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ईरानी प्रतिनिधिमंडल की मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से मुलाक़ात।

वर्ल्ड अहलेबैत अ. असेम्बली के जनरल सिक्रेटरी हुज्जतुल इस्लाम मुहम्मद हसन अख़तरी के नेतृत्व में हिंदुस्तान आये ईरानी प्रतिनिधिमंडल ने कल रात उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री मिस्टर अखिलेश यादव और समाजवादी पार्टी के वरिष्ठ नेता आज़म खान से मुलाक़ात की।

इस मुलाकात में मुख्यमंत्री मिस्टर अखिलेश यादव ने वर्ल्ड अहलेबैत अ. असेम्बली के जनरल सिक्रेटरी हुज्जतुल इस्लाम मुहम्मद हसन अख़तरी और उनके नेतृत्व में आये ईरानी प्रतिनिधिमंडल का आभार व्यक्त किया और कहा कि इस तरह आवागमन से आपसी सम्बंध मज़बूत होते हैं और यह सिलसिला भविष्य में भी जारी रहना चाहिए।

इस मुलाक़ात में ख़ास तौर पर हुज्जतुल इस्लाम मुहम्मद हसन अख़तरी ने मुसलमानों के मसाएल पर चर्चा की। उन्होंने मुख्यमंत्री अख़िलेश यादव को ईरान आने का न्योता भी दिया।

मिस्टर आज़म खान ने भी ईरान की प्रशंसा करते हुए कहा कि ईरान ने अंतर-राष्ट्रीय स्तर पर बड़ी कोशिशें की हैं और तमाम मुश्किलों और पाबंदियों के बावजूद तेज़ी से तरक्की की हैं और हम दुआ करते हैं कि ईरान और भी तरक्की की मंज़िले तय करे।

उन्होंने कहा कि उत्तरप्रदेश ईरान के साथ सम्बंध बढ़ाने के लिये पूरी तरह से तैयार है।

इस बीच हिंदुस्तान के प्रसिद्ध शिया धर्मगुरू मौलाना मंज़र सादिक ज़ैदी ने भी मुख्यमंत्री अखिलेश यादव से भेंटवार्ता की।

ईरानी जनता ने लगाया अमरीका के मुंह पर भरपूर तमांचा।

इस्लामिक रिपब्लिक ईरान के सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनाई नें कहा है कि ईरानी जनता नें 22 बहमन (11 फ़रवरी) को इस्लामी इन्क़ेलाब की सालगिरह के अवसर पर निकाले जाने वाले जुलूसों में भाग लेकर अमरीकी की बदतमीज़ी, साम्राज्यवाद और गुस्ताख़ी का भरपूर जवाब दिया है। उन्होंने कहा कि ईरानी राष्ट्र नें इस दिन ऐलान किया कि वह अमरीका की ज़ोर ज़बरदस्ती और मनमानी के आगे किसी भी स्थिति में घुटने नहीं टेकेगा। सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह अली ख़ामेनई ने आज हज़ारों लोगों को सम्बोधित करते हुए 22 बहमन के जुलूसों में जोश के साथ भाग लेने पर ईरानी जनता का शुक्रिया अदा किया।

सुप्रीम लीडर नें कहा कि विशेषज्ञों की रिपोर्टों के अनुसार इस साल के जुलूसों में पिछले साल के जुलूसों के मुक़ाबले जनता नें ज़्यादा बढ़ चढ़ के हिस्सा लिया है और यह इस बात का सूचक है कि इस्लामी इन्क़ेलाब की सालगिरह का जश्न, स्वयं इन्क़ेलाब की तरह बेमिसाल है।

आर्थिक प्रतिरोधक नीति, एक मज़बूत कार्यक्रम

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने आर्थिक प्रतिरोधक नीतियों को अर्थव्यवस्था के विकास और आर्थिक व्यवस्था के मार्ग में एक दीर्घावधि कार्यक्रम की संज्ञा दी है।

वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने मंगलवार को विभिन्न संस्थाओं के अधिकारियों, अर्थशास्त्रियों और अर्थव्यवस्था के क्षेत्र में सक्रिय लोगों को संबोधित करते हुए आर्थिक प्रतिरोधक नीति को एक मज़बूत और सुदृढ़ कार्यक्रम बताया और कहा कि प्रतिरोधक अर्थव्यवस्था की ओर झुकाव केवल ईरान से ही विशेष नहीं है और हालिया वर्षों के दौरान वैश्विक आर्थिक संकट के दृष्टिगत बहुत से देशों ने अपनी परिस्थितियों और आवश्यकताओं के अंतर्गत अपनी अर्थव्यवस्था को सुदृढ़ करने का काम आरंभ कर दिया है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि ईरान एक ओर वैश्विक अर्थव्यवस्था से जुड़ा हुआ है और अपने इस संपर्क को बनाए रखना चाहता है और दूसरी ओर अपनी स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और विश्व शक्तियों के वर्चस्व को स्वीकार न करने के कारण, अतिक्रमण, दुर्भावना और रुकावटों का शिकार है।

आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनेई ने ख़तरनाक तत्वों के मुक़ाबले में प्रतिरोध की शक्ति को प्रतिरोधक अर्थव्यस्था की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता बताया और कहा कि विश्व के आर्थिक संकट, प्राकृतिक आपदाएं और आर्थिक प्रतिबंधों की भांति, शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियां ख़तरनाक तत्व समझे जाते हैं। उन्होंने शत्रुओं की ओर से आरंभ किये गये एक भरपूर आर्थिक युद्ध से मुक़ाबले को प्रतिरोधक अर्थव्यस्था की नीति के गठन का कारण बताते हुए कहा कि आर्थिक प्रतिबंध, परमाणु ऊर्जा का मामला उठाए जाने से पहले लगे थे, इसीलिए यदि परमाणु मुद्दे पर वार्ता सफल होती है तब भी प्रतिबंध जारी रहेंगे, इसीलिए यह मुद्दा, मानवाधिकार और दूसरे अन्य मुद्दे केवल बहाना हैं।

आयतुल्लाह सीस्तानी को शांति का नोबेल पुरस्कार।

ईराक़ के जाने माने मरजए तक़लीद आयतुल्लाह सय्यद अली हुसैनी सीस्तानी को शांति के नोबेल पुरस्कार के लिये नामित किया गया है। ईराक़ के अल ज़मान अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार ईराक़ के एक संसद सदस्य अब्दुल हुसैन अल यासरी नें कहा है कि शांति के नोबेल पुरस्कार के लिये ईराक़ के प्रसिद्ध मरजए तक़लीद आयतुल्लाह सय्यद अली हुसैनी सीस्तानी के नाम का चुनाव, वास्तव में अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर उस सच्चाई को स्वीकार करना है कि शिया मुसलमान, हर तरह की हिंसा व अस्थिरता और आतंकवाद के ख़िलाफ़ हैं। ईराक़ के इस संसद सदस्य नें कहा कि शांति का नोबेल पुरस्कार, दुनिया का एक महत्वपूर्ण पुरस्कार है और इस पुरस्कार का हक़दार सिर्फ़ वही होता है जो अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों की ज़िन्दगी में विशेष महत्व रखता हो। इस पुरस्कार के लिये ईराक़ के आयतुल्लाह सीस्तानी को चुना जाना इस बात का सुबूत है कि शिया मुसलमानों के नियम व तरीक़े वास्तविक इस्लाम के नियम व उसूल हैं जो शिया मुसलमानों तक सीमित नहीं हैं।

सोमवार, 17 मार्च 2014 07:16

हज़रत ज़ैनब स.अ. का जन्म दिन।

पांच जमादिउल अव्वल पांच हिजरी क़मरी को मदीना शहर में पैग़म्बरे इस्लाम की नवासी हज़रत ज़ैनब का जन्म हुआ। उस समय पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. मदीने से बाहर गये हुए थे। इसी कारण हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उस बच्ची का नाम रखने में सब्र से काम लिया ताकि पैग़म्बरे इस्लाम स.अ. मदीना वापस आ जायें। पैग़म्बरे इस्लाम स.अ के मदीने वापस आ जाने के बाद उन्होंने बच्ची का नाम ज़ैनब रखा और उस बच्ची का हमेशा सम्मान किये जाने की सिफारिश की क्योंकि वह अपनी नानी खदीज़ा की तरह है यानी उन्होंने जिस तरह से पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी के ऐलान के शुरू में कुर्बानी व त्याग देकर और बहुत अधिक कठिनाइयां सहन की ताकि इस्लाम का पौधा सुरक्षित और फलदार हो सके, ठीक उसी तरह हज़रत ज़ैनब ने भी बहुत ज़्यादा धैर्य, त्याग और कठिनाइयां सहन की ताकि इस्लाम को ख़तरे में पड़ने से बचाया जा सके।

हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने समस्त सदगुणों को अपनी मां हज़रत फातेमा और बाप हज़रत अली अलैहिस्सलाम से सीखा था और सीधे इन महान हस्तियों की देखरेख एवं साये में पली बढ़ीं। हज़रत ज़ैनब एसे माहौल में परवान चढ़ीं जो सद्गुणों का स्रोत व केन्द्र था।

हज़रत ज़ैनब तहारत व पाकता में अपनी महान मां हज़रत फातेमा ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा की तरह थीं जबकि बात करने व भाषण देने में अपने महान बाप हज़रत अली अलैहिस्सलाम के समान थीं। हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने सहनशीलता व विन्रमता अपने बड़े भाई इमाम हसन और बहादुरी व धैर्य अपने भाई इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से सीखा था। इसी कारण हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा का पावन अस्तित्व सद्गुणों का दर्पण एवं प्रतीक बन गया। जब हज़रत ज़ैनब बहुत छोटी थीं तभी एक बार उनके महान पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने उनसे कहाः मेरी बेटी कहो एक हज़रत ज़ैनब ने कहा एक, उसके बाद हज़रत अली ने कहा कि कहो दो उस समय हज़रत ज़ैनब चुप हो गयीं। जब उनका मौन लंबा हो गया तो हज़रत अली ने कहा मेरी बेटी क्यों चुप हो गयी? उस समय हज़रत ज़ैनब ने कहा पिता जिस ज़बान से मैंने एक कहा उस जबान से दो कहने की क्षमता नहीं है।

हज़रत ज़ैनब का यह बयान महान अल्लाह के एक होने के प्रति उनके गहरे विश्वास का सूचक है वह भी उस समय जब हज़रत ज़ैनब बहुत छोटी थीं।

हज़रत ज़ैनब सद्गुणों की मालिक एक महान महिला थीं और वह मुसलमान व ग़ैर मुसलमान औरतों के लिए एक सर्वोत्तम आदर्श हैं। हज़रत ज़ैनब इल्म में अपना उदाहरण ख़ुद थीं। जब हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने शासन के समय इराक के कूफा शहर चले गये और वहीं पर रहने लगे तो इल्म की जिज्ञासु औरतों और लड़कियों ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के पास संदेश भेजा और कहा कि हमने सुना है कि आप की बेटी हज़रत ज़ैनब अपनी मां हज़रत फातेमा ज़हरा की तरह इल्म और दूसरे सद्गुणों की मालिक हैं। अगर आप इजाज़त दें तो हम उनकी सेवा में हाज़िर होकर इल्म के स्रोत से फ़ायदा उठायें। हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इजाज़त दे दी ताकि उनकी बेटी कूफे की औरतों व लड़कियों के धार्मिक व ग़ैर धार्मिक सवालों का जवाब दें और उनकी समस्याओं का समाधान करें। हज़रत ज़ैनब ने इस काम के लिए अपनी तत्परता का ऐलान किया और शुरूआती मुलाकात के बाद उन्होंने कूफे की औरतों के लिए पाक कुरआन की व्याख्या के लिए कक्षा गठित की और उनके सवालों का जवाब दिया।

अलबत्ता हज़रत ज़ैनब सलामुल्लाह अलैहा ने कर्बला, कूफा, शाम और अत्याचारियों के समक्ष जो भाषण दिये हैं उन सबसे आपके इल्म की महानता को अच्छी तरह देखा जा सकता है।

हज़रत ज़ैनब के बारे में एक अहेम प्वाइंट, विभिन्न अवसरों पर फैसला लेने और दृष्टिकोण अपनाने की उनकी अदभुत क्षमता है। हज़रत ज़ैनब अच्छी तरह जानती थीं कि कहां पर कौन सी बात कहनी चाहिये और कहां पर साहस का परिचय देना चाहिये। हज़रत ज़ैनब ने धर्मभ्रष्ठ और अत्याचारी शासक यज़ीद बिन मोआविया के महल में जो एतिहासिक भाषण दिया उसे सुनकर यज़ीद बौखला गया और उसकी समझ में नहीं आ रहा था कि क्या करे जबकि हज़रत इमाम हुसैन का कटा हुआ सिर उनकी बहन हज़रत ज़ैनब की नज़रों के सामने था।

एक रिसर्चर इस संबंध में कहता है” दुश्मनों के साथ और उनके मुकाबले में हज़रत ज़ैनब का बर्ताव बड़ा ही चकित व हतप्रभ करने वाला है। उन्होंने दुश्मनों के साथ बड़ा ही तार्किक व ठोस बर्ताव किया जबकि वे सिंहासन पर थे। हज़रत ज़ैनब बनी हाशिम परिवार की साहसी महिला थीं। उन्होंने धर्मभ्रष्ठ, निर्दयी, निष्ठुर, क्रूर एवं अत्याचारी शासक यज़ीद के महल में जो एतिहासिक भाषण दिया उससे यज़ीद और उसके समर्थक लज्जित व अपमानित हो गये और उसके महल में हज़रत ज़ैनब के भाषण से भूचाल आ गया।

सोमवार, 17 मार्च 2014 07:14

तौहीद क्या है?

तौहीद क्या है?

तौहीद का मतलब अल्लाह को एक मानना है। दर्शन और तर्क शास्त्र में इस के कई मतलब हैं लेकिन सब का अंत में मतलब यही होता है कि अल्लाह को एक माना जाए। इस संदर्भ में बहुस ती विस्तृत चर्चाओं का बयान हुआ है लेकिन यहाँ पर सब का बयान उचित नहीं होगा।

इस लिए यहाँ पर हम तौहीद के केवल उन्हीं अर्थों और परिभाषाओं का बयान करेगें जो ज़्यादा विख्यात हैं।

1. संख्या को नकारना

तौहीद की सर्वाधिक विख्यात परिभाषा, अल्लाह के एक होने पर यक़ीन और उसके कई होने को नकारना है। अल्लाह के लिए ऐसी विधिता को नकारना है जो उसके वुजूद से बाहर हो । यह यक़ीन दो या कई अल्लाह में ईमान रखने के विपरीत है।

2. मिश्रण को नकारना

तौहीद की दूसरी परिभाषा अल्लाह के अनन्य होने की है यानी वह ऐसा एक है कि जो कई वस्तओं से मिल कर एक नहीं बना है।

इस मतलब को प्रायः उसके अवगुणों को नकार कर साबित किया जाता है जैसा कि हम ने दसवें पाठ में इस ओर इशारा किया है।

3. उसके वुजूद से अतिरिक्त गुणों को नकारना

तौहीद की एक दूसरे परिभाषा उसके गुणों और उसके वुजूद में अंखडता होना है इस अल्लाह के गुणों को एकल मानना कहा जाता है। इस विपरीत कुछ लोग अल्लाह गुणों को उसके वुजूद से अलग और बाद में उससे जुड़ जाने वाली चीज़ मानते हैं।

अल्लाह के गुण और वुजूद के एक होने का तर्क यह है कि अगर अल्लाह के प्रत्येक गुण, अलग अलग रूप से यर्थात होते हों तो इस की कुछ दशाएं होंगीः वह गुण जिसके लिए होंगे वह चीज़ अल्लाह के वुजूद के भीतर होगी और ऐसी दशा में यह ज़रूरी होगा अल्लाह का वुजूद कई हिस्सों से बनने वाली चीज़ हो जाए और यह हम पहले ही साबित कर चुके हैं कि ऐसा होना संभव नहीं है या दूसरी दशा यह हो सकती है कि यह गुण जिस चीज़ पर यर्थात होते हैं वह अल्लाह के वुजूद से बाहर की चीज़ होगी तो फिर अगर वह अल्लाह के वुजूद से बाहर होगी तो या तो आत्मभू होगी या फिर स्वयंभू नहीं होगी। अगर स्वयंभू होगी तो तो अल्लाह के अतिरिक्त दूसरी वस्तु, चाहे वह गुण ही क्यों न हो, स्वंभू हो जाएगी और हम साबित कर चुके हैं कि स्वंभू ही अल्लाह होता है त इस तरह से सीधे रूप से अनेकश्वरवाद को मानना पड़ेगा जो निश्चित रूप से गलत है और तौहीद में ईमान रखने वाला कोई इंसान यह दशा स्वीकार नहीं करेगा।

लेकिन अगर गुणों के लिए यह माना जाए कि वह स्वंभ नहीं हैं तो फिर इस का मतलब होगा कि अल्लाह ने, जो ख़ुद ख़ुदभू नहीं हैं तो फिर इस का मतलब यह होगी कि अल्लाह ने, जो ख़ुद ख़ुदभू है, अपने भीतर इन गुणों के न होते हुए उन्हें पैदा किया है और फिर उन गुणों को ग्रहक किया है। उदाहरम स्वरूप अल्लाह जीवित होने का गुण नहीं रखता था पिर उस ने जीवंत होने का गुण पैदा किया और फिर उस ग्रहक किया और इस तरह से वह जीवित हुआ और इसी तरह इल्म व ताक़त जैसे उसके गुण। जब कि यह संभव नहीं है कि रचयता कारक, ख़ुद ही अपनी रचनाओं के गुणों का मालिक न हों और इस से ज़्यादा बुरी बात यह होगी कि इस दशा में वह अपनी पैदा की हुई चीज़ की सहायता से जीवन इल्म व ताक़त जैसे गुण हासिल करेगा।

इस तरह की धारणाओं के गलत साबित होने से यह स्पष्ट हो जाता है कि अल्लाह के गुण एक दूसरे औस ख़ुद उसके वुजूद से भिन्न नहीं हैं बल्कि सब क सब ऐसे मतलब हैं जो एकल वुजूद यानी अल्लाह से निकले हुए हैं।

4. कार्यों में तौहीद

तौहीद की चौथी परिभाषा, कार्यों में होती है और इस का मतलब यह होता है कि अल्लाह को अपने काम करने के लिए किसी भी इंसान या चीज़ की ज़रूरत नहीं होती और कोई भी उसकी किसी भी तरह से सहायता नहीं कर सकता।

यह बात मूल रचयता कारक की विशेषता यानी सारी रचनाओं के उस पर निर्भर होने के मतलब के मद्देनज़र साबित होती है क्योंकि इस तरह के कारक की रचना, अपने पूरे वुजूद के साथ अपने कारक पर निर्भर होती है और किसी भी तरह से स्वाधीन नहीं होती।

दूसरे शब्दों मेः जिस के पास जो कुछ भी है वह उसी की दी हुई ताक़त व सामर्थ के बल पर है और किसी भी चीज़ पर स्वामित्व और हर तरह की क्षमता व ताक़त का स्रोत अल्लाह है। ठीक उसी तरह से जैसे दास के स्वामित्व में रहने वाली चीज़ें उसके मालिक की होती हैं और दास को उसे इस्तेमाल करने की अनुमति होती हैं तो फिर ऐसी दशा में यह कैसे संभव है कि अल्लाह को उन लोगों की सहायता की ज़रूरत हो जिन का वुजूद और जनि के पास मौजूद हर चीज़ ख़ुद उसकी न होकर अल्लाह की ही हो।

5. स्वाधीन प्रभाव

यह तौहीद की पाँचवी विशेषता है और इस का मतलब यह होता है कि अल्लाह की रचनाएं अपने कामों में भी स्वाधीन नहीं है बल्कि उन्हें अल्लाह की ज़रूरत होती है वह एक दूसरे पर जो प्रभाव डालती हैं उसके लिए भी उन्हें अल्लाह की ज़रूरत होती है और उसी की अनुमति से यह संभव होता है।

वास्तव में जो स्वाधीन रूप से और बिना किसी दूसरे की सहायता और ज़रूरत के हर स्थान पर हर चीज़ को प्रभावित करता है वह वही अल्लाह है और दूसरों के प्रभाव और उन का कारक होना उसी की दी हुई ताक़त के बल पर संभव होता है।

इसी आधार पर क़ुर्आने मजीद, प्रकृतिक कारकों के प्रभावों को अल्लाह से संबंधित बताता है मिसाल के तौर पर क़ुर्आने मजीद ने वर्षा, पेड़ पौधों का उगना, पेड़ों में फल आदि जैसे कामों को भी उसी से संबंधित बताया है और इस बात पर आग्रह करता है कि लोग, इस संबंध को, कि जो प्रकृतिक कारकों और अल्लाह के बीच होता है, समझें और उसे स्वीकार करें और हमेशा ही उस पर ध्यान दें।

इस बात को और ज़्यादा स्पष्ट करने के लिए एक उदाहरण पेश किया जा सकता हैः मिसाल के तौर पर अगर किसी कंपनी का मालिक किसी कर्मचारी को कोई काम करने का आदेश देता है या कोई काम, किसी कर्मचारी द्वारा किया जाता है तो वास्तव में उसं कंपनी और उसके मालिक का काम समझा जाता है बल्कि बौद्धिक रूप से उस काम का आदेश देने वाला करने वाले से ज़्यादा ज़िम्मेदारी होता है।

 

दो महत्वपूर्ण नतीजा

अल्लाह के कामों में तौहीद के यक़ीन का नतीजा यह है कि इंसान, अल्लाह के अतिरिक्त किसी चीज़ या किसी इंसान को इबादत योग्य न समझे क्योंकि जैसा कि पहले बताया जा चुका है, इबादत योग्य वही होता है जो पैदा करने वाला और परवरदिगार हो दूसरे शब्दों में अल्लाह होने का मतलब परवरदिगार व पैदा करने वाला होना है।

दूसरी ओर तौहीद के वर्णित मतलब का नतीजा यह है कि इंसान का पूरा भरोसा अल्लाह पर रहे और हर काम में केवल उसी पर भरोसा करे और केवल उसी से सहायता माँगे और उसके अतिरिक्त न तो किसी से डरे और न ही किसी से कोई उम्मीद रखे यहाँ तक कि अगर यह उसकी इच्छा पुर्ति के भौतिक कारक व हालात मौजूद न हों तब भी वह निराश न हो क्योंकि अल्लाह आसाधारण रास्तों से भी उसकी इच्छा पूरी कर सकता है।

इस तरह का इंसान अल्लाह की विशेष कृपा का पात्र बनता है और उसके मन को अभूतपूर्ण शांति मिलती है जैसा कि क़ुर्आने मजीद में है कि जान लो अल्लाह के मित्रों को न डर है और न ही वह दुखी होते हैं।

यह दो नतीजा क़ुर्आने मजीद के पहले सूरे की इस आयत में कि जिसे हर मुसलमान दिन में कम से कम पाँच बार दोहराता है, मौजूद हैः

हम तेरी इबादत करते हैं और तुझ से ही सहायता चाहते हैं।

एक शंका का निवारण

यहाँ पर संभव है कि मन में यह शंका पैदा हो कि अगर तौहीद का मतलब यह है कि इंसान अल्लाह के अतिरिक्त किसी से भी सहायता न माँगे तो फिर अल्लाह के विशेष दासों से भी सहायता नहीं माँगी जा सकती।

इस शंका का जवाब यह है कि अल्लाह के विशेष दासों से सहायता माँगना, अगर इस विचार के साथ हो कि वह लोग अल्लाह की अनुमति के बिना स्वाधीन रूप से माँगने वाले की इच्छापूर्ति कर सकते हैं तो इस तरह की सहायता माँगना, तौहीद के विपरीत होगा लेकिन अगर मन में यह विचार हो कि अल्लाह ने इन विशेष दासों को अपनी कृपा तक पहुँचने का साधन बनाया है तो फिर यह काम न केवल यह कि तौहीद के विपरीत नहीं है बल्कि तौहीद, इबादत और आज्ञापालन ही होगा क्योंकि यह काम वह अल्लाह के आदेश के अनुसार करेगा।

लेकिन जहाँ तक इस बात का सवाल है कि अल्लाह ने क्यों इस तरह के साधन बनाए हैं ? और लोगों को इन का हवाला देने और इन्हें बीचस्थ बनाने का क्यों आदेश दिया है ? तो इस के जवाब में कहा जा सकता है कि इस के कई कारण हैं जिन में से कुछ इस तरह हैं:

योग्य व अल्लाह के प्रिय लोगों का परिचय, दूसरे लोगों को ऐसी इबादत के लिए प्रोत्साहित करना जिस के बाद वह इस तरह के स्थान तक पहुँच सकते हैं। अपनी इबादत और दीन प्रतिबद्धता के नतीजा में इंसान के भीतर अंह व घमंड की भावना को रोकना। जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की प्रेम परिधि से बाहर रहने वालों के साथ हुआ है।

प्रश्नः

1. तौहीद का क्या मतलब है ?

2. गुणों में तौहीद का क्या तर्क है ?

3. कार्यों में तौहीद को किस तरह साबित किया जा सकता है ?

4. स्वाधीन रूप से प्रभाव की ताक़त में तौहीद का क्या मतलब है ?

5. अंत में तौहीद के दो परिणामों से क्या नतीजा निकतला है ?

6. क्या अल्लाह के विशेष दासों को साधन बनाना एकेश्वरवादी आईडियॉलोजी के विपरीत है ? क्यों ?

7. अल्लाह ने कुछ विशेष लोगों को अपने तक पहुँचने का साधन बनाया है इस के कारण बताएं।

इस्लामी समाज में कुरआन की भूमिका।

कुराने मजीद इल्म का सबसे बड़ा खजाना और समाज में फैली गुमराहियों को सुधारने के लिये बेहतरीन बयान है। कमाल और व्यापकता कुरआने करीम की ऐसी ख़ास विशेषता है जो इंसानी समाजों की सभी जरूरतों का जवाब देने में पूरी तरह से सक्षम है और दुनिया और आख़ेरत के सौभाग्य अपने दामन में समेटे हुए है। वास्तव में मानव इतिहास के सभी दौर और ज़माने में इस्लाम की यह व्यापकता व विशेषता कुरआन से व्युत्पन्न है।

समाज के विभिन्न निजी, सामूहिक और सामाजिक विषयों से लेकर व्यक्ति और समाज के आपसी प्रभाव, सामूहिक भिन्नताओं, आदर्श समाज, समाजिक गुट बंदियों व....का संपूर्ण जवाब क़ुरआन में निहित है। इसलिए सभी अवसरों ख़ास कर सामूहिक गुमराहियों के उपचार में सबसे गहन और सबसे सही विचारधारा को कुरान से निकाला जा सकता है।

इंसान की पहुंच में केवल कुरान आसमानी किताब है। कुरान के बारे में जो कुछ नहजुल बलाग़ा में बयान हुआ है, उसे इच छोटे से आर्टिकिल में बयान नहीं किया जा सकता है क्योंकि इमाम अली (अ) ने नहजुल बलाग़ा के बीस से अधिक ख़ुत्बों में कुरान और उसके स्थान का परिचय कराया है और कभी कभी आधे ख़ुत्बे से अधिक को कुरान और उसके स्थान व महत्व, मुसलमानों की ज़िन्दगी में उसके प्रभाव और आसमानी किताब के बारे में मुसलमानों की ज़िम्मेदारियों से विशेष क्या है। हम यहाँ पर कुरआन से संबंधित नहजुल बलाग़ा की केवल कुछ परिभाषाओं की व्याख्या कर रहे हैं।

अमीरूल मोमेनीन हज़रत अली 133 वें ख़ुत्बे में इरशाद फ़रमाते हैं:

 

''وَ کِتَابُ اللّٰہِ بَينَ اَظْہُرِکُمْ نَاطِق لايَعْييٰ لِسَانُہ''

 

यानी कुरान तुम्हारे सामने और तुम्हारी पहुँच में है, दूसरे धर्मों की आसमानी किताबें जैसे हज़रत मूसा और हज़रत ईसा की किताबों के विपरीत, कुरान तुम्हारी पहुंच में है उल्लेखनीय है कि पिछली पीढ़ियों में ख़ासकर बनी इस्राईल के यहूदियों में पवित्र किताब आम लोगों की पहुंच में नहीं थी, बल्कि तौरैत की केवल कुछ कॉपियां यहूदी उल्मा के पास थीं और आम लोगों के लिए तौरैत से सम्पर्क स्थापित करने की संभावना नहीं पाई जाता थी।

इस्लामी चेतना की लहर पर वरिष्ठ नेता का दृष्टिकोण

इस्लामी राष्ट्र की विशाल पूंजि, इस्लाम धर्म तथा मानवीय जीवन के लिए इस धर्म के व्यापक नियम, ठोस शिक्षाएं और स्पष्ट ज्ञान हैं। इस्लाम ने सृष्टि और मानवजाति के बारे में बुद्धि पर खरे उतरने वाले गहरे विचार पेश करके तथा एकेश्वरवाद के शुद्ध विचार के प्रचार, बौद्धिक नैतिकता व आध्यात्मिकता के परिचय, दृढ़ व व्यापक राजनीतिक व समाजिक व्यवस्था तथा नियमों को निर्धारित करके तथा उपासना एंव व्यक्ति संबंधी कर्तव्यों व कर्मों के निर्धारण द्वारा मानवजाति को निमंत्रण दिया है कि वह अपने मन को बुराइयों, कमज़ोरियों, नीचता तथा गंदगियों से पवित्र करे और उसे ईमान व सदभावना, प्रेम व लगाव, जैसी भावनाओं से सुसज्जित करे।

 

इस्लामी व्यवस्था के आरंभ से ही इसे चुनौतियों का सामना रहा है इसका कारण यह था कि विश्व के सत्ता लोभियों और धन व शक्ति के स्वामी जो सदैव अपने हितों की पूर्ति के प्रयास में रहते हैं, विश्व में किसी एसी नयी शक्ति का अस्तित्व सहन नहीं कर सकते थे जो उनके अवैध हितों के विरुद्ध सक्रिय हो। ईरान में इस्लामी क्रांति की विजय और इस्लामी व्यवस्था के गठन के साथ ही एसी शक्ति अस्तित्व में गयी। इस व्यवस्था के गठन मात्र से ही उनके लिए ख़तरा उत्पन्न नहीं हुआ था बल्कि मूल ख़तरा इस्लामी जगत में संभावित चेतना फैलने से था। यही ख़तरा आज साम्राज्यवादियों की नींद उड़ाए है। यही कारण है कि साम्राज्य की शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों का लक्ष्य इस्लामी व्यवस्था है।

 

एक अन्य महत्वपूर्ण वस्तु शुद्ध इस्लामी संस्कृति और उसका प्रचार है जो वास्तव में इस्लामी जगत में चेतना के रूप में सामने आया। ईरान में इस्लामी क्रांति से पूर्व, पूरे इस्लामी जगत में इस्लाम का नाम था, हर स्थान पर यह वास्तविकता मौजूद थी किंतु उसकी गहराई कहीं कम और कहीं अधिक थी। पूरे इस्लामी जगत को संयुक्त रूप से देखने और उसकी अपार संभावनाओं के साथ उसे प्रगति के मार्ग में अग्रसर करने का विचार, ईरान की इस्लामी क्रांति के बाद सामने आया और देखते देखते पूरे विश्व में फैल गया। ईरान में इस्लामी क्रांति के बाद जो सरकार बनी उसने इस्लामी शिक्षाओं और नियमों के आधार पर प्रजातांत्रिक सरकार का एसा आदर्श पेश किया जिसका उदाहरण इस से पहले कहीं नहीं मिलता।

 

समाजवाद और साम्यवाद जैसी विचारधाराओं की विफलता और विशेषकर पश्चिम के उदारवादी प्रजातंत्र की वास्तविकता सामने आने के बाद इस्लाम का स्वतंत्रताप्रेमी रूप पहले से अधिक स्पष्ट हुआ और इस्लामी देशों के युवा, इस्लामी न्याय व स्वतंत्रता की छत्रछाया में जीवन बिताने की कामना के साथ इस्लामी सरकार की स्थापना के लिए आगे बढ़े और विभिन्न राजनीतिक , सामाजिक व वैज्ञानिक क्षेत्रों में उन्होंने संघर्ष आरंभ किया जो अब अपने अपने देशों में विदेशी और साम्राज्यवादी शक्तियों के विरुद्ध प्रतिरोध की भावना और आंदोलन को बल प्रदान कर रहे हैं।

 

 

इस्लामी जगत के बहुत से क्षेत्रों में जिनमें फ़िलिस्तीन सर्वोपरि है, युवा इस्लामी ध्वज उठाए स्वाधीनता व गौरव व स्वतंत्रता के नारे लगाते हुए शौर्य व साहस की गाथाएं लिख रहे हैं और साम्राज्यवादियों तथा उनके पिटठुओं को अपमान की खांईयों में ढकेल रहे हैं। इस्लामी जगत में चेतना की इस लहर ने साम्राज्यवादियों के सारे समीकरणों को बिगाड़ कर रख दिया है।

 

दूसरी ओर राजनीति और विज्ञान के क्षेत्रों में इस्लाम की स्वर्णिम शिक्षाओं और नवीन तकनीक के आधार पर विकसित इस्लामी विचारधारा और उसके विकास की प्रक्रिया ने यह सिद्ध कर दिया कि इस्लाम एक जीवित जीवनशैली है जो इस्लामी जगत के बुद्धिजीवियों और सदस्यों के लिए मार्ग खोल सकती है। कल की साम्राज्यवादी शक्तियां जो आज नये रूप में पुराना काम कर रही हैं, अपनी धूर्ततापूर्ण नीतियों द्वारा एक ओर तो इस्लामी जगत में रूढ़िवादी विचारधारा को फैला रही थीं और दूसरी ओर उसे, विदेशी विचारधाराओं के अंधे अनुसरण के जाल में उलझाए हुए थीं किंतु अब वे स्वंय इस्लामी विचारधारा और उसके विकास के सामने असहाय दिखायी दे रही हैं।

 

इस समय साम्राज्यवादी शक्तियां , इस्लामी जगत के विरूद्ध जो शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियां कर रही हैं वह उनकी शक्ति व आत्मविश्वास के कारण नहीं बल्कि उनकी बौखलाहट का परिणाम है। वह इस्लामी शक्ति को भांप चुकी हैं, उन्हें इस्लामी शक्ति की व्यापकता और इस्लामी शासन से ख़तरा है। यह शक्तियां उस दिन की कल्पना से ही कांप जाती हैं जब इस्लामी जगत पूरी एकजुटता के साथ उठ खड़ा हो। क्यों उस दिन इस्लामी राष्ट्र, अपनी प्राकृतिक संपत्ति, महान इतिहासिक व सांस्कृतिक धरोहरों, भौगोलिक व्यापकता और असंख्य श्रम शक्ति के बल पर, उन वर्चस्ववादी शक्तियों के हाथ तोड़ देगा जो २०० वर्षों से उनका खून चूसती और उसके सम्मान को अनदेखा करती आ रही हैं।

 

इस्लामी आंदोलन और इस्लामी क्रांति से आशय अंधविश्वासों और अत्याचारी शासनों के विरुद्ध आंदोलन है। जो मानवता को जंजीरों में जकड़े हुए अत्याचार व भेदभाव व जातिवाद व अश्लीलता के सहारे अपने हितों की पूर्ति करते हैं और विवश समूदायों का शोषण करते हैं । इस्लामी आंदोलन वास्तव में दो व्यवस्थाओं के मध्य टकराव का नाम है। एक विचारधारा मनुष्यों को दासता पर विवश करती है तो दूसरी विचारधारा में मनुष्यों की स्वतंत्रता मूल उद्देश्य है। इसी लिए कोई भी इस्लामी आंदोलन हो उसे विश्व की साम्राज्यवादी शक्तियों से टकराने के लिए सदैव तैयार रहना चाहिए।

 

कई शताब्दियों के पतन व पिछड़ेपन के बाद इस समय इस्लामी जगत के कोने कोने में मुसलमान राष्ट्र चेतना और ईश्वर के लिए उठ खड़े हुए हैं। स्वतंत्रता व स्वाधीनता तथा इस्लाम व क़ुरआन की ओर वापसी की सुगंध, इस समय बहुत से इस्लामी देशों में महसूस की जा सकती है। इस्लामी चेतना का यह अर्थ नहीं है कि वह सभी राष्ट्र जो इस चेतना का भाग हैं वह वह पूरे तार्किक प्रमाणों व वैचारिक तर्कों के साथ इस्लामी व्यवस्था के आधारों का ज्ञान रखते हैं बल्कि इसका अर्थ यह है कि हर स्थान पर मुसलमानों में इस्लामी पहचान प्राप्त करने की इच्छा दिखायी दे रही है जो निश्चित रूप से एक अच्छा संकेत है।

सोमवार, 17 मार्च 2014 07:10

आयतुल्लाह जवादी आमुली

आयतुल्लाह जवादी आमुली

सामान्य रूप से विचारक, बुद्धिजीवी और जागरूक लोग अपनी मूल्यवान पुस्तकें और आलेख यादगार के रूप में छोड़ते हैं। ईरान के समकालीन बुद्धिजीवी व दर्शनशास्त्री आयतुल्लाह जवादी आमुली ने भी बहुत ही मूल्यवान पुस्तकें लिखी हैं जो सत्य की खोज करने वालों का मार्गदर्शन कर सकती हैं। इस बुद्धिजीवी की पुस्तकों पर एक दृष्टि डालने से यह पता चल जाता है कि उनकी मुख्य चिंता, मनुश्य की पहचान और उसके विभिन्न आत्मिक पहुलओं पर दृष्टि डालना थी। जिस प्रकार से कि पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही व सल्लम के पवित्र कथन में आया है कि जिसने स्वयं को पहचान लिया, उसने अपने ईश्वर को पहचान लिया। इस आधार पर परिणाम यह निकला कि मनुष्य की स्वयं की और अपने अस्तित्व के विभिन्न आयामों की पहचान, ईश्वर की पहचान का कारण बनती है। ईश्वर की श्रेष्ठतम सृष्टि के रूप में मनुष्य बहुत से आत्मिक व व्यक्तिगत पहलुओं का स्वामी होता है और महापुरुषों के कथनानुसार मनुष्य की पहचान के लिए उसके भौतिक बंधनों को तोड़ना और उसकी परतों को हटाना चाहिए ताकि उसके अस्तित्व की वास्तविकता को पहचान सकें।

 

इस प्रकार से आयतुल्लाह जवादी आमुली ने अपनी मूल्यवान पुस्तकों में मनुष्य के विभिन्न आत्मिक आयामों में प्रभाव डालने और इस संबंध में उसकी उचित पहचान को अपने संबोधकों के सामने रखने का प्रयास किया। इस कार्यक्रम के दौरान आयतुल्लाह जवादी आमुली की कुछ विचारधाराओं से परिचित होंगे।

महिला, एक मूल्यवान व महत्त्वपूर्ण अस्तित्व है जिसके बारे में विभिन्न मतों व विचारधारओं ने भिन्न दृष्टिकोण बयान किए हैं। इन विचारधाराओं में से कुछ ने तो महिलाओं के योग्य स्थान से उसे गिरा दिया और पुरुषों से उसके महत्त्व को कम दर्शाया और कुछ लोगों ने महिला के स्थान को गुम ही कर दिया। आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इस्लामी कथनों और आयतों से लाभ उठाते हुए महिलाओं के वास्तविक स्थान को बहुत ही सुन्दरता से स्पष्ट किया है। उन्होंने ज़न दर आइनये जलाल व जमाल नामक पुस्तक में महिलाओं के महत्त्वपूर्ण अस्तित्व को बहुत ही सुन्दर ढंग से चित्रित किया है।

 

आयतुल्लाह जवादी आमुली ने अपनी पुस्तक के पहले भाग में समाज व परिवार में क़ुरआन की दृष्टि में महिलाओं की भूमिका और स्थान की समीक्षा की है। वे बयान करते हैं कि समस्त महिलाओं व पुरुषों की सृष्टि का उद्देश्य एक ही है और महिला व पुरुष व्यक्तिगत रूप से एक दूसरे से श्रेष्ठ नहीं हैं। इस प्रकार से जिस तरह पुरुष मानवीय परिपूर्णता व अध्यात्म के ऊंचे दर्जे तक पहुंच सकते हैं, उसी प्रकार महिलाएं भी परिपूर्णता के उस शिखर तक पहुंच सकती हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली स्पष्ट करते हैं कि ईश्वरीय दूत तीन मुख्य आधारों अर्थात सृष्टि की पहचान, प्रलय की पहचान और ईश्वरीय दूतों की पहचान के आधार पर लोगों को निमंत्रण देते थे किन्तु उन्होंने पुरुषों के लिए विशेष आमंत्रण पत्र नहीं भेजा बल्कि उन्होंने इन्हीं तीनों आधारों से महिलाओं को भी निमंत्रण दिया। पवित्र क़ुरआन के सूरए यूसुफ़ की आयत संख्या 108 में पैग़म्बर की ज़बानी कहा गया है कि आप कह दीजिए कि यही मेरा रास्ता है कि मैं दूरदर्शिता के साथ ईश्वर की ओर निमंत्रण देता हूं और मेरे साथ मेरा अनुसरण करने वाला भी है और पवित्र व आवश्यकतामुक्त ईश्वर है मैं अनेकेश्वरवादियों में से नहीं हूं।

आयतुल्लाह जवादी पुस्तक के अन्य भाग में सूरए तहरीम की आयत क्रमांक 10 से 12 की ओर संकेत करते हुए पवित्र क़ुरआन की दृष्टि में उदाहरणीय महिलाओं का उल्लेख करते हैं। हज़रत ईसा मसीह की माता हज़रत मरियम और फ़िरऔन की पत्नी आसिया जैसी इतिहास की महान व आदर्श महिलाएं हैं कि जो ईश्वर का आदेश मानने वालों के लिए बेहतरीन उदाहरण हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली बल देते हैं कि यह उदाहरणीय महिलाएं महिलाओं के लिए आदर्श थीं बल्कि उनका व्यवहार और क्रियाकलाप पुरुषों के लिए भी आदर्श था।

 

आयतुल्लाह जवादी आमुली धार्मिक जानकारियों के साथ अंतर्ज्ञान व परिज्ञान के अथाह सागर के स्वामी भी है कि जिन्होंने ईश्वरीय ज्ञान के सोते से बहुत से प्यासों को तृप्त किया। वे परिज्ञान व शौर्य को एक दूसरे से जुड़ा समझते हैं। यह इस अर्थ में है कि इस्लामी परिज्ञान मनुष्य के अलग थलग पड़ने और सब कुछ छोड़ने का कारण नहीं बनता बल्कि यह अंतर्ज्ञानी को समाज की ओर भेजता है ताकि वह लोगों का ईश्वर की सही पहचान और धर्म की ओर मार्गदर्शन करे। इस प्रकार से आयतुल्लाह जवादी आमुली बड़ी ही सूक्षमता के साथ इस्लामी परिज्ञान को झूठे और ढोंगी परिज्ञान से कि जो मनुष्य को संसार से अलग थलग करने और सब कुछ छोड़ने का अह्वान करता है, अलग करते हैं। आयतुल्लाह जवादी आमुली की एक अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तक हमासा व इरफ़ान अर्थात शौर्य व परिज्ञान है जिसका मुख्य विषय शौर्य व परिज्ञान तथा इन दोनों का संबंध है। आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इस पुस्तक के दूसरे भाग में आशूर की ऐतिहासिक घटना का वर्णन किया है। वे आशूर की ऐतिहासिक घटना के अमर होने के रहस्य को इस प्रकार बयान करते हैं कि करबला की घटना के अमरत्व होने का रहस्य भी कि जो मुख्य रूप से एक दिन से भी कम में और इस्लामी धरती के एक छोटे से भाग में घटी, यही है कि करबला की ऐतिहासिक घटना का सदैव से इतिहास में श्रेष्ठ स्थान रहा है और यह इस्लामी इतिहास के सिर पर मुकट की भांति चमक रही है। इसका मुख्य कारण यह है कि इस शौर्य गाथा को रचने वाले सामान्य लोग नहीं थे बल्कि यह वही लोग थे जिन्होंने विशुद्ध परिज्ञान को अपने शौर्य व साहसी युद्ध से मिश्रित कर दिया था।

आयतुल्लाह जवादी आमुली शकुफ़ाइये अक़्ल दर परतवे नहज़ते हुसैनी अर्थात हुसैनी आंदोलन की छत्रछाया में बुद्धि का निखार नामक पुस्तक में, इमाम हुसैन के आंदोलन को उनकी चिंतन का परिणाम बताते हैं। जैसा कि पुस्तक के नाम से ही स्पष्ट है, लेखक ने आशूरा के आंदोलन की विशेषताएं विशेषकर इस आंदोलन में बुद्धि की भूमिका को स्पष्ट करने का प्रयास किया और परिणाम स्वरूप मनुष्य में तत्वदर्शिता और चिंतन मनन की प्रक्रिया को जागरूक किया। चूंकि प्रत्येक क्रांति उसके नेता के विचारों और दृष्टिकोणों से प्रतिबिंबित होती है, इसीलिए अपने ईश्वरीय आंदोलन के मार्ग में इमाम हुसैन की करनी व कथनी में चिंतन करने से वह बातें व वह शब्द मिलते हैं जिनमें ज्ञान व परिज्ञान के अथाह सागर निहित हैं।

इस पुस्तक के आरंभ में लेखक हज़रत इमाम हुसैन के आचरण व व्यवहार को बयान करते हैं और बल देते हैं कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम अपने नाना की भांति लोगों को विशुद्ध इस्लाम धर्म व पवित्र क़ुरआन की ओर आमंत्रित करते थे। उसके बाद लेखक इमाम हुसैनी अलैहिस्सलाम के आंदोलन के सिद्धांत बयान करता है और इस संबंध में लोगों में क्रांति की ज्वाला भड़काने और इमाम हुसैन की गतिविधियों को बयान करता है। उसके बाद लेखक इमामों की संतानों और हुसैनी आंदोलन के प्रभावों को जारी रखने में धर्मगुरूओं व धार्मिक केन्द्रों के स्थानों व उनकी भूमिकाएं जो बुद्धि का निखार हैं, बयान करते हैं।

 

अल्लामा जवादी आमुली ने इस्लाम धर्म की पहचान और उसकी कल्याणमयी भूमिका को भी कई स्थानों पर बयान किया है। उन्होंने इस चीज़ को बयान करने के लिए एक पुस्तक लिखी जिसका अनुवाद है धर्म से मनुष्य की आशा। महान बुद्धिजीवी जीवन में धर्म और मनुष्य के लोक परलोक के कल्याण की पूर्ति में धर्म को अतिआवश्यक समझते हैं। उदाहरण स्वरूप ख़्वाजा नसिरुद्दीन तूसी और अबू अली सीना का मानना है कि आदर्श नगर या कल्याणमयी समाज के लिए धर्म और उसकी शिक्षाओं की आवश्यकता होती है। आयतुल्लाह जवादी धर्म की परिभाषा करते हुए कहते हैं कि ईश्वरीय धर्म, क़ानूनों, नियमों व आस्थाओं के उस समूह को कहते हैं जिसे ईश्वर ने लोगों के मार्गदर्शन के लिए भेजा है ताकि मनुष्य इसकी छत्रछाया में अपनी आंतरिक इच्छाओं पर नियंत्रण करे और अपनी स्वतंत्रता को सुनिश्चित करे। वे परिपूर्णता की पहचान में बुद्धि के परिपक्व न होने के दृष्टिगत कहते हैं कि मनुष्य के कल्याण की आपूर्ति और मार्दर्शन के लिए बुद्धि पर्याप्त नहीं है बल्कि बुद्धि को कुछ वास्तविकताओं की पहचान और उसके विकास के लिए धर्म की आवश्यकता होती है क्योंकि कुछ विषयों की पहचान में बुद्धि असहाय है और उसे सत्य व असत्य की पहचान में समस्याओं का सामना करना पड़ता है। यह धर्म ही है जो बुद्धि को जीवन की व्याख्या, संसार की पहचान और सृष्टि व प्रलय की पहचान में सहायता प्रदान करता है। प्रोफ़ेसर जवादी आमुली इस विषय का अधिक विवरण देते हुए कहते हैं कि उदाहरण स्वरूप मनुष्य की बुद्धि, ईश्वर के कुछ गुणों को जैसे समअ अर्थात सुनना, बसर अर्थात देखना, ईश्वरीय संवाद और इसी प्रकार प्रलय की वास्तविकता और प्रलय में क्या होगा या प्रलय कैसे आएगी और ईश्वरीय आदेशों को पूर्ण रूप से समझ नहीं सकती। एक ओर मनुष्य की बुद्धि की सीमित्ता और दूसरी ओर मनुष्य के लिए क़ानून का आवश्यक होना, इस बात को आवश्यक करता है कि ईश्वर भी एक क़ानून निर्धारित करे और क़ानूनों को लागू करने के लिए पैग़म्बर भेजे ताकि वह लोगों के मध्य क़ानून लागू करके ईश्वर और बंदों के मध्य संपर्क स्थापित करें और उनके कल्याण को सुनिश्चित करें।

 

आयतुल्लाह जवादी आमुली का मानना है कि लोगों के लिए धर्म के समस्त महत्त्व के अतिरिक्त धर्म के सबसे महत्त्वपूर्ण लाभों में से एक यह है कि जीवन अर्थ प्रदान करता है और उसे ख़ालीपन व लक्ष्यहीन होने से मुक्त करता है। इस प्रकार के प्रश्न हम कहां से आएं हैं, हम क्यों आए हैं और हमें कहां जाना है? अर्थात हमारी सृष्टि किसने की, हमारी सृष्टि का लक्ष्य क्या है और हमें मर के कहां जाना है। यह वह मूल प्रश्न हैं जिनका उत्तर केवल धर्म ही के पास है। आयतुल्लाह जवादी आमुली इस संबंध में कहते हैं कि वास्तविकता यह है कि बुद्धि के पास इन प्रश्नों का पर्याप्त उत्तर नहीं है। इस प्रकार से यह प्रश्न अब भी मौजूद है कि मनुष्य अपने जीवन के सही अर्थ को समझने में असहाय है। धर्म के लाभों में से एक यह है कि धर्म, मनुष्य की सृष्टि, प्रलय और उसकी सृष्टि के लक्ष्य को बयान करके उसके जीवन को अर्थ प्रदान करते हैं। आयतुल्लाह जवादी मनुष्य की आइडियालाजी में धर्म की भूमिका के बारे में कहते हैं कि धर्म के सार को इस वास्तविकता में खोजा जा सकता है कि धर्म वास्तव में संसार को देखने का प्रयास है, एक अर्थपूर्ण वास्तविकता के रूप में है।

 

आयतुल्लाह जवादी आमुली ने इन्तेज़ारे बशर अज़ दीन अर्थात धर्म से मनुष्य की अपेक्षाएं नामक पुस्तक में, समाज में ईश्वरीय व धार्मिक क़ानूनों के पाये जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। वे लिखते हैं कि चूंकि मनुष्य की प्रवृत्ति सामाजिक जीवन व्यतीत करने की है और बिना क़ानून के समाज, वैसा ही समाज होगा जिसमें मनुष्य की आत्ममुग्धता के कारण तनाव और मतभेद फैलता है। एक अंधे क़ानूनी समाज में व्यवस्था के न होने के कारण मनुष्य की जानी व माली सुरक्षा छिन जाती है, इस प्रकार से कि मनुष्य को एक ऐसी परंपरा व क़ानून की आवश्यकता होती है जिसके सामने समस्त लोग नतमस्तक हों और जिसके क्रियान्वयन की छत्रछाया में समाज में क़ानून और सुरक्षा स्थापित हो। स्वाभाविक रूप से एक समाज के क़ानून को ऐसे लोगों की ओर बनाया जाना चाहिए जिसे समाज के लोग श्रेष्ठ और उत्तम समझते हों। इसीलिए ईश्वर ने पैग़म्बरों को भेजा ताकि वह लोगों को ईश्वर की उपासना व आज्ञापालन की ओर प्रेरित करें और उन्हें पापों से रोकें।

सोमवार, 17 मार्च 2014 07:06

आयतुल कुर्सी

आयतुल कुर्सी

अहमद बड़ी ग़मगीन हालत में अपनी दादी के बारे में सोच रहा था। पुरानी यादों के साथ-साथ आँसुओं का एक सैलाब उसकी आँखों से जारी था। परदेस में दादी की मौत की ख़बर ने उसे हिला कर रख दिया था।

 

काग़ज़ों और फ़ाइलों से भरी हुई डेस्क पर सर रखे हुए वह अपनी दादी को याद कर रहा था। दादी माँ के साथ गुज़ारा हुआ हर पल उन के मुस्कुराते हुए चेहरे के साथ उसकी आँखों के सामने मौजूद था। न तो यादें धुंधली हुई थीं और न ही उनका चेहरा।

दादी माँ उसे बहुत चाहती थीं। वैसे सब की दादी मुहब्बत करने वाली होती हैं लेकिन अहमद को अपनी दादी की चाहत बहुत ख़ास और अलग दिखाई देती थी। शायद इसकी वजह यह थी कि उसके पापा और अम्मी दोनों सर्विस करते थे और वह घर का इकलौता बेटा था। पापा और अम्मी दोनों सुब्ह ऑफ़िस के लिए निकल जाते थे और शाम में लौट कर आते थे। उसे स्कूल के लिए तैयार करना, टिफ़िन देना और स्कूल बस में बैठाना दादी का ही काम था। स्कूल से लौटने के बाद भी दोपहर का खाना और फिर टूयुशन-टीचर को नाश्ता देना भी उन्हीं की ज़िम्मेदारी थी। इस वजह से वह दादी माँ से बहुत क़रीब हो गया था।

वह उन्हें परेशान भी बहुत करता था। कुछ शरारतें सोच कर अहमद बहते हुए आँसुओं के बीच मुस्कुराने लगा।

उसे दादी माँ की झुर्रियों पर हाथ फेरना बहुत अच्छा लगता था। वह जब भी दादी माँ को सोते हुए या कोई काम करते हुए देखता था तो उनके चेहरे और हाथ की झुर्रियों को छूता और उन पर हाथ फैरता था। दादी ग़ुस्से से चिल्लातीं "अभी तुझे बताती हूँ" और जैसे ही वह यह कहने के लिए अपना मुँह खोलतीं तो वह बहुत संजीदा होकर कहता, "अरे यह क्या! आप के मुँह में तो दाँत भी नहीं हैं। आप ज़रूर रात में मिठाई खाती होंगी और ब्रश किये बिना ही सो जाती होंगी और इस लिए चूहे रात में आकर आप के सारे दाँत ले गऐ हैं।" यह सुन तो दादी अपनी लाठी उठा लेती थीं। तब वह उन से कहता था कि आप मुझे बता दीजिए कि आप ने किस तरह अपनी खाल इस तरह बना ली है ताकि मैं भी अपनी खाल इसी तरह कर लूँ। फिर आप को परेशान नहीं करूंगा। यह कहते-कहते वह भाग कर दूर निकल जाता और दादी थोड़ी दूर लाठी उठा कर चलने के बाद खड़ी हो जाती थीं और कहती थीं, अब जब मेरे पास आओगे तो बताऊंगी।

लेकिन वह जानता था कि दादी माँ सच में ग़ुस्सा नहीं करती हैं बल्कि शायद उन्हें यह अच्छा भी लगता है। इस लिए तो बात में कुछ भी नहीं कहती थीं।

दादी माँ की सब से ख़ास बात यह थी कि वह सब को बीमारी में क़ुरआन की आयतें लिख कर देती थीं। वह किसी भी बीमार को ख़ाली हाथ नहीं जाने देती थीं। लेकिन इस से भी ज़्यादा ख़ास बात यह थी कि उन्हें जिन बीमारियों का नाम भी नहीं मालूम था बल्कि वह नई-नई बीमारियाँ जिन का नाम सुनने के बाद भी उसे दोहरा नहीं पाती थीं वह उन बीमारियों के लिए भी कोई न कोई आयत ढ़ूँढकर दे ही देती थीं।

इस के साथ उसे अपनी एक शरारत भी याद आ गई। उसे खेल में चोट लग गई थी और वह दवा लेने के लिए बाहर जा रहा था। तभी दरवाज़े पर रुक कर उसने कहा, "दादी आप अपने मेडिकल स्टोर से कोई दवा दे दीजिए ना।"

"मेरा कौन सा मेडिकल स्टोर है" दादी माँ ने अपना चश्मा सही करते हुए कहा।

"अरे वही जिस से आप सब को दवाएं देती हैं।" दादी माँ समझ गई थीं और फिर तो देखने वाला मंज़र था कि उन्हों ने किस तेज़ी से उठ कर अपनी लाठी उठाई थी। आज बताती हूँ तूझे, और कुछ देर के बाद वह उसके सर पर लाठी उठाए हुए थीं और वह आगे-आगे कान पकड़े हुए चल रहा था। क़ुरआन के पास पहुंचने के बाद उन्हों ने कहा, "चलो इसे चूमो" और उसने चूमने से पहले कनखियों से दादी माँ को देखा और जल्दी से डर कर क़ुरआन को चूम लिया। "अब कभी ऐसी बात न सुनूँ" जी दादी माँ कह कर वह बाहर निकल गया। शायद ज़िन्दगी में पहली और आख़िरी बार दादी में सच में ग़ुस्सा हुई थीं और उसे भी पहली बार उन से डर लगा था।

दवा लाने के बाद फिर वही अहमद था और उसकी वही चाहने वाली दादी।

दादी माँ ने ही उसे क़ुरआन पढ़ना सिखाया था और सूर-ए-हम्द, इन्ना आतैना और क़ुल हुवल्लाह याद कराने के बाद आयतलकुर्सी भी याद कराई थी। यह सोच कर उसने डेक्स पर रखा हुआ क़ुरआन खोल लिया और आयतलकुर्सी निकाल कर पढ़ने लगा।

"अल्लाहू ला-इला-ह इल्ला हु-व"

अल्लाह के अलावा कोई ऐसा नहीं है कि जिसकी इबादत की जाए और जिसे ख़ुदा माना जाए। इसका तो पहसला ही जुमला बहुत ख़ास है। अगर इस जुमले को फैला दिया जाए तो पूरा इस्लाम बन जाए और अगर पूरे इस्लाम को समेट कर एक जुमले में बयान करना चाहें तो यही जुमला पेश किया जा सकता है क्यों कि इस्लाम के हर अक़ीदे और अमल की बुनियाद यही तौहीद यानी एक ख़ुदा को मानना और उस पर ईमान लाना है।

तौहीद का मतलब सिर्फ़ यह नहीं है कि ख़ुदा दो नहीं है, एक है बल्कि इसका मतलब यह है कि हमारा ख़ालिक़ और मालिक और इस दुनिया को चलाने वाला जिस के हाथ में सब कुछ है वह सिर्फ़ ख़ुदा है। ख़ुदा की तरफ़ से हर आने वाले नबी और मासूम इमामों ने यही पैग़ाम पहुंचाया है।

"अल-हय-युल क़ैय-यूम"

वह ज़िन्दा है लेकिन दूसरों की तरह से नहीं यानी दूसरी ज़िन्दा मख़लूक़ की ज़िन्दगी अपनी नहीं है बल्कि उन को यह ज़िन्दगी ख़ुदा ने दी है और वह अपनी ज़िन्दगी बाक़ी रखने के लिए भी ख़ुदा की मोहताज हैं। लेकिन ख़ुदा ऐसा नहीं है क्यों कि वह किसी का मोहताज नहीं है और सब को उसकी ज़रूरत है और वही सब को बाक़ी रखे हुए है।

"ला ताख़ुज़ु-हू सि-न-तुँ वला नौम"

न तो उसे ऊँघ आती है और न ही नींद। हर ज़िन्दा मख़लूक़ को ऊँघ और नींद आती है जिसकी वजह से वह हर वक़्त काम नहीं कर सकते हैं लेकिन जो पूरी दुनिया का चलाने वाला हो उसे तो ऐसा ही होना चाहिए कि उसे ऊँघ और नींद न आए वरना यह दुनिया ख़त्म हो जाएगी।

और इसका मतलब यह है कि वह दोपहर का शोर-शराबा हो या रात का सन्नाटा, ख़ुदा को किसी भी वक़्त पुकारा जा सकता है और उस से हर वक़्त बात की जा सकती है।

"लहू मा फिस्समा-वाति वमा फ़िल अर्ज़"

ज़मीन और आसमान में जो कुछ है वह ख़ुदा का है। यह भी बहुत अहम जुमला है क्यों कि अगर हम दिल से मान लें कि ज़मीन व आसमान में जो कुछ है वह ख़ुदा का ही है तो, हम ने दुनिया की हर चीज़ के बारे में अपनी ज़िम्मेदारी का एहसास हो जाएगा क्यों कि यह चीज़ें हमारी या हमारे जैसे दूसरों की नहीं बल्कि अस्ल में ख़ुदा की हैं। हम हर काम और हर चीज़ के बारे में ख़ुदा पर भरोसा करना सीख जाएंगे। हमें इस बात का भी एहसास हो जाएगा कि हम भी ख़ुदा के लिए ही हैं और उसी के बन्दे हैं।

"मन ज़ल-लज़ी यश-फ़उ इन्दहू इल्ला बि-इज़-निही"

उसकी इजाज़त के बिना कोई शिफ़ाअत नहीं कर सकता। इसका मतलब यह है कि शिफ़ाअत पार्टी बाज़ी नहीं है। शिफ़ाअत का मतलब है मीडियम बनना। अम्बिया और इमाम इंसानों तक ख़ुदा का पैग़ाम पहुंचाने का ज़रिया हैं और इस तरह वह इस दुनिया में इंसानों की शिफ़ाअत करते हैं। इल पैग़ाम पर अमल करने में जो लोग ग़लतियां कर देते हैं अम्बिया और इमाम ख़ुदा के सामने उनकी शिफ़ाअत करेंगे।

शिफ़ाअत, शिफ़ाअत करने वाले और शिफ़ाअत होने वाले को एक दूसरे से नज़दीक करती है और इस तरह यह शिफ़ाअत होने वाले की तरबियत का एक ज़रिया है।

"यअ-लमु मा बैना ऐ-दी-हिम वमा ख़ल-फ-हुम"

आम तौर पर शिफ़ाअत करने वाले जिसकी शिफ़ाअत करते हैं उसके बारे में कोई नई बात पेश कर देते हैं लेकिन ख़ुदा के सामने ऐसा कुछ नहीं हो सकता क्यों कि वह शिफ़ाअत करने वालों के बारे में भी जानता है और जिन की शिफ़ाअत की जा रही है उन को भी अच्छी तरह जानता है।

"वला युहीतू-न बि-शै-इम मिन इल्मिहि इल्ला बिमा शा-अ"

ख़ुदा जिन बातों को जानता है वह उन बातों को नहीं जानते हैं मगर कुछ चीज़ें ऐसी हैं जो ख़ुदा उन्हें बता देता है। शिफ़ाअत करने वालों का इल्म भी लिमिटेड है और उन के पास जो कुछ भी इल्म है वह ख़ुदा का ही दिया हुआ है।

"वसि-अ कुर-सि-य्यु हुस-समा-वाति वल अर्ज़"

ज़मीन व आसमान पर ख़ुदा का कंट्रोल है। इस दुनिया की कोई भी चीज़ उसके इल्म, उसकी ताक़त और कंट्रोल से बाहर नहीं है।

"वला यऊ-दुहु हिफ़्ज़ु-हुमा"

वह इस ज़मीन और आसमान की हिफ़ाज़त करने से थकता भी नहीं है। बहुत से बड़े-बड़े काम करने वाले थक जाते हैं लेकिन ज़मीन व आसमान को बनाने और उन्हें बाक़ी रखने वाला ख़ुदा कभी नहीं थकता।

"व-हुवल अलिय्युल अज़ीम"

हाँ! ऐसा ख़ुदा बहुत बुलंद और अज़ीम है।

अब अहमद सोच रहा था कि आयतल कुर्सी तो बहुत अहम आयत है जिस में बहुत कुछ बयान किया गया है। इसी वजह से रिवायतों में इस की इतनी फ़ज़ीलत और अहमियत बयान की गई है और इसे हर रोज़ पढ़ने के लिए कहा गया है।

यह सोचते हुए फिर अहमद को अपनी दादी माँ की याद आ गई जिन्हों ने उसे आयतल कुर्सी याद कराई थी और उस ने दिल ही दिल में उन का शुक्रिया अदा किया। फिर नम आँखों के साथ इसका सवाब उन्हें बख़्श दिया कि शायद इस तरह उनकी मुहब्बतों और मेहनतों का कुछ हक़ अदा हो सके।