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शूराए निगहबान
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई के विचार
ईरान में इस समय चुनावी वातावरण छाया हुआ है और 11वां राष्ट्रपति चुनाव निकट आ रहा है। इस संदर्भ में जहां और अनेक विषय चर्चा में हैं वहीं शूराए निगहबान या संविधान निरीक्ष परिषद का नाम भी चर्चा में है। शूराए निगहबान ईरान की एक निरीक्षक संस्था है जिसके 12 सदस्य होते हैं। छह सदस्य धर्म शस्त्र के विशेषज्ञ जिनको नियुक्त या बर्ख़ास्त करना इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के अधिकारक्षेत्र में होता है जबकि अन्य छह सदस्य क़ानून विद होते हें जो न्यायालिका की सिफ़ारिश से और संसद की स्वीकृति प्राप्त करके इस परिषद में आते हैं।
संसद में पास होने वाले सभी क़ानूनों और देश में होने वाले चुनावों के प्रत्याशियों को इस परिषद की स्वीकृति मिलना आवश्यक है।
इस सप्ताह हम कार्यक्रम मार्गदर्शन में इसी शूराए निगहबान या संविधान निरीक्षक परिषद के बारे में इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के विचार पेश कर रहे हैं। हम इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता के विभिन्न भाषणों से शूराए निगहबान से संबंधित भागों को एकत्रित करके आपकी सेवा में पेश कर रहे हैं।
शूराए निगहबान या संविधान निरीक्षक परिषद एक पवित्र संस्था है क्योंकि इसका आधार ईश्वरीय भय पर रखा गया है। इस संस्था में उन लोगों को रखा जाता है जो न्यायप्रेमी और धर्मशास्त्री होते हैं। संविधान निरीक्षक परिषद अपने काम और फ़ैसलों में विश्वसनीय है। सबको चाहिए कि इस संस्था को ईमानदार संस्था के रूप में देखें। जब कोई जज फ़ैसला सुनाता है तो संभव है कि उस समय किसी व्यक्ति के मन में कोई आपत्ति हो और वह आपत्ती ठीक भी हो किंतु जज का फ़ैसला सबको मानना होता है।
अब जहां एक ओर इस संस्था पर जनता का भरोसा है वहीं इस संस्था का क्रियाकलाप भी एसा होना चाहिए कि वह जनता के विश्वास की पात्र बनी रहे। संस्था को चाहिए कि इस प्रकार से काम करे कि अलग अलग राजनैति रुजहान रखने वालों को चुनावों में भाग लेने का अवसर मिले। किसी भी राजनैतिक रुजहान के समूह को इस शिकायत का अवसर नहीं मिलना चाहिए कि चुनावी मैदान में उसका प्रतिनिधित्व नहीं हो पा रहा है। संस्था को इस प्रकार काम करना चाहिए कि हर जगह हर व्यक्ति को यह संतोष रहे कि वह अपनी पसंद के प्रत्याशी का चयन कर सकता है।
इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था की मज़बूती उसकी पहिचान की सुरक्षा पर निर्भर है और इस पहिचान की सुरक्षा निरीक्षक परिषद के हाथ में है। यदि यह संस्था न होती तो धीरे धीरे इस्लामी व्यवस्था की पहिचान और उसके मूल स्तंभों में परिवर्तन होने लगता। शूराए निगहबान वह संस्था है जिसे इस्लामी गणतंत्र ईरान के संविधान ने इस व्यवस्था की सत्यता को सुनिश्चित करने वाली संस्था घोषित किया है। यदि शूराए निगहबान न हो, या कमज़ोर पड़ जाए या अपना काम न करे तो ईरान की शासन व्यवस्था की इस्लामी कार्यशैली और प्रगति पर सवालिया निशान लग जाएगा। क्योंकि कोई भी व्यवस्था हो वह क़ानून के आधार पर आगे बढ़ती है। यदि क़ानून इस्लामी हुए तो ईरान की शासन व्यवस्था भी इस्लामी ही रहेगी। कौन सी संस्था है जो यह सुनिश्चित करे कि सारे क़ानून इस्लामी हैं? साफ़ है कि यह काम शूराए निगहबान या निरीक्षक परिषद का है।
इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था में शूराए निगहबान अन्य संस्थाओं की भांति नहीं है कि कहा जाए कि विभिन्न संस्थाएं हैं जिनमें कुछ बहुत महत्वपूर्ण हैं जबकि कुछ का महत्व इतना अधिक नहीं है और यह संस्था भी इसी सूचि में शामिल है। नहीं एसा नहीं है। शूराए निगहबान इस्लामी व्यवस्था के संविधान का दर्जा रखती है।
चुनाव में मतदाताओं की ओर से डाले गए वोटों की सुरक्षा अनिवार्य है। एक एक वोट की सुरक्षा होनी चाहिए, इसमें कोई कोताही सहनीय नहीं है। भला यह भी संभव है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान के चुनाव में कोई यह साहस करे कि जनता के वोटों से छेड़छाड़ करे?! सबसे पहली बात तो यह है कि शूराए निगहबान, न्यायप्रेमी, होशियार और बहुत सावधानी और सतर्कता से काम करने वाली संस्था है। चुनावों के संबंध में वह किसी गड़बड़ी की कोई गुंजाइश ही नहीं रहने देती। इसके सदस्य क्रान्ति प्रेमी और धर्म परायण लोग हैं जिन पर देश को पूरा भरोसा है। उन्हें संसद से विश्वासमत प्राप्त हुआ है। इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता की ओर से भी पूरी सतर्कता बरती जाती है कि चुनावों में कहीं कोई गड़बड़ी न होने पाए। और अगर मान लिया जाए कि कहीं कोई छोटी मोटी गड़बड़ी हुई है तो इससे पूरे चुनाव के पारदर्शी परिणामों पर असर नहीं पड़ने पाता।
चुनाव की पारदर्शिता पोलिंग और मतगणना तक ही सीमित नहीं है बल्कि सही चुनाव वह है जिससे पहले स्वस्थ चुनावी वातावरण बने। एसा वातावरण है जिसमे मतदाताओं को खुले मन से फ़ैसला करने का भरपूर मौक़ा मिले। मतदाताओं को यह अवसर अवश्य मिलना चाहिए कि वे सोच समझकर फ़ैसला करें। एसा कोई भी क़दम जो चुनावी वातावरण को अस्वस्थ बना दे और जिससे मतदाता इस प्रकार प्रभावित हो जाएं कि उनकी चयन क्षमता कमज़ोर हो जाए, ग़लत है। इस बिंदु पर चुनाव से पहले विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है। जो चुनावी अभियान चलाया जाता है, जो भी क़दम उठाए जाते हैं, विशेष रूप से मीडिया जो काम करता है प्रत्याशियों को पहचनवाने या उनकी छवि बिगाड़ने के संबंध में या लोगों की ब्रेन वाशिंग करने के संबंध में और जिसके द्वारा लोगों के ध्यान को किसी विशेष दिशा में केन्द्रित करवा दिया जाता है, वह ग़लत हैं। यदि चुनावी अभियान में शामिल लोग या उनका चुनावी अभियान अथवा मीडिया की गतिविधियां एसा वातावरण उत्पन्न कर दें जिसमें लोगों से उनकी कुछ सोचने समझने और चयन करने की शक्ति ही छिन जाए तो इससे चुनाव को आघात पहुंचेगा।
इस्लामी गणतंत्र ईरान के संविधान में शूराए निगहबान या निरीक्षक परिषद को निरीक्षण का काम सौंपने का उद्देश्य पूरी प्रक्रिया को संपूर्ण ढंग से विश्वसनीय और भरोसेमंद बनाना है। किसी भी अन्य संस्था को यदि चुनावों की ज़िम्मेदारी सौंपी गई होती तो संभव था कि कुछ लोगों में मन में कुछ सवाल उत्पन्न होते। अर्थात देश के भीतर मौजूद संस्थाओं में कोई भी संस्था एसी नहीं थी कि जिसके निरीक्षण में चुनावों का आयोजन इतना विश्वासीय हो पाता जितना शीराए निगहबान के निरीक्षण में होता है। संविधान में चुनावों के निरीक्षण का दायित्व शूराए निगहबान को सौंपे जाने का फ़ैसला बौद्धिक परिपक्वता का प्रतीक है।
हसद
हसद का मतलब होता है किसी दूसरे इंसान में पाई जाने वाली अच्छाई और उसे हासिल नेमतों की समाप्ति की इच्छा रखना। हासिद इंसान यह नहीं चाहता कि किसी दूसरे इंसान को भी नेमत या ख़ुशहाली मिले। यह भावना धीरे धीरे हासिद इंसान में अक्षमता व अभाव की सोच का कारण बनती है और फिर वह हीन भावना में ग्रस्त हो जाता है। हसद में आमतौर पर एक तरह का डर भी होता है क्योंकि इस तरह का इंसान यह सोचता है कि दूसरे ने वह स्थान, पोस्ट या चीज़ हासिल कर ली है जिसे वह ख़ुद हासिल करना चाहता था। हासिद इंसान हमेशा इस बात की कोशिश करता है कि अपने प्रतिद्वंद्वी की उपेक्षा करके या उसकी आलोचना करके उसे मैदान से बाहर कर दे ताकि अपनी पोज़ीशन को मज़बूत बना सके। वास्तव में हसद करने वालों की मूल समस्या यह है कि वह दूसरों की अच्छाइयों और ख़ुशहाली को बहुत बड़ा समझते हैं और उनकी ज़िंदगी की कठिनाइयों व समस्याओं की अनदेखी कर देते हैं। हासिद लोग, दूसरे इंसानों की पूरी ज़िंदगी को दृष्टिगत नहीं रखते और केवल उनकी ज़िंदगी के मौजूदा हिस्से को ही देखते हैं जिसमें ख़ुशहाली होती है। कुल मिला कर यह कि हासिद लोगों के मन में अपने और दूसरों की ज़िंदगी की सही तस्वीर नहीं होती और वह मौजूदा हालात के तथ्यों को बदलने की कोशिश करते हैं।
इस्लामी शिक्षाओं में हसद जैसी बुराईयों की बहुत ज़्यादा आलोचना की गई है और क़ुरआने मजीद की आयतों तथा पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम और उनके अहलेबैत की हदीसों में लोगों को इससे दूर रहने की सिफ़ारिश की गई है। इन हदीसों में हसद को दुनिया व आख़ेरत के लिए बहुत ज़्यादा हानिकारक बताया गया है। मिसाल के तौर पर कहा गया है कि हसद, दीन को तबाह करने वाला, ईमान को ख़त्म करने वाला, अल्लाह से दोस्ती के घेरे से बाहर निकालने वाला, इबादतों के क़बूल न होने का कारण और भलाइयों का अंत करने वाला है। हसद, तरह तरह के गुनाहों का रास्ता भी तय्यार करता है। हासिद इंसान हमेशा डिप्रेशन व तनाव में ग्रस्त रहता है। उसके आंतरिक दुखों व पीड़ाओं का कोई अंत नहीं होता। इस्लामी शिक्षाओं में इस बात पर बहुत ज़्यादा ज़ोर दिया गया है कि हासिद इंसान कभी भी मेंटली हिसाब से शांत व संतुष्ट नहीं रहता। वह ऐसी बातों पर दुःखी रहता है जिन्हें बदलने की उसमें क्षमता नहीं होती। वह अपनी वंचितता से दुःखी रहता है जबकि उसके पास न तो दूसरे से वह नेमत व अनुकंपा छीनने की क्षमता होती है और न ही वह उस नेमत को ख़ुद हासिल कर सकता है।
कभी कभी हसद उन चीज़ों से लाभान्वित होने की ताक़त भी हासिद से छीन लेती है जो उसके पास होती हैं और वह उनसे आनंद उठा सकता है। इस तरह का इंसान मेंटल संतोष से वंचित होता है और यह बात तरह तरह के जटिल मेंटल व जिस्मानी बीमारियों में उसके ग्रस्त होने का कारण बनती है। इस तरह से कि आंतरिक डिप्रेशन, दुःख व चिंता धीरे धीरे हासिद इंसान को जिस्मानी हिसाब से कमज़ोर बना देती है और उसका जिस्म तरह तरह की बीमारियों में ग्रस्त होने के लिए तैयार हो जाता है। यही कारण है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम, हसद से दूरी को हेल्थ का कारण बताते हैं क्योंकि हसद, जिस्म को स्वस्थ नहीं रहने देती। मेंटल संतोष, सुखी मन और चिंता से दूरी ऐसी बातें हैं जो हासिद इंसान में नहीं हो सकतीं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने कहा है कि हासिद, सबसे कम सुख उठाने वाला इंसान होता है।
अब सवाल यह है कि इस्लामिक शिक्षाओं में हसद के एलाज के क्या रास्ते दर्शाए गए हैं? इसके जवाब में कहा जा सकता है कि इस्लाम ने हसद के एलाज के लिए विभिन्न रास्ते सुझाए हैं। इसके एलाज का पहला स्टेज यह है कि इंसान, अपनी ज़िंदगी तथा रूह पर हसद के हानिकारक नतीजों व प्रभावों के बारे में चिंतन करे और यह देखे कि हसद से उसकी दुनिया व आख़ेरत को क्या नुक़सान होता है? हसद के एलाज के लिए पहले उसके कारणों को समझना चाहिए ताकि उन्हें ख़त्म करके इस बीमारी का सफ़ाया किया जा सके। हसद का मुख्य कारण बुरे विचार रखना है। नेचुरल सिस्टम और अल्लाह के बारे में नकारात्मक सोच, हसद उत्पन्न होने के कारणों में से एक है क्योंकि हासिद इंसान दूसरों पर अल्लाह की नेमतों को सहन नहीं कर पाता या यह सोचने लगता है कि अल्लाह उससे प्यार नहीं करता और इसी लिए उसने अमुक नेमत उसे प्रदान नहीं की है।
यही कारण है कि इस्लामिक शिक्षाओं में दूसरों के बारे में सकारात्मक व भले विचार रखने पर बहुत ज़्यादा बल दिया गया है। अल्लाह, उसके गुणों तथा उसके कामों पर ईमान को मज़बूत बनाना, हसद को रोकने का एक दूसरे रास्ता है। अर्थात इंसान को यह यक़ीन रखना चाहिए कि अल्लाह ने जिस इंसान को जो भी नेमत प्रदान की है वह उसकी दया, न्याय व तत्वदर्शिता के आधार पर है। अल्लाह की कृपाओं, नेमतों और इस बात पर ध्यान कि उसकी नेमतों से लाभान्वित होने में सीमितता उन तत्वदर्शिताओं के कारण है जो अल्लाह ने इस दुनिया के संचालन के लिए दृष्टिगत रखी हैं, हासिद के भीतर पाए जाने वाले नकारात्मक विचारों को कंट्रोल कर सकता है। अगर इंसान इस यक़ीन तक पहुंच जाए कि अल्लाह के इल्म व तत्वदर्शिता के बिना किसी पेड़ तक से कोई पत्ता नहीं गिरता तो फिर वह इस नतीजे तक पहुंच जाएगा कि हर इंसान द्वारा किसी न किसी नेमत से लाभान्वित होने का मतलब यह है कि उसे किसी काम का इनाम दिया गया है, अल्लाह की ओर से उसका इम्तेहान लिया जा रहा है या फिर कोई दूसरे बात है जिससे वह अवगत नहीं है और केवल जानकार अल्लाह ही है जो यह जानता है कि वह क्या कर रहा है। इस बात पर ध्यान देने से इंसान के भीतर संतोष की भावना उत्पन्न होती है और जो चीज़ें उसे प्रदान की गई हैं उन पर वह संतुष्ट रहता है जिसके नतीजे में, दूसरों को हासिल नेमतों से उसे हसद नहीं होता।
इंसान को इसी तरह यह कोशिश करनी चाहिए कि वह बुरी अंतरात्मा के बजाए अच्छी अंतरात्मा का मालिक हो। उसे दूसरे लोगों के पास मौजूद चीजों के बारे में ख़ुद को हीन भावना में ग्रस्त करने की जगह पर अपने स्वाभिमान और प्रतिष्ठा पर ध्यान केंद्रित रखना चाहिए। स्वार्थ और आत्ममुग्धता के बजाए अल्लाह की पहचान, अल्लाह से मुहब्बत तथा विनम्रता और दुश्मनी के बजाए दोस्ती से काम लेना चाहिए। हसद से मुक़ाबला करने का एक दूसरे रास्ता यह कि इंसान सभी लोगों से मुहब्बत करे और उन्हें बुरा भला कहने के स्थान पर उनकी सराहना करे, इस तरह से कि उसके और दूसरे लोगों के संबंधों में स्नेह, दोस्ती व दयालुता की ही छाया रहे। जो कुछ लोगों के पास है उस पर ध्यान न देना और अल्लाह ने हमें जो कुछ दिया है केवल उन्हीं चीज़ों पर ध्यान देना, हसद से मुक़ाबले के आंतरिक रास्तों में से एक है। अगर इंसान यह देखे कि उसके पास वह कौन कौन सी भौतिक व आध्यात्मिक नेमतें हैं जो दूसरों के पास नहीं हैं और वह कोशिश व परिश्रम करके इससे भी ज़्यादा नेमतें हासिल कर सकता है तो यह बात हासिद इंसान की इस बात में मदद करती है कि वह अपने भीतर हसद की जड़ों को ख़त्म कर दे।
जिस इंसान से हसद किया जा रहा है वह भी हसद को ख़त्म करने में मदद कर सकता है। जब इस तरह का इंसान, हासिद इंसान से मुहब्बत करेगा तो वह भी अपने रवैये में तब्दीली लाएगा और दोस्ती के लिए उचित रास्ता तय्यार हो जाएगा। इस तरह हसद और बुरे विचारों का रास्ता बंद हो जाएगा। क़ुरआने मजीद के सूरए फ़ुस्सेलत की 34वीं आयत में लोगों के बीच पाए जाने वाले नफ़रत को ख़त्म करने के लिए यही मेथेड सुझाया गया है। इस आयत में अल्लाह कहता है। (हे पैग़म्बर!) अच्छाई और बुराई कदापि एक समान नहीं हैं। बुराई को भलाई से दूर कीजिए, सहसा ही (आप देखेंगे कि) वही इंसान, जिसके और आपके बीच दुश्मनी है, मानो एक क़रीबी दोस्त (बन गया) है।
हसद को ख़त्म करने का एक दूसरे रास्ता यह है कि जब ज़िंदगी में ऐसे लोगों का सामना हो जिनकी संभावनाएं और हालात बेहतर हैं तो तुरंत ही उन लोगों के बारे में सोचना चाहिए कि जिनकी स्थिति हमसे अच्छी नहीं है। इस तरह हमें यह समझ में आ जाएगा कि यद्यपि हम अपनी बहुत सी इच्छाओं को हासिल नहीं कर सके हैं लेकिन अभी भी हमारी स्थिति दुनिया के बहुत से लोगों से काफ़ी अच्छी है। वास्तव में हम ऐसी बहुत सी चीज़ों की अनदेखी कर देते हैं या उन्हें भुला देते हैं जो प्राकृतिक रूप से हमारे पास हैं या फिर हमने उन्हें हासिल किया है। मिसाल के तौर पर हेल्थ, जवानी, ईमान, अच्छा परिवार, क़रीबी दोस्त और इसी तरह की दूसरी बहुत सी चीज़ें और बातें हैं जिनकी हम अनदेखी कर देते हैं। अगर हम इन पर ध्यान दें तो हमें पता चलेगा कि हमारे पास कितनी ज़्यादा संभावनाएं और विशेषताएं हैं जिनके वास्तविक मूल्य व महत्व को हम इस लिए भूल चुके हैं कि हम उनके आदी हो चुके हैं। अलबत्ता इस वास्तविकता को भी क़बूल करना चाहिए कि ज़िंदगी में संपूर्ण परिपूर्णता का वुजूद नहीं होता। ज़िंदगी, अच्छी व बुरी बातों का समूह है। अगर किसी के पास कोई ऐसी संभावना है जो आपके पास नहीं है तो इसके बदले में आपके पास भी कोई न कोई ऐसी विशेषता है जो दूसरों के पास नहीं है।
हसद को ख़त्म करने का एक दूसरे रास्ता यह है कि उन लोगों के व्यक्तित्व की विशेषताओं और सोचने के तरीक़े को पहचाना जाए जो हासिद नहीं हैं। ऐसे लोग जो वास्तव में आपकी कामयाबी से ख़ुश होते हैं। अब आप कोशिश कीजिए कि उस तर्क को समझने की कोशिश कीजिए जिसके अंतर्गत वे आपकी प्रगति से ख़ुश होते हैं। उनके व्यक्तित्व की विशेषताओं को पहचानें और अपने बारे में उनकी सोच की शैली पर ध्यान दें। इन लोगों की सोच की क्या विशेष शैली और क्या विशेषता है? किस तरह वे अल्लाह की ताक़त व तत्वदर्शिता पर इतना ठोस ईमान रखते हैं? और किस तरह वे दिल से दूसरों से मुहब्बत कर सकते हैं और उनकी कामयाबी की कामना कर सकते हैं? इस सवालो के बारे में सोचें और ध्यान दें कि उन्होंने किस तरह यह शांति व संतोष हासिल किया है?
हदीसे रसूल (स.) और परवरिश
परवरिश दो तरह की होती हैः
1- जिस्मानी परवरिश 2- रूहानी-ज़ेहनी परवरिश
जिस्मानी परवरिश में पालने-पोसने की बातें आती हैं।
रूहानी-ज़ेहनी परवरिश में अख़लाक़ और कैरेक्टर को अच्छे से अच्छा बनाने की बातें होती हैं।
इस लिए पैरेंट्स की बस यही एक ज़िम्मेदारी नहीं है कि वह अपने बच्चों के लिए सिर्फ़ अच्छा खाने, पीने, पहनने, रेहने और सोने की सहूलतों का इन्तेज़ाम कर दें बल्कि उन के लिए यह भी ज़रूरी है कि वह खुले दिल से और पूरे खुलूस के साथ बच्चों के दिलो-दिमाग़ में रूहानी और अख़लाक़ी वैल्यूज़ की जौत भी जगाते रहें।
समझदार पैरेंट्स अपने बच्चों पर पूरी संजीदगी से तवज्जोह देते हैं। वह अपने बच्चों के लिए रहने सहने की अच्छी सहूलतों के साथ-साथ उनके अच्छे कैरेक्टर, हुयूमन वैल्यूज़, अदब-आदाब और रूह की पाकीज़गी के ज़्यदा ख़्वाहिशमन्द होते हैं।
आईये देखें रसूले इस्लाम (स.) इस बारे में हज़रत अली (अ.) से क्या फ़रमाते हैं। "ऐ अली! ख़ुदा लानत करे उन माँ-बाप पर जो अपने बच्चे की ऐसी बुरी परवरिश करें कि जिस की वजह से आक करने की नौबत आ पहुँचे।"
रसूले ख़ुदा (स.) ने फ़रमाया हैः- "अपने बच्चों की अच्छी परवरिश करो क्यों कि तुम से उन के बारे में पूछा जाएगा।"
रसूले ख़ुदा (स.) दूसरी जगह इर्शाद फ़रमाते हैं, "बच्चो के साथ एक जैसा बर्ताव करो। बिल्कुल उसी तरह जैसे तुम चाहते हो कि तुम्हारी नेकी और मेहरबानी के मुक़ाबले में इन्साफ़ से काम लिया जाए।"
रसूले अकरम (स.) का इर्शाद है किः- "बच्चो के साथ बच्चा बन जाओ। बच्चों की परवरिश में सब्र से काम लो और सख़्ती न करो क्यों कि होशियार टीचर, सख़्त मिज़ाज टीचर से बेहतर होता है।"
रसूले ख़ुदा सल्लल लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम ने इर्शाद फ़रमायाः- "बच्चा सात साल तक बादशाह है यानी जो चाहे करे, कोई रोक-टोक नहीं। फिर सात साल तक ग़ुलाम है इस लिए कि अभी उसमें इतनी अक़्ल और समझ नहीं है कि वह अच्छाई या बुराई को समझ सके। इस लिए ना चाहते हुए भी सिर्फ़ बाप के दबाव से वह उसके बताए हुए काम करेगा। यह बिल्कुल उसी तरह है जैसे ग़ुलाम अपने आक़ा का हुक्म मानते हैं। फिर इसे बार सात साल यानी 14 से 21 साल तक वह वज़ीर है यानी उसमें अब ख़ुद अक़्ल आ गई है। और अब वह अपनी समझ का इस्तेमाल करते हुए अपने बाप का हाथ बटाकर ज़िन्दगी की मंज़िलों को तय करेगा। ये वही शान है जो एक बादशाह के वज़ीर की होती है।"
इसी तरह हज़रत अली अलैहिस्सलाम इर्शाद फ़रमाते हैः- "सात साल तक बच्चे को खेलने-कूदने देना चाहिए, फिर सात साल तक उसके अख़लाक़, किरदार और आदातों को सुधारना चाहिए, फिर सात साल तक उस से काम लेना चाहिए।"
झूठ क्यों नहीं बोलना चाहिए
आम तौर पर झूठ किसी एक रूहानी कमज़ोरी की वजह से पैदा होता है यानी कभी ऐसा भी होता है कि इंसान ग़ुरबत और लाचारी से घबरा कर, दूसरे लोगों के उसको अकेले छोड़ देने की बुनियाद पर या फिर अपने ओहदे और मंसब की हिफ़ाज़त के लिए झूठ बोल देते हैं।
कभी माल व दौलत, मुक़ाम और दूसरी ख़्वाहिशों से उसकी सख़्त मुसीबत उसको झूठ बोलने पर मजबूर कर देती है। इन जगहों पर झूठ का सहारा लेकर वह अपनी ख़्वाहिशों को पूरा करना चाहता है।
ऐसा भी होता है कि इंसान की किसी शख़्स या ग्रुप से मुहब्बत या नफ़रत भी उसे मजबूर करती है कि इंसान हक़ीक़तों के ख़िलाफ़ अपने सामने वाले शख़्स या ग्रुप की हिमायत या मुख़ालिफ़त में कोई बात कहे। अगर सामने वाला शख़्स या ग्रुप उसका मेहबूब होत है तो यह झूठा शख़्स उसको फ़ायदा और अगर दुश्मन होता है तो ज़ाहिर है कि उसको नुक़सान पहुंचाना चाहता है।
इंसान कभी इस लिए भी झूठ बोलता है कि दूसरों के सामने ख़ुद को बड़ा बनाकर पेश कर सके और उनके सामने इल्मी, समाजी, सियासी, कारोबारी वग़ैरा किसी भी नज़र से अपनी धाक बिठा सके।
वैसे हक़ीक़त यह है कि यह सारी बुराईयाँ जो झूठ की वजह से पैदा होती हैं, इंसान की रूहानी कमज़ोरी, शख़्सियत की कमज़ोरी और ईमान की कमज़ोरी की वजह से ही पैदा होती हैं। जिन लोगों को अपने आप पर भरोसा नहीं होता है या रूहानी एतेबार से कमज़ोर होते हैं ऐसे लोग अपने मक़सद को पाने और होने वाले नुक़सान से बचने के लिए हर तरह का झूठ और बहाने बनाने को अपना पहला और आख़िरी हथियार मानते हैं जबकि इन के उलट वह लोग जिनको अपनी शख़्सियत पर यक़ीन और भरोसा होता है वह ख़ुद अपनी ज़ात के सहारे आगे बढ़ते हैं और किसी ग़लत काम या तरीक़े से फ़ाएदा नहीं उठाते।
इसी तरह वह लोग जिनको ख़ुदा की अज़ीम क़ुदरत पर भरोसा होता है, वह भी हर तरह की कामयाबी, जीत और बुलन्दी को अपने इरादे में तलाश करते हैं और ख़ुदा की क़ुदरत को हर तरह की क़ुदरत से ऊँचा और अज़ीम मानते हैं। इस लिए ऐसे लोग किसी भी हालत में झूठ या ग़लतबयानी का सहारा नहीं लेते कि अपने मक़सद तक पहुंच सकें या होने वाले नुक़सानों से अपने आप को बचा सकें। हाँ! कभी-कभी ऐसा भी होता है कि कुछ लोग झूठ के नुक़सानों और सच की अहमियत से अंजान होने या माहौल की ख़राबी से इस बहुत ही ख़तरनाक बुराई का शिकार हो जाते हैं। एक दूसरी अहम वजह यह भी होती है कि इंसान काम्पलेक्स की वजह से भी झूठ को अपनी आदच बना लेता है। जो लोग काम्पलेक्स का शिकार होते हैं उनकी कोशिश होती है कि किसी भी झूठ या ग़लत बयानी के ज़रिए काम्पलेक्स को ख़्तम कर सकें।
झूठ का इलाज
इस बुराई के पैदा होने और जड़ पकड़ लेने की वजह को बयान करने के बाद इस रूहानी बीमारी का इलाज आसान नज़र आता है। इस अख़्लाक़ी बीमारी से बचने के लिए नीचे दी हुई बातों पर अमल करना ज़रूरी हैः-
1- सबसे पहले ज़रूरी है कि इस ख़तरनाक बीमारी में फंसे लोगों को इसके ख़तरनाक रूहानी, दुनियावी और इंडिविजुअल व समाजी नुक़सानों और असर के बारे में बताया जाए। इसके बाद क़ुरआनी आयतों और रिवायतों से साबित किया जाए कि झूठ बोलने वाले शख़्स के मन-घड़त फ़ाएदे उसके झूठ से पैदा होने वाले इंडिविजुअल समाजी और अख़लाक़ी नुक़सानों और गुमराही का बिल्कुल मुक़ाबला नहीं कर सकते।
इस तरह इस बीमारी में फंसे लोगों को यह भी याद दिलाया जाए कि अगर कुछ जगहों पर कुछ फ़ाएदे भी हों तो यह फ़ाएदे वक़्ती और गुज़र जाने वाले हैं क्यों कि तमाम हालात में किसी इंसानी समाज की सबसे बड़ी ताक़त एक दूसरे पर भरोसा और इत्मिनान होती है। अगर समाज में झूठ रिवाज पा जाए तो समाज में पाया जाने वाला आपसी भरोसा भी ख़त्म हो जाता है।
यह बात भी ध्यान देने वाली है कि हो सकता है कि कुछ लोग यह सोचें कि अगर ऐसे झूठ बोले जाएं जो कभी खुल ही नहीं सकते हों तो क्या नुक़सान है। ज़ाहिर है कि इस सूरत में समाज का आपसी भरोसा भी बाक़ी रहेगा।
हक़ीक़त यह है कि यह ख़याल एक बहुत बड़ी ग़लती है क्यों कि तजुर्बे से साबित हो चुका है कि अक्सर झूठ छुप नहीं पाते हैं। इस की वजह यह है कि जब भी समाज में कोई वाक़िआ पेश आता है तो कहीं न कहीं, किसी न किसी तरह से वह वाक़िआ दूसरे लोगों से जुड़ा होता है। अगर कोई शख़्स अपनी ज़बान के ज़रिए ऐसा वाक़िआ या कां अंजाम देना चाहे जो हक़ीक़त में समाज में मौजूद नहीं है तो ऐसा शख़्स ऐसा काम करना चाहता है जो दूसरे सारे वाक़िआत और चीज़ों से नहीं जुड़ा है। और अगर यह शख़्स बहुत ज़्यादा ज़हीन और चालाक होता है तो पहले से ही कुछ दूसरे झूठ और ग़लत बातें गढ़ लेता है ताकि दूसरे वाक़िआत और कामों को अपने इस नए वाक़िए या काम से जोड़ सके। लेकिन हक़ीक़त यह है कि वह किसी भी तरह पहले ही दूसरे वाक़िआत के बारे में सभी मुमकिना रवाबित की पेशीनगोई नहीं कर सकता। यही वजह है कि कुछ सवालों के जवाब देने के बाद हार जाता है और नज़रें झुका लेता है।
जैसे हज़रत अली (अ.) के ज़माने में एक शख़्स बहुत बड़ी दौलत के साथ तिजारत पर गया था। साथ में उसके कुछ दोस्त भी थे। वापस आने पर उसके दोस्तों ने उसके इंतेक़ाल की ख़बर दी। ध्यान देने की बात यह है कि यही लोग हक़ीक़त में उस शख़्स के क़ातिल थे। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उस शख़्स की बीमारी, इंतेक़ाल, कफ़न, व दफ़न वग़ैरा के बारे में सवाल करना शरु किए। बहुत जल्द ही वह लोग चुप हो गए और अपना जुर्म क़बूल कर लिया। इसकी वजह यह है कि उन लोगों ने आपस में सिर्फ़ यह फ़ैसला कर लिया था कि वापसी पर कह देंगे कि वह मरीज़ हो गया और मर गया। लेकिन कहाँ, कैसे, किस वक़्त, किसने ग़ुस्ल दिया, किसने कफ़्न दिया, कहाँ दफ़्न किया गया वग़ैरा जैसे सवालों पर कोई ग़ैर नहीं किया और न ही इस बारे में किसी आपसी फ़ैसले पर पहुंच सके। हक़ीक़त यह है कि वह इस हद तक छोटे-छोटे सवालों पर कोई एक फ़ैसला कर भी नहीं सकते थे। इस लिए हो सकता है कि ज़हीन से ज़हीन और चालाक से चालाक शख़्स का झूठ भी थोड़ी सी तहक़ीक़ व सवालों के बाद खुल जाए और उसे झूठ को क़बूल करना पड़ जाए।
ख़ासकर यह कि अपने झूठ के बारे में इंसान जो ताने-बाने बुनता है वह उसकी मेमोरी में बाक़ी नहीं रह पाते क्यों कि उन की कोई हक़ीक़त नहीं होती। इस लिए अगर किसी झूठे शख़्स से कुछ वक़्त के बाद सवाल किए जाएं तो उसके जवाब में कई ग़लत बयानियाँ पैदा हो जाती हैं और वह परेशान हो जाता है उसके पिछले और मौजूदा जवाबों में फ़र्क़ पाया जाता है और यह फ़र्क़ उसके झूठ को ज़ाहिर करने की एक वजह बन जाता है इसी लिए कहा जाता है कि झूठे शख़्स का हाफ़्ज़ा कमज़ोर होता है।
2- एक दूसरा अहम इलाज यह है कि मरीज़ को यह एहसास दिलाया जाए कि वह एक शख़्सियत का मालिक है, उसकी अपनी भी एक शख़्सियत है, उसका दुनिया में एक विक़ार है। क्यों कि बयान किया जा चुका है कि झूठ की पैदाइश की एक एहम वजह काम्पलेक्स का होना है और हक़ीक़त में इंसान झूठ का सहारा लेकर अपने इस एहसास से छुटकारा हासिल करना चाहता है। अगर झूठे जैसे ख़तरनाक मरीज़ों के अन्दर यह अहसास पैदा हो जाए कि वह भी बहुत सी सलाहियतों के मालिक हैं साथ ही यह कि अपनी उन सलाहियतों के ज़रिए खोई हुई अपनी शख़्सियत, अपना किरदार, अपना विक़ार वापस ला सकते हैं तो वह ख़ुद ही झूठ की बैसाख़ी का सहारा लेकर आगे बढ़ने की अपनी आदत को ख़त्म कर देंगे। इसके अलावा ऐसे लोगों को यह भी समझाया जाए और यक़ीन दिलाया जाए कि एक ऐसे सच्चे इंसान की समाजी पर्सनालिटी दूसरी तमाम वेल्यूज़ से कहीं ज़्यादा है जिसने अपनी सच्चाई के ज़रिए लोगों का भरोसा पाया है। सच्चे इंसानों के पास पाए जाने वाली "सोशल पर्सनालिटी" जैसी दौलत का किसी दूसरी दौलत से मुक़ाबला ही नहीं किया जा सकता और अपनी इस दौलत के ज़रिए यह अपने कामों को भी अच्छी तरह पूरा कर सकते हैं।
ऐसा सच्चा इंसान न सिर्फ़ यह कि लोगों की नज़र में एक जगह बना लेता है बल्कि ख़ुदा की बारगाह में भी शहीदों व नबियों का दर्जा मिलता है जिकसी गवाह यह आयत हैः-
"जो भी अल्लाह और उसके रसूल (स.) की इताअत करेगा वह उन लोगों के साथ रहेगा जिन पर ख़ुदा ने नेमतें नाज़िल की हैं। अम्बिया, सिद्दीक़ीन, शोहदा और सालेहीन और यही बेहतरीन रुफ़क़ा है।"
मशहूर अरबी स्कॉलर राग़िब ने अपनी किताब "मुफ़रदात" में सिद्दीक़ के कई मायने बयान किये हैं जो सब के सब इसी हक़ीक़त की तरफ़ इशारा करते हैं.-
A- वह शख़्स जो बहुत ज़्यादा सच्चा है।
B- ऐसा शख़्स जो बिल्कुल झूठ नहीं बोलता।
C- ऐसा शख़्स जो अपनी बातचीत और अक़ीदों में सच्चा है और जिसका काम उसकी सच्चाई की गवाही देता है।
3- कोशिश की जानी चाहिए कि इस बीमारी के शिकार लोगों के ईमान को मज़बूत किया जाए साथ ही उन्हें इस बात का यक़ीन भी दिलाया जाए कि ख़ुदा की क़ुदरत दूसरी तमाम क़ुदरतों और ताक़तों से बढ़ कर है। ख़ुदा की क़ुदरत इतनी फैली हुई है कि वह हर तरह की मुश्किलों को हल कर सकता है कि इन्हीं मुश्किलों का हल तलाश करने के लिए कमज़ोर ईमान वाले लोग झूठ का सहारा लेते हैं और सच्चे इंसान मुश्किलों और मुसीबतों का सामना करते वक़्त ख़ुदा पर भरोसा करते हैं जबकि झूठे लोग ऐसे मौक़ों पर सिर्फ़ व सिर्फ़ तन्हा होते हैं यानी वह होते हैं और उनके झूठ।
4- झूठ की वजहों जैसे लालच, डर, ख़ुदपरस्ती और बहुत ज़्यादा मुहब्बत व नफ़रत वग़ैरा को दूर किया जाना चाहिए ताकि यह ख़तरनाक बुराई इंसान में पैदा न हो सके।
5- ऐसे लोगों के साथ उठने बैठने से परहेज़ किया जाए इन लोगों को यक़ीनन दूर किया जाना चाहिए जिन के अन्दर यह बुराई पाई जाती है। यह मसला इतना अहम है कि इस्लाम के तरबियती सिस्टम में इस पर बहुत ताकीद की गई है। इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं किः- "झूठ बोलना अच्छी बात नहीं है चाहे संजीदगी में या ग़ैर संजीदगी में और न ही तुम में से कोई अपने बच्चे से वादा करे और उसे पूरा न करे।"
ज़ाहिर है कि अगर माँ-बाप सच बोलने के आदी हों, यहाँ तक कि उन छोटे-छोटे वादों में जो वह अपने बच्चों से करते हैं तो कभी भी उनके बच्चे झूठ बोलने के आदी नहीं होंगे।
एहसान
एहसान इंसानी समाज में बहुत कॉमन लफ़्ज़ है। एर ग़ैर मुस्लिम भी एहसान को अच्छी तरह जानता है। बस फ़र्क़ यह है कि जो एहसान का लफ़्ज़ हमारे समाज में इस्तेमाल होता है वह क़ुरआन वाला एहसान नहीं है क्यों कि एहसान अरबी ज़बान का लफ़्ज़ है जो लफ़्ज़े "अहसन" से बना है और अहसन के मायने अच्छा, ख़ूब, बेहतरीन होते हैं।
अच्छा अमल भी हो सकता है ज़ात भी। अगर अमल है और अपने लिए है तो अहसन यानी अच्छा अमल है। अगर यही अहसन अमल दूसरे के लिए है तो क़ुरआन की नज़र में यह एहसान है जैसे नमाज़ पढ़ना अहसन अमल है और किसी को नमाज़ पढ़ाना एहसान है।
इस एहसान लफ़्ज़ को क़ुरआन में कई जगहों पर समझा गया है। सूरए-रेहमान में है, "हल जज़ाउल एहसान इल्लल एहसान" यानी एहसान का बदला एहसान है। कहीं यह नहीं मिलता है कि बड़े एहसान का बदला बड़ा एहसान है और छोटे एहसान का बदला छोटा एहसान है। यह बड़ा और छोटा एहसान इंसान के मिज़ाज में पाया जाता है यह इस्लाम का नज़रिया नहीं है। हमारे समाज में तो एहसान का कांसेप्ट ही कुछ और है। यहाँ किसी के नेक अमल को माल व दौलत की तराज़ू में तौलते हैं। यहाँ वही अमल एहसान माना जाता है जिस में बहुत ज़्यादा मेहनत, परेशानी और ज़ेहमत उठाई गई हो या माल व दौलत ख़र्च किया गया हो। यह है इंसान की नज़र में एहसान, मगर इस्लाम जिस एहसान की बात करता है वह बिना ज़ेहमत व मेहनत और दौलत के एक पलक के इशारे में किया जा सकता है।
इस्लाम में सलाम करना एहसान है और क्यों कि एहसान का बदला एहसान है इस लिए सलाम का जवाब देना वाजिब है यानी तुम भी उसे सलामती की दुआ दो। (हल जज़ाउल एहसान)
इस एहसान लफ़्ज़ के बहुत से पहलू हैं जिन पर मुकम्मल बहस एक आर्टिकल में नामुमकिन है। इस जगह इस सब्जेक्ट पर सिर्फ़ हेडलाइंस ही दी जा रही हैं। इंशा अल्लाह आगे के आर्टिकल में हम इस मोज़ू पर तफ़सीली बात करेंगे।
1- अल्लाह ने एहसान जताने को सख़्ती से मना किया है क्यों कि एहसान जताने से एहसान का सवाब चला जाता है जो कि हमारे समाज में आम है। इस बारे में हज़रत अली अलैहिस्सलाम इर्शाद फ़रमाते हैं किः- "जब तुम किसी के साथ एहसान करो तो उसे भूल जाओ लेकिन जब दूसरा कोई आप के साथ एहसान करे तो उसे हमेशा याद रखो।"
और इस तरह एहसान और एहसान करने वाले दोनों को ज़िन्दा रखो, न तुम्हारा अमल बर्बाद हो न दूसरे का।
2- अल्लाह की नज़र में एहसान को भूल जाना गुनाहे कबीरा है। रसूले ख़ुदा (स.) इर्शाद फ़रमाते हैं किः- "एहसान को भूलने वाला मलऊन है जो लोगों पर नेकियों के दरवाज़े को बंद करता है।" जब एहसान को भूला दिया जाता है तो इंसान एहसान करने से हाथ खींच लेता है क्यों कि वह चाहता है कि उसका अहसन अमल याद रखा जाए। बेहतर तो यह है कि एहसान का बदला एहसान ही से अदा किया जाए।
3- अल्लाह ने लालच और ग़रज़ की ख़्वाहिश में एहसान करने की मनाही की है। ऐसा भी अक्सर देखा गया है कि ज़बरदस्ती किसी के साथ एहसान किया जा रहा है क्यों कि कल हमें उस शख़्स से अपना कोई बड़ा काम लेना है। अल्लाह तो इरादे को जानता है, उसने ऐसे अहसान को मना किया है। एहसान बिना किसी लालच के होना चाहिए बदला दूसरे पर वाजिब है मगरर जितना हो सके उतना।
4- कई मौक़ो पर इस्लाम एक मुसलमान पर एहसान को वाजिब कर देता है चाहे दूसरा ग़ैर मुस्लिम ही क्यों न हो जैसे नीचे दिये गए मक़ामात परः-
1- वालदैन के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हों।
2- पड़ेसी के साथ एहसान एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हो।
3- मेहमान के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हों।
4- माँगने वाले के साथ एहसान करो चाहे वह काफ़िर ही क्यों न हो।
................इस्लाम में माफ़ कर देना एहसान है।
...............सलाम करना एहसान है।
...............खाना खिलाना एहसान है।
...............मुसाफ़िर को पनाह देना एहसान है।
...............परेशान की मदद करना एहसान है।
...............मोमिन को ख़ुश करना एहसान है।
...............किसी की तारीफ़ करना एहसान है।
...............ताज़ियत करना एहसान है।
..............मरीज़ों की अयादत (यानी देख भाल करना) करना एहसान है।
..............किसी की ख़ैरियत पूछना एहसान है।
..............बैठने के लिए किसी के लिए जगह बनाना एहसान है।
..............किसी के लिए मुस्कुराना एहसान है।
..............किसी के ऐब से अकेले में उसे बाख़बर करना एहसान है।
..............इल्म बांटना एहसान है।
..............पानी पिलाना भी एहसान है जिसे हमारा समाज एहसान नहीं समझता क्यों कि हमारी नज़र में पानी बहुत छोटी सी चीज़ है जबकि सच यह है कि पानी एक बहुत बड़ी नेमत है जिसे ख़ुदा ने हमारे लिए बेक़ीमत बना दिया है ताकि ग़रीबों को भी आसानी से मिल सके। यह उस रहमान व रहीम ख़ुदा का एक अजीब एहसान है। पानी का भी इस्राफ़ ज़ुल्म है यानी पानी को फ़ालतू में बहाना या बिना वजह के इस्तेमाल करना ज़ुल्म कह लाता है। और यह गुनाहे कबीरा भी है। रसूले ख़ुदा ने इर्शाद फ़रमाया किः- "अल्लाह तीन गुनाहों की सज़ा देने में देर नहीं लगाता, वालदैन के साथ बदसुलूकी, रिश्ते दारों से नाता तोड़ना या ज़ुल्म और एहसान को भूल जाना।"
हमारे रसूल (स.) और दूसरे 13 मासूमों के किरदार में एहसान की सिफ़त कमाल की हद तक मिलती है। मासूमीन ने अपने दुश्मनों के साथ भी एहसान किया है। करबला के रास्ते में हुर के प्यासे लशकर को सेराब करना एहसान है। इमामे हुसैन (अ.) को मालूम था कि दुश्मन है मगर इंसान वही है जो दूसरे इंसान का दर्द मेहसूस करे। इमाम हुसैन (अ.) ने तारीख़े करबला में इंसानियत की मेराज पेश की है जा क़यामत तक के हर इंसान के लिए एक सबक़ है। या फिर हमारे चौथे इमाम हज़रत जैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी में इस एहसान के मायने को समझीए, मौला मदीने में हैं जनाबे अली अकबर का क़ातिल हसीन बिन नुमैर जो सफ़र से मदीने की तरफ़ आया भूका प्यासा मदीने की गलीयो में भटक रहा था कि इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ.) पर उस की नज़र पड़ी आप ने करबला के बाद से अपना एक फ़रीज़ा बना लिया था वह यह कि आप अपने कांधे पर मश्क़ उठाते थे और मदीने की गलियों में हर इंसान को पानी से सेराब किया करते थे और फ़रमाते थे कि मीठा और ठंडा पानी पियो और मेरे बाबा हुसैन (अ.) प्यास को याद करो। जब हसीन बिन नुमैर आप के क़रीब गया तो इमाम ने उसे भी एक कासा पानी दिया यह बहुत प्यासा था तो आप ने फिर से उस के कासे को पानी से भर दिया, जब हसीन बिन नुमैर सेराब हो गया तो उस ने इमाम (अ.) से कहाः यब्ना रसूल अल्लाह अगर आप मुझे पहचान लेते तो हर गिज़ में पानी नहीं पिलाते। इमामे सज्जाद (अ.) ने फ़रमायाः ऐ हसीन बिन नुमैर! मैं तुझे कैसे भूल सकता हूँ तू तो मेरे अली अकबर का क़ातिल है जिस की प्यास से यह हालत थी कि उस की ज़बान चमड़े की तरह ख़ुश्क हो गई थी। तूने तो उसे अपने भाले से उसे शहीद किया है।
इमाम सज्जाद (अ.) के इस वाक़िए से मालूम होता है कि हमारे हर मासूम ने उस शख़्स पर भी एहसान किया है जो आप का क़ातिल था जो आप की आल का क़ातिल था। इस लिए एहसान भी अल्लाह ने बहुत ज़ोर दिया है और हमारे मासूमीन ने भी बहुत ताकीद की है।
रसूले ख़ुदा (स.) फ़रमाते हैं किः- "सदक़ा और एहसान के ज़रिए जन्नत हासिल करो।" एहसान इंसानियत का ज़ेवर है। अगर एहसान न होता तो इंसान, इंसान के क़रीब न होता। यह एहसान की कशिश ही है जो इंसान को इंसान के क़रीब लाती है। जो एहसान करने का जज़्बा रखे वह इंसानियत का कमाल है और जो एहसान कर के लुत्फ़ हासिल करे वहाँ इंसानियत की मेराज है। जो एहसान का बदला न चाहे वह आले मुहम्मद (अ.) का किरदार है जिनका हर अमल क़ुरबतन इलल्लाह होता है। फिर ख़ुदा उनकी शान में आयतें नाज़िल करता है कि यह एहसान में सब से आगे बढ़ने वाले हैं।
शिया वक़्फ़ बोर्ड को सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में मिलाये जाने की साज़िश के ख़िलाफ़ जलसा
शिया वक़्फ़ बोर्ड आफ़ उत्तर प्रदेश को सुन्नी वक़्फ़ बोर्ड में मिलाए जाने की साज़िशों के ख़िलाफ़ दरगाह हज़रत अब्बास अ. रुस्तम नगर लखनऊ में एक एहतिजाजी जलसे का आयोजन किया गया। जलसे को सम्बोधित करते हुए मजलिसे ओलमाए हिन्द के जनरल सिक्रेट्री मौलाना सय्यद कल्बे जवाद नक़वी नें कहा कि अल्लाह कभी उस क़ौम की हालत नहीं बदलता है जो क़ौम ख़ुद अपनी हालत बदलने की तरफ़ ध्यान न देती हो। कुछ लोगों की तक़दीर चमत्कार से बदल सकती है लेकिन पूरी क़ौम बिना किसी कोशिश के नहीं बदल सकती है। मौलाना नें क़ौम के नौजवानों के जोश को देखते हुए कहा कि हमारी क़ौम में है कि वह अपने अवक़ाफ़ की सुरक्षा ख़ुद कर सकती है। अगर हमारी क़ौम के पास अवक़ाफ़ सुरक्षित रहेंगे तो उसका क़ौम को दीनी फ़ायदा भी मिलेगा। मौलाना नें क़ौम की बदहाली की तरफ़ इशारा करते हुए कहा कि अगर हम अपने अवक़ाफ़ की सुरक्षा कर लें तो हमें पैसा कमाने के लिये बाहर जाने की ज़रूरत ही नहीं पड़ेगी और हमारी क़ौम की हालत ख़ुद ही ठीक हो जाएगी।
इस जलसे में यह तय पाया कि अगर उत्तर प्रदेश सरकार नें शिया मुसलमनों की मांगों पर ध्यान न दिया तो 26 फ़रवरी से हज़रत गंज स्थित शाही मस्जिद के बाहर लगातार 10 दिनों तक ओलमा के साया तले धरना दिया जाएगा और दस दिन के बाद विशाल स्तर पर विरोध प्रदर्शन किया जाएगा।
मस्जिदुल अक़सा पर क़ब्ज़ा करने के ज़ायोनी इरादों पर फिलिस्तीन की चेतावनी।
फ़िलिस्तीनी सरकार के विदेश मंत्री नें ज़ायोनियों को चेतावनी दी है कि वह मस्जिदे अक़सा पर क़ब्ज़ा करने की कोशिश न करें।
फ़िलिस्तीन की सरकार के विदेश मंत्री नें अत्याचारी ज़ायोनी सरकार को चेतावनी दी है कि वह मस्जिदुल अक़सा पर क़ब्ज़े और उसे यहूदी मीरास के साथ मिलाने की कोशिशें छोड़ दे। उन्होंने कहा कि मस्जिदुल अक़सा पर क़ब्ज़ा करने की ज़ायोनी कोशिशों से फ़िलिस्तीनियों और दुनिया भर में मुसलमानों की भावनाएं आहत होती हैं। फ़िलिस्तीन के विदेश मंत्री नें आगे कहा कि दुश्मन की इन कोशिशों का उद्देश्य मस्जिदुल अक़सा पर क़ब्ज़ा करके फ़िलिस्तीनियों को उस पवित्र स्थान में घुसने से रोकना है। उन्होंने कहा कि अन्तर्राष्ट्रीय क़ानून इस बात की इजाज़त नहीं देते हैं। उन्होंने फ़िलिस्तीनियों से अपील की कि वह मस्जिदे अक़सा के बचाव के लिये हर वक़्त तैयार रहें।
फ़ार्स खाड़ी के शासकों की कीमत, हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनई के जूतों के बराबर भी नहीं।
अल ख़बर प्रेस नें कहा है कि अगर सऊदी अरब अपना सारा धन व सम्पत्ति लाकर ढेर कर दे तो हम उसे सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनई के जूतों के मुक़ाबले में भी ठुकरा देंगे।
ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह सय्यद अली ख़ामेनई न केवल ईरान बल्कि पूरी दुनिया के शिया मुसलमानों के मरजए तक़लीद और वलीये अमरे मुस्लेमीन हैं, इतने बड़े पद पर होने के बाद भी उनकी दुनियावी ज़िन्दगी एक आम इन्सान की दुनियावी ज़िन्दगी और उसके ऐशो आराम से कहीं नीचे है।
इमाम ख़ामेनई ख़ुद भी वास्तविक रूप से आम ज़िन्दगी गुज़ारते हैं और देश के विभिन्न पदाधिकारियों से सिफ़ारिश करते हैं कि अपनी ज़िन्दगी में फ़ुज़ूल ख़र्ची न करें और एक आम ज़िन्दगी गुज़ारें।
सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई पिछले दिनों मजलिसे ख़ुबरेगान (विशेषज्ञ परिषद) के प्रतिनिधियों के साथ हुई बैठक में सम्बोधित करने के लिये जब अपनी कुर्सी पर बैठे थे तो शायद वहाँ पर बैठे लोग इस बात की तरफ़ आकर्षित नहीं हुए होंगे कि आपने जो जूतियां पहनी हैं वह किनारों से फटी हुई हैं लेकिन इस बैठक की प्रकाशित तसवीरों को अरब रिपोटर्स नें सोशल नेटवर्क पर प्रकाशित करके इस बात की तरफ़ आकर्षित किया कि एक तरफ़ अरब देशों के पदाधिकारियों की आलीशान ज़िन्दगी को देखिये और दूसरी तरफ़ सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई की ज़िन्दगी की समीक्षा कीजिये।
प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति, एक व्यापक और विस्तृत नीति है
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाह हिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधि पालिका के प्रमुखों के साथ एक बैठक में प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति का विवरण दिया और इसके क्रियान्वयन के मार्गों की समीक्षा की। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने सोमवार को तेहरान में राष्ट्रपति डाक्टर हसन रूहानी, संसद सभापति डाक्टर अली लारीजानी और न्यायपालिका प्रमुख आयतुल्लाह सादिक़ आमुली लारी जानी के साथ बैठक में प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति को विस्तारपूर्वक बयान किया। उन्होंने इसी के साथ इस नीति के क्रियान्वयन के मार्गों को स्पष्ट करते हुए कहा कि प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति, एक व्यापक और विस्तृत नीति है और इसका क्रियान्वयन भी इसी व्यापकता के साथ होना चाहिए। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने आर्थिक मामलों और उससे पैदा होने वाली समस्याओं को देश की महत्त्वपूर्ण समस्या बताया और कहा कि प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति के संबंध में आवश्यक है कि तीनों पालिकाएं पूरी गंभीरता के साथ इसके क्रियान्वयन का प्रबंध करें और इस संबंध में अपने दायित्वों पर पूरी तरह अमल करें। वरिष्ठ नेता ने इस नीति के क्रियान्वयन में देश की तीनों पालिकाओं के मध्य समन्वय को आवश्यक बताया और कहा कि नयी संस्थाओं की स्थापना और समानांतर काम करने से बचा जाए। आयतुल्लाह ख़ामेनेई ने आर्थिक गतिविधियों में जनता की भागीदारी को प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की नीति के आधार भूत बिन्दुओं में बताया और कहा कि देश में पिछले पैंतीस वर्षों में विशेषकर इस्लामी क्रांति की सफलता और आठ वर्षीय थोपे गये युद्ध में जनता की भागीदार से बहुत ही अच्छे और काफ़ी लाभदायक परिणाम प्राप्त किए गये इसीलिए आर्थिक क्षेत्रों में भी जनता के छोटे पूंजीनिवेश को सार्वजनिक आर्थिक नीतियों की ओर मोड़ना भी निश्चित रूप से प्रभावी और लाभदायक होगा।
ज़ायोनी राष्ट्र के ख़तरे पर हिज़बुल्लाह लेबनान की चेतावनी।
हिज़बुल्लाह लेबनान के जनरल सिक्रेट्री सय्यद हसन नसरुल्लाह नें अत्याचारी ज़ायोनी सरकार को लेबनान व फ़िलिस्तीन के लिये एक बड़ा ख़तरा बताते हुए कहा कि सभी इस्लामी देश इस समय अपने कामों में सक्रिय हैं और उन्होंने ज़ायोनी राष्ट्र के ख़तरे को भुला रखा है।
सय्यद हसन नसरुल्लाह नें बैरूत में शहीद दिवस के अवसर पर आयोजित कार्यक्रम में अपने सम्बोधन में शहीदों को श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए, क्षेत्र के इस्लामी देशों की वर्तमान स्थिति को प्रतिरोध के परिणाम स्वरूप हासिल होने वाली सभी सफलताओं के बाद अमरीका व अत्याचारी ज़ायोनी सरकार की ख़्वाहिश का परिणाम बताया और ज़ोर देकर कहा कि अमरीका व ज़ायोनी सरकार की सबसे बड़ी ख़्वाहिश ही यह रही है कि अत्याचारी ज़ायोनी राष्ट्र के ख़िलाफ़ जद्दोजहेद का मामला इस्लामी देशों की नज़र से दूर हो जाए। उन्होंने इस बात पर यक़ीन दिलाया की हक़ के रास्ते में किया जाने वाला आंदोलन व मुहिम कभी हार नहीं सकती है बल्कि इसमें थोड़ा समय लग सकता है।