
Super User
पाक सैनिकों ने भारतीय सैनिक का सिर नहीं कलम किया
पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ने बल देकर कहा है कि भारत ने पाकिस्तान के साथ संबंधों को सामान्य बनाने के लिए प्रभावी कार्यवाही अंजाम नहीं दी है। प्राप्त समाचारों के अनुसार पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति परवेज़ मुशरर्फ ने कहा कि भारत ने दोनों देशों के मध्य अच्छे संबंधों के लिए कोई ठोस कार्यवाही नहीं की है। पाकिस्तान के पूर्व राष्ट्रपति ने इसी प्रकार इस देश के सैनिकों द्वारा एक भारतीय सैनिक का सिर कलम किये जाने की खबर का खंडन किया। उन्होंने कहा कि भारतीय राजनेता और इस देश के संचार माध्यम क्षेत्रीय परिवर्तनों के संबंध में उचित प्रतिक्रिया व्यक्त नहीं करते। ज्ञात रहे कि पिछले कुछ दिनों से कश्मीर की नियंत्रण रेखा पर दोनों देशों के सैनिकों के मध्य होने वाली फायरिंग व झड़प के बाद भारत और पाकिस्तान के मध्य संबंध तनावग्रस्त हो गये हैं। mm
فَالِقُ الْإِصْبَاحِ وَجَعَلَ اللَّيْلَ سَكَنًا وَالشَّمْسَ وَالْقَمَرَ حُسْبَانًا ۚ ذَٰلِكَ تَقْدِيرُ الْعَزِيزِ الْعَلِيمِ
उसी के लिए सुबह की पौ फटी और उसी ने आराम के लिए रात और हिसाब के लिए सूरज और चाँद बनाए ये ख़ुदाए ग़ालिब व दाना के मुक़र्रर किए हुए किरदा (उसूल) हैं [6:96]
पाक प्रधानमंत्री की जांच करने वाले अधिकारी की मौत
पाकिस्तान के प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ़ के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच कर रहे भ्रष्टाचार विरोधी इकाई के एक वरिष्ठ अधिकारी को उनके आवास पर मृत पाया गया।
प्राप्त समाचारों के अनुसार शुक्रवार को इस्लामाबाद के सरकारी हॉस्टल के एक कमरे में कामरान फ़ैसल लटकता हुआ पाया गया, जहां वो रहते थे। राष्ट्रीय जवाबदेही ब्यूरो (एनएबी) के सहायक निदेशक, कामरान फैसल प्रधानमंत्री राजा परवेज अशरफ़ के खिलाफ़ भ्रष्टाचार के मामले में जांच अधिकारी असग़र खान की सहायता कर रहे थे।
मंगलवार को ही पाकिस्तान की सर्वोच्च अदालत ने पाकिस्तानी प्रधानमंत्री राजा परवेज़ अशरफ़ को गिरफ्तार करने का आदेश दिए था।
उन पर 2010 में जल और ऊर्जा मंत्री रहते हुए रिश्वत लेने के आरोप लगे थे, परवेज़ अशरफ़ इन आरोपों का खंडन करते रहे हैं।
पुलिस का कहना है कि वो इस बात की जांच कर रहे हैं कि क्या कामरान ने आत्महत्या की, इसके लिए उनके पोस्टमार्टम की रिपोर्ट का भी इंतज़ार है।
हर अक्षर के बदले में ईश्वर एक प्रकाश प्रदान करेगा
पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजन उच्चतम मानवीय सदगुणों और मूल्यवान आत्मिक व नैतिक विशेषताओं के सर्वोत्तम प्रतीक हैं। आज इस्लामी जगत पैग़म्बरे इस्लाम के पौत्र के शोक में डूबा हुआ है। मुसलमान ८ रबीउल अव्वल को उस दयालु व कृपालु इमाम की याद मनाते हैं जिसने अपनी कुल २८ वर्ष की आयु के दौरान इस्लामी इतिहास की पुस्तक में एक अन्य स्वर्णिम पृष्ठ की वृद्धि कर दी। २६० हिजरी क़मरी में आज ही के दिन अब्बासी ख़लीफ़ा मोतमिद ने षडयंत्र रचकर इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को शहीद कर दिया। मोअतमिद यह सोचता था कि इमाम हसन असकरी को शहीद करके वह उनकी और उनकी शिक्षाओं की याद को मिटा देगा परंतु जिस चेराग़ को पैग़म्बरे इस्लाम और उनके परिजनों ने प्रज्वलित किया है उसे कदापि बुझाया नहीं जा सकता और वह समस्त कालों में मनुष्यों को भलाई, मुक्ति और कल्याण का मार्ग दिखाता रहेगा। अब हम इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम की शहादत के दुःखद अवसर पर हज़रत मोहम्मद सल्लल्लाहो अलैहि व आलेहि व सल्लम और उनके पवित्र परिजनों पर सलाम भेजते हैं और महान व सर्वसमर्थ ईश्वर का इसके लिए आभार व्यक्त करते हैं कि उसने हमारा मार्गदर्शन, इन महान हस्तियों की ओर किया है।
पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों का एक कार्यक्रम व उद्देश्य विशुद्ध इस्लामी शिक्षाओं की सुरक्षा था कि जो पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा के साथ आरंभ हुआ और इमामों में से हर एक ने अपने समय की परिस्थिति के दृष्टिगत अपने दायित्व का निर्वाह किया। यदि कोई व्यक्ति या लोग पथभ्रष्टता अथवा विरोधाभास का शिकार होते थे तो एक ओर इमाम उन लोगों का मार्गदर्शन करते थे और दूसरी ओर पथभ्रष्ठ गुटों व धड़ों के विचारों के फैलने के प्रति चेतावनी देते और उनका मुक़ाबला करते थे। कभी कभी यही पथभ्रष्ठ व ग़लत विचार बनी उमय्या और बनी अब्बासी शासकों की सरकारों की नीति हो जाया करते थे और इसका इस्लामी समाज पर बहुत नकारात्मक प्रभाव पड़ता था।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का काल कठिन कालों में से एक था जिसमें हर ओर से विभिन्न दिग्भ्रमित विचारों से इस्लामी समाज को खतरा था। यह उस परिस्थिति में था जब अब्बासी शासकों की ओर से इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम कठिनाइयों में थे और उन पर कड़ी नज़र रखी जा रही थी। अब्बासी शासकों का इमाम के साथ कड़ाई से पेश आने का एक कारण यह था कि इस बात की शुभसूचना दी जा चुकी थी कि अंतिम महामोक्षदाता का जन्म आपके ही परिवार में होगा और वह आपका ही बेटा होगा। यह बातें इस बात का कारण बनीं कि इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम को विवश किया गया कि वे बग़दाद के उत्तर में स्थित सामर्रा नगर के एक सैनिक मोहल्ले में जीवन व्यतीत करें। इन सबके बावजूद इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने लोगों के मार्गदर्शन में कमी नहीं की। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने सामर्रा में ६ वर्षों तक अपने आवास के दौरान उन पथभ्रष्ठ गुटों, धड़ों और संप्रदायों से संघर्ष किया जो इस्लाम के नाम पर धर्म में हेरा फेरी करने का प्रयास कर रहे थे। सूफी और ग़ोलात आदि जैसे दिग्भ्रमित गुटों व संप्रदायों के संबंध में इमाम का दृष्टिकोण बहुत ही पारदर्शी व स्पष्ट था। उल्लेखनीय है कि ग़ोलात उन लोगों को कहा जाता है जो सीमा से अधिक बढ़ जाते हैं।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम सूफी विचार धारा के मानने वालों की निंदा करते हुए कहते हैं"” आगाह व होशियार रहो कि वे मोमिनों के मार्ग के लूटरे हैं और लोगों को धर्म का इंकार करने वालों की ओर बुलाते हैं। जिनका भी सामना उनसे पड़े उसे चाहिये कि निश्चित रूप से उनसे दूरी करे और अपने धर्म एवं ईमान को उनके डंक से सुरक्षित रखे"
इदरीस बिन ज़ियाद नामक व्यक्ति कहता है कि मैं उन लोगों में से था जो अहले बैत के बारे में अतिश्योक्ति से काम लेते थे। एक दिन मैं इमाम हसन असकरी से मिलने के लिए सामर्रा रवाना हुआ। जब मैं नगर पहुंचा तो बहुत थक गया था और आराम करने के लिए एक स्थान पर बैठ गया। इस मध्य मुझे नींद आ गयी ,कुछ देर बाद मेरे कान में कुछ आवाज़ सुनाई दी तो मैं जाग गया। वह इमाम हसन असकरी की आवाज़ थी। मैं तुरंत अपने स्थान से उठा और उनके प्रति आदरभाव व्यक्त किया। इस थोड़ी से भेंट में उन्होंने सूरये अंबिया की २६वीं -२७वीं आयतों को पढ़कर सुनाया और उसे आधार बनाते हुए मुझसे कहा हे इदरीस "वे कहते हैं कि रहमान अर्थात ईश्वर के संतान है। ईश्वर इस चीज़ से महान है बल्कि वे तो प्रतिष्ठित बंदे हैं, वे उससे बढ़कर नहीं बोलते हैं और वे उसके आदेश का पालन करते हैं"
यहां इमाम ने इस आयत को पढ़कर मुझे समझा दिया कि मैं अहलेबैत के बारे में अतिशयोक्ति करना छोड़ दूं। क्योंकि वे केवल वही कार्य करते हैं जो ईश्वर चाहता है और मैं इमाम की संक्षिप्त बात के उद्देश्य से पूर्णरूप से अवगत हो गया था। मैंने इमाम के उत्तर में कहा" हे स्वामी! आपकी इतनी बात ही मेरे लिए काफी है क्योंकि मैं यही बात पूछने के लिए आपके पास आया था।
हज़रत इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम सामाजिक परिस्थिति के अनुचित होने और अब्बासी सरकार की ओर से बहुत अधिक सीमाएं होने के बावजूद कुछ शिष्यों का प्रशिक्षण किया और उनमें से हर एक ने पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार और भ्रांतियों को दूर करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है।
प्रसिद्ध शीया विद्वान शेख तूसी ने १०० व्यक्तियों से अधिक का नाम इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के शिष्यों के रूप में लिखा है कि जिनमें योग्य व प्रतिभाशाली हस्तियां हैं।
लेखकों और उनकी रचनाओं की प्रशंसा व सराहना ऐसा कार्य है जो स्वयं समाज में ज्ञान में विस्तार का कारण बनता है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम शिष्यों की शिक्षा व प्रशिक्षण के साथ लेखकों को प्रोत्साहित करने से निश्चेत नहीं थे। "दाऊद बिन क़ासिम" कहता है" मैं यूनुस आले यक़तीन की "यौम व लैलह" नामक पुस्तक को इमाम की सेवा में पेश किया तो उन्होंने मुझसे पूछा कि इसे किसने लिखा है? मैंने कहा इसे यूनुस ने लिखा है। उस समय इमाम ने कहा" ईश्वर प्रलय के दिन हर अक्षर के बदले में उन्हें एक प्रकाश देगा"
इन्हीं प्रोत्साहनों का परिणाम था कि इमाम के १६ शिष्यों ने ११८ किताबें लिखीं। इसी तरह जिन व्यक्तियों ने इमाम से हदीसें अर्थात उनके कथन लिखे हैं उनकी संख्या १०६ है।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने शिष्यों के प्रशिक्षण और लेखकों के प्रोत्साहन के अतिरिक्त स्वयं उन्होंने कुछ किताबें एवं पत्र लिखे हैं जो ज्ञान के विस्तार और आस्थाओं की सुरक्षा के लिए हैं। पवित्र क़ुरआन की व्याख्या के संबंध में एक पुस्तक है जिसके बारे में कहा जाता है कि इसे इमाम हसन असकरी ने लिखा है। इसी प्रकार बहुत से धार्मिक आदेशों के हलाल व हराम होने के बारे में दो किताबें हैं। इसके अतिरिक्त विभिन्न पत्र भी हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें इमाम ने लिखा है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के काल में शीया मुसलमान विभिन्न क्षेत्रों में रहते थे। उदाहरण स्वरूप कूफा, बग़दाद, निशापूर, कुम, खुरासान, यमन, रैय, आज़रबाइजान और सामर्रा को शीया मुसलमानों का गढ़ कहा जाता था। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम विशुद्ध इस्लामी शिक्षाओं के प्रचार- प्रसार के लिए विभिन्न नगरों के नाम पत्र लिखे हैं। उदाहरण स्वरूप इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम ने क़ुम के शीया मुसलमानों के नाम जो पत्र लिखा था उसकी विषय वस्तु आज भी किताबों में मौजूद है। इसी प्रकार इमाम ने जो विस्तृत पत्र निशापूर के एक शीया "इस्हाक़ बिन इस्माईल" के नाम लिखा था उसमें इस्लामी समाज के मार्गदर्शन में इमामत की भूमिका और इमामों के आदेशों के अनुपालन व अनुसरण की आवश्यकता को बयान किया है।
प्रश्न किया जाना और भ्रांतियों का निवारण, समाज की प्रगति का कारण बनता है इस शर्त के साथ कि उसका उत्तर सही और वह मार्गदर्शन करने वाला हो। संभव है कि समाज में ख़तरनाक प्रश्न किये जायें और यदि उनका सही व तार्किक उत्तर नहीं दिया गया तो पूरा इस्लामी समाज ख़तरे में पड़ सकता है। इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम का एक महत्वपूर्ण कार्य इस्लामी विश्वासों व आस्थाओं की सुरक्षा तथा भ्रांतियों का निवारण था। एक दिन एक व्यक्ति ने इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम से पूछा कि पुरूषों को क्यों महिलाओं के दो बराबर मीरास मिलती है? आपने उसके उत्तर में कहा" चूंकि ख़र्च की ज़िम्मेदारी पुरूष पर है, पुरूष जेहाद व युद्ध में भाग लेता है और इसी प्रकार उसे चाहिये कि वह अपने परिवार की आजीविका की आपूर्ति करे"
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के ईश्वरीय व्यवहार और सदाचरण के कारण लोगों में उनका बहुत प्रभाव था। इस प्रकार से कि जब इमाम अपने घर से बाहर निकलते थे तो बहुत से लोग आपके घर के सामने अपने प्रश्नों का उत्तर जानने और आपके दर्शन के लिए पंक्ति में खड़े होते थे। उस समय अब्बासी शासकों ने इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम के लिए जो सीमाएं व बाधायें उत्पन्न की थी उसे उन सभों ने प्रभावहीन समझा और लोगों में इमाम के प्रभाव से वे बुरी तरह भयभीत थे। इसलिए अब्बासी शासकों ने उन्हें जेल में डाल दिया ताकि इमाम और लोगों के मध्य संपर्क में बाधा बन जायें परंतु इमाम के आध्यात्मिक आकर्षण और उनकी महानता ने अली बिन औताश नामक जेलर को भी इमाम का प्रेमी बना दिया और वह इमाम के निष्ठावान साथियों में हो गया जबकि अली बिन औताश बहुत कठोर हृदय वाला व्यक्ति था।
इमाम हसन असकरी अलैहिस्सलाम कहते हैं" समस्त बुराइयों को एक घर में रख दिया गया है और झूठ उस घर की कुंजी है"
क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश)
क़ुरआने मजीद ने तमाम दूसरी इलहामी और पवित्र किताबों जैसे तौरेत और इंजील आदि से ज़्यादा आसमानी वही, वही भेजने वाले और वही लाने वाले के बारे में लिखा है और यहाँ तक कि वही की कैफ़ियत के बारे में भी लिखा है।
अ. क़ुरआने मजीद की वही (अल्लाह का संदेश) के बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा
ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों की राय
स. ख़ुद क़ुरआने मजीद इस बारे में क्या फ़रमाता है:
1. अल्लाह का कलाम
2. जिबरईल और रुहुल अमीन
3. फ़रिश्ते और शैतान
4. ज़मीर की आवाज़
5. दूसरी वज़ाहत के मुतअल्लि़क़
ह. ख़ुद क़ुरआने मजीद वही और नबुव्वत के बारे में क्या फ़रमाता हैं:
1. आम हिदायत और इँसानी हिदायत
2. राहे ज़िन्दगी तय करने में इंसानी विशेषताएँ
3. इंसान किस लिहाज़ से समाजी है?
4. इख़्तिलाफ़ात का पैदा होना और क़ानून की ज़रुरत
5. क़ानून की तरफ़ इंसान की हिदायत और रहनुमाई करने के लिये अक़्ल काफ़ी नही है।
6. इंसानी हिदायत का अकेला रास्ता वही (अल्लाह की ओर से आने वाला संदेश) है।
7. मुश्किलात और उन के जवाबात
8. वही का रास्ता हर तरह से ग़लती और ख़ता से ख़ाली है।
9. हमारे लिये वही की वास्तविकता ना मालूम है।
10. क़ुरआन की वही की कैफ़ियत
अ. क़ुरआने मजीद की वही के बारे में मुसलमानों का आम अक़ीदा
क़ुरआने मजीद ने तमाम दूसरी इलहामी और पवित्र किताबों जैसे तौरेत और इंजील आदि से ज़्यादा आसमानी वही, वही भेजने वाले और वही लाने वाले के बारे में लिखा है और यहाँ तक कि वही की कैफ़ियत के बारे में भी लिखा है।
मुसलमानों का आम अक़ीदा अलबत्ता अक़ीदे की बुनियाद वही क़ुरआने मजीद का ज़ाहिरी पहलू है। क़ुरआन के बारे में यह है कि क़ुरआने मजीद अपने बयान के अनुसार अल्लाह का कथन है जो एक बड़े फ़रिश्ते के ज़रिये जो आसमान का रहने वाला है, नबी ए इस्लाम पर नाज़िल हुआ है।
उस फ़रिश्ते का नाम जिबरईल और रुहुल अमीन है जिस ने अल्लाह के कथन को तेईस वर्ष की ज़माने में धीरे धीरे इस्लाम के दूत तक पहुचाया और उस के अनुसार आँ हज़रत (स) को ज़िम्मेदारी दी कि वह आयतों के लफ़्ज़ों और उस के अर्थ को लोगों के सामने तिलावत करें और उस के विषयों और मतलब को लोगों को समझाएँ और इस तरह अक़ीदे की बातें, समाजी और शहरी क़ानून और इंसानों की अपनी ज़िम्मेदारियों को, जिन ज़िक्र क़ुरआने मजीद करता है, उस की तरफ़ दावत दें।
अल्लाह के इस मिशन का पैग़म्बरी और नबुव्वत है। इस्लाम के नबी ने भी इस दावत में बिना किसी दख़्ल और कमी बेशी और रिआयत के अपनी ज़िम्मेदारी को निभाया।
ब. वही और नबुव्वत के बारे में मौजूदा लिखने वालों का राय
अकसर मौजूदा दौर के लेखक, जो विभिन्न मज़हबों और धर्मों के बारे में तहक़ीक़ में कर रहे हैं, उन की राय क़ुरआनी वही और नबुवत के बारे में इस तरह हैं:
पैग़म्बरे अकरम (स) समाज के बहुत ही ज़हीन इंसान थे जो इंसानी समाज को इंहेतात, वहज़त गरी और ज़वाल से बचाकर उस को तमद्दुन और आज़ादी के गहवारे में जगह देने के लिये उठ खड़े हुए थे ताकि समाज को अपने पाक और साफ़ विचार की तरफ़ यानी एक जामें और मुकम्मल दीन की तरफ़ जो आपने ख़ुद मुरत्तब किया था, दावत दे।
कहते हैं कि आप बुलंद हिम्मत और पाक रुह के मालिक थे और एक तीरा व तारीक माहौल में ज़िन्दगी बसर करते थे। जिसमें सिवाए ज़बरदस्ती, ज़ुल्म व सितम, झूठ और हरज मरज के अलावा और कोई चीज़ दिखाई नही देती थी और ख़ुद ग़र्ज़ी, चोरी, लूटपाट और दहशतगर्दी के अलावा कोई चीज़ मौजूद नही थी। आप हमेशा इन हालात से दुखी होते थे और जब कभी बहुत ज़्यादा तंग आ जाते थे तो लोगों से अलग होकर एक गुफ़ा में जो तिहामा के पहाड़ों में थी कुछ दिनों तक अकेले रहते थे और आसमान, चमकते हुए तारों, ज़मीन, पहाड़, समुन्दर और सहरा आदि जो प्रकृति के रुप हैं जो इंसान के वश में किये गये हैं, उन की तरफ़ टुकटुकी बाँध कर देखते रहते थे और इस तरह इँसान की ग़फ़लत और नादानी पर अफ़सोस किया करते थे जिसने इंसान को अपनी लपेट में ले रखा था ताकि उसे इस क़ीमती जीवन की ख़ुशियों और सफ़लताओं से दूर करके उन को दरिन्दों और जानवरों की तरह गिरी हुई ज़िन्दगी गुज़ारने पर मजबूर करे दे।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) लगभग चालीस साल तक इस हालत को अच्छी तरह समझते रहे और मुसीबत उठाते रहे, यहाँ तक कि चालीस साल की उम्र में एक बहुत बड़ा मंसूबा बनाने में कामयाब हो गये ताकि इंसान इन बुरे हालात से निजात दिलाएँ जिसका नतीजा हैरानी, परेशानी, आवारगी, ख़ुदगर्ज़ी और बे राहरवी था और वह दीने इस्लाम था जो अपने ज़माने की आलातरीन और मुनासिब तरीन हुकूमत थी।
पैग़म्बरे अकरम (स) अपने पाक विचार को ख़ुदा का कलाम और ख़ुदा की वही तसव्वुर करते थे कि ख़ुदा वंदे आलम ने आप की पाक फ़ितरत रुह के ज़रिये आप से हमकलाम होता था और अपनी पाक और ख़ैर ख़्वाह रुह को जिस से यह अफ़कार निकलते थे आप के पाक दिल में समा जाते थे और उस को रुहुल अमीन जिबरईल, फ़रिशत ए वही कहते हैं। कुल्ली तौर पर ऐसी क़ुव्वतें जो ख़ैर और हर क़िस्म की खुशबख़्ती की तरफ़ दावत देती है उनको मलाएका और फ़रिश्ते कहा जाता है और वह क़ुव्वतें जो शर और बदबख़्ती की तरफ़ दावत देती हैं उन को शयातीन और जिन कहा जाता है। इस तरह पैग़म्बरे अकरम (स) ने अपने फ़रायज़ को नबुव्वत और रिसालत का नाम दिया, जो जम़ीर की आवाज़ के मुताबिक़ थे और उन के अनुसार इंसानों को इंक़ेलाब की दावत देते थे।
अलबत्ता यह वज़ाहत उन लोगों की है जो इस दुनिया के लिये एक ख़ुदा के अक़ीदे के क़ायल हैं और इंसाफ़ की रु से इस्लाम के दीनी निज़ाम के लिये महत्व के क़ायल हैं लेकिन वह लोग जो इस दुनिया के लिये किसी पैदा करने का अक़ीदा नही रखते हैं वह नबुव्वत, वही, आसमानी फ़रायज़, सवाब, अज़ाब, स्वर्ग और नर्क जैसी बातों को धार्मिक राजनिती और दर अस्ल मसलहत आमेज़ झूठ समझते हैं।
वह कहते हैं कि पैग़म्बर इस्लाह पसंद इंसान थे और उन्होने दीन की सूरत में इंसानी समाज की भलाई और बेहतरी के लिये क़वानीन बनाए और चुँकि गुज़िश्ता ज़माने के लोग जिहालत और तारीकी में ग़र्क़ और तवह्हुम परस्ती पर मबनी अक़ीदों के साए में मबदा और क़यामत को महफ़ूज़ रखा है।
ख़ुद क़ुरआन मजीद इस के बारे में क्या फ़रमाता है?
जो लोग वही और नबुव्वत की तंज़ीम को गुज़िश्ता बयान के मुताबिक़ तौजीह करते हैं वह ऐसे दानिशवर हैं जो माद्दी और तबीईयाती उलूम के साथ दिलचस्बी और मुहब्बत रखते हुए जहाने हस्ती की हर एक चीज़को फ़ितरी और क़ुदरती क़वानीन की इजारा दारी में ख़्याल करते हैं और आख़िरी गिरोहे हवादिस की बुनियाद को भी फ़ितरी फ़र्ज़ करता है। इस लिहाज़ से मजबूरन आसमानी मज़ाहिब और अदयान को ही इजतेमाई मज़ाहिर समझेगें और इस तरह तमाम इजतेमाई मज़ाहिर से जो नतीजा हासिल होगा उस पर ही परखेगें। चुँनाचे अगर इजतेमाई नवाबिग़ (ज़हीन इंसान) में से कोई एक जैसे कौरवश, दारयूश, सिकन्दर वग़ैरह अपने आप को ख़ुदा की तरफ़ से भेजा हुआ और अपने कामों को आसमानी मिशन और अपने फ़ैसलों को ख़ुदाई फ़रमान को तौर पर तआरुफ़ कराएँ तो गुज़िश्ता बाब में आने वाली बहस के अलावा और कोई तौजीह नही हो सकेगी।
हम इस वक़्त यहाँ दुनिया ए मा वरा को साबित नही करना चाहते और उन दानिशवरों को भी नही कहते कि हर इल्म सिर्फ़ अपने इर्द गिर्द को मौज़ूआत पर ही राय दे सकते हैं और माद्दी उलूम जो माद्दे के आसार और ख़वास से बारे में बहस करते हैं वह यक़ीनी या ग़ैर यक़ीनी तौर पर मा वरा में मुदाख़लत रखते हैं।
यहाँ हम यह कहना चाहते हैं कि गुज़िश्ता तौजीह जो भी हो वह क़ुरआने मजीद के बयानात जो पैग़म्बरे अकरम (स) की नबुव्वत और रिसालत की सनद है और उस तमाम कलाम की अस्ली बुनियाद भी है, उससे मुताबिक़त करे लेकिन क़ुरआने मजीद वाज़ेह तौर पर भी उस तौजीह के ख़िलाफ़ दलालत करता है और हम अब उस तौजीह के हर एक ज़ुज़ को क़ुरआनी आयात की रौशनी में परखते हैं।
1. कलामे ख़ुदा
गुज़िश्ता वज़ाहत के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) के ज़हन में जो पाक अफ़कार जन्म लेते थे उनको ख़ुदा का कलाम कहते थे औऱ उसका ये मतलब है कि ये अफ़कार, दूसरे अफ़कार की तरह आपके ज़हन से निकलते थे लेकिन चूँकि ये आफ़कार पाक और मुक़द्गस थे लिहाज़ा उनको ख़ुदा से मंसूब किया गया था और आख़िर कार पैग़म्बरे अकरम (स) से ज़ाहिरी और फ़ितरी तौर पर मंसूब ये अफ़कार ख़ुदा वंदे ताला से मानवी तौर पर मंसूब होते हैं लेकिन क़ुरआने मजीद वाज़िह और संजीदा तरीक़े से दावा करने वाली आयात में अपनी इबारात को पैग़म्बरे अकरम (स) या किसी दूसरे शख़्स से मंसूब होने की नफ़ी करता है और फ़रमाता है:अगर ये इंसानी कलाम है तो जैसा कि क़ुरआन ने इतिक़ादी, अख़लाक़ी, अहकाम, क़िस्सों, हिकमत और पंद व नसीहत के बारे में कहा है : इस तरह का कलाम बना लाऐं और इस बारे में जिससे जगह से चाहें मदद हासिल करें , अगर वह उसको नही समझ सके के ये ख़ुदा का कलाम है या इंसान का (सूरह ए यूनुस आयत 38, सूरह ए हूद आयत 13) और अगर जिन व इंसान आपस में मिलकर इस काम के लिये तैयार हों और कमरे हिम्मत बाँध लें तो भी क़ुरआन के मिसल हरगिज़ कलाम नही ला सकेंगे ।(सूरह ए बनी इस्राईल आयत 88)
फिस फ़रमाता है :(सूरह ए बक़रा आयत 23) अगर तुम ये कहते हो कि क़ुरआन मोहम्मद (स) का कलाम है तो इस सूरत में उस शख़्स की तरफ़ से जो ज़िन्दगी में आप (स) की मानिनद हो मसलन यतीम, तरबियत ना याफ़ता, ना ख़ानदा, जिसने लिखना भी न सीखा हो और जाहिलीयत के माहौल में परवरिश पाई हो ,इस किताब की तरह एक सूरह या चंद सूरे ला कर बनाकर लायें ।
उसके बाद फ़रमाता है :(सूरह ए निसा आयत 82) उन क़ुरआनी आयात में जो तेंतीस साल के अरसे में धीरे धीरे नाज़िल हुयी हैं और उनमें किसी क़िस्म का एख़तिलाफ़ और उस्लूबे बयान व अल्फ़ाज़ और माना के लिहाज़ से कोई तबदीली मौजूद नही है। उन पर क्यों ग़ौर नही करते और अगर ख़ुदा के अलावा ये क़ुरआन किसी और शख़्स का कलाम होता तो यक़ीनन निज़ाम के सामने तसलीम हो जाता और उसमें तबदीलियाँ और इख़्तिलाफ़ात ज़रूर ज़ाहिर होते ।
ज़ाहिर है कि ये बयानात शरीअत कि निस्बत साज़गार नही हैं और क़ुरआने मजीद उनको सिर्फ़ ख़ुदा के कलाम के तौर पर तआरूफ़ कराता है । उनके अलावा क़ुरआने मजीद सैकड़ो आयात में ख़ारिक़ुल आदत मोजिज़ात जो आम फ़ितरी निज़ाम के मुताबिक़ क़ाबिले तशरीह नही हैं , इस्बात करता है कि पैग़म्बर उनके ज़रिये अपनी नबूवत को साबित करते थे और अगर नबूवत का मतलब वही ज़मीर की आवाज़ और आसमानी वही यानी पाक इंसानी अफ़कार हो तो दलील व बुरहान लाना और मोजिज़ात सो मदद हासिल करने के कुछ माना ही नही निकलते ।
बाज़ मुसन्नेफ़ीन इन वज़ेह और रौशन मोजिज़ात को तमस्ख़ुर आमेज़ नियत के साथ तावील करते हैं लेकिन हर पढ़ा लिखा इंसान अगर उनकी तशरीहात की तरफ़ तवज्जोह करे तो इसमें कोई शक व शुबहा बाक़ी नही रहेगा कि क़ुरआन मजीद का मक़सद इसके बरअकस है जो ये दानिश्वर तसव्वुर करते हैं ।
यहाँ हमारा मतलब मोजिज़े के इमकान और उसके ख़ारिक़ुल आदत होने या क़ुरआने मजीद की इबारात की सेहत को साबित करना नही है बल्कि हमारा मक़सद ये है कि क़ुरआने मजीद गुज़ुश्ता अम्बिया मसलन हज़रत सालेह (अ), हज़रत इबराहीम (अ),हज़रत मूसा(अ), और हज़रत ईसा (अ) के मोजिज़ात को वाज़िह तौर पर साबित करता है और जो क़िस्से क़ुरआन में बयान हुये हैं वह ख़ारिक़ुल आदत होने के सिवा क़ुछ और नही हैं, अलबत्ता ज़मीर की आवाज़ को साबित करने के लिये मोजिज़ात को पेश करना ज़रूरी नही है।
2 रूहुल अमीन और जिबरईल (अ)
गुज़िश्ता तौजीह के मुताबिक़ पैग़म्बरे अकरम (स) अपनी पाक रूह को जो मसलिहत बीनी और ख़ैर अंदेशी में कोई दक़ीक़ा फ़रूगुज़ाश्त नहू करते थे, रूहुल अमीन और उसकी तलक़ीन को वही कहते थे , लेकिन क़ुरआने मजीद इस अक़ीदे की ताईद और तसदीक़ नही करता क्योंकि क़ुरआन मजीद आयात को इलक़ा करने वाले (पैग़म्बरे अकरम (स) के दिल पर इल्हाम नाज़िल करने वाले) को जिबरईल कहता है और मंदरजा ज़ैल तौजीह की बिना पर इस वजहे तसमीया का कोई सबब नही है ।
अल्लाह ताला फ़रमाता है ऐ पैग़म्बर (स) कह दो कि जो कोई जिबरईल का दुश्मन है , वही जिबरईल क़ुरआने मजीद को ख़ुदा के हुक्म से तुम्हारे दिल पर नाज़िल करता है न कि बग़ैर (ख़ुदा के) हुक्म से या अपनी तरफ़ से। (सूरह ए बक़रा आयत 97)
ये आयते शरीफ़ा यहूदियों (दुर्रुल मंशूर हिस्सा आव्वल पेज 90) के सवालात के जवाब में नाज़िल हुयी है जो पैग़म्बरे अकरम (स) से पूछ रहे थे इस क़ुरआन को कौन तुम पर नाज़िल करता है ? आपने फ़रमाया :जिबरईल ,उन्होंने कहा :हम जिबरईल के दुश्मन हैं क्योंकि हम बनी इस्राईल क़ौम के लिये वही जिबरईल महदूदियत लेकर नाज़िल हुआ करता था और चूँकि हम उसके दुश्मन हैं इसलिये जो किताब वह लाया है हम उसपर ईमान नही ला सकते । अल्लाह ताला इस आयते शरीफ़ा में उनका जवाब देता है कि जिबरईल तो क़ुरआन को ख़ुदा के हुक्म से पैग़म्बर (स) पर नाज़िल करता है न कि अपनी तरफ़ से और आख़िरकार क़ुरआने मजीद ख़ुदा का कलाम है लिहाज़ा उस पर ईमान लाना चाहिये क्योंकि ये जिबरईल का कलाम नही है ।
ज़ाहिर हैकि यहूदी क़ौम एक ख़ुदा से दुश्मनी रखती थी जो ख़ुदा की तरफ़ से ‘’वही’’पहुँचाने का ज़िम्मेदार था और हज़रते कलीमुल्लाह (अ) और हज़रत मोहम्मद (स) से बिल्कुल जुदा था । न ही कलीमुल्लाह (अ) और न ही हज़रते मोहम्मद (स) की पाक रूह को उसमें दख़्ल था ।
और यही क़ुरआन जो इस आयते करीमा में क़ुरआने मजीद को पैग़म्बरे अकरम (स) के दिल पर नाज़िस करने को जिबरईल से मंसूब करता है , दूसरी आयत में रूहुल अमीन से निस्बत देता है क़ुरआन को रूहुल अमीन ने तुम्हारे दिल पर नाज़िल किया है । इन दो आयात के तवाफ़ुक़ से मालूम होता है कि रूहुल अमीन से मुराद वही जिबरईल ही है ।
अल्लाह ताला अपने कलाम में एक और जगह वही लाने वाले के बारे में फ़रमाता है बेशक क़ुरआन एसा कलाम है जिसको मोहतरम सफ़ीर जिबरईल लाया, रसूले मोहतरम (स) की तरफ़ जो उस साहिबे अरश यानी ख़ुदा के सामने ताक़त और क़द्ग और मंज़िलत रख़ता है और फ़रिश्तों के लिये क़ाबिले इताअत है (फ़रिश्ते उसकी इताअत करते हैं) वह अमीन है और तुम्हारा सबका दोस्त और हामी पैग़म्बरे अकरम(स) दीवाना , मजनून और आसेब ज़दह नही है। मैं क़सम खाता हूँ कि लाने वाले को उसने उस वक़्त देखा जब वह उफ़ुक़ में था ।
ऐसी आयात इसका सुबूत फ़राहम करती हैं कि जिबरईल (अ) ख़ुदा के क़रीबी और नज़दीकियों में से है और ख़ुदा के सामने बहुत ताक़तवर, साहिबे क़ुदरत व मंज़िलत , फ़रमाँ रवा और अमीन है।
एक और जगह मुक़र्रेबीने अर्श के वसफ़ में जो मलाईकाये किराम हैं फ़रमाता है जो फ़रिश्ते तेरे ख़ुदा के अरश को उठाये हुये हैं और वह जो अरश के इर्द गिर्द हैं और अपने ख़ुदा के लिये हमद व सना और तसबीह करते हैं और जो लोग ख़ुदा पर ईमान लाऐ हैं (वह फ़रिश्ते) उनके लिये तलबे मग़फ़िरत करते हैं ।(सूरह ए मोमिन आयत 7) इस आयते शरीफ़ा के मुताबिक़ वाज़िह है कि मुक़र्रब फ़रिश्ते मुस्तक़िल मौजूदात हैं, वह शुऊर रखते हैं, इरादे के मालिक हैं क्योंकि वह अवसाफ़ जो उनके बारे में बयान किये गये हैं यानी ख़ुदा पर ईमान रखना, दूसरों के लिये तलबे मग़फ़िरत करना वग़ैरा । सिवाये एक मुस्तक़िल वजूद के जो साहिबे शऊर हो साज़गार नही है।
और फिर इन्ही मुक़र्रब फ़रिश्तो के मुतअल्लिक़ फ़रमाता है : मसीह कभी ख़ुदा की बंदगी और इताअत से सरकशी और नाफ़रमानी नही करता और न ही मुक़र्रब फ़रिश्ते, और जो कोई उसकी बंदगी से सरकशी और नाफ़मानी करे, उन सबको बहुत जल्द अपने पास जमा करेगा (यहाँ तककि फ़रमाया ) और लेकिन जिन लोगों ने नाफ़रमानी की उनके लिये दर्दनाक अज़ाब होगा , लिहाज़ा उस वक़्त ख़ुदा के सिवा उनका कोई सरपरसत और हामी व नासिर नही होगा। ज़ाहिर हैकि मसीह (अ) और मुकर्रब फ़रिश्ते अगरचे गुनाह नही करते लेकिन अगर वह गुनाह करें और बंदगी से ख़िलाफ़ वरज़ी करें तो इस आयते शरीफ़ा के मुताबिक़ उनको क़यामत के दिन सख़्त अज़ाब की धमकी दी गयी है लिहाज़ा क़यामत के दिन अज़ाब की धमकी जो तर्क होने के अलावा एक फ़र्ज़ भी है , इसतिक़लाले वजूद , शऊर व इरादे के बग़ैर मुमकिन नही हो सकता ।
गुज़िश्ता आयत से वाज़ेह हो जाता है कि रूहुल अमीन जिसको जिबरईल भी कहा जाता है वही लाने वाला है । क़ुरआन के बयानात के मुताबिक़ एक आसमानी फ़रिश्ता मुकम्मल वजूद, शऊर और इरादा रखता है।
बल्कि गुज़िश्ता सूरह ए तकवीर की आयत 21 में आने फ़िक़रे (कुरआन को लाने वाला इस फ़िक़रे में) से मुसतफ़ाद होता है कि जिबरईल आलमे बाला में फ़रमाँ रवा है और बाज़ फ़रिश्ते उसके फ़रमान बरदार और मुतीअ हैं । हमेशा या कभी कभी उसके मातहतों के ज़रिये भी वही आती थी जैसा कि सूरह ए अबस की आयात भी इस माना पर दलालत और इशारा करती हैं बेशक ये क़ुरआन या ये आयात याद दहानी हैं पस जो चाहे उसको याद करे । ये तज़किरा (इलहामी किताबों) में बहुत ही गिरामी, अज़ीज़ , बुलंद मरतबा और पाकीज़ा है औऱ मोहतरम व नेकूकार सफ़ीरों के हाथ में है (सूरह ए अबस आयत 11-16)
फ़िरक़ ए इमामिया जाफ़रिया
दौरे हाज़िर में इमामिया फ़िरक़ा मुसलमानों का बड़ फ़िरक़ा है, जिसकी कुल तादाद मुसलमानों की तक़रीबन एक चौथाई है
और इस फ़िरक़े की तारीख़ी जड़ें सदरे इस्लाम के उस दिन से शुरु होती हैं कि जिस सूर ए बय्यनह की यह आयत नाज़िल हुई थी:
(सूर ए बय्यना आयत 7)
बेशक जो लोग ईमान लाये और अमले सालेह अंजाम दिया वही बेहतरीने मख़लूक़ हैं।
चुनाँचे जब यह आयत नाज़िल हुई तो रसूले ख़ुदा (स) ने अपना हाथ अली (अ) के शाने पर रखा उस वक़्त असहाब भी वहाँ मौजूद थे और आपने फ़रमाया:
ऐ अली, तुम और तुम्हारे शिया बेहतरीने मख़लूक़ हैं।
इस आयत की तफ़सीर के ज़ैल में देखिये, तफ़सीरे तबरी (जामेउल बयान), दुर्रे मंसूर (तालीफ़, अल्लामा जलालुद्दीन सुयुती शाफ़ेई), तफ़सीरे रुहुल मआनी तालीफ़ आलूसी बग़दादी शाफ़ेई।
इसी वजह से यह फ़िरक़ा जो कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ) की फ़िक़ह में उनका पैरोकोर होने की बेना पर उनकी तरफ़ मंसूब है। शिया फ़िरक़े का नाम से मशहूर हुआ।
2. शिया फ़िरक़ा बड़ी तादाद में ईरान, इराक़, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, में ज़िन्दगी बसर करता है, इसी तरह उस की एक बड़ी तादाद खाड़ी देशों तुर्की, सीरिया (शाम), लेबनान, रूस और उससे अलग होने वाले बहुत से नये देशों में मौजूद हैं, नीज़ यह फ़िरक़ा यूरोपी मुल्कों जैसे इँगलैंड, फ़्रास, जर्मनी और अमेरिका, इसी तरह अफ़्रीक़ा के मुमालिक और मशरिक़ी एशिया में भी फ़ैला हुआ है, उन मक़ामात पर उनकी मस्जिदें और इल्मी, सक़ाफ़ती और समाजी मराकिज़ भी हैं।
3. इस फ़िरक़े के लोग अगरते मुख़्तलिफ़ मुल्कों, क़ौमों और रंग व नस्ल से ताअल्लुक़ रखते हैं लेकिन इसके बावजूद अपने दीगर मुसलमान भाईयों के साथ बड़े प्यार व मुहब्बत से रहते हैं और तमाम आसान या मुश्किल मैदानों में सच्चे दिल और इख़लास के साथ उनका तआवुन करते हैं और यह सब अल्लाह के इस फ़रमान पर अमल करते हुए इसे अंजाम देते हैं: (सूर ए हुजरात आयत 10)
मोमिनीन आपस में भाई भाई हैं।
या इस क़ौले ख़ुदा पर अमल करते हैं:
नेकी और तक़वा में एक दूसरे की मदद करो।
(सूर ए मायदा आयत 2)
और अल्लाह के रसूल (अ) के इस क़ौल की पाबंदी करते हुए:
1.
(मुसनदे अहमद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 215)
मुसलमान आपस में एक दूसरे के लिये एक हाथ की तरह हैं।
या आपका यह क़ौल उन के लिये मशअले राह है:
2.
मुसलमान सब आपस में एक जिस्म की तरह हैं।
(अस सहीहुल बुख़ारी, जिल्द 1 किताबुल अदब पेज 27)
4. पूरी तारीख़े इस्लाम में दीने ख़ुदा और इस्लामी उम्मत के देफ़ाअ के सिलसिले में इस फ़िरक़े का एक अहम और वाज़ेह किरदार रहा है जैसे उसकी हुकुमतों, रियासतों ने इस्लामी सक़ाफ़त व तमद्दुन की हमेशा ख़िदमत की है, नीज़ इस फ़िरक़े के उलामा और दानिशवरों ने इस्लामी मीरास को ग़नी बनाने और बचाने के सिलसिले में मुख़्तलिफ़ इल्मी और तजरूबी मैदानों में जैसे हदीस, तफ़सीर, अक़ायद, फ़िक़ह, उसूल, अख़लाक़, देराया, रेजाल, फ़लसफ़ा, मौऐज़ा, हुकुमत, समाजियात, ज़बान व अदब बल्कि तिब व फ़िज़िक्स किमीया, रियाज़ियात, नुजूम और उसके अलावा बहुत हयातियाती उलूम के बारे में लाख़ों किताबें तहरीर करके इस सिलसिले में बहुत अहम किरदार अदा किया है बल्कि बहुत से उलूम की बुनियाद रखने वाले उलामा इसी फ़िरक़े से ताअल्लुक़ रखते हैं। [1]
5. शिया फ़िरक़ा मोअतक़ीद है कि ख़ुदा अहद व समद है, न उसने किसी को जना है और न उसे किसी ने जन्म दिया है और न ही कोई उसका हमसर है और उससे जिस्मानियत, जेहत, मकान, ज़मान, तग़य्युर, हरकत, सऊद व नुज़ूल वग़ैरह जैसी सिफ़तें जो उसकी सिफ़ाते कमाल व जलाल व जमाल के शायाने शान नही हैं, उनकी नफ़ी करता है।
और शिया यह अक़ीदा रखते हैं कि उसके अलावा कोई मअबूद नही, हुक्म और तशरीअ (शरीयत के क़ानून बनाना) सिर्फ़ उसी के हाथ में है और हर तरह का शिर्क चाहे वह ख़फ़ी हो या जली एक अज़ीम ज़ुल्म और न बख़्शा जाने वाला गुनाह है।
और शियों ने यह अक़ायद: अक़्ले मोहकम (सालिम) से अख़्ज़ किये है, जिनकी ताईद व तसदीक़ किताबे ख़ुदा और सुन्नते शरीफ़ा से भी होती है।
और शियों ने अपने अक़ायद के मैदान में उन हदीसों पर तकिया नही किया है जिन में इसराईलियात (जाली तौरेत और इंजील) और मजूसीयत की घड़ी हुई बातों की आमेज़िश है, जिन्होने अल्लाह तआला को इंसान की तरह माना है और वह उसकी तशबीह मख़लूक़ से देते हैं या फ़िर उसकी तरफ़ ज़ुल्म व जौर और लग़व व अबस जैसे अफ़आल की निस्बत देते हैं, हालाँकि अल्लाह तआला उन तमाम बातों से निहायत बुलंद व बरतर है या यह लोग ख़ुदा के पाक व पाक़ीज़ा मासूम नबियों की तरफ़ बुराईयों और कबीह बातों की निस्बत देते हैं।
6. शिया अक़ीदा रखते हैं कि ख़ुदा आदिल व हकीम है और उसने अदल व हिकमत से ख़ल्क़ किया है, चाहे वह जमाद हो या नबात, हैवान हो या इंसान, आसमान हो या ज़मीन, उसने कोई शय अबस नही ख़ल्क़ की है, क्योकि अबस (फ़ुज़ूल या बेकार होना) न तंहा उसके अदल व हिकमत के मनाफ़ी है बल्कि उसकी उलूहीयत से भी मनाफ़ी है जिसका लाज़िमा है कि खु़दा वंदे आलम के लिये तमाम कमालात का इस्बात किया जाये और उससे हर क़िस्म के नक़्स और कमी नफ़ी की जाये।
7. शिया यह अक़ीदा रखते हैं कि ख़ुदा वंदे आलम ने अदल व हिकमत के साथ इब्तेदाए ख़िलक़त से ही उसकी तरफ़ अंबिया और रसूलों को मासूम बना कर भेजा और फिर उन्हे वसीअ इल्म से आरास्ता किया जो वही के ज़रिये अल्लाह की जानिब से उन्हे अता किया गया और यह सब कुछ बनी आदम की हिदायत और उसे उसके गुमशुदा कमाल तक पहुचाने के लिये था ता कि उसके ज़रिये से ऐसी ताअत की तरफ़ भी उसकी रहनुमाई हो जाये जो उसे जन्नती बनाने के साथ साथ परवरदिगार की ख़ुशनूदी और उसकी रहमत का मुसतहिक़ क़रार दे और उन अंबिया व मुरसलीन के दरमियान आदम, नूह, इब्राहीम, मूसा, ईसा और हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) सबसे मशहूर हैं जिनका ज़िक्र क़ुरआने मजीद में आया है या जिन के असमा और हालात हदीसों में बयान हुए हैं।
8. शियों का अक़ीदा है कि जो अल्लाह की इताअत करे, उसके अवामिर को नाफ़िज़ करे और ज़िन्दगी के हर शोअबे में उसके क़वानीन पर अमल करे वह निजात याफ़ता और कामयाब है और वही मदह व सवाब का हक़दार है, चाहे वह हबशी ग़ुलाम ही क्यो न हो और जिसने अल्लाह की नाफ़रमानी की और उसके अवामिर को न पहचाना और अल्लाह के अहकाम के बजाए दूसरों के अहकाम के बंधन में बंध गया, वह मज़म्मत, हलाक शुदा और घाटा उठाने वालों में से है, चाहे वह क़रशी सैयद ही क्यो न हो जैसा कि पैग़म्बरे इस्लाम (स) की हदीसे शरीफ़ में आया है।
शिया अक़ीदा रखते हैं कि सवाब व सज़ा मिलने की जगह क़यामत का दिन है। जिस दिन हिसाब व किताब, मीज़ान व जन्नत व जहन्नम सबके सामने होगें और यह मरहला बरज़ख़ और आलमे क़ब्र के बाद होगा, नीज़ अक़ीद ए तनासुख़ जिसके मुनकेरीने क़यानत क़ायल हैं, उसको शिया बातिल क़रार देते हैं क्योकि अक़ीद ए तनासुख़ से क़ुरआने करीम और हदीसे पाक की तकज़ीब लाज़िम आती है।
9. शिया अक़ीदा रखते हैं कि अंबिया व मुरसलीन की आख़िरी फ़र्द और उन सबसे अफ़ज़ल नबी हज़रत मुहम्मद बिन अबदुल्लाद बिन अब्दुल मुत्तलिब हैं, जिन्हे ख़ुदा वंदे आलम ने हर ख़ता व लग़जिश से महफ़ूज़ रखा और हर गुनाहे सग़ीरा व कबीरा से मासूम क़रार दिया है चाहे वह क़बले नबुव्वत हो या बादे नबुव्वत, तबलीग़ का मरहला हो या कोई और काम हो और उनके ऊपर क़ुरआने करीम नाज़िल किया ता कि वह इंसानी ज़िन्दगी के लिये एक हमेशा बाक़ी रहने वाले क़ानून और दस्तूरुल अमल क़रार पाये। पस रसूले इस्लाम (स) ने रिसालत की तबलीग़ की और अमानत व सदाक़त व इख़लास के साथ लोगों तक पहुचा दिया और इस अहम और क़ीमती रास्ते में हर मुम्किन कोशिश की, शिया हज़रात के यहाँ रसूले इस्लाम की शख़्सियत, आपके ख़ुसूसियात, मोजिज़ात और आपके हालात से मुतअल्लिक़ सैकड़ों किताबें मौजूद हैं।
बतौरे नमूना देखिये: किताब अल इरशाद तालीफ़ शेख मुफ़ीद, आलामुल वरा, आलामुल होदा, तालीफ़ तबरसी, मौसूआ (मोअजम) बिहारुल अनवार, तालीफ़ अल्लामा मजलिसी और मौजूदा दौर की मौसूअतुर रसूलिल मुस्तफ़ा, तालीफ़ मोहसिन ख़ातेमी।
10. शियो का अक़ीदा है कि क़ुरआने करीम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) पर हज़रत जिबरईल (अ) के ज़रिये नाज़िल हुआ, जिसे कुछ बुज़ुर्ग सहाबा ने रसूले इस्लाम (स) के दौर में आपके हुक्म से जमा और मुरत्तब किया। जिन में सरे फ़ेहरिस्त हज़रत अली बिन अबी तालिब (अ) है, इन हज़रात ने बड़ी मेहनत और मशक़्क़त के साथ उसको लफ़्ज़ व लफ़्ज़ याद किया और उसके हुरुफ़ व कलेमात नीज़ सूरह व आयात की तादाद भी मुशख़्ख़स व मुअय्यन कर दी, इस तरह यह एक के बाद दूसरी नस्ल तक मुन्तक़िल होता आ रहा है और आज मुसलमानों के तमाम फ़िरक़े रात व दिन उसकी तिलावत करते हैं, न उसमें कोई ज़ियादती हुई और न ही कोई कमी, यह हर क़िस्म की तहरीफ़ व तबदीली से महफ़ूज़ है, शिया हज़रात के यहाँ इस बारे में भी मुतअद्दिद छोटी और बड़ी किताबें मौजूद हैं। [2]
11. शिया अक़ीदा रखते हैं कि जब हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) की वफ़ात का वक़्त क़रीब हुआ तो आपने हज़रत अली (अ) को तमाम मुसलमानों की रहबरी के लिये अपना ख़लीफ़ा और लोगों के लिये इमाम के तौर पर मंसूब किया ता कि अली (अ) उनकी सियासी क़यादतऔर फ़िक्री रहनुमाई फ़रमाएँ और उनकी मुश्किलों को हल करें, उनके नुफ़ूस का तज़किया करें और उनकी तरबीयत करें और यह सब ख़ुदा के हुक्म से मक़ामे ग़दीरे ख़ुम में रसूल (स) की हयात के आख़िरी दौर और आख़िर हज के बाद, उन मुसलमान हाजियों के दूर तक फैले मजमें अंजाम पाया, जो आपके साथ उसी वक़्त हज करके वापस आ रहे थे, जिनकी तादाद बाज़ रिवायात के मुताबिक़ एक लाख तक पहुचती है और उस मुनासिबत पर कई आयते नाज़िल हुईं। [3]
उसके बाद नबी ए अकरम (स) ने अली (अ) के हाथों पर लोगों से बैअत तलब की, चुनाँचे तमाम लोगों ने बैअत की और उन बैअत करने वालों में सबसे आगे मुहाजेरीन व अंसार के बुज़ुर्ग और मशहूर सहाबा थे मज़ीद तफ़सील के लिये देखिये: किताब अल ग़दीर, जिस में अल्लामा अमीनी ने मुसलमानों के तफ़सीरी और तारीख़ी मसादिर व मआख़िज़ से इस वाक़ेया को नक़्ल किया है।
12. शियों का अक़ीदा है कि चूँकि रसूले अकरम (स) के बाद इमाम की ज़िम्मेदारी वही है जो नबी की होती है जैसे उम्मत की क़यादत व हिदायत, तालीम व तरबीयत, तबयीने अहकाम और उनकी मुश्किलात का हल करना, नीज़ समाजी अहम उमूर का हल करना, लिहाज़ा यह ज़रुरी है कि इमाम और ख़लीफ़ा ऐसा होना चाहिये कि लोग उस पर भरोसा और ऐतेबार करते हों ताकि वह उम्मत तो अम्न व अमान के साहिल तक पहुचा सके, पस इमाम तमाम सलाहियतों और सिफ़ात में नबी जैसा होना चाहिये। जैसे (इस्मत और वसीअ इल्म) क्योकि इमाम के फ़रायज़ भी नबी की तरह होते हैं। अलबत्ता वही और नबुव्वत के अलावा, क्योकि नबुव्वते हज़रते मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह पर ख़त्म हो गई, आप ही ख़ातिमुल अँबिया ए वल मुरसेलीन हैं, नीज़ आपका दीन ख़ातिमुल अदयान और आपकी शरीयत ख़ातिमुश शरीया और किताब ख़ातिमुल कुतुब है, न आपके बाद कोई नबी और न आपके दीन के बाद कोई दीन और इसी तरह न आपकी शरीयत के बाद कोई शरीयत आयेगी। (शियों के पास इस मैदान में भी मुतअद्दिद और मुख़्तलिफ़ ज़ख़ीम, फ़िक्री और इस्तिदलाली किताबों मौजूद हैं।)
13. शियों का अक़ीदा है कि उम्मत को सीधी राह पर चलाने वाले मासूम क़ायद और वली की ज़रुरत इस बात की मुक़तज़ी और तलबगार है कि रसूल के बाद इमामत और ख़िलाफ़त का मंसब सिर्फ़ अली पर ही न ठहर जाये बल्कि क़यादत के इस सिलसिले को तवाल मुद्दत तक क़ायम रहना ज़रुरी है ता कि इस्लाम की जड़ें मज़बूत और उसकी बुनियादें महफ़ूज़ हो जायें और जो ख़तरात उसके उसूल और क़वायद ही को नही बल्कि हर इलाही अक़ीदे और ख़ुदाई निज़ाम के सामने मुँह खोले खड़े हैं उनसे उसको बचाया जा सके और उसके लिये तमाम आईम्मा (मुख़्तलिफ़ और मुतद्दिद दौर में उम्मत की रहबरी करके अपनी सीरत, तजुरबात और महारत का) ऐसा अमली नमूना और प्रोग्राम पेश कर सकें जिस की मदद से तमाम हालात में बाद में चलती रही।
14. शिया अक़ीदा रखते हैं कि नबी ए अकरम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) ने इसी सबब और इसी बुलंद पाया हिकमत की बेना पर अल्लाह के हुक्म की ख़ातिर अली (अ) के बाद गयारह इमाम मुअय्यन फ़रमाये। लिहाज़ा हज़रत अली (अ) को मिला कर कुल बारह इमाम है। जैसा कि उनकी तादाद के बारे में नबी ए अकरम (स) की हदीसों में वज़ाहत के अलावा तज़किरा भी है कि उन सब का ताल्लुक़ क़बील ए क़ुरैश से होगा। जैसा कि सही बुख़ारी व सही मुस्लिम में मुख़्तलिफ़ अल्फ़ाज़ के साथ इस मतलब की तरफ़ इशारा किया गया है। अलबत्ता उन के असमा और ख़ुसूसियात का तज़किरा नही है:
बुख़ारी और मुस्लिम दोनो ने रसूले ख़ुदा (स) रिवायत नक़्ल की है कि आपने फ़रमाया: बेशक दीने इस्लाम उस वक़्त तक ग़ालिब, क़ायम और मज़बूत रहेगा जब तक इस में बारह अमीर या बारह ख़लीफ़ा रहेगें, यह सब क़ुरैश से होगें।
(बाज़ नुस्खों में बनी हाशिम भी आया है और कुतुबे सिहाहे सित्ता के अलावा दूसरी क़ुतुबे फ़ज़ायल व मनाक़िब व शेयर व अदब में उन हज़रात के असमा भी मज़कूर है।)
यह हदीसें अगरचे आईम्म ए इसना अशर (जो कि इमाम अली (अ) और औलादे अली (अ) हैं) के बारे में नस्स नही हैं लेकिन यह तादाद उसी पर मुनतबिक़ होती है जो शिया अक़ीदा रखते हैं और उसकी कोई तफ़सीर नही हो सकती मगर सिर्फ़ वही जो शिया कहते हैं। [4]
15. शियों का जाफ़री फ़िरक़ा यह अक़ीदा रखता है कि आईम्म ए इसना अशर (बारह इमामों) से मुराद हज़रत अली बिन अबी तालिब जो रसूल (स) के चचा ज़ाद भाई और अपकी बेटी फ़ातेमा ज़हरा (स) के शौहर हैं।
और हसन व हुसैन हैं (जो अली व फ़ातेमा के बेटे और रसूले इस्लाम (स) के नवासे हैं।)
ज़ैनुल आबेदीन अली बिन हुसैन (अस सज्जाद)
उसके बाद:
इमाम मुहम्मद बिन अली (अल बाक़िर)
इमाम जाफ़िर बिन मुहम्मद (अस सादिक़)
इमाम मूसा बिन जाफ़र (अल काज़िम)
इमाम अली बिन मूसा (अर रिज़ा)
इमाम मुहम्मद बिन अली (अल जवाद अत तक़ी)
इमाम अली बिन मुहम्मद (अल हादी)
इमाम हसन बिन अली (अल असकरी)
इमाम मुहम्मद बिन हसन (अल महदी अल मौऊद अल मुन्तज़र (अ))[5]
यही वह अहले बैत (अ) है जिन्हे रसूले ख़ुदा (स) ने अल्लाह के हुक्म से इस्लामी उम्मत का क़ायद क़रार दिया, क्योकि यह तमाम ख़ताओं और गुनाहों से पाक और मासूम हैं, यही हज़रात अपने जद के वसीअ इल्म के वारिस हैं, उनकी मवद्दत और पैरवी की हुक्म दिया गया है जैसा कि ख़ुदा ने इरशाद फ़रमाया है:
(सूर ए शूरा आयत 23)
ऐ रसूल, आप कह दीजिये कि मैं तुम से इस तबलीग़े रिसालत का कोई अज्र नही चाहता अलावा इस के कि मेरे अक़रबा से मुहब्बत करो।
(सूर ए तौबा आयत 119)
ऐ ईमानदारों, तक़वा इख़्तियार करो और सच्चों के साथ हो जाओ।
देखिये कुतबे हदीस व तफ़सीर और फ़ज़ायल में फ़रीक़ैन के नज़दीक जो सहीह और दूसरी किताबें हैं।
16. शिया जाफ़री फ़िरक़ा अक़ीदा रखता है कि यह आईम्म ए अतहार वह हैं जिनके दामन पर तारीख़ न कोई ख़ता लिख सकी और न किसी ग़लती को साबित कर सकी, न क़ौल में न अमल में, उन्होने अपने ढेरों उलूम के ज़रिये उम्मते मुस्लिमा की ख़िदमत की है, और अपनी अमीक़ मारेफ़त, सालिम फ़िक्र के ज़रिये अक़ीदा व शरीयत, अख़लाक़ व आदाब, तफ़सीर व तारीख़ और मुस्तक़बिल के लायेह ए अमल को सही जेहत अता की है और हर मैदान में इस्लामी सक़ाफ़त को महफ़ूज़ कर दिया है जैसे उन्होने अपने कौ़ल और अमल के ज़रिये चंद ऐसे मुनफ़रिद और मुमता़ज़, नेक सीरत और पाक किरदार मर्दों और औरतों की तरबीयत की है, जिनके फ़ज़्ल व इल्म और हुस्ने सीरत के सब लोग क़ायल हैं।
और शिया ऐतेक़ाद रखते हैं कि अगर चे (यह बहुत अफ़सोस का मक़ाम है) उम्मते इस्लामिया ने उनको सियासी क़यादत से दूर रखा लेकिन उन्होने फिर भी अक़ायद के उसूलों और शरीयत के क़वायद व अहकाम की हिफ़ाज़त करके अपनी फ़िक्री और समाजी ज़िम्मेदारी को बेहतरीन तरीक़े से अदा किया है।
चुनाँचे मिल्लेत मुस्लिमा अगर उन्हे सियासी क़यादत का मौक़ा देती जिसे रसूले इस्लाम (स) ने ख़ुदा के हुक्म से उन्हे सौपा था तो यक़ीनन इस्लामी उम्मत सआदत व इज़्ज़त और अज़मते कामिला हासिल करती और यह उम्मत मुत्तहिद व मुत्तफ़िक़ व मुतवह्हिद रहती और किसी तरह का शिक़ाक़, इख़्तिलाफ़, नज़ाअ, लड़ाई, झगड़ा, क़ुश्त व कुश्तार और ज़िल्लत व रुसवाई का न देखना पड़ती।
इस सिलसिले में किताब अल इमाम सादिक़ वल मज़ाहिबिल अरबआ की तीन जिल्दें और दूसरी किताबें देखी जा सकती हैं।
17. शिया अक़ीदा रखते हैं कि मज़कूरा वजह और अक़ायद की किताबों में पाई जाने वाली नक़्ली व अक़ली कसीर दलीलों की बेना पर अहले बैत (अ) की पैरवी वाजिब है और उनके रास्ते और तरीक़े को अपनाना ज़रुरी है क्योकि उन्ही का तरीक़ा वह तरीक़ा है जिसे उम्मते के लिये रसूल (स) ने मुअय्यन फ़रमाया और उन से तमस्सुक का हदीसे सक़लैन (जो मुतवातिर है) हुक्म देती है जैसा कि रसूले ख़ुदा (स) ने इरशाद फ़रमाया है:
जिसे सही मुस्लिम और दीगर दसियों मुस्लिम उलामा व मुहद्देसीन ने हर सदी में नक़्ल किया है। देखिये, रिसाल ए हदीसे सक़लैन (मुवल्लेफ़ा वशनवी) जिसकी तसदीक़ अज़हर शरीफ़ ने तीस साल पहले की थी।
और गुज़श्ता अंबिया की हयात में भी ख़लीफ़ा और वसी बनाने का यही तरीक़ा था।
देखिये, इसबातुल वसीया, मुवल्लेफ़ा मसऊदी और फ़रीक़ैन की दीगर कुतुबे हदीस व तफ़सीर व तारीख़।
18. जाफ़री शिया अक़ीदा रखते हैं कि उम्मते इस्लामिया (अल्लाह उसको अज़ीज़ रखे) पर यह वाजिब है कि वह उन उमूर में तहक़ीक़ और बहस व मुबाहिसा करे लेकिन किसी पर सब्ब व शत्म, इल्ज़ाम व तोहमत और किसी को डराये और धमकाये बिना और तमाम इस्लामी फ़िरक़ों के उलामा व मुफ़क्केरीन पर लाज़िम है कि वह इल्मी इजतेमा शिरकत करें और सफ़ा व इख़लास के साथ गुफ़तुगू करें और अपने शिया मुसलमान भाईयों के उन नज़रियात पर ग़ौर व ख़ौज़ करे जिन पर वह क़ुरआन, सही मुतवातिर सुन्नत, तारीख़ी मुहासिबा (दलीलों) और रसूल और आँ हज़रत (स) के बाद के सियासी व समाजी के मुताबिक़ इस्तिदलाल पेश करते हैं।
19. और शिया अक़ीदा रखते हैं कि सहाबा और जो लोग रसूल (स) के साथ थे चाहे वह औरत हों या मर्द, उन्होने इस्लाम की बड़ी ख़िदमत की है, नशरे इस्लाम की राह में अपनी जान व माल की क़ुर्बानी दी है लिहाज़ा तमाम मुसलमानों पर वाजिब है कि उन का ऐहतेराम करें और उनकी गराँ क़द्र ख़िदमात का ऐतेराफ़ करें।
लेकिन उसका मतलब यह भी नही कि तमाम सहाबा (बतौरे मुतलक़) आदिल थे और उनके बाज़ आमाल व नज़रियात, तंक़ीद और ऐतेराज़ से मा फ़ौक़ हैं क्योकि सहाबा भी बशर हैं और उनसे भी ग़लती और भूल चूक होती है, चुनाँचे तारीख़ में यह बात मौजूद है कि उन में बाज़ हज़रात राहे मुस्तक़ीम से दूर हो गये थे, यहाँ तक कि कुछ लोग ख़ुद आँ हज़रत (स) के दौर में ही आपके रास्ते से दूर हो गये बल्कि क़ुरआने मजीद ने अपनी बाज़ आयतों और सूरों में जैसे सूर ए मुनाफ़ेकून, अहज़ाब, हुजरात, तहरीम, फ़त्ह, मुहम्मद और तौबा में इस बात की तसरीह की है।
लिहाज़ा बाज़ सहाबा हज़रात के आमाल पर जायज़ और मुहज़्ज़ब अंदाज़ में तंक़ीद करना हरगिज़ा कुफ़्र का सबब नही क़रार पा सकतास क्योकि कुफ़्र व ईमान का मेयार वाज़ेह है और उन दोनो का महवर व मर्कज़ रौशन है और वह तौहीद व रिसालत और ज़रुरियाते दीन जैसे वुजूबे नमाज़, रोज़ा, हज, शराब और जुए का हराम होना जैसी चीज़ों को मानना और उसका इंक़ार करना है, अलबत्ता क़लम और ज़बान को बदतमीज़ी और भोन्डी बातों से महफ़ूज़ रखना ज़रुरी है, क्योकि यह बातें एक मुहज़्ज़ब मुसलमान जो सीरते ख़ातिमुन नबी हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स) पर अमल पैरा है उस के लिये ज़ेब नही देती, बहरहाल इसके वाबजूद अकसर सहाबा सालेह और मुसलेह थे, जो लायक़े ऐहतेराम और मुसतहिक़्क़े इकराम हैं।
लेकिन इसके बावजूद सहाबा को जरह व तादील (आदिल या ग़ैर आदिल साबित करने) के क़वायद पर इस लिये तौला जाता है ताकि सही और क़ाबिले ऐतेमाद सुन्नत से वाक़िफ़ियत हासिल हो जाये, क्योकि हम जानते हैं कि रसूले ख़ुदा (स) के जाने के बाद आपकी तरफ़ बहुत ज़्यादा क़िज़्ब व बोहतान मंसूब है। (जैसा कि यह बात तमाम लोग जानते हैं और ख़ुद रसूल (स) ने इस बात की वाक़े होने की ख़बर भी दी थी) और इस बात के बारे में दोनो तरफ़ के उलामा हज़रात ने भी अहम किताबें लिखी हैं जैसे सुयूती और इब्ने जौज़ी वग़ैरह, ताकि वह हदीसें जो वाक़ेयन रसूले ख़ुदा (स) से सादिर हुई हैं उनके दरमियान और जो हदीसें गढ़ कर आपकी तरफ़ मंसूब की गई हैं उनके दरमियान इम्तियाज़ पैदा हो सके।
20. शिया, इमाम महदी मुन्तज़र (स) के वुजूद का अक़ीदा रखते हैं, क्यो कि इस बारे में कसीर रिवायात रसूले इस्लाम (स) से नक़्ल हुई हैं कि वह औलादे फ़ातेमा (अ) से होगें और इमाम हुसैन (अ) के नवें बेटे हैं, क्योकि इमाम हुसैन (अ) के आठवे बेटे (आठवी पुश्त) इमाम हसन असकरी (अ) हैं जिन की वफ़ात 260 हिजरी में हुई और आपको खु़दा ने सिर्फ़ एक बेटा इनायत किया था जिसका नाम मुहम्मद था चुनाँचे आप ही इमाम मेहदी (अ) हैं जिनकी कुनियत अबुल क़ासिम है। [6]
आपको मोवस्सक़ मुसलमानों को देखा है और आपकी विलादत, ख़ुसूसियात और इमामत नीज़ आपकी इमामत पर आप के वालिद की तरफ़ से नस्स की ख़बर दी है, आप अपनी विलादत के पाँच साल बाद लोगों की नज़रों से ग़ायब हो गये, क्योकि दुश्मनों ने आपको क़त्ल करने का इरादा कर लिया था लेकिन ख़ुदा वंदे आलम ने आपको इसलिये बचा कर रखा है ता कि आख़िरी ज़माने में अदल व इंसाफ़ पर मबनी इस्लामी हुकूमत क़ायम करें और ज़मीन को ज़ुल्म व फ़साद से पाक करे दें, जो कि ज़ुल्म व जौर से भरी होगी।
और यह कोई अज़ीब व ग़रीब बात नही है कि आपकी उम्र इस क़दर तूलानी कैसी होगी? क्योकि क़ुरआने मजीद इस वक़्त भी हज़रते ईसा (अ) के ज़िन्दा होने की ख़बर दे रहा है, जबकि उनकी विलादत को 2008 साल हो चुके हैं, इसी तरह हज़रते नूह (अ) अपनी क़ौंम में 950 साल ज़िन्दा रहे और अपनी क़ौम को अल्लाह की तरफ़ दावत देते रहे और हज़रते ख़िज़्र (अ) भी अभी तक ज़िन्दा है क्योकि अल्लाह तआला हर शय पर क़ादिर है, उसकी मशीयत पूरी होने वाली है, जिसे कोई टाल नही सकता। क्या उसने हज़रत युनुस (अ) के बारे में यह नही फ़रमाया कि
(सूर ए साफ़्फ़ात आयत 143, 144)
अगर वह तसबीह करने वालों में से न होते तो रोज़े क़यामत तक उसी के पेट में रह जाते।
चुनाँचे अहले सुन्नत के अकसर बुज़ुर्ग और जलीलुल क़द्र उलामा इमाम मेहदी (अ) की विलादत और उनके वुजूद के क़ायल हैं और उन्होने उनके औसाफ़ व वालेदैन के नाम का ज़िक्र किया है जैसे
अ. अब्दिल मोमिन शबलन्जी अपनी किताब नुरुल अबसार फ़ी मनाक़िबे आले बैतिन नबीयिल मुख़्तार में।
आ. इब्ने हजर हैसमी मक्की शाफ़ेई ने अपनी किताब अस सवाएक़े मोहरेक़ा में कहते हैं अबुल क़ासिम मुहम्मह अल हुज्जह की उम्र उनके वालिद की वफ़ात के वक़्त पाँच साल की था कि लेकिन ख़ुदा ने इसी सिन में आपको हिकमत अता की और उनका नाम क़ायम मुन्तज़र है।
इ. क़ंदूज़ी हनफ़ी बलख़ी ने अपनी किताब यनाबिउल मवद्दत में इसका तज़िकरा किया है जो दौराने ख़िलाफ़ते उस्मानिया तुर्की में (आस्ताना) से छपी है।
ई. सैयद मुहम्मद सदीक़ हसन कंनौजी बुख़ारी ने अपनी किताब अल एज़ाआ लेमा काना वमा यकूनो बैना यदेईस साआ में इसे लिखा है।
यह हैं मुतक़द्देमीने उलामा के अक़वाल और मुतअख़्ख़ेरीन में से डाक्टर मुस्तफ़ा राफ़ेई ने अपनी किताब इस्लामुना में लिखा है, चुनाँचे जब उन्होने मसअल ए विलादत की बहस की है कि तो बड़ी तूल व तफ़सील के साथ बहस की है और इस बारे में उन तमाम ऐतेराज़ात और शुबहात के जवाब दिये हैं जो इस मक़ाम पर ज़िक्र किये जाते हैं।
21. जाफिर फ़िरक़े वाले लोग नमाज़ पढ़ते हैं, रोज़ा रखते हैं और अपने माल में से ज़कात व ख़ुम्स अदा करते हैं और मक्क ए मुकर्रमा जा कर एक बार बतौरे वाज़िब हज्जे बैतुलल्लाहिल हराम करते हैं और इसके अलावा भी मुसतहब हज्ज व उमरा अदा करते रहते हैं और नेकियों की तरफ़ दावत देते हैं और बुराईयों से रोकते हैं, और अवलिया ए ख़ुदा व रसूल से मुहब्बत करते हैं और ख़ुदा व रसूल के दुश्मनों से दुश्मनी करते हैं और अल्लाह की राह में हर उस काफ़िर व मुशरिक से जिहाद करते हैं जो इस्लाम के ख़िलाफ़ ऐलाने जंग करता हो और उस हाकिम से जंग करते हैं, जो क़हर व ग़लबे के ज़रिये उम्मते मुसलिमा पर मुसल्लत हो गया हो और दीने इस्लाम (जो दीने हनीफ़ और हक़ है) की मुवाफ़िक़त करते हुए तमाम इक़्तेसादा, समाजी और घरेलू कामों और मशग़लों में मसरुफ़ रहते हैं, जैसे तिजारत, इजारा, निकाह, तलाक़, मीरास, तरबीयत व परवरिश, रज़ाअत और हिजाब वगै़रह और इस सब चीज़ों के अहकाम को इज्तेहाज के ज़रिये हासिल करते हैं, जिन्हे मुत्तक़ी और परहेज़गार उलामा, किताब, सही सुन्नत और अहले बैत साबित शुदा हदीसों और अक़्ल व इजमा के ज़रिये इस्तिम्बात करते हैं।
22. और शिया अक़ीदा रखते हैं कि तमाम यौमिया फ़रायज़ के अवक़ात मुअय्यन हैं, और यौमिया नमाज़ के लिये पाँच वक़्त हैं, फ़ज्र, ज़ोहर, अस्र, मग़रिब और एशा और अफ़ज़ल यह है कि हर नमाज़ को उसके मख़सूस वक़्त में अंजाम दिया जाये, मगर यह कि नमाज़े ज़ोहर व अस्र और नमाज़े मग़रिब व एशा को जमा करके पढ़ा जा सकता है, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) ने किसी उज़्र, मरज़, बारिश और सफ़र के बग़ैर इन दो नमाज़ों को एक साथ पढ़ा था, जैसा कि सही मुस्लिम वग़ैरह में नक़्ल हुआ है, और यह उम्मते मुस्लिमा की सहूलत के लिये किया गया है, ख़ास तौर से हमारे ज़माने में एक फ़ितरी और आम बात है।
23. शिया भी दूसरे मुसलमानों की तरह अज़ान देते हैं, अलबत्ता जब जुमल ए हय्या अलल फ़लाह आता है तो उसके बाद हय्या अला खै़रिल अमल भी पढ़ते हैं, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) के दौर में यह हिस्सा आज़ान में कहा जाता था लेकिन बाद में हज़रत उमर ने अपने इज्तेहाद की बेना पर यह इल्लत बताते हुए कि चूँकि इससे मुसलमान जिहाद करने से रुक जायेगें उसको अज़ान से हज़्फ़ कर दिया, उनका कहना था कि मुसलमान इससे यह समझ बैठेगें कि नमाज़ ही बेहतरीने अमल है लिहाज़ा जिहाद की तरफ़ फिर कोई रग़बत नही करेगा, इस लिये इसे अज़ान में हज़्फ़ कर दिया जाये तो बेहतर है। जैसा कि अल्लामा क़ौशजी अशअरी ने अपनी किताब शरहे तजरीदुल ऐतेक़ाद में और अल मुन्सिफ़ में, कंदी, कंजुल उम्माल में मुत्तक़ी हिन्दी वग़ैरह ने इसे नक़्ल किया है इस के अलावा उमर ने एक और जुमले का इज़ाफ़ा कर दिया। अस सलातों ख़ैरुन मिन नौम, जबकि यह जुमला रसूले इस्लाम (स) के ज़माने में नही था। देखिये, कुतुबे हदीस व तारीख़। जबकि इबादत और उसके मुक़द्दमात इस्लाम में शारेअ के अम्र और उसके इज़्म पर मौक़ूफ़ हैं यानी शरीयत में हर अमल के लिये क़ुरआन और सुन्नत से नस्से ख़ास या नस्से आम मौजूद हो, और अगर किसी अमल की नस्स न हो तो वह अमल मरदुद और बिदअत हैं जिसे उसके अंजाम देने वाले के मुँह पर मार दिया जायेगा, क्योकि इबादत में किसी चीज़ की ज़ियादती या कमी मुमकिन नही है, बल्कि तमाम शरई उमूर में किसी की ज़ाती राय का कोई दख़ल नही है, अलबत्ता शिया हज़रात जो अशहदो अन्ना मुहम्मदर रसूलुल्लाह के बाद अशहदो अन्ना अलीयन वलीयुल्लाह कहते हैं तो यह उन रिवायात की बेना पर है जो रसूले ख़ुदा (स) और अहले बैत (अ) से नक़्ल की गई हैं, और उनमें यह तसरीह मौजूद है कि मुहम्मद रसूलुल्लाह कहीं ज़िक्र नही हुआ या बाबे जन्नत पर नही लिखा गया मगर उसके साथ अली वलीयुल्लाह ज़रुर था और यह जुमला इस बात की अक्कासी करता है कि शिया अली (अ) को नबी भी नबी समझते चे जाय कि वह आपकी रुबूबियत या उलूहीयत का अल अयाज़ो बिल्लाह अक़ीदा रखते हों, लिहाज़ा तौहीद व रिसालत की शहादत के बाद तीसरी शहादत (अलीयन वलीयुल्लाह) कहना जायज़ है इस उम्मीद में कि यह भी मतलूबे परवरदिगार हो। अलबत्ता इसको ज़ुज़ और वुजूब के क़स्द से अंजाम न दे, यही शियों के अकसर उलामा का फ़तवा है।
लिहाज़ा यह ज़ियादती बग़ैर क़स्दे ज़ुज़ईयत के अंजाम दी जायेगी, जैसा कि हमने कहा है लिहाज़ा यह ऐसा नही है कि शरअ में उसकी कोई अस्ल न हो, इसलिये यह बिदअत है।
24. और शिया जमीन या मिट्टी या कंकड़ के टुकड़ों और पेड़ पौधों वग़ैरह पर सजदा करते हैं और दरी, क़ालीन या चादर कपड़े और खाई जाने वाली चीज़ों और ज़ेवरात पर सजदा नही होता, क्योकि इस सिलसिले में बड़ी तादाद में शिया व सुन्नती किताबों में हदीसें मौजूद हैं, क्योकि रसूले ख़ुदा (स) का तरीक़ा यह था कि आप मिट्टी और ज़मीन पर सजदा करते थे बल्कि आप मुसलमानों को भी यही हुक्म देते थे, चुनाँचे एक दिन जनाबे बेलाल ने अपने अम्मामे की कोर पर जला देने वाली गर्मी से बचने की बेना पर सजदा किया तो रसूल इस्लाम (स) ने बेलाल के अम्मामे को पेशानी से अलग कर दिया और फ़रमाया:
ऐ बेलाल, अपनी पेशानी को ज़मीन पर रखो।
इसी तरह की हदीस सुहैब और रबाह के बारे में नक़्ल की गई है, जब आपने फ़रमाया:
ऐ सुहैब और ऐ रबाह अपनी पेशानी को ज़मीन पर रखो।
देखिये, सही बुखारी व कंज़ुल उम्माल या अल मुसन्नफ़, तालीफ़ अब्दुल रज़्ज़ाक़ अस सनआनी, या अस सुजूद अलल अर्ज़, तालीफ़ काशिफ़ुल ग़िता।
और नबी ए अकरम (स) ने उस जगह यह इरशाद फ़रमाया (जैसा कि सही बुख़ारी वग़ैरह में आया है)
मेरे लिये ज़मीन को मस्जिद और ताहिर व मुतह्हर बनाया गया है।
और फिर मिट्टी पर सजदा करना और पेशानी को ज़मीन पर रखना यही ख़ुदा के सामने सजदा करने का सबसे मुनासिब तरीक़ा है, क्योकि मअबूद के सामने यही ख़ुशू और ख़ुज़ू का सब से अच्छा तरीक़ा है, इसी तरह ख़ाक पर सजदा करना इंसान को उसकी असल्म हक़ीक़त की याद दिलाता है कि वह उसी से पैदा हुआ है, क्या ख़ुदा वंदे आलम ने नही फ़रमाया:
(सूरए ताहा आयत 55)
इसी ज़मीन से हमने तुम्हे पैदा किया है और इसी में पलटा कर ले जायेगें और फिर दोबारा उसी में से निकालेगें।
बेशक सजदा ख़ुज़ू की आख़िरी हद का नाम है और ख़ुशू की आख़िरी मंज़िल मुसल्ले (जानमाज़) फ़र्श, कपड़े और क़ीमती जवाहर पर सजदा करके हासिल नही होती, बल्कि बदल की अशरफ़ तरीन जगह यानी पेशानी को पस्त तरीन जगह यानी मिट्टी पर रखे। [7]
अलबत्ता उस मिट्टी को पाक होना चाहिये, उसी तहारत की ताकीद की बेना पर शिया लोग अपने साथ मिट्टी का ढेला (यानी सजदा गाह वग़ैरह) रखते हैं और बाज़ अवका़त यह मिट्टी तबर्रुक के तौर पर मुक़द्दस तरीन जगह से लेते हैं जैसे ज़मीने कर्बला, जिस में फ़रज़ंदे रसूल हजरत इमाम हुसैन (अ) शहीद कर दिये गये, जैसा कि बाज़ सहाबा मक्के के कंकड़ और पत्थर वग़ैरह को सफ़र में सजदे के लिये अपने साथ रखते थे। [8]
अलबत्ता शिया इस पर इसरार नही करते हैं और न ही इस चीज़ पर हमेशा ज़रुरी समझते हैं बल्कि वह हर पाक मिट्टी और पत्थर के ऊपर बिना किसी इशकाल और तरद्दुद के सजदा करते हैं, जैसे मस्जिदे नबवी और मस्जिदुल हराम के फ़र्श और वहाँ पर लगे हुए पत्थर।
इसी तरह शिया नमाज़ में अपने दाहिने हाथ को बाये हाथ पर नही रखते। (हाथ नही बाँधते) क्योकि रसूले इस्लाम (स) ने नमाज़ में यह काम अंजाम नही दिया और यह बात क़तई नस्से सरीह से साबित नही है, यही वजह है कि सुन्नी मालिकी हज़रात भी यह फ़ेल अंजाम नही देते। [9]
25. शिया फ़िरक़ा वुज़ू में दोनो हाथों को ऊपर की तरफ़ से कोहनियों से उँगलियों के सिरे तक धोते हैं और उसके बर ख़िलाफ़ नही करते क्योकि यह तरीक़ा उन्होने अपने इमामों से लिया है और उन्होने उसको अल्लाह के रसूल (स) से लिया है और अहले बैत (अ) अपने जद की बातों को दूसरों से ज़्यादा और बेहतर तरीक़े से जानते हैं कि उनके जद यह काम कैसे किया करते थे, जैसा कि रसूले ख़ुदा (स) भी इसी तरह अंजाम देते थे और उन्होने आयते वुज़ू की यह तफ़सीर की है कि इला आयते वुज़ू में (सूर ए मायदा आयत 6) [10] मअ के मायने में आया है जैसा कि शाफ़ेई सग़ीर ने अपनी किताब निहायतुल मोहताज में यही ज़िक्र किया है इसी तरह यह लोग अपने पैरों और सर को धोने के बजाए उनका मस्ह करते हैं, जिसका सबब हमने ऊपर ज़िक्र किया है और यही तरीक़ा इब्ने अब्बास का था जैसा कि उन्होने कहा है
वुज़ू सिर्फ़ दो चीज़ों के धोने और दो चीज़ों के मस्ह करने का नाम है।
(देखिये, सुनन, मसानीद, तफ़सीरे फ़खरे राज़ी आयते वुज़ू के ज़ैल में)
26. शिया कहते है कि मुतआ (वक़्ती शादी) करना नस्से क़ुरआनी की बेना पर जायज़ है क्योकि ख़ुदा वंदे आलम का इरशाद है:
(सूर ए निसा आयत 24)
पस जो भी उन औरतों से लज़्ज़त हासिल करे उसकी उजरत उन्हे बतौरे फ़रीज़ा अदा करे।
यही वजह है कि तमाम मुसलमान रसूल (स) के ज़माने में मुतआ करते थे और तमाम सहाबा अहदे ख़िलाफ़ते उमर के निस्फ़ दौर तक मुतआ करते थे।
क्योकि मुतआ भी शरई शादी है जो दायमी शादी में नीचे बयान किये जाने वाले अहकाम में मुश्तरक है:
1. मुतआ में भी औरत शौहर वाली नही होनी चाहिये और सिग़ों को उसी तरह से पढ़ना ज़रुरी है कि ईजाब औरत की तरफ़ से और क़बूल मर्द की तरफ़ से हो।
2. दायमी शादी की तरह मुतआ में भी औरत को कुछ माल देना ज़रूरी है जिसे दायमी शादी में मेहर कहते हैं और मुतआ में अज्र कहते हैं जैसा कि क़ुरआनी नस्स के मुताबिक़ हमने ऊपर ज़िक्र किया है।
3. दायमी शादी की तरह मुतआ में भी मर्द से जुदा होने की सूरत में औरत पर इद्दा गुज़ारना ज़रुरी है।
4. मुतआ में भी मुफ़ारेक़त के बाद औरत पर दायमी निकाह की तरह इद्दा ज़रुरी है। इसी तरह मुतआ से पैदा होने वाली औलाद भी दायमी शादी की तरह मुतआ करने वाले शख़्स की औलाद होगी और मुतआ में भी दायमी निकाह की तरह औरत एक मर्द से ज़्यादा से एक वक़्त में मुतआ नही कर सकती।
5. मुतआ में दायमी निकाह की तरह बाप और औलाद और औलाद और माँ को एक दूसरे की मीरास मिलेगी।
मुतआ और शादी का फ़र्क़ नीचे बयान किया जा रहा है:
1. मुतआ में मुद्दत होती है, जबकि शादी में मुद्दत नही होती।
2. मुतआ वाली औरत का नफ़क़ा मर्द पर वाजिब नही है और औरत मर्द की मीरास नही पायेगी।
3. मुतआ करने वाले मर्द और औरत के दरमियान मीरास नही होती।
4. मुतआ में तलाक़ की ज़रूरत नही होती बल्कि मुद्दत ख़त्म हो जाने के बाद या दोनो के इत्तेफ़ाक़ से मुद्दत बख़शने के बाद ख़ुद व ख़ुद जुदाई हो जाती है।
इस तरह की शादी का क़ानून होने की चंद हिकमतें हैं:
1. जायज़ और मशरुत तरीक़े से औरत व मर्द की जिन्सी ज़रुरत का रास्ता फ़राहम करना है ताकि जो लोग बाज़ असबाब की बेना पर दायमी शादी नही कर सकते या जो लोग बीवी के मरने के बाद या किसी और सबब की बेना पर औरत से महरुम हो चुके हैं या औरत उन असबाब की बेना पर मर्द से महरुम हो गई हो और यह लोग ज़िन्दगी को शराफ़त और राहत के साथ गुज़ारना चाहते हों तो मुतआ उन के लिये आसान रास्ता है।
2. मुतआ दर अस्ल समाजी मुश्किलात को हल करने के लिये तशरीअ किया गया है ता कि इस्लामी समाज अख़लाक़ी बुराईयों में मुबतला न हो पाये।
कभी इस मुतआ के ज़रिये इंसान शादी से पहले जायज़ तरीक़े से एक दूसरे को अच्छी तरह से पहचान सकता है, (जो मुमकिन है आईन्दा के लिये मुफ़ीद और नतीजा बख़्श हो) और उसके बाद इंसान फ़ेअले हराम में मुबतला होने से महफ़ूज़ रहता है, इसी तरह ज़ेना, जिन्सी दबाव और रुसवाई या दूसरे हराम उमूर में मुबतला न हो। जैसा मुश्त ज़नी, क्योकि जो एक बीवी पर सब्र नही कर सकता या इक़्तेसादी और माली मुश्किल की बेना पर या एक से ज़्यादा औरतों का ख़र्चा नही चला सकता वग़ैरह वग़ैरह और वह हराम काम भी नही करना चाहता हो तो उसके लिये यह रास्ता आसान है।
बहरहाल यह शादी भी क़ुरआन और हदीस से मुसतनद है और सहाबा ने एक दूसरे पर एक ज़माने तक अमल किया है, चुनाचे अगर यह शादी ज़ेना शुमार की जाये तो उसका मतलब यह हुआ कि ख़ुदा, रसूल और सहाबा ने ज़ेना को हलाल समझा और उसके अंजाम देने वाले एक ज़माने तक ज़ेना करते रहे। अल अयाज़ो बिल्लाह।
मज़ीद यह कि इस हुक़्म का नख़्स होना भी मालूम नही है, क्योकि इस का नस्ख़ होना किताब व सुन्नत से साबित नही है और न कोई क़तई व सरीह दलील इस पर मौजूद है। [11]
बहरहाल शिया इमामिया इस शादी को नस्से क़ुरआन और सुन्नते रसूल (स) की बेना पर हलाल समझते हैं लेकिन दायमी शादी और घर आबाद करने को तरजीह देते हैं, क्योकि ऐसी शादी क़वी और सालिम समाज की बुनियाद और असास है और वक़्ती शादी की तरफ़ ज़्यादा रग़बत नही रखते जिसे शरीयत में मुतआ कहते हैं, अगरचे (जैसा कि हमने पहले कहा कि) यह हलाल और जायज़ हैं।
और इस मक़ाम पर यह ज़िक्र कर देना भी मुनासिब है कि शिया इमामिया (किताब व सुन्नत और तालीम आईम्म ए अहले बैत (अ) पर अमल पैरा होने की बेना पर) औरत के हुक़ूक़ का ऐहतेराम करते हैं और उन्हे बड़ी अहमियत देते हैं और औरत के मक़ाम व मर्तबा, उनके हुक़ूक़ बिल ख़ुलूस उन के साथ ख़ुश अख़लाक़ी से पेश आने पर मिल्कियत, निकाह, तलाक़, गोद लेने और परवरिश करने, दूध पिलाने जैसे मसायल के साथ साथ, इबादात व मामलात के लिये निहायत आला अहकाम, जो उन के आईम्मा से नक़्ल हुए वह सब उन की फ़िक़ह में पाये जाते हैं।
27. शिया जाफ़री फ़िरक़े ज़ेना, लवात, सूद ख़ोरी, नफ़्से मोहतरमा का क़त्ल, शराब नोशी, जुवा, बलवा व बग़ावत, मक्र व फ़रेब बाज़ी, धोखाधड़ी, ज़खीरा अंदोज़ी, नाप तोल में कमी करना, ग़स्ब, चोरी, ख़ियानत, कीनह व खोट, रक़्स व ग़ेना, इत्तेहाम, बोहतान, चुग़लख़ोरी, फ़साद फ़ैलाना, मोमिन को अज़ीयत देना, ग़ीबत करना, गाली गलौज, झूठ व इल्ज़ाम और उनके अलावा तमाम गुनाहाने कबीरा व सग़ीरा को हराम जानते हैं और हमेशा उन गुनाहों से दूर रहते हैं और हत्तल इमकान उन से इजतेनाब करने की कोशिश करते हैं और उनको फैलने से रोकने के लिये हर मुमकिन वसायल बरुये कार लाते हैं जैसे तसनीफ़ व तालीफ़, किताबों की नश्र व इशाअत करना, अख़लाक़ी और तरबीयती रिसाले, मजालिस, इजतेमा और जलसे वग़ैरह क़ायम करना या नमाज़े जुमा के ख़ुतबे और दूसरी चीज़ें वग़ैरह......।
28. अख़लाक़ी फ़ज़ायल और मकारिमे अख़लाक़ को निहायत अहमियत देते हैं और मौएज़ा वग़ैरह से इश्क़ करते हैं और उनके सुनने के लिये दिलचस्बी से हाज़िर होते हैं और उसके लिये अपने घरों, मस्जिदों, पार्कों और मैदानों में जलसे, मजालिस और इजतेमाआत मुनासेबत या ग़ैर मुनासेबत से मुनअक़िद करते हैं. इसी बेना पर अज़ीम फ़वायद व मतालिब पर मुश्तमिल वह दुआएं पढ़ते हैं जो इस सिलसिले में रसूले इस्लाम (स) और अहले बैत इस्मत व तहारत (अ) से नक़्ल हुई है जैसे दुआए कुमैल, दुआए अबू हमज़ा, दुआएं सेमात, दुआएं जौशने कबीर, दुआएं मकारिमे अख़लाक़, दुआएं इफ़तेताह (जो रमज़ान में पढ़ी जाती है) वह उन दुआओं और बुलंद मज़ामीन पर मुश्तमिल मुनाजात को निहायत ख़ुशू व ख़ुज़ू और एक ख़ास गिरया व ज़ारी के साथ पढ़ते हैं, क्योकि यह दुआएँ नफ़्स को पाकीज़ा बनाती है और उन के ज़रिये इंसान अल्लाह से क़रीब होता है।
यह तमाम दुआएँ मौसूअतुल अदईया (मोअजमे अदईया) में जमा की गई हैं, इसी तरह यह कुतुब अदईया में भी मौजूद हैं जो उन के दरमियान रायज हैं।
29. और शिया नबी ए अकरम (स), अहले बैत (अ) और आपकी पाक नस्ल जो जन्नतुल बक़ीअ और मदीन ए मुनलव्वरा में दफ़्न हैं उनकी क़ब्रों का ऐहतेराम करते हैं, जिन में इमाम हसने मुजतबा (अ), इमाम ज़ैनुल आबेदीन (अ), इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ) और इमाम जाफ़र (अ) हैं।
और नजफ़े अशरफ़ में इमामे अली (अ) का मज़ार है और करबला में इमाम हुसैन (अ) और आपके भाई, आपकी औलाद और आपके चचा की औलाद और आपके असहाब व अंसार (जो आप के साथ यौमे आशूरा शहीद हुए थे) के क़ब्रें हैं।
और सामर्रा में इमाम अली नक़ी (अ) और माम हसन असकरी (अ) के रौज़े हैं और काज़मैन में इमाम मुहम्मद तक़ी (अ) और इमाम मूसा काज़िम के रौज़े हैं जो सबके सब इराक़ में हैं और ईरान के शहर मशहद में इमाम अली रज़ा (अ) का रौज़ा है और क़ुम व शीराज़ (ईरान) में उन इमामों के बेटों और बेटियों के रौज़े हैं और दमिश्क़ (सीरिया) में करबला की शेर दिल ख़ातून जनाब सैय्यद ए ज़ैनब (अ) का रौज़ा है और क़ाहिरा (मिस्र) में सैय्यदा नफ़ीसा का रौज़ा है। (यह भी करीम ए अहले बैत (अ) हैं।)
बहरहाल उन तमाम रौज़ों और मज़ारों का ऐहतेराम करना रसूल (स) के पास व लिहाज़ की बेना पर है, क्योकि हर शख़्स अपनी औलाद में बाक़ी और महफ़ूज़ रहता है और किसी की औलाद का ऐहतेराम करना ख़ुद उसका ऐहतेराम करने के बराबर है जैसा कि क़ुरआने करीम ने आले इमरान, आले यासीन, आले इब्राहीम और आले याक़ूब की मदह फ़रमाई है और उनकी क़द्र व मंज़िलत की बुलंद क़रार दिया है हालाँकि उन में से बाज़ नबी भी नही थे।
यह एक नस़्ल है जिस में एक का सिलसिला एक से है।
(सूर ए आले इमरान आयत 34)
इसी लिये क़ुरआने मजीद ने उन पर ऐतेराज़ नही किया, जिन लोगों ने यह कहा था:
(सूर ए कहफ़ आयत 21)
उन्होने कहा कि हम उन पर मस्जिद बनायेगें।
यानी हम असहाबे कहफ़ के रौज़ों पर मस्जिद बनायेगें ता कि उनके पास ख़ुदा की इबादत की जाये और अल्लाह ने उनके अमल को शिर्क नही कहा, क्योकि मुसलमान मोमिन सिर्फ़ अल्लाह ही के लिये रुकू, सजदा और इबादत करता है और वह उन पाक व मुतहहर अवलिया की ज़रीह के क़रीब सिर्फ़ इस लिये जाता है क्योकि उन अवलिया की वजह से वह मकान मुक़द्दस हो गया है जैसे इब्राहीम (अ) की बेना पर मक़ामे इब्राहीम की क़दासत व करामत हासिल है, जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम फ़रमाता है:
और हुक्म दे दिया कि मक़ामे इब्राहीम को मुसल्ला बनाओ।
(सूर ए बक़रह आयत 125)
पस जो शख़्स मक़ामे इब्राहीम के पीछे नमाज़ पढ़े तो वह ऐसा नही है कि वह मक़ामे इब्राहीम की इबादत करता है या जो सफ़ा व मरवा के दरमियान सई करता है वह उन्हे अल्लाह समझ कर नही आया है कि वह उन दोनो पहाड़ों की इबादत कर रहा हो बल्कि यह इस लिये है कि अल्लाह ने उनके अपनी इबादत के लिये मुबारक व मुक़द्दस जगह क़रार दिया है, नतीजतन वह भी आख़िर में अल्लाह की तरफ़ मंसूब हैं बेशक मुअय्यन दिन और जगहें मुक़द्दस हैं जैसे अरफ़े का दिन, मेना व अरफ़ात का मैदान और उनका क़दासत की वजह उनका अल्लाह की तरफ़ मंसूब होना है।
30. इसी सबब की बेना पर शिया भी (दीगर मुसलमानों की तरह) शाने रसूले अकरम (स) व आले रसूल के मुहाफ़िज़ और उसका इदराक करने वाले हैं। अहले बैत (अ) के मुबारक रौज़ों की बड़े ऐहतेमाम से ज़ियारत करते हैं ता कि उससे उन की तकरीम हो और उन से इबरत हासिल करें और उनके साथ अहद को ताज़ा करें और उस अक़दार की मज़ीद पाबंदी करें जिस के लिये उन्होने जिहाद किया और उसी की हिफ़ाज़त के लिये शहीद हो गये, क्योकि उन मशाहिदे मुक़द्देसा की ज़ियारत करने वाले अपने ज़ियारतों में अहले क़ब्र के फ़ज़ायल और उनके जिहाद ही का ज़िक्र करते हैं या उन्होने जो नमाज़ें क़ायम कीं और ज़कात अदा की उसका तज़किरा करते हैं, नीज़ उन्होने उस राह में जो परेशानियाँ और मुसीबतें उठाईं हैं उन को बयान करते हैं जैसा कि रसूले इस्लाम (स) को अपनी मज़लूम नस्ल से जो दिसचस्बी थी उसकी वजह से आपने भी उन का ग़म मनाया है जैसा कि
जनाबे हमज़ा की शहादत पर आँ हज़रत (स) ने फ़रमाया:
हाय हमज़ा पर कोई रोने वाला नही? जैसा कि तारीख़ और सीरत की किताबों में नक़्ल किया गया है।
क्या रसूले ख़ुदा (स) ने अपने अज़ीज़ बेटे इब्राहीम की मौत पर गिरया नही किया? क्या आप बक़ीअ में क़ब्रों की ज़ियारत करने नही जाते थे? क्या आपने यह नही फ़रमाया:
क़ब्रों की ज़ियारत करो क्योकि उनकी ज़ियारत तुम्हे आख़िरत की याद दिलाती है।[12]
बेशक आईम्म ए अहले बैत (अ) की क़ब्रो की ज़ियारत और उनकी सीरते तय्यबा और राहे ख़ुदा में उनके जिहादी कारनामे आईन्दा नस्ल को उन अज़ीम क़ुरबानियों की याद दिलाता है जो उन ज़वाते मुकद्दसा ने इस्लाम व मुसलेमीन के रास्ते में पेश की हैं, उससे उनके अंदर राहे ख़ुदा में शहादत, शुजाअत व जवाँ मर्दी और ईसार व क़ुर्बानी की रुह बेदार होती है।
बेशक यह अमल इंसानियत, तहज़ीब व तमद्दुन और अक़्ल के ऐन मुताबिक़ अमल है, क्योकि उम्मतें अपने बुज़ुर्गों और तहज़ीब व तमद्दुन के बानियों को हमेशा ज़िन्दा रखती हैं और उनसे मरबूत तारीख़ों को बहर सूरत और हर हाल में बाक़ी रखने की कोशिश करती हैं, क्योकि यह उनकी इज़्ज़त और इफ़्तेख़ार का बाइस होती हैं और उनके ज़रिये उम्मतों का रुजहान उनकी अक़दार के बारे में और उनकी अहमियत के बारे में और ज़्यादा होता है।
यही वह चीज़ है जिसे क़ुरआने मजीद ने चाहा है जब उसने अपनी आयात में अंबिया, अवलिया, सालेहीन और उनके हालात का बड़े ऐबतेमाम से साथ तज़किरा किया है।
31. शिया रसूले अकरम (स) औऱ उनकी पाक आल से शिफ़ाअत तलब करते हैं और उनको ख़ुदा की बारगाह में अपने गुनाहों की बख़्शिश, तलबे हाजात और मरीज़ों की शिफ़ायाबी के लिये वसीला क़रार देते हैं क्योकि क़ुरआने मजीद ने इस बात को न सिर्फ़ यह कि बेहतर क़रार दिया है बल्कि उसने इसकी तरफ़ वाज़ेह अंदाज़ में दावत दी है:
(सूर ए निसा आयत 64)
और काश जब उन लोगों ने अपने नफ़्स पर ज़ुल्म किया था तो आपके पास आते और ख़ुद भी गुनाहों के लिये इस्तिफ़ार करते और रसूल (स) भी उनके हक़ में इस्तिग़फ़ार करते तो यह ख़ुदा को बड़ा ही तौबा करने वाला और मेहरबान पाते।
या यह फ़रमाया:
(सूर ए ज़ुहा आयत 5)
और अनक़रीब तुम्हारा परवर दिगार तुम्हे इस क़दर अता करेगा कि तुम ख़ुश हो जाओ।
और इससे मुराद मक़ामे शिफ़ाअत है।
यह बात कैसे माक़ूल है कि एक जानिब रसूले अकरम (स) को ख़ुदा गुनाहगारों की शिफ़ाअत के लिये मक़ामे शिफ़ाअत और साहिबाने हाजात के लिये मक़ामे वसीला इनायत फ़रमा दे और दूसरी तरफ़ लोगों को मना फ़रमाएं कि उनसे शिफ़ाअत तलब न करें? या नबी ए अकरम (स) पर हराम क़रार दे दिया कि आप इस मक़ाम से कोई इस्तेफ़ादा न करें।
क्या ख़ुदा ने औलादे याक़ूब का यह क़िस्सा ज़िक्र नही फ़रमाया है कि जब उन्होने अपने वालिद से शिफ़ाअत तलब की और इस तरह कहा:
(सूर ए युसुफ़ आयत 97)
बाबा जान अब आप हमारे गुनाहों के लिये इस्तिग़फ़ार करें हम यक़ीनन ख़ताकार थे।
तो मासूम और करीम नबी (स) ने उन पर कोई ऐतेराज़ नही किया बल्कि उन से यह फ़रमाया:
(सूर ए युसुफ़ आयत 98)
यह दावा कोई नही कर सकता कि नबी (स) और आईंम्मा (अ) मर गये हैं लिहाज़ा उन से दुआ तलब करना मुफ़ीद नही? क्योकि अंबिया ख़ासाने ख़ुदा ज़िन्दा रहते हैं ख़ास तौर पर हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) जिन के बारे में ख़ुदा ने इरशाद फ़रमाया:
(सूर ए बक़रह आयत 143)
और और हमने तुम को दरमियानी उम्मत क़रार दिया है ता कि तुम लोगों के आमाल के गवाह हो और पैग़म्बर तुम्हारे आमाल के गवाह रहें।
इस आयत में शहीदन के मअना शाहिद के हैं।
और दूसरी जगह फ़रमाया:
(सूर ए तौबा आयत 105)
और ऐ पैग़म्बर कह दीजिये कि तुम लोग अमल करते रहो कि तुम्हारे अमल को अल्लाह, रसूल और साहिबाने ईमान सब देख रहे हैं।
यह आयतें रोज़े क़यामत तक चाँद, सूरज, और रात व दिन जारी व सारी रहेंगी, लिहाज़ा रसूले इस्लाम (स) और आपकी पाक आल (अ) लोगों पर गवाह हैं और शोहदा ज़िन्दा हैं जैसा कि ख़ुदा वंदे आलम ने अपनी अज़ीज़ किताब में एक बार नही कई बार ज़िक्र किया है।
32. शिया जाफ़री फ़िरक़ा नबी (स) और आईम्मा (अ) की विलादत पर महफ़िल और ख़ुशी के प्रोग्राम करते हैं और उनकी वफ़ात पर मातम व अज़ा करते हैं और उन प्रोग्रामों में उन के फ़ज़ायल और मनाक़िब और उनकी हिदायत बख़्श सीरत व किरदार का ज़िक्र करते हैं, जो सही नक़्ल के ज़रिये उन तक पहुची है और यह सब क़ुरआन की इत्तेबाअ में करते हैं क्योकि क़ुरआने करीम ने बार बार नबी ए अकरम (स) और दूसरे नबियों के मनाक़िब ज़िक्र किये हैं और उन्हे सराहा है और तमाम लोगों के ज़हनों को तास्सी, इक़्तेदा, इबरत और हिदायत हासिल करने की ख़ातिर उसकी तरफ़ मुतवज्जे किया है।
शिया उन महफ़िलों में हराम अफ़आल अंजाम देने से परहेज़ करते हैं जैसे औरत और मर्दों का एक जगह जमा होना, हराम चीजों का उन महफ़िलों में खाना पीना और मदह व सना में हद से आगे बढ़ जाना। [13]
या इसी क़िस्म के दूसरे नामुनासिब अफ़आल अंजाम देना जो रूहे शरीयत के ख़िलाफ़ हैं और उन में शरई मुसल्लम हुदुद का ख़्याल न रखा जाये या ऐसी चीज़ जिसके लिये क़ुरआन और सही हदीस की ताईद न हो या किताब व सुन्नत से इस्तिम्बात किया हुआ कोई कुल्ली क़ायदा
33. शिया जाफ़री फ़िरक़ा ऐसी किताबों से इस्तेफ़ादा करता है जो नबी ए अकरम (स) और अहले बैत इस्मत व तहारत (अ) की हदीसों पर मुश्तमिल है जैसे अल काफ़ी तालीफ़ सिक़तुल इस्लाम शेख़ कुलैनी, मन ला यहज़ोरोहुल फ़क़ीह तालीफ़ शेख सदूक़ और अल इस्तिबसार व तहज़ीब तालीफ़ शेख़ तूसी, उनके यहाँ यह हदीस की अहम किताबें हैं।
यह किताबें अगरचे सही हदीसों पर मुश्तमिल हैं लेकिन न उनके मुवल्लेफ़ीन व मुसन्नेफ़ीन और न ही शिया फ़िरक़ा उन तमाम हदीसों को सही क़रार देता है। यही वजह है कि शिया फ़ोक़हा उनकी तमाम हदीसों को सही नही जानते बल्कि वह सिर्फ़ उन्ही हदीसों को क़बूल करते हैं जो उनके नज़दीक शरायते सेहत पर खरी उतरती हों, जो इल्मे दिराया, रेजाल और क़वानीने हदीस पर पूरी नही उतरती हैं उन को तर्क कर देते हैं।
34. इसी तरीक़े से शिया (अक़ायद, फ़िक़ह और दुआ व अख़लाक़ के मैदान में) दूसरी किताबों से इस्तेफ़ादा करते हैं। जिन में आईम्मा (अ) से मुख़्तलिफ़ क़िस्म की हदीसें नक़्ल की गई हैं जैसे नहजुल बलाग़ा जिसे सैयद रज़ी ने तालीफ़ किया है और उसमें इमाम अली (अ) के ख़ुतबे, ख़ुतूत और हिकमत आमेज़ मुख़्तसर कलेमात मौजूद हैं और इसी तरह इमाम ज़ैनुल आबेदीन अली बिन हुसैन का रिसाल ए हुक़ूक़ और सहीफ़ ए सज्जादिया या इमाम अली (अ) का सहीफ़ ए अलविया और दीगर किताबें जैसे उयूने अख़बारे रज़ा, अत तौहीद, एललुश शरायेअ और मआनिल अख़बार तालीफ़ शेख़ सदूक़ वग़ैरह।
35. शिया जाफ़री फ़िरक़ा बाज़ अवक़ात पैग़म्बरे इस्लाम (स) की उन सही हदीसों से भी बिना किसी तास्सुब व कीनह व नख़वत व तकब्बुर के इसतेनाद करता है जो अहले सुन्नत वल जमाअत [14] भाईयों की किताबों में मुख़्तलिफ़ मक़ामात पर नक़्ल की गई हैं, जिसकी गवाह शियों की वह क़दीम व जदीद किताबें हैं, जिनमें सहाब ए केराम, नबी (स) की बीवियाँ, रसूल के मशहूर सहाबा और अकाबिर रावियों से नक़्ल हुई हैं जैसे अबू हुरैरा, अनस वग़ैरह, अलबत्ता एक शर्त के साथ वह यह कि क़ुरआने मजीद और दीगर सही हदीस से मुतआरिज़ न हो और न ही अक़्ले मोहकम (सालिम) और इजामा ए उलामा के ख़िलाफ़ न हो।
36.शिया अक़ीदा रखते हैं कि मुसलमानों को दौरे क़दीम व जदीद में जिन मुश्किलात, जानी या माली नुक़सान का सामना करना पड़ा है, वह सिर्फ़ दो चीज़ों का नतीजा है:
1. अहले बैत (अ) को भूला देना जब कि वह दर हक़ीक़त क़यादत की लियाक़त और सलाहियत रखते थे, इसी तरह उनके इरशादात व तालीमात को भूला देना, बिल ख़ुसूस क़ुरआने मजीद की तफ़सीर उन से हट कर बयान करना।
2. इस्लामी फ़िरक़ों और मज़हिब के दरमियान इख़्तिलाफ़, तफ़रक़ा और लड़ाई झगड़े।
यही वजह है कि शिया फ़िरक़ा हमेशा मिल्लते इस्लामिया की सफ़ों के दरमियान इत्तेहाद क़ायम करने की दावत देता है और तमाम लोगों की तरफ़ प्यार व दोस्ती और भाई चारगी का हाथ बढ़ाता है और उसके साथ साथ उन फ़िरक़ों व मज़ाहिब के अहकाम और उनके नज़रियात और उनके उलामा के इज्तेहाद का भी ऐहतेराम करता है।
चुनाँचे इस रास्ते में शिया जाफ़री फ़ोक़हा इब्तेदाई सदियों से ही अपनी फ़िक़ही, तफ़सीरी और कलामी किताबों में ग़ैर शिया फ़ोक़हा के नज़रियात का ज़िक्र करते आये हैं जैसे शेख तूसी किताब फ़िक़ह में अल ख़िलाफ़, शेख़ तबरसी की किताब तफ़सीर में मजमउल बयान जिनकी तारीफ़ अल अज़हर युनिवर्सिटी के बुज़ुर्ग उलामा ने की है।
या इल्मे कलाम नसीरुद्दीन तूसी की किताब तजरीदुल ऐतेक़ाद, जिस की तशरीह आलिमे अहले सुन्नत अलाउद्दीन क़ौशजी अशअरी ने की है।
37. शिया जाफ़री फ़िरक़े के बुज़ुर्ग उलामा तमाम इस्लामी मुख़्तलिफ़ मज़ाहिब के उलामा के दरमियान फ़िक़ह, अक़ायद और तारीख़ी मौज़ूआत में गुफ़तुगू और तबादल ए ख़्याल की ज़रुरत पर ज़ोर देते हैं और दौरे हाज़िर के मुसलमानों के मसायल के दरमियान तफ़ाहुम की ताकीद करते हैं और तोहमत व इत्तेहाम के तीरों और दुश्नाम बाज़ी से फ़ज़ा को ज़हर आलूद करने से हत्तल इमकान इज्तेनाब करते हैं ता कि इस्लामी मिल्लत के दरमियान जो फ़ासला मौजूद है और उसकी वजह से वह मुतअद्दिद हिस्सों में बटी हुई है, उसमें एक मंतिक़ी क़ुरबत की फ़ज़ा हमवार हो, ताकि इस्लाम और मुसलमानों के दुश्मनों का रास्ता बंद हो जाये, जो हमारे दरमियान ऐसी दरारों की खोज में रहते जिनके ज़रिये वह बग़ैर किसी इस्तिसना के तमाम मुसलमानों को नुक़सान पहुचा सकें।
और इसी वजह से शिया फ़िरक़ा किसी भी अहले क़िबला (मुसलमान) को काफ़िर नही कहता। क्योकि शियों का फ़िक़ही मज़हब और उनका अक़ीदा यह है कि काफ़िर वह होता है जिसके कुफ्र पर तमाम मुसलमानों का इजमा हो। शिया अहले क़िबला से दुश्मनी नही करते और न उन क़हर व ग़लबा और ज़ब्र व इकराह पसंद करते हैं और शिया तमाम इस्लामी फ़िरक़ों और मज़ाहिब के उलामा के इज्तेहाद का ऐहतेराम करते हैं और जो शख़्स किसी दूसरे मज़हब से शिया मज़हब में आया है उसके तमाम आमाल को मुस्किते तकलीफ़ और उसे बरीउज़ ज़िम्मा समझते हैं, क्योकि जब उसने अपने मज़हब के मुताबिक़ नमाज़, रोज़े, हज्ज, ज़कात, निकाह, तलाक़ और ख़रीद व फ़रोख़्त जैसे उमूर अंजाम दिये लिहाज़ा गुज़श्ता फ़रायज़ की क़ज़ा वाजिब नही है। इसी तरह उसके लिये तजदीदे निकाह व तलाक़ वाजिब नही है अलबत्ता शर्त यह है कि मज़हब के मुताबिक़ जारी हुए हों।
इसी तरह अपने मुसलमान भाईयों के साथ बिल्कुल उसी तरह रहते हैं जैसे कि अगर वह उनके भाई या रिश्तेदार होते तो उस वक़्त भी उन के साथ ऐसे ही रहते।
लेकिन शिया इस्तेमारी फ़िरक़ों की ताईद व तसदीक़ नही करते हैं जैसे बहाईयत, बाबीईयत और क़ादयानी या इसके मानिन्द दूसरे फ़िरक़े बल्कि शिया उनकी मुख़ालेफ़त करते हैं और उनसे मुहारेबा करते हैं और उन से हर क़िस्म के राब्ते को हराम क़रार देते हैं।
शिया (बाज़ अवक़ात न कि हमेशा) तक़य्या करते हैं जिसका मतलब यह है कि अपने मज़हब और अक़ीदे को (किसी सबब की बेना पर) पोशिदा किया जाये और यह तक़य्या नस्से क़ुरआनी के मुताबिक़ एक जायज़ अम्र है और इस पर तमाम इस्लामी मज़ाहब अमल करते हैं अलबत्ता जब किसी दुश्मन के दरमियान फ़ँस जायें। (और इज़हारे अक़ीदे की सूरत में यक़ीनी तौर पर ख़तरा मौजूद हो) तो तक़य्या किया जा सकता है और यह दो सबब की बेना पर होता है:
1.अपनी जान की हिफ़ाज़त की ख़ातिक ता कि उस का ख़ून बेकार न बह जाये।
2.मुसलमानों का इत्तेहाद बाक़ी रहे और उन के दरमियान इख़्तिलाफ़ व इफ़्तेराक़ पैदा न हो।
38.शिया फ़िरक़ा समझता है कि आज मुसलमानो के पीछे रह जाने का सबब फ़िक्री, सक़ाफ़ती, इल्मी और टेकनाँलाजी के मैदान में उनका आपस में इख़्तिलाफ़ व तफ़रक़ा है और इसका इलाज यह है कि ख़ुद मुसलमान मर्दों और औरतों के शऊर को बुलंद किया जाये और उनकी फ़िक्री, सक़ाफ़ती और इल्मी सतह की तरक़्क़ी के लिये इल्मी मराकिज़ बनाये जाएँ। जैसे युनिवर्सिटियाँ, मदरसे, इदारे और जदीद उलूम के नतायज व तजरुबात से इक़्तेसादी आबाद कारी, सनअत व हिरफ़त की मुश्किलात को दूर किया और मुसलमानों को मैदाने अमल और ख़ुशहाल ज़िन्दगी की सरगर्मियों में लाने कि लिये उनके दरमियान इतमिनान व ऐतेमाद की फ़ज़ा क़ायम की जाये ता कि उनमें इस्तिक़लाल और ख़ुद ऐतेमादी पैदा हो सके और दूसरों की ख़ुशामद और उनकी इत्तेबा से महफ़ूज़ रहें। इसी लिये शिया हज़रात जहाँ से भी गुज़रे और जिस तरह भी रहे वहाँ उन्होने इल्मी व तालीमी मरकज़ों की बुनियाद रखी और मुख़्तलिफ़ इल्मी मैदानों में उनके माहिरीन की तरबीयत के लिये इदारे क़ायम किये। इसी तरह उन्होने मुल्क और शहर की युनिवर्सिटियों और दीनी मदरसों में दाख़िले लिये। जिसके नतीजे में वहाँ से ज़िन्दगी के हर शोअबे में आला दर्जे के उलामा और अहले फ़न तालीम से फ़ारिग़ हुए और जिसके बाद उन्होने बा क़ायदा इल्मी मरकज़ों तक रसाई हासिल की और क़ाबिले क़द्र ख़दमात छोड़ीं।
39.शिया फ़िरक़े अपने उलामा और फ़ोकहा से तक़लीद के ज़रिये हमेशा राब्ते में रहता है, इस लिये कि वह अपने फ़िक़ही मुश्किलात में उन उलामा की तरफ़ रूजू करते हैं और अपनी ज़िन्दगी के तमाम मसायल में उन उलामा की राय पर अमल करते हैं, क्योकि फ़ोक़हा (उनके अक़ीदे के मुताबिक़) आख़िरी इमाम के वकील हैं और उसके आम नायब हैं। यही वजह है कि हमारे उलामा अपने उमूर मआश व इक़्तेसाद में सरकारी हुकूमतों पर अपना दारोमदार नही रखते, इसी तरह उनके उलामा हज़रात इस अज़ीम फ़िरक़े के अफ़राद के दरमियान वसाक़त और ऐतेमाद के अज़ीम और आली मर्तबा पर फ़ायज़ होते हैं।
और इस फ़िरक़े के दीनी इल्मी मदारिस (जो उलामा साज़ी के मराकिज़ हैं) ख़ुम्स व ज़कात के अमवाल से अपनी इक़्तेसादी हाजात को पूरा करते हैं, जिन्हे लोग अपने दिली मैल व रग़बत के साथ फ़ोक़हा के हवाले करते हैं और उसे नमाज़, रोज़े की तरह एक शरई वज़ीफ़ा समझते हैं।
और शिया इमामिया के नज़दीक अपनी दर आमद के मुनाफ़े (बजट) से ख़ुम्स निकालना वाजिब है, जिस पर वाज़ेह दलीलें मौजूद हैं और इस बारे में कुछ रिवायात सेहाह और सोनन में भी नक़्ल हुई हैं। [15]
40.शिया इमामिया फ़िरक़ा अक़ीदा रखता है कि मुसलमानों का हक़ है कि उन इस्लामी हुकूमतों से फ़ायदा उठायें, जो किताब व सुन्नत के मुताबिक़ अमल करती है और मुसलमानों के हुक़ूक़ की हिफ़ाज़त करती है और दूसरी हुकूमतों से मुनासिब और मुसालेमत आमेज़ में राब्ता क़ायम करती हैं और अपनी सरहदों की हिफ़ाज़त करती हैं और मुसलमानों के सक़ाफ़ती, इक़्तेसादी और सियासी इस्तिक़लाल के लिये कोशिश करती रहती हैं ता कि मुसलमान बा ईज़्ज़त रह सकें। जैसा कि अल्लाह तआला ने चाहा है:
और ईज़्ज़त सिर्फ़ ख़ुदा और उसके रसूल और मोमिनीन के लिये हैं।
(सूर ए मुनाफ़ेक़ून आयत 8)
और ख़ुदा ने फ़रमाया:
ख़बरदार सुस्ती न करना और मुसीबत पर ग़मगीन न होना अगर तुम साहिबाने ईमान हो।
(सूर ए आले इमरान आयत 139)
और शिया अक़ीदा रखते हैं कि इस्लाम (क्योकि वह कामिल और जामेअ दीन है इस लिये) के पास हुकूमती निज़ाम से मुतअल्लिक़ एक दक़ीक़ राह व रविश और दस्तुरुल अमल मौजूद है, लिहाज़ा अज़ीम इस्लामी मिल्लत के उलामा पर लाज़िम है कि वह इस कामिल निज़ाम को अमली जामा पहनाने के लिये एक साथ बैठ कर बात चीत और गुफ़्तुगू करें ता कि इस उम्मत को परेशान हाली और सरगरदानी और कभी न तमाम होने वाली मुश्किलात से बाहर निकालें और अल्लाह ही नासिर व मददगार है।
अगर तुम ने ख़ुदा की मदद की तो ख़ुदा तुम्हारी मदद करेगा और तुम्हे साबित क़दम रखेगा।
(सूर ए मुहम्मद आयत 7)
यह शिया इमामिया (जिसे जाफ़री फ़िरक़ा भी कहा जाता है) के हक़ीक़ी और वाक़ई अक़ायद और उनकी शरीयत के अहम ख़द्द व ख़ाल थे जिन्हे मैने आपक सामने बिल्कुल वाज़ेह और रौशन इबारत में पेश कर दिया है।
इस फ़िरक़े के लोग इस वक़्त अपने दीगर मुसलमान भाईयों और बहनों के साथ तमाम इस्लामी मुल्कों में ज़िन्दगी बसर करते हैं और मुसलमानों की ईज़्ज़त व आबरु और उनके समाज व मुआशरे की हिफ़ाज़त के लिये हरीस हैं और इस राह में अपनी जान व माल और शख़्सियत तक को क़ुर्बान करने क लिये तैयार रहते हैं।
हवाले
[1]. देखिये मुहम्मद सद्र की किताब तासीसुश शिया लेउलूमिल इस्लाम, अज़ ज़रिया एला तसानिफ़िश शिया जिल्द 29 तालीफ़ आग़ा बुज़ुर्ग तेहरानी, कशफ़ुज़ ज़ुनुन तालीफ़ आफ़ंदी, मोजमुल मुअल्लेफ़ीन तालीफ़ उमर रज़ा कुहाला, आयानुश शिया तालीफ़ मोहसिन अमीन आमुली वग़ैरह।
[2]. तारीख़े क़ुरआन, अत तमहीद फ़ी उलूमिल क़ुरआन, तालीफ़ मुहम्मद हादी मारेफ़त वग़ैरह।
[3].(सूर ए मायदा आयत 67), यह आयत भी इस सिलसिले में नाज़िल हुई। (सूरए मायदा आयत 3), (सूर ए मायदा आयत 3) (सूर ए मआरिज आयत 2)
[4]. ख़ुलाफ़ाउन नबी, तालीफ़ हायरी बहरानी।
[5]. बित तहक़ीक़ अरब व अजम के (ग़ैर शिया) मुमताज़ शायरों ने ऐसे मुफ़स्सल क़सीदे कहे हैं जिन में बारह इमामों के मुकम्मल नाम मज़कूर हैं जैसे उन शायरों में हसकफ़ी, इब्ने तूलून, फ़ज़्ल बिन रोज़बहान, जामी, अत्तार नैशापुरी, मौलवी के क़सीदे, यह सब मज़हबे इमाम अबू हनीफ़ा और इमाम शाफ़ेई वग़ैरह के पैरों हैं, हम यहाँ पर नमूने के तौर पर उन में से दो क़सीदे ज़िक्र कर रहे हैं।
पहला क़सीदा जनाब हसकफ़ी हनफ़ी का है जिनका शुमार छटी सदी हिजरी के उलामा में से होता है कहते हैं
अव्वल (इमाम अली) हैदर और उनके बाद उनके बेटे इमाम हसन और इमाम हुसैन हैं।
उसके बाद जाफ़र सादिक़ और उनके बेटे इमाम मूसा काज़िम हैं और उनके बाद सैयद व सरदार अली है।
जिन्हे इमाम रज़ा के नाम से जाना जाता है, आपके बाद आपके बेटे मुहम्मद (तक़ी) फिर अली, और उनके सच्चे बेटे यानी हसन (असकरी) हैं और उनके फ़ौरन बाद आपके बेटे इमाम मुहम्मद (महदी आख़िरुज़ ज़मान) है, उन्ही हज़रात के बारे में अक़ीदा रखती है
एक क़ौम यही मेरे इमाम और सरदार हैं जिन के असमा बाहम ऐसे मिले हुए हैं जिन में से किसी एक को भी छोड़ा नह जा सकता।
वह अल्लाह के बंदों पर उसकी हुज्जत हैं और वह उस तक पहुचने का रास्ता और मक़सद हैं।
वह दिनों में अपने रब के लिये रोज़े रखते हैं, रात की तारिकियों में रुकू व सजदे में मशग़ूल रहते हैं।
दूसरी क़सीदा जनाब शमसुद्दीन मुहम्मद बिन तूलून का है जिनका शुमार दसवी सदी हिजरी के उलामा में होता है वह कहते हैं:
तुम बारह इमामों से वाबस्ता रहो जो कि मुस्तफ़ा ख़ैरुल बशर की आल हैं।
अबू तुराब (अली) हसन, हुसैन और ज़ैनुल आबेदीन का बुग़्ज़ बुरा है।
मुहम्मद बाक़िर जिन्होने इल्म के कितने ही बाब खोले और सादिक़ हैं जिन्हे जाफ़र के नाम से दुनिया में पुकारो।
मूसा जो कि काज़िम हैं और उनके बेटे अली जिन का लक़ब रज़ा है और उनकी क़द्र व मंज़िलत बुलंद हैं।
मुहम्मद तक़ी हैं जिनका दिल असरारे इलाही से मामूर है और अली नक़ी हैं जिनकी ख़ूबियाँ चारों तरफ़ फैली हुई हैं।
और हसन असकरी पाक व पाकीज़ा हैं और इमाम मुहम्मद मेहदी हैं जो जल्दी ही ज़ाहिर होगें।
देखिये किताब अल आईम्मतो इसना अशर मुअल्लिफ़ मुवर्रिख़े दमिश्क़ शमसुद्दीन मुहम्मद बिन तूलून वफ़ात (953 हिजरी क़मरी)
तहक़ीक़ डाक्टर सलाहुद्दीन अल मुन्जिद, मतबूआ बैरुत लेबनान।
[6]. आम्मा की सिहाहे सित्ता और उनके अलावा दूसरी किताबों में मौजूद है नबी ए अकरम (स) ने फ़रमाया:
आख़िरी ज़माने में मेरी नस्ल में एक शख़्स ज़ाहिर होगा जिसका नाम मेरा नाम होगा और उसकी कुनियत मेंरी कुनियत होगी, वह ज़मीन को अदल व इंसाफ़ से उसी तरह से भर देगा जैसे वह ज़ुल्म व जौर से भरी होगी।
[7]. देखिये, अल मुसन्नफ़, सनआनी।
[8]. देखिये, अल यवाक़ीत वल जवाहर, शअरानी अंसारी मिस्री, जो दसवीं सदी हिजरी के उलामा में से हैं।
[9]. देखिये, सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सोनने बहीक़ी।
[10]. मालिकियों की राय जानने के लिये देखिये, बिदायतुल मुजतहिद तालीफ़, इब्ने रुश्दे क़ुरतुबी।
[11]. इस सिलसिले में उन तमाम हदीसों की तरफ़ रूजू किया जाये जो मुख़्तलिफ़ इस्लामी मज़ाहिब की कुतुबे सेहाह, सोनन और मोतबर मसानीद में नक़्ल की गई हैं।
[12]. सबकी शाफ़ेई की किताब शिफ़ाउ सेक़ाम पेज 107 पर और इसी की तरह सोनन इब्ने माजा में जिल्द 1 पेज 117 में नक़्ल हुआ है।
[13]. ग़ुलू का मतलब यह है कि किसी इंसान को उलूहियत या रुबूबियत का दर्जा दे दें या यह अक़ीदा रखे कि यह किसी काम के अंजाम देने में मशीयते इलाही या इज़्ने ख़ुदा के बग़ैर उसे अंजाम देता है जैसा कि यहूद व नसारा अंबिया के बारे में ऐसा अक़ीदा रखते हैं।
[14]. यहाँ पर इस बात पर तवज्जो करना ज़रुरी है कि शिआ इमामिया भी अहले सुन्नत हैं क्योकि शिया ही जो कुछ सुन्नते नबवी (स0 में वारिद हुआ है उसे क़ौलन व अमलन तसलीम करते हैं और उन में वह वसीयतें हैं जो रसूल (स) ने अहले बैत (अ) के हक़ में कीं और शिया उन पर कमा हक्क़हू अमल पैरा हैं और इस बात की गवाही शिया के अक़ायद, उनकी फ़िक़ह और उनकी हदीसों की किताबें इस बात की बेहतरीन गवाह हैं और इस सिलसिले में अभी जल्दी ही एक मुफ़स्सल इनसाईक्लो पीडिया (मोअजम) भी दस जिल्दों में छपी है जिस में रसूले इस्लाम (स) की शिया किताबों से रिवायतों को जमा किया गया है। जिसका नाम सोननुन नबी (स) है।
[15]. बहसे ख़ुम्स से मुतअल्लिक़ शिया फ़ोक़हा की इस्तिदलाली और इस्तिमबाती किताबें मुलाहिज़ा करें।
ईरान के साथ रचनात्मक वार्ता की आशा, आईएईए
अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए के अधिकारी हरमैन नाकाएर्ट्स ने कहा है कि बुधवार को ईरान से होने वाली परमाणु वार्ता के सार्थक और रचनात्मक रहने की आशा है।
नाकाएर्ट्स ने आठ सदस्यीय प्रतिनिधिमंडल के साथ वियना से तेहरान रवाना होने से पूर्व एक पत्रकार सम्मेलन में कहा कि पिछली वार्ता भी रचनात्मक रही थी और इस बार की बातचीत भी उसी शैली में होगी।
आईएईए चाहती है कि ईरान के परमाणु मामले से संबंधित मुद्दों को हल करके ईरान के साथ एक सहमति पर पहुंच जाए।
ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्त रामीन मेहमान परस्त ने भी कहा है कि ईरान को आईएईए के साथ समग्र सहमति की आशा है।
क़ुरआने मजीद और नारी
इस्लाम में नारी के विषय पर अध्धयन करने से पहले इस बात पर तवज्जो करना चाहिये कि इस्लाम ने इन बातों को उस समय पेश किया जब बाप अपनी बेटी को ज़िन्दा दफ़्न कर देता था और उस कुर्रता को अपने लिये इज़्ज़त और सम्मान समझता था। औरत दुनिया के हर समाज में बहुत बेक़ीमत प्राणी समझी जाती थी। औलाद माँ को बाप की मीरास में हासिल किया करती थी। लोग बड़ी आज़ादी से औरत का लेन देन करते थे और उसकी राय का कोई क़ीमत नही थी। हद यह है कि यूनान के फ़लासेफ़ा इस बात पर बहस कर रहे थे कि उसे इंसानों की एक क़िस्म क़रार दिया जाये या यह एक इंसान नुमा प्राणी है जिसे इस शक्ल व सूरत में इंसान के मुहब्बत करने के लिये पैदा किया गया है ताकि वह उससे हर तरह का फ़ायदा उठा सके वर्ना उसका इंसानियत से कोई ताअल्लुक़ नही है।
इस ज़माने में औरत की आज़ादी और उसको बराबरी का दर्जा दिये जाने का नारा और इस्लाम पर तरह तरह के इल्ज़ामात लगाने वाले इस सच्चाई को भूल जाते हैं कि औरतों के बारे में इस तरह की आदरनीय सोच और उसके सिलसिले में हुक़ुक़ का तसव्वुर भी इस्लाम ही का दिया हुआ है। इस्लाम ने औरत को ज़िल्लत की गहरी खाई से निकाल कर इज़्ज़त की बुलंदी पर न पहुचा दिया होता तो आज भी कोई उसके बारे में इस अंदाज़ में सोचने वाला न होता। यहूदीयत व ईसाईयत तो इस्लाम से पहले भी इन विषयों पर बहस किया करते थे उन्हे उस समय इस आज़ादी का ख़्याल क्यो नही आया और उन्होने उस ज़माने में औरत को बराबर का दर्जा दिये जाने का नारा क्यों नही लगाया यह आज औरत की अज़मत का ख़्याल कहाँ से आ गया और उसकी हमदर्दी का इस क़दर ज़ज़्बा कहाँ से आ गया?
वास्तव में यह इस्लाम के बारे में अहसान फ़रामोशी के अलावा कुछ नही है कि जिसने तीर चलाना सीखाना उसी को निशाना बना दिया और जिसने आज़ादी और हुक़ुक का नारा दिया उसी पर इल्ज़ामात लगा दिये। बात सिर्फ़ यह है कि जब दुनिया को आज़ादी का ख़्याल पैदा हुआ तो उसने यह ग़ौर करना शुरु किया कि आज़ादी की यह बात तो हमारे पुराने लक्ष्यों के ख़िलाफ़ है आज़ादी का यह ख़्याल तो इस बात की दावत देता है कि हर मसले में उसकी मर्ज़ी का ख़्याल रखा जाये और उस पर किसी तरह का दबाव न डाला जाये और उसके हुक़ुक़ का तक़ाज़ा यह है कि उसे मीरास में हिस्सा दिया जाये उसे जागीरदारी और व्यापार का पाटनर समझा जाये और यह हमारे तमाम घटिया, ज़लील और पुराने लक्ष्यों के ख़िलाफ़ है लिहाज़ा उन्होने उसी आज़ादी और हक़ के शब्द को बाक़ी रखते हुए अपने मतलब के लिये नया रास्ता चुना और यह ऐलान करना शुरु कर दिया कि औरत की आज़ादी का मतलब यह है कि वह जिसके साथ चाहे चली जाये और उसका दर्जा बराबर होने के मतलब यह है कि वह जितने लोगों से चाहे संबंध रखे। इससे ज़्यादा इस ज़माने के मर्दों को औरतों से कोई दिलचस्बी नही है। यह औरत को सत्ता की कुर्सी पर बैठाते हैं तो उसका कोई न कोई लक्ष्य होता है और उसके कुर्सी पर लाने में किसी न किसी साहिबे क़ुव्वत व जज़्बात का हाथ होता है और यही वजह है कि वह क़ौमों की मुखिया होने के बाद भी किसी न किसी मुखिया की हाँ में हाँ मिलाती रहती है और अंदर से किसी न किसी अहसासे कमतरी में मुब्तला रहती है। इस्लाम उसे साहिबे इख़्तियार देखना चाहता है लेकिन मर्दों का आला ए कार बन कर नही। वह उसे इख़्तियार व इंतेख़ाब देना चाहता है लेकिन अपनी शख़्सियत, हैसियत, इज़्ज़त और करामत का ख़ात्मा करने के बाद नही। उसकी निगाह में इस तरह के इख़्तियारात मर्दों को हासिल नही हैं तो औरतों को कहाँ से हो जायेगा जबकि उस की इज़्ज़त की क़ीमत मर्द से ज़्यादा है उसकी इज़्ज़त जाने के बाद दोबारा वापस नही आ सकती है जबकि मर्द के साथ ऐसी कोई परेशानी नही है।
इस्लाम मर्दों से भी यह मुतालेबा करता है कि वह जिन्सी तसकीन के लिये क़ानून का दामन न छोड़े और कोई ऐसा क़दम न उठाएँ जो उनकी इज़्ज़त व शराफ़त के ख़िलाफ़ हो इसी लिये उन तमाम औरतों की निशानदहीकर दी गई जिनसे जिन्सी ताअल्लुक़ात का जवाज़ नही है। उन तमाम सूरतों की तरफञ इशारा कर दिया गया जिनसे साबेक़ा रिश्ता मजरूह होता है और उन तमाम ताअल्लुक़ात को भी वाज़ेह कर दिया जिनके बाद दूसरा जिन्सी ताअल्लुक़ मुमकिन नही रह जाता। ऐसे मुकम्मल और मुरत्तब निज़ामें ज़िन्दगी के बारे में यह सोचना कि उसने एक तरफ़ा फ़ैसला किया है और औरतों के हक़ में नाइंसाफ़ी से काम लिया है ख़ुद उसके हक़ में नाइंसाफ़ी बल्कि अहसान फ़रामोशी है वर्ना उससे पहले उसी के साबेक़ा क़वानीन के अलावा कोई उस सिन्फ़ का पुरसाने हाल नही था और दुनिया की हर क़ौम में उसे ज़ुल्म का निशाना बना लिया गया था।
औरत की हैसियत
و من آیاته ان خلق لکم من انفسکم ازواجا لتسکنوا الیها و جعل بینکم مودہ و رحمه (سوره روم آيت ۲۱)
उसकी निशानियों में से एक यह है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे उससे सुकूने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मुहब्बत व रहमत का जज़्बा भी क़रार दिया है।
आयते करीमा में दो अहम बातों की तरफ़ इशारा किया गया है:
1. औरत आलमे इंसानियत का ही एक हिस्सा है और उसे मर्द का जोड़ा बनाया गया है। उसकी हैसियत मर्द से कमतर नही है।
2. औरत का मक़सदे वुजूद मर्द की ख़िदमत नही है मर्द का सुकूने ज़िन्दगी है और मर्द व औरत के दरमियान दोनो तरफ़ा मुहब्बत और रहमत ज़रुरी है यह एक तरफ़ा मामला नही है।
و لهن مثل الذی عليهن بالمعروف و للرجال عليهن درجه (بقره آيت ۲۲۸)
औरतों के लिये वैसे ही हुक़ूक़ है जैसे उनके ज़िम्मे फ़रायज़ हैं मर्दों को उनके ऊपर एक और दर्जा हासिल है।
यह दर्जा हाकिमियत मुतलक़ा का नही है बल्कि ज़िम्मेदारी का है, मर्दों में यह सलाहियत रखी गई है कि वह औरतों की ज़िम्मेदारी संभाल सकें और इसी बेना पर उन्हे नान व नफ़्क़ा और इख़राजात का ज़िम्मेदार बनाया गया है।
فاستجاب لہم ربہم انی لا اضیع عمل عامل منکم من ذکر و انثی بعضکم من بعض (سورہ آل عمران آیت ۱۹۵)
तो अल्लाह ने उनकी दुआ को क़बूल कर लिया कि हम किसी अमल करने वाले के अमल को ज़ाया नही करना चाहते चाहे वह मर्द हो या औरत, तुम में बाज़ बाज़ से हैं।
ولا تتمنوا ما فضل اللہ بعضکم علی بعض للرجال نصیب مما اکتسبوا و للنساء نصیب مما اکتسبن (سورہ نساء آیہ ۳۲)
और देखो जो ख़ुदा ने बाज़ को बाज़ से ज़्यादा दिया है उसकी तमन्ना न करो, मर्दों के लिये उसमें से हिस्सा है जो उन्होने हासिल कर लिया है और इसी तरह से औरतों का हिस्सा है। यहाँ पर भी दोनो को एक तरह की हैसियत दी गई है और हर एक को दूसरे की फ़ज़ीलत पर नज़र लगाने से रोक दिया गया है।
و قل رب ارحمهما کما ربيانی صغيرا (سوره اسراء آيت ۲۳)
और यह कहो कि परवरदिगार उन दोनो (मा बाप) पर उसी तरह से रहमत नाज़िल फ़रमा जिस तरह उन्होने मुझे पाला है।
इस आयते करीमा में माँ बाप दोनो को बराबर की हैसियत दी गई है और दोनो के साथ अहसान भी लाज़िम क़रार दिया गया है और दोनो के हक़ में दुआ ए रहमत की भी ताकीद की गई है।
يا ايها الذين آمنوا لا يحل لکم ان ترثوا النساء کرها و لا تعضلوهن لتذهبوا ببعض ما آتيتموهن الا ان ياتين بفاحشه مبينه و عاشروهن بالمعروف فان کرهتموهن فعسی ان تکرهوا شیءا و يجعل الله فيه خيرا کثيرا (نساء ۱۹)
ईमान वालो, तुम्हारे लिये जायज़ नही है कि औरत को ज़बरदस्ती वारिस बन जाओ और न यह हक़ है कि उन्हे अक़्द से रोक दो कि इस तरह जो तुम ने उनको दिया है उसका एक हिस्सा ख़ुद ले लो जब तक वह कोई खुल्लम खुल्ला बदकारी न करें और उनके साथ मुनासिब सुलूक करो कि अगर उन्हे ना पपसंद करते हो तो शायद तुम किसी चीज़ को ना पसंद करो और ख़ुदा उसके अंदर ख़ैरे कसीर क़रार दे।
و اذا طلقتم النساء فبلغن اجلهن فامسکوا هن بمعروف او سرحوين بمعروف ولا تمسکوهن ضرارا لتعتقدوا و من يفعل ذالک فقد طلم نفسه (سوره بقره آيت ۱۳۲)
और जब औरतों को तलाक़ दो और उनकी मुद्दते इद्दा क़रीब आ जाएँ तो उन्हे नेकी के साथ रोक लो वर्ना नेकी के साथ आज़ाद कर दो और ख़बरदार नुक़सान पहुचाने की ग़रज़ से मत रोकना कि इस तरह से ज़ुल्म करोगे और जो ऐसा करेगा वह अपने ही ऊपर ज़ुल्म करेगा।
ऊपर बयान होने वाली दोनो आयतों में मुकम्मल आज़ादी का ऐलान किया गया है। जहाँ आज़ादी का मक़सद शरफ़ और शराफ़त का तहफ़्फ़ुज़ है और जान व माल दोनो के ऐतेबार से साहिबे इख़्तियार होना है और फिर यह भी वाज़ेह कर दिया गया है कि उन पर ज़ुल्म हक़ीक़त में उन पर ज़ुल्म नही है बल्कि अपने ही ऊपर ज़ुल्म है इस लिये कि इससे सिर्फ़ उनकी दुनिया ख़राब होती है और इंसान उससे अपनी आख़िरत खराब कर लेता है जो दुनिया ख़राब कर लेने से कहीं ज़्यादा बदतर बर्बादी है।
الرجال قوامون علی النساء بما فضل اللي علی بعض و بما انفقوا من اموالهم (سوره نساء آيت ۳۴)
मर्द, औरतों के संरक्षक हैं और उस लिये कि उन्होने अपने माल को ख़र्च किया है।
आयते करीमा से बिलकुल साफ़ वाज़ेह हो जाता है कि इस्लाम का मक़सद मर्द को हाकिमे मुतलक़ बना देना और औरत से उसकी आज़ादी छीन लेना नही है बल्कि उसने मर्द को उसकी बाज़ ख़ुसूसियात की वजह से घर का ज़िम्मेदार बनाया है और उसे औरत के जान माल और आबरू का संरक्षक बनाया है। इसके अलावा इस मुख़्तसर हाकिमियत या ज़िम्मेदारी को भी मुफ़्त नही क़रार दिया है बल्कि उसके मुक़ाबले में उसे औरत के तमाम ख़र्चों का ज़िम्मेदार बना दिया है और ज़ाहिर सी बात है कि जब दफ़्तर का आफ़िसर या कारखाने का मालिक सिर्फ़ तन्ख़वाह देने की वजह से हाकिमियत के बेशुमार इख़्तियारात हासिल कर लेता है और उसे कोई आलमे इंसानियत की तौहीन क़रार नही देता है और दुनिया का हर मुल्क इसी पालिसी पर अमल कर लेता है तो मर्द ज़िन्दगी की तमाम ज़िम्मेदारियाँ क़बूल करने के बाद अगर औरत पर पाबंदियाँ लगा दे कि वह उसकी इजाज़त के बिना घर बाहर न जाये और घर ही में उसके लिये सुकून के वसायल फ़राहम कर दे ताकि उसे बाहर न जाना पड़े और दूसरे की
तरफ़ हवस भरी निगाह से न देखना पड़े तो कौन सी हैरत की बात है यह तो एक तरह का बिलकुल साफ़ और सादा इंसानी मामला है जो शादी की शक्ल में मंज़रे आम पर आता है और मर्द का कमाया हुआ माल औरत का हो जाता है और औरत की ज़िन्दगी की सरमाया मर्द का हो जाता है मर्द औरत की ज़रुरियात को पूरा करने के लिये घंटों मेहनत करता है और बाहर से सरमाया फ़राहम करता है और औरत मर्द की तसकीन के लिये कोई ज़हमत नही करती है बल्कि उसका सरमाया ए हयात उसके वुजूद के साथ है इंसाफ़ किया जाये कि इस क़दर फ़ितरी सरमाए से इस क़दर मेहनती सरमाया का तबादला क्या औरत के हक़ में ज़ुल्म और नाइंसाफ़ी कहा जा सकता है जबकि मर्द की तसकीन में भी औरत बराबर की शरीक और हिस्सेदार बनती है और यह जज़्बा एक तरफ़ा नही होता है और औरत के माल ख़र्च करने में मर्द को कोई हिस्सा नही मिलता है। मर्द पर यह ज़िम्मेदारी उसकी मर्दाना ख़ुसूसियात और उसके फ़ितरी सलाहियत की बेना पर रखी गई है वर्ना या तबादला मर्दों के हक़ में ज़ुल्म हो जाता और उन्हे यह शिकायत होती कि औरत ने हमें क्या सुकून दिया है और उसके मुक़ाबले में हम पर ज़िम्मेदारियों का किस क़दर बोझ लाद दिया गया है यह ख़ुद इस बात की दलील है कि यह जिन्स और माल का सौदा नही है बल्कि सलाहियतों की बुनियाद पर काम का बटवारा है। औरत जिस क़दर ख़िदमत मर्द के हक़ में कर सकती है उसका ज़िम्मेदार औरत को बना दिया गया है और मर्द जिस क़दर और की ख़िदमत कर सकता है उसका उसे ज़िम्मेदार बना दिया गया है और यह कोई हाकिमियत व जल्लादियत नही है कि इस्लाम पर नाइंसाफ़ी का इल्ज़ाम लगा दिया जाएँ और उसे औरत के हक़ का बर्बाद और ज़ाया करने वाला क़रार दिया जाये।
यह ज़रुर है कि आलमें इस्लाम में ऐसे मर्द बहरहाल पाये जाते हैं जो मेजाज़ी तौर पर ज़ालिम, बेरहम और जल्लाद हैं और उन्हे अगर जल्लादी के लिये कोई मौक़ा नही मिलता है तो उसकी तसकीन का सामान घर के अंदर फ़राहम करते हैं और अपने ज़ुल्म का निशाना औरत को बनाते हैं कि वह सिन्फ़े नाज़ुक होने की बेना पर मुक़ाबला करने के क़ाबिल नही है और उस पर ज़ुल्म करने में उन ख़तरों का अंदेशा नही है जो किसी दूसरे मर्द पर ज़ुल्म करने में पैदा होते हैं और उसके बाद अपने ज़ुल्म का जवाज़ क़ुरआने मजीद के इस ऐलान में तलाश करते हैं और उनका ख़्याल यह है कि क़व्वामियत निगरानी और ज़िम्मेदारी नही है बल्कि हाकिमियते मुतलक़ा और जल्लादियत है। हालाँकि क़ुरआने मजीद ने साफ़ साफ़ दो वुजूहात की तरफ़ इशारा कर दिया है जिसमें से एक मर्द की ज़ाती ख़ुसूसियत और इम्तेयाज़ी कैफ़ियत है और उसकी तरफ़ से औरत के इख़राजात की ज़िम्मेदारी है और खुली हुई बात है कि दोनो असबाब में न किसी तरह की हाकिमियत पाई जाती है और न जल्लादियत बल्कि शायद बात उसके बर अक्स नज़र आये कि मर्द में फ़ितरी इम्तेयाज़ था तो उसे उस इम्तेयाज़ से फ़ायदा उठाने के बाद एक ज़िम्मेदारी का मरकज़ बना दिया गया और इस तरह उसने चार पैसे हासिल किये तो उन्हे तन्हा खाने के बजाए उसमें औरत का हिस्सा क़रार दिया है और अब और औरत वह मालिका है जो घर के अंदर चैन से बैठी रहे और मर्द वह ख़ादिमें क़ौम है जो सुबह से शाम तक अहले खाने के आज़ूक़े की तलाश में हैरान व सरगरदान रहे। यह दरहक़ीक़त औरत की निसवानियत की क़ीमत है जिसके मुक़ाबले में किसी दौलत, शौहरत, मेहनत और हैसियत की कोई क़दर व क़ीमत नही है।
शादी शुदा ज़िन्दगी
शादी इंसानी ज़िन्दगी का अहम तरीन मोड़ है जब दो इंसान अलग लिंग से होने के बावजूद एक दूसरे की ज़िन्दगी में मुकम्मल तौर से दख़ील हो जाते हैं और हर को दूसरे की ज़िम्मेदारी और उसके जज़्बात का पूरे तौर पर ख़्याल रखना पड़ता है। इख़्तिलाफ़ की बेना पर हालात और फ़ितरत के तक़ाज़े जुदागाना होते हैं लेकिन हर इंसान को दूसरे के जज़्बात के पेशेनज़र अपने जज़्बात और अहसासात की मुकम्मल क़ुरबानी देनी पड़ती है।
क़ुरआने मजीद ने इंसान को इतमीनान दिलाया है कि यह कोई ख़ारेजी राबता नही है जिसकी वजह से उसे मसायल व मुश्किलात का सामना करना पड़े बल्कि यह एक फ़ितरी मामला है जिसका इंतेज़ाम ख़ालिक़े फ़ितरत ने फ़ितरत के अंदर वदीयत कर दिया है और इंसान को उसकी तरफ़ मुतवज्जेह भी कर दिया है। जैसा कि इरशाद होता है:
و من آيايه ان خلق لکم من انفسکم ازواجا لتسکنوا اليها و جعل بينکم موده و رحمه ان فی ذالک لآيات لقوم يتفکرون (سوره روم)
और अल्लाह की निशानियों में से यह भी है कि उसने तुम्हारा जोड़ा तुम ही में से पैदा किया है ताकि तुम्हे सुकूने ज़िन्दगी हासिल हो और फिर तुम्हारे दरमियान मवद्दत व रहमत क़रार दी है इसमें साहिबाने फ़िक्र के लिये बहुत सी निशानियाँ पाई जाती हैं।
बेशक इख़्तिलाफ़ सिन्फ़, इख़्तिलाफ़े तरबीयत, इख़्तिलाफ़े हालात के बाद मवद्दत व
रहमत का पैदा हो जाना एक अलामते क़ुदरत व रहमते परवरदिगार है जिसके लिये बेशुमार शोबे हैं और हर शोबे में बहुत सी निशानियाँ पाई जाती हैं। आयते करीमा में यह बात भी वाज़ेह कर दी गई है कि जोड़ा अल्लाह ने पैदा किया है यानी यह मुकम्मल ख़ारेजी मसला नही है बल्कि दाख़िली तौर पर हर मर्द में औरत के लिये और हर औरत में मर्द के लिये सलाहियत रख दी गई है ता कि एक दूसरे को अपना जोड़ा समझ कर बर्दाश्त कर सके और उससे नफ़रत व बेज़ारी का शिकार न हो और उसके बाद रिश्ते के ज़ेरे असर मवद्दत व रहमत का भी क़ानून बना दिया ताकि फ़ितरी जज़्बात और तक़ाज़े पामाल न होने पाएँ। यह क़ुदरत की हकीमाना निज़ाम है जिससे अलाहिदगी इंसान के लिये बेशुमार मुश्किलात पैदा कर सकती है चाहे इंसाने सियासी ऐतेबार से इस अलाहिदगी पर मजबूर हो या जज़्बाती ऐतेबार से क़सदन
मुख़ालेफ़त करे। अवलिया ए ख़ुदा भी अपनी शादी शुदा ज़िन्दगी से परेशान रहे हैं तो उसका भी राज़ यही था कि उन पर सियासी, और तबलीग़ी ऐतेबार से यह फ़र्ज़ था कि ऐसी औरतों से निकाह करें और उन मुश्किलात का सामना करें ताकि दीने ख़ुदा फ़रोग़ हासिल कर सके और तबलीग का काम अंजाम पा सके। फ़ितरत अपना काम बहरहाल कर रही थी यह और बात है कि वह शरअन ऐसी शादी पर मजबूर और मामूर थे कि उनका एक मुस्तक़िल फ़र्ज़ होता है कि तबलीग़े दीन की राह में ज़हमते बर्दाश्त करें क्योकि तबलीग़ का रास्ता फूलों की सेज से नही गुज़रता है बल्कि पुर ख़ार वादियों से हो कर गुज़रता है।
उसके बाद क़ुरआने हकीम ने शादी शुदा ज़िन्दगी को मज़ीद बेहतर बनाने के लिये दोनो जोड़े की नई ज़िम्मेदारियों का ऐलान किया और इस बात को वाज़ेह कर दिया कि सिर्फ़ मवद्दत और रहमत से बात तमाम नही हो जाती है बल्कि कुछ उसके ख़ारेजी तक़ाज़े भी हैं जिन्हे पूरा करना ज़रुरी है वर्ना क़ल्बी मवद्दत व रहमत बे असर हो कर रह जायेगी और उसका कोई नतीजा हासिल न होगा। इरशाद होता है:
هن لباس لکم انتم لباس لهن (سوره بقره آيت ۱۸۷)
औरतें तुम्हारे लिये लिबास हैं और तुम उनके लिये लिबास हो।
यानी तुम्हारा ख़ारेजी और समाजी फ़र्ज यह है कि उनके मामलात की पर्दा पोशी करो और उनके हालात को उसी तरह ज़ाहिर न होने जिस तरह लिबास इंसान की बुराईयों को ज़ाहिर नही होने देता है। इसके अलावा तुम्हारा एक फ़र्ज़ यह भी है कि उन्हे जम़ाने के सर्द व गर्म से बचाते रहो और वह तुम्हे ज़माने की सर्द व गर्म हवाओं से महफ़ूज़ रखें कि यह मुख़्तलिफ़ हवाएँ और फ़ज़ाएँ किसी भी इंसान की ज़िन्दगी को ख़तरे में डाल सकती हैं और उसके जान व आबरू को तबाह कर सकती हैं। दूसरी जगह इरशाद होता है:
نساءکم حرث لکم فاتوا حرثکم انی شءتم (سوره بقره)
तुम्हारी औरते तुम्हारी खेतियाँ हैं लिहाज़ा अपनी खेतियों में जब और जिस तरह चाहो आ सकते हो। (शर्त यह है कि खेती बर्बाद न होने पाये।)
इस बेहतरीन जुमले से बहुत से मसलों को हल तलाश किया गया है। पहली बात तो यह कि बात को एक तरफ़ा रखा गया है और लिबास की तरह दोनो को ज़िम्मेदार नही बनाया गया है बल्कि मर्द को मुख़ातब किया गया है कि इस रुख़ से सारी ज़िम्मेदारी मर्द पर आती है और खेती की सुरक्षा का सारा इंतेज़ाब किसान पर होता है खेत का इसका कोई ताअल्लुक़ नही होता जबकि पर्दा पोशी और ज़माने के सर्द व गर्म बचाना दोनो की ज़िम्मेदारियों में शामिल था।
दूसरी तरफ़ इस बात की वज़ाहत भी कर दी गई है कि औरत से संबंध और ताअल्लुक़ में उसकी उस हैसियत का लिहाज़ बहरहाल ज़रुरी है कि वह खेत की हैसियत रखती है और खेत के बारे में किसान को यह इख़्तियार को दिया गया जा सकता है कि फ़स्ल के तक़ाज़ों को देख कर खेत को वैसे ही छोड़ दे और खेती न करे लेकिन यह इख़्तियार नही दिया जा सकता है कि उसे तबाह व बर्बाद कर दे और समय से पहले या फस्ल के होने से पहले ही फसे काटना शुरु कर दे इसलिये इसे खेती नही कहते बल्कि हलाकत कहते हैं और हलाकत किसी भी क़ीमत पर जायज़ नही क़रार दी जा सकती।
मुख़्तसर यह कि इस्लाम ने शादी को पहली मंज़िल में फ़ितरत का तक़ाज़ा क़रार दिया फिर दाख़िली तौर पर उसमें मुहब्बत व रहमत की इज़ाफ़ा किया और ज़ाहिरी तौर पर हिफ़ाज़त और पर्दा पोशी को उसका शरई नतीजा क़रार दिया और आख़िर में इस्तेमाल की सारी शर्तें और क़ानून की तरफ़ इशारा कर दिया ताकि किसी बद उनवानी, बेरब्ती और बेलुत्फ़ी पैदा न होने पाये और ज़िन्दगी ख़ुश गवार अंदाज़ में गुज़र जाये।
बदकारी
शादी शुदा ज़िन्दगी की सुरक्षा के लिये इस्लाम ने दो तरह के इंतेज़ामात किये हैं: एक तरफ़ इस रिश्ते की ज़रूरत और अहमियत और उसकी सानवी शक्ल की तरफ़ इशारा किया है तो दूसरी तरफ़ उन तमाम रास्तो पर पाबंदी लगा दी है जिसकी वजह से यह रिश्ता ग़ैर ज़रुरी या ग़ैर अहम हो जाता है और मर्द को औरत या औरत को मर्द की ज़रूरत नही रह जाती है। इरशाद होता है:
ولا تقربوا الزنا انه کان فاحشه و ساء سبيلا (سوره اسراء)
और ख़बरदार ज़ेना के क़रीब भी न जाना कि यह खुली हुई बे हयाई और बदतरीन रास्ता है।
इस आयत में ज़ेना की दोनो बुराईयों की वज़ाहत की गई है कि शादी के मुमकिन होते हुए और उसके क़ानून के रहते हुए ज़ेना और बदकारी एक खुली हुई बे हयाई है कि यह ताअल्लुक़ उन्ही औरतों से क़ायम किया जाये जिन से निकाह हो सकता है तो भी क़ानून से ख़िलाफ़ काम करना या इज़्ज़त से खेलना एक बेग़ैरती है और अगर उन औरतों से रिश्ता क़ायम किया जाये जिन से निकाह मुमकिन नही है और उनका कोई पवित्र रिश्ता पहले से मौजूद है तो यह मज़ीद बेहयाई है कि इस तरह उस रिश्ते की भी तौहीन होती है और उसकी पवित्रता भी पामाल होती है।
फिर मज़ीद वज़ाहत के लिये इरशाद होता है:
ان الذين يحبون ان تشيع الفاحشه فی الذين آمنوا لهم عذاب الهم (سوره نور)
जो लोग इस बातो को दोस्त रखते हैं कि ईमान वालों के दरमियान बदकारी और बे हयाई फ़ैलाएँ तो उन के लिये दर्दनाक अज़ाब (सज़ा) है।
जिसका मतलब यह है कि इस्लाम इस क़िस्म के जरायम को आम करने और उसके फ़ैलाने दोनो को नापसंद करता है इसलिये कि इस तरह से एक तो एक इंसान की इज़्ज़त ख़तरे में पड़ जाती है और दूसरी तरफ़ ग़ैर मुतअल्लिक़ लोग में ऐसे जज़्बात पैदा हो जाते हैं और उनमें जरायम को आज़माने और उसका तजरुबा करने का शौक़ पैदा होने लगता है जिस का वाज़ेह नतीजा आज हर निगाह के सामने है कि जबसे फ़िल्मों और टी वी के ज़रिये जिन्सी मसायल को बढ़ावा मिलने लगा है हर क़ौम में बे हयाई में इज़ाफ़ा हो गया है और हर तरफ़ उसका दौर दौरा हो गया है और हर इंसान में उसका शौक़ पैदा हो गया है जिसका मुज़ाहरा सुबह व शाम क़ौम के सामने किया जाता है और उसका बदतरीन नतीजा यह हुआ है कि पच्छिमी समाज में सड़कों पर खुल्लम खुल्ला वह हरकतें हो रही हैं जिन्हे आधी रात के बाद फ़िल्मों के ज़रिये से पेश किया जाता है और उनके
अपने गुमान के अनुसार अख़लाक़ियात का पूरी तरह से ख़्याल रखा जाता है और हालात इस बात की निशानदही कर रहे हैं कि आने वाला समय उससे भी ज़्यादा बद तर और भयानक हालात साथ लेकर आ रहा है और इंसानियत मज़ीद ज़िल्लत के किसी गढ़े में गिरने वाली है। क़ुरआने मजीद ने उन्हा ख़तरों को देखते हुए ईमान वालों के दरमियान इस तरह के बढ़ावे को मना और हराम क़रार दिया है ताकि एक दो लोगों की बहक जाना सारे समाज पर असर न डाल सके और समाज तबाही और बर्बादी का शिकार न हो। अल्लाह तआला ईमान वालों को इस बला से बचाये रखे।
एक से ज़्यादा शादियाँ
मौजूदा ज़माने का सबसे गर्म विषय एक से ज़्यादा शादियाँ करने का मसला है। जिसे बुनियाद बना कर पच्छिमी दुनिया ने औरतों को इस्लाम के ख़िलाफ़ ख़ूब इस्तेमाल किया है और मुसलमान औरतों को भी यह यक़ीन दिलाने की कोशिश की है कि एक से ज़्यादा शादियों का क़ानून औरतों के साथ नाइंसाफ़ी है और उनकी तहक़ीर व तौहीन का बेहतरीन ज़रिया है गोया औरत अपने शौहर की मुकम्मल मुहब्बत की भी हक़दार नही हो सकती है और उसे शौहर की आमदनी की तरह उसकी मुहब्बत को भी मुख़्तलिफ़ हिस्सों में तक़सीम करना पड़ेगा और आख़िर में जिस क़दर हिस्सा अपनी क़िस्मत में लिखा होगा उसी पर इक्तेफ़ा करना पड़ेगा।
औरत का मेज़ाज हस्सास होता है लिहाज़ा उस पर इस तरह की हर तक़रीर का बा क़ायदा तौर पर असर अंदाज़ हो सकती है और यही वजह है कि मुसलमान मुफ़क्केरीन ने इस्लाम और पच्छिमी सभ्यता को एक साथ करने के लिये और अपने गुमान के अनुसार इस्लाम को बदनामी से बचाने के लिये तरह तरह की ताविलें की हैं और नतीजे के तौर पर यह ज़ाहिर करना चाहा है कि इस्लाम ने यह क़ानून सिर्फ़ मर्दों की तसकीने क़ल्ब के लिये बना दिया है वर्ना इस पर अमल करना मुमकिन नही है और न इस्लाम यह चाहता है कि कोई मुसलमान इस क़ानून पर अमल करे और इसी तरह औरतों के जज़्बात को मजरूह बनाये। उन बेचारे मुफ़क्केरीन ने यह सोचने की भी ज़हमत नही की है कि इस तरह क़ुरआन के अल्फ़ाज़ की तावील तो की जा सकती है और क़ुरआने मजीद को मग़रिब नवाज़ क़ानून साबित किया जा सकता है लेकिन इस्लाम के संस्थापकों और बड़ों को सीरत का क्या होगा। जिन्होने अमली तौर पर इस क़ानून पर अमल किया है और एक समय में कई शादियाँ की हैं जबकि उनके ज़ाहिरी इक़्तेसादी हालात भी ऐसे नही थे जैसे आज कल के बे शुमार मुसलमानों के हैं और उनके किरदार में किसी क़दर अदालत और इँसाफ़ क्यो न फ़र्ज़ कर लिया जाये औरत की फ़ितरत का तब्दील होना मुमकिन नही है और उसे यह अहसास बहरहाल रहेगा कि मेरे शौहर की तवज्जो या मुहब्बत मेरे अलावा दूसरी औरतों से भी मुतअल्लिक़ है।
मसले के तफ़सीलात में जाने के लिये बड़ा समय चाहिये मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि इस्लाम के ख़िलाफ़ यह मोर्चा उन लोगों ने खोला है जिनके यहाँ औरत से मुहब्बत का कोई विभाग ही नही है और उनके निज़ाम में शौहर या बीवी की अपनाईय का कोई तसव्वुर ही नही है। यह और बात है कि उनकी शादी को लव मैरेज से ताबीर किया जाता है लेकिन शादी का यह अंदाज़ ख़ुद इस बात की अलामत है कि इंसान ने अपनी मुहब्बत के मुख़्तलिफ़ केन्द्र बनाएँ हैं और आख़िर में इस जिन्सी क़ाफ़ेले को एक ही केन्द्र पर ठहरा दिया है और इन हालात में उस ख़ालिस मुहब्बत का कोई तसव्वुर ही नही हो सकता है जिसका इस्लाम से मुतालेबा किया जा रहा है।
इसके अलावा इस्लाम ने तो बीवी के अलावा किसी से मुहब्बत को जायज़ भी नही रखा है और बीवियों का संख्या भी सीमित रखी है और निकाह के लिये शर्तें भी बयान कर दी हैं। पच्छिमी समाज में तो आज भी यह क़ानून आम है कि हर मर्द की बीवी एक ही होगी चाहे उसकी महबूबाएँ जितनी भी हों। सवाल यह पैदा होता है कि क्या यह महबूबा मुहब्बत के अलावा किसी और रिश्ते से पैदा होती है? और अगर मुहब्बत से ही पैदा होती है तो क्या यह मुहब्बत की तक़सीम के अलावा कोई और चीज़ है? सच्ची बात तो यह है कि शादी शुदा ज़िन्दगी की ज़िम्मेदारियों और घरेलू ज़िन्दगी से फ़रायज़ से फ़रार करने के लिये पच्छिमी समाज ने अय्याशी का नया रास्ता निकाला है और औरत को बाज़ार में बिकने वाली चीज़ बना दिया है और यह ग़रीब आज भी ख़ुश है कि पच्छिमी दुनिया ने हमें हर तरह की आज़ादी दी है और इस्लाम ने हमें पाबंद बना दिया है।
यह सही है कि अगर किसी बच्चे को दरिया के किनारे मौजों का तमाशा करते हुए अगर वह छलाँग लगाने का इरादा करे और उसे छोड़ दिया जाएं तो यक़ीनन वह ख़ुश होगा कि आपने उसकी ख़्वाहिश का ऐहतेराम किया है और उसके जज़्बात पर पाबंदी नही लगाई है चाहे उसके बाद वह डूब कर मर ही क्यों न जाये लेकिन अगर उसे रोक दिया जाये तो वह यक़ीनन नाराज़ हो जायेगा चाहे उसमें जिन्दगी की राज़ ही क्यो न हो। पच्छिमी औरत की सूरते हाल इस मसले में बिल्कुल ऐसी ही है कि उसे आज़ादी की ख़्वाहिश है और वह हर तरह से अपनी आज़ादी को इस्तेमाल करना चाहती है और करती है लेकिन जब मुख़्तलिफ़ बीमारियों में घिर कर दुनिया के लिये ना क़ाबिले तवज्जो हो जाती है और कोई उससे मुहब्बत का इज़हार करने वाला नही मिलता है तो उसे अपनी आज़ादी के नुक़सानात का अंदाज़ा होता है लेकिन उस समय मौक़ा हाथ से निकल चुका होता है और इंसान के पास अफ़सोस करने के अलावा कोई चारा नही होता।
कई शादियों के मसले पर अच्छी तरह से सोच विचार किया जाये तो यह एक बुनियादी मसला है जो दुनिया के बेशुमार मसलों को हल है और अदुभुत बात यह है कि दुनिया की बढ़ती हुई आबादी और खाने की कमी को देख कर बच्चे कम होने और बर्थ कंटरोल करने का ध्यान तो सारे लोगों के दिल में पैदा हुआ लेकिन औरतों के ज़्यादा होने और मर्दों की संख्या कम होने से पैदा होने वाली मुश्किल का हल तलाश करने का ख़्याल किसी के ज़हन में नही आया।
दुनिया की आबादी की संख्या के अनुसार अगर यह बात सही है कि औरतों की आबादी मर्दों से कहीं ज़्यादा है तो एक बुनियादी सवाल यह पैदा होता है कि इस बढ़ती हुई आबादी का अंजाम क्या होगा। इसके लिये एक रास्ता यहा है कि उसे घुट घुट कर मरने दिया जाये और उसके जिन्सी जज़्बात की तसकीन का कोई इंतेज़ाम न किया जाये। यह काम जाबेराना राजनिती तो कर सकती है लेकिन करीमाना शरीयत नही कर सकती है और दूसरा रास्ता यह है कि उसे अय्याशियों के लिये आज़ाद कर दिया जाये और उसे किसी से भी अपनी जिन्सी तसकीन का इख़्तियार दे दिया जाये।
यह बात सिर्फ़ क़ानून की हद तक तो कई शादी वाले मसले से जुदा है लेकिन अमली तौर पर उसी की दूसरी शक्ल है कि हर इंसान के पास एक औरत बीवी के नाम से होगी और एक किसी और नाम से होगी और दोनो में सुलूक, बर्ताव और मुहब्बत का फ़र्क़ रहेगा कि एक उसकी मुहब्बत का केन्द्र बन कर रहेगी और दूसरी उसकी ख़्वाहिश का। इँसाफ़ से विचार किया जाये कि क्या यह दूसरी औरत की तौहीन नही है कि उसे औरत के आदर व ऐहतेराम से महरुम करके सिर्फ़ जिन्सी तसकीन तक सीमित कर दिया जाये और क्या इस सूरत में यह इमकान नही पाया जाता है और ऐसे अनुभव सामने नही हैं कि इज़ाफ़ी औरत ही मुहब्बत का असली केन्द्र बन जाये और जिसे केन्द्र बनाया था उसकी केन्द्रता का ख़ात्मा हो जाये।
कुछ लोगों ने इसका हल यह निकालने की कोशिश की है कि औरतों की आबादी यक़ीनन ज़्यादा है लेकिन जो औरतें माली तौर पर मुतमईन होती हैं उन्हे शादी की ज़रुरत नही होती है और इस तरह दोनो का औसत बराबर हो जाता है और कई शादियों की कोई ज़रुरत नही रह जाती। लेकिन यह तसव्वुर इंतेहाई जाहिलाना और बेक़ूफ़ाना है और यह जान बूझ कर आँखें बंद कर लेने की तरह है। इसलिये कि शौहर की ज़रुरत सिर्फ़ माली बुनियादों पर होती है और जब माली हालात अच्छे होते हैं तो शौहर की ज़रुरत नही रह जाती है हालाकि मसला इसके बिल्कुल विपरीत है। परेशान औरत किसी समय हालात से मजबूर होकर शौहर की ज़रुरत के अहसास से ग़ाफ़िल हो सकती है लेकिन मुतमईन औरत के पास तो इसके अलावा कोई मसला ही नही है वह इस बुनियादी मसले से किस तरह से ग़ाफ़िल हो सकती है।
इस मसले की दूसरा रुख यह भी है कि मर्दो और औरतों की आबादी के इस तनासुब से इंकार कर दिया जाये और दोनो की संख्या को बराबर मान लिया जाये लेकिन एक मुश्किल बहरहाल पैदा होगी कि फ़सादात और आफ़ात में आम तौर पर मर्दों ही की आबादी में कमी पैदा होती है और इस तरह यह तनासुब हर समय ख़तरे में रहता है और फिर कुछ मर्दों में इतनी ताक़त नही होती कि वह औरत की ज़िन्दगी को बोझ उठा सकें। यह और बात है कि ख़्वाहिश उनके दिल में भी पैदा होती है इसलिये कि जज़्बात माली हालात की पैदावार नही होते हैं उनकी बुनियाद दूसरे हालात से बिल्कुल अलग हैं और उनकी दुनिया का क़यास इस दुनिया पर नही किया जा सकता है। ऐसी सूरत में इस मसले का एक ही हल रह जाता है कि जो पैसे वाले लोग हैं उन्हे कई शादियों के लिये तैयार किया जाये और जो ग़रीब और फ़कीर लोगो हैं और मुस्तक़िल ख़र्च बरदाश्त नही कर सकते हैं उनके लिये ग़ैर मुस्तक़िल इंतेज़ाम किया जाये और यह सब कुछ क़ानून के दायरे में हो। पच्छिमी दुनिया की तरह ला क़ानूनियत का शिकार न हो कि दुनिया की हर ज़बान में क़ानूनी रिश्ते को शादी के नाम दिया जाता है और ग़ैर क़ानूनी रिश्ते को अय्याशी कहा जाता है। इस्लाम हर मसले को इंसानियत, शराफ़त और क़ानून की रौशनी में हल करना चाहता है और पच्छिमी दुनिया क़ानून और ला क़ानूनियत में किसी तरह का फ़र्क़ नही मानती। हैरत की बात है जो लोग सारी दुनिया में अपनी क़ानून परस्ती का ढिढोंरा पीटते हैं वह जिन्सी मसले में इस क़दर बेहिस हो जाते हैं कि यहाँ किसी क़ानून का अहसास नही रह जाता है और मुख़्तलिफ़ तरह के ज़लील तरीन तरीक़े भी बर्दाश्त कर लेते हैं जो इस बात की अलामत है कि पच्छिम एक जिन्स ज़दा माहौल है जिसने इंसानियत ऐहतेराम छोड़ दिया है और वह अपनी ज़िन्सीयत ही इंसानियत के ऐहतेराम और आदर की नाम दे कर अपने बुराईयों को छिपाने की कोशिश कर रहे हैं।
बहरहाल क़ुरआने मजीद ने इस मसले पर इस तरह रौशनी डाली है:
و ان خفتم الا تقسطوا فی الیتامی فانکحوا ما طاب لکم من النساء مثنی و ثلاث و ربع فان خفتم الا تعدلوا فواحدہ او ما ملکت ایمانکم ذلک ادنی الا تعدلوا (سورہ نساء ۳)
और अगर तुम्हे यह डर है कि यतीमों के बारे में न्याय न कर सकोगे तो जो औरतें तुम्हे अच्छी लगें उनसे निकाह करो दो तीन चार से और अगर डर हो कि उनमें भी इँसाफ़ न कर सकोगे तो फिर एक या जो तुम्हारी कनीज़ें हैं। आयते शरीफ़ा से साफ़ ज़ाहिर होता है कि समाज के ज़हन में एक तसव्वुर था कि यतीमों के साथ निकाह करने में इस सुलूक की रक्षा करना मुश्किल हो जाता है जिसका अध्धयन उनके बारे में किया गया है तो क़ुरआने ने साफ़ वाज़ेह कर दिया है कि अगर यतीमों के बारे में इंसाफ़ मुश्किल है और उसके ख़त्म हो जाने का ख़तरा और डर हो तो ग़ैर यतीमों से शादी करो और इस मसले में तुम्हे चार तक आज़ादी दे दी गई है कि अगर इंसाफ़ कर सको तो चार शादी तक कर सकते हो। हाँ अगर यहाँ भी इंसाफ़ न कर पाने का डर हो तो फिर एक ही पर इक्तेफ़ा करो और बाक़ी कनीज़ों से फ़ायदा उठाओ।
इसमे कोई शक नही है कि कई शादियों में इँसाफ़ करने की शर्त हवस के ख़ात्मे और क़ानून की बरतरी की बेहतरीन अलामत है और इस तरह औरत के आदर और सम्मान की पूर्ण रुप से सुरक्षा हो सकती है लेकिन इस सिलसिले में यह बात नज़र अंदाज़ नही होनी चाहिये कि इंसाफ़ वह तसव्वुर बिल्कुल बे बुनियाद है जो हमारे समाज में रायज हो गया है और जिसके पेशे नज़र कई शादी करने को एक ना क़ाबिले अमल फ़ारमूला क़रार दे दिया गया है। कहा जाता है कि इंसाफ़ मुकम्मल मसावात है और मुकम्मल मसावात बहरहाल मुमकिन नही है। इसलिये कि नई औरत की बात और होती है और पुरानी औरत की बात और। लिहाज़ा दोनो के साथ एक जैसा सुलूक मुम्किन नही है हाँलाकि यह तसव्वुर भी जाहेलाना है। इंसाफ़ के मायना सिर्फ़ यह है कि हर हक़दार को उसका हक़ दिया जाये जिसे शरीयत की ज़बान में वाजेबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ से ताबीर किया जाता है इससे ज़्यादा इंसाफ़ का कोई मफ़हूम नही है लिहाज़ा अगर इस्लाम ने चार औरतों में हर औरत की एक रात क़रार दी है तो उससे ज़्यादा का मुतालेबा करना नाइंसाफ़ी है। घर में रात न गु़ज़ारना नाइँसाफ़ी नही है। इसी तरह अगर इस्लाम ने फ़ितरत के ख़िलाफ़ और नई और पुरानी बीवी को एक जैसा क़रार दिया है तो उनके दरमियान में फ़र्क़ करना इंसाफ़ के ख़िलाफ़ है लेकिन अगर उसी ने फ़ितरत के पेशे नज़र शादी के शुरुवाती सात दिन नई बीवी के लिये नियुक्त कर दिये हैं तो इस सिलसिले में पुरानी बीवी का मुदाख़ेलत करना ना इंसाफ़ी है। शौहर का इम्तेयाज़ी बर्ताव करना ना इंसाफ़ी नही है और हक़ीक़त यह है कि समाज ने शौहर के सारे इख़्तियारात छीन लिये हैं लिहाज़ा उसका हर काम लोगों को ज़ुल्म नज़र आता है वर्ना ऐसे शौहर भी होते हैं जो क़ौमी या सियासी ज़रुरतों की बुनियाद पर मुद्दतों घर के अंदर दाख़िल नही होते हैं और बीवी इस बात पर ख़ुश रहती है कि मैं बहुत बड़े आदमी या मिनिस्टर की बीवी हूँ और उस समय उसे इस बात का ख़्याल तक नही आता है कि मेरा कोई हक़ पामाल हो रहा है लेकिन उसी बीवी को अगर यह बात मालूम हो जाये कि वह दूसरी बीवी के घर रात गुज़ारता है तो एक मिनट के लिये बर्दाश्त करने को तैयार न होगी जो सिर्फ़ एक जज़्बाती फ़ैसला है और उसका इंसानी ज़िन्दगी के ज़रुरियात से कोई ताअल्लुक़ नही है। ज़रुरत का ख़्याल रखा जाये तो अक्सर हालात में इंसानों के लिये कई शादियाँ करना ज़रुरत में शामिल है जिससे कोई मर्द या औरत इंकार नही कर सकती है। यह और बात है कि समाज से दोनो मजबूर है और कभी घुटन की गुज़ार कर लेते हैं और कभी बे राह रवी के रास्ते पर चल पड़ते हैं जिसे हर समाज बर्दाश्त कर लेता है और उसे माज़ूर क़रार देता है। जबकि क़ानून की पाबंदी और रिआयत में माज़ूर क़रार नही देता है।
इस सिलसिले में यह बात भी क़ाबिल तवज्जो है कि इस्लाम ने कई शादियों में इंसाफ़ को शर्त क़रार दिया है लेकिन इंसाफ़ और अदालत को इख़्तियारी नही रखा है बल्कि उसे ज़रुरी क़रार दिया है और हर मुसलमान से मुतालेबा किया है कि अपनी ज़िन्दगी में अदालत से काम ले और कोई काम ख़िलाफ़े अदालत न करे। अदालत के मायना वाजिबात की पाबंदी और हराम से परहेज़ के हैं और इस मसले में कोई इंसान आज़ाद नही है। हर इंसान के लिये वाजिबात की पाबंदी भी ज़रूरी है और हराम से परहेज़ भी। लिहाज़ा अदालत कोई इज़ाफ़ी शर्त नही है। इस्लामी मिज़ाज का तक़ाज़ा है कि हर मुसलमान को आदिल होना चाहिये और किसी मुसलमान को अदालत से
बाहर नही होना चाहिये। जिसका लाज़िमी असर यह होगा कि कई शा़दियों के क़ानून पर हर सच्चे मुसलमान के लिये क़ाबिले अमल बल्कि बड़ी हद तक वाजिबुल अमल है क्योकि इस्लाम ने बुनियादी मुतालेबा दो या तीन या चार का किया है और एक शादी को इस्तिस्नाई सूरत दी है जो कि सिर्फ़ अदालत के होने की सूरत में मुमकिन है और अगर मुसलमान वाक़ेई मुसलमान है यानी आदिल है तो उसके लिये क़ानून दो तीन या चार का ही है उसका क़ानून एक का नही है जिसकी मिसालें दीन के बुज़ुर्गों की ज़िन्दगी में हज़ारों की तादाद में मिल जायेगीं और आज भी दीन के रहबरों की अकसरियत इस क़ानून पर अमल कर रही है और उसे किसी तरह से अख़लाक़ व तहज़ीब और क़ानून और शरीयत के ख़िलाफ़ नही समझते हैं और न कोई उनके किरदार पर ऐतेराज़ करने की हिम्मत नही करता है ज़ेरे लब मुस्कुराते ज़रुर हैं कि यह अपने समाज के जाहिलाना निज़ाम की देन है और जिहालत का कम से कम मुज़ाहेरा इसी अंदाज़ से होता है।
इस्लाम ने कई शादियों के ना मुम्किन होने की सूरत में भी कनीज़ों की इजाज़त दी है क्योकि उसे मालूम है कि फ़ितरी तक़ाज़े सही तौर पर एक औरत से पूरे होने मुश्किल हैं लिहाज़ा अगर नाइंसाफ़ी का ख़तरा है और दामने आदालत के हाथ से छूट जाने का ख़तरा है तो इंसान बीवी के साथ संबंध बना सकता है। अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद हो और उनसे संबंध मुम्किन हो तो इस मसले में एक सवाल ख़ुद बख़ुद पैदा होता है कि इस्लाम ने इस अहसास का सुबूत देते हुए कि एक औरत से पुर सुकून ज़िन्दगी गुज़ारना इंतेहाई मुश्किल काम है। पहले कई शादियों का इजाज़त दी और फिर उसके नामुम्किन होने की सूरत में दूसरी बीवी की कमी कनीज़ से पूरी की तो अगर किसी समाज में कनीज़ों का वुजूद ने हो या इस क़दर कम हो कि हर इंसान की ज़रुरत का इंतेज़ाम न हो सके तो उस कनीज़ का बदल का क्या होगा और इस ज़रुरत का इलाज किस तरह होगा। जिस की तरफ़ कुरआने मजीद ने एक बीवी के साथ कनीज़ के इज़ाफ़े से इशारा किया है।
यही वह जगह है जहाँ से मुतआ के मसले की शुरुवात होती है और इंसान यह सोचने पर मजबूर होता है कि अगर इस्लाम ने मुकम्मल जिन्सी हयात की तसकीन का सामान किया है और कनीज़ों का सिलसिला बंद कर दिया है और कई शादियों के क़ानून में न्याय और इंसाफ़ की शर्त लगा दी है तो उसे दूसरा रास्ता बहरहाल खोलना पड़ेगा ताकि इंसान अय्याशी और बदकारी से बचा रहे। यह और बात है कि ज़हनी तौर पर अय्याशी और बदकारी के दिलदादा लोग मुतआ को भी अय्याशी का नाम दे देते हैं और यह मुतआ की मुख़ालेफ़त की बेना पर नही है बल्कि अय्याशी के जायज़ होने की बेना पर है कि जब इस्लाम में मुतआ जायज़ है और वह भी एक तरह की अय्याशी है तो मुतआ की क्या ज़रुरत है सीधे सीधे अय्याशी ही क्यो न की जाएँ और यह दर हक़ीक़त मुतआ की मुश्किलों का ऐतेराफ़ है और इस बात का इक़रार है कि मुतआ अय्याशी नही है इसमें क़ानून, क़ायदे की रिआयत ज़रुरी है और अय्याशी उन तमाम क़ानूनों से आज़ाद और बे परवाह होती है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स) ने अपने शासन काल में और ख़िलाफ़तों के शुरुवाती दौर में मुतआ का रिवाज क़ुरआने मजीद के इसी क़ानून की अमली तशरीह था जबकि उस दौर में कनीज़ों का वुजूद था और उनसे फ़ायदा उठाया जाना मुम्किन था तो यह इस्लामी फ़ोकहा को सोचना चाहिये कि जब उस दौर में सरकारे दो आलम ने अल्लाह के हुक्म की पैरवी में मुतआ को हलाल और रायज कर दिया था तो कनीज़ों के ख़ात्में के बाद इस क़ानून को किस तरह हराम किया जा सकता है। यह तो अय्याशी का खुला हुआ रास्ता होगा कि मुसलमान उसके अलावा किसी और रास्ते पर न जायेगा और लगातार हराम काम करता रहेगा। जैसा कि अमीरुल मोमिनीन हज़रत अली (अ) ने फ़रमाया था कि अगर मुतआ हराम न कर दिया गया होता तो बद बख़्त और शक़ी इंसान के अलावा कोई ज़ेना न करता। गोया आप इस बात की तरफ़ इशारा कर रहे थे कि मुतआ पर पाबंदी लगाने वाले ने मुतआ का रास्ता बंद नही किया है बल्कि अय्याशी और बदकारी का रास्ता खोला है और उसका उसे क़यामत के दिन जवाब देना पड़ेगा।
इस्लाम अपने क़वानीन में इंतेहाई हकीमाना तरीक़ा इख़्तियार करता है और उससे मुँह मोड़ने वाले को शक़ी और बद बख़्त जैसे शब्दों से याद करता है।
मसल-ए-इमामत
इमाम हमेशा मौजूद रहता है। जिस तरह अल्लाह की हिकमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि इंसानों की हिदायत के लिए पैग़म्बरों को भेजा जाये इसी तरह उस की हिकमत यह भी तक़ाज़ा करती है कि पैग़म्बरों के बाद भी इंसान की हिदायत के लिए अल्लाह की तरफ़ से हर दौर में एक इमाम हो जो अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों की शरीयत की तहरीफ़ से महफ़ूज़ रखे, हर ज़माने की ज़रूरतों से आगाह करे और लोगों को अल्लाह के दीन और पैग़म्बरों के आईन की तरफ़ बुलाये। अगर ऐसा न हो तो इंसान की ख़िल्क़त का मक़सद जो कि तकामुल और सआदत है फ़ौत हो जायेगा, इंसान की हिदायत के रास्ते बन्द हो जायेंगे, पैग़म्बरों की शरीयत रायगाँ चली जाये गी और इंसान चारो तरफ़ भटकता फ़िरे गा।
इसी वजह से हमारा अक़ीदह यह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के बाद हर ज़माने में एक इमाम मौजूद रहा है। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमिनू इत्तक़ु अल्लाह व कूनू माअस्सादीक़ीन ”[126] यानी ऐ ईमान लाने वालो अल्लाह से डरो और सादेक़ीन के साथ हो जाओ।
यह आयत किसी एक ख़ास ज़माने से मख़सूस नही है और बग़ैर किसी शर्त के सादेक़ीन की पैरवी का हुक्म इस बात पर दलालत करता है कि हर ज़माने के लिए एक मासूम इमाम होता है जिसकी पैरवी ज़रूरी है। बहुत से सुन्नी शिया उलमा ने अपनी तफ़्सीरों में इस बात की तरफ़ इशारा भी किया है। [127]
45- हक़ीक़ते इमामत
इमामत तन्हा ज़ाहिरी तौर पर हुकूमत करने का मंसब नही है बल्कि यह एक बहुत बलन्दो बाला रूहानी व मअनवी मंसब है। हुकूमते इस्लामी की रहबरी के इलावा दीनो दुनिया के तमाम उमूर में लोगो की हिदायत करना भी इमाम की ज़िम्मेदारी में शामिल है। इमाम लोगों की रूही व फ़िक्री हिदायत करते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शरीयत को हर तरह की तहरीफ़ से बचाता है और पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को जिन मक़ासिद के तहत मंबूस किया गया था उनको मुहक़्क़क़ करता है।
यह वह बलन्द मंसब है,जो अल्लाह ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को नबूवत व रिसालत की मनाज़िल तय करने के बाद, मुताद्दिद इम्तेहान ले कर अता किया और यह वह मंसब है जिस के लिए हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने दुआ की थी कि पालने वाले यह मंसब मेरी औलाद को भी अता करना और उन को इस दुआ का जवाब यह मिला कि यह मंसब ज़ालिमों और गुनाहगारों को नही मिल सकता। “व इज़ इबतला इब्राहीमा रब्बहु बिकलिमातिन फ़अतम्मा हुन्ना क़ाला इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन क़ाला व मिन ज़ुर्रियति क़ाला ला यना3लु अहदि अज़्ज़ालिमीना ”[128] यानी उस वक़्त को याद करो जब इब्राहीम के रब ने चन्द कलमात के ज़रिये उनका इम्तेहान लिया और जब उन्होंने वह इम्तेहान तमाम कर दिया तो उन से कहा गया कि हम ने तुम को लोगों का इमाम बना दिया,जनाबे इब्राहीम ने अर्ज़ किया और मेरी औलाद ? (यानी मेरी औलाद को भी इमाम बनाना) अल्लाह ने फ़रमाया कि मेरा यह मंसब (इमामत) ज़ालिमों तक नही पहुँचता ( यानी आप की ज़ुर्रियत में से सिर्फ़ मासूमीन को हासिल हो गा।
ज़ाहिर है कि इतना अज़ीम मंसब सिर्फ़ ज़ाहिरी हुकूमत तक महदूद नही है,और अगर इमामत की इस तरह तफ़्सीर न की जाये तो मज़कूरह आयत का कोई मफ़हूम ही बीक़ी नही रह जायेगा।
हमारा अक़ीदह है कि तमाम उलुल अज़्म पैग़म्बर मंसबे इमामत पर फ़ाइज़ थे। उन्होंने अपनी जिस रिसालत का इबलाग़ किया उस को अपने अमल के ज़रिये मुहक़्क़क़ किया, वह लोगों के मानवी व माद्दी और ज़ाहिरी व बातिनी रहबर रहे। मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) अपनी नबूवत के आग़ाज़ से ही इमामत के अज़ीम मंसब पर भी फ़ाइज़ थे लिहाज़ उन के कामों को सिर्फ़ अल्लाह के पैग़ाम को पहुँचाने तक ही महदूद नही किया जा सकता।
हमारा अक़ादह है कि पैग़म्बर (स.) के बाद सिलसिला-ए- इमामत आप की मासूम नस्ल में बाक़ी रहा। मस्ल-ए- इमामत के सिलसिले में ऊपर जो वज़ाहत की गई उस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इस मंसाबे इमामत पर फ़ाइज़ होने के लिए शर्ते बहुत अहम हैं यानी असमत व इल्मो दानिश, तमाम मआरिफ़े दीनी का इहाता, हर ज़मान व मकान में इंसानों व उन की ज़रूरतों की शनाख़्त।
46- इमाम गुनाह व ख़ता से मासूम होता है
इमाम के लिए ज़रूरी है कि वह ख़ता व गुनाह से मासूम हो,क्यों कि ग़ैरे मासूम न बतौरे कामिल मौरिदे एतेमाद बन सकता है और न ही उस से उसूले दीन व फ़रूए दीन को हासिल किया जा सकता है। इसी वजह से हमारा अक़ीदह है कि इमाम का “क़ौल ” “फ़ेअल ” व “तक़रीर ”हुज्जत है और दलीले शरई शुमार होते हैं। “तक़रीर” से मुराद यह है कि इमाम के सामने कोई काम अंजाम दिया जाये और इमाम उस काम को देखने के बाद उस से मना न करे तो इमाम की यह ख़ामोशी इमाम की ताईद शुमार होती है।
47- इमाम शरियत का पासदार होता है।
हमारा अक़ीदह है कि इमाम अपने पास से कोई क़ानून या शरियत पेश नही करता बल्कि इमाम का काम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की शरियत की हिफ़ाज़त, दीन की तबलीग़ व तालीम और लोगों को इस की तरफ़ हिदायत करना है।
48- इमाम इस्लाम को सबसे ज़्यादा जानने वाला होता है।
हमारा अक़ीदह है कि इमाम इस्लाम के तमाम उसूल व फ़रूए, अहकाम, क़वानीन, क़ुरआने करीम के मअना व तफ़्सीर का मुकम्मल तौर पर आलिम होता है, और यह तमाम उलूम इमाम को अल्लाह की तरफ़ से हासिल होते हैं और पैग़म्बरे इस्लाम के वसीले से उन तक पहुँचते हैं।
हाँ ऐसा ही इल्म मुकम्मल तौर पर मौरिदे एतेमाद बन सकता है और इस के ज़रिये ही इस्लाम के हक़ाइक़ को समझा जा सकता है।
49- इमाम को मनसूस होना चाहिए
हमारा अक़ीदह है कि इमाम (पैगम्बरे इस्लाम स. का जानशीन) मनसूस होना चाहिए। यानी इमाम का ताय्युन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की नस व तस्रीह के ज़रिये हो और इसी तरह हर इमाम की नस व तस्रीह अपने बाद वाले इमाम के लिए हो। दूसरे अल्फ़ाज़ में इमाम का ताय्युन भी पैग़म्बर की तरह अल्लाह की तरफ़ से (पैग़म्बर के ज़रिये) होता है। जैसा कि हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की इमामत के सिलसिले में क़ुरआने करीम में बयान किया गया है। “इन्नी जाइलुका लिन्नासि इमामन ” यानी मैनें तुम को लोगों का इमाम बनाया।
इस के इलावा असमत और इल्म का वह बलन्द दर्जा (जो किसी ख़ता व ग़लती के बग़ैर तमाम अहकाम व तालीमात इलाही का इहाता किये हो) ऐसी चीज़ें हैं जिन से अल्लाह व उस के पैग़म्बर के इलावा कोई आगाह नही है।
इस बिना पर हम आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की इमामत को लोगों के इंतेख़ाब के ज़रिये नही मानते।
50- आइम्मा पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़रिये मुऐय्यन हुए है।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने अपने बाद के लिए इमामों को मुऐय्यन फ़रमाया है और एक मक़ाम पर बतौरे उमूम मोर्रफ़ी कराई है।
सही मुस्लिम मे रिवायत है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मक्के और मदीने के दरमियान “खुम” नामी सरज़मीन पर तवक़्क़ुफ़ किया, एक ख़ुत्बा बयान किया और उस के बाद फ़रमायाकि “मैं जल्द ही तुम लोगों के दरमियान से जाने वाला हूँ इन्नी तारिकुन फ़ीकुम अस्सक़लैन,अव्वलुहुमा किताबल्लाहि फ़ीहि अलहुदा व अन्नूर ........व अहला बैती, उज़क्किर कुम अल्लाहा फ़ी अहलि बैति ” [129] यानी मैं तुम लोगों के दरमियान दो गराँ क़द्र चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ इन में से एक अल्लाह की किताब है जिस में नूर और हिदायत है.....और दूसरे मेरे अहले बैत हैं मैं तुम को वसीयत करता हूँ कि ख़ुदारा मेरे अहले बैत को फ़रामोश न करना (इस जुम्ले को तीन बार तकरार किया)
यही मतलब सही तिरमिज़ी में भी बयान हुआ है और उसमें सराहत के ,साथ बयान किया गया है कि पैग़म्बरे इसलाम ने फ़रमाया कि अगर इन दोनों के दामन से वाबस्ता रहे तो हर गिज़ गुमराह नही होंगे। [130] यह हदीस सुनने दारमी, ख़साइसे निसाई,मुस्नदे अहमद व दिगर मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है। इस हदीस में कोई तरदीद नही है और हदीसे तवातुर शुमार होती है कोई भी मुसलमान इस हदीस से इंकार नही कर सकता। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम ने इस हदीस को सिर्फ़ एक बार ही नही बल्कि मुताद्दिद मर्तबा मुख़्तलिफ़ मौक़ों पर बयान फ़रमाया।
ज़ाहिर है कि पैग़म्बरे इस्लाम के तमाम अहले बैत तो क़ुरआन के साथ यह बलन्द व बाला मक़ाम हासिल नही कर सकते लिहाज़ा यह इशारा फ़क़त पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़ुर्रियत से आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमु अस्सलाम की तरफ़ ही है। (कुछ ज़ईफ़ व मशकूक हदीसों में अहला बैती की जगह सुन्नती इस्तेमाल हुआ है।)
हम एक दूसरी हदीस के ज़रिये जो सही बुख़ारी, सही मुस्लिम, सही तिरमिज़ी, सही अबी दाऊद व मुसनदे हंबल जैसी मशहूर किताबों में नक़्ल हुई है इस्तेनाद करते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “ला यज़ालु अद्दीनु क़ाइमन हत्ता तक़ूमा अस्साअता अव यकूनु अलैकुम इस्नता अशरा ख़लीफ़तन कुल्लुहुम मिन क़ुरैश ”[131] यानी दीने इस्लाम क़ियामत तक बाक़ी रहेगा यहाँ तक कि बारह ख़लीफ़ा तुम पर हुकूमत करेंगे और यह सब के सब क़ुरैश से होंगे।
हमारा अक़ीदह है कि इन रिवायतों के लिए उस अक़ीदेह के अलावा जो शिया इमामियह का बारह इमामों के बारे में पाया जाता है कोई दूसरी तफ़्सीर क़ाबिले क़बूल नही है। ग़ौर करो कि क्या इस के अलावा भी और कोई तफ़्सीर हो सकती है।
51- हज़रत अली अलैहिस्सलाम पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़रिये नस्ब हुए।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने बहुत से मौक़ों पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम को (अल्लाह के हुक्म से)अपने जानशीन की शक्ल में पहचनवाया है। ख़ास तौर पर आखरी हज से लौटते वक़्त ग़दीरे ख़ुम में असहाब के अज़ीम मजमें में एक ख़ुत्बा बयान फ़रमाया जिसका मशहूर जुम्ला है कि “अय्युहा अन्नास अलस्तु औवला बिकुम मिन अनफ़ुसिकुम क़ालू बला ,क़ाला मन कुन्तु मौलाहु फ़अलीयुन मौलाहु ”[132] यानी ऐ लोगो क्या मैं तुम्हारे नफ़्सों पर तुम से ज़्यादा हक़्क़े तसर्रुफ़ नही रखता हूँ? सबने एक जुट हो कर कहा हाँ आप हमारे नफ़्सों पर हम से ज़्यादा हक़ रखते हैं। पैग़म्बर (स.) ने फ़रमाया बस जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं।
क्योँ कि हमारा मक़सद इस अक़ीदेह की दलीलें बयान करना या इस के बारे में बहस करना नही है इस लिए बस इतना कहते हैं कि न इस हदीस से सादगी के साथ गुज़रा जा सकता है और न ही यहाँ पर उस विलायत से दोस्ती व सीधी सादी मुहब्बत को मुराद लिया जा सकता है जिसको पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इतने बड़े इंतज़ाम और तकीद के साथ बयान फ़रमाया हो।
क्या यह वही चीज़ नही है जिसको इब्ने असीर ने कामिल में लिखा है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने इब्तदा-ए- कार में जब आयते “व अनज़िर अशीरतकल अक़रबीना ” (यानी अपने क़रीबी रिश्तेदारों को डराओ।) नाज़िल हुई तो अपने रिश्तेदारों को जमा किया और उनके सामने इस्लाम को पेश किया और इसके बाद फ़रमाया “अय्युकुम युवाज़िरुनी अला हाज़ल अम्रि अला अन यकूना अख़ी व वसीय्यी व ख़लीफ़ती फ़ी कुम ” यानी तुम में से कौन हौ जो इस काम में मेरी मदद करे ताकि वह तुम्हारे दरमियान मेरा भाई,वसी व ख़लीफ़ा बने।
किसी ने भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के इस सवाल का जवाब नही दिया,बस अली (अ)ही थे जिन्होंने कहा कि “अना या नबी अल्लाह अकूनु वज़ीरुका अलैहि” यानी ऐ अल्लाह के नबी इस काम में मैं आपकी मदद करूँगा।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम की तरफ़ इशारा किया और फ़रमाया “इन्ना हज़ा अख़ी व वसिय्यी व ख़लीफ़ती फ़ा कुम ”[133] यानी यह नौ जवान (अली अ.) तुम्हारे दरमियान मेरा भाई,मेरा वसी व मेरा ख़लीफ़ा है।
क्या यह वही मतलब नही है जिस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम अपनी उम्र के आख़री हिस्से में चाहते थे कि इसकी दूबारा ताकीद करें,और जैसा कि सही बुख़ारी में है कि आपने फ़रमाया “इतूनी अकतुबु लकुम किताबन लन तज़िल्लू बअदी अबदन”[134] यानी कलम व काग़ज़ लाओ मैं तुम्हारे लिए कुछ लिख दूँ ताकि तुम मेरे बाद हर गिज़ गुमराह न हो सको। हदीस के आख़िर में बयान हुआ है कि कुछ लोगों ने इस काम में पैग़म्बर (स.)की मुख़ालेफ़त की यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को तौहीन आमेज़ बातें कहीँ और आप जो लिखना चाहते थे वह आपको लिखने नही दिया गया।
हम इस बात की फिर तकरार करते हैं कि हमारा मक़सद मामूली से इस्तदलाल के साथ अक़ाइद को बयान करना है। न कि इस के बारे में पूरी बहस करना वरना यह दूसरी शक्ल इख़्तियार कर लेगी।
52- हर इमाम की अपने से बाद वाले इमाम के लिए ताकीद
हमारा अक़ीदह है कि बारह इमामों में से हर इमाम इमाम के लिए उन से पहले इमाम ने ताकीद फ़रमाई है। इन में से पहले इमाम हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके बाद उन के दोनों बेटे हज़रत इमाम हसने मुजतबा (अ.)व हज़रत इमाम हुसैन सैय्यदुश शौहदा (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली बिन हुसैन(अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम जअफ़र सादिक़ (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मूसा काज़िम (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम अली रिज़ा (अ.)उन के बाद उन के बेटे हज़रत इमाम मुहम्मद तक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत अली नक़ी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत इमाम हसन अस्करी (अ.)उनके बाद उन के बेटे हज़रत महदी अलैहिस्सलाम हैं और उन के लिए हमारा अक़ीदह है कि वह ज़िन्दा हैं।
अलबत्ता हज़रत महदी (अज.)के वुजूद के -जो कि इस दुनिया को अद्ल व इंसाफ़ से भरेंगे जिस तरह यह ज़ुल्म व सितम से भर चुकी होगी- सिर्फ़ हम ही मोतक़िद नही हैं बल्कि उन पर तमाम मुस्लमानों का अक़ीदह है। कुछ सुन्नी उलमा ने महदी (अज)की रिवायतों के मुतावातिर होने के बारे में किताबें भी लिखी हैं। यहाँ तक कि कुछ साल पहले “राबिततुल आलमुल इस्लामी” की तरफ़ से शाये होने वाले एक रिसाले में हज़रत महदी के वुजूद से मरबूत पूछे गये एक सवाल के जवाब में लिखा गया कि महदी (अज)का ज़हूर मुसल्लम है। और इसके लिए हज़रत महदी (अज)से मरबूत पैग़म्बर (स.)की हदीसों को बहुत सी मशहूर किताबों से नक़्ल किया।[135] कुछ लोग हज़रत महदी अलैहिस्सलाम के बारे में यह अक़ीदह रखते हैं कि वह आख़िरी ज़माने में पैदा होंगे।
लेकिन हमारा अक़ीदह है कि वह बीरहवें इमाम हैं और अभी तक ज़िन्दा हैं और जब अल्लाह चाहेगा वह उस के हुक्म से ज़मीन को ज़ुल्म व सितम से पाक करने व अदले इलाही की हुकूमत क़ाइम करने के लिए क़ियाम करेंगे।
53- हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे।
हमारा अक़ीदह है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम तमाम सहाबा से अफ़ज़ल थे और पैग़म्बरे इस्लाम के बाद उम्मते इस्लामी में उनको औलवियत हासिल थी। लेकिन इन सब के बावुजूद उन के बारे में हर तरह के ग़ुलू को हराम मानते हैं। हमारा अक़ीदह है कि जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम की ख़ुदाई या इस से मुशाबेह किसी दूसरी चीज़ के क़ाइल हैं वह काफ़िर हैं और इस्लाम से ख़ारिज हैं और हम उन के अक़ीदे से बेज़ार हैं। अफ़सोस है कि उन का नाम शियों के नाम के साथ लिया जाता है जिस से बहुत से इस बारे में बहुत सी ग़लत फ़हमियाँ पैदा हो गई हैं। जबकि उलमा-ए-शिया इमामियह ने अपनी किताबों में इस गिरोह को ख़ारिज अज़ इस्लाम ऐलान किया है।
54- सहाबा अक़्ल व तारीख़ की दावरी में
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम के असहाब में बहुत से लोग बड़े फ़िदाकार बुज़ुर्ग मर्तबा व बाशख़्सियत थे। क़ुरआने करीम व इस्लामी रिवायतों में उनकी फ़ज़ीलतो का ज़िक्र मौजूद हैं।लेकिन इस का मतलब यह नही है कि पैग़म्बर इस्लाम (स.)के तमाम साथियों को मासूम मान लिया जाये और उनके तमाम आमाल को सही तस्लीम कर लिया जाये। क्योँ कि क़ुरआने करीम ने बहुत सी आयतों में (जैसे सूरए बराअत की आयतें,सूरए नूर व सूरए मुनाफ़ेक़ून की आयतें) मुनाफ़ेक़ीन के बारे में बाते की हैं जबकि यह मुनाफ़ेक़ीन ज़ाहेरन पैग़म्बर इस्लाम(स.)के असहाब ही शुमार होते थे जबकि क़ुरआने करीम ने उनकी बहुत मज़म्मत की है। कुछ असहाब ऐसे थे जिन्होने पैग़म्बरे इस्लाम के बाद मुस्लमानों के दरमियान जंग की आग को भड़काया,इमामे वक़्त व ख़लीफ़ा से अपनी बैअत को तोड़ा और हज़ारों मुसलमानों का खून बहाया। क्या इन सब के बावुजूद भी हम सब सहाबा को हर तरह से पाक व मुनज़्जह मान सकते हैं ?
दूसरे अलफ़ाज़ में जंग करने वाले दोनों गिरोहों को किस तरह पाक मान जा सकता है(मसलन जंगे जमल व जंगे सिफ़्फ़ीन के दोनों गिरोहों को पाक नही माना जा सकता) क्योँ कि यह तज़ाद है और यह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है। वह लोग जो इस की तौजीह में “इज्तेहाद” को मोज़ू बनाते हैं और उस पर तकिया करते हुए कहते हैं कि दोनों गिरोहों में से एक हक़ पर था और दूसरा ग़लती पर लेकिन चूँकि दोनों ने अपने अपने इज्तेहाद से काम लिया लिहाज़ा अल्लाह के नज़दीक दोनो माज़ूर ही नही बल्कि सवाब के हक़दार हैं,हम इस क़ौल को तसलीम नही करते।
इज्तेहाद को बहाना बना कर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के जानशीन से बैअत तोड़ कर,आतिशे जंग को भड़का कर बेगुनाहों का खून किस तरह बहाया जा सकता है। अगर इन तमाम ख़ूँरेज़ियों की इज्तेहाद के ज़रिये तौजीह की जा सकती है तो फ़िर कौनसा काम बचता है जिसकी तौजीह नही हो सकती।
हम वाज़ेह तौर पर कहते हैं कि हमारा अक़ीदह यह है कि तमाम इंसान यहाँ तक कि पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)के असहाब भी अपने आमाल के तहत हैं और क़ुरआने करीम की कसौटी “इन्ना अकरमा कुम इन्दा अल्लाहि अतक़ा कुम”[136](यानी तुम में अल्लाह के नज़दीक वह गरामी है जो तक़वे में ज़्यादा है।)उन पर भी सादिक़ आती है। लिहाज़ा हमें उनका मक़ाम उनके आमाल के मुताबिक़ तैय करना चाहिए और इस तरह हमें मंतक़ी तौर पर उन के बारे में कोई फ़ैसला करना चाहिए। लिहाज़ा हमें कहना चाहिए कि वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के ज़माने में मुख़लिस असहाब की सफ़ में थे और पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद भी इस्लाम की हिफ़ाज़त की कोशिश करते रहे और क़ुरआन के साथ किये गये अपने पैमान को वफ़ा करते रहे उन्हें अच्छा मान ना चाहिए और उनकी इज़्ज़त करनी चाहिए।
और वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के ज़माने में मुनाफ़ेक़ीन की सफ़ में थे और हमेशा ऐसे काम अंजाम देते थे जिन से पैग़म्बरे इस्लाम (स.)का दिल रंजीदा होता था। या जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम(स.)के बाद अपने रास्ते को बदल दिया और ऐसे काम अंजाम दिये जो इस्लाम और मुसलमानों के नुक़्सान दे साबित हुए,ऐसे लोगों से मुहब्बत न की जाये। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “ला तजिदु क़ौमन युमिनूना बिल्लाहि वअलयौमिल आख़िरि युआद्दूना मन हाद्दा अल्लाहा व रसूलहु व लव कानू आबाअहुम अव अबनाअहुम अव इख़वानहुम अव अशीरतहुम ऊलाइका कतबा फ़ी क़ुलूबिहिम अलईमाना”[137] यानी तुम्हें कोई ऐसी क़ौम नही मिलेगी जो अल्लाह व आख़िरत पर ईमान लेआने के बाद अल्लाह व उसके रसूल की नाफ़रमानी करने वालों से मुब्बत करती हो,चाहे वह (नाफ़रमानी करने वाले)उनके बाप दादा,बेटे,भाई या ख़ानदान वाले ही क्य़ोँ न हो,यह वह लोग हैं जिनके दिलों में अल्लाह ने ईमान को लिख दिया है।
हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि वह लोग जिन्होंने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)को उनकी ज़िन्दगी में या शहादत के बाद अज़ीयतें पहुँचाईँ है क़ाबिले तारीफ़ नही हैं।
लेकिन यह हर गिज़ नही भूलना चाहिए कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के कुछ आसहाब ने इस्लाम की तरक़्क़ी की राह में में बहुत क़ुरबानियाँ दी हैं और वह अल्लाह की तरफ़ से मदह के हक़ दार क़रार पायें हैं। इसी तरह वह लोग जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के बाद इस दुनिया में आयें या जो क़ियामत तक पैदा होगें अगर वह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के सच्चे असहाब की राह पर चले तो वह भी लायक़े तारीफ़ हैं। क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “अस्साबिक़ूना अलअव्वलूना मीन अलमुहाजीरीना व अलअनसारि व अल्ल़ज़ीना अत्तबऊ हुम बिएहसानिन रज़िया अल्लाहु अनहुम व रज़ू अनहु ”[138] यानी मुहाजेरीन व अनसार में से पहली बार आगे बढ़ने वाले और वह लोग जिन्होंने उनकी नेकियों में उनकी पैरवी की अल्लाह उन से राज़ी हो गया और वह अल्लाह से राज़ी हो गये।
यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.)के असहाब के बारे में हमारे अक़ीदेह का निचौड़ है।
55- आइम्मा-ए-अहले बैत (अ.) का इल्म पैग़म्बर (स.) का इल्म है।
मुतावातिर रिवायात की बिना पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने क़ुरआन व अहलेबैत अलैहिमुस् सलाम के बारे में हमें जो हुक्म दिया हैं कि इन दोंनों के दामन से वाबस्ता रहना ताकि हिदायत पर रहो इस की बिना पर और इस बिना पर कि हम आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिमुस् सलाम को मासूम मानते हैं और उनके तमाम आमाल व अहादीस हमारे लिए संद व हुज्जत हैं ,इसी तरह उनकी तक़रीर भी (यानी उनके सामने कोई काम अंजाम दिया गया हो और उन्होंने उस से मना न किया हो) क़ुरआने करीम व पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सीरत के बाद हमारे लिए फ़िक़्ह का मंबा है।
और जब भी हम इस नुक्ते पर तवज्जोह करते हैं कि बहुत सी मोतेबर रिवायतों की बिना पर आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम ने फ़रमाया है कि हम जो कुछ बयान करते हैं सब कुछ पैग़म्बरे इस्लाम(स.)का बयान किया हुआ है जो हमारे बाप दादाओं के ज़रिये हम तक पहुँचा है। इस से यह बात ज़ाहिर हो जाती है कि इनकी रिवायतें पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायतें हैं। और हम सब जानते हैं कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.)से नक़्ल की गई मौरिदे ऐतेमाद व सिक़ा शख़्स की रिवायतें तमाम उलमा-ए- इस्लाम के नज़दीक क़ाबिले क़बूल हैं।
इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम ने जाबिर से फ़रमाया है कि “या जाबिरु इन्ना लव कुन्ना नुहद्दिसुकुम बिरायना व हुवा अना लकुन्ना मीनल हासीकीना,व लाकिन्ना नुहद्दिसु कुम बिअहादीसा नकनिज़ुहा अन रसूलि अल्लाहि (स.)”[139] यानी ऐ जाबिर अगर हम अपनी मर्ज़ी से हवा-ए- नफ़्स के तौर पर कोई हदीस तुम से बयान करें तो हलाक होने वालों में से हो जायेंगे। लेकिन हम तुम से वह हदीसें बयान करते हैं जो हम ने पैग़म्बरे इस्लाम (सल.)से ख़ज़ाने की तरह जमा की हैं।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम की एक हदीस में मिलता है कि किसी आप से सवाल किया आपने उसको उसके सवाल का जवाब अता किया वह इमाम से अपने नज़रिये को बदलने के लिए कहने लगा और आप से बहस करने लगा तो इमाम ने उस से फ़रमाया कि इन वातों को छोड़ “मा अजबतुका फ़ीहि मिन शैइन फ़हुवा अन रसूलिल्लाहि ” यानी मैने जो जवाब तुझ को दिया है इस में बहस की गुँजाइश नही है क्योँ कि यह रसूलुल्लाह(स.)का बयान फ़रमाया हुआ है। [140]
अहम व क़ाबिले तवज्जोह बात यह है कि हमारे पास हदीस की काफ़ी,तहज़ीब,इस्तबसार व मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह बग़ैरह जैसी मोतबर किताबें मौजूद हैं। लेकिन इन किताबों के मोतबर होने का मतलब यह नही है कि जो रिवायतें इन में मौजूद हैं हम उन सब को क़बूल करते हैं। बल्कि इन रिवायतों को परखने के लिए हमारे पास इल्मे रिजाल की किताबें मौजूद है जिन में रावियों के तमाम हालात व सिलसिला-ए-सनद बयान किये गये हैं। हमारी नज़र में वही रिवायत क़ाबिले क़बूल है जिस की सनद में तमाम रावी क़ाबिले ऐतेमाद व सिक़ह हों। इस बिना पर अगर कोई रिवायत इन किताबों में भी हो और उसमें यह शर्तें न पाई जाती हों ते वह हमारे नज़दीक क़ाबिले क़बूल नही है।
इस के अलावा ऐसा भी मुमकिन है कि किसी रिवायत का सिलसिला-ए-सनद सही हो लेकिन हमारे बुज़ुर्ग उलमा व फ़क़ीहों ने शुरू से ही उस को नज़र अंदाज़ करते हुए उस से परहेज़ किया हो (शायद उस में कुछ और कमज़ोरियाँ देखी हों)हम ऐसी रिवायतों को “मोरज़ अन्हा ”कहते हैं और ऐसी रिवायतों का हमारे यहाँ कोई एतेबार नही है।
यहाँ से यह बात रौशन हो जाती है कि जो लोग हमारे अक़ीदों को सिर्फ़ इन किताबों में मौजूद किसी रिवायत या रिवायतों का सहारा ले कर समझने की कोशिश करते हैं,इस बात की तहक़ीक़ किये बिना कि इस रिवायत की सनद सही है या ग़लत,तो उनका यह तरीका-ए-कार ग़लत है।
दूसरे लफ़्ज़ों में इस्लाम के कुछ मशहूर फ़्रिक़ों में कुछ किताबें पाई जाती हैं जिनको सही के नाम से जाना जाता है,जिनके लिखने वालों ने इन में बयान रिवायतों के सही होने की ज़मानत ली है और दूसरे लोग भी उनको सही ही समझते हैं। लेकिन हमारे यहाँ मोतबर किताबों का मतलब यह हर गिज़ नही है,बल्कि यह वह किताबें है जिनके लिखने वाले मोरिदे एतेमाद व बरजस्ता शख़्सियत के मालिक थे,लेकिन इन में बयान की गई रिवायात का सही होना इल्मे रिजाल की किताबों में मज़कूर रावियों के हालात की तहक़ीक़ पर मुनहसिर है।
ऊपर बयान की गई बात से हमारे अक़ाअइद के बारे में उठने वाले बहुत से सवालों के जवाब ख़ुद मिल गये होगें। क्योँ कि इस तरह की ग़फ़लत के सबब हमारे अक़ाइद को तशख़ीस देने में बहुत सी ग़लतियाँ की जाती हैं।
बहर हाल क़ुरआने करीम की आयात,पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की रिवायात के बाद आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस् सलाम की अहादीस हमारी नज़र में मोतबर है इस शर्त के साथ कि इन अहादीस का इमामों से सादिर होने मोतबर तरीक़ों से साबित हो।
क़ुरआन और दीगर आसमानी किताबें
आसमानी किताबों के नज़ूल का फलसफा हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह ने आलमे इंसानियत की हिदायत के लिए बहुत सी आसमानी किताबें भेजी जैसे सुहुफ़े इब्राहीम, सुहुफ़े नूह, तौरात, इँजील और इन में सबसे जामे क़ुरआने करीम है। अगर यह किताबे नाज़िल न होती तो इंसान अल्लाह की मारफ़त और इबादत में बहुत सी ग़लतियों का शिकार हो जाता और उसूले तक़वा, अख़लाक़ व तरबीयत और समाजी क़ानून जैसी ज़रूरी चीज़ों से दूर ही रहता ।
यह आसमानी किताबें सरज़मीन दिल पर बाराने रहमत की तरह की बरसीं और दिल की ज़मीन में पड़े हुए अल्लाह की मारफ़त, तक़वे, अख़लाक़ और इल्म व हिकमत के बीज को नमू अता किया।“आमना अर्रसूलु बिमा उनज़िला इलैहि मिन रब्बिहि व अल मुमिनूना कुल्ला आमना बिल्लाहि व मलाइकतिहि व कुतुबिहि व रुसूलिहि”[62] यानी पैग़म्बर पर जो अल्लाह की तरफ़ से नाज़िल हुआ वह उस पर ईमान लाये और मोमेनीन भी अल्लाह, उसके रसूल, उसके फ़रिश्तों और उसकी किताबों पर ईमान लायें।
अफ़सोस है कि ज़माने के गुज़रने और जाहिल व नाअहल अफ़राद की दख़ालत की वजह से बहुत सी आसमानी किताबों में तहरीफ़ हुई और उन में बहुत सी ग़लत फ़िक्रें दाख़िल कर दी गई। लेकिन क़ुरआने करीम इस तहरीफ़ से महफ़ूज़ रहते हुए हर ज़माने में आफ़ताब की तरह चमकता हुआ दिलों को रौशन करता रहा है।
“क़द जाआ कुम मिन अल्लाहि नूरुन व किताबुन मुबीन यहदी बिहि अल्लाहु मन इत्तबअ रिज़वानहु सुबुला अस्सलामि।”[63]यानी अल्लाह की तरफ़ से तुम्हारे पास नूर और रौशन किताब आ चुकी है अल्लाह इस की बरकत से उन लोगो को जो उसकी ख़ुशनूदी से पैरवी करते हैं सलामत (सआदत) रास्तों की हिदायत करता है।
25- क़ुरआन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का सब से बड़ा मोजज़ा है।
हमारा अक़ादह है कि क़ुरआने करीम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) का सब से बड़ा मोजज़ा है और यह फ़क़त फ़साहत व बलाग़त, शीरीन बयान और मअनी के रसा होने के एतबार से ही नही बल्कि और मुख़्तलिफ़ जहतों से भी मोजज़ा है। और इन तमाम जिहात की शरह अक़ाइद व कलाम की किताबों में बयान कर दी गई है।
इसी वजह से हमारा अक़ीदह है कि दुनिया में कोई भी इसका जवाब नही ला सकता यहाँ तक कि लोग इसके एक सूरेह के मिस्ल कोई सूरह नही ला सकते। क़ुरआने करीम ने उन लोगों को जो इस के कलामे ख़ुदा होने के बारे में शक व तरद्दुद में थे कई मर्तबा इस के मुक़ाबले की दावत दी मगर वह इस के मुक़ाबले की हिम्मत पैदा न कर सके। “क़ुल लइन इजतमअत अलइँसु व अलजिन्नु अला यातू बिमिस्लि हाज़ा अलक़ुरआनि ला यातूना बिमिस्लिहि व लव काना बअज़ु हुम लिबअज़िन ज़हीरन। ”[64] यानी कह दो कि अगर जिन्नात व इंसान मिल कर इस बात पर इत्त्फ़ाक़ करें कि क़ुरआन के मानिंद कोई किताब ले आयें तो भी इस की मिस्ल नही ला सकते चाहे वह आपस में इस काम में एक दूसरे की मदद ही क्योँ न करें।
“व इन कुन्तुम फ़ी रैबिन मिन मा नज़्ज़लना अला अबदिना फ़ातू बिसूरतिन मिन मिस्लिहि व अदउ शुहदाअ कुम मिन दूनि अल्लाहि इन कुन्तुम सादिक़ीन”[65] यानी जो हम ने अपने बन्दे (रसूल) पर नाज़िल किया है अगर तुम इस में शक करते हो तो कम से कम इस की मिस्ल एक सूरह ले आओ और इस काम पर अल्लाह के अलावा अपने गवाहों को बुला लो अगर तुम सच्चे हो।
हमारा अक़ीदह है कि जैसे जैसे ज़माना गुज़रता जा रहा है क़ुरआन के एजाज़ के नुकात पुराने होने के बजाये और ज़्यादा रौशन होते जा रहे हैं और इस की अज़मत तमाम दुनिया के लोगों पर ज़ाहिर व आशकार हो रही है।
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने एक हदीस में फ़रमाया है कि “इन्ना अल्लाहा तबारका व तआला लम यजअलहु लिज़मानिन दूना ज़मानिन व लिनासिन दूना नासिन फ़हुवा फ़ी कुल्लि ज़मानिन जदीदिन व इन्दा कुल्लि क़ौमिन ग़ुज़्ज़ इला यौमिल क़ियामति। ” [66] यानी अल्लाह ने क़ुरआने करीम को किसी ख़ास ज़माने या किसी ख़ास गिरोह से मख़सूस नही किया है इसी वजह से यह हर ज़माने में नया और क़ियामत तक हर क़ौम के लिए तरो ताज़ा रहेगा।
26- क़ुरआन में तहरीफ़ नही
हमारा अक़ीदह यह है कि आज जो क़ुरआन उम्मते मुस्लेमाँ के हाथों में है यह वही क़ुरआन है जो पैगम्बरे इस्लाम (स.) पर नाज़िल हुआ था। न इस में से कुछ कम हुआ है और न ही इस में कुछ बढ़ाया गया है।
पहले दिन से ही कातिबाने वही का एक बड़ा गिरोह आयतों के नाज़िल होने के बाद उन को लिखता था और मुसलमानों की ज़िम्मेदारी थी कि वह रात दिन इस को पढ़े और अपनी पँजगाना नमाज़ों में भी इस की तकरार करें । असहाब का एक बड़ा गिरोह आयाते क़ुरआन की आयतों को हिफ़्ज़ करता था, हाफ़िज़ान व क़ारियाने क़ुरआन का इस्लामी समाज में हमेशा ही एक अहम मक़ाम रहा है और आज भी है। यह सब बातें इस बात का सबब बनी कि कुरआने करीम में कोई मामूली सी भी तहरीफ़ भी वाक़ेअ न हो सकी।
इस के अलावा अल्लाह ने रोज़े क़ियामत तक इस की हिफ़ाज़त की ज़मानत ली है लिहाज़ा अल्लाह की ज़मानत के बाद इस में तहरीफ़ नामुमकिन है।“इन्ना नहनु नज़्ज़लना अज़्ज़िकरा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ूना।”[67] यानी हम ने ही क़ुरआन को नाज़िल किया है और हम ही इस की हिफ़ाज़त करते हैं।
तमाम उलमा-ए- इस्लाम चाहे वह सुन्नी हों या शिया इस बात पर मुत्तफ़िक़ हैं कि क़ुरआने करीम में कोई तहरीफ़ नही हुई है।दोनों तरफ़ के सिर्फ़ चन्द अफ़राद ही ऐसे हैं जिन्होंने क़ुरआने करीम में तहरीफ़ के वजूद को रिवायात के ज़रिये साबित कर ने की कोशिश की है। लेकिन दोनों गिरोह के जय्यद उलमा ने इस नज़रिये की तरदीद की है और तहरीफ़ से मुताल्लिक़ रिवायतों को जाली या फिर तहरीफ़े मअनवी से मुतल्लिक़ माना है। तहरीफ़े मअनवी यानी क़ुरआने करीम की आयतों की ग़लत तफ़्सीर।
वह कोताह फ़िक्र अफ़राद जो क़ुरआने करीम की तहरीफ़ के बारे में मुसिर हैं, और शिया या सुन्नी गिरोह की तरफ़ तहरीफ़ की निस्बत देते हैं उनका नज़रिया दोनों मज़हबों के मशहूर व बुज़ुर्ग उलमा के नज़रियों के मुख़ालिफ़ है। यह लोग नादानी में क़ुरआने करीम पर वार करते हैं और ना रवाँ तअस्सुब की बिना पर इस अज़ीम आसमानी किताब के एतेबार को ही ज़ेरे सवाल ले आते हैं और अपने इस अमल के ज़रिये दुश्मन को तक़वियत पहुँचाते हैं।
क़ुरआने करीम की जम आवरी की तारीख़ को पढ़ ने से मालूम होता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने से ही मुस्लमानों ने क़ुरआने करीम की किताबत, हिफ़्ज़, तिलावत व हिफ़ाज़त के फ़ोक़ुल आद्दा इँतज़ामात किये थे। ख़ास तौर पर पहले दिन से ही कातिबाने वही का वुजूद हमारे लिए इस बात को रौशन कर देता है कि क़ुरआने करीम में तहरीफ़ ना मुमकिन है।
और यह भी कि इस मशहूर क़ुरआन के अलावा किसी दूसरे क़ुरआन का वुजूद नही पाया जाता। इसकी दलील बहुत रौशन है सब के लिए तहक़ीक़ का दरवाज़ा खुला हुआ है जिसका दिल चाहे तहक़ीक़ करे आज हमारे घरों में तमाम मसाजिद में और उमूमी किताब खानों में क़ुरआने करीम मौजूद है। यहाँ तक कि क़ुरआने करीम के कई सौ साल पहले लिख्खे गये ख़त्ती नुस्ख़े भी हमारे आजायब घरों मे मौजूद हैं जो इस बात की तस्दीक़ करते हैं कि यह वही क़ुरआन है जो आज तमाम इस्लामी मुमालिक में राइज हैं। आगर माज़ी में इन मसाइल पर तहक़ीक़ मुमकिन नही थी तो आज तो सब के लिए तहक़ीक़ का दरवाज़ा खुला हुआ है। एक मुख़्तसर सी तहक़ीक़ के बाद इस ना रवाँ निस्बत का बेबुनियाद होना ज़ाहिर हो जाये गा।
“फ़बश्शिर इबादि * अल्लज़ीना यसतमिऊना अलक़ौलाफ़
यत्तबिऊना अहसनहु[68]” यानी मेरे बन्दों को ख़ुशख़बरी दो,उन बन्दो को जो बातों को सुन कर उन में नेक बातों की पैरवी करते हैं।
आज कल हमारे होज़ाते इल्मिया में उलूमे क़ुरआन एक वसी पैमाने पर पढ़ाया जा रहा है। और इन दुरूस में सब से अहम बहस अदमे तहरीफ़े क़ुरआने करीम है।[69]
27- क़रआन व इँसान की माद्दी व मानवी ज़रूरतें।
वह तमाम चीज़ें जिन की इंसान को अपनी माद्दी व मानवी ज़िन्दगी में ज़रूरत है उन के उसूल कुरआने करीम में बयान कर दिये गये हैं। चाहे वह हुकूमत चलाने के क़वानीन हों या सियासी मसाइल, दूसरे समाजों से राब्ते के मामलात हो या बा हम ज़िन्दगी बसर करने के उसूल, जंग व सुलह के के मसाइल हों या क़ज़ावत व इक़्तेसाद के उसूल या इन के अलावा और कोई मामलात तमाम के क़वाइद कुल्लि को इस तरह बयान कर दिया गया है कि इन पर अमल पैरा होने से हमारी ज़िन्दगी की फ़ज़ा रौशन हो जाती है। “व नज़्ज़ला अलैका अल किताबा तिबयानन लिकुल्लि शैइन व हुदन व रहमतन व बुशरा लिलमुस्लिमीना ”[70] यानी हमने इस किताब को आप पर नाज़िल किया जो तमाम चीज़ों को बयान करने वाली है और मुस्लमानों के लिए रहमत, हिदायत और बशारत है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह है कि “इस्लाम ”“हुकूमत व सियासत से ” हर गिज़ जुदा नही है बल्कि मुस्लमानों को फ़रमान देता है कि ज़मामे हुकूमत को अपने हाथों में सँभालो और इस की मदद से इस्लाम की अरज़िशों को ज़िन्दा करे और इस्लामी समाज की इस तरह तरबियत हो कि आम लोग क़िस्त व अद्ल राह पर गामज़न हों यहाँ तक कि दोस्त व दुश्मन दोनों के बारे में अदालत से काम लें। “या अय्युहा अल्लज़ीना आमनु कूनू क़व्वामीना बिलक़िस्ति शुहदाआ लिल्लाहि व लव अला अनफ़ुसिकुम अविल वालिदैनि व अल अक़राबीना।”[71]यानी ऐ ईमान लाने वालो अद्ल व इँसाफ़ के साथ क़ियाम करो और अल्लाह के लिए गवाही दो चाहे यह गवाही ख़ुद तुम्हारे या तुम्हारे वालदैन के या तुम्हारे अक़रबा के ही ख़िलाफ़ क्योँ न हो। “व ला यजरि मन्ना कुम शनानु क़ौमिन अला अन ला तअदिलु एदिलु हुवा अक़रबु लित्तक़वा ” ख़बर दार किसी गिरोह की दुश्मनी तुम को इस बात पर आमादा न कर दे कि तुम इँसाफ़ को तर्क कर दो , इंसाफ़ करो कि यही तक़वे से क़रीब तर है।
28- तिलावत, तदब्बुर, अमल
क़ुरआने करीम की तिलावत अफ़ज़ल तरीन इबादतों में से एक है और बहुत कम इबादते ऐसी हैं जो इसके पाये को पहुँचती हैं। क्यों कि यह इल्हाम बख़्श तिलावत क़ुरआने करीम में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बनती है और ग़ौर व फ़िक्र नेक आमाल का सरचश्मा है।
क़ुरआने करीम पैग़म्बरे इस्लाम को मुख़डातब क़रार देते हुए फ़रमाता है कि “क़ुम अललैला इल्ला क़लीला* निस्फ़हु अव उनक़ुस मिनहु क़लीला* अव ज़िद अलैहि व रत्तिल अल क़ुरआना तरतीला....”[72] यानी रात को उठो मगर ज़रा कम, आधी रात या इस से भी कुछ कम,या कुछ ज़्यादा कर दो और क़ुरआन को ठहर ठहर कर ग़ौर के साथ पढ़ो।
और क़ुरआने करीम तमाम मुस्लमानों को ख़िताब करते हुए फ़रमाता है कि “फ़इक़रउ मा तयस्सरा मिन अलक़ुरआनि”[73] यानी जिस क़द्र मुम्किन हो क़ुरआन पढ़ा करो।
लेकिन उसी तरह जिस तरह कहा गया, क़ुरआन की तिलावत उस के मअना में ग़ौर व फ़िक्र का सबब बने और यह ग़ौर व फ़िक्र क़ुरआन के अहकामात पर अमल पैरा होने का सबब बने। “अफ़ला यतदब्बरूना अलक़ुरआना अम अला क़ुलूबिन अक़फ़ालुहा ”[74] क्या यह लोग क़ुरआन में तदब्बुर नही करते या इन के दिलों पर ताले पड़े हुए हैं।“व लक़द यस्सरना अलक़ुरआना लिज़्ज़िकरि फ़हल मिन मद्दकिरिन[75]” और हम ने क़ुरआन को नसीहत के लिए आसान कर दिया तो क्या कोई नसीहत हासिल करने वाला है।“व हाज़ा किताबुन अनज़लनाहु मुबारकुन फ़इत्तबिउहु”[76] यानी हम ने जो यह किताब नाज़िल की है बड़ी बरकत वाली है, लिहाज़ा इस की पैरवी करो।
इस बिना पर जो लोग सिर्फ़ तिलावत व हिफ़्ज़ पर क़िनाअत करते हैं और क़ुरआन पर “तदब्बुर” “अमल” नही करते अगरचे उन्होंने तीन रुकनों में से एक रुक्न को तो अंजाम दिया लेकिन दो अहम रुक्नों को छोड़ दिया जिस के सबब बहुत बड़ा नुक्सान बर्दाश्त करना पड़ा।
29- इनहेराफ़ी बहसे
हमारा मानना है कि मुस्लमानों को क़ुरआने करीम की आयात में तदब्बुर करने से रोकने के लिए हमेशा ही साज़िशें होती रही हैम इन साज़िशों के तहत कभी बनी उमय्यह व बनी अब्बास के दौरे हुकूमत में अल्लाह के कलाम के क़दीम या हादिस होने की बहसों को हवा दे कर मुस्लमानों को दो गिरोहों में तक़्सीम कर दिया गया, जिस के सबब बहुत ज्यादा ख़ूँरेजिया वुजूद में आई। जबकि आज हम सब जानते हैं कि इन बहसों में नज़ाअ असलन मुनासिब नही है। क्योँ कि अगर अल्लाह के कलाम से हरूफ़ ,नक़ूश ,किताबत व काग़ज़ मुराद है तो बेशक यह सब चीज़ें हादिस हैं और अगर इल्मे परवरदिगार में इसके मअना मुराद हैं तो ज़ाहिर है कि उसकी ज़ात की तरह यह भी क़दीम है। लेकिन सितमगर हुक्काम और ज़ालिम ख़लीफ़ाओं ने मुसलमानों को बरसों तक इस मस्ले में उलझाए रक्खा। और आज भी ऐसी ही साज़िशें हो रही है और इस के लिए दूसरे तरीक़े अपनाए जा रहे हैं ताकि मुस्लमानों को क़ुरआनी आयात पर तदब्बुर व अमल से रोका जा सके।
30- क़ुरआने करीम की तफ़्सीर के ज़वाबित
हमारा मानना है कि क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ को उनके लुग़वी व उर्फ़ी मअना में ही इस्तेमाल किया जाये,जब तक आयत में अलफ़ाज़ के दूसरे मअना में इस्तेमाल होने का कोई अक़्ली या नक़्ली क़रीना मौजूद न हो। (लेकिन मशकूक क़रीनों का सहारा लेने से बचना चाहिए और क़ुरआने करीम की आयात की तफ़्सीर हद्स या गुमान की बिना पर नही करनी चाहिए।
जैसे क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “व मन काना फ़ी हाज़िहि आमा फ़हुवा फ़ी अलआख़िरति आमा”[77] यानी जो इस दुनिया में नाबीना रहा वह आख़ेरत में भी नाबीना ही रहे गा।
हमें यक़ीन है कि यहाँ पर “आमा” के लुग़वी मअना नाबीना मुराद नही हो सकते,इस लिए कि बहुत से नेक लोग ज़ाहेरन नाबीना थे,बल्कि यहाँ पर बातिनी कोर दिली व नाबीनाई ही मुराद है। यहाँ पर अक़्ली क़रीने का वुजूद इस तफ़्सीर का सबब है।
इसी तरह क़ुरआने करीम इस्लाम दुश्मन एक गिरोह के बारे में फ़रमा रहा है कि “सुम्मुन बुकमुन उमयुन फ़हुम ला यअक़ीलूना ”[78] यानी वह बहरे, गूँगे और अन्धे है, इसी वजह से कोई बात नही समझ पाते।
यह बात रोज़े रौशन की तरह आशकार है कि वह ज़ाहिरी तौर पर अन्धे, बहरे और गूँगे नही थे बल्कि यह उन के बातिनी सिफ़ात थे। (यह तफ़्सीर हम क़रीना-ए- हालिया के मौजूद होने की वजह से करते हैं।)
इसी बिना पर क़ुरआने करीम की वह आयते जो अल्लाह तआला के बारे में कहती हैं कि “वल यदाहु मबसूसतानि ”[79] यानी अल्लाह के दोनों हाथ खुले हुए हैं। या “व इस्नइ अलफ़ुलका बिआयुनिना” [80] यानी (ऐ नूह)हमारी आँखों के सामने किश्ती बनाओ।
इन आयात का मफ़हूम यह हर गिज़ नही है कि अल्लाह के आँख, कान और हाथ पाये जाते है और वह एक जिस्म है। क्योँ कि हर जिस्म में अजज़ा पाये जाते हैं और उस को ज़मान, मकान व जहत की ज़रूरत होती है और आख़िर कार वह फ़ना हो जाता है। अल्लाह इस से बरतर व बाला है कि उस में यह सिफ़तें पाई जायें। लिहाज़ा “यदाहु” यानी हाथों से मुराद अल्लाह की वह क़ुदरते कामिला है जो पूरे जहान को ज़ेरे नुफ़ूज़ किये है,और “आयुन” यानी आँख़ों से मुराद उसका इल्म है हर चीज़ की निस्बत।
इस बिना पर हम ऊपर बयान की गई ताबीरात को चाहे वह अल्लाह की सिफ़ात के बारे में हों या ग़ैरे सिफ़ात के बारे में अक़्ली व नक़्ली क़रीनों के बग़ैर क़बूल नही करते । क्योँ कि तमाम दुनिया के सुख़नवरों की रविश इन्हीँ दो क़रीनों पर मुनहसिर रही है और क़ुरआने करीम ने इस रविश को क़बूल किया है। “व मा अरसलना मिन रुसुलिन इल्ला बिलिसानि क़ौमिहि”[81] यानी हमने जिन क़ौमों में रसूलों को भेजा उन्हीँ क़ौमों की ज़बान अता कर के भेजा। लेकिन यह बात याद रहे कि यह क़रीने रौशन व यक़ीनी होने चाहिए, जैसे ऊपर भी बयान किया जा चुका है।
31- तफ़्सीर बिर्राय के ख़तरात
हमारा अक़ीदह है कि क़ुरआने करीम के लिए सब से ख़तरनाक काम अपनी राय के मुताबिक़ तफ़्सीर करना है। इस्लामी रिवायात में जहाँ इस काम को गुनाहे कबीरा से ताबीर किया गया है वहीँ यह काम अल्लाह की बारगाह से दूरी का सबब भी बनता है। एकहदीस में बयान हुआ है कि अल्ला ने फ़रमाया कि “मा आमना बी मन फ़स्सरा बिरायिहि कलामी ”[82] यानी जो मेरे कलाम की तफ़्सीर अपनी राय के मुताबिक़ करता है वह मुझ पर ईमान नही लाया। ज़ाहिर है कि अगर ईमान सच्चा हो तो इंसान कलामे ख़ुदा को उसी हालत में क़बूल करेगा जिस हालत में है न यह कि उस को अपनी राय के मुताबिक़ ढालेगा।
सही बुख़ारी, तिरमिज़ी, निसाई और सुनने दावूद जैसी मशहूर किताबों में भी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की यह हदीस मौजूद है कि “मन क़ाला फ़ी अलक़ुरआनि बिरायिहि अव बिमा ला यअलमु फ़लयतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि ”[83] यानी जो कुरआन की तफ़्सीर अपनी राय से करे या ना जानते हुए भी क़ुरआन के बारे में कुछ कहे तो वह इस के लिए तैयार रहे कि उसका ठिकाना जहन्नम है।
तफ़्सीर बिर्राय यानी अपने शख़्सी या गिरोही अक़ीदह या नज़रिये के मुताबिक़ क़ुरआने करीम के मअना करना और उस अक़ीदह को कुरआने करीम से ततबीक़ देना, जबकि उसके लिए कोई क़रीना या शाहिद मौजूद न हो। ऐसे अफ़राद दर वाक़े क़ुरआने करीम के ताबेअ नही हैं बल्कि वह चाहते हैं कि क़ुरआने करीम को अपना ताबे बनायें। अगर क़ुरआने करीम पर पूरा ईमान हो तो हर गिज़ ऐसा न करें।अगर क़ुरआने करीम में तफ़्सीर बिर्राय का बाब खुल जाये तो यक़ीन है कि कुल्ली तौर पर क़ुरआन का ऐतेबार खत्म हो जाये गा, जिस का भी दिल चाहेगा वह अपनी पसंद से क़ुरआने करीम के मअना करेगा और अपरने बातिल अक़ीदों को क़ुरआने करीम से ततबीक़ देगा।
इस बिना पर तफ़्सीर बिर्राय यानी इल्में लुग़त, अदबयाते अरब व अहले ज़बान के फ़हम ख़िलाफ़ क़ुरआने करीम की तफ़्सीर करना और अपने बातिल ख़यालात व गिरोही या शख़्सी खवाहिशात को क़ुरआन से तताबुक़ देना, क़ुरआने करीम की मानवी तहरीफ़ का सबब है।
तफ़्सीर बिर्राय की बहुत सी क़िस्में हैं। उन में से एक क़िस्म यह है कि इंसान किसी मौज़ू जैसे “शफ़ाअत” “तौहीद” “इमामत” वग़ैरह के लिए क़ुरआने करीम से सिर्फ़ उन आयतों का तो इँतेख़ाब कर ले जो उस की फ़िक्र से मेल खाती हों,और उन आयतों को नज़र अन्दाज़ कर दे जो उस की फ़िक्र से हमाहँग न हो,जब कि वह दूसरी आयात की तफ़्सीर भी कर सकती हों।
खुलासा यह कि जिस तरह क़ुरआने करीम के अलफ़ाज़ पर जमूद, अक़्ली व नक़्ली मोतबर क़रीनों पर तवज्जोह न देना एक तरह का इनहेराफ़ है उसी तरह तफ़्सीर बिर्राय भी एक क़िस्म का इनहेराफ़ है और यह दोनों क़ुरआने करीम की अज़ीम तालीमात से दूरी का सबब है। इस बात पर तवज्जोह देना ज़रूरी है।
32- सुन्नत अल्लाह की किताब से निकली है।
हमारा अक़ीदह है कि कोई भी यह नही कह सकता है कि “कफ़ाना किताबा अल्लाहि ”हमें अल्लाह की किताब काफ़ी है और अहादीस व सुन्नते नबवी (जो कि तफ़्सीर व क़ुरआने करीम के हक़ाइक़ को बयान करने, क़ुरआने करीम के नासिख़- मँसूख़ व आमो ख़ास को समझने और उसूल व फुरू में इस्लामी तालीमात को जान ने का ज़रिया है।) की ज़रूरत नही है। “इस इबारत का मतलब यह नही है कि तारीख़ मे ऐसा किसी ने नही कहा,बल्कि मतलब यह है कि कोई भी सुन्नत के बग़ैर तन्हा किताब के ज़रिये इस्लाम को समझ ने का दावा नही कर सकता ” मुतरजिम।
क्योँ कि क़ुरआने करीम की आयात ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की सुन्नत को- चाहे वह लफ़्ज़ी हो या अमली - मुसलमानों के लिए हुज्जत क़रार दिया है और आप की सुन्नत को इस्लाम के समझ ने व अहकाम के इस्तँबात के लिए एक असली मनबा माना है।“मा अता कुम अर्रसूलु फ़ख़ुज़ुहु व मा नहा कुम अनहु फ़इन्तहू”[84] रसूल जो तुम्हें दे ले लो (यानी जिस बात का हुक्म दे उसे अन्जाम दो) और जिस बात से मना करे उस से परहेज़ करो।
“व मा काना लिमुमिनिन व ला मुमिनतिन इज़ा क़ज़ा अल्लाहु व रसूलुहु अमरन अन यकूना लहुम अलख़ियरतु मिन अमरि हिम व मन यअसी अल्लाहा व रसूलहु फ़क़द ज़ल्ला ज़लालन मुबीनन।”[85] यानी किसी भी मोमिन मर्द या औरत को यह हक़ नही है कि जब किसी अम्र मे अल्लाह या उसका रसूल कोई फ़ैसला कर दें तो वह उस अम्र में अप ने इख़्तियार से काम करे और जो भी अल्लाह और उस के रसूल की नाफ़रमानी वह खिली हुई गुमराही में है।
जो सुन्नते पैग़म्बर (स.) की परवा नही करते दर हक़ीक़त उन्हों ने क़ुरआर्ने करीम को नज़र अँदाज़ कर दिया है। लेकिन सुन्नत के लिए ज़रूरी है कि वह मोतबर ज़राये से साबित हो, ऐसा नही है कि जिसने हज़रत की सीरत के मुताल्लिक़ जो कह दिया सब क़बूल कर लिया जाये।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैं कि “व लक़द कुज़िबा अला रसूलि अल्लाहि सल्ला अल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम- हत्ता क़ामा ख़तीबन फ़क़ाला मन कजबा अलैया मुताम्मदन फ़ल यतबव्वा मक़अदहु मिन अन्नारि ”[86] यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़िन्दगी मे ही बहुत सी झूटी बातों को पैग़म्बर (स.)की तरफ़ निस्बत दी गई तो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ख़ुत्बा देने के लिए खड़े हुए और फ़रमाया कि जो अमदन किसी झूटी बात को मेरी तरफ़ मनसूब करे, वह जहन्नम में अपने ठिकाने के लिए भी आमादह रहे।
इस मफ़हूम से मलती जुलती एक हदीस सही बुख़ारी में भी।[87]
33- सुन्नत आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहिम अस्सलाम)
हमारा अक़ीदह यह भी है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के फ़रमान के मुताबिक़ आइम्मा-ए- अहले बैत (अलैहम अस्सलाम) की अहादीस भी वाजिब उल इताअत हैं। क्योँ कि
क) मशहूर व मारूफ़ मुतावातिर हदीस जो अहले सुन्नत और शिया दोनों मज़हबें की अक्सर किताबों में बयान की गई है उस में भी इसी मअना की तस्रीह है। सही तरमिज़ी में पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की यह हदीस मौजूद है कि आप ने फ़रमाया “या अय्युहा अन्नासु इन्नी क़द तरकतु फ़ी कुम मा इन अख़ज़तुम बिहि लन तज़िल्लू, किताबा अल्लाहि व इतरती अहला बैती ”[88]
ख) आइम्मा-ए- अहले बैत अलैहिम अस्सलाम ने अपनी तमाम हदीसें पैग़म्बरे इस्लाम(स.)से नक़्ल की हैं। और फ़रमाया है कि जो कुछ हम बयान कर रहे हैं यह पैग़म्बर से हमारे बाप दादा के ज़रिये हम तक पहुँचा है।
हाँ पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने अपनी हयाते तौयबा में ही मसलमानों के मुस्तक़बिल व उन की मुश्किलात को अच्छी तरह महसूस कर लिया था लिहाज़ा उम्मत को उन के हल का तरीक़ा बताया और फ़रमाया कि क़ियामत तक पेश आने वाली तमाम मुश्किलात का हल क़ुरआने करीम व अहले बैत अलैहिम अस्सलाम की पैरवी है।
क्या इतनी अहम और क़वी उस सनद हदीस को नज़र अन्दाज़ किया जा सकता है ?
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह है कि अगर क़ुरआने करीम व अहले बैत अलैहिम अस्साम के मसले पर तवज्जोह दी जाती तो आज मुसलमान अक़ाइद, तफ़्सीर और फ़िक़्ह की बाज़ मुश्किलात से रू बरू न होते ।