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हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी के सियासी इक़दामात
हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी के सियासी इक़दामात अगरचे इस मुख़्तसर तहरीर में नहीं बयान किए जा सकते हैं लेकिन चन्द मुख्तसर मवाक़े व मवाकिफ़ को शुमार ज़रुर किया जा सकता है।
1. दरबारे शाह और मरजईयत
आयतुल्लाह बुरुजर्दी की ज़आमत व मरजईयत के ज़माने में अगरचे शाही हुकूमत और ख़ारजी अनासीर के साथ सख्त इन्क़ेलाबी टक्कर लेने का ज़मीना फ़राहम नहीं था क्यों कि इस्लामी इन्केलाब के नताएज बर्दाश्त करने की लोगों में न तो अभी इतनी ताक़त थी और न ही इस क़द्र आशनाई व आगाही थी। ये यक़ीन कर लेना चाहिए कि आप की मरजइयत के ज़माने में ही आईन्दा इन्क़ेलाब के लिए बहुत सी तवानाइयाँ इन्केलाब के लिए तरबीयत पा चुकी थीं जिन्हों ने क़याम व इन्केलाब के पूरे दौर में तारीख़ साज़ किरदार अदा किये। बॉज़ सियासी साहेबाने अफ़कार व नज़रियात के बकौल रज़ा खान की तरफ़ से शदीद घुटन का माहौल बनाने और मस्जिदों, इमाम बारगाहों को बन्द करने नीज़ लेबासे रुहानियत पर रोक लगाने के बाद शियों का एक अहम कारनामा जिसमें आयतुल्लाह बुरुजर्दी का बहुत बड़ा हिस्सा रहा है। हौज़ ए इल्मिया कुम और मुल्क़ के दूसरे शहरों में दीनी हौज़ात की तशकील व तौसीअ है। सन 1330 से सन 1340 हिजरी शमसी के दस साला फासले में जब कि उलमा काफी हद तक खामोशी की ज़िन्दगी बसर कर रहे थे। हौज़ ए इल्मिय ए कुम ने तक़रीबन हज़रत इमाम जाफ़रे साहिक अलैहिस्सलाम के काम के मानिन्द काम अन्जाम दिया, हज़ारों की तादाद में दीनी इन्क़ेलाबी मोक़ल्लेदीन रोज़ाना के मसाएल से वाकिफ़ और इल्मो फहम के साथ तरबीयत पा कर इन्केलाब के लिए ज़खीरा बन गए और अगर ये लोग न होते तो मुहाल था कि ईरान में पहलवी शहनशाहियत को शिकस्त होती।
(हाशमी रफ्सन्जानी सन 1376 जिल्द 3, सफहा 379)
इन सब के बावजूद आयतुल्लाह बुरुजर्दी को जहाँ कहीं भी खतरे का ऐहसास होता था इक्दाम करने से नहीं हिचकते थे। फौरन मौकिफ़ इख्तेयार करते थे मसलन जब शाह ईरान ने फारसी तहरीर को लातीन में तब्दील करना चाहा तो आपने भर पूर तरीके से उस रुसवा कुन हरकत का मुकाबला किया और फरमायाः जब तक मैं ज़िन्दा हूँ इस काम के अम्ली होने की इजाज़त नहीं दूँगा उसका नतीजा चाहे जो हो जाए।
(गुलशने अबरार, जिल्द 2, सफ़हा 671).
मौजूदा मालूमात के मुताबिक़ पता चलता है कि उस फर्ज़ाना व आगाह बुज़ुर्ग मरज ए तक़लीद ने मोमिन इन्केलाबियों की मदद के साथ साथ अजीब और बड़ी बारीक सियासत अपना रखी थी। उनका ख्याल था कि लोगों में अभी मुश्केलात और दुशवारियों को बर्दाश्त करने की ज़्यादा आमादगी पैदा नहीं हुई है, वह हुकूमती सख्तियों से रुबरु होंगे तो मरजइयत को अकेला छोड़ सकते हैं। इसी लिए आप दरबारे शाह से बराहे रास्त टकराने को मुनासिब नहीं समझते थे और दूसरी जानिब शाह को अकेला छोडने और उसे मुकम्मल तरीके से अलहिदा करने की सूरत में उसके बेगानों के दामन में मज़ीद चले जाने का अन्देशा था। इस लिए कभी भी आप उससे मदारा करते थे ताकि वह मग़रुर हाकिम अपने पाय कमज़ोर न समझ बैठे और अपने तहफ्फुज़ के लिए बेगानों की पनाह में न चला जाए।
(गुलशने अबरार, सन 1382 शुमारा, जिल्द 2, सफ़हा 671)
2. सियासी फिरक़े बहाईयत का मुकाबला
आयतुल्लाह बुरुजर्दी के वतन में सुकूनत होने के ज़माने में उस गुमराह फिरक़े ने बुरुजर्द और उसके अतराफ़ में अपनी सर गर्मियों को हुकूमती इदारों में खास नुफुज़ व रुसूख के बाईस बहुत वसीअ कर लिया था। चूँकि आयतुल्लाह बुरुजर्दी इस मसले से आगाह थे लेहाज़ा आप ऐतेराज़ के तौर पर उस शहर से बाहर निकल आये। इस से लोगों में हयजानी कैफ़ियत तारी हो गई और वह टेली ग्राफ खानों पर टूट पड़े । इस मौक़े पर मरकज़ी हुकुमत को खतरा महसूस हुआ और इस लिए आप को शहर में वापस करने के मुक़द्देमात फ़राहम करने में जुट गए और हुक्म सादिर हो गया कि बहाईयों के अलनी व उमूमी जलसों और इज्तेमाआत पर पाबन्दी लगाई जाती है और उस गिरोह से वाबस्ता अफ़राद हुकूमती इदारों से माज़ूल किऐ जाते हैं और फिर आयतुल्लाह बुरुजर्दी लोगों की तारीख़ी और इन्केलाबी इस्तिक़बाल के साथ वतन वापस हो गये।
(अहमदी व दीगरान सन 1379 शु, सफ़हा 342)
इसी तरह आपने अपनी उमूमी मरजईयत के ज़माने में क़ुम से ही पुरे मुल्क में बहाईयत के ख़िलाफ़ मुहाज़ को वुसअत बख्शी। जिसके नतीजे में सन 1335 शु में बहाईयों की फ़आलियत व सर गर्मी के तेहरान में वाक़े ख़तीरतुल कुदस नामी मरकज़ को ढो दिया गया। इसी तरह आपने माहिर ख़तीब आप मिर्ज़ा मुहम्मद तक़ी फलसफ़ी को हुक्म दिया कि तेहरान की शाही मस्जिद में मिम्बर पर तशरीफ़ ले जाऐं और बहाईयत के बातिल अफ़कार लोगो के कानों तक पहुँचायें। आक़ा ए फलसफी की दलाएल पर मबनी और मोहकम तक़रीरें रेडियो से भी नश्र होती थीं।
(अहमदी व दीगरान सन 1379 शु सफ़हा 55,141,व 190)
3. आक़ा हुसैन क़ुम्मी के इक़दामात की हिमायत
सन 1320 में शाहे ईरान के फ़रार कर जाने के बाद आयतुल्लाह हाज आक़ा हुसैन क़ुम्मी जिन्हे मस्जिदे गौहरशाद के तारीख़ी क़याम के नतीजे में करबला जिला वतन कर दिया गया वतन वापस हुऐ और उन्होंने कश्फे हेजाब के सामराजी कानून के मुकाबले में बड़ा सख्त मौकिफ़ इख्तेयार किया और प्राईमरी और हाई इस्कूलों में मज़हबी मरासिम क़ायम करने की आज़ादी की माँग की। शाह और हुक्काम आप की माँगों को पूरा करने में सुस्ती बरत रहे थे। यहाँ तक कि आयतुल्लाह बुरुजर्दी ने जो कि इस ज़माने में बुरुजर्द में क़याम पज़ीर थे। हाज आका हुसैन कुम्मी की हिमायत में उस ज़माने के वज़ीरे आज़म के पास टेली ग्राफ भेजा जिसकी ईबारत ये थीः
आयतुल्लाह के मुतालेबात हमारे भी मुतालेबात हैं अगर उनकी माँगों को पूरा न किया गया तो मैं ख़ुद तेहरान के लिए निकल पड़ूँगा और उसके बुरे नताऐज के ज़िम्मेदार खुद हुक्काम होंगे।
(मजल्ले हौज़े, शु 43, 44, सफ़हा 232, ब नक़्ल अज़ सय्यद जवाद आमली)
इस टेलीग्राम की ख़बर फैलने से लोगों के दरमियान ख़ास तौर से लुरिस्तान के अशाएर लोगों की सरबराहों ने आयतुल्लाह बुरुजर्दी की हिमायत में तहरीकें कीं। इस तरह की हुकूमत को ख़तरा महसूस हुआ और वह मजबूर होकर आप की माँगों के सामने झुक गई। आयतुल्लाह बुरुजर्दी इसी तरह (तिले कोमाए जाने की तहरीक) शाह की इस्लाह अराज़ी की साज़िश को रोकने और ईरान में आतिश परस्ती के मुज़ाहरे को रोकने के लिए मुकम्मल तौर से दख़ील थे।
आसारो तॉलीफात
आप ने शागिर्दों की तर्बियत व तदरीस के पहलू ब पहलू वसीअ पैमाने पर तहकीकाती उमूर अन्जाम दिए हैं और आप के मजमूई आसार को रजाली, हदीसी, फिक्ही और उसूली चार दस्तों में तक़सीम किया जा सकता है।
इख्तेसार के तौर पर हम बाज़ मतबूआ आसार की फेहरिस्त अलिफ़ बा के हिसाब से कारेईन की नज़्र कर रहे हैं:
1. अल अहादीसुल मक्लूबह व जूबातोहा। चन्द मक्लूब हदीस के बारे में आयतुल्लाहुल उज़्मा सय्यद हुसैन आका बुरुजर्दी तबा तबाई से सवाल किया गया था। जिन के जवाबात के साथ नीज़ मुहम्मद रज़ा हुसैनी जलाली के मुकद्दमे और तर्जुमे के साथ ये किताब दारुल हदीस कुम से सन 1426 हिज्री मुताबिक़ सन 1374 श 67 सफ़हात पर मुश्तमिल छप चुकी है।
2. अल बज़रुज़्ज़ाहिर फ़ी सलातिल जुमुआ वल मुसाफिर। आयतुल्लाह बुरुजर्दी के दुरुस का मजमुआ है जिसे आयतुल्लाह मुन्तज़री ने क़लम बन्द फरमाया था। कुम कुतुब खाने आयतुल्लाह मुन्तज़री सन 1416 हिज्री सन 1357 श. सफ़हात 399
3. अल ब्यानुल वाफी फी ततारीफ़ बे केताबीम तर्तीबे असानिदील काफी लिल इमामील बुरुजर्दी महमूद दर्याबुल नजफी कुम, मोवस्स्सए आयतुल्लाह बुरुजर्दी सन 1422 हिज्री सन 1385 श।
4. तर्तीबो असानीदे किताबित तहज़ीबे ले शैखीत्तूसी तॉलीफ हुसैन अत्तबा तबाई अल बुरुजर्दी फिरीस्ते किताबीत्तहज़ीब मोरत्तेबन अलल हुरुफ व फेहरिस्ते किताबील इस्तेफ्सार मुरत्तेबन अलल हुरुफ रत्तबहा हसन अन नूरी अल हम्दानी, मशहद आस्ताने रज़्वीया अल बहुसुल इस्लामीया. न 1414 हिज्री सन 1372 श 544 सफ़हा।
काबिले ज़िक्र बात ये है कि तर्तीबुल असनीद या तजरीदुल असानीद या तब्कातुर्रेजाल जैसी किताबें इल्मे रेजाल में आयतुल्लाह बुरुजर्दी के ईजादात में से शुमार होती हैं। इन मजमुओं में हदीसी किताबें जैसे काफी, इस्तेसार, तहज़ीब, अमाली, खेसाल और रेजाली किताबों जैसे रेजाले नज्जासी व रेजाले तूसी को अस्ली मुतून से जुदा करके उन पर तहकीक की गई है।
5. तक्रीरो बहस सय्यदनल उस्ताद अल मर्जईद दिनिल अक्बर आयतुल्लाहील उज़्मा अल्हाज असय्यद हुसैन अत्तबा तबाई अल बुरुजर्दी फिल किब्ला वस्सीतरे वस्सातीर वमकानील मुसल्ली तक़रीरे अली पनाह अल इस्तेहारदी, कुम जामऐ मुदर्रेसीन सन 1416 हिज्री 1374 श 2 जिल्द।
6. तक़रीरातो सलास अव वसीयत वल मुनज्जेज़ातील मरीज़ मिरासो अज़्वाजील गसब हुसैन अल बुरु जर्दी अत्तबा तबाई तक़रीर अली पनाह अल इस्तेहारदी, कुम जामऐ मुदर्रेसीन सन 1413 हिज्री 1372 श, सफहा 231
7. तक़रीरात फी उसूलील फिक्ह आयतुल्लाहील उज़्मा हुसैन अव बुरु जर्दी कद्दरहा अली पनाह अल इस्तेहारदी, कुम जामऐ मुदर्रेसीन सन 1417 हिज्री 1375 श, 306 सफहा।
8. जामेए अहादीसे शिया, हुसैन अत्तबा तबाई अल बुरुजर्दी, कुम जामऐ मदीनतुल इल्म सन 1381 श. 30 जिल्द हदीस का ये ग्रान्कद्र मजमुआ किताब व वसाएलुश्सिया की तकमील उस के नवाकिस की बर्तरफी जैसे तक्तीअ रिवायात तकरारे अस्नाद, तक्सीरे अब्वाब, ज़खामत की ज़ियादती वगैरह जैसे उमूर के लिए आयतुल्लाह बुरुजर्दी की जिद्दत तालीफ में से है और बहुत सी सहूलियात जैसे आहादिस पर जिल्द से जिल्द दस्तरसी और उन से इस्तेन्बात में सुरअत वगैरह में मदद गार साबित होती है अब तक इस मजमुऐ की तीस जिल्दें छप चुकी हैं।
9. हाशितुल उर्वतुल वुस्क़ा तालीफ़ मुहम्मद काज़िम यज़्दी, बा हवाशी आयतुल्लाह बुरुजर्दी तेहरान, इस्लामियाः सन 1373 हिज्री सन 1322 श, 647 सफहा.
10. अल हाशिया अला किफायतील उसूल, तर्हे मुबानी हुसैन अत्तबा तबाई अल बुरु जर्दी, तॉलीफे बहाउद्दीन अल हुज्जली अल बुरुजर्दी कुम अल नेसारियान सन 1412 हिज्री सन 1379 श, मुतआद्दिद जिल्दें.
11. हाशिया अला वसाएलीस्शिया।
12. अल हुज्जः फिल फिक्ह तक़रीरात व तहसीलात फी फरासात हुसैन तबा तबाई अल बुरुजर्दी तॉलीफ मेहदी हाऐरी यज़्दी मोवस्सेसतुल रेसाल हुसैनीए ओमाद ज़ादे सन 1419 हिज्री सन 1377 शु 7 जिल्दें.
13. खान्दाने आयतुल्लाह बुरुजर्दी, नवीश्ते आयतुल्लाह बुरुजर्दी मुकद्दमे व तर्जुमे और पावरकी अज़ अली दवानी, कुम अन्सारियान सन 1371 शु 152 शु.
14. रेसालए तौज़ीहुल मसाएल की जिसका मतन आयतुल्लाह बुरुजर्दी के फतावा के मुताबिक है आयाते ऐज़ाम और शिया ओलमा के हवाशी के साथ, मोवल्लीफ, गुलाम हुलैन रहीमी इस्फहानी, तेहरान, जावेदान. फराहानी, सन 1348 शु 592, सफहा.
15. रेसालए शरीफ मनासिके हज. मुताबिक बा फतावा हाज आयतुल्लाह बुरुजर्दी की बकोशिश महमूद किताबची, तेहरान, इस्लामीया सन 1367 हिज्री 1326 शु 140 सफहा.
16. लम्हातुल उसूल एफादातुल फिक्हीया अल हज्जत आयतुल्लाहील उज़्मा बुरु जर्दी वे कल्मील इमामील खुमैनी तहकीक मोवस्सेसे तन्ज़ीम व नश्रे आसार इमाम खुमैनी, तेहरान मोवस्सेसे तन्ज़ीमो नश्रे आसार इमाम खुमैनी 1421 हिज्री.
17. अल मजदी बहुस फिल वसीया वल मुनज्जेज़ातुल मरीज़ व इकरारुल मरीज़ ले मुकीर्रेही अली अस्साफी अल गुल्पाऐगानी, कुम गन्जे इर्फान. सन 1421 हिजरी सन 1381 शु 215 सफहा.
18. अल मन्हजुर्रेजाली वल अमलीर्राएद फी मोसुअते रेजालीया अल अहादीसुल मक्लूबा व जवाबातुहा. हुसैन अल तबा तबाई बुरुजर्दी, बे एहतेमाम मुहम्मद रज़ा अल हुसैनी अल जलाली, कुम मक्तबे अल एलामुस्सलामी, सन 1420 हिज्री सन 1378 शु 384 सफहा.
19. नेहायतुल उसूल. तकरीरे इब्हास हुसैन अल तबा तबाई बुरुजर्दी, बे कलमे हुसैन अली अल मुन्तजडरी, तेहरान नश्रे तफक्कुर सन 1415 हिज्री सन 1373 मोतअद्दिद जिल्दें.
20. नेहायतुत्तकरीर फी मबाहिस्सलात तकरीरल लेमा अफादहू हुसैन अत्तबा तबाई अल बुरु जर्दी तालीफ फाज़ील लन्करानी कुम मर्कज़ऐ फिक्हो अइम्मतुल अतहार
आफ़ताबे ज़िन्दगी ग़ुरुब हो गया
धीरे धीरे सन 1380 हिज्री में शव्वाल का महीना आ पहुँचा और बीमारी ने उस 88 साला आलमे इस्लाम के अज़ीम मर्जे के जिस्मे अक़दस पर अपना पंजा गड़ा दिया। दुशवार बीमारी दूसरी तकालीफ़ से मुतफ़ावुत थी। जो उस अज़ीम शख्सियत को अज़ीयत दे रही थी उन्हीं दिनों कुछ अकीदत मन्दों ने आप की अयादत फ़रमाई। उस्ताद जो की बहुत ज़ियादा ग़मगीन थे सर उठाया और फरमायाः सर अन्जाम हमारी उम्र गुज़र गई हम चले और अपने लिए कुछ ज़ादे राह नहीं भेज सके और न ही कोई क़ीमती अमल अन्जाम दे सके। हाज़रीन में से एक शख्स ने अर्ज़ कियाः आक़ा आप इस तरह फ़रमा रहे हैं आपने इतने सारे आसार छोड़े हैं परहेज़गार शागिर्दों की तरबियत फ़रमाई है क़ीमती किताबें तालिफ़ की हैं। मस्जिदें, कुतुब खाने बनवाये हैं ऐसी बातें तो हम लोगों को कहनी चाहिए। पारसा शिया फकीह ने फरमायाः अमल में इख्लास पैदा करो कि वह (खुदा) बड़ा बीना और नकाद है।
(गुलशने अबरार, सन 1382, जिल्द 2, सफहा 672)
इस गुफ्तुगू ने हाज़ेरीन को बहुत मुतअस्सिर किया चन्द रोज के बाद ही उस्ताद बुज़ुर्गवार का जनाज़ा मज़ीद दर्दों गम का बाईस बना आख़िर कार उस बहादुर फक़ीह का जनाज़ा दसियों हज़ार सोगवारों के नौहे व मातम के दरमीयान बड़ी अज़मत के साथ तशीअ हो रहा था जिसकी नज़ीर बहुत कम मिलती है और हज़रते मासूमा फातेमा अलैहस सलाम के हरमे मोतह्हर लेराहने की सिम्त में मस्जिदे आज़म के वुरुदी दरवाज़े के पहलु में दफ्न किया गया। ये मस्जिद आप ही की यादगार है और उसके साथ ही ईरान के तमाम शहरों में अज़ादारी का आगाज़ हो गया। दुकानें बन्द हो गईं। सड़कों गलियों और बाज़ारों के उपर स्याह पर्चम लहराने लगे और अक्सर इस्लामी मुल्कों खास तौर से नजफ़ और कर्बला में बड़ी अज़ीमुश्शान मजलिसे तर्हीम और मरासीमे अज़ादारी बर्पा हुईं और ईरान में उन मरासिम का सिल्सिला आप के चेहलुम तक जारी रहा। इस्लामी मुल्कों के नुमाइन्दों और सफीरों ने इज़्हारे हमदर्दी किया। यहाँ तक की रुस, अमेरीका और इंगलैन्ड के सेफारत खानों के पर्चम इज़हारे अज़ा के तौर पर झुका दिए गए। मरहूम आयतुल्लाह मुज्तबा इराकी, आयतुल्लाह बुरुजर्दी की तदफीन व तशई के ज़िम्मेदार थे फरमाते हैः
खुदा वन्दे मोतआल ने मुझे ये इफ्तेखार अता फ़रमाया कि उस बुज़ुर्ग हस्ती को सुपुर्दे लहद करुँ ये अमल आप की वसीयत के मुताबिक़ अन्जाम पाया। इस वाक़ये से मुझ पर अजीबो ग़रीब हासत तारी थी और जिस वक्त मैं क़ब्र में उतरा दफ्न के तमाम मुस्तहबात मेरे ज़ेहन में आ गऐ जो पहले से ज़ेहन में नहीं थे।
(अहमदी व दीगरान सन 1379 शु सफ़हा 179)
असरे हाज़िर में शिया तारीख़ के इस अज़ीमुल मर्तबत इन्सान की मुफ़स्सल स्वानहे हयात का इस मुख्तसर तहरीर से कभी अदा नहीं हो सकता। जो कुछ इस मुख़्तसर मकाले में आया है वह सिर्फ उस अज़ीम दीनी मरजअ और फिक्हे इलाही की याद ताज़ा करने का एक बहाना था कि इन्शा अल्लाह हमारे लिए और तमाम पाकीज़गी और सच्चाई को दोस्त रखने वालों के लिए दर्स होगा।
वस्सलाम
मनाबे व मआख़ज़
1. आयतुल्लाह बुरुजर्दी, खान्दाने आयतुल्लाह बुरु जर्दी, मुकद्देमा व तर्जुमा अज़ अली दवानी, कुम अन्सारियान 1371 शम्सी।
2. आबाज़री अब्दुर्रहीम, आयतुल्लाह बुरु जर्दी आयते इख्लास, तेहरान, मज्मऐ जहानी तक्रीबे मज़ाहिबे इस्लामी, 1383 शम्शी।
3. अहमदी मुज्तबा व दिग्रान, चश्मो चेरागे मर्जेईयत, मुसाहेबे विजे मजल्ले हौज़े बा शागिर्दाने आयतुल्लाह बुरु जर्दी, कुम, दफ्तरे तब्लीगाते इस्लामी मर्कज़े इन्तेशारात, 1379 श।
4. दवानी अली, ज़िन्दगानीऐ ज़ईमे बुज़ुर्गे आलमे तशइयो आयतुल्लाह बुरु जर्दी, विराईश, 2, तेहरान, नश्रे मुतहर, 1372 श।
5. शकूहे फकाहत, याद नामे आयतुल्लाह मर्हूम हाज आका हुसैन बुरु जर्दी, तहईये व नश्र मर्कज़े इन्तेशारात दफ्तरे तब्वीगाते इस्लामी हौज़ऐ इल्मीए कुम, 1379 श।
6. सहीफे हौज़े, बिजे नामे रुज़नामे जम्हुरी इस्लामी, दोशन्बे 3,11, 79
7. अबीरी अब्बास आयतुल्लाह बुरु जर्दी, ज़ईमे बुज़ुर्ग, तेहरान, साज़माने तब्लीगाते इस्लामी, 1380 श।
8. अली आबादी, मुहम्मद, उलगपऐ ज़ेआमतः सर गुज़श्तहाऐ विजे हज़रत आयतुल्लाह बुरुजर्दी अज़ ज़बाने ओलमा व मराजे हमराह बा तक्रीज़े आयतुल्लाह अब्दुस्साहेब मुर्तज़वी लँगरोदी, कुम, इन्तेशाराते लाहीजी, 1379 श।
9. गुल्शने अब्रार, खुलासेई अज़ ज़िन्दगी उस्वहाऐ इल्मो अमल, तहइये व तदवीन जमई अज़ पजो हिश्गराने हौज़ऐ इल्मिये कुम, ज़िरे नज़र पजो हिश्कदे बाकीरुल ओलूम, कुम नश्रे मारुफ, 1382 श।
10. मजल्ले हौज़े, शुमारहाई मुख्तलीफ के दर मत्न आमदे अस्त।
11. मुतहरी, मुर्तज़ा, तकामुल इज्तेमाई इन्सान, बे ज़मीमे हदफे ज़िनदगीः इल्हामी अज़ शैखुत्ताऐफे, मज़ाया व खदमाते मर्हूम आयतुल्लाह बुरु जर्दी, तेहरान व कुम सदरा, 1363 श।
12. मुतहरी, मुर्तज़ा, शिश मकाले खत्मे नबुवत, प्याबरे उम्मी, वेलायेहा व वेलायतेहा, विराईशे दो, कुम सदरा, 1380 श।
13. वाऐज़ ज़ादे खुरासानी, मुहम्मद, अज़ ज़िन्दगी आयतुल्लाह बुरु जर्दी व मक्तबे फिक्ही, उसूली, हदीसी, और रेजालीऐ वै, तेहरान, मज्मऐ जहानी तक्रीबे मज़ाहीबे इस्लामी, 1379 श 1421 हिज्री।
14. हाशेमी रफ़सन्जानी, अकबर, खुतबाहा ए जुमे, ज़ीरे नज़र मुहसिन हाशमी रफ़सन्जानी, तेहरान, दफ्तरे नश्रे मआरीफटे इन्केलाब, साज़माने मदारिके फ़रहँगी इन्केलाबे इस्लामी, 1376 शम्सी।
क़ियामत व मौत के बाद की ज़िन्दगी
मआद (क़ियामत) के बग़ैर ज़िन्दगी बेमफ़हूम है।
हमारा अक़ीदह है कि मरने के बाद एक दिन तमाम इंसान ज़िन्दा होगें और आमाल के हिसाब किताब के बाद नेक लोगों को जन्नत में व गुनाहगारों को
दोज़ख़ में भेज दिया जायेगा और वह हमेशा वहीँ पर रहे गें। “अल्लाहु ला इलाहा इल्ला हुवा लयजमअन्नाकुम इला यौमिल क़ियामति ला रैबा फ़ीहि।”[89] यानी अल्लाह के अलावा कोई माबूद नही है,यक़ीनन क़ियामत के दिन जिस में कोई शक नही है तुम सब को जमा करे गा।
“फ़अम्मा मन तग़ा * व आसरा अलहयाता अद्दुनिया * फ़इन्ना अलजहीमा हिया अलमावा * व अम्मा मन ख़ाफ़ा मक़ामा रब्बिहि व नहा अन्नफ़सा अन अलहवा * फ़इन्ना अलजन्नता हिया अलमावा।”[90] यानी जिस ने सर कशी की और दुनिया की ज़िन्दगी को इख्तियार किया उसका ठिकाना जहन्नम है और जिस ने अपने रब के मक़ाम (अदालत) का खौफ़ पैदा किया और अपने नफ़्स को ख़्वाहिशात से रोका उसका ठिकाना जन्नत है।
हमारा अक़ीदह है कि यह दुनिया एक पुल है जिस से गुज़र कर इंसान आखेरत में पहुँच जाता है। या दूसरे अलफ़ाज़ में दुनिया आख़ेरत के लिए बज़ारे तिजारत है,या दुनिया आख़ेरत की खेती है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम दुनिया के बारे में फ़रमाते हैं कि “इन्ना अद्दुनिया दारु सिदक़िन लिमन सदक़ाहा .........व दारु ग़िनयिन लिमन तज़व्वदा मिनहा,व दारु मोएज़तिन लिमन इत्तअज़ा बिहा ,मस्जिदु अहिब्बाइ अल्लाहि व मुसल्ला मलाइकति अल्लाहि व महबितु वहयि अल्लाहि व मतजरु औलियाइ अल्लाहि ”[91] यानी दुनिया सच्चाई की जगह है उस के लिए जो दुनिया के साथ सच्ची रफ़्तार करे,.....और बेनियाज़ी की जगह है उस के लिए जो इस से ज़ख़ीरा करे, और आगाही व बेदारी की जगह है उस के लिए जो इस से नसीहत हासिल करे, हुनिया दोस्ताने ख़ुदा के लिए मस्जिद, मलाएका के लिए नमाज़ की जगह, अल्लाह की वही के नाज़िल होने का मक़ाम और औलिया-ए- खुदा की तिजारत का मकान है।
35- मआद की दलीलें रौशन हैं।
हमारा अक़ीदह है कि मआद की दलीलें बहुत रौशन हैं क्यों कि-
क) इस दुनिया की ज़िन्दगी इस बात की तरफ़ इशारा करती है कि ऐसा नही हो सकता कि यह दुनिया जिस में इंसान चन्द दिनों के लिए आता है, मुश्किलात के एक बहुत बड़े अम्बोह के दरमियान ज़िन्दगी बसर करता है और मर जाता है, इंसान की ख़िलक़त का आख़री हदफ़ हो, “अफ़ाहसिब तुम अन्ना मा ख़लक़ना कुम अबसन व अन्ना कुम इलैनाला तुरजाऊना ”[92]यानी क्या तुम यह गुमान करते हो कि हम ने तुम्हें किसी मक़सद के बग़ैर पैदा किया और तुम हमारे पास पलट कर नही आओ गे। यह इस बात की तरफ़ इशारा है कि अगर मआद का वुजूद न हो तो इस दुनिया की ज़िन्दगी बे मक़सद है।
ख) अल्लाह का अद्ल इस बात का तक़ाज़ा करता है कि नेक और बद लोग जो दुनिया में एक ही सफ़ में रहते हैं बल्कि अक्सर बदकार आगे निकल जाते हैं वह आपस में अलग हों और हर कोई अपने अपने आमाल की जज़ा या सज़ा पायें। “अम हसिबा अल्लज़ीना इजतरहू अस्सयिआति अन नजअला हुम कल्लज़ीना आमनु व अमलू अस्सालिहाति सवाअन महयाहुम व ममातु हुम साआ मा यहकुमूना ”[93] क्या बुराई इख़्तियार करने वालों ने यह ख़याल कर लिया है कि हम उन्हे ईमान लाने वालों और नेक अमल करने वालों के बराबर क़रार देंगे कि सब की मौत व हयात एक जैसी हो,यह उन्होंने बहुत बुरा फ़ैसला किया है।
ग) अल्लाह की कभी ख़त्म न होने वाली रहमत इस बात का तक़ाज़ा करती है कि उसका फ़ैज़ और नेअमतें इंसान के मरने के बाद भी कतअ न हों बल्कि इस्तेदाद रखने वाले अफ़राद का तकामुल उसी तरह होता रहे। “कतबा अला नफ़सिहि अर्रहमता लयजमअन्ना कुम इला यौमिल क़ियामति लारौबा फ़ीहि ”[94] यानी अल्लाह ने अपने ऊपर रहमत को लाज़िम क़रार दे लिया है, वह तुम सब को क़ियामत के दिन इकठ्ठा करेगा जिस में शक की कोई गुँजाइश नही है।
जो अफ़राद मआद के बारे में शक करते हैं क़ुरआने करीम उन से कहता है कि कैसे मुमकिन है कि तुम मुर्दों को ज़िन्दा करने के सिलसिले में अल्लाह की क़ुदरत में शक करते हो। जबकि तुम को पहली बार भी उस ने ही पैदा किया है,बस जिस ने तुम्हें इब्तदा में ख़ाक से पैदा किया है वही तुम्हे दूसरी ज़िन्दगी भी अता करेगा। “अफ़ाअयियना बिलख़ल्क़ि अलअव्वलि ,बल हु फ़ी लबसिन मिन ख़ल्क़िन जदीदिन”[95] यानी क्या हम पहली ख़िल्क़त से आजिज़ थे( कि क़ियामत की ख़िल्क़त पर क़ादिर न हों)हर गिज़ नही, लेकिन वह (इन रौशन दलाइल के बावुजूद)नई ख़िल्क़त की तरफ़ से शुब्हे में पड़े हुए हैं। “व ज़रबा लना मसलन व नसिया ख़ल्क़हु क़ाला मन युहयु अलइज़ामा व हिया रमीम* क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अव्वला मर्रतिन व हुवा बिक़ुल्लि ख़व्क़िन अलीम”[96] वह हमारे सामने मिसालें पेश करता है,अपनी ख़िल्क़त को भूल गया,कहता है कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन ज़िन्दा करेगा ,आप कह दिजीये इन को वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इन्हें पहली मर्तबा ख़ल्क़ किया था और वह हर मख़लूक़ का बेहतर जान ने वाला है।
और इसके साथ साथ यह भी कि ज़मीनों आसमान की ख़िल्क़त ज़्यादा अहम है या इनसान का पैदा करना !बस जो इस वसूअ जहान को इसकी तमाम शगुफ़्तगी के साथ ख़ल्क़ करने पर क़ादिर है वह इंसान को मरने के बाद दुबारा ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है। “अवा लम यरव अन्ना अल्लाहा अल्लज़ी ख़लक़ा अस्स,मावाति व अल अर्ज़ा व लम यअया बिख़ल्क़ि हिन्ना बिक़ादिरिन अला अन युहयि अलमौता बला इन्नहु अला कुल्लि शैइन क़दीर”[97] यानी क्या वह नही जानते कि अल्लाह ने ज़मीन व आसमान को पैदा किया और वह उन को ख़ल्क़ करने में आजिज़ नही था, बस वह मुर्दों को ज़िन्दा करने पर भी क़ादिर है बल्कि वह तो हर चीज़ पर क़ुदरत रखता है।
36- मआदे जिस्मानी
हमारा अक़ीदह है कि उस जहान (आख़ेरत) में सिर्फ़ इंसान की रूह ही नही बल्कि रूह व जिस्म दोनो उस पलटाये जायें गे। क्योँ कि इस जहान में जो कुछ भी अन्जाम दिया गया है इसी जिस्म और रूह के ज़रिये अंजाम दिया गया है। लिहाज़ा जज़ा या सज़ा में भी दोनो का ही हिस्सा होना चाहिए।
मआद से मरबूत क़ुरआने करीम की अक्सर आयात में मआदे जिस्मानी का ज़िक्र हुआ है। जैसे मआद पर ताज्जुब करने वाले मुख़ालेफ़ीन के जवाब में जो यह कहते थे कि इन बोसीदह हड्डियों को कौन जिन्दा करेगा? क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “क़ुल युहयिहा अल्लज़ी अनशाअहा अव्वला मर्रतिन ”[98] यानी आप कह दीजिये कि इन्हें वही ज़िन्दा करेगा जिस ने इनको पहली बार ख़ल्क़ किया।
“अयहसबु अलइंसानु अन लन नजमआ इज़ामहु * बला क़ादिरीना अला अन नुसव्विया बनानहु।”[99] यानी क्या इंसान यह गुमान करता है कि हम उसकी (बोसीदह) हड्डियों को जमा (ज़िन्दा) नही करेंगे? हाँ हम तो यहाँ तक भी क़ादिर हैं कि उन की ऊँगलियोँ के (निशानात) को भी मुरत्तब करें और उन को पहला हालत पर पलटा दें)।
यह और इन्हीँ की मिस्ल दूसरी आयते मआदे जिस्मानी के बारे में सराहत करती हैं।
वह आयतें जो यह बयान करती हैं कि तुम अपनी क़ब्रों से उठाये जाओ गे वह भी मआदे जिस्मानी को वज़ाहत से बयान करती हैं।
क़ुरआने करीम की मआद से मरबूत अक्सर आयात मआदे रूहानी व जिस्मानी की ही शरह बयान करती हैं।
37- मौत का बाद का अजीब आलम
हमारा अक़ीदह है कि वह चीज़े जो मौत के बाद उस जहान में क़ियामत,जन्नत ,जहन्नम में रूनुमाँ होंगी हम इस महदूद दुनिया में उस से बाख़बर नही हो सकते चूँकि वह हमारी फ़िक्र से बहुत बलन्द चीज़ें हैं। “फ़ला तअलमु नफ़सुन मा उख़फ़िया लहुम मिन क़ुर्रति आयुनिन”[100] किसी नफ़्स को मालूम नही है कि उस के लिए क्या क्या ख़ुन्की-ए- चश्म का सामान छुपा कर रक्खा गया है जो उन के आमाल की जज़ा है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की एक मशहूर हदीस में इरशाद हुआ है कि “इन्ना अल्लाहा यक़ुलु आदद्तु लिइबादिया अस्सालिहीना मा ला ऐनुन राअत वला उज़नुन समिअत व ला ख़तरा अला क़ल्बि बशरिन। ”[101] यानी अल्लाह तआला फ़रमाता है कि मैनें अपने नेक बन्दों के लिए जो नेअमतें आमादह की हैं वह ऐसी हैं कि न किसी आँख नें ऐसी नेअमते देखी हैं न किसी कान ने उनके बारे में सुना है और न किसी दिल में उन का तसव्वुर पैदा हुआ है।
हक़ीक़त यह है कि हमारी मिसाल इस दुनिया में उस बच्चे की सी है जो अभी अपनी माँ के शिकम में है और पेट की महदूद फ़ज़ में ज़िन्दगी बसर कर रहा है। फ़र्ज़ करो कि अगर यह बच्चा जो अभी माँ के पेट में है अक़्ल व शऊर भी रखता हो तो बाहर की दुनिया में मौजूद चमकता हुए सूरज दमकते हुए चाँद, फूलों के मनाज़िर, हवाओं के हल्के हल्के झोंकों, दरिया की मौजों की सदा जैसे मफ़ाहीम व हक़ाइक़ को दर्क नही कर सकता। बस यह दुनिया भी उस जहान के मुक़ाबिल माँ के पेट की तरह है। इस पर तवज्जोह करनी चाहिए।
38- मआद व आमाल नामें
हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन हमारे आमाल नामे हमारे हाथों में सौंप दिये जायें गे। नेक लोगों के नामा-ए- आमाल उन के दाहिने हाथ में और गुनाहगारों के नामा-ए आमाल उनके बायें हाथ में दियो जायें गे। जहाँ नेक लोग अपने नामा-ए-आमाल को देख कर ख़ुश होंगे वहीँ गुनाहगार अफ़राद अपने नामा-ए-आमाल को देख कर रनजीदा हों गे। क़ुरआने करीम ने इस को इस तरह बयान फ़रमाया है। “फ़अम्मा मन उतिया किताबहु बियमिनिहि फ़यक़ूलु हाउमु इक़रऊ किताबियहु * इन्नी ज़ननतु अन्नी मुलाक़िन हिसाबियहु * फ़हुवा फ़ी ईशतिर राज़ियतिन* …..व अम्मा मन उतिया किताबहु बिशिमालिहि फ़
यक़ूलु या लयतनी लम ऊता किताबियहु।”[102] यानी जिस को नामा-ए- आमाल दाहिने हाथ में दिया जायेगा वह (ख़ुशी से) सब से कहेगा कि (ऐ अहले महशर) ज़रा मेरा नामा-ए- आमाल तो पढ़ो , मुझे यक़ीन था कि मेरे आमाल का हिसाब मुझे मिल ने वाला है, फिर वह पसंदीदा जिन्दगी में होगा। ........ लेकिन जिसका नामा-ए- आमाल बायें हाथ में दिया जाये गा वह कहेगा कि काश यह नामा-ए-आमाल मुझे ना दिया जाता।
लेकिन यह बात कि नामा-ए-आमाल की नौय्यत क्या होगी ? वह कैसे लिखे जायें गे कि किसी में उस से इंकार करने की जुर्रत न होगी? यह सब हमारे लिए रौशन नही है। जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि मआद व क़ियामत में कुछ ऐसी ख़सूसियतें हैं कि जिन के जुज़यात को इस दुनिया में समझना मुश्किल या ग़ैर मुमकिन है। लेकिन कुल्ली तौर पर सब मालूम है और इस से इंकार नही किया जा सकता।
39- क़ियामत में शुहूद व गवाह
हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में इस के इलावा कि अल्लाह हमारे तमाम आमाल पर शाहिद है कुछ गवाह भी हमारे आमाल पर गवाही दें गे जैसे हमारे हाथ पैर, हमारे बदन की खाल, ज़मीन जिस पर हम ने ज़िन्दगी बसर करते हैं और इस के इलावा भी बहुत से हमारे आमाल पर गवाह हों गे।
“अल यौमा नख़तिमु अला अफ़वाहि हिम व तुकल्लिमुना अयदिहि व तशहदु अरजुलु हुम बिमा कानू यकसिबूना”[103] यानी इस दिन (रोज़े क़ियामत) हम उन के मुँह पर मोहर लगा दें गे और उन के हाथ हम से बाते करें गे। और उन के पैरों ने जो काम अन्जाम दिये हैं वह उन के बारे में गवाही दें गे।
“व क़ालू लिजुलुदि हिम लिमा शहिद्तुम अलैना क़ालू अनतक़ना अल्लाहु अल्लज़ी अनतक़ा कुल्ला शैइन। ”[104] यानी वह लोग अपने बदन की खाल से कहें गे कि हमारे ख़िलाफ़ गवाही क्यों दी ? तो उनको जवाब मिले गा कि जो अल्लाह हर चीज़ में बोलने की सलाहिय्यत पैदा करता है उस ने ही हम को बोल ने ताक़त दी। (और हम को राज़ों के फ़ाश करने की जिम्मेदारी सौंपी)
“यौमाइज़िन तुहद्दिसु अख़बारहा * बिअन्ना रब्बका अवहा लहा।”[105] यानी उस दिन ज़मीन अपनी ख़बरें बयान करेगी इस लिए कि आप के परवर दिगार ने उस पर वही की है( कि इस ज़िम्मेदारी को अन्जाम दे)
40-सिरात व मिज़ान
हम क़ियामत में “सिरात”व “मिज़ान” के वुजूद के क़ाइल हैं। सिरात वह पुल है जो जहन्नम के ऊपर बनाया गया है और सब लोग उस के ऊपर से उबूर करें गे। हाँ जन्नत का रास्ता जहन्नम के ऊपर से ही है। “व इन मिन कुम इल्ला वारिदुहा काना अला रब्बिका हतमन मक़ज़ियन *सुम्मा नुनज्जि अल्लज़ीना इत्तक़व व नज़रु अज़्ज़लिमीना फ़ीहा जिसिय्यन ”[106] यानी और तुम सब (बदूने इस्तसना) जहन्नम में दाख़िल हों गे यह तुम्हारे रब का हतमी फ़ैसला है। इस के बाद हम मुत्तक़ी अफ़राद को निजात दे दें गे और ज़ालेमीन को जहन्नम में ही छोड़ दें गे।।
इस ख़तरनाक पुल से गुज़रना इंसान के आमाल पर मुनहसिर है, जैसा कि हदीस में बयान हुआ है “मिन हु मन यमुर्रु मिसला अलबर्क़ि, मिन हुम मन यमुर्रु मिस्ला अदवि अलफ़रसि, व मिन हुम मन यमुर्रु हबवन, व मिन हुम मन यमुर्रु मशयन, व मिन हुम मन यमुर्रु मुताअल्लिक़न, क़द ताख़ुज़ु अन्नारु मिनहु शैयन व ततरुकु शैयन।”[107] यानी कुछ लोग पुले सिरात से बिजली की तेज़ी से गुज़र जायेंगे, कुछ तेज़ रफ़्तार घोड़े की तरह, कुछ घुटनियों के बल, कुछ पैदल चलने वालों की तरह, कुछ लोग इस पर लटक कर गुज़रेंगे, आतिशे दोज़ख़ उन में से कुछ को ले लेगी और कुछ को छोड़ दे गी।
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“मीज़ान” इसके तो नाम से ही इस के मअना ज़ाहिर है। यह इंसानों के आमाल को परख ने का एक वसीला है। हाँ उस दिन हमारे तमाम आमाल को तौला जाये गा और हर एक के वज़न व अरज़िश को आशकार किया जाये गा। “व नज़उ मवाज़ीना अलक़िस्ता लियौमि अलक़ियामति फ़ला तुज़लमु नफ़्सा शैयन व इन काना मिस्क़ाला हब्बतिन मिन ख़रदलिन आतैना बिहा व कफ़ा बिना हासिबीना।”[108] यानी हम रोज़े क़ियामत इंसाफ़ की तराज़ू क़ाइम करें गे और किसी पर मामूली सा ज़ुल्म भी नही होगा, यहाँ तक कि अगर राई के एक दाने के वज़न के बराबर भी किसी की (नेकी या बदी) हुई तो हम उस को भी हाज़िर करें गे और (उस को उस का बदला दें गे) और काफ़ी है कि हम हिसाब करने वाले हों गे।
“फ़अम्मा मन सक़ुलत मवाज़ीनहु फ़हुवा फ़ी ईशातिन राज़ियतिन *व अम्मा मन ख़फ़्फ़त मवाज़ीनहु फ़उम्मुहु हावियतिन”[109] यानी (उस दिन) जिस के आमाल का पलड़ा वज़नी होगा वह पसंदीदा ज़िन्दगी में होगा और जिस के आमाल का पलड़ा हल्का होगा उस का ठिकाना दोज़ख में होगा।
हाँ हमारा अक़ीदह यही है कि उस जहान में निजात व कामयाबी इंसान के आमाल पर मुन्हसिर हैं ,न कि उसकी आरज़ुओं व तसव्वुरात पर। हर इँसान अपने आमाल के तहत गिरवी है और तक़वे व परेहज़गारी के बिना कोई भी किसी मक़ाम पर नही पहुँच सकता। “कुल्लु नफ़्सिन बिमा कसबत रहिनतुन”[110] यानी हर नफ़्स अपने आमाल में गिरवी है।
यह सिरात व मीज़ान के बारे में मुख़्तसर सी शरह (व्याख्या) थी, जबकि इन के जुजयात के बारे में हमें इल्म नही है। जैसा कि हम पहले भी कह चुके हैं कि आख़ेरत एक ऐसा जहान है जो इस दुनिया से जिस में हम ज़िन्दगी बसर कर रहे हैं बहुत बरतर है। इस माद्दी दुनिया में क़ैद अफ़राद के लिए उस जहान के मफ़हूमों को समझना मुश्किल व ग़ैर मुमकिन है।
41- क़ियामत और शफ़ाअत
हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत के दिन पैग़म्बर, आइम्मा-ए-मासूमीन और औलिया अल्लाह अल्लाह के इज़्न से कुछ गुनाहगारों की शफ़ाअत करें गे और वह अल्लाह की माफ़ी के मुस्तहक़ क़रार पायें गे। लेकिन याद रखना चाहिए कि यह शफ़ाअत फ़क़त उन लोगों के लिए है जिन्होंनें गुनाहों की ज़्यादती की वजह से अल्लाह और औलिया अल्लाह से अपने राब्ते को क़तअ न किया हो। लिहाज़ा शफ़ाअत बेक़ैदव बन्द नही है बल्कि यह हमारे आमाल व नियत से मरबूत है। “व ला यशफ़उना इल्ला लिमन इरतज़ा”[111] यानी वह फ़क़त उन की शफ़ाअत करें गे जिन की शफ़ाअत से अल्लाह राज़ी होगा।
जैसा कि पहले भी इशारा किया जा चुका है कि “शफ़ाअत” इंसान की तरबीयत का एक तरीक़ा है और गुनाहगारों को गुनाहों से रोक ने व औलिया अल्लाह से राब्ते को क़तअ न होने देने का एक वसीला है। इस के ज़रिये इंसान को पैग़ाम दिया जाता है कि अगर गुनाहों में गिरफ़्तार हो गये हो तो फ़ौरन तौबा कर लो और आइन्दा गुनाह अंजाम न दो।
हमारा यक़ीन है कि “शफ़ाअते उज़मा” का मंसब रसूले अकरम (स.) से मख़सूस हैं और आप के बाद दूसरे तमाम पैग़म्बर व आइम्मा-ए-मासूमीन हत्ता उलमा, शोहदा, मोमेनीने आरिफ़ व कामिल को हक़्क़े शफ़ाअत हासिल है। और इस से भी बढ़ कर यह कि क़ुरआने करीम व आमाले सालेह भी कुछ लोगों की शफ़ाअत करें गे।
इमामे सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “मा मिन अहदिन मिन अलअव्वलीना व अलआख़ीरीना इल्ला व हुवा यहताजु इला शफ़ाअति मुहम्मद (स.) यौमल क़ियामति।”[112] यानी अव्वलीन और आख़ेरीन में से कोई ऐसा नही है जो रोज़े क़ियामत मुहम्मद (स.)की शफ़ाअत का मोहताज न हो।
कनज़ुल उम्माल में पैग़म्बरे अकरम (स.) की एक हदीस है जिस में आप ने फ़रमाया कि “अश्शुफ़ाआउ ख़मसतुन : ]“अलक़ुरआनु व अर्रहमु व अलअमानतु व नबिय्यु कुम व अहलु बैति नबिय्यि कुम। ”[113] रोज़े क़ियामत पाँच शफ़ीअ होंगे : क़ुरआने करीम, सिलह रहम, अमानत, आप का नबी और आपके नबी के अहले बैत।
हज़रत इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम एक हदीस में फ़रमाते हैं कि “इज़ काना यौमु अलक़ियामति बअसा अल्लाहु अलआलिमा व अलआबिदा, फ़इज़ा वक़फ़ा बैना यदा अल्लाहि अज़्ज़ा व जल्ला क़ीला लिआबिदि इनतलिक़ इला अलजन्नति,व क़ीला लिलआलिमि क़िफ़ तशफ़अ लिन्नासि बिहुस्नि तादीबिका लहुम।”[114] यानी क़ियामत के दिन अल्लाह आबिद व आलिम को उठायेगा, जब वह अल्लाह की बारगाह में खड़े होंगे तो आबिद से कहा जाये गा कि जन्नत में जाओ ! और आलिम से कहा जाये गा कि ठहरो, तुम ने जो लोगों की सही तरबीयत की है उस की ख़ातिर तुम को यह हक़ है कि तुम लोगों की शफ़ाअत करो।
यह हदीस शफ़ाअत के फलसफ़े की तरफ़ एक लतीफ़ इशारा कर रही है।
42- आलमे बरज़ख
हमारा अक़ीदह है कि इस दुनिया और आख़ेरत के बीच एक और जहान है जिसे “बरज़ख़” कहते हैं।मरने के बाद हर इँसान की रूह क़ियामत तक इसी आलमे बरज़ख़ में रहती है।“व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमि युबअसूना। [115]” और उन के पीछे (मौत के बाद) आलमे बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक जारी रहने वाला है
हमें उस जहान के जुज़यात के बारे में ज़्यादा इल्म नही है और न ही हम उस के बारे ज़्यादा जान ने की क़ूवत रखते हैं, अलबत्ता यह जानते हैं कि उन नेक व सालेह अफ़राद की रूहें जिन के मर्तबे बलन्द है(जैसे शोहदा की रूहों) उस जहान में अल्लाह की नेअमतों से माला माल रहते हैं। “व ला तहसाबन्ना अल्लज़ीना क़ुतिलू फ़ी सबीलि अल्लाहि अमवातन वल अहया इन्दा रब्बि हिम युरज़क़ूना।”[116] जो लोग राहे ख़ुदा में शहीद हो गये उन के बारे में हर गिज़ यह ख़याल न करना कि वह मर गये हैं, नही वह ज़िन्दा हैं और अपने रब की तरफ़ से रिज़्क़ पाते हैं।
और इसी तरह से ज़ालिम, ताग़ूत और उन के हामियों की रूहें उस जहान में अज़ाब में मुबतला रहती हैं। जिस तरह क़ुरआने करीम ने फ़िरोन व आले फ़िरोन के बारे मेंबयान फ़रमाया है कि “अन्नारु युअरज़ूना अलैहा ग़ुदुव्वन व अशिय्यन व यौमा तक़ूमु अस्साअतु अदख़िलू आला फ़िरअवना अशद्दा अलअज़ाब।”[117] यानी उन का अज़ाब (बरज़ख़ में )आग (जहन्नम) है जिस में उन को सुबह शाम जलाया जाता है और जिस दिन क़ियामत वाक़े होगी उस दिन (फ़रमान) गिया जायेगा कि आले फ़िरोन को सख़्त तरीन आज़ाब में दाख़िल करो।
लेकिन वह तीसरा गिरोह जिन के गुनाह कम है न वह नेअमतें पाने वालो में हैं और न अज़ाब भुगत ने वालों में बल्कि वह लोग एक क़िस्म की नीँद में रहते हैं और रोज़े क़ियामत बेदार हों गे। “व यौमा त़कूमु अस्सअतु युक़सिमु अलमुजरिमूना मा लबिसू ग़ैरा साअतिन .........व क़ाला अल्लज़ीना ऊतुल इल्मा व अलईमाना लक़द लबिसतुम फ़ी किताबि अल्लाहि इला यौमि अलबअसि फ़हाज़ा यौमु अलबअसि व लकिन्ना कुम कुन्तुम ला तअलमूना।”[118] यानी जिस दिन क़ियामत बरपा होगी उस दिन गुनाहगार लोग क़सम खा-खा कर कहेंगे कि वह आलमें बरज़ख़ मे एक घन्टे से ज़्यादा नही रुके........,और जिन लोगों को इल्म व ईमान दिया गया है वह गुनाहगारों को मुख़ातब करते हुए कहें गे कि तुम अल्लाह के हुक्म से क़ियामत तक (आलमे बरज़ख़ में) रहे हो, और आज रोज़े क़ियामत है लेकिन तुम को इस का इल्म नही है।
इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र मौजूद है जैसे पैग़म्बरे अकरम (स.) की हदीस है कि “अलक़बरु रोज़तु मिन रियाज़िन जन्नति अव हुफ़रतु मिनहुफ़रि अन्नीरानि। ”[119] कब्र या जन्नत के बाग़ों में से एक बाग़ है या फिर जहन्नम के गढ़ों में से एक गढ़ा।
43- माद्दी व मअनवी जज़ा
हमारा अक़ीदह है कि क़ियामत में मिलने वाली जज़ा में माद्दी और मानवी दोनों पहलु पाये जाते है,और वह इस लिए कि मआद भी रूहानी और जिस्मानी है। क़ुरआने करीम की आयात और इस्लामी रिवायात में भी इस का ज़िक्र हुआ है। जैसा कि जन्नत को बाग़ों के बारे में मिलता है कि उन के दरख़्तों के नीचे से नहरे जारी हैं। “जन्नातिन तजरी मिन तहतिहा अलअनहारु”[120] यानी जन्नत के बाग़ ऐसे हैं जिन के नीचे नहरे जारी हैं। या जन्नत के दरख़्तों के फ़लों व सायों के जावेदानी होने के बारे में क़ुरआने करीम फ़रमाता है कि “उकुलुहा दाइमुन व ज़िल्लुहा ”[121]यानी जन्नत के दरख़्तों के फल व साये दाइमी हैं। या साहिबाने ईमान के लिए फ़रमाया कि जन्नत में उनके लिए अच्छे हमसर होंगे। “व अज़वाजुन मुतह्हरतुन ”[122] यानी जन्नत में पाको पाकीज़ा हमसर होंगे। इसी तरह से और भी बहुत सी आयतें मौजूद है।
इसी तरह जहन्नम की जला डाल ने वाली आग और सख़्त सज़ा के बारे में भी बयान मिलता है,जो उस जहान की माद्दी सज़ा या जज़ा को रौशन करता है।
लेकिन इस से मुहिम मानवी जज़ा है,मारफ़ते अनवारे ईलाही व अल्लाह से रूह का तक़र्रुब और उसके जमालो जलाल के जलवों में पाई जाने वाली लज़्ज़त को बयान कर ने की सलाहियत किसी भी ज़बान में नही है।
क़ुरआने करीम की कुछ आयतों में जन्नत की माद्दी नेअमतों को बयान कर ने के बाद इस जुमले को इज़ाफ़ा किया गया है “व रिज़वानु मिन अल्लाहि अकबरु ,ज़ालिका हुवा अलफ़ौज़ु अलअज़ीम ”[123] यानी अल्लाह की रिज़ा और ख़ुशनूदी इन सब से बरतर है,और सब से बड़ी कामयाबी भी यही है।
हाँ इस से बढ़ कर कोई लज़्ज़त नही है कि इंसान ख़ुद यह महसूस करे कि वह अपने मअबूद व महबूब की बारगाह में क़बूल हो गया है और उस ने अपने रब की रिज़ा हासिल कर ली है।
हज़रत इमाम ज़ैनुल आबेदीन अली इब्नुल हुसैन अलैहिमा अस्सलाम फ़रमाते हैं कि “यक़ूलु (अल्लाह) तबारका व तआला रिज़ाया अन कुम व महब्बती लकुम ख़ैरु व आज़मु मिन मा अन्तुम फ़ीहि... ”[124] यानी अल्लाह तबारकु तआला उन से फ़रमाता है कि मेरा तुम से राज़ी होना और मेरा तुम से मुहब्बत करना इस से कहीँ बेहतर है जिन नेअमतों के दरमियान तुम ज़िन्दगी बसर कर रहे हो। ....... वह सब इन बातों को सुनते हैं और तसदीक़ करते हैं।
हक़ीकतन इस से बढ़ कर और क्या लज़्ज़त हो सकती है कि अल्लाह इंसान को इस तरह ख़िताब फ़रमाये “या अय्यतुहा अन्नफ़सु अलमुतमइन्ना इरजई इला रब्बिकि राज़ियतन मरज़ियतन फ़उदखुली फ़ी इबादि व उदख़ुली जडन्नती ”[125] यानी ऐ नफ़्से मुतमइन्ना अपने रब की तरफ़ पलट आ इस हाल में कि तू उस से राजी और वह तुझ से राजी है बस मेरे बन्दों में दाख़िल हो कर मेरी जन्नत में दाख़िल हो जा।
भारत-पाक के मध्य उदार वीज़ा समझौता लागू
भारत-पाक सीमा पर तनाव के बीच दोनों देशों के मध्य उदार वीज़ा समझौता मंगलवार से लागू हो जाएगा।
प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार भारत और पकिस्तान के गृहमंत्रियों के मध्य 14 दिसंबर को होने वाले इस समझौते के अंतर्गत दोनों देशों के 65 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों को वाघा सीमा पर वीज़ा ऑन अराइवल की सुविधा मिलेगी। भारतीय उच्चायोग की ओर से सोमवार को जारी बयान के अनुसार, यह सुविधा केवल वाघा-अटारी चेक पोस्ट पर 65 वर्ष से अधिक आयु के पाकिस्तानी पासपोर्ट धारकों को मिलेगी। इस वीज़ा प्रणाली के अनुसार पाकिस्तानी पासपोर्ट धारकों को तीन के बजाए पांच स्थानों पर जाने की अनुमति होगी और पुलिस को रिपोर्ट करने की भी आवश्यकता नहीं होगी। भारतीय उच्चायोग की ओर से जारी बयान में कहा गया है कि प्रतिदिन प्रातः दस बजे से चार बजे के बीच वीज़ा जारी किया जाएगा। बयान में आया है कि वीज़ा मिलने वालों को जम्मू-कश्मीर, पंजाब, केरल और अन्य प्रतिबंधित क्षेत्रों को छोड़कर देश में कहीं भी जाने की अनुमति होगी। बयान में कहा गया है कि पाकिस्तानी पासपोर्ट धारक इस वीज़े से अपने मित्रों या सगे संबंधियों से ही मिल सकते हैं और उन्हें व्यवसाय, चिकित्सा, कांफ्रेंस, रोज़गार या अन्य गतिविधियों की अनुमति नहीं होगी।
क़ुरआने मजीद अहले बैत--1
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
इस्लामी रिवायतों की बिना पर क़ुरआने मजीद की बे शुमार आयतें अहले बैत अलैहिम अस्सलाम के फ़ज़ाइल व मनाक़िब के गिर्द घूम रही हैं और इन्हीं मासूम हस्तियों के किरदार के मुख़्तलिफ़ पहलुओं की तरफ़ इशारा कर रही हैं। बल्कि कुछ रिवायतों की बिना पर पूरे कुरआन का ताल्लुक़ इनके मनाक़िब, इनके मुख़ालिफ़ों के नक़ाइस, इनके आमाल व किरदार और इनकी सीरत व हयात के आईन व दस्तूर से है। लेकिन यहाँ पर सिर्फ़ उन्हीं आयतों की तरफ़ इशारा किया जा रहा है जिनके शाने नुज़ूल के बारे में आलमे इस्लाम के आम मुफ़स्सिरों ने भी इक़रार किया है कि इनका नुज़ूल अहले बैते अतहार के मनाक़िब या उनके मुख़ालिफ़ों के नक़ाइस के सिलसिले में हुआ है।
उलमा-ए-हक़ ने इस सिलसिले में बड़ी बड़ी किताबें लिखी हैं और मुकम्मल तफ़सील के साथ आयात व उनकी तफ़्सीर का तज़करा किया है। हम यहाँ पर उसका सिर्फ़ एक हिस्सा ही पेश कर रहे हैं ।
बिस्मिल्लाह हिर्रहमानिर्रहीम
1- “وَكَذَلِكَ جَعَلْنَاكُمْ أُمَّةً وَسَطًا لِّتَكُونُواْ شُهَدَاء عَلَى النَّاسِ”(बक़रा 144)
उम्मते वसत हम अहले बैत हैं।(अमीरूलमोमीनीन(अ))(शवाहिदुत तनज़ील जिल्द 1 पेज 92)
2- (आले इमरान 62)
यह आयत मुबाहेले के मौक़े पर अहलेबैत की शान में नाज़िल हुई है।(तफ़सीरे जलालैन, सहीय मुस्लिम किताब फ़ज़ाएलुस सहाबा, ग़ायुम मराम पेज 300 वग़ैरह।)
3- “وَمَن يَعْتَصِم بِاللّهِ فَقَدْ هُدِيَ إِلَى صِرَاطٍ مُّسْتَقِيمٍ”(आले इमरान 101)
अली(अ) उनकी ज़ौजा और उनकी औलाद हुज्ज्ते ख़ुदा है। इनसे हिदायत हासिल करने वाला सिराते मुस्तक़ीम की तरफ़ हिदायत पाने वाला है।(रसूले अकरम(स))(शवाहिदुत तनज़ील जिल्द 1 पेज 58)
4- “وَاعْتَصِمُواْ بِحَبْلِ اللّهِ جَمِيعًا وَلاَ تَفَرَّقُواْ”(आले इमरान 104)
(بِحَبْلِ اللّهِ) से मुराद हम अहले बैत(अ) हैं।(इमाम सादिक़(अ))( शवाहिदुत तनज़ील जिल्द 1 पेज 131)
5- “يَا أَيُّهَا الَّذِينَ آمَنُواْ أَطِيعُواْ اللّهَ وَأَطِيعُواْ الرَّسُولَ وَأُوْلِي الأَمْرِ مِنكُمْ”(निसा 60)
(وَأُوْلِي الأَمْرِ) से मुराद आईम्मा ए अहले बैत हैं।(इमाम जाफ़र सादिक़(अ))( यनाबीऊल मवद्दत पेज 194)
6- “وَلَوْ رَدُّوهُ إِلَى الرَّسُولِ وَإِلَى أُوْلِي الأَمْرِ مِنْهُمْ لَعَلِمَهُ الَّذِينَ يَسْتَنبِطُونَهُ مِنْهُمْ”(निसा 84)
(وَأُوْلِي الأَمْرِ) से मुराद आईम्मा ए अहले बैत हैं।(इमाम मुहम्मद बाक़िर, इमाम जाफ़र सादिक़(अ))( यनाबीऊल मवद्दत पेज 321)
सुल्तान अहमद मस्जिद
सुल्तान अहमद मस्जिद या नीला मस्जिद (तुर्कीयाई: Sultanahmet Camii) इस्तांबुल, तुर्की में स्थित एक मस्जिद है. उसे बाहरी दीवारों के नीले रंग के कारण नीली मस्जिद के रूप में जाना जाता है।
यह तुर्की की एकमात्र मस्जिद है जिसके छह मीनार हैं। जब निर्माण पूरा होने पर सुल्तान को इसका पता चला तो उसने सख्त नाराजगी जताई क्योंकि इस समय केवल मस्जिद हराम के मेनारों की छह लेकिन क्योंकि मस्जिद का निर्माण पूरा हो चुका था इसलिए समस्या का हल यह निकाला गया कि मस्जिद हराम में मीनार की वृद्धि कर इसे मेनारों की सात कर दी गई.
मस्जिद के मुख्य कमरे पर कई गुंबद हैं जिनके बीच में केंद्रीय गुंबद स्थित है जिसका व्यास ३३ मीटर और ऊंचाई ४३ मीटर है। मस्जिद के आंतरिक हिस्से में आभरें दीवारों को हाथों से तैयार की गई २० हजार टाइलों से सुरुचिपूर्ण है जो आज़नक (प्राचीन नीतिया) में तैयार की गई। दीवार के ऊपरी भाग पर रंग है। मस्जिद में शीशे की २०० से अधिक खिड़कियां हैं ताकि प्राकृतिक प्रकाश और हवा का गुजर रहे। मस्जिद में अपने समय के सबसे ख्आ सैयद कासिम गुब्बारे ने कुरआन की आयतें की ख्आतिया की। मस्जिद वास्तुकला की एक और ख़ास बात यह है कि नमाज़ शुक्रवार के अवसर पर जब इमाम भाषण देने के लिए खड़ा होता है तो मस्जिद के हर कोने और हर जगह से इमाम को सक्षम आसानी देखा और सुना जा सकता है। मस्जिद के हर मीनार तीन छजे हैं और कुछ समय पहले तक मउज़न इस मीनार पर चढ़कर पांचों वक्त की नमाज के लिए सक्षम विश्वास पुकारते थे। आजकल इस स्थान ध्वनि प्रणाली इस्तेमाल किया जाता है की आवाज़ें पुराने शहर के हर गली कूचे में सुनी जाती है। नमाज़ पश्चिम पर यहां स्थानीय लोगों और पर्यटकों की बड़ी संख्या बारगाह इलाही में सरबसजूद है। रात के समय रंगीन विद्युत कमकमे इस महान मस्जिद जाह और महिमा में वृद्धि करते हैं।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र
मानवाधिकार उन अधिकारों में से है जो मानवीय प्रवृत्ति का अनिवार्य अंश है। मानवाधिकार का स्थान, सरकारों की सत्ता से ऊपर होता है
और विश्व की सभी सरकारों को उसका सम्मान करना चाहिए। संयुक्त राष्ट्र संघ के सदस्यों ने वर्ष १९४८ में विश्व मानवाधिकार घोषणापत्र को तीस अनुच्छेदों के साथ पारित किया। पश्चिमी संस्कृति और लेबरल मान्यताओं के आधार पर पारित इस घोषणापत्र का आरंभ से ही विरोध होने लगा था और समय बीतने के साथ ही साथ, इस विरोध में भी वृद्धि हुई क्योंकि इस घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेद विश्व के विभिन्न राष्ट्रों की मान्यताओं और संस्कृति से मेल नहीं खाते। मुसलमान बुद्धिजीवियों के अनुसार, यद्यपि इस घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेद उचित हैं किंतु उसके अधिकांश अनुच्छेद अधूरे और अस्वीकारीय हैं। इसी लिए मुसलमान सरकारों और बुद्धिजीवियों ने एक ऐसे घोषणापत्र के संकलन का फैसला किया जो इस्लामी मानवाधिकार के आधार पर हो और जिसे इस रूप में पूरे विश्व के सामने पेश किया जा सके। मानवाधिकारों पर ध्यान, पश्चिम के प्रचारों के विपरीत, पश्चिम से आंरभ नहीं हुआ बल्कि इस्लाम ने अपने उदय के समय से ही, व्यापक मानवाधिकार का सिद्धान्त पेश किया है।
मनुष्य के मौलिक अधिकारों के संदर्भ में इस्लाम के विकसित दृष्टिकोणों के दायरे में इस्लामी कांफ्रेंस संगठन ने इस्लामी देशों के प्रतिनिधि के रूप में, वर्ष १९७९ और १९८१ में इस संदर्भ में दो दस्तावेज़ प्रकाशित किए। पांच अगस्त वर्ष १९९० को ओआईसी के विदेशमंत्रियों की १९वीं बैठक में जो क़ाहिरा में आयोजित हुई, इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र पारित हुआ और इस दिन को मानवाधिकार और मानवीय सम्मान दिवस घोषित किया गया। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यद्यपि, मानवाधिकार के संदर्भ में इस्लाम के समस्त दृष्टिकोणों का वर्णन नहीं किया गया है किंतु इसके बावजूद यह घोषणापत्र, मानवाधिकारों के संदर्भ में पश्चिमी दृष्टिकोण की तुलना में इस्लामी शिक्षाओं की श्रेष्ठता को भलीभांति स्पष्ट करता है। इस घोषणापत्र का संकलन करने वालों ने इसकी भूमिका में मनुष्य के बारे में इस्लाम की कुछ शिक्षाओं का वर्णन किया गया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र क़ुरआन मजीद के सूरए हुजोरात की आयत नंबर १३ से आरंभ होता है कि जिसमें कहा गया हैः हे लोगो! हमने तुम लोगों को एक पुरुष और एक महिला से पैदा किया और तुम्हें जातियों और समुदायों में बांट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचान सको। निश्चित रूप में तुम लोगों में ईश्वर के निकट सब से अधिक सम्मानीय वह है जो सब से अधिक पापों से बचने वाला हो।
इस घोषणापत्र के आरंभ में इस बात की ओर भी संकेत किया गया है कि इस्लाम में ईश्वर के निकट मनुष्य का क्या स्थान है और यह कि मनुष्य धरती पर ईश्वर का प्रतिनिधि है। इसके बाद एकेश्वरवाद और एक ही ईश्वर की उपासना का विषय प्रस्तुत किया गया है कि जिसका अनिवार्य परिणाम किसी
अन्य के सामने शीश नवाने से दूरी है। अन्य लोगों की उपासना को नकारना, मनुष्य की वास्तविक स्वतंत्रता की आधारशिला है। इसी प्रकार इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में मानव सभ्यता की रक्षा के लिए आस्था व आध्यात्म को आवश्यक बताया गया है और बल दिया गया है कि इस्लाम में आध्यात्म और संसारिक विषयों को एक साथ मिला कर पेश किया गया है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र की भूमिका में जिस अंतिम विषय पर बल दिया गया है वह यह है कि मनुष्य के मौलिक अधिकार और स्वतंत्रता इस्लाम का अंश है और किसी को भी यह अधिकार प्राप्त नहीं है कि वह उनका हनन करे। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र को मानवाधिकार घोषणापत्र से अलग करने वाली प्रमुख विशेषता मनुष्य के आध्यात्मिक आयाम पर बल दिया जाना है। क्योंकि इस्लाम मनुष्य के कल्याण के लिए उसके आध्यात्मिक आयाम के साथ ही उसके सांसारिक आयाम पर भी ध्यान देता है। इसी आधार पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के बहुत से अनुच्छेदों का आधार इस्लाम की मानवीय शिक्षाएं और मानवीय सम्मान है। इस घोषणापत्र ने जिन विषयों पर बल दिया है उनमें से एक अधिकार, आध्यात्मिक शिक्षा प्राप्ति तथा आध्यात्मिक प्रशिक्षण का अधिकार है ताकि इस प्रकार उसे परलोक में भी सफलता प्राप्त हो। इस्लाम की दृष्टि में इस संसार में मनुष्य के जीवन की शैली, परलोक में उसकी जीवन शैली का निर्धारण करती है।
जीने के अधिकार को, मुनष्य का सबसे बड़ा और महत्वपूर्ण अधिकार कहा जा सकता है। मूल रूप से अन्य सभी मानवाधिकार, उसी समय प्राप्त हो सकते हैं जब मनुष्य के जीने के अधिकार पर ध्यान दिया गया हो। इसी लिए इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में यह सिद्धान्त, इस्लाम धर्म की शिक्षाओं के अनुसार पेश किया गया है और उसके दूसरे अनुच्छेद में कहा गया हैः जीवन ईश्वर का उपहार और ऐसा अधिकार है जिसे हर मनुष्य के लिए निश्चित बनाया गया है और सारे लोगों और समाजों तथा सरकारों का यह कर्तव्य है कि वह इस अधिकार की रक्षा करें। इस्लाम की दृष्टि से हर मनुष्य का जीने का अधिकार इतना अधिक महत्वपूर्ण है कि क़ुरआने मजीद ने इस अधिकार के हनन को सारे मनुष्यों की हत्या के समान कहा है। इसी लिए इस्लाम ने युद्ध व रक्तपात को अस्वीकारीय बताया है और केवल विशेष परिस्थितियों में अपने देश, धर्म या पीड़ितों की रक्षा के लिए युद्ध को सही ठहराया है किंतु इस प्रकार के युद्धों में भी आम नागरिकों, बंदियों, घायलों बल्कि पशुओं और पेड़ पौधों के अधिकारों पर ध्यान देना भी आवश्यक बताया गया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के तीसरे अनुच्छेद में इन सभी विषयों की ओर संकेत किया गया है। इस अनुच्छेद में युद्ध के दौरान आम नागरिकों की रक्षा, घायलों के उपचार, बंदियों पर ध्यान देने और पेड़ों को काटने से बचने, खेतों की सुरक्षा और इमारतों को गिराने से बचने जैसे विषयों पर बल दिया गया है। इसके साथ ही इस्लाम में पर्यावरण की रक्षा पर भी बहुत ध्यान दिया गया है और उसकी रक्षा के लिए बहुत सी सिफारिशें भी हैं। कुरआने मजीद में इस विषय की ओर संकेत किया गया है और ईश्वर ने, धरती और उसके उपहारों से लाभ उठाने की मनुष्य को अनुमति दी है इस शर्त के साथ कि मनुष्य इन उपहारों की रक्षा करे और अपव्यय के मार्ग पर न चले।
मानव सम्मान वह अन्य विषय पर जिस पर इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में ध्यान दिया गया है। इस्लाम, मानव सम्मान और उसकी प्रतिष्ठा को अत्याधिक महत्वपूर्ण और मूल्यवान समझता है। इस धर्म के अनुसार, मनुष्य ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना और धरती पर उसका उत्तराधिकारी है। क़ुरआने मजीद के सूरए इसरा की आयत नंबर ७० में हम मानव सम्मान के बारे में पढ़ते हैः हम ने आदम की संतान को सम्मान दिया, और उन्हें जल थल में सवारियों द्वारा उठाया और विभिन्न प्रकार की पवित्र अजीविकाओं में से उन्हें अजीविका दी और उन्हें अपनी बहुत सी रचनाओं से श्रेष्ठ बनाया। इस प्रकार से इस्लाम ने यह स्पष्ट किया कि मनुष्य, भलाई द्वारा अपना सम्मान बढ़ा सकते हैं और इसी प्रकार भष्टाचार और पापों द्वारा अपना सम्मान गंवा भी सकते हैं। प्रत्येक दशा में मानव सम्मान, उनके मध्य समानता के सिद्धान्त का आधार है।
समानता एक ऐसा इस्लामी सिद्धान्त है जिसका इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में वर्णन किया गया है। इस घोषणापत्र के पहले अनुच्छेद में कहा गया हैः सामूहिक रूप से मानव समाज का हर सदस्य, एक परिवार का भाग है जिन्हें ईश्वर की उपासना और आदम की संतान होने के कारण एक समान समझा जाता है। सारे लोग, मानवीय सम्मान और कर्तव्यों की दृष्टि से समान हैं बिना किसी जाति, वर्ण, भाषा, लिंग, धर्म या विचारधारा या सामाजिक स्थान के अंतर्गत भेदभाव के। इस आधार पर मानवता में सारे लोग एक समान हैं और जो विषय उनके मध्य एक दूसरे से श्रेष्ठता का कारण बनता है वह पापों से बचना और ईश्वर से निकटता है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इस अनुच्छेद का वर्णन करते हुए कहा गया है कि सारे लोग, ईश्वर के परिवार की भांति हैं और उनमें से ईश्वर के निकट सबसे अधिक प्रिय वही है जो अन्य मनुष्यों के लिए सब से अधिक लाभदायक होता है और किसी को भी किसी पर श्रेष्ठता प्राप्त नहीं है और यदि है तो उसका मापदंड ईश्वर से भय और पापों से दूरी ही है जो निश्चित रूप से एक आध्यात्मिक विशेषता है और ईश्वर उसका प्रतिफल देता है।
इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र का छठां अनुच्छेद, महिल व पुरुष के मध्य समानता पर बल देता है इसमें कहा गया हैः मानवीय दृष्टि से महिला व पुरुष समान हैं और जिस प्रकार से महिलाओं के कर्तव्य हैं उसी प्रकार उन्हें अधिकार भी दिये गये हैं और महिला को, एक स्वाधीन सामाजिक व आर्थिक व्यक्तित्व वाला सदस्य समझा गया है। जैसाकि हम देखते हैं इस्लाम में महिलाओं के लिए बहुत से अधिकार रखे गये हैं और उन्हें व्यक्तित्व की दृष्टि से पुरुषों की भांति समझा गया है। किंतु यह भी निश्चित है कि महिला और पुरुष के मध्य मौजूद कुछ अंतरों के कारण कुछ अधिकारों और कर्तव्यों में भी अंतर पाया जाता है। जैसा कि इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के इसी अनुच्छेद में पुरुष को परिवार की आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने वाला तथा रक्षक बताया गया है।
क़ानून की दृष्टि में समानता ऐसा अधिकार है जिस पर इस्लाम ने बल दिया है। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद नंबर १९ में धर्म व क़ानून की नज़र में सब को समान बताया गया है और कहा गया हैः न्यायालय का द्वार खटखटाना और उसकी शरण में जाना ऐसा अधिकार है जो सब से लिए निश्चित है। इस अनुच्छेद में अपराध और दंड के बारे में निर्णय का एकमात्र स्रोत धर्म को बताया गया है। दूसरे शब्दों में इस्लाम के नियम, अपराध की क़िस्म और उस पर दंड का निर्धारण करते हैं ताकि इसमें मानवीय गलती का स्थान न रहे। इसी के साथ, इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र में इस विषय पर भी बल दिया गया है कि आरोपी, निर्दोष होता है यहां तक कि उसका दोष, न्यायिक मार्गों द्वारा तथा सफाई देने की सुविधा के बाद सिद्ध हो जाए। इस्लामी मानवाधिकार घोषणापत्र के अनुच्छेद क्रमांक २० में भी बल दिया गया है कि किसी भी व्यक्ति की गिरफतारी केवल नियमों के अनुसार होनी चाहिए। इस अनुच्छेद में हर प्रकार की मानसिक या शारीरिक प्रताड़ना से मना किया गया है।
इस्लामी इबादात
जिन इबादतों की क़ुरआने करीम व सुन्नत ने ताकीद की है हम उन तमाम इबादतों के मोतक़िद व पाबन्द हैं।
जैसे हर रोज़ की पंजगाना नमाज़ जो कि ख़ालिक़ व मख़लूक़ के दरमिन मुहिमतरीन राब्ता है, माहे रमज़ानुल मुबारक के रोज़े जो कि ईमान की तक़वियत,तज़किया-ए-नफ़्स, तक़वे व हवा-ए-नफ़्स से मुक़ाबला करने का बेहतरीन ज़रिया है।
हम अल्लाह के घर के हज पूरी उम्र में हर एक मर्तबा वाजिब मानते हैं इस शर्त के साथ कि इंसान हज के लिए मुस्तती हो(यानी ख़र्च रखता हो) हज मुसलमानों की इज़्ज़त,आपसी मुहब्बत और हुसूले तक़वा का बेहतरीन व मुअस्सरतरीन ज़रिया है।
इसी तरह हम माल की ज़कात व ख़ुमुस, अम्र बिल मारूफ़ व नही अज़ मुनकर और इस्लाम व मुसलमानों पर हमला करने वालों से जिहाद करने को भी वाजिब मानते हैं।
इन तमाम कामों के जुज़यात में हमारे और इस्लाम के दिगर फ़िर्क़ों के दरमियान कुछ फ़र्क़ पाये जाते हैं जैसे अहले सुन्नत के मज़ाहिबे चहार गाने के दरमियान भी इबादात के अहकाम बग़ैरह में कुछ फ़र्क़ पाये जाते हैं।
69- नमाज़ को जमा करना
हमारा अक़ीदह है कि नमाज़े जोह्र व अस्र, नमाज़े मग़रिब व इशा को एक वक़्त में साथ मिला कर पढ़ने में कोई हरज नही है। (जब कि हमारा अक़ीदह है कि इन को जुदा जुदा पढ़ना अफ़ज़ल व बेहतर है) हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की तरफ़ से उन लोगों को जिन के लिए बार बार में ज़हमत होती है इन नमाज़ों को मिला कर पढ़ने की इजाज़त दी गई है।
सही तिरमिज़ी में इब्ने अब्बास से एक हदीस नक़्ल हुई है और वह यह है कि “जमाआ रसूलु अल्लाहि (स.) बैना अज़्ज़हरि व अलअस्रि, व बैना अलमग़रिबि व अलइशाइ बिल मदीनति मिन ग़ैरि ख़ौफ़ि व ला मतरिन, क़ाला फ़क़ीला लिइब्नि अब्बास मा अरादा बिज़ालिक ? क़ाला अरादा अन ला युहरिजा उम्मतहु ”[17] यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने मदीने में ज़ोह्र व अस्र , मग़रिब व इशा की नमाज़ों को मिला कर पढ़ा जबकि न कोई डर था औरक न ही बारिश, इब्ने अब्बास से सवाल किया गया कि पैग़म्बर का इस काम से क्या मक़सद था ? उन्होने जवाब दिया कि पैग़म्बर (स.) का मक़सद यह था कि अपनी उम्मत को ज़हमत में न डाले (यानी जब अलग अलग पढ़ना ज़हमत का सबब हो तो मिला कर पढ़ लिया करें।)
मख़सूसन हमारे ज़माने में जब कि इजतेमाई ज़िन्दगी बहुत पेचीदह हो गई है खास तौर पर कारख़ानो वग़ैरह में काम करने वाले लोगों के लिए, ऐसे मक़ामात पर नमाज़ को पाँच वक़्तो में अलग अलग कर के पढ़ना दशवार है इ। कभी कभी नमाज़ों को जुदा कर के पढ़ना इस बात का सबब बना कि लोगों ने नमाज़ पढ़ना ही छोड़ दिया। ऐसी हालत में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की दी गई इजाज़त, यानी नमाज़ को मिला कर पढ़ना नमाज़ की पाबन्दी में मोस्सिर साबित हो सकती है। यह बात क़ाबिले ग़ौर है।
70- ख़ाक पर सजदह करना
हमारा अक़ीदह है कि नमाज़ में या तो ख़ाक पर सजदह किया जाये या फिर ज़मीन के अजज़ा में से किसी पर भी, या उन चीज़ों पर जो ज़मीन से पैदा होती हैं जैसे दरख़्तों के पत्ते लकड़ी व घास फ़ूँस बग़ैरह (उन चीज़ों को छोड़ कर जो खाने या पहन ने में काम आती हैं)
इसी वजह से हम सूती फ़र्श पर सजदह करने को जायज़ नही मानते और ख़ाक पर सजदह करने को दूसरी तमाम चीज़ों पर तरजीह देते हैं। आसानी के लिए अक्सर शिया पाक मिट्टी को गोल या चकोर शक्ल में ढाल लेते है और इसे अपने पास रखते है और नमाज़ पढ़ते वक़्त इसी पर सजदह करते हैं। यह गोल या चकोर शक्ल में ढाली गई मिट्टी सजदहगाह कहलाती हैं।
इस अमल की दलील के लिए हमारे पास पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की हदीस मौजूद है जिस में आपने फ़रमाया कि “जुइलत ली अलअर्ज़ु मस्जिदन व तहूरन”[18] यानी मेरे लिए ज़मीन को मस्जिद व तहूर क़रार दिया गया।
हम इस हदीस में मस्जिद से सजदेह की जगह मुराद लेते हैं। यह हदीस अक्सर कुतुबे सहा में मौजूद है।
मुमकिन है कि यह कहा जाये कि इस हदीस में मस्जिद से मुराद सजदेह की जगह नही है बल्कि नमाज़ की जगह है। उस के मुक़ाबिल में जो नमाज़ को किसी मुऐय्यन जगह पर पढ़ता हो ,लेकिन इस बात पर तवज्जोह देने से कि यहाँ पर तहूर भी इस्तेमाल हुआ है तहूर यानी ख़ाके तय्म्मुम, यह बात वाज़ेह हो जाती है कि यहाँ पर मस्जिद से मुराद सजदेह की जगह ही है न कि नमाज़ की जगह। यानी ज़मीन की ख़ाक तहूर भी है और सजदेह की जगह भी। इसके अलावा आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम की बहुत सी ऐसी हदीसें हैं जो सजदेह के लिए ख़ाक, संग और इन्हीं के मानिन्द दूसरी चीज़ो के बारे में राहनुमाई करती हैं।
71-पैग़म्बरो व आइम्मा की क़ब्रों की ज़ियारत
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिम अस्सलाम, बुज़ुर्ग उलमा व अल्लाह की राह में शहीद होने वाले अफ़राद की क़ब्रों की ज़ियारत मुसतहब्बाते मुअक्किदा में से है।
अहले सुन्नत के उलमा की किताबों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की क़ब्रे मुबारक की ज़ियारत से मताल्लिक़ बहुतसी रिवायतें मौजूद हैं। इसी तरह शिया उलमा की किताबों में भी इस तरह की बहुत सी रिवायतें मौजूद है।[19] अगर इन तमाम रिवायतों को जमा किया जाये तो इस मोज़ू पर एक बड़ी किताब वुजूद में आ जायेगी।
दर तूले तारीख़ आलमे इस्लाम के बुज़ुर्ग उलमा और तमाम तबक़ात के लोगों ने इस काम को अहमियत दी है। और जो लोग पैग़म्बरे इस्लाम(स.) व दिगर बुज़ुर्गों की कब्रो की ज़ियारत के लिए गये हैं उनकी ज़िन्दगी के हालात से किताबे भरी पड़ी हैं। कुल्ली तौर पर यह कहा जा सकता है कि यह मसला तमाम मुसलमानों का मोरिदे इत्तेफ़ाक़ मसला है।
यहाँ पर यह बात क़ाबिले ग़ौर है कि ज़ियारत को इबादत नही समझना चाहिए। क्योँ कि इबादत सिर्फ़ अल्लाह की ज़ात से मख़सूस है। और ज़ियारत का मतलब बुज़ुर्गाने इस्लाम का एहतेराम और अल्लाह की बारगाह में उन से शफ़ाअत तलब करना है।रिवायात में यहाँ तक आया है कि कभी कभी पैग़म्बरे इस्लाम(स.) ख़ुद अहले क़ुबूर की ज़ियारत को जाते थे और जन्नतुल बक़ी मे पहुँच कर उन को सलाम करते थे और उन पर दरूद पढ़ते थे।[20]
इस बिना पर कोई भी इस अमल को इस्लामी फ़िक़ह की नज़र से रद्द कर के ग़ैरे मशरूअ क़रार नही दे सकता।
72- अज़ादारी और इसका फ़लसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए-कर्बला के लिए अज़ादारी बरपा करना, इस्लाम की बक़ा के लिए उनकी जाफ़िशानी व उनकी याद को ज़िन्दा रखने का ज़रिया है। इसी वजह से हम हर साल ख़ास तौर पर माहे मोहर्रम के पहले अशरे में (जो कि सरदारे जवानाने जन्नत[21] फ़रज़न्दे अमीरुल मोमेनीन हज़रत अली व हज़रत ज़हरा के बेटे पैग़म्बरे इस्लाम(स.) के नवासे हुसैन इब्ने अली की शहादत से मख़सूस है) दुनिया के मुख़तलिफ़ हिस्सों में अज़ादारी बरपा करते हैं। इस अज़ादारी में उनकी सीरत शहादत के मक़सद और मुसीबत को बयान करते हैं और उनकी रूहे पाक पर दरूद भेजते हैं।
हमारा मानना है कि बनी उमैय्यह ने एक ख़तरनाक हुकूमत क़ायम की थी और हुकूमत के बल बूते पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की बहुतसी सुन्नतों को बदल दिया था और आख़िर में इस्लामी अक़दार को मिटाने पर कमर बाँध ली थी।
यह सब देख कर हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम ने सन् 61 हिजरी क़मरी में यज़ीद के ख़िलाफ क़ियाम किया।यज़ीद एक गुनाहगार, अहमक़ और इस्लाम से बेगाना इंसान था और कुर्सीये ख़िलाफ़ते इस्लामी पर काबिज़ था। इस क़ियाम के नतीजे में हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और उनकी साथीयों को इराक़ में सरज़मीने कर्बला पर शहीद कर दिया गया और उनके बीवी बच्चों को असीर बना लिया गया। लेकिन उनका ख़ून रंग लाया और उनकी शहादत ने उस ज़माने के तमाम मुसलमानों के अन्दर एक अजीबसा हीजान पैदा कर दिया। लोग बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ उठ ख़ड़े हुए और मुख़तलिफ़ मक़ामात पर क़ियाम होने लगे जिन्होने ज़ालिम हुकूमत की नीव को हिला कर रख दिया और आख़िर कार बनी उमैय्यह की हुकूमत का ख़ातमा हो गया। अहम बात यह है कि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की शहादत के बाद बनी उमैय्यह के ख़िलाफ़ जितने भी क़ियाम हुए वह सब अर्रिज़ा लिआलि मुहम्मद या लिसारतिल हुसैन के तहत हुए। इन में से बहुत से नारे तो बनी अब्बास की ख़ुदसाख़्ता हुकूमत के ज़माने तक लगते रहे।[22]
हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का यह ख़ूनी क़ियाम आज हम शियों के लिए ज़ालिम हुकूमतों से लड़ने के लिए एक बेहरीन नमूना है। इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के कर्बला में लगाये गये नारे “हैहात मिन्ना अज़्ज़िलत” यानी हम कभी भी ज़िल्लत को क़बूल नही करेंगे। “इन्ना अलहयाता अक़ीदतु व जिहाद” यानी ज़िन्दगी की हक़ीक़त ईमान और जिहाद है। हमेशा हमारी रहनुमाई करते रहे हैं और इन्ही नारों का सहारा लेकर हम ने हमेशा ज़ालिम हुकूमतों का सामना किया है। सय्युश शोहदा हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और आप के बावफ़ा साथियों की इक़तदा करते हुए हमने ज़ालिमों के शर का ख़ात्मा किया है। (ईरान के इस्लामी इंक़लाब में भी जगह जगह पर यही नारे सुन ने को मिले हैं।)
मुख़तस तौर पर यह कि शोहदा-ए- इस्लाम मख़सूसन शोहदा-ए- कर्बला ने की याद ने हमारे अक़ीदेह व ईमान में क़ियाम, इसार, दिलेरी व शौक़े शहादत को हमेशा ज़िन्दा रखा है।इन शोहदा की याद हमको हमेशा यह दर्स देती है कि हमेशा सर बुलन्द रहो और कभी भी ज़ालिम की बैअत न करो। हर साल अज़ादारी बरपा करने और शहीदों की याद को ज़िन्दा रखने की फ़लसफ़ा यही है।
मुमकिन है कि कुछ लोग इस अज़ादारी के फ़ायदे से आगाह ना हो। शायद वह कर्बला और इस शहादत को एक पुराना तारीख़ी वाक़िया समझते हो, लेकिन हम अच्छी तरह जानते हैं कि इस याद को बाक़ी रखने की हमारी कल की, आज की और आइन्दा की तारीख में क्या तसीर रही है और रहेगी।
जंगे ओहद के बाद सैय्यदुश शोहदा जनाबे हमज़ा की शहादत पर पैग़म्बरे इस्लाम का अज़ादारी बरपा करना बहुत मशहूर है।तारीख की सभी मशहूर किताबों में नक़्ल हुआ है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) एक अनसारी के मकान के पास से गुज़रे तो उस मकान से रोने और नोहे की आवाज़ सुनाई दी पैग़माबरे इस्लाम(स.) की आखों से भी अश्क जारी हो गये और आपने फ़रमाया कि आह हमज़ा पर रोने वाला कोई नही है। यह बात सुन कर सअद बिन मआज़ तायफ़ा-ए-बनी अब्दुल अशहल के पास गया और उनकी ख़वातीन से कहा कि पैग़म्बर के चचा हमज़ा के घर जाओ और उनकी अज़ादारी बरपा करो।[23]
यह बात ज़ाहिर है कि यह काम जनाबे हमज़ा से मख़सूस नही था।बल्कि यह एक ऐसी रस्म है जो तमाम शहीदों के लिए अंजाम दी जाये और उनकी याद को आने वाली नस्लों के लिए ज़िन्दा रखा जाये और जिस से हम मुसलमानों की रगो में ख़ून को गरम रख सकें। इत्तेफ़ाक़ से आज जो मैं यह सतरे लिख रहा हूँ आशूर का दिन है (10 मुहर्रम सन् 1417 हिजरी क़मरी) और आलमें तश्शयो में एक अज़ीम वलवला है, बच्चे ,जवान बूढ़े सभी सियाह लिबास पहने हुए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की अज़ादारी में शिरकत कर रहे हैं। आज इन में ऐसा जोश व जज़बा भरा हुआ है कि अगर इस वक़्त इन से दुशमने इस्लाम से दंग करने के लिए कहा जाये तो सभी हाथों में हथियार ले कर मैदाने जंग में वारिद हो जायेंगे। इस वक़्त इनमें वह जज़बा कार फ़रमा है कि यह किसी भी क़िस्म की क़ुर्बानी व इसार से दरेग़ नही करेंगे। इनकी हालत ऐसी है कि गोया इन सब की रगो में ख़ूने शहादत जोश मार रहा है और यह इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम व उनके साथियों को मैदाने कर्बला में राहे इस्लाम में लड़ते हुए देख रहे हैं।
इस अज़ादारी में इस्तेमार व इस्तकबार को मिटा डालने, ज़ुल्म व सितम के सामने न झुकने व इज़्ज़त की मौत को ज़िल्लत की ज़िन्दगी पर तरजीह देने से मुताल्लिक़ शेर पढ़े जाते हैं।
हमारा मानना है कि यह एक अज़ीम मानवी सरमाया है जिसकी हिफ़ाज़त बहुत ज़रूरी है। क्योँ कि इस से इस्लाम, ईमान व तक़वे की बक़ा के लिए मदद मिलती है।
73-अक़दे मुवक़्क़त (मुतआ)
हमारा अक़ीदह है कि अक़्दे मुवक़्क़त एक शरई अमल है जो इस्लामी फ़िक़्ह में मुताअ के नाम से मशहूर है। इस तरह अक़दे इज़दवाज (शादी व्याह) की दो क़िस्में है।
एक इज़दवाजे दाइम जिसका वक़्त व ज़मान महदूद नही है।
दूसरे इज़दवाजे मुवक़्क़त इसकी मुद्दत शोहर बीवी की मुवाफ़ेक़त से तै होती है।
अक़्दे मुवक़्क़त बहुत से मसाइल में अक़्दे दाइम के मशाबेह है। जैसे मेहर, औरत का शादी में माने हर चीज़ से ख़ाली होना, अक़दे मुवक़्क़त के ज़रिये पैदा होने वाली औलाद और अक़्दे दाइम से पैदा होने वाली औलाद के अहकाम के दरमियान कोई फ़र्क़ नही पाया जाता, अक़द की मुद्दत तमाम होने के बाद इद्दत ज़रूरी है। यह सब चीज़े हमारे यहाँ अक़्दे मुवक़्क़त के मुसल्लेमात जुज़ हैं। दूसरे अलफ़ाज़ में मुताअ शादी की एक क़िस्म है शादी की तमाम ख़ुसूसियात के साथ।
बस मुताअ व अक़दे दाइम में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि मुताअ में औरत का ख़र्च मर्द पर वाजिब नही है और शोहर व बीवी एक दूसरे से इर्स नही पाते। लेकिन अगर उन के औलाद हो तो वह माँ बाप दोनों से विर्सा पाते हैं।
हम ने इस हुक्म को क़ुरआने करीम से हासिल किया है “फ़मा इस्तमतअतुम बिहि मिन हुन्ना फ़आतू हुन्ना उजूरा हुन्ना फ़रिज़तन ”[24] यानी तुम जिस औरत से मताअ करो उसका मेहर अदा करो।
बहुत से मशहूर मुहद्दिसों व मुफ़स्सिरों ने इस बात की तसरीह की है कि यह आयत मुताअ के बारे में है।
तफ़सीरे तबरी में इस आयत के तहत बहुत सी ऐसी रिवायतें नक़्ल हुई हैं जो इस बात की निशानदेही करती हैं कि यह आयत मुताअ के बारे में है और इस के बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के असहाब के एक बहुत बड़े गिरोह ने गवाहियाँ भी दी हैं।
तफ़सीरे दुर्रे मनसूर व सुनने बहीक़ी में भी इस बारे में बहुत सी रिवायतें बयान हुई हैं। सही बुख़ारी, सही मुसलिम, मुसनदे अहमद और दूसरी बहुत सी किताबों में ऐसी रिवायतें मौजूद हैं जो पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में मुताअ के रिवाज को साबित करती हैं। अहले सुन्नत के कुछ फ़क़ीहों का यह अक़ीदह है कि अक़्दे मुताअ पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में राइज था यह हुक्म बाद में नस्ख़ हो गया। लेकिन अहले सुन्नत के ही कुछ फ़क़ीह यह कहते हैं कि यह हुकम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ज़िन्दगी तक जारी रहा मगर बाद में इसको हज़रत उमर ने नस्ख़ कर दिया। इस बारे में हज़रत उमर की हदीस का मौजूद होना इस बात की गवाही के लिए काफ़ी है। उन्होंने फ़रमाया कि मुतअतानि कानता अला अहदि रसूलि अल्लाहि व अना मुहर्रिमुहुमा व मुआक़िब अलैहिमा मुतअतुन निसा व मुतअतुल हज्ज।[25] यानी पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में जो दो मुतआ राइज थे मैने उनको हराम कर दिया है और इन को अंजाम देने वाले अफ़राद को सज़ा दूँगा, एक मुता-ए-निसा और दूसरा मुता-ए-हज।
इस बात में कोई शक नही है कि अहले सुन्नत के दरमियान इस इस्लामी हुक्म के बारे में दूसरे बहुत से अहकाम की तरह इख़्तेलाफ़े नज़र पाया जाता है। कुछ लोग पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में इस के नस्ख़ के क़ाइल हैं और कुछ इस के नस्ख़ को ख़लीफ़ा-ए-सानी के दौर में मानते हैं। और एक छोटा सा गिरोह इसका कुल्ली तौर पर इंकार करता है।अहले सुन्नत में इस तरह के फ़िक़्ही मसाइल में इख़्तलाफ़ पाया जाता है। लेकिन शिया उलमा मुतआ के शरई होने में मुत्तफ़िक़ हैं और कहते हैं कि यह पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में नस्ख़ नही हुआ है और पैग़म्बर (स.) के बाद इसका नस्ख़ होना ग़ैर मुमकिन है।
बहर हाल हमारा मानना है कि अगर मुताअ से ग़लत फ़ायदा न उठाया जाये तो यह समाज की अहम ज़रूरत है और उन जवानों के लिए फ़यदे मन्द है जो दाइमी निकाह करने पर क़ादिर नही हैं। या वह अफ़राद जो तिजारत, नौकरी या किसी दूसरी बिना पर एक लम्बे वक़्त तक अपने घर से दूर रहते हैं और जिस्मानी ज़रूरत को पूरा करने के लिए उनको तवाइफ़ों के दरवाज़ों को खटखटाना पड़ता है। ख़ास तौर पर हमारे ज़माने में मुताअ बहुत मुफ़ीद है क्योँकि आज कल इंसान के सामने बहुतसी मुश्किलें है जिनकी वजह से शादीयाँ काफ़ी सिन गुज़र जाने के बाद हो रही है। दूसरी तरफ़ शहवत बढ़ाने वाले आमिल बहुत तेज़ी से फैल रहे हैं। अगर इन हालात में मुताअ का दरवाज़ा बंद हो गया तो तवाइफ़ों के दरवाज़े यकीनी तौर पर आबाद हो जायेंगे।
हम इस बात की एक बार और तकरार करते हैं कि हम इस हुक्म शरई की आड़ में हर क़िस्म का ग़लत फ़यदा उठाने, इस पाकीज़ा हुक्म को हवस परस्त अफ़राद के हाथों का खिलौना बनाने,औरतों को दलदल में फँसाने के सख़्त मुख़ालिफ़ हैं। लेकिन कुछ हवस परस्त लोगों के ग़लत फ़ायदा उठाने की वजह से अस्ल हुक्म से मना नही करना चाहिए बल्कि लोगों को ग़लत फ़यदा उठाने से रोकना चाहिए।
74- शिईयत की तारीख़
हमारा मानना है कि शियत की इबतदा पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में आपके अक़वाल से हुई। हमारे पास इस क़ौल की बहुत सी सनदें मौजूद हैं।
उन में से एक यह है कि सूरए बय्यिनह की आयत “इन्न अल्लज़ीना आमनू व अमिलु अस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरु अलबरिय्यह ”[26] यानी जो लोग ईमान लाये और नेक अमल अंजाम दिये वह (अल्लाह की) बेहतरीन मख़लूक़ हैं। के तहत बहुत से मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि पैग़म्बर (स.) ने फ़रमाया कि इस आयत से मुराद अली (अ.) व उन के शिया हैं।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की इस हदीस को जलालुद्दीन सियोति ने अपनी तफ़्सीर “अद्दुर्रु अलमनसूर” ने इब्ने असाकर व जाबिर बिन अब्दुल्लाह के हवाले से नक़्ल किया है कि हम पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ख़िदमत में थे कि हज़रत अली (अ.) हमारे पास आये जैसे ही पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की नज़र उनके चेहरे पर पड़ी फ़रमाया “व अल्लज़ी नफ़्सी बियदिहि इन्ना हाज़ा व शीअतहु लहुम अलफ़ाइज़ूना यौमा अलक़ियामति।” यानी उसकी क़सम जिसके क़ब्ज़ा-ए-क़ुदरत में मेरी जान है यह और इनके शिया रोज़े क़ियामत कामयाब होने वाले हैं। इसके बाद यह आयत नाज़िल हुई “इन्न अल्लज़ीना आमनू व अमिलु अस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरु अलबरिय्यह” इस वाक़िये के बाद से हज़रत अली अलैहिस्सलाम जब भी असहाब के मजमे में दाख़िल होते थे तो असहाब कहते थे “जाआ ख़ैरु अलबरिय्यह” यानी अल्लाह की सबसे बेहतर मख़लूक़ आ गई।[27]
इस मतलब को थोड़े से फ़र्क़ के साथ इब्ने अब्बास, अबू बरज़ह, इब्ने मर्दवियह, अतिय्य-ए- औफ़ी ने भी नक़्ल किया है।[28]
इस से मालूम होता है कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम से वाबस्ता अफ़राद के लिए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़माने में ही लफ़्ज़े “शिया” का इस्तेमाल किया जाता था और यह नाम उनको पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने दिया था। उनका यह नाम ख़ुलफ़ा या हुकूमते सफ़वियह के ज़माने में नही पड़ा।
इस के बावुजूद कि हम इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों का एहतेराम करते हैं, उनके साथ एक सफ़ में खड़े हो कर नमाज़ पढ़ते हैं, सब के साथ मिल कर हज करते हैं और इस्लाम के तमाम मुशतरक अहदाफ़ में उनका साथ देते हैं। लेकिन हमारा मानना है कि मकतबे अली अलैहिस्सलाम की कुछ ख़ुसूसियतें हैं और इस मकतब पर पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की ख़ास नज़रे करम रही है इसी लिए हम इस मकतब की पैरवी करते हैं।
कुछ शिया मुख़ालिफ़ गिरोह शियत को अबादुल्लाह इब्ने सबा से मंसूब करने की कोशिश करते हैं हमेशा यह दोहराते रहते हैं कि शिया अब्दुल्लाह इब्ने सबा नामी एक शख़्स के पैरोकार हैं जो अस्ल में एक यहूदी था और बाद में इस्लाम क़बूल कर के मुसलमान बन गया था। यह बहुत अजीब बात है, क्योँ कि शियों की तमाम किताबों को देखने से पता चलता है कि शियत का इस इस मर्द से कभी भी कोई दूर का वास्ता भी नही रहा है। बल्कि इसके बर ख़िलाफ़ शियों की इल्मे रिजाल की तमाम किताबों में अब्दुल्लाह इब्ने सबा के बारे में यह मिलता है कि वह एक गुमराह आदमी था। हमारी कुछ रिवयतों के मुताबिक़ हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने, मुरतद होने के ज़ुर्म में उसके क़त्ल का फ़रमान जारी किया।[29]
इस के अलावा यह कि अब्दुल्लाह इब्ने सबा का अस्ल वुजूद ही मशकूक है। क्योँ कि कुछ मुहक्क़िक़ो का मानना है कि अब्दुल्लाह इब्ने सबा एक अफ़सानवी इंसान है। उसका का वुजूदे खारजी ही नही पाया जाता था चेजाय कि वह शिया मज़हब का बुनयान गुज़ार हो।[30] अगर उसको एक अफ़सानवी इंसान न भी माना जाये तो हमारी नज़र में वह एक गुमराह इंसान था।
75- शिया मज़हब का जोग़राफ़िया
मौजूदह ज़माने में शियों का सबसे बड़ा मरकज़ ईरान है लेकिन यह बात क़ाबिले तवज्जोह है कि ईरान हमेशा ही शियत का मरकज़ नही रहा है। बल्कि पहली सदी हिजरी में ही कूफ़ा, यमन, मदीना शियत के मरकज़ रहे हैं। यहाँ तक कि बनी उमैयह की जहर आलूद तबलीग़ात के बावुजूद शाम भी शियों का मरकज़ रहा है। लेकिन इन सब के बावुजूद शियों का सबसे बड़ा मरकज़ इराक़ ही रहा है।
इसी तरह सर ज़मीने मिस्र पर भी शिया हमेशा ज़िन्दगी बसर करते रहे हैं। ख़ुलफ़ा-ए- फ़तमी के दौर में तो मिस्र की हुकूमत ही शियों के हाथ में थी।[31]
आज भी दुनिया के बहुत से मुल्कों में शिया पाये जाते हैं और सऊदी अरब के मनतका-ए- शरक़ियह में शिया एक बड़ी तादाद में रहते हैं और इस्लाम के दूसरे फ़िर्क़ों के लोगों के साथ उन के अच्छे ताल्लुक़ात हैं। इस्लाम के दुशमनों की हमेशा यह कोशिश रही है कि शिया और सुन्नी मुसलमानों के बीच दुशमनी व इख़्तेलाफ़ के बीज बो कर इन को आपस में लड़ाए और इस तरह दोनों को ही कमज़ोर कर दे।
ख़ासतौर पर आज के ज़माने में जबकि इस्लाम शर्क़ व ग़र्ब की माद्दी दुनिया के सामने एक अज़ीम ताक़त बन कर उभरा है और माद्दी तहज़ीब से थके हारे उदास लोगों को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर रहा है। आज इस्लाम दुशमन अफ़राद मुसलमानों की ताक़त को तोड़ने और इस्लाम की तरक़्क़ी की रफ़्तार को सुस्त करने के लिए इस कोशिश में लगे हुए हैं कि मुसलमानों के दरमियान इख़्तेलाफ़ पैदा कर के इन को आपसी झगड़ो में उलझा दिया जाये। अगर इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों के लोग इस बात को समझ लें और होशियार हो जायें तो दुशमन के इस मंसूबे को ख़ाक में मिलाया जा सकता है।
यह बात भी क़ाबिले ज़िक्र है कि शियों में भी अहले सुन्नत की तरह मुताद्दिद फ़िर्के पाये जाते हैं इन में सब से मशहूर और बड़ा प़िर्क़ा शिया असना अशरी है जिसके पैरोकार तमाम दुनिया में कसीर तादाद में मौजूद हैं। अगरचे शियों की दक़ीक़ तादाद और दुनिया के दूसरे मुसलमानों की निसबत इन की तदाद सही तौर पर मालूम नही है, मगर कुछ आकँड़ो की बुनियाद पर इस वक़्त दुनिया में तक़रीबन तीन सौ मिलयून शिया पाये जाते हैं जो आज की मुसलिम आबादी का ¼ है।
76- अहले बैत (अ.) की मीरास
मकतबे शियत के पास पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की हदीसों का एक बहुत बड़ा ख़ज़ाना मौजूद है जो इस मकतब को आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिम अस्सालाम के ज़रिये हासिल हुआ हैं। इस के अलावा हज़रत अली अलैहिस्सलाम व दिगर आइम्मा के अक़वाल भी फ़रवान मौजूद हैं जो इस वक़्त शिया फ़िक़्ह व मआरिफ़ के असली मनाबे शुमार होते हैं। शिया मकतब में अहादीस की चार किताबे मोतबर समझी जाती हैं जो कुतुबे अरबा के नाम से मशहूर है जिन के नाम इस तरह हैं-
(1) काफ़ी
(2) मन ला यहज़ुरुहु अलफ़क़ीह
(3) तहज़ीब
(4) इस्तबसार
लेकिन यहाँ पर इस बात का ज़िक्र ज़रूरी है कि कोई यह न समझे कि हमारी इन चारों किताबों या दूसरी मोतबर किताबों में जो हदीसें मौजूद हैं, वह सब मोतबर हैं। नही ऐसा नही है, बल्कि हर हदीस का एक सनदी सिलसिला है रिजाल की किताबों की मदद से सनद में मौजूद हर इंसान के बारे में छानबीन होती है जिस रिवायत के तमाम रावी मोरिदे यक़ीन होते हैं उस हदीस के हम सही मानते हैं और जिस रिवायत के तमाम रावी मोरिदे इतमिनान नही होते हम उस हदीस को ज़ईफ़ व मशकूक मानते हैं। रिजाल की छानबीन का यह काम सिर्फ़ उलमा-ए- इल्मे रिजाल व हदीस से मख़सूस है।
यहाँ से यह बात अच्छी तरह रौशन हो जाती है कि शियों की हदीस की किताबें अहले सुन्नत की हदीस की किताबों लसे मुताफ़ावित है। क्योँकि अहले सुन्नत की कुतुबे सहा मखसूसन सही बुख़ारी व सही मुस्लिम के मोल्लिफ़ों का दावा यह है कि हम ने जो इन किताबों में हदीसे जमा की हैं हमारे नज़दीक वह सब सही व मोतबर हैं। इसी बिना पर इन हदीसो में से किसी के ज़रिये भी अहले सुन्नत के अक़ीदेह को समझा जा सकता है। इस के बर ख़िलाफ़ शिया मुहद्देसीन ने इस बात पर बिना रखी कि अहले बैत अलैहिम अस्सलाम से मंसूब जो भी हदीसें मिलें उनको जमा कर लिया जाये और इनके सही या ग़लत होने की शनाख़्त का काम उलमा-ए-रिजाल के हवाले कर दिया जाये।
77- दो अहम किताबें
वह अहम मनाबे जो शियों की बहुत अहम मीरास समझे जाते हैं उनमें से एक नहजुल बलाग़ा है। यह किताब हज़रत अली अलैहिस्सलाम के ख़ुतबों, ख़तों और कलमाते क़िसार पर आधारित है। इस किताब को अब से एक हज़ार साल पहले मरहूम सैयद रज़ी रिजवानुल्लाह तआला अलैह ने मुरत्तब किया था। इस किताब के मतालिब, अलफ़ाज़ की ज़ेबाई और कलाम की शीरनी ऐसी है कि जो भी इस किताब को पढ़ता है इस का गिरवीदह हो जाता है,चाहे वह किसी भी मज़हब से ताल्लुक़ रखता हो। काश सिर्फ़ मुसलमान ही नही बल्कि अगर ग़ैरे मुसलमान भी इस किताब को पढ़ें तो इस्लाम के तौहीद व मआद के नज़रियह से आगाह हो कर इस्लाम के सियासी अख़लाक़ी व समाजी मसाइल से आशना हो जायें।
इस सिलसिला-ए-मीरास की दूसरी अहम किताब सहीफ़ा-ए-सज्जादियह है । यह किताब दुआओं का मज़मूआ है। इन दुआओं में इस्लाम के बुलन्द मर्तबा बेहतरीन मआरिफ़, फ़सीह व जेबा इबारतों में बयान किये गये हैं। इस किताब में मौजूद दुआऐं नहजुल बलाग़ा के ख़ुत्बों की तरह हैं। जिनका हर जुम्ला इंसान को एक नया दर्स देता है और अल्लाह की इबादत व अल्लाह से दुआ का तरीक़ा सिखाते हुए इंसान की रूह को जिला बख़्शता है।
जैसा कि इस किताब के नाम से ज़ाहिर है यह किताब शिया मकतब के चौथे इमाम हज़रत ज़ैनुल आबीदीन अलैहिस्सलाम (जो कि सैयदे सज्जाद के लक़ब से मशहूर हैं) की दुआओं का मजमूआ है। हम जिस वक़्त भी यह चाहते हैं कि अल्लाह की बारगाह में दुआ करें, उसकी इबादत में इज़ाफ़ा करें, उस ज़ाते पाक से अपने राब्ते को और मज़बूत बनाऐं तो हम इन्हीं दुआओं को पढ़ते हैं। इन दुआओं को पढ़ने से हमारी रूह इसी तरह शाद होती है जिस तरह बारिश के पानी से सेराब हो कर सबज़ा लहलहाने लगता है।
शिया मकतब से मुताल्लिक़ दस हज़ार से ज़ाइद हदीसों में से अक्सर हदीसें पाँचवें और छटे इमाम यानी हज़रत इमाम मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम व हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ आलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इन आहादीस का एक अहम हिस्सा हज़रत इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम से भी नक़्ल हुआ है। इस की वजह यह है कि इन तीनो बुज़ुर्गों ने ऐसे ज़माने में ज़िन्दगी बसर की जब अहले बैत अलैहिम अस्सलाम पर दुशमनों और बनी उमैयह व बनी अब्बास के हाकिमों का दबाव कम था। लिहाज़ा इस फ़ुर्सत का फ़ायदा उठाते हुए पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की वह अहादीस जो मआरिफ़ के तमाम अबवाब व इस्लामी फ़िक़ह के अहकाम से मुताल्लिक़ थी, और इन के आबा व अजदाद के ज़रिये इन तक पहुँची थी अवाम के सामने बयान करने में कामयाब हो गये। शिया मज़हब को जाफ़री मज़हब जो कहा जाता है इस की वजह यही है कि शिया मज़हब की अक्सर रिवायतें इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम से नक़्ल हुई हैं। इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम का ज़माना वह था जब बनी उमैयह रू बज़वाल थे और बनी अब्बास अभी सही से अपने पंजे नही जमा पाये थे। हमारी किताबों में मिलता है कि इसी दौरान इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम ने मआरिफ़े फ़िक़्ह व अहादीस में चार हज़ार शागिर्दों की तरबीयत की।
हनफ़ी मसलक के इमाम अबू हनीफ़ा हज़रत इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम की तारीफ़ करते हुए इस तरह कहते हैं कि “मा रऐतु अफ़क़हा मिन दाफ़र बिन मुहम्मद ”[32] यानी मैने जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बड़ा कोई फ़क़ीह नही देखा।
मालिकी मज़हब के इमाम मालिक िब्ने अनस कहते हैं कि “एक मुद्दत तक मेरा जाफ़र बिन मुहम्मद के पास आना जाना रहा मैं जब भी उनके पास जाता था, उनको तीन हालतों में से एक में पाता था या तो वह नमाज़ में मशग़ूल होते थे या रोज़े से होते थे या तिलावते क़ुरआने करीम कर रहे होते थे। मेरा अक़ीदह है कि इल्म व इबादत के लिहाज़ से जाफ़र इब्ने मुहम्मद से बाफ़ज़ीलत मर्द न किसी ने देखा है और न ही ऐसे आदमी के बारे में किसी ने सुना है। ”[33]चूँकि यह किताब बहुत मुख़्तसर है इस लिए आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिस्सलाम के बारे में उलमा-ए-इस्लाम के तमाम नज़रियात को नक़्ल नही कर रहे हैं।
78- इस्लामी उलूम में शियों का किरदार
उलूमें इस्लामी की दाग़ बाल में शियों का बहुत अहम किरदार रहा है। कुछ लोगों का मानना है कि उलूमे इस्लामी शियों के ज़रिये ही फूला फला है। इस बारे में बहुत सी किताबें भी लिखी जा चुकी हैं और इन में इस दावे के सबूत भी पेश किये जा चुके हैं। लेकिन हमारा कहना है कि कम से कम इन उलूम की बुनियाद व पेशरफ़्त में शियों का बहुत बड़ा हाथ रहा है और इसकी बेहतरीन दलील इस्लामी इल्म व फ़नून में शिया उलमा की लिखी हुई किताबे हैं। शिया उलमा ने फ़िक़्ह व उसूल में हज़ारों किताबें लिखी हैं जिनमें से बहुत सी किताबें बहुत बड़ी व बेनज़ीर हैं। इसी तरह शिया उलमा ने उलूमे क़ुरआन, तफ़्सीर, अक़ाइद व इल्मे कलाम में हज़ारों किताबें लिखी हैं। इन में से बहुत सी किताबें आज भी हमारे किताब खानों के अलावा दुनिया के बड़े बड़े व मशहूर किताब ख़ानों में मौजूद हैं। जिस का दिल चाहे वह इन किताब ख़ानों में जाकर इन किताबों को देखे और इस क़ौल की सदाक़त को जाने।
इस्लाम पर महापुरूषों के विचार
इन्सानी भाईचारा और इस्लाम पर महात्मा गाधी का ब्यानः ‘‘कहा जाता है कि यूरोप वाले
दक्षिणी अफ्रीका में इस्लाम के प्रसार से भयभीत हैं, उस इस्लाम से जिसने स्पेन को सभ्य बनाया, उस इस्लाम से जिसने मराकश तक रोशनी पहुँचाई और संसार को भाईचारे की इंजील पढाई। दक्षिणी अफ्रीका के यूरोपियन इस्लाम के फैलाव से बस इसलिए भयभीत हैं कि उनके अनुयायी गोरों के साथ कहीं समानता की माँग न कर बैठें। अगर ऐसा है तो उनका डरना ठीक ही है। यदि भाईचारा एक पाप है, यदि काली नस्लों की गोरों से बराबरी ही वह चीज है, जिससे वे डर रहे हैं, तो फिर (इस्लाम के प्रसार से) उनके डरने का कारण भी समझ में आ जाता है।’’
पृष्ठ 13, प्रो. के. एस. रामाकृष्णा राव की मधुर संदेश संगम, दिल्ली से छपी पुस्तक ‘‘इस्लाम के पैग़म्बर मुहम्मद (सल्ल.) में
खुदा के समक्ष रंक और राजा सब एक समान
इस्लाम के इस पहलू पर विचार व्यक्त करते हुए सरोजनी नायडू कहती हैं-
‘‘यह पहला धर्म था जिसने जम्हूरियत (लोकतंत्र) की शिक्षा दी और उसे एक व्यावहारिक रूप दिया। क्योंकि जब मीनारों से अज़ाद दी जाती है और इबादत करने वाले मस्जिदों में जमा होते हैं तो इस्लाम की जम्हूरियत (जनतंत्र) एक दिन में पाँच बार साकार होती है, जब रंक और राजा एक-दूसरे से कंधे से कंधा मिला कर खडे होते हैं और पुकारते हैं, ‘अल्लाहु अकबर’ यानी अल्लाह ही बडा है। मैं इस्लाम की इस अविभाज्य एकता को देख कर बहुत प्रभावित हुई हूँ, जो लोगों को सहज रूप में एक-दूसरे का भाई बना देती है। जब आप एक मिस्री, एक अलजीरियाई, एक हिन्दुस्तानी और एक तुर्क (मुसलमान) से लंदन में मिलते हैं तो आप महसूस करेंगे कि उनकी निगाह में इस चीज़ का कोई महत्व नहीं है कि एक का संबंध मिस्र से है और एक का वतन हिन्दूस्तान आदि है।’’ पृष्ठ 12
विश्व प्रसिद्ध शायर गोयटे ने पवित्र कुरआन के बारे में एलान किया थाः ‘‘यह पुस्तक हर युग में लोगों पर अपना अत्यधिक प्रभाव डालती रहेगी।’’ पृष्ठ 16
जार्ज बर्नाड शा का भी कहना हैः
‘‘अगर अगले सौ सालों में इंग्लैंड ही नहीं, बल्कि पूरे यूरोप पर किसी धर्म के शासन करने की संभावना है तो वह इस्लाम है।’’
‘इन्साइक्लोपीडिया ब्रिटानिका’ में उल्लिखित है -‘‘समस्त पैग़म्बरों और धार्मिक क्षेत्र के महान व्यक्तित्वों में मुहम्मद सबसे ज़्यादा सफल हुए हैं।’’ पृष्ठ 21
प्रेमचंद जी ‘‘इस्लामी सभ्यता’’ पुस्तिका जो मधुर संदेश संगम, दिल्ली से भी छपी है, में लिखते हैं:
‘‘जहां तक हम जानते हैं कि किसी धर्म ने न्याय को इतनी महानता नहीं दी जितनी इस्लाम ने।’’ पृष्ठ 5
‘संसार की किसी सभ्य से सभ्य जाति की न्याय-नीति की इस्लामी न्याय-नीति से तुलना कीजिए, आप इस्लाम का पल्ला झुकता हुआ पाएँगे।’’ पृष्ठ 7
‘‘हिन्दू-समाज ने भी शूद्रों की रचना करके अपने सिर कलंक का टीका लगा लिया। पर इस्लाम पर इसका धब्बा तक नहीं। गुलामी की प्रथा तो उस समस्त संसार में भी, लेकिन इस्लाम ने गुलामों के साथ जितना अच्छा सलूक किया उस पर उसे गर्व हो सकता है।’’ पृष्ठ 10
‘‘हमारे विचार में वही सभ्यता श्रेष्ठ होने का दावा कर सकती है जो व्यक्ति को अधिक से अधिक उठने का अवसर दे। इस लिहाज से भी इस्लामी सभ्यता को कोई दूषित नहीं ठहरा सकता।’’ पृष्ठ 11
‘‘हम तो याहं तक कहने को तैयार हैं कि इस्लाम में जनता को आकर्षित करने की जितनी बडी शक्ति है उतनी और किसी सस्था में नही है। जब नमाज़ पढते समय एक मेहतर अपने को शहर के बडे से बडे रईस के साथ एक ही कतार में खडा पाता है तो क्या उसके हृदय में गर्व की तरंगे न उठने लगती होंगी। उसके विरूद्ध हिन्दू समाज न जिन लोगों को नीच बना दिया है उनको कुएं की जगत पर भी नहीं चढने देता, उन्हें मंदिरों में घुसने नहीं देता।’’ पृष्ठ 14
स्नेह और सहिष्णुता के प्रचारक स्वामी विवेकानन्द कहते हैं ‘‘पैग़म्बर मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम संसार मे समानता के संदेशवाहक थे। वे मानवजाति में स्नेह और सहिष्णुता के प्रचारक थे। उनके धर्म में जाति-बिरादरी, समूह, नस्ल आदि का कोई स्थान नहीं है।’’
स्वामी विवेकानन्द इस्लाम के बड़े प्रशंसक और इसके भाईचारा के सिद्धांत से अभिभूत थे। वेदान्ती मस्तिष्क और इस्लामी शरीर को वह भारत की मुक्ति का मार्ग मानते थे। अल्मोड़ा से दिनांक 10 जून 1898 को अपने एक मित्र नैनीताल के मुहम्मद सरफ़राज़ हुसैन को भेजे पत्र में उन्होंने लिखा कि
‘‘अपने अनुभव से हमने यह जाना है कि व्यावहारिक दैनिक जीवन के स्तर पर यदि किसी धर्म के अनुयायियों ने समानता के सिद्धांत को प्रशंसनीय मात्र में अपनाया है तो वह केवल इस्लाम है। इस्लाम समस्त मनुष्य जाति को एक समान देखता और बर्ताव करता है। यही अद्वैत है। इसलिए हमारा यह विश्वास है कि व्यावहारिक इस्लाम की सहायता के बिना, अद्वैत का सिद्धांत चाहे वह कितना ही उत्तम और चमत्कारी हो विशाल मानव-समाज के लए बिल्कुल अर्थहीन है।’’विवेकानन्द साहित्य, जिल्द 5, पेज 415
स्वामी जी ने स्पष्ट शब्दों में कहा है कि
‘‘भारत में इस्लाम की ओर धर्म परिवर्तन तलवार (बल प्रयोग) या धोखाधड़ी या भौतिक साधन देकर नहीं हुआ था।’’विवेकानन्द साहित्य, जिल्द 8, पेज 330
सी एस श्रीनिवास ‘‘हिस्ट्री आफ़ इंडिया’’ में, जो मद्रास से 1937 मे प्रकाशित हुई थी, लिखते हैं
‘‘इस्लाम के पैग़बर ने जब एक शासक का स्थान प्राप्त किया तो भी आपका जीवन पूर्व की भांति सादा रहा। आप सुधारक भी थे और विजेता भी। आपने लोगों के अख़्लाकष् को बुलंद किया। प्रतिशोध लेने को अनुचित ठहराया और खोज-बीन के बिना रक्तपात से रोका, विखंडित कष्बीलों को एक कषैम बना दिया और एक ऐसा रिश्ता दिया जो ख़ानदानी रिश्तों से ज़्यादा टिकाऊ था।आपने लोगों को पस्ती, द्वेष और पक्षपात में ग़र्क पाया, लेकिन उनको सदाकत का संदेश देकर बुलंद कर दिया। उनको आपसी ख़ानदानी झगड़े में लिप्त पाया, मगर सहिष्णुता और भ्रातृत्व के रिश्ते में जोड़ दिया। आप एक फ़रिश्ता-ए-रहमत बनकर दुनिया में तशरीफ़ लाए।’’भारतीय सभ्यता पर मुसलमानों के उपकार, पृष्ठ 31
आदर्श जीवनजगत महर्षि पै़ग़म्बरे-इस्लाम सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के विषय में महात्मा गांधी के विचार इस तरह हैं
‘‘मैं पैग़म्बरे-इस्लाम की जीवनी का अध्ययन कर रहा था। जब मैंने किताब का दूसरा भाग भी ख़त्म कर लिया तो मुझे दुख हुआ कि इस महान प्रतिभाशाली जीवन का अध्ययन करने के लिए अब मेरे पास कोई और किताब बाकी नहीं। अब मुझे पहले से भी ज़्यादा विश्वास हो गया है कि यह तलवार की शक्ति न थी जिसने इस्लाम के लिए विश्व क्षेत्रा में विजय प्राप्त की, बल्कि यह इस्लाम के पैग़म्बर का अत्यन्त सादा जीवन, आपकी निःस्वार्थता, प्रतिज्ञा-पालन और निर्भयता थी, आपका अपने मित्रों और अनुयायियों से प्रेम करना और ईश्वर पर भरोसा रखना था। यह तलवार की शक्ति नहीं थी, बल्कि ये सब विशेषताएं और गुण थे जिनसे सारी बाधाएं दूर हो गयीं और आपने समस्त कठिनाइयों पर विजय प्राप्त कर ली।मुझसे किसी ने कहा था कि दक्षिण अफ्ऱीकष में जो यूरोपियन आबाद हैं, इस्लाम के प्रचार से कांप रहे हैं, उसी इस्लाम से जिसने मोरक्को में रौशनी फैलायी और संसार-निवासियों को भाई-भाई बन जाने का सुखद संवाद सुनाया। निःसन्देह दक्षिण अफ्ऱीका के यूरोपियन इस्लाम से नहीं डरते हैं, लेकिन वास्तव में वह इस बात से डरते हैं कि अगर इस्लाम कुबूल कर लिया तो वह श्वेत जातियों से बराबरी का अधिकार मांगने लगेंगे।आप उनको डरने दीजिए। अगर भाइ-भाई बनना पाप है, यदि वे इस बात से परेशान हैं कि उनका नस्ली बड़प्पन कायम न रह सके तो उनका डरना उचित है, क्योंकि मैंने देखा है कि अगर एक जूलो ईसाई हो जाता है तो वह सफ़ेद रंग के ईसाइयों के बराबर नहीं हो सकता। किन्तु जैसे ही वह इस्लाम ग्रहण करता है, बिल्कुल उसी वक्त वह उसी प्याले में पानी पीता है और उसी तश्तरी में खाना खाता है जिसमें कोई और मुसलमान पानी पीता और खाना खाता है, तो वास्तविक बात यह है जिससे यूरोपियन कांप रहे हैं।’’जगत महर्षि, पृष्ठ 2इन्सानियत फिर ज़िन्दा हुई
स्वामी लक्ष्मण प्रसाद लिखते हैं‘‘आस्था, विश्वास, पूजा-अर्चना, नैतिकता, सामाजिकता के सम्पूर्ण आवाहक हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के आगमन से पहले दुनिया में कहीं कोई आशा की किरन दिखाई नहीं देती थी, विश्वव्यापी गुमराहियों और भयंकर अंधकार में कहीं सभ्यता और संस्कृति की रौशनी नज़र नहीं आती थी। जब शराफ़त का नामो-निशान मिट चुका था, जब प्रकृति का वास्तविक सौंदर्य और आध्यात्मिकता की सुन्दरता ईश्वर के इन्कार मिथ्याकर्म के अंधकारों में छिप गई थी, इन्सान ख़ुदा की कष्द्र और महत्ता को भूलकर अपने गले में कुकर्म और मूर्तिपूजा की लानत की ज़ंजीर पहन चुका था, एक बार इन्सानियत मरकर फिर ज़िन्दा हुई। एशिया महाद्वीप के दक्षिण-पश्चिम में एक बड़ा प्रायद्वीप है जो अरब के नाम से मशहूर है। इसी अज्ञानता और बुराई के केन्द्र अरब के फ़ारान पर्वत की चोटियों से एक नूर चमका जिसने दुनिया के हालात को आमूल रूप से बदल दिया। गोशा-गोशा नूरे-हिदायत से जगमगा दिया।आज से तेरह सौ सदियां पहले इसी गुमराह देश मक्का की गलियों से एक क्रान्तिकारी आवाज़ उठी जिसने जुल्म-सितम के वातावरण में तहलका मचा दिया। यहीं से मार्गदर्शन का वह स्रोत फूटा जिसने दिलों की मुरझाई हुई खेतियां सरसब्ज़ कर दीं। इसी रेगिस्तानी, चमनिस्तान में रूहानियत का वह फूल खिला जिसकी रूहपर्वर महक ने नास्तिकता की दुर्गन्ध से घिरे इन्सानों के दिल व दिमाग़ों को सुगन्धित कर दिया।’’अरब का चाँद, पुस्तक से एकेश्वरवाद का सदुपयोग
हिन्दी के वरिष्ठतम साहित्यकार भारतेन्दु हरिश्चन्द्र लिखते हैं‘‘जिस समय अरब देशवाले बहुदेवोपासना के घोर अंधकार में फंस रहे थे, उस समय महात्मा मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने जन्म लेकर उनको एकेश्वरवाद का सदुपयोग दिया। अरब के पश्चिम में ईसा मसीह का भक्तिपथ प्रकाश पा चुका था, किन्तु वह मत अरब, फ़ारस इत्यादि देशों में प्रबल नहीं था और अरब जैसे कट्टर देश में महात्मा मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के अतिरिक्त और किसी का काम न था कि वहां कोई नया मत प्रकाश करता। उस काल के अरब के लोग मूर्ख, स्वार्थ-तत्पर, निर्दय और वन्य-पशुओं की भांति कट्टर थे। यद्यपि उनमें से अनेक लोग अपने को इब्राहीम अ़लैहिस्सलाम के वंश का बतलाते और मूर्ति पूजा बुरी जानते किन्तु समाज परवश होकर सब बहुदेव उपासक बने हुए थे। इसी घोर समय में मक्के से मुहम्मद चन्द्र उदय हुआ और एक ईश्वर का पथ परिष्कार रूप से सबको दिखाई पड़ने लगा।’’
भारतेन्दु हरिश्चन्द्र समग्रसमस्त मानवजाति के मार्गदर्शकलाला काशीराम चावला ‘ऐ मुस्लिम भाई’ में लिखते हैं
‘‘समस्त धर्मों के प्रणेता और संस्थापक, बड़े-बड़े घरानों में पैदा हुए और उनकी पैदाइश पर बड़ी धूम-धाम मची, बड़े हर्ष वाद्य बजे। उदाहरणतः हज़रत ईसा अ़लैहिस्सलाम, बुद्व-भगवान, हज़रत मूसा अ़लैहिस्सलाम, भगवान कृष्ण, भगवान महावीर, गुरू नानक सबका बचपन नितांत लाड-प्यार और शानो-शौकत से गुज़रा। लेकिन आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के कष्टों का आरंभ जन्म से पहले ही हो चुका था।अभी आप माता के गर्भ ही में थे कि पिता का देहांत हो गया। छः वर्ष की अवस्था में मातृ-प्रेम से भी वंचित हो गये। दो साल दादा की गोद में खेले और आठवें वर्ष वे भी स्वर्ग सिधार गये और फिर आपके चाचा ने संभाला। इस प्रकार बचपन में शिक्षा-दीक्षा और सुख- शान्ति के समस्त साधन लुप्त हो गये। क्या वह ईश्वरीय चमत्कार नहीं कि ऐसी दशा में पला हुआ व्यक्ति आज मानवजाति के एक विशाल समूह का पथप्रदर्शक और नेता स्वीकार किया जा रहा है और उसने अरब जैसे बर्बर देश से निराश्रित अवस्था में संसार- निवासियों को मानवता का सन्देश दिया।किसे पता था कि ऐसा अप्रसिद्ध परिवार में जन्म लेने वाला अनपढ़ और अनाथ बालक अरब से अज्ञानता का नामो-निशान मिटाने वाला सुधारक बनेगा? समूचे संसार में इस्लामी पताका लहराने वाला रसूल होगा। कुरआन शरीफ़ का सन्देश पहुंचाने वाला नबी होगा? मूर्खों में महत्वपूर्ण क्रान्ति उत्पन्न करने वाला सुधारक होगा और एक बिल्कुल अनोखे नवीन धर्म का प्रकाश दिखाएगा? नितांत अल्प समय में स्वयं अशिक्षित होते हुए भी अपने बौद्विक ज्ञान से समस्त संसार के एक बहुत बड़े भाग को शिक्षा और ज्ञान से परिपूर्ण कर देगा? ऐसे ज्ञान से जो विश्व के समस्त मनुष्यों के लिए एक अनुकरणीय आदर्श है।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने उदारता और समता, सत्य और न्याय एवं पड़ौसियों के स्वतत्वों का जो आदर्श संसार में स्थापित किया है, उसे देखकर आश्चर्यचकित रह जाना पड़ता है। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम के सुव्यवहार और समता-भाव का यह हाल था कि आपने अपने संपूर्ण जीवन में कभी किसी दास या बालक या पशू तक को न मारा, न किसी को अपशब्द कहा, एक बार बिल्ली को प्यासा देखा तो वुजू के लोटे से पानी पिलाया। इसी तरह एक बार एक बिल्ली आपके बिस्तर पर सोई हुई थी, आपने उसे उस सुख से वंचित न किया, चिड़ियों और चींटियों के मारने के विरूद्ध आदेश दिया, कुत्तों को पानी पिलाने वालों के अपराध क्षमा किये। युद्ध के बन्दियों का सम्मान किया। नितांत महत्वपूर्ण युद्ध-नियम निर्माण किये, जिसमें स्त्री, बालक, वृद्ध, सोये हुए और निहत्थे पर अस्त्रा चलाने की मनाही की। फ़सलों और मकानों को हानि पहुंचाने से रोका।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अन्य जातियों के सरदारों का आदर-सत्कार करते थे। अन्य धर्मों के विद्वानों और प्रतिष्ठित जनों से सम्मानपूर्वक मिलते थे। जहां अपने प्रिय अनुयायियों के लिए दिन-रात ईश्वर से प्रार्थना करते रहते थे, वहीं विरोधियों और शत्रुओं के लिए भी प्रार्थना करते थे। जब उहुद के युद्ध में आपके मुख पर पत्थर मारे गये और आपके दांत शहीद हो गये तो आपने फ़रमायाः ‘‘हे मेरे ईश्वर! तू मेरी जाति के इन लोगों को क्षमा प्रदान कर, क्योंकि निस्सन्देह वे नहीं जानते (कि वे क्या कर रहे हैं)।’’आपकी दानशीलता और उदार हृदयता अद्वितीय थी। प्रार्थी किसी धर्म या सम्प्रदाय का हो आपके द्वार से निराश न लौट सकता था। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का यह आदेश था कि सृष्टि के प्राणियों पर दया करो, ईश्वर से डरो। आप कष्र्ज़ लेकर भी लोगों की ज़रूरतें पूरी किया करते थे। आपकी आज्ञा थी कि (युद्ध में) दुश्मन की लाश नष्ट न की जाए, औरतों और बच्चों की हत्या न की जाए, शरीर के अंगो को काट-काटकर प्राण-वध न किया जाए, न शरीर के किसी भाग को जलाया जाए।आपकी सत्यप्रियता, शुद्ध हृदयता, ईमानदारी और न्यायशीलता की प्रशंसा न केवल मुसलमान, बल्कि अबू जहल और अबू सुफ़यान जैसे ख़ून के प्यासे दुश्मनों ने भी की, और इन्सान की वास्तविक प्रशंसा वही है जो विरोधी को भी मान्य हो और सच्ची बुराई वह होती है जिसे मित्रा भी निःसंकोच कह दे।
क्या वह आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम का चमत्कार नहीं है कि अरब के जाहिल, अक्खड़, लड़ाके, झगड़ालू, अंधविश्वासी, जुआरी, शराबी, डाकू, व्यभिचारी, प्रतिज्ञा-भंग, कन्यावध, सौतेली माताओं से विवाह करने वाले लोग आज सीधे-सादे यात्रियों और अतिथियों का आदर-सत्कार करने वाले, मेहनती, ईमानदार, सहायक, आज्ञापालक, समतावादी और ईश्वर पूजक दिखायी देते हैं। यह आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम की शिक्षा का अलौकिक चमत्कार है कि इतने अल्प समय में इन लोगों के आचार-व्यवहार, स्वभाव, प्रकृति में एक असाधारण क्रान्ति उत्पन्न कर दी।आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने इतने अधिक प्रभाव और अधिकार के बाद भी कभी अपने स्वभाव में परिवर्तन न होने दिया। एक यात्रा में भोजन तैयार न था। आपके साथियों ने मिलकर भोजन बनाने का निश्चय किया, लोगों ने एक-एक काम बांट लिया। साथियों के रोकने के बावजूद जंगल से लकड़ी लाने का काम आपने स्वंय लिया और फ़रमायाः ‘‘कोई कारण नहीं कि मैं अपने आपको श्रेष्ठ समझूं।’’बद्र की लड़ाई में सवारियों की संख्या कम थी। बारी-बारी लोग सवार होते थे, आप भी इसी प्रकार अपनी बारी पर चढ़ते और पैदल चलते।आपकी सादा ज़िन्दगी कहावत की सीमा तक पहुंच चुकी है। यह पहले लिखा जा चुका है कि आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपने घर का काम-काज अपने हाथ से स्वयं करते थे, कपड़ों में पेवंद लगाना, फटे जूते गांठना, झाडू देना, दूध दुहना, बाज़ार से सौदा-सुल्फ़ लाना आदि, यह सब काम हज़रत की दिनचर्या में सम्मिलित थे। दिखावे और आडमब्र को बिल्कुल पसन्द न फ़रमाते थे। मोटे, फटे कपड़े पहनते, कुर्ते का तुक्मा खुला होता था, बनाव-सिंगार को नापसंद करते थे। एक बार आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम अपनी प्रिय सुपुत्री फ़ातिमा ज़ोहरा रज़ियल्लाहु अ़न्हा के घर गये। लेकिन दीवारों पर पर्दे लटके हुए देखकर वापस चले आये। कारण पूछने पर आपने फ़रमायाः‘‘जिस घर में बनावट-सजावट में दिल लगा रहता हो, वहां मैं नहीं जा सकता।’’ऐसा क्यों था? इसलिए कि उनके पास वह ईश्वरीय आदेश पहुंच चुका था कि ईश्वरीय प्रेम के सम्मुख सांसारिक प्रेम तुच्छ है।कुरआन में एक जगह कहा गया हैः‘‘ऐ (ईश्वर पर) विश्वास रखने वालो! तुम्हें तुम्हारे (सांसारिक) धन और संतान ईश्वर उपासना से ग़ाफ़िल न कर दें, और जो ऐसा करेगा वह हानि उठाने वालों में है।’’आप सारी-सारी रात ईश्वर की उपासना में लीन रहते थे। जब घर के लोग सो जाते तो आप चुपचाप बिस्तर से उठकर ईश्वर-स्मरण में लग जाते। आपकी सुपत्नी हज़रत आइशा सिद्दीक रज़ियल्लाहु अ़न्हा फ़रमाती हैं कि एक रात मेरी आँख खुली तो आपको बिस्तर पर न पाया, मैं समझी आप किसी और हरम (पत्नी) के हुज्रे (कमरे) में तशरीफ़ ले गये हैं, किन्तु अंधेरे में टटोला तो मालूम हुआ कि आपका पवित्रा मस्तक धरती पर है और आप ईश्वर-प्रार्थना में लीन हैं। यह देखकर आप बहुत लज्जित हुईं कि आपका विचार क्या था और आप किस दशा में हैं। इसी का नाम इस्लाम है। इस्लाम का अर्थ हैः ईश्वर के आगे नतमस्तक हो जाना। आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम मानो हर समय ईश्वर के सम्मुख उपस्थित रहते थे। आपने युद्ध-क्षेत्र में भी कभी नमाज़ नहीं छोड़ी।ईश्वर पर आपका अटूट विश्वास था। आपका कथन है कि अगर जूती का तसमा भी टूटे तो ईश्वर ही से मांगो। एक बार आपकी प्रिय सुपुत्राी हज़रत फ़ातिमा रजिष्यल्लाहु अ़न्हा घरेलू कामों की अधिकता के कारण आपकी सेवा में उपस्थित हुई और बहुत डरते-डरते एक सेविका के लिए प्रार्थना की, तो आपने फ़रमायाः‘‘ऐ प्यारी बेटी! तू ईश्वर पर भरोसा रख और उसका हकष् अदा (स्वत्वपूर्ति) कर। अपने घर वालों की सेवा स्वयं कर। अगर तू किसी समय थकन अनुभव करे तो ‘सुब्हान अल्लाह’ (ईश्वर पवित्रा है) 33 बार, ‘अल्हम्दुलिल्लाह’ (सारी प्रशंसा ईश्वर के लिए है) 33 बार, ‘अल्लाहु अक्बर’ (ईश्वर ही सबसे बड़ा है) 34 बार पढ़ लिया कर, तेरी सारी थकन दूर हो जाया करेगी।’’इसका नाम है सच्ची भक्ति! इसका नाम है सच्ची ईश्वर-उपासना! इसका नाम है ईश्वर-प्रेम!आप सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम फ़रमाया करते थे, ‘‘मुसलमान की सबसे पहली निशानी यह है कि वह ईश्वर और किष्यामत के दिन के हिसाब- किताब से डरे।’’ ‘ऐ मुस्लिम भाई’, पृष्ठ 252 से
दयानिधि श्री देवदास गांधी, जो दिवंगत महात्मा गांधी के पुत्र हैं, अपने एक निबंध में लिखते हैं‘‘एक महान शक्तिशाली सूर्य के समान ईश्वर-दूत हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहु अ़लैहि वसल्लम ने अरब की मरूभूमि को उस समय रौशन किया, जब मानव-संसार घोर अंधकार में लीन था और जब आप इस दुनिया से विदा हुए तो आप अपना सब काम पूर्ण रूप से पूरा कर चुके थे, वह पवित्रतम काम जिससे दुनिया को स्थायी लाभ पहुंचने वाला था। दुनिया के सच्चे पथ-प्रदर्शक बहुत थोड़े हुए हैं और उनके युगों में एक-दूसरे से बहुत अन्तर रहा है और वे लोग कि जिन्होंने मुहम्मद साहब के जीवन-चरित्र का अध्ययन उसी श्रद्धा के साथ किया है, जिसके वे अधिकारी हैं, इस बात के मानने पर बाध्य हैं कि आप महान धर्म-उपदेशकों में से एक थे। आपकी महानता और गुरूता में उस समय और भी वृद्धि हो जाती है, जबकि आपका चित्रा खींचते वक्त हम उस नितांत आध्यात्मिक और नैतिक ह्नास की पृष्ठभूमि पर भी दृष्टि रखें जो आपके जन्म के समय अरब में विद्यमान थी। मुहम्मद साहब एक सभ्य और उन्नतशील वातावरण की पैदावार न थे। आपके समय में एक आदमी भी ऐसा नहीं था जिससे आप ब्रहम्वाद की शिक्षा ग्रहण करते, उस काल में ईश्वरीय धर्म के लिए तो अरब में जगह ही न थी, वह देश अपने अंधकारमय काल से गुज़र रहा था। जब ख़राबी और पतन अपनी सीमा को पहुंच गया तो उस समय आप ईश्वरीय अनुकंपा बनकर उदित हुए। ऐसी दशा में यदि उन्हें ‘रहमतुल लिल् आलमीन’ (संसार के लिए दयानिधी) की पद्वी दी जाती है, तो इसमें आश्चर्य ही क्या है?आपकी अदर्श जीवनी हमें बताती है कि आपने अपने उपदेश और प्रचार का जीवन भर यही नियम रखा कि जो कुछ अपने अनुयायियों को सिखाना चाहते थे, पहले वह सब स्वयं करके दिखा दिया और कभी किसी ऐसे कार्य की शिक्षा न दी जिसका उदाहरण आपने उपस्थित न कर दिया हो।आपके पवित्रा जीवन में उस समय भी किसी प्रकार का कोई अन्तर नहीं आया, जबकि आप पैग़म्बर के पद पर शोभायमान हो गये। आपने सम्पूर्ण जीवन उसी सरलता और सादगी से व्यतीत किया। सांसारिक सुख और जीवन के भोग-विलास उस समय भी आपको अपनी ओर आकर्षित न कर सके जब एक से अधिक साम्राज्यों का धन आपके चरणों में अर्पित हो रहा था। आपका भोजन बहुत ही सादा और थोड़ा होता था और उसे भी केवल इसलिए खाते थे कि जीवित रह सकें। चटाइयां और टाट आपके बिस्तर थे और इसी तरह पहनने के कपड़े भी बहुत साधारण होते थे। आपने कभी किसी को कटुवचन नहीं कहा, यहां तक कि लड़ाई के अवसर पर भी दुश्मनों के साथ आपका स्वर कोमल होता था। सत्य यह है कि आपको अपनी इच्छाओं और मनोभावों पर पूरा-पूरा संयम प्राप्त था। गीता में कर्मयोगी के जो गुण बताये गये हैं, वह सबके सब आपमें पूर्णतया मौजूद थे।आप अपने अप्रिय कर्तव्यों को भी सच्चे ईमान और सच्ची वीरता के साथ पूर्ण किया करते थे और इच्छाएं या घमंड कभी आपके पगों में कम्पन उत्पन्न नहीं कर सकता था। कर्मयोगी उस व्यक्ति को कहते हैं जो अपने उत्तम विचारों को भी कार्य रूप में परिणत कर दे, और मुहम्मद साहब एक ऐसे ही व्यक्ति थे। एक नश्वर मनुष्य होते हुए भी आप अलौकिक गुण रखते थे। सुख- दुख, हर्ष, क्षोभ, जिनके प्रभावों के अन्तर्गत हम साधारण मनुष्यों के जीवन व्यतीत होते हैं और जो वास्तव में हमारे जीवन में क्रान्ति उत्पन्न कर देते हैं, उनसे यह पवित्रा और महान आत्मा कभी प्रभावित न होती थी।जो लोग समाज की वर्तमान व्यवस्था और प्रणाली को परिवर्तित करने में लगे हुए हैं और चाहते हैं कि इससे अच्छे समाज को जन्म दें, उनके दिलों पर जिस बात का गहरा प्रभाव पड़ेगा वह पैग़म्बर साहब का वह उच्च आदर्श है जिसे उन्होंने मेहनत-मज़दूरी के संबंध में कषयम किया। इस ईशदूत ने ऐसे बहुत से अनुकरणीय उदाहरण उपस्थित किये हैं, जिन्हें लोगों ने भुला दिया है। उनमें से एक यह है कि आप अपने कपड़ों की स्वयं मरम्मत करते थे। यही नहीं बल्कि अपने जूते भी ख़ुद ही टांकते थे। आप घर के काम-काज में प्रायः अपने सेवकों की सहायता करते थे। मस्जिद के निर्माण में आपने मज़दूरों के साथ बराबर काम किया है। मज़दूरों के साथ काम करते वक्त आप उनमें इस प्रकार घूल-मिल जाते थे कि कोई उन्हें पहचान न सकता था।बच्चों से आपको विशेष लगाव था और उनके साथ आप बहुत प्रसन्न रहते थे। वे सौभाग्यशाली बच्चे जो आपके जीवनकाल में थे और जिन्हें आपका प्रेम प्राप्त रहा, अपने घरों में इतने प्रसन्न नहीं रहते थे जितना आपके साथ। बच्चों के साहचर्य में उठना-बैठना आपके लिए कोई इत्तिफ़ाकी बात न थी, बल्कि यह आपका नियम और कार्यक्रम था कि बच्चों को ढूंढ़कर उनके साथ हो जाते और अपने उत्तम विचार उनके मस्तिष्क में अर्पित कर देते। क्या शिक्षा और उपदेश का इससे अधिक स्वाभाविक और सरल ढंग कोई हो सकता है? मासिक ‘पेशवा’, दिल्ली, जुलाई 1931 ई.
इमाम मूसा सद्र
9, शहरीवर सन 1357 (शम्सी हिजरी) को इस्लामी दुनिया के बड़े विध्दवान और लेबनान के शियों के धार्मिक नेता जनाब इमाम मूसा सद्र एक छोटे से सफर (यात्रा) पर लीबिया गए हुए थे जहाँ से आपका अपहरण कर लिया गया।
इमाम मूसा सद्र कि जिसने यहूदियों के खिलाफ जंग की बुनियाद (आधार शिला) रखी थी 24, इस्फंद सन 1317 (शम्सी हिजरी) को क़ुम में इल्मो इज्तिहाद के घराने में पैदा हुए।
जनाब इमाम मूसा सद्र का सम्बन्ध एक बड़े और इल्मी घराने से था। आयतूल्लाह शहीद बाक़िरूस-सद्र, कि जो ज़ालिम सद्दाम के हाथों शहीद हुए, का सम्बन्ध भी इसी घराने से था।
इमाम मूसा सद्र ने दीनी पढ़ाई को क़ुम में समाप्त करने के बाद तेहरान यूनिवर्सिटी से हुक़ूक़ में एम.ए किया। उसके बाद सन 1338 (शम्सी हिजरी) को लेबनान के शियों के धार्मिक नेता अल्लामा सैय्यद शर्फुद्दीन की दावत पर लेबनान की तरफ कूच किया। अल्लामा सैय्यद शर्फुद्दीन के देहान्त के बाद और उनकी वसियत के अनुसार इमाम मूसा सद्र को लेबनान का धार्मिक नेता बनाया गया।
जनाब मूसा सद्र नें दीनी और सक़ाफती कार्यों के इलावा समाज से ग़रीबी मिटाने की बहुत ज़्यादा कोशिश की। जनाब मूसा सद्र नें मुसलमानों की एक कमेटी, उनके हुक़ूक़ के लिए, बनाने की बहुत ज़्यादा मांग की थी और इसी तरह यहूदियों से डटकर लड़ने के लिए भी बहुत प्रभावशील क़दम उठाया।
इमाम मूसा सद्र बीस साल तक लेबनान में रहे और वहाँ शियों की तरक़्की के लिए बहुत से काम अंजाम दिए। इसी तरह दीन ,एतिक़ाद और अखलाख़ की मज़बूती के लिए भी ठोस क़दम उठाए।
आपके बेहतरीन प्लान और प्रोग्राम और लेबनान के अक्सर नौजवान शियों की सहायता और मदद से बहुतसे काम और शुग़्ल वजूद में आए और उनमें से बहुत से पुरूष और महिलाएं स्कूल, कालेज,यूनीवर्सिटी,कम्पनी और दूसरी जगहों पर काम करने और पढ़ने लगे। इस दरमियान आपका रोल लेबनान के शियों के लिए बहुत महत्वपूर्ण था।
आपने लेबनान के लोगों को बताया कि यहूदियों के साथ किसी भी तरह का मेल-मिलाप हराम है। उन्होंने इस्राईली कट्टरपंथी यहूदियों से मुक़ाबले के लिए एक जंगी गुट की स्थापना की थी। आप क़बीली सिस्टम के सख्त विरोधी थे और आप ही ने इसके विरोध की शुरूआत की।
हज़रत इमाम खुमैनी के पेरिस हिजरत करने के बाद, इमाम मूसा सद्र का एक आर्टिकल (मज़मून) लोमंड नामी एक न्यूज़ पेपर में छपा जिसमें उन्होनें ईरान के इंक़िलाब को खुदा के नबियों के इंक़िलाब का एक सिलसिला बताया और हज़रत इमाम खुमैनी को ईरान के बड़े इंक़िलाब का अकेला और बेहतरीन लीडर बताकर दुनिया के सामने पेश किया।
आपने कट्टरपंथी यहूदियों के खिलाफ बहुत बड़े बड़े क़दम उठाए। सन 1357 (शम्सी हिजरी) शहरीवर के महीने में आप अल्जज़ीरा गए और वहाँ के मज़हबी और सियासी लीडर्स से मिलने के बाद लीबिया पहुंचे। अचानक पाँच दिन के बाद उनके अपहरण होने की खबर आई।
इमाम मूसा सद्र लेबनान के शियों के लिए एक बेहतरीन मार्ग दर्शक और लीडर की हैसियत रखते थे। वहाँ के उलमाँ (विध्दवान) और बड़ी बड़ी शख्सियतें चाहे सुन्नी हों या शिया सभी आपको अपना मददगार समझते थे।
नबूवत, शिया अक़ीदे की रौशनी में
नबियों की बेसत का फलसफ़ा
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह ने नोए बशर (इँसानों) की हिदायत के लिए और इँसानों को कमाले मतलूब व अबदी सआदत तक पहुँचाने के लिए पैग़म्बरों को भेजा है।
क्योँ कि अगर ऐसा न करता तो इँसान को पैदा करने का मक़सद फ़ोत हो जाता, इँसान गुमराही के दरिया मे ग़ोता ज़न रहता और इस तरह नक़्ज़े ग़रज़ लाज़िम आती। “रसूलन मुबश्शेरीना व मुँज़िरीना लिअल्ला यकूना लिन्नासि अला अल्लाहि हुज्जतन बअदा रसुलि व काना अल्लाहु अज़ीज़न हकीमन ”[39] यानी अल्लाह ने खुश ख़बरी देने और डराने वाले पैग़म्बरों को भेज़ा ताकि इन पैग़म्बरो को भेज ने के बाद लोगो पर अल्लाह की हुज्जत बाकी न रहे (यानी वह लोगों को सआदत का रास्ता बतायें और इस तरह हुज्जत तमाम हो जाये) और अल्लाह अज़ीज़ व हकीम है।
हमारा अक़ीदह है कि तमाम पैग़म्बरो में से पाँच पैग़म्बर “उलुल अज़्म” (यानी साहिबाने शरीअत, किताब व आईने जदीद) थे। जिन को नाम इस तरह हैं
हज़रत नूह अलैहिस्सलाम
हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम
हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम और
हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि अजमईन।
“व इअज़ अख़ज़ना मिन अन्नबिय्यीना मीसाक़ाहुम व मिनका वमिन नूहि व इब्राहीमा व मूसा वईसा इब्नि मरयमा व अख़ज़ना मिन हुम मीसाक़न ग़लीज़न”[40] यानी उस वक़्त को याद करो जब हमने पैग़म्बरों से मीसाक़ (अहदो पैमान) लिया (जैसे) आप से ,नूह से , इब्राहीम से, मूसा से और ईसा ईब्ने मरियम से और हम ने उन सब से पक्का अहद लिया (कि वह रिसालत के तमाम काम में और आसमानी किताब को आम करने में कोशिश करें)
“फ़सबिर कमा सबरा उलुल अज़्मि मिन अर्रसुलि”[41] यानी इस तरह सब्र करो जिस तरह उलुल अज़म पैग़म्बरों ने सब्र किया।
हमारा अक़ीदह है कि हज़रत मुहम्मद (स.) अल्लाह के आख़िरी रसूल हैं और उनकी शरिअत क़ियामत तक दुनिया के तमाम इँसानों के लिए है। यानी इस्लामी तालीमात,अहकाम मआरिफ़ इतने जामे हैं कि क़ियामत तक इँसान की तमाम माद्दी व मअनवी ज़रूरतों को पूरा करते रहेंगे। लिहाज़ा अब जो भी नबूवत का दावा करे व बातिल व बे बुनियाद है।
“व मा मुहम्मदुन अबा अहदिन मिन रिजालिकुम व लाकिन रसूलु अल्लाहि व ख़ातमि अन्नबिय्यीना व काना अल्लाहि बिकुल्लि शैइन अलीमन”[42] यानी मुहम्मद(स.) तुम में से किसी मर्द के बाप नही है लेकिन वह अल्लाह के रसूल और सिलसिलए नबूवत को ख़त्म करने वाले हैं और अल्लाह हर चीज़ का जान ने वाला है। (यानी जो ज़रूरी था वह उन के इख़्तियार में दे दिया है)
13) आसमानी अदयान की पैरवी करने वालों के साथ ज़िन्दगी बसर करना।
वैसे तो इस ज़माने में फ़क़त इस्लाम ही अल्लाह का आईन हैं, लेकिन हम इस बात के मोतक़िद हैं कि आसमानी अदयान की पैरवी करने वाले अफ़राद के साथ मेल जोल के साथ रहा जाये चाहे वह किसी इस्लामी मुल्क में रहते हों या ग़ैरे इस्लामी मुल्क में, लेकिन अगर उन में से कोई इस्लाम या मुलसलमानों के मुक़ाबिले में आ जाये तो “ला यनहा कुमु अल्लाहु अनि अल्लज़ीना लम युक़ातिलू कुम फ़ी अद्दीनि व लम युख़रिजु कुम मिन दियारि कुम अन तबर्रु हुम व तुक़सितू इलैहिम इन्ना अल्लाहा युहिब्बुल मुक़सितीना ”[43] यानी अल्लाह ने तुम को उन के साथ नेकी और अदालत की रिआयत करने से मना नही किया है,जो दीन की वजह से तुम से न लड़ें और तुम को तुम्हारे वतन व घर से बाहर न निकालें, क्योँ कि अल्लाह अदालत की रिआयत करने वालों को दोस्त रखता है।
हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम की हक़ीक़त व तालीमात को मनतक़ी बहसों के ज़रिये तमाम दुनिया के लोगों के सामने बयान किया जा सकता है। और हमारा अक़ीदह है कि इस्लाम में इतनी ज़्यादा जज़्ज़ाबियत पाई जाती हैं कि अगर इस्लाम को सही तरह से लोगों के सामने बयान किया जाये तो इँसानों की एक बड़ी तादाद को अपनी तरफ़ मुतवज्जेह कर सकता है, खास तौर पर इस ज़माने में जबकि बहुत से लोग इस्लाम के पैग़ाम को सुन ने के लिए आमादा है।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि इस्लाम को लोगों पर ज़बर दस्ती न थोपा जाये “ला इकरह फ़ी अद्दीन क़द तबय्यना अर्रुश्दु मिन अलग़ई।” यानी दीन को क़बूल करने में कोई जबर दस्ती नही है क्योँ कि अच्छा और बुरा रास्ता आशकार हो चुका है।
हमारा अक़ीदह है कि मुस्लमानों का इस्लाम के क़वानीन पर अमल करना इस्लाम की पहचान का एक ज़रिया बन सकता है लिहाज़ा ज़ोर ज़बरदस्ती की कोई ज़रूरत ही नही है।
14- अँबिया का अपनी पूरी ज़िन्दगी में मासूम होना
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम पैग़म्बर मासूम हैं यानी अपनी पूरी ज़िन्दगी में चाहे वह बेसत से पहले की ज़िन्दगी हो या बाद की गुनाह, ख़ता व ग़लती से अल्लाह की तईद के ज़रिये महफ़ूज़ रहते हैं। क्योँ कि अगर वह किसी गुनाह या ग़लती को अँजाम दे गें तो उन पर से लोगों का एतेमाद ख़त्म हो जायेगा और इस हालत में न लोग उनको अपने और अल्लाह के दरमियान एक मुतमइन वसीले के तौर पर क़बूल नही कर सकते हैं और न ही उन को अपनी ज़िन्दगी के तमाम आमाल में पेशवा क़रार दे सकते हैं।
इसी बिना पर हमारा अक़ीदह यह है कि क़ुरआने करीम कि जिन आयात में ज़ाहिरी तौर पर नबियों की तरफ़ गुनाह की निस्बत दी गई है वह “तरके औला” के क़बील से है। (तरके औला यानी दो अच्छे कामों में से एक ऐसे काम को चुन ना जिस में कम अच्छाई पाई जाती हो जबकि बेहतर यह था कि उस काम को चुना जाता जिस में ज़्यादा अच्छाई पाई जाती है।)या एक दूसरी ताबीर के तहत “हसनातु अलअबरारि सय्यिआतु अलमुक़र्राबीन”[44]कभी कभी नेक लोगों के अच्छे काम भी मुक़र्रब लोगों के गुनाह शुमार होते हैं। क्योँ के हर इँसान से उस के मक़ाम के मुताबिक़ अमल की तवक़्क़ो की जाती है।
15- अँबिया अल्लाह के फ़रमाँ बरदार बन्दे हैं।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बरों और रसूलों का का सब से बड़ा इफ़्तेख़ार यह था कि वह अल्लाह के मुती व फ़रमाँ बरदार बन्दे रहे। इसी वजह से हम हर रोज़ अपनी नमाज़ों में पैग़म्बरे इसलाम के बारे में इस जुम्ले की तकरार करते है “व अशहदु अन्ना मुहम्मदन अब्दुहु व रसूलुहु। ” यानी मैं गवाही देता हूँ कि मुहम्मद (स.) अल्लाह के रसूल और उसके बन्दे हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के पैग़म्बरों में से न किसी ने भी उलूहिय्यत (अपने ख़ुदा होने) का दावा किया और न ही लोगों को अपनी इबादत कर ने के लिए कहा। “मा काना लिबशरिन अन युतियहु अल्लाहु अलकिताबा व अलहुक्मा व अन्नबूव्वता सुम्मा यक़ूला लिन्नासि कूनू इबादन ली मिन दूनि अल्लाह ”।[45] यानी यह किसी इँसान को ज़ेबा नही देता कि अल्लाह उसको आसमानी किताब, हिकमत और नबूवत अता करे और वह लोगों से कहे कि अल्लाह को छोड़ कर मेरी इबादत करो।
यहाँ तक कि हज़रत ईसा (अ.)ने भी लोगों को अपनी इबादत के लिए नही कहा वह हमेशा अपने आप को अल्लाह का बन्दा और उस का रसूल कहते रहे। “लन यस्तनकिफ़ा अलमसीहु अन यकूना अब्दन लिल्लाहि व ला अलमलाइकतु अलमुक़र्रबूना”[46] यानी न हज़रत ईसा (अ.)ने अल्लाह के बन्दे होने से इँकार किया और न ही उस के मुक़र्रब फ़रिश्ते उसके बन्दे होने से इँकार कर ते हैं।
ईसाईयों की आज की तारीख़ ख़ुद इस बात की गवाही दे रही है “तसलीस” का मस्ला ( तीन ख़ुदाओं का अक़ीदह) पहली सदी ईसवी में नही पाया जाता था यह फ़िक्र बाद में पैदा हुई।
16- अँबिया के मोजज़ात व इल्मे ग़ैब
पैग़म्बरो का अल्लाह का बन्दा होना इस बात की नफ़ी नही करता कि वह अल्लाह के हुक्म से हाल, ग़ुज़िश्ता और आइन्दा के पौशीदा अमूर से वाक़िफ़ न हो। “आलिमु अलग़ैबि फ़ला युज़हिरु अला ग़ैबिहि अहदन इल्ला मन इरतज़ा मिन रसूलिन।”[47] यानी अल्लाह ग़ैब का जान ने वाला है और किसी को भी अपने ग़ैब का इल्म अता नही करता मगर उन रसूलों को जिन को उस ने चुन लिया है।
हम जानते हैं कि हज़रत ईसा (अ.)का एक मोजज़ा यह था कि वह लोगो को ग़ैब की बातों से आगाह करते थे। “व उनब्बिउ कुम बिमा ताकुलूना व मा तद्दख़िरूना फ़ी बुयूति कुम। ”[48] मैं तुम को उन चीज़ों के बारे में बताता हूँ जो तुम खाते हो या अपने घरो में जमा करते हो।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)ने भी तालीमे इलाही के ज़रिये बहुत सी पौशीदा बातों को बयान किया हैं “ ज़ालिका मिन अँबाइ अलग़ैबि नुहीहि इलैका ”[49] यानी यह ग़ैब की बाते हैं जिन की हम तुम्हारी तरफ़ वही करते हैं।
इस बिना पर अल्लाह के पैग़म्बरों का वही के ज़रिये और अल्लाह के इज़्न से ग़ैब की ख़बरे देना माने नही है। और यह जो कुरआने करीम की कुछ आयतों में पैग़म्बरे इस्लाम के इल्मे ग़ैब की नफ़ी हुई है जैसे “व ला आलिमु अलग़ैबा व ला अक़ूलु लकुम इन्नी मलक”[50] यानी मुझे ग़ैब का इल्म नही और न ही मैं तुम से यह कहता हूँ कि मैं फ़रिश्ता हूँ। यहाँ पर इस इल्म से मुराद इल्मे ज़ाती और इल्मे इस्तक़लाली है न कि वह इल्म जो अल्लाह की तालीम के ज़रिये हासिल होता है। जैसा कि हम जानते हैं कि कुरआन की आयतें एक दूसरी की तफ़्सीर करती हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के नबियों ने तमाम मोजज़ात व मा फ़ौक़े बशर काम अल्लाह के हुक्म से अँजाम दिये हैं और पैग़म्बरो का अल्लाह के हुक्म से ऐसे कामों को अँजाम देना का अक़ीदह रखना शिर्क नही है। जैसा कि कुरआने करीम में भी ज़िक्र है कि हज़रत ईसा (अ.) ने अल्लाह के हुक्म से मुर्दों को ज़िन्दा किया और ला इलाज बीमारों को अल्लाह के हुक्म से शिफ़ा अता की “व उबरिउ अलअकमहा व अलअबरसा व उहयि अलमौता बिइज़निल्लाह ”[51]
17- पैग़म्बरों के ज़रिये शफ़ाअत का मस्ला
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम पैग़म्बर और उन मे सब से अफ़ज़ल व आला पैग़म्बरे इस्लाम (स.) को शफ़ाअत का हक़ हासिल है और वह गुनाह गैरों के एक ख़ास गिरोह की शफ़ाअत करेंगे। लेकिन यह सब अल्लाह की इजाज़त और इज़्न से है। “मा मिन शफ़िइन इल्ला मिन बअदि इज़्निहि”[52] यानी कोई शफ़ाअत करने वाला नही है मगर अल्लाह की इजाज़त के बाद।
“मन ज़ा अल्लज़ी यशफ़उ इन्दहु इल्ला बिइज़्निहि”[53] कौन है जो उसके इज़्न के बग़ैर शफ़अत करे।
कुरआने करीम की वह आयतें जिन में मुतलक़ा तौर पर शफ़ाअत की नफ़ी के इशारे मिलते हैं उन में शफ़ाअत से मराद शफ़ाअते इस्तक़लाली और शफ़अत बदूने इजाज़त मुराद है। या फिर उन लोगों के बारे में हैं जो शफ़अत की क़ाबलियत नही रखते जैसे “मिन क़ब्लि अन यातिया यौमुन बैउन फ़ीहि व ला ख़ुल्लतुन वला शफ़ाअतुन ” [54]यानी अल्लाह की राह में ख़र्च करो इस से पहले कि वह दिन आ जाये जिस दिन न ख़रीद व फ़रोश होगी (ताकि कोई अपने लिए सआदत व निजात ख़रीद सके) न दोस्ती और न शफ़ाअत। बार बार कहा जा चुका है कि कुरआने करीम की आयतें एक दूसरे की तफ़्सीर कर ती हैं।
हमारा अक़ीदह है कि मस्ला-ए- शफ़ाअत लोगों को तरबीयत देने और उन को गुनाह के रास्ते से हटा कर सही राह पर लाने, उन के अन्दर तक़वे व परहेज़गारी का शौक़ पैदा कर ने और उन के दिलों में उम्मीद पैदा करने का एक अहम वसीला है। क्योँ कि मस्ला-ए शफ़ाअत बे हिसाब किताब नही है शफ़ाअत फ़क़त उन लोगो के लिए है जो इस की लियाक़त रखते हैं। यानी शफ़ाअत उन लोगों के लिए है जिन्होने अपने गुनाहों की कसरत की बिना पर अपने राब्ते को शफ़ाअत करने वालों से कुल्ली तौर पर मुनक़तअ न किया हो।
इस बिना पर मस्ला-ए शफ़ाअत गुनाहगारों को क़दम क़दम पर तँबीह कर ता रहता है कि अपने आमाल को बिल कुल ख़राब न करो बल्कि नेक आमल के ज़रिये अपने अन्दर शफ़ाअत की लियाक़त पैदा करो।
18- मस्ला-ए-तवस्सुल
हमारा अक़ीदह है कि मस्ला- ए- तवस्सुल भी मस्ला-ए- शफ़ाअत की तरह है। मस्ला-ए –तवस्सुल मानवी व माद्दी मुश्किल में घिरे इँसानों को यह हक़ देता है कि वह अल्लाह के वलीयों से तवस्सुल करें ताकि वह अल्लाह की इजाज़त से उन की मुश्किलों के हल को अल्लाह से तलब करें। यानी एक तरफ़ तो ख़ुद अल्लाह की बारगाह में दुआ करते हैं दूसरी तरफ़ अल्लाह के वलियों को वसीला क़रार दे।“व लव अन्ना हुम इज़ ज़लमू अनफ़ुसाहुम जाउका फ़स्तग़फ़रू अल्लाहा व अस्तग़फ़रा लहुम अर्रसूलु लवजदू अल्लाहा तव्वाबन रहीमन” [55] यानी अगर यह लोग उसी वक़्त तुम्हारे पास आ जाते जब इन्होंने अपने ऊपर ज़ुल्म किया था और अल्लाह से अपने गुनाहों की माफ़ी माँगते और रसूल भी उनके लिए तलबे मग़फ़ेरत करते तो अल्लाह को तौबा क़बूल करने वाला और रहम करने वाला पाते।
हम जनाबे यूसुफ़ के भाईयों की दास्तान में पढ़ते हैं कि उन्होंने अपने वालिद से तवस्सुल किया और कहा कि “या अबाना इस्तग़फ़िर लना इन्ना कुन्ना ख़ातेईना ” यानी ऐ बाबा हमारे लिए अल्लाह से बख़शिश की दुआ करो क्योँ कि हम ख़ताकार थे। उन के बूढ़े वालिद हबज़रत याक़ूब (अ.)ने जो कि अल्लाह के पैग़म्बरे थे उनकी इस दरख़्वास्त को क़बूल किया और उनकी मदद का वादा करते हुए कहा कि “ सौफ़ा अस्तग़फ़िरु लकुम रब्बि”[56] मैं जल्दी ही तुम्हारे लिए अपने रब से मग़फ़ेरत की दुआ करूँगा। यह इस बात पर दलील है कि गुज़िश्ता उम्मतों में भी तवस्सुल का वुजूद था और आज भी है।
लेकिन इँसान को इस हद से आगे नही बढ़ना चाहिए औलिया-ए- ख़ुदा को इस अम्र में मुस्तक़िल और अल्लाह की इजाज़त से बेनियाज़ नही समझना चाहिए क्योँ कि यह कुफ़्रो शिर्क का सबब बनता है।
और न तवस्सुल को औलिया- ए- ख़ुदा की इबादत के तौर पर करना चाहिए क्योँ कि यह भी कुफ़्र और शिर्क है। क्योँ कि औलिया- ए- ख़ुदा अल्लाह की इजाज़त के बग़ैर नफ़े नुक़्सान के मालिक नही है। “क़ुल ला अमलिकु नफ़्सी नफ़अन व ला ज़र्रन इल्ला मा शा अल्लाह ”[57]यानी इन से कह दो कि मैं अपनी ज़ात के लिए भी नफ़े नुख़्सान का मालिक नही हूँ मगर जो अल्लाह चाहे। इस्लाम के तमाम फ़िर्क़ों की अवाम के दरमियान मस्ला-ए- तवस्सुल के सिलसिले में इफ़रात व तफ़रीत पाई जाती है उन सब को हिदायत करनी चाहिए।
19- तमाम अँबिया की दावत के उसूल एक हैं।
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह के तमाम अँबिया-ए- ईलाही का मक़सद एक था और वह था इँसान की सआदत जिसको हासिल करने के लिए अल्लाह और कियामत पर ईमान,सही दीनी तालीम व तरबीयत और समाज में अख़लाक़ी उसूल को मज़बूती अता करना ज़रूरी था। इसी वजह से हमारे नज़डदीक तमाम अँबिया मोहतरम हैं और यह बात हम ने क़ुरआने करीम से सीखी है “ला नुफ़र्रिक़ु बैना अहदिन मिन रुसुलिहि”[58] यानी हम अल्लाह के नबियों के दरमियान कोई फ़र्क़ नही कर ते।
ज़माने के गुज़रने के साथ साथ जहाँ इँसान में आला तालीम को हासिल करने की सलाहियत बढ़ती गई वहीँ अदयाने ईलाही तदरीजन कामिल तर और उनकी तालीमात अमीक़ तर होती गई यहाँ तक कि आख़िर में कामिलतरीन आईने ईलाही (इस्लाम) रू नुमा हुआ और इस के ज़हूर के बाद “अल यौम अकमलतु लकुम दीना कुम व अतममतु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुम अल इस्लामा दीनन” यानी “आज के दिन मैंने तुम्हारे दीन को कामिल कर दिया और तुम पर अपनी नेअमतों को पूरा किया और तुम्हारे लिए दीने इस्लाम को चुन लिया” का एलान कर दिया गया।
20- गुज़िश्ता अँबिया की ख़बरे
हमारा अक़ीदह है कि बहुत से अँबिया ने अपने बाद आने वाले नबियों के बारे में अपनी उम्मत को आगाह कर दिया था । इन में से हज़रत मूसा (अ.) और हज़रत ईसा (अ.) ने पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के बारे में बहुत सी रौशन निशानियाँ बयान कर दी थी जो आज भी उनकी बहुत सी किताबों में मौजूद है। “अल्लज़ीना यत्तबिउना अर्रसूला अन्नबिया अलउम्मीया अल्लज़ी यजिदूनहु मकतूवन इन्दाहुम फ़ी अत्तवराति व अलइँजीलि .....उलाइका हुमुल मुफ़लिहून ”[59] यानी वह लोग जो अल्लाह के रसूल की पैरवी कर ते हैं उस रसूल की जिसने कहीँ दर्स नही पढ़ा (लेकिन आलिम व आगाह है)इस रसूल में तौरात व इँजील में बयान की गई निशानियों को पाते हैं....यह सब कामयाब हैं।
इसी वजह से तारीख़ में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम (स.) के ज़हूर से पहले यहूदियों का एक बहुत बड़ा गिरोह मदीने आ गया था और आप के ज़हूर का बे सब्री से मुन्तज़िर था। क्योँ कि उन्होंने अपनी किताबों में पढ़ा था कि वह इसी सर ज़मीन से ज़हूर करें गे। आप के ज़हूर के बाद उन में से कुछ लोग तो आप पर ईमान ले आये लेकिन जब कुछ लोगो ने अपने फ़ायदे को ख़तरे में महसूस किया तो आप की मुख़ालेफ़त में खड़े हो गये।
21- अँबिया और ज़िन्दगी के हर पहलू की इस्लाह
हमारा अक़ीदह है कि तमाम अदयाने ईलाही जो पैग़म्बरों पर नाज़िल हुए मखसूसन इस्लाम यह सिर्फ़ फ़रदी ज़िन्दगी या मानवी व अख़लाक़ी इस्लाह तक ही महदूद नही थे बल्कि इन का मक़सद इजतमई तौर पर इँसानी ज़िन्दगी के हर पहलू की इस्लाह कर के उन को कामयाबी अता करना था। यहाँ तक कि इंसान की रोज़ मर्रा की ज़िन्दगी में काम आने वाले बहुत से उलूम को भी लोगों ने अँबिया से ही सीखा है जिन में से कुछ के बारे में क़ुरआने करीम में भी इशारा मिलता है।
हमारा अक़ीदह है कि पैग़म्बराने ख़ुदा का सब से अहम हदफ़ इँसानी समाज मे अदालत को क़ाइम करना था। “लक़द अरसलना रुसुलना बिलबय्यिनाति व अनज़लना मअहुम अलकिताबा व अलमीज़ाना लियक़ूमा अन्नासि बिलक़िस्ति।”[60] यानी हम ने अपने रसूलों को रौशन दलीलों के साथ भेजा और उन पर आसमानी किताब व मीज़ान (हक़ को बातिल से पहचानना और आदिलाना क़वानीन) नाज़िल किये ताकि लोगों के दरमियान अदालत क़ाइम करें।
22- क़ौमी व नस्ली बरतरी की नफ़ी
हमारा अक़ीदह है कि तमाम अँबिया-ए- इलाही मख़सूसन पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने किसी भी “नस्ली” या “क़ौमी” इम्तियाज़ को क़बूल नही किया। इन की नज़र में दुनिया के तमाम इँसान बराबर थे चाहे वह किसी भी ज़बान,नस्ल या क़ौम से ताल्लुक़ रखते हों। क़ुरआन तमाम इंसानों को मुफ़ातब कर ते हुए कहता है कि “या अय्युहा अन्नासु इन्ना ख़लक़ना कुम मिन ज़करिन व उनसा व जअलना कुम शुउबन व क़बाइला लितअरफ़ू इन्ना अकरमा कुम इन्दा अल्लाहि अतक़ा कुम ” यानी ऐ इँसानों हम ने तुम को एक मर्द और औरत से पैदा किया फिर हम ने तुम को क़बीलों में बाँट दिया ताकि तुम एक दूसरे को पहचानो (लेकिन यह बरतरी का पैमाना नही है) तुम में अल्लाह के नज़दीक वह मोहतरम है जो तक़वे में ज़्यादा है।
पैग़म्बरे इस्लाम (स.)की एक बहुत मशहूर हदीस है जो आप ने हज के दौरान सर ज़मीने मिना पर ऊँट पर सवार हो कर लोगों की तरफ़ रुख़ कर के इरशाद फ़रमाई थी “या अय्युहा अन्नासि अला इन्ना रब्बा कुम वाहिदिन व इन्ना अबा कुम वाहिदिन अला ला फ़ज़ला लिअर्बियिन अला अजमियिन ,व ला लिअजमियिन अला अर्बियिन, व ला लिअसवदिन अला अहमरिन, व ला लिअहमरिन अला असवदिन, इल्ला बित्तक़वा, अला हल बल्लग़तु? क़ालू नअम ! क़ाला लियुबल्लिग़ अश्साहिदु अलग़ाइबा ”यानी ऐ लोगो जान लो कि तुम्हारा ख़ुदा एक है और तुम्हारे माँ बाप भी एक हैं, ना अर्बों को अजमियों पर बरतरी हासिल है न अजमियों को अर्बों पर, गोरों को कालों पर बरतरी है और न कालों को गोरों पर अगर किसी को किसी पर बरतरी है तो वह तक़वे के एतबार से है। फिर आप ने सवाल किया कि क्या मैं ने अल्लाह के हुक्म को पहुँचा दिया है? सब ने कहा कि जी हाँ आप ने अल्लाह के हुक्म को पहुँचा दिया है। फिर आप ने फ़रमाया कि जो लोग यहाँ पर मौजूद है वह इस बात को उन लोगों तक भी पहुँचा दें जो यहाँ पर मौजूद नही है।
23- इस्लाम और इँसान की सरिश्त
हमारा अक़ीदह है कि अल्लाह, उसकी वहदानियत और अंबिया की तालीमात के उसूल पर ईमान का मफ़हूम अज़ लिहाज़े फ़ितरत इजमाली तौर पर हर इँसान के अन्दर पाया जाता हैं। बस पैग़म्बरों ने यह काम किया कि दिल की ज़मीन में मौजूद ईमान के इस बीज को वही के पानी से सीँचा और इस के चारों तरफ़ जो शिर्के व इँहेराफ़ की घास उग आई थी उस को उखाड़ कर बाहर फेंक दिया।“फ़ितरता अल्लाहि अल्लती फ़तर अन्नासा अलैहा ला तबदीला लिख़लक़ि अल्लाहि ज़ालिका अद्दीनु अलक़य्यिमु व लाकिन्ना अक्सरा अन्नासि ला यअलमूना। ”[61] यानी यह (अल्लाह का ख़ालिस आईन) वह सरिश्त है जिस पर अल्लाह ने तमाम इंसानों को पैदा किया है और अल्लाह की ख़िल्क़त में कोई तबदीली नही है। (और यह फ़ितरत हर इंसान में पाई जाती है) यह आईन मज़बूत है मगर अक्सर लोग इस बारे में नही जानते।
इसी वजह से इंसान हर ज़माने में दीन से वाबस्ता रहे हैं। दुनिया के बड़े तारीख दाँ हज़रात का अक़ीदह यह है कि दुनिया में ला दीनी बहुत कम रही है और यह कहीँ कहीँ पाई जाती थी। यहाँ तक कि वह क़ौमे जो कई कई साल तक दीन मुख़ालिफ तबलीग़ात का सामना करते हुए ज़ुल्म व जोर को बर्दाश्त करती रहीँ उन को जैसे ही आज़ादी मिली वह फ़ौरन दीन की तरफ़ पलट गईँ। लेकिन इस बात से इंकार नही किया जा सकता कि गुज़िश्ता ज़माने में बहुत सी क़ौमों की समाजी सतह का बहुत नीचा होना इस बात का सबब बना कि उनके दीनी अक़ाइद व आदाब व रसूम ख़ुराफ़ात से आलूदा हो गये और पैग़म्बराने ख़ुदा का सब से अहम काम इंसान के आईना-ए-फ़ितरत से ख़ुराफ़ात के इसी ज़ंग को साफ़ करना था।