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अंतरराष्ट्रीय मामलों में ईरान के वरिष्ठ नेता के सलाहकार ने बल दिया है कि इस्लामी गणतंत्र ईरान, अमरीका व युरोप के तकनीकी सहयोग के बिना गैस पाइप लाइन की परियोजना को पाकिस्तान में व्यवहारिक बना सकता है।

अली अकबर विलायती ने शुक्रवार की रात पाकिस्तान के कराची नगर में शीआ व सुन्नी धर्मगुरुओं से भेंट में इस बात का उल्लेख करते हुए कि ईरानी इंजीनियरों ने ईरान के सभी क्षेत्रों में गैस पाइप लाइन बिछाने में सफलता प्राप्त की है कहा कि पाकिस्तान भी अपने क्षेत्रों में गैस पाइप लाइन बिछाने में ईरानी इंजीनियरों की योग्यताओं से लाभ उठा सकता है।

याद रहे अमरीकी दबावों के बावजूद पाकिस्तानी सरकार ने ईरान पाकिसतान गैस पाइप लाइन परियोजना स्वीकृति दे दी है और शीघ्र ही पाकिस्तानी क्षेत्रों में पाइप लाइन बिछाने का काम आरंभ हो जाएगा।

इस भेंट में पाकिस्तान की जमाअते इस्लामी पार्टी के नेता सैयद मुनव्वर हुसैन ने ईरान पाकिस्तान गैस पाइप लाइन परियोजना का समर्थन करते हुए कहा कि ऊर्जा के संकट से निपटने हेतु ईरान की ओर से पाकिस्तान की सहायता सराहनीय है किंतु ईरान व पाकिस्तान के मध्य एकजुटता अमरीका व नेटो को अप्रसन्न करने के अतिरिक्त क्षेत्र विशेषकर अफगानिस्तान में उनकी योजनाओं को भी विफल बनाती है। उन्होंने कहा कि अमरीका और उसके एजेन्ट षडयंत्र रच कर पाकिस्तान में सांप्रदायिकता भड़काना चाहते हैं किंतु पाकिस्तानी जनता उनके शैतानी उद्देश्यों को पूरा नहीं होने देगी।

शनिवार, 02 फरवरी 2013 09:59

नहजुल बलाग़ा के संकलनकर्ता

अल्लामा सैयद शरीफ़ रज़ी अलैहिर रहमा के मुख़्तसर सवानेहे हयात (संक्षिप्त जीवनी)

आप का नाम मुहम्मद, लक़ब (उपाधि) रज़ी, कुनीयत (वह नाम जो मां, बेटे, बेटी के संबंध से लिया जाता है, फ़लां के बाप, फ़लां के बेटे) अबुल हसन थी। सन् 359 हिजरी क़मरी में बग़दाद में पैदा हुए और ऐसे घराने में आंख खोली जो इल्म व हिदायत (ज्ञान व नेतृत्व) का मर्कज़ (केन्द्र) और इज़्ज़त व शौकत (प्रतिष्ठा एवं वैभव) का महवर (धुरी) था।

उन के वालिदे वुज़ुर्ग वार, अबू अबमद हुसैन थे जो पांच मरतबा नक़ाबते आले अबी तालिब के मनसब पद) पर फ़ाइज़ (नियुक्त) हुए और बनी अब्बास व बनी बूयह के दौरे हुकूमत (शासन काल) में यकसां (एक समान) अज़मत व बुज़ुर्गी की नज़र से देखे गये। चुनांचे अबू नस्र बहाउद दौला इब्ने बूयह ने उन्हे अत्ताहिरुल अहद का लक़ब (पदवी) दिया और उन की जलालते इल्मी व शराफ़ते नसबी का हमेशा पास व लिहाज़ रखा। इनका ख़ानदानी सिलसिला सिर्फ़ चार वास्तों से इमामत के सिलसिल ए ज़र्रीं से मिल जाता है जो इस शजर ए नसब से ज़ाहिर है:

अबू अहमद हुसैन बिन मूसा बिन मुहम्मद बिन मूसा बिन इब्राहीम बिन इमाम मूसा काज़िम अलैहिस सलाम। 25 जमादिल अव्वल सन् 400 हिजरी क़मरी में सत्तानवे बरस की उम्र में इंतेक़ाल फ़रमाया और हायरे हुसैनी में दफ़्न हुए। अबुल अला ए मुअर्री ने उन का मरसिया कहा है जिस का एक शेर यूं हैं:

तुम्हारे और इमाम (अ) के दरमियान बहुत थोड़े से वसाइत हाइल हैं और तुम्हारी बुलंदिया अकाबिर व अशराफ़ पर नुमायां हैं।

आप की वालिद ए मुअज़्ज़मा की शराफ़त व बुलंदिये मरतबत की तरफ़ आगे इशारा होगा। यहां पर सिर्फ़ उन का शजर ए नसब दर्ज किया जाता है। फ़ातिमा बिन्तुल हुसैन बिन हसन अन नासिर बिन अली बिन हसन बिन उमर बिन अली बिन हुसैन बिन अली बिन अबी तालिब अलैहिमुस सलाम।

ऐसे नजीब व बुलंद मरतबत मां बाप की अख़लाक़ी निगहदाश्त व हुस्ने तरबीयत के साथ आप को उस्ताद व मुरब्बी भी ऐसे नसीब हुए जो अपने वक़्त के माहिरीन बा कमाल और अइम्म ए फ़न समझे जाते थे जिन में से चंद का यहां ज़िक्र किया जाता है:

हसन बिन अब्दुल्लाहे सैराफ़ी

नहवो लुग़त और अरूज़ व क़वाफ़ी में उस्तादे कामिल थे। किताबे सीबवैह की शरह और मुतअद्दिद किताबें लिखी हैं। सैयिद ने बचपन में इन से क़वायदे नहव पढ़े और इन्ही के मुतअल्लिक़ आप का मशहूर नहवी लतीफ़ा है कि एक दिन हलक़ ए दर्स में नहवी ऐराब की मश्क़ कराते हुए सैयिद रज़ी से पूछा कि जब हम रायतों उमर कहें तो उस में अलामते नस्ब [i] क्या होगी? आप ने बरजस्ता जवाब दिया, बुग़ज़ो अली, इस जवाब पर सैराफ़ी और दूसरे लोग उन की ज़िहानत व तब्बाई पर दंग रह गये। हालांकि अभी आप का सिन दस बरस का भी न था।

अबू इसहाक़ इब्राहीम अहमद बिन मुहम्मद तबरी

बड़े पाए के फ़क़ीह व मुहद्दीस और इल्म परवर व जौहर शिनास थे। सैयिद ने इन से बचपन में क़ुरआने मजीद का दर्स लिया।

अली बिन ईसा रबई

उन्होने बीस बरस अबू अली फ़ारसी से इस्तेफ़ादा किया और नहव में चंद किताबें लिखी हैं। सैयिद ने ईज़ाहे अबू अली और अरूज़ व क़वाफ़ी में चंद किताबें पढ़ी।

अबुल फ़ुतूह उस्मान बिन जिन्नी

उलूमे अरबिया के बड़े माहिर थे। दीवाने मुतनब्बी की शरह और उसूल व फ़िक़ह में मुतअद्दिद किताबें लिखी हैं। सैयिद ने इन से भी इस्तेफ़ादा किया।

अबू बक्र मुहम्मद बिन मूसा ख़ारज़मी

यह अपने वक़्त के मरज ए दर्स और साहिबे फ़तवा थे। सैयिद ने इन से इस्तेफ़ाद ए इल्मी किया।

अबू अब्दिल्लाह शैख़ मुफ़ीद अलैहिर रहमा

सैयिद रज़ी के असातिज़ा में सब से बुलंद मंज़िलत हैं। इल्म व फ़क़ाहत और मुनाज़ेरा व कलाम में अपनी मिस्ल व नज़ीर नही रखते थे। तक़रीबन दो सौ किताबें यादगार छोड़ी हैं।

इब्ने अबिल हदीद ने मुईद बिन फ़ख़्ख़ार से नक़्ल किया है कि एक रात शेख़ मुफ़ीद ने ख़्वाब में देखा कि जनाबे फ़ातिमा ज़हरा (स) हसन और हुसैन अलैहिमस सलाम को हमराह मस्जिदे कर्ख़ में तशरीफ़ लाईं और उन से ख़िताब कर के फ़रमाया कि ऐ शेख़, मेरे इन बच्चों को इल्मे फिक़ह व दीन पढ़ाओं। शैख़ जब ख़्वाब से बेदार हुए तो हैरत व इस्तेअजाब ने घेर लिया और ज़ेहन ख़्वाब की ताबीर में उलझ कर रह गया। इसी आलम में सुबह हुई तो देखा कि फ़ातिमा बिन्तुल हुसैन कनीज़ों के झुरमुट में तशरीफ़ ला रही हैं और दोनो बेटे सैयिद मुरतज़ा व सैयिद रज़ी उन के हमराह हैं। शैख़ उन्हे देख कर ताज़ीम के लिये खड़े हो गये। जब वह क़रीब आई तो फ़रमाया। ऐ शेख़, मैं इन बच्चों को आप के सुपुर्द करने आई हूँ, आप इन्हे इल्मे दीन पढ़ाये। यह सुन कर रात का मंज़र शेख़ की नज़रों में फिरने लगा, मुजस्सम तअबीर निगाहों के सामने आ गई। आखों में आंसू भर आये और उन से रात का ख़्वाब बयान किया. जिसे सुन कर सब दम बख़ुद हो कर रह गये। शैख़ ने उसी दिन से उन्हे अपनी तवज्जोह का मरकज़ बना लिया और उन्होने भी अपनी सलाहियतों का ब रूए कार ला कर इल्मो फ़ज़्ल में वह मक़ाम हासिल किया जिस की रिफ़अत अपनों ही को नज़र न आती थी बल्कि दूसरे भी नज़रे उठा कर देखते ही रह जाते थे।

सैयिद अलैहिर रहमा इल्मो फ़ज़ीलत में यगान ए रोज़गार होने के साथ एक बेहतरीन इंशा परदाज़ और बुलंद पाया सुख़न तराज़ भी थे। चुनांचे अबू हकीम ख़बरी ने आप के जवाहिर पारों को चार ज़ख़ीम जिल्दों में जमा किया है। जो शौकते अल्फ़ाज़, सलासते बयान, हुस्ने तरकीब और बुलंदिये उसलूब में अपना जवाब नही रखते और परखने वालों की यह राय है कि उन्होने लौहे अदब पर जो बेश बहा मोती टांके हैं, उन के सामने कलामे अरब की चमक मांद पड़ गई और बिला शुबहा यह कहा जा सकता है कि क़ुरैश भर में इन से बेहतर कोई अदीब व सुख़न रां पैदा नही हुआ। लेकिन सैयिद अलैहिर रहमा ने कभी उसे अपने लिये वजहे नाज़िश व सरमाय ए इफ़्तेख़ार नही समझा और न उन के दूसरे कमालात व ख़ुसूसियात को देखते हुए उन की तब ए मौज़ू की रवानियों को इतनी अहमियत दी जा सकती है कि शेरो सुख़न को उन के लिये वजहे फ़ज़ीलत समझ लिया जाये। अलबत्ता उन्हो ने अपने मख़्सूस तर्जे निगारिश में जो इल्मी व तहक़ीक़ी नक़्श आराइयां की हैं उन की इफ़ादीयत व मअनवीयत का पाया इतना बुलंद है कि उन्हे सैयिद की बुलंदिये नज़र का मेयार ठहराया जा सकता है, और उन की तफ़सीर के मुतअल्लिक़ तो इब्ने ख़ल्लक़ान का यह क़ौल नक़्ल किया गया है कि इस की मिस्ल पेश करना दुशवार है। उन्होने अपनी मुख़्तसर सी उम्र में जो इल्मी व अदबी नुक़ूश उभारे हैं, वह इल्मो अदब का बेहतरीन सरमाया हैं। चुनांचे उन की चंद नुमायां तसनीफ़ात यह हैं:

हक़ायक़ुत तावील, तलख़ीसुल बयान अल मजाज़ुल क़ुरआन, मजाज़ातुल आसारुन नबवीयह, ख़साइसुल अइम्मह, हाशिय ए ख़िलाफ़ुल फ़ुक़हा, हाशिय ए ईज़ाद वग़ैरह। मगर इन तमाम तसनीफ़ात में आप की तालीफ़ कर्दा किताब नहजुल बलाग़ा का पाया बुलंद है कि जिस में हज़रत अमीरुल मोमिनीन अलैहिस सलाम के ख़ुतबात व तौक़ीआत व हेकम व नसाइह के अनमोल मोतियों को एक रिश्ते में पिरो दिया है।

सैयिदे ममदूह के इल्मी ख़दो ख़ाल की उन की हमीयत व ख़ुद दारी और आला ज़र्फ़ी व बुलंद नज़री ने और भी निखार दिया था। उन्होने ज़िन्दगी भर बनी बूया के इंतेहाई इसरार के बा वजूद उन का कोई सिला व जाइज़ह क़बूल नही किया और न किसी के ज़ेरे बारे एहसान हो कर अपनी आन में फ़र्क़ और नफ़्स में झुकाव आने दिया। चुनांचे एक मरतबा आप के यहां फ़रजंद (पुत्र) की विलादत हुई तो उस ज़माने के रस्मो रिवाज के मुताबिक़ अबू ग़ालिब फ़ख़रुल मुल्क वज़ीरे बहाउददौला ने एक हज़ार दीनार भेजे और तबीयत शनास व मिज़ाज आश्ना होने की वजह से यह कहलवा भेजा कि यह दाया के लिये भेजे जा रहे हैं। मगर आप ने वह दीनार यह कह कर वापस कर दिये कि हमारे हां का दस्तूर नही है कि ग़ैर औरतें हमारे हालात पर मुत्तलअ हों, इस लिये दूसरी औरतों से यह ख़िदमत मुतअल्लिक़ नही की जाया करती बल्कि हमारे घर की बड़ी बूढ़ीया खुद ही उसे सर अंजाम दे लिया करती हैं और वह इस के लिये कोई हदिया या उजरत कबूल करने पर आमादा नही हो सकतीं।

इसी इज़्ज़ते नफ़्स व एहसासे रिफ़अत ने उन्हे सहारा दे कर जवानी ही में वक़ार व अज़मत की उस बुलंदी पर पहुचा दिया था कि जो उम्रे तवील की कार गुज़ारियों की आख़िरी मंजिल हो सकती है। अभी 21 साल की उम्र थी कि आले अबी तालिब की नक़ाबत और हुज्जाज की अमारत के मनसब पर फ़ाइज़ हुए। उस ज़माने में यह दोनो मंसब बहुत बुलंद समझे जाते थे। ख़ुसूसन नक़ाबत का ओहदा तो इतना अरफ़अ व आला था कि नक़ीब को हुदूद के इजरा, उमूरे शरईया के निफ़ाज़, बाहमी तनाज़ोआत के तसफ़ीयह और इस क़बील के तमाम इख़्तियारात हासिल होते थे। और उस के फ़रायज़ में यह भी दाख़िल होता था कि वह सादात के नसब की हिफ़ाज़त और उन के अख़लाक़ व अतवार की निगहदाश्त करे। और आख़िर में तो उन की नक़ाबत का दायरा (क्षेत्र) इतना हमागीर व वसीअ हो गया था कि ममलकत का कोई शहर उस से मुसतसना न था। और नक़ीबुन नुक़बा के लक़ब (उपाधि) से याद किये जाने लगे थे। मगर उम्र की अभी पैंतालिस मंज़िले ही तय कर पाये थे कि सन् 406 हिजरी क़मरी में नक़ीबे मौत ने उन के दरवाज़े पर दस्तक दी और यह वुजूद गिरामी हमेशा के लिये आंखों से रुपोश हो गया।

तुम्हारी छोटी मगर पाक व पाकीज़ा उम्र की ख़ूबियों का क्या कहना। और बहुत सी उम्रें तो गंदगियों के साथ बढ़ जाया करती है। (अरबी शेर)

उन के बड़े भाई अलमुल हुदा सैयिद मुरतज़ा ने जिस वक़्त यह रुह फ़रसा मंज़र देखा तो ताब व तवानाई ने उन का साथ छोड़ दिया और दर्द व ग़म की शिद्दत से बे क़रार हो कर घर से निकल खड़े हुए और अपने जद इमाम मूसा काज़िम अलैहिस सलाम के रौज़ ए अतहर पर आ कर बैठ गये। चुनांचे नमाज़े जनाज़ा अबू ग़ालिब फ़ख़्रुल मुल्क ने पढ़ाई, जिस में तमाम अअयान (उमरा व वुज़रा व सर कर्दा लोग) व अशराफ़ और उलमा व कुज़ात ने शिरकत की। इस के बाद अलमुल हुदा की ख़िदमत में हाज़िर हुए और बड़ी मुश्किल से उन्हे वापस ले जाने में कामयाब हुए। उन का मरसिया उन के क़ल्बी तअस्सुरात का आईना दार है। जिस का एक शेर ऊपर दर्ज किया गया है।

 

[i] . नस्ब अलामते एराबी है और इस के मअनी नासिबियत (अली की दुश्मनी) के भी हैं और अल्लामा ने इस लफ़्ज़ को दूसरे मअनी पर महमूल किया है।

 

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सैयद रज़ी अलैहिर रहमा की ज़िन्दगी का हर पहलू (क्षेत्र) उन के आबा व अजदाद (पुर्वजों) के किरदार (चरित्र) का

इस लेख में एक महान सुधारक शेख़ हसन बन्ना के जीवन के कुछ पहलूओं पर निगाह डाली गई है जिन्होंने मुसलमानो को जागरूक करने में बहुत बड़ा रोल अदा किया था और अपनी कम मगर पूरी ज़िन्दगी को इस काम में लगा दिया था।

मुक़्द्दमाः

Ÿ और जिन लोगों की राहे ख़ुदा में क़त्ल कर दिया गया है तुम उन्हें मरा हुआ न समझो बल्कि वह ज़िन्दा हैं और अपने परवरदिगार के पास से रोज़ी पा रहे हैं

आज दुनिया भर के मुसलमान अपनी नस्ली, सम्प्रदायिक, धार्मिक और भौगोलिक भिन्नताओं के बावजूत एकता के बहुत मोहताज हैं और उन्हे चाहिए कि धर्म के राजनीति से अलग होने और लेक्योलरिज़म विचारों का मुक़ाबला करने के लिए अपनी अधिक से अधिक तैयारी रखें। अगरचे इस राह में शिया और सुन्नियों की महान हस्तियों ने बहुत प्रभाव करने वाले कार्य किए हैं लेकिन निसन्देह ये महान हस्तियां इस्लामी समाज में गुम नाम हैं और एक लेखक के लिए उनको पहचनवाना उस कोशिश का एक अंश मात्र है जिसे वह अंजाम दे सकता है। इस लेख में एक महान सुधारक शेख़ हसन बन्ना के जीवन के कुछ पहलूओं पर निगाह डाली गई है जिन्होंने मुसलमानो को जागरूक करने में बहुत बड़ा रोल अदा किया था और अपनी कम मगर पूरी ज़िन्दगी को इस काम में लगा दिया था।

उन्होंने इस राह में वास्तविक प्रयास किए, और अख़वानुल मुस्लेमीन नामक संगठन के निर्माण के माध्यम से अपनी गतिविधियों को आसमान पर पहुँचा और आख़िर कार शहीद हो गए।

जन्म और प्रारम्भिक शिक्षा

“हसन बिन अहमद बिन अबदुल रहमान बन्ना” “अख़वानुल मुस्लेनीन” संगठन के संस्थापक और लीडर का जन्म मिस्र के इस्कन्दरिया शहर के पास महमूदिया शहर में 1324 को हुआ[2] आप के पिता “अहमद बिन अब्दुल रहमान” महान धर्म गुरू और “शेख़ मोहम्मद अब्दोह” के शिष्य और कई पुस्तकों के लेखक थे कि जिन मे से अधिकतक पुस्तकें इल्मे हदीस से संबंधित हैं और उनमें से सब से महत्पूर्ण पुस्तक “अल फ़त्हुल रब्बानी ले तरतीबे मुसनद अल इमाम अहमद” है आप के पिता शिक्षा के साथ साथ जिल्द साज़ी और घड़ी बनाने का काम भी किया करते थे इसीलिए आप को साअती (घड़ियों वाले) भी कहा जाता था[3]

हसन बन्ना का पालन पोषण पूर्ण रूप से एक धार्मिक घराने में हुआ और उन्होंने अपनी प्रारम्भिक शिक्षा अपने पिता की सहायता से “रिशाद” नामक मदरसे में ग्रहण की। रिशाद मदरसे का 1915 ई में शिला न्यास हुआ जो कि उस समय एक देहाती धार्मिक मदरसों की तरह से था। लेकिन आज कर के महान ट्रेनिंग कॉलिजों के जैसा था जहां शिक्षा के साथ साथ प्रशिक्षण (तरबियत) भी दिया जाता था ।

इस मदरसे के विद्यार्थी दूसरे मदरसों में दी जाने वाली शिक्षा के अलावा रसूले अकरम (स) की हदीसों (कथन) पर काम किया करते थे, हर गुरूवार की रात को विद्यार्थियों को एक नई हदीस दी जाती थी ताकि ख़ूब अच्छी तरह उस पर चिंतन करें और इतना उसको दोहराएं की याद हो जाए। निबंध लिखना, लेखन कला के नियम कला को सीखना और एक से अलावा पद्य गद्य (नज़्म और नस्र) के कुछ टुकड़ों को सीखना और याद करना, इस मदरसे के विद्यार्थियों के होम वर्क में शामिल था।

इस प्रकार की पूर्ण शिक्षा उस जैसे दूसरे मदरसों में नही थी, हसन बन्ना ने इस मदरसें में आठ साल की आयु से लेकर सोलह साल की आयु तक शिक्षा ग्रहण की,[4] कहा जाता है कि आप 1920 ई में शहरे दमनहूर के दारुल मोअल्लेमीन चले गए और वहा पर आप ने चौदह साल की आयु तक पहुंचने से पहले ही क़ुरआने मजीद का एक बड़ा भाग हिफ़्ज़ कर लिया और फ़िर शहरे महमूदिया के कॉलेज में प्रवेश लिया।

आप अपनी जवानी के दिनों से ही अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर (अच्छाईयों की निमंत्रण और बुरईयों से रोकना) पर बहुत ध्यान दिया करते थे और सदैव लोगों को ईश्वर की तरफ़ बुलाया करते थे, इसलिए अपने जैसे विचार रखने वाले दोस्तों के साथ “अख़्लाक़ और अदब” नामक कमेटी में समिलित हुए और उसके बाद “अंजुमने नही अनिल मुनकर” के मिम्बर बन गए[5] आप स्वंय कहा करते थे कि अंजुमन का कार्य छेत्र कुछ मामूली नसीहतें थीं, इसलिए कुछ लोगों ने मिल कर एक बड़े प्रोग्राम को पेश किया। इस अंजुमन के संस्थापकों में “सक़ाफ़त” संस्था के प्रबंधक जनाब “मोहम्मद अली बदीर” एक व्यापारी जिन का नाम “लबीब नवार” “रेलवे कारकुन” “अब्दुल मुतआल सिनकल” और “अब्दुल रहमान साआती” और इन्जीनियरिंग के टीचर जनाब “सईद बदीर” आदि थे।

अंजुमन के संचालित कार्यों का अधिकतर भाग अम्र बिल मारूफ़ और नही अनिल मुनकर से संबंधित था जिसे अंजुमन के मिम्बरों में बांट दिया गया था। अंजुमन का सब से महत्व पूर्ण काम शिक्षा देने वाले और नसीहत से भरपूर वह वह बयान होते थे जो कि पत्रों की सूरत में पापियों के पास भेजे जाते थे और इस कार्य में अधिकतर कम आयु वाले लोग कि जिन में हसन बन्ना भी थे भाग लेते थे जब्कि हसन बन्ना का आयु उस समय चौदह साल से अधिक न थी।[6]

प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन

हसन बन्ना अभी पूरे चौदह साल के भी नही हुए थे कि आप को मजबूर हो कर दो रास्तों में से एक को चुनना पड़ा, या तो आप इस्कन्दरिया के धार्मिक कॉलेज में प्रवेश लेते ताकि बाद में अल अज़हर युनिवर्सिटी तक पहुंच सकें या फ़िर शहरे “दमनहूर” के प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन लेते ताकि तीन साल बाद किसी मदरसे में टीचर बन कर पढ़ा सकें। आप ने दूसरा रास्ता चुना इन्ट्रेन्स इम्तेहान के लिए अपना नाम लिखवा दिया लेकिन आप के सामने दो समस्याएं थी एक तो आप की आयु कम थी और दूसरे आप ने अभी पूरा क़ुरआन हिफ़्ज़ नही किया था लेकिन इसके बावजूद ट्रेनिंग कॉलेज के प्रबंधक जो कि बहुत महान व्यक्तित्व और उच्च आचरण वाले व्यक्ति थे ने आयु के नियम को अनदेखा कर दिया और आप से पूरे क़ुरआन के हिफ़्ज़ करने की शर्त पर एडमिशन ले लिया और इस प्रकार आप प्रारम्भिक ट्रेनिंग कॉलेज के विद्यार्थी बन गए।[7]

आप ने दमनहूर शहर में अपने तीन साल के निवास के दौरान अपनी शिक्षा को पूर्ण करने के अलावा ब्रह्मज्ञान और इबादत में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया, इस बारे में आप ने ख़ुद ही फ़रमाया हैः

मेरे जीवन का एक दौर यही मिर्स की क्रांति से बाद का तीन साल का युग है यानी 1920 से 1923 ई तक, मैं इस तीन साल के युग में मुसलसल ब्रह्मज्ञान और इबादत में लगा था मैं ने ब्रह्मज्ञान और तसव्वुफ़ की मोहब्बत से भरे हुए दिल के साथ इस शहर में क़दम रखा था कि “शेख़ हुसनैन हसाफ़ी” जो कि “हसाफ़िया” सम्प्रदाय के गुरू और रहबर थे के मज़ार और उन के पाक दिल अनुयाईयों के एक गुट के मिला, स्वभाविक बात है कि मैं उनमें घुल मिल गया और उनके रास्ते पर चल पड़ा इसके बावजूद के रमज़ान के मुबारक महीने में अपने आप को दुआ, इबादत और रियाज़ात (तपस्या) में गुम कर लिया था लेकिन फ़िर भी उन्होंने अपनी तबलीग़ी गतिविधियों को भुलाया नही था वह हर रोज़ ज़ोहर और अस्र के समय ट्रेनिंग कॉलेज मे अज़ान देते थे और जब भी क्लास का समय नमाज़ के समय से टकरा जाता तो टीचर से आज्ञा लेकर नमाज़ पढ़ना शुरू कर देते।

उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज

हसन बन्ना ने प्रारम्भिक पढ़ाई को समाप्त करने के बाद 1923 ई मे पहली बार क़ाहिरा की यात्रा की और इस शहर के उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज में एडमिशन लिया और बहुत सी कठिनाईयों और समस्याओं के बावजूद इस ट्रेनिंग कॉलेज के इन्ट्रेंस इम्तेहान से सफ़ल रहे। उस समय अभी आप की उम्र के सत्तरह साल भी पूरे नही हुए थे। इसीलिए ट्रेनिंग कॉलेज विद्यार्थी और टीचर दोनो आप को देख कर आश्चर्य किया करते थे। आप ने इन्ट्रेंस इम्तेहान से एक रात पहले एक सच्चे सपने में इन्ट्रेंस इम्तेहान में अपनी सफ़लता को देख लिया था। इसीलिए आप परीक्षा हाल में बहुत आत्मविश्वास से भर पूर नज़र आ रहे थे, और इस को ईश्वरीय सहायता समझ रहे थे।

हसन बन्ना से इस ट्रेनिंग कॉलेज में चार साल तक शिक्षा ग्रहण की और जनवरी 1927 ई को प्रथम श्रेणी में स्नातक हुए

इस्लाईलिया शहर और अख़्वानुल मुसलेमी संगठन की स्थापना

आम तौर से मिस्री कॉलेज से स्नातक विद्यार्थियों को शिक्षा ग्रहण करने के लिए दूसरे देश भेजा जाता है लेकिन इस साल इस पर अमल नही किया गया यही कारण है कि हसन बन्ना जब उच्च स्तरीय ट्रेनिंग कॉलेज से 1927 ई में स्नातक हुए तो इस्माईलिया शहर के एक प्राइम्री स्कूल में टीचर बन कर पढ़ाने लगे। जिन दिनो हसन बन्ना इस्माईलिया शहर जाने के लिए तैयार हो रहे थे उन दिनों में भी आप अपने तबलीग़ी प्रोग्रामों के बारे में सदैव सोचते रहते थे और कभी भी इधर से बेख़बर नही हुए। आप के और भी दोस्त जैसे “अहमद सकरी” महमूदिया शहर में और “अहमद अस्करिया” और “अहमद अब्दुल मजीद” आदि भी दूसरे शहरो में तबलीग़ कर रहे थे। और जिन सब की क़िस्मत में लिखा था कि वह इस्लाम के प्रचार और तबलीग़ी प्रोग्रामों के कारण एक दूसरे से दूर रहें।

तक़रीबन एक साल के बाद “अख़्वानुल मुसलेमीन” का पहला बैच और उसकी शाख़ें इस्माईलिया शहर में ख़ुलीं। हसन बन्ना ने इसी ज़माने में अपने विचारों को इस्लाम को नया जीवन देने और राजनीतिक और समाजिक ताक़त को हासिल करने के लिए इस्तेमाल और उसाक प्रचार करना शुरू कर दिया, और फिर 1928 ई में “अख़्वानुल मुसलेमीन” पार्टी का गठन हुआ, और अपने क्लासों और लेखों में इस पार्टी के लक्ष्यों संविधान क़ानून और व्यवस्था का प्रचार प्रारम्भ कर दिया, इस कार्य के लिये बहुत सी यात्राएं की और धार्मिक नारों और अहकाम के प्रसारण के साथ ही व्यवहारिक स्तर पर बेदीनी से मुक़ाबला करना शुरू कर दिया।[8]

आप 1932 ई में क़ाहिरा में एक टीचर की हैसियत से शिफ़्ट हो गए और अख़्वानुल मुस्लेमीन का मुख्य आफ़िस क़ाहिरा में बन गया। हसन बन्ना के विचार और नज़रियात जो कि अख़्वानुल मुसलेमीन अख़बार में तक़रीरों और लोखों की सूरत में छपते थे और बाद में मजमूअतुल रसाएल के नाम से पुस्तक की सूरत में प्रकाशित हुए, राजनीतिक और धर्मिक बैठकों में बहुत चर्चित हुए और लोगों ने भी इस पार्टी बहुत पसंद किया और इस का कारण बना कि हसन बन्ना अपने पूरे जीवन को इस कार्य के लिए लगा दें, बल्कि ये कहना चाहिए के उनके जीवन का अध्यन वास्तव में “अख़्वानुल मुसलेमीन” के इतिहास में करना चाहिए।[9]

 

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[1] सूरह आले इमरान आयत 169

[2] ज़रकुली 1410 हिजरी, पेज 183

[3] बिनी, मजमूअतुल रसाएल, बग़ैर तारीख़, पेज 5

[4] बिनाए ख़ातेरात 1358, पेज 7

[5] बिना मजमूअतुल रिसाला, पेज 5

[6] बन्ना ख़ातेरात, पेज 14

[7] बन्ना ख़ातेरात, पेज 16

[8] मूसवी बिजनवरदी, 1383 श, जिल्द 12, पेज 541

[9] मूसवी बिजनवरदी, 1383 श, जिल्द 12, पेज 541

इस्लामी गणतंत्र ईरान के राष्ट्रपति डाक्टर महमूद अहमदीनेजाद ने कहा है कि बृहत्तर मध्यपूर्व की योजना पश्चिम ने ज़ायोनी शासन को बचाने के लिए तैयार की है।

मंगलवार को तेहरान में इराक़ के सत्ताधारी गठबंधन के प्रमुख दल इस्लामी सुप्रीम काउंसिल आफ़ इराक़ के प्रमुख सैयद अम्मार हकीम से मुलाक़ात में राष्ट्रपति अहमदीनेजाद ने कहा कि वर्चस्सवादी शक्तियों ने पहले भी कहा है और इस समय भी वह वृहत्तर मध्यपूर्व की स्थापना के लिए वह प्रयासरत हैं और उनका एकमात्र लक्ष्य ज़ायोनी शासन की रक्षा करना है।

डाक्टर अहमदीनेजाद ने कहा कि क्षेत्र में जारी वर्तमान संकट भी पश्चिमी देशों द्वारा खड़े किए जाने वाले विवादों का परिणाम है जो क्षेत्र के देशों को अपने नियंत्रण में रखना चाहते हैं।

इस मुलाक़ात में सैयद अम्मार हकीम ने कहा कि वर्चस्ववादी शक्तियां इराक़ में जातीय और सांप्रदायिक विवाद की आग भड़काना चाहती हैं ताकि अपने लक्ष्य साध सें।

29 जनवरी 2013 को तेहरान में 26 वें इस्लामी एकता अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने वालों और देश के वरिष्ठ अधिकारियों के एक समूह को संबोधित करते हुए।

 

प्रेस टीवी

इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने कहा है कि पश्चिम ने अफ़्रीक़ा महाद्वीप में अपनी उपस्थिति बढ़ाने के लिए नया हमला किया है।

 

उन्होंने 26वें इस्लामी एकता अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन में भाग लेने वाले देशी व विदेशी मेहमानों और देश के वरिष्ठ अधिकारियों को संबोधित करते हुए यह बात कही।

 

उन्होंने अपने संबोधन में पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परपौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के शुभ जन्म दिवस की बधाई देते हुए इस्लामी जगत विशेष रूप से उत्तरी अफ़्रीक़ा में इस्लामी जागरुकता को ईश्वरीय वादे के एक भाग के व्यवहारिक होने से उपमा दी।

 

वरिष्ठ नेता ने कहा कि आज इस्लामी जागरुकता के मुक़ाबले में विश्व साम्राज्य फूट डालने और इस्लामी देशों को आपस में लड़वाने की नीति पर अमल कर रहा है इसलिए इस्लामी जगत के विद्वानों, बुद्धिजीवियों और राजनेताओं का दायित्व है कि वे इस्लामी जगत के सामने शत्रु के षड्यंत्रों को स्पष्ट करें और इस्लामी एकता के लिए गंभीरता से कोशिश करें। उन्होंने कहा कि आज इस्लामी जागरुकता की लहर आरंभ होने से इस्लामी जगत की स्थिति पैग़म्बरे इस्लाम के आदेशों को व्यवहारिक बनाने के अनुकूल हो गयी है। वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस्लामी जगत पर पश्चिम के दसियों वर्षों के वर्चस्व व दबाव के बाद अब मुसलमान यह महसूस कर रहे हैं कि इस्लाम उनके सम्मान, वैभव और स्वाधीनता के लिए परिस्थिति को अनुकूल बना सकता है और इस्लामी जगत की समस्त इच्छाएं इस्लाम की बरकत से पूरी हो सकती हैं।

 

वरिष्ठ नेता ने इस्लामी एकता के नारे को एक पवित्र नारा बताया और कहा कि इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने अपने पूरे जीवन में बारंबार इस बात पर बल दिया था कि हम इस्लामी भाईचारे पर विश्वास रखते हैं और उनका यह आंदोलन उनके बाद भी आज तक जारी है। वरिष्ठ नेता ने इस बात का उल्लेख करते हुए कि फूट डालने के षड्यंत्र से मुक़ाबले का एकमात्र रास्ता मुसलमानों के बीच एकता की भावना है, मुसलमानों के बीच मतभेद पैदा किए जाने के परिणाम के कुछ उदाहरण जैसे पाकिस्तान की घटनाएं, शाम में जनसंहार, बहरैन की जनता का दमन किए जाने और मिस्र में जनता का एक दूसरे के आमने-सामने आ जाने जैसी घटनाओं का हवाला दिया और कहा कि मुसलमान राष्ट्रों के बीच या किसी भी इस्लामी देश में किसी भी प्रकार के मतभेद पर आधारित क़दम का अर्थ निःसंदेह उस ज़मीन पर खेलना है जिसे दुश्मन ने तय्यार किया है।

 

वरिष्ठ नेता ने कहा कि यदि आज पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही हमारे बीच होते तो तमाम मुसलमानों को आपसी मतभेद से बचने और एकता बनाए रखने का निमंत्रण देते।

 

ज्ञात रहे तेहरान में दो दिवसीय इस्लामी एकता सम्मेलन रविवार को आरंभ हुआ जिसमें 102 देशों के सुन्नी और शीया बुद्धिजीवियों व विचारकों ने भाग लिया।

सोमवार, 28 जनवरी 2013 10:07

ईरान बनाएगा स्पेस सूट

ईरान बनाएगा स्पेस सूटइस्लामी गणतंत्र ईरान की अंतरिक्ष संस्था का कहना है कि वह शीघ्र ही हाई-टेक स्पेस सूट तैयार करने की तकनीक विकसित कर लेगी।

संस्था के प्रमुख मोहम्मद इब्राहीमी ने बताया कि यह सूट बहुत महत्वपूर्ण होता है और इसे तैयार करने में कुछ वर्ष का समय लगेगा। उन्होंने बताया कि इस प्रोजेक्ट पर उनकी संस्था तथा शीराज़ युनिवर्सिटी आपसी सहयोग के साथ काम कर रही है। इब्राहीमी ने बताया कि स्पेस सूट तैयार करने के लिए अत्याधुनिक तकनीक की आवश्यकता होती है।

हालिया वर्षों में ईरान ने अंतरिक्ष के क्षेत्र में भारी विकास किया है।

सोमवार, 28 जनवरी 2013 10:04

मस्जिदुल अक़सा की सही पहचान

मस्जिदुल अक़सा की सही पहचान

मस्जिदुल अक़सा हरे रंग के गुंबद वाली वह मस्जिद है जो क़ुद्स नगर में बैतुल मुक़द्दस के परिसर में स्थित है।

मस्जिदुल अक़सा की सही पहचान

इसी परिसर में सुनहरे गुंबद वाली एक मस्जिद है जिसका चित्र बहुत अधिक दिखाई देता है और इसे बड़ी ख्याति प्राप्त है। यह मस्जिद क़ुब्बतुस्सख़रह है। मस्जिदुल अक़सा से इसकी दूरी लगभग 400 मीटर है। इसे यहूदी धर्म के लोग इस मस्जिद के स्थान को ओरशलीम कहते हैं। बहुत से लोगों को इन मस्जिदों के बारे में ग़लतफ़हमी जो जाती है। बहुत से पोस्टरों में, पुस्तकों के भीतर तथा अन्य स्थानों पर हम मस्जिदुल अक़सा लिखा हुआ देखते हैं किंतु उसके साथ जो चित्र होता है वह क़ुब्बतुस्सख़रह का होता है। वैसे क़ुब्बतुस्सख़रह मस्जिद भी मुसलमानों के लिए विशेष महत्व रखती है किंतु यह एक सामान्य मस्जिद है, मस्जिदुल अक़सा का स्थान बहुत ऊंचा है।

मस्जिदुल अक़सा की सही पहचान

इस बारे में मीडिया को दोष नहीं दिया जा सकता जो मस्जिदुल अक़सा के नाम पर इसी सुनहरे गुंबद वाली मस्जिद को दिखाते हैं क्योंकि बैतुल मुक़द्दस नगर पर क़ब्ज़ा जमाए बैठा ज़ायोनी शासन टीवी चैनलों और समाचार पत्रों को मस्जिदुल अक़सा के चित्रा लेने अथवा वीडियो फ़िल्म बनाने की अनुमति नहीं देता बल्कि इस मस्जिद के नाम पर क़ुब्बतुस्सख़रह मस्जिद के चित्र लेने को कहा जाता है। यही कारण है कि मस्जिदुल अक़सा का चित्र यदाकदा ही देखने में आता है।

क़ुरआन में मस्जिदुल अक़साः

क़ुरआन के सूरए इसरा की पहली आयत में कहा गया है कि पवित्र है वह हस्ती जो अपने बंदे को रात के समय मस्जिदुल हराम से मस्जिदुल अक़सा ले गई जिसके परिसर को हमने विभूतियों से सुसज्जित किया है। ईश्वर ने इस आयत में मस्जिदुल अक़सा की महानता और सम्मान का उल्लेख किया है।

इस्लामी दृष्टिकोण के अनुसार मस्जिदुल अक़सा का निर्माण हज़रत आदम के हाथों हुआ। इसके बाद ईश्वरीय दूत हज़रत इब्राहीम और फिर हज़रत सुलैमान ने इस मस्जिद का पुनर्निर्माण किया। बैतुल मुक़द्दस में जिस मस्जिद की मरम्मत हज़रत सुलैमान ने की वह यही मस्जिदुल अक़सा थी न कि वह उपास्थना स्थल जिसे यहूदियों ने हज़रत सुलैमान से जोड़ दिया है।

जब बैतुल मुक़द्दस नगर पर मुसलमानों का नियंत्रण हो गया तो इस मस्जिद की कई बार मरम्मत की गई और मस्जिदुस्सख़रह का भी इसी परिसर में निर्माण किया गया। इस समय बैतुल मुक़द्दस नगर में स्थित परिसर में दोनों मस्जिदों थोड़ी सी दूरी पर हैं।

फ्रीमैसेन और ज़ायोनिज़्मः

फ्रीमैसेन संस्था के योजनाकारों की एक चाल यह है कि बैतुल मुक़द्दस की एतिहासिक पहचान को समाप्त करे। इसी संदर्भ में इस संस्था का प्रयास है कि क़ुब्बत्तुस्सख़रह मस्जिद को मस्जिदुल अक़सा के रूप में प्रसिद्ध करवा दे। प्रश्न यह उठता है कि इससे इस ज़ायोनी संस्था को क्या लाभ पहुंचेगा? हज़रत सुलैमान जैसा कि क़ुरआन में भी आया है ईश्वरीय दूत थे उन्होंने मस्जिदुल अक़सा की मरम्मत की जो पहले के ईश्वरीय दूत ने बनाई थी। ज़ायोनियों का इस बारे में मत मुसलमानों से पूर्णतः भिन्न है। उनका मानना है कि हज़रत सुलैमन ने एक उपासना स्थल बनाया उन्होंने मस्जिदुल अक़सा की मरम्मत नहीं की।

शैतान की पुजारी, फ्रीमैसेन और ज़ायोनी

हज़रत सुलैमान के बारे में मुसलमानों के दृष्टिकोण के बिल्कुल विपरीत ज़ायोनियों और फ़्रीमैसेन संस्था का जो हज़रत सुलैमान को जादूगर और नास्तिक कहते हैं यह दावा है कि उन्होंने बैतुल मुक़द्दस में एक उपासना स्थल बनाया था। यही कारण है कि शैतान के पुजारियों, फ्रीमैसेनरियों और ज़ायोनियों का कहना है कि जब मुक्तिदाता के प्रकट होने का समय आएगा तो उसकी एक निशानी यही होगी कि मस्जिदुल अक़सा ध्वस्त कर दी जाएगी।

जो लोग सैटेनिज़्म और पैगेनिज़्म जैसी विवेकहीन आस्था रखते हैं उनका प्रयास है कि मस्जिदुल अक़सा को ध्वस्त करके हज़रत सुलैमान के जाली उपासना स्थल को अधर्मिता और नास्तिकता के प्रतीक के रूप में पहचनवाएं ताकि इस प्रकार ईश्वरीय धर्मों के अंत का जश्न मनाएं। हज़रत सुलैमान के उपासना स्थल के बारे में ज़ायोनियों का विचार बड़ा ही विनाशकारी है। उनका दावा है कि हज़रत ईसा मसीह की वापसी से पहले मस्जिदुल अक़सा को ध्वस्त करके हज़रत सुलैमान के उपासना स्थल का निर्माण करना होगा। उनका दावा है कि यही जाली उपासना स्थल ईश्वर को बहुत प्रिय है। उनके इस दावे में कोई सच्चाई नहीं है कि क्योंकि बहुत से ज़ायोनी हज़रत सुलैमान को अधर्मी बताते हैं उन्हें जादूगर और मूर्तियों का पुजारी कहते हैं। इसकी पुष्टि फेरबदल का शिकार होने वाले ईश्वरीय ग्रंथ तौरैत में उल्लेखित बातों से होता है। ज़ायोनी बहुत पहले से यह प्रयास कर रहे हैं कि क़ुब्बतुस्सख़रह मस्जिद को मस्जिदुल अक़सा बताकर मुसलमानों का ध्यान वास्तविक मस्जिदुल अक़सा से विचलित कर दें ताकि मस्जिदुल अक़स को ध्वस्त करने हज़रत सुलैमान के तीसरे उपासना स्थल के निर्माण का मार्ग प्रशस्त हो जाए। ज़ायोनियों ने कई बार धमकी दी है कि वे मस्जिदुल अक़सा को गिरा देना चाहते हैं।

रविवार, 27 जनवरी 2013 10:15

नमाज़ का फ़लसफ़ा

नमाज़ अल्लाह की याद है।

अल्लाह ने हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम से फ़रमाया कि मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो।

 

एक मख़सूस तरीक़े से अल्लाह की याद जिसमे इंसान के बदन के सर से पैर तक के तमाम हिस्से शामिल होते हैं।वज़ू के वक़्त सर का भी मसाह करते हैं और पैरों का भी, सजदे मे पेशानी भी ज़मीन पर रखी जाती है और पैरों के अंगूठे भी। नमाज़ मे ज़बान भी हरकत करती है और दिल भी उसकी याद मे मशग़ूल रहता है। नमाज़ मे आँखे सजदह गाह की तरफ़ रहती हैं तो रुकू की हालत मे कमर भी झूकी रहती है। अल्लाहो अकबर कहते वक़्त दोनों हाथ ऊपर की तरफ़ उठ ही जाते हैं। इस तरह से बदन के तमाम हिस्से किसी न किसी हालत मे अल्लाह की याद मे मशग़ूल रहते हैं।

27- नमाज़ और अल्लाह का शुक्र

नमाज़ के राज़ो मे से एक राज़ अल्लाह की नेअमतों का शुक्रियाअदा करना भी है। जैसे कि क़ुरआन मे ज़िक्र हुआ है कि उस अल्लाह की इबादत करो जिसने तुमको और तुम्हारे बाप दादा को पैदा किया।अल्लाह की नेअमतों का शुक्रिया अदा करना बड़ी अहमियत रखता है। सूरए कौसर मे इरशाद होता है कि हमने तुम को कौसर अता किया लिहाज़ा अपने रब की नमाज़ पढ़ा करो। यानी हमने जो नेअमत तुमको दी है तुम उसके शुक्राने के तौर पर नमाज़ पढ़ा करो। नमाज़ शुक्र अदा करने का एक अच्छा तरीक़ा है। यह एक ऐसा तरीक़ा है जिसका हुक्म खुद अल्लाह ने दिया है। तमाम नबियों और वलीयों ने इस तरीक़े पर अमल किया है। नमाज़ शुक्रिये का एक ऐसा तरीक़ा है जिस मे ज़बान और अमल दोनो के ज़रिया शुक्रिया अदा किया जाता है।

28- नमाज़ और क़ियामत

क़ियामत के बारे मे लोगों के अलग अलग ख़यालात हैं।

क- कुछ क़ियामत के बारे मे शक करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा

अगर तुम क़ियामत के बारे मे शक करते हो।

ख- कुछ लोग क़ियामत के बारे मे गुमान रखते हैं जैसे कि क़ुरआन

ने कहा है कि वह लोग गुमान करते हैं कि अल्लाह से मुलाक़ात

करेंगे।

ग- कुछ लोग क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत पर यक़ीन रखते हैं।

घ- कुछ लोग क़ियामत का इंकार करते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि (वह लोग कहते है कि) हम क़ियामत के दिन को झुटलाते हैं।

ङ- कुछ लोग क़ियामत पर ईमान रखते हैं मगर उसे भूल जाते हैं जैसे कि क़ुरआन ने कहा है कि वह क़ियामत के दिन को भूल गये हैं।

क़ुरआन ने शक करने वालों के शक को दूर करने के लिए दलीलें दी हैं। क़ियामत का इंकार करने वालों से सवाल किया है कि बताओ तुम्हारे मना करने की दलील क्या है? और भूल जाने वालों को बार बार तंबीह की है ताकि वह क़ियामत को न भूलें। और क़ियामत पर यक़ीन रखने वालों की तारीफ़ की है।

नमाज़ शक को दूर करती है और ग़फ़लत को याद मे बदल देती है। क्योँकि नमाज़ मे इंसान 24 घँटे मे कम से कम 10 बार अपनी ज़बान से अल्लाह को मालिकि यौवमिद्दीन(क़ियामत के दिन का मालिक) कह कर क़ियामत को याद करता है।

29- नमाज़ और सिराते मुस्तक़ीम

हम हर रोज़ नमाज़ मे अल्लाह से सिराते मुस्तक़ीम पर गामज़न रहने की दुआ करते हैं। इंसान को हर वक़्त एक नयी फ़िक्र लाहक़ होती है। दोस्त दुशमन, अपने पराये, सरकशी पर आमादा अफ़राद, और शैतानी वसवसे पैदा करने वाले लोग, नसीहत, शौक़, खौफ़, वहशत, और परोपैगंडे के तरीक़ो से काम लेकर इंसान के सामने एक से एक नये रास्ते पेश करते हैं।और इस तरह मंसूबा बनाते हैं कि अगर इंसान को अल्लाह की तरफ़ से मदद ना मिले तो हवाओ हवस के इन रास्तो मे उलझ कर रह जाये। और मुखतलिफ़ तरीक़ो के बीच उलझन का शिकार होकर सिराते मुस्तकीम से भटक जाये।

ऐहदि नस्सिरातल मुस्तक़ीम यानी हमको सिराते मुस्तक़ीम(सीधे रास्ते पर) पर बाक़ी रख।

सिराते मुसतक़ीम यानी

1- वह रास्ता जो अल्लाह के वलीयों का रास्ता है।

2- वह रास्ता जो हर तरह के खतरे और कजी से पाक है।

3- वह रास्ता जो हमसे मुहब्बत करने वाले का बनाया हुआ है।

4- वह रास्ता जो हमारी ज़रूरतों के जानने वाले ने बनाया है।

5- वह रास्ता जो जन्नत से मिलाता है।

6- वह रास्ता जो फ़ितरी है।

7- वह रास्ता कि अगर उस पर चलते हुए मर जायें तो शहीद कहलाऐं।

8- वह रास्ता जो आलमे बाला से वाबस्ता और हमारे इल्म से दूर है।

9- वह रास्ता जिस पर चल कर इंसान को शक नही होता।

10-वह रास्ता जिस पर चलने के बाद इंसान शरमिन्दा नही होता।

11-वह रास्ता जो तमाम रास्तों से ज़्यादा आसान, नज़दीक, रोशन और साफ़ है।

12-वह रास्ता जो नबियों, शहीदों, सच्चे और नेक लोगों का रास्ता है।

यही तमाम चीज़े सिराते मुस्तक़ीम की निशानियाँ हैं। जिनका पहचानना बहुत मुशकिल काम है।इस पर चलने और बाक़ी रहने के लिए हमेशा अल्लाह से मदद माँगनी चाहिए।

30- नमाज़ शैतानो से जंग है

हम सब लफ़्ज़े महराब को बहुत अच्छी तरह जानते हैं। यह लफ़्ज़ क़ुरआन मे जनाबे ज़िक्रिया अलैहिस्सलाम की नमाज़ के बारे मे इस्तेमाल हुआ है। (सूरए आले इमरान आयत न. 38, 39) यहाँ पर नमाज़ मे खड़े होने को महराब मे क़ियाम से ताबीर किया गया है। महराब का मअना जंग की जगह है। लिहाज़ा महराबे नमाज़ मे क़ियाम और नमाज़ शैतान से जंग है।

31- महराब जंग की जगह

अगर इंसान दिन मे कई बार किसी ऐसी जगह पर जाये जिसका नाम ही मैदाने जंग हो, जहाँ पर शैतानों, शहवतो, ताग़ूतों, सरकशों और हवस से जंग होती हो तो इस ताबीर का इस्तेमाल एक फ़र्द या पूरे समाज की ज़िंदगी मे कितना ज़्यादा मोस्सिर होना चाहिए।

इस बात को नज़र अन्दाज़ करते हुए कि आज के ज़माने मे ग़लत रस्मो रिवाज की बिना पर इन महराबों को दुल्हन के कमरों से भी ज़्यादा सजाया जाने लगा है।इन ज़रो जवाहिर और फूल पत्तियों की नक़्क़ाशी ने तो मामले को बिल्कुल बदल दिया है। यानी महराब को शैतान के भागने की जगह के बजाए, उसके पंजे जमाने की जगह बना दिया जाता है।

एक दिन पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने हज़रत ज़हरा सलामुल्लाह अलैह से फ़रमाया कि इस पर्दे को मेरी नज़रो के सामने से हटा दो। क्योंकि इस पर बेल बूटे बने हैं जो नमाज़ की हालत मे मेरी तवज्जुह को अपनी तरफ़ खीँच सकते हैं।

लेकिन आज हम महराब को संगे मरमर और नक़्क़ाशी से सजाने के लिए एक बड़ी रक़म खर्च करते हैं। पता नही कि हम मज़हबी रसूम और मेमारी के हुनर के नाम पर असल इस्लाम से क्यों दूर होते जा रहे हैं? इस्लाम को जितनी ज़्यादा गहराई के साथ बग़ैर किसी तसन्नो के पहचनवाया जायेगा उतना ही ज़यादा कारगर साबित होगा। सोचिये कि हम इन तमाम सजावटों के ज़रिये कितने लोगों को नमाज़ी बनाने मे कामयाब हुए। अगर मस्जिद की सजावट पर खर्च होने वाली रक़म को दूसरी अहम बुन्यादी ज़रूरतों को पूरा करने मे खर्च किया जाये तो बहुतसे लोग मस्जिद और नमाज़ की तरफ़ मुतवज्जाह होंगे।

32-सुस्त लोग भी शामिल हो जाते हैं

इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने नमाज़े जमाअत के फ़लसफ़े को ब्यान करते हुए फ़रमाया कि “नमाज़े जमाअत का एक असर यह भी है कि इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है और वह भी साथ मे शामिल हो जाते हैं।” मिसाल के तौर पर जब हज़रत इमाम महदी अलैहिस्सलाम का नाम आता है तो आपके मुहिब ऐहतराम के लिए खड़े हो जाते हैं। इनको खड़े होता देख कर सुस्त लोग भी ऐहतरामन खड़े हो जाते हैं।इस तरह इससे सुस्त लोगों मे भी शौक़ पैदा होता है।

33- हज़रत मूसा अलै. को सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम अपनी बीवी के साथ जारहे थे। उन्होने अचानक एक तरफ आग देखी तो अपनी बीवी से कहा कि मैं जाकर तापने के लिए आग लाता हूँ। जनाबे मूसा अलैहिस्सलाम आग की तरफ़ बढ़े तो आवाज़ आई मूसा मै तुम्हारा अल्लाह हूँ और मेरे अलावा कोई माबूद नही है। मेरी इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ क़ाइम करो। (क़ुरआने करीम के सूरए ताहा की आयत न.14) यानी तौहीद के बाद सबसे पहले नमाज़ का हुक्म दिया गया। यहाँ से यह बात समझ मे आती है कि तौहीद और नमाज़ के बीच बहुत क़रीबी और गहरा ताल्लुक़ है। तौहीद का अक़ीदा हमको नमाज़ की तरफ़ ले जाता है।और नमाज़ हमारी यगाना परस्ती की रूह को ज़िंदा करती है। हम नमाज़ की हर रकत मे दोनो सूरों के बाद,हर रुकूअ से पहले और बाद में हर सूजदे से पहले और बाद में, नमाज़ के शुरू मे और बाद मे अल्लाहु अकबर कहते हैं जो मुस्तहब है।हालते नमाज़ मे दिल की गहराईयों के साथ बार बार अल्लाहु अकबर कहना रुकूअ और सजदे की हालत मे अल्लाह का ज़िक्र करना, और तीसरी व चौथी रकत मे तस्बीहाते अरबा पढ़ते हुए ला इलाहा इल्लल्लाह कहना, यह तमाम क़ौल अक़ीदा-ए-तौहीद को चमकाते हैं।

34- नमाज़ को छोड़ना तबाही का सबब बनता है

क़ुरआने करीम के सूरए मरियम की 59वी आयत मे इरशाद होता है कि नबीयों के बाद कुछ लोग उनके जानशीन बने उन्होने नमाज़ को छोड़ दिया और शहवत परस्ती मे लग गये।

इस आयत मे इस बात की तरफ़ इशारा किया गया है कि उन्होने पहले नमाज़ को छोड़ा और बाद मे शहवत परस्त बन गये। नमाज़ एक ऐसी रस्सी है जो बंदे को अल्लाह से मिलाए रखती है। अगर यह रस्सी टूट जाये तो तबाही के ग़ार मे गिरना यक़ीनी है। ठीक इसी तरह जैसे तस्बीह का धागा टूट जाने पर दाने बिखर जाते हैं और बहुत से गुम हो जाते हैं।

35- तमाम अदयान की इबादत गाहों की हिफ़ाज़त ज़रूरी है

क़ुरआने करीम के सूरए हज की 40वी आयत मे इरशाद होता है कि अगर इंक़िलाबी मोमेनीन अपने हाथों मे हथियार लेकर फ़साद फैलाने वालों और तफ़रक़ा डालने वालों से जंग न करें, और उन्हें न मारे तो ईसाइयों, यहूदीयों और मुसलमानो की तमाम इबादतगाहें वीरान हो जायें।

अगर अल्लाह इन लोगों को एक दूसरे से दफ़ ना करता तो दैर, कलीसा, कनीसा और मस्जिदें जिन मे कसरत के साथ अल्लाह का ज़िक्र होता है कब की वीरान होगईं होतीं। बहर हाल अगर इबादत गाहों की हिफ़ाज़त के लिए खून भी देना पड़े तो इनकी हिफ़ाज़त करनी चाहिए।

दैर--- आबादी से बाहर बनाई जाने वाली इबादतगाह जिसमे बैठ कर ज़ाहिद लोग इबादत करते हैं।

कलीसा--- ईसाइयों की इबादतगाह

कनीसा---- यहूदीयों की इबादतगाह और यह इबरानी ज़बान के सिलवसा लफ़्ज़ का अर्बी तरजमा है।

मस्जिद----मुसलमानो की इबादतगाह

36- तहारत और दिल की सलामती

जिस तरह इस्लाम मे नमाज़ पढ़ने के लिए वज़ू, ग़ुस्ल या तयम्मुम जैसी ज़ाहिरी तहारत ज़रूरी है। इसी तरह नमाज़ की क़बूलियत के लिए दिल की तहारत की भी ज़रूरत है। क़ुरआन ने बार बार दिल की पाकीज़गी की तरफ़ इशारा किया है। कभी इस तरह कहा कि फ़क़त क़लबे सलीम अल्लाह के नज़दीक अहमियत रखता है।

इसी लिए इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि “क़लबे सलीम उस क़ल्ब को कहते हैं जिसमे शक और शिर्क ना पाया जाता हो।”

हदीस मे मिलता है “कि अल्लाह तुम्हारे जिस्मों पर नही बल्कि तुम्हारी रूह पर नज़र रखता है।”

क़ुरआन की तरह नमाज़ मे भी ज़ाहिर और बातिन दोनो पहलु पाये जाते हैं। नमाज़ की हालत मे हम जो अमल अंजाम देते हैं अगर वह सही हो तो यह नमाज़ का ज़ाहिरी पहलु है। और यहीँ से इंसान की बातिनी परवाज़(उड़ान) शुरू होती है।

वह नमाज़ जो मारफ़त व मुहब्बत की बुनियाद पर क़ाइम हो।

वह नमाज़ जो खुलूस के साथ क़ाइम की जाये।

वह नमाज़ जो खुज़ुअ व खुशुअ के साथ पढ़ी जाये।

वह नमाज़ जिसमे रिया (दिखावा) ग़रूर व तकब्बुर शामिल न हो।

वह नमाज़ जो ज़िन्दगी को बनाये और हरकत पैदा करे।

वह नमाज़ जिसमे दिल हवाओ हवस और दूसरी तमाम बुराईयों से पाक हो।

वह नमाज़ जिसका अक्स मेरे दिमाग़ मे बना है। जिसको मैंने लिखा और ब्यान किया है। लेकिन अपनी पूरी उम्र मे ऐसी एक रकत नमाज़ पढ़ने की सलाहिय्यत पैदा न कर सका।(मुसन्निफ़)

जीवनी

 

अब्दुल्लाह पुत्र हम्बल पुत्र बिलाले शैबानी मरूज़ी अरब के शैबान पुत्र ज़हल या बनी ज़हल पुत्र शैबान ख़नदान से हैं आप हम्बलियों के मार्ग दर्शक और अहले सुन्नत वल जमाअत के चौथे इमाम हैं। आप 164 हिजरी मुताबिक़ 780 ई0 में पैदा हुए। अहम्द पुत्र हम्बल ने ग़रीबी में

 

ज़िन्दगी बिताई और जीविका चलाने के लिए कपड़ा बुनने का काम करते थे। आप ने क़ुरआन का ज्ञान हासिल करने के बाद धर्म शास्त्र का ज्ञान हासिल किया और उसके बाद लेखन कला को हासिल करने मे लग गए। आप ने एक मुद्दत तक अहले राय की पुस्तकों को पढ़ा अहम पुत्र हम्बल हदीस को प्रमाणित करने के लिए विभिन्न सिद्धातों से सहायता लेते थे क्योंकि आप हदीस को दीन का आधार मानते थे। आपने इल्मे हदीस को हासिल करने के लिए 186 हिजरी मताबिक़ 603 ईसवीं में बसरा, कूफ़ा, हिजाज़ (सऊदी अरबिया) और शाम (सीरिया) की यात्रा की।

 

आपके शिक्षक:

 

इमाम अहमद पुत्र हम्बल ने वकीअ, यहया पुत्र आदम, यहया पुत्र सईद क़हतान और यहया पुत्र मोईन जैसे शिक्षकों से बहुत ज़्यादा हदीसें उल्लेख की हैं। इन के अतिरिक्त मीसम तथा अबू यूसुफ़ के छात्र से जो ख़ुद अबु हनीफ़ के छात्र भी थे शिक्षा ग्रहण की है। इमाम शाफ़ेई भी आप के शिक्षक थे।

 

आप के छात्र:

 

अहमद पुत्र हम्बल के वह छात्र जिन्होंने हदीसें उल्लेख करने में आपकी सहायत की है उनके नाम निम्न लिखित हैं:

 

अबुल अब्बास असतख़री, अहमद पुत्र अबी ख़बसमा, अबू यअली मूसली, अबू बक्र असरम, अबुल अब्बास सालब, अबू दाऊद सजिस्तानी, इत्यादि ।

 

आप की म्रत्यु 341 हिदरी मुताबिक़ 855 ईसवी को बग़दाद में हुई।

 

हम्बली धर्म शास्त्र की विशेषता:

 

इस मज़हब से संस्थापक हदीस एकत्र करने और कथनों की जाच पड़ताल करने में इतने लीन हो गये थे कि कुछ उलमा के मुताबिक़, जैसे तबरी ने कहा है कि उनका कोई अलग धर्म शास्त्र नही है। लेकिन इसका दावा किया जा सकता है कि दूसरे तमाम धर्मो से अलग हम्बली नाम का एक धर्म शास्त्र मौजूद है जिसकी विशेषता यह है कि उन्होंने पैग़म्बरे अकरम (स0) की हदीसों की तरफ़ ज़्यादा ध्यान दिया है।

 

हम्बली धर्म शास्त्र के स्रोत:

 

इस धर्म ने अपने धर्म शास्त्र का असली स्रोत क़ुरआन व सुन्नत (पैग़म्बर (स0) के स्वभाव और उनके कथन तथा कर्म) को क़रार दिया है। इस धर्म के मुखिया हज़रात क़ुरआन तथा सुन्नत के बीच फ़र्क़ को नही मानते हैं। जो लोग इन दोनो को अलग समझते हैं या एक को दूसरे से ऊँचा समझते हैं उन की कठोरता से निन्दा करते हैं, और सिर्फ़ हदीसों से तर्क लाते हैं। हम्बली, सहाबा (पैग़म्बर (स0) के शिष्य) और धर्म गुरुओं के कथन को भी विश्वास योग्य मानते हैं। क़ुरआन, हदीस सहाबा के कथन तथा धर्म गुरुओं के अलावा, कुछ और भी चीज़े हैं जिन का महत्व उन के नज़दीक बहुत कम है लेकिन उन को भी तर्क के तौर पर लाया जा सकता है। और वह जगह निम्न लिखित हैं:

 

क़यास, इजमाअ, मसालेह मुरसला तथा सद्दुज़ ज़राएअ।

 

हम्बली कमज़ोर हदीस से उस वक़्त पर लाभ उठाते हैं जब वह क़ुरआन तथा सुन्नत से न टकरा रही हो। उन के धर्म की एक विशेषता जो मशहूर भी हो गई है वह इबादात (अराधना), व्यवसाय, तथा पवित्रता में कठोरता है, इस कठोरता की एक मिसाल ये है कि वह वज़ू में कुल्ली और नाक में पानी डालना अनिवार्य समझते हैं।

 

धर्म गुरू की आवश्यकता एवं सीमांए:

 

इनकी की विशेषताओं में से एक जो अच्छी भी है वह धर्म गुरू की सीमाओं का निश्चित करना है। इस विशेषता की कुछ मिसालें ये हैं:

 

1. धर्म गुरू को ज्ञानी तथा साबिर होना चाहिए।

 

2. धर्म गुरू की नीयत साफ़ होना चाहिए।

 

3. धर्म गुरू को समय तथा लोगों की दशा का ज्ञान होना चाहिए।

 

4. धर्म गुरू को क़ुरआन व सुन्नत और हदीसो की सनद (वह श्रंखला या कड़ी जिस से रावी हदीस को इमाम या रसूल से उल्लेख करता है) का ज्ञानी होना चाहिए।

 

5. एक हद तक धर्म गुरू में फ़तवा देने की काबिलायत और योग्यता होना चाहिए ताकि लोग उस के दुश्मन न हो जाँय।

 

हम्बली धर्म शास्त्र ने समाज की समस्याओं की तरफ भी पूरा ध्यान दिया है तथा इसी तुलना में धार्मिक आदेश दिये है। इसकी कुछ मिसाले निम्न लिखित हैं:

 

• अगर कोई शख़्स किसी ज़मीन को निर्धन एवं कमज़ोर लोगों के लिए समर्पित (वक़्फ) कर दे तो उस से उगने वाली चीज़ों पर ज़कात नही है।

 

• वह रिश्तेदार जिसका ख़र्च आदमी पर वाजिब है ये वह लोग हैं जो स्वंय अपना ख़र्च पूरा नही पर सकते हैं।

 

दावे को तर्क से सिद्ध करने के बारे में हम्बली धर्म शास्त्र का सिद्धांत:

 

1. इक़रार (स्विकृति): हम्बलियों का दृष्टिकोण है कि स्विकृति, शब्द लेखने तथा गूँगे लोगो के लिए इशारे से दावा सिद्ध हो जाता है।

 

2. क़सम: अगर मैं किसी पर किसी चीज़ का दावा करूं और उक को सिद्ध करने के लिए मेरे पास कोई तर्क न हो तो जज प्रत्यक्ष (सामने वाले) को क़सम खाने पर विवश करेगा कि उस की बात झूटी है।

 

3. गवाही: हम्बलियों का विश्वास है कि जिन चीज़ो में गवाही दी जा सकती है वह सात है:

 

अ.एवं ब: ज़िना तथा गुद मैथुन की गवाही चार मर्दों के द्वारा सिद्ध होती है।

 

स. हुदूद (धार्मिक दंड): जैसे कज़्फ़, मदिरा पान, और लूट दो मर्दों की गवाही से सिद्घ होती है।

 

द. वह ज़ख्म जो इन्सान या जानवर पर लगते हैं, उन को जानवरों के डाक्टरों की रिपोर्ट के बाद दो मर्द या एक मर्द व एक औरत की गवाही से सिद्ध किया जा सकता है।

 

ह. औरतों के वह दोष जो मर्दों से छिपे होते हैं ये दोष एक औरत की गवाही से सिद्ध होते हैं।

 

4. क़ुरआ (लाटरी): इस धर्म के अनुसार क़ुरआ आदेश करने के बाराबर है, तलाक़, निकाह, दास आज़ाद करने, माल तथा बीवी के साथ सोने को बाटने के लिए और इसी तरह बीवियों में से किसी एक बीवी को अपने साथ यात्रा पर ले जाने के लिए क़ुरआ करते हैं। अहमद पुत्र हम्बल ने इब्राहीम तथा जाफ़र पुत्र मोहम्मद के कथन मे कहा है कि क़ुरआ जाएज़ है।

 

धार्मिक तथा कलामी अक़ाएद:

 

इमाम अहमद हम्बल और उन के अनुरागी हदीसी धर्म के हिमायती हैं इसलिए उन को कलाम का संस्थापक नही कहा जा सकता, इसलिए अक़ाएद में से जो भी अक़ीदा उन से सम्बंधित है वह सब किताब (क़ुरआत) तथा सुन्नत से लिया गया है।

 

सामान्य रूप से हम्बली इरजा धर्म के मानने वाले है। जैसे कि तकफ़ीर (दूसरे को काफ़िर मानना) के विषय में उन का वही दृष्टिकोण है जो मुरजेआ का है। जैसा कि अध्यात्मा (ख़ुदा शिनासी) के विषय में उन की गिन्ती सिफ़ातिया मे होती है और इसलिए यह लोग जमहीया, क़दरीया, मोअतज़ेला, और उन के मानने वालो की निंदा करते हैं। यह लोग ईश्वर के कथन अर्थात क़ुरआन को मख़्लूक़ नही मानते हैं।

 

ईमान के लिए कथन एवं कर्म को आवश्यक जानते हैं ईश्वर को देखे जाने के विषय को सही मानते हैं क्योंकि विश्वास योग्य हदीस में उन्होंने ईश्वर के देखे जाने का वर्णन किया है।

 

चारो धर्मों मे से सब के कम श्रृद्धालु हम्बली धर्म के हैं, निःसंन्देह इस धर्म के धर्म गुरुओं ने ऐसा काम किया है कि जिस की वजह से वहाबी तथा सलफ़ी विचारों ने बहुत तरक़्क़ी की और वहाबी अपने आप को हम्बलियों से संबद्ध करते हैं।

 

स्रोत:

 

1. फ़िक़्हे तत्बीक़ी, सईद मनसूरी (आरानी)

 

2. अहले सुन्नत वल जमाअत के इमाम मुहम्द रऊफ़ तवक्कुली

 

3. अल अइम्म तुल अरबआ, डाक्टर अहमद अशरबासी

 

4. तहक़ीक़ दर तारीख़ व फ़लसफ़ ए मज़ाहिबे अहले सुन्नत, यूसुफ़ क़ज़ाई

रविवार, 27 जनवरी 2013 10:13

मोतज़ेला सम्प्रदाय

दूसरी हिजरी के शुरू में वासिल इब्ने अता (80-131) ने मोतज़ेला सम्प्रदाय की बुनियाद रखी।

 

इस ज़माने में गुनाहे कबीरा के अन्जाम और उसके बारे में हुक्मे दुनियवी और उखरवी का मसअला बहस का टापिक था। खवारिज ने गुनाहे कबीरा को अन्जाम देने वालों को काफिर और हसने बसरी ने मुनाफिक़ क़रार दिया था। जबकि मुर्जेआ उन्हें मोमिन समझते थे।

 

इस दरमियान वासिल इब्ने अता ने जो हसने बसरी के शागिर्द (शिष्य) थे, एक नया नज़रिया (दृष्टिकोण) अपनाया। वह यह है कि गुनाहे कबीरा को अन्जाम देने वाला न मोमिन है न काफिर। इस नज़रिऐ (दृष्टिकोण) की मंज़िलतुन बैनल मंज़िलतैन के उनवान से शोहरत हुई और वासिल इब्ने अता ने इस नज़रिए के ऐलान के बाद अपने उस्ताद हसने बसरी के दर्स से दूरी इख्तियार कर ली जिसकी वजह से उनके मानने वाले मोतज़ेला के तौर पर पहचाने जाने लगे।

 

मोतज़ेला तारीख (इतिहास) के आईने में :

 

अमवी हुक्काम (शासक) अक़ीदए जब्र की हिमायत (समर्थन) करते थे और चूँकि मोतज़ेला आज़ादी और इरादे में क़दरिया के नज़रियात को स्वीकार करते थे इस लिए उन्होंने नर्म नज़रिया (दृष्टिकोण) अपनाया। लेकिन अमवी हुकूमत (शासन) के गिर जाने के बाद अपने अक़ीदों की तरवीज (प्रचार) करना शुरू किया। मोतज़ेला के संस्थापक वासिल इब्ने अता ने अपने शागिर्दों जैसे अब्दुल्लाह इब्ने हारिस को मराकिश और हफ्स इब्ने सालिम को खुरासान की तरफ रवाना किया। अमवियों के बाद उमर इब्ने अबीद ने जो एतिज़ाल के दूसरे संस्थापकों में गिने जाते हैं और मंसूर के क़रीबी दोस्तों मे से थे उनसे और दूसरे मोतज़ेला उलमा से उस ज़माने के हाकिम ने ज़नादिक़ा औऱ उनकी इल्हादी (नास्तिकतवी) मिशन का मुक़ाबला करने को कहा। अलबत्ता यह बात याद रखने की ज़रूरत है कि वासिल इब्ने अता नफसे ज़किया के क़याम की हिमायत (समर्थन) की बिना पर हुकूमत के क्रोध का शिकार हो गए थे। इसी ज़माने में फलसफी किताबों का अर्बी में अनुवाद हुआ और एतिज़ाली मुतकल्लेमीन फलसफी नज़रियों से आशना हुए। धीरे धीरे मोतज़ेला के उन्नति का ज़माना आ गया और उनके अक़ाइद हुकूमत के समर्थन से रिवाज पाने लगे दूसरे शब्दों में एतिज़ाल हुकूमत का सरकारी मज़हब क़रार पाया और इन अम्र बिल मारूफ और नही अनिल मुन्कर के बारे में उनके अक़ाइद के मुताबिक़ उनके विरोधियों (अहले हदीस व हनाबेला) के खिलाफ सख्त तरीक़ा अपनाया गया।

 

मोतज़ेला के विरोधियों के लिए सख्तियों का ज़माना:

 

मामून से वासिक़ बिल्लाह के ज़माने में मोतज़ेली मुतकल्लेमीन ने हुकूमत में असर (प्रभाव) पैदा करके अपने नज़रियात (दृष्टिकोण) बयान करते और धीरे धीरे वह अपने नज़रियात (दृष्टिकोण) को ज़बरदस्ती थोपने लगे। इस दौर को तफतीशे अक़ाइद का दौर कहा जाता है। मामून ने 288 हिजरी में बग़दाद में अपने एक आदमी को हुक्म दिया कि वह लोगों को खलक़े क़ुरआन के बारे में बताये और जो भी इस नज़रिये (दृष्टिकोण) को स्वीकार न करे उसे सज़ा दी जाए। मामून की मौत के बाद वासिक़ ने भी इन्हीं इन्तेहा पसन्द पालीसियों को जारी रखा और नज़रिए (दृष्टिकोण) खलक़े क़ुरआन के विरोधियों को बहुत कष्ट पहुँचाया। यही इन्तेहा पसन्द पालीसी आगे चलकर मोतज़ेला की नाबूदी का सबब बनी।

 

मोतज़ेला के अक़ाइद :

 

(A) इलाहियात, मोतज़ेला के उसूले मज़हब

 

(1) तौहीद : मोतज़ेला ने तौहीद और नफिए सिफात ज़ाइद अज़ ज़ाते अहदियत के मसअलों में अपने नज़रियात की बिना पर खुद को मुवह्हेदा कहते थे। इनके यह नज़रियात सिफातिया और मुजस्समा के मुक़ाबिल हैं यह दो गुरूप सिफाते सुबूतिया को जिनमें जिस्मानी पहलू का शुब्हा होता ज़ाहेरी अर्थों में लेते हैं लेकिन मोतज़ेला इस मसअले में तावील के क़ाइल हैं जो क़ेदमें ज़ात, नफिए सिफाते ज़ाइद बर ज़ात और नफिए रोयत और नफिए शरीक का मुस्तलज़िम है।

 

(2) अद्ल : मोतज़ेला को अदलिया भी कहा जाता है क्यो कि उन्होंने इंसान के लिए इख्तियार और तफवीज़ को सिद्ध किया जो जब्र और ज़बरदस्ती के मुक़ाबिल है। इस अस्ल के तहत खल्क़े अफआले इंसान, खुदा से ज़ुल्म का इनकार, पैदाइश का मसअला, एवज़, तकलीफ, लुत्फ, मसअलए हुस्नो क़ुब्हे अक़्ली वग़ैरा आते हैं।

 

(3) वअदो वईद : खुदा का आदिल होना इस बात की मांग करता है कि खुदा पर वाजिब है कि वह नेक और अच्छे काम अंजाम देने वाले लोगों को जज़ा दे और बुरे काम अंजाम देने वाले लोगों को सज़ा दे। इस अस्ल के तहत जहन्नम में काफिरों का दाखिल होना, मसअलए शिफाअत और तौबा वग़ैरा शामिल हैं।

 

(4) अल-मनज़ेलतो बैनल मनज़ेलतैन : मोतज़ेला का ख्याल है कि गुनाहे कबीरा को अंजाम देने वाला न मोमिन है न काफिर बल्कि इन दोनो के दरमियान एक मक़ाम मे है जिसको अल-मनज़ेलतो बैनल मनज़ेलतैन से ताबीर किया जाता है।

 

(5) अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुन्कर : मोतज़ेला इसके वुजूब के क़ाइल हैं और अबु अली जुब्बाई ने अक़्ल से अबु हाशिम ने नक़्ल से इसे वाजिब क़रार दिया है। इनके नज़दीक अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुन्कर के मरतबे कराहते क़ल्बी से लेकर ताक़त के प्रयोग तक हैं।

 

(B) तबिय्यात : मोतज़ेला के नज़दीक जिस्म ज़ाते ला यता जज़्ज़ा से मुरक्कब है। बू हवा में ठहरे ज़र्रों से तरकीब है और नूर ऐसे ज़र्रों से तरकीब है जो हवा में फैल जाते हैं और जिस्मों का एक दूसरे में मिलना मुश्किल नही है।

 

शिया और मोतज़ेला के कलाम में फर्क़ : शिया और मोतज़ेला दोनों को अदलिया कहा जाता है लेकिन इनके दरमियान फर्क़ भी पाये जाते हैं कुछ महत्वपूर्ण फर्क़ इस तरह हैं :

 

(1) इमामिया जब्र और इख्तियार में अम्र बैनल अमरैन के क़ाइल हैं जबकि मोतज़ेला तफवीज़ के।

 

(2) इमामिया बर खिलाफे मोतज़ेला, इमामे मासूम की ज़रूरत और इस्मत के क़ाइल हैं।

 

(3) इमामिया के नज़दीक गुनाहे कबीरा का अंजाम देने वाला मोमिने फासिक़ है जबकि मोतज़ेला इसे कुफ्रो ईमान के बीच की मंज़िल में क़रार देते हैं।

 

(4) इमामिया बर खिलाफे मोतज़ेला, गुनाहे कबीरा को अंजाम देने वाले को मुख़ल्लद दर जहन्नम नही समझते हैं।

 

तबक़ात व मशाहीर ----

 

मोतज़ेला बग़दाद और बसरा के दो महत्वपूर्ण गुरूप में होने के इलावा बीस गुरूप में बटते हैं और इनके दरमियान पाँच बयान किए हुए उसूल के इलावा अक्सर मसअलों में इख्तिलाफात पाए जाते हैं इन फिर्क़ो में वासलिया, हज़ीलिया, निज़ामिया, बशरिया, काबिया, हिशामिया, जबानिया, जाहज़िया, मामरिया, ख़यातिया, मुरदारिया हैं।

 

तीसरी सदी हिजरी में मोतज़ेला के बुज़ुर्गों में अबु हाशिम (321 हिजरी), अबुल क़ासिम (317 हिजरी), जाहिज़ (पैदाइश-225 हिजरी) किताबुल बयान वत्तबईन और किताबुल बखला के लेखक, निज़ाम (देहान्त-231 हिजरी) अर्रद्दो अलस-सनविया के लेखक, चोथी सदी हिजरी में अबु बक्र अहमद इब्ने अलल अखशीदी, पाँचवीं सदी हिजरी में क़ाज़ी अब्दुल जब्बार कुतुबे शर्हिल उसूलिल खमसा के लेखक, अलमुग़नी वलमुहीत बित्तकलीफ, छटी सदी हिजरी में मोतज़ेला के मशहूर मुतकल्लेमीन में ज़मखशरी कश्शाफ के लेखक, और सातवींय सदी हिजरी में मोतज़ेला के मुतकल्लेमीन में नहजुल बलाग़ा के मशहूर शारेह इब्ने अबिल हदीद का नाम लिया जा सकता है और बीसवींय सदी हिजरी में मोतज़ेला का मानने वालों में शेख मुहम्मद अब्देह क़ाबिले ज़िक्र हैं।

 

हवाले (स्त्रोत) :

 

(1) फरहंगे अक़ाइद व मज़ाहिबे इस्लामी, आयतुल्लाह जाफर सुब्हानी।

 

(2) तारीखे मोतज़ेला, मुहम्मद जाफर लंगरूदी।

 

(3) मिलल व नहल, शहरिस्तानी।

 

(4) तारीखे मज़ाहिबे इस्लामी, मुहम्मद अबुज़ोहरा, अनुवाद – अली रज़ा