं इमाम (अ) उस दौर में रहते थे जो साल 202 या 203 हिजरी से शुरू हुआ, यानी आठवें इमाम की शहादत के बाद, और साल 220 हिजरी तक चला; यह वह दौर था जिसे शायद शिया और पूरे इस्लामिक दुनिया के लिए सबसे कठिन समय माना जा सकता है।

पहली बात "मेहनत" की है, जिसका नाम आपने शायद सुना होगा

मेहनत का दक़ीक़ और सटीक मतलब था अक़ीदो की कड़ी जांच-पड़ताल या तफतीश की अदालत। यह उस दौर की खास बात थी। उस समय जब सड़क पर किसी से भी मिलते, उससे पूछा जाता: "क़ुरआन नया है या पुराना?" और इस प्रक्रिया को "मेहनत" कहा जाता था। जो कोई कहता कि क़ुरआन नया है, उसे मार दिया जाता था; उसकी पत्नी और बच्चे भी या तो मारे जाते या बंदी बना लिए जाते थे। इस दौर में हजारों मुसलमान तफ़तीश के नाम पर मारे गए।

दूसरी बड़ी समस्या थी शियो पर भारी आर्थिक और सामाजिक दबाव
इतनी ज्यादा थी कि नवें इमाम (अ) ने एक हदीस में कहा: "आज हमारे लिए सही नहीं कि हम शियो से ख़ुम्स या ज़कात की मांग करें," क्योंकि उस वक्त अब्बासी हुकूमत की वजह से शियो पर बहुत ज़्यादा कठिनाइयाँ थीं।

उस दौर में इतनी मुश्किलें थीं कि कभी-कभी सय्यद महिलाएं अपने पास नमाज़ के लिए चादर तक नहीं रखती थीं। वे अपनी चादरें एक-दूसरे के साथ बाँटती थीं; मतलब कि एक महिला नमाज़ पढ़ती, फिर चादर उतारकर दूसरी को देती ताकि वह भी नमाज़ पढ़ सके, और फिर वह चादर अगली महिला को दे दी जाती।

ऐसी कठिन परिस्थितियों में, नवें इमाम (अ) ने इस्लाम की दुनिया, खासकर शिया समुदाय की इमामत और नेतृत्व की जिम्मेदारी संभाली।

 

 

इमाम मुहम्मद तकी अल-जवाद की शहादत के अवसर पर शोक मनाने वालों ने काज़मैन में एक जुलूस निकाला और तीर्थयात्रियों ने इमाम अल-जवाद, की दरगाह में शोक मनाया।

इमाम मुहम्मद तकी अल-जवाद (अ) की शहादत के अवसर पर, शोक संगठनों ने काज़मैन में एक जुलूस निकाला और तीर्थयात्रियों ने इमाम अल-जवाद (अ) की दरगाह पर शोक मनाया।

बगदाद में इमाम जवाद (अ) का हरम कल रात शोक मनाने वालों से भरा हुआ था और लोग हरम में प्रवेश कर रहे थे, इमाम जवाद (अ) की शहादत पर शोक व्यक्त कर रहे थे, तीर्थयात्री काले कपड़े पहने हुए थे और शोक सभा कर रहे थे। वह कल शाम से ही लगातार शोक में लगी हुई थी।

मातम मनाने वाले आगे बढ़ रहे थे, सिर झुका रहे थे और विलाप कर रहे थे और लब्बैक या जवाद अद्रकनी कह रहे थे, और हरम मुताहर की ओर सड़कें मातम करने वालों से भरी हुई थीं।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.अ.व.व) की तरह हमारे आइम्मा अलैहिमुस्सलाम भी लोगों की तालीमो तर्बियत मे हमेशा कोशीश करते रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का तरीकाऐ तालीम और तरबियत को तालीमी और तरबियती इदारो की सरगर्मियों पर क्यास नहीं किया जा सकता है। तालीमी इदारे खास औक़ात में तालीम देते हैं और बकीया औकात मोअत्तल रहते हैं। लेकिन आइम्मा अलैहेमुस्सलाम की तालीमो तरबियत के लिये कोई खास वक्त मोअय्यन नहीं था। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम लोगों की तालीमो तरबियत मे मसरूफ रहते थे। आइम्मा अलैहिमुस्सलाम का हर गोशा , उन की रफ्तारो गुफ्तार , अवाम की तर्बियत का बेहतरीन ज़रिया था। जब भी कोई मुलाक़ात का शरफ हासिल करता था। वो आइम्मा के किरदार से फायदा हासिल करता था और मजलिस से कुछ न कुछ ले कर उठता था। अगर कोई सवाल करना चाहता था तो उसका जवाब दिया जाता था।

वाज़ेह रहे कि इस तरह का कोई मदरसा दुनिया मे कहीं मौजूद नहीं है। इस तरह का मदरसा तो सिर्फ अम्बिया अलैहेमुस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है ज़ाहिर सी बात है कि इस तरह के मदरसे के असारात फायदे और नताएज बहुत ज़्यादा ताज्जुब खैज़ हैं। बनी अब्बास के खलीफा ये जानते थे कि अगर अवाम को इस मदरसा की खुसूसियात का इल्म हो गया और वो उस तरफ मुतावज्जेह हो गए तो वो खुद-बखुद आइम्मा अलैहिमुस्सलाम की तरफ खिंचते चले जाएगे और इस सूरत मे ग़ासिबों की हुकूमत खतरो से दो-चार हो जाएगी। इस लिये खलीफा हमेशा ये कोशिश करते रहे कि अवाम को आइम्मा अलैहेमुस्सलाम को दूर रखा जाए और उन्हे नज़्दीक न होने दिया जाए। सिर्फ इमाम मौहम्मद बाक़िर (अ.स) के ज़माने मे जब उमर बिन अब्दुल अज़ीज़ की हुकूमत थी और इमाम जाफर सादिक़ (अ.स) के इब्तेदाई दौर में जब बनी उमय्या और बनी अब्बास आपस मे लड़ रहे थे और बनी अब्बास ने ताज़ा ताज़ा हुकूमत हासिल की थी और हुकूमत मुस्तहकम नहीं हुई थी। उस वक्त अवाम को इतना मौका मिल गया कि वो आज़ादी से अहलेबैत से इस्तेफादा कर सकें। लेहाज़ा हम देखते हैं कि इस मुख्तसर सी मुद्दत में शागिर्दों और रावियों की तादाद चार हज़ार तक पहुंच गयी।

( रेजाल शैख तूसी , पेज न 142 , 342 )

लेकिन इसके अलावा बक़िया आइम्मा के ज़मानो मे शागिर्दों की तादाद बहुत कम नज़र आती है। मसलन इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के शागिर्दों और रावियों की तादाद 110 है।

(रेजाल शैख तूसी , पेज न. 397 , 409)

इससे ये पता चलता है कि इस दौर मे अवाम को इमाम (अ.स) से कितना दूर रखा जाता था। लेकिन इस मुख्तसर सी तादाद में भी नुमाया अफराद नज़र आते हैं। यहा नमूने के तौर पर चन्द का ज़िक्र करते हैः

अली बिन महज़ियार

इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और इमाम के वकील थे। आप का शुमार इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम अली नक़ी (अ.स) के असहाब मे भी होता है। बहुत ज़्यादा इबादत करते थे , सजदे की बना पर पूरी पेशानी पर घट्टे पड़ गए थे। तोलूवे आफताब के वक्त सर सजदे मे रखते और जब तक एक हज़ार मोमिनो के लिये दुआ न कर लेते थे। उस वक्त तक सर ना उठाते थे। और जो दुआ अपने लिये करते थे वही उन के लिये भी।

अली बिन महज़ियार अहवाज़ मे रहते थे , आप ने 30 से ज़्यादा किताबें लिखी हैं।

ईमानो अमल के उस बुलन्द मर्तबे पर फाएज़ थे कि एक मर्तबा इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आप की कद्रदानी करते हुए आप को एक खत लिखाः

बिसमिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम

ऐ अली। खुदा तुम्हे बेहतरीन अज्र अता फर्माए , बहिश्त मे तुम्हे जगह दे दुनियाओ आखेरत की रुसवाई से महफूज़ रखे और आखेरत मे हमारे साथ तुम्हे महशूर करे। ऐ अली। मैंने तुम्हे उमूर खैर , इताअत , एहतराम और वाजेबात की अदाएगी के सिलसिले मे आज़माया है। मैं ये कहने मे हक़ बजानिब हुं कि तुम्हारा जैसा कहीं नहीं पाया। खुदा वंदे आलम बहिश्ते फिरदोस मे तुम्हारा अज्र करार दे। मुझे मालूम है कि तुम गर्मियों , सर्दियों और दिन रात क्या क्या खिदमत अन्जाम देते हो। खुदा से दुआ करता हूं कि जब रोज़े कयामत सब लोग जमा होंगे उस वक्त रहमते खास तुम्हारे शामिले हाल करे। इस तरह कि दूसरे तुम्हे देख कर रश्क करें। बेशक वो दुआओ का सुनने वाला है।

(ग़ैबत शैख तूसी पेज न. 225 , बिहारुल अनवार जिल्द 50 पेज न. 105)

अहमद बिन मौहम्मद अबी नस्र बरनती

कूफे के रहने वाले इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के असहाबे खास और उन दोनो इमामो के नज़्दीक अज़ीम मन्ज़ेलत रखते थे , आपने बहुत-सी किताबें तहरीर की। जिनमे एक किताब अल जामेआ है। ओलामा के नज़्दीक आपकी फिक्ही बसीरत मशहूर है। फोक़्हा आप के नज़रयात को एहतरामो इज़्ज़त की निगाह से देखते हैं।

(मोअज्जिम रेजाल अल हदीस जिल्द 2 पेज न. 237 वा रेजाल कशी पेज न. 558)

आप उन तीन आदमियों मे हैं जो इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे शरफयाब हुए और इमाम ने उन लोगो को खास इज़्ज़तो एहतराम से नवाज़ा।

ज़करया बिन आदम कुम्मी

शहरे क़ुम मे आज भी उनका मज़ार मौजूद है। इमाम रज़ा (अ.स) और इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) के खास असहाब मे से थे। इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने आपके लिये दुआ फर्मायी। आपको इमाम (अ.स) के बावफा असहाब मे शुमार किया जाता है।

(रजाल कशी पेज न. 503)

एक मर्तबा इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुए। सुब्ह तक इमाम ने बातें की। एक शख्स ने इमाम रज़ा (अ.स) से दर्याफ्त कियाः मैं दूर रहता हूं और हर वक्त आपकी खिदमत मे हाज़िर नहीं हो सकता हूं। मैं अपने दीनी एहकाम किससे दर्याफ्त करुं।

(मुन्तहल आमाल सवानेह उमरी इमाम रज़ा (अ.स) पेज न. 85)

फर्मायाः ज़कर्या बिन आदम से अपने दीनी अहकाम हासिल करो। वो दीनो दुनिया के मामले मे अमीन है।

(रिजाल कशी पेज न. 595)

मौहम्मद बिन इस्माईल बिन बज़ी

इमाम मूसा काज़िम , इमाम रज़ा और इमाम मौहम्मद तक़ी अलैहिमुस्सलाम के असहाब मे ओलामा शिया के नज़्दीक मोअर्रिद एतमाद ,बुलंद किरदार और इबादत गुज़ार थे। मोतदिद किताबें तहरीर की हैं। बनी अब्बास के दरबार मे काम करते थे।

(रिजाले नजाशी पेज न. 254)

इस सिलसिले मे इमाम रज़ा (अ.स) ने आपसे फर्मायाः

सितमगारों के दरबार मे खुदा ने ऐसे बंदे मुअय्यन किये हैं। जिन के ज़रीये वो अपनी दलील और हुज्जत को ज़ाहिर करता है। उन्हे शहरों मे ताकत अता करता है ताकि उनके ज़रीये अपने दोस्तो को सितमगारों के ज़ुल्मो जौर से महफूज़ रखे। मुसलमानो के मामलात की इस्लाह हो। ऐसे लोग हवादिस और खतरात मे साहेबाने ईमान की पनाहगाह हैं। हमारे परेशान हाल शिया उन की तरफ रुख करते हैं और अपनी मुश्किलात का हल उन से तलब करते हैं। ऐसे अफराद के ज़रिये खुदा मोमिनो को खौफ से महफूज़ रखता है। ये लोग हक़ीकी मोमिन हैं। ज़मीन पर खुदा के अमीन हैं। उन के नूर से क़यामत नूरानी होगी। खुदा की क़सम ये बहिश्त के लिये और बहिश्त इन के लिये है। नेमतें इन्हें मुबारक हों।

उस वक्त इमाम (अ.स) ने फर्मायाः तुममे से जो चाहे इन मक़ामात को हासिल कर सकता है।

मौहम्मद बिन इस्माईल ने अर्ज़ किया। आप पर क़ुर्बान हो जाऊ। किस तरह हासिल कर सकता हूं।

इमाम ने फर्मायाः सितमगारों के साथ रहे। हमें खुश करने के लिये हमारे शियों को खुश करे। (यानी जिस ओहदा और मनसब पर हो। उस का मकसद मोमिनो से ज़ुल्मो सितम दूर करना हो।)

मौहम्मद बिन इस्माईल ,जो बनी अब्बास के दरबार मे वज़ारत के ओहदे पर फाएज़ थे। इमाम ने आखिर में उन से फर्मायाः ऐ मौहम्मद। तुम भी इन मे शामिल हो जाओ।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

हुसैन बिन खालिद का बयान है कि एक गिरोह के हमराह इमाम रज़ा (अ.स) की खिदमत मे हाज़िर हुआ। दौरान गुफ्तगू मौहम्मद बिन इस्माईल का ज़िक्र आया। इमाम (अ.स) ने फर्मायाः मैं चाहता हूं कि तुममे ऐसे अफराद हों।

(रिजाले नजाशी पेज न. 255)

मौहम्मद बिन अहमद याहिया का बयान है कि मैं , मौहम्मद बिन अली बिन बिलाल , के हमराह मौहम्मद बिन इस्माईल बज़ी की कब्र की ज़ियारत को गया।मौहम्मद बिन अली कब्र के किनारे क़िबला रुख बैठे और फर्माया कि साहिबे क़ब्र ने मुझ से बयान किया कि इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) ने फर्मायाः जो शख्स अपने बरादर मोमिन की क़ब्र की ज़ियारत को जाए , क़िबला रुख बैठे और क़ब्र पर हाथ रख कर 7 मर्तबा सूरह इन्ना अन्ज़लना की तेलावत करे , खुदा वंदे आलम उसे क़यामत की परेशानियों और मुशकलात से नजात देगा।

(रेजाल कशी पेज न. 564)

मौहम्मद बिन इस्माईल की रिवायत है कि मैने इमाम मौहम्मद तक़ी (अ.स) से एक लिबास की दरख्वास्त की कि अपना एक लिबास मुझे इनायत फर्माए ताकि उसे अपना कफन करार दूं। इमाम ने लिबास मुझे अता फर्माया और फर्मायाः इस के बटन निकाल लो।

(रेजाल कशी पेज न. 245-564)

हिजरी क़मरी कैलेंडर के सातवें महीने रजब को उपासना और अराधना का महीना कहा जाता है जबकि इस पवित्र महीने के कुछ दिन पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में कुछ महान हस्तियों से जुड़े हुए हैं जिनसे इस महीने की शोभा और भी बढ़ गई है। इस प्रकार की तारीख़ें बड़ा अच्छा अवसर होती हैं कि इंसान इन हस्तियों की जीवनी पर दृष्टि डाले और उनके आचरण से मिलने वाले पाठ को अपने जीवन में उतारे और सफल जीवन गुज़ारने का गुण सीखे।

दस रजब सन 195 हिजरी क़मरी को पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म हुआ और मानव जाति के मार्गदर्शन का एक और सूर्य जगमगाने लगा। हमें ईश्वर का आभर व्यक्त करना चाहिए कि उसने इस प्रकार के प्रकाशमय आदर्शों के माध्यम से संसार को ज्योति प्रदान की ताकि लोग जीवन के विभिन्न चरणों और परीक्षाओं में ज्ञान और शिष्टाचार के इन ख़ज़ानों का सहारा ले सकते हैं तथा उनके चरित्र और जीवनशैली को अपना उदाहरण बना सकते हैं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिजन केवल मुसलमानों नहीं बल्कि उन सभी इंसानों के लिए महान पथप्रदर्शक हैं जो कल्याण और मोक्ष की जिज्ञासा में रहते हैं। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस पर हम उनके जीवन के कुछ आयामों की समीक्षा करेंगे तथा लोगों के बीच आपसी संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए अपनाए गए उपायों पर एक नज़र डालेंगे।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अपने पिता इमाम अली रज़ा अलैहिस्सलाम के शहीद हो जाने के बाद बहुत कम आयु में ही इस्लामी जगत के आध्यात्मिक नेता और मार्गदर्शक बन गए। उस समय इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की आयु मात्रा 17 साल थी। उन्होंने अपना पूरा जीवन इस्लामी ज्ञान और शिक्षाओं को सही रूप में प्रचारित करने में लगा दिया। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने यह बताया कि लोगों से मिलने जुलने और बात करने लिए क्या शैली अपनाई जाए।

इंसान समाजी प्राणी है और उसे अपनी भौतिक तथा आध्यात्मिक आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए दूसरे इंसानों से सहयोग की आवश्यकता होती है वह दूसरों की सहायता और संपर्क के बग़ैर अपनी क्षमताओं और योग्यताओं पर निखार भी नहीं ला सकता। जीवन में हर मनुष्य को दूसरों से संबंध रखना पड़ता है और संबंध का उत्तम मार्ग दोस्ती करना है। जो व्यक्ति दोस्त और दोस्ती जैसी विभूति से वंचित हो वह सबसे बड़ा ग़रीब और सबसे अकेला है। एसे व्यक्ति की बुद्धि भी विकसित नहीं हो पाती और उसकी गतिविधियों में उत्साह का अभाव होता है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि मित्रों से मुलाक़ात करते रहना और संपर्क रखना उत्साह और बुद्धि के विकास का मार्ग है चाहे यह मुलाक़ात बहुत छोटी ही क्यों न हो।

दूसरों से दोस्ती अगर ईश्वर के लिए हो, सांसारिक लोभ के तहत न हो तो टिकाऊ होती है क्योंकि इसका आधार ईश्वर की इच्छा और प्रसन्नता है। इस प्रकार की मित्रता समाज के लोगों के विकास व उत्थान का मार्ग प्रशस्त करती है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम सच्ची दोस्ती के बारे में कहते हैः जो भी ईश्वर की राह में किसी को दोस्त बनाए वह स्वर्ग में अपने आवास का निर्माण करता है।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के कथनों से यह तथ्य पूर्ण रूप से स्पष्ट है कि यदि मित्रता ईश्वर की प्रसन्नता को दृष्टिगत रखकर की जाए तो इससे सदाचारी व मोमिन मनुष्य को स्वर्ग और ईश्वरीय विभूतियां मिलती हैं। इंसान अगर भले लोगों के साथ उठता बैठता है तो उसके अस्तित्व में अच्छाई और भलाई की प्रवृत्ति प्रबल होती है और इसका परिणाम कल्याण और सफलता है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के कथनों से यह निष्कर्ष भी निकलता है कि एसे लोगों से दोस्ती करना चाहिए जिन पर ईश्वर की कृपा हो। ईमान से रिक्त और अभद्र लोगों से दूर रहने पर इस लिए बहुत अधिक बल दिया गया है कि इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के अनुसार यह दूरी तलवार के घाव से मुक्ति पाने के समान है।

उनका कथन है कि बुरे लोगों के साथ से बचो क्योंकि वह खिंची हुई तलवार की भांति होता है जिसका विदित रूप तो चमकीला है मगर उसका काम ख़तरनाक और अप्रिय है। एक अन्य स्थान पर भी इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम लोगों को बुरे तत्वों से दूर रहने की सलाह देते हुए कहा है कि बुरे लोगों के साथ उठना बैठना अच्छे लोगों के बारे में भी ग़लत सोच और ग़लत दृष्टिकोण का कारण बनता है।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम मित्रता को मज़बूत करने के लिए अपने कथनों और व्यवहार में कई बिंदुओं को रेखांकित किया है। इस संदर्भ में वे कहते हैं कि मोमिन इंसान को चाहिए कि एसे हर कार्य से बचे जिससे यह लगे कि वह दूसरों पर किए गए उपचार को जताना चाहता है। एक व्यक्ति इमाम के पास आय बड़ा ख़ुश दिखाई दे रहा था।

इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम उससे उसकी ख़ुशी का कारण पूछा तो उसने उत्तर दिया कि मैंने पैग़म्बरे इस्लाम से सुना है कि मनुष्य के लिए ख़ुशी मनाने का सबसे उचित दिन वह है जिस दिन वह अपने मित्रों पर उपकार करे। आज मेरे पास दस ग़रीब दोस्त बाए और मैंने उनमें से हर किसी को कुछ न कुछ प्रदान किया। इसी लिए मैं इतना ख़ुश हैं। इमाम ने कहा कि यह तो बहुत अच्छी बात है कि ख़ुश रहो किंतु इस शर्त पर कि अपने इस उपकार को जताकर इस ख़ुशी का विनाश न करो। इसके बाद इमाम ने सूरए बक़रह आयत नंबर २६४ की तिलावत की जिसमें ईश्वर कहता है कि हे ईमान लाने वालो अपने आर्थिक उपकारों को जताकर और दूसरों को परेशान करके नष्ट न करो।

सलाह लेना और परामर्श करना भी मित्रता को मज़बूत करने का एक मार्ग है। कभी एसा होता है कि इंसान फ़ैसला लेने की स्थिति में नहीं होता एसे में उसे चाहिए कि भले लोगों से परामर्श ले और अपने लक्ष्य की प्राप्ति में उनके विचारों और सुझावों का प्रयोग करे। इस बारे में इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम कहते हैं कि जिस व्यक्ति के भीतर भी तीन आदतें कभी भी अपने किसी काम पर पछताने पर विवश नहीं होगा। काम में जल्दबाज़ी न करे। मित्रों और निकटवर्ती लोगों से परामर्श लेता हो और जब कोई फ़ैसला कर रहा हो ईश्वर पर भरोसा करके फ़ैसला करे। जब हम किसी से सलाह लेते हैं तो उसके विचार से हमें लाभ भी पहुंचता है और हम एक प्रकार से उसका सम्मान भी कर रहे होते हैं इससे हमारे प्रति उसके भीतर भी आदरभाव उत्पन्न होता है और हमसे उसका प्रेम भी बढ़ता है।

दोस्तों को अपनी ओर आकर्षित करने और मित्रता को मज़बूत करने का एक तरीक़ा अच्छा स्वभाव भी है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम इस बारे में कहते हैं कि तुम धन देकर तो लोगों को संतुष्ट नहीं कर सकते अतः प्रयास करो कि उनसे अच्छे स्वभाव से मिलो ताकि वे तुमसे ख़ुश रहें। अच्छा बर्ताव बारिश के पानी की भांति हरियाली और ताज़गी बिखेर देता है। मैत्रीपूर्ण व्यवहार कभी कभी चमत्कार का काम करता है और गहरे परिवर्तन उत्पन्न कर देता है और यह क्रम जारी रहे तो इससे मित्रता और दोस्ती की जड़ें गहरी तथा मज़बूत होती हैं और समाज के भीतर लोगों के बीच सहयोग बढ़ता है। इस्लाम धर्म की महान हस्तियां लोगों से मैत्रीपूर्ण और हार्दिक संबंध रखने को विशेष महत्व देते थे अतः उनकी ओर लोग खिंचे चले आते थे।

बहुत से लोग अपनी समस्याओं के बारे में इमामों से सहायता और मार्गदर्शन लेते थे। बक्र बिन सालेह नामक एक व्यक्ति का कहना है कि मैंने इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को पत्र लिखा कि मेरे पिता मुसलमान नहीं हैं और बड़े कठोर स्वभाव के हैं तथा मुझे बहुत परेशान करते हैं। आप मेरे लिए दुआ कीजिए और मुझे बताइए के मैं क्या करूं। क्या मैं हर हाल में अपने पिता की सेवा करूं या उनके पास से हट जाऊं। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम ने उसके जवाब में लिखा कि मैंने पिता के बारे में तुम्हारा पत्र पढ़ा। मैं तुम्हारे लिए नियमित रूप से दुआ करूंगा। तुम अपने पिता के साथ सहनशीलता का बर्ताव करो यही बेहतर है।

कठिनाई के साथ आसानी भी होती है, धैर्य रखो कि अच्छा अंजाम नेक लोगों की क़िस्मत है। तुम जिस मार्ग पर चल रहे ईश्वर तुम्हें उस पर अडिग रखे। बक्र बिन सालेह कहते हैं कि मैंने इमाम के सुझाव का पालन किया और अपने पिता की और सेवा करने लगा। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की दुआ का परिणाम यह निकला कि मेरे पिता मेरे लिए बहुत कृपालु हो गए और कभी मुझ पर कोई सख़ती नहीं करते थे। लोगों के साथ अच्छा बर्ताव, पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की विशेषताओं में रहा है। इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम भी इस मामले में उदाहरणीय थे। वह कहते थे कि इंसान तीन विशेषताओं की सहायता से ईश्वर को प्रसन्न कर सकता है। एक यह कि बार बार ईश्वर के समक्ष क्षमायाचना करे। दूसरे यह कि नर्म स्वभाव रखे और तीसरे यह कि बहुत अधिक दान दे।

 

 

एक राजनीतिक विश्लेषक ने कहा कि लेबनान में हिज़्बुल्लाह की नगरपालिका और दक्षिणी लेबनान के स्थानीय परिषद चुनावों में जीत ने साबित कर दिया कि दुश्मनों के नकारात्मक प्रचार के बावजूद इस पार्टी की लोकप्रियता अभी भी बहुत अधिक है। 

लेबनान के दक्षिणी और नबातिया प्रांतों में नगरपालिका और स्थानीय परिषद चुनावों का चौथा और अंतिम चरण शनिवार, 24 मई 2025 को आयोजित किया गया। हिज़्बुल्लाह और अमल आंदोलन से जुड़े "विकास और निष्ठा" चुनावी गठबंधन ने दक्षिणी लेबनान में एक ऐतिहासिक जीत हासिल की और शकरा, जोया, ऐतरून और नबातिया जैसे कई शहरों व गांवों में बढ़त बनाई। वर्ल्ड न्यूज नेटवर्क के हवाले से प्रकाशित रिपोर्ट में, लेबनानी विश्लेषक नासिर नासिरुद्दीन ने कहा: "हिज़्बुल्लाह की इस चुनावी जीत ने साबित कर दिया कि इसके खिलाफ चलाए गए प्रोपेगैंडा के बावजूद पार्टी की जनता में अभूतपूर्व स्वीकार्यता है। यह चुनाव लेबनानी संसद के भविष्य के गठन का संकेत भी देता है और सरकार व मंत्रिमंडल के निर्माण पर इसका प्रभाव पड़ेगा। इससे इज़रायल के खिलाफ हिज़्बुल्लाह और अमल आंदोलन के प्रतिरोध विकल्प को मजबूती मिलेगी।"

नासिरुद्दीन ने आगे कहा: "लेबनान के नगरपालिका चुनावों के दौरान, अमेरिका सहित कई दूतावासों ने कुछ उम्मीदवारों को समर्थन देकर हिज़्बुल्लाह के खिलाफ कार्रवाई करने और परिणामों को अपने पक्ष में मोड़ने की कोशिश की, लेकिन मतपेटियों का नतीजा हिज़्बुल्लाह-विरोधी ताकतों के प्रयासों के विपरीत रहा।"

उन्होंने ज़ोर देकर कहा: "जब हिज़्बुल्लाह के खिलाफ़ 'ऑपरेशन पैजर्स' हुआ और सैय्यद हसन नसरुल्लाह व कुछ वरिष्ठ कमांडरों की  टारगेट किलिंग की गई,  और इज़रायल ने लेबनान पर अपने हमले बढ़ा दिए, तो लोगों की भावनाओं को गहरा ठेस पहुंचा। शेख नईम कासिम को हिज़्बुल्लाह का महासचिव चुना जाना इस बात का प्रमाण था कि पार्टी की तैयारियां अभी भी चरम पर हैं। इस चुनाव ने दिखाया कि हिज़्बुल्लाह कभी भी किसी व्यक्ति विशेष पर निर्भर नहीं रही। पार्टी ने बहुत जल्द खुद को पुनर्गठित किया और ज़ायोनी शासन के दक्षिणी लेबनान में हमलों का मुंहतोड़ जवाब देकर अपनी ताकत का प्रदर्शन किया।"

इस लेबनानी विश्लेषक ने स्पष्ट किया: "लेबनान के लोग, विशेष रूप से दक्षिण के निवासी, हमेशा इस बात पर जोर देते हैं कि अमेरिकी कभी भी भरोसेमंद नहीं होते। यह तब है जब अमेरिका लेबनान की सरकार और जनता से अंतरराष्ट्रीय कानूनों का पालन करने की अपील करता है, लेकिन ज़ायोनी शासन के आक्रमणों को रोकने के लिए कुछ नहीं करता। हालिया हमलों ने साबित कर दिया कि इजरायल अमेरिकी समर्थन के साथ लेबनान पर हमला करने का बहाना ढूंढ रहा है। लेबनान सरकार को अंतरराष्ट्रीय संगठनों और संयुक्त राष्ट्र का रुख़ करना चाहिए ताकि दक्षिणी लेबनान पर ज़ायोनी शासन के हमले रोके जा सकें।"

उन्होंने हाल के चुनावों में शिया और ईसाई समुदायों के बीच समन्वय को हिज़्बुल्लाह के पिछले वर्षों की सफल नीतियों का परिणाम बताया और कहा: "जब यह पार्टी सीरिया में आतंकवादियों से जूझ रही थी, तब उसने ईसाई बहुल गांवों को आतंकी समूहों से बचाया। इसी तरह, लेबनान में भी कई ईसाई गांव हैं जहां हिज़्बुल्लाह ने उनके आंतरिक मामलों में दख़ल दिए बिना, निवासियों की सुरक्षा की। ईसाई समुदाय ने इन कार्यों को देखकर हिज़्बुल्लाह के साथ अपने संबंध मज़बूत किए और लेबनानी ईसाइयों में इस पार्टी के प्रति गहरा विश्वास पैदा हुआ।"

इस राजनीतिक विश्लेषक ने आगे कहा: **"दक्षिणी लेबनान में हिज़्बुल्लाह की इजरायल पर जीत को 25 साल हो चुके हैं। वर्ष 2000 दक्षिणी लेबनान की मुक्ति का वर्ष था, जब 18 साल के कब्जे के बाद प्रतिरोध के हमलों के आगे ज़ायोनी सेना को शर्मनाक पीछे हटना पड़ा। इस मुक्ति के बाद के 25 वर्षों में, ज़ायोनी शासन की सेना ने हिज़्बुल्लाह पर बड़े पैमाने पर हमले किए, लेकिन प्रतिरोध हमेशा कब्जाधारियों के लिए घात लगाए बैठा रहा। उसने कई बार इजरायली टैंकों को नष्ट किया और उन्हें भारी नुकसान पहुंचाया। हिज़्बुल्लाह की चुनावी जीत और दक्षिणी लेबनान की मुक्ति व प्रतिरोध के महान त्योहार का जश्न—ये दोनों बड़े अवसर हैं। लेबनान के लोगों, खासकर दक्षिण के निवासियों, ने जोर देकर कहा है कि वे हमेशा प्रतिरोध का समर्थन करेंगे और इज़राइली क़ब्जे को समाप्त करने तक संघर्ष जारी रखेंगे।"

उनके अनुसार, लेबनानी शहीद सैय्यद हसन नसरुल्लाह के वक्तव्य और नारे के आधार पर प्रतिरोध को जारी रखेंगे। "ज़ायोनी शासन के आक्रमणों के खिलाफ प्रतिरोध के हथियार हमेशा मौजूद रहने चाहिए, और हिज़्बुल्लाह के शस्त्र हर समय लेबनानी सेना से सहयोग के लिए हमेशा तैयार रहेंगे।"

जामिया अलज़हेरा की प्रमुख ने कहा, मुस्लिम महिलाओं को आधुनिक इस्लामी संस्कृति के लिए एक मॉडल बनना चाहिए वह एक ऐसी महिला हो जो विचारशील हो, इबादत करने वाली हो, परिवार की व्यवस्था संभालने वाली हो, सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय भूमिका निभाए और साथ ही पारिवारिक जिम्मेदारियों का भी पालन करे।

लेबनान के शहीदों की विधवाओं और कुछ चुनिंदा महिलाओं ने जामिया अलज़हेरा की प्रमुख सैय्यदा ज़हेरा बरकई से मुलाकात की। 

उन्होंने मेहमान महिलाओं का स्वागत करते हुए रहबर-ए मोअज़्ज़म (सर्वोच्च नेता) के कथन का हवाला दिया कि शहीद "महफिलों के चिराग" हैं और कहा, आपकी मौजूदगी हर महफिल को रौशन कर देती है। आज अलज़हरा विश्वविद्यालय को यह सम्मान प्राप्त है कि वह प्रतिरोध के शहीदों के परिवारों की मेज़बानी कर रहा है। 

सैय्यदा ज़हेरा बरकई ने कहा कि शहीदों के मार्ग को जारी रखना एक ईश्वरीय जिम्मेदारी है। कुरआन हमें बताता है कि शहीदों के रास्ते को ईमान वाले जारी रखेंगे और उनकी याद को जीवित रखना हमारा मूल कर्तव्य है। 

उन्होंने महिलाओं की भूमिका को सांस्कृतिक, पहचान-संबंधी और साम्राज्यवादी चुनौतियों के सामने अत्यंत महत्वपूर्ण बताया और कहा, महिलाएं इस्लामी समुदाय में बौद्धिक और सांस्कृतिक परिवर्तन की अग्रिम पंक्ति में खड़ी हैं, और लेबनानी महिलाओं ने नई पीढ़ी के प्रशिक्षण और प्रतिरोध के संवाद को बढ़ावा देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। 

उन्होंने रहबर-ए मोअज़्ज़म के सभ्यता-निर्मात्री महिला के विचार को स्पष्ट करते हुए कहा, मुस्लिम महिला वह व्यक्तित्व है जो धर्म और इबादत से जुड़ी हो, विचार और ज्ञान में लगी हो, परिवार की देखभाल करने वाली हो, सामाजिक क्षेत्र में सक्रिय हो, और अपने पारिवारिक कर्तव्यों से अनजान न हो। 

सैय्यदा बरकई ने प्रतिरोध मोर्चे की हौज़वी (धार्मिक शिक्षा प्राप्त) और विश्वविद्यालयी महिलाओं के लिए एक वैश्विक संघ बनाने का प्रस्ताव रखा और कहा, अल-ज़हरा विश्वविद्यालय (स) इस संघ के केंद्र की स्थापना के लिए तैयार है, ताकि ईरान, लेबनान, सीरिया और अन्य प्रतिरोधी देशों की महिलाओं के बीच वैज्ञानिक और सांस्कृतिक सहयोग को बढ़ावा दिया जा सके।

 

ग़ाज़ा में 19 महीनों से जारी युद्ध, तबाही, बेघर होना, क़ैद, अकाल और भूख ने ज़िंदगी को नर्क बना दिया है जिसे अब पश्चिमी लोग आधुनिक युग के होलोकॉस्ट से तुलना कर रहे हैं।

ट्विटर उपयोगकर्ताओं ने पिछले 24 घंटों में अमेरिकी कार्यकर्ताओं के इज़राइल विरोधी प्रदर्शनों की प्रतिक्रिया में ग़ाज़ा में फ़िलिस्तीनियों की संकटपूर्ण स्थिति को वास्तविक होलोकॉस्ट बताया है और इसे आधुनिक युग में आम नागरिकों के ख़िलाफ़ युद्ध अपराध और नरसंहार का स्पष्ट उदाहरण कहा है।

अमेरिकी संगठन 'कोड पिंक' के कुछ सदस्यों ने बीते शनिवार को वाशिंगटन डी.सी. में स्थित होलोकॉस्ट म्यूज़ियम के सामने प्रदर्शन किया। उन्होंने ग़ाज़ा पट्टी पर जारी बमबारी और फ़िलिस्तीनियों को जानबूझकर भूखा रखने की नीति की निंदा की है।

प्रदर्शनकारियों ने अब कभी नहीं  मतलब किसी के लिए भी कभी नहीं" जैसे नारे लगाए और ग़ज़ा युद्ध तथा द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान भूख से पीड़ित बच्चों की तस्वीरें दिखाकर ज़ोर दिया कि अगर यहूदियों के ख़िलाफ़ नरसंहार और अत्याचार ग़लत हैं, तो ऐसा किसी और के साथ भी नहीं होना चाहिए।

इतिहास के अनुसार, प्रथम विश्वयुद्ध के बाद केवल 5 से 10 प्रतिशत यूरोपीय यहूदी ही फ़िलिस्तीन की ओर गए थे। यानी, नाज़ियों ने होलोकॉस्ट के दौरान उन अधिकांश यहूदियों को निशाना बनाया जिन्होंने यहूदी राष्ट्रवादियों द्वारा फ़िलिस्तीन प्रवास के आह्वान को अस्वीकार कर दिया था।

होलोकॉस्ट, जिसे लेकर आज भी कई सवाल और विवाद हैं, पश्चिम की ऐतिहासिक स्मृति में एक मानवीय त्रासदी के रूप में देखा जाता है। दशकों से, यहूदी राष्ट्रवाद यानी ज़ायोनिज़्म की आलोचना को यहूदी विरोध या यहूदियों पर अत्याचार की पुनरावृत्ति के रूप में देखा जाता रहा है।

 

हौज़ा-ए-इल्मिया ईरान के प्रमुख आयतुल्लाह अ'राफ़ी ने धार्मिक और क्रांतिकारी कला को बढ़ावा देने इस्लामी और शिया मूल्यों के प्रचार, तथा प्रतिबद्ध और क्रांतिकारी युवाओं की प्रशिक्षण में उस्ताद मसऊह नजाबती की वैचारिक और सांस्कृतिक सेवाओं को श्रद्धांजलि और सराहना के साथ याद किया।

क्रांतिकारी कलाकार उस्ताद मसऊह नजाबती के सम्मान में आयोजित कार्यक्रम "मसऊद-ए-हुनर" में आयतुल्लाह अ'राफ़ी का संदेश हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन अली अलीज़ादेह ने पढ़कर सुनाया, जिसका अनुवाद इस प्रकार है।

बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम

ईरान की इस्लामी संस्कृति और कला निस्संदेह एक बहुमूल्य और अनमोल खज़ाना है, जिसे इस भूमि के चिंतनशील और रचनात्मक लोगों ने मानवता के लिए एक तोहफे के रूप में पेश किया है।

इस उज्ज्वल धरोहर की रक्षा और प्रसार उन महान कलाकारों की मेहनत का परिणाम है जिन्होंने शुद्ध धार्मिक शिक्षाओं और ईरानी चिंतन से प्रेरणा लेकर रचनात्मकता और नवाचार के साथ इसकी रक्षा, प्रचार और विकास में अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया।

आदरणीय उस्ताद मसऊह नजाबती ज़िद अज़्ज़हुम

आपकी अनथक कोशिशें, राष्ट्रीय स्तर पर धार्मिक और क्रांतिकारी कलाकृतियों की रचना, और धर्म, क्रांति और प्रतिरोध की कला में आपकी सच्ची और संघर्षशील उपस्थिति ये सब आपकी बहुमूल्य, चमकदार और अविस्मरणीय सेवाओं की साक्षी हैं।

आपका विशेष ध्यान इस ओर रहा है कि इस्लामी और शिया मूल्यों को युवा कलाकारों में आम किया जाए। इस प्रशिक्षण का फल एक क्रांतिकारी और प्रतिबद्ध पीढ़ी के रूप में सामने आया है, जो इस उज्ज्वल मार्ग की उत्तराधिकारी है।

इसी तरह "कानून-ए-हुनर-ए-शिया" की स्थापना के माध्यम से शिया कला के पुनर्जीवन और प्रस्तुति के लिए आपकी कोशिशें आपके काम की एक और चमकदार झलक हैं, जिनसे इस्लामी ईरान की सांस्कृतिक पहचान को एक शानदार रूप में जीवित रखा गया।

राष्ट्रीय प्रतिभा संस्थान द्वारा आपको सर-आमद-ए-हुनरी (श्रेष्ठतम कलाकार) की उपाधि दिया जाना आपकी दशकों की वैचारिक और कलात्मक संघर्ष का व्यावहारिक स्वीकार है, जिसने आपको ईरान और समस्त इस्लामी जगत में एक विशिष्ट स्थान दिलाया है।

अतः मैं अपनी ओर से आपकी इन शुद्ध, प्रभावशाली और स्थायी कोशिशों की गहराई से सराहना करते हुए इस महान उपलब्धि पर आपको और समस्त कला एवं संस्कृति से जुड़े समुदाय को दिल से बधाई देता हूँ।

निश्चित रूप से इस भूमि के कलाकार आपकी निरंतर और ईमानदार मेहनत को हमेशा क़द्र की निगाह से देखते रहेंगे।मैं दुआ करता हूँ कि परवरदिगार आपको और अधिक सम्मान, सफलता और कामयाबियाँ अता फरमाए।

अली रज़ा आराफ़ी

प्रमुख, हौज़ा-ए-इल्मिया ईरान