رضوی
इमाम अली रज़ा अ. का संक्षिप्त जीवन परिचय।
अबुल हसन अली इब्ने मूसर्रेज़ा अलैहिस्सलाम जो इमाम रेज़ा अलैहिस्सलाम के नाम से मशहूर हैं, इसना अशरी शियों के आठवें इमाम हैं। आपके वालिद इमाम मूसा काज़िम अ. शियों के सातवें इमाम हैं।
आपका जन्म, मदीने में हुआ मगर अब्बासी ख़लीफा मामून अब्बासी आपको मजबूर करके मदीने से ख़ुरासान ले आया और उसने आपको अपनी विलायते अहदी (उत्तराधिकार) स्वीकार करने के लिए मजबूर किया। इमाम अ. ने मदीने से खुरासान जाते हुए नैशापूर में एक मशहूर हदीस बयान फ़रमाई जिसे हदीसे सिलसिलतुज़् ज़हब के नाम से याद किया जाता है। मामून ने आपको कम दिखाने की खातिर विभिन्न धर्मों और मज़हबों के उल्मा व बुद्धिजीवियों के साथ मुनाज़रा व बहस कराई लेकिन उसे पता नहीं था आपका इल्म अल्लाह का दिया हुआ है और इसीलिए आपने तमाम बहसों में आसानी के साथ दूसरे मज़हबों के उल्मा को धूल चटा दी और उन्होंने आपकी बड़ाई को स्वीकार कर लिया। आपकी इमामत की अवधि 20 साल थी और आप तूस (मशहद) में मामून के हाथों शहीद किए गए।
इमाम अली रेज़ा अ. मदीने में सन 148 हिजरी में पैदा हुए और सन 203 हिजरी में मामून अब्बासी के हाथों शहीद हुए। आपके वालिद इमाम मूसा काज़िम अ. शियों के सातवें इमाम हैं, आपकी माँ का नाम ताहिरा था और जब उन्होंने इमाम रेज़ा अ. को जन्म दिया था तो इमाम मूसा काज़िम अ. ने उन्हें ताहिरा का नाम दिया।
आपकी उपाधि “अबुल हसन” है। कुछ रिवायतों के अनुसार आपके उपनाम “रेज़ा”, “साबिर”, “रज़ी” और “वफ़ी” हैं हालांकि आपकी मशहूर उपाधि “रेज़ा” है।
आपकी एक ज़ौजा का नाम सबीका था और कहा गया है कि उनका सम्बंध उम्मुल मोमेनीन मारिया क़िबतिया के परिवार से था।
कुछ अन्य किताबों में सबीका के अलावा इमाम अ की एक बीवी और भी थीं, दास्तान इस तरह है:
मामून अब्बासी ने इमाम रज़ा अ को सुझाव दिया कि उसकी बेटी उम्मे हबीब से निकाह कर लें और इमाम अ. ने भी यह प्रस्ताव स्वीकार कर लिया।
तबरी ने इस घटना को सन 202 हिजरी की घटनाओं के संदर्भ में बयान किया है। कहा गया है कि इस काम से मामून का लक्ष्य यह था कि इमाम रेज़ा अ. से ज़्यादा से ज़्यादा क़रीब हो सके और आपके घर में घुस कर आपकी ख़ुफिया पालीसियों पर नज़र रख सकें। याफ़ेई के अनुसार मामून की बेटी का नाम “उम्मे हबीबा था जिसकी शादी उसने इमाम रज़ा अ से की। सिव्ती ने भी इमाम रज़ा अ से मामून की बेटी की शादी की ओर इशारा किया है लेकिन उसका नाम बयान नहीं किया है।
इमाम रेज़ा अ. की औलाद की संख्या के बारे में कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि आपकी औलाद की संख्या 6 है: 5 बेटे “मोहम्मद क़ानेअ, हसन, जाफ़र, इब्राहीम, हुसैन और एक बेटी।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के ज़माने के राजनीतिक हालात का वर्णन
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की इमामत वाला जीवन बीस साल का था जिसको हम तीन भागों में बांट सकते हैं।
1. पहले दस साल हारून के ज़माने में
2. दूसरे पाँच साल अमीन की ख़िलाफ़त के ज़माने में
3. आपकी इमामत के अन्तिम पाँच साल मामून की ख़िलाफ़त के साथ थे।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का कुछ जीवन हारून रशीद की ख़िलाफ़त के साथ था, इसी ज़माने में अपकी पिता इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम की शहादत हुई, इस ज़माने में हारून शहीद को बहुत अधिक भड़काया गया ताकि इमाम रज़ा को वह क़त्ल कर दे और अन्त में उसने आपको क़त्ल करने का मन बना लिया, लेकिन वह अपने जीवन में यह कार्य नहीं कर सका, हारून शरीद के निधन के बाद उसका बेटा अमीन ख़लीफ़ा हुआ, लेकिन चूँकि हारून की अभी अभी मौत हुई थी और अमीन स्वंय सदैव शराब और शबाब में लगा रहता था इसलिए हुकुमत अस्थिर हो गई थी और इसीलिए वह और सरकारी अमला इमाम पर अधिक ध्यान नहीं दे सका, इसी कारण हम यह कह सकते हैं कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के जीवन का यह दौर काफ़ी हद तक शांतिपूर्ण था।
लेकिन अन्तः मामून ने अपने भाई अमीन की हत्या कर दी और स्वंय ख़लीफ़ा बन बैठा और उसने विद्रोहियों का दमन करके इस्लामी देशों के कोने कोने में अपना अदेश चला दिया, उसने इराक़ की हुकूमत को अपने एक गवर्नर के हवाले की और स्वंय मर्व में आकर रहने लगा, और राजनीति में दक्ष फ़ज़्ल बिन सहल को अपना वज़ीर और सलाहकार बनाया।
लेकिन अलवी शिया उसकी हुकूमत के लिए एक बहुत बड़ा ख़तरा थे क्योंकि वह अहलेबैत के परिवार वालों को ख़िलाफ़त का वास्तविक हक़दार मसझते थे और, सालों यातना, हत्या पीड़ा सहने के बाद अब हुकूमत की कमज़ोरी के कारण इस स्थिति में थे कि वह हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़े हों और अब्बासी हुकूमत का तख़्ता पलट दें और यह इसमें काफ़ी हद तक कामियाब भी रहे थे, और इसकी सबसे बड़ी दलील यह है कि जिस भी स्थान से अलवी विद्रोह करते थे वहां की जनता उनका साथ देती थी और वह भी हुकूमत के विरुद्ध उठ खड़ी होती थी। और यह दिखा रहा था कि उस समय की जनता हुकूमत के अत्याचारों से कितनी त्रस्त थी।
और चूँकि मामून ने इस ख़तरे को भांप लिया था इसलिए उसने अलवियों के इस ख़तरे से निपटने के लिए और हुकूमत को कमज़ोर करने वालों कारणों से निपटने के लिये कदम उठाने का संकल्प लिया उसने सोच लिया था कि अपनी हुकूमत को शक्तिशाली करेगा और इसीलिये उसने अवी वज़ीर फ़ज़्ल से सलाह ली और फ़ैसला किया कि अब धोखे बाज़ी से काम लेगा, उसने तै किया कि ख़िलाफ़ को इमाम रज़ा को देने का आहवान करेगा और ख़ुद ख़िलाफ़त से अलग हो जाएगा।
उसको पता था कि ख़िलाफ़ इमाम रज़ा के दिये जाने का आहवान का दो में से कोई एक नतीजा अवश्य निकलेगा, या इमाम ख़िलाफ़त स्वीकार कर लेंगे, या स्वीकार नहीं करेंगे, और दोनों सूरतों में उसकी और अब्बासियों की ख़िलाफ़त की जीत होगी।
क्योंकि अगर इमाम ने स्वीकार कर लिया तो मामून की शर्त के अनुसार वह इमाम का वलीअह्द या उत्तराधिकारी होता, और यह उसकी ख़िलाफ़त की वैधता की निशानी होता और इमाम के बाद उसकी ख़िलाफ़त को सभी को स्वीकार करना होता। और यह स्पष्ट है कि जब वह इमाम का उत्तराधिकारी हो जाता तो वह इमाम को रास्ते से हटा देता और शरई एवं क़ानूनी तौर पर हुकूमत फिर उसको मिल जाती, और इस सूरत में अलवी और शिया लोग उसकी हुकूमत को शरई एवं क़ानूनी समझते और उसको इमाम के ख़लीफ़ा के तौर पर स्वीकार कर लेते, और दूसरी तरफ़ चूँकि लोग यह देखते कि यह हुकूमत इमाम की तरफ़ से वैध है इसलिये जो भी इसके विरुद्ध उठता उसकी वैधता समाप्त हो जाती।
उसने सोंच लिया था (और उसको पता था कि इमाम को उसकी चालों के बारे में पता होगा) कि अगर इमाम ने ख़िलाफ़त के स्वीकार नहीं किया तो वह इमाम को अपना उत्तराधिकारी बनने पर विवश कर देगा, और इस सूरत में भी यह कार्य शियों की नज़रों में उसकी हुकूमत के लिए औचित्य बन जाएगा, और फ़िर अब्बासियों द्वारा ख़िलाफ़त को छीनने के बहाने से होने वाले एतेराज़ और विद्रोह समाप्त हो जाएगे, और फिर किसी विद्रोही का लोग साथ नहीं देंगे।
और दूसरी तरफ़ उत्तराधिकारी बनाने के बाद वह इमाम को अपनी नज़रों के सामने रख सकता था और इमाम या उनके शियों की तरफ़ से होने वाले किसी भी विद्रोह का दमन कर सकता था, और उसने यह भी सोंच रखा थी कि जब इमाम ख़िलाफ़त को लेने से इन्कार कर देंगे तो शिया और उसने दूसरे अनुयायी उनके इस कार्य की निंदा करेंगे और इस प्रकार दोस्तों और शियों के बीच उनका सम्मान कम हो जाएगा।
मामून ने सारे कार्य किये ताकि अपनी हुकूमत को वैध दर्शा सके और लोगों के विद्रोहों का दमन कर सके, और लोगों के बीच इमाम और इमामत के स्थान को नीचा कर सके लेकिन कहते हैं न कि अगर इन्सान सूरज की तरफ़ थूकने का प्रयत्न करता है तो वह स्वंय उसके मुंह पर ही गिरता है और यही मामून के साथ हुआ, इमाम ने विवशता में उत्तराधिकारी बनना स्वीकार तो कर लिया लेकिन यह कह दिया कि मैं हुकूमत के किसी कार्य में दख़ल नहीं दूँगा, और इस प्रकार लोगों को बता दिया कि मैं उत्तराधिकारी मजबूरी में बना हूँ वरना अगर मैं सच्चा उत्तराधिकारी होता तो हुकूमत के कार्यों में हस्तक्षेप भी अवश्य करता। और इस प्रकार मामून की सारी चालें धरी की धरी रह गईं
इमाम रज़ा (अ) के ज़ियारत का सवाब
इमाम रज़ा (अ) ने एक रिवायत में अपनी शहादत और ज़ियारत के सवाब का ज़िक्र किया है।
यह रिवायत अल ख़िसाल किताब से ली गई है। इस रिवायत का पाठ इस प्रकार है:
قال الامام الرضا علیه السلام:
ألا وإنّی لَمَقتولٌ بِالسَّمِّ ظُلماً، ومَدفونٌ فی مَوضِعِ غُربَةٍ، فَمَن شَدَّ رَحلَهُ إلى زِیارَتی استُجیبَ دُعاؤهُ وغُفِرَ لَهُ ذَنبُهُ.
हज़रत इमाम रज़ा (अ) ने फ़रमाया:
जान लो कि मुझे ज़हर देकर नाहक़ मार दिया जाएगा और किसी सुनसान जगह पर दफ़न कर दिया जाएगा। इसलिए जो कोई मेरी ज़ियारत के लिए यात्रा करेगा, उसकी दुआ कुबूल की जाएगी और उसके गुनाह माफ़ कर दिए जाएँगे।
अल ख़िसाल, पेज 144, अध्याय 167
हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के मौके पर पूरे ईरान में ग़म का माहौल
आज 24 अगस्त को इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के दु:खद अवसर पर पूरे ईरान में शोक सभाएं आयोजित की जा रही हैं और जूलूस निकाले जा रहे हैं।
आज रविवार 24 अगस्त को पैग़म्बरे इस्लाम (स.ल.) के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के दुखद अवसर पर पूरे ईरान में शोक सभाएं आयोजित की जा रही हैं।
दुनिया भर में और ख़ास तौर पर ईरान में शिया मुसलमान अपने आठवें इमाम हज़रत इमाम अली रज़ा (अ.स.) की शहादत की बरसी पर शोक और ग़म मना रहे हैं।उधर ख़ुरासाने रिज़वी प्रांत के गवर्नर ने कहा है कि अब तक 2 लाख 15 तीर्थयात्री और श्रद्धालु पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं।
याक़ूब अली नज़री ने कहा कि इस समय पवित्र नगर मशहद में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े पर तीर्थयात्रियों का क्रम जारी है और अधिकतर होटल और अस्थाई विश्राम घर भर चुके हैं। उन्होंने बताया कि होटल और मुसाफ़िर ख़ाने 90 प्रतिशत तक भर चुके हैं।
ख़बरों में बताया गया है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए 10 हज़ार से अधिक बाहरी ज़ायरीन ज़मीनी रास्ते से पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं जबकि सैकड़ों भारतीय श्रद्धालु भी मशहद में मौजूद हैं।
इस मौके पर हौज़ा न्यूज़ की ओर से सभी लोगों की खिदमत में तसलियत पेश करते हैं।
दुआ कभी भी बेअसर नहीं होती
दुआ ईमान वाले इंसान का सबसे प्रभावी और श्रेष्ठतम साधन है, और यदि इसका प्रभाव तुरंत दिखाई न भी दे, तो उचित समय पर अवश्य प्रकट होता है। दुआ का प्रभाव कभी खत्म नहीं होता, बस कभी-कभी देर से दिखाई देता है। इसलिए हमें ईमानदारी और विनम्रता के साथ अल्लाह तआला से दुआ करनी चाहिए कि वह बिगाड़ पैदा करने वालों और तागूत (शैतानी शक्तियों) को नष्ट कर दे और उनका विनाश कर दे।
मरहूम आयतुल्लाह बहजत ने दरस-ए-ख़ारिज के दौरान "दुआ के प्रभावों" के विषय की ओर संकेत किया और कहा कि यह बात आप विद्वान लोगों के लिए है।
वर्तमान परिस्थितियों में हमारे पास दुआ से बढ़कर कोई हथियार नहीं है।
निस्संदेह दुआ प्रभाव रखती है।
हालांकि इसका प्रभाव तुरंत और तात्कालिक रूप से दिखाई न दे, लेकिन निश्चित रूप से "किसी अन्य समय और अवसर पर इसका परिणाम प्रकट होगा।
दुआ का प्रभाव कभी-कभी देर से हो जाता है लेकिन कभी खत्म नहीं होता।
इसलिए हमें ईमानदारी और विनम्रता के साथ अल्लाह तआला से दुआ करनी चाहिए कि वह बिगाड़ पैदा करने वालों और तागूत (शैतानी शक्तियों) को नष्ट कर दे और उनका विनाश कर दे।
इस्लामी आदाब का पालन करना बाहरी रूप से भी महत्वपूर्ण और आवश्यक
अच्छे और धर्मपरायण बंदों के चेहरे पर ईमान और इबादत के निशान होने चाहिए और बंदगी व सज्दा का प्रभाव उनके चेहरे पर दिखाई देना चाहिए। इस्लामी आदाब, हया, इफ्फत और बाहरी अनुशासन का पालन करना दूसरों को धर्म की ओर आकर्षित करता है और एकांतवास व विरक्ति से बचाता है। पुरुष और महिला दोनों इस बात के जिम्मेदार हैं कि वे अपने बाहरी रूप और व्यवहार से ईमान, नमाज और तक्वा का नूर प्रकट करें ताकि दूसरे लोग उनके चरित्र से प्रभावित हों।
हुज्जतुल इस्लाम वाल मुस्लिमीन मांदगारी ने अपने एक भाषण में अच्छे लोगों के चेहरे के विषय पर चर्चा करते हुए कहा,अम्र बिल मारूफ (भलाई का आदेश देना) और नही अनिल मुनकर (बुराई से रोकना) करने वालों की प्रमुख विशेषताओं में से एक, सूरह फतह की इस सुंदर आयत का व्यावहारिक उदाहरण बनना है जहाँ कहा गया है, मुहम्मद अल्लाह के रसूल हैं और जो लोग उनके साथ हैं, वे काफिरों पर सख्त और आपस में दयालु हैं।
आप उन्हें रुकू और सज्दा करते हुए देखते हैं, वे अल्लाह का अनुग्रह और उसकी प्रसन्नता चाहते हैं। उनकी पहचान उनके चेहरों पर सज्दे के निशान से है। तो इस आयत के अंत में स्पष्ट रूप से कहा गया है कि उनके चेहरों पर सज्दे और बंदगी के प्रभाव दिखाई देते हैं।
उन्होंने आगे कहा, रिवायतों में भी इस बात पर जोर दिया गया है और कुरानिक दलीलों के साथ-साथ हमारे पास एक तार्किक, युक्तिसंगत और सामान्य दलील भी मौजूद है। अगर किसी दुकान में कोई चीज मौजूद हो तो दुकानदार हमेशा उसकी एक नमूना शोकेस में रखता है।
इसी तरह अगर हमारे दिल में अल्लाह पर ईमान और कयामत पर यकीन मौजूद है तो उसकी कोई न कोई निशानी हमारे बाहरी रूप और चेहरे पर भी दिखाई देनी चाहिए।
हालांकि इंसान का आंतरिक स्वरूप अधिक महत्व रखता है लेकिन बाहरी रूप (जाहिर) भी बेअसर नहीं है। जब हम "अच्छे और धर्मपरायण बंदों के चेहरे" की बात करते हैं तो इसका मतलब यह है कि हर व्यक्ति को अपने बाहरी रूप में भी ईमान और धार्मिकता के संकेत दिखाने चाहिए।
हुज्जतुल इस्लाम मांदगारी ने कहा,महिलाओं को अच्छे बंदों का चेहरा अपनी शांति, गरिमा, लज्जा और पवित्रता के माध्यम से प्रकट करना चाहिए और बाहरी शिष्टाचार का पालन करना चाहिए। इसी तरह पुरुष, जो यह कहना चाहते हैं कि "हम इस्लामी व्यवस्था के सिपाही हैं चाहे वे प्रबंधक हों, कार्यकर्ता, पुलिस अधिकारी, सिपाही, सैनिक, कार्यालय कर्मचारी, वकील, मंत्री या कमांडर, उन्हें भी अपने चेहरे और व्यवहार में इबादत और बंदगी के प्रभाव प्रकट करने चाहिए।
उन्होंने आगे कहा,हालांकि इसका यह मतलब नहीं है कि इंसान भगवान न करे कृत्रिम रूप से माथे पर कोई निशान बनाए ताकि सब देखें, बल्कि जब कोई चालीस या पचास साल नमाज और सज्दे का पाबंद रहे तो उसका प्रभाव स्वाभाविक रूप से उसके चेहरे पर स्पष्ट हो जाता है। इसलिए अच्छे और धर्मपरायण बंदों का चेहरा भी धार्मिकता और इस्लामी शिष्टाचार के संकेतों का केंद्र होना चाहिए।
हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के मौके पर शोक में डूबा ईरान
आज पूरे ईरान में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत का ग़म मनाया जा रहा है जगह जगह मजलिस और जुलूस निकाले जा रहे हैं।
ईरान में आज इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत का शोक मनाया जा रहा है।
आज पैग़म्बरे इस्लाम स.ल. के पौत्र इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के दुखद अवसर पर पूरे ईरान में शोक सभाएं आयोजित की जा रही हैं और जूलूस निकाले जा रहे हैं।
दुनिया भर में और ख़ास तौर पर ईरान में शिया मुसलमान अपने आठवें इमाम हज़रत इमाम अली रज़ा अ.स. की शहादत की बरसी पर शोक और ग़म मना रहे हैं।
उधर ख़ुरासाने रज़वी प्रांत के गवर्नर ने कहा है कि अब तक 26 लाख 15 तीर्थयात्री और श्रद्धालु पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं।
ख़बरों में बताया गया है कि इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की शहादत के कार्यक्रम में भाग लेने के लिए 10 हज़ार से अधिक पाकिस्तानी तीर्थयात्री ज़मीनी रास्ते से पवित्र नगर मशहद पहुंच चुके हैं जबकि सैकड़ों भारतीय श्रद्धालु भी मशहद में मौजूद हैं।
हज़रत इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम का शहादत के मौके पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब
आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत के मौके पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा मशहद के चारों तरफ़ दूर दूर की बस्तियों, गावों और शहरों से श्रद्धालु पैदल चलकर मशहद पहुंचे जबकि दुनया के दर्जनों देशों से भी श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या मशहद में नज़र आई।
पैग़म्बरे इस्लाम के वंशज और शिया मसलक के मानने वालों के आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत दिवस पर शनिवार को पूरा ईरान शोक में डूबा रहा।
आठवें इमाम हज़रत रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत के मौके पर श्रद्धालुओं का जनसैलाब उमड़ पड़ा मशहद के चारों तरफ़ दूर दूर की बस्तियों, गावों और शहरों से श्रद्धालु पैदल चलकर मशहद पहुंचे जबकि दुनया के दर्जनों देशों से भी श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या मशहद में नज़र आई।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के रौज़े के पैग़म्बरे आज़म में लाखों लोगों का मजमा नज़र आया और सबने बड़ी श्रद्धा से इमाम रज़ा का शहादत दिवस मनाया।
इस मौक़े पर सारे ही लोग शोकाकुल थे मगर जिस एकता व समरसता का प्रदर्शन किया गया वो अपने आप में बहुत बड़ा संदेश है।
कल के दिन मशहद में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के हरम में कई पारम्परिक कार्यक्रम आयोजित किए गए जिसमें श्रद्धालुओं ने बढ़ चढ़कर हिस्सा लिया।
इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम के शहादत दिवस पर पवित्र नगर क़ुम में भी श्रद्धालुओं ने भव्य कार्यक्रम आयोजित किया क़ुम में इमाम रज़ा अलैहिस्सलाम की बहन हज़रत मासूमा का रौज़ा है श्रद्धालुओं की बड़ी संख्या ने क़ुम में हज़रत मासूमा के रौज़े में पहुंच कर ताज़ियत संवेदना पेश करने के कार्यक्रम में हिस्सा लिया।
पैग़म्बर (स) की वफ़ात और उम्मते मुहम्मदिया
हम देखते हैं कि दुनिया अपने सांसारिक विकास और वैज्ञानिक व शैक्षणिक प्रगति में कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है; हज़ारों-लाखों वर्षों के मानव इतिहास को समेटा जा रहा है। धरती और आकाश की आयु निर्धारित करने के साथ-साथ, धरती और आकाश में होने वाले परिवर्तनों और घटनाओं के कालखंडों का भी वर्णन किया जा रहा है। हज़ारों वर्ष पूर्व के मानव और यहाँ तक कि पशुओं की हड्डियों और अवशेषों का अवलोकन और वैज्ञानिक विश्लेषण करके, सम्पूर्ण सभ्यता का एक मानचित्र प्रस्तुत किया जा रहा है, लेकिन दूसरी ओर, यह त्रासदी भी है कि केवल चौदह-पंद्रह सौ वर्ष पूर्व घटित स्पष्ट, विस्तृत और प्रसिद्ध घटनाओं के इतिहास को लेकर दुविधा बनी हुई है।
हम देखते हैं कि दुनिया अपने सांसारिक विकास और वैज्ञानिक व शैक्षणिक प्रगति में कितनी तेज़ी से आगे बढ़ रही है; हज़ारों-लाखों वर्षों के मानव इतिहास को समेटा जा रहा है। धरती और आकाश की आयु निर्धारित करने के साथ-साथ, धरती और आकाश में होने वाले परिवर्तनों और घटनाओं के कालखंड बताए जा रहे हैं। हज़ारों साल पहले मौजूद इंसानों और यहाँ तक कि जानवरों की हड्डियों और अवशेषों का अवलोकन और वैज्ञानिक विश्लेषण करके पूरी सभ्यता का नक्शा पेश किया जा रहा है, लेकिन दूसरी ओर, यह त्रासदी भी है कि केवल चौदह या पंद्रह सौ साल पहले घटित स्पष्ट, विस्तृत और प्रसिद्ध घटनाओं के इतिहास को लेकर दुविधा बनी हुई है।
मुस्लिम उम्माह का एक दुर्भाग्य यह है कि जिस पैग़म्बर (स) के हम अनुयायी और अनुयायी हैं, उनके बारे में हमें पर्याप्त निश्चित जानकारी नहीं है; वह किस दिन, किस वर्ष और किस समय इस दुनिया में आए? यानी उनका जन्मदिन और उनके आगमन का दिन कब है? इसी तरह, हमारे पास इस बारे में भी पर्याप्त निश्चित जानकारी नहीं है कि हमारे पैग़म्बर (स) किस दिन, किस तारीख को, कैसे और किस समय इस दुनिया से चले गए, यानी उनका निधन और उनके वियोग का दिन कब है?
जन्म के दिन के बारे में जो बहाना बनाया जाता है वह यह है कि उस समय कैलेंडर नहीं बना था, महीना और साल तय नहीं हुआ था, और लोगों में अपने बच्चों के जन्म के दिन को लिखने या याद रखने की इच्छा और रिवाज़ नहीं था। हालाँकि इस बहाने में कोई सच्चाई नहीं है, लेकिन अगर हम एक पल के लिए इस बहाने को मान भी लें, तो ठीक तिरसठ साल बाद, पवित्र क़ुरआन लिखा जा चुका था, अभियानों की तारीखें दर्ज की जा चुकी थीं, मक्का की हिजरत और फ़तह की तारीखें दर्ज की जा चुकी थीं। दूसरे शब्दों में, नबी-ए-पाक के ज़माने की सारी घटनाएँ लिखी या कही जा चुकी थीं, तो फिर ऐसा क्या हुआ कि नबी-ए-पाक (स) के इस दुनिया से रुख़सत होने का दिन याद नहीं रहता? विश्लेषण के लिए बहुत सी बातें कही जा सकती हैं और ऐतिहासिक प्रमाणों को सामने रखकर हज़ारों बातें कही जा सकती हैं, लेकिन हक़ीक़त यह है कि या तो मुसलमान समुदाय को अपने नबी-ए-पाक (स) के रुख़सत होने के दिन में कोई दिलचस्पी नहीं है या फिर कुछ ऐसे छुपे हुए राज़ हैं जो रुख़सत होने के दिन के ज़िक्र से बिखर जाते हैं।
मुसलमानों के इतिहास में अपने ही रसूल (स) के स्वर्गवास के कारणों को लेकर मतभेद हैं। ख़ैबर की लड़ाई में दिए गए ज़हर से लेकर भयंकर बुखार तक, कई अलग-अलग कहानियाँ सुनाई जाती हैं। रसूल (स) का इतिहास रसूल (स) के परिवार और रिश्तेदारों से लेने के बजाय उनसे लेने की अटूट आदत के कारण, कई मामलों में अंतराल या मतभेद हैं। यह अंतराल पाटा जा सकता था और यह मतभेद दूर हो सकता था यदि रसूल (स) के परिवार यानी अहले बैत (अ) की बातों पर भरोसा किया जाता और उन पर विश्वास किया जाता। जन्म के मामले में, यदि हज़रत अबू तालिब (अ) और सय्यदा फ़ातिमा बिन्त असद (अ) और उनके परिवार से परामर्श किया जाता, तो रसूल (स) के जन्म के मामले में कोई मतभेद न होता। इसी प्रकार, मृत्यु, शहादत या वफ़ात के मामले में, यदि जगत के स्वामी हज़रत अली (अ) और सय्यदा अल-निसा अल-आलमीन (अ) फ़ातिमा अल-ज़हरा (स) और उनकी संतानों के कथनों को स्वीकार कर लिया जाता, तो विदा के दिन के मामले में कोई अंतर नहीं होता।
मुस्लिम इतिहासकारों को पैग़म्बर (स) की जीवनी या पैग़म्बर (स) के जीवन और जीवन का वर्णन उनके जन्म से शुरू होकर उनके संपूर्ण जीवन की घटनाओं से होते हुए, अंततः पैगम्बर (स) के अंतिम दिनों तक पहुँचने और उनके इस दुनिया से चले जाने के कारणों का उल्लेख करने के लिए बाध्य किया गया है। यदि मुस्लिम इतिहासकारों के बस में होता, तो वे पैगम्बर (स) के अंतिम दिनों, विशेषकर उनके विदा होने के दिन का उल्लेख न करते, परन्तु यह उल्लेख संभव नहीं है। अल्लाह की कसम, आखिर क्या बात है और क्या हक़ीक़त है कि इतिहासकारों ने पैग़म्बर (स) के जाने के कारणों और उनकी बीमारी के कारणों पर विस्तार से चर्चा की है, पैग़म्बर की वफ़ात के दिन की तो बात ही छोड़ दीजिए, और यहाँ तक कि पैग़म्बर की वफ़ात के दिन का ज़िक्र भी इस तरह किया है कि आज पूरी उम्मत या तो अपने पैग़म्बर (स) के जाने के दिन से अनजान है, या जानबूझकर चुप है या फिर मतभेद में है।
अगर हम ख़ुद मुस्लिम इतिहासकारों द्वारा लिखे गए इतिहास पर एक नज़र डालें, तो हम तीन बातें निकाल सकते हैं, जिन पर पैग़म्बर (स) की वफ़ात के अध्याय लिखते समय ध्यान नहीं दिया गया या ध्यान में नहीं रखा गया। इन तीन बातों में तीन घटनाएँ भी शामिल हैं। पहली घटना ख़ैबर की लड़ाई के मौक़े पर पैग़म्बर (स) को ज़हर दिए जाने से जुड़ी है, जिसका असर उनके शरीर पर लगातार बना रहा। शायद हमारे इतिहासकार ज़हर दिए जाने की इस घटना के पीछे की साज़िश के विवरण से बचना चाहते थे। दूसरी घटना बुखार की बढ़ती गंभीरता और पैगम्बर (स) का अपने साथियों से संपर्क कम होना और केवल अपने परिवार तक ही सीमित रहना था। तीसरी घटना क़र्तस की घटना है, जो एक प्रसिद्ध घटना है। इस घटना पर टिप्पणी करने और अपना रुख स्पष्ट करने से बचने की नीति ने भी संभवतः हमें पैग़म्बर (स) की मृत्यु का विस्तृत उल्लेख लिखने की अनुमति नहीं दी।
हमारे शोध के अनुसार, शायद यही कारण है कि पैग़म्बर (स) का जन्मदिन न मनाने, या इसके उत्सव का विरोध करने, या इसे एक नवीनता घोषित करने का वास्तविक कारण यह प्रतीत होता है कि यदि उम्मत को पैगंबर का जन्मदिन मनाने की अनुमति दी जाती या प्रोत्साहित किया जाता, और उम्मत ने पैगंबर के जन्मदिन को उनके जन्म के दिन, खुशी के साथ मनाया होता,एक बार ज़िक्र हो जाने के बाद, जब उनकी वफ़ात का दिन आएगा, तो उम्मत इस दिन को मनाते हुए अपने नबी की बीमारी का ज़िक्र ज़रूर करेगी। फिर बीमारी की प्रकृति और स्थिति के बारे में बात करेगी। फिर बीमारी के दौरान घटित घटनाओं का वर्णन करेगी। फिर प्यारे नबी (स) की बीमारी और बीमारी के दौरान उनका ध्यान रखने और बेपरवाह व उदासीन रहने के बारे में बात करेगी। इसीलिए इतिहासकारों ने नबी (स) के निधन का कोई निश्चित दिन नहीं बताया है ताकि अगर आने वाली पीढ़ियाँ पिछले इतिहास के बारे में पूछें, तो उन्हें कोई निश्चित जानकारी, कोई स्पष्ट ऐतिहासिक संदर्भ न मिले। कोई प्रामाणिक राय न मिले। कोई निर्विवाद और सर्वमान्य बात न मिले। इस तरह, उम्मत क़यामत के दिन ढोल-नगाड़े बजाती हुई अपने नबी (स) की उपस्थिति में पहुँचेगी, जहाँ सारे पर्दे उठ जाएँगे, सारे राज़ खुल जाएँगे, सारे नकाब उतार दिए जाएँगे, सारे तथ्य प्रकाश में आ जाएँगे और पूरा प्रामाणिक इतिहास प्रस्तुत किया जाएगा।
लेखक: सय्यद इज़हार महदी बुखारी
इमाम हसन मुज्तबा (अ) का शांति और बुद्धिमत्ता का संदेश
इमाम हसन मुज्तबा (अ) की जीवनी हमें यह भी बताती है कि असली ताकत तलवार में नहीं, बल्कि चरित्र की दृढ़ता, सिद्धांतों पर दृढ़ता और उच्च नैतिकता में निहित है।
सफ़र की 28 तारीख़ न केवल पवित्र पैग़म्बर (स) की वफ़ात का दिन है, बल्कि उनके प्रिय नवासे इमाम हसन मुज्तबा (अ) की शहादत का भी दिन है। उनके जीवन और शहादत में समस्त मानवता के लिए बुद्धिमत्ता, शांति और बलिदान का एक गहरा और शाश्वत संदेश निहित है। समय की बारीकियों को समझते हुए, उन्होंने शांति स्थापित करने का जो निर्णय लिया, वह एक झटका लग सकता है, लेकिन वास्तव में यह उस समय की सबसे बड़ी जीत थी।
उम्मत की एकता का महान लक्ष्य
इमाम हसन (अ) ने देखा कि अगर वे लड़ेंगे, तो मुस्लिम उम्मत और भी विभाजित हो जाएगी। आंतरिक गृहयुद्ध के कारण हज़ारों निर्दोष लोग मारे जाएँगे और इस्लाम के दुश्मनों को इसका फ़ायदा उठाने का मौक़ा मिलेगा। आपका यह फ़ैसला सिर्फ़ अपनी सत्ता का त्याग नहीं था, बल्कि उम्माह की एकता और अस्तित्व के लिए एक महान बलिदान था। यह कार्य आज भी हमें सिखाता है कि बड़े लक्ष्यों के लिए निजी हितों का त्याग करना ही सच्चा नेतृत्व है।
धैर्य, त्याग और बुद्धि
इमाम हसन की शांति हमें सिखाती है कि कभी-कभी, सही होते हुए भी, हमें बुद्धि और धैर्य का सहारा लेना चाहिए। दिखावटी युद्ध के बजाय, उन्होंने अपने चरित्र और धैर्य से झूठ पर विजय प्राप्त की। उनके इस बलिदान ने इस्लाम की मूल शिक्षाओं को, जो शांति, भाईचारे और सहिष्णुता पर आधारित हैं, सुरक्षित रखा। यह संदेश आज भी हमारे लिए एक प्रकाशस्तंभ है, व्यक्तिगत क्रोध और बदले की भावना से ऊपर उठकर एक बड़े लक्ष्य के लिए बलिदान देने का।
मानवता के लिए संदेश
इमाम हसन मुज्तबा (अ) की जीवनी हमें यह भी बताती है कि असली शक्ति तलवार में नहीं, बल्कि चरित्र की दृढ़ता, सिद्धांतों पर अडिगता और उच्च नैतिकता में निहित है। ज़हर दिए जाने के बावजूद, उन्होंने अपने हत्यारे का नाम तक नहीं बताया, ताकि कोई नया राजद्रोह न पनपे। यही क्षमा का वह महान उदाहरण है जो आज भी इंसानों को एक-दूसरे से प्रेम और सहिष्णुता की शिक्षा देता है।
आज के समय में इमाम हसन (अ) का संदेश
इमाम हसन (अ) का जीवन आज के अशांत समय में हमें शांति, भाईचारा और क्षमा का पाठ पढ़ाता है। हमें अपनी सोच, सामाजिक संबंधों और वैश्विक स्तर पर इन सिद्धांतों को अपनाने की ज़रूरत है ताकि अराजकता और नफ़रत के बजाय एक शांतिपूर्ण और बेहतर दुनिया की स्थापना हो सके। इमाम हसन (अ) का जीवन हमें सिखाता है कि सच्ची सफलता किसी की जान लेने में नहीं, बल्कि दिल जीतने में है।













