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ईरान के बढ़ते प्रभाव से अमरीका गंभीर चिंता में
एक ईरानी सांसद का कहना है कि लैटिन अमरीकी देशों में बढ़ते ईरान के प्रभाव से विश्व में अमरीका की स्थिति कमज़ोर हो रही है।
रविवार को ईरानी संसद की न्यायिक समिति के प्रमुख अल्लाहयार मलिकशाही ने कहा, क्योंकि अमरीका विश्व में एकाधिकार जमाना चाहता है इसलिए वह ईरान के वैचारिक और मनोवैज्ञानिक प्रभाव से भयभीत है।
ईरानी सांसद ने उल्लेख किया कि अमरीका ने लैटिन अमरीकी देशों में बढ़ते ईरान के प्रभाव के बारे में अनेक बार चिंता जताई है और ईरान के साथ संबंधों को मज़बूत बनाने के लिए इन देशों को चेतावनी दी है, इसलिए कि लैटिन अमरीकी देशों के साथ ईरान के सहयोग से विश्व में अमरीका की स्थिति कमज़ोर पड़ जायेगी।
मलिकशाही ने इसी प्रकार साम्राज्यवाद विरोधी और अमरीका विरोधी लैटिन अमरीकी देशों की नीति की ओर संकेत करते हुए कहा, यह देश हमेशा ईरान सरकार के साथ सहयोग करते रहे हैं।
ग़ौरतलब है कि 28 दिसम्बर को अमरीकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने पश्चिमी गोलार्ध में ईरान के प्रभाव का मुक़ाबला करने वाले क़ानून पर हस्ताक्षर कर दिये।
वर्ष 2005 से ईरान ने 6 लैटिन अमरीकी देशों में अपने दूतावास खोले हैं। वर्तमान समय में लैटिन अमरीका में ईरान के 11 दूतावास और 17 सांस्कृतिक केंद्र हैं।
इस्लामी चेतना, बड़े परिवर्तनों का स्रोत
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने कहा कि जब किसी देश में युवा सचेत हो जाते हैं तो उस देश में सार्वाजनिक चेतना की आशा बढ़ जाती है। आज पूरे इस्लामी जगत में हमारे युवा जाग गये हैं। इन युवाओं के सामने इतने जाल बिछाए गये किंतु स्वावलांबी, संकल्पित और मुस्लिम युवाओं ने स्वंय को इन जालों से बचा लिया है।
इस्लाम प्रेम की मनमोहक सुगंध ने कुछ दिनों से बहुत से इस्लामी देशों को बदल कर रख दिया है। कुछ अरब देशों में तानाशाह और विदेशियों पर निर्भर सरकारें, क्रांतिकारी युवाओं के अल्लाहो व अकबर के नारों से औंधे मुंह गिर पड़ीं। मानो पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैही व आलेही व सल्लम की वह मनमोहक आवाज़ कानों में रस घोल रही है जिसमें वह क़ुरआन की आयत पढ़ते हुए कह रहे हों और कह दो सत्य आगया और असत्य का अंत हो गया निश्चित रूप से असत्य सदैव ख़त्म हो जाने वाला होता है।
वरिष्ठ नेता ने वर्तमान काल में तानाशाहों के पतन को अत्यन्त शुभ व महत्वपूर्ण परिवर्तन बताते हुए कहते हैं कि आज मानव इतिहास, विश्व इतिहास एक बड़े महत्वपूर्ण एतिहासिक मोड़ पर है। पूरे विश्व में नये युग का आरंभ हो रहा है। इस युग के बड़े व स्पष्ट चिन्ह, ईश्वर की ओर ध्यान, उसकी असीम शक्ति पर भरोसा तथा उसके संदेशों पर विश्वास है। आज इस्लामी राष्टों में सब से अधिक आकर्षण इस्लाम में पाया जा रहा है, ईश्वर ने वचन दिया है कि ईश्वरीय मत, ईश्वरीय संदेश और इस्लाम , मनुष्य को कल्याण तक पहुंचा सकता है।
विश्व के ७३ देशों से चुने हुए क्रांतिकारी युवाओं ने हालिया दिनों में तेहरान की यात्रा की ताकि युवा और इस्लामी चेतना के पहले अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन में भाग ले सकें। उन्होंने अपनी क्रांति को जारी रखने के लिए सर्वश्रेष्ठ शैली प्राप्त करने के लिए इस सम्मेलन में कई दिनों तक आपस में विचार विमर्श किया किंतु तीस जनवरी इन उत्साही युवाओं के लिए भिन्न था क्योंकि इस दिन उन्होंने इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता से भेंट की थी। स्नेह व श्रद्धा से परिपूर्ण इस भेंट में अधिकांश युवा, वरिष्ठ नेता को देख कर अपने आंसू नहीं रोक पाए। कुछ लोगों ने भाषणों और कविताओं द्वारा ईरान के महान व अत्याचारविरोधी नेता के प्रति अपना प्रेम व श्रद्धा प्रकट की। लेबनान के हिज़्बुल्लाह आंदोलन के वरिष्ठ कमांडर शहीद एमाद मुग़निया की पुत्री ने इस अवसर पर वरिष्ठ नेता को संबोधित करते हुए कहा मैं आप की बेटी फ़ातेमा और शहीद एमाद मुग़निया की पुत्री हूं। उन्होंने कहा कि इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में ईरान की इस्लामी क्रांति इस्लामी चेतना और वर्तमान क्रांतियों का स्रोत और आरंभ बिन्दु है।
वरिष्ठ नेता ने युवाओं से इस भेंट में अपने भाषण में क्रांतिकारी युवाओं को इस्लामी राष्ट्र के भविष्य के लिए शुभसंदेशों के ध्वजवाहक बताया । उन्होंने किसी भी समाज में युवाओं की चेतना को महत्वपूर्ण बताते हुए कहा कि जब किसी भी देश में युवा सचेत हो जाते हैं तो उस देश में सार्वाजनिक चेतना की आशा बढ़ जाती है। आज पूरे इस्लामी जगत में हमारे युवा जाग गये हैं। इन युवाओं के सामने इतने जाल बिछाए गये किंतु स्वावलांबी, संकल्पित और मुस्लिम युवाओं ने स्वंय को इन जालों से बचा लिया है। आप देखते हें कि ट्यूनेशिया में, मिस्र में , लीबिया में , यमन में और बहरैन में किया हुआ अन्य इस्लामी देशों में कैसे कैसे आंदोलनों ने जनम लिया। यह सब शुभ संदेश हैं।
तानाशाह और उनके पश्चिमी समर्थक कभी यह सोच भी नहीं सकते थे कि इस्लामी देशों के क्रांतिकारी युवा इन निर्भर शासनों के विरुद्ध उठ खड़े होंगे। दो सौ वर्षों से अधिक इस्लामी राष्ट्रों पर वर्चस्व रखने वाले साम्राज्यवादी अब अपनी अत्याचारपूर्ण नीतियों की विफलता का स्वाद चख रहे हैं। वरिष्ठ नेता का मानना है कि ब्रिटेन, फ्रांस और अमरीका ने इस्लामी देशों का अतिग्रहण किया और उनका अपमान किया। उन्होंने मध्य पूर्व के ह्रदय में ज़ायोनिज़्म को अस्तित्व देकर और हर प्रकार से बल देकर इस कैंसर के फोड़े द्वारा अपनी नीतियों को लागू करते हैं। वरिष्ठ नेता इस्लामी देशों पर साम्राज्यवादी देशों के वर्चस्व के अभिशप्त परिणामों को गिनाते हुए कहा कि , पश्चिमी संस्कृति ने इस्लामी देशों के लिए सब से बड़ी जो समस्या उत्पन्न की है वह दो गलत विचारधाराएं रहीं हैं। एक मुसलमानों को अक्षमता और असमर्थता का पाठ पढ़ाना था अर्थात उन्होंने मुसलमानों को यह विश्वास दिला दिया कि तुम लोगों से कुछ नहीं होने वाला , न राजनीति में , न अर्थ व्यवस्था में और न ही विज्ञान के क्षेत्र में, उन्होंने मुसलमानों से कहा कि तुम लोग कमज़ोर हो। हम इस्लामी देश दसियों वर्षों तक इस धारणा में फंसे रहे और पीछे रह गये। दूसरी बात जो इन वर्चस्ववादियों ने समझाई वह यह थी कि हमारे शत्रुओं की शक्ति असीम और अजेय है। इस प्रकार से दर्शाया कि अमरीका को पराजित करना संभव ही नहीं है, पश्चिम को कौन पीछे हटने पर विवश कर सकता है हमें सब कुछ सहन करना पड़ेगा। किंतु अचानक ही इस्लामी चेतना ने प्रचंड लहरों की भांति अत्याचारियों के खोखले महलों को उखाड़ फेंका और ईश्वरीय कृपा से ठोस इरादों और सुदृढ़ आस्थाओं ने साम्राज्यवादियों की नींदे उड़ा दीं।
इन क्रांतियों का लोगों के मन व मस्तिष्क पर एक महत्वपूर्ण प्रभाव, साम्राज्य के आंतक का अंत भी रहा है। हुस्नी मुबारक और ज़ैनुल आबेदीन बिन अली जैसे अत्याचारी तानाशाह जिन्हें अमरीका और ज़ायोनी शासन का भरपूर समर्थन प्राप्त था, जन शक्ति और उनके इस्लामी नारों से बड़ी सरलता के साथ सत्ता से बेदखल कर दिये गये और इनके पतन को उनके पश्चिमी समर्थकों की पराजय के रूप में भी देखा गया। वरिष्ठ नेता इस्लामी चेतना को अतंरराष्ट्रीय तानाशाही के अंत का आरंभ बिन्दु कहते हैं । वे इस संदर्भ में कहते हैं कि आज इस्लामी देशों में विदेशियों पर निर्भर तानाशाहों के विरुद्ध आंदोलन हो रहे हैं जो अंतरराष्ट्रीय तानाशाहों के विरुद्ध आंदोलन की भूमिका है और यह अंतरराष्ट्रीय तानाशाह, भ्रष्ट व अभिशप्त ज़ायोनी तथा साम्राज्यवादी शक्तियों के संगठन हैं किंतु अमरीका तथा अन्य साम्राज्यवादी जिन्हें अपने पतन की आहट सुनाई दे रही है , इस बात का पूरा प्रयास कर रहे हैं कि यह क्रांतियां अपने दीर्घकालिक लक्ष्यों तक न पहुंच सकें। अंतरराष्ट्रीय तानाशाह, षडयन्त्र रच कर और अभिशप्त योजनाएं बना कर इस्लामी राष्ट्रों पर पुनः अपना वर्चस्व स्थापित करने के प्रयास में हैं। वरिष्ठ नेता क्रांतिकारी युवाओं को सचेत करते हुए कहते हैं कि इस बात पर ध्यान रखना चाहिए कि उनके जनान्दोलन को कहीं कोई चुरा न ले और उसे उसके मार्ग से विचलित न कर दे। इस लिए अन्य लोगों के अनुभवों से लाभ उठाया जाना चाहिए। शत्रु क्रांति को मार्ग से हटाने , आंदोलनों को प्रभाव हीन करने और बहाए गये रक्त को रंगहीन करने का भरसक प्रयास कर रहा है इस लिए सचेत रहना चाहिए। आप युवा इन आंदोलनों के शक्तिस्रोत हैं। सचेत रहें और ध्यान दें।
वरिष्ठ नेता ने अपने भाषण में सब को ईश्वर की सहायता की ओर आकृष्ट किया। उन्होंने ईश्वर के प्रति भ्रांति से दूर रहने और उसके वचनों पर विश्वास को आवश्यक बताया और कहा कि ईश्वरीय वचन सच्चे हैं हमें उसके वचनों की सत्यता में कोई शंका नहीं है। हमें ईश्वर की ओर से कोई भ्रांति नहीं है। ईश्वर अपने बारे में भ्रांति में रहने वालों की आलोचना करता और कहता है कि और वह मिथ्याचारी पुरुषों व महिलाओं, अनेकेश्वरवादी पुरुषों व महिलाओं को कि जो ईश्वर के बारे में बुरा सोचते हैं दंडित करेगा और बुरी घटनाओं में वे स्वंय ग्रस्त होंगे ईश्वर का प्रकोप है उन पर और उसने उन्हें अपनी कृपा से दूर कर दिया है और उनके लिए नर्क को तैयार कर रखा है और यह कितना बुरा अंजाम है। वरिष्ठ नेता की दृष्टि में जब लोग ईश्वर की राह में और अत्याचारी के अंत के लिए आंदोलन आरंभ करते हैं और अपनी राह पर डटे रहते हैं ईश्वर उन्हें अपनी विशेष सहायताओं व कृपा द्वारा सफलता प्रदान करता है। वरिष्ठ नेता ने मध्य पूर्व और उत्तरी अफ़्रीक़ा में क्रांतिकारी युवाओं और जनता की सफलता को ईश्वरीय सहायता का प्रभाव बताया और कहा कि जब लोग आगे बढ़ते हैं और जब हम अपने पास मौजूद सब कुछ लेकर संघर्ष आरंभ करते हैं तो ईश्वर की सहायता निश्चित होती है। वे सफलता और आंदोलन के जारी रहने की कुंजी , ईश्वर पर भरोसे , ईश्वर के प्रति सदभावना , उस पर विश्वास तथा एकता को बनाए रखना बताते हैं।
इस्लामी आंदोलन इस समय महत्वपूर्व एतिहासिक मोड़ से गुज़र रहा है। अत्याचारी व साम्राज्यवादियों के विरुद्ध संघर्ष जो वर्ष १९७९ में आजकल के दिनों में ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के साथ ही तेज़ हो गया अब इस्लामी जगत में विस्तृत हो रहा है। वरिष्ठ नेता इस परिवर्तन के संदर्भ में कहते हैं कि आज इस्लामी जगत में इस्लामी आंदोलन में शीआ व सुन्नी का कोई अंतर नहीं है, शाफ़ई, हनफ़ी, जाफ़री, मालेकी , हंबली और जै़दी में कोई अंतर नहीं है अरबों और फार्सों तथा अन्य जातियों में कोई अंतर नहीं है। इस विशाल रणक्षेत्र में सभी उपस्थित हैं। हमें प्रयास करना चाहिए कि शत्रु हम में फूट पैदा न करें। हमें एक दूसरे को अपना भाई समझना चाहिए , लक्ष्य को निर्धारित करना चाहिए। हमारा लक्ष्य इस्लाम है हमारा लक्ष्य कु़रानी और इस्लामी सत्ता है। वरिष्ठ नेता की दृष्टि में इस्लामी देशों में कुछ समानताएं और कुछ भिन्नताएं हैं। विभिन्न देशों की अलग अलग भौगोलिक , एतिहासिक व सामाजिक परिस्थितियां हैं किंतु संयुक्त सिद्धान्त पर ध्यान महत्वपूर्ण है। वे संयुक्त सिद्धान्त का वर्णन इस प्रकार से करते हैं ः हम सब साम्राज्य विरोधी हैं , हम सब पश्चिम के दुष्टतापूर्ण वर्चस्व व अधिपत्य के विरोधी हैं और हम सब इस्राईली नामक कैंसर के फोड़े के विरोधी हैं।
वरिष्ठ नेता अपने भाषण के एक अन्य भाग में शत्रुओं के षडयन्त्रों को प्रभावहीन और वर्तमान समय में इस्लाम प्रेम की लहर को अदभुत बताया। उन्होंने कहा कि इस्लामी राष्ट्र आगे बढ़ सकते हैं , वे इस्लाम की उस प्रतिष्ठा व महानता को जो किसी समय में वैज्ञानिक व राजनीतिक व सामाजिक क्षेत्रों में विकास की चोटियों पर पहुंचने से प्राप्त हुई थी पुनः प्राप्त कर सकते हैं। वरिष्ठ नेता इस शताब्दी को इस्लाम और आध्यात्म की शताब्दी कहते हैं और उनका मानना है कि इस्लाम , तर्क , आध्यात्म तथा न्याय अन्य राष्ट्रों को उपहार स्वरूप देगा। वरिष्ठ नेता अंत में वर्तमान काल में इस्लाम प्रेम पर आधारित आंदोलनों को सफल आंदोलन की संज्ञा देते हैं और कहते हैं कि भविष्य अत्याधिक उज्जवल है वह दिन शीघ्र ही आएगा जब इस्लामी राष्ट्र ईश्वर की सहायता से शक्ति व स्वाधीनता की चोटियों पर पहुंचा होगा।
अहले हदीस
अहले हदीस का तरीक़ा अस्ल में एक फ़िक्ही और इज्तिहादी तरीक़ा था। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो अहले सुन्नत के फक़ीह अपने तौर तरीक़े की वजह से दो गुरूप में बटे हैं। एक गुरुप वह है जिसका सेन्टर इराक़ था और वह हुक्मे शरई को हासिल करने के लिए क़ुरआन और सुन्नत के अलावा अक्ल (बुद्धी) से भी काम लेता था। यह लोग फ़िक्ह में क़्यास (अनुमान) को मोअतबर (विश्वासपात्र) समझते हैं और यही नही बल्कि कुछ जगहों पर इसको क़ुरआन और सुन्नत पर मुक़द्दम (महत्तम) करते हैं।
यह लोग “अस्हाबे रई ” के नाम से मश्हूर हैं इस गुरूप के संस्थापक अबू हनीफा (देहान्त 150 हिजरी) हैं।
दूसरा गुरूप वह है जिनका सेन्टर हिजाज़ था। यह लोग सिर्फ क़ुरआन और हदीस के ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) पर भरोसा करते थे और पूरी तरह से अक़्ल का इंकार करते थे। यह गुरूप “अहले हदीस या अस्हाबे हदीस ” के नाम से मशहूर है। इस गुरूप के बड़े उलमा (विद्धवान), मालिक इब्ने अनस (देहान्त 179 हिजरी), मुहम्मद इब्ने इदरीस शाफेई (देहान्त 204 हिजरी) और अहमद इब्ने हम्बल हैं।
अहले हदीस अपने फ़िक्ही तरीक़े को अक़ीदों में भी प्रयोग (इस्तेअमाल) करते थे और इसको सिर्फ क़ुरआन और सुन्नत के ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) से लेते थे। यह लोग न सिर्फ अक़ीदे के मसअलों को हासिल करने के लिए अक़्ल को एक स्रोत (माख़ज़) नही समझते थे बल्कि एतेक़ादी हदीसों से संबन्धित हर तरह की अक़्ली बहस का विरोध करते थे। दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि यह गुरूप इस अक़्ली कलाम का भी विरोधी था जिसमें अक़ाएद का मुस्तक़िल माख़ज़ (स्रोत) अक़्ल है और ऐसे नक़्ली कलाम का भी विरोधी था जिसमे नक़्ल के अक़्ली लवाज़िम को अक़्ल से साबित करते हैं। यहाँ तक कि यह गुरूप दीनी अक़ाएद से दिफा के किरदार को भी अक़्ल के लिए क़ुबूल नही करते थे। यह बात मश्हूर है कि जब एक आदमी ने मालिक इब्ने अनस से इस आयत “अर्रहमान अलल-अर्शिस तवा” के बारे सवाल किया गया तो उन्होने जवाब दियाः आसमान पर खुदा का होना मालूम है इसकी कैफियत (अवस्था) पोशीदा (छिपी) है इस पर ईमान वाजिब है और इसके बारे में सवाल करना बिदअत है।
बहरहाल अहले हदीस दीन से संबन्धित हर तरह की फिक्र करने की मुखालिफत करते थे और इल्मे कलाम का बुनियादी तौर पर इनकार करते थे। इस गुरूप का मश्हूर चेहरा, अहमद इब्ने हम्बल के उस एतिक़ादनामे पर है जिसमें इस गुरूप के बुनियादी अक़ाएद को बयान किया गया है इन एतिक़ाद का खुलासा यह हैः
1. ईमानः क़ौल , अमल और नियत है। ईमान के दरजात हैं और यह दरजात कम और ज़्यादा हो सकते हैं। ईमान में इस्तिस्नाआत पाए जाते हैं, यानि अगर किसी शख्स से उसके ईमान के बारे में सवाल किया जाए तो उसको जवाब में कहना चाहिएः इंशा अल्लाह (अगर अल्लाह ने चाहा तो) मैं मोमिन हुँ।
2. इस दुनिया में जो कुछ भी होता है वह क़ज़ा व क़द्रे इलाही है और इंसान, खुदा की क़ज़ा व क़द्र से भाग नही सकता। इंसानों के तमाम काम जैसे बलात्कार, शराब पीना और चोरी वग़ैरा खुदा की तक़दीर से मरबूत (संबद्ध) हैं और इससे संबन्धित किसी को आपत्ति करने का हक़ नही है। अगर कोई गुमान करे कि खुदा गुनाहगारों से इताअत (आज्ञापालन) चाहता है लेकिन वह गुनाह का इरादा करते हैं तो यह गुनाहगार बंदों की मशियत को खुदा की मशियत पर ग़ालिब (प्रभुत्वशाली) समझते हैं, इससे बढ़कर खुदा पर कोई और बोहतान (दोषारोपण) नही हो सकता। जो भी यह एतिक़ाद रखता है कि खुदा को इस दुनिया का इल्म (ज्ञान) है उसको क़ज़ा व क़द्रे इलाही को भी क़ुबूल करना चाहिए।
3. खिलाफत और इमामत, क़्यामत तक क़ुरैश का हक़ है।
4. जिहाद, इमाम के साथ जाएज़ है चाहे वह इमाम आदिल हो या ज़ालिम।
5. जुमे की नमाज़, हज और ईद और बक़रईद की नमाज़ इमाम के सिवा क़ाबिले क़ुबूल नही है, चाहे वह इमामे आदिल और बा तक़वा भी न हो।
6. सदक़ा, लगान और जो माल बग़ैर किसी जंग और वसाएले जंग के हासिल हो सब बादशाहों का हक़ है चाहो वह ज़ालिम ही क्यों न हों।
7. अगर बादशाह गुनाह का हुक्म दे तो उसकी इताअत नही करना चाहिए, लेकिन ज़ालिम बादशाह के खिलाफ खड़े होना जाएज़ नही है।
8. मुसलमानों को उलके गुनाहों की वजह से काफिर कहना सही नही है मगर उन जगहों पर जिनके मुतअल्लिक़ हदीस में आया है जैसे नमाज़ न पढ़ने वाले, शराब पीने वाले और बिदअत अंजाम देने वाले को।
9. क़ब्र का अज़ाब, सिरात, सूर फूकना, जन्नत, जहन्नम, लौहे महफूज़ और शिफाअत, यह सब हक़ हैं और जन्नत और जहन्नम हमेशा रहेंगे।
10. क़ुरआन खुदा का कलाम है और यह मख़लूक़ नही है हत्ता (यथा) कि अल्फाज़ (Words) और क़ुरआन के क़ारी की आवाज़ भी मख़लूक़ (सृष्टि) नही है और जो भी क़ुरआन करीम को हर तरह से मख़लूक़ और हादिस समझता है काफिर है।
अहले हदीस के और दूसरे नज़रिये (दृष्टिकोण) भी हैं जैसे खुदा को आंखों से देखना, तकलीफे मा ला योताक़ का जाएज़ होना और सिफाते ख़बरिया का साबित करना वगैरा। हम इन अक़ाएद को अशाएरा की बहस में बयान करेंगे।
खुलासा (सारांश) :
1. अहले हदीस का तरीक़ा अस्ल में एक फिक्ही था यह लोग सिर्फ क़ुरआन और हदीस के ज़ाहिर (प्रत्यक्ष) का सहारा लेते थे और मुतलक़ तौर से अक़्ल का इनकार करते थे यह गुरूप अहले हदीस या अस्हाबे हदीस के नाम से मश्हूर है। इस गुरूप के बड़े उलमा (विद्धवान), मालिक इब्ने अनस (देहान्त 179 हिजरी), मुहम्मद इब्ने इदरीस शाफेई (देहान्त 204 हिजरी) और अहमद इब्ने हम्बल हैं।
2. अहले हदीस अपने फ़िक्ही तरीक़े को अक़ीदों में भी प्रयोग (इस्तेअमाल) करते थे और एतेक़ादी हदीसों से संबन्धित हर तरह की अक़्ली बहस का विरोध करते थे और इसके नतीजे में यह इल्मे कलाम का बुनियादी तौर पर विरोध करते हैं। इससे मुतअल्लिक़ अहमद इब्ने हम्बल के नज़रियात (दृष्टिकोण) अहले सुन्नत के दरमियान सबसे ज़्यादा तासीर गुज़ार (प्रभावशाली) हैं।
3. अहले हदीस के कुछ एतिक़ाद वह हैं जो अहमद इब्ने हम्बल के एतिक़ाद नामे में बयान हुए हैं :
अ. ईमानः क़ौल , अमल और नियत है। ईमान के दरजात हैं और यह दरजात कम और ज़्यादा हो सकते हैं। ईमान में इस्तिस्नाआत पाए जाते हैं।
आ. इस दुनिया में जो कुछ भी होता है वह क़ज़ा व क़द्रे इलाही है और इंसान, खुदा की क़ज़ा व क़द्र से भाग नही सकता। इंसान को अपने किसी काम (फेअल) में कोई इख्तियार नही है।
इ. जिहाद, जुमे की नमाज़, हज और ईद और बक़रईद की नमाज़ इमाम के सिवा क़ाबिले क़ुबूल नही है, चाहे वह इमामे आदिल और बा तक़वा भी न हो।
ई. मुसलमानों को उनके गुनाहों की वजह से काफिर कहना सही नही है।
उ. क़ुरआन खुदा का कलाम है और यह मख़लूक़ नही है।
अशाइरा
अशाइरा, अबुल हसन अशअरी (260-324 हिजरी) के मानने वालों को कहते हैं। अबुल हसन अशअरी ने अक़्ल (बुद्धी) से काम लेने में तफरीत से काम लेते हुए दरमियान का एक तीसरा रास्ता चुना है। दूसरी सदी हिजरी के दौरान इन दोनों फिकरी मकतबों नें बहुत ज़्यादा शोहरत हासिल की। मोअतज़ला अक़ाइद के लिए अक़्ल को एक मुस्तक़िल माखज़ (स्त्रोत) समझते थे और इसके ज़रिए इस्लाम की रक्षा करने की ताकीद (पुष्टि) करते थे और इसको प्रयोग करने में इफरात से काम लेते थे। दूसरी तरफ अहले हदीस, अक़्ल से हर तरह के काम को मना करते थे और क़ुरआन व सुन्नत के ज़ाहिर (प्रकट) को बग़ैर किसी फिकरी तहलील के उसके दीनी तालीमात में मिलाक व मेयार के उनवान से क़बूल करते थे। अशअरी मज़हब नें चौथी सदी के शुरूअ में अहले हदीस के अक़ाइद से रक्षा और अमली तौर पर इन दोनों मकतबों की तादील के उनवान से अक़्ल और नक़्ल के मुआफिक़ एक मोअतदिल रास्ता इख्तियार किया।
अबुल हसन अली इब्ने इस्माईल अशअरी अपनी जवानी में मोअतज़ला के अक़ाइद से वाबस्ता थे उन्होंने उनके उसूले अक़ाइद को उस वक़्त के मशहूर उस्ताद अबू अली जुब्बाई (देहान्त 33 हि.) से हासिल किए और चालीस साल की उम्र तक मोअतज़ला का समर्थन करते रहे और इसी विषय (Subject) से संबन्धित बहुत सी किताबें भी लिखीं। इसी दौरान उन्होंने इस मज़हब से दूरी कर ली और मोअतज़ला के मुक़ाबिल में अहले हदीस के मुताबिक़ कुछ नज़रियात (दृष्टिकोण) पेश किए। अशअरी एक तरफ तो दूसरों के माखज़ (स्त्रोत) को किताब व सुन्नत बताते थे और इस वजह से मोअतज़ला का विरोध करते थे और अहले हदीस हो गए। लेकिन अस्हाबे हदीस के बर खिलाफ दीनी अक़ाइद से दिफा और उसको साबित करने के लिए बहस व इस्तेदलाल को जाएज़ समझते थे और अमली तौर पर इसका उपयोग करते थे। इसी ग़रज़ से उन्होंने एक किताब (रिसालतुन फी इस्तेहसानिल ख़ौज़ फी इल्मिल कलाम) लिखी और इसमें इल्मे कलाम का समर्थन किया। अशअरी नें नक़्ल को असालत देने के साथ साथ अक़्ल को साबित करने और दिफा करने के लिए क़बूल कर लिया। वह आरंभ में मोअतज़ला के नज़रियात को बातिल (भंग) करने की ज़िम्मेदारी समझते थे लेकिन उन्होंने मोअतज़ला के अक़ाइद से जंग करते हुए अहले हदीस के अक़्ली तरीक़े को साबित किया और उनके नज़रियात (दृष्टिकोण) को एक हद तक मोअतज़ला के नज़रियात (दृष्टिकोण) से नज़दीक कर दिया।
अशअरी के नज़रियात (दृष्टिकोण) :
इस जगह पर कोशिश करेंगे कि अशअरी के तरीक़े के नतीजे को उनके कुछ अक़ाइद में ज़ाहिर (प्रकट) करें। इस वजह से उसके अक़ीदे को अस्हाबे हदीस और मोअतज़ला के अक़ाइद को इजमाल (संक्षिप्त) के साथ एक दूसरे से मुक़ाबला करेंगे।
(1) सिफाते ख़बरी: इल्मे कलाम में कभी कभी सिफाते इलाही को सिफाते ज़ातिया और सिफाते ख़बरिया में बाँटते हैं। सिफाते ज़ातिया से मुराद वह सिफात हैं जो आयात व रिवायात में बयान हुई हैं और अक़्ल खुद व खुद इन सिफात को खुदा के लिए साबित करती है जैसे खुदा के लिए हाथ, पैर और चेहरे का होना, इस तरह की सिफात के मुतअल्लिक़ मुतकल्लेमीन के दरमियान इख्तिलाफ (विभेद) है।
अहले हदीस का एक गुरूप जिसको मुशब्बहा हशविया कहते हैं, यह सिफाते ख़बरिया को तशबीह (उपमा) के साथ खुदा वंदे आलम के लिए साबित (सिद्ध) करते हैं। यह लोग इस बात के मोअतक़िद हैं कि खुदा में सिफाते ख़बरिया उसी तरह पाई जाती है जिस तरह मखलूक़ात में पाई जाती हैं और इस जहत से ख़ालिक़ (खुदा) और मखलूक़ के दरमियान बहुत ज़्यादा शबाहत पाई जाती है। शहरिस्तानी नें इस गुरुप के कुछ लोगों से नक़्ल किया है कि उनका अक़ीदा यह है कि खुदा को लम्स (स्पर्श) किया जा सकता है और उससे हाथ और गले मिला जा सकता है।
अहले हदीस में से कुछ लोग सिफाते ख़बरिया के मुतअल्लिक़ तफवीज़ (प्रदान) के मोअतक़िद हैं। यह लोग सिफाते ख़बरिया को खुदा से मंसूब करते हैं और उन अलफाज़ (Words) के मफहूम और मफाद के सम्बंध में हर तरह का नज़रिया (दृष्टिकोण) पेश करने से दूरी करते हैं और उसके मअना (Meaning) को खुदा पर छोड़ देते हैं। मालिक इब्ने अनस का खुदा के आसमान (अर्श) पर होने की कैफियत के मुतअल्लिक़ सवाल के जवाब से उनका नज़रिया (दृष्टिकोण) मालूम हो जाता है। लेकिन मोअतज़ला, खुदा को मख़लूक़ात से मुशाबेह होने से पाक और दूर समझते हैं और खुदा के हाथ और पैर रखने वाली सिफात को जाइज़ नही समझते हैं। दूसरी तरफ क़ुरआन और रिवायात में इस तरह की सिफात की खुदा से निस्बत दी गई है। मोअतज़ला नें इस मुश्किल को हल करने के लिए सिफाते ख़बरिया की तौजीह (स्पष्टीकरण) व तावील (अर्थापन) करना आरंभ कर दिया और यदूल्लाह (खुदा के हाथ) की “ खुदा की क़ुदरत ” से ताबीर व तफसीर करने लगे।
अशअरी , सिफाते ख़बरिया को साबित (सिद्ध) करने में एक तरफ तो असहाब हदीस के नज़रिए को क़बूल कर लिया और दूसरी तरफ “ बिला तशबीह ” और “ बिला तकलीफ ” की क़ैद को इसमें बढ़ा दिया। वह कहते हैं :“ यक़ीनन खुदा के दो हाथ हैं लेकिन खुदा के हाथ की कोई कैफियत नहीं है जैसा कि खुदा फरमाता हैः हल यदाहो मबसूततान –सूरए माइदाः64 ” ।
(2) जब्र और इख्तियारः अहले हदीस ने खुदा की कज़ा और कद्र पर एतिक़ाद रखने और अमली तौर पर इस एतिक़ाद को इंसान के इख्तियार के साथ जमा करने की ताक़त न रखने की वजह से वह इंसान के लिए उसके अफआल में कोई किरदार अदा नही कर सके, इस वजह से वह नज़रिए जब्र में गिरफ्तार हो गए। यह बात इब्ने हम्बल के एतिक़ादनामे में ज़िक्र हुए एतिक़ाद से पूरी तरह स्पष्ट हो जाती है। जबकि मोअतज़ला इंसान के इख्तियारी अफआल में उसकी मुतलक़ आज़ादी के क़ाइल हैं और कज़ा व कद्र और खुदा के इरादे के लिए इस तरह के अफआल में किसी नज़रिए के क़ाइल नही हैं।
अशअरी का नज़रिया यह था कि न सिर्फ कज़ा और कद्रे इलाही आम है बल्कि इंसान के इख्तियारी अफआल को भी खुदा ईजाद और खल्क़ करता है दूसरी तरफ उसने कोशिश की कि इंसान के इख्तियारी अफआल के लिए कोई किरदार पेश करे। उन्होनें इस किरदार को नज़रिए कस्ब के क़ालिब में बयान किया। अशअरी का यह नज़रिया बहुत ही अहम और पेचीदा है इस लिए हम इसको यहाँ तफसील (विस्तार) से बयान करते हैं – कस्ब एक क़ुरआनी शब्द है और विभिन्न आयात में इस शब्द और इससे बनने वाली दूसरी चीज़ों (मुशतक़्क़ात) को इंसान की तरफ निस्बत दी गई है। कुछ मुतकल्लेमीन जैसे अशअरी नें अपने नज़रियात को बयान करने के लिए इस शब्द से फायदा उठाया है। उन्होनें कस्ब के विशेष अर्थ बयान करने के बीच इसको अपने नज़रिए जब्र और इख्तियार और इंसान के इख्तियारी अफआल की तोसीफ पर मिलाक क़रार दिया है। अगरचे अशअरी से पहले दूसरे मुतकल्लेमीन नें भी इससे संबन्धित बहुत कुछ बयान किया है। लेकिन अशअरी के बाद, कस्ब का शब्द उनके नाम से इस तरह जुड़ गया है कि जब भी कस्ब या नज़रिए कस्ब की तरफ इशारा होता है तो बे-इख्तियार अशअरी का नाम ज़बान पर आ जाता है।
उनके बाद अशअरी मसलक के मुतकल्लेमीन ने अशअरी के बयान किए हुए नज़रिए से इख्तिलाफ के साथ अपनी खास तफसीर को बयान किया है। यहां पर हम नज़रिए कस्ब को अशअरी की तफसीर के साथ बयान करेंगे। उनके नज़रियात यह हैं :
A. क़ुदरत की दो क़िस्में हैं: एक क़ुदरते क़दीम (पुरानी क़ुदरत) जो खुदा से मखसूस (विशेष) है और फेअल के खल्क़ और ईजाद करने में प्रभावशाली है। औऱ दूसरी क़िस्म क़ुदरते हादिस है जो फेअल को ईजाद करने में प्रभावशाली नही है और इसका फायदा यह है कि साहिबे क़ुदरत अपने अंदर आज़ादी और इख्तियार का एहसास करता है और गुमान करता है कि वह किसी काम को अंजाम देने की क़ुदरत रखता है।
B. इंसान का फेअल, खुदा की मख़लूक़ है: अशअरी के लिए यह एक क़ाइदए कुल्ली है कि खुदा के इलावा कोई खालिक़ नही है सभी चीज़ें, उनमें से इंसान के तमाम अफआल खुदा की मखलूक़ हैं। वह स्पष्ट करते हैं कि अफआल का हक़ीक़ी (वास्तविक) फाएल (कारक) खुदा है। क़्यों कि खिलक़त (जन्म) में सिर्फ क़ुदरते क़दीम मुअस्सिर (प्रभावशाली) है और यह क़ुदरत केवल खुदा के लिए है।
C. इंसान का किरदार, फेअल को कस्ब करना है खुदा इंसान के अफआल को खल्क़ करता है और इंसान खुदा के खल्क़ किए हुए अफआल हासिल करता है।
D. कस्ब यानि खलक़े फेअल का इंसान में क़ुदरते हादिस के खल्क़ होने के साथ मक़ारिन होना। अशअरी खुद लिखते हैं: मेरे नज़दीक हक़ीक़त यह है कि इक्तिसाब और कस्ब करने के मानी फेअल का क़ूव्वते हादिस के साथ और एक ही समय वाक़ेअ होना है। इस लिए फेअल को कस्ब करने वाला वह है जिसमें फेअल क़ुदरत (हादिस) के साथ ईजाद हुआ हो। मिसाल के तौर पर जब हम कहते हैं कि कोई रास्ता चल रहा है या वह रास्ता चलने को कस्ब कर रहा है, यानि खुदा इस शख्स में रास्ता चलने को ईजाद करने के साथ साथ उसके अंदर क़ुदरते हादिस भी ईजाद कर रहा है जिसके ज़रिए इंसान यह एहसास करे कि वह अपने फेअल को अपने इख्तियार से अंजाम दे रहा है।
E. इस नज़रिए में फेअल इख्तियारी और ग़ैर इख्तियारी में फर्क़ यह है कि फेअल इख्तियारी में चूँकि फेअल अंजाम देते वक़्त इंसान में क़ुदरत हादिस होती है तो वह आज़ादी का एहसास करता है लेकिन ग़ैर इख्तियारी फेअल में चूँकि इसमें ऐसी क़ुदरत नहीं है वह जब्र और ज़रूरत का एहसास करता है।
F. अगरचे इंसान फेअल को कस्ब करता है लेकिन यही कस्ब खुदा की मखलूक़ भी है। इस बात की दलील अशअरी के नज़रिए से बिल्कुल स्पष्ट है क़्यों कि प्रथम बीते हुए क़ाइदे और क़ानून के मुताबिक़ हर चीज़, उनमें से कस्ब, खुदा की ईजाद की हुई है। द्दितीय कस्ब का अर्थ इंसान में हादिसे क़ुदरत और फेअल के मक़ारिन होने के साथ हैं और चुँकि फेअल और क़ुदरते हादिस को खुदा ख़ल्क़ करता है इस लिए दोनों की मक़ारिनत भी उसी की खल्क़ की हुई होगी। अशअरी नें इस मतलब को बयान करते हुए क़ुरआन मजीद की आयात से मदद ली है वह कहते हैं : अगर कोई सवाल करे कि तुम यह क़्यों सोचते हो कि बंदों के कस्ब खुदा की मखलूक़ है तो हम उससे कहेंगे कि क़्यों कि क़ुरआन नें फरमाया है :(खुदा नें तुम्हें और जो कुछ तुम अमल करते हो, खल्क़ किया है) (सूरए साफात – 96)।
G. यहाँ पर जो सवाल बयान होता है वह यह है कि अगर कस्ब खुदा की मखलूक़ है तो फिर इसको इंसान की तरफ क़्यों निस्बत देते हैं और कहते हैं कि इंसान का अमल है।
उसके जवाब में अशअरी मोअतक़िद हैं कि मुकतसिब और कासिब होने की मेअयार, कस्ब करने की जगह है न कि कस्ब को ईजाद करना। मिसाल के तौर पर जिस चीज़ में हरकत ने हुलूल किया है उसको मुतहर्रिक कहते हैं। यहाँ पर भी इंसान, कस्ब कर रहा है इस लिए उसको मुकतसिब कहते हैं।
नतीजा यह हुआ कि खुदा की सुन्नत इस बात पर बरक़रार है कि जब इंसान से इख्तियारी फेअल सादिर होता है तो खुदा उसी वक़्त क़ुदरते हादिस को भी इंसान में खल्क़ कर देता है और इंसान सिर्फ फेअल और क़ुदरते हादिस की जगह है यानि फेअल और क़ुदरत हादिस के मक़ारिन होने की जगह है । इस बिना पर अशअरी का नज़रिया इंसान के इख्तियारी फेअल से जब्र के इलावा कुछ नहीं है। अगरचे उन्होंने बहुत ज़्यादा कोशिश की है ताकि वह इंसान के लिए हाथ और पैर का किरदार अदा करें लेकिन आखिरकार वह उसी रास्ते की तरफ गामज़न हो गए जिस पर अक्सर अहले हदीस और जब्र के क़ाइल लोग गामज़न हैं।
(3) कलामे खुदा: अहले हदीस मोअतक़िद हैं कि खुदा का कलाम वही आवाज़ (सौत) और शब्द हैं जो खुदा की ज़ात से क़ाइम हैं और क़दीम हैं।
उन्होंने इस विषय में इस क़दर मुबालेग़े (अतिशयोक्ति) से काम लिया है कि कुछ लोगों नें इसकी जिल्द और क़ुरआन के कागज़ को भी क़दीम समझ लिया।
मोअतज़ला भी कलामे खुदा को आवाज़ (सौत) और शब्द (हुरूफ) समझते हैं लेकिन उनको खुदा की ज़ात से क़ाइम नही समझते और उनका अक़ीदा है कि खुदा अपने कलाम को लौहे महफूज़ या जिबरईल या पैग़म्बर अकरम (स) में खल्क़ करता है और इस वजह से खुदा कलाम हादिस है।
अशअरी नें बीच का रास्ता इख्तियार करने के लिए कलाम को दो क़िस्मों (भागों) मे बाँट दिया है: पहली क़िस्म वही लफ्ज़ी कलाम है जो शब्दों और आवाज़ के ज़रिए बनती है। इससे मुतअल्लिक़ उन्होंने मोअतज़ला की बात को क़ुबूल करते हुए कलामे लफ्ज़ी को हादिस जाना है। लेकिन दूसरी क़िस्म कलामे नफसी है इस क़िस्म में अहले हदीस की तरह कलामे खुदा को क़ाइम बेज़ात और क़दीम जाना है।
हक़ीक़ी कलाम वही कलामे नफसी है जो क़ाइम बेज़ाते खुद है और शब्दों के ज़रिए बयान होता है। कलामे नफसी वाहिद और नामोअतबर है। जबकि कलामे लफज़ी बदलाव के क़ाबिल है। कलामे नफसी को मुख्तलिफ इबारात के साथ बयान किया जा सकता है।
(4) रोअयते खुदा (खुदा का दिखना) : अहले हदीस का एक गुरूप जो मुशब्बहे हशविया के नाम से मशहूर है इस बात का अक़ीदा रखते हैं कि खुदा को आँखों से देखा जा सकता है। लेकिन मोअतज़ला हर तरह की रोअयते खुदा से इनकार करते हैं। अशअरी यहाँ पर बीच का रास्ता निकाला है ताकि इफरात और तफरीत से बचे रहें। उनका अक़ीदा यह है कि खुदा दिखाई देता है लेकिन खुदा को दूसरी चीज़ों की तरह नहीं देखा जा सकता है। उनकी नज़र में रोअयते खुदा, मखलूक़ात से मुशाबेह नही है। इससे मुतअल्लिक़ एक शारेह नें लिखा हैः “ अशाइरा का अक़ीदा है कि खुदा जिस्म नही रखता और वह किसी तरफ में नही है इस बिना पर उसका चेहरा और हदक़ा वग़ैरह नही है लेकिन इसके बावजूद वह चौदहवीं रात की तरह अपने बंदों पर ज़ाहिर हो सकता है और दिखाई दे सकता है जैसा कि सही हदीसों में वारिद हुआ है ”। अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए ताकीद करते हैं किः हमारी दलील अक़्ली और नक़्ली दोनों है लेकिन इस मसअले में अस्ल नक़्ल है।
अशाइरा की दलीले अक़्ली जो दलीलूल वजूद के नाम से मशहूर है यह है कि जो चीज़ भी मौजूद है दिखाई देगी मगर यह कि कोई वजूद में आने में रूकावट हो। दूसरे शब्दों में यह कहा जाए कि किसी वजूद का होना उसके रोअयत (दिखने) का तक़ाज़ा करता है इस बिना पर चूँकि खुदा मौजूद है और उसके दिखाई देने का लाज़िमए अम्र मुहाल नही है इस लिए रोअयते खुदा अक़्ली तौर पर मुम्किन है।
(5) हुस्न व क़ुब्हे अक़्ली : मोअतज़ला का अक़ीदा है कि अफआल में हुस्न व क़ुब्हे ज़ाती पाया जाता है और अक़्ल भी (कम से कम कुछ जगहों में) उसके हुस्न व क़ुब्ह को जानने पर क़ादिर है बल्कि उसूली तौर पर तो यह अफआल के हुस्न व क़ुब्हे वाक़ई से इनकार करते हैं। शरहे मुआक़िफ के लेखक इसके बारे में लिखते हैं: “ हमारे (यानि अशाइरा के) नज़दीक क़बीह यह है कि नहई तहरीमी या तनज़ीही वाक़ेअ हो और हुस्न यह है कि उससे नहई न हुई हो जैसे वाजिब, मुस्तहब और मुबाह। और खुदा के अफआल हुस्न हैं ”। इसी तरह निज़ाअ के बयान के वक़्त हुस्न और क़ुब्ह के तीन मअना (Meaning) करते हैं:
(a) कमाल व नक़्ज़ : जिस वक़्त कहा जाता है इल्म (ज्ञान) हुस्न है और जहल (अज्ञानता) क़बीह है, तो हुस्न व क़ुब्ह के यही मअना मुराद होते हैं और इसमे कोई इख्तिलाफ नही है कि हुस्न व क़ुब्ह के यह मअना सिफाते फी नफसे में साबित हैं और अक़्ल उसको दर्क करती है और शरियत से उसका कोई राबिता नही है।
(b) ग़रज़ से मुलाइम और मुनाफिर होना : इस मअना में जो भी ग़रज़ और मुराद से मुआफिक़ है वह हुस्न है और जो भी मुखालिफ हो वह क़बीह है और जो ऐसा न हो वह न हुस्न है और न क़बीह है। इन दोनों मअनों को कभी मसलहत और कभी मफसदा से ताबीर करते हैं। इस मअना में भी हुस्न व क़ुब्ह एक अक़्ली अम्र है और ग़रज़ व एतिबार की वजह से बदल जाते हैं। जैसे किसी का क़त्ल हो जाना उसके दूश्मनों के लिए मसलहत है और उनके हदफ के मुआफिक़ है लेकिन उसके दोस्तों के लिहाज़ से मफसदा है इस बिना पर इस मअना में हुस्न व क़ुब्ह के मअना इज़ाफी और निस्बी हैं, हक़ीक़ी नहीं हैं।
(c) मदह का मुसतहक़ होना : मुतकल्लेमीन के दरमियान जिस मअना में इख्तिलाफ हुआ है वह यही तीसरा मअना है, अशाइरा हुस्न व क़ुब्ह को शरई समझते हैं क़्यो कि इस लिहाज़ से तमाम अफआल माद्दी हैं और कोई भी फेअल खुद ब खुद मदह व ज़म व या सवाब या एक़ाब का तक़ाज़ा नही करता है और सिर्फ शारेअ की अम्र और नहई की वजह से ऐसी खुसुसियत पैदा हो जाती है। लेकिन मोअतज़ला के नज़रियात के मुताबिक़ यह मअना भी अक़्ली हैं क़्यों कि फेअल खुद ब खुद शरियत को नज़र अंदाज़ करते हुए या हुस्न हैं जिसकी वजह से इस फेअल का फाएल मदह और सवाब का मुसतहक़ है, या क़बीह है जिसकी वजह से इस फेअल का फाएल एक़ाब और बुराई का मुसतहक़ है।
(6) तकलीफे मा ला योताक़ : तकलीफे मा ला योताक़ के मअना यह हैं कि खुदा अपने बंदो को ऐसे फेअल को अंजाम देने को कहे जिसको अंजाम देने पर वह क़ादिर न हो। सवाल यह पैदा होता है कि क़्या इंसान को ऐसी तकलीफ देना जाइज़ है ? और इसके अंजाम न देने पर एक़ाब करना जाएज़ है ? यह बात स्पष्ट है कि इस मसअले में फैसला करने के लिए मसअल-ए- हुस्न व क़ुब्ह की तरफ रूख करना पड़ेगा। मोअतज़ला चूँकि हुस्न व क़ुब्ह को अक़्ली समझते हैं इस लिए वह इस तरह की तकलीफ को क़बीह और मुहाल समझते हैं और खुदा की तरफ से ऐसी तकलीफ के जारी होने को जाएज़ नही समझते हैं। लेकिन अशाइरा चूँकि हुस्न व क़ुब्ह के अक़्ली होने पर एतिक़ाद नही रखते और किसी चीज़ को खुदा पर वाजिब नही समझते हैं इस लिए उनका नज़रिया है कि खुदा हर काम उनमें से तकलीफे मा ला योताक़ को भी अंजाम दे सकता है और उसकी तरफ से जो अमल भी सादिर हो वह अमल नेक है।
अशअरी मज़हब का इस्तिमरार (निरंतरता):
अबुल हसन अशअरी के मज़हब को बहुत मुश्किलात का सामना करना पड़ा। शुरू में अहले सुन्नत के आलिमों नें उनके नज़रियात को क़ुबूल नही किया और हर जगह उनकी बहुत ज़्यादा मुखालिफत हुई। लेकिन अमली तौर पर इन मुखालिफतों का कोई फायदा न हुआ और अशअरी मज़हब धीरे धीरे अहले सुन्नत की फिक्रों पर ग़ालिब आता गया। अबुल हसन अशअरी के बाद सबसे पहली शख्सियत जिसने इस मज़हब को आगे बढ़ाया वह अबुबक्र बाक़िलानी (देहान्त-403 हि.) हैं। उन्होंने अबुल हसन अशअरी के नज़रियात को जो कि दो किताबों “ अलइबाना और वल्लुमअ ” में मुख्तसर तौर से मौजूद थे, उनकी अच्छी शरह की और उनको एक कलामी निज़ाम की शक्ल में पेश किया।
लेकिन अशअरी मज़हब को सबसे ज़्यादा इमामुल हरमैन जुवैनी (देहान्त-478 हि.) ने आगे बढ़ाया। ख्वाजा निज़ामुल मुल्क नें बग़दाद में मदरस-ए-निज़ामिया स्थापित करने के बाद सन 459 हि. में जुवैनी को तदरीस (Teaching) के लिए वहाँ बुलाया। जुवैनी ने लगभग तीस साल तक अशअरी मज़हब की तरवीज की और चूँकि यह शैखुल इस्लाम और मक्का व मदीना के इमाम थे इस लिए उनके नज़रियात को पूरी इस्लामी दुनियाँ में इहतिराम की नज़रों से देखा जाता था। जुवैनी के इल्मी आसार के ज़रिए अशअरी मज़हब बहुत ज़्यादा फैला यहाँ तक कि अहले सुन्नत के दरमियान उनके कलाम को तरजीह दी जाने लगी।
जुवैनी ने अशअरी के नज़रियात को अक़्ली और इस्तेदलाली रंग दिया और इमाम फख़्रे राज़ी (देहान्त-606 हि.) ने अशअरी मज़हब को अमली तौर पर फलसफी रंग दिया। इमाम फख़्रे राज़ी ने अशअरी के मज़हब से दिफाअ और उनके मज़हब को साबित करने के साथ साथ इब्ने सीना के फलसफी नज़रियात पर इंतिक़ाद किया। दूसरी तरफ इमाम मुहम्मद ग़ज़ाली (देहान्त-505 हि.) जो कि जुवैनी के शागिर्द थे, ने तसव्वुफ को इख्तियार कर लिया और अशअरी के नज़रियात की इरफानी तफसीर पेश की। आपने एक अहम किताब अहयाउल-उलूम लिख कर तसव्वुफ और अहले सुन्नत के दरमियान एक राबिता क़ाइम कर दिया।
अलौकिक संगोष्ठी
पवित्र क़ुरआन दयालु ईश्वर का कथन और मानवता के लिए सभी काल में उपचारिक नुस्ख़ा रहा है। इसकी आयतों को पढ़ने से मन पर बैठी मैल दूर हो जाती है और मनुष्य जैसे जैसे तिलावत करता है वैसे वैसे आध्यात्म की सीढ़ियों पर चढ़ता जाता है।
ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता की दृष्टि में पवित्र क़ुरआन की आयतों की तिलावत इस आसमानी किताब से लगाव पैदा होने की पृष्ठिभूमि तय्यार करती है। वरिष्ठ नेता बल देकर कहते हैः क़ुरआन की तिलावत केवल रटने के लिए नहीं है बल्कि क़ुरआन अमल के लिए है, क़ुरआन पहचान व अंतर्दृष्टि के लिए है, क़ुरआन इसलिए है कि इस्लामी समाज अपने दायित्व व कर्तव्य को समझे,भ्रम से निकले, अधंकार से मुक्ति प्राप्त करे, क़ुरआन का सम्मेलन, पवित्र क़ुरआन की तिलावत, क़ुरआनी शिक्षाओं को समझने की पृष्ठिभूमिक है।
मानवता को मुक्ति दिलाने वाली इस किताब का प्रभाव सब पर एक जैसा नहीं पड़ता बल्कि पवित्र मन वाले व्यक्ति ही वास्तव में पवित्र क़ुरआन से लाभान्वित हो सकते हैं। वास्तव में क़ुरआन पवित्र लोगों के लिए है जैसा कि सूरए वाक़ेआ की आयत क्रमांक 79 में ईश्वर कह रहा हैः केवल पाक ही इसे छू सकते हैं।
इसलिए इस अथाह सागर से जो व्यक्ति संपर्क बनाना चाहता है उसे चाहिए कि वह अपनी आत्मा को पाप से पाक करे। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैः पवित्र क़ुरआन का आइने की भांति स्वच्छ मन से सामना करें ताकि हमारे मन पर क़ुरआन का प्रभाव पड़े। क़ुरआन को हमारी आत्मा में प्रतिबिंबित होना चाहिए। यह सबके लिए नहीं है बल्कि उनके लिए है जो अपने मन को पाक करें, क़ुरआन को ईमान, विश्वास तथा स्वीकार करने की भावना के साथ अपनाएं वरना जिन लोगों के मन में मैल है, जो इसे सुनना व समझना नहीं चाहते, पवित्र क़ुरआन की आवाज़ व संदेश का उनके मन पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ता।
हर वर्ष ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता की उपस्थिति में पवित्र क़ुरआन का सम्मेलन आयोजित होता है। मन को पथभ्रष्टता के अधंकार से निकालने वाले इस प्रकाशमय सम्मेलन में पूरे इस्लामी जगत से मेहमान भाग लेते हैं। इस सम्मेलन में पवित्र क़ुरआन की मधुर ढंग से तिलावत होती है। क़ुरआन के क़ारी अपनी मनमोहक आवाज़ में पवित्र क़ुरआन की तिलावत करते हैं। इस वर्ष भी यह सम्मेलन पवित्र रमज़ान की पहली तारीख़ को आधात्यमिक वातावरण में आयोजित हुआ। आयतुल्लाह ख़ामेनई ने क़ारियों द्वारा तिलावत के पश्चात भाषण दिया जिसमें उन्होंने ईश्वर पर ईमान और उससे प्रेम की जड़ों को मज़बूत करने में पवित्र क़ुरआन की तिलावत को बहुत प्रभावी बताया। इस संदर्भ में इमाम मोहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम का स्वर्ण कथन हैः क्या इस्लाम धर्म मित्रता व प्रेम से हट कर कोई चीज़ है। जी हां क़ुरआन से प्रेम, पैग़म्बरे इस्लाम और उनके पवित्र परिजनों से प्रेम ही धर्म का पालन है और यह लगाव ही मुसलमानों के मन को इस्लामी शिक्षाओं से जोड़ता है।
इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता ने कहाः फूल का रंग और उसकी भीनी सुगंध ऐसा प्रेम है जिससे मनुष्य के जीवन में उसकी गहरी आस्था का परिणाम आने लगता है। यदि ये आस्था, ये तर्कपूर्ण प्रतिबद्धताएं प्रेम व भावना के साथ होंगी उस समय जीवन व्यवहारिक रूप से क़ुरआन के आदेशानुसार होगा, निरंतर सफलताएं मिलती रहेंगी, हम इसी के तो प्रयास में हैं। यदि इस क़ुरआनी सभा में हमारा मन तर्कपूर्ण स्थिति से आगे बढ़ कर, प्यार व उमंग के रूप में क़ुरआन से निकट कर दे तो इस्लामी समाज की समस्याओं का निदान हो जाएगा, यह हमारा विश्वास है। हम केलव भावना पर निर्भर नहीं है किन्तु इसे आवश्यक मानते हैं और सौभाग्यवश हमारे समाज में पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों के माध्यम से पहुंचने वाली इस्लामी शिक्षाओं में तर्क और प्रेम दोनों का एक दूसरे से चोली दामन का साथ है।
पवित्र क़ुरआन से लगाव व्यक्ति को इस किताब की शिक्षाओं को समझने में सहायता करता है और इसकी बातों में चिंतन-मनन का अवसर मुहैया करता है। वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई का मानना है कि हर समाज की समस्या क़ुरआन के माध्यम से हल हो सकती है क्योंकि यदि एक समाज के लोग पवित्र क़ुरआन की आयतों पर चिंतन-मनन करें तो उनका व्यवहार पवित्र क़ुरआन के अनुसार हो जाएगा। वरिष्ठ नेता कहते हैः पवित्र क़ुरआन आदन की संतान को जीवन की सस्याओं के समाधान का मार्ग दिखाता है, यह पवित्र क़ुरआन का वचन है और इस्लामी काल के अनुभव से यह बात सिद्ध भी हो चुकी है। हम जितना अधिक पवित्र क़ुरआन के निकट होंगे, जितना हमारी आत्मा में, हमारे शरीर में चाहे व्यक्तिगत रूप से या सामाजिक स्तर पर क़ुरआन पर अमल अधिक होगा हम उतना ही कल्याण व समस्याओं के समाधान के निकट होते जाएंगे।
एक क़ुरआनी समाज में न्याय ही आधार है इसलिए ऐसे समाज में निर्धनता नहीं होगी। ऐसे समाज में मनुष्य की प्रतिष्ठा सुरक्षित रहेगी, ऐसे समाज की राजनीति, प्रशासन, अर्थव्यवस्था और उसके सदस्यों की आर्थिक स्थिति, बाज़ार और उसके लेन-देन सहित दूसरी हज़ारों विशेषताएं, पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं पर आधारित होंगी।
वरिष्ठ नेता का मानना है कि प्रतिष्ठा, कल्याण, भौतिक व आध्यात्मक प्रगति, नैतिक गुण, शत्रु पर जीत पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं पर अमल द्वारा प्राप्त होगी।
वरिष्ठ नेता, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में ईरान की इस्लामी क्रान्ति की सफलता को क़ुरआनी सभ्यता के गठन की पृष्टिभूमि बताते हुए कहते हैः हमारा उद्देश्य ऐसी सभ्यता की स्थापना है जिसका आधार आध्यात्म, ईश्वर, क़ुरआनी शिक्षाएं और ईश्वरीय निर्देश हों। यदि आज जागरुक हो चुके इस्लामी राष्ट्र ऐसी सभ्यता की बुनियाद रखे तो मानवता का कल्याण हो जाएगा। इस्लामी गणतंत्र ईरान और इस्लामी क्रान्ति का यही उद्देश्य है, हम ऐसी सभ्यता की स्थापना के प्रयास में हैं।
वरिष्ठ नेता का मानना है कि ऐसे समाज व सभ्यता की स्थापना केवल पवित्र क़ुरआन की शिक्षाओं पर अमल द्वारा ही संभव है। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैः हम अपने व्यवहार को क़ुरआनी व ईश्वरीय आदेशानुसार बनाएं। केवल कहने या दावा करने से काम नहीं चलेगा बल्कि व्यवहारिक रूप से इस दिशा में क़दम बढ़ाएं। क़ुरआन से प्रेम व लगा पैदा करें। क़ुरआन की तिलावत जब आप करते हैं तो जगह जगह पर आपको आदेश, निर्देश और नसीहतें मिलती हैं। सबसे पहले इन्हें मन से अपने जीवन में उतारिये इन पर अमल कीजिए। यदि हममें से हर एक इन्हें व्यवहारिक बनाने का प्रण ले ले तो समाज प्रगति करेगा और ऐसा समाज क़ुरआनी हो जाएगा।
पवित्र क़ुरआन के आदेशानुसार आगे बढ़ना और क़ुरआन के दृष्टिगत आदर्श समाज की प्राप्ति सरल काम नहीं है। भौतिक शक्तियां क़ुरआन पर अमल के मार्ग में रुकावट बन कर खड़ी हैं और आरंभ से ही इन शक्तियों ने मुसलमानों के लिए समस्याएं पैदा कर रखी हैं। वरिष्ठ नेता का मानना है कि भौतिक दृष्टि मनुष्य को मुनाफ़ाख़ोरी की ओर ले जाती है, उसे आध्यात्म से दूर कर एक अहंकारी व्यक्ति बना देती है। इस संदर्भ में वरिष्ठ नेता कहते हैः जब दृष्टिकोण भौतिक होगा, मुनाफ़ाख़ोरी पर आधारित होगा, आध्यात्म व नैतिक मूल्यों से दूर होगा, तो इसके परिणाम में सैनिक, राजनैतिक और गुप्तचर शक्ति को राष्ट्रों के शोषण के लिए प्रयोग किया जाएगा। पिछली कुछ शताब्दियों में भौतिकता की चोटी पर पहुंचने वाली पश्चिमी सभ्यता ने इससे हट कर कुछ और नहीं किया है। मानवता का शोषण किया, राष्ट्रों पर वर्चस्व जमाया, उनके ज्ञान से लाभ उठाया ताकि दूसरे राष्ट्रों की सभ्यताओं का सर्वनाश करे और राष्ट्रों की संस्कति व अर्थव्यवस्था पर क़ब्ज़ा कर ले।
वरिष्ठ नेता का मानना है कि जिस सभ्यता का आधार आध्यात्म नहीं होगा ऐसी सभ्यता में नैतिकता भी नहीं होगी। इसलिए नैतिकता केवल पश्चिम की फ़िल्मों में दिखाई देती है न कि वास्तविक पश्चिमी जगत में। वरिष्ठ नेता पश्चिम की भौतिकवाद पर आधारित सभ्यता के अमानवीय व्यवहार की ओर संकेत करते हुए कहते है यदि आपने अट्ठारहवीं, उन्नीसवीं, और बीसवीं शताब्दी की स्थिति का अध्ययन किया हो वह अध्ययन जो स्वयं पश्चिम ने पेश किया है, न कि उनके विरोधियों ने, तो आपको पता चलेगा कि इन्होंने पूर्वी एशिया में भारत में, चीन में, अफ़्रीक़ा में, अमरीका में मानवता के सिर पर कैसे कैसे अत्याचार किए हैं। राष्ट्रों के जीवन को नरक बनाया, उन्हें जला डाला केवल अपने लाभ के लिए। आज ही देखें पूर्वी एशिया के देश म्यान्मार में हज़ारों मुसलमानों का जनसंहार किया जा रहा है, यदि यह मान लिया जाए जैसा कि दावा किया जा रहा है कि यह जनसंहार धार्मिक उन्माद व अनुदारिता के कारण है, मानवाधिकार के झूठे दावेदारों के मुंह बंद हैं। वे जो पशु-पक्षियों के लिए दया की बात करते हैं, इस बार निर्दोष व निहत्थे, बच्चों, महिलाओं, व पुरुषों के जनसंहार पर मौन धारण किए हुए हैं और उसका औचित्य भी पेश कर रहे हैं। ये इनका मानवाधिकार है, ऐसा मानवाधिकार जो नैतिकता, आध्यात्म व ईश्वर से कटा हुआ है। कहते हैं ये म्यान्मारी नहीं है, ठीक है ये मान लेते हैं कि ये म्यान्मारी नहीं हैं हालांकि यह झूठ है, तीन सौ से चार सौ वर्षों से ये वहां रह रहे हैं, तो क्या इनकी हत्या कर दी जाए। इसी देश में और इसके पड़ोंसी देशों में पश्चिम विशेष रूप से ब्रितानी साम्राज्य ने वर्षों तक इन्हीं लोगों के साथ ऐसा व्यवहार अपनाया था।
वरिष्ठ नेता की दृष्टि में पश्चिमी सभ्यता ने धर्म व आध्यात्म से दूरी के कारण पूरे इतिहास में मानवता पर नाना प्रकार के अत्याचार किए हैं कि जिसका लक्ष्य केवल लाभ कमाना रहा है। पश्चिम के तड़क-भड़क भरे व्यापारिक बाज़ार की स्थापना, विश्व के लोगों से अधिक से अधिक मुनाफ़ा बटोरना के लिए रही है। यदि मुसलमान राष्ट्र पश्चिम पर निर्भर हुए बिना तथा पश्चिम की भौतिक दृष्टि दामन बचाते हुए केवल क़ुरआन पर निर्भर हो जाएं तो यहां तक कि फ़िलिस्तीन की पीड़ित जनता स्वतंत्र हो जाएगी और क़ुरआनी सभ्यता धीरे धीरे लोगों को मानवीय परिपूर्णताओं की ओर ले जाएगी। वरिष्ठ नेता कहते हैः भौतिकवाद से दूषित इस वातावरण में पवित्र क़ुरआन के अथाह आध्यात्म में सांस लेना चाहिए ताकि सांसारिक बुराइयों से पाक हो जाएं और ये इस आसमानी किताब से निरंतर लगाव के बिना संभव नहीं है।
पर्दा ही नारी की सुंदरता है
भारतीय नारी तो नारीत्व का, ममता का, करुणा का मूर्तिमान रूप है और पश्चिम कि सभ्यता औरत को एक नुमाइश कि चीज़ समझती है. आज इसी पश्चिमी सभ्यता का अनुसरण करने वाला इंसान आज पढ़ा लिखा समझदार, प्रगतिवादी कहा जाता है. जनाब ए मरियम की तस्वीर आज तक किसी ईसाई ने खुले सर तक नहीं दिखाई , लेकिन अपने घर की औरतों को मिनी और मिडी मैं रखता है. मुसलमानों मैं जनाब ए मरियम, ख़दीजा, आसिया और फ़ातेमा , का नाम बड़े इज्ज़त ओ एहतराम से लिया जाता है और इनका पर्दा भी बहुत मशहूर है लेकिन आज ना जाने कितनी मुसलिम औरतों को भी आप बेनकाब घूमते पाएंगे.
शिया मुसलमान कर्बला मैं यजीद के ज़ुल्म के खिलाफ आवाज़ उठाते है और यजीद को बुरा कहते हैं क्योंकि हुक्म ए यजीद से, रसूल ए खुदा हज़रत मुहम्मद (स.अ.व) के घर कि औरतों कि चादर छीन ली गयी थी और बेपर्दा घुमाया गया था. यह वाकेया इस बात की गवाही है की उस वक़्त मैं भी जब किसी औरत को तकलीफ पहुंचानी होती थी तो उसको पर्दा नहीं करने दिया जाता था. आज आपको यह मुसलमान औरत खुद ही बेनकाब हो के घूमती मिल जाएगी.
सर पे घूंघट का रिवाज तो हिन्दू धर्म मैं बहुत सख्त हमेशा से रहा है और आज भी सर पे पल्लू डालना शरीफ घरानों मैं पाया जाता है. मर्द कि फितरत औरत को कम कपड़ों मैं देख के उसकी तरफ खिचे चले आना और औरत का शौक कि खुद को बेह्तेर से बेह्तेर अंदाज़ मैं दूसरों को दिखाना , प्राकृतिक हुआ करता है. इस्लाम मैं औरतों के लिए हुक्म है कि गैर मर्दों को अपनी तरफ आकर्षित करने के लिए अपनी खूबसूरती का इस्तेमाल मत करो. या ऐसे कपडे ना पहनो जिससे जाने या अनजाने मैं कोई मर्द उसकी तरफ आकर्षित हो जाए.शर्म औरत का जेवर है और इस बात को हर हिजाब या पूरे कपड़ों मैं रहने वाली स्त्री जानती है.
डॉक्टर कमला सुरैया,या ‘डॉक्टर कमला दास’ —सम्पादन कमेटी ‘इलस्ट्रेटेड वीकली ऑफ़ इण्डिया’ से संबद्ध—अध्यक्ष ‘चिल्ड्रन फ़िल्म सोसाइटी’—चेयरपर्सन ‘केरल फॉरेस्ट्री बो ने कहा की "इस्लामी शिक्षाओं में बुरके़ ने मुझे बहुत प्रभावित किया अर्थात वह लिबास जो मुसलमान औरतें आमतौर पर पहनती हैं। हक़ीक़त यह है कि बुरक़ा बड़ा ही ज़बरदस्त लिबास और असाधारण चीज़ है। यह औरत को मर्द की चुभती हुई नज़रों से सुरक्षित रखता है और एक ख़ास क़िस्म की सुरक्षा की भावना प्रदान करता है।’’ ‘‘आपको मेरी यह बात बड़ी अजीब लगेगी कि मैं नाम-निहाद आज़ादी से तंग आ गयी हूं। मुझे औरतों के नंगे मुंह, आज़ाद चलत-फिरत तनिक भी पसन्द नहीं। मैं चाहती हूं कि कोई मर्द मेरी ओर घूर कर न देखे। इसीलिए यह सुनकर आपको आश्चर्य होगा कि मैं पिछले चौबीस वर्षों से समय-समय पर बुरक़ा ओढ़़ रही हूं, शॉपिंग के लिए जाते हुए, सांस्कृतिक समारोहों में भाग लेते हुए, यहां तक कि विदेशों की यात्राओं में मैं अक्सर बुरक़ा पहन लिया करती थी और एक ख़ास क़िस्म की सुरक्षा की भावना से आनन्दित होती थी। मैंने देखा कि पर्देदार औरतों का आदर-सम्मान किया जाता है और कोई उन्हें अकारण परेशान नहीं करता"
सवाल यह उठता है की क्या यह सभी धर्मो मैं औरत का पर्दा , पुरुष प्रधान समाज की देन है या इस कानून मैं कोई फ़ाएदा सच मैं है? किसी को औरत के जिस्म की नुमाइश कर के साबुन का इश्तेहार शर्मनाक लगता है तो कोई औरत अपने जिस्म की तरफ लालची निगाहों को देख के गर्व महसूस करती है. कोई मर्द ऐसा भी होता है जिसकी बीवी या बेटी को कोई ध्यान से देख ले तो उसको गुस्सा आ जाता है और कोई अपनी बीवी को सजा के अपने बॉस की दावत पे जाता है की उसका बॉस खुश हो जाए.
यहाँ एक बात सभी धर्म के लोगों मैं एक जैसी दिखी की प्रगतिवादी बनने के लिए घूंघट, पर्दा या हिजाब का त्याग उनको आवश्यक लगता है जबकि उनके बुजुर्गों के कानून और धर्म के उसूल ऐसा नहीं मानते.
मैं और किसी मज़हब के परदे के बारे मैं नहीं कहूँगा लेकिन इस्लाम मैं पर्दा कानून ना तो सख्त है, ना क़ैद और ना ही बेबुनिआद. क्योंकि इस्लाम में सही तरीके से शरीर को ढकने की सलाह दी गई है लेकिन कोई ड्रेस कोड नहीं दिया गया है। यह काले बुर्के, यह सफ़ेद टोपी वाले बुर्के, सब लोगों ने खुद से बना लिए हैं.इस्लाम में बालों और जिस्म का पर्दा है, चेहरे का पर्दा ज़रूरी नहीं. इस परदे के साथ औरत इस समाज के हर काम कर सकती है, चाहे वोह नौकरी हो या व्यापार; अगर आप को कहीं फोटो भी लगानी हो तोह हिजाब के साथ लगी जा सकती है. कुछ लोगों का मानना है परदे से स्त्री की स्वतंत्रता बाधित होती है. लेकिन हजारों दलील के बाद भी यह लोग अपनी बात को साबित करने में नाकाम रहे हैं.
मेरा तो मानना यही है प्रगति के नाम पे आज का पुरुषप्रधान समाज औरत के कपडे अपनी लज्ज़तो के लिए उतारता जा रहा है और उसको बेवकूफ बना रहा है उसके जिस्म की नुमाइश और तारीफ कर के. ना जाने क्यों हम आदिमानव युग मैं वापस लौटने को आज तरक्की का नाम दे रहे हैं? इस्लाम मैं परदे के साथ औरत ऐसा कोई काम नहीं जिसे ना कर सकती हो, चाहे वो नौकरी हो घरलू काम हाँ यह अवश्य है की वो ग़ैर मर्द को आकर्षित नहीं कर सकती.
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ईरान के समर्थन के बग़ैर 8 दिवसीय युद्ध में सफलता असंभव थी
ईरान में फ़िलीस्तीन के इस्लामी जेहाद आंदोलन के प्रतिनिधि ने 8 दिवसीय युद्ध में फ़िलिस्तीनी जनता की सफलता की ओर संकेत करते हुए कहा है कि यह सफलता इस्लामी गणतंत्र ईरान के समर्थन के बग़ैर संभव नहीं थी।
शुक्रवार को धार्मिक शिक्षा केंद्र क़ुम में एक सम्मेलन को संबोधित करते हुए नासिर अबू शरीफ़ ने कहा इस्लामी क्रांति की सफ़लता के बाद से क्षेत्र विशेषकर क्षेत्रीय आंदोलनों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हो रहे हैं और आज, इस्लामी क्रांति तथा इस्लामी जागरुकता की लोकप्रियता से ज़ायोनी शासन एवं अमरीका की नींद उड़ गई है।
ईरान में इस्लामी जेहाद आंदोलन के प्रतिनिधि ने ग़ज़्ज़ा पर इस्राईल के हालिया 8 दिवसीय आक्रमण की ओर संकेत करते हुए उल्लेख किया कि इस युद्ध में ईरान की भूमिका क़तर और तुर्की जैसे देशों के विपरीत कि जो इस भूमिका को प्रभावहीन बना देना चाहते हैं, महत्वपूर्ण एवं निर्णायक थी।
उन्होंने इसका उल्लेख करते हुए कि इस युद्ध में हमास की जीत ईरान के समर्थन के बग़ैर संभव नही थी कहा कि इस्लामी जेहाद आंदोलन ने औपचारिक रूप से ईरान की भूमिका की सराहना की और उसका आभार व्यक्त किया। s.m
अबाध्यकारी प्रस्ताव रोहिंग्या मुसलमानों की सहायता करने में अक्षम
प्रेस टीवी
ईरानी सांसद मेहरदाद लाहूती ने कहा कि संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा म्यांमार में पीड़ित मुसलमानों की स्थिति को बेहतर बनाने से संबंधित लाए गए अबाध्यकारी प्रस्तावों से मुसलमानों की स्थिति बेहतर नहीं होगी। उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ से व्यवहारिक क़दम उठाने की मांग की।
उन्होंने शुक्रवार को म्यांमार के मुसलमानों की समस्याओं के निदान में संयुक्त राष्ट्र संघ के अबाध्यकारी प्रस्तावों को निष्प्रभावी बताते हुए संयुक्त राष्ट्र संघ से पूरे विष्य में मानवाधिकार की समस्या से बिना किसी भेदभाव के निपटने की मांग की।
ज्ञात रहे 24 दिसंबर को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने म्यांमार में मुसलमानों और बौद्धधर्मियों के बीच हिंसा पर गहरी चिंता जताते हुए म्यांमार की सरकार से मानवाधिकार के उल्लंघन से निपटने की मांग की थी। इसी प्रकार महासभा ने इस संदर्भ में सर्वसम्मति से एक अबाध्यकारी प्रस्ताव भी पारित किया है।
म्यांमार में मुसलमान 1948 से कि जबसे इस देश को स्वतंत्रता मिली है, उपेक्षा,यातना, और दमन का शिकार हैं। हालिया दिनों में म्यांमार के राख़ीन राज्य में चरमपंथी बौद्धधर्मियों ने सैकड़ों मुसलमानों का जनसंहार किया और हज़ारों मुसलमानों के घर जलाकर उन्हें बेघर कर दिया।
राख़ीन में चरमपंथी बौद्धधर्मी मुसलमानों पर आए दिन हमला करते हैं और अशांत इलाक़ों में मुसलमानों के अनेक गांवों में घरों को आग लगा देते हैं।
म्यांमार सरकार अल्पसंख्यक मुसलमानों की रक्षा करने में विफल रही है जिसके लिए उसकी निंदा होती रही है।
रोहिंग्या मुसलमानों के पूर्वज तुर्क, ईरानी, बंगाली और पठान थे जो आठवी ईसवी शताब्दी में म्यांमार में बसे थे।
इतिहास रचने वाली कर्बला की महिलाएं
बहुत से महापुरुष और वे लोग जिन्होंने इतिहास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई है, उनकी सफलता के पीछे दो प्रकार की महिलाओं का बलिदान और त्याग रहा है। पहला गुट उन मोमिन और बलिदानी माताओं का है जो इस प्रकार के बच्चों के पालन पोषण में सफल हुईं। दूसरा गुट उन महिलाओं का है जो अपने पति के कांधे से कांधा मिलाकर कठिन से कठिन घटनाओं के समक्ष डट गयीं। इस प्रकार से घटना के पीछे या विभिन्न मंचों पर परोक्ष रूप से महिलाओं की भूमिका की अनदेखी नहीं की जा सकती।
इस्लामी इतिहास की अद्वितीय और अनुदाहरणीय घटना जिसने इस्लामी समाज में मूल परिवर्तन उत्पन्न कर दिया, इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का महा आन्दोलन और क्रांति है। इस पवित्र महा आन्दोलन में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने वाले गुटों में से एक महिलाओं का गुट था। इस महा आन्दोलन में महिलाओं ने दर्शा दिया कि जब भी धर्म के समर्थन, न्याय और सत्य की स्थापना की चर्चा होगी तो वे पुरुषों के कंधे से कंधा मिलाकर अपनी ऐतिहासिक और प्रभावी भूमिका निभा सकती हैं।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में महिलाओं की उपस्थिति एक प्रकार से हज़रत हमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आन्दोलन को परिपूर्णता तक पहुंचाने वाला महत्वपूर्ण कारक था और उन महिलाओं ने इस सिलसिले में अनोखी भूमिका निभाई थी। आशूर के दिन इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में यज़ीदी सेना के हज़ारों पथभ्रष्ट सैनिक कुछ गिने चुने सत्य प्रेमियों के मुक़ाबले पर आ गये। स्पष्ट सी बात है ऐसी परिस्थिति में वही व्यक्ति प्रतिरोध कर सकता है जो वीरता, साहस और ईमान के श्रेष्ठतम स्थान पर हो। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथियों में कुछ ऐसे थे जो इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के मार्ग के सही और सच्चा होने में संदेह और शंका नहीं रखते थे और कोई भी चीज़ उनको सत्य की रक्षा में बाधित नहीं कर सकती थी किन्तु दूसरा गुट आरंभ में शंका ग्रस्त था। इन लोगों में ज़ुहैर इब्ने क़ैन थे। वे आरंभ में इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की सहायता करने से दूर रहे किन्तु अपनी पत्नी दैलम बिन्ते अम्र के प्रेरित करने से इमाम हुसैन के मार्ग पर चल निकले।
ज़ुहैर इब्ने क़ैन के एक मित्र का कहना है कि हम सन 60 हिजरी क़मरी में हज करने मक्का गये। हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्लाम की ख़तरों भरी यात्रा की सूचना के दृष्टिगत, हमने इमाम हुसैन अलैहिस्लाम के कारवां से दूर ही रहने का प्रयास ताकि उनसे आमना सामना न हो जाए। जब हमारा कारवां एक पड़ाव पर पहुंचा तो इमाम हुसैन और उनके साथियों का कारवां भी वहां पहुंच गया। अभी हमने खाना खाना आरंभ ही किया था कि इमाम हुसैन अलैहिस्सला का दूत हमारे पास आया और सलाम करने के बाद उसने ज़ुहैर से कहा कि इमाम हुसैन ने तुम्हें याद किया है। यह बात सुनकर ज़ुहैर इतना आश्चर्य चकित हुए कि जो कुछ भी उनके हाथ में था ज़मीन पर गिर पड़ा। उसी आश्चर्य और मौन के वातावरण में अचानक ज़ुहैर की पत्नी की आवाज़ गूंजी,वाह-वाह क्या बात है?! पैग़म्बरे इस्लाम का नाती तुम्हें अपने पास बुला रहा है और तुम उनके पास नहीं जा रहे हो, तुम्हें क्या हो जाएगा यदि उनके पास गए और उनकी बात सुनी।
ज़ुहैर की पत्नी के शब्द ऐसी निष्ठा और दिल की गहराईयों से निकले थे कि इन्हीं एक-दो वाक्यों ने ज़ुहैर को अंदर से झंझोड़ दिया और उन्होंने इमाम हुसैन अलैहिस्लाम से भेंट की और उनके साथ हो गए।
यदि ज़ुहैर के भाग्य में ऐसी पत्नी न होती तो उन्हें ईश्वर के मार्ग में शहादत और इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के साथ रहने का गौरव प्राप्त न होता। ज़ुहैर की पत्नी ने विदाई के समय ज़ुहैर से इच्छा जताई कि वे प्रलय के दिन हज़रत इमाम हुसैन से उनकी सिफ़ारिश करेंगे।
करबला की वीर महिलाओं में से एक वहब की मां थीं। वे अपने इकलौते पुत्र वहब और अपनी बहू के साथ एक स्थान पर हमाम हुसैन के कारवां से मिलीं और उनके साथ हो गयीं। वहब की मां हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के आध्यात्मिक और मानसिक सदगुणों में ऐसा खो गयीं थीं कि उनकी सहायता के लिए उन्हें कुछ सुझाई नहीं दे रहा था। करबला में महा आन्दोलन के दिन वहब बार बार अपनी माता के उत्साह बढ़ाने और प्रेरित करने से रणक्षेत्र गये और साहस पूर्ण युद्ध किया और शहीद हो गये। उनकी माता उनके शव पर आईं और वहब के चेहरे से रक्त साफ़ करती जा रहीं थी और कह रही थीं कि धन्य है वह ईश्वर जिसने हुसैन इब्ने अली के साथ तुम्हारी शहादत से मुझे गौरान्वित कर दिया। अपने सुपुत्र की शहादत के पश्चात तंबू के स्तंभ की लकड़ी को लेकर वह शत्रु सैनिकों पर टूट पड़ीं और शहीद हो गईं। वह करबला की पहली शहीद महिला हैं।
अम्र बिन जुनादह की माता भी एक अन्य वीर और त्यागी महिला हैं जिन्होंने आशूर के दिन इतिहास में ऐसी शौर्य-गाथा रची जो कभी न भुलाई जाएगी। जब उनका पुत्र अम्र शहीद हो गया तो शत्रुओं ने उनके पुत्र के सिर को मां के पास भेजा, अम्र की माता ने जब अपने पुत्र के सिर को देखा तो उन्होंने सिर को रणक्षेत्र में फेंक दिया और कहा कि मैंने जो चीज़ ईश्वर के मार्ग में न्योछावर कर दी है उसे वापस नहीं लूंगी।
इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के महा आन्दोलन में उपस्थित वीर महिलाओं के व्यवहार और कथन से धर्म के लक्ष्यों की रक्षा में उनकी निष्ठा और महत्त्वकांक्षा के स्तर को समझा जा सकता है। इन महिलाओं ने जबकि वे अपने कांधों पर दुःखों के पहाड़ उठाए हुए थीं, पैग़म्बरे इस्लाम सलल्लाहो अलैह व आलेही वसल्लम के पवित्र नाती की सहायता की और सत्य की रक्षा की।
इन त्यागी और बलिदानी महिलाओं की मुखिया हज़रते ज़ैनब हैं। ऐसी महिला जिन्होंने हज़रत अली और हज़रत फ़ात्मा से प्रशिक्षण प्राप्त किया और ज्ञान के मोती चुने। करबला की घटना में हज़रते ज़ैनब की जिस महत्त्वपूर्ण भूमिका का उल्लेख किया जाता है वह वास्तव में उन विशेषताओं और परिपूर्णताओं का प्रकट होना है जिससे उन्होंने स्वयं को बाल्याकाल में ही सुसज्जित कर लिया था। हज़रते ज़ैनब मानसिक परिपूर्णता के उस चरण में पहुंच चुकी थीं कि करबला की घटना और तथा अपने प्रियजनों की शहादत को उन्होंने ईश्वरीय परीक्षा माना और भ्रष्ट यज़ीद के समक्ष जो उनको अपमानित करने का उद्देश्य रखता था, तेज़ आवाज़ में कहा कि यज़ीद मैंने करबला में सुंदरता के अतिरिक्त कुछ और नहीं देखा।
इस घटना में हज़रते ज़ैनब का धैर्य अद्वितीय है। ऐसे समय में कि केवल सुबह से दोपहर तक जिसके भाई,भतीजे और पुत्र शहीद हो चुके हों, वह करबला की साहसी महिला इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के पवित्र शरीर के पास खड़ी हुई। दृढ़ संकल्प और भावना से ओतप्रोत होकर कहती है कि हे ईश्वर पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों में से इस क़ुरबानी को स्वीकार कर। क्योंकि हज़रते ज़ैनब एक बड़ी ज़िम्मेदारी, महान दायित्व और उद्देश्य के बारे में सोच रही थीं। ऐसी ज़िम्मेदारी जो हज़रते इमाम हुसैन ने अपनी शहादत से पूर्व बारम्बार हज़रत ज़ैनब को सौंपा था। हज़रत इमाम हुसैने ने करबला में मौजूद महिलाओं से इच्छा व्यक्त की थी कि अपनी बुद्धि और युक्ति पर भावनाओं को वरीयता दें और अपने दायित्वों के विपरीत कोई कार्य न करें।
हज़रत इमाम हुसैन जब अपने परिजनों से विदा होकर रणक्षेत्र जा रहे थे तो उन्होंने कहा कि कठिन से कठिन परीक्षा के लिए तैयार रहो और यह जान लो कि ईश्वर तुम्हारा समर्थक और रक्षक है और तुम को शत्रुओं की उदंडता से मुक्ति देता है, तुम लोगों को भले अंत तक पहुंचाएगा और तुम्हारे शत्रुओं को विभिन्न प्रकार से प्रकोप में ग्रस्त करेगा। ईश्वर इन समस्त कठिनाइयों और मुसीबतों के बदले विभिन्न प्रकार के अनुकंपाएं देगा। शिकायत मत करना और ऐसी बातें ज़बान पर मत लाना जिससे तुम्हारी प्रतिष्ठा में कमी हो।
इस प्रकार से करबला के महा आन्दोलन का दूसरा भाग इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के बाद,इमाम हुसैन के संदेश को आगे बढ़ाने के महिलाओं के दायित्व के साथ आरंभ हुआ। इमाम हुसैन और उनके साथियों की शहादत के बाद आरंभिक क्षणों में ही लूट-खसोट मच गई और अगली सुबह दुःखी बच्चों और महिलाओं को बंदी बना लिया गया। जब शत्रुओं ने बंदी कारवां को करबला से कूफ़ा ले जाना चाहा तो उन्होंने महिलाओं को शहीदों के शवों के पास से गुज़ारा। यह दुःखी महिलाएं अपने परिजनों के शवों के पास पहुंची तो ऐसा दृश्य सामने आया जिसने कठोर से कठोर हृदय वाले व्यक्ति को भी प्रभावित कर दिया। इन प्रभावित कर देने वाले दृश्यों में से एक वह बात है जो जनाबे ज़ैनब ने अपने भाई के पवित्र शरीर से कही।
बंदियों की यात्रा के दौरान पैगम्बरे इस्लाम (स) के परिजनों में से प्रत्येक महिला ने उचित अवसरों पर भाषण दिया और लोगों वास्तविकता से अवगत कराया। जनाबे ज़ैनब के अतिरिक्त इमाम हुसैन की पुत्री हज़रत फ़ातेमा और इमाम हुसैन की दूसरी बहन उम्मे कुलसूम हर एक ने कूफ़े में ऐसा भाषण दिया कि कूफ़े के बाज़ार में हलचल मच गई और लोग दहाड़े मार कर रोने लगे। इतिहास में आया है कि कूफ़े की महिलाओं ने जब यह भाषण सुने तो उन्हें अपने सिरों पर मिट्टी डाली और अपने मुंह पर तमाचे मारे और ईश्वर से अपनी मृत्य की कामना की।
पैग़म्बरे इस्लाम के परिजनों की महिलाओं का प्रयास करबला की घटना के विवरण का उल्लेख करना था। यह विषय, जनता की भावना को भड़काने के अतिरिक्त करबला की घटना को फेर बदल से सुरक्षित रखने का कारण भी बना और इसने बनी उमैया से हर प्रकार की भ्रांति फैलाने का अवसर छीन लिया। वास्तव में महिलाओं ने अत्याचार से संघर्ष में उपयोगी शस्त्र के रूप में अपने बंदी काल का प्रयोग किया और भ्रष्ट और मिथ्याचार के चेहरे से नक़ाब उलट दी। इन महिलाओं ने इस्लामी जगत के तीन महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों कूफ़ा, सीरिया और मदीने में लोगों को जागरूक बनाने का प्रयास किया। यद्यपि इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम का महा आन्दोलन अपनी सत्यता और सच्चाई के लिए ठोस और सुदृढ प्रमाण रखता था किन्तु महिलाओं ने इस घटना के भावनात्मक आयामों की गहराई से लोगों के मन को आकृष्ट करने के लिए एक अन्य क़दम उठाया। करबला की महिलाओं ने अपने सुदृढ़ और तर्क संगत भाषणों द्वारा लोगों का सत्य के मोर्चे की ओर मार्गदर्शन किया।
पूरे विश्व में हज़रत ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जा रहा है।
आज पूरे विश्व में हज़रत ईसा मसीह का जन्म दिन मनाया जा रहा है।
हज़रत ईसा मसीह को क़ुरआने मजीद में रूहुल्लाह की उपाधि से याद किया गया है और वे हज़रत मरयम के बेटे हैं।
यहूदियों के पवित्र ग्रंथ तौरैत के अनुसार उन्होंने पुष्टि की है कि मेरे बाद एक ईश्वरीय दूत का आगमन होगा जिनका नाम अहमद होगा। याद रहे पैगम्बरे इस्लाम का एक नाम अहमद भी है।
हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म दिन पर पूरे विश्व में ईसाई धर्म के अनुयाई विशेष सामारोहों का आयोजन करते हैं जिसमें क्रिसमस ट्री ती तैयारी विशेष रूप से उल्लेखनीय है। यदयपि हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम की सही जन्म तिथि के बारे में ईसाई समुदाय में मतभेद है किंतु पहली जनवरी को सभी नया वर्ष मनाते हैं। इस्लामी गणतंत्र ईरान के संसद सभापति डाक्टर अली लारीजानी ने इस अवसर पर ईसाई देशों के संसद सभापतियों और ईरान के ईसाई समुदाय को बधाई दी है। अपने संदेश में उन्होंने ईश्वरीय दूतों के जारी अपमानों की ओर संकेत करते हुए ईश्वरीय दूतों के अपमान की प्रक्रिया पर अंकुश लगाने हेतु उचित क़ानूनी मार्ग खोजे जाने की आवश्यकता पर बल दिया है। संसद सभापति के अतिरिक्ति ईरान के अन्य वरिष्ठ अधिकारियों ने भी हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म दिन पर बधाई संदेश दिया है।
इस्लामी गणतंत्र ईरान का रेडियो व टीवी की संस्था आईआरआईबी भी अपने सभी श्रोताओं को हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम के जन्म दिवस के अवसर पर बधाई देती है।