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रविवार, 23 दिसम्बर 2012 07:26

हज़रत अली (अ) और कूफे के अनाथ

एक दिन हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने देखा किएक औरत अपने कंधे पर पानी की मश्क उठाए हुएले जा रही है आपने इस औरत से मश्क ले ली और मश्क उसके घर पहुंचा दी. पानी की मश्क उसके घर तक पहुंचाने के बाद आपने उसका हाल चाल भी पूछा.

महिला ने कहा: अली इब्ने अबी् तालिब ने मेरे पतिको कहीं काम से भेजा गया था जहां वह मार डालेगए अब में यतीम बच्चों की पालन पोषण कर रहीहूँ हालांकि उनकी सरपरस्ती और पालन पोषण मेरेबस से बाहर है हालात से मजबूर होक्रर लोगों केघरों में जाकर सेवा करती हूँ .

अली अलैहिस्सलाम यह सुन कर अपने घर वापस आ गए और पूरी रात आप नहीं सोए अगली सुबह आपनेएक टोकरी में खाने पीने का सामान रखा और औरत के घर की ओर चल पडे,, रास्ते में कुछ लोगों ने हज़रतअली अलैहिस्सलाम से अनुरोध किया कि खाने की चीजों से भरी हुई टोकरी उन्हें दे दें वह पहुँचा देंगें मगरहज़रत अली यह कहते जाते थेः

क़यामत के दिन मेरे कार्यों का बोझ कौन उठाएगा?

उस स्त्री के घर के दरवाजे पर पहुँचने के बाद आपने दरवाजा खटखटाया. महिला ने पूछा कौन है?

हज़रत ने जवाब दिया:

जिसने कल तुम्हारी मदद की थी और पानी की मश्क तुम्हारे घर तक पहुँचाई थी, तुम्हारे बच्चों के लिए खानालाया हूं, दरवाज़ा खोलो!

महिला ने दरवाजा खोला और कहा:

ईश्वर आपको ِइस काम का अच्छा बदला दे और मेरे और अली के बीच खुद फैसला करे.

हज़रत अली अलैहिस्सलाम उसके घर में दाखिल हुए और उस से कहा:

रोटी पकाओगी या बच्चों की देखभाल करोगी?

महिला ने कहा: मैं रोटी पकाने में अधिक प्रवीण हों आप मेरे बच्चों को दीख लीजिए!

महिला ने आटा गूंधा. अली अलैहिस्सलाम जो गोश्त लेकर आये थे उसको भून रहे थे और साथ साथ ख़ुरमे भीबच्चों को खिलाते जा रहे थे

आप पिदराना स्नेह के साथ कझूर, बच्चों के मुंह में रखते जा रहे थे और हर बार यही कहते जा रहे थे:

मीरे बच्चों: अगर अली ने तुम्हारे पक्ष में कोई कोताही की है तो उसे क्षमा कर दो.

जब आटा तैयार हो गया तो हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने तनूर जलाया, तनूर जला रहे थे और अपना चेहरातनूर की आग के पास बार बार ले जाकर फरमाते थे:

ऐ अली! आग का मजा चखो! यह व्यक्ति की सज़ा है जो यतीमों की ओर ध्यान ना दे. अचानक एक और औरत जो हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पहचानती थी घर में दाखिल हुई.

उसने जैसे ही आप को देखा तेजी के साथ घर की औरत के पास दौड़ती हुई गयी और कहा

यह तुम क्या कर रही हो! यह व्यक्ति मुसलमानों का अगुवा तथा देश का शासक अर्थात अली अलैहिस्सलामहैं.

 

विधवा औरत जो अपने कहे पर लज्जित थी कहने लगी:

ऐ अमीरुल मोमिनीन! मैं आपसे बहुत शर्मिंदा हूँ, मुझे माफ कर दीजीए!

हज़रत ने फ़रमाया: नहीं मैं तुमसे शर्मिंदा हूँ कि मैंने तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के पक्ष में कोताही की है.

इस समय महिलाएं सुरक्षित जीवन की दृष्टि से अतीत की तुलना में बेहतर स्थिति में हैं। इस समय महिलाएं आर्थिक क्षेत्रों में उन्हें उचित शिक्षा सुविधा प्राप्त है और अधिकांश महिलाओं को मतदान का अधिकार भी मिल गया है। वर्तमान समय में कार्यरत महिलाओं के प्रतिशत में वृद्धि हुई है। विभिन्न देशों के आर्थिक व सामाजिक विकास में उनकी भागीदारी बढ़ रही है।

वर्ष 2000 में संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने महिलाओं के सामाजिक विकास की प्रक्रिया की समीक्षा के लिए एक विशेष बैठक का आयोजन किया। इस बैठक में निर्धनता, शिक्षा, प्रशिक्षण, स्वास्थ्य व हिंसा आदि जैसी महिलाओं की 12 प्रमुख समस्याओं की ओर संकेत किया गया। सरकारों ने इस बैठक में वचन दिया था कि वे व्यवहारिक नीतियों और उचित कार्यक्रमों द्वारा समाज में महिलाओं के विकास में सहायता प्रदान करेंगी तथा महिलाओं से संबंधित समस्याओं जैसे पारिवारिक हिंसा, बाल विवाह और निर्धनता आदि से अधिक गंभीरता के साथ निपटेंगी।

इस समय महिलाओं की समस्या और उनकी भूमिका, चर्चाओं के ज्वलंत विषयों में परिवर्तित हो चुकी है। हालांकि विश्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं की स्थिति में किसी सीमा तक बेहतरी आई है किंतु आंकड़े यह दर्शाते हैं कि बीसवीं शताब्दी महिलाओं के लिए विशेषकर विकासशील देशों में बहुत अच्छी नहीं रही है।

संयुक्त राष्ट्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार महिलाओं को अपने अधिकारों की प्राप्ति के लिए अभी लंबी यात्रा पूरी करनी है। अब भी समान कार्यों के लिए महिलाओं का वेतन पुरुषों के वेतन का 50 या 80 प्रतिशत ही होता है। विश्व के 87 करोड़ 50 लाख निरक्षरों में दो तिहाई संख्या महिलाओं की है। युद्ध में विस्थापित होने वालों में 80 प्रतिशत बच्चे और महिलाएं हैं। अमरीका में हर दूसरे मिनट एक महिला से बलात्कार होता है।

स्पष्ट है कि हालिया दशकों में पश्चिम में महिलाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए कुछ प्रयास किए गए हैं किंतु यह सिक्के का एक रुख़ है। वास्तविकता यह है कि पश्चिम में अब भी महिला को प्रयोग के सामान के रूप में देखा जाता है। पश्चिमी समाजों में अनियंत्रित स्वतंत्रता, महिलाओं की मानवीय प्रतिष्ठा व सम्मान के लिए एक गंभीर ख़तरा है। इसके साथ ही इन देशों में महिलाओं और पुरुषों के मध्य प्राकृतिक अंतरों की अनदेखी से भी महिलाओं के लिए एक प्रकार का मानसिक संकट उत्पन्न हुआ है। उदाहरण स्वरूप स्वीडन में जब एक कंपनी की एक महिला कर्मचारी अपना काम बदलने के लिए जब अपने मालिक से अपील करती है और उसका मालिक अत्यंत अचरज से कहता है कि पता नहीं एसा क्यों हुआ? मैं तो कभी भी अपने कर्मचारियों के मध्य चाहे वह महिला हो या पुरुष कोई अंतर नहीं समझता बल्कि इसके बारे में कोई विचार भी मेरे मन में नहीं आता तो महिला कर्मचारी उत्तर में कहती है कि इसी कारण कि कंपनी का मालिक और पुरुष कर्मचारियों में कोई अंतर नहीं करता बल्कि इस प्रकार का विचार ही नहीं रखता मैं अपना काम छोड़ना चाहती हूं।

महिला आंदोलन कि जिस पर संचार माध्यमों के लक्ष्यपूर्ण प्रचारों के कारण विश्व में अधिक ध्यान दिया जा रहा है वह स्वयं महिलाओं के वास्तविक स्थान व सम्मान की ओर ध्यान नहीं दे रहा है। महिला आंदोलनों के परिणाम में महिलाओं में श्रेष्ठता व आक्रामक भावनाओं का विकास, पुरुषों के साथ तनाव में वृद्धि, परिवारों का विघटन और अवैध संतानों की संख्या में बढ़ोत्तरी के अतिरिक्त कुछ और नहीं निकला। पश्चिम में इस प्रक्रिया के कटु अनुभव के कारण महिला आंदोलन को बुद्धिजीवियों की ओर से आलोचना का सामना है।

मुस्लिम समाजों में भी महिलाओं की समस्याएं आम चिंता का विषय हैं। अलबत्ता यह कहा जा सकता है कि हालिया दशकों में इस्लामी देशों में महिलाओं की स्थिति पर अधिक ध्यान दिया गया है किंतु महिलाओं के बारे में जिन सामाजिक अधिकारों की रक्षा पर बल दिया जाता है वह धार्मिक शिक्षाओं से अधिक मेल नहीं खाते। इस समय भी बहुत से इस्लामी देशों में महिलाएं राजनैतिक भागरीदारी, मतदान और व्यवसाय के अधिकार से वंचित हैं बल्कि दूसरे शब्दों में इस प्रकार के कुछ देशों में महिलाओं को किनारे रखा गया है और उन्हें सेविका या बच्चे पैदा करने वाली प्राणी के रूप में देखा जाता है।

अध्ययनों से पता चलता है कि महिलाओं से संबंधित संकट, समाजों में प्रचलित व्यवस्था, मान्यताओं और शैलियों से प्रत्यक्ष रूप से जुड़ा हुआ है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार महिलाओं के लिए झूठे आदर्श और विकल्प कि जो आज के समाजों में प्रचलित हैं, महिलाओं को लक्ष्यहीनता, आत्ममुग्धता तथा पुरुषों के साथ परिणामहीन प्रतिबद्धता की ओर ले जा रहे हैं और उनकी महान मानवीय व प्रशिक्षण संबंधी भूमिका की उपेक्षा कर रहे हैं। दूसरी ओर मनुष्य के भविष्य में प्रभावी आदर्शों की पहचान निश्चित रूप से महिलाओं के आंदोलन में एक प्रभावशाली कारक हो सकती है। सकारात्मक विकल्प महिलाओं को सम्मान व प्रतिष्ठा प्रदान करते हैं और सामाजिक स्तर पर उनके प्रयासों को लक्ष्यपूर्ण व प्रभावी बनाते हैं।

इस्लाम के उच्च विचार इस प्रकार के आदेशों को पहचनवा कर महिलाओं को चरमपंथ और उद्देश्यहीनता से बचाता है। इस्लाम महिलाओं को साधन के रूप में देखने को पसंद नहीं करता क्योंकि महिलाएं अत्यधिक दया व कृपा के कारण मानव समाज के प्रशिक्षण में निर्णायक भूमिका निभाती हैं। इसी के साथ महिलाओं की शारीरिक व मानसिक परिस्थितियां उन्हें नुक़सान पहुंचाने की संभावनाओं को बढ़ाती है। इन वास्तविकताओं के दृष्टिगत महिलाओं की मनोवृत्ति व विशेषताओं पर ध्यान देने से उनका व्यक्तित्व संतुलित आधार पर स्थापित होता है और इससे उनके विकास की भूमिका बनती है।

इस्लाम अपनी शिक्षाओं में महिलाओं के स्थान को पुरुषों के समान समझता है और चूंकि इस्लाम वास्तविकता पर दृष्टि रखने वाला धर्म है। इसलिए वह महिलाओं की प्राकृतिक विशेषताओं को सभी चरणों में दृष्टिगत रखता है।

पैग़म्बरे इस्लाम की पैग़म्बरी की घोषणा के आरंभ में अस्मा नामक एक महिला पैग़म्बरे इस्लाम की पत्नी के निकट आई और उसने उनसे पूछा कि क्या क़ुरआन में महिलाओं के बारे में कोई आयत है? पैग़म्बरे इस्लाम की पत्नी ने कहा नहीं। अस्मा पैग़म्बरे इस्लाम के पास गईं और कहा कि हे पैग़म्बर! महिलाओं का बड़ा नुक़सान हुआ है क्योंकि क़ुरआन में पुरुषों की भांति महिलाओं के लिए किसी विशेषता का उल्लेख नहीं किया गया है। इसी मध्य सूरए अहज़ाब की आयत नंबर 35 उतरी। क़ुरआन की इस आयत में महिलाओं के बारे में इस प्रकार कहा गया हैः मुस्लिम पुरुष और मुस्लिम महिलाएं, ईरान वाले पुरुष और ईमान वाली महिलाएं, ईश्वर के आदेशों का पालन करने वाले पुरुष और ईश्वर के आदेशों का पालन करने वाली महिलाएं, सच बोलने वाले पुरुष और सच बोलने वाली महिलाएं, संयमी पुरुष और संयमी महिलाएं, ध्यान रखने वाले पुरुष और ध्यान रखने वाली महिलाएं, पवित्र चरित्र वाले पुरुष तथा पवित्र चरित्र वाली महिलाएं ईश्वर को अत्यधिक याद करने वाले पुरुष और ईश्वर को अत्यधिक याद करने वाली महिलाएं ईश्वर ने इन सब के लिए क्षमा व बड़ा पुरस्कार है।

इस आयत में कह बताया गया है कि सामूहिक रूप से महिलाएं, पुरुषों की ही भांति एक रचनाकार और दायित्व स्वीकार करने वाले अस्तित्व की स्वामी हैं जिन्हें परिपूर्णता के मार्ग पर अग्रसर होना चाहिए और अपनी योग्यताओं तथा क्षमताओं के अनुसार विभिन्न व्यक्तिगत और सामाजिक क्षेत्रों में भूमिका निभानी चाहिए। इस समय महिलाओं के संबंध में मौजूद मूल चुनौतियों के दृष्टिगत महत्वपूर्ण बात यह है कि महिलाओं को कौन सा मार्ग अपनाना चाहिए ताकि उनकी स्थिति पूर्ण रूप से परिवर्तित हो जाए। विशेषज्ञों का मानना है कि महिलाओं की समस्याओं के संबंध में तीनों गुटों का क्रियाकलाप अत्यंत लाभदायक और प्रभावशाली होगा।

संसार के बुद्धिजीवियों और विचारकों से आशा की जाती है कि वे वर्तमान संसार तथा महिलाओं की मानवीय क्षमताओं में आने वाले परिवर्तनों के दृष्टिगत क़ानूनों पर पुनरविचार करेंगे। दूसरा गुट उन शासकों और अधिकारियों का है जिन्हें अपने दीर्घकालीन कार्यक्रमों में महिलाओं के सांस्कृतिक, सामाजिक, आर्थिक और ज्ञान संबंधी प्रगति तथा उत्थान का मार्ग प्रशस्त करना चाहिए। तीसरा गुट स्वयं महिलाओं का है कि जिन्हें ज्ञान व विज्ञान के संबंध में प्रगति करके अपनी योग्यताओं और क्षमताओं में वृद्धि करनी चाहिए।

अब्दुल क़ाहिर बग़दादी जो पाँचवीं सदी में अहले सुन्नत के एक बुज़ुर्ग आलिम थे उन्हों ने अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से मुहब्बत के बारे में अहले सुन्नत के नज़रिये को इस तरह ब्यान किया हैः

अहले सुन्नत हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम और हज़रत इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम और पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के मशहूर फर्ज़न्द जैसे हसन बिन हसन, अब्दुल्लाह बिन हसन, हज़रत ज़ैनुल आबेदीन अलैहिस्सलाम, हज़रत मुहम्मद बाक़िर अलैहिस्सलाम, जिन को जाबिर बिन अब्दुल्लाह अन्सारी ने रसूले खुदा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का सलाम पहुँचाया और ज़ॉफर बिन मुहम्मद मारुफ़ बे सादिक़, मूसा बिन जाफ़र अलैहिस्सलाम और अली बिन मुसर्रेज़ा अलैहिस्सलाम को दोस्त रखते हैं। नीज़ अहलेबैत अलैहिस्सलाम की दीगर औलाद को जो अपने आबा ए ताहेरीन की सुन्नत पर थीं उन सब को भी दोस्त रखते हैं। (बग़दादी बग़ैर तारीख़ सफ़हा 360, 362).

बेना बर इन शियों को यह मालूम होना चाहिए कि पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से मुहब्बत करना शियों से मख्सूस नहीं है बल्की बिरादराने अहले सुन्नत भी उनको दोस्त रखते हैं। पस इस लेहाज़ से अहले बैत अलैहिमुस्सलाम की मुहब्बत मुसलमानों के अन्दर इत्तेहाद बरक़रार करने और उन्हें इख्तेलाफ़ से नेजात देने का बेहतरीन ज़रीया है।

ग़ुलात, तहरीफ़े क़ुरआन और असहाबे पैग़म्बर सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम के बारे में अइम्मा और शिया उलमा का नज़रियाः

मज़कूरा बात के मुकाबले में शियों के बारे में बाज़ अहले सुन्नत का नज़रिया व ख्याल यह हैः शिया हज़रात अहले ग़ुलू हैं। (हज़रत अली अलैहिस्सलाम और दीगर अइम्मा की उलूहियत व नबुवत के क़ायल हैं।) और क़ुरआन में तहरीफ़ के क़ायल हैं। नीज़ हज़रत पैग़म्बरे अकरम सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के तमाम असहाब को बुरा भला कहते हैं। जबकि अइम्म ए हुदा अलैहिमुस्सलाम और शिया उलमा बड़ी शिद्दत के साथ ग़ुलात की मुख़ालेफ़त करते हैं और उन्हें काफिर बताते हैं जैसा कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने इस बारे में फ़रमाया हैः

अल्लाहुम्म इन्नी बरीय मिनल ग़ुलात कब्राऐ इसा ईब्ने मर्यम मिनन नसारा अलाला हुम्म अखज़ लहुम अब्दा वला तन्सुर मिन्हुम अहदाः. ख़ुदाया मैं ग़ोलात से बेज़ार हूँ जिस तरह हज़रत ईसा अलैहिस्सलाम नसारा से बेज़ार थे, खुदाया उन्हें ज़लील कर और उन में से किसी एक की भी मदद न फ़रमा। (अल्लामा मजलिसी, जिल्द 25, सफ़हा 346).

हज़रत इमाम जाफ़रे सादिक अलैहिस्सलाम ने भी फ़रमायाः अल ग़ुलात शर्रील ख़ल्क। ग़ुलात ख़ल्क में सब से बुरे हैं। (गुज़श्ता).

शैख़ सदूक़ (मोत्वफ्फी सन 413 हिज्री) जो शियों के एक बुज़ुर्ग आलिमे दिन और मुहद्दिस हैं वह कहते हैं ग़ुलात और मकूज़ा के बारे में हमारा अकीदा यह है कि वह लोग काफिर यहूदी नसारा से भी बदतर हैं। (शैख सदूक सफहा 17, बेहवाले फर्को मज़ाहिब रबानी गुल पाऐगानी).

शैख मुफीद (मोत्वफ्फी सन 413 हिज्री) चौथी सदी के मशहूर आलिम व मुत्कल्लीम का भी गुलात के बारे में यही नज़रिया है। (शैख़ मुफीद, सफहा 109).

बेना बर इन शियों और ग़ुलात को एक ही जानना ग़ुलात के बारे में शियों के नज़रियात से बे खबरी की दलील है।

इसी तरह शिया हज़रात क़ुरआने मजीद में तहरीफ़ के क़ायल नहीं हैं। उनका अकीदा ये है की मौजूदा क़ुरआन वही है जिसे खुदा ने अपने पैग़म्बर सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर नाज़िल किया है, फज़्ल बिन शाज़ान से मौजूदा ज़माने तक तमाम शिया उलमा में कोई भी तहरीफ़े क़ुरआन का क़ायल नहीं हुआ है अगर्चेः शिया व सुन्नी दोनों के मनाबे में तहरीफ़े क़ुरआन के बारे में कुछ शाज़ो ज़ईफ़ रिवायात मौजूद हैं लेकिन किसी ने भी उन पर अमल नहीं किया है।

क़ुरआन के तहरीफ़ न होने के सिल्सिले में नमूने के तौर पर सिर्फ़ शैख़ सदूक की ईबारत नक्ल की जा रही है आप ने जिस रेसाले में शियों के अकायद के बारे में ब्यान फ़रमाया है उसमें तहरीफ़े क़ुरआन के बारे में लिखा हैः. हम शियों का अकीदा क़ुरआन के बारे में ये है, जिस क़ुरआन को खुदा वन्दे आलम ने अपने पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम पर नाज़िल फ़रमाया है, वह यही है और जो तमाम लोगों के इख्तेयार में है वह इससे ज़्यादा नहीं था और नहीं है और जो शख्स शियों की तरफ़ ये निस्बत दे कि उनका अकीदा यह है कि क़ुरआन इससे ज़्यादा था वह झूठा है. [1](शैख सदूक़ ऐतेकादातुल इमामिया ज़मीमे शर्ह बॉबे हादी अशर, बेहवाले रेसायल व मक़ालात आयतुल्लाह सुब्हानी, जिल्द 1, सफ़हा 192).

हज़रत पैग़म्बरे अकरम सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के सहाबा के बारे में शियों का नज़रिया बिल्कुल मोअतदिल और इफ़रात व तफ़रीत से ख़ाली है यानी शिया हज़रात अस्हाबे पैग़म्बर सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का ऐहतेराम करते हैं लेकिन बाज़ कुर्आनी आयात नीज़ रिवायात के मुताबिक कुछ ऐसे अस्हाब थे जो हज़रत पैगम्बर सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम की राह से मुन्हरिफ़ हो गऐ थे शिया ऐसे सहाबा के बारे में हस्सास हैं।

बिना बर इन जो कुछ ब्यान किया गया है उन से सारे अवामिल व अस्बाब नीज़ तजाविज़ खुसूसन हकायक़ को ब्यान करना और इस्लामी मज़ाहिब के अस्ली नज़रियात को ब्यान करना और हर मज़हब के साहेबे नज़र उलमा के अकायद से बाख़बर होना और इस्लामी मज़ाहिब के तमाम पैरु कारों के अकीदों को उन किताबों से ब्यान करना जिन्हें वह कुबूल करते हैं ये सारी बातों वह हैं जो मुसलमानों के दर्मियान इत्तेहाद व हम बस्तगी कायम करने में बहुत ज़्यादा कारसाज़ और मुवस्सर हैं दीनी उलमा उन हकायक़ को ब्यान करके मुसलमानों को एक दूसरे को काफिर बनाने और न पर तोहमत लगाने से बचा सकते हैं और सब को ला कर एक सफ़ में खडा कर सकते हैं।

जहाने इस्लाम में मौजूदा उलमा अपने गुज़श्ता उलमा की इक्तेदा करते हुऐ ऐसे इल्मे कलाम, फिक्ह व उसूल लिखें जो एक दूसरे से करीब और तमाम मज़ाहिब के दर्मियान मक्बूल हों, उनकी तालीम दें और एक दूसरे से कस्बे फैज़ करें। बहस व मुनाज़ेरा और गुफ्तगू को पुर खुलूस और दुस्ताना फिज़ा में अन्जाम दें जैसा की शैख़ मुफीद और काज़ी अबू बकर बाक्लानी, दुस्ताना फिज़ा में मुनाज़रे के तमाम अदब व शरायत की रिआयत करते हुए आपस में मुनाज़रे करते थे इसी लिए अहले सुन्नत के दर्मियान शैख़ मुफीद का बड़ा ऐहतेराम है जिस वक्त उन्हों ने रेहलत की तशीऐ जनाज़ा में बहुत ज़्यादा मजमा था और बड़ी शानो शौकत से जनाज़ा उठा जब की बग़दाद के अक्सर लोग अहले सुन्नत थे।

इस तरह पाँचवी सदी में शैख़ तूसी ने किताब अलख़िलाफ़ लिखी जिसमें तमाम इस्लामी मज़ाहिब के नज़रियात को ब्यान फ़रमाया और अहले सुन्नत के फाज़िल आलिम क़ौशजी ने शिया आलिमे दीन ख्वाजा नसीरुद्दीन तूसी की किताब तजरीदुल ऐतेक़ाद की शर्ह लिखी और शिया आलिमे दीन जनाब फैज़ काशानी (मुत्वफ्फी सन 1072 हिज्री) ने अहले सुन्नत के मशहूर आलिम गज़ाली की किताब अहया ए ओलूमुद्दिन की तहज़ीब व तहकीक़ की।

इसी तरह अभी दूर की बात नहीं है सय्यद जमालुद्दिन अफ़गानी, शैख़ अब्दहु, अल्लामा इक्बाल लाहौरी, शैख़ हसन अल बन्ना, (इख्वानुल मुस्लेमीन के लीडर) शैख़ महमूद शल्तूत, आयतुल्लाह बुरुजर्दी, शर्फुद्दीन आमली, शैख़ सलीम बशरी और इमाम खुमैनी ये तमाम लोग इस्लामी इत्तेहाद के अलम्बर्दार थे उन लोगों ने इस्लामी इत्तेहाद व उखूवत को बर्करार करने के सिल्सिले में कोई कसर बाकी नहीं रखी बिना बर इन बहुत मुनासिब व शाइश्ता है कि आलमे इस्लाम के मौजूदा उलमा उन लोगों की तासी करते हुए मुसलमानों के दर्मियान इत्तेहाद बर्तरार करें इस राह में रात दिन कोशिश करें और इख्तेलाफात के मन्हूस नग्मों की आवाज़ को नाबूद कर दें।

शैख़ शल्तूत का फ़तवा मज़हबे शिया की तक़लीद जायज़ः

आख़िर में हुसनु ख़ेताम के उन्वान से अल अज़हर युनिवर्सिटी के रईस शैख़ मुहम्मद शल्तूत का तारीख़ा और इत्तेहाद आफ़रीँ फत्वा नीज़ उन रिवायात को जिन को इमाम खुमैनी ने अपनी किताब रसायल में मदाराती तक़ईये की बहस में नक्ल किया है ब्यान किया जा रहा हैः

शैख़ मुहम्मद शल्तूत से ये सवाल किया गया की क्या मज़हबे शिया की तक्लीद की जा सकती है. उन्हों ने जवाब दियाः. मज़्हबे जॉफरी जो बारह इमाम के मानने वाले शियों के मज़्हब के नाम से मशहूर हैं, ऐसा मज़हब है कि जिसकी तक्लीद करना और उस पर अमल करना अहले सुन्नत के दीगर मज़ाहिब की तरह शरअन जायज़ है। पस बहुत मुनासिब है कि सारे मुसलमान मज़्हबे शिया इमामिया को पहचानें, अपने को नाहक़ तअस्सुब से नेजात दें और किसी ख़ास मज़हब के दिलदादा न बनें। (बी आज़ार शीराज़ी सन 1412 क.)

इमाम खुमैनी ने अपनी किताब रेसायल में मदाराती तक़ईये की बहस में जहाँ पर ये इस्तिदलाल किया है कि जो आमाले मुदाराती तकईये की सूरत में अन्जाम पाते हैं उन्हें दुबारा बजा लाने की कोई सूरत नहीं है इस सिल्सिले में दर्ज ज़ैल रिवायत को नक्ल किया है और उन्हें सहीह व मुवस्सक़ बताया है।

बॉब का उन्वान यह हैः फिल रिवायातुल दलालत अला सहतुस्सलात मअल आमामाः.

1. हम्माद बिन उस्मान से मर्वी है की हज़रत इमाम जॉफरे सादिक अलैहिस्सलाम ने फ़रमायाः जो उन (अहले सुन्नत) के साथ पहली सफ़ में नमाज़ पढ़ेगा गोया जनाबे रसूले खुदा सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के पीछे पहली सफ़ में नमाज़ पढ़ेगा।

उसके बाद इमाम खुमैनी फ़रमाते हैं किः इसमें ज़रा भी शक नही की पैग़म्बर सलल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम के साथ नमाज़ पढ़ना सिर्फ़ यही नहीं की सहीह है बल्की उसकी बहुत ज़्यादा फ़ज़ीलत है इसी तरह अहले सुन्नत के साथ तक़ईये की हालत में नमाज़ पढ़ने की बहुत फज़ीलत है। (इमाम खुमैनी 1385 क, सफ़हा 198).

2. अन अबी अब्दिल्लाह अलैहिस्सलाम... सल्लु फी अशाऐर हुम वअद व अम्रज़ा व अश्हदु जनाऐज़ हुमः- हज़रत इमाम जॉफरे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने अपने शियों से फ़रमायाः अहले सुन्नत के गुरोहों के साथ नमाज़ पढ़ो और उनके बीमारों की अयादत करो और उनकी तशीऐ जनाज़ा में भी शिर्कत करो। (गुज़श्ता हवाला, सफहा 195)

मनाबे व मआखज़ः

1. क़ुरआने करीम.

2. इब्ने बाबवैह, शैख़ सदूक़ मन ला यहज़रहुल फ़कीह, मोवस्ससे नश्रे इस्लामी, कुम 1414.

3. इब्ने जम्बल, अहमद, मस्नदव भाम्शा मुन्तखीब कन्ज़ुल आमाल फी सुननुन अक्वालो वल इफ्आल, दारुल फिक्र बाजा, बी ता.

4. अबू महम्मद, अब्दुल मलीक (इब्ने हश्शाम) अस्सीरते नब्वीया, तहकीक अब्दुल हफीज़ शिब्ली व दिग्रान, इन्तेशाराते इरान कुम 1363 श.

5. इमाम ख़ुमैनी रुहुल्लाहुर रेसायल, मोवस्सेसऐ इस्माइलीयान, तेहरान 1385 क.

6. बुखारी मुहम्मद बिन इस्माईल, सहीह बुखारी दारुल मारेफत बैरुत, बै ता.

7. बग्दादी अब्दुल काहिर, अल्फर्क बैनुल फर्क, तहकीक मुहीयुद्दीन अब्दुल हमाद दारीव मारेफत बैरुत बीता.

8. बनी हाशीम, सय्यद मुहम्मद हुसैन तौज़ीहुल मसायल मराजऐ दफ्तरे इन्तेशाराते इस्लामी, क़लम चापे चहारुम, 1378 श.

9. बी आज़ार शीराज़ी, अब्दुल करीम, अल वहदतुल इस्लामिया मोवस्सेसुल इलमी, बैरुत चाप दोव्वुम 1412.

10. जज़ीरी, अब्दुर्रहमान, अल फिक्हे अलल मज़ाहिबुल अर्बाः दार अहयाउल तरासुल अर्बी, बैरुत चाप, हफ्तुम 1406.

11. हन्फी इब्ने हुमाम, शर्हे फत्हुल कदीर अलीयुल हेदाया, दारुल फिक्र, बैरुत चाप दोव्वुम बे ता.

12. शैख़ सदूक़ अल ऐतेकादाते फी दीनी इमामिया.

13. शैख़ तूसी, अल्मब्सूते फी फिक्हील इमामिया, तस्हीह मुहम्मद कश्फी, अल मक्तबतुल मुर्तज़विया तेहरान, 1387 कमरी.

14. शैख़ मुफीद तस्हीहुल एतेकाद.

15. अल्लाम मजलिसी बहारुल अन्वार जिल्द 25.

16. कज़्विनी इब्ने माजा, सोनन इब्ने माजा, तहकीक मुहम्मद फ़वाद अब्दुल बाकी, दारा हयाउल तरासुल अर्बी बैरुत 1395 क़मरी,

17. कशीरी, मुस्लीम सह्ह मुस्लीम, तहकीक मुहम्मद फ़वाद अब्दुल बाकी, दारा हयातुल अर्बी बैरुत चाप अव्वल 1374 कमरी.

18. केताबुल खेसाल तहकीक़ अली अक्बर ग़फ्फारी इन्तेशारात जामऐ मुदर्रेसीन होज़ऐ इल्मिया कुम, कुम 1403.

19. कुलैनी मुहम्मद बिन याकूब उसूले काफी, तर्जुमा व शर्हे सय्यद जवाद मुस्तफ्वी, दफ्तरे नश्रे फरहँगे इस्लामी, तेहरान, बी ता.

20. मर्गीनानी, बुर्हानुद्दीनुल हदाया शर्हे बेदायतुल मुब्तदी, अल मक्तबतुल इस्लामिया. बी ता, बी जा,

21. मन्ज़री अब्दुल अज़ीम, अल्तरगीबुल तर्हीब, तहकीक़ मुस्तफा मुहम्मद उमार दार अहयाउल तरासुल अर्बी बेरुत चाप सेव्वुम 1388 कमरी.

22. मन्सूर अली शैफ नासीफ, अल्ताज आल्जामे लिल उसूले फील अहादिसीर्रसूल दारे अहयाउल तरास अल अर्बी बैरुत चाप सेव्वुम 1382 कमरी.

23. हिन्दी मुत्तकी कन्ज़ुल आमाल फी सोननुल अक्वाल वल इफआल, सहीह सफ्वतुस्सका, मोवस्सेसऐ रेसाला, बैरुत चाप पन्जुम, 1405 कमरी.

 

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[1] . कुरआन के तहरीफ़ न होने के सिल्सिले में शियों के मज़ीद नज़रियात मालूम करने के लिए आयतुल्लाहिल उज़्मा आकाऐ खुई का तफ़सीर अल्ब्यान के मुकद्दमे की तरफ रुजूअ फ़रमायें।

इत्तेहादे बैनुल मुसलेमीन अस्रे हाज़िर की सबसे बड़ी और अहम ज़रूरत है। जिससे कोई भी साहिबे अक़्ल व फ़हम इंकार नही कर सकता। तरक़्क़ी के इस दौर में जहाँ दुनिया चाँद सितारों पर कमंदें डाल के उसे पूरी तरह से तसख़ीर करने के मंसूबे बना रही है,

बाज़ तंग नज़र और कोताह फ़िक्र मुसलमान उसी फ़ितना व फ़साद में ग़र्क़ रह कर दूसरे इंसानो के इरतेक़ा की राह में रख़ना अन्दाज़ी करने में मशग़ूल हैं और मुसलसल उनकी रेशा दवानियाँ ज़ोर पकड़ती जा रही हैं। मुख़्तलिफ़ हीलों बहानों और हरबों के इस्तेमाल से वह पुराने हथियारों की रोग़न माला कर रहे हैं ताकि सीधे साधे, सादा लौह मुसलमानों को राहे हक़, राहे मुस्तक़ीम और राहे निजात से दूर रख सकें। उनके पास नये दलाएल और एतिराज़ तो हैं नही, लिहाज़ा उनही कोहना और फ़रसूदा बातों को नये लिबास से आरास्ता करके लोगों की बे इल्तेफ़ाती और बे तवज्जोही से फ़ायदा उठाने की फ़िक्र में है।

 

ज़रूरत इस बात की है कि जैसे जैसे फ़ितना परदाज़ों की दसिसा कारियों में तुन्दी और तेज़ी आ रही है वैसे वैसे हक़ परस्तों को अपनी रफ़्तार बढ़ानी होगी। उन्हे भी ख़ुद को हर तरह से आरास्ता करना होगा ताकि वक़्ते ज़रूरत मुक़ाबले में उन्हे नाकामी का सामना न करना पड़े।

 

आज सिर्फ़ बाज़ नासमझ और नादान मुसलमान ही नही बल्कि दुनिया की बड़ी बड़ी हुकुमतें, ताक़तें, शख़्सियतें इस बात के दरपै हैं कि मुसलमानों में किसी तरह से इत्तेफ़ाक़ और हमदिली की फ़िज़ा हमवार न होने पाये। इस लिये कि ये उनके मंसूबों को अमली जामा पहनने से रोकने का बाइस होगा। इसी लिये वह इस अम्र के तहक़्क़ुक़ के लिये जान व माल या साज़िश व फ़ितना, किसी भी तरह के हरबे इस्तेमाल करने से बाज़ नही आते।

 

और मुसलमानों की ये सादा लौही है कि वह उन्हे अपना दोस्त व हमदम समझते हैं जिनसे दोस्ती के लिये उन्हे क़ुरआने मजीद और अक़वाले मासूमीन (अ) में बार बार रोका गया और मना किया गया है।

 

बाज़ लोग ये ख़्याल करते हैं कि इत्तेहाद बैनुल मुसलेमीन का मतलब ये है कि हम अपने अक़ाएद व अहकाम से दस्त बरदार हो कर उनके मसलक व मज़हब को अपना ले या क़बूल कर लें और उनके मज़हब के मुताबिक़ आमाल बजा लाने लगें। ऐसा हरगिज़ नही है और अगर कोई इसका ये मतलब समझता है तो ये उसका ख़्याले ख़ाम है और कुछ नही।

 

बाज़ हज़रात ये भी कहते हैं कि हम तो इत्तेहाद करने के लिये राज़ी हैं और दिल से इत्तेहाद करना चाहते हैं मगर हमारे मुख़ालिफ़ जब इस अम्र में कोई दिलचस्पी नही लेते या हमारी तरह हमारे ख़िलाफ़ साज़िशों से हाथ नही खींचते तो हमें भी क्या ज़रूरत है कि हम उन्हे इसकी दावत दें और इस पर इसरार करें ?

 

तो मैं ऐसे लोगों और उन भाईयों से ये कहना चाहूँगा कि इसके लिये हमें भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) और मासूमीन (अ) की सीरत से दर्स लेना चाहिये और उनकी तअस्सी करना चाहिये। पैग़म्बरे इस्लाम (स) को मालूम है कि ये काफ़िर ईमान लाने वाले नही हैं मगर फिर भी आप (स) बार बार दावते तौहीद देते हैं ताकि उनके दिल अल्लाह के दीन की तरफ़ माएल हो जायें।

 

आँ हज़रत (स) के वह ख़ुतूत जो आपने अपने ज़माने के बादशाहों को तहरीर फ़रमाये हैं वह भी इसी बात का सुबूत हैं कि हक़ परस्तों को इबलाग़ में पहल और सबक़त करनी चाहिये और इस बात से मायूस नही होना चाहिये कि नतीजा क्या होगा ? पैग़म्बरे इस्लाम (स) की रेहलत के बाद एक तवील मुद्दत तक मौला ए काऍनात (अ) का सुकूत करना इस बात की अलामत थी कि इस्लाम का शीराज़ा बिखरने से बच जाये। जैसे भी हो अस्ले इस्लाम पर आँच न आने पाये आँ हज़रत (स) की मेहनत ज़ाया न होने पाये। क्या आज के मुसलमान इस्लामी फ़िरक़ो के आपसी शीराज़े को बिखरने से बचाने के लिये इतना भी नही कर सकते कि एक दूसरे की तरफ़ दोस्ती का हाथ बढ़ायें और तमाम इस्लामी फ़िरक़ व मज़ाहिब अपने इख़्तेलाफ़ात पर सुकूत अख़्तियार करके अमन व अमान के साथ मुत्तहिद हो जाये ताकि अस्ले इस्लाम बदनाम न हो।

 

क्या आज हम ऐसा नही कर सकते कि तंग नज़र व कोताह फ़िक्र मुसलमानों को जिनकी फ़िक्रें मुन्जमिद हैं या कर दी गयी हैं, आगे बढ़ कर उन्हे अपना भाई होने का यक़ीन दिलायें, वह हमारे भाई हैं, ख़ुद से क़रीब लायें, तअस्सुब की ऐनक को किनारे करें और मंतिक़ी गुफ़्तुगू और वाज़ेह दलाएल से एक दूसरे के मज़हब को समझें। मेहर व मोहब्बत से रिफ़ाक़त की फ़िज़ा ईजाद करें। ठंढे दिल व दिमाग़ और निहायत सब्र व हौसले से उनकी बातें, उनकी गुफ़्तुगू और उनकी दलीलें सुनें उसका मुनासिब और नर्मी से जवाब दें।

 

अगर वह “बदा” “तक़य्या” “मुता” “तहरीफ़े क़ुरआन” वग़ैरा पर एतिराज़ करते हैं, उन्हे बुरा समझते हैं उनके हवाले से हमारे क़ुलूब को मजरूह करते हैं, हम पर तोहमत लगाते हैं तो उसका इलाज ये है कि हम उन्हें धुतकार कर भगा दें, नही बल्कि उसका इलाज ये है कि हम उन्हे बतायें कि भाई जैसा आप समझ रहें हैं वैसा नही है। हक़ीक़त कुछ और है।

 

वह हम पर उन अक़ाएद की वजह से इल्ज़ाम व इत्तेहाम लगाते हैं मगर क्यों ? इसलिये कि उन्होनें उसे समझा नही है, हम में से किसी ने उन्हे बताया नही है वह अपने ज़ामे नाक़िस पर फ़ैसला कर लेते हैं कि ये सब बातिल है, मगर जब मज़बूत और मुतक़न दलाएल से सामना होता है तो उनमें से बहुत से लोग ऐसे भी हैं जो क़ुबूल करते हैं और हक़ परस्तों के क़ाफ़िले के सफ़ीर बन जाते हैं।

 

जब सारे इस्लामी फ़िर्क़े एक जगह पर जमा होगें और ख़ुशगवार और दोस्ताना फ़िज़ा में मुबाहिसा और मुनाज़िरा करेगें तो यक़ीनन उनके ऊपर बहुत सी बातें आशकार होगीं, जिन्हे वह उससे पहले तक नही जानते थे, ये अम्र उनकी फ़िक्र व नज़र में तबदीली या नर्मी व शिद्दत का सबब होगी। बहुत मुम्किन है कि नज़रियों का तसादुम नाब और ख़ालिस इस्लाम का चेहरा लोगों के सामने पेश कर दे।

 

वह इस्लाम जिसे आज से चौदह सौ साल क़ब्ल आँ हज़रत (स) ने पेश किया था तो दुनिया ने देखा कि ख़ूख़ाँर दरिन्दा सिफ़त अरब, जो इस्लाम से पहले दौलत, बदकारी, ज़ुल्म व सितम और क़त्ले आम का हरीस था। बाप दौलत बचाने के लिये अपने हाथों बेटी का गली दबा कर फ़ख्र से गर्दन उठाता था। एक क़बीले का ऊँट दूसरे क़बीले के सरदार के हौज़ में एक घूँट पानी पी लेता था तो चालीस साल तक इंसानी ख़ून बरसता रहता था मगर तशफ़्फ़ी न होती। क़त्ल पर सुकून न था क़ातिल मक़तूल का ख़ून पीता था। सीना चाक करके दिल व जिगर कच्चा चबाता था। आँख, कान, नाक, हाथ, पैर काट कर हार बना कर पहनता था और ख़ुश होता था और देखने वाले उसकी मदह व ताज़ीम करते थे। लेकिन यही अरब मुसलमान होकर इंसान बन जाता है। इस्लाम का नबी उजड़े मोहाजिर को मदीने के बसे हुए अंसारी का भाई बनाते हैं तो दौलत का पुजारी अरब, जो दौलत के लिये बेटी को ज़िन्दा दफ़न करता था, आज इतना बदला हुआ नज़र आता है कि मालदार अंसारी लुटे हुए मोहाजिर को अपनी आधी जायदाद की पेशकश करता है। सोचिये इस्लाम कितना बड़ा इंकेलाब लाया था। इस्लाम ने हुकूमत के बजाय इंसानी किरदार की तामीर की थी, इस्लाम का तरीक़े कार बुराई मिटाने में बुरे को मिटाना न था बल्कि बुरे को अछ्छा बना कर बुराई मिटाई जा रही थी लिहाज़ा तल्वार की ज़रूरत न थी, सीरत की ज़रूरत थी और इस्लाम यूँ इन्क़िलाब सा ला रहा था कि दिमाग़ वही थे मगर अंदाज़े फ़िक्र बदल गया था। आँखे वही थी मगर अंदाज़ बदल गया था। ज़बान वही थी मगर गुफ़्तार बदल गयी थी। क़दम वही थे मगर गफ़्तार बदल गयी थी। दिल वही थे मगर जज़्बात व मोहब्बत व नफ़रत के सोते और धारे बदल गये थे। इस्लाम ने इंसान को इंसान के बराबर कर दिया था ।

 

क्या आज के मुसलमान के दरमियान वही उख़ुव्वत और बिरादरी का रिश्ता क़ायम नही हो सकता जो आँ हज़रत (स) ने मुसलमानों के दरमियान क़ायम किया था ? क्या इस राह की शुरुआत इत्तेहाद और वहदत व हमदिली की दावत के ज़रिये मुम्किन है? या इत्तेहाद के अलावा कोई और रास्ता है जो इस मक़सद की तकमील में मोआविन साबित हो सकता हो। उसके ज़रिये से दावत दी जाये।?

 

लिहाज़ा मालूम हुआ कि आज भी इस दुखी दुनिया का इलाज इस्लाम ही है और सिर्फ़ मोहम्मद (स) का इस्लाम जिसने कल दरिन्दा सिफ़त अरब को आदमी बनाया था आज वह ख़ूँख़ार यूरोप व अमरीका को आदमी बना सकता है मगर कायनात का सबसे अज़ीम नुक़सान ये है कि वह इस्लाम आज 73 फ़िरक़ों में बटा हुआ है। इस्लाम दूसरों के दर्द का दरमान कैसे बने जो मुसलमानो का दर्दे सर बना हुआ है।

 

अफ़सोस मुसलमान कल के जाहिल अरब और आज के ख़ूँख़ार यूरोप और अमरीका की तरह दरिन्दा सिफ़त है इस पर फ़रेब ये है कि इस्लाम की तारीख़ में एक फ़िरक़े का इस्लाम दूसरे फ़िरक़े के इस्लाम के लिये ख़ूँख़ार दरिन्दा सिफ़त नज़र आ रहा है। लिहाज़ा आज अगर ऐसी कोई कोशिश की जाती है जिससे वह हक़ीक़ी और इस्लामी मालूम हो सके जो आलमे इंसानियत का निजात दहिन्दा था और है और अपने निजात दहिन्दा होने का कामयाब इम्तेहान अरब के अहदे जाहेलियत में दे चुका है तो ऐसी कोशिश तख़फ़ीफ़े असलहा की क़ाबिले क़द्र कोशिश से हज़ार गुना ज़्यादा ममदूह है औऱ फ़लाहे इंसानियत के लिये इस ज़हरीले अहद में तिरयाक़ की हैसियत रखती है ।

 

मगर ये इस्लाम मालूम न होगा जब तक इस्लाम के तमाम फ़िरक़ों की छान फटक न होगी। तहक़ीक़े मज़हब की इस मुफ़ीद और तिरयाक़ी कोशिश को जब “रवादारी” की सूली पर फाँसी दी जाती है और सच्चे इस्लाम को उजागर करने को जब “फ़िरक़ा वारियत” फैलाने का मज़मूम इल्ज़ाम दिया जाता है तो सिसकती इंसानियत की आहें बुलंद होती हैं मगर कौन दिल है जो इन आहों को सुनें। आह इंसानियत जो इंसानो के हाथों ज़िन्दा गोर है। काश तेरा हमदर्द जल्द ज़ुहूर करता।

 

लिहाज़ा गुज़िश्ता तमाम बातों के पेशे नज़र अस्रे हाज़िर में इत्तेहादे इस्लामी या इत्तेहाद बैनुल मुसलेमीन की दावत देना या इसके तहक़्क़ुक़ के लिये क़दम उठाना एक निहायत ज़रूरी और मुसतहसन काम है। इस लिहाज़ से और इस काम में पहल करने वाले इस कानफ़ेरेन्स के बानियान मुबारक बाद और शुक्रिया के मुसतहिक़ हैं।

रविवार, 23 दिसम्बर 2012 07:20

हनफी सम्प्रदाय

मज़हबे हनफी इस्लाम के पाँच बड़े मज़हब और अहले सुन्नत के चार मज़हबों मे से एक है जिसके पूरी दुनिया में मानने वाले फैले हुए हैं।

इस मज़मून (Article) में संक्षिप्त तौर पर सबसे पहले इस स्कूल के फिक़्ही नज़रियों (दृष्टिकोणों), इमाम अबू हनीफा की ज़िन्दगी और अक़ाइद पर नज़र डालेंगे।

इमाम अबू हनीफा नोअमान इब्ने साबित मशहूर बे इमाम आज़म कूफे में पैदा हुए। आपके अजदाद (पुर्वज) ईरानी नस्ल और काबुल या तिरमिज़ के रहने वाले थे। अबू हनीफा, अब्दुल मालिक इब्ने मरवाने अमवी के ज़माने में पैदा हुए और उमर इब्ने अब्दिल अज़ीज़ के ज़माने में अपने तेज़ होश और ज़ेहन की वजह से बहुत मशहूर हुए। उन्होंने खुद लिखा है कि : मैने अस्हाबे अली (अ) और अस्हाबे जनाबे उमर से इल्म (ज्ञान) हासिल करना शुरू किया था और अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास के साथियों से भी इल्म (ज्ञान) हासिल किया था। आपके मशहूर उस्तादों में हिमाद इब्ने अबी सुलैमान अशअरी हैं जो फिक़्ह के ज़बरदस्त उस्ताद थे। इमाम अबू हनीफा के शागिर्दों (शिष्यों) में अबु यूसुफ (फक़ीह), अबु अब्दिल्लाह मुहम्मद इब्ने हसन शैबानी (फक़ीह व अदीब), ज़ुफरिबनिल हज़ील और हसन इब्ने ज़ियाद लुलुई कूफी के नाम क़ाबिले ज़िक्र हैं।

अबू हनीफा की इल्मी सलाहियत और प्रतिभा उस वक़्त ज़ाहिर हुई जब उन्होंने मुस्तक़िल तौर पर फिक़्ही मज़हब की बुनियाद रखी। अलबत्ता उन्होंने अपने मज़हब के लिए कोई अलग किताब नहीं लिखी लेकिन उनके शागिर्दों (शिष्यों) ने जैसे अबु यूसुफ और मुहम्मद ने इस सिलसिले से किताबें लिखी हैं।

इमाम अबू हनीफा के मज़हब के उसूल :

इमाम अबू हनीफा का कहना है कि इस्तेन्बाते अहकाम के लिए सबसे पहले किताबे खुदा से मदद लेते हैं अगर क़ुरआन से हुक्मे शरई नहीं मिलता है तो सुन्नते पैग़म्बर (स) से इस्तेन्बात करते हैं नीज़ अस्हाब के क़ौल से फायदा उठाता हुँ और दूसरी चीज़ो को छोड़ देता हुँ, किसी और के क़ौल पर अमल नहीं करता। अबू हनीफा ने शरियत के जिन मनाबेअ (स्त्रोतों) का ज़िक्र किया है वह क़ुरआन, सुन्नत, सहाबा, मुजतहेदीन और दूसरों के इत्तेफाक़े नज़र और क़्यास (कल्पना) हैं। अलबत्ता इन चार मनाबेअ (स्त्रोतों) के बाद इस्तेहसान की नौबत आती है।

क़्यास (अनुमान) पर अमल करने की शर्तें :

हुक्मे ग़ैरे मंसूस को हुक्मे मंसूस के साथ मुश्तरका इल्लत पाए जाने की सूरत में मुल्हक़ करने को क़्यास कहते हैं।

अबु बक्र इब्ने अहमद अबी सहल सरखसी ने मज़हबे अबू हनीफा में क़्यास (अनुमान) पर अमल करने के लिए पाँच शर्तों को बताया है :

(1) हुक्मे अस्ले मक़ीस अलैह कि जिसका हुक्म किसी दूसरे नस से हासिल न हुआ हो।

(2) हुक्मे माक़ूल न हो।

(3) फरअ यानि मक़ीस मनसूस न हो।

(4) हुक्मे मक़ीस अलैह इल्लत के साबित होने के बाद अपने हाल पर बाक़ी रहे।

(5) क़्यास (अनुमान) नस के किसी शब्द से बातिल क़रार न पाए।

इमाम अबू हनीफा के फिक़्ह की विशेषताएँ :

1- इबादात व मुआमेलात में आसानी : अबू हनीफा पानी के अलावा दूसरी पानी वाली चीज़ो को भी पाक समझते हैं या मुआमेलात के सिलसिले में जिस चीज़ को किसी ने न खरीदा हो उसकी खरीद और बिक्री को जाएज़ मानते हैं इसी तरह और दूसरी चीज़ें उनकी किताबों में बयान हुई हैं।

2- ग़रीब और बेकस लोगों की मदद : अबू हनीफा के नज़दीक औरतों के ज़ेवरों पर ज़कात है क़्यो कि इससे ग़रीबों की मदद होती है। अबू हनीफा का एक और फतवा है कि जिस आदमी का क़र्ज़ उसके माल के बराबर हो उस पर क़र्ज़ अदा करना वाजिब नही है।

3- इंसान के अमल को जहाँ तक मुम्किन हो सही करना : अबू हनीफा इस सिलसिले में कहते हैं वह बच्चा कि जो अच्छे और बुरे को पहचानता हो उसका ईमान सही है। इस सिलसिले में वह अली इब्ने अबी तालिब (अ) के ईमान लाने को दलील बनाते हैं और कहते हैं जिस तरह से रसूले अकरम (स) ने बचपने में अली इब्ने अबी तालिब (अ) के ईमान को क़ुबूल किया था उसी तरह यह चीज़ दूसरी जगहों पर भी सादिक़ आता है।

4- इंसानियत और आज़ादी का एहतिराम : अबू हनीफा ने औरत को शौहर के चुनने में आज़ादी दी है और ज़बरदस्ती शादी कराने को ग़लत और ग़ैरे शरई क़रार दिया है।

5- हुक्मरानों का एहतिराम : अबू हनीफा का कहना है कि अगर किसी ने हाकिमे ज़माने की इजाज़त के बग़ैर किसी ज़मीन को ज़िन्दा किया है तो वह उसका मालिक नही बनता।

6- इल्मे फिक़्ह की क़िस्में : अबू हनीफा की नज़र में फिक़्ह की दो क़िस्में हैं (1) फिक़्हे अकबर जो एतिक़ादी उमूर जैसे ईमान, खुदा की सिफात की पहचान, नबुव्वत और मआद वग़ैरा हैं। (2) फिक़्ह इस्तेलाह जो कि अहकामे शरई के इल्म से निकला है जिसे अदल्लए तफसीलिया से हासिल किया गया हो जैसे नमाज़, रोज़ा और दूसरे फिक़ही अहकाम। वह कहते हैं कि फिक़्ही अहकाम को फिक़्हे इस्तेलाही से ही हासिल किया जा सकता है।

नुसूस पर अमल करने के सिलसिले में लिए अबू हनीफा के उसूल और क़वाएद :

अबू हनीफा केवल हदीस के रावी और हाफिज़ नही थे बल्कि उन्होंने नक़्ले हदीस के बारे में कुछ क़ाएदे भी बनाए हैं जिन्हें बाद में तरतीबुल अदिल्ला के नाम से जाना गया। कहा जाता है कि अबू हनीफा रई और क़्यास (अनुमान) के क़ाइल थे और उन्हें इमामे रई कहा जाता है लेकिन वह बिदअत को बंद करने के लिए रई को ऐसी जगह इस्तेमाल करते हैं जहाँ क़ुरआनी आयात और हदीस न हो या कई मामलों में रई को ख़बरे वाहिद पर तरजीह देते हैं।

खबरे वाहिद ऐसी रिवायत है कि जो हद्दे तवातुर तक न पहुँची हो और उसे कुछ ही लोगों ने नक़्ल किया हो। इस सिलसिले में अबू हनीफा ने कुछ उसूल बयान किए हैं जो यह हैं :

(1) भरोसे वाले लोगों की मुर्सला हदीस क़ुबूल की जा सकती है।

(2) नुसूस की तहक़ीक़ के बाद जो उसूल मुअय्यन (निर्धारित) किए गए हैं उन पर खबरे वाहिद को परखने के बाद अगर खबरे वाहिद इन उसूल के खिलाफ हो तो अबू हनीफा अपने उसूल और क़वाएद के मुताबिक़ इस खबरे वाहिद को शाज़ और नादिर क़रार देते हैं।

(3) खबरे वाहिद को ज़वाहिरे क़ुरआन पर तौलने के बाद अगर क़ुरआन की आयत की मुखालिफत हो तो आयत को तरजीह हासिल है।

(4) हदीस मुखालिफे सुन्नते मशहूर न हो ख्वाह सुन्नत अमली हो या क़ौली ताकि मज़बूत दलील पर अमल हो सके।

(5) रावी अपनी हदीस के बर खिलाफ अमल न करे।

(6) पहले के आलिमों की तरफ से रावी पर लअनत न भेजी गई हो।

(7) हुदूद और ताज़ीरात के चैप्टर में इख्तिलाफ की सूरत में आसान तरीन रिवायत पर अमल किया जाए।

(8) रावी रिवायत को याद और लिखने के बाद उसे नक़्ल करने तक भूल और फरामोशी का शिकार न हो।

हवाले (स्त्रोत) :

(1) जलवेहाई अज़ ज़िन्दगानिए अबू हनीफा, वहबी सलमान,

(2) अलखैरातुल हिसान फी मनाक़ेबिल उम्मे अबी हनीफा अहमद इब्ने मुहम्मद, इब्ने हजर हैसमी,

(3) चहार इमामे अहले सुन्नत व जमाअत, मुहम्मद रऊफ तवक्कुली,

(4) फिक़्हे ततबीक़ी मज़ाहिबे पंजगाने

एक दूसरे से पहचान की आवश्यकता

और फिर तुम में शाख़ाएं और क़बीले क़रार दिये हैं ताकि आपस में एक दूसरे को

पहचान सको।

(सूर ए हुजरात आयत 13)

इस्लाम जब आया तो आपस में लोग अलग अलग और बहुत से गिरोहों में बटे हुए ही नही थे बल्कि एक दूसरे से लड़ाई, झगड़े और ख़ून ख़राबे में लगे रहते थे मगर इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर आपसी शत्रुता और एक दूसरे से दूर होने के स्थान पर मेल जोल और शत्रुता के स्थान पर एक दूसरे की सहायता और सम्बंध तोड़ने की बजाए निकटता पैदा हुई और इसका परिणाम यह हुआ कि इस्लामी शासन एक महान राष्ट्र के रूप में सामने आया।

जिसने उस समय महान इस्लामी संस्कृति व सभ्यता को प्रस्तुत किया और इस्लाम से सम्बंधित गिरोहों को हर अत्याचारी से बचा लिया और उनका समर्थन किया। जिस के आधार पर यह राष्ट्र दुनिया के समस्त राष्ट्रों में आदरणीय एंव सम्मानित करार पाया और अत्याचारियों के सम्मुख रोब व दबदबे और भय के साथ प्रकट हुवा।

परन्तु यह सब चीज़ें वुजूद में नही आयीं मगर इस्लामी राष्ट्र के मध्य आपस की एकता व भाईचारगी और समस्त गिरोहों का एक दूसरे से सम्बंध रखने के आधार पर जो कि इस्लाम धर्म की छाया में प्राप्त हुवा था, हालाँकि इन की नागरिकता, मत, संस्कृति व सभ्यता, पहचान और अनुसरण में भिन्नता थी। यद्धपि सिद्धांतों व मौलिक उत्तरदायित्तों में समानता व एकता पर्याप्त सीमा तक मौजूद थी। निसंदेह एकता, शक्ति और विरोध व विभिन्नता कमज़ोरी का कारण है।

अस्तु यह समस्या इसी प्रकार प्रचलित रही यहाँ तक कि एक दूसरे से जान पहचान और आपसी मेल जोल के स्थान पर विरोध व लडाई झगडे और एक दूसरे के समझने का स्थान घृणा ने ले लिया और एक गिरोह दूसरे गिरोह के बारे में कुफ़्र के फ़तवे देने लगा इस प्रकार फ़ासले पर फ़ासले बढ़ते गये। जिसकी वजह से जो रहा सहा सम्मान व आदर था वह भी विदा हो गया और मुसलमानों की सारी वैभव व प्रतिष्ठा समाप्त हो गई और सारा रोब व दबदबा जाता रहा और हालत यह हुई कि प्रलय की ध्वजावाहक राष्ट्र अत्याचारियों के हाथों तिरस्कार व अपयश होने पर मजबूर हो गया। यहाँ तक कि उनके विकास एंव उन्नति के दहानों में लोमड़ी और भेड़िये सिफ़त लोग विराजमान हो गए। यही नही बल्कि उनके घरों के अँदर समस्त प्रकार की बुराईयाँ, और दुनिया के सबसे बुरे और ख़राब लोग घुस आये। परिणाम यह हुआ मुसलमानों का सारा धन व वैभव लूट लिया गया और उनकी पवित्र स्मृतियों व धार्मिक कृत्यों का अपमान होने लगा और उनका मान व उनकी मर्यादा दुराचारियों और पापियों के उपकार के अधीन हो गई और निम्नता के बाद निम्नता और असफलता के बाद असफलता होने लगी। कहीं अंदुलुस में खुली हुई असफलता का सामना हुआ तो कहीं बुख़ारा और समरकंद, ताशकंद, बग़दाद, भूतकाल और वर्तमान काल में फ़िलिस्तीन और अफ़ग़ानिस्तान में असफलता पर असफलता का सामना करना पड़ा है।

और स्थिति यह हो गई कि लोग सहायता के लिये बुलाते थे परन्तु कोई उत्तर देने वाला नही था, दुहाई देने वाले थे मगर कोई उनकी दुहाई सुनने वाला नही था।

ऐसा क्यों हुआ, इसलिये कि बीमारी कुछ और थी दवा कुछ और, ईश्वर ने समस्त कामों की बागडोर उनके ज़ाहिरी कारणों पर छोड़ रखी है, क्या इस राष्ट्र का संशोधन उस चीज़ के अतिरिक्त किसी और चीज़ से भी हो सकता है कि जिससे आरम्भ में हुवा था?

आज इस्लामी राष्ट्र अपने विरूद्ध किये जाने वाले समाजी, सैद्धांतिक और एकता विरोधी सबसे कठोर और भयानक आक्रमण से जूझ रही है, धार्मिक मैदानों में अंदर से विरोध किया जा रहा है, मार्ग दर्शन से सम्बंधित प्रयासों को मतभेदी चीज़ों के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है और यह प्रहार ऐसा है कि इसके बुरे परिणाम प्रकट होने वाले हैं, क्या ऐसे अवसर पर हम लोगों के लिये उचित एंव उत्तम नही है कि अपनी एकता की कतारों को सन्निकट रखें और आपसी सम्बंधों को स्थावर व मज़बूत करें? हम मानते हैं कि यद्धपि हमारी कुछ प्रथाएं व परम्पराएं अलग अलग हैं मगर हमारे मध्य बहुत सी चीज़ें ऐसी हैं जो एक और संयुक्त हैं जैसे किताब व सुन्नत जो कि हमारा केंद्र और स्रोत हैं, वह संयुक्त चीजें हैं तौहीद अर्थात एकेश्वरवाद व नबुव्वत अर्थात ईशदौत्य, अंतत अर्थात प्रलोक जिन पर सब का विश्वास है, नमाज़ व रोज़ा, हज व ज़कात अर्थात धर्मदाय, जिहाद अर्थात धर्मयुद्ध और हलाल व हराम अर्थात वैध व अवैध यह सब धर्म के आदेश हैं जो सब के लिये एक और संयुक्त है, नबी ए अकरम (स) और उनके अहले बैत (अ) से प्रेम और उनके दुश्मनों से घृणा करना हमारे संयुक्त कर्तव्यों में से हैं। यद्धपि इसमे कमी व ज़ियादती ज़रुर पाई जाती है, कोई अधिक प्रेम और शत्रुता का दावा करता है और कोई कम, परन्तु यह ऐसा ही है जैसे कि एक हाथ की समस्त उँगलियाँ अंत में एक ही जगह (जोड़ से) जाकर मिलती हैं, हालाँकि यह लम्बाई व चौडाई और रूप में एक दूसरे से विभिन्न हैं या उसका उदाहरण एक शरीर जैसा है, जिसके अवयव व अंग विभिन्न होते हैं, मगर मानवी स्वभाव के अनुसार शारीरिक ढांचे के अंदर हर एक की भूमिका भिन्न भिन्न होती है और उनकी शक्लों में विरोध व विभिन्नता पाई जाती है, मगर इसके बावजूद एक दूसरे के सहायक होते हैं और उनका संग्रह एक ही शरीर कहलाता है।

चुनाँचे असंभव नही है कि इस्लामी राष्ट्र की उपमा जो एक हाथ और एक शरीर से दी गई है इस में इसी वास्तविकता की ओर इशारा किया गया हो।

गत में विभिन्न इस्लामी समुदायों और धर्मों के विद्धान एक दूसरे के साथ बग़ैर किसी विरोध व विभिन्नता के जीवन व्यवतीत करते थे बल्कि सदैव एक दूसरे की सहायता किया करते थे, यहां तक कि कुछ ने एक दूसरे के अक़ायदी या फ़िक़ही किताबों के शरह अर्थात व्याख्या तक की है और एक दूसरे से शिष्ता का सम्मान प्राप्त किया, यहाँ तक कि कुछ तो दूसरे की सम्मान के आधार पर खडे हुए हैं और एक दूसरे के मत का समर्थन करते थे, कुछ कुछ को रिवायत बयान करने की अनुमति देते या एक दूसरे से रिवायत बयान करने की अनुमति लेते थे ताकि उनके समुदाय और धर्म की किताबों से रिवायत नक़्ल कर सकें और एक दूसरे के पीछे नमाज़ पढ़ते थे, उन्हे इमाम बनाते, दूसरे को ज़कात अर्थात धर्मदाय देते, एक दूसरे के धर्म को मानते थे, सारांश यह कि समस्त गिरोह बड़े प्यार व प्रेम से एक दूसरे के साथ ऐसे जीवन व्यवतीत करते थे, यहाँ तक कि ऐसा आभास होता था कि जैसे उनके मध्य कोई विरोध व विभिन्नता ही नही है, जबकि उन के मध्य आलोचनाएं और आपत्तियां भी होती थीं परन्तु यह आपत्तियां व आलोचनाएं सभ्य व सुशील शैली में किसी ज्ञानात्मक तरीक़े से रद्द होती थी।

इस के लिये जीवित और इतिहासिक तर्क व प्रमाणक मौजूद हैं, जो इस गहन और विस्तृत सहायता पर दलालत करते हैं, मुस्लिम विद्धानों ने इसी सहायता के द्वारा इस्लामी संस्कृति व सभ्यता और सम्पित को तृप्त किया है, उन्ही चीज़ों के द्वारा धार्मिक स्वतंत्रा के मैदान में उन्होने आश्चर्यजनक उदाहरण स्थापित किए हैं बल्कि वह इसी सहायता के द्वारा दुनिया में सम्मानित हुए हैं।

यह कठिन समस्या नही है कि मुस्लिम विद्धान एक जगह जमा न हो सकें और संधि व सफ़ाई से किसी मसअले में वादविवाद व तर्क वितर्क न कर सकें और किसी मतभेदी मसअले में निःस्वार्थता व सच्चे संकल्प के साथ मनन चिन्तन न कर सकें, तथा हर गिरोह को न पहचान सकें।

जैसे यह बात कितनी उचित और सुंदर है कि हर समुदाय अपने धार्मिक सिद्धांतों और फ़िक़ही व बौद्धिक दृष्टिकोण को स्वतंत्रता पूर्वक स्पष्ट वातावरण में प्रस्तुत करे, ता कि उनके विरूद्ध जो मिथ्यारोपण, विरोध व आपत्ति, शत्रुता और अनुचित जोश में आने के, जो कार्य कारण बनते हैं वह स्पष्ट व रौशन हो जायें और इस बात को सभी जान लें कि हमारे मध्य संयुक्त और मतभेदी मसायल क्या हैं ता कि लोग उस से जान लें कि मुसलमानों के मध्य ऐसी चीज़ें अधिक हैं जिन में सब समान है और उनके मुक़ाबले में मतभेदी चीज़ें कम हैं, इससे मुसलमानों के मध्य मौजूद विरोध व विभिन्नता और फ़ासले कम होगें और वह एक दूसरे के निकट आ जायें।

यह लेख इसी रास्ते का एक क़दम है, ता कि वास्तविकता रौशन हो जाये और उस को सब लोग अच्छे प्रकार पहचान लें, निः संदेह ईश्वर क्षमता देने वाला है।

1. वर्तमान युग में शिया समुदाय मुसलमानों का बड़ा समुदाय है, जिसकी कुल संख्या मुसलमानों की प्रायः एक चौथाई है और इस समुदाय की इतिहासिक जड़ें सदरे इस्लाम के उस दिन से शुरु होती हैं कि जिस समय सूर ए बय्यनह की यह आयत अवतीर्ण हुई थी:

(सूर ए बय्यना आयत 7)

निः संदेह जो लोग विश्वास लाये और अमले सालेह अर्थात अच्छे कार्य अंजाम दिया वही सर्वश्रेष्ठ व उत्तम प्राणी हैं।

चुनाँचे जब यह आयत अवतीर्ण हुई तो रसूले इस्लाम (स) ने अपना हाथ अली (अ) के शाने पर रखा उस समय सखागण व मित्रगण भी वहाँ मौजूद थे और आपने फ़रमाया:

ऐ अली, तुम और तुम्हारे शिया सर्वश्रेष्ठ व उत्तम प्राणी हैं।

इस आयत की व्याख्या के निम्न में देखिये, तफ़सीरे तबरी (जामेउल बयान), दुर्रे मंसूर (तालीफ़, अल्लामा जलालुद्दीन सुयुती शाफ़ेई), तफ़सीरे रुहुल मआनी तालीफ़ आलूसी बग़दादी शाफ़ेई।

इसी वजह से यह समुदाय जो कि इमाम जाफ़रे सादिक़ (अ) की फ़िक़ह में उनका अनुगामी होने के आधार पर उनसे सम्बंधित है। शिया समुदाय के नाम से प्रसिद्ध हुआ।

2. शिया समुदाय बड़ी संख्या में ईरान, इराक़, पाकिस्तान, हिन्दुस्तान, में जीवन व्यवतीत करता है, इसी प्रकार उस की एक बड़ी संख्या खाड़ी देशों तुर्की, सीरिया (शाम), लेबनान, रूस और उससे अलग होने वाले बहुत से नये देशों में मौजूद हैं, तथा यह समुदाय यूरोपी देशों जैसे इँगलैंड, फ़्रास, जर्मनी और अमेरिका, इसी प्रकार अफ़्रीक़ा के देशों और पूर्वी एशिया में भी फ़ैला हुआ है, उन स्थानों पर उनकी मस्जिदें और ज्ञानात्मक, सांस्कृतिक और समाजी केंद्र भी हैं।

3. इस समुदाय के लोग यद्धपि विभिन्न देशों, राष्ट्रों और रंग व वंश से सम्बंध रखते हैं परन्तु इसके बावजूद अपने दूसरे मुसलमान भाईयों के साथ बड़े प्यार व प्रेम से रहते हैं और समस्त सरल या कठिन मैदानों में सच्चे दिल और निःस्वार्थता के साथ उनकी सहायता करते हैं और यह सब ईश्वर के इस आदेश पर अमल करते हुए इसे अंजाम देते हैं:

(सूर ए हुजरात आयत 10)

मोमिनीन अर्थात आस्तिक आपस में भाई भाई हैं।

या इस ईश्वर के कथन पर अमल करते हैं:

नेकी और तक़वा अर्थात आत्मनिग्रह में एक दूसरे की सहायता करो।

(सूर ए मायदा आयत 2)

और ईश्वर के रसूल (अ) के इस कथन की पाबंदी करते हुए:

1. (.................................................)

(मुसनदे महत्वपूर्णद बिन हम्बल जिल्द 1 पेज 215)

मुसलमान आपस में एक दूसरे के लिये एक हाथ के प्रकार हैं।

()

या आपका यह कथन उन के लिये मार्ग दर्शन है:

2. (...................................................)

मुसलमान सब आपस में एक शरीर के प्रकार हैं।

(अस सहीहुल बुख़ारी, जिल्द 1 किताबुल साहित्य पेज 27)

4. पूरे इस्लामी इतिहास में ईश्वरीय धर्म और इस्लामी राष्ट्र की प्रतिक्षा के बारे में इस समुदाय की एक महत्वपूर्ण और स्पष्ट भूमिका रही है जैसे उसकी हुकुमतों, रियासतों ने इस्लामी संस्कृति व सभ्यता की सदैव सेवा की है, तथा इस समुदाय के विद्धानों और बुद्धिजीवियों ने इस्लामी सम्पित को धनी बनाने और बचाने के बारे में विभिन्न ज्ञानात्मक और प्रायोगिक मैदानों में जैसे हदीस, तफसार, धार्मिक सिद्धांत, फ़िक्ही सिद्धांत, नैतिक, देराया, रेजाल, दर्शन शास्त्र, उपदेश, शासन, सामाजिक कार्य, भाषा व साहित्य बल्कि चिकित्सा व भौतिक विज्ञान रसायन विज्ञान, गणित, ज्योतिष और उसके अतिरिक्त बहुत ज्ञानों के बारे में लाख़ों किताबें लिखके इस बारे में बहुत महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है बल्कि बहुत से ज्ञानों का आधार रखने वाले विद्धान इसी समुदाय से सम्बंध रखते हैं।[1]

5. शिया समुदाय विश्वस्नीय है कि ईश्वर अहद व समद अर्थात एक व निःसपृह है, न उसने किसी को जना है और न उसे किसी ने जन्म दिया है और न ही कोई उसका समकक्ष है और उससे जिस्मानियत, दिशा, स्थान, समय, परिवर्तन, गतिविधि, उतार व चढाव आदि जैसी विशेषताएं जो उसकी महिमा, गौरव व सुंदरता के अनुकूल नही हैं, उनको नकारता है।

और शिया यह विश्वास रखते हैं कि उसके अतिरिक्त कोई पूज्य एंव उपास्य नही है, आदेश और तशरीअ (धर्म शास्त्र के क़ानून बनाना) केवल उसी के हाथ में है और हर प्रकार का शिर्क अर्थात अनेकेश्वरवाद चाहे वह गुप्त हो या प्रकट, एक महान अत्याचार और एक अक्षम्य पाप है।

और शियों ने यह धार्मिक सिद्धांत: शुद्ध बुद्धि से प्राप्त किये है,जिनका पुष्ठि ईश्वर की किताब और सुन्नते शरीफ़ से भी होती है।

और शियों ने अपने धार्मिक सिद्धांतों के मैदान में उन हदीसों पर भरोसा नही किया है जिन में इसराईलियात (जाली तौरेत और इंजील) और मजूसीयत की गढी हुई बातों का मिश्रण है, जिन्होने ईश्वर को इंसान के प्रकार माना है और वह उसकी उपमा मख़लूक़ अर्थात सृष्टि से देते हैं या फ़िर उसकी ओर अत्याचार और व्यर्थ व निष्क्रय जैसे कार्यों को उससे जोडते हैं, हालाँकि ईश्वर इन समस्त बातों से अत्यन्त उच्च व त्रेष्ठ है या यह लोग ईश्वर के पवित्र, मासूम अर्थात निर्दोष नबियों की ओर बुराईयों और कुरूप बातों की निस्बत देते हैं।

6. शिया विश्वास रखते हैं कि ईश्वर न्यायशील व नीतिज्ञ है और उसने न्याय व नीति से पैदा किया है, चाहे वह निश्चल हो या वनस्पति, पशु हो या मानव, आकाश हो या धरती, उसने कोई चीज व्यर्थ नही पैदा की है, क्योकि व्यर्थ (फ़ुज़ूल या बेकार होना) न केवल उसके न्याय व नीति के विरूद्ध है बल्कि उसके ईश्वरत्व के भी विरूद्ध है जिसका लाज़िमा है कि ईश्वर के लिये समस्त उपलब्धियों को प्रमाणित किया जाये और उससे हर प्रकार के अभाव और कमी को नकारा जाये।

7. शिया यह विश्वास रखते हैं कि ईश्वर ने न्याय व नीति के साथ प्रकृति के आरम्भ से ही उसकी ओर अंबिया अर्थात ईशदूतों और रसूलों को मासूम अर्थात निर्दोष बना कर भेजा और फिर उन्हे विस्तृत ज्ञान से सुसज्जित किया जो वही अर्थात ईस्वरीय वाणी के द्वारा ईश्वर की ओर से उन्हे प्रदान किया गया और यह सब कुछ इंसान के मार्ग दर्शन और उसे उसकी खोई हुई सुंदरता तक पहुचाने के लिये था ता कि उसके द्वारा ऐसे आज्ञा पालन की ओर भी उसका मार्ग दर्शन हो जाये जो उसे स्वर्गीय बनाने के साथ साथ प्रतिपालक की प्रसन्नता और उसकी कृपा का पात्र क़रार दे और उन अंबिया अर्थात ईशदूतों के मध्य आदम, नूह, इब्राहीम, मूसा, ईसा और हज़रत मुहम्मद मुसतफ़ा (स) सबसे प्रसिद्ध हैं जिनका वर्णन क़ुरआने मजीद में आया है या जिन के नाम और विशेषताएं हदीसों में बयान हुई हैं।

रविवार, 23 दिसम्बर 2012 07:19

तहाविया सम्प्रदाय

अहले सुन्नत के मूल धार्मिक सिद्धात में सुधार की प्रतिक्रिया और उस का नारा, चौथी शताब्दी में, तीन विद्धानों के ज़रिये बुलंद किया गया, जिन में से एक अबू जाफ़र तहावी हैं।

आप का नाम अहमद बिन मुहम्मद बिन सलाम अल अज़दी अल हजरी, कुन्नियत अबू जाफ़र और उपाधी तहावी है। आप का देहांत तीन सौ इक्कीस हिजरी क़मरी में हुआ।

मिस्र के एक गांव तहा में आप का जन्म हुआ। इतिहास कारों के अनुसार आप की पैदाइश 229, 230, 238 या 239 हिजरी क़मरी में हुई।

तहावी को हदीस शास्त्र और धर्म शास्त्र पढ़ने का ज़्यादा शौक़ था। यही कारण है कि आप का शुमार उस के ज़माने के बड़े मुहद्देसीन (हदीस शास्त्रीय) व फ़ुक़हा में होता है। तहावी शुरु में हनफ़ी मज़हब के अनुयाई थे, इस बात के कई कारण बयान किये गये हैं, जिन में से शायद सब से बेहतर यह है कि इमाम अबू हनीफ़ा की राय में इमाम शाफ़ेई के मज़हब के बारे में जो ग़लत धारणा थी वह उसे पसंद करते थे।

वह बहुत सी महत्व पूर्ण किताबों के लेखक हैं, नीचे उस का व्योरा दर्ज किया जा रहा है:

1. मआनिल आसार की शरह

2. रसूलल्लाह (स) के कठिन कथनों की शरह

3. अहकामुल क़ुरआन

4. इख़्तिलाफ़ुल फ़ुक़हा

5. अन नवादुरुल फ़िक़हीया

6. अश शुरुतुल कबीर

7. अश शुरुतुल औसत

8. अल जामेउस सग़ीर की शरह

9. अल जामेउल कबीर की शरह

10. अल मुख़्तसरुस सग़ीर

11. अल मुख़्तरुस कबीर

12. मनाक़िबे अबू हनीफ़ा

13. तारीख़ुल कबीर

14. किताब अल मुदलेसीन का जवाब

15. किताबुल फ़रायज़

16. किताबुल वसाया

17. हुकमे आराजिये मक्का

18. किताबुल अक़ीदा

तहावी ने इल्मे कलाम में भी एक मुख़्तसर किताब लिखी है जिस का नाम बयानुस सुन्नह वल जमाअह है। जो अक़ीद ए तहावी के नाम से मशहूर है वह उस के मुक़द्दमें में लिखते हैं: इस किताब में अहले सुन्नत वल जमाअत के अक़ायद को अबू हनीफ़ा, अबू युसुफ़ और मुहम्मद शैबानी के दृष्टिकोण के अनुसार बयान किया जायेगा।

तहावी का मक़सद (लक्ष्य) अबू हनीफ़ा के अक़ाइद की तौजीह व तशरीह करना या नई दलीलें क़ाइम कर के इल्मे कलाम के क़दीमी मसाइल को हल करना नही था बल्कि उन क मक़सद सिर्फ़ यह था कि वह अबू हनीफ़ा के नज़रियात का ख़ुलासा (संक्षिप्त) बयान करें और उसे अहले सुन्नत वल जमाअत के अक़ीदे व नज़रियात के मुवाफ़िक़ साबित करें।

तहावी का मातरीदी से इख़्तिलाफ़, जब कि दोनों ही हनफ़ी फ़िक़ह के बड़े आलिमों में शुमार होते हैं, पूरी तरह से वाज़ेह और रौशन है।

तहावी, अहले सुन्नत वल जमाअत के सच्चे असहाब में शुमार होते हैं। वह उसूले ईमान के बारे में अक़ली बहस व नज़री फ़िक्र व विचार के मुवाफ़िक़ न थे बल्कि उसूले ऐतेकाद को बग़ैर किसी चूं चरां के कब़ूल करने को तरजीह देते थे और उन की तसदीक़ व ताईद करते थे। उन के अक़ाइद में उन के बहस करने की तकनीक, उस के स्रोत व मारेफ़त के कारणों या अक़ाइद व कलाम बुनियादी व मूल सिद्दातों में उन के दृष्टिकोणों की तरफ़ कोई इशारा नही किया गया है। यही वजह है कि हम कह सकते हैं कि उन की विचार धारा यक़ीनी है जब कि मातरीदी की विचार धारा इंतेक़ादी है। यह वही विचार धारा है जिस की वह हदीस शास्क्ष में पैरवी करते हैं मगर अक़ाइद व कलाम में यह देखने में नही आती। और इसके बा वजूद कि मातरीदी व तहावी दोनो का ताअल्लुक़ एक ही सम्प्रदाय और मज़हब से हैं और दोनो ख़ुलूसे नीयत के साथ अपने उस्ताद की राय और उन के दृष्टिकोण की पैरवी करते हैं, मगर दोनों की आदत व अख़लाक़ व सदाचार, दृष्टिकोण व विचार धारा एक दूसरे से काफ़ी अलग है।

कहने का तात्पर्य यह है कि तहावी ने इल्मे कलाम व अक़ाइद में किसी नये सिद्धात या उसूल की बुनियाद नही रखी है बल्कि उन्होने बड़ी सच्चाई और ईमानदारी से अपने उस्ताद के अक़ायद व कलाम से मुतअल्लिक़ निहायत ही महत्वपूर्ण मसाइल को अपनी ज़बान में ख़ुलासा कर के बयान किया है।

वास्तव में तहावीया इल्में अक़ाइद व कलाम का कोई नया सम्प्रदाय नही है बल्कि अबू हनीफ़ा के अक़ायद पर आधारित विचार धारा का दूसरा रुप है। तहावी के दृष्टिकोण का महत्व इस बात में हैं कि उन्होने अपने उस्ताद के नज़रियात व दृष्टिकोण अच्छी तरह से बयान किया है। उन्होने अपने उस्ताद से शक व शंकाओं को दूर करने के मामले में भी मातरीदी की तरह किरदार अदा किया है। इल्मे अक़ायद व कलाम में तहावी के प्रभाव को अक़ाइद में उन के लिखे हुए कई लेखों से समझा जा सकता है।

स्रोत

1.तारीख़े फ़लसफ़ा दर जहाने इस्लाम भाग 1 पेज347

2. फ़ेहरिस्ते इब्ने नदीम पेज 292

3. तारीख़े फ़लसफ़ा दर इस्लाम भाग 1 पेज 348, 349, 360, 361

4. फ़िरक़ व मज़ाहिबे कलामी पेज 242

ईरान की सरकारी प्रसारण संस्था आईआरआईबी के विदेशी सेवा विभाग के प्रमुख डाक्टर मोहम्मद सरअफ़राज़ ने कहा है कि ईरान, अमरीका तथा यूरोपीय देशों की ओर से ईरानी मीडिया पर हो रहे हमलों के जवाब में क़ानूनी कार्यवाही करेगा।

डाक्टर सरअफ़राज़ ने अमरीकी प्रतिनिधि सभा की ओर से ईरानी मीडिया पर लगाए गए नए प्रतिबंधों तथा ठीक इसी समय इस्राईल के लिए भारी सामरिक सहायता की स्वीकृति पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा कि इस प्रकार की कार्यवाहियों से पश्चिमी सरकारों का वास्तविक चेहरा सामने आ जाता है। उन्होंने कहा कि यह सरकारें ईरानी मीडिया की आवाज़ को दबा देना चाहती हैं।

ज्ञात रहे कि स्पेन की सैटेलाइट प्रोवाइडर कंपनी हिसपनसैट ने ईरान के प्रेस टीवी तथा हिसपन टीवी के प्रसारण को शुक्रवार से रोक दिया है।

डाक्टर सरअफ़राज़ ने कहा कि एक ओर ईरानी मीडिया पर प्रतिबंध लगाना और दूसरी ओर इस्राईल के मीज़ाइल सिस्टम को लाखों डालर की रक़म उपलब्ध कराना यह दर्शाता हे कि मीडिया की स्वतंत्रता पर प्रहार तथा ज़ायोनी शासन के लिए सामरिक सहायता दोनों वाशिंग्टन के लिए विशेष महत्व रखते हैं।

पाकिस्तानी नौसेना ने युद्धपोत से लंबी दूरी की मार करने वाले मीज़ाइल का सफल परीक्षण किया है।

पाकिस्तानी नौसेना के प्रमुख एडमिरल आसिफ़ संदीला ने चेयरमैन नेसकोम के साथ मिसाइल फ़ायरिंग को देखा। इस अवसर पर नौसेना के प्रमुख ने कहा कि सफल मिसाइल फ़ायरिंग युद्ध पोत की पेशावराना तथा अजेय प्रतिरोधक क्षमता का चिन्ह है। उन्होंने कहा कि सफल परीक्षण पर पाकिस्तानी नौसेना के युद्धोप के अधिकारी तथा जवान मुबारकबादी के पात्र हैं। आसिफ़ संदीला ने कहा कि सरकार को नौसेना की रक्षा आवश्यकताओं की जानकारी है और इन्हें पूरा करने का भरपूर प्रयास किया जाएगा।

तेहरान की केन्द्रीय नमाज़े जुमा आज आयतुल्लाह इमामी काशानी की इमामत में पढ़ी गई।

आयतुल्लाह इमामी काशानी ने नमाज़े जुमा के ख़ुतबों में राष्ट्रों पर साम्राज्यवादी शक्तियों के अत्याचारों का उल्लेख करते हुए कहा कि यह अत्याचार क्षेत्र में इस्लामी जागरूतता तथा अन्य क्षेत्रों में जन चेतना का कारण बना अब इन आंदोलनों को आगे बढ़ाने के लिए उनका आर्थिक एवं नैतिक समर्थन करना चाहिए। आयतुल्लाह इमामी काशानी ने कहा कि कुछ लोग इस्लामी जागरूकता की लहर को उसकी असली डगर से हटा देने के प्रयास में हैं किंतु वे सफल नहीं होंगे क्योंकि इस्लामी जागरूकता का दायरा लगातार फैलता ही जा रही है।

तेहरान की केन्द्रीय नमाज़े जुमा के इमाम ने कहा कि पश्चिमी शक्तियों ने स्वयं को भौतिकवादी साधनों से लैस कर लिया है और अब इसी के माध्यम से क्षेत्र में अपने अभिषप्त कार्यक्रमों को लागू करना चाहती हैं, वैज्ञानिक एवं औद्योगिक विकास से इन षडयंत्रों को विफल बनाया जा सकता है। आयतुल्लाह इमामी काशानी ने विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में ईरान की प्रगति का उल्लेख करते हुए कहा कि उन्नति की यह प्रक्रिया इसी प्रकार जारी रहनी चाहिए यहां तक कि शत्रु निराश होकर षडयंत्र करना भूल जाएं।

आयतुल्लाह इमामी काशानी ने फ़िलिस्तीन तथा सीरिया की ताज़ा स्थिति की ओर संकेत किया और पश्चिमी शक्तियों की ओर से मुस्लिम समुदाय पर किए जा रहे अत्याचारों की समीक्षा की। उन्होंने कहा कि फ़िलिस्तीन और सीरिया की जनता की समस्याओं के समाधान के लिए गंभीरता से प्रयास करना चाहिए।