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प्रेस टीवी

रूसी विदेश मंत्री सिर्गेई लावरोफ़ ने कहा कि सीरियाई राष्ट्रपति बश्शार असद को सत्ता से हटाना पिछली अंतर्राष्ट्रीय सहमतियों का भाग नहीं है और इसे व्यवहारिक बनाना असंभव है।

उन्होंने रविवार को कहा कि यह वह पूर्व शर्त है जो गत वर्ष जून में बड़ी शक्तियों की सहमति से जारी जनेवा घोषणा पत्र में शामिल नहीं थी और इसे व्यवहारिक बनाना असंभव है।

रूसी विदेश मंत्री ने छह जनवरी को बश्शार असद द्वारा सीरिया की समस्या के समाधान के लिए प्रस्तुत की गयी योजना की ओर संकेत किया और कहा कि हो सकता है असद द्वारा उठाया गया क़दम कुछ लोगों को गंभीर न लगे किन्तु वे पेशकश हैं।

ज्ञात रहे सीरिया की समस्या के संबंध में 30 जून को जनेवा बैठक में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के सदस्य देशों के विदेश मंत्री और सीरिया के पड़ोसी देश सीरिया में एक ऐसी ट्रान्ज़िशनल सरकार के गठन पर सहमत हुए थे जिसमें सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों का प्रतिनिधित्व हो किन्तु जुलाई के आरंभ में पेरिस में सीरिया के तथाकथित मित्र देशों की बैठक में ये देश जनेवा बैठक की सहमति से पीछे हट गए और बश्शार असद से सत्ता से हटने की ज़िद्द करने लगे। रूस और चीन पश्चिम की बश्शार असद से सत्ता से हटने की मांग के मुखर विरोधी हैं।

रूस जनेवा सहमति के आधार पर सीरिया की समस्या के राजनैतिक समाधान पर बल देता है।

हाल ही में क़ुम के लोगों की उपस्थिति में इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता द्वारा दिये गए भाषण को ईरानी सांसदों ने इस्लामी राष्ट्र के लिए चेतना का प्रेरणास्रोत बताया है।

ईरानी सांसदों द्वारा रविवार को जारी किये गए एक बयान में कहा गया है कि मंगलवार को तेहरान में क़ुम के हज़ारों लोगों से मुलाक़ात में वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैय्यद अली ख़ामेनई ने देश में आगामी राष्ट्रपति चुनाव के विरुद्ध शत्रुओं द्वारा रची जा रही साज़िशों से एक बार फिर पर्दा उठाया है।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने उन लोगों की आलोचना की थी कि जो यह भ्रांति फैलाकर कि चुनाव पारदर्शी नहीं होते, पारदर्शी चुनावों के आयोजन की मांग कर रहे हैं।

बयान में उल्लेख किया गया है कि जो लोग स्वतंत्र चुनावों के आयोजन की मांग कर रहे हैं उन्हें यह जान लेना चाहिए कि ईरान में सभी चुनाव स्वतंत्र रूप से आयोजित होते हैं तथा इस संदर्भ में भ्रांति फैलाना वास्तव में दुश्मन की सहायता करना है।

क़ुरआने करीम विभिन्न प्रकार से इंसान के जीवन को प्रभावित करता है।

 

जैसे क़राअत, हिफ़्ज़, फ़ह्म और अमल के द्वारा यह प्रभाव इंसान के व्यक्तिगत और समाजिक दोनो जीवनों पर पड़ता है। यहाँ पर हम इन प्रभावों का संक्षेप में उल्लेख कर रहे हैं।

 

 

 

इंसान के व्यक्तिगत जीवन पर कराअत के प्रभाव

 

1- अल्लाह की याद

 

क़रआन पढ़ने वाला अल्लाह की याद से तिलावत शुरू करता है अर्थात कहता है कि बिस्मिल्ला हिर्रहमा निर्रहीम और यही ज़िक्र उसको अल्लाह की तरफ़ आकर्षित करता है। यूँ तो क़ुरआन पढ़ने वाला कभी भी अल्लाह की ओर से अचेत नही रहता। और यह बात उसकी आत्मा के विकास में सहायक बनती है।

 

2- हक़ के दरवाज़ों का खुलना

 

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा हैं कि बिस्मिल्लाह पढ़ कर हक़ के दरवाज़ो को खोलो। बस क़ुरआन पढ़ने के लाभों और प्रभावों में से एक यह भी है कि जब क़ुरआन पढ़ने वाला क़ुरआन पढ़ने के लिए बिस्मिल्लाह कहता है तो उसके लिए हक़ के दरवाज़े खुल जाते हैं।

 

3- गुनाह के दरवाज़ों का बन्द होना

 

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहा कि आउज़ु बिल्लाहि मिनश शैतानिर्रजीम पढ़कर गुनाहों के दरवाज़ों को बंद करो। इस तरह जब इंसान क़ुरआन पढ़ने से पहले आउज़ुबिल्लाह पढ़ता है तो इससे गुनाहों के दरवाज़े बन्द हो जाते हैं।

 

4- क़ुरआन पढ़ने से पहले और बाद में दुआ माँगने का अवसर

 

क़ुरआन पढ़ने के नियमों में से एक यह है कि क़ुरआन पढ़ने से पहले और बाद में दुआ करनी चाहिए। दुआ के द्वारा इंसान अल्लाह से वार्तालाप करता है। और उससे अपनी आवश्यक्ता की पूर्ती हेतू दुआ माँगता है। और इसका परिणाम यह होता है कि अल्लाह उसकी बात को सुनता है और उसकी आवश्यक्ताओं की पूर्ती करता है। और यह बात इंसान के भौतिक व आध्यात्मिक विकास मे सहायक बनती है।

 

5- क़ुरआन पढ़ने वाले का ईनाम

 

इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम के इस कथन का वर्णन करते हैं कि जो इंसान क़ुरआन को खोल कर इसकी तिलावत करे और इसको खत्म करे तो अल्लाह की बारगाह में इसकी एक दुआ क़बूल होती है। जी हाँ दुआ का क़बूल होना ही क़ुरआन पढ़ने वाले का इनआम है।

 

6- क़ुरआन ईमान की दृढता का कारण बनता है

 

क़ुरआने करीम के सूर ए तौबा की आयत न. 124 में वर्णन हुआ है कि जब कोई सूरह नाज़िल होता है तो इन में से कुछ लोग यह व्यंग करते हैं कि तुम में से किस के ईमान में वृद्धि हुई है। तो याद रखो कि जो ईमान लाने वाले हैं उन ही के ईमान में वृद्धि होती है और वही खुश भी होते हैं।

 

सूरए इनफ़ाल की दूसरी आयत में वर्णन होता है कि अगर उनके सामने क़ुरआन की आयतों की तिलावत की जाये तो उनके ईमान में वृद्धि हो जाये।

 

7- क़ुरआने करीम शिफ़ा (स्वास्थ्य) प्रदान करता है

 

क़रआने करीम परोक्ष रोगो के लिए दवा है। इंसान के आत्मीय रोगों का उपचार क़ुरआन के द्वारा ही होता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए फ़ुस्सेलत की आयत न. 44 के अन्तर्गत वर्णन हुआ है कि ऐ रसूल कह दीजिये कि यह किताब ईमान वालों के लिए शिफ़ा और हिदायत है। इससे यह अर्थ निकलता है कि क़ुरआन पढ़ने वाले को सबसे पहले क़ुरआन की शिफ़ा प्राप्त होती है।

 

8- अल्लाह की रहमत का उतरना

 

क़ुरआन पढ़ने वाले पर अल्लाह की रहमत की बारिश होती है।

 

9- अल्लाह की तरफ़ से हिदायत (मार्ग दर्शन)

 

क़ुरआने करीम हिदायत की किताब है। अल्लाह की तरफ़ से उन्ही लोगों को हिदायत प्राप्त होती है जो मुत्तक़ी हैं और क़ुरआन की ज़्यादा तिलावत करते हैं।

 

10- बाह्य और आन्तरिक पवित्रता

 

इंसान क़ुरआन पढ़ते समय उसके नियमों का पालन करता है। यह कार्य उसकी आत्मा के उत्थान और पवित्रता मे सहायक बनता है। जब क़ुरआन पढ़ने वाला क़ुरान पढ़ने से पहले वज़ू या ग़ुस्ल करता है तो इस कार्य से उसके अन्दर एक विशेष प्रकार का तेज पैदा होता है। जो इसकी आन्तरिक पवित्रता मे सहायक बनता है।

 

11- सेहत

 

इंसान क़ुरआन पढ़ने से पहले बहुत सी तैय्यारियाँ करता है जैसे मिस्वाक करना,वज़ू या ग़ुस्ल करना पाक साफ़ कपड़े पहनना आदि। और यह सब कार्य वह हैं जिनसे इंसान की सेहत की रक्षा होती है।

 

12- अहले क़ुरआन होना

 

क़ुरआने करीम को पढ़ने और इससे लगाव होने की वजह से इंसान पर इसके बहुत से प्रभाव पड़ते है। जिसके फल स्वरूप वह क़ुरआन का अनुसरण करने वाला व्यक्ति बन जाता है। अर्थात उसके अन्दर क़ुरआनी अखलाक़, आस्था और पवित्रता पैदा हो जाती है।दूसरे शब्दों मे कहा जा सकता है कि वह क़ुरआन के रंग रूप में ढल जाता है।

 

13- विचार शक्ति का विकास

 

जब इंसान क़ुरआन पढ़ता है और उसके भाव में चिंतन करता है तो इस चिंतन फल स्वरूप उसकी विचार शक्ति की क्षमता बढती है। जिसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। विशेष रूप से उसके ज्ञान के क्षेत्र को प्रभावित करता है।

 

14- आंखोँ की इबादत

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने फ़रमाया कि क़ुरआन के शब्दों की तरफ़ देखना भी इबादत है। यह इबादत केवल उन लोगो के भाग्य मे आती है जो क़ुरआन को पढ़ते हैं।

 

15- संतान का प्रशिक्षण

 

जब माता पिता हर रोज़ पाबन्दी के साथ घर पर क़ुरआन पढ़ते हैं तो उनकी संतान पर इसके बहुत अच्छे प्रभाव पड़ते हैं। इस प्रकार इस कार्य से अप्रत्यक्ष रूप से उनका प्रशिक्षण होता है। जिसके फल स्वरूप वह धीरे धीरे क़ुरआन के भाव से परिचित हो जाते हैं।

 

16- गुनाहों का कफ़्फ़ारा

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने कहा कि क़ुरआन पढ़ा करो क्यों कि यह गुनाहों का कफ़्फ़ारा है।

 

17- दोज़ख की ढाल

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने कहा कि क़ुरआन का पढ़ना दोज़ख (नर्क) के लिए ढाल है और इसके द्वारा इंसान अल्लाह के अज़ाब से सुरक्षित रहता है। जी हाँ अगर कोई इंसान क़ुरआन को पढ़े और उसकी शिक्षाओं पर क्रियान्वित हो तो उसका रास्ता नरकीय लोगों से अलग हो जाता है।

 

18- अल्लाह से वार्तालाप

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने कहा कि अगर तुम में से कोई व्यक्ति यह इच्छा रखता हो कि अल्लाह से बाते करे तो उसे चाहिए कि वह क़ुरआन को पढ़े।

 

19- क़ुरआन पढ़ने से दिल ज़िन्दा होते हैं

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने कहा कि क़ुरआन दिलों को ज़िन्दा करता है और बुरे कार्यों से रोकता है।

 

20- क़ुरआन पढ़ने से दिलों का ज़ंग भी साफ़ हो जाता है।

 

हज़रत रसूले अकरम स. ने कहा कि इन दिलों पर इस तरह ज़ंग लग गया है जिस तरह लोहे पर लग जाता है। प्रश्न किया गया कि फिर यह कैसे चमकेगें? रसूल अकरम स. ने उत्तर दिया कि क़ुरआन पढ़ने से।

 

21- क़ुरआन पढ़ने से इंसान बुरईयों से दूर रहता है।

 

अगर इंसान क़ुरआन पढ़कर क़ुरआन के आदेशों का पलन करे तो वह वास्तव में बुराईयों से दूर हो जायेगा।

 

नोट--- यह लेख डा. मुहम्मह अली रिज़ाई की किताब उन्स बा क़ुरआन से लिया गया है। परन्तु अनुवाद की सुविधा के लिए कुछ स्थानों पर कमी ज़्यादती की गई है।

पाकिस्तान के क्वेटा में आतंकवादी आक्रमण में शहीद होने वालों के परिजनों का धरना 40 से अधिक घंटे गुज़रने के बाद भी जारी है।

प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार भीषण ठंड और वर्षा के बावजूद परिजन अपने 95 प्यारों के शव अलमदार रोड पर साथ लिए बैठे हैं। प्रदर्शनकारियों ने मांगों के पूरा होने तक शहीदों को दफ़न करने से इन्कार कर दिया है। प्रदर्शनकारियों में महिलाएं, वृद्ध और बच्चे भी शामिल हैं। प्रदर्शनकारियों की मांग है कि सेना क्वेटा नगर का प्रबंध संभाले। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ़ ने मामले पर नोटिस लेते हुए सूचना मंत्री क़मर ज़मान कायरा को क्वेटा पहुंचने का निर्देश दिया है जबकि मृतकों के परिजनों को दस दस लाख रुपये देने की भी घोषणा की गयी है। ज्ञात रहे कि क्वेटा में इससे पूर्व भी विभिन्न घटनाओं में हज़ार कम्युनीटी को निशाना बनाया जा चुका है किन्तु आज तक इन घटनाओं के संबंध में किसी को गिरफ़्तार तक नहीं किया जा सका है और न ही इन घटनाओं की रोकथाम के लिए कोई ठोस कार्यवाही की गयी है।

विदेशमंत्रालय के प्रवक्ता रामीन मेहमान परस्त ने पाकिस्तान के क्वेटा में आतंकवादी आक्रमणों की कड़ी निंदा करते हुए पाकिस्तान सरकार और शहीदों के परिजनों को संवेदना प्रस्तुत की है।

उन्होंने कहा कि इन आक्रमणों का उद्देश्य पाकिस्तान में धार्मिक तनाव फैलाना और शीया मुसलमानों और सुन्नियों के मध्य विवाद उत्पन्न करना है। विदेशमंत्रालय के प्रवक्ता ने शहीदों के परिजनों से सहृदयता व्यक्त करते हुए आतंकवादी गुटों के भयावह अपराध की निंदा की है।

क़ुरआने मजीद और औरतें

इस्लाम में औरतों के मौज़ू पर ग़ौर करने से पहले इस नुक्ता को पेशे नज़र रखना

ज़रूरी है कि इस्लाम ने इन अफ़कार का मुज़ाहिरा उस वक़्त किया है जब बाप अपनी बेटी को ज़िन्दा दफ़्न कर देता था। और उस जल्लादीयत को अपने लिये बाईसे इज़्ज़त व शराफ़त तसव्वुर करता था। औरत दुनिया के हर समाज में इन्तेहाई बेक़ीमत मख़लूक़ थी। औलाद माँ को बाप के तरके में हासिल किया करती थी। लोग निहायत आज़ादी से औरत का लेन देन किया करते थे।और उसकी राय की कोई क़ीमत नही थी। हद यह है कि यूनान के फ़लासिफ़ा इस नुक्ता पर बहस कर रहे थे कि उसे इंसानों की एक क़िस्म क़रार दिया जाये या यह एक ऐसी इंसान नुमा मख़लूक़ है जिसे इस शक्ल व सूरत में इंसान के उन्स व उल्फ़त के लिये पैदा किया गया है ताकि उससे हर क़िस्म का इस्तेफ़ादा कर सके वर्ना उसका इंसानीयत से कोई लअल्लुक़ नही है।

दौरे हाज़िर में आज़ादी ए निसवाँ और तसावी ए हुक़ुक़ का नारा लगाने वाले और इस्लाम पर तरह तरह के इल्ज़ामात आएद करने वाले इस हक़ीक़त को फ़ूल जाते हैं कि औरतों के बारे में इल तरह की बाईज़्ज़त फ़िक्र और उसके सिलसिले में हुक़ुक़ का तसव्वुर भी इस्लाम का दिया हुआ है वर्ना उसने ज़िल्लत की इन्तेहाई गहराई से निकाल कर ईज़्ज़त के औज पर न पहुचा दिया होता तो आज भी कोई उसको बारे में इस अंदाज़ से सोचने वाला न होता। यहूदीयत और ईसाईयत तो इस्लाम इस्लाम से पहले भी थी, फ़लासिफ़ा व मुफ़क्केरीन तो इस्लामी क़वानीन के आने से पहले भी इन मौज़ूआत पर बहस किया करते थे। उन्हे उस वक़्त इस आज़ादी का ख़्याल क्यों नही आया। और उन्होने उस दौर में मसावी ए हुक़ुक़ का नारा क्यों नही लगाया। यह आज औरत का अज़मत का ख़्याल कहाँ से आ गया। और उसकी हमदर्दी का इस क़दर जज़्बा कहाँ से पैदा हो गया?

दर हक़ीक़त यह इस्लाम के बारे में अहसान फ़रामोशी के अलावा कुछ नही है कि जिसने तीर अंदाज़ी सिखाई उसी को निशाना बना दिया, और जिसने आज़ादी और हुक़ुक़ का नारा दिया उसी पर इल्ज़ाम आएद कर दिये। बात सिर्फ़ यह है जब दुनिया को आज़ादी का ख़्याल पैदा हुआ तो उसने यह ग़ौर करना शुरु किया कि आज़ादी का यह मफ़हूफ़ तो हमारे देरीना मक़ासिद के ख़िलाफ़ है। आज़ादी का यह तसव्वुर तो इस बात की दावत देता है कि हर मसले में उसकी मर्ज़ी का ख़्याल रखा जाये और उस पर किसी तरह का दबाव न डाला जाये और उसके हुक़ुक़ का तक़ाज़ा यह है कि उसे मीरास में हिस्सा दिया जाये। उसे जागीरदारी और सरमायादारी का शरीक तसव्वुर किया जाये। और यह हमारे तमाम रकीक, ज़लील और फ़रसूदा मक़ासिद के मनाफ़ी है। लिहाज़ा उन्होने इसी आज़ादी और हक़ के लफ़्ज़ को बाक़ी रखते हुए मतलब बरारी की नई राह निकाली और यह ऐलान करना शुरू कर दिया कि औरत की आज़ादी का मतलब यह है कि वह जिसके साथ चाहे चली जाये, और उसके मसावी ए हुक़ुक़ का मचलब यह है कि वह जितने अफ़राद से चाहे राब्ता रखे। इससे ज़्यादा दौरे हाज़िर के मर्दों को औरतों से कोई दिलचस्पी नही है। यह औरत को कुर्सी ए एक़्तेदार पर बैठाते हैं तो उसका कोई न कोई मक़सद होता है। और उसके बरसरे इक़्तेदार लाने में किसी न किसी साहिबे क़ुव्वत व जज़्बात का हाथ होता है, और यही वजह है कि वह क़ौमों की सरबराह होने के बाद भी किसी न किसी सरबराह का हाँ में हाँ मिलाती रहती हैं। और अंदर से किसी न किसी अहसासे कमतरी में मुब्तला रहती है। इस्लाम उसे साहिबे ऐख़्तियार देखना चाहता है लेकिन मगर मर्दो को आल ए कार बन कर नही। वह उसे हक़ ऐख़्तियार व इन्तेख़ाब देना चाहता है लेकिन अपनी शख़्सियत, हैसियत, ईज़्ज़त और करामत का ख़ात्मा करने के बाद नही। उसकी निगाह में इस तरह का ऐख़्तियार मर्दों को हासिल नही है तो औरतों को कहाँ से हासिल हो जायेगा जबकि उसकी ईस्मत व ईफ़्फ़त की क़दर व क़ीमत मर्द से ज़्यादा है, और उसकी इफ़्फ़त जाने के बाद दोबारा वापस नही आती है जबकि मर्द के साथ ऐसी कोई परेशानी नही है।

इस्लाम मर्दों से भी मुतालेबा करता है कि जिन्सी तसकीन के लिये क़ानून का दामन न छोड़ें और कोई क़दम ऐसा न उठायें जो उनकी ईज़्ज़त व शराफ़त के ख़िलाफ़ हो। चुनान्चे उन तमाम औरतों की निशानदही कर दी गयी जिनसे जिन्सी रिश्ता हराम है। उन तमाम हालात की निशानदही कर दी गयी जिनमें जिन्सी तअल्लुक़ात का जवाज़ नही है। उन तमाम सूरतों की तरफ़ इशारा कर दिया गया जिनसे साबेक़ा रिश्ता मजरूह हो जाता है। और उन तमाम तअल्लुक़ात को भी वाज़ेह कर दिया जिनके बाद फिर दूसरा जिन्सी तअल्लुक़ मुमकिन नही रह जाता है। ऐसे मुकम्मल और मुरत्तब निज़ामे ज़िन्दगी के बारे में यह सोचना कि उसने एक तरफ़ा फ़ैसला किया है। और औरतों के हक़ में नाइंसाफ़ी से काम लिया है ख़ुद उसके हक़ में नाइंसाफ़ी बल्कि अहसान फ़रामोशी है। वर्ना इससे पहले इसी के साबिक़ा क़वानीन के अलावा कोई इस सिन्फ़ का पुरसाने हाल नही था। और दुनिया की हर क़ौम में उसे निशाना ए ज़ुल्म व सितम बना लिया गया था।

इस मुख़्तसर तम्हीद के बाद इस्लाम के चंद इम्तेयाज़ी नुकात की तरफ़ इशारा किया जा रहा है जहाँ उसने औरत की मुकम्मल शख़्सियत का तआरूफ़ कराया जा रहा है। और उसे उसका वाक़यी मक़ाम दिलवाया है।

औरत की हैसियत:

وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ (22).(सूरह रूम आयत 21)

“उसकी निशानीयों में से एक यह है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे उससे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत का जज़्बा भी क़रार दे रहा है”।

आयते करीमा की तरफ़ दो बातों का तरफ़ इशारा किया जा रहा है:

1- औरत आलमे इँसानीयत ही का एक हिस्सा है। और उसे मर्द का जोड़ा बनाया गया है। उसकी हैसियत मर्द से कमतर नही है।

2- औरत का मक़सद वुजुदे मर्द की ख़िदमत नही है, मर्द का सुकूने ज़िन्दगी है। और मर्द व औरत के दरमियान तरफ़ैनी मुहब्बत और रहमत ज़रूरी है। यह एक तरफ़ा मामला नही है।

“وَإِنْ عَزَمُواْ الطَّلاَقَ فَإِنَّ اللّهَ سَمِيعٌ عَلِيمٌ (228)..”(सूरह बक़रा आयत 228)

“औरतों के लिये वैसे ही हुक़क़ है जैसे उनके ज़िम्मे फ़राएज़ है। और मर्दों को उनके ऊपर एक दर्जा और हासिल है।”

यह दर्जा हाकिमीयते मुतलक़ा का नही है बल्कि ज़िम्मेदारी का है कि मर्दों की साख़्त में यह सलाहीयत रखी गयी है कि वह औरतों की ज़िम्मेदारी संभाल सकें। और इसी बेना पर उन्हे नान व नफ़क़ा और इख़राजात का ज़िम्मेदार बनाया गया है।

“رَبَّنَا وَآتِنَا مَا وَعَدتَّنَا عَلَى رُسُلِكَ وَلاَ تُخْزِنَا يَوْمَ الْقِيَامَةِ إِنَّكَ لاَ تُخْلِفُ الْمِيعَادَ (195).”(सूरह आले ईमरान आयत 195)

“तो अल्लाह ने उनकी दुआ को क़बूल कर लिया कि हम किसी अमल करने वाले के अमल को ज़ाया नही करते चाहे वह मर्द हो या औरत, तुम में से बअज़ बअज़ से है।”

यहाँ पर दोनों के अमल को बराबर की हैसियत दी गयी है। और एक को दूसरे से क़रार दिया गया है।

“.إِن تَجْتَنِبُواْ كَبَآئِرَ مَا تُنْهَوْنَ عَنْهُ نُكَفِّرْ عَنكُمْ سَيِّئَاتِكُمْ وَنُدْخِلْكُم مُّدْخَلاً كَرِيمًا (32)सूरह निसा आयत 32)

“और देखो जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ से ज़्यादा दिया है। उसकी तमन्ना न करो। मर्दों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल किया है, और औरतों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल कर लिया है।”

यहाँ भी दोनों को एक तरह की हैसियत दी गयी है। और हर एक को दूसरे की फ़ज़ीलत पर नज़र लगाने से रोक दिया गया है।

“.لاَّ تَجْعَل مَعَ اللّهِ إِلَهًا آخَرَ فَتَقْعُدَ مَذْمُومًا مَّخْذُولاً (23).”(सूरह ईसरा आयत 23)

“और यह कहो कि परवरदिगार उन दोनों(वालेदैन) पर उसी तरह रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह उन्होने मुझे पाला है।”

इस आयते करीमा में माँ और बाप को बराबर की हैसियत दी गयी है। और दोनों के साथ अहसान भी लाज़िम क़रार दिया गया है। और दोनों के हक़ में दुआए रहमत की भी ताकीद की गयी है।

“وَلَيْسَتِ التَّوْبَةُ لِلَّذِينَ يَعْمَلُونَ السَّيِّئَاتِ حَتَّى إِذَا حَضَرَ أَحَدَهُمُ الْمَوْتُ قَالَ إِنِّي تُبْتُ الآنَ وَلاَ الَّذِينَ يَمُوتُونَ وَهُمْ كُفَّارٌ أُوْلَـئِكَ أَعْتَدْنَا لَهُمْ عَذَابًا أَلِيمًا (19).”(निसा 19)

“ईमान वालो, तुम्हारे लिये जाएज़ नही है कि औरतों के ज़बरदस्ती वारिस बन जाओ और न यह हक़ है कि उन्हे अक़्द करने से रोक दो कि इस तरह जो तुम ने उनको रोक दिया है। उसका एक हिस्सा तुम ख़ुद ले लो जब तक वह खुल्लम खुल्ला बदकारी न करें , और उनके साथ मुनासिब बर्ताव करों कि अगर उन्हे नापसंद भी करते हो तो शायद तुम किसी चीज़ को नापसंद भी करो और ख़ुदा उसके अंदर ख़ैरे कसीर क़रार दे दे।”

“فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ تَحِلُّ لَهُ مِن بَعْدُ حَتَّىَ تَنكِحَ زَوْجًا غَيْرَهُ فَإِن طَلَّقَهَا فَلاَ جُنَاحَ عَلَيْهِمَا أَن يَتَرَاجَعَا إِنظَنَّا أَن يُقِيمَا حُدُودَ اللّهِ وَتِلْكَ حُدُودُ اللّهِ يُبَيِّنُهَا لِقَوْمٍ يَعْلَمُونَ (231).”(बक़रा 231)

“और जब औरतों को तलाक़ दो और उनकी मुद्दते इद्दा क़रीब आ जाये तो चाहो तो उन्हे नेकी के साथ रोक लो बर्ना नेकी के साथ आज़ाद कर दो, और ख़बरदार नुक़सान पहुचाने की ग़रज़ से मत रोकना कि इस तरह ज़ुल्म करोगे, और जो ऐसा करेगा वह अपने ही नफ़्स का ज़ालिम होगा।”

मज़कूरा दोनो आयात में मुकम्मल आज़ादी का ऐलान कर दिया गया है। जहाँ आज़ादी का मक़सद शरफ़ और शराफ़त का तहफ़्फ़ुज़ है। और जान व माल दोनों के ऐतबार से साहिबे इख़्तेयार होना है, और फिर यह भी वाज़ेह कर दिया गया है कि उन पर ज़ुल्म दर हक़ीक़त उन पर ज़ुल्म नही है बल्कि अपने ही नफ़्स पर ज़ुल्म है कि उनके लिये फ़क़त दुनिया ख़राब होती है। और इंसान उससे अपनी आक़ेबत ख़राब कर लेता है। जो ख़राबीये दुनिया से कहीं ज़्यादा बदतर बर्बादी है।

“وَلِكُلٍّ جَعَلْنَا مَوَالِيَ مِمَّا تَرَكَ الْوَالِدَانِ وَالأَقْرَبُونَ وَالَّذِينَ عَقَدَتْ أَيْمَانُكُمْ فَآتُوهُمْ نَصِيبَهُمْ إِنَّ اللّهَ كَانَ عَلَى كُلِّ شَيْءٍ شَهِيدًا.”(निसा 34)

“मर्द औरतों के निगराँ हैं उन ख़ुसुसियात की बेना पर जो ख़ुदा ने बअज़ को बअज़ के मुक़ाबले में अता की हैं। और इसलिये कि उन्होने अपने अमवाल को ख़र्च किया है।”

आयते करीमा से बिल्कुल साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम का मक़सद मर्द को हाकिमे मुतलक़ बना देना नही है। और औरत से उसकी आज़ादी ए हयात को सल्ब कर लेना नही है। बल्कि उसने मर्द को बअज़ ख़ुसुसियात की बेना पर घर का निगराँ और ज़िम्मेदार बना दिया है। और उसे औरत की जान, माल और आबरू का मुहाफ़िज़ क़रार दे दिया है। उसके अलावा इस मुख़्तसर हाकेमीयत या ज़िम्मेदारी को भी मुफ़्त नही क़रार दिया है बल्कि उसके मुक़बले में उसे औरत के तमाम इख़राजात व मख़ारिज का ज़िम्मेदार बना दिया है। और खुली हुई बात है कि जब दफ़्तर का अफ़सर या कारखाने का मालिक सिर्फ़ तनख्वाह देने की बेना पर हाकिमीयत के बेशूमार इख़्तियारात हासिल कर लेता है। और उसे कोई आलमे इंसानीयत की तौहीन नही क़रार देता है। और दुनिया हर मुल्क इसी पाँलीसी पर अमल करता है तो मर्द ज़िन्दगी की तमाम ज़िम्मेदारीयाँ क़बूल करने के बाद अगर औरत पर यह पाबंदी आएद कर दे कि उसकी इजाज़त के बग़ैर घर से बाहर न जाए। और उसके लिये ऐसे वसाएले सुकून फ़राहम कर दे कि उसे भी बाहर न जाना पड़े । और दूसरे की तरफ़ हवस आमेज़ निगाह से न देखना पड़े तो कौन सी हैरत अंगेज़ बात है। यह तो एक तरह का बिलकुल साफ़ और सादा मामला है जो इज़्देवाज की शक्ल में मन्ज़रे आम पर आता है कि मर्द का कमाया हुआ माल औरत का हो जाता है और औरत की ज़िन्दगी का सरमाया मर्द का हो जाता है। मर्द औरत के ज़रूरीयात को पूरा करने के लिये घंटों मेहनत करता है। और बाहर से सरमाया फ़राहम करता है और औरत मर्द की तसकीन के लिये कोई ज़हमत नही करती है बल्कि उसका सरमाया ए हयात उसके वुजूद के साथ है। इंसाफ़ किया जाये कि इस क़दर फ़ितरी सरमाये से इस क़दर मेहनती सरमाये का तबादला क्या औरत के हक़ में ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी कहा जा सकता है। जब कि मर्द की तसकीन में भी औरत बराबर की हिस्से दार होती है। और यह जज़्बा एक तरफ़ा नही होता है। और औरत के माल सर्फ़ करने में मर्द को कोई हिस्सा नही मिलता है। मर्द पर ज़िम्मेदारी उसके मर्दाना ख़ुसुसियात और उसकी फ़ितरी सलाहीयत की बेना पर ऱखी गयी है वर्ना यह तबादला मर्दों के हक़ में ज़ुल्म हो जाता और उन्हे शिकायत होती कि औरत ने हमें क्या सुकून दिया है। और उसके मुक़बले में हम पर ज़िम्मेदारीयों का किस क़दर बोझ लाद दिया गया है। यह ख़ुद इस बात की वाज़ेह दलील है कि यह जिन्स और माल का सौदा नही है। बल्कि सलाहीयतों की बुनियाद पर तक़सीमे कार है। औरत जिस क़दर ख़िदमत मर्द के हक़ में कर सकती है. उसका ज़िम्मेदार औरत को बना दिया गया है। और मर्द जिस क़दर ख़िदमत औरत की कर सकता है। उसका उसे ज़िम्मेदार बना दिया गया है। और यह कोई हाकिमीयत या जल्लादीयत नही है कि इस्लाम पर नाइंसाफ़ी का इल्ज़ाम लगा दिया जाये। और उसे हुक़ुक़े निसवाँ का ज़ाया करने वाला क़रार दे दिया जाये।

यह ज़रूर है कि आलमे इस्लाम में ऐसे मर्द बहरहाल पाये जाते हैं जो मिज़ाज़ी तौर पर ज़ालिम, बेरहम और जल्लाद हैं। और उन्हे जल्लादी के लिये कोई मौक़ा नही मिलता है तो उसकी तसकीन का सामान घर के अंदर फ़राहम करते हैं। और अपने ज़ुल्म का निशाना औरत को बनाते हैं कि वह सिन्फ़े नाज़ुक होने की बेना पर मुक़ाबला करने के क़ाबिल नही है। और उस पर ज़ुल्म करने में उन ख़तरात का अँदेशा नही है जो किसी दूसरे मर्द पर ज़ुल्म करने में पैदा होते हैं। और उसके बाद अपने ज़ुल्म का जवाज़ क़ुरआने मजीद के इस ऐलान में तलाश करते हैं। और उनका ख़्याल यह है कि क़व्वामीयत, निगरानी और ज़िम्मेदारी नही है। बल्कि हाकेमीयत मुतलक़ा और जल्लादीयत है। हाँलाकि क़ुरआने मजीद ने साफ़ साफ़ दो वुजुहात की तरफ़ इशारा कर दिया है। एक मर्द की ज़ाती ख़ुसुसीयत और इम्तेयाज़ी कैफ़ीयत है, और एक उसकी तरफ़ से औरत के इख़राजात की ज़िम्मेदारी है। और खुली हुई बात है कि दोनों असबाब में न किसी तरह की हाकिमीयत पाया जाती है और न जल्लादीयत। बल्कि शायद बात इसके बरअक्स नज़र आये कि मर्द में फ़ितरी इम्तेयाज़ था तो उसे उस इम्तेयाज़ से फ़ायदा उठाने के बाद एक ज़िम्मेदारी का मर्कज़ बना दिया गया और इसी तरह उसने चार पैसे हासिल किये तो उन्हे तन्हा खाने के बजाए उसमें औरत का हिस्सा क़रार दे दिया है। और अब औरत वह मालेका है जो घर के अंदर चैन से बैठी रहे और मर्द वह ख़ादिमें क़ौम व मिल्लत है जो सुबह से शाम तक अहले ख़ाना के आज़ूक़े की तलाश में हैरान व सरगरदाँ रहे। यह दर हक़ीक़त औरत की निसवानीयत की क़ीमत है जिसके मुक़बले में किसी दौलत, शोहरत, मेहनत और हैसियत की कोई क़दर व क़ीमत नही है।

इज़्देवाजी ज़िन्दगी:

इंसानी ज़िन्दगी का अहम तरीन मोड़ वह होता है जब दो इंसान मुख़्तलिफ़ुस्सिन्फ़ होने के वाबजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में मुकम्मल तौर से दख़ील हो जाते हैं। और एक दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके जज़्बात का पुरे तौर पर लिहाज़ रखना पड़ता है। इख़्तेलाफ़े सिन्फ़ की बिना पर हालात और फ़ितरत के तक़ाज़े मुख़्तलिफ़ होते हैं। और घरानों के इख़्तेलाफ़ की बुनियाद पर तबायेअ और उनके तक़ाज़े जुदागाना होते हैं। लेकिन हर इंसान को दूसरे के जज़्बात के पेशे नज़र अपने जज़्बात और अहसासात की मुकम्मल क़ुरबानी देनी पड़ती है।

क़ुरआने मजीद ने इंसान को इतमीनान दिलाया है कि यह कोई ख़ारजी राबेता नही है। जिसकी वजह से उसे मसाएल और मुश्किलात का सामना करना पड़े बल्कि यह एक फ़ितरी मामला है जिसका इन्तेज़ाम ख़ालिक़े फ़ितरत फ़ितरत के अंदर वदीअत कर दिया है। और इंसान को उसकी तरफञ मुतवज्जह भी कर दिया है। चुनान्चे इरशाद होता है:

“وَمِنْ آيَاتِهِ أَنْ خَلَقَ لَكُم مِّنْ أَنفُسِكُمْ أَزْوَاجًا لِّتَسْكُنُوا إِلَيْهَا وَجَعَلَ بَيْنَكُم مَّوَدَّةً وَرَحْمَةً إِنَّ فِي ذَلِكَ لَآيَاتٍ لِّقَوْمٍ يَتَفَكَّرُونَ”(रूम आयत22)

“अल्लाह की निशानीयों में से यह भी है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम्ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे सुकुने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत क़रार दी है। इसमें साहिबाने फ़िक्र के लिये बहुत सी निशानीयाँ पायी जाती है।”

बेशक इख़्तेलाफ़े सिन्फ़, इख़्तेलाफ़ तरबीयत, इख़्तेलाफ़े हालात के बाद मुहब्बत व रहमत का पैदा हो जाना एक अलामते क़ुदरत व रहमत परवरदिगार है। जिसके बेशूमार शोअबे हैं। और हर शोअबे में मुताअद्दिद निशानीयाँ पायी जाती हैं। आयते करीमा में यह भई वाज़ेह कर दिया गया है कि जोड़ा अल्लाह ने पैदा किया है। यानी यह मुकम्मल ख़ारजी मसला नही है बल्कि दाख़्ली तौर पर मर्द में औरत के लिये और हर औरत में मर्द के लिये सलाहीयत रख दी गयी है ताकि एक दूसरे को अपना जोड़ा समझ कर बर्दाश्त कर सके और उससे नफ़रत व बेज़ारी का शिकार न हो और उसके बाद रिश्ते के ज़ेरे असर मवद्दत और रहमत का क़ानून भी बना दिया ता कि फ़ितरी जज़्बात और तक़ाज़े पामाल ने होने पायें। यह क़ुदरत का हकीमान निज़ाम है। जिससे अलाहिदगी इंसान के लिये बेशूमार मुश्किलात पैदा कर सकती है। चाहे इंसान सीयासी ऐतबार से इस अलाहिदगी पर मजबूर हो या जज़्बाती ऐतबार से क़सदन मुख़ालेफ़त करे। अवलिया अल्लाह भी अपने इज़्देवादी रिश्तों से परेशान रहे हैं।तो इसका राज़ यही था कि उन पर सीयासी और तबलीग़ी ऐतबार से यह फ़र्ज़ था कि ऐसी ख़वातीन से अक़्द करें। और उन मुश्किलात का सामना करें ताकि दीने ख़ुदा फ़रोग़ हासिल कर सके। और कारे तबलीग़ अंजाम पा सकें। फ़ितरत अपने काम बहरहाल कर रही थी। यह और बात है कि वह शरअन ऐसे इज़्देवाज पर मजबूर और मामूर थे कि उनका एक मुस्तक़िल एक फ़र्ज़ होता है कि तबलीग़े दीन की राह में ज़हमतें बर्दाश्त करें कि यह रास्ता फूलों की सेज से नही गुज़रता है बल्कि पुर ख़ार वादीयों से होकर जाता है।

इसके बाद क़ुरआने हकीम ने इज़्देवाजी तअलुक़ात को मज़ीद उस्तुवार बनाने के लिये फ़रीक़ैन की नई ज़िम्मादारीयों का ऐलान किया और यह वाज़ेह कर दिया कि सिर्फञ मवद्दत व रहमत से बात तमाम नही हो जाती है बल्कि कुछ उसके ख़ारजी तक़ाज़े भी हैं जिन्हे पूरा करना ज़रूरी है वर्ना क़ल्बी मवद्दत व रहमत बेअसर होकर रह जायेगी। और उसका कोई नतीजा हासिल न होगा। इरशाद होता है:

“هُنَّ لِبَاسٌ لَّكُمْ وَأَنتُمْ لِبَاسٌ لَّهُنَّ.”(बक़र: 187)

“औरतें तुम्हारे लिये लिबास हैं और तुम उनके लिये लिबास हो।”

यानी तुम्हारा ख़ारजी और मुआशेरती फ़र्ज़ यह है कि उनके मुआमलात की पर्दापोशी करो। और उनके हालात को उसी तरह तश्त अज़ बाम न होने दो जिस तरह लिबास इंसान के ओयूब को वाज़ेह नही होने देता है। उसके अलावा तुम्हारा एक फ़र्ज़ यह भी है कि उन्हे सर्द व गर्मे ज़माना से बचाते रहो। और वह तुम्हे ज़माने की सर्द व गर्म हवाओं से महफ़ूज़ रखें कि यह मुख्तलिफ़ हवायें और फ़ज़ायें किसी भी इंसान की ज़िन्दगी को ख़तरा में डाल सकती हैं। और उसके जान व माल और आबरू को तबाह व बर्बाद कर सकती हैं।

दूसरी तरफ़ इरशाद होता है:

“نِسَآؤُكُمْ حَرْثٌ لَّكُمْ فَأْتُواْ حَرْثَكُمْ أَنَّىشِئْتُمْ”(बक़रा23)

“ तुम्हारी औरतें तुम्हारी खेतीयाँ हैं लिहाज़ा अपनी खेती में जब और जिस तरह चाहो आ सकते हो।”(शर्त यह है कि खेती बर्बाद न होने पाये।)

इस बलीग़ फ़िक़रे से मुख़्तलिफ़ मसाएल का हल तलाश किया गया है। अव्वलन बात को एकतरफ़ा रखा गया है और लिबास की तरह फ़रीक़ैन को ज़िम्मेदार नही बनाया गया है बल्कि मर्द को मुख़ातब किया गया है और औरत को उसकी खेती क़रार दिया है कि इस रुख़ से सारी ज़िम्मेदारी मर्द पर आएद होती है और ख़ेती की बक़ा का मुकम्मल इन्तेज़ाम काश्तकार के ज़िम्मे है, ज़राअत से उसका कोई तअल्लुक़ नही है जबकि पर्दापोशी और सर्द व गर्मे ज़माना से तहफ़्फ़ुज़ दोनों की ज़िम्मेदारीयों में शामिल था।

दूसरी तरफ़ इस नुक्ते की भी वज़ाहत कर दी गयी है कि औरत के राब्ते और तअल्लुक़ में उसकी इस हैसियत का लिहाज़ बहरहाल ज़रूरी है कि वह ज़राअत की हैसियत रखती है और ज़राअत के बारे में काश्तकार को यह इख़्तियार तो दिया जा सकता है कि फ़सल के तक़ाज़ों को देख कर खेत को उफ़तादह छोड़ दे और ज़राअत न करे लेकिन यह इख़्तियार नही दिया जा सकता है कि उसे तबाह व बर्बाद कर दे और क़ब्ल अज़ वक़्त या नावक़्त ज़राअत शुरु कर दे कि उसे ज़राअत नही कहते हैं बल्कि हलाकत कहते हैं और हलाकत किसी क़ीमत पर जाएज़ नही क़रार दी जा सकती है।

मुख़्तसर यह है कि इस्लाम ने रिश्ता ए इज़्देवाज़ को पहली मंज़िल पर फ़ितरत का तक़ाज़ा क़रार दिया। फिर दाख़िली तौर पर उसमें मुहब्बत और रहमत का इज़ाफ़ा किया गया और ज़ाहिरी तौर पर हिफ़ाज़त और पर्दापोशी को इसका शरई नतीजा क़रार दिया और आख़िर में इस्तेमाल के तमाम शराएत व क़वीनीन की तरफ़ इशारा कर दिया ताकि किसी की तरह की बदउनवानी, बेरब्ती और बेतकल्लुफ़ी न पैदा होने पाए और ज़िन्दगी ख़ुशगवार अंदाज़ से गुज़र जाये।

बदकारी

इज़्देवाजी रिश्ते के तहफ़्फ़ुज़ के लिये इस्लाम ने दो तरह के इन्तेज़ामात किये हैं: एक तरफ़ इस रिश्ते की ज़रूरत, अहमीयत और उसकी सानवी शक्ल की तरफ़ इशारा किया और दूसरी तरफ़ उन तमाम रास्तों पर पाबंदी आएद कर दी जिसकी बेना पर यह रिश्ता ग़ैर ज़रूरी या ग़ैर अहम हो जाता है और मर्द को औरत या औरत को मर्द की ज़रूरत नही रह जाती है। इरशाद होता है:

“وَلاَ تَقْرَبُواْ الزِّنَى إِنَّهُ كَانَ فَاحِشَةً وَسَاءَ سَبِيلاً” (सूरह इसरा 32)

“और ख़बरदार ज़िना के क़रीब भी मत जाना कि यह खुली हुई बेहयाई है और बदतरीन रास्ता है।”

इस इरशादे गिरामी में ज़िना के दोनों मफ़ासिद की वज़ाहत की गयी है कि इज़्देवाज़ के मुमकिन होते हुए और उसके क़ानून के रहते हुए ज़िना और बदकारी एक खुली हुई बेहयाई है कि यह तअल्लुक़ उन्ही औरतों से क़ाएम किया जाए जिनसे अक़्द हो सकता है तो भी क़ानून से इन्हेराफ़ और इफ़्फ़त से खेलना एक बेग़ैरती है और अगर उन औरतों से क़ाएम किया जाये जिनसे अक़्द मुमकिन नही है और उनका कोई मुक़द्दस रिश्ता पहले से मौजूद है तो यह मज़ीद बेहयाई है कि इस तरह उस रिश्ते की भी तौहीन होती है और उसका तक़द्दुस भी पामाल हो जाता है।

फिर मज़ीद वज़ाहत के लिये इरशाद होता है:

“إِنَّ الَّذِينَ يُحِبُّونَ أَن تَشِيعَ الْفَاحِشَةُ فِي الَّذِينَ آمَنُوا لَهُمْ عَذَابٌ أَلِيمٌ”(सूरह नूर20)

“जो लोग इस अम्र को दोस्त रखते हैं कि साहिबाने ईमान के दरमीयान बदकारी और बेहयाई की एशाअत हो उनके लिये दर्दनाक अज़ाब है”

जिसका मतलब यह है कि इस्लाम इस क़िस्म के जराइम की उमूमीयत और उनका इश्तेहार दोनों को नापसंद करता है कि इस तरह एक इंसान की ईज़्ज़त भी ख़तरे में पड़ जाती है और दूसरी तरफ़ ग़ैर मुतअल्लिक़ अफ़राद में ऐसे जज़्बात बेदार हो जाते हैं और उनमें जराइम को आज़माने और इनका तजरूबा करने का शौक़ पैदा होने लगता है। जिस का वाज़ेह नतीजा आज हर निगाह के सामने है कि जबसे फ़िल्मों और टी वी के इस्क्रीन के ज़रीये जिन्सी मसाइल की इशाअत शुरु हो गयी है हर क़ौंम में बेहयाई में इज़ाफ़ा हो गया है और हर तरफ़ उसका दौर दौरा हो गया है और हर शख़्स में उन तमाम हरकात का ज़ौक व शौक़ बेदार हो गया है जिनका मुज़ाहिरा सुबह व शामक़ौम के सामने किया जाता है और उसका बदतरीन नतीजा यह हुआ कि मग़रिबी मुआशरे में शाहराहे आम पर वह हरकतें ज़हूर पज़ीर हो रही हैं जिन्हे निस्फ़े शब के बाद फ़िल्मों में पेश किया जाता है और अपनी दानिस्त में अख़्लाक़ियात का मुकम्मल लिहाज़ रखा जाता है और हालात इस अम्र की निशानदही कर रहे है कि मुस्तक़बिल इससे ज़्यादा बदतरीन और भयानक हालात लेकर आ रहा है और इंसानीयत मज़ीद ज़िल्लत के किसी गड्डे में गिरने वाली है। क़ुरआने मजीद ने उन्ही ख़तरात के पेशे नज़र साहिबाने ईमान के दरमीयान इस तरह की इशाअत को ममनूअ और हराम क़रार दे दिया था कि एक दो अफ़राद का इन्हेराफ़ सारे समाज पर असर अंदाज़ न हो और मुआशरा तबाही व बर्बादी का शिकार न हो। रब्बे करीम हर साहिबे ईमान को इस बला से महफ़ूज़ रखे।

तअददुदे इज़्देवाज

दौरे हाज़िर का हस्सास तरीन मौज़ू तअददुदे इज़्देवाज का मौज़ू है जिसे बुनियाद बनाकर मद़रिबी दुनिया ने औरतों को इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ूब इस्तेमाल किया है और मसलमान औरत को भी यह बावर कराने की कोशिश की है कि तअददुदे इज़्देवाज का क़ानून औरतों के साथ नाइंसाफ़ी है और उनकी तहक़ीर व तौहीन का बेहतरीन ज़रीया है। गोया औरत अपने शौहर की मुकम्मल मुहब्बत की भी हक़दार नही हो सकती है और उसे शौहर की आमदनी की तरह उसकी मुहब्बत को भी मुख़्तलिफ़ हिस्सों में बाटना पड़ेगा और आख़िर में जिस क़दर हिस्सा अपनी क़िस्मत में लिखा होगा उसी पर इक्तेफ़ा करना पड़ेगी।

औरत का मेज़ाज हस्सास होता है लिहाज़ा उस पर इस तरह की हर तक़रीर बाक़ाएदा तौर पर असर अंदाज़ हो सकती है। और यही वजह है कि मुसलमान मुफ़क्केरीन ने इस्लाम और मग़रिब को यकजा करने के लिये और अपने ज़अमे नाक़िस में इस्लाम को बदनाम करने से बचाने के लिये तरह तरह की तावीलें की हैं और नतीजे के तौर पर यह ज़ाहिर करना चाहा है कि इस्लाम ने यह क़ानून सिर्फ़ मर्दों की तसकीने क़ल्ब के लिये बना दिया है वर्ना इस पर अमल करना मुमकिन नही है और न इस्लाम यह चाहता है कि कोई मुसलमान इस क़ानून पर असल करे और इस तरह औरतों के जज़्बात को मजरूह बनाये। इन बेचारे मुफ़क्केरीन यह सोचने की भी ज़हमत गवारा नही की है कि इस तरह अलफ़ाज़े क़ुरआन की तो तावील की जा सकती है और क़ुरआन को तो मग़रिब नवाज़ क़ानून साबित किया जा सकता है। लेकिन इस्लाम के सरबराहों और बुजुर्गों की सीरत का क्या होगा जिन्होने अमली तौर पर इस क़ानून पर अमल किया है और एक वक़्त में मुतअददिद बीवीयाँ रखी हैं जबकि उनके ज़ाहिरी इक़तेसादी हालात भी ऐसे नही थे जैसे हालात आजकल के बेशूमार मुसलमानों को हासिल हैं। और उनके किरदार में किसी क़दर अदालत और इंसाफ़ क्यों न फ़र्ज़ कर लिया जाये औरत की फ़ितरत का तब्दील होना मुमकिन नही है और उसे यह एहसास बहरहाल रहेगा कि मेरे शौहर की तवज्जो या मुहब्बत मेरे अलावा किसी दूसरी ख़वातीन से भी मुतअल्लिक़ है।

मसले के तफ़सीलात में जाने के लिये बड़ा वक़्त दरकार है। इज्माली तौर पर सिर्फ़ कहा जा सकता है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ यह महाज़ उन लोगों ने जिन्के यहाँ औरत से मुहब्बत का कोई शोअबा ही नही है औक उनके निज़ाम में शौहर या ज़ौजा की अपनाईय का कोई तसव्वुर ही नही है। यह और बात है कि उनकी शादी को लव मैरेज से ताबीर किया जाता है लेकिन यह अंदाज़े शादी ख़ुद इस बात की अलामत है कि इंसान ने अपनी मुहब्बत के मुख़्तलिफ़ मर्कज़ बनाये हैं। और आख़िर में क़ाफ़िला ए जिन्स को एक मर्कज़ पर ठहरा दिया है और यही हाल उस औरत का है जिसने इस अंदाज़ से अक़्द किया है। ज़ाहिर है कि ऐसे हालात में उस ख़ालिस मुहब्बत का कोई तसव्वुर ही नही हो सकता जिसका इस्लाम ले मुतालिबा किया जा रहा है।

इसके अलावा इस्लाम ने तो बीवी के अलावा किसी औरत से मुहब्बत को जाएज़ भी नही रखा है और बीवीयों की तादात भी महदूद रखी है और अक़्द के शराएत भी रख दिये हैं। मग़रिबी मुआशरे में आज भी यह क़ानून आम है कि हर मर्द की ज़ौजा सिर्फ़ एक ही होगी चाहे उसकी महबूबा किसी क़दर भी हों। सवाल यह पैदा होता है कि यह महबूबा मुहब्बत के अलावा किसी और रिश्ते से पैदा होती है? और अगर मुहब्बत ही से पैदा होती है तो यह मुहब्बत की तक़सीम के अलावा क्या कोई और शय है?हक़ीक़ते अम्र यह है कि इज़्देवाज की ज़िम्मेदीरीयों और घरेलू ज़िन्दगी के फ़राएज़ से फ़रार करने के लिये मग़रिब ने अय्याशी का नया रास्ता निकाला है और औरत को जिन्से सरे बाज़ार बना दिया है, और यह ग़रीब आज भी ख़ुश है कि मग़रिब ने हमें हर तरह का इख़्तियार दिया है और इस्लाम ने पाबंद बना दिया है।

यह सही है कि अगर किसी बच्चे को दरिया किनारे मौज़ों का तमाशा करते हुए छलाँग लगाने का इरादा करे और छोड़ दीजीए तो यक़ीनन ख़ुश होगा कि आपने उसकी ख़्वाहिश का ऐहतेराम किया है और उसके जज़्बात पर पाबंदी आएद नही की है चाहे उसके बाद डूब कर मर ही क्यों न जाये। लेकिन अगर उसे रोक दिया जायेगा तो वह यक़ीनन नाराज़ हो जायेगा चाहे उसमें ज़िन्दगी का राज़ ही मुज़मर क्यों न हो। मग़रिबी औरत की सूरते हाल इस मसले में बिल्कुल ऐसी ही है कि उसे आज़ादी की ख़्वाहिश है और वह हर तरह की आज़ादी को इस्तेमाल करना चाहती है और करती है। लेकिन जब मुख़्तलिफ़ अमराज़ में मुब्तला होकर दुनिया के लिये नाक़ाबिले तवज्जो हो जाती है और कोई इज़हारे मुहब्बत करने वाला नही मिलता है तो उसे अपनी आज़ादी के नुक़सानात का अंदाज़ा होता है। लेकिन उश वक़्त मौक़ा हाथ से निकल चुका होता है और इंसान के पास कफ़े अफ़सोस मलने के अलावा कोई चारा ए कार नही होता है।

मसला ए तअददुदे इज़्देवाज पर संजीदगी से ग़ौर किया जाये तो यह एक बुनियादी मसला है जो दुनिया के बेशूमार मसाइल का हल है और हैरत अंगेज़ बात यह है कि दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और ग़ज़ा की क़िल्लत को देखकर क़िल्लते औलाद और ज़ब्ते तौलीद का अहसास तो तमाम मुफ़क्केरीन के दिल में पैदा हुआ लेकिन औरतों की कसरत और मर्दों की क़िल्लत से पैदा होने वाले मुश्किलात को हल करने का ख़्याल किसी के ज़हन में नही आया।

दुनिया की आबादी के आदाद व शूमार के मुताबिक़ अगर यह बात सही है कि औरतों का आबादी मर्दों से ज़्यादा है तो एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि इस आबादी का अंजाम क्या होगा। उसके लिये एक रास्ता यह है कि उसे घुट घुट कर मरने दिया जाये और उसके जिन्सी जज़्बात का कोई इन्तेज़ाम न किया जाये यह काम जाबिराना सियासत तो कर सकती है लेकिन करीमाना शरीअत नही कर सकती है। और दूसरा रास्ता यह है कि उसे अय्याशीयों के लिये आज़ाद कर दिया जाये और किसी भी शक्ल में अपनी जिन्सी तसकीन का इख़्तेयार दे दिया जाये। यह बात सिर्फ़ क़ानून की हद तक तो तअददुदे इज़देवाद से मुख़्तलिफ़ है लेकिन अमली ऐतबार से तअद्दुदे इज़्देवाज ही की दूसरी शक्ल है कि हर शख़्स के पास एक औरत ज़ौजा के नाम से होगी और एक किसी और नाम से होगी, और दोनों में सुलूक, बर्ताव और मुहब्बत का फ़र्क़ रहेगा कि एक उसकी मुहब्बत का मर्कज़ बनेगी और एक उसकी ख़्वाहिश का। इंसाफ़ से ग़ौर किया जाये कि यह क्या दूसरी औरत की तौहीन नही है कि उसे निसवानी ऐतराम से महरूम करके सिर्फ़ जिन्सी तसकीन तक महदूद कर दिया जाये और उस सूरत में यह इमकान नही पाया जाता है और ऐसे तजरूबात सामने नही हैं कि इज़ाफ़ी औरत ही असली मर्कज़े मुहब्बत क़रार पाये और जिसे मर्कज़ बनाया था उसकी मर्कज़ीयत का ख़ात्मा हो जाये।

बाज़ लोगों ने इस मसले का यह हल निकालने की कोशिश की है कि औरतों की आबादी यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन जो औरतें जो इक़्तेसादी तौर पर मुतमईन होती हैं उन्हे शादी की ज़रूरत नही होती है और इस तरह दोनों का औसत बराबर हो जाता है और तअद्दुद की कोई ज़रूरत नही रह जाती है। लेकिन यह तसव्वुर इन्तेहाई जाहिलाना और अहमक़ाना है और यह दीदा व दानिस्ता चश्मपोशी के मुरादिफ़ है कि शौहर की ज़रूरत सिर्फ़ सिर्फ़ मुआशी बुनियादों पर होती है और जब मुआशी हालात साज़गार होते हैं तो शौहर की ज़रूरत नही रह जाती है हालाँकि इसके बिलकुल बर अक्स है। परेशानहाल औरत तो किसी वक़्त हालात में मुब्तला होकर शौहर की ज़रूरत के अहसास से ग़ाफ़िल हो सकती है। लेकिन मुतमईन औरत के पास तो इसके अलावा कोई मसला ही नही है, वह इस बुनियादी मसले से किस तरह ग़ाफ़िल हो सकती है।

इस मसले का दूसरा रूख़ यह भी है कि मर्दों और औरतों की आबादी के तनासुब से इंकार कर दिया जाये और दोनों को बराबर तसलीम कर लिया जाये लेकिन एक मुश्किल बहरहाल पैदा होगी कि फ़सादात और आफ़ात में आम तौर पर मर्दों ही की आबादी में कमी पैदा होती है और इस तरह यह तनासुब हर वक़्त ख़तरे में रहता है और फिर बाज़ मर्दों में यह इस्तेताअत नही होती है कि वह औरत की ज़िन्दगी का बोझ उठा सकें। यह और बात है कि औरत की ख़्वाहिश उनके दिल में भी पैदा होती है इसलिये कि जज़्बात मआशी हालात की पैदावार नही होते हैं। उनका सरचश्मा इन हालात से बिलकुल अलग है और उनकी दुनिया का क़यास इस दुनिया पर नही किया जा सकता है। ऐसी सूरत में मसले का एक ही हल रह जाता है कि जो साहिबाने दौलत व सरवत व इस्तेताअत हैं उन्हे मुख़्तलिफञ शादीयों पर आमादा किया जाये और जो ग़रीब और नादार हैं और मुस्तक़िल ख़र्च बर्दाश्त नही कर सकते हैं उनके लिये ग़ैर मुस्तक़िल इन्तेज़ाम किया जाये और सबकुछ क़ानून के दायरे में हो। मग़रिबी दुनिया की तरह लाक़ानूनीयत का शिकार न हो कि दुनिया की हर ज़बान में क़ानूनी रिश्ते को इज़्देवाज और शादी से ताबीर किया जाता है। और ग़ैर क़ानूनी रिश्ते को अय्याशी कहा जाता है। इस्लाम हर मसले को इंसानीयतस, शराफ़त और क़ानून की रोशनी में हल करना चाहता है और मग़रिबी दुनिया क़ानून और लाक़ानूनीयत में इम्तेयाज़ की क़ाएल नही है। हैरत की बात है कि जो लोग सारी दुनिया में अपनी क़ानून परस्ती का ढँढोरापीटते हैं। वह जिन्सी मसले में इस क़दर बेहिस हो जाते हैं कि यहाँ किसी क़ानून का अहसास नही रह जाता है और मुख़तलिफ़ क़िस्म के ज़लील तरीन तरीक़े भी बर्दाश्त कर लेते हैं जो इस बात की अलामत है कि मग़रिब एक जिन्स ज़दा माहौल है जिसने इंसानीयत का ऐहतराम तर्क कर दिया है और वह अपनी जिन्सीयत ही को ऐहतेरामे इंसानीयत का नाम देकर अपने ऐब की पर्दापोशी करने की कोशिश कर रहा है।

बहरहाल क़ुरआन ने इस मसले पर इस तरह रौशनी डाली है:

“وَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تُقْسِطُواْ فِي الْيَتَامَى فَانكِحُواْ مَا طَابَ لَكُم مِّنَ النِّسَاء مَثْنَى وَثُلاَثَ وَرُبَاعَ فَإِنْ خِفْتُمْ أَلاَّ تَعْدِلُواْ”(सूरह निसा आयत 3)

“और अगर तुम्हे यह ख़ौफ़ है कि यतीमों के बारे में इंसाफ़ न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हे अच्छी लगें उनसे अक़्द करो दो तीन चार। और अगर ख़ौफ़ है कि उनमें भी इंसाफ़ न कर सकोगे तो फिर या जो तुम्हारी कनीज़ें है।”

आयते शरीफ़ा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि समाज के ज़हन में एक तसव्वुर था कि यतीमों के साथ अक़्द करने में इस सुलूक का तहफ़्फ़ुज़ मुश्किल हो जाता है जिसका मुतालेबा उसके बारे में किया गया है तो क़ुरआन ने साफ़ वाज़ेह कर दिया कि अगर यतीमों के बारे में इंसाफ़ मुश्किल है और उसके ख़त्म हो जाने का ख़ौफ़ और ख़तरा है तो ग़ैर यतीम अफ़राद में शादीयाँ करो और इस मसले में तुम्हे चार तक आज़ादी दे दी गयी है कि अगर इंसाफ़ कर सको तो चार तक अक़्द कर सकते हो। हाँ अगर यहाँ भी इंसाफ़ बरक़रार न रहने का ख़ौफ़ है तो फिर एक ही पर इक्तेफ़ा करो और बाक़ी कनीज़ों से इस्तेफ़ादा करो।

इसमें कोई शक नही है कि तअद्दुदे इज़्देवाज में इंसाफ़ की क़ैद हवसरानी के ख़ात्मे और क़ानून की बरतरी की बेहतरीन अलामत है और इस तरह औरत के वक़ार व ऐहतराम को मुकम्मल तहफ़्फ़ुज़ दिया गया है लेकिन इस सिलसिले में यह बात नज़र अंदाज़ नही होनी चाहिये कि इंसाफ़ का वह तसव्वुर बिलकुलबेबुनियाद है जो हमारे समाज में राएज हो गया है और जिसके पेशेनज़र तअद्दुदे इज़्देवाज को सिर्फ़ एक नाक़ाबिले अमल फ़ारमूला क़रार दे दिया गया है। कहा यह जाता है कि इंसाफ़ मुकम्मल मसावात है और मुकम्मल मसावात बहरहाल मुमकिन नही है इसलिये कि नई औरत की बात और होती है और पुरानी औरत की बात और होती है, और दोनों के साथ मुसावीयाना बर्ताव नामुमकिन है। हालाँकि यह तसव्वुर भी एक जाहिलाना तसव्वुर है। इंसाफ़ के मायनी सिर्फ़ यह हैं कि हर साहिबे हक़ को उसका हक़ दे दिया जाये जिसे शरीयत की ज़बान में बाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ से ताबीर किया जाता है। इससे ज़्यादा इंसाफ़ का कोई मफ़हूम नही है। बेनाबर ईन अगर इस्लाम ने चार औरतों में हर औरत की एक रात क़रार दी है तो इससे ज़्यादा का मुतालेबा करना नाइंसाफ़ी है। घर में रात न ग़ुज़ारना नाइंसाफ़ी नही है। इसी अगर इस्लाम ने फ़ितरत के ख़िलाफ़ नई और पुरानी ज़ौजा को यकसाँ क़रार दिया है तो उनके दरमीयान इम्तेयाज़ बरतना ख़िलाफ़े इंसाफ़ है। लेकिन अगर उसी ने फ़ितरत के तक़ाज़ों के पेशे नज़र शादी के इब्तेदाई सात दिन नई ज़ौजा के लिये मुक़र्रर कर दियें है तो इस मसले में पुरानी ज़ौजा का मुदाख्लत करना नाइंसाफ़ी है। शौहर का इम्तेयाज़ी बर्ताव करना नाइंसाफ़ी नही है और हक़ीक़ते अम्र यह है कि समाज ने शौहर के सारे इख़्तेयारात सल्ब कर लिये हैं। लिहाज़ा उसका हर एक़दाम ज़ुल्म नज़र आता है वर्ना ऐसे ऐसे शौहर भी होते हैं जो क़ौमी या सियासी ज़रूरीयात की बेना पर मुद्दतों घर के अंदर दाख़िल नही होते हैं। और ज़ौजा इस बात पर ख़ुश रहती है कि मैं बहुत बड़े ओहदेदार या वज़ीर की ज़ौजा हूँ। और वक़्त उसे इस बात का ख़्याल भी नही आता है कि मेरा कोई हक़ पामाल हो रहा है। लेकिन उसी ज़ौजा को अगर यह इत्तेला हो जाये कि वह दूसरी ज़ौजा के घर रात गुज़ारता है तो एक लम्हे के लिये बर्दाश्त करने को तैयार न होगी जो सिर्फ़ एक जज़्बाती फैसला है और उसका इंसानी ज़िन्दगी के ज़रूरीयात से कोई तअल्लुक नही है। ज़रूरत का लिहाज़ रखा जाये तो अक्सर हालात में और अक्सर इंसानों के लिये मुताद्दिद शादीयाँ करना ज़रूरीयात में शामिल है जिससे कोई मर्द या औरत इंकार नही कर सकता है। यह और बात है कि समाज से दबाव से दोनों मजबूर हैं और कभी घुटन की ज़िन्दगी गुज़ार लेते हैं और कभी बेराह रवी के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसे हर समाज बर्दाश्त कर लेता है और उसे माज़ूर क़रार देता है जबकि क़ानून की पाबंदी और रिआयत में माज़ूर नही क़रार देता है।

इस सिलसिले में यह बात भी क़ाबिले तवज्जो है कि इस्लाम ने तअद्दुदे इज़देवाज को अदालत से मशरूत क़रार दिया है लेकिन अदालत को इख़्तेयारी नही रखा है बल्कि उसे ज़रूरी क़रार दिया है और हर मुसलमान से मुतालेबा किया है कि अपनी ज़िन्दगी में अदालत से काम ले और कोई काम ख़िलाफ़े अदालत न करे। अदालत के मायनी वाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ भी। लिहाज़ा अदालत कोई इज़ाफ़ी शर्त नही है। इस्लामी मिज़ाज का तक़ाज़ा है कि हर मुसलमान को आदिल होना चाहिये और किसी मुसलमान को दायरा ए अदालत से बाहर नही जाना चाहिये। जिसका लाज़मी असर यह होगा कि क़ानूने तअद्दुदे अज़वाज हर सच्चे मुसलमान के लिये क़ाबिले अमल बल्कि बड़ी हद तक वाजिबुल अमल है कि इस्लाम ने बुनियादी मुतालेबा दो या तीन या चार का किया है और एक औरत को इसतिस्नाई सूरत दे रखी है जो सिर्फ़ अदालत के न होने की सूरत में मुमकिन है। और अगर मुसलमान वाकयी मुसलमान है यानी आदिल है तो उसके लिये क़ानून दो या तीन या चार का ही है। उसका क़ानून एक का नही है जिसकी मिसालें बुज़ुर्गाने मज़हब की ज़िन्दगी में हज़ारों की तादाद में मिल जायेंगीं और आज भी रहबराने दीन की अकसरीयत इस क़ानून पर अमल पैरा है और उसे किसी तरफ़ से ख़िलाफ़े अख़लाक़ व तहज़ीब या ख़िलाफ़े क़ानून व शरीयत नही समझती है और न कोई उनके किरदार पर ऐतराज़ करने की हिम्मत करता है। ज़ेरे लब मुस्कुराते ज़रूर हैं कि यह अपने समाज के जाहिलाना निज़ाम की देन है और जिहालत का कम से कम मुज़ाहिरा इसी अंदाज़ से हो सकता है।

इस्लाम ने तअद्दुदे अज़वाज के नामुमकिन होने की सूरत में भी कनीज़ों की इजाज़त दी है कि उसे मालूम है कि फ़ितरी तक़ाज़े सही तौर पर एक औरत से पुरे होना मुश्किल हैं, लिहाज़ा अगर नाइंसाफ़ी का ख़तरा है और दामने अदालत हाथ से झूट जाने का अंदेशा है तो इंसान ज़ौजा के साथ कनीज़ों से राब्ता कर सकता है। अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद हो और उनसे राब्ता मुमकिन हो। इस मसले से एक सवाल ख़ुद ब ख़ुद पैदा होता है कि इस्लाम ने इस अहसास का सुबूत देते हुए कि एक औरत से पुरसुकून ज़िन्दगी गुज़ारना दुश्नार गुज़ार अमल है। पहले तअद्दुदे अज़वाज की इजाज़त दही और फिर उसके नामुमकिन होने की सूरत में दूसरी ज़ौजा की कमी कनीज़ से पुरी की तो अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूज न हो या इस क़दर क़लील हो कि हर शख़्स की ज़रूरत का इन्तेज़ाम न हो सके तो उस कनीज़ को मुताबादिल क्या होगा और उस ज़रूरत का इलाज किस तरह होगा जिसकी तरफ़ क़ुरआने मजीद ने एक ज़ौजा के साथ कनीज़ के इज़ाफ़े से इशारा किया है।

यही वह जगह है जहाँ से मुतआ के मसले का आग़ाज़ होता है और इंसान यह सोचने पर मजबूर होता है कि अगर इस्लाम ने मुकम्मल जिन्सी हयात की तसकीन का सामान किया है और कनीज़ों का सिलसिला मौक़ूफ़ कर दिया है और तअद्दुदे अज़वाज में अदालत व इंसाफ़ की शर्त लगा दी है तो उसे दूसरा रास्ता तो बहरहाल खोलना पड़ेगा ताकि इंसान अय्याशी और बदकारी से महफ़ूज़ रह सके, यह और बात है कि ज़हनी तौर पर अय्याशी और बदकारी के दिलदादा अफ़राद मुतआ को भी अय्याशी का नाम दे देते हैं और यह मुतआ की मुख़ालेफ़त की बेना पर नही है बल्कि अय्याशी के जवाज़ की बेना पर है कि जब इस्लाम में मुतआ जाएज़ है और वह भी एक तरह की अय्याशी है तो मुतआ की क्या ज़रूरत है सीधे सीधे अय्याशी ही क्यों न की जाये और यह दर हक़ीक़त मुतआ की दुश्वारीयों का ऐतराफ़ है और इस अम्र का इक़रार है कि मुतआ अय्याशी नही है। इसमें क़ानून, क़ायदे की रिआयत ज़रूरी है और अय्याशी उन तमाम क़वानीन से आज़ाद और बेपरवाह होती है।

सरकारे दो आलम(स) के अपने दौरे हुकुमत में और ख़िलाफ़तों के इब्तेदाई दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे इस्तेफ़ादा मुमकिन था तो यह फ़ौक़ाहा ए इस्लाम को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम(स) ने हुक्मे ख़ुदा के इत्तेबा में मुतआ को हलाल और राएज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्मे के बाद उस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है। यह तो अय्याशी का ख़ुला हुआ रास्ता होगा कि मुसलमान उसके उसके अलावा किसी रास्ते पर न जायेगा और मुसलसल हरामकारी करता रहेगा जैसा कि अमीरूल मोमीनीन हज़रत अली(अ) ने फ़रमाया था कि अगर मुतआ हराम न कर दिया गया होता तो बदनसीब और शक़ी इंसान के अलावा कोई ज़ेना न करता। गौया आप इस अम्र की तरफ़ इशारा कर रहे थे कि मुतआ पर पाबंदी आएद करने वाले ने मुतआ का रास्ता नही बंद किया है बल्कि अय्याशी और बदकारी का रास्ता खोल दिया है और उसका रोज़े क़यामत जवाबदेह होना पड़ेगा।

इस्लाम अपने क़वानीन में इन्तेहाई हकीमाना रविश इख़्तियार करता है और उससे इन्हेराफ़ करने वालों को शक़ी और बदबख़्त से ताबीर करता है।

अल्लाह का वुजूद

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह इस पूरी कायनात का ख़ालिक़ है, सिर्फ़ हमारे वुजूद में, तमाम जानवरों में, नबातात में, आसमान के सितारों में,

 

ऊपर की दुनिया में ही नही बल्कि हर जगह पर तमाम मौजूदाते आलम की पेशानी पर उसकी अज़मत, इल्म व क़ुदरत की निशानियाँ ज़ाहिर व आशकार हैं।

 

हमारा अक़ीदह है कि हम इस दुनिया के राज़ों के बारे में जितनी ज़्यादह फ़िक्र करेंगे उस ज़ाते पाक की अज़मत, उसके इल्म और उसकी क़ुदरत के बारे में उतनी ही ज़्यादह जानकारी हासिल होगी। जैसे जैसे इँसान का इल्म तरक़्क़ी कर रहा है वैसे वैसे हर रोज़ उसके इल्म व हिकमत हम पर ज़ाहिर होते जा रहे हैं, जिस से हमारी फ़िक्र में इज़ाफ़ा हो रहा है,यह फ़िक्र उसकी ज़ाते पाक से हमारे इश्क़ में इज़ाफ़े का सरचश्मा बनेगी और हर लम्हे हमको उस मुक़द्दस ज़ात से करीब से करीबतर करती रहेगी और उसके नूरे जलालो जमाल में गर्क़ करेगी।

क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “व फ़ी अलअर्ज़ि आयातुन लिल मुक़ीनीना * व फ़ी अनफ़ुसिकुम अफ़ला तुबसिरूना” यानी यक़ीन हासिल करने वालों के लिए ज़मीन में निशानियाँ मौजूद हैं और क्या तुम नही देखते कि ख़ुद तुम्हारे वुजूद में भी निशानियाँ पाई जाती हैं? [1]

“इन्ना फ़ी ख़ल्क़ि अस्समावाति व अलअर्ज़ि व इख़्तिलाफ़ि अल्लैलि व अन्नहारि लआयातिन लिउलिल अलबाबि *अल्लज़ीना यज़कुरूना अल्लाहा क़ियामन व क़ुउदन व अला जुनुबिहिम व यतफ़क्करूना फ़ी ख़ल्कि अस्समावाति व अलअर्ज़ि रब्बना मा ख़लक़ता हाज़ा बातिला ”[2] यानी बेशक ज़मीन व आसमान की ख़िलक़त में और दिन रात के आने जाने में साहिबाने अक़्ल के लिए निशानियाँ है। उन साहिबाने अक़्ल के लिए जो खड़े हुए,बैठे हुए और करवँट से लेटे हुए अल्लाह का ज़िक्र करते हैं और ज़मीनों आसमान की ख़िलक़त के राज़ों के बारे में फ़िक्र करते हैं (और कहते हैं) ऐ पालने वाले तूने इन्हे बेहुदा ख़ल्क़ नही किया है।

2) सिफ़ाते जमाल व जलाल

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की ज़ाते पाक हर ऐब व नक़्स से पाक व मुनज़्ज़ह और तमाम कमालात से आरास्ता, बल्कि कमाले मुतलक़ व मुतलक़े कमाल है दूसरे अलफ़ाज़ में यह कहा जा सकता है कि इस दुनिया में जितने भी कमालात व ज़ेबाई पाई जाती है उसका सर चश्मा वही ज़ाते पाक है।

“ हुवा अल्लाहु अल्लज़ी ला इलाहा इल्ला हुवा अलमलिकु अलक़ुद्दूसु अस्सलामु अलमुमिनु अलमुहयमिनु अलअज़ीज़ु अलजब्बारु अलमुतकब्बिरु सुबहना अल्लाहि अम्मा युशरिकून हुवा अल्लाहु ख़ालिक़ु अलबारियु अलमुसव्विरु लहु अलअसमाउ अलहुस्ना युसब्बिहु लहु मा फ़ी अस्समावाति व अलअर्ज़ि व हुवा अलअज़ीज़ु अलहकीम ”[3] यानी वह अल्लाह वह है जिसके अलावा कोई माबूद नही है वही असली हाकिम व मालिक है,वह हर ऐब से पाक व मुनज़्ज़ह,वह किसी पर ज़ुल्म नही करता,वह अमन देने वाला है,वह हर चीज़ की मुराक़ेबत करने वाला है,वह ऐसा कुदरत मन्द है जिसके लिए शिकस्त नही है,वह अपने नाफ़िज़ इरादे से हर काम की इस्लाह करता है,वह शाइस्ताए अज़मत है,वह अपने शरीक से मुनज़्जह है। वह अल्लाह बेसाबक़ा ख़ालिक़ व बेनज़ीर मुसव्विर है उसके लिए नेक नाम (हर तरह के सिफ़ाते कमाल) है, जो भी ज़मीनों व आसमानों में पाया जाता है उसकी तस्बाह करता है वह अज़ीज़ो हकीम है।

यह उसके कुछ सिफ़ाते जलाल व जमाल हैं।

3) उसकी ज़ाते पाक नामुतनाही (अपार, असीम) है

हमारा अक़ीदह है कि उसका वुजूद नामुतनाही है अज़ नज़रे इल्म व क़ुदरत,व अज़ नज़रे हयाते अबदीयत व अज़लीयत, इसी वजह से ज़मान व मकान में नही आता क्योँकि जो भी ज़मान व मकान में होता है वह महदूद होता है। लेकिन इसके बावजूद वह वक़्त और हर जगब मौजूद रहता है क्योँ कि वह फ़ौक़े ज़मान व मकान है। “व हुवा अल्लज़ी फ़ी अस्समाइ इलाहुन व फ़ी अलअर्ज़ि इलाहुन व हुवा अलहकीमु अलअलीमु ”[4] यानी (अल्लाह) वह है जो ज़मीन में भी माबूद है और आसमान में भी और वह अलीम व हकीम है। “व हुवा मअकुम अयनमा कुन्तुम व अल्लाहु विमा तअमलूना बसीर ”[5] यानी तुम जहाँ भी हो वह तुम्हारे साथ है और जो भी तुम अन्जाम देते हो वह उसको देखता है।

हाँ वह हमसे हमारे से ज़्यादा नज़दीक है,वह हमारी रूहो जान में है, वह हर जगह मौजूद है लेकिन फ़िर भी उसके लिए मकान नही है। “व नहनु अक़रबु इलैहि मिन हबलि अल वरीद ”[6] यानी हम उस से उसकी शह रगे गरदन से भी ज़्यादा क़रीब हैं।

“हुवा अलअव्वलु व अलआख़िरु व ज़ाहिरु व बातिनु व हुवा बिकुल्लि शैइन अलीम”[7] यानी वह (अल्लाह) अव्वलो आख़िर व ज़ाहिरो बातिन है और हर चीज़ का जान ने वाला है।

हम जो क़ुरआन में पढ़ते हैं कि “ज़ु अलअर्शि अलमजीद ”[8] वह साहिबे अर्श व अज़मत है। यहाँ पर अर्श से मुराद बुलन्द पा तख़्ते शाही नही है। और हम क़ुरआन की एक दूसरी आयत में जो यह पढ़ते हैं कि “अर्रहमानु अला अलअर्शि इस्तवा ” यानी रहमान (अल्लाह) अर्श पर है इसका मतलब यह नही है कि अल्लाह एक ख़ास मकान में रहता है बल्कि इसका मतलब यह है कि पूरे जहान, माद्दे और जहाने मा वराए तबीअत पर उसकी हाकमियत है। क्योँ कि अगर हम उसके लिए किसी खास मकान के क़ायल हो जायें तो इसका मतलब यह होगा कि हमने उसको महदूद कर दिया, उसके लिए मख़लूक़ात के सिफ़ात साबित किये और उसको दूसरी तमाम चीज़ो की तरह मान लिया जबकि क़ुरआन ख़ुद फ़रमाता है कि “ लैसा कमिस्लिहि शैउन ”[9] यानी कोई चीज़ उसके मिस्ल नही है।

“व लम यकुन लहु कुफ़ुवन अहद” यानी उसके मानिन्द व मुशाबेह किसी चीज़ का वुजूद नही है।

3) न वह जिस्म रखता है और न ही दिखाई देता है

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह आखोँ से हर गिज़ दिखाई नही देता, क्योँ कि आख़ोँ से दिखाई देने का मतलब यह है कि वह एक जिस्म है जिसको मकान, रंग, शक्ल और सिम्त की ज़रूरत होती है, यह तमाम सिफ़तें मख़लूक़ात की है, और अल्लाह इस से बरतरो बाला है कि उसमें मख़लूक़ात की सिफ़तें पाई जायें।

इस बिना पर अल्लाह को देखने का अक़ीदा एक तरह के शिर्क में मुलव्विस होना है। क्योँ कि क़ुरआन फ़रमाता है कि “ला तुदरिकुहु अलअबसारु व हुवा युदरिकु अलअबसारा व हुवा लतीफ़ु अलख़बीरु ” [10] यानी आँखें उसे नही देखता मगर वह सब आँखों को देखता है और वह बख़्श ने वाला और जान ने वाला है।

इसी वजह से जब बनी इस्राईल के बहाना बाज़ लोगों ने जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम से अल्लाह को देखने का मुतालबा किया और कहा कि “लन नुमिना लका हत्ता नरा अल्लाहा जहरतन ”[11] यानी हम आप पर उस वक़्त तक ईमान नही लायेंगे जब तक खुले आम अल्लाह को न देख लें। हज़रत मूसा (अ.) उनको कोहे तूर पर ले गये और जब अल्लाह की बारगाह में उनके मुतालबे को दोहराया तो उनको यह जवाब मिला कि “लन तरानी व लाकिन उनज़ुर इला अलजबलि फ़इन्नि इस्तक़र्रा मकानहु फ़सौफ़ा तरानी फ़लम्मा तजल्ला रब्बुहु लिल जबलि जअलाहुदक्कन व ख़र्रा मूसा सइक़न फ़लम्मा अफ़ाक़ा क़ाला सुबहानका तुब्तु इलैका व अना अव्वलु अलमुमिनीनावल ”[12] यानी तुम मुझे हर गिज़ नही देख सकोगो लेकिन पहाड़ की तरफ़ निगाह करो अगर तुम अपनी हालत पर बाकी रहे तो मुझे देख पाओ गे और जब उनके रब ने पहाड़ पर जलवा किया तो उन्हें राख बना दिया और मूसा बेहोश हो कर ज़मीन पर गिर पड़े,जब होश आया तो अर्ज़ किया कि पालने वाले तू इस बात से मुनज़्ज़ा है कि तुझे आँखोँ से देखा जा सके मैं तेरी तरफ़ वापस पलटता हूँ और मैं ईमान लाने वालों में से पहला मोमिन हूँ। इस वाक़िये से साबित हो जाता है कि ख़ुदा वन्दे मुतआल को हर नही देखा जा सकता।

हमारा अक़ीदह है कि जिन आयात व इस्लामी रिवायात में अल्लाह को देखने का तज़केरह हुआ है वहाँ पर दिल की आँखों से देखना मुराद है, क्योँ कि कुरआन की आयते हमेशा एक दूसरी की तफ़्सीर करती हैं। “अल क़ुरआनु युफ़स्सिरु बअज़ुहु बअज़न ”[13]

इस के अलावा हज़रत अली अलैहिस्सलाम से एक शख़्स ने सवाल किया कि “या अमीरल मोमिनीना हल रअयता रब्बका? यानी ऐ अमीरुल मोमेनीन क्या आपने अपने रब को देखा है? आपने फ़रमाया “आ अबुदु मा ला अरा ” यानी क्या मैं उसकी इबादत करता हूँ जिसको नही देखा ? इसके बाद फ़रमाया “ला तुदरिकुहु अलउयूनु बिमुशाहदति अलअयानि,व लाकिन तुदरिकुहु अलक़लूबु बिहक़ाइक़ि अलईमानि”[14]उसको आँखें तो ज़ाहिरी तौर परनही देख सकती मगर दिल ईमान की ताक़त से उसको दर्क करता है।

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के लिए मख़लूक़ की सिफ़ात का क़ायल होना जैसे अल्लाह के लिए मकान, जहत, मुशाहिदह व जिस्मियत का अक़ीदह रखना अल्लाह की माअरफ़त से दूरी और शिर्क में आलूदह होने की वजह से है। वह तमाम मुकिनात और उनके सिफ़ात से बरतर है, कोई भी चीज़ उसके मिस्ल नही हो सकती।

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5) तौहीद, तमाम इस्लामी तालीमात की रूहे है

हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह की माअरफ़त के मसाइल में मुहिमतरीन मस्ला माअरफ़ते तौहीद है। तौहीद दर वाक़ेअ उसूले दीन में से एक अस्ल ही नही बल्कि तमाम अक़ाइदे इस्लामी की रूह है। और यह बात सराहत के साथ कही जा सकती है कि इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूअ तौहीद से ही वुजूद में आते हैं। हर मंज़िल पर तौहीद की बाते हैं ,वहदते ज़ाते पाक, तौहीदे सिफ़ात व अफ़आले ख़ुदा और दूसरी तफ़्सीर में वहदते दावते अंबिया, वहदते दीन व आईने ईलाही, वहदते क़िबलाव किताबे आसमानी, तमाम इँसानों के लिए अहकाम व क़ानूने ईलाही की वहदत,वहदते सफ़ूफ़े मुस्लेमीन और वहदते यौमुल मआद (क़ियामत)।

इसी वजह से क़ुरआने करीम ने तौहीद ईलाही से हर तरह के इनहेराफ़ और शिर्क की तरफ़ लगाव को ना बखशा जाने वाला गुनाह कहा है। “इन्ना अल्लाहा ला यग़फ़िरू अन युशरका बिहि व यग़फ़िरु मा दूना ज़ालिका लिमन यशाउ व मन युशरिक बिल्लाह फ़क़द इफ़तरा इस्मन अज़ीमन ”[15] यानी अल्लाह शिर्क को हर गिज़ नही बख़शेगा, (लेकिन अगर) इसके (शिर्क) के अलावा (दूसरे गुनाह हैं तो) जिसके गुनाह चाहेगा बख़्श देगा,और जिसने किसी को अल्लाह का शरीक क़रार दिया उसने एक बहुत बड़ा गुनाह अँजाम दिया।

“व लक़द उहिया इलैका इला अल्लज़ीना मिन क़बलिका लइन अशरकता लयहबितन्ना अमलुका वलतकूनन्ना मिन अलखासिरीना”[16] यानी बातहक़ीक़ तुम पर और तुम से पहले पैग़म्बरों पर वही की गई कि अगर तुम ने शिर्क किया तो तुम्हारे तमाम आमाल हब्त (ख़त्म) कर दिये जायेंगे और तुम नुक़्सान उठाने वालों में से हो जाओ गे।

6) तौहीद की क़िस्में

हमारा अक़ीदह है कि तौहीद की बहुत सी क़िस्में हैं जिन में से यह चार बहुत अहम हैं।

तौहीद दर ज़ात

यानी उसकी ज़ात यकता व तन्हा है और कोई उसके मिस्ल नही है

तौहीद दर सिफ़ात

यानी उसके सिफ़ात इल्म, क़ुदरत, अज़लीयत, अबदियत व .....तमाम उसकी ज़ात में जमा हैं और उसकी ऐने ज़ात हैं। उसके सिफ़ात मख़लूक़ात के सिफ़ात जैसे नही हैं क्योँ कि मख़लूक़ात के तमाम सिफ़ात भी एक दूसरे से जुदा और उनकी ज़ात भी सिफ़ात से जुदा होती है। अलबत्ता ऐनियते ज़ाते ख़ुदा वन्द बा सिफ़ात को समझ ने के लिए दिक़्क़त व ज़राफते फ़िकरी की जरूरत है।

तौहीद दर अफ़आल

हमारा अक़ीदह है कि इस आलमें हस्ति में जो अफ़आल,हरकात व असरात पाये जाते हैं उन सब का सरचश्मा इरादए ईलाही व उसकी मशियत है। “अल्लाहु ख़ालिकु कुल्लि शैइन व हुवा अला कुल्लि शैइन वकील ”[17] यानी हर चीज़ का ख़ालिक़ अल्लाह है और वही हर चीज़ का हाफ़िज़ व नाज़िर भी है। “लहु मक़ालीदु अस्समावाति व अलअर्ज़ि ” [18]तमाम ज़मीन व आसमान की कुँजियाँ उसके दस्ते क़ुदरत में हैं।

“ला मुअस्सिरु फ़ी अलवुजूदि इल्ला अल्लाहु” इस जहाने हस्ति में अल्लाह की ज़ात के अलावा कोई असर अन्दाज़ नही है।

लेकिन इस बात का हर गिज़ यह मतलब नही है कि हम अपने आमाल में मजबूर है, बल्कि इसके बर अक्स हम अपने इरादोँ व फ़ैसलों में आज़ाद हैं “इन्ना हदैनाहु अस्सबीला इम्मा शाकिरन व इम्मा कफ़ूरन ” [19]हम ने (इँसान) की हिदायत कर दी है (उस को रास्ता दिखा दिया है)अब चाहे वह शुक्रिया अदा करे (यानी उसको क़बूल करे)या कुफ़्राने नेअमत करे (यीनू उसको क़बूल न करे)। “व अन लैसा लिल इँसानि इल्ला मा सआ ” [20] यानी इँसान के लिए कुछ नही है मगर वह जिसके लिए उसने कोशिश की है। क़ुरआन की यह आयत सरीहन इस बात की तरफ़ इशारा कर रही है कि इँसान अपने इरादे में आज़ाद है , लेकिन चूँकि अल्लाह ने इरादह की आज़ादी और हर काम को अँजाम देने की क़ुदरत हम को अता की है,हमारे काम उसकी तरफ़ इसनाद पैदा करते हैं इसके बग़ैर कि अपने कामों के बारे में हमारी ज़िम्मेदारी कम हो- इस पर दिक़्क़त करनी चाहिए। हाँ उसने इरादह किया है कि हम अपने आमाल को आज़ादी के साथ अँजाम दें ताकि वह इस तरीक़े से वह हमारी आज़माइश करे और राहे तकामुल में आगे ले जाये, क्योँ कि इँसानों का तकामुल तन्हा आज़ादीये इरादह और इख़्तियार के साथ अल्लाह की इताअत करने पर मुन्हसिर है, क्योँ कि आमाले जबरी व बेइख़्तियारी न किसी के नेक होने की दलील है और न बद होने की।

असूलन अगर हम अपने आमाल में मजबूर होते तो आसमानी किताबों का नज़ूल, अंबिया की बेसत, दीनी तकालीफ़ व तालीमो तरबीयत और इसी तरह से अल्लाह की तरफ़ से मिलनी वाली सज़ा या जज़ा ख़ाली अज़ मफ़हूम रह जाती।

यह वह चीज़ हैं जिसको हमने मकतबे आइम्मा-ए-अहलेबैत अलैहिमुस्सलाम से सीखा है उन्होँने हम से फ़रमाया है कि “न जबरे मुतलक़ सही है न तफ़वाज़े मुतलक़ बल्कि इन दोनों के दरमियान एक चीज़ है, ला जबरा व ला तफ़वीज़ा व लाकिन अमरा बैना अमरैन ”[21]

तौहीद दर इबादत

यानी इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है और उसकी ज़ाते पाक के अलावा किसी माबूद का वुजूद नही है। तौहीद की यह क़िस्म सबसे अहम क़िस्म है और इस की अहमियत इस बात से आशकार हो जाती है कि अल्लाह की तरफ़ से आने वाले तमाम अंबिया ने इस पर ही ज़्यादा ज़ोर दिया है “व मा उमिरू इल्ला लियअबुदू अल्लाहा मुख़लिसीना लहु अद्दीना हुनफ़आ..... व ज़ालिका दीनु अलक़य्यिमति ”[22] यानी पैग़म्बरों के इसके अलावा कोई हुक्म नही दिया गया कि तन्हा अल्लाह की इबादत करें, और अपने दीन को उसके लिए खालिस बनाऐं और तौहीद में किसी को शरीक क़रार देने से दूर रहें .....और यही अल्लाह का मोहकम आईन है।

अख़लाक़ व इरफ़ान के तकामुल के मराहिल को तय करने से तौहीद और अमीक़तर हो जाती है और इँसान इस मँज़िल पर पहुँच जाता है कि फ़क़त अल्लाह से लौ लगाये रखता है,हर जगह उसको चाहता है उसके अलावा किसी ग़ैर के बारे में नही सोचता और कोई चीज़ उसको अल्लाह से हटा कर अपनी तरफ़ मशग़ूल नही करती। कुल्ला मा शग़लका अनि अल्लाहि फ़हुवा सनमुका यानी जो चीज़ तुझ को अल्लाह से दूर कर अपने में उलझा ले वही तेरा बुत है।

हमारा अक़ीदह है कि तौहीद फ़क़त इन चार क़िस्मों पर ही मुन्हसिर नही है,बल्कि-

तौहीद दर मालकियत यानी हर चीज़ अल्लाह की मिल्कियत है। “ लिल्लाहि मा फ़ी अस्समावाति व मा फ़ी अलअर्ज़ि ”[23]

तौहीद दर हाकमियत यानी क़ानून फ़क़त अल्लाह का क़ानून है। “व मन लम यहकुम बिमा अनज़ला अल्लाहु फ़उलाइका हुमुल काफ़ीरूना ”[24] यानी जो अल्लाह के नाज़िल किये हुए (क़ानून के मुताबिक़) फ़ैसला नही करते काफ़िर हैं।

7) हमारा अक़ीदह है कि अस्ले तौहीदे अफ़आली इस हक़ीक़त की ताकीद करती है कि अल्लाह के पैग़म्बरों ने जो मोजज़ात दिखाए हैं वह अल्लाह के हुक्म से थे, क्योँ कि क़ुरआने करीम हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के बारे में फ़रमाता है कि “व तुबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा बिइज़नि व इज़ तुख़रिजु अलमौता बिइज़नि ”[25] यानी तुम ने मादर ज़ाद अँधों और ला इलाज कोढ़ियों को मेरे हुक्म से सेहत दी!और मुर्दों को मेरे हुक्म से ज़िन्दा किया।

और जनाबे सुलेमान अलैहिस्सलाम के एक वज़ीर के बारे में फ़रमाया कि “क़ाला अल्लज़ी इन्दहु इल्मुन मिन अलकिताबि अना आतिका बिहि क़बला अन यरतद्दा इलैका तरफ़ुका फ़लम्मा रआहु मुस्तक़िर्रन इन्दहु क़ाला हाज़ा मिन फ़ज़लि रब्बि” यानी जिस के पास (आसमानी) किताब का थोड़ा सा इल्म था उसने कहा कि इस से पहले कि आप की पलक झपके मैं उसे (तख़्ते बिलक़ीस)आप के पास ले आउँगा,जब हज़रत सुलेमान ने उसको अपने पास ख़ड़ा पाया तो कहा यह मेरे परवरदिगार के फ़ज़्ल से है।

इस बिना पर जनाबे ईसा की तरफ़ अल्लाह के हुक्म से लाइलाज बीमारों को शिफ़ा (सेहत) देने और मुर्दों को ज़िन्दा करने की निसबत देना, जिसको क़ुरआने करीम ने सराहत के साथ बयान किया है ऐने तौहीद है।

8) फ़रिशतगाने ख़ुदा

फ़रिश्तों के वुजूद पर हमारा अक़ीदह है कि और हम मानते हैं कि उन में से हर एक की एक ख़ास ज़िम्मेदारी है-

एक गिरोह पैगम्बरों पर वही ले जाने पर मामूर हैं।[26]

एक गिरोह इँसानों के आमाल को हिफ़्ज़ करने पर[27]

एक गिरोह रूहों को क़ब्ज़ करने पर[28]

एक गिरोह इस्तेक़ामत के लिए मोमिनो की मदद करने पर[29]

एक गिरोह जँग मे मोमिनों की मदद करने पर[30]

एक गिरोह बाग़ी कौमों को सज़ा देने पर[31]

और उनकी एक सबसे अहम ज़िम्मेदारी इस जहान के निज़ाम में है।

क्योँ कि यह सब ज़िम्मेदारियाँ अल्लाह के हुक्म और उसकी ताक़त से है लिहाज़ अस्ले तौहीदे अफ़आली व तौहीदे रबूबियत की मुतनाफ़ी नही हैं बल्कि उस पर ताकीद है।

ज़िमनन यहाँ से मस्ला-ए-शफ़ाअते पैग़म्बरान, मासूमीन व फ़रिश्तेगान भी रौशन हो जाता है क्योँ कि यह अल्लाह के हुक्म से है लिहाज़ा ऐने तौहीद है। “मा मिन शफ़ीइन इल्ला मिन बअदि इज़निहि ”[32] यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह के हुक्म से।

मस्ला ए शफ़ाअत और तवस्सुल के बारे में और ज़्यादा शरह (व्याख्या) नबूवते अंबिया की बहस में देँ गे।

9) इबादत सिर्फ़ अल्लाह से मख़सूस है।

हमारा अक़ीदह है कि इबादत बस अल्लाह की ज़ाते पाक के लिए है। (जिस तरह से इस बारे में तौहीदे अद्ल की बहस में इशारा किया गया है) इस बिना पर जो भी उसके अलावा किसी दूसरे की इबादत करता है वह मुशरिक है, तमाम अंबिया की तबलीग़ भी इसी नुक्ते पर मरकूज़ थी “उअबुदू अल्लाहा मा लकुम मिन इलाहिन ग़ैरुहु”[33] यानी अल्लाह की इबादत करो उसके अलावा तुम्हारा और कोई माबूद नही है। यह बात क़ुरआने करीम में पैग़म्बरों से मुताद्दिद मर्तबा नक़्ल हुई है। मज़ेदार बात यह है कि हम तमाम मुसलमान हमेशा अपनी नमाज़ों में सूरए हम्द की तिलावत करते हुए इस इस्लामी नारे को दोहराते रहते हैं “इय्याका नअबुदु व इय्याका नस्तईनु ” यानी हम सिर्फ़ तेरी ही इबादत करते हैं और तुझ से ही मदद चाहते हैं।

यह बात ज़ाहिर है कि अल्लाह के इज़्न से पैग़म्बरों व फ़रिश्तों की शफ़ाअत का अक़ीदह जो कि क़ुरआने करीम की आयात में बयान हुआ है इबादत के मअना मे है।

पैग़म्बरों से इस तरह का तवस्सुल कि जिस में यह चाहा जाये कि परवर दिगार की बारगाह में तवस्सुल करने वाले की मुश्किल का हल तलब करें, न तो इबादत शुमार होता है और न ही तौहीदे अफ़आली या तौहीदे इबादती के मुतनाफ़ी है। इस मस्ले की शरह नबूवत की बहस में बयान की जाएगी।

10) ज़ाते ख़ुदा की हक़ीक़त सबसे पौशीदा है

हमारा अक़ीदह है कि इसके बावुजूद कि यह दुनिया अल्लाह के वुजूद के आसार से भरी हुई है फ़िर भी उसकी ज़ात की हक़ीक़त किसी पर रौशन नही है और न ही कोई उसकी ज़ात की हक़ीक़त को समझ सकता है, क्योँ कि उसकी ज़ात हर लिहाज़ से बेनिहायत और हमारी ज़ात हर लिहाज़ से महदूद है लिहाज़ा हम उस की ज़ात का इहाता नही कर सकते“ अला इन्नहु बिकुल्लि शैइन मुहीतु ”[34] यानी जान लो कि उस का हर चीज़ पर इहाता है। या यह आयत कि “व अल्लाहु मिन वराइहिम मुहीतु ”[35]यानी अल्लाह उन सब पर इहाता रखता है।

पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक मशहूर व माअरूफ़ हदीस में मिलता है कि “मा अबदनाका हक़्क़ा इबादतिक व मा अरफ़नाका हक़्क़ा मअरिफ़तिक”[36] यानी न हम ने हक़्क़े इबादत अदा किया और न हक़्क़े माअरेफ़त लेकिन इसका मतलब यह नही है जिस तरह हम उसकी ज़ाते पाक के इल्मे तफ़्सीली से महरूम है इसी तरह इजमाली इल्म व माअरेफ़ते से भी महरूम हैं और बाबे मअरेफ़तु अल्लाह में सिर्फ़ उन अलफ़ाज़ पर क़िनाअत करते हैं जिनका हमारे लिए कोई मफ़हूम नही है। यह मारिफ़तु अल्लाह का वह बाब है जो हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है और न ही हम इसके मोतक़िद हैं। क्योँ कि क़ुरआन और दूसरी आसमानी किताबे अल्लाह की माअरेफ़त के लिए ही तो नाज़िल हुई है।

इस मोज़ू के लिए बहुत सी मिसाले बयान की जा सकती हैं जैसे हम रूह की हक़ीक़त से वाक़िफ़ नही हैं लेकिन रूह के वुजूद के बारे में हमें इजमाली इल्म है और हम उसके आसार का मुशाहेदा करते हैं।

इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “ कुल्ला मा मय्यज़तमुहु बिअवहामिकुम फ़ी अदक़्क़ि मुआनीहि मख़लूक़ुन मसनूउन मिस्लुकुम मरदूदुन इलैकुम”[37] यानी तुम अपनी फ़िक्र व वहम में जिस चीज़ को भी उसके दक़ीक़तरीन मअना में तसव्वुर करोगे वह मख़लूक़ और तुम्हारे पैदा की हुई चीज़ है,जो तुम्हारी ही मिस्ल है और वह तुम्हारी ही तरफ़ पलटा दी जायेगी।

अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मअरिफ़तु अल्लाह की बारीक व दक़ीक़ राह को बहुत सादा व ज़ेबा तबीर के ज़रिये बयान फ़रमाया है “लम युतलिइ अल्लाहु सुबहानहु अल उक़ूला अला तहदीदे सिफ़तिहि व लम यहजुबहा अमवाज़ा मअरिफ़तिहि ”[38] यानी अल्लाह ने अक़्लों को अपनी ज़ात की हक़ीक़त से आगाह नही किया है लेकिन इसके बावुजूद जरूरी माअरिफ़त से महरूम भी नही किया है।

11) न तर्क न तशबीह

हमारा अक़ीदह यह है कि जिस तरह से अल्लाह की पहचान और उसके सिफ़ात की मारेफ़त को तरक करना सही नही है उसी तरह उसकी ज़ात को दूसरी चीज़ों से तशबीह देना ग़लत और मुजिबे शिर्क है। यानी जिस तरह उसकी ज़ात को दूसरी मख़लूक़ से मुशाबेह नही माना जा सकता इसी तरह यह भी नही कहा जा सकता है कि हमारे पास उसके पहचान ने का कोई ज़रिया नही है और उसकी ज़ात असलन काबिले मारेफ़त नही है। हमें इस बात पर ग़ौर करना चाहिए क्योँ कि एक राहे इफ़रात है दूसरी तफरीत।

जन्म

इमामे ज़माना के तीसरे नायिब(प्रतिनिधि) हुसैन पुत्र रूह नोबख्ती के समय मे शेख सदूक़ के पिता अली पुत्र बाबवे क़ुम्मी बग़दाद गये। क्योंकि उनके कोई संतान नही थी इस लिए उन्हेने इमाम को एक पत्र लिखा जिसमे मे पुत्र प्राप्ति की इच्छा व्यक्त की।

 

यह पत्र उन्होने हुसैन पुत्र रोह को दिया और कहा कि आप जब इमाम की सेवा मे जाना तो मेरा यह पत्र भी इमाम की सेवा मे प्रस्तुत कर देना। इसके बाद उनको इमाम का उत्तर प्राप्त हुआ कि हमने तुम्हारे लिए दुआ कर दी है अल्लाह शीघ्र ही तुमको दो पवित्र पुत्र प्रदान करेगा।

 

सन्311हिजरी क़मरी मे इमाम की दुआ के फल स्वरूप शेख सदूक़ का जन्म हुआ। शेख सदूक़ ने स्वयं अपनी किताब कमालुद्दीन मे इस बात का उल्लेख किया है।

शेख सदूक़ के व्यक्तित्व पर एक दृष्टि

शेख सदूक़ एक शिक्षित परिवार मे पैदा हुए थे।शेख सदूक़ के पिता क़ुम के उच्च कोटी के विद्वान थे। शेख सदूक़ के अनुसार उन्होने200से अधिक किताबे लिखीं। शेख सदूक़ ने प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के बाद क़ुम के महान फ़कीहो व मुहद्दिसों से हदीस व फ़िक्ह का ज्ञान प्राप्त किया। उन्होने इस ज्ञान की प्राप्ति हेहू अपने पिता अली पुत्र बाबवे क़ुम्मी, मुहम्मद पुत्र हसन पुत्र वलीद, अहमद पुत्र अली पुत्र इब्राहीम क़ुम्मी,हुसैन पुत्र इदरीस क़ुम्मी व इत्यादि से ज्ञान लाभ प्राप्त किया।

बोया वंश के शासन काल मे उन्होने शिया बाहुल्य़ स्थानो का भ्रमन किया। शेख सदूक़347हिजरी क़मरी मे रै नामक स्थान पर अबुल हसन मुहम्मद पुत्र अहमद पुत्र अली असदी से जो इब्ने जुरादाह बरदई के नाम से प्रसिद्ध थे हदीस के क्षेत्र मे ज्ञान लाभ प्राप्त किया। 352हिजरी क़मरी मे उन्होने नेशापुर मे अबु अली हुसैन पुत्र अहमद बहीक़ी, अबदुर्रहमान मुहम्मद पुत्र अबदूस से भी हदीस के क्षेत्र मे ज्ञान लाभ प्राप्त किया। इसी प्रकार उन्होने मरू नामक स्थान पर अबुल हसन मुहम्मद पुत्र अली पुत्र फ़कीह,अबू यूसुफ़ राफ़े पुत्र अब्दुल्लाह,से भी हदीस के क्षेत्र मे ज्ञान लाभ प्राप्त किया। अबु यूसुफ़ राफ़े वह महान व्यक्ति हैं जिन्होने कूफ़ा,मक्का,बग़दाद,बलख व सरखस मे हदीसो को सुना था। ज्ञानीयो के लिए भ्रमन एक साधारण कार्य है। शेख सदूक़ के समय मे शिया एक सीमा तक स्वतन्त्रता का जीवन व्यतीत कर रहे थे। इसी कारण उन्होने ने सुन्नी बाहुल्य स्थानो की भी यात्राऐं की तथा शिया सम्प्रदाय को बातिल मानने वालों के सम्मुख शिया सम्प्रदाय की वास्तविक्ता को उजागर किया। उन्होने शिया सम्प्रदाय के ज्ञान, फ़िक्ह, हदीस,को प्रकाशित किया। तथा इस प्रकार शिया सम्प्रदाय के उत्थान व विकास मे महत्वपूर्ण योगदान किया।

उनका ज्ञान व अध्यात्म के क्षेत्र मे इतना उच्चय स्थान था कि फ़कीहे अज़ीमुश्शानी, व बहरूल उलूम जैसे शिया विद्वानो व फ़कीहो ने रईसुल मुहद्देसीन जैसी उपाधी के साथ उनका वर्णन किया है।

शेख सदूक़ शिया विद्वानो की दृष्टि मे

1- शेख तूसी उनके सम्बन्ध मे कहते हैं कि शेख सदूक़ अलैहिर्रहमा एक उच्चय कोटी के विद्वान, व हाफ़िज़े हदीस थे। उन्होने लगभग 300 किताबें लिखी। ज्ञान व हिफ़ज़े हदीस के क्षेत्र मे पूरे क़ुम मे कोई उन से बढ़ कर न था।

2- मुहम्मद पुत्र इदरीस हिल्ली उनके सम्बन्ध मे लिखते हैं कि शेख सदूक़ अलैहिर्रहमा एक विशवसनीय विद्वान, अखबार ( रिवायात)के विशेषज्ञ, इल्मे रिजाल के महान ज्ञानी व हदीस के हाफ़िज़ थे।

3-अल्लामा बहरूल उलूम उनके सम्बन्ध मे लिखते हैं कि अबूजाफ़र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र हुसैन पुत्र मूसा पुत्र बाबवे क़ुम्मी शियों के पेशवाओं मे से एक पेशवा व शरीअत के सतूनो मे से एक सतून(स्तंभ) हैं।वह मुहद्देसीन के सरदार हैं ।व जो कथन उन्होने आइम्मा ए सादेक़ीन से हमारी ओर परिवर्तित किये हैं वह उन मे सच्चे हैं। वह इमामे ज़माना की दुआ से पैदा हुए थे। इस प्रकार उनको यह श्रेष्ठता प्राप्त हुई।

शेख सदूक़ के असातेज़ा (गुरूजन)

मरहूम शेख अब्दुर्ऱहीम रब्बानी शीराज़ी ने शेख सदूक़ के जिन गुरूओं का वर्णन किया है उनमे से मुख्य इस प्रकार हैँ।

1-अली पुत्र बाबवे क़ुम्मी

2-मुहम्मद पुत्र हसन वलीद क़ुम्मी

3-अहमद पुत्र अली पुत्र इब्राहीम

4-अली पुत्र मुहम्मद क़ज़वीनी

5-जाफ़र पुत्र मुहम्मद पुत्र शाज़ान

6-जाफ़र पुत्र मुहम्मद पुत्र क़लवीय क़ुम्मी

7-अली पुत्र अहमद पुत्र मेहरयार

8-अबुल हसन खयूती

9-अबू जाफ़र मुहम्मद पुत्र अली पुत्र असवद

10-अबू जाफ़र मुहम्मद पुत्र याक़ूब कुलैनी

11अहमद पुत्र ज़ियाद पुत्र जाफ़र हमदानी

12-अली पुत्र अहमद पुत्र अब्दुल्लाह क़रकी

13-मुहम्मद पुत्र इब्राहीम लीसी

14-इब्राहीम पुत्र इस्हाक़ तालक़ानी

15-मुहम्मद पुत्र क़ासिम जुरजानी

16-हुसैन पुत्र इब्राहीम मकतबी

शेख सदूक़ के शिष्यगण

1-शेख मुफ़ीद

2-मुहम्मद पुत्र मुहम्मद पुत्र नोमान

3-हुसैन पुत्र अब्दुल्लाह

4-हारून पुत्र मूसा तलाकिबरी

5-हुसैन पुत्र अली पुत्र बाबवे क़ुम्मी( भाई)

6-हसन पुत्र हुसैन पुत्र बाबवे क़ुम्मी( भतीजा)

7-हसन पुत्र मुहम्मद क़ुम्मी

8-अली पुत्र अहमद पुत्र अब्बास नजाशी

9-इल्मुल हुदा सैय्यिद मुर्तज़ा

10-सैय्य़िद अबुल बरकात अली पुत्र हुसैन जूज़ी

11-अबुल क़ासिम अली खिज़ाज़

12-मुहम्मद पुत्र सुलेमान हिमरानी

शेख सदूक़ की रचनाऐं

शेख तूसी ने वर्णन किया है कि शेख सदूक़ ने 300 किताबे लिखी हैं। तथा शेख तूसी ने अपनी किताब फ़हरिस्त मे उनकी 40 किताबो के नाम लिखे हैं। तथा शेख नजाशी ने अपनी किताब मे उनकी 189 किताबो का उल्लेख किया है।उनकी मुख्य किताबो के नाम इस प्रकार हैं।

1-मन ला यहज़रूल फ़क़ीह

2-कमालुद्दीन व इतमामुन् नेअमत

3-किताब आमाली

4-किताब सिफ़ाते शिया

5-किताब अयूनुल अखबार इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम

6-किताब मसादेक़हुल अखबार

7-किताब खिसाल

8- किताब ऐलालुश शराए

9-किताब तौहीद

10-किताब इसबाते विलायत अली

11-किताब मारफ़त

12-किताब मदीनःतुल इल्म

13-किताब मक़ना

14-किताब मुआनीयुल अखबार

15-किताब मशीखातहुल फ़कीह

“मन ला यहज़रुल फ़कीह” शेख सदूक़ की विश्व प्रसिद्ध किताब है। यह किताब अनेको बार प्रकाशित हो चुकी है। शेख सदूक़ ने इस किताब को बलख क्षेत्र के इलाक़ नामक एक गाँव मे बैठकर लिखा था। इस किताब की अनेको विद्वानो ने व्याख्या की है तथा कुछ ने इस पर नोट्स लिखे हैं।

शेख सदूक़ इस किताब की प्रस्तावना मे लिखते हैं कि जब तक़दीर मुझे खैंच कर इस गाँव मे लाई तो यहां पर मेरी भेंट सैय्यिद अबू अब्दुल्लाह (जो नेअमत के नाम से प्रसिद्धि रखते हैं।) से हुई। मैं उनसे मिलकर बहुत प्रसन्न हुआ । उन्होने कहा कि मुहम्मद बिन ज़करिया राज़ी ने तिब मे (चिकित्सा ज्ञान) एक किताब लिखी थी और उसका नाम मन ला यहज़रूत तबीब रखा था। तथा इस किताब मे तिब (चिकित्साज्ञान) से सम्बन्धित सब बातों को लिखा था। जहां पर कोई तबीब (चिकित्सक) नही होता था वहां पर इस किताब की महत्ता बहुत अधिक थी। उन्होने मुझ से कहा कि आप फ़िक्ह, हलाल, हराम व दीनी अहकाम पर एक किताब लिखे जिसमे सब मसाइल मौजूद हो और उस किताब का नाम ला यहज़रूल फ़कीह रखें। ताकि जो जिस हुक्म को चाहे उसमे देखे और उस पर विश्वास करे। मैने उनकी इस बात को स्वीकार किया तथा यह किताब मन ला यहज़रूल फ़कीह लिखी।

इस किताब की महत्ता इस बात से प्रकट होती है कि शिया सम्प्रदाय की चार मुख्य किताबो मे यह किताब दूसरे स्थान पर है। इस किताब के चार भाग हैं जिनको विभिन्न 544 खण्ड़ो पर विभाजित किया गया है। तथा इस किताब मे 5963 हदीसो का उल्लेख किया गया है। जिनमे से 3913 हदीसों का मुस्नद रूप से उल्लेख किया गया है, तथा शेष 2050 हदीसों का मुरसल रूप मे उल्लेख किया गया है।

स्वर्गवास

शेख सदूक़ मुहम्मद पुत्र बाबवे क़ुम्मी सत्तर वर्ष से अधिक जीवित रहे। तथा उन्होंने 300 से अधिक किताबे लिखी। वह सन् 381 हिजरी क़मरी मे रै नामक शहर (यह शहर वर्तमान मे ईरान की राजधानी तेहरान के पास स्थित है) मे स्वर्गवासी हुए तथा वहीं पर उनकी समाधि बनायी गई।

रविवार, 13 जनवरी 2013 06:07

नमाज़ की अहमियत

नमाज़ सभी उम्मतों मे मौजूद थी

हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स. अ.) से पहले हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की शरीअत मे भी नमाज़ मौजूद थी।

क़ुरआन मे इस बात का ज़िक्र सूरए मरियम की 31 वी आयत मे मौजूद है कि हज़रत ईसा (अ.स.) ने कहा कि अल्लाह ने मुझे नमाज़ के लिए वसीयत की है। इसी तरह हज़रत मूसा (अ. स.) से भी कहा गया कि मेरे ज़िक्र के लिए नमाज़ को क़ाइम करो। (सूरए ताहा आयत 26)

इसी तरह हज़रत मूसा अ. से पहले हज़रत शुऐब अलैहिस्सलाम भी नमाज़ पढ़ते थे जैसे कि सूरए हूद की 87वी आयत से मालूम होता है। और इन सबसे पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम थे। जो अल्लाह से अपने और अपनी औलाद के लिए नमाज़ क़ाइम करने की तौफ़ीक़ माँगते थे।

और इसी तरह हज़रत लुक़मान अलैहिस्सलाम अपने बेटे को वसीयत करते हैं कि नमाज़ क़ाइम करना और अम्रे बिल मअरूफ़ व नही अज़ मुनकर को अंजाम देना।

दिल चस्प बात यह है कि अक्सर मक़ामात पर नमाज़ के साथ ज़कात अदा करने की ताकीद की गई है। मगर चूँकि मामूलन नौजवानों के पास माल नही होता इस लिए इस आयत में नमाज़ के साथ अम्र बिल माअरूफ़ व नही अज़ मुनकर की ताकीद की गई है।

2- नमाज़ के बराबर किसी भी इबादत की तबलीग़ नही हुई

हम दिन रात में पाँच नमाज़े पढ़ते हैं और हर नमाज़ से पहले अज़ान और इक़ामत की ताकीद की गई है। इस तरह हम

बीस बार हय्या अलस्सलात (नमाज़ की तरफ़ आओ।)

बीस बार हय्या अलल फ़लाह (कामयाबी की तरफ़ आओ।)

बीस बार हय्या अला ख़ैरिल अमल (अच्छे काम की तरफ़ आओ)

और बीस बार क़द क़ामःतिस्सलात (बेशक नमाज़ क़ाइम हो चुकी है)

कहते हैं। अज़ान और इक़ामत में फ़लाह और खैरिल अमल से मुराद नमाज़ है। इस तरह हर मुसलमान दिन रात की नमाज़ों में 60 बार हय्या कह कर खुद को और दूसरों को खुशी के साथ नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जेह करता है। नमाज़ की तरह किसी भी इबादत के लिए इतना ज़्याद शौक़ नही दिलाया गया है।

हज के लिए अज़ान देना हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ज़िम्मेदारी थी, मगर नमाज़ के लिए अज़ान देना हम सबकी ज़िम्मेदारी है। अज़ान से ख़ामोशी का ख़ात्मा होता है। अज़ान एक इस्लामी फ़िक्र और अक़ीदा है।

अज़ान एक मज़हबी तराना है जिसके अलफ़ाज़ कम मगर पुर मअनी हैं

अज़ान जहाँ ग़ाफ़िल लोगों के लिए एक तंबीह है। वहीँ मज़हबी माहौल बनाने का ज़रिया भी है। अज़ान मानवी जिंदगी की पहचान कराती है।

3- नमाज़ हर इबादत से पहले है

मखसूस इबादतें जैसे शबे क़द्र, शबे मेराज, शबे विलादत आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम, शबे जुमा,रोज़े ग़दीर, रोज़े आशूरा और हर बा फ़ज़ीलत दिन रात जिसके लिए मख़सूस दुआऐं व आमाल हैं वहीँ मख़सूस नमाज़ों का भी हुक्म है। शायद कोई भी ऐसा मुक़द्दस दिन नही है जिसमे नमाज़ की ताकीद ना की गई हो।

4- नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में पाई जाती हैं

अगरचे जिहाद ,हज ग़ुस्ल और वज़ु की कई क़िस्मे हैं,मगर नमाज़ एक ऐसी इबादत है जिसकी बहुत सी क़िस्में हैँ। अगर हम एक मामूली सी नज़र अल्लामा मुहद्दिस शेख़ अब्बास क़ुम्मी की किताब मफ़ातीहुल जिनान के हाशिये पर डालें तो वहां पर नमाज़ की इतनी क़िसमें ज़िक्र की गयीं है कि अगर उन सब को एक जगह जमा किये जाये तो एक किताब और वजूद मे आ सकती है। हर इमाम की तरफ़ एक नमाज़ मनसूब है जो दूसरो इमामो की नमाज़ से जुदा है। मसलन इमामे ज़मान की नमाज़ अलग है और इमाम अली अलैहिमस्सलाम की नमाज़ अलग है।

5- नमाज़ व हिजरत

जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह से अर्ज़ किया कि ऐ पालने वाले मैंने इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए अपनी औलाद को बे आबो गयाह(वह सूखा इलाक़ा जहाँ पर पीनी की कमी हो और कोई हरयाली पैदा न होती हो।) मैदान मे छोड़ दिया है। हाँ नमाज़ी हज़रात की ज़िम्मेदारी ये भी है कि नमाज़ को दुनिया के कोने कोने मे पहुचाने के लिए ऐसे मक़ामात पर भी जाऐं जहां पर अच्छी आबो हवा न हो।

6- नमाज़ के लिए मुहिम तरीन जलसे को तर्क करना

क़ुरआन मे साबेईन नाम के एक दीन का ज़िक्र हुआ। इस दीन के मानने वाले सितारों के असारात के क़ाइल हैं और अपनी मख़सूस नमाज़ व दिगर मरासिम को अनजाम देते हैं और ये लोग जनाबे याहिया अलैहिस्सलाम को मानते हैं। इस दीन के मान ने वाले अब भी ईरान मे खुज़िस्तान के इलाक़े मे पाय़े जाते हैं। इस दीन के रहबर अव्वल दर्जे के आलिम मगर मग़रूर क़िस्म के होते थे। उन्होने कई मर्तबा इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से गुफ़्तुगु की मगर इस्लाम क़बूल नही किया। एक बार इसी क़िस्म का एक जलसा था और उन्ही लोगों से बात चीत हो रही थी। हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की एक दलील पर उनका आलिम लाजवाब हो गया और कहा कि अब मेरी रूह कुछ न्रम हुई है और मैं इस्लाम क़बूल करने पर तैयार हूँ। मगर उसी वक़्त अज़ान शुरू हो गई और हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम जलसे से बाहर जाने लगें, तो पास बैठे लोगों ने कहा कि मौला अभी रूक जाइये ये मौक़ा ग़नीमत है इसके बाद ऐसा मौक़ा हाथ नही आयेगा।

इमाम ने फ़रमाया कि नही, “पहले नमाज़ बाद मे गुफ़्तुगु” इमाम अलैहिस्सलाम के इस जवाब से उसके दिल मे इमाम की महुब्बत और बढ़ गई और नमाज़ के बाद जब फिर गुफ़्तुगु शुरू हुई तो वह आप पर ईमान ले आया।

7- जंग के मैदान मे अव्वले वक़्त नमाज़

इब्ने अब्बास ने देखा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम जंग करते हुए बार बार आसमान को देखते हैं फिर जंग करने लगते हैं। वह इमाम अलैहिस्सलाम के पास आये और सवाल किया कि आप बार बार आसमान को क्यों देख रहे है? इमाम ने जवाब दिया कि इसलिए कि कहीँ नमाज़ का अव्वले वक़्त न गुज़र जाये। इब्ने अब्बास ने कहा कि मगर इस वक़्त तो आप जंग कर रहे है। इमाम अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि किसी भी हालत मे नमाज़ को अव्वले वक़्त अदा करने से ग़ाफ़िल नही होना चाहिए।

8- अहमियते नमाज़े जमाअत

एक रोज़ रसूले अकरम सल्लल्लाहो अलैहे वा आलेहि वसल्लम ने नमाज़े सुबह की जमाअत मे हज़रत अली अलैहिस्सलाम को नही देखा तो, आपकी अहवाल पुरसी के लिए आप के घर तशरीफ़ लाये। और सवाल किया कि आज नमाज़े जमाअत मे क्यों शरीक न हो सके। हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैहा ने अर्ज़ किया कि आज की रात अली सुबह तक मुनाजात मे मसरूफ़ रहे। और आखिर मे इतनी ताक़त न रही कि जमाअत के साथ नमाज़ पढ़ सके, लिहाज़ा उन्होने घर पर ही नमाज़ अदा की। रसूले अकरम स. ने फ़रमाया कि अली से कहना कि रात मे ज़्यादा मुनाजात न किया करें और थोड़ा सो लिया करें ताकि नमाज़े जमाअत मे शरीक हो सकें। अगर इंसान सुबह की नमाज़ जमाअत के साथ पढ़ने की ग़र्ज़ से सोजाये तो यह सोना उस मुनाजात से अफ़ज़ल है जिसकी वजह से इंसान नमाज़े जमाअत मे शरीक न हो सके।

9- नमाज़ को खुले आम पढ़ना चाहिए छुप कर नही

इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम मोहर्रम की दूसरी तारीख को कर्बला मे दाखिल हुए और दस मोहर्रम को शहीद हो गये।इस तरह कर्बला मे इमाम की मुद्दते इक़ामत आठ दिन है। और जो इंसान कहीँ पर दस दिन से कम रुकने का क़स्द रखता हो उसकी नमाज़ क़स्र है। और दो रकत नमाज़ पढ़ने मे दो मिनट से ज़्यादा वक़्त नही लगता खास तौर पर ख़तरात के वक़्त। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम रोज़े आशूरा बार बार ख़ैमे मे आते जाते थे। अगर चाहते तो नमाज़े ज़ोहर को खैमे मे पढ़ सकते थे। मगर इमाम ने मैदान मे नमाज़ पढ़ने का फैसला किया। और इसके लिए इमाम के दो साथी इमाम के सामने खड़े होकर तीर खाते रहे ताकि इमाम आराम के साथ अपनी नमाज़ को तमाम कर सकें। और इस तरह इमाम ने मैदान मे नमाज़ अदा की। नमाज़ को ज़ाहिरी तौर पर पढ़ने मे एक हिकमत पौशीदा है। लिहाज़ा होटलों, पार्कों, हवाई अड्डों, वग़ैरह पर नमाज़ ख़ानो को कोनों मे नही बल्कि अच्छी जगह पर और खुले मे बनाना चाहिए ताकि नमाज़ को सब लोगों के सामने पढ़ा जा सके।(क्योकि ईरान एक इस्लामी मुल्क है इस लिए होटलों, पार्कों, स्टेशनों, व हवाई अड्डो पर नमाज़ ख़ाने बनाए जाते हैं। इसी लिए मुसन्निफ़ ने ये राय पेश की।) क्योंकि दीन की नुमाइश जितनी कम होगी फ़साद की नुमाइश उतनी ही ज़्यादा बढ़ जायेगी।

10- मस्जिद के बनाने वाले नमाज़ी होने चाहिए

सुराए तौबाः की 18वी आयत में अल्लाह ने फ़रमाया कि सिर्फ़ वही लोग मस्जिद बनाने का हक़ रखते हैं जो अल्लाह और रोज़े क़ियामत पर ईमान रखते हों, ज़कात देते हों और नमाज़ क़ाइम करते हों।

मस्जिद का बनाना एक मुक़द्दस काम है लिहाज़ा यह किसी ऐसे इंसान के सुपुर्द नही किया जासकता जो इसके क़ाबिल न हो। क़ुरआन का हुक्म है कि मुशरेकीन को मस्जिद बनाने का हक़ नही है। इसी तरह मासूम की हदीस है कि अगर ज़ालिम लोग मस्जिद बनाऐं तो तुम उनकी मदद न करो।

11- शराब व जुए को हराम करने की वजह नमाज़ है

जबकि जुए और शराब मे बहुत सी जिस्मानी, रूहानी और समाजी बुराईयाँ पाई जाती है। मगर क़ुरआन कहता है कि जुए और शराब को इस लिए हराम किया गया है क्योंकि यह तुम्हारे बीच मे कीना पैदा करते हैं,और तुमको अल्लाह की याद और नमाज़ से दूर कर देते हैं। वैसे तो शराब से सैकड़ो नुक़सान हैं मगर इस आयत मे शराब से होने वाले समाजी व मानवी नुक़सानात का ज़िक्र किया गया है। कीने का पैदा होना समाजी नुक़सान है और अल्लाह की याद और नमाज़ से ग़फ़लत मानवी नुक़सान है।

12- इक़ामए नमाज़ की तौफ़ीक़ हज़रत इब्राहीम की दुआ है

सूरए इब्राहीम की 40वी आयत में इरशाद होता है कि “पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वाला बनादे।” दिलचस्प यह है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सिर्फ़ दुआ ही नही की बल्कि इस आरज़ू के लिए मुसीबतें उठाईं और हिजरत भी की ताकि नमाज़ क़ाइम हो सके।

13- इक़ामए नमाज़ पहली ज़िम्मेदारी

सूरए हिज्र की 41 वी आयत मे क़ुरआन ने ब्यान किया है कि बेशक जो मुसलमान क़ुदरत हासिल करें इनकी ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है। खुदा न करे कि हमारे कारोबारी अफ़राद की फ़िक्र सिर्फ मुनाफा कमाना, हमारे तालीमी इदारों की फ़िक्र सिर्फ़ मुताखस्सिस अफ़राद की परवरिश करना और हमारी फ़िक्र सिर्फ़ सनअत(प्रोडक्शन) तक महदूद हो जाये। हर मुसलमान की पहली ज़िम्मेदारी नमाज़ को क़ाइम करना है।

14- नमाज़ के लिए कोई पाबन्दी व शर्त नही है।

सूरए मरियम की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि----

इस्लाम के सभी अहकाम व क़वानीन मुमकिन है कि किसी शख्स से किसी खास वजह से उठा लिए जायें। मसलन अँधें और लंगड़े इंसान के लिए जिहाद पर जाना वाजिब नही है। मरीज़ पर रोज़ा वाजिब नही है। ग़रीब इंसान पर हज और ज़कात वाजिब नही है।

लेकिन नमाज़ तन्हा एक ऐसी इबादत है जिसमे मौत की आखिरी हिचकी तक किसी क़िस्म की कोई छूट नही है। (औरतों को छोड़ कर कि उनके लिए हर माह मख़सूस ज़माने मे नमाज़ माफ़ है)

15- नमाज़ के साथ इंसान दोस्ती ज़रूरी है

क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की 83वी आयत मे हुक्मे परवर दिगार है कि -------

“नमाज़ी को चाहिए लोगों के साथ अच्छे अन्दाज़ से गुफ़्तुगु करे।”हम अच्छी ज़बान के ज़रिये अमलन नमाज़ की तबलीग़ कर सकते हैं। लिहाज़ा जो लोग पैगम्बरे इस्लाम स. के अखलाक़ और सीरत के ज़रिये मुसलमान हुए हैं उनकी तादाद उन लोगों से कि जो अक़ली इस्तिदलाल(तर्क वितर्क) के ज़रिये मुसलमान हुए हैं कहीं ज़्यादा है। कुफ़्फ़ार के साथ मुनाज़रा व मुबाहिसा करते वक़्त भी उनके साथ अच्छी ज़बान मे बात चीत करने का हुक्म है। मतलब यह है कि पहले उनकी अच्छाईयों को क़बूल करे और फ़िर अपने नज़रीयात को ब्यान करे।

16- अल्लाह और क़ियामत पर ईमान के बाद पहला वाजिब नमाज़ है

क़ुरआन मे सूरए बक़रा के शुरू मे ही ग़ैब पर ईमान( जिसमे ख़ुदावन्दे मुतआल क़ियामत और फ़रिश्ते सब शामिल हैं) के बाद पहला बुन्यादी अमल जिसकी तारीफ़ की गई है इक़ाम-ए-नमाज़ है।

17- नमाज़ को सब कामो पर अहमियत देने वाले की अल्लाह ने तारीफ़ की है

क़ुरआने करीम के सूरए नूर की 37वी आयत में अल्लाह ने उन हज़रात की तारीफ़ की है जो अज़ान के वक़्त अपनी तिजारत और लेन देन के कामों को छोड़ देते हैं। ईरान के साबिक़ सद्र शहीद रजाई कहा करते थे कि नमाज़ से यह न कहो कि मुझे काम है बल्कि काम से कहो कि अब नमाज़ का वक़्त है। ख़ास तौर पर जुमे की नमाज़ के लिए हुक्म दिया गया है कि उस वक़्त तमाम लेन देन छोड़ देना चाहिए। लेकिन जब नमाज़े जुमा तमाम हो जाए तो हुक्म है कि अब अपने कामो को अंजाम देने के लिए निकल पड़ो। यानी कामों के छोड़ने का हुक्म थोड़े वक़्त के लिए है। ये भी याद रहे कि तब्लीग़ के उसूल को याद रखते हुए लोगों की कैफ़ियत का लिहाज़ रखा गया है। क्योंकि तूलानी वक़्त के लिए लोगों से नही कहा जा सकता कि वह अपने कारोबार को छोड़ दें।लिहाज़ा एक ही सूरह( सूरए जुमुआ) मे कुछ देर कारोबार बन्द करने के ऐलान से पहले फ़रमाया कि “ऐ ईमान वालो” ये ख़िताब एक क़िस्म का ऐहतेराम है। उसके बाद कहा गया कि जिस वक़्त अज़ान की आवाज़ सुनो कारो बार बन्द करदो न कि जुमे के दिन सुबह से ही। और वह भी सिर्फ़ जुमे के दिन के लिए कहा गया है न कि हर रोज़ के लिए और फ़िर कारोबार बन्द करने के हुक्म के बाद फ़रमाया कि “ इसमे तुम्हारे लिए भलाई है” आखिर मे ये भी ऐलान कर दिया कि नमाज़े जुमा पढ़ने के बाद अपने कारो बार मे फिर से मशगूल हो जाओ। और “नमाज़” लफ़्ज़ की जगह ज़िकरुल्लाह कहा गया हैइससे मालूम होता है कि नमाज़ अल्लाह को याद करने का नाम है।

18- नमाज़ को छोड़ने वालों, नमाज़ से रोकने वालों और नमाज़ से ग़ाफिल रहने वालों की मज़म्मत

कुछ लोग न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते हैं।

क़ुरआन मे सूरए क़ियामत की 31वी आयत मे इरशाद होता है कि कुछ लोग ऐसें है जो न ईमान रखते हैं और न नमाज़ पढ़ते है। यहाँ क़ुरआन ने हसरतो आह की एक दुनिया लिये हुए अफ़राद के जान देने के हालात की मंज़र कशी की है।

बाज़ लोग दूसरों की नमाज़ मे रुकावट डालते हैं।

क्या तुमने उसे देखा जो मेरे बन्दे की नमाज़ मे रुकावट डालता है। अबु जहल ने फैसला किया कि जैसे ही रसूले अकरम सजदे मे जाऐं तो ठोकर मार कर आप की गर्दन तोड़ दें। लोगों ने देखा कि वह पैगम्बरे इसलाम के क़रीब तो गया मगर अपने इरादे को पूरा न कर सका। लोगों ने पूछा कि क्या हुआ? तुम ने जो कहा था वह क्यों नही किया? उसने जवाब दिया कि मैंने आग से भरी हुई खन्दक़ देखी जो मेरे सामने भड़क रही थी( तफ़सीर मजमाउल ब्यान)

कुछ लोग नमाज़ का मज़ाक़ उड़ाते हैं।

क़ुरआन मे सूरए मायदा की आयत न.58 मे इस तरह इरशाद होता है कि जिस वक़्त तुम नमाज़ के लिए आवाज़ (अज़ान) देते हो तो वोह मज़ाक़ उड़ाते हैं।

कुछ लोग बेदिली के साथ नमाज़ पढ़ते हैं

क़ुरआन के सूरए निसा की आयत न.142 मे इरशाद होता है कि मुनाफ़ेक़ीन जब नमाज़ पढते हैं तो बेहाली का पता चलता है।

कुछ लोग कभी तो नमाज़ पढ़ते हैं कभी नही पढ़ते

क़ुरआन करीम के सूरए माऊन की आयत न.45 मे इरशाद होता है कि वाय हो उन नमाज़ीयो पर जो नमाज़ को भूल जाते हैं और नमाज़ मे सुस्ती करते हैं। तफ़सीर मे है कि यहाँ पर भूल से मतलब वोह भूल है जो लापरवाही की वजाह से हो यानी नमाज़ को भूल जाना न कि नमाज़ मे भूलना कभी कभी कुछ लोग नमाज़ पढ़ना ही भूल जाते हैं। या उसके वक़्त और अहकाम व शरायत को अहमियत ही नही देते। नमाज़ के फ़ज़ीलत के वक़्त को जान बूझ कर अपने हाथ से निकाल देते हैं। नमाज़ को अदा करने में सवाब और छोड़ने मे अज़ाब के क़ाइल नही है। सच बताइये कि अगर नमाज़ मे सुस्ती बरतने से इंसान वैल का हक़ दार बन जाता है तो जो लोग नमाज़ को पढ़ते ही नही उनके लिए कितना अज़ाब होगा।

कुछ लोग अगर दुनियावी आराम से महरूम हैं तो बड़े नमाज़ी हैं। और अगर दुनिया का माल मिल जाये तो नमाज़ से ग़ाफ़िल हो जाते हैँ।

अल्लाह ने क़ुरआने करीम के सूरए जुमुआ मे इरशाद फ़रमाया है कि जब वह कहीँ तिजारत या मौज मस्ती को देखते हैं तो उस की तरफ़ दौड़ पड़ते हैं।और तुमको नमाज़ का ख़ुत्बा देते हुए छोड़ जाते हैं। यह आयत इस वाक़िए की तरफ़ इशारा करती है कि जब पैगम्बरे इस्लाम नमाज़े जुमा का ख़ुत्बा दे रहे थे तो एक तिजारती गिरोह ने अपना सामान बेंचने के लिए तबल बजाना शुरू कर दिया। लोग पैगम्बरे इस्लाम के खुत्बे के बीच से उठ कर खरीदो फरोख्त के लिए दौड़ पड़े और हज़रत को अकेला छोड़ दिया। जैसे कि तारीख मे मिलता है कि हज़रत का ख़ुत्बा सुन ने वाले सिर्फ़ 12 अफ़राद ही बचे थे।

19- नमाज़ के लिए कोशिश

* अपने बच्चो को मस्जिद की खिदमत के लिए छोड़ना

क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 35 मे इरशाद होता है कि “कुछ लोग अपने बच्चों को मस्जिद मे काम करने के लिए छोड़ देते हैं।” जनाबे मरियम की माँ ने कहा कि अल्लाह मैं ने मन्नत मानी है कि मैं अपने बच्चे को बैतुल मुक़द्दस की खिदमत के लिए तमाम काम से आज़ाद कर दूँगी। ताकि मुकम्मल तरीक़े से बैतुल मुक़द्दस मे खिदमत कर सके। लेकिन जैसे ही बच्चे पर नज़र पड़ी तो देखा कि यह लड़की है। इस लिए अल्लाह की बारगाह मे अर्ज़ किया कि अल्लाह ये लड़की है और लड़की एक लड़के की तरह आराम के साथ खिदमत नही कर सकती। मगर उन्होने अपनी मन्नत को पूरा किया। बच्चे का पालना उठाकर मस्जिद मे लायीं और जनाबे ज़करिया के हवाले कर दिया।

* कुछ लोग नमाज़ के लिए हिजरत करते हैं, और बच्चों से दूरी को बर्दाशत करलेते हैं

क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की आयत न.37 मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अपने बाल बच्चो को मक्के के एक सूखे मैदान मे छोड़ दिया। और अर्ज़ किया कि अल्लाह मैंने इक़ामे नमाज़ के लिए ये सब कुछ किया है। दिलचस्प बात यह है कि मक्का शहर की बुन्याद रखने वाला शहरे मक्का मे आया। लेकिन हज के लिए नही बल्कि नमाज़ के लिए क्योंकि जनाबे इब्राहीम अलैहिस्सलाम की नज़र मे काबे के चारों तरफ़ नमाज़ पढ़ा जाना तवाफ़ और हज से ज़्यादा अहम था।

* कुछ लोग इक़ामए नमाज़ के लिए ज़्यादा औलाद की दुआ करते हैं

जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए इब्राहीम की चालीसवी आयत मे इरशाद होता है कि जनाबे इब्राहीम ने दुआ की कि पालने वाले मुझे और मेरी औलाद को नमाज़ क़ाइम करने वालो मे से बना दे। नबीयों मे से किसी भी नबी ने जनाबे इब्राहीम की तरह अपनी औलाद के लिए दुआ नही की लिहाज़ा अल्लाह ने भी उनकी औलाद को हैरत अंगेज़ बरकतें दीँ। यहाँ तक कि रसूले अकरम भी फ़रमाते हैं कि हमारा इस्लाम हज़रत इब्राहीम की दुआ का नतीजा है।

*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपनी बाल बच्चों पर दबाव डालते हैं

क़ुरआने करीम में इरशाद होता है कि अपने खानदान को नमाज़ पढने का हुक्म दो और खुद भी इस (नमाज़) पर अमल करो।इंसान पर अपने बाद सबसे पहली ज़िम्मेदारी अपने बाल बच्चों की है। लेकिन कभी कभी घरवाले इंसान के लिए मुश्किलें खड़ी कर देते हैं तो इस हालत मे चाहिए कि बार बार उनको इस के करने के लिए कहते रहें और उनका पीछा न छोड़ें।

• कुछ लोग अपना सबसे अच्छा वक़्त नमाज़ मे बिताते हैं

नहजुल बलाग़ा के नामा न. 53 मे मौलाए काएनात मालिके अशतर को लिखते हैं कि अपना बेहतरीन वक़्त नमाज़ मे सर्फ़ करो। इसके बाद फरमाते हैं कि तुम्हारे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं।

• कुछ लोग दूसरों मे नमाज़ का शौक़ पैदा करते हैं।

कभी शौक़ ज़बान के ज़रिये दिलाया जाता है और कभी अपने अमल से दूसरों मे शौक़ पैदा किया जाता है।

अगर समाज के बड़े लोग नमाज़ की पहली सफ़ मे नज़र आयें, अगर लोग मस्जिद जाते वक़्त अच्छे कपड़े पहने और खुशबू का इस्तेमाल करें,

अगर नमाज़ सादे तरीक़े से पढ़ी जाये तो यह नमाज़ का शौक़ पैदा करने का अमली तरीक़ा होगा। हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे बुज़ुर्ग नबीयों को खानाए काबा की ततहीर (पाकीज़गी) के लिए मुऐयन किया गया। और यह ततहीर नमाज़ीयों के दाखले के लिए कराई गयी। नमाज़ीयों के लिए हज़रत इब्राहीम व हज़रत इस्माईल जैसे अफ़राद से जो मस्जिद की ततहीर कराई गयी इससे हमारी समझ में यह बात आती है कि अगर बड़ी बड़ी शख्सियतें इक़ाम-ए-नमाज़ की ज़िम्मेदीरी क़बूल करें तो यह नमाज़ के लिए लोगों को दावत देने मे बहुत मोस्सिर(प्रभावी) होगा।

*कुछ लोग नमाज़ के लिए अपना माल वक़्फ़ कर देते हैं

जैसे कि ईरान के कुछ इलाक़ो मे कुछ लोगों ने बादाम और अखरोट के कुछ दरख्त उन बच्चों के लिए वक़्फ़ कर दिये जो नमाज़ पढने के लिए मस्जिद मे आते हैं। ताकि वह इनको खायें और इस तरह दूसरे बच्चों मे भी नमाज़ का शौक़ पैदा हो।

• कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए सज़ाऐं बर्दाशत करते हैं। जैसे कि शाह(इस्लामी इंक़िलाब से पहले ईरान का शासक) की क़ैद मे रहने वाले इंक़िलाबी मोमेनीन को नमाज़ पढ़ने की वजह से मार खानी पड़ती थी।

* कुछ लोग नमाज़ के क़याम के लिए तीर खाते हैं

जैसे कि जनाबे ज़ुहैर व सईद ने रोज़े आशूरा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के सामने खड़े होकर इक़ामा-ए-नमाज़ के लिए तीर खाये।

*कुछ लोग नमाज़ को क़ाइम करने के लिए शहीद हो जाते हैं

जैसे हमारे ज़माने के शौहदा-ए-मेहराब आयतुल्लाह अशरफ़ी इस्फ़हानी, आयतुल्लाह दस्ते ग़ैब शीराज़ी, आयतुल्लाह सदूक़ी, आयतुल्लाह मदनी और आयतुल्लाह तबा तबाई वग़ैरह।

* कुछ अफ़राद नमाज़ पढ़ते हुए शहीद हो जाते हैं

जैसे मौला-ए-`काएनात हज़रत अली अलैहिस्सलाम।

19- नमाज़ छोड़ने पर दोज़ख की मुसीबतें

क़ियामत मे जन्नती और दोज़खी अफ़राद के बीच कई बार बात चीत होगी। जैसे कि क़ुरआने करीम मे सूरए मुद्दस्सिर मे इस बात चीत का ज़िक्र इस तरह किया गया है कि“ जन्नती लोग मुजरिमों से सवाल करेंगें कि किस चीज़ ने तुमको दोज़ख तक पहुँचाया? तो वह जवाब देंगें कि चार चीज़ों की वजह से हम दोज़ख मे आये (1) हम नमाज़ के पाबन्द नही थे।(2) हम भूकों और फ़क़ीरों की तरफ़ तवज्जुह नही देते थे।(3) हम फ़ासिद समाज मे घुल मिल गये थे।(4) हम क़ियामत का इन्कार करते थे।”

नमाज़ छोड़ने के बुरे नतीज़ों के बारे मे बहुत ज़्यादा रिवायात मिलती है। अगर उन सबको एक जगह जमा किया जाये तो एक किताब वजूद मे आ सकती है।

20- नमाज़ छोड़ने वाले को कोई उम्मीद नही रखनी चाहिए।

अर्बी ज़बान मे उम्मीद के लिए रजाअ,अमल,उमनिय्याह व सफ़ाहत जैसे अलफ़ाज़ पाये जाते हैं मगर इन तमाम अलफ़ाज़ के मअना मे बहुत फ़र्क़ पाया जाता है।

जैसे एक किसान खेती के तमाम क़ानून की रियायत करे और फिर फ़सल काटने का इंतेज़ार करे तो यह सालिम रजाअ कहलाती है(यानी सही उम्मीद)

अगर किसान ने खेती के उसूलों की पाबन्दी मे कोताही की है और फ़िर भी अच्छी फ़सल काटने का उम्मीदवार है तो ऐसी उम्मीद अमल कहलाती है।

अगर किसान ने खेती के किसी भी क़ानून की पाबन्दी नही की और फिर भी अच्छी फ़सल की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को उमनिय्याह कहते हैं।

अगर किसान जौ बोने के बाद गेहूँ काटने की उम्मीद रखता है तो ऐसी उम्मीद को हिमाक़त कहते हैं।

अमल व रजा दोनो उम्मीदें क़ाबिले क़बूल है मगर उमनिय्याह और हिमाक़त क़ाबिले क़बूल नही हैँ। क्योंकि उमनिय्याह की क़ुरआन मे मज़म्मत की गई है। अहले किताब कहते थे कि यहूदीयों व ईसाइयों के अलावा कोई जन्नत मे नही जा सकता। क़ुरआन ने कहा कि यह अक़ीदा उमनिय्याह है। यानी इनकी ये आरज़ू बेकार है।

खुश बख्ती तो उन लोगों के लिए है जो अल्लाह और नमाज़ से मुहब्बत रखते हैं और अल्लाह की इबादत करते हैँ। बे नमाज़ी अफ़राद को तो निजात की उम्मीद ही नही रखनी चाहिए।

22- तमाम इबादतों के क़बूल होने का दारो मदार नमाज़ पर है।

नमाज़ की अहमियत के बारे मे बस यही काफ़ी है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने मिस्र मे अपने नुमाइंदे मुहम्मद इब्ने अबी बकर के लिए लिखा कि लोगों के साथ नमाज़ को अव्वले वक़्त पढ़ना। क्योंकि तुम्हारे दूसरे तमाम काम तुम्हारी नमाज़ के ताबे हैं। रिवायत मे यह भी है कि अगर नमाज़ कबूल हो गई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल हो जायेंगी, लेकिन अगर नमाज़ क़बूल न हुई तो दूसरी इबादतें भी क़बूल नही की जायेंगी। दूसरी इबादतो के क़बूल होने का नमाज़ के क़बूल होने पर मुनहसिर होना(आधारित होना) नमाज़ की अहमियत को उजागर करता है। मिसाल अगर पुलिस अफ़सर आपसे डराइविंग लैसंस माँगे और आप उसके बदले मे कोई भी दूसरी अहम सनद पेश करें तो वह उसको क़बूल नही करेगा। जिस तरह डराइविंग के लिए डराइविंग लैसंस का होना ज़रूरी है और उसके बग़ैर तमाम सनदें बेकार हैं। इसी तरह इबादत के मक़बूल होने के लिए नमाज़ की मक़बूलियत भी ज़रूरी है। कोई भी दूसरी इबादत नमाज़ की जगह नही ले सकती।

23- नमाज़ पहली और आखरी तमन्ना

कुछ रिवायतों मे मिलता है कि नमाज़ नबीयों की पहली तमन्ना और औलिया की आखरी वसीयत थी। इमामे जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की ज़िन्दगी मे मिलता है कि आपने अपनी ज़िंदगी के आखरी लम्हात मे फ़रमाया कि तमाम अज़ीज़ो अक़ारिब को बुलाओ। जब सब जमा हो गये तो आपने फ़रमाया कि “हमारी शफ़ाअत उन लोगों को हासिल नही होगी जो नमाज़ को हलका और मामूली समझते हैं।”

24- नमाज़ अपने आप को पहचान ने का ज़रिया है

रिवायत मे है कि जो इंसान यह देखना चाहे कि अल्लाह के नज़दीक उसका मक़ाम क्या है तो उसे चाहिए कि वह यह देखे कि उसके नज़दीक अल्लाह का मक़ाम क्या है।(बिहारूल अनवार जिल्द75 स.199 बैरूत)

अगर तुम्हारे नज़दीक नमाज़ की अज़ान अज़ीम और मोहतरम है तो तुम्हारा भी अल्लाह के नज़दीक मक़ाम है। और अगर तुम उसके हुक्म को अंजाम देने मे लापरवाही करते हो तो उसके नज़दीक भी तुम्हारा कोई मक़ाम नही है। इसी तरह अगर नमाज़ ने तुमको बुराईयों और गुनाहों से रोका है तो यह नमाज़ के क़बूल होने की निशानी है।

25. क़ियामत मे पहला सवाल नमाज़ के बारे मे

रिवायत मे है कि क़ियामत के दिन जिस चीज़ के बारे मे सबसे पहले सवाल किया जायेगा वह नमाज़ है।(बिहारूल अनवार जिल्द 7 स.267 बैरूत)

 

 

वाज़ेह रहना चाहिये के जिस तरह क़ुरआन आम किताबों की तरह की किताब नही है। इसी तरह आम दसातीर (क़ानूनों) की तरह का दस्तूर (क़ानून) भी नही है।

दस्तूर (क़ानून) का मौजूदा तसव्वुर क़ुरआन मजीद पर किसी तरह सादिक़ नही आता और ना उसे इन्सानी इसलाह के ऐतेबार से दस्तूर कह सकते हैं।

 

दस्तूर की किताब में चन्द खुसूसियात होती हैं जिन में से कोई ख़ुसूसियत क़ुरआन मजीद में नही पाई जाती है।

दस्तूर की व्याख़ा में क़ानून दानों (वकीलों, जजों) में इख़्तिलाफ हो सकता है लेकिन दस्तूर के अल्फाज़ ऐसे नही हो हो सकते जिन का बज़ाहिर कोई मतलब ही ना हो और क़ुरआन मजीद में हुरूफे मुक़त्तेआत की यही हैसियत है कि इन की तफ्सीर दुनिया का कोई भी आलिम अरबियत या साहिबे ज़बान नही कर सकता।

दस्तूर में एक मक़ाम को वाज़ेह और दूसरे को मुजमल नही रखा जाऐ ताकि मुजमल की तशरीह के लिऐ वाज़ेहात की तरफ रुजू किया जाऐ और किसी एक दफा का भी मुस्तक़िल मफ़हूम ना समझा जा सके और क़ुरआन मजीद में ऐसे मुताशाबेहात मौजूद हैं जिन का इस्तिक़लाली तौर पर कोई मफ़हूम उस वक़्त तक नही बयान हो जब तक मोहकमात को ना देख लया जाऐ और इन के मतालिब पर बा क़ायदा तहारते नफ्स के साथ ग़ौर ना कर लिया जाये।

दस्तूर हमेशा काग़ज़ पर लिखा जाता है या उस चीज़ पर जमा किया जाता है जिस पर जमा करने का उस दौर और उस जगह पर रिवाज हो। दस्तूर में यह कभी नही होता के उसे काग़ज़ पर लिख कर क़ौम के हवाले करने के बजाय किसी ख़ुफ़िया (गुप्त) ज़रिये से किसी एक आदमी के सीने पर लिख दिया जाऐ और क़ुरआने मजीद की यही हैसियत है के उसे रूहुल अमीन के ज़रिये क़लबे पैग़म्बर पर उतार दिया गया है।

दस्तूर में किसी नुमाईन्दा ए मम्लकत के ओहदे का सुबूत और हाकिमे सल्तनत के कमालात का इज़हार नही होता उस की हैसियत तमाम बाशिन्दगाने मम्लकत (देशवासी) के ऐतेबार से यकसाँ होती है क़ुरआने मजीद की यह नौईयत नही है वह जहँ इसलाहे बशरियत के क़वानीन का मख़्ज़न वहँ नाशिरे क़वानीन मुरसले आज़म के ओहदे का सुबूत भी है। वह एक तरफ इन्सानियत की रहनुमाई करता है और दूसरी तरफ नातिक़ रहनुमा के मनसब का इसबात करता है।

दस्तूर का काम बाशिन्दगाने मम्लेकत (देशवासी) के उमूरे दीन व दुनिया की तन्ज़ीम होता है। इस्लाम का काम साबिक़ के दसातीर (क़ानूनों) या उन के मुबल्लेग़ीन (प्रचारकों) की तसदीक़ (पृष्टि) नही होता है और क़ुरआने मजीद की यह ज़िम्मेदारी भी है कि एक तरफ अपनी अज़मत और अपने रसूल की बरतरी का ऐलान करता है तो दूसरी तरफ साबिक़ की शरीअतों और इन के पैग़म्बरों की भी तसदीक़ करता है।

दस्तूरे तालीमात व अहकाम का मजमूआ होता है इस में गुज़श्ता अदवार के वाक़ेआत या क़दीम ज़मानों के हवादिस (घटनाओं) का तज़किरा नही होता है लेकिन क़ुरआने करीम जहाँ एक तरफ अपने दौर के लिये ऐहकाम व तालीमात फराहम करता है वहाँ अदवारे गुज़िश्ता के इबरत ख़ेज़ वाक़ेआत भी बयान करता है इस में तहज़ीब व अख़लाक़ के मुरक़्क़ा भी हैं बत तहज़ीब उम्मतों की तबाही के मनाज़िर भी।

दस्तूर के बयानात का अन्दाज़ हाकेमाना होता है उस में तशवीक़ व तरग़ीब के पहलुवों का लिहाज़ नही किया जाता है। उस में सज़ाओं के साथ इनआमात और रिआयात का ज़िक्र होता है लेकिन दूसरों के फ़ज़ायल व कमालात का तज़किरा नही किया जाता और क़ूरआने मजीद में ऐसी आयतें ब कसरत पाई जाती हैं जहाँ अहकाम व तालीमात का तज़किरा इन्सानों के फ़ज़ायल व कमालात के ज़ैल में किया गया है और जो इस बात का वाज़ेह सबूत है कि क़ुरआन सिर्फ एक दस्तूर की किताब या ताज़ीरात का मजमूआ नही है। इस की नौईयत (हैसियत) दुनिया की जुमला तसानीफ (समस्त लेखनों) और कायनात के तमाम दसातीर (क़ानूनों) से बिल्कुल मुख़्तलिफ है। वह किताब भी है और दस्तूर भी। लेकिन ना आम किताबों जैसी किताब है और ना आम दस्तूरों जैसा दस्तूर।

और यही वजह है कि उस ने अपने तआरुफ में दस्तूर जैसा कोई अन्दाज़ नही इख़्तियार किया बल्कि अपनी ताबीरात तमाम अल्फाज़ व अल्क़ाब से की है जिस से इस की सही नौईयत का अन्दाज़ा किया जा सके।

सवाल यह पैदा होता है कि फिर क़ुरआने मजीद है क्या? इस का जवाब सिर्फ एक लफ्ज़ से दिया जा सकता है के क़ुरआन ख़ालिक़े काएनात के उसूले तरबियत का मज्मूआ और उस की शाने रुबूबियत का मज़हर है।अगर ख़लिक़ की हैसियत आम हुक्काम व सलातीन जैसी होती तो उस के उसूल व आईन भी वैसे ही होते। लेकिन उस की सल्तनत का अन्दाज़ा दुनिया से अलग है इस लिये उस का आईन भी जुदागाना है।

दुनिया के हुक्काम व सलातीन उन की इस्लाह करते है जो उन के पैदा किये हुऐ नही होते, इन का काम तख़लीक़े फर्द या तरबियते फर्द नही होता, इन की ज़िम्मेदारी तनज़ीमे मम्लेकत और इस्लाहे फर्द होती है और ज़ाहिर है के तन्ज़ीम के उसूल और होंगे और तरबियत व तख़लीक़ के उसूल और इस्लाहे ज़ाहिर के तरीक़े और होंगे और तज़किये नफ्स के क़वानीन और

क़ुरआन के आईने रुबूबियत (ईश्वर का क़ानून) होने का सब से बड़ा सुबूत यह है के उस की वही अव्वल

आग़ाज़ लफ्ज़े रुबूबियत से हुआ है

इक़रा बेइस्मे रब्बेकल लज़ी ख़लक़,, यानी मेरे हबीब तिलावते क़ुरआन का आग़ाज़ नामे रब से करो। वह रब जिस ने पैदा किया है.

ख़लाक़ल इन्साना मिन अलक़,, वह रब जिस ने इन्सान को अलक़ से पैदा किया है यानी ऐसे लोथड़े से बनाया है जिस की शक्ल जोंक जैसी होती है।

इक़रा व रब्बोकल अक्रमल्लज़ी अल्लामा बिल क़लम,, पढ़ो कि तुम्हारा रब वह बुज़ुर्ग व बरतर है जिस ने क़लम के ज़रिये तालीम दी।

अल्लमल इन्साना मालम यालम,, आयाते बाला से साफ ज़ाहिर होता है कि क़ुरआन का आग़ाज़े रुबूबियत से हुआ है। रुबूबियत के साथ तख़लीक़, माद ए तख़लीक़, तालीम बिलक़लम का तज़किरा इस बात का ज़िन्दा सुबूत है कि क़ुरआने मजीद के तालीमात व मक़ासिद का कुल ख़ुलासा तख़लीक़ व तालीम में मुन्हसिर है, इस का नाज़िल करने वाला तख़लीक़ के ऐतेबार से बक़ा ए जिस्म का इन्तेज़ाम करता है और तालीम के ऐतेबार से तज़किये नफ्स का एहतेमाम करता है।

मेरे ख़्याल में (वल्लाहो आलम) क़ुरआने मजीद में सूरे ह़म्द के उम्मुल किताब होने का राज़ भी यही है के इस में रुबूबियत के जुमला मज़ाहिर सिमट कर आ गये हैं और इस का आग़ाज़ भी रुबूबियत और उस के मज़ाहिर के साथ होता है। बल्कि इसी ख़याल की रौशनी इस हदीसे मुबारक की भी तौज़िह की जा सकती है कि ,,जो कुछ तमाम आसमानी सहीफों (वेदों) में है वह सब क़ुरआन में है और जो कुछ क़ुरआन में है वह सब सूरे हम्द में है,, यानी क़ुरआने मजीद का तमाम तर मक़सद तरबियत है और तरबियत के लिये तसव्वुर जज़ा। असासे अब्दियत (भक्ति की बुनियाद, ख़याले बी चारगी, किरदारे नेक व बद का पेशे नज़र होना इन्तेहाई ज़रूरी है और सूरे हम्द के मालिके युमिद्दीन, इय्याका नाबुदु व इय्याका नस्ताईन, सिरातल्लज़ीना अनअमता अलेहिम, गैरिल मग़ज़ूबे अलैहिम वलाज़्ज़ालीन,, में भी यही तमाम बातें पाई जाती हैं, हदीस के बाक़ी अज्ज़ा के,, जो कुछ सूरे हम्द में है वह बिस्मिल्लाह में है और जो कुछ बिस्मिल्लाह में है वह सब बाऐ बिस्मिल्लाह में है। इस की तावील का इल्म रासेख़ून फिल इल्म के अलावा किसी के पास नही है, अलबत्ता अनल नुक़ततल लती तहतलबा,, की रौशनी में यह कहा जा सकता है कि ख़ालिक़ की रुबूबी शान का मज़हर ज़ाते अली इब्ने अबीतालिब है और यही कुल्ले क़ुरआन का मज़हर है।

क़ुरआने करीम और दुनिया के दूसरे दस्तूरों का एक बुनियादी फर्क़ यह भी है कि दस्तूर का मौज़ू इस्लाह हयात होता है तालीमे कायनात नही यानी क़ानून साज़ी की दुनिया साईन्स की लिबारटी से अलग होती है। मजलिस क़ानून साज़ के फार्मूले इसलाह हयात करते हैं और लिबारटी के तहक़ीक़ात इन्केशाफ कायनात और क़ुरआने मजीद में यह दोनों बातें बुनियादी तौर पर पाई जाती हैं। वह अपनी वही के आग़ाज़ में इक़रा, इल्म भी कहता है और ख़लाक़ल इन्साना मिन अलक़ भी कहता है यानी इस में इस्लाहे हयात भी है और इन्केशाफे कायनात भी और यह इज्तेमाँ (समाज) इस बात की तरफ खुला हुआ इशारा है कि तहक़ीक़ के इसरार से ना वाक़िफ, कायनात के रुमूज़ से बे ख़बर कभी हयात की सही इस्लाह नही कर सकते। हयाते कायनात का एक जुज़ है। हयात के लवाज़िम व ज़रूरियाते कायनात के अहम मसायल हैं और जो कायनात ही से बे ख़बर होगा वह हयात की क्या इस्लाह करेगा। इस्लामी क़ानून तरबियत का बनाने वाला रब्बुल आलामीन होने के ऐतेबार से आलमे हयात भी है और आलमे कायनात भी। तख़लीक़, कायनात की दलील है और तरबियत, इल्मे हयात व ज़रूरियात की।

अनासिरे तरबियतः

जब यह बात वाज़ेह हो गई कि क़ुरआने करीम शाने रुबूबियत का मज़हर और उसूल व आईने तरबियत का मजमूआ है तो अब यह भी देखना पड़ेगा कि सही व सालेह तरबियत के लिये किन अनासिर की ज़रूरत है और क़ुरआने मजीद में वह अनासिर पाऐ जाते हैं या नही।

तरबियत की दो क़िस्मे होती हैः तरबियते जिस्म, तरबियते रूह।

तरबियते जिस्म के लिये इन उसूल व क़वानीन की ज़रूरत होती है जो जिस्म की बक़ा के ज़ामिन और समाज की तन्ज़ीम के ज़िम्मेदार हों और तरबियते रूह के लिये इन के क़वायद व ज़वाबित की ज़रूरत होती है जो इन्सान के दिल व दिमाग़ को रौशन कर सकें। इस के ज़हन के दरीचों को खोल सकें और सीने को इतना कुशादा बना सके कि वह आफाक़ में गुम ना हो सके बल्कि आफाक़ इस के सीने की वुसअतों में गुम हो जाऐं,, व फीका इनतवा अलआलमुल अक्बर,, ऐ इन्सान तुझ में एक आलमे अक्बर सिम्टा हुआ है .

अब चूँकि जिस्म व रूह दोनों एक दूसरे से बे तालुक़ और गैर मरबूत नही हैं, इस लिये यह गैर मुम्किन है के जिस्म की सही तरबियत रूह की तबाही के साथ या रूह की सही तरबियत जिस्म की बर्बादी के साथ हो सके, बल्कि एक की बक़ा व तरक़्की के लिये दूसरे का लिहाज़ रखना इन्तेहाई ज़रूरी है यह दोनों एसी मरबूत हक़ीक़तें हैं के जब से आलमे मादियात में क़दम रखा है दोनों साथ रहें हैं और जब तक इन्सान ज़ी हयात कहा जाऐगा दोनों का राबेता बाक़ी रहे गा ज़ाहिर है के जब इत्तेहाद इतना मुस्तेहकम और पाऐदार होगा तो ज़रूरियात में भी किसी ना किसी क़द्र इशतेराक़ ज़रूर होगा और एक के हालात से दूसरे पर असर भी होगा।

ऐसी हालत में उसूले तरबियत भी ऐसे ही होने चाहियें जिन में दोनों की मुनफरिद और मुश्तरक दोनों क़िस्म की ज़रूरियात का लिहाज़ रखा गया हो.लेकिन यह भी याद रखने की बात है के वजूदे इन्सानी में अस्ल रूह है और फुरू माद्दा। इरतेक़ा ए रूह के लिये बक़ाऐ जिस्म और मशक़्क़ते जिस्मानी ज़रूरी है लेकिन इस लिये नही कि दोनों की हैसियत एक जैसी है बल्कि इस लिये के एक अस्ल है और एक इस के लिये तमहीद व मुक़द्देमा।

जिस्म व रूह की मिसाल यू भी फ़र्ज़ की जा सकती है के इन्सानी जिस्म की बक़ा के लिये ग़ज़ाओं का इस्तेमाल ज़रूरी है। लिबास का इस्तेमाल लाज़िमी है। मकान का होना नागुज़ीर है लेकिन इस का यह मतलब हरगिज़ नही है के ग़ज़ा व लिबास व मकान का मरतबा जिस्म का मरतबा है बल्कि इस का खुला हूआ मतलब यह है कि जिस्म की बक़ा मतलूब है इस लिये इन चीज़ों का मोहय्या करना ज़रूरी है। बिल्कुल यही हालत जिस्म व रूह की है, रूह अस्ल है और जिस्म इस का मुक़द्देमा।

जिस्म और इस के तक़ाज़ों में इन्सान व हैवान दोनों मुश्तरक हैं लेकिन रूह के तक़ाज़े इन्सानियत और हैवानियत के दरमियान हद्दे फासिल की हैसियत रखते हैं और ज़ाहिर है कि जब तक रूहे इन्सान व हैवान के दरमियान हद्दे फासिल बनी रहेगी इस की अज़मत व अहमियत मुसल्लम रहेगी बहरहाल दोनों की मुश्तरक ज़रूरियात के लिये एक मजमूआ क़वानीन की ज़रूरत है। जिस में उसूले बक़ा व इरतेक़ा का भी ज़िक्र हो और इन अक़वाम व मिलल का भी तज़किरा हो जिन्होंने इन उसूल व ज़वाबित को तर्क करके अपने जिस्म या अपनी रूह को तबाह व बर्बाद किया है। इस के बग़ैर क़ानून तो बन सकता है लेकिन तरबियत नही हो सकती। दूसरे अल्फ़ाज़ में यूँ कहा जायेगा कि इस्लाह व तन्ज़ीम को सिर्फ उसूल व क़वानीन की ज़रूरत है लेकिन तरबियत रूह व दिमाग़ के लिये माज़ी के अफ़साने भी दरकार हैं जिन में बद एहतियाती के मुरक़्क़ा और बद परहेज़ी की तस्वीरें खीचीं गई हों। क़ुरआने मजीद में अहकाम व तालीमात के साथ क़िस्सों और वाक़ेआत का फ़लसफा इसी तरबियत और इस का उसूल में मुज़्मर है। तरबियत के लिये मज़ीद जिन बातों की ज़रूरत है इन की तफ़सील यह हैः

1- इन्सान के क़ल्ब में सफ़ाई पैदा की जाये।

2- इस के तसव्वुरे हयात को एक ख़ालिक़ के तसव्वुर से मरबूत बनाया जाये।

3- दिमाग़ में क़ुव्वते तदब्बुर व तफ़क्कुर पैदा किया जाये।

4- हवादिस व वाक़ेआत में ख़ुए तवक्कुल ईजाद की जाये।

5- अफकार में हक़ व बातिल का इम्तियाज़ पैदा कराया जाये।

6- क़ानून के तक़द्दुस को ज़हन नशीन कराया जाये।

7- अख़लाक़ी बुलन्दी के लिये बुज़र्गों के तज़किरे दोहराये जाये।

वह क़वानीन के मजमूऐ के ऐतेबार से किताब है और सफ़ाई क़ल्ब के इन्तेज़ाम के लिहाज़ से नूर।

क़ुव्वते तदब्बुर के ऐतेबार से वही मरमूज़ है और ख़ूई तवक्कुल के लिहाज़ से आयाते मोहकमात व मुताशाबेहात।

तसव्वुरे ख़ालिक़ के लिये तन्ज़ील है और तक़द्दुस के लिये क़ौले रसूले करीम।

इम्तियाज़े हक़ व बातिल के फ़ुरक़ान है और बुलन्दी अख़लाक़ के लिये ज़िक्र व तज़किरा।

इन औसाफ (विशेषताओं) से यह बात बिल्कुल वाज़ेह हो जाती है कि क़ुरआन ना तस्नीफ है ना दस्तर, वह उसूले तरबियत का मजमूआ और शाने रुबूबियत का मज़हर है। इस का नाज़िल करने वाला काएनात से मा फौक़, इस के उसूल काएनात से बुलन्द और उस का अन्दाज़े बयान काएनात से जुदागाना है।

या मुख़्तसर लफ़्ज़ों में यूँ कहा जाए कि क़ुरआन अगर किताब है तो किताबे तालीम नही बल्कि किताबे तरबियत है और अगर दस्तूर है तो दस्तूरे हुकूमत नही है बल्कि दस्तूरे तरबियत है, इस में हाकेमाना जाह व जलाल का इज़हार कम है और मुरब्बियाना शफ़्क़त व रहमत का मुज़ाहेरा ज़्यादा। इस का आग़ाज़ बिस्मिल्लाह रहमत से होता है क़हरे ज़ुल्जलाल से नही। इस का अंजाम इस्तआज़ा रब्बुन्नास पर होता है जलाल व क़हार व जब्बार पर नही।

दस्तूरे ज़िन्दगी का मौज़ू इस्लाहे ज़िन्दगी होता है और दस्तूरे तरबियत का मौज़ू इस्तहकामे बन्दगी, इस्तेहकाम बन्दगी के बग़ैर इस्लाहे ज़िन्दगी का तसव्वुर एक ख़्याल ख़ाम है और बस।

क़ुरआने मजीद के दस्तूरे तरबियत होने का सब से बड़ा सबूत इस की तन्जील है कि वह हाकेमाना जलाल का मज़हर होता तो इस के सारे अहकाम येक बारगी नाज़िल हो जाते और आलमे इन्सानियत पर इन का इम्तेसाल फ़र्ज़ कर दिया जाता लेकिन ऐसा कुछ नही हआ बल्कि पहले दिल व दिमाग़ के तसव्वुरात को पाक करने के लिये अक़ायद की आयतें नाज़िल हुई इस के बाद तन्ज़ीमे हयात के लिये इबादात व मामलात के अहकाम नाज़िल हुए, जब तरबियत के लिये जो बात मुनासिब हुई कह दी गई। जो वाक़ेआ मुनासिब हुआ सुना दिया गया, जो क़ानून मुनासिब हुआ नाफ़िज़ कर दिया गया। जैसे हालात हुए उसी लहजे में बात की गई जो तरबियत का इन्तेहाई अज़ीमुश शान मज़हर है।