
رضوی
इमाम अली (अ) का काबा में जन्म: एक संवाद
इमाम अली (अ.स.) का काबा में जन्म न केवल उनकी विशेषता को दर्शाता है, बल्कि यह इस्लाम के इतिहास में एक अद्वितीय और दिव्य घटना है। यह इस बात को सिद्ध करता है कि इमाम अली (अ.स.) का जन्म एक दिव्य रहमत का परिणाम था और उन्हें विशेष सम्मान प्राप्त था।
इमाम अली (अ.स.) का काबा में जन्म इस्लामी इतिहास का एक महत्वपूर्ण और दिलचस्प विषय है, जिस पर शिया और सुन्नी उलमा के बीच अनेक बहसें और संवाद हो चुके हैं। यह विषय खास तौर पर अल-गदीर नामक किताब के छठे खंड में आयतुल्ला अमीनी द्वारा विस्तार से बताया गया है, जहाँ उन्होंने इस बात को 16 काबिल एतबार सुन्नी किताबों से उद्धृत किया है, जो इमाम अली (अ.स.) की खासियत और उनके जन्म के सम्मान को दर्शाती है।
हाकिम ने अपनी किताब मुसतद्रक में इस घटना को मुतवातिर हदीस (जिसे बार-बार विभिन्न रिवायतों में तसदीक किया गया हो) कहा है, और इसे पूरी तरह से सही ठहराया है। अब इस संवाद को ध्यान से पढ़े, जो एक शिया और एक सुन्नी विद्वान के बीच हुआ:
सुन्नी विद्वान: इतिहास में यह भी लिखा है कि हकीम बिन हेज़ाम भी काबा में जन्मे थे।
शिया विद्वान: यह बात ऐतिहासिक रूप से साबित नहीं है। बड़े सुन्नी विद्वान जैसे इब्न-सबाग मालिकी, कंजी शाफ़ई और शिबलंजी कहते हैं कि "इमाम अली (अ.स.) से पहले काबा में कोई नहीं पैदा हुआ है।" हकीम बिन हेज़ाम, इमाम अली (अ.स.) से बड़े थे, तो यह बात केवल शत्रुओं की चालाकियों का हिस्सा है, जिन्होंने इमाम अली (अ.स.) की काबा में पैदाइश की खासियत को नकारने के लिए यह झूठ फैलाया।
सुन्नी विद्वान: काबा में पैदा होने से क्या फर्क पड़ता है? क्या वह कोई खास बात है?
शिया विद्वान: जब कोई इंसान किसी पवित्र स्थान पर पैदा होता है, तो यह अलग बात होती है। यदि किसी विशेष रूप से और ख़ुदाई रहमत से इमाम अली (अ.स.) को काबा जैसे पवित्र स्थान पर जन्म दिया गया है, तो यह उस शख्स की महानता और शुद्धता को दर्शाता है। इमाम अली (अ.स.) की काबा में पैदाइश उसी विशेष कृपा और आशीर्वाद का परिणाम थी, और यह उनकी महानता को सिद्ध करता है।
सुन्नी विद्वान: जब इमाम अली (अ.स.) का जन्म हुआ था, उस वक्त काबा में बुतपरस्ती का प्रचलन था। क्या यह जन्म महत्वपूर्ण होगा?
शिया विद्वान: काबा, जो पहले से ही पूरी धरती पर सबसे पवित्र स्थान था, कुछ समय के लिए बुतों की पूजा का स्थान बन गया था, लेकिन फिर भी उसकी पवित्रता में कोई कमी नहीं आई। जब काबा का इतना महान और पवित्र स्थान है, तो यह हमारी नज़रों में उसकी महानता में कोई कमी नहीं लाता। और जैसे कि इमाम अली (अ.स.) की माता, फातिमा बिंत असद (अ.स .), का काबा में प्रवेश करना और वहां इमाम अली (अ.स.) का जन्म होना ख़ुदाई कृपा और अद्भुत करामात का प्रतीक है।
शिया विद्वान ने कहा, "अगर आप इस बात को नहीं समझ सकते, तो इस चर्चा को यहीं खत्म करते हैं।"
इमाम अली (अ.स.) का काबा में जन्म न केवल उनकी विशेषता को दर्शाता है, बल्कि यह इस्लाम के इतिहास में एक अद्वितीय और दिव्य घटना है। यह इस बात को सिद्ध करता है कि इमाम अली (अ.स.) का जन्म एक दिव्य रहमत का परिणाम था और उन्हें विशेष सम्मान प्राप्त था। इस घटना को लेकर पहले ही समय में शायरों ने इस पर काव्य रचनाएँ की थीं, जो इमाम अली (अ.स.) की महानता की गवाही देती हैं।
अली का नाम, इस्मे आज़म है
अली अलेहिस्सलाम की पैदाइश घर काबा में हुई, जो एक बहुत बड़ा चमत्कार था। इतिहास में लिखा है कि जब अली की पैदाइश का समय करीब आया, तो फातिमा बिन्त असद काबा की ओर आईं और अल्लाह से दुआ करते हुए कहने लगीं: "हे अल्लाह! मैं तुझ पर, तेरे पैग़म्बरों और उनकी किताबों पर विश्वास करती हूं। मैं अपने पूर्वज हज़रत इब्राहीम की बातों पर यकीन करती हूं, जिन्होंने तेरे आदेश से इस घर की नींव रखी। मैं तुझे उनकी और इस बच्चे की قسم देती हूं, जो मेरे पेट में है, कि उसकी पैदाइश मेरे लिए आसान बना दे।"
अली वह महान हस्ती हैं जिनकी पैदाइश, जीवन और शहादत सभी चमत्कारों से भरे हुए हैं। उनका नाम उस व्यक्तित्व से जुड़ा हुआ है, जो सोच और विचार से भी परे है, जिनके अस्तित्व के सामने सात आसमान भी झुक जाएं। वह ज्ञान और समझ के महासागर हैं, जिनके दरवाजे पर हमेशा हकीकत और हिकमत के समंदर हिलोरें मारते हैं। अली वह शख्स हैं जिन्होंने अज्ञानता के अंधकार को ज्ञान की रोशनी से प्रकाशित किया। वह ऐसे व्यक्ति हैं जो ईश्वर की शानदार विशेषताओं के आईने के रूप में प्रस्तुत होते हैं, और जिनके हाथों में दुश्मनों के खिलाफ ज़ुल्फ़िकार तलवार होती है।
अली के बारे में लिखी गई बातों में यह उल्लेख है कि उनकी जन्मी हुई घटना भी एक चमत्कार थी। जब अली की मां फातिमा बिन्त असद उनके जन्म के समय काबा की ओर जा रही थीं, तो उन्होंने अल्लाह से दुआ की कि वह उनका और उनके बच्चे का जन्म आसान बना दे। इस समय काबा की दीवार फट गई और फातिमा बिन्त असद उसके अंदर चली गईं। तीन दिन बाद वह बाहर आईं और उनके हाथों में अली थे, और अल्लाह ने उन्हें नाम लेने की प्रेरणा दी। यह अली की जन्म की एक चमत्कारी घटना थी।
अली की जिंदगी की विशेषताएँ भी अद्भुत हैं। वह हमेशा पैगंबर मुहम्मद के पास रहते, उनके साथ हर कठिनाई में शरीक होते और हमेशा सही मार्ग पर चलते थे। उन्होंने कई लड़ाइयों में भाग लिया और अपनी वीरता से इतिहास रच दिया। वह बखूबी धर्म और न्याय के साथ खड़े रहे, और उनका जीवन पूरी मानवता के लिए एक मिसाल है।
एक दिन, जब अली और एक यहूदी एक रास्ते से गुजर रहे थे और एक पानी की झील के पास पहुंचे, तो यहूदी पानी पर चलने लगा। यह देखकर अली ने उसे चुनौती दी, और फिर अली ने भी उसी पानी पर चलने का चमत्कार दिखाया। यह देखकर वह यहूदी अली की सच्चाई का कायल हो गया और उसने इस्लाम धर्म स्वीकार कर लिया। यह घटना अली के चमत्कारी गुणों को और भी स्पष्ट करती है।
पैगंबर मुहम्मद ने भी हमेशा अली से मोहब्बत और उनके मार्गदर्शन को अपनाने की सलाह दी। उन्होंने कहा कि अगर अली से प्रेम किया जाए तो सभी अच्छे कर्म मंज़ूर होते हैं, लेकिन अगर अली की ولایت को न अपनाया जाए तो व्यक्ति को बुराई का सामना करना पड़ सकता है।
हजरत अली (अ.स) का इन्साफ और उनके मशहूर फैसले|
रसूल(स.) के बाद धर्म के सर्वोच्च अधिकारी का पद अल्लाह ने अहलेबैत को ही दिया। इतिहास का कोई पन्ना अहलेबैत में से किसी को कोई ग़लत क़दम उठाते हुए नहीं दिखाता जो कि धर्म के सर्वोच्च अधिकारी की पहचान है। यहाँ तक कि जो राशिदून खलीफा हुए हैं उन्होंने भी धर्म से सम्बंधित मामलों में अहलेबैत व खासतौर से हज़रत अली(अ.) से ही मदद ली।
अगर ग़ौर करें रसूल(स.) के बाद हज़रत अली की जिंदगी पर तो उसके दो हिस्से हमारे सामने ज़ाहिर होते हैं। पहला हिस्सा, जबकि वे शासक नहीं थे, और दूसरा हिस्सा जबकि वे शासक बन चुके थे। दोनों ही हिस्सों में हमें उनकी जिंदगी नमूनये अमल नज़र आती है। बहादुरी व ज्ञान में वे सर्वश्रेष्ठ थे, सच्चे व न्यायप्रिय थे, कभी कोई गुनाह उनसे सरज़द नहीं हुआ और कुरआन की इस आयत पर पूरी तरह खरे उतरते थे :
(2 : 247) और उनके नबी ने उनसे कहा कि बेशक अल्लाह ने तुम्हारी दरख्वास्त के (मुताबिक़) तालूत को तुम्हारा बादशाह मुक़र्रर किया (तब) कहने लगे उस की हुकूमत हम पर क्यों कर हो सकती है हालांकि सल्तनत के हक़दार उससे ज़यादा तो हम हैं क्योंकि उसे तो माल के एतबार से भी खुशहाली तक नसीब नहीं (नबी ने) कहा अल्लाह ने उसे तुम पर फज़ीलत दी है और माल में न सही मगर इल्म और जिस्म की ताक़त तो उस को अल्लाह ने ज़यादा अता की है.
जहाँ तक बहादुरी की बात है तो हज़रत अली(अ.) ने रसूल(स.) के समय में तमाम इस्लामी जंगों में आगे बढ़कर शुजाअत के जौहर दिखाये। खैबर की जंग में किले का दरवाज़ा एक हाथ से उखाड़ने का वर्णन मशहूर खोजकर्ता रिप्ले ने अपनी किताब 'बिलीव इट आर नाट' में किया है। वह कभी गुस्से व तैश में कोई निर्णय नहीं लेते थे। न पीछे से वार करते थे और न कभी भागते हुए दुश्मन का पीछा करते थे। यहाँ तक कि जब उनकी शहादत हुई तो भी अपनी वसीयत में अपने मुजरिम के लिये उन्होंने कहा कि उसे उतनी ही सज़ा दी जाये जितना कि उसका जुर्म है।
17 मार्च 600 ई. (13 रजब 24 हि.पू.) को अली(अ.) का जन्म मुसलमानों के तीर्थ स्थल काबे के अन्दर हुआ. ऐतिहासिक दृष्टि से हज़रत अली(अ.) एकमात्र व्यक्ति हैं जिनका जन्म काबे के अन्दर हुआ. जब पैगम्बर मुहम्मद (स.) ने इस्लाम का सन्देश दिया तो लब्बैक कहने वाले अली(अ.) पहले व्यक्ति थे.
हज़रत अली(अ.) में न्याय करने की क्षमता गज़ब की थी।
उनका एक मशहूर फैसला ये है जब दो औरतें एक बच्चे को लिये हुए आयीं। दोनों दावा कर रही थीं कि वह बच्चा उसका है। हज़रत अली(अ.) ने अपने नौकर को हुक्म दिया कि बच्चे के दो टुकड़े करके दोनों को आधा आधा दे दिया जाये। ये सुनकर उनमें से एक रोने लगी और कहने लगी कि बच्चा दूसरी को सौंप दिया जाये। हज़रत अली ने फैसला दिया कि असली माँ वही है क्योंकि वह अपने बच्चे को मरते हुए नहीं देख सकती।
एक अन्य मशहूर फैसले में एक लड़का हज़रत अली(अ.) के पास आया जिसका बाप दो दोस्तों के साथ बिज़नेस के सिलसिले में गया था। वे दोनों जब लौटे तो उसका बाप साथ में नहीं था। उन्होंने बताया कि वह रास्ते में बीमार होकर खत्म हो गया है और उन्होंने उसे दफ्न कर दिया है। जब उस लड़के ने अपने बाप के माल के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा कि व्यापार में घाटे की वजह से कोई माल भी नहीं बचा। उस लड़के को यकीन था कि वो लोग झूठ बोल रहे हैं लेकिन उसके पास अपनी बात को साबित करने के लिये कोई सुबूत नहीं था। हज़रत अली(अ.) ने दोनों आदमियों को बुलवाया और उन्हें मस्जिद के अलग अलग खंभों से दूर दूर बंधवा दिया। फिर उन्होंने मजमे को इकटठा किया और कहा अगर मैं नारे तक़बीर कहूं तो तुम लोग भी दोहराना। फिर वे मजमे के साथ पहले व्यक्ति के पास पहुंचे और कहा कि तुम मुझे बताओ कि उस लड़के का बाप कहां पर और किस बीमारी में मरा। उसे दवा कौन सी दी गयी। मरने के बाद उसे किसने गुस्ल व कफन दिया और कब्र में किसने उतारा।
उस व्यक्ति ने जब वह सारी बातें बतायीं तो हज़रत अली ने ज़ोर से नारे तकबीर लगाया। पूरे मजमे ने उनका अनुसरण किया। फिर हज़रत अली दूसरे व्यक्ति के पास पहुंचे तो उसने नारे की आवाज़ सुनकर समझा कि पहले व्यक्ति ने सच उगल दिया है। नतीजे में उसने रोते गिड़गिड़ाते सच उगल दिया कि दोनों ने मिलकर उस लड़के के बाप का क़त्ल कर दिया है और सारा माल हड़प लिया है। हज़रत अली(अ.) ने माल बरामद कराया और उन्हें सज़ा सुनाई ।
इस तरह के बेशुमार फैसले हज़रत अली(अ.) ने किये और पीडि़तों को न्याय दिया।
हज़रत अली(अ.) मुफ्तखोरी व आलस्य से सख्त नफरत करते थे। उन्होंने अपने बेटे इमाम हसन (अ.) से फरमाया, 'रोजी कमाने में दौड़ धूप करो और दूसरों के खजांची न बनो।'
मज़दूरों से कैसा सुलूक करना चाहिए इसके लिये हज़रत अली (अ.) का मशहूर जुमला है, 'मज़दूरों का पसीना सूखने से पहले उनकी मज़दूरी दे दो।'
हज़रत अली(अ.) ने जब मालिके अश्तर को मिस्र का गवर्नर बनाया तो उन्हें इस तरंह के आदेश दिये 'लगान (टैक्स) के मामले में लगान अदा करने वालों का फायदा नजर में रखना क्योंकि बाज और बाजगुजारों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) की बदौलत ही दूसरों के हालात दुरुस्त किये जा सकते हैं। सब इसी खिराज और खिराज देने वालों (टैक्स और टैक्सपेयर्स) के सहारे पर जीते हैं। और खिराज को जमा करने से ज्यादा जमीन की आबादी का ख्याल रखना क्योंकि खिराज भी जमीन की आबादी ही से हासिल हो सकता है और जो आबाद किये बिना खिराज (रिवार्ड) चाहता है वह मुल्क की बरबादी और बंदगाने खुदा की तबाही का सामान करता है। और उस की हुकूमत थोड़े दिनों से ज्यादा नहीं रह सकती।
मुसीबत में लगान की कमी या माफी, व्यापारियों और उधोगपतियों का ख्याल व उनके साथ अच्छा बर्ताव, लेकिन जमाखोरों और मुनाफाखोरों के साथ सख्त कारवाई की बात इस खत में मौजूद है। यह लम्बा खत इस्लामी संविधान का पूरा नमूना पेश करता है। और किताब नहजुल बलागाह में खत नं - 53 के रूप में मौजूद है। यू.एन. सेक्रेटरी कोफी अन्नान के सुझाव पर इस खत को यू.एन. के वैशिवक संविधान में सन्दर्भ के तौर पर शामिल किया गया है।
हजरत अली (अ.) का शौक था बाग़ों को लगाना व कुएं खोदना। यहाँ तक कि जब उन्होंने इस्लामी खलीफा का ओहदा संभाला तो बागों व खेतों में मजदूरी करने का उनका अमल जारी रहा। उन्होंने अपने दम पर अनेक रेगिस्तानी इलाकों को नखिलस्तान में बदल दिया था। मदीने के आसपास उनके लगाये गये बाग़ात आज भी देखे जा सकते हैं।
तमाम अंबिया की तरह हज़रत अली ने मोजिज़ात भी दिखाये हैं। सूरज को पलटाना, मुर्दे को जिंदा करना, जन्मजात अंधे को दृष्टि देना वगैरा उनके मशहूर मोजिज़ात हैं।
ज्ञान के क्षेत्र में भी हज़रत अली सर्वश्रेष्ठ थे ।यह बात बहुत कम लोग जानते हैं कि हज़रत अली(अ.) एक महान वैज्ञानिक भी थे और एक तरीके से उन्हें पहला मुस्लिम वैज्ञानिक कहा जा सकता है.
हज़रत अली(अ.) ने वैज्ञानिक जानकारियों को बहुत ही रोचक ढंग से आम आदमी तक पहुँचाया. एक प्रश्नकर्ता ने उनसे सूर्य की पृथ्वी से दूरी पूछी तो जवाब में बताया कि एक अरबी घोड़ा पांच सौ सालों में जितनी दूरी तय करेगा वही सूर्य की पृथ्वी से दूरी है. उनके इस कथन के चौदह सौ सालों बाद वैज्ञानिकों ने जब यह दूरी नापी तो 149600000 किलोमीटर पाई गई. अरबी घोडे की औसत चाल 35 किमी/घंटा होती है और इससे यही दूरी निकलती है. इसी तरह एक बार अंडे देने वाले और बच्चे देने वाले जानवरों में फर्क इस तरह बताया कि जिनके कान बाहर की तरफ होते हैं वे बच्चे देते हैं और जिनके कान अन्दर की तरफ होते हैं वे अंडे देते हैं.
अली(अ.) ने इस्लामिक थियोलोजी को तार्किक आधार दिया। कुरान को सबसे पहले कलमबद्ध करने वाले भी अली ही हैं. बहुत सी किताबों के लेखक हज़रत अली(अ.) हैं जिनमें से कुछ इस प्रकार हैं
1. किताबे अली - इसमें कुरआन के साठ उलूम का जि़क्र है।
2. जफ्रो जामा (इस्लामिक न्यूमरोलोजी पर आधारित)- इसके बारे में कहा जाता है कि इसमें गणितीय फार्मूलों के द्वारा कुरान मजीद का असली मतलब बताया गया है. तथा क़यामत तक की समस्त घटनाओं की भविष्यवाणी की गई है. यह किताब अब अप्राप्य है.
- किताब फी अब्वाबुल फिक़ा
- किताब फी ज़कातुल्नाम
- सहीफे अलफरायज़
- सहीफे उलूविया
इसके अलावा हज़रत अली(अ.) के खुत्बों (भाषणों) के दो मशहूर संग्रह भी उपलब्ध हैं। उनमें से एक का नाम नहजुल बलाग़ा व दूसरे का नाम नहजुल असरार है। इन खुत्बों में भी बहुत से वैज्ञानिक तथ्यों का वर्णन है.
माना जाता है की जीवों में कोशिका (cell) की खोज 17 वीं शताब्दी में लीवेन हुक ने की. लेकिन नहजुल बलाग का निम्न कथन ज़ाहिर करता है कि अली(अ.) को कोशिका की जानकारी थी. ''जिस्म के हर हिस्से में बहुत से अंग होते हैं. जिनकी रचना उपयुक्त और उपयोगी है. सभी को ज़रूरतें पूरी करने वाले शरीर दिए गए हैं. सभी को रूहानी ताक़त हासिल करने के लिये दिल दिये गये हैं. सभी को काम सौंपे गए हैं और उनको एक छोटी सी उम्र दी गई है. ये अंग पैदा होते हैं और अपनी उम्र पूरी करने के बाद मर जाते हैं. (खुत्बा-81) स्पष्ट है कि 'अंग से अली का मतलब कोशिका ही था.'
हज़रत अली सितारों द्वारा भविष्य जानने के खिलाफ थे, लेकिन खगोलशास्त्र सीखने के हामी थे, उनके शब्दों में ''ज्योतिष सीखने से परहेज़ करो, हाँ इतना ज़रूर सीखो कि ज़मीन और समुद्र में रास्ते मालूम कर सको. (77वाँ खुत्बा - नहजुल बलागा)
इसी किताब में दूसरी जगह पर यह कथन काफी कुछ आइन्स्टीन के सापेक्षकता सिद्धांत से मेल खाता है, ''उसने मख्लूकों को बनाया और उन्हें उनके वक़्त के हवाले किया. (खुत्बा - 01)
चिकित्सा का बुनियादी उसूल बताते हुए कहा, ''बीमारी में जब तक हिम्मत साथ दे, चलते फिरते रहो."
ज्ञान प्राप्त करने के लिए अली ने अत्यधिक जोर दिया, उनके शब्दों में, ''ज्ञान की तरफ बढ़ो, इससे पहले कि उसका हरा भरा मैदान खुश्क हो जाए." इमाम अली(अ.) दुनिया के एकमात्र व्यक्ति हैं जिन्होंने दावा किया, "मुझ से जो कुछ पूछना है पूछ लो." और वे अपने इस दावे में कभी गलत सिद्ध नहीं हुए.
इस तरह निर्विवाद रूप से हम पैगम्बर मोहम्मद(स.) के बाद हज़रत अली(अ.) को इस्लाम का सर्वोच्च अधिकारी कह सकते हैं।
हज़रत अली (अ) की वसीयत
इबरत हासिल करने की अहमियत और क़द्र व मंज़िलत उस वक़्त बेहतर तौर पर मालूम होती है जब हम देखते हैं हज़रत अमीरल मोमिनीन (अ) ने सिफ़्फ़ीन से वापसी के मौक़े पर ''हाज़िरीन'' में अपने फ़रज़ंदे अरजुमंद हज़रते इमामे हसन के नाम एक वसीयत नामा तहरीर फ़रमाया और उसमें ताकीद फ़रमाई: ''ऐ मेरे बेटे अगरचे मैने उतनी उमर नही पाई जितनी मुझसे पहले वालों की हुआ करती थी लेकिन मैंने उनके आमाल पर ग़ौर किया, उनकी बातों में फ़िक्र की है और उनके आसार में सैर व सयाहत की है, इस तरह कि गोया मैं उन्ही में से एक हो गया हूँ बल्कि उनके बारे में अपनी मालूमात की बिना पर इस तरह हो गया हूँ जैसे पहले से आख़िर तक मैं उनके साथ रहा हूँ।''
इस गराँ बहा वसीयत नामे के मुक़द्दस जुम्लों से ये वाज़ेह हो जाता है कि इबरत हासिल करने और गुज़िश्तेगान की तारीख़, उनके आसार और उनकी बातों में ग़ौर व फ़िक्र के ज़रिये इंसान अपने अंदर इतने तजरुबों को समो सकता है कि गोया वह गुज़िश्ता लोगों के साथ मुख़्तलिफ़ ज़मानों में रहा हो। इसी लिये कहा गया है कि इबरत हासिल करने से इंसान की उमर बड़ जाती है क्योंकि मुम्किन है इंसान की ज़ाहिरी उमर साठ या सत्तर साल हो लेकिन जब वह तारीख़ से इबरत हासिल कर लेता है तो उसकी हक़ीक़ी उमर में बे पनाह इज़ाफ़ा हो जाता है। वह जिस क़द्ग तारीख़ से इबरत हासिल करता है, उतना ही उमर में इज़ाफ़ा हो जाता है जिसकी वजह से उसकी हक़ीक़ी उमर ज़ाहिरी उमर के बर ख़िलाफ़ साठ सत्तर हज़ार साल हो जाती है, इस लिये कि अब वह अकेला इंसान नही रह जाता बल्कि हज़ारों साल की तारीख़ और उसमें मौजूद इंसानों के तजुरबात को अपने अंदर समो लेता है।
मौलूदे काबा
वसीये रसूल, ज़ोजे बतूल, इमामे अव्वल, पिदरे आइम्मा, मोलूदे काबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तारीख़े विलादत बा सआदत, तेरह रजब के मौक़े पर हम शियायाने अहलेबैत अलैहिमु अस्सलाम और तमाम मुसलमानों को मुबारकबाद पेश करते हैं। हमें उम्मीद है कि एक दिन ऐसा ज़रूर आएगा जब तक़वे व अदालत के मुजस्समे, आज़ादी के अलमबरदार इमाम अली अलैहिस्सलाम की तमन्नाएं, आपके अज़ीम बेटे हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम के ज़रिये पूरी होंगी, उस वक़्त इंसान इमाम अली अलैहिस्सलाम के ज़रिये बयान किये गये कमालात के मतलब को अच्छी समझेगा।
चूँकि इस अज़ीम शख़्सियत के किरदार को एक मक़ाले में बयान करना ना मुमकिन है, लिहाज़ा इस पुर मसर्रत मौक़े हम सिर्फ़ ख़ाना -ए- काबा में आपकी विलादत के वाक़िये को मोलूदे काबा के उनवान से इस मक़ाले में आप हज़रात की ख़िदमत में पेश कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि हमारी यह कोशिश रब्बे काबा की बारगाह में क़बूल होगी।
हमारे ज़हन और ज़मीर में बहुत से ऐसे सवाल छुपे हुए है जो किसी मुनासिब वक़्त और मौके पर ही ज़ाहिर होते हैं। उन्हीं सवालों में से एक यह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम काबे में क्यों पैदा हुए ? जब हज के मौक़े पर मस्जिदुल हराम में दाख़िल होने पर ख़ाना -ए- काबा को देखते है और उसके गिर्द तवाफ़ करते हैं तो दिल व दिमाग में यह सवाल उभरता है कि क्या हज़रत अली अलैहिस्सलाम हक़ीक़तन काबे में पैदा हुए हैं या यह सिर्फ़ ख़तीबों व शाइरों के ज़हन की उपज है ? अगर आपकी विलादत का वाक़िया सच है तो आपकी विलादत काबे में किस तरह हुई ? क्या शियों व सुन्नियों की पुरानी किताबों में इस वाकिये का ज़िक्र मिलता है ? यह मक़ाला इसी सवाल का जवाब है।
शेख सदूक़ का नज़रिया
शेख़ सदूक़ ने अपनी तीन किताबों में मुत्तसिल सनद के साथ सईद बिन जुबैर से नक़्ल किया है कि उन्होने कहा कि मैने यज़ीद बिन क़ानब को यह कहते सुना कि मैं अब्बास बिन अब्दुल मुत्तलिब और बनी अब्दुल उज़्ज़ा के कुछ लोगों के साथ ख़ाना-ए- काबा के सामने बैठा हुआ था कि अचानक फ़ातिमा बिन्ते असद (मादरे हज़रत अली अलैहिस्सलाम) ख़ाना-ए-काबा की तरफ़ आईं। वह नौ माह के हमल से थीं और उनके दर्दे ज़ेह हो रहा था। उन्होंने अपने हाथों को दुआ के लिए उठाया और कहा कि ऐ अल्लाह ! मैं तुझ पर, तेरे नबियों पर और तेरी तरफ़ से नाज़िल होने वाली किताबों पर ईमान रखती हूँ। मैं अपने जद इब्राहीम अलैहिस्सलाम की बातों की तसदीक़ करती हूँ और यह भी तसदीक़ करती हूँ कि इस मुक़द्दस घर की बुनियाद उन्होंने रखी है। बस इस घर की बुनियाद रखने वाले के वास्ते से और इस बच्चे के वास्ते से जो मेरे शिकम है, मेरे लिए इस पैदाइश को आसान फ़रमा।
यज़ीद बिन क़ानब कहता है कि हमने देखा कि ख़ाना -ए- काबा में पुश्त की तरफ़ दरार पैदा हुई। फ़ातिमा बिन्ते असद उसमें दाख़िल होकर हमारी नज़रों से छुप गईं और दीवार फिर से आपस में मिल गई। हमने इस वाक़िये की हक़ीक़त जानने के लिए ख़ाना-ए- काबा का ताला खोलना चाहा, मगर वह न खुल सका, तब हमने समझा कि यह अम्रे इलाही है।
चार दिन के बाद फ़ातिमा बिन्ते असद अली को गोद में लिए हुए ख़ाना-ए-काबा से बाहर आईं और कहा कि मुझे पिछली तमाम औरतों पर फ़ज़ीलत दी गई है। क्योंकि आसिया बिन्ते मज़ाहिम (फ़िरऔन की बीवी) ने अल्लाह की इबादत छुप कर वहाँ की जहाँ उसे पसंद नही है (मगर यह कि ऐसी जगह सिर्फ़ मजबूरी की हालत में इबादत की जाये।) मरियम बिन्ते इमरान (मादरे हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम) ने ख़जूर के पेड़ को हिलाया ताकि उससे ताज़ी खजूरें खा सकें। लेकिन मैं वोह हूँ जो बैतुल्लाह में दाखिल हुई और जन्नत के फल और खाने खाये। जब मैंने बाहर आना चाहा तो हातिफ़ ने मुझसे कहा कि ऐ फ़ातिमा ! अपने इस बच्चे का नाम अली रखना। क्योंकि वह अली है और ख़ुदा-ए अलीयो आला फ़रमाता है कि मैंने इसका नाम अपने नाम से मुश्तक़ किया है, इसे अपने एहतेराम से एहतेराम दिया है और अपने इल्मे ग़ैब से आगाह किया है। यह बच्चा वह है जो मेरे घर से बुतों को बाहर निकालेगा, मेरे घर की छत से अज़ान कहेगा और मेरी तक़दीस व तमजीद करेगा। ख़ुशनसीब हैं वह लोग जो इससे मुहब्बत करते हुए इसकी इताअत करें और बदबख़्त हैं वह लोग जो इससे दुश्मनी रखे और गुनाह करें।
शेख़ तूसी का नज़रिया
शेख तूसी ने अपनी आमाली में मुत्तसिल सनद के साथ इब्ने शाज़ान से नक़्ल किया है कि उन्होंने कहा कि इब्राहीम बिन अली ने अपनी सनद के साथ इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम से और उन्होंने अपने आबा व अजदाद के हवाले से नक़्ल किया है कि अब्बास बिन मुत्तलिब व यज़ीद बिन क़ानब कुछ बनी हाशिम व बनी अब्दुल उज़्ज़ा के के साथ ख़ाना-ए- काबा के पास बैठे हुए थे। अचानक फ़ातिमा बिन्ते असद (मादरे हज़रत अली अलैहिस्सलाम) ख़ाना-ए काबा की तरफ़ आईं। वह नौ महीने की हामेला थीं और उन्हें दर्दे ज़ेह उठ रहा था। वह ख़ाना-ए- काबा के बराबर में खड़ी हुईं और आसमान की तरफ़ रुख़ करके कहा कि ऐ अल्ला! मैं तुझ पर, तेरे नबियों पर और तेरी तरफ़ से नाज़िल होने वाली तमाम किताबों पर ईमान रखती हूँ। मैं अपने जद इब्राहीम अलैहिस्सलाम के कलाम की और इस बात की तसदीक़ करती हूँ कि इस घर की बुनियाद उन्होंने रखी। बस इस घर, इसके मेमार और इस बच्चे के वास्ते से जो मेरे शिकम में है और मुझसे बाते करता है, जो कलाम के ज़रिये मेरा अनीस है और जिसके बारे में मुझे यक़ीन है कि यह तेरी निशानियों में से एक है, इस पैदाइश को मेरे लिए आसान फ़रमा।
अब्बास बिन अबदुल मुत्तलिब और यज़ीद बिन क़ानब कहते हैं कि जब फ़ातिमा बिन्ते असद ने यह दुआ की तो ख़ाना-ए- काबा की पुश्त की दीवार फ़टी और फ़ातिमा बिन्ते असद उसमें दाख़िल हो कर हमारी नज़रों से गायब हो गईं और दीवार फिर से आपस में मिल गई। हमने काबे के दरवाज़े को खोलने की कोशिश की ताकि हमारी कुछ औरतें उनके पास जायें, लेकिन दर न खुल सका, उस वक़्त हमने समझा कि यह अम्रे इलाही है। फ़ातिमा तीन दिन तक ख़ाना-ए-काबा में रहीं। यह बात इतनी मशहूर हुई कि मक्के के तमाम मर्द व औरत गली कूचों में हर जगह इसी के बारे में बात चीत करते नज़र आते थे। तीन दिन बाद दीवार फिर उसी जगह से फ़टी और फ़ातिमा बिन्ते असद अली अलैहिस्सलाम को गोद में लिए हुए बाहर तशरीफ़ लाईं और आपने फ़रमाया कि
ऐ लोगो! अल्लाह ने अपनी मख़लूक़ात में से मुझे चुन लिया है और गुज़िश्ता तमाम औरतों पर मुझे फज़ीलत दी है। पिछले ज़माने में अल्लाह ने आसिया बिन्ते मज़ाहिम को चुना और उन्होंने छुप कर, उसकी उस जगह (फ़िरऔन के घर में) इबादत की जहाँ पर मजबूरी की हालत के अलावा उसे अपनी इबादत पसंद नही है। उसने मरियम बिन्ते इमरान को चुना और उन पर हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की विलादत को आसान किया। उन्होंने बयाबान में खजूर के सूखे दरख़्त को हिलाया और उससे उनके लिए ताज़ी ख़जूरी टपकीं। उनके बाद अल्लाह ने मुझे चुना और उन दोनों व तमाम ग़ुज़िश्ता औरतों पर मुझे फ़ज़ीलत दी क्योंकि मेनें ख़ाना-ए- ख़ुदा में बच्चे को जन्म दिया, तीन दिन तक वहाँ रही और जन्नत के फल व खाने खाती रही। जब मैंनें बच्चे को लेकर वहाँ से निकलना चाहा तो हातिफ़े ग़ैबी ने आवाज़ दी, ऐ फ़ातिमा ! मैं अलीयो आला हूँ। इस बच्चे का नाम अली रखना। मैंने इसे अपनी क़ुदरत, इज़्ज़त और अदालत के साथ पैदा किया है। मैंने इसका नाम अपने नाम से मुश्तक़ किया है और अपने एहतेराम से इसे एहतेराम दिया है। मैंने इसे इख़्तियार दिये हैं और अपने इल्मे ग़ैब से भी आगाह किया है। मेरे घर में पैदा होने वाला यह बच्चा सबसे पहले मेरे घर की छत से अज़ान कहेगा, बुतों को बाहर निकाल फेंकेगा, मेरी अज़मत, मज्द और तौहीद का क़ायल होगा। यह मेरे पैग़म्बर व हबीब, मुहम्मद के बाद उनका वसी है। ख़ुश नसीब हैं वोह लोग जो इससे मुहब्बत करते हुए इसकी मदद करे और धिक्कार है ऐसे लोगों पर जो इसकी नाफ़रमानी करते हुए इसके हक़ से इंकार कर दे।
नुक्ता
कुछ किताबों में यह सराहत के साथ मिलता है कि हमने देखा कि काबा पुश्त की तरफ़ से ख़िला और फ़ातिमा बिन्ते असद उसमें दाख़िल हो गईं। इससे यह सवाल पैदा होता है कि पुश्ते काबा कहाँ है ?
बहुतसी रिवायतों में वजहे काबा (काबे के फ़्रंट) का ज़िक्र हुआ है और इससे मुराद वह हिस्सा है जिसमें काबे का दरवाज़ा लगा हुआ है और बराबर में मक़ामें इब्राहीम अलैहिस्सलाम है। लिहाज़ा इस बुनियाद पर पुश्ते काबा वह मक़ाम है जो रुक्ने यमानी व रुक्ने ग़रबी के बीच वाक़े है।
जब सैलाब से ख़ाना-ए-काबा की इमारत को नुक़्सान पहुंचा तो क़ुरैश ने उसे गिरा कर नई तामीर की थी। इससे कुछ लोगों के ज़हन में यह बात पैदा हो सकती है कि शायद अली अलैहिस्सलाम की विलादत ख़ाना-ए-काबा में उस वक़्त हुई हो जब उसकी दीवारें मौजूद नही थी, लिहाज़ा यह उनके लिए कोई फ़ज़ीलत की बात नही है। लेकिन यह शुबाह सही नही है।
क्योंकि
इब्ने मग़ाज़ली का नज़रिया
ऊपर हम दो शिया उलमा का नज़रिया बयान कर चुके हैं। अब हम यहाँ पाँचवीं सदी के सुन्नी आलिम इब्ने मग़ाज़ली का नज़रिया बयान कर रहे हैं।
इब्ने मग़ाज़ली मुत्तसिल सनद के साथ मूसा बिन जाफ़र से वह अपने बाबा इमाम सादिक़ से वह अपने बाबा इमाम मुहम्मद बाक़िर से और उन्होंने अपने बाबा इमाम सज्जाद अलैहिमु अस्सलाम से नक़्ल किया है कि आपने फ़रमाया कि मैं और मेरे बाबा इमाम (हुसैन अलैहिस्सलाम) जद्दे बुज़ुर्गवार (पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ) की क़ब्र की ज़ियारत के लिए गये थे। वहाँ पर बहुतसी औरतें जमा थीं, उनमें से एक हमारे पास आई। मैंने उससे पूछा ख़ुदा तुझ पर रहमत करे ! तू कौन है ?
उसने कहा मैं ज़ैदा बिन्ते क़रीबा बिन अजलान क़बीला-ए बनी साएदा से हूँ।
मैंने उससे कहा कि क्या तू कुछ कहना चाहती है?
उसने जवाब दिया हाँ! ख़ुदा की क़सम मेरी माँ उम्मे अमारा बिन्ते इबादा बिन नज़ला बिन मालिक बिन अजलाने साइदी ने मुझसे नक़्ल किया है कि मैं कुछ अरब औरतों के साथ बैठी हुई थी कि अबूतालिब ग़मगीन हालत में हमारे पास आये। मैने उनसे पूछा कि ऐ अबूतालिब! आपके क्या हाल है ? अबूतालिब ने मुझसे कहा कि फ़ातिमा बिन्ते असद दर्दे ज़ेह से तड़प रही हैं। यह कह कर उन्होने अपना हाथ माथे पर रखा ही था कि अचानक मुहम्मद (स.) वहाँ पर तशरीफ़ लाये और पूछा कि चचा आपके क्या हाल हैं ? अबूतालिब ने जवाब दिया कि फ़ातिमा बिन्ते असद दर्दे ज़ेह से परेशान हैं। पैग़म्बर (स.) ने अबूतालिब का हाथ पकड़ा और वह दोनो फ़ातिमा बिन्ते असद के साथ काबे पहुँचे। पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने उन्हें काबे के दरवाज़े के पास बैठाया और कहा कि अल्लाह के नाम से बैठ जाओ।
फ़ातिमा बिन्ते असद ने काबे के दरवाज़े पर नाफ़ कटे हुए एक बच्चे को जन्म दिया। उस जैसा ख़ूबसूरत बच्चा मैंने आज तक नही देखा। अबूतालिब ने उस बच्चे का नाम अली रखा और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) उन्हें घर लेकर आये।
इमाम सज्जाद अलैहिस्सलाम ने उम्मे अमारा की इस रिवायत को सुनने के बाद कहा कि मैंने इतनी अच्छी बात कभी नही सुनी।
इब्ने मग़ाज़ली की इस रिवायत में ऊपर बयान की गई दोनों शिया रिवायतों से फ़र्क़ पाया जाता है, लेकिन यह रिवायत हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत पर दलालत करती है।
दूसरे आलिमों का नज़रिया
हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत के सिलसिले में हम अब तक आपके सामने तीन तफ़सीली रिवायतें बयान कर चुके हैं। इन रिवायतों के अलावा बहुत से शिया व सुन्नी उलमा ने मुख़तसर तौर पर भी इस रिवायत को बयान किया है। यानी काबे में विलादत को तो बयान किया है मगर उसके जुज़ियात को बयान नही किया है।
अल्लामा अमीनी (मरहूम) ने अपनी किताब अल-ग़दीर में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत के वाक़िये को अहले सुन्नत की 16 और शियों की 50 अहम किताबों के हवाले से नक़्ल किया है। दूसरी सदी हिजरी से किताब लिखे जाने तक के 41 शाइरों के नाम लिखे हैं जिन्होंने इस वाक़िये को नज़्म किया है और कुछ के शेर भी नक़्ल किये हैं।
अल्लामा मज़लिसी (मरहूम) ने बिहारुल अनवार में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत के वाकिये को 18 शिया किताबों से नक़्ल किया है।
आयतुल्लाहिल उज़मा मरअशी नजफ़ी (मरहूम) ने एहक़ाक़ुल हक़ की शरह की सातवीं जिल्द में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की काबे में विलादत के वाक़िये को अहले सुन्नत की 12 किताबों के हवालों से नक़्ल किया है।
और सतरहवीं जिल्द में इस वाक़िये को अहले सुन्नत की 21 किताबों से नक़्ल किया है। इसके बाद अल्लामा आक़ा महदी साहिब क़िबला की किताब अली वल काबा के हवाले से अहले सुन्नत के उन 83 उलमा के नाम लिखे है, जिन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विलादत को काबे में तस्लीम किया है।
नोटः शिया व सुन्नी किताबों की तादाद में इख़्तेलाफ़ का सबब यह है कि कुछ उलमा का बहुत ज़्यादा तहक़ीक़ का इरादा नही था। बस उनके पास जितनी किताबें थीं या उन्होंने जितनी किताबों में पढ़ा था उन्ही के नाम लिखे हैं। या इमकानात कमी की वजह से वह तमाम किताबों को नही देख सके। कुछ उलमा का पूरी तहक़ीक़ का इरादा था और उनके पास इमकानात भी मौजूद थे, लिहाज़ा उन्होने ज़्यादा किताबों के हवालों से लिखा। चूँकि आज वसाइल और किताबें मौजूद है लिहाज़ा अगर अब कोई इस बारे में तहक़ीक़ करना चाहे तो उसे ऐसी बहुतसी किताबें और उलमा मिल जायेंगे जिन्होंने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विलादत को काबे में तस्लीम किया है।
इमामे अली (अ) क्यों इंसाने कामिल
शहीद मुतहरी इस बात की ताकीद करते हैं कि अली इब्ने अबी तालिब (अ) पैग़म्बरे अकरम (स0 के बाद इंसाने कामिल हैं आप बयान करते हैं कि : “इमामे अली (अ) इंसाने कामिल हैं इस लिये कि आप मे इंसानी कमालात व ख़ुसुसियात ने ब हद्दे आला और तनासुब व तवाज़ुन के साथ रुश्द पाया है। ” ।(1)
दूसरी जगह आपने फ़रमाया :
“इमामे अली (अ) क़ब्ल इसके कि दूसरे के लिये इमामे आदिल हों और दूसरों के साथ अदल से काम लें ख़ुद आप शख़्सन एक मुतआदिल और मुतवाज़िन इंसान थे आपने तमाम इंसानी कमालात को एक साथ जमा किया था आप के अंदर अमीक़ और गहरा फ़िक्र व अंदेशा भी था और लुत्फ़ नर्म इंसानी जज़्बात भी थे कमाले रूह व कमाले जिस्म दोनो आप के अंदर पाये जाते थे, रात को इबादते परवरदिगार में यूँ मशग़ूल हो जाते थे कि मा सिवल्लाह सबसे कट जाते थे और फिर दिन में समाज के अंदर रह कर मेहनत व मशक़्क़त किया करते थे दिन में लोगों कि निगाहें आपकी ख़िदमते ख़ल्क़, ईसार व फ़िदाकारी देखती थीं और उनके कान आपके मौएज़े, नसीहत और हकीमाना कलाम को सुनते थे रात को सितारे आपके आबिदाना आँसुओं का मुशाहिदा करते थे। और आसमान के कान आपके आशिक़ाना अंदाज़ के मुनाजात सुना करते थे। आप मुफ़्ती भी थे और हकीम भी, आरिफ़ भी थे और समाज के रहबर भी, ज़ाहिद भी थे और एक बेहतरीन सियासत मदार भी, क़ाज़ी भी थे और मज़दूर भी ख़तीब भी थे और मुसन्निफ़ भी ख़ुलासा ये कि आप पर एक जिहत से एक इंसाने कामिल थे अपनी तमाम ख़ूबसूरती और हुस्न के साथ।” (2)
आप ने इमामे अली (अ) के इंसाने कामिल होने पर बहुत सी जगहों पर बहस की है और मुतअद्दिद दलीलें पेश की हैं आप एक जगह पर लिखते हैं कि “हम लोग इमामे अली (अ) को इंसाने कामिल क्यों समझते हैं? इसलिये कि आप की “मैं” “हम” में बदल गयी थी इसलिये कि आप अपनी ज़ात में तमाम इंसानों को जज़ब करते थे आप एक ऐसी फ़र्दे इंसान नही थे जो दूसरे इंसानो से जुदा हो, नही! बल्कि आप अपने को एक बदन का एक जुज़, एक उँगली, एक उज़व की तरह महसूस करते थे कि जब बदन के किसी उज़्व में दर्द या कोई मुश्किल आती है तो ये उज़्व भी दर्द का एहसास करता है। (3)
“जब आप को ख़बर दी गयी कि आप के एक गवर्नर ने एक दावत और मेहमानी में शिरकत की तो आपने एक तेज़ ख़त उसके नाम लिखा ये गवर्नर किस क़िस्म की दावत में गया था ? क्या ऐसी मेहमानी में गया था जहाँ शराब थी? या जहाँ नाच गाना था? या वहाँ कोई हराम काम हो रहा थी नही तो फिर आपने उस गवर्नर को ख़त में क्यो इतनी मलामत की आप लिखते है (...................................)
गवर्नर का गुनाह ये था कि उसने ऐसी दावत में शिरकत की थी जिसमे सिर्फ़ अमीर और मालदार लोगों को बुलाया गया था और फ़क़ीर व ग़रीब लोगों को महरूम रखा गया था (4)
शहीद मुतहरी मुख़्तलिफ़ इंहेराफ़ी और गुमराह फ़िरक़ों के ख़िलाफ़ जंग को भी आपके इंसाने कामिल होने का एक नमूना समझते हैं आप फ़रमाते हैं :
“इमामे अली (अ) की जामईयत और इंसाने कामिल होने के नमूनो में से एक आपका इल्मी मैदान में मुख़तलिफ़ फ़िरक़ो और इन्हिराफ़ात के मुक़ाबले में खड़ा होना और उनके ख़िलाफ़ बर सरे पैकार होना भी है हम कभी आपको माल परस्त दुनिया परस्त और अय्याश इंसानों के ख़िलाफ़ मैदान में देखते हैं और कभी उन सियासत मदारों के ख़िलाफ़ नबर्द आज़मा जिनके दसियों बल्कि सैकड़ों चेहरे थे और कभी आप जाहिल मुनहरिफ़ और मुक़द्दस मआब लोगों से जंग करते हुये नज़र आते है।” (5)
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हवाले
1 वही, सफ़ा 43
2 जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 10
3 गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228
4 गुफ़्तारहा ए मानवी पेज 228
5 जाज़िबा व दाफ़िआ ए अली (अ) पेज 113
इमाम अली अ.स. एकता के महान प्रतीक
इमाम अली अ.स. ने यह जानते हुए कि पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद ख़िलाफ़त, इमामत और रहबरी मेरा हक़ है और मुझ से मेरे इस हक़ के छीनने वाले ज़ुल्म कर रहे हैं (शरहे नहजुल-बलाग़ा, इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 20, पेज 283, अल-शाफ़ी फ़िल-इमामह, जिल्द 3, पेज 110, बिहारुल अनवार, जिल्द 29, पेज 628)
लेकिन जैसे ही समझा कि अपने हक़ को वापस लेने का वह उचित समय नहीं है और ऐसा करने से मुसलमानों की एकता भंग हो सकती है और दुश्मन इस से फ़ायदा उठा सकता है आपने अपने हक़ को छोड़ दिया। (शरहे नहजुल-बलाग़ा, इब्ने अबिल हदीद, जिल्द 1, पेज 307, अल-इरशाद, शैख़ मुफ़ीद, जिल्द 1, पेज 245)
आप जब सबसे बड़े ज़ुल्म का शिकार हुए और वह आपके जीवन के सबसे कठिन दिनों में से एक था तो आपने उस पर भी धैर्य रखते हुए फ़रमाया, मैंने उस समय धैर्य रखा जब कांटा मेरी आंखों में और हड्डी मेरे गले में फंसी हुई थी, मैं केवल अपनी विरासत को लुटते हुए देख रहा था। (नहजुल-बलाग़ा, ख़ुतबा 3) इतना सब कुछ इमाम अली अ.स. जैसे बहादुर इंसान के साथ हो गया लेकिन वह केवल मुसलमानों की एकता और एकजुटता के बाक़ी रहने के लिए हर मुश्किल और कठिनाई पर धैर्य रखते हुए उसे सहन करते रहे।
जबकि इमाम अली अ.स. जिन लोगों ने आपके हक़ को आपसे छीना था उनको झूठा, मक्कार और ग़द्दार ही समझते थे, जैसा कि सही मुस्लिम में रिवायत मौजूद है कि उमर ने इमाम अली अ.स. और इब्ने अब्बास से कहा कि, पैग़म्बर स.अ. की वफ़ात के बाद अबू बकर ने तुम दोनों से कहा मैं पैग़म्बर स.अ. का ख़लीफ़ा हूं तुम लोगों ने उन्हें झूठा, मक्कार और ग़द्दार कहा, जब अबू बकर की वफ़ात के बाद मैंने यही कहा कि अब अबू बकर के बाद मैं पैग़म्बर स.अ. का ख़लीफ़ा हूं तो तुम दोनों ने मुझे भी झूठा, मक्कार और ग़द्दार कहा। (सही मुस्लिम, जिल्द 5, पेज 152, फ़त्हुल बारी, जिल्द 6, पेज 144, कन्ज़ुल उम्माल, जिल्द 7, पेज 241)
ध्यान देने की बात यह है कि यह क़िस्सा उमर की ज़िंदगी के आख़िरी दिनों का है, और इमाम अली अ.स. और इब्ने अब्बास उस समय भी अपनी कही हुई बात पर डटे रहे।
इन सब बातों के बाद कि आपका हक़ छीन लिया गया, आप उनसे नाराज़ थे लेकिन आपने उम्मत और मुसलमानों की एकता को बाक़ी रखने और मुसलमानों को आपसी मतभेद से बचाने के लिए आपने धैर्य से काम लिया, यही नहीं बल्कि जहां उन लोगों को आपकी ज़रूरत होती थी या आपसे कोई दीनी मसला पूछते थे आप उनकी मदद करते थे।
इमाम अली अ.स. इस बात में यक़ीन रखते थे कि जब दो विचार आपस में टकराएंगे तो उन में से एक का बातिल होना तय है, यानी हक़ हमेशा बातिल के मुक़ाबले पर रहेगा, और यह दोनों कभी एक साथ जमा नहीं हो सकते। (नहजुल-बलाग़ा, कलेमाते क़ेसार 183)
यही कारण है कि जब इमाम अली अ.स. से एक यहूदी ने इमामत और ख़िलाफ़त पर आपत्ति जताते हुए कटाक्ष किया कि तुम लोगों ने अपने पैग़म्बर स.अ. को दफ़्न करने से पहले ही उनके बारे में मतभेद शुरू कर दिए, तो आपने जवाब दिया कि, हमारा मतभेद पैग़म्बर स.अ. को लेकर बिल्कुल नहीं था, बल्कि हमारा मतभेद उनकी हदीस के मतलब को लेकर था, लेकिन तुम यहूदियों के पैर दरिया से निकल कर सूखे भी नहीं थे और तुम लोगों ने हज़रत मूसा अ.स. से कह दिया था कि बुत परस्तों की तरह हमारे लिए भी ख़ुदा का प्रबंध करो और फिर जवाब में हज़रत मूसा अ.स. ने तुम लोगों के बारे में कहा था कि तुम लोग कितने जाहिल और अनपढ़ हो। (नहजुल-बलाग़ा, सुब्ही सालेह, कलेमाते क़ेसार, 317)
इसी नहजुल-बलाग़ा में मौजूद इमाम अली अ.स. का फ़रमान आज भी कानों में गूंजता है कि, हमेशा इस्लामी समाज से जुड़े रहो, क्योंकि अल्लाह की मदद वहीं है जहां एकता हो, और ख़बरदार आपसी फूट से हमेशा बचो क्योंकि जब आपस में बट कर कम बचोगे तो शैतान का निवाला बन जाओगे, जैसे कम भेड़ों का झुंड भेड़िये का शिकार हो जाता है। एक और जगह आप ने एक ख़त में लिखा कि आपसी भाईचारे की कोशिश हमेशा जारी रखो, आपस में एक दूसरे पर ख़र्च करो, और एक दूसरे से कभी मुंह मत मोड़ो। (नहजुल-बलाग़ा, ख़त न. 47)
अमीरुल मोमिनीन अ. स. का जन्म
नाम व उपाधियाँ
आपका नाम अली व आपके अलक़ाब अमीरुल मोमेनीन, हैदर, कर्रार, कुल्ले ईमान, सिद्दीक़,फ़ारूक़, अत्यादि हैं।
माता पिता
आपके पिता हज़रतअबुतालिब पुत्र हज़रत अब्दुल मुत्तलिब व आपकी माता आदरनीय फ़तिमा पुत्री हज़रतअसद थीं।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
आप का जन्म रजब मास की 13वी तारीख को हिजरत से 23वर्ष पूर्व मक्का शहर के विश्व विख्यात व अतिपवित्र स्थान काबे मे हुआ था। आप अपने माता पिता के चौथे पुत्र थे।
पालन पोषण
आप (6) वर्ष की आयु तक अपने माता पिता के साथ रहे। बाद मे आदरनीय पैगम्बर हज़रतअली को अपने घर ले गये।
हज़रत अली सर्वप्रथम मुसलमान के रूप मे
जब आदरनीय मुहम्मद (स0)ने अपने पैगमबर होने की घोषणा की तो हज़रतअली वह प्रथम व्यक्ति थे जिन्होंने आपके पैगम्बर होने को स्वीकार किया तथा आप पर ईमान लाए।
हज़रत अली पैगम्बर के उत्तराधिकारी के रूप मे
हज़रत पैगम्बर ने अपने स्वर्गवास से तीन मास पूर्व हज से लौटते समय ग़दीरे ख़ुम नामक स्थान पर अल्लाह के आदेश से सन् 10 हिजरी मे ज़िलहिज्जा मास की 18वी तिथि को हज़रतअली को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
अपने पाँच वर्षीय शासन काल मे विभिन्न युद्धों, विद्रोहों, षड़यन्त्रों, कठिनाईयों व समाज मे फैली विमुख्ताओं का सामना किया। इमाम अली राजकोष का विशेष ध्यान रखते थे, वह किसी को भी उसके हक़ से अधिक नही देते थे। वह राजकोष को सार्वजनिक सम्पत्ति मानते थे। एक बार आप रात्री के समय राजकोष के कार्यों मे वयस्त थे। उसी समय आपका एक मित्र भेंट के लिए आया जब वह बैठ गया और बातें करने लगा तो आपने जलते हुए चिराग़ (दिआ) को बुझा दिया। और अंधेरे मे बैठकर बाते करने लगे। आपके मित्र ने चिराग़ बुझाने का कारण पूछा तो आपने उत्तर दिया कि यह चिराग़ राजकोष का है।और आपसे बातचीत मेरा व्यक्तिगत कार्य है अतः इसको मैं अपने व्यक्तिगत कार्य के लिए प्रयोग नही कर सकता।
स्वर्गवास
हज़रत इमाम अली सन् 40 हिजरी के रमज़ान मास की 19वी तिथि को जब सुबह की नमाज़ पढ़ने के लिए गये तो सजदा करते समय अब्दुर्रहमान पुत्र मुलजिम ने आपके ऊपर तलवार से हमला किया जिससे आप का सर बहुत अधिक घायल हो गया तथा दो दिन पश्चात रमज़ान मास की 21वी रात्री मे नमाज़े सुबह से पूर्व आपने इस संसार को त्याग दिया।
समाधि
इमाम अली की समाधि नजफ़ नामक स्थान पर है।
इमाम मोहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम की विलादत
इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन 195 हिजरी को मदीना शहर में हुआ था। इल्म, शराफ़त (शालीनता), ख़िताबत (वाकपटुता) तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था.
ख़ुदाई दायित्व के उचित ढंग से निर्वाह के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक ने अपने काल में हर कार्य के लिए तार्किक और प्रशंसनीय नीति अपनाई थी ताकि ख़ुदाई मार्गदर्शन जैसे अपने दायित्व का निर्वाह उचित ढंग से किया जा सके।
इन महापुरूषों के जीवन में अल्लाह पर केन्द्रियता उनका मूल मंत्र रही। इस प्रकार इंसाफ़ को लागू करने, ख़ुदा के सिवा किसी अन्य की बंदगी से मनुष्यों को मुक्ति दिलाने और व्यक्तिगत एवं सामाजिक संबंधों में सुधार जैसे विषयों पर उनका विशेष ध्यान था।
यद्यपि यह महापुरूष बहुत छोटे और सीमित वक़्त में इमामत के कार्यकाल में सफ़ल रहे किंतु उनकी दृष्टि में इंसाफ़ को स्थापित करने, हक़ व अधिकारों को दिलवाने, अन्याय को समाप्त करने और ख़ुदा के धर्म को फैलाने जैसे कार्य के लिए सत्ता एक माध्यम है। क्योंकि यह महापुरूष अपनी करनी तथा कथनी में मानवता और नैतिक मूल्यों का उदाहरण थे अतः वे लोगों के दिलों पर राज किया करते थे। रजब जैसे बरकतों वाले महीने की दसवीं तारीख़, पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम की एक कड़ी के शुभ जन्मदिवस से सुसज्जित है।
आज के दिन पैग़म्बरे इस्लाम (स) के ऐसे परिजन का जन्म दिवस है जो दान-दक्षिणा के कारण जवाद के उपनाम से जाने जाते थे। जवाद का अर्थ होता है अतिदानी। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का जन्म दस रजब सन १९५ हिजरी को मदीना में हुआ था। ज्ञान, शालीनता, ख़िताबत तथा अन्य मानवीय गुणों के कारण उनका व्यक्तित्व अन्य लोगों से भिन्न था। वे बचपन से ही ज्ञान, राज़ व नियाज़, शालीनता और अन्य विशेषताओं में अद्वितीय थे।
इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के इमामत के काल में अब्बासी शासन के दो शासक गुज़रे मामून और मोतसिम। क्योंकि अब्बासी शासक, इस्लामी शिक्षाओं को लागू करने में गंभीर नहीं थे और वे केवल "ज़वाहिर" को ही देखते थे अंतः यह शासक, धर्म के नियमों में परिवर्तन करने और उस में नई बातें डालने के लिए प्रयत्नशील रहते थे। इस प्रकार के व्यवहार के मुक़ाबले में इमाम जवाद (अ) की प्रतिक्रियाओं और उनके विरोध के कारण व्यापक प्रतिक्रियाएं हुईं और यही विषय, अब्बासी शासन की ओर से इमाम और उनके अनुयाइयों को पीड़ित किये जाने का कारण बना।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) के अन्य परिजनों की ही भांति इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अब्बासी शासकों के अत्याचारों और जनता को धोखा देने वाली उनकी कार्यवाहियों के मुक़ाबले में शांत नहीं बैठते और बहुत सख़्त परिस्थितियों में भी जनता के समक्ष वास्तविकताओं को स्पष्ट किया करते थे। अत्याचार के मुक़ाबले में इमाम जवाद अलैहिस्सलाम की दृढ़ता और बहादुरी, साथ ही उनकी बेहतरीन ख़िताबत कुछ इस प्रकार थी जिस को सहन करने की शक्ति अब्बासी शासकों में नहीं थी। यही कारण है कि इन दुष्टों ने मात्र 25 वर्ष की आयु में इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम को शहीद करवा दिया।
इमाम जवाद अलैहिस्सलाम के महत्वपूर्ण सांस्कृतिक प्रयासों के आयामों में से एक, पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों के उन विश्वसनीय कथनों को प्रस्तुत करना और उन गूढ़ धार्मिक विषयों को पेश करना था जिनपर उन लोगों ने विभिन्न आयाम से प्रकाश डाला था।
इमाम तक़ी अल जवाद अलैहिस्सलाम एक ओर तो पैग़म्बरे इस्लाम (स) और उनके परिजनों के कथनों का वर्णन करते हुए समाज में धर्म की जीवनदाई संस्कृति और धार्मिक शिक्षाओं को प्रचलित कर रहे थे तो दूसरी ओर समय की आवश्यकता के अनुसार तथा जनता की बौद्धिक एवं सांस्कृतिक क्षमता के अनुरूप विभिन्न विषयों पर भाषण दिया करते थे। ख़ुदाई आदेशों को लागू करने के लिए इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम का एक उपाय या कार्य, पवित्र क़ुरआन और लोगों के बीच संपर्क स्थापित करना था।
उनका मानना था कि क़ुरआन की आयतों को समाज में प्रचलित किया जाए और मुसलमानों को अपनी कथनी-करनी और व्यवहार में पवित्र क़ुरआन और उसकी शिक्षाओं से लाभान्वित होना चाहिए। इमाम तक़ी अल जवाद अलैहिस्सलाम ख़ुदाई इच्छा की प्राप्ति को लोक-परलोक में कल्याण की चाबी मानते थे। वे पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं के आधार पर इस बात पर बल दिया करते थे कि अल्लाह की प्रसन्नता हर वस्तु से सर्वोपरि है। ख़ुदावंदे करीम सूरए तौबा की ७२ वीं आयत में अपनी इच्छा को मोमिनों के लिए हर चीज़, यहां तक स्वर्ग से भी बड़ा बताता है। इसी आधार पर इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम लोगों से कहते थे कि वे केवल ख़ुदा की प्रसन्नता प्राप्त करने के बारे में सोच-विचार करें और इस संदर्भ में वे अपने मार्गदर्शन प्रस्तुत करते थे। अपने मूल्यवान कथन में एक स्थान पर इमाम तक़ी अल जवाद अलैहिस्सलाम कहते हैं: तीन चीज़े अल्लाह की प्रसन्नता का कारण बनती हैं। पहले, अल्लाह से अधिक से अधिक प्रायश्यित करना, दूसरे कृपालू होना और तीसरे अधिक दान देना। ख़ुदा की ओर से मनुष्य को प्रदान की गई नेअमतों में से एक नेअमत प्रायश्यित अर्थात अपने पापों के प्रति अल्लाह से क्षमा मांगना है।
प्रायश्चित, ख़ुदा के बंदों के लिए ख़ुदा की नेअमतों के द्वार में से एक है। ख़ुदा से पापों का प्रायश्चित करने से पिछले पाप मिट जाते हैं और इससे इंसान को इस बात का फिर से अवसर प्राप्त होता है कि वह विगत की क्षतिपूर्ति करते हुए उचित कार्य करे और अपनी आत्मा को पवित्र एवं कोमल बनाए। इसी तर्क के आधार पर मनुष्य को तौबा या प्रायश्चित करने में विलंब नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे पछतावा ही हाथ आता है।
इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के अनुसार शराफ़त (शालीतना) उन अन्य उपायों में से है जिसके माध्यम से ख़ुदाई प्रसन्नता प्राप्त की जा सकती है। उसके पश्चात दूसरे और तीसरे भाग में मनुष्य को लोगों के साथ संपर्क के ढंग से परिचित कराते हैं। दूसरे शब्दों में अल्लाह को प्रसन्न करने का मार्ग अल्लाह के बंदों और उनकी सेवा से गुज़रता है। इस संपर्क को विनम्रता और दयालुता के साथ होना चाहिए।
निश्चित रूप से विनम्र व्यवहार विनम्रता का कारण बनता है जो मानव को घमण्ड से दूर रखता है। घमण्ड, दूसरों पर अत्याचार का कारण होता है। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम अपने ख़ुत्बे के अन्तिम भाग में अल्लाह की प्रसन्नता प्राप्त करने के तीसरे कारण को दान-दक्षिणा के रूप में परिचित करवाते हैं। स्वयं वे इस मानवीय विशेषता के प्रतीक थे। इसी आधार पर उन्हें जवाद अर्थात अत्यधिक दानी के नाम से जाना जाता है। इमाम जवाद अलैहिस्सलाम लोगों को उस मार्ग का निमंत्रण देते थे जिसे उन्होंने स्वयं भी तय किया और उसके बहुत से प्रभावों को ख़ुदा की रहमत और कृपादृष्टि को आकृष्ट करने में अनुभव किया। दूसरों को सदक़ा या दान देने का उल्लेख पवित्र क़ुरआन में बहुत से स्थान पर नमाज़ के साथ किया गया है। इस प्रकार इमाम तक़ी अलैहिस्सलाम यह समझाना चाहते हैं कि ख़ुदा की इबादत के दो प्रमुख पंख हैं। इनमें से एक ख़ुदा के साथ सहीह एवं विनम्रतापूर्ण संबंध और दूसरा लोगों के साथ मधुर एवं विनम्रतापूर्ण व्यवहार है। यह कार्य दान से ही संभव होता है जिससे व्यक्ति अल्लाह की इच्छा प्राप्त कर सकता है।
मनुष्य अपनी संपत्ति में से जिस मात्रा में भी चाहे अल्लाह के मार्ग में वंचितों को दान कर सकता है। यहां पर यह बात उल्लेखनीय है कि दान-दक्षिणा में संतुलन होना चाहिए। ऐसा न हो कि यह मनुष्य के लिए निर्धन्ता का कारण बने। दान और परोपकार हर स्थिति में विशेषकर धन-दौलत का दान उन कार्यों में से एक है जो इंसान को ख़ुदा की प्रसन्नता की ओर बढ़ाता है। क्योंकि इंसान के पास जो कुछ है उसे वह अल्लाह के मार्ग में दान दे सकता है। इस प्रकार के लोग हर प्रकार के भौतिक लगाव को त्यागते हुए केवल अल्लाह की प्रशंसा की प्राप्ति चाहते हैं। इमाम मुहम्मद तक़ी अलैहिस्सलाम के एक कथन से इस लेख का अंत कर रहे हैं।
जैसा कि आप जानते हैं कि बहुत से लोग धन-दौलत, सत्ता, जातिवाद तथा इसी प्रकार की बातों को गर्व और महानता का कारण मानते हैं तथा जिन लोगों में यह चीज़ें नहीं पाई जातीं उन्हें वे तुच्छ समझते हैं किंतु इमाम तक़ी अल जवाद अलैहिस्सलाम सच्ची शालीनता का कारण उस ज्ञान को मानते हैं जो व्यक्ति के भीतर निखार का कारण बने। वे महानता को आध्यात्मिक विशेषताओं में से मानते हैं।
एक स्थान पर आप कहते हैं: वास्तविक सज्जन वह व्यक्ति है जो इल्म से आरास्तां (ज्ञान से सुसज्जित) हो और वास्तविक महानता उसी के लिए है जो ख़ुदाई भय और ख़ुदाई पहचान के मार्ग को अपनाए।
? *अल्लाह हुम्मा अज्जिल ले वलियेकल फ़रज...*
यमन में गैस स्टेशन पर विस्फोट में 15 की मौत, 67 घायल
यमन के केंद्रीय प्रांत अलबैदा में एक गैस स्टेशन पर हुए भीषण विस्फोट ने शुक्रवार सुबह तबाही मचा दी अलजज़ीरा नेटवर्क के संवाददाता ने बताया कि यह हादसा सुबह के व्यस्त समय में हुआ जब बड़ी संख्या में लोग गैस भरवाने के लिए स्टेशन पर मौजूद थे।
,एक रिपोर्ट के अनुसार ,यमन के केंद्रीय प्रांत अलबैदा में एक गैस स्टेशन पर हुए भीषण विस्फोट ने शुक्रवार सुबह तबाही मचा दी अलजज़ीरा नेटवर्क के संवाददाता ने बताया कि यह हादसा सुबह के व्यस्त समय में हुआ जब बड़ी संख्या में लोग गैस भरवाने के लिए स्टेशन पर मौजूद थे।
स्थानीय अधिकारियों के मुताबिक यह विस्फोट इतना शक्तिशाली था कि इसकी गूंज आसपास के इलाकों में सुनाई दी और आग की लपटें कई मीटर ऊंची उठीं। विस्फोट के कारण स्टेशन पर खड़े कई वाहन भी क्षतिग्रस्त हो गए और आग ने पास की इमारतों को भी नुकसान पहुंचाया।
यमन के स्वास्थ्य मंत्रालय ने जानकारी दी कि इस दुर्घटना में अब तक 15 लोगों की मौत हो चुकी है और 67 लोग घायल हुए हैं घायलों में कई की हालत गंभीर बताई जा रही है, जिन्हें पास के अस्पतालों में भर्ती कराया गया है।
हालांकि, विस्फोट के सही कारण का अभी तक पता नहीं चल पाया है शुरुआती जांच में गैस रिसाव को इस हादसे का संभावित कारण माना जा रहा है लेकिन स्थानीय प्रशासन ने विस्तृत जांच के आदेश दिए हैं।