
رضوی
हज का उद्देश्य एक उत्तम इंसान बनाना है।मौलाना इब्ने हसन अमलवी वाइज़
मौलाना इब्ने हसन अमलवी वाइज़ ने कहां,ख़ाना-ए-काबा किसी एक क़ौम या क़बीले के लिए नहीं, किसी ख़ास देश या समुदाय के लिए नहीं है, बल्कि इसकी तामीर और बुनियाद का मक़सद खुद परवरदिगार ने क़ुरआन-ए-मजीद में साफ़ तौर पर इस तरह बयान किया है
ख़ाना-ए-काबा किसी एक क़ौम या क़बीले के लिए नहीं, किसी ख़ास देश या समुदाय के लिए नहीं है, बल्कि इसकी तामीर और बुनियाद का मक़सद खुद परवरदिगार ने क़ुरआन-ए-मजीद में साफ़ तौर पर इस तरह बयान किया है निःसंदेह सबसे पहला घर जो ज़मीन पर इंसानों के लिए बनाया गया, वह मक्का मुक़र्रमा में है, जो तमाम जहानों के लिए हिदायत और बरकत का केंद्र है।
और जब काबा की तामीर मुकम्मल हो गई, तो अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम (अ.स.) को हुक्म दिया,ऐ इब्राहीम लोगों को हज के लिए पुकारो।
इसका साफ़ मतलब यह है कि काबा का मक़सद वैश्विक अमन व शांति की स्थापना करना, पूरी मानवता को इंसानियत, हमदर्दी और एकजुटता की तरफ़ बुलाना है, और इंसान को एक बेहतरीन और ऊँचे दर्जे का इंसान बनने की कोशिश की प्रेरणा देना है।
ऐसा इंसान, जिसका तसव्वुर मशहूर शायर मिर्ज़ा ग़ालिब ने अपने शेर में इस तरह किया है,बस कि दुश्वार है हर काम का आसां होना, आदमी को भी मयस्सर नहीं इंसां होना।याद रखिए,आदमी” होना एक बात है और “इंसान” होना दूसरी बात। मेरी गुज़ारिश है कि आप यहाँ से “आदमी” बनकर जाएं और “अच्छे इंसान” बनकर लौटें।
इन विचारों का इज़हार हुज्जतुल इस्लाम, हाजी मौलाना इब्ने हसन अमलवी (सदरुल अफाज़िल, वाइज़) संस्थापक और संरक्षक हसन इस्लामिक रिसर्च सेंटर अमलो मुबारकपुर और प्रवक्ता, मज़मआ उलमा व वाइज़ीन पूरवांचल ने दिनांक 9 मई, शुक्रवार को मौलाना अली मियां नदवी हज हाउस, सरोजिनी नगर, लखनऊ में हज यात्रियों की फ्लाइट रवाना होने के अवसर पर आयोजित दुआ कार्यक्रम में मुख्य भाषण के दौरान व्यक्त किए।
कार्यक्रम की शुरुआत हाजी सईद हसन साहब लखनवी द्वारा हज यात्रा से जुड़ी सुरक्षा जानकारियों की प्रस्तुति से हुई।
अंत में,उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी द्वारा आयोजित इस दुआ कार्यक्रम के संचालक और संरक्षक मुफ़्ती आफ़ताब आलम साहब नदवी (मुबल्लिग़, नदवतुल उलमा)ने हज और उमरा के वाजिबात व मुस्तहबात पर रोशनी डालते हुए दुआ की अहमियत और फ़ायदों पर विस्तार से चर्चा की।
मुफ़्ती साहब ने बताया कि आज शिया हज यात्रियों की फ्लाइट रवाना हो रही है, इसलिए एक शिया आलिम और ख़तीब को भी विशेष रूप से कार्यक्रम में बुलाया गया जो अपने आप में एक नया और अहम क़दम है।
इंटरव्यू के दौरान मुफ़्ती साहब ने यह भी बताया कि आज की फ्लाइट में कोई भी महिला बिना हिजाब के नहीं है जो कि उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी की बेहतरीन सेवाओं का नतीजा है।
इस मौके पर तीन हज इंस्पेक्टरों ने भी अपना परिचय दिया और हाजियों को हर संभव मदद देने का भरोसा दिलाया।कार्यक्रम का समापन मुफ़्ती आफ़ताब आलम नदवी साहब की दुआ के साथ हुआ।
कार्यक्रम से पहले,उत्तर प्रदेश राज्य हज कमेटी के सचिव श्री एस.पी. तिवारी को उनके दफ्तर में मौलाना इब्ने हसन अमलवी साहब द्वारा उर्दू में लिखा गया एक धन्यवाद पत्र हाजी मास्टर सागर हुसैनी साहब (हज इंस्पेक्टर) के माध्यम से सौंपा गया, जिसे उन्होंने पहले पढ़ा, फिर मुस्कराकर दस्तखत कर स्वीकार किया और आफिसर आरिफ रऊफ साहब को हिदायत दी कि इस पत्र को फाइल में सुरक्षित रखें।
श्री मोहम्मद जावेद खान (ऑफिसर ऑन स्पेशल ड्यूटी) ने हमारे संवाददाता से बातचीत में बताया कि आज की फ्लाइट में कुल 288 हाजी रवाना किए जा रहे हैं 76 शिया हाजी 7 बिहार से 156 मऊ से और 77 आज़मगढ़ से शामिल हैं।
यह भी उल्लेखनीय है कि पिछले कुछ वर्षों में केंद्र और राज्य हज कमेटियों की सेवाएं जैसे कि हज इंस्पेक्टरों का चयन आदि की वजह से इनकी लोकप्रियता में काफ़ी इज़ाफा हुआ है।हज कमेटी ऑफ इंडिया हाजियों को हर संभव उत्तम सुविधाएं उपलब्ध कराने के लिए पूरी तरह से तत्पर और प्रतिबद्ध है।
वार्ताओं में ईरान की रेड लाइन्स स्पष्ट हैं
ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव ने अमेरिका के साथ हो रही अप्रत्यक्ष वार्ताओं में ईरान की अटल नीतियों पर ज़ोर देते हुए चेतावनी दी और कहा कि धमकी और ज़बरदस्ती किसी भी रूप में स्वीकार्य नहीं है।
ईरान और अमेरिका ने इस वर्ष 12 अप्रैल से ओमान की मध्यस्थता में अप्रत्यक्ष वार्ताएं शुरू की हैं।
ईरानी छात्र समाचार एजेंसी (ISNA) के हवाले से बताया है कि ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव अली अकबर अहमदियान ने बृहस्पतिवार को तेहरान के इस्लामिक रेवोल्यूशनरी गार्ड कॉर्प्स (IRGC) के कमांडरों के सम्मेलन में कहा कि जिस तरह दबाव और धमकी की स्थिति में सीधी वार्ता करना नासमझी और सम्मानहीनता है, उसी तरह समानता और धमकी रहित परिस्थितियों में वार्ता करना बुद्धिमत्तापूर्ण और सम्मानजनक होता है।
अहमदियान ने क्षेत्रीय परिवर्तनों की ओर भी संकेत करते हुए कहा कि प्रतिरोध का मोर्चा अपनी क्षमताओं को पुनः मज़बूत करके और नये परिवर्तनों की ज़रूरतों को पहचान कर पहले से भी अधिक शक्ति के साथ राष्ट्रों के वास्तविक दुश्मन के सामने खड़ा है।
ईरान की सर्वोच्च राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद के सचिव ने अपने भाषण के एक अन्य भाग में ईरानी राष्ट्र के विरुद्ध दुश्मन द्वारा चलाये जा रहे संचारिक युद्ध की ओर संकेत करते हुए कहा कि जनता को निराश करना, समस्याओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करना, राजनीतिक और सामाजिक विभाजनों को सक्रिय करना, और अधिकारियों के बीच, अधिकारियों व जनता के बीच, तथा स्वयं जनता के विभिन्न वर्गों के बीच फूट डालना, आज दुश्मन की प्राथमिक रणनीति बन चुका है।
रांची की जाफरिया मस्जिद में हज प्रशिक्षण शिविर का आयोजन; हज करने की रस्मों पर व्याख्यान
रांची भारत; इस्लामिक टूर्स एंड ट्रैवल्स लखनऊ ने रांची की जाफरिया मस्जिद में हज प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया और बड़ी संख्या में तीर्थयात्री इस शिविर में शामिल हुए।
रांची भारत की एक रिपोर्ट के अनुसार; इस्लामिक टूर्स एंड ट्रैवल्स लखनऊ ने रांची की जाफरिया मस्जिद में हज प्रशिक्षण शिविर का आयोजन किया और बड़ी संख्या में तीर्थयात्री इस शिविर में शामिल हुए।
झारखंड सुन्नी वक्फ बोर्ड के सदस्य और रांची की जाफरिया मस्जिद के इमाम और उपदेशक मौलाना हाजी सैयद तहज़ीबुल हसन रिजवी ने हज की रस्मों पर व्याख्यान दिया, जिन्होंने तीर्थयात्रियों को हज की शुरुआत से लेकर अंत तक की रस्मों के बारे में जानकारी दी।
शिविर में हज के विशेष पांच दिनों के दौरान किए जाने वाले अनुष्ठानों के बारे में भी बताया गया; जैसे काबा की परिक्रमा, सफा से मरवा तक दौड़ना, अराफात, मीना, कुर्बानी और अन्य कार्य। हज पर जा रहे हबीब अहमद को इस्लामिक टूर्स एंड ट्रैवल्स लखनऊ की ओर से मस्जिद जाफरिया में सम्मानित किया गया।
अंत में मौलाना सैयद तहजीबुल-हसन ने देश की तरक्की, खुशहाली, अमन, मोहब्बत और एकता के लिए दुआ की।
इस अवसर पर सैयद नेहाल हुसैन सरियावी, सैयद जावेद हैदर, जसीम रिजवी, इकबाल फातमी, नदीम रिजवी, हाशिम, इकबाल हुसैन, अशरफ रिजवी, हबीब अहमद, अत्ता इमाम रिजवी, सैयद शाहरुख हसन रिजवी, फराज समेत बड़ी संख्या में लोग मौजूद थे।
तौहीद की तरफ रोजूउ करना ही इंसानियत को साम्राज्यवादी प्रभुत्व से मुक्ति दिलाने का एकमात्र रास्ता है
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद अली रज़ा अबादी, जो ख़ुरासान-ए-जनूबी प्रांत में वली-ए-फ़क़ीह के प्रतिनिधि हैं दह-ए-करामत के अवसर पर एक महत्वपूर्ण भाषण में तौहीद को इंसानियत की निजात का एकमात्र रास्ता करार दिया उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अगर दुनिया की क़ौमें गुमराही, तबाही और नैतिक पतन से बचना चाहती हैं तो उन्हें ला इलाहा इल्लल्लाह के उसूलों को अमल में लाना होगा।
हुज्जतुल इस्लाम वल मुस्लिमीन सैयद अली रज़ा अबादी, जो ख़ुरासान-ए-जनूबी प्रांत में वली-ए-फ़क़ीह के प्रतिनिधि हैं, दह-ए-करामत के अवसर पर एक महत्वपूर्ण भाषण में तौहीद को इंसानियत की निजात का एकमात्र रास्ता करार दिया। उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि यदि विश्व की क़ौमें गुमराही, तबाही और नैतिक पतन से बचना चाहती हैं, तो उन्हें "ला इलाहा इल्लल्लाह के वास्तविक अर्थ को अपनाकर उसे अमल में लाना होगा।
तौहीद की राह में महिलाओं की भूमिका
हुज्जतुल इस्लाम अबादी ने ज़ोर देकर कहा कि मर्द और औरत, दोनों इंसानी परिपूर्णता की राह में बराबर हैं। उन्होंने हज़रत मरयम (अ.स), हज़रत आसिया (अ.स), हज़रत ख़दीजा (अ.स) और हज़रत ज़ैनब (अ.स) जैसी महान महिलाओं का उदाहरण देते हुए कहा कि ये सब महिलाएं तौहीदी संघर्ष में प्रमुख स्थान रखती हैं।
"ला इलाहा इल्लल्लाह" का वास्तविक अर्थ
उन्होंने सूरह हुजुरात की आयत "إِنَّ أَكْرَمَكُمْ عِندَ اللَّهِ أَتْقَاكُمْ" (निःसंदेह अल्लाह के निकट सबसे इज़्ज़तदार वह है जो सबसे ज़्यादा परहेज़गार है) की तिलावत करते हुए कहा कि सच्चा परहेज़गारी (तक़वा) ही वास्तविक तौहीद है, जो इंसान को उसके सोच, दिल, अमल और विश्वास की बुराइयों से बचाता है।
उन्होंने याद दिलाया कि सिर्फ "ला इलाहा इल्लल्लाह" कह देने से नजात नहीं मिलती, जब तक कि यह कलिमा सच्चाई और अमली प्रतिबद्धता के साथ न कहा जाए।
पश्चिमी प्रवृत्ति: तौहीद से भटकाव की निशानी
बिरजंद के इमामे जुमआ ने पश्चिमी विचारों की आलोचना करते हुए कहा कि पश्चिमी सभ्यता कोई भौगोलिक मुद्दा नहीं है, बल्कि यह एक मानसिक और नैतिक गुमराही का समूह है। उन्होंने कहा कि आज का आधुनिक इंसान पहले से ज़्यादा इस बात का ज़रूरतमंद है कि वह "विलायत-ए-इलाही" यानी तौहीद के केंद्र की ओर वापस लौटे।
ग़ैबत के दौर में विलायत की अहमियत
हुज्जतुल इस्लाम अबादी ने दुनिया में शीत युद्ध, साम्यवाद और उदारवाद की टकराव की चर्चा करते हुए कहा कि इस्लामी गणराज्य ईरान, एक तौहीदी किले के रूप में उपस्थित है।
उन्होंने ज़ोर देकर कहा कि अगर विलायत-ए-फ़क़ीह की व्यवस्था, सोवियत संघ के पतन और लिबरल डेमोक्रेसी की वैश्विक हुकूमत के समय मौजूद न होती, तो दुनिया तौहीद से पूरी तरह भटक चुकी होती विलायत-ए-फ़क़ीह वही "हुज्जत-ए-बालिग़ा" है जिसे खुदा ने इस दौर के लिए तय किया है।
अध्यात्मिक दृष्टि और ईश्वरीय समझ
उन्होंने रब्बानी उलमा की दूरदृष्टि का ज़िक्र करते हुए आयतुल्लाह नायिनी और मुल्ला फत्हुल्लाह सुलतान आबादी के एक क़िस्से को बयान किया, जो भविष्य की घटनाओं को समझने की क्षमता रखते थे।
उन्होंने कहा कि इस तरह की रूहानी समझ सच्ची बंदगी और तौहीद में इख़लास (निष्ठा) का नतीजा होती है। जैसा कि हदीस-ए-क़ुद्सी में आया है:जब मेरा बंदा नफ़्ल इबादतों के ज़रिए मेरे करीब होता है, तो मैं उससे मोहब्बत करने लगता हूँ। फिर मैं उसका कान बन जाता हूँ जिससे वह सुनता है, उसकी आंख बन जाता हूँ जिससे वह देखता है, और उसकी ज़ुबान बन जाता हूँ जिससे वह बोलता है।
तौहीद, उलमा और इंसानी समाजों के लिए नजात की राह
हुज्जतुल इस्लाम अबादी ने आख़िर में कहा कि रहबर-ए-मुअज़्ज़म (सुप्रीम लीडर) के समझदारी से भरे हुए बयानों को इस संवेदनशील दौर में उलमा और हौज़ा-ए-इल्मिया के लिए एक मार्गदर्शक नक्शा समझा जाना चाहिए।
उन्होंने कहा कि इमाम जाफर सादिक़ (अ.स) और इमाम रज़ा (अ.स) के इल्मी स्कूल की पैरवी करते हुए आज के दौर में भी तौहीद को अमली रूप में ज़िंदा करने की ज़रूरत है।
उन्होंने स्पष्ट किया कि आधुनिक इंसान की मुक्ति चाहे वह सांस्कृतिक संकट से हो, विचारधारा और नैतिकता की गिरावट से सिर्फ उसी समय मुमकिन है जब हम तौहीद, विलायत और अंबिया के संदेशों की गहराई को समझें और उन पर अमल करें।
तेल अवीव में फिर से सायरन गूंजे; यमन का नया मिसाइल हमला
यमन की सशस्त्र सेनाओं ने बेन गुरियन हवाई अड्डे और तेल अवीव पर बैलिस्टिक मिसाइलों और ड्रोन से हमला करके ज़ायोनी शासन को चौंका दिया।
यमन की सशस्त्र सेनाओं ने शुक्रवार को एक अभूतपूर्व सैन्य अभियान में तेल अवीव के निकट स्थित बेन गुरियन हवाई अड्डे को बैलिस्टिक मिसाइल से और तेल अवीव के एक महत्वपूर्ण ठिकाने को "याफ़ा" ड्रोन से निशाना बनाया।
यमन की सशस्त्र सेनाओं के प्रवक्ता ब्रिगेडियर जनरल याह्या सरीअ ने एक बयान में कहा कि यह हमला ग़ज़ा में ज़ायोनी शासन द्वारा किए जा रहे अपराधों के जवाब में और फिलस्तीनी प्रतिरोध के समर्थन में किया गया है।
उनके अनुसार यमन की बैलेस्टिक मिसाइल ने सटीक रूप से अपने लक्ष्य को भेद किया और इस्राईली वायु सुरक्षा प्रणालियाँ, जिनमें अत्याधुनिक THAAD सिस्टम भी शामिल था, इस मिसाइल को रोकने में विफल रहीं।
यमन की सशस्त्र सेनाओं द्वारा लगभग 2000 किलोमीटर दूर से किये गये इस हमले में, बेन गुरियन एयरपोर्ट को लगभग एक घंटे के लिए बंद करना पड़ा और तेल अवीव तथा अधिग्रहित क्षेत्रों के 200 से अधिक स्थानों पर ख़तरे के सायरन बजने लगे।
ज़ायोनी मीडिया ने बताया कि लाखों लोग शरण स्थलों की ओर भागे, जिससे तेल अवीव में अफरा-तफ़री और अराजकता फैल गई। यमनी सूत्रों ने पुष्टि की है कि धमाकों की आवाज़ों का कारण दूरमार्गी मिसाइलें थीं और ज़ायोनी शासन अब इस हमले के आयामों की जांच कर रहा है।
इस बीच, यमन की राजधानी सना ने ज़ोर देकर कहा है कि वह इस्राईल के ख़िलाफ़ समुद्री और हवाई नाकाबंदी को जारी रखेगा और एयरलाइनों को चेतावनी दी है कि वे अधिग्रहित क्षेत्रों के लिए उड़ानें बंद कर दें। हमलों के बाद लुफ्थांसा एयरलाइंस ने 18 मई तक तेल अवीव की उड़ानें निलंबित कर दीं हैं।
इसी समय, सना के सबईन स्क्वायर पर लाखों यमनी नागरिकों ने एक विशाल रैली में भाग लिया और अमेरिका के हमलों के रुकने को "ईश्वरीय विजय" बताया। उन्होंने ग़ज़ा के समर्थन के साथ इस्राईल को हार की चेतावनी दी है। यह रैली ऐसे समय हुई जब ओमान की मध्यस्थता से यमन और अमेरिका के बीच युद्धविराम हुआ, लेकिन यमनी अधिकारियों ने स्पष्ट किया कि इस समझौते में इस्राईल के ख़िलाफ कार्यवाहियां शामिल नहीं हैं।
इसी मध्य ज़ायोनी सुरक्षा पत्रकार हिलेल बिटोन रोसेन ने इस हमले में THAAD रक्षा प्रणाली की विफलता को एक सप्ताह में दूसरी हार बताया जिससे यमन की मिसाइल क्षमताओं के सामने इस्राईल की रक्षा कमज़ोरी को लेकर चिंता बढ़ गई है।
ज़ायोनी शासन के पूर्व युद्ध मंत्री एविग्दोर लिबरमैन ने वर्तमान स्थिति को अविश्वसनीय है बताया और कहा कि एक साल और सात महीने हो चुके हैं और हर दिन लाखों इस्राइली बंकरों में भाग रहे हैं।
विपक्ष के नेता याइर लैपिड ने यमन के बुनियादी ढांचे पर तत्काल हमलों की मांग की और नेतन्याहू सरकार पर डर और निष्क्रियता का आरोप लगाया।
ज़ायोनी पत्रकार दोरोन कादोश ने भी हालिया अमेरिका-यमन युद्धविराम का ज़िक्र करते हुए इस हमले को इज़राइल के अकेले पड़ जाने का नतीजा बताया और लिखा कि हर मिसाइल जो दागी जाती है, वह इस्राईल की समस्या बन जाती है।
कैथोलिक ईसाइयों के नए धर्मगुरु को ईरान के विदेश मंत्री ने बधाई दी
इस्लामी गणराज्य ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने पोप लियो चौदहवें को बधाई दी है।
इस्लामी गणराज्य ईरान के विदेश मंत्री सैयद अब्बास अराक़ची ने कैथोलिक ईसाइयों के नए धर्मगुरु पोप लियो चौदहवें को बधाई संदेश में स्वर्गीय पोप फ्रांसिस को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उम्मीद जताई है कि नए पोप के रूप में लियो चौदहवें का चयन न्याय, इंसाफ, मानव गरिमा की बढ़ोतरी और शांति एवं सौहार्द के संवर्धन का माध्यम बनेगा।
इस्लामी गणराज्य ईरान के विदेश मंत्री ने अपने संदेश में कहा है कि एक ऐसी दुनिया में, जो अन्याय, बेरुखी, गरीबी, असमानता और युद्ध-खूनखराबे की चपेट में है।
नए पोप के चयन पर अंतरराष्ट्रीय ध्यान इस बात को दर्शाता है कि उच्च मानवीय और नैतिक मूल्यों की रक्षा और समाजों में नैतिक बुराइयों के प्रभाव को रोकने के लिए धर्म और धार्मिक शिक्षाओं की भूमिका को लेकर आम जनता की उम्मीदें जुड़ी हुई हैं।
इस्लामोफ़ोबिया का मुक़ाबला करने के लिए, संयुक्त राष्ट्र के विशेष दूत की नियुक्ति
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस्लामोफ़ोबिया का सामना करने के लिए, स्पेन के वरिष्ठ राजनयिक मिगुएल एंजेल मोरातिनोस को, संयुक्त राष्ट्र का प्रथम विशेष दूत नियुक्त किया है. यह नियुक्ति दुनिया भर में बढ़ती इस्लाम विरोधी भावना से निपटने के उद्देश्य से की गई है।
संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुटेरेश ने इस्लामोफ़ोबिया का सामना करने के लिए, स्पेन के वरिष्ठ राजनयिक मिगुएल एंजेल मोरातिनोस को, संयुक्त राष्ट्र का प्रथम विशेष दूत नियुक्त किया है. यह नियुक्ति दुनिया भर में बढ़ती इस्लाम विरोधी भावना से निपटने के उद्देश्य से की गई है।
यह क़दम, संयुक्त राष्ट्र महासभा द्वारा मार्च 2024 में, अन्तरराष्ट्रीय इस्लामोफ़ोबिया विरोधी दिवस के अवसर पर पारित इस्लामोफ़ोबिया से निपटने के उपाय' नामक प्रस्ताव के अनुरूप उठाया गया है।
उस प्रस्ताव में इस दिशा में ठोस क़दमों उठाए जाने की मांग की गई थी, जिनमें एक विशेष दूत की नियुक्ति भी शामिल थी।
महासचिव के प्रवक्ता कार्यालय द्वारा जारी बयान में कहा गया है कि मोरातिनोस, संयुक्त राष्ट्र सभ्यताओं के गठबन्धन (UNAOC) के उच्च प्रतिनिधि के रूप में अपने वर्तमान पद पर बने रहेंगे, और इस नई भूमिका की ज़िम्मेदारियों को मौजूदा ढाँचे में एकीकृत किया जाएगा।
अहले-बैत (अ) के लिए प्रेम और अल्लाह की इबादत: धर्म के दो अपरिहार्य आधार
दैर के इमाम जुमा हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन सय्यद अली हुसैनी ने कहा है कि अहले-बैत (अ) के लिए प्रेम और अल्लाह की इबादत धर्म के दो ऐसे मौलिक सत्य हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं और इनमें से कोई भी एक दूसरे के बिना स्वीकार्य नहीं है।
दैर के इमाम जुमा हुज्जतुल इस्लाम वल-मुस्लिमीन सय्यद अली हुसैनी ने कहा है कि अहले-बैत (अ) के लिए प्रेम और अल्लाह की इबादत धर्म के दो ऐसे मौलिक सत्य हैं जो एक दूसरे के पूरक हैं और इनमें से कोई भी एक दूसरे के बिना स्वीकार्य नहीं है।
इमाम रजा (अ) के सेवकों का स्वागत करते हुए उन्होंने कहा: "हम इमाम रजा (अ) के सेवकों का दैर शहर में स्वागत करते हैं और उनसे अनुरोध करते हैं कि वे इमाम अली इब्न मूसा अल-रज़ा (अ) की पवित्र दरगाह तक हमारी शुभकामनाएं पहुंचाएं।"
हुज्जतुल-इस्लाम वल-मुस्लिमीन हुसैनी ने उपस्थित लोगों की भागीदारी की भावना की सराहना की और कहा: "इस उत्सव में आपकी भागीदारी अहले-बैत (अ) के लिए आपके सच्चे प्यार को दर्शाती है।"
उन्होंने इमाम रजा (अ) की एक हदीस के प्रकाश में कहा: "अहले-बैत के लिए प्यार और अल्लाह की इबादत धर्म की दो नींव हैं जो एक दूसरे के बिना अधूरी हैं; न तो इबादत प्रेम के बिना पूरी होती है, न ही प्रेम इबादत के बिना स्वीकार्य है।"
दैर शहर के इमाम जुमा ने स्पष्ट किया: "हमें अहले-बैत (अ) से प्यार करने का दावा करने के लिए नमाज़, रोज़ा, हिजाब और अन्य दिव्य कर्तव्यों को नहीं छोड़ना चाहिए, क्योंकि यह प्रेम अल्लाह की सेवा के बिना अधूरा है।"
उन्होंने जोर दिया: "अगर हम वास्तव में इमाम रजा (अ) और अहले-बैत (अ) से प्यार करते हैं, तो हमें अपने व्यावहारिक जीवन में उनके चरित्र और जीवन शैली को लागू करना चाहिए।"
अंतर्राष्ट्रीय मज़दूर दिवस के मौके पर हज़ारों मेहनतकशों से इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता से मुलाक़ात की
मज़दूर दिवस के अवसर पर पूरे ईरान से आए हुए हजारों मेहनतकशों की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई से मुलाक़ात की कुछ ही क्षण पहले तेहरान स्थित हुसैनिया-ए-इमाम ख़ुमैनी रह. यह मुलाकात शुरू हुई।
मज़दूर दिवस के अवसर पर पूरे ईरान से आए हुए हजारों मेहनतकशों की इस्लामी क्रांति के सर्वोच्च नेता हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैय्यद अली ख़ामेनई से मुलाक़ात कुछ ही क्षण पहले तेहरान स्थित हुसैनिया-ए-इमाम ख़ुमैनी रह. में शुरू हुई।
यह गरिमामय आयोजन, जो हर साल मज़दूर दिवस की मुनासिबत से आयोजित होती है, इस बार भी मेहनतकशों के विभिन्न वर्गों से संबंध रखने वाले लोगों की व्यापक भागीदारी के साथ संपन्न हो रहा है।
सर्वोच्च नेता के हुसैनिया-ए-इमाम ख़ुमैनी (रह.) में आगमन के साथ ही इस आध्यात्मिक सभा की औपचारिक शुरुआत हो चुकी है।
इमाम रज़ा (अ) की जीवनी में सामाजिक सिद्धांतों की झलकियां
मानवाधिकारों और आत्म-सम्मान के लिए सम्मान पर सदियों से विभिन्न सभ्यताओं में चर्चा होती रही है, और आज दुनिया के अधिकांश विचारक मानवीय समानता और भेदभाव से बचने पर सहमत हैं। हालाँकि, पश्चिमी दुनिया, जो आज मानवाधिकारों का दावा करती है, अतीत में (विशेष रूप से मध्य युग में) भेदभाव, उत्पीड़न और वर्ग भेद का एक गहरा स्थान था। इसके विपरीत, कुरान और पैगंबर (स) की हदीसों और अहले-बैत (अ) की जीवनी में, मनुष्य के सम्मान और स्थिति को सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से ऊपर रखा गया था।
इस्लाम केवल व्यक्तिगत पूजा या नैतिक शिक्षाओं तक सीमित नहीं है, बल्कि एक व्यापक धर्म है जो मनुष्य के व्यक्तिगत, सामूहिक, नैतिक और राजनीतिक जीवन को व्यवस्थित करने के लिए आया था। इसका उद्देश्य एक ऐसा समाज बनाना है जो न्याय, समानता, करुणा और मानवीय गरिमा पर आधारित हो। इन महान लक्ष्यों को प्राप्त करने के लिए, अल्लाह तआला ने मनुष्यों को नबियों और संतों के रूप में व्यावहारिक उदाहरण दिए, जिनमें अहले-बैत (अ) के इमाम, विशेष रूप से इमाम अली रज़ा (अ) का अच्छा जीवन प्रमुख है। इमाम (अ) का सामाजिक व्यवहार न केवल मुस्लिम उम्माह के लिए बल्कि पूरी मानवता के लिए एक जीवंत सबक है। नीचे, हम इमाम अली रज़ा (अ) की जीवनी के प्रकाश में इन सामाजिक सिद्धांतों पर प्रकाश डालेंगे।
मानवीय गरिमा का सम्मान
मानव अधिकारों और आत्म-सम्मान के सम्मान पर सदियों से विभिन्न सभ्यताओं में चर्चा की जाती रही है, और आज दुनिया के अधिकांश विचारक मानवीय समानता और भेदभाव से बचने पर सहमत हैं। हालाँकि, पश्चिमी दुनिया, जो आज मानवाधिकारों का दावा करती है, अतीत में (विशेष रूप से मध्य युग में) भेदभाव, उत्पीड़न और वर्ग भेद का एक गहरा स्थान था। इसके विपरीत, कुरान और पैगंबर (स) की हदीसों और अहले बैत (अ) की जीवनी में, मनुष्य के सम्मान और स्थिति को सभी प्रकार के पूर्वाग्रहों से ऊपर रखा गया है।
पवित्र कुरान कहता है: “یَا أَیُّهَا النَّاسُ إِنَّا خَلَقْنَاکُم مِّن ذَکَرٍ وَأُنثَى وَجَعَلْنَاکُمْ شُعُوبًا وَقَبَائِلَ لِتَعَارَفُوا، إِنَّ أَکْرَمَکُمْ عِندَ اللَّهِ أَتْقَاکُمْ”
“हे मानव! हमने तुम्हें एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया है और तुम्हें राष्ट्रों और जनजातियों में बनाया है ताकि तुम एक दूसरे को जान सको। निस्संदेह, अल्लाह की दृष्टि में तुममें से सबसे सम्मानित व्यक्ति सबसे अधिक धर्मी है।”
इमाम रज़ा (अ) भी इस कुरानिक शिक्षा के अनुयायी थे। जबकि उस युग के पश्चिमी धार्मिक नेता जाति, वर्ग और धर्म के आधार पर लोगों के बीच भेदभाव करते थे, इमाम (अ) का मानना था कि अल्लाह के सामने सभी इंसान समान हैं। वे अल्लाह के बन्दे हैं और उनके मूल्य और स्थिति का मापदंड केवल अल्लाह के साथ उनका रिश्ता और उनके मानवीय गुण हैं, न कि उनका रंग, नस्ल, धन या सामाजिक स्थिति।
अबू असलात कहते हैं:
"मैंने इमाम रज़ा (अ) से पूछा: लोग कहते हैं कि आप इंसानों को अपना गुलाम समझते हैं!"
इमाम (अ) ने इसे झूठा आरोप माना और कहा: "अगर ये लोग हमारे गुलाम हैं, तो हमने उन्हें किससे खरीदा है?"
मानवीय गरिमा की मांग है कि किसी को भी केवल उसकी सामाजिक स्थिति के आधार पर कोई विशेष भेदभाव या वंचना नहीं झेलनी चाहिए। इमाम रज़ा (अ) अपने गुलामों, सेवकों, यहाँ तक कि द्वारपाल और अस्तबल के रखवाले को भी अपनी मेज़ पर बाँटते थे और कभी किसी के साथ अवमानना का व्यवहार नहीं करते थे।
अब्दुल्लाह बिन सलात बयान करते हैं:
"मैं इमाम रज़ा (अ) के साथ खुरासान की यात्रा पर था। जब खाने का समय होता, तो इमाम (अ) अपने सभी गुलामों को, चाहे वे काले हों या अन्य, अपने साथ बैठाते। मैंने कहा: काश उनके लिए एक अलग मेज़ होती। इमाम (अ) ने कहा: हमारा अल्लाह एक है, हमारे माता-पिता एक हैं, और सज़ा और इनाम कर्मों पर निर्भर करते हैं।"
इसी तरह, एक और बयान में कहा गया है:
"मैंने कभी इमाम रज़ा (अ) को किसी को बीच में रोकते या बातचीत में असभ्य होते नहीं देखा। जब कोई उनसे बात करता, तो वे पूरी बात सुने बिना जवाब नहीं देते थे। अगर कोई उनके पास कोई ज़रूरत लेकर आता और वे उसे पूरा नहीं कर पाते, तो वे उसे दया और करुणा से दिलासा देते। वे कभी अपने गुलामों को गाली नहीं देते थे, न ही किसी के सामने पैर फैलाते थे, न ही ज़ोर से हंसते थे, बल्कि सिर्फ़ मुस्कुराते थे।"
सामाजिक व्यवहार के लिए एक आदर्श के रूप में अहले-बैत (अ) का जीवन
इस्लामिक समाज में कई रोल मॉडल और व्यावहारिक उदाहरण हैं, जिनमें से सबसे महत्वपूर्ण पैगंबर मुहम्मद (स) और अहले-बैत (अ) के इमामों का जीवन है। चूँकि ये व्यक्ति अचूक और त्रुटि रहित हैं, इसलिए उनके जीवन से सीखे गए नैतिक और सामाजिक सबक पूरे उम्माह के लिए मार्गदर्शक सिद्धांतों के रूप में काम करते हैं। हालाँकि प्रत्येक इमाम ने अपने समय की परिस्थितियों के अनुसार कुछ विशिष्ट रणनीतियाँ अपनाईं, सिद्धांत रूप में, उन सभी का उद्देश्य मानवता के कल्याण और सम्मान की रक्षा करना था।
इमाम रज़ा (अ) ने न केवल मुसलमानों बल्कि अन्य धर्मों के अनुयायियों के साथ भी सम्मान, न्याय, दया और मानवीय समानता का व्यवहार किया। इस प्रकार, एक घटना में, यासिर खादिम वर्णन करते हैं:
"मामून को निशापुर से सूचना मिली कि एक पारसी ने अपनी मृत्यु के समय एक वसीयत बनाई थी कि उसकी संपत्ति का एक बड़ा हिस्सा जरूरतमंदों में बांटा जाए। निशापुर के न्यायाधीश ने उस संपत्ति को मुसलमानों में बांट दिया। जब इमाम रज़ा (अ) से इस बारे में पूछा गया, तो उन्होंने कहा: पारसी मुसलमान जरूरतमंदों के लिए वसीयत नहीं बनाते। न्यायाधीश को निर्देश दिया जाना चाहिए कि वह मुस्लिम खजाने से बराबर राशि लेकर पारसी जरूरतमंदों को दे।"
नैतिकता और दयालुता
एक बुनियादी मुद्दा जो सभी अच्छे सामाजिक व्यवहार का आधार बन सकता है, वह है लोगों के प्रति प्रेम और नैतिक व्यवहार। इसीलिए इस्लाम धर्म ने इस व्यवहार को अपने निर्देशों का केंद्र बनाया है और लोगों को इसके लिए आमंत्रित किया है; बल्कि, इस्लामी धर्म के महान नेताओं ने अपने समाज के लोगों के प्रति सबसे बड़ा प्रेम और करुणा दिखाई है, यहाँ तक कि अल्लाह अपने रसूल को इस प्रकार संबोधित करते हैं:
ताकि अल्लाह की दया तुम तक पहुँचे।
فَبِمَا رَحْمَةٍ مِّنَ اللَّهِ لِنتَ لَهُمْ ۖ وَلَوْ كُنتَ فَظًّا غَلِيظَ الْقَلْبِ لَانفَضُّوا مِنْ حَوْلِكَ ۖ
"यदि आप कठोर और कठोर हृदय वाले होते, तो लोग आपके आस-पास से तितर-बितर हो जाते।"
इमाम रज़ा (अ) भी अपने परदादा, अल्लाह के रसूल (स) की तरह अपने नैतिक मूल्यों में विशिष्ट थे। अयातुल्ला इस्फ़हानी ने इस बारे में कहा है:
"नैतिकता में, वह पैगंबर (स) को प्रतिबिंबित करते हैं, क्योंकि वह वह है जो उनकी भविष्यवाणियों की जड़ों से बढ़ता है।"
इस कारण से, उनका लोगों के साथ घनिष्ठ संबंध था और उनके साथ दोस्ताना व्यवहार था। उनका घर अक्सर लोगों की आवाजाही का केंद्र होता था और विभिन्न वर्गों के लोग उनसे बात करते थे। इतिहास गवाह है कि इमाम रज़ा (अ.स.) ने कभी किसी को नीची नज़र से नहीं देखा और न ही उन्होंने कभी किसी से अपना प्यार छुपाया। उनके खुले चेहरे, विनम्रता और दयालुता के कारण, लोग बिना किसी हिचकिचाहट और बिना किसी मध्यस्थ के उनके पास आते थे और उन्हें अपनी परेशानियाँ बताते थे।
उन्होंने लोगों के लिए प्यार और दोस्ती को "आधा मन" बताया है और उनसे वर्णित दुआओं में आम लोगों के लिए क्षमा, दया और सद्भावना मांगी गई है। इनमें से एक दुआ है:
اللَّهُمَّ اغْفِرْ لِجَمِيعِ الْمُؤْمِنِينَ وَالْمُؤْمِنَاتِ، مِنْ مَشَارِقِ الْأَرْضِ إِلَى مَغَارِبِهَا، وَارْحَمْهُمْ وَتُبْ عَلَيْهِمْ۔
"ऐ रब, पूर्व से लेकर पश्चिम तक सभी ईमान वाले पुरुषों और ईमान वाली महिलाओं को क्षमा कर और उन पर दया कर और उनसे तौबा कर।"
सामाजिक दृष्टिकोण समुदाय में प्रकट होते हैं और व्यक्तिगत दृष्टिकोणों से उनकी तुलना की जाती है; लेकिन चूंकि मनुष्यों की अलग-अलग विशेषताएं होती हैं और प्रत्येक व्यक्ति की सामाजिक स्थिति के लिए एक अलग प्रकार के दृष्टिकोण की आवश्यकता होती है, इस संबंध में इमाम रज़ा (एएस) के दृष्टिकोणों का अध्ययन हमें बेहतर समझ देता है और विभिन्न व्यक्तियों के लिए एक व्यावहारिक मॉडल प्रदान करता है।
विद्वान के लिए सम्मान:
हालांकि विद्वान हमेशा से सम्मानित व्यक्ति रहे हैं और समाज में उनकी शैक्षणिक स्थिति स्वीकार्य है, लेकिन शैक्षणिक स्थिति में उनका व्यवहार किसी भी संघर्ष या टकराव से मुक्त होना चाहिए और नैतिकता और ज्ञान से सुशोभित होना चाहिए।
इमाम रज़ा (अ.स.) को उनके ज्ञान और वाद-विवाद के कारण "मुहम्मद (स) के परिवार का विद्वान" कहा जाता है। जब वे विभिन्न धर्मों और संप्रदायों के विद्वानों के साथ वाद-विवाद करते थे, तो वे उनके प्रश्नों, शंकाओं और समस्याओं का बड़े सम्मान के साथ उत्तर देते थे। वे न केवल अपनी अकादमिक श्रेष्ठता साबित करते थे, बल्कि वाद-विवाद के दौरान नैतिकता का एक उच्च उदाहरण भी प्रस्तुत करते थे। नीचे हम इमाम रज़ा (अ) के कुछ बौद्धिक और नैतिक दृष्टिकोणों का उल्लेख करते हैं:
विपरीत विचारों का स्वागत करना
जब मध्य युग में यूरोप बौद्धिक पतन से पीड़ित था और चर्च संबंधी दर्शन अन्य विचारों को दबा रहा था, तब इमाम रज़ा (अ) की विलायत में इस्लामी विचार ने न केवल विरोधी विचारों का स्वागत किया, बल्कि हर आपत्ति का खुले और विद्वत्तापूर्ण तरीके से जवाब भी दिया। इस इस्लामी दृष्टिकोण के कुछ महत्वपूर्ण परिणाम इस प्रकार हैं:
विचारों के आदान-प्रदान और विचार और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को बढ़ावा देना;
विपरीत विचारधाराओं के साथ तार्किक और तर्कसंगत तुलना करना और इस्लाम की सत्यता की पुष्टि करना;
अन्य धर्मों और संप्रदायों के अनुयायियों के साथ बातचीत करने में अनुकरणीय रवैया।
बातचीत का शिष्टाचार:
इमाम रज़ा (अ) की भाषण शैली और बहस से पता चलता है कि उन्होंने न तो अहंकार दिखाया, न ही अपने प्रतिद्वंद्वी का अपमान किया या उसके तर्क को तुच्छ जाना। बल्कि, आप धैर्य और सहनशीलता के साथ बोलते थे, जिससे श्रोताओं को आपके दृष्टिकोण को स्वीकार या अस्वीकार करने की स्वतंत्रता मिलती थी।
इस आयत में उनके नैतिक व्यवहार की एक झलक देखी जा सकती है, जिसका श्रेय इमाम रज़ा (अ.स.) को दिया जाता है और मामून के आग्रह पर उन्होंने कहा:
إِذَا کَانَ دُونِی مَنْ بُلِیتُ بِجَهْلِهِ
أَبَیْتُ لِنَفْسِی أَنْ تُقَابِلَ بِالْجَهْلِ
وَ إِنْ کَانَ مِثْلِی فِی مَحَلِّی مِنَ النُّهَى
أَخَذْتُ بِحِلْمِی کَیْ أَجِلَّ عَنِ الْمِثْلِ
وَ إِنْ کُنْتُ أَدْنَى مِنْهُ فِی الْفَضْلِ وَ الْحِجَى
عَرَفْتُ لَهُ حَقَّ التَّقَدُّمِ وَ الْفَضْلِ»
"अगर मैं किसी अज्ञानी व्यक्ति से मिलता हूँ जो मुझसे कमतर है
तो मैं खुद को उसकी अज्ञानता का जवाब अज्ञानता से देने से रोकता हूँ।
और यदि वह ज्ञान और बुद्धि में मेरे बराबर है
तो मैं धैर्य और सहनशीलता का प्रयोग करता हूँ ताकि मैं श्रेष्ठता प्राप्त कर सकूँ।
और अगर वह ज्ञान और उत्कृष्टता में मुझसे श्रेष्ठ है
मैं उसकी श्रेष्ठता को स्वीकार करता हूँ और उसके अधिकार को पूरा करता हूँ।"
प्रतिद्वंद्वी के साथ तार्किक बहस
विद्वतापूर्ण बहस का सबसे अच्छा तरीका वह है जिसमें विरोधी पक्ष के स्वीकार्य कथनों के साथ बहस की जाती है। इसीलिए जब इमाम रज़ा (अ.स.) ने गैर-मुसलमानों और दूसरे धर्मों के अनुयायियों से बात की, चूँकि वे कुरान को सबूत के तौर पर स्वीकार नहीं करते थे, इसलिए उन्होंने उनके साथ उनकी अपनी किताबों से बहस की। क्योंकि यह स्पष्ट है कि कुरान की प्रामाणिकता और सत्यता अभी तक उनके सामने साबित नहीं हुई थी। जैसा कि एक ईसाई विद्वान, "कैथोलिक" के शब्दों से भी स्पष्ट है, जिसने मामून के बहस के निमंत्रण पर कहा:
کَیْفَ أُحَاجُّ رَجُلًا یَحْتَجُّ عَلَیَّ بِکِتَابٍ أَنَا مُنْکِرُهُ
"मैं उस आदमी से कैसे बहस कर सकता हूँ जो मुझसे उस किताब से बहस करता है जिस पर मैं विश्वास नहीं करता!"
इमाम रज़ा (अ) ने जवाब दिया: یَا نَصْرَانِیُ فَإِنِ احْتَجَجْتُ عَلَیْکَ بِإِنْجِیلِکَ أَتُقِرُّ بِهِ؟
"ऐ ईसाई! अगर मैं तुम्हारे साथ तुम्हारी इंजील से बहस करूँ, तो क्या तुम इसे स्वीकार करोगे?"
यह इमाम (अ.स.) की ईसाई विद्वान से उसकी अपनी मान्यताओं के आधार पर बहस करने की पेशकश और इच्छा थी, जो इमाम (अ.स.) के विद्वान प्रभुत्व और अन्य संप्रदायों और धर्मों की मान्यताओं की उनकी गहरी समझ का प्रकटीकरण है। यह संवाद की एक विशेष शैली है, जो सिखाती है कि दूसरे संप्रदायों के विद्वानों से बात करते समय, किसी को उनकी मान्यताओं, पवित्र ग्रंथों और ईश्वरीय पुस्तकों का सम्मान करना चाहिए और उन्हें उनके अपने तर्क, भाषा और विचारधारा से समझाना चाहिए।
इसलिए इमाम (अ.स.) ने कहा: "كنت أُكلِّم الناس في التوراةِ بكتابِهم، وفي الإنجيلِ بكتابِهم، وفي الزَّبورِ بكتابِهم، وأُكلِّم الفُرسَ بالفارسيةِ، والرومَ بالروميةِ، وأُكلِّم كلَّ قومٍ بلغتهم، فكنتُ أُلزِمُ كلَّ قومٍ الحُجَّةَ في كتابِهم." "मैं तौरात में लोगों से उनकी अपनी किताब में बात करता था, और इंजील में उनकी अपनी किताब में, और भजन में उनकी अपनी किताब में, और मैं फारसियों से फारसी में और रोमनों से रोमन में बात करता था, और मैं हर राष्ट्र से उनकी भाषा में बात करता था, इसलिए मैंने हर राष्ट्र को तर्क का उपयोग करने के लिए बाध्य किया।"
"मैं अहले तौरात उनके तौरात के अनुसार, इंजील के लोगों से उनके इंजील के अनुसार, फारसियों से उनकी फारसी परंपरा के अनुसार, रोमनों से उनकी पद्धति के अनुसार, और विद्वानों से उनकी अपनी भाषा में बहस करता हूँ, और मैं सभी को अपनी बात की पुष्टि करने के लिए मजबूर करता हूँ।"
संबोधित पहचान:
संबोधन पहचान, यानी श्रोता या संबोधित को पहचानना, संचार व्यवहार का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है। इसका मतलब है कि किसी व्यक्ति को दूसरों से बात करते समय अपने बौद्धिक स्तर को ध्यान में रखना चाहिए और अपनी समझ, क्षमता और अस्तित्वगत क्षमता के अनुसार बोलना चाहिए। इसलिए, कुछ लोगों के साथ वैज्ञानिक और सटीक तरीके से बहस की जा सकती है, लेकिन जो लोग ज्ञान और समझ में कमजोर हैं, उनसे सरल भाषा में बात की जानी चाहिए और जटिल वैज्ञानिक विषयों में उलझने से बचना चाहिए।
इमाम रज़ा (अ) की तर्क-शैली में भी यही सिद्धांत स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। उदाहरण के लिए, एक व्यक्ति जो दो देवताओं (धनविया) में विश्वास करता था, उसने ईश्वर की एकता के लिए सबूत माँगा। इमाम (अ.स.) ने उसकी समझ और धारणा के स्तर पर विचार किया। उन्होंने बस इतना ही कहा: "إذا قلتم إنَّ الله اثنان، فأنتم بهذه المقالة قد أقررتم بأنَّ الواحد أولًا، لأنَّه لا يمكن القول بوجود الثاني حتى يُثبَت الأول. فالأولُ مفروضٌ من الجميع، والثاني موضعُ الاختلاف."
"जब आप कहते हैं कि ईश्वर दो हैं, तो यह अपने आप में एक तर्क है कि पहले एक ईश्वर पर विश्वास किया जाना चाहिए, क्योंकि जब तक प्रथम का अस्तित्व स्थापित न हो जाए, तब तक कोई 'दूसरा' नहीं कह सकता।" इसलिए पहला सभी को स्वीकार है और दूसरा विवादित है।"
यह तर्क पुख्ता था, और इमाम (अ.स.) ने केवल ईश्वर की एकता को साबित किया, और दूसरे काल्पनिक ईश्वर पर सवाल नहीं उठाया। यह इस बात का सबूत है कि इमाम (अ.स.) ने संबोधित व्यक्ति की बौद्धिक क्षमता और मानसिक स्तर को ध्यान में रखते हुए बात की।
हवाला:
- अल-हुजुरात: 13
- बिहार अल-अनवर
- अयून अख़बार अल-रिदा
- अयून अख़बार अल-रिदा
- अरशद
- सूरह अल-इमरान, 159
- सदुक, मुहम्मद बिन अली, अयून अख़बार अल-रिदा, खंड 2, पृष्ठ 174
- स्रोत: अयून अख़बार अल-रिदा, शेख सदुक, खंड 2, पृष्ठ 192।
लेखक: मुहम्मद जवाद हबीब