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हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम
जब हम आस्था, वीरता और निष्ठा के उच्च शिखर की ओर देखते हैं तो हमारी दृष्टि अब्बास जैसे महान एवं अद्वितीय व्यक्ति पर पड़ती है
जो हज़रत अली की संतान हैं। वे उच्चता, उदारता और परिपूर्णता में इतिहास में दमकते हुए व्यक्तित्व के स्वामी हैं। बहुत से लोगों ने धार्मिक आस्था, वीरता और वास्तविकता की खोज उनसे ही सीखी है। वर्तमान पीढ़ी उन प्रयासों की ऋणी है जिनके अग्रदूत अबुलफ़ज़लिल अब्बास जैसा व्यक्तित्व है।
उस बलिदान और साहस की घटना को घटे हुए अब शताब्दियां व्यतीत हो चुकी हैं किंतु इतिहास अब भी अब्बास इब्ने अली की विशेषताओं से सुसज्जित है। यही कारण है कि शताब्दियों का समय व्यतीत हो जाने के बावजूद वास्तविक्ता की खोज में लगी पीढ़ियों के सामने अब भी उनका व्यक्तित्व दमक रहा है।
यदि इतिहास के महापुरूषों में हज़रत अब्बास का उल्लेख हम पाते हैं तो वह इसलिए है कि उन्होंने मानव पीढ़ियों के सामने महानता का जगमगाता दीप प्रज्वलित किया और सबको मानवता तथा सम्मान का पाठ दिया। बहादुरी, रणकौशल, उपासना, ईश्वर की प्रार्थना हेतु रात्रिजागरण और ज्ञान आदि जैसी विशेषताओं में हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास का व्यक्तित्व, जाना-पहचाना है।
हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की शहादत के पश्चात इमाम अली अलैहिस्सलाम ने जो दूसरी पत्नी ग्रहण कीं उनका नाम फ़ातेमा केलाबिया था। वे सदगुणों की स्वामी थीं और पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार से विशेष निष्ठा रखती थीं। पैग़म्बरे इस्लाम के परिवार के प्रति उनका अथाह प्रेम पवित्र क़ुरआन की इस आयत के परिदृष्य में था कि पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी का बदला, उनके परिजनों के साथ मित्रता और निष्ठा है। सूरए शूरा की आयत संख्या २३ में ईश्वर कहता है, "कह दो कि अपने परिजनों से प्रेम के अतिरिक्त मैं तुमसे अपनी पैग़म्बरी का कोई बदला नहीं चाहता। (सूरए शूरा-२३) उन्होंने इमाम हसन, इमाम हुसैन, हज़रत ज़ैनब और उम्मे कुल्सूम जैसी हज़रत फ़ातेमा ज़हरा की निशानियों के साथ कृपालू माता की भूमिका निभाई और स्वयं को उनकी सेविका समझा। इसके मुक़ाबले में अहलेबैत अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों के निकट इस महान महिला को विशेष सम्मान प्राप्त था। हज़रत ज़ैनब उनके घर जाया करती थीं और उनके दुखों में वे उनकी सहभागी थीं।
हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास एक ऐसी ही वीर और कर्तव्यों को पहचानने वाली माता के पुत्र थे। चार पुत्रों की मां होने के कारण फ़ातेमा केलाबिया को "उम्मुलबनीन" अर्थात पुत्रों की मां के नाम की उपाधि दी गई थी। उम्मुलबनीन के पहले पुत्र हज़रत अब्बास का जन्म ४ शाबान वर्ष २६ हिजरी क़मरी को पवित्र नगर मदीना में हुआ था। उनके जन्म ने हज़रत अली के घर को आशा के प्रकाश से जगमगा दिया था। हज़रत अब्बास अलैहिस्सलाम अतयंत सुन्दर और वैभवशाली थे। यही कारण है कि अपने सुन्दर व्यक्तित्व के दृष्टिगत उन्हें "क़मरे बनी हाशिम" अर्थात बनीहाशिम के चन्द्रमा की उपाधि दी गई।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम जैसे पिता और उम्मुल बनीन जैसी माता के कारण हज़रत अबुलफ़ज़लिल अब्बास उच्चकुल के स्वामी थे और वे हज़रत अली की विचारधारा के सोते से तृप्त हुए थे। अबुल फ़ज़लिल अब्बास के आत्मीय एवं वैचारिक व्यक्तित्व के निर्माण में हज़रत अली अलैहिस्सलाम की विशेष भूमिका रही है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने अपने पुत्र अब्बास को कृषि, शरीर एवं आत्मा को सुदृढ़ बनाने, तीर अंदाज़ी, और तलवार चलाने जैसे क्षेत्रों में प्रशिक्षित किया था। यही कारण है कि हज़रत अब्बास कभी कृषि कार्य में व्यस्त रहते तो कभी लोगों के लिए इस्लामी शिक्षाओं का वर्णन करते। वे हर स्थिति में अपने पिता की भांति निर्धनों तथा वंचितों की सहायता किया करते थे। भाग्य ने भी उनके लिए निष्ठा, सच्चाई और पवित्रता की सुगंध से मिश्रित भविष्य लिखा था।
हज़रत अब्बास की विशेषताओं में से एक, शिष्टाचार का ध्यान रखना और विनम्रता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम अपने पुत्र से कहते हैं कि हे मेरे प्रिय बेटे, शिष्टाचार बुद्धि के विकास, हृदय की जागरूकता और विशेषताओं एवं मूल्यों का शुभआरंभ है। वे एक अन्य स्थान पर कहते हैं कि शिष्टाचार से बढ़कर कोई भी मीरास अर्थात पारिवारिक धरोहर नहीं होती।
इस विशेषता मे हज़रत अबुलफ़ज़ल सबसे आगे और प्रमुख थे। अपने पिता की शहादत के पश्चात उन्होंने अपने भाई हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता में अपनी पूरी क्षमता लगा दी। किसी भी काम में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम से आगे नहीं बढ़े और कभी भी शिष्टाचार एवं सम्मान के मार्ग से अलग नहीं हुए।
विभिन्न चरणों में हज़रत अब्बास की वीरता ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साहस और गौरव को प्रतिबिंबित किया। किशोर अवस्था से ही हज़रत अब्बास कठिन परिस्थितियों में अपने पिता हज़रत अली अलैहिस्सलाम के साथ उपस्थित रहे और उन्होंने इस्लाम की रक्षा की। करबला की त्रासदी में वे इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सेना के सेनापति थे और युद्ध में अग्रिम पंक्ति पर मौजूद रहे। आशूरा अर्थात दस मुहर्रम के दिन हज़रत अब्बास ने अपने भाइयों को संबोधित करते हुए कहा था कि आज वह दिन है जब हमें स्वर्ग का चयन करना है और अपने प्राणों को अपने सरदार व इमाम पर न्योछावर करना है। मेरे भाइयों, एसा न सोचो कि हुसैन हमारे भाई हैं और हम एक पिता की संतान हैं। नहीं एसा नहीं है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम हमारे पथप्रदर्शक और धरती पर ईश्वर के प्रतिनिधि हैं। वे हज़रत फ़ातेमा के बेटे और पैग़म्बरे इस्लाम के नाती हैं। जिस समय इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनके निष्ठावान साथी उमवी शासक यज़ीद की सेना के परिवेष्टन में आ गए तो हज़रत अब्बास सात मुहर्रम वर्ष ६१ हिजरी क़मरी को यज़ीद के सैनिकों के घेराव को तोड़ते हुए इमाम हुसैन के प्यासे साथियों के लिए फुरात से पानी लाए।
तीन दिनों के पश्चात आशूर के दिन जब इमाम हुसैन के साथियों पर यज़ीद के सैनिकों का घेरा तंग हो गया तो इमाम हुसैन के प्यासे बच्चों तथा साथियों के लिए पानी लेने के उद्देश्य से हज़रत अब्बास बहुत ही साहस के साथ फुरात तक पहुंचे। इस दौरान उन्होंने उच्चस्तरीय रणकौशल का प्रदर्शन किया। हालांकि वे स्वयं भी बहुत भूखे और प्यासे थे किंतु इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्यासे बच्चों और साथियों की प्यास को याद करते हुए उन्होंने फुरात का ठंडा तथा शीतल जल पीना पसंद नहीं किया। फुरात से वापसी पर यज़ीद के कायर सैनिकों के हाथों पहले हज़रत अब्बास का एक बाज़ू काट लिया गया जिसके पश्चात उनका दूसरा बाजू भी कट गया और अंततः वे शहीद कर दिये गए।
जिस समय हज़रत अब्बास घोड़े से ज़मीन पर आए, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम बहुत ही बोझिल और दुखी मन से उनकी ओर गए, उन्होंने हज़रत अब्बास के सिर को अपने दामन में रखते हुए कहा, हे मेरे भाई इस प्रकार के संपूर्ण जेहाद के लिए ईश्वर तुम्हें बहुत अच्छा बदला दे। इसी संबंध में हज़रत अब्बास की विशेषताओं को सुन्दर वाक्यों और मनमोहक भावार्थ में व्यक्त करते हुए इमाम जाफ़रे सादिक़ ने एसे वाक्य कहे हैं जो ईश्वरीय दूतों की आकांक्षाओं की पूर्ति के मार्ग में हज़रत अब्बास के बलिदान और उनकी महान आत्मा के परिचायक हैं। वे कहते हैं कि मैं गवाही देता हूं कि आपने अच्छाइयों के प्रचार व प्रसार तथा बुराइयों को रोकने के दायित्व का उत्तम ढंग से निर्वाह किया और इस मार्ग में अपने भरसक प्रयास किये। मैं गवाही देता हूं कि आपने कमज़ोरी, आलस्य, भय या शंका को मन में स्थान नहीं दिया। आपने जिस मार्ग का चयन किया वह पूरी दूरदर्शिता से किया। आपने सच्चों का साथ दिया और पैग़म्बरों का अनुसरण किया।
सलाह व मशवरा
و شاورهم في الا مر
कामों में दूसरों से मशवरा करो।
समाजी तरक़्क़ी का एक पहलू मशवरा करना है। मशवरा यानी मिलकर फ़िक्र करना। इसमें कोई शक नही है कि जो लोग मशवरा करते हैं, उनमें अक़्ल व फ़िक्र ज़्यादा पाई जाती है। जो लोग राय मशवरा नही करते, वह अपनी फ़िक्र पर तकिया करते हैं। यह रवैया इस बात की हिकायत करता है कि उनकी फ़िक्र नाक़िस है। इसकी खुली हुई दलील यह है कि चार लोगों की फ़िक्र से जो बात हासिल होती है, वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले बेहतर और कामिल होती है। क्योंकि हर इंसान किसी भी मसले पर अपनी ख़ास रविश से ग़ौर व फ़िक्र करता है। लिहाज़ा जो इंसान दूसरों से मशवरा करता है हक़ीक़त में वह दूसरों की फ़िक्र को अपनी फ़िक्र में मिला लेता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में इस तरह कहा जा सकता है कि उस मसले पर मुख़तलिफ़ पहलुओं से ग़ौर होता है और इस तरह उसके पोशीदा पहलुओं पर भी मुकम्मल तरह से बहस हो जाती है।
अक़्ले सलीम इस बात पर दलालत करती है कि जिस बात पर कुछ अहले नज़र मिलकर ग़ौर करते हैं, वह एक इंसान की फ़िक्र के मुक़ाबले, ग़लतियों से ज़्यादा महफ़ूज़ होती है। क्योंकि इस्लाम अक़्ल पर मबनी दीन है, इस लिए इसने इंसानों को राय मशवरे की तरफ़ तवज्जो दिलाई है।
अल्लाह ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को, जो कि अक़्ले कुल थे, मशवरा करने का हुक्म देते हुए फ़रमाया : و اشاورهم قي الامر यानी किसी बात को तय करने के लिए (मुसलमानों से) मशवरा करो।
क़ुराने करीम की कुछ दूसरी आयतों में मशवरा करने को िस्लाम व मुसलमानों की ख़ुसूसियत माना गया है।
जैसे कि इरशाद होता है : و امرهم شوري بينهم
यानी मुसलमानो को इस तरह तरबियत हुई है कि वह सब कामों में एक दूसरे से मशवरा करते हैं।
लिहाज़ा मुसलमानों को सलाह मशवरे और सही फ़िक्र हासिल करते वक़्त हसबे ज़ैल नुकात की रिआयत करनी चाहिए।
1. इस राब्ते की वजह से मुसलमानों के आपसी ताल्लुक़ात बढ़ने चाहिए। यानी मुसलमानों तमाम रिश्तों को छोड़ते हुए भी सलाह मशवरे की बुनियाद पर एक दूसरे से राब्ता रखने और अपने ताल्लुक़ात बढ़ाने पर मजबूर हैं।
2. नफ़्सियाती तौर पर भी जब इंसान किसी से मशवरा करता है तो उसे एक बड़ा मक़ाम देता है। यानी मशवरा करने वाला अपने मशवरे के अमल के ज़रिये जिस इंसान से मशवरा लेता है, उसे एहतेराम देता है और अपने लिए मोरिदे एतेमाद व इत्मिनान मानता है।
ज़ाहिर है कि इस तरह के रवैये से आपसी ताल्लुक़ात में मज़बूती और शीरनी पैदा होती है।
3. मशवरा करने से, इंसान का ख़ुद महवरी का जज़बा जो फ़ितरी तौर से हर इंसान में पाया जाता है, कमज़ोर होता है। इस तरह इंसान ख़ुद महवरी के दायरे से निकल कर समाज से जुड़ जाता है और उसमें गिरौही जज़बा पैदा होता है।
4. इस्लाम ने इंसान को तन्हाई से बाहर निकाल कर, उसकी समाजी ज़िन्दगी को मज़बूत बनाया है।
इस्लाम ने ग़ौर व फ़िक्र के मैदान में भी इजतमाई फ़िक्र को फ़रदी फ़िक्र पर तरजीह दी है और इंसान को जमूदे फ़िक्री से बाहर निकाला है।
क्योंकि मशवरा करना, हक़ीक़त में कुछ फ़िक्रों को आपस में मिलाकर उनसे सही व बेहतरीन नतीजा निकालना है।
इस्लाम में मशवरे का मक़ाम
इस्लाम ने जिस तरह इबादत को इनफ़ेरादियत से निकाल कर ुसे इजतमाई क़ालिब ढाला है, उसी तरह मुसलमानों को मिलकर ग़ौर व फ़िक्र करने की भी दावत दी है।
ज़ाहिर है कि एक मुसलमान को उसी इंसान से मशवरा करना चाहिए जिसमें वह सलाहियत पाई जाती हो, हर मामले में हर इंसान से मशवरा करना सही है।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया है कि
استشر العاقل من الرجال الورع فانه لا يامر الا بخير و اياك والخلاف فان خلاف الورع العقل مفسدة فى الدين و الدنيا
यानी अक़्लमंद व परहेज़गार इंसान से मशवरा करो क्योंकि ऐसा इंसान नेकी के अलावा किसी दूसरी चीज़ की सलाह नही देता और नेक व अक़्लमंद इंसान के मशवरे के ख़िलाफ़ काम न करना वरना तुम्हारा दीन व दुनिया बर्बाद हो जायेगी।
अहम बात यह है कि हम अपनी औलाद से कैसा बरताव करे कि वह सलाह मशवरे के आदि बन सकें।
इसमें कोई शक नही है कि घर के माहौल में शौहर व बीवी के दरमियान ऐसे मौक़े आते हैं जिनमें आपसी सलाह व मशवरे की ज़रूरत पेश आती है। माँ बाप को चाहिए कि ऐसे मौक़ो पर अपनी औलाद को भी मशवरों में शरीक करें और उनसे राय लें और इस तरह उनकी फ़िक्र को मज़बूत बनाये ताकि उनमें ज़ोक़ व शौक़ पैदा हो और वह अपनी शख़्सियत का एहसास करें।
माँ बाप एक दूसरी तरह से भी अपनी औलाद में मशवरे को अमली जामा पहना सकते हैं और वह यह है कि जो काम बच्चों से मख़सूस होते हैं, बुज़ुर्ग ुनको बच्चों के हवाले करें और वह आपसी सलाह मशवरे से जिस नतीजे पर पहुँचे उसे अमल में लायें। इससे यह फ़ायदा होगा कि बच्चे आपस में सलाह मशवरा करना सीख जायेंगे।
ज़ाहिर है कि जैसे जैसे बच्चों की उम्र व अक़्ल बढ़ती जाती है वैसे वैसे बुज़ुर्गों को उन्हें अपने सलाह मशवरों के जलसों में शरीक करने की ज़रूरत पड़ती है।
सबसे ज़रीफ़ नुक्ता यह है कि जब बच्चे महसूस करेंगे कि घर में तमाम काम सलाह मशवरे से होते है और इनफ़ेरादी राय व इस्तबदाद से काम नही लिया जाता है तो वह अमली तौर पर बुज़ुर्गों से सलाह मशवरे का सबक़ लेगें और ख़ुद अहले मशवरा बन जायेंगे।
क्या कुरआन को समझ कर पढना ज़रुरी है?
जो लोग कहते है कि आप अरबी कुरआन ग़ैर-मुसलमान को देगें और आपको सज़ा मिलेगीं तो मै कहता हुं की कोई हर्ज नही। अगर अल्लाह तआला मुझे ज़िम्मेदार ठहरायेगें अरबी कुरआन किसी गैर-मुस्लमान को देनें के लिये तो मैं हमारे आखिरी रसुल मुह्म्मद सल्लाहॊं अलैह वस्ल्लम के साथ हुं क्यौंकी मुह्म्मद सल्लाहॊं अलैह वसल्लम की सीरत से हमें ये मालूम होता है की मुह्म्मद सल्लाहॊं अलैह व आलिहि वसल्लम ने ग़ैर-मुसलमान राजाओं को खत लिखवायें उन्होने सहाबा से कहा की खत लिखों और इन खतों मे कुरआन की आयत भी लिखवायीं। कई बादशाहों को लिखा यमन के बादशाह, मिस्र के बादशाह, बादशाह हरकुलिस। कई बादशाहॊं को लिखा सहाबाओं के ज़रियें की आप इस्लाम कुबुल कर करों और उन खतों के अन्दर कुरआन की आयत लिखवायी, कई बादशाहॊं ने इस्लाम कुबुल किया और कई बादशाहॊं ने खत को फ़ाडं दिया और पैर के नीचे मसला।
ऎसा एक खत मौजुद है कोप्टा के अजायबघर मे जिसके अन्दर अल्लाह के रसुल सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. ६४ लिखवातें हैं उस मे ज़िक्र है "कहों अहलेकिताब (ईसाई) से की आऒ उस बात की तरफ़ जो आप और हम मे समान है सबसे पहली बात है की अल्लाह सुब्नाह वतआला एक है, अल्लाह के साथ किसी को शरीक न करें, हम आप और हम में से अल्लाह के अलावा किसी को रब ना बनायें, अगर वो फिर भी न मानें तो आप शहादत दो की हम मुस्लिम है"। इस कुरआन मजीद की आयत मे अल्लाह हमें एक तरीका बताते है की कैसे गैर-मुस्लमानॊं से बात करनी चाहियें और उन्हें इस्लाम की दावत देनी चाहियें।
मैं आप लोगों से एक सवाल पूछ्ता हू की आज की तारीख़ मे लगभग डेढ करोड अरब है जो कोपटिक क्रिसशन (ईसाई) है, एक करोड पचास लाख अरब हैं जो जन्म से ईसाई है। मैं आपसे पूछ्ना चाहता हू की एक अरब ईसाई को आप कौन सा तर्जुमा देंगे? अरबी तो उसकी मार्तभाषा है तो क्या आप कुरआन का फिर से अरबी में तर्जुमा करेंगे। आप उसको अरबी का कुरआन देंगे।
हमारा फ़र्ज़ है की हम कुरआन को पढे, उसकों समझें, उस पर अमल करें और दुसरे लोगों तक कुरआन का पैगाम पहुचायें। अकसर कई मुस्लमान कहते है की कुरान मजीद को सिर्फ़ आलिम लोग ही समझ सकतें हैं, उन्हे ही पढना चाहिये, ये बहुत कठिन किताब है और इसको आलिम ही समझ सकते हैं। मैं आपको कुरआन मजीद की एक सुरह बताता हू जिसके अन्दर कम से कम चार बार दोहराते है, अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह कमर सु. ५४ : आ. १७, २२, ३२, ४०, में "हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया ताकि आप इसें समझ सकें, आप इसे याद रख सकें, हमनें ये कुरआन मजीद आपकें समझनें के लिये आसान बनाया, आप में से कौन शख्स इसकी बात नही मानेगा"। जब अल्लाह तआला ने कुरआन मे कई आयतों मे फ़र्माया की हमनें कुरआन आपके लिये आसान बनाया तो आप किसकी बात मानेंगे अल्लाह की या उस मुस्लमान की जो कहतें हैं की सिर्फ़ उल्मा के लिये है। और अल्लाह तआला कई आयतों मे फ़र्मातें है सुरह बकरह सु. २ : आ. २४२ में "फ़िर आप नही समझोगें"। यानी अल्लाह तआला चाहतें है की आप कुरआन मजीद को समझ के पढॊं लेकिन अल्लाह तआला इसके साथ मे ये भी फ़र्माते है सुरह नहल सु. १६ : आ. ४३ और सुरह अम्बिया सु. २१ : आ. ७ में "अगर आप कुछ चीज़ को नही समझते है तो उनसे पूछिये जिसके पास इल्म है"। मान लिजिये कि आप कुरआन का तर्जुमा पढ रहे है और आपको कुछ आयतें समझ मे नही आती है तो कुरआन मजीद मे अल्लाह तआला ने बता दिया है की आप उनसे पूछिये जिनके पास इल्म है। अगर आप कुरआन मजीद की आयत पढते है जिसमें साइंस का ज़िक्र है तो आप किस से पूछेंगे? अपने पडोसी से जो हज्जाम है? नही आप साइंटिस्ट से पूछेंगे क्यौंकी साइंटिस्ट साइंस का आलिम है।
अगर कुरआन मे बीमारी का ज़िक्र है तो किस से पूछेंगे? आप डाक्टर से पूछेंगे क्यौंकि डाक्टर दवाई के मैदान मे माहिर और आलिम है। अगर आप ये जानना चाहते है की कुरआन की ये आयत कब नाज़िल हूई तो आप उस से पूछेंगे जिसने दारुल उलुम मे सात - आठ साल पढाई की है तो कुरआन मे ये ज़िक्र आता है कि उनसे पूछिये जिनके पास इल्म हैं।
मैं आपको एक मिसाल देना चाहूगां कुछ बीस साल पहले कुछ अरब कुरआन मजीद मे जितनी भी आयतें है जो एम्रोलोजी के बारे मे ज़िक्र कर रही है। एम्रोलोजी का मतलब है मां के पेट के अंदर कैसे बच्चा बडा होता है उसकी पुरी जानकारी। तो कुरआन मे जितनी आयतों में ज़िक्र होता है की कैसे मां के पेट मे बच्चा बडा होता है उन सब आयतों का तर्जुमा लेकर वो जाते है प्रों. कीथ मूर के पास और उस वक्त प्रों. कीथ मूर सारी दुनिया के सबसे माहिर एम्रोलोजिस्ट थें, हैड आफ़ दा डिपार्ट्मेट आफ़ एनोटोमी, यूनिव्रसिटी आफ़ टोरंटो. कनाडा। वो ईसाई थे लेकिन अल्लाह तआला फ़र्माता है की उनसे पूछिये जो माहिर है चाहे वो मुस्लमान हो या गैर-मुस्लमान। तो ये अरब उन्हे कुरआन मजीद का तर्जुमा पेश करते है कि जिसके अन्दर ज़िक्र आता है कि कैसे मां के पेट के अंदर बच्चा बडा होता है। वो जब कई आयतों का तर्जुमा पढते है तो प्रो. कीथ मूर कहते है कि "अकसर जो आयतॊं मे ज़िक्र है वो आज की माडर्न एम्रोलोजी से मिलती जुलती है लेकिन चंद आयते है जिनके बारे मे ये नही कह सकता की ये सही है। मैं ये भी नही कहता हू की ये गलत है क्यौंकी मैं खुद नही जानता। उन आयतों मे दो आयतें ये थी जो सबसे पहले नाज़िल की गयी थी सुरह इकरा या सुरह अलक सु. ९६ : आ. १-२ जिसमें अल्लाह तआला फ़र्माते है "पढों अल्लाह के नाम से जिसने इन्सान को बनाया है खून के लोथडें से, लीच से, जोंक से"। प्रों. कीथ मूर ने कहा मैं नही जानता की बच्चा जब मां के पेट के अन्दर बडा होता है तो सबसे पहले लीच की तरह दिखता है, लीच का मतलब है जोंक जो खून चुसता है। तो प्रो. कीथ मूर अपनी लेबोरेट्री के अन्दर गये और एक बहुत पावरफ़ुल माइक्रोस्कोप के अन्दर देखा की जो मां के पेट के अन्दर बच्चा जब अपनी सबसे पहली स्टेज मे होता है एकदम पहली मंज़िल उसको माइक्रोस्कोप के अन्दर देखते है और उसे जोंक की तस्वीर से मिलाते है और हैरान हो जाते है की हुबहु दोनों बिल्कुल एक जैसे है।
जब उनसे एम्रोलोजी के बारे लगभग अस्सी सवाल पुछे गये तो उन्होने कहा की अगर आपने ये सवाल मुझसे तीस साल पहले पुछे होते यानी आज से पचास साल पहले तो मैं पचास प्रतिशत से ज़्यादा सवालॊं के जवाब नहीं दे सकता था क्यौंकी एम्रोलोजी साइंस का वो हिस्सा है जो अभी चंद सालॊ मे ही कुछ तरक्की किया है। प्रो. कीथ मूर को जो भी नयी चीज़ मिली कुरआन और हदीस से उन्होने अपनी नई किताब "Developing Human" की तीसरी एडीशन मे शामिल किया और उस किताब को उस वक्त का नंबर वन किताब का अवार्ड मिला सबसे बेहतरीन किताब जो एक डाक्टर ने लिखी है और इस किताब का अनुवाद कई ज़बानॊं मे किया जा चुका है।
इस किताब के ताल्लुक रखते कुछ लिन्क यहा मौजूद हैं......
http://www.islamic-awareness.org/Quran/Science/scientists.html
http://www.islamicvoice.com/january.97/scie.htm
प्रो. कीथ मूर ने कहा "मुझे कोई एतराज़ नही ये मानने में की कुरआन मजीद खुदा की किताब है और मुझे कोई एतराज़ नही ये मानने मे की मुह्म्मद सल्लाहॊ अलैह वसल्लम खुदा के आखिरी पैगम्बर हैं"।
इस मिसाल से हमें ये मालुम होता है की जब भी आपको कुछ नही पता तो उससे पुछिये जो उस मैदान का माहिर है। जब भी आप कोई मशीन खरीदते है तो उसके साथ Instruction Manual युज़र गाइड आती है की किस तरह से मशीन को इस्तेमाल करना चाहिये। और आप अगर इज़ाज़त देंगे इन्सान को मशीन कहने के लिये तो ये हमें मानना पडेंगा की सबसे मुश्किल मशीन इन्सान है, सबसे पेचिदा मशीन इन्सान है। क्या इस मशीन के लिये कोई Instruction Manual युज़र गाइड की ज़रूरत नही? कोई किताब की ज़रुरत नही? इस मशीन की Instruction Manual युज़र गाइड है अल्लाह का आखिरी कलाम कुरआन मजीद, इस कुरआन मजीद मे लिखा हुआ है की किस तरह इस मशीन की हिफ़ाज़त करनी चाहिये? किस तरह इस मशीन को चलाना चाहिये? इस मशीन के लिये क्या क्या फ़ायदे है.....हर मशीन के साथ एक किताब आती है और इस मशीन इन्सान की किताब है अल्लाह का आखिरी कलाम कुरआन।
अगर आप कोई जापानी मशीन खरीदते है और उसके साथ Instruction Manual युज़र गाइड जापानी मे आपको मिलती है और जापानी आप समझतें नही हैं तो आप क्या करते हैं? आप दुकानदार से उस ज़बान की Instruction Manual युज़र गाइड मागंते है जो जिस ज़बान मे आपको महारत हासिल है ताकि आप समझ सकें की इस मशीन को कैसे इस्तेमाल करना है। तो अगर आप अरबी कुरआन मजीद को नही समझते है तो कम से कम इस कुरआन मजीद का तर्जुमा पढॊं और समझॊं और इस मशीन को सही तरह से इस्तेमाल करो।
मान लीजिये आप की कार खराब हो जाती है और कोई आप से कहता है की इसकी टंकी मे देसी घी डाल दो तो ये चलने लगेगी तो आप क्या करेंगे? उसकी बात मानेंगे नही क्यौंकी भले आप गाडीं सही करना नही जानते पर इतना जानते है की गाडी घी से नही चलती है। तो इसी तरह अगर हर मुस्लमान कुरआन को थोडा बहुत भी समझ कर पडें तो कोई भी आलिम, कोई भी मौलवी आपको बहका नही सकता, कोई भी आपकॊ गुमराह नही कर सकता है। आज के माहौल मे आप देखते है की मुस्लमान फ़िरकों मे बंटे हुए है एक आलिम ये कहता है, एक आलिम वो कहता है, अगर हम मुस्लमान कुरआन मजीद को समझ कर पढें तो कोई भी मौलाना आपको गुमराह नही कर सकता, कोई भी आलिम आपकॊ घुमा नही सकता।
ये आज मुस्लमानों की हालत जो है की सब जगह मुस्लमान पीटे जा रहे है क्यौंकी हम कुरआन मजीद समझ के नही पढते। अगर हम कुरआन मजीद समझ के पढें और इकट्ठा हो जाये तो इन्शाल्लाह हम मुस्लमानॊं के बीच कोई फ़िरका नही होगा। अल्लाह तआला फ़र्माते है सुरह अल इमरान सु. ३ : आ. १०३ में "आप अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकडीये और आपस मे फ़िरके मत बनाइये"। अल्लाह की रस्सी क्या है कुरआन मजीद और मुह्म्मद सल्लाहो अलैह वसल्लम की सही हदीस अगर हम अल्लाह की रस्सी को मज़बुती से पकड लेंगे और आपस मे फ़िरके नही बनायेंगे तो इन्शाल्लाह हम एक बार फिर से दुनिया की ऊचाई पर पहुचेंगें।
बाकी अगली कडीं मे...
अल्लाह आप सब कुरआन पढ कर और सुनकर, उसको समझने की और उस पर अमल करने की तौफ़िक अता फ़रमाये।
उसूले दीन में तक़लीद करना सही नही है
हमारे समाज में बहुत से लोग उसूले दीन पर ईमान रखते हैं और फ़ुरु ए दीन पर अमल करते हैं लेकिन उन में कुछ
क्योकि हमारे बाप दादा ने कहा है कि ख़ुदा एक है, आदिल है, हज़रत मुहम्मद (स) नबी है, इमाम बारह हैं और क़यामत आयेगी। इस लिये हम भी उन सब चीज़ों पर यक़ीन रखते हैं। लेकिन यह तरीक़ा बिल्कुल दुरुस्त नही है, इस लिये कि उसूले दीन में तक़लीद जायज़ ही नही है।
हर इंसान के लिये ज़रुरी है कि वह उसूले दीन (तौहीद, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत) पर दलील के साथ ईमान रखें और सिर्फ़ इस बात पर बस न करें कि चुँकि हमारे बाप दादा मुसलमान हैं लिहाज़ा हम भी मुसलमान है।
अब सवाल यह है कि उसूले दीन को दलील के साथ जानने के लिये कितनी किताबों का मुतालआ किया जाये और कौन कौन सी मोटी मोटी किताबों को पढ़ा जाये? उस का जवाब यह है कि दलील जानने के लियह मोटी मोटी किताबों का मुतालआ करने की ज़रुरत नही है बल्कि इंसान सिर्फ़ आसान और सादा दलीलों को छोटी छोटी किताबों को पढ़ने या आलिमों से सवाल करने के ज़रिये जान ले तो यही काफ़ी है। हाँ अगर ज़्यादा जानना चाहता है तो बड़ी बड़ी किताबों का मुतालआ और इस सिलसिले में तहक़ीक़ करना बेहद फ़ायदे मंद साबित होगा।
फ़िर यहाँ यह सवाल पैदा होता है कि सादा और आसान दलील से क्या मुराद है? किसी दलील के सादा और आसान होने का मेयार क्या है? इस के जवाब में हम आप के लिये एक मिसाल पेश करते हैं जिस से आप समझ सकते हैं कि सादा दलील क्या होती है। एक बुढ़िया चर्ख़ा चला रही थी, उसी हालत में उससे पूछा गया कि ख़ुदा के वुजूद पर तुम्हारे पास क्या दलील है? तुम कैसे यक़ीन रखती हो कि कोई ख़ुदा है? उसने फ़ौरन चर्खे से हाथ हटा लिया जिस की वजह से चर्खा रुक गया तो बुढ़िया ने कहा: जब यह छोटा सा चर्खा किसी चलाने वाले के ब़ग़ैर नही चल सकता तो इतनी बड़ी दुनिया किसी चलाने वाले के बग़ैर किस तरह से चल सकती है? इस दुनिया का पूरे नज़्म के साथ चलते रहना इस बात की दलील है कि कोई ख़ुदा है जो उसे चला रहा है।
बुढ़िया के इस वाक़ेया से सादा और आसान दलील का मेयार समझ में आ जाता है। अब हम से अगर कोई कहे कि ख़ुदा के वुजूद को साबित करो तो हम उसे यह जवाब दे सकते हैं कि हर चीज़ का कोई न कोई बनाने वाला होता है, हर चीज़ का कोई न कोई चलाने वाला होता है लिहाज़ा इतनी बड़ी दुनिया को चलाने वाला कोई न कोई ज़रुर है और वह ख़ुदा है।
नोट: हाँ अगर किसी दीनदार और क़ाबिले ऐतेमाद आलिमें दीन की बताई हुई दलील की बुनियाद पर यक़ीन हासिल हो जाये तो उसे उस यक़ीन की बुनियाद पर उसूले दीन को क़बूल कर सकता है और इसमें कोई हरज भी नही है। इस लियह कि क़ुरआने पाक में तक़लीद के बारे में काफ़िरों को बुरा भला कहा गया है वह उन के लिये यक़ीन हासिल न होने की वजह से है क्योकि वह गुमान पर अमल करते थे जैसा कि इरशाद हो रहा है:
وما لهم بذلک من علم ان هم الا یظنون.
उन्हे इस का यक़ीन नही है बल्कि वह सिर्फ़ गुमान करते हैं। (सूरह जासिया आयत 24)
खु़लासा
- उसूले दीन में तक़लीद जायज़ नही है बल्कि उन उसूल को सादा और आसान दलीलों के ज़रिये जानना ज़रुरी है लिहाज़ा हम यह नही कह सकते कि चुँकि तौहीद, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत पर हमारे बुज़ुर्गों को ईमान है लिहाज़ा हम भी उन पाँचों उसूलों पर ईमान रखते हैं।
- सादा और आसान दलील की मिसाल, चर्ख़ा चलाने वाली बुढ़िया का वाक़ेया है जिस के पढ़ने के बाद मालूम हो जाता है कि सादा और आसान दलील का मेयार क्या है।
सवालात
1. क्या उसूले दीन में तक़लीद करना जायज़ है?
2. उसूले दीन पर किस तरह ईमान रखना चाहिये?
3. सादा और आसान दलील का क्या मतलब है?
पाकिस्तान में शीया मुसलमानों की हत्या के विरुध प्रदर्शन
क्वेटा में शीया मुसलमानों के जनसंहार के विरुद्ध 11 जनवरी 2013 को पाकिस्तानी नागरिक कराची में प्रदर्शन करते हुए
प्रेस टीवी
पाकिस्तान के दक्षिण-पश्चिमी नगर क्वेटा में शीया मुसलमानों को निशाना बना कर किए गए हालिया आतंकवादी हमले के विरुद्ध इस देश के अनेक नगरों में जनता ने प्रदर्शन किया।
स्थानीय मीडिया के हवाले से प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार ये प्रदर्शन इस्लामाबाद, कराची, लाहौर, क्वेटा, हैदराबाद, मुल्तान, मुज़फ़्फ़राबाद समेत कई दूसरे नगरों व क़स्बों में हुए।
इन नगरों में जनता ने पाकिस्तानी सरकार से राष्ट्र के शीया मुसलमानों को सुरक्षा मुहैया करने की मांग की।
ज्ञात रहे शनिवार को पाकिस्तान के बलोचिस्तान प्रांत के केन्द्र क्वेटा के हज़ारा क़स्बे के कीरानी इलाक़े में स्थित सब्ज़ी के एक भीड़-भाड़ वाले बाज़ार में किए गए आतंकवादी हमले में 84 शीया शहीद और लगभग 200 अन्य घायल हुए।
इस बीच रिपोर्ट के अनुसार क्वेटा में शनिवार को हुए आतंकवादी हमले की निंदा में इस नगर में बहुत से व्यापारिक प्रतिष्ठानों ने हड़ताल की।
ज्ञात रहे 10 जनवरी को क्वेटा में इसी प्रकार के आतंकवादी हमले में लगभग 130 शीया शहीद और बहुत से घायल हुए थे।
पाकिस्तान में 18 करोड़ की आबादी में शीया बीस प्रतिशत हैं।
2012 में सैकड़ों शीया मुसलमान आतंकवादी हमलों में शहीद हुए। इन हमलों में डाक्टरों, इंजीनियरों, उच्च सरकारी अधिकारियों, शिक्षकों और राजनेताओं को निशाना बनाया गया।
ईरानी विदेश मंत्री ने क्वेटा में शनिवार को हुए आतंकवादी हमले पर खेद जताते हुए पाकिस्तानी सरकार, धार्मिक हस्तियों और पाकिस्तानी जनता से इस देश में मुसलमानों के रक्तपात को रोकने के लिए आवश्यक उपाय करने की अपील की। उन्होंने कहा कि इस प्रकार के जनसंहार मुसलमानों के बीच फूट डालने के शत्रु के षड्यंत्र का भाग हैं।
परमाणु मामले में बान की मून का बयान खेदजनक
इस्लामी गणतंत्र ईरान ने परमाणु कार्यक्रम के बारे में संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव के बयान को खेदजनक बताया है।
संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने अमरीकी समाचार पत्र वाशिंग्टन पोस्ट को दिए गए इंटरव्यू में कहा कि ईरान संयुक्त राष्ट्र के साथ अपनी वार्ता के परिप्रेक्ष्य में परमाणु बम के निर्माण पर पर्दा डाल सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि सुरक्षा परिषद को चाहिए के ईरान के विरुद्ध तत्कालिक प्रभावी कार्यवाही करे।
संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्लामी गणतंत्र ईरान के राजदूत मोहम्मद ख़ज़ाई ने महासचिव बान की मून को पत्र लिखकर कहा है कि यदि वाशिंग्टन पोस्ट में छपी रिपोर्ट सही है तो यह बड़े खेद की बात है और यह संयुक्त राष्ट्र के महासचिव के दायित्वों तथा अंतर्राष्ट्रीय नियमों से पूर्ण विरोधाभास रखता है। पत्र में इसी आशय के कुछ पश्चिमी देशों के अधिकारियों के बयानों का हवाला देते हुए लिखा गया है कि यदि एसा ही बयान संयुक्त राष्ट्र के महासचिव जैसी प्रतिष्ठित हस्ती से भी जुड़ा हुआ है तो आशंका है कि स्वतंत्र देशों में आपका साख को गहरा धचका पहुंचेगा।
नैटो ने किया आम नागरिकों का संहार
अफ़ग़ानिस्तान की एक जांच कमेटी ने कहा है कि अमरीका के नेतृत्व में विदेशी सैनिकों ने पूर्वी अफ़ग़ानिस्तान में एक वायु आक्रमण में 10 आम नागरिकों का संहार किया है।
शुक्रवार को जारी होने वाली जांच कमेटी की रिपोर्ट में कहा गया है कि मारे गए लोगों में पांच बच्चे, चार महिलाएं और एक पुरुष शामिल है और यह पुरुष सरकारी कर्मचारी था।
अफ़ग़ान राष्ट्रपति हामिद करज़ई ने गत मंगलवार को कुनड़ प्रांत में होने वाले इस आक्रमण के बाद एक जांच दल गठित किया था।
बृहस्पतिवार को करज़ई ने विदेशी सेनाओं के नए कमांडर जनरल जोज़फ़ डनफ़ोर्ड को समन भेजा है।
सरकार की ओर स जारी किए गए बयान के अनुसार वायु आक्रमण की घटना के बाद जनरल डनफ़ोर्ड के राष्ट्रपति भवन में बुलाकर मामले पर स्पष्टीकरण मांगा किया।
अफ़ग़ानिस्तान में विदेशी सेनाओं के आक्रमणों में आम नागरिकों के मारे जाने की घटनाएं निरंतरता से हो रही हैं।
देश आतंकवाद का शिकार है
पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ़ ने कहा है कि देश आतंकवाद का शिकार है।
उन्होंने कहा कि आतंकवादियों को सज़ा मिलेगी और उनको नरक पहुंचाया जाएगा। पाकिस्तानी प्रधानमंत्री ने हज़ारा कम्युनिटी को विश्वास दिलाया है कि हम हर सीमा तक जाएंगे और उनकी हर मांगों को पूरा किया जाएगा। उनका कहना था कि हर मनुष्य जो मानवता पर विश्वास रखता है वह इस घटना से दुखी है। उनका कहना था कि ब्लोचिस्तान की स्थिति पर हमने गंभीर कार्यवाहियां की और प्रांत में गर्वनर राज लागू कर दिया। उनका कहना था कि सरकार और विपक्ष को आतंकवाद के मुद्दे पर मतभेद समाप्त करने होंगे और यदि हम लड़ते रहे तो मुद्दे का समाधान नहीं होगा।
ज़ायोनी शासन के अतिक्रमण के विरुद्ध हिज़्बुल्लाह का ठोस दृष्टिकोण
हिज़्बुल्लाह महासचिव सय्यद हसन नसरुल्लाह (फ़ाइल फ़ोटो)
लेबनान के विरुद्ध ज़ायोनी शासन की बढ़ती धमकियां और इस विस्तारवादी शासन द्वारा लेबनान की संप्रभुता के निरंतर उल्लंघन के पश्चात लेबनान के जनप्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव सय्यद हसन नसरुल्लाह ने ज़ायोनी शासन को लेबनान की धरती पर हर प्रकार के अतिक्रमण के ख़तरनाक परिणाम की ओर से सचेत किया है।
सय्यद हसन नसरुल्लाह ने शनिवार को ज़ायोनी शासन के विरुद्ध लेबनान के हिज़्बुल्लाह संगठन के शहीद नेताओं की याद में आयोजित सभा में भाषण देते हुए कहा कि ज़ायोनी शासन के हवाई अड्डे, बंदरगाहें और बिजली प्रतिष्ठान हिज़्बुल्लाह के मीसाइलों व राकेटो के निशाने पर हैं और ज़ायोनी शासन के अधिकारियों की ओर से हर प्रकार के ग़लत हिसाब का इस शासन के सर्वनाश के रूप में परिणाम निकलेगा।
हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने फ़िलिस्तीन के प्रतिरोध के प्रति समर्थन के बारे में भी कहा कि लेबनान में फ़िलिस्तीनी जनता के प्रभावशाली समर्थक हैं और दसियों वर्षों के अतिग्रहण के पश्चात ज़ायोनी शासन का सर्वनाश निकट है।
उन्होंने बल दिया कि लेबनान में प्रतिरोध की बहुत उपलब्धियां रही हैं और उसने गत तीस वर्षों में उन समीकरणों को परिवर्तित कर दिया जो वर्षों से वर्चस्ववादी शक्तियों की ओर से क्षेत्र पर थोपे गए थे।
गत कुछ वर्षों में ज़ायोनी शासन को निरंतर पराजित करने में लेबनान के जनप्रतिरोध आंदोलन के क्रियाकलाप से उन समीकरणों के बदल जाने की पुष्टि होती है जो ज़ायोनी शासन और उसके समर्थकों ने क्षेत्र पर थोप रखा था।
हिज़्बुल्लाह के मुक़ाबले में ज़ायोनी शासन की नाकामी वर्ष 2000 में लेबनान के अतिग्रहित क्षेत्र के बड़े भाग से ज़ायोनी सेना के लज्जानक ढंग फ़रार होने के रूप में सामने आयी। उसके बाद ज़ायोनी शासन को 2006 में लेबनान पर थोपे गए 33 दिवसीय युद्ध में घोर पराजय का सामना हुआ और इस पराजय ने ज़ायोनी सेना के अजेय होने के दावे की क़लई खोल दी और इस पराजय से अमरीका की वृहत्तर मध्यपूर्व की योजना भी विफल हो गयी जो उसने मध्यपूर्व पर वर्चस्व जमाने के लिए तय्यार की थी।
हिज़्बुल्लाह के प्रतिरोध ने फ़िलिस्तीनियों में ज़ायोनी शासन के सामने डट जाने के मनोबल को कई गुना बढ़ा दिया जिसका पहला परिणाम 2005 में ग़ज़्ज़ा से ज़ायोनी शासन के पीछे हटने के रूप में सामने आया और फिर 2009 के 22 दिवसीय युद्ध तथा 2012 के 8 दिवसीय युद्ध में फ़िलिस्तीन के प्रतिरोध आंदोलन हमास की विजय ने ज़ायोनी शासन और उसकी सेना की रही सही पोल भी खोल दी।
अनुभव ने यह दर्शा दिया है कि ज़ायोनी शासन की वर्चस्ववादी नीतियों और अतिग्रहित भूमि को स्वतंत्र कराने का एकमात्र मार्ग प्रतिरोध है जबकि इस शासन से साठगांठ वार्ता का परिणाम ज़ायोनी शासन की वर्चस्ववादी कार्यवाहियों में तेज़ी आने के सिवा और कुछ नहीं निकला इसलिए क्षेत्र की संवेदनशील स्थिति के दृष्टिगत सय्यद हसन नसरुल्लाह ने ज़ायोनी शासन और उसके समर्थकों के विरुद्ध प्रतिरोध जारी रखने पर बल दिया है।
ईरान में यूरेनियम के नये भंडारों का पता चला
ईरान की परमाणु ऊर्जा संस्था ने घोषणा की है कि परमाणु उद्योग के विशेषज्ञों के भारी प्रयास से ईरान में यूरेनियम के नये भंडार का पता चला है जिससे ईरान में यूरेनियम की पैदावार कई गुना बढ़ गयी है। परमाणु ऊर्जा संस्था ने यह भी कहा है कि कई महीनों के प्रयास के बाद कैस्पियन सागर, फ़ार्स की खाड़ी और ओमान सागर, ख़ूज़िस्तान और ईरान के पश्चिमोत्तरी क्षेत्रों में सोलह नये परमाणु प्रतिष्ठानों के निर्माण के लिए जगह निर्धारित कर ली गयी है। ईरान की परमाणु ऊर्जा संस्था के अनुसार नये परमाणु प्रतिष्ठानों का निर्माण, ईरान के दीर्घकालिक कार्यक्रमों में शामिल है जिसका उद्देश्य देश की आवश्यकता को पूरा करने के लिए अंतर्राष्ट्रीय मानकों के अनुरूप परमाणु बिजली घरों से बिजली का उत्पादन है।