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ईरान-पाकिस्तान गैस पाइप लाइन पर काम जनवरी से
ईरान के पेट्रोलियम व गैस सचिव का कहना है कि ईरान-पाकिस्तान गैस पाइप लाइन परियोजना पर काम कुछ सप्ताह में आरंभ हो जाएगा।
ईरान की राष्ट्रीय गैस कंपनी के प्रमुख और उप तेल मंत्री जवाद औजी ने बताया है कि पाकिस्तान अपने क्षेत्र में गैस पाइप लाइन बिछाने का काम जनवरी से आरंभ कर देगा। याद रहे ईरानी राष्ट्रपति महमूद अहमदी नेजाद के आदेश पर ईरानी कंपनियों ने पाकिस्तान में गतिविधियों आंरभ कर दी हैं। जवाद औजी के अनुसार ईरान-पाकिस्तान गैस पाइप लाइन परियोजना के लिए आवश्यक पूंजी निवेश ईरानी बैंक करेंगे। याद रहे इस शांति गैस पाइप लाइन कही जाने वाली इस परियोजना से पहले भारत भी जुड़ा था। पाकिस्तान पर भी अमरीका इस परियोजना से अलग होने का भारी दबाव बना रहा है।
ईरान का नौसैनिक अभ्यास
इस्लामी क्रांति संरक्षक बल सिपाहे पासदाराने इंक़ेलाब ने फ़ार्स खाड़ी क्षेत्र के दक्षिणी पार्स गैस फ़ील्ड में नौसैनिक अभ्यास आरंभ कर दिया है।
क़तर और ईरान की साझेदारी वाले क्षेत्र दक्षिणी पार्स गैस फ़ील्ड में मंगलवार 25 दिसम्बर को सैन्य अभ्यास आरंभ हुए हैं जो चार दिनों तक जारी रहेंगे। यह अभ्यास देश के विभिन्न भागों में हो रहे इस्लामी क्रान्ति संरक्षक बल के नियमित सैन्य अभ्यास का एक भाग हैं। इस्लामी क्रान्ति संरक्षक बल के एक कमांडर अलीरज़ा नासेरी ने बताया कि सैन्य अभ्यास का उद्देश्य संभावित ख़तरों का मुक़ाबला करने की क्षमता का मूल्यांकन करना है।
नौसैनिक अभ्यास पर इस्लामी क्रांति संरक्षक बल के वरिष्ठ कमांडरों की गहरी नज़र है।
दूसरी ओर ईरान की नौसेना के कमांडर रियर एडमिरल हबीबुल्लाह सैयारी ने भी कहा है कि ईरान की नौसेना विलायत-91 के नाम से अपना युद्ध अभ्यास हुरमुज़ जलडमरू मध्य के निकट आरंभ करेगी जो एक सप्ताह तक जारी रहेगा।
25 दिसम्बर
25 दिसम्बर को महान ईश्वरीय पैगम्बर हज़रत ईसा मसीह का फिलिस्तीन में स्थित बैल लहम क्षेत्र में जन्म हुआ। वे ईश्वर की इच्छा के अनुसार चमत्कारिक रुप से बिना पिता के जन्मे थे। उनकी माता का नाम हज़रत मरियम था। जन्म के थोड़े ही अंतराल के बाद हज़रत ईसा ने पालने में अपनी माता की पवित्रता की गवाही दी। अपने जीवन में उन्होंने सदैव दुखियों और वंचितों की सहायता की उन्होंने सदैव सादा जीवन व्यतीत किया। उनका एक कथन है कि विनम्रता से तत्वदर्शिता फलती फूलती है न कि घमंड से, जैसे कि खेती समतल भूमि पर उगती है न कि पथरीले पहाड़ पर।
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25 दिसम्बर सन 1665 ईसवी को चौदहवें लुईस के शासनकाल में ब्रिटेन से राजनैतिक, आर्थिक व साम्राज्यवादी मामलों में प्रतिस्पर्धा के लिए भारत में फ़्रांस की ईस्ट इंडिया कम्पनी का गठन हुआ। इस कम्पनी की स्थापना से 66 वर्ष पूर्व ब्रिटेन सरकार ने ईस्ट इंडिया व्यापारिक कंपनी स्थापित की थी। फ़्रांस की उक्त कम्पनी की स्थापना के परिणाम स्वरुप ब्रिटेन व फ़्रांस के बीच कई झड़पें हुई।
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25 दिसम्बर सन 1901 ईसवी को बेल्जियम के प्रख्यात भौतिकशास्त्री व आविष्कारक ज़ोनेबे ग्राम का 75 वर्ष की आयु में निधन हुआ। उन्होंने 19 वर्ष की आयु से भौतिकशास्त्र के क्षेत्र में अनुसंधान आरंभ किया। उनके अनथक प्रयासों के परिणाम स्वरुप डायनमो का आविष्कार हुआ।
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25 दिस्म्बर सन 1979 ईसवी को ज़ायोनी शासन की गुप्तचर सेवा मोसाड के एजेंटों ने फ़िलिस्तीन के एक वरिष्ठ अधिकारी की हत्या कर दी। पी एल की सुरक्षा संस्था के संचलक अली हसन सलामह को मोसाड के एजेंटों ने बैरुत में उनकी कार में बम रखकर शहीद कर दिया। इस घटना ने यह सिद्ध कर दिया कि ज़ायोनी शासन संसार के विभिन्न क्षेत्रों में आतंकवादी कार्यवाहियों द्धारा अपने विरोधियों की हत्या के लिए अंतर्राष्ट्रीय नियमों का खुला उल्लंघन कर रहा है।
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इस्माईलियों के फ़िर्क़े
मुस्ताली के मानने वाले फ़ातेमी थे उनकी इमामत मिस्र के फ़ात्मी ख़लीफ़ाओं में बाक़ी रही, इस के कुछ समय बाद यहा सम्प्रदाय हिन्दुस्तान में “बोहरा” नाम से अस्तित्व में आया और अभी तक बाक़ी है।
ओबैदुल्लाह मेहदी 296 हिजरी में अफ़रीक़ा में प्रकट हुआ और उसने इस्माईलियों को अपनी इमामत का निमंन्त्रण दिया, फ़ात्मी हुकूमत का निर्माण किया, उसके बाद उसकी नस्ल ने मिस्र को राजधानी बनाया और सात पुश्तों तक उन्होने इस्माईलियों की हुकूमत और सत्ता बनाए रखी, सातवे ख़लीफ़ा मुसतन्सिर बिल्लाह जो कि साद बिन अली था उसके दो बेटों नज़्ज़ार और मुस्तानी में हुकूमत और ख़िलाफ़त के लिए झगड़ा हुआ, और बहुत लड़ाई झगड़े और जंग के बाद मुस्ताली जीत गया और अपने भाई नज़्ज़ार को गिरफ़्तार कर के जेल में डाल दिया, और जेल में ही उसकी मौत हुई, लेकिन इस लड़ाई झगड़े के कारण फ़ात्मियों के चाहने वालों दो ग्रुपो में बट गएः नज़्ज़ारिया और मुस्तालिया।
1. नज़्ज़ारियाः हसन सब्बाह के मानने वालों को नज़्ज़ारिया कहते हैं, ये मुस्तन्सिर के क़रीबी लोग थे, मुस्तन्सिर के बाद नज़्ज़ार का समर्थन करने के कारण मुस्ताली ने इन को मिस्र से निकल जाने का आदेश दिया, ये लोग वहा से ईरान आ गए क़ज़वीन के आस पास किला अमवात में दाख़िल हो गए, और आस पास के दूसरे किलों पर क़ब्ज़ा करके हुकूमत करने लगे, अरम्भ में इन्होंने नज़्ज़ार की ख़िलाफ़त का निमंन्त्रण दिया और (518 हिजरी) में हसन “रूदबारी की बड़ी उम्मीद” की मौत के बाद उसके बेटे “किया मुहम्मद” को हाथों पर बैअत की और इस प्रकार हसन सब्बाह के बनाए हुए संविधान पर हुकूमत करते रहे, उसके बाद उसका बेटा “हसन अली ज़करहुल इस्लाम” चौथा बादशाह हुआ।
यहा तक कि हलाकू ख़ान मुग़ल ने ईरान पर आक्रमण किया, उस ने इस्माईलियों के किले जीत कर तमाम इस्माईलियों को क़त्ल कर दिया, किले को ध्वस्त कर दिया। इसके बाद 1255 हिजरी में आक़ा ख़ान महेल्लाती ने जो कि एक नज़्ज़ारी था ईरान के बादशाह शाह क़ाजार कि विरुद्ध विद्रोह कर दिया और किरमान के पास जंग मे हार कर बम्बई की तरफ़ भाग गया और बातेनी नज़्ज़ारी के निमंन्त्रण को अपनी इमामत में फैलाया, और उसका ये निमंन्त्रण अब तक बाक़ी है, और इस समय “नज़्ज़ारिया” सम्प्रदाय को “आक़ा ख़ानिया” कहा जाता है।
2. मुस्तालियाः मुस्ताली के मानने वाले फ़ातेमी थे, उन की इमामत मिस्र के फ़ातेमी ख़लीफ़ाओं में बाक़ी रही और 557 हिजरी क़मरी में ये सम्प्रदाय समाप्त हो गया, और इसके कुछ समय बाद हिन्दुस्तान में यह सम्प्रदाय “बोहरा” के नाम से प्रकट हुआ और अभी तक बाक़ी है।
3. दरूज़ियाः दरूज़िया सम्प्रदाय शामात के पहाड़ो में रहते हैं, आरम्भ मे यह लोग मिस्री फ़ातेमियों का अनुसरण करते थे लेकिन फ़ातेमियों के छटे ख़लीफ़ा को दौर में “नशतगीन दरूज़ी” के निमंन्त्रण के बाद बातेनिया से मिल गए। दरुज़िया की इमामत रुक गई और वह ग़ायब हो कर आसमान मे चला गया और दोबारा फ़िर लोगों के बीच वापस आएगा, अगरचे कुछ लोगों का विश्वास है कि वह कत्ल हो गया है।
4. मुक़नेआः ये लोग आरम्भ मे “आता मरवी” जो कि “मुक़नेआ” के नाम से प्रसिद्ध था का अनुसरण करते थे जो कि इतिहासकारों के कथन के अनुसार अबू मुस्लिम ख़ुरासानी के अनुयायी थे और अबू मुस्लिम के बाद उसने दावा किया कि अबू मुस्लिम की रूह उसके अंदर समा गई है, उसने कुछ समय के बाद नबूवत का दावा किया और फिर उसके बाद ख़ुदाई का दावा किया! आख़िरकार 162 हिजरी में जब किला कीश का घेराव कर लिया गया और उसको अपनी मौत का यक़ीन हो गया तो उसने आग जलाई और अपने कुछ दोस्तों के साथ उस आग मे जल कर मर गया। अता मुक़ना के अनुयायीयों ने कुछ समय के बाद इस्माईलिया धर्म को स्वीकार करके बातेनिया सम्प्रदाय से मिल गए।[1]
इस्माईलिया फ़िर्क़े
इस्माईलियों का विश्वास है कि ये धरती कभी भी ईश्वरीय दूत से ख़ाली नही हो सकती, और ईश्वरीय दूत दो प्रकार के होते हैः
नातिक़ (बोलने वाला) और सामित (न बोलने वाला), नातिक़ पैग़म्बरे ख़ुदा और सामित वली और इमाम होता है।
शियों के छटे इमाम हज़रत जाफ़र सादिक़ (अ) के सब से बड़े बेटे का नाम इस्माईल था, और उनका अपने पिता के जीवन काल में ही निधन हो गया था, आप ने अपने बेटे की मौत को सब के सामने बयान किया, यहां तक कि मदीने के गवर्नर को भी गवाह बनाया, कुछ लोगों का मानना है कि इस्माईल मरे नही हैं बल्कि वह ग़ायब हो गए है, वह दोबारा प्रकट होंगे और वही मेहदी है, और छटे इमाम ने उनके मरने पर जो गवाह बनाए हैं वह मनसूर आब्बासी के डर से जान बूझ कर ये काम किया है। कुछ लोगों का विश्वास है कि इमामत इस्माईल का हक़ था जो उनके मरने के बाद उनके बेटे मोहम्मद की तरफ़ चला गया, इस्माईल अगरचे अपने पिता के जीवन काल मे ही मर गए लेकिन वह इमाम हैं, और उनके बाद इमामत उनके बेटे मोहम्मद बिन इस्माईल की नस्ल में चली गई है, ऊपर बयान किए गए दोनो सम्प्रदाय समाप्त हो गए लोकिन तीसरा सम्प्रदाय अभी बाक़ी है और इसके कुछ गुट भी हो गए है, इस्माईलियों का एक फ़ल्सफ़ा है जो कि सितारों को पूजने वालों के फ़ल्सफ़े से मिलता जुलता है और हिन्दुस्तानी इरफ़ान उस में मिला हुआ है, ये लोग इस्लामी अहकाम और मआरिफ़ मे हर प्रत्यक्ष (ज़ाहिर) के लिए अप्रत्यक्ष (बातिन) और हर तनज़ील (ईश्वर की तरफ़ से आए हुए किसी भी आदेश और क़ुरआन की आयतें) की तौजीह करते हैं
इस्माईलियों का अक़ीदा
इस्माईलियों का विश्वास है कि ये धरती कभी भी ईश्वरीय दूत से ख़ाली नही हो सकती, और ईश्वरीय दूत दो प्रकार के होते हैः नातिक़ (बोलने वाला) और सामित (न बोलने वाला), नातिक़ पैग़म्बरे ख़ुदा और सामित वली और इमाम होता है जो कि पैग़म्बर का उत्तराधिकारी होता है, बहर हाल ईश्वरीय दूत ईश्वर का घोतक है।
ईश्वरीय दूत का आधार सदैव सात की गिनती के इर्द गिर्द घूमता रहता है, इस प्रकार से कि एक नबी ईश्वर की तरफ़ से आता है जो कि नबूवत (शरीअत) और विलायत रखता है, उसके बाद उसके सात उत्तराधिकारी होते है और सब के पास एक पद होता है केवल सातवे उत्तराधिकारी के पास नबूवत का पद नही होता है और दूसरे तीन पद होते हैः नबूवत, विसायत (उत्तराधिकारी होना) और विलायत, फिर उसके बाद सात उत्तराधिकारी होते हैं, उनमें से सातवें के पास फिर वही तीन पद होते हैं, इसी क्रम अनुसार इनकी ये नबूवत और विलायत चलती रहती है।
वह लोग कहते हैः हज़रत आदम (अ) जब ईश्वर की तरफ़ से भेजे गए तो वह नबी भी थे और वली भी, उनके बाद सात उत्तराधिकारी हुए और सातवे उत्तराधिकारी हज़रत नूह (अ) थे जिन के पास नबूवत, उत्तराधिकार औऱ विलायत का पद था। हज़रत इब्राहीम (अ) हज़रत नूह (अ) के सातवें उत्तराधिकारी थे, हज़रत मूसा (अ) हज़रत इब्राहीम (अ) के सातवें उत्तराधिकारी थे, हज़रत ईसा (अ) हज़रत मूसा (अ) के, हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) हज़रत ईसा (अ) के सातवे उत्तराधिकारी थे और मोहम्मद बिन इस्माईल हज़रत मोहम्मद मुस्तफ़ा (स) के सातवें उत्तराधिकारी थे। इसलिए इस आधार पर हज़रत अली (अ) हुसैन बिन अली (अ) (चौथे इमाम इमामे सज्जाद) इमाम मोहम्मद बाक़िर (अ) इमाम जाफ़र सादिक़ (अ) और इमाम मोहम्मद बिन इस्माईल सात उत्ताधिकारी है, (ये लोग इमाम हसन (अ) को इमाम नही मानते हैं) मोहम्मद बिन इस्माईल के बाद मोहम्मद बिन इस्माईल की नस्ल से सात लोग उत्तराधिकारी हुए जिन के नाम छुपे हुए हैं, और इन सात लोगों के बाद मिस्र के फ़ातमी हैं, जिनमें से पहले “ओबैदुल्लाह मेहदी” हैं जिन्होंने मिस्र के फ़ातेमियों की हुकूमत का निर्माण किया था।
इस्माईलियों का विश्वास है कि ज़मीन पर ईश्वरीय दूत के अलावा उन के बारह हवारी होते हैं, लेकिन बातेनिया (दरूज़िया) का एक गुट नक़बा में से छः लोगों के इमाम मानता है।[2]
इस्लाईलियों की गतिविधियां
278 हिजरी में (ओबैदुल्लाह मेहदी के अफ़रीक़ा में प्रकट होने से कुछ साल पहले) ख़ूज़िस्तान का रहने वाला एक व्यक्ति जिस ने कभी भी लोगों को अपना परिचय नही दिया, कूफ़ा के पास प्रकट हुआ, ये व्यक्ति दिन मे रोज़े रखता और रात में इबादत किया करता था, और लोगों को इस्माईली धर्म का निमंन्त्रण दिया करता था, इस प्रकार उसने बहुत से लोगों को अपना अनुयायी बना लिया और अपने अनुयायियों में बारह लोगों को नक़ीब (वह लोग जो कि उसके बाद दूसरों को धर्म पर चलने का रास्ता बताएं) बनाया और ख़ुद शाम की तरफ़ चला गया, इसके बाद उसके बारे में कोई समाचार नही मिला, इस अपरिचित व्यक्ति के बाद “अहम्द” जो कि “क़रमेता” के नाम से प्रसिद्ध था ने इराक़ में उसकी गद्दी संभाली, उसने बातेनिया के सिधान्तों को लोगों में फैलाया और जैसा कि इतिहासकार कहते हैः उसने पाँच वक़्त की नमाज़ के स्थान पर इस्लाम में एक नई नमाज़ ईजाद की, जनाबत के ग़ुस्ल को समाप्त किया, शराब को हलाल किया, इसी बीच बातेनिया के एक गुट ने विद्रोह किया और लोगों को अपने साथ मिलने का निमंन्त्रण दिया।
जो लोग उनके अक़ीदे को नही मानते थे उनकी जान व माल की उनकी निगाह में कोई महत्व नही था, इसीलिए इराक़, बहरैन, यमन और शामात को शहरो में उन्होंने विद्रोह किया और लोगों का ख़ून बहाया, उन के माल को लूटा और बरबाद किया, कई बार हज पर जाने वाले क़ाफ़िलों को लूटा और हज़ारो हाजियों को क़त्ल किया।
“अबू ताहिर क़रमती” का शुमार ताबेनिया के विशिष्ट लोगों में होता है, उसने 311 हिजरी में बसरा पर अधिकार किया और लोगो को क़त्ल करने और उनके माल और दौलत को लूटने में कोई कसर नही छोड़ी, 317 हिजरी में बातेनिया को एक गुट के साथ हज के दिनों में मक्के की तरफ़ चला और सरकारी फ़ौज से छुट पुट जंग करने के बाद मक्के में प्रवेश कर गया, मक्के के रहने वालों और नए हाजियों को क़त्ल किया, यहां तक कि मस्जिदुल हराम और काबे में ख़ून बहने लगा, काबे के ग़िलाफ़ को उतार कर अपने दोस्तों में बांटा, काबे के दरवाज़े और हजरे असवद को निकाल कर यमन ले आया जो कि 22 लास तक क़रामेता के पास रहा।
उनके इस कुक्रम के कारण सारे मुसलमानों ने क़रामेता से नाता तोड़ लिया और उनके मुसलमानो के सम्प्रदाय से बाहर कर दिया, यहां तक कि फ़ातेमियों का बादशाह “ओबैदुल्ला मेहदी” कि जो उसी समय अफ़रीक़ा में प्रकट हुआ था और अपने आप को मेहदी मौऊद (यानी आख़ेरी इमाम जिन के बारें में रसूल (स) ने कहा था कि वह ऐसे ही ज़मीन को अदल और इन्साफ़ से भर देगा जिस प्रकार वह ज़ुल्म एवं अत्याचार से भरी होगी) होने का दावा करता था, उसने भी क़रानेता से नाता तोड़ लिया।
इतिहासकारों के अनुसार बातेनिया धर्म की पहचान ये है कि वह इस्लाम के वह इस्लाम के ज़ाहेरी अहकाम और क़ानून की बातेनी इरफ़ान से तौजीह करते हैं और धर्म के ज़ाहिर को उन लोगों के लिए मानते हैं जो कम अक़्ल और स्वछ आत्मा से बहुत दूर हैं, इन सारी विशेषताओं के बावजूद कुछ क़ानून उनके इमाम के द्वारा भी बनाए जाते हैं।[3]
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[1] शिया दर इस्लाम, पेज 71
[2] शिया दर इस्लाम, पेज 68
[3] शिया दर इस्लाम, पेज 69
अंतिम अद्यतन (बुधवार, 02 मार्च 2011 15:09)
इमाम शाफेई
अबू अब्दिल्ला मुहम्मद इबने इदरीस इब्ने अब्बास शाफेअ, शाफेई मज़हब के संस्थापक और अध्यक्ष हैं। आप अहले सुन्नत के तीसरे इमाम हैं और इमाम शाफेई के नाम से मशहूर हैं। आप का सिलसिल-ए-नस्ब जनाब हाशिम इब्ने अब्दे मनाफ के भतीजे की निस्बत से जनाब हाशिम इब्ने अब्दुल्-मुत्तलिब तक पहुँचता है।
में पैदा हुए और इसी दिन हनफी मज्ञहब के संस्थापक अबु-हनीफा का देहान्त हुआ। उनके पिता का बचपन ही में देहान्त हो गया था वह अपनी माता के साथ मक्का में रहते थे। आप की ज़िन्दगी बहुत ही सख़्त और फक़्र और फाक़े में गुज़री। आपने फिक़हो-उसूल को मक्के में पढा और एक मुद्दत तक यमन में शेअर,लुग़त और नहव का इल्म हासिल किया,यहाँ तक कि मुस्अब इब्ने अब्दिल्ला इब्ने ज़ुबैर ने आप को राये दी कि हदीस और फिक़्ह का इल्म हासिल करें। इस लिए आप मदीने चले गए उस वक़्त आप की आयू 20 साल थी। वहां पर आप मालिकी मज्ञहब के संस्थापक, मालिक इब्ने अनस के पास इल्म हासिल करते रहे।
शाफेई ख़ुद कहते हैःमै मकतब मे़ था , क़ुरआन के टीचर से आयात सीखता और उनको याद करता था और टीचर जो बात भी कहते वह मेरे दिमाग़ में बैठ जाती थी । एक दिन उन्होने मुझसे कहाःमेरे लिए जाएज़ नही है कि मै तुम से कोई चीज़ लूँ। इस वजह से मै मकतब से बाहर आ गया। मिट्टी के बरतन,खाल के टुक्ड़ो और खजूर के चौड़े पत्तों के ऊपर हदीसें लिखता था। आखिर में मक्का चला आया और हिज़क़ील ...के दरमियान ज़िन्दगी बसर करने लगा। 17 साल वहाँ पर रहा। जहाँ पर भी वह कूच करते थे मैं भी उनके साथ कूच करता था। जब मैं मक्का वापस पलटा तो शेअर,अदब और अख़बार को बहुत अच्छी तरह सीख लिया था। यहाँ तक कि एक दिन ज़ुबैरियून में से एक आदमी ने मुझसे कहाः मेरे लिए बहुत सख़्त है कि तुम इतनी होशियारी और फसाहत के बावजुद फिक़्ह का ज्ञान (इल्म) प्राप्त न करो। इस लिए मैं तुम्हें मालिक के पास ले जाऊँगा। इस के बाद मैने मालिक की किताब (अल-मौता) जो पहले से मेरे पास मौजूद थी। नौ दिन इस किताब को खूब पढा। और मदीने मे मालिक इब्ने अनस के पास चला गया और वहाँ पर ज्ञान (इल्म) प्राप्त करने लगा।
इमाम शाफेई मालिक इब्ने अनस के मरने तक मदीने में रहे और फिर यमन चले गए। वहाँ पर आप अपने कामों में व्यस्त हो गए। उस समय यमन का हाकिम, हारून-रशीद का गवर्नर बहुत अत्याचारी था। इस लिए उसने इस बात से डरते हुए कि शायद शाफेई अल्वियों के साथ बग़ावत न कर दे, उनको गिरफ्तार कर के हारून-रशीद के पास भेज दिया। लेकिन हारून-रशीद ने उनको क्षमा कर दिया। मुहम्मद इब्ने इदरीस एक समय तक मिस्र और फिर बग़दाद चले गए। वहाँ पर उन्होंने पढाना आरम्भ किया। वहाँ पर दो साल पढाने के बाद फिर मक्के आ गए। फिर दुबारा बग़दाद गए और रजब महीने 200 हि. के अन्त में फत्तात मिस्र में देहान्त हो गया। उस समय आप की आयू 54 साल थी। आप की क़ब्र मिस्र में बनी-अब्दूल-हुक्म के मक़्बरे में शहीदों की क़ब्रो और अहले सुन्नत की ज़ियारत-गाह के पास है। आपके प्रसिद्ध शिष्य अहमद इब्ने हम्बल है। जो कि हम्बली धर्म के संस्थापक थे।
अहले सुन्नत ने आप की बहुत सी लिखी हुई किताबों का वर्णन (ज़िक्र) किया है लेकिन हम यहाँ पर कुछ किताबों को गिना रहे हैः
1-अल-उम
2-अल-मुस्नदुश्शाफेई
3-अस-सुनन
4-इस्तिक़बालुल-क़िब्ला
5-ईजाबूल-कबीर
6-किताबुत्तहारत
7-सलातुल-ईदैन
8-सलातुल-कुसूफ
9-अलमनासिकुल-कबीर
10-अर्रिसालतुल-जदीदा
11-किताबे इख्तिलाफुल-हदीस
12-किताबुश्शहादात
13-किताबुस्सहाबा
14-किताबे कसरुल-अरज़
कयोंकि आप के पाठन (शिक्षा देने) की सबसे अच्क्षी जगह बग़दाद और क़ाहिरा थी इस लिए शाफेई धर्म उनके शिष्यों और मानने वालों के दवारा इन
दो जगहों से दूसरी जगहों पर पहुँचा और धीरे धीरे इस्लामी देशों विशेष कर शाम,खुरासान और माविराउन-नहर में फैल गया। अगरचे पाँचवीं और छठीं सदी में शाफेईया और हनाबेला के बीच बग़दाद में और शाफेईया और हनफिया के बीच इस्फहान में बहुत लड़ाईयाँ हुईं। याक़ूत के समय में शाफेईया शियों और हनफियों से जंग करने के बाद रै शहर पर क़ाबिज़ हो गए। आज के समय में शाफेई धर्म मिस्र , पूर्वि और दक्षिणी अफरीक़ा पश्चिमी और दक्षिणी सऊदी अरब , इन्डोनेशिया , फिलिस्तीन के कुछ भाग और एशिया का एक भाग विशेष कर कुर्दिस्तान में प्रचलित है। शाफेई धर्म के प्रसिध्द विधवान में नेसाई,अबुल-हसन अल-अशअरी,अबु-इस्हाक़ शिराज़ी,इमामुल-हरमैन,अबुहामिद ग़ज़ाली,और इमाम राफेई का नाम लिया जा सकता है।
मिस्र का नया संविधान पारित, इख़वानुल मुसलेमीन
मिस्र से आर रहे समाचारों के अनुसार देश के नए संविधान को जनता की
स्वीकृति मिल गई है।
सत्ताधारी इख़वानुल मुसलेमीन के एक अधिकारी ने बताया कि नए संविधान पर जनमत संग्रह के दूसरे चरण के मतदान में 71 प्रतिशत मतदाताओं ने संविधान के मसौदे के समर्थन में वोट डाले जबकि पहले और दूसरे चरण के कुल मतों के अनुसार संविधान के मसौदे को 64 प्रतिशत लोगों का समर्थन मिला है। अधिकारी का कहना था कि यह आरंभिक परिणाम हैं किंतु इनसे जनता का रुजहान स्पष्ट हो गया है।
दूसरे चरण में देश के 17 प्रांतों में मतदान हुआ जिसमें मतदाताओं ने बढ़ चढ़कर भाग लिया। इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि मतदान का समय शाम सात बजे समाप्त हो जाने के बाद भी केन्द्रों पर मतदाताओं की लंबी लाइनों को देखते हुए मतदान की अवधि में विस्तार करना पड़ा और रात ११ बजे मतदान की प्रक्रिया पूरी हुई।
उधर विपक्षी दल नेशनल सैलवेशन फ़्रंट के नेता तथा राष्ट्रपति पद के पूर्व उम्मीदवार हमदैन सबाही ने कहा कि उनका गठबंधन जनमत संग्रह के परिणाम का सम्मान करता है। क़ाहेरा में पत्रकारों से बातचीत में सबाही ने कहा कि उनका गठबंधन आगामी चुनावों में भाग लेगा। साथ ही उन्होंने कहा कि उचित यह था कि संविधान के मसौदे पर जनमत संग्रह कराने से पहले राजनैतिक दलों में सर्व सम्मति बना ली गई होती।
इसी बीच राष्ट्रपति मोहम्मद मुर्सी ने राष्ट्रीय संसद के ऊपरी सदन के लिए 90 उम्मीदवारों को मनोनीत किया है जिनमें अधिकांश का संबंध इस्लामी दलों से नहीं है बल्कि इनमें ईसाई तथा अन्य मतों के लोग हैं। विपक्षी दल नेशनल सैल्वेशन फ्रंट ने सदन के लिए अपना कोई भी उम्मीदवार पेश करने से इंकार कर दिया है।
उधर उप राष्ट्रपति महमूद मक्की ने शनिवार को ही जब देश में संविधान पर दूसरे चरण का मतदान हो रहा था अपने त्यागपत्र की घोषणा कर दी। मक्की ने जो एक जज हैं कहा कि राजनैतिक गतिविधियां उनके पेशे से मेल नहीं खातीं अतः वह उप राष्ट्रपति का पद छोड़ रहे हैं।
ईरान ने स्वागत किया मिस्री जनमत संग्रह का
ईरान ने मिस्र के नये संविधान के मसौदे पर जनता के बढ़चढ़ कर भाग लेने का स्वागत किया है।
विदेशमंत्रालय के प्रवक्ता रामीन मेहमान परस्त ने मिस्र के नये संविधान के मसौदे पर होने वाले जनमत संग्रह के सफलता पूर्वक संपन्न होने पर मिस्री जनता को बधाई दी और बल दिया कि ईरान, जनमत संग्रह में मिस्री जनता की व्यापक भागीदारी का स्वागत करता है। श्री रामीन मेहमान परस्त ने नये संविधान के मसौदे पर जनता के बढ़चढ के भाग लेने को देश के क़ानून और लोकतंत्र के मार्ग में एक सुदृढ़ क़दम बताया और कहा कि देश की क्रांति और मिस्री जनता के उज्जवल भविष्य के लिए बहुत बड़ी उपल्बधि है। उन्होंने आशा व्यक्त की है कि मिस्र के सभी राजनैतिक और धार्मिक दल तथा जनता के सभी वर्ग जनता के मतों का सम्मान करते हुए देश की क़ानूनी प्रक्रिया में सहयोग करेंगे। ज्ञात रहे कि मिस्र में नए संविधान पर जनमत संग्रह के दूसरे चरण के मतदान में 71 प्रतिशत मतदाताओं ने संविधान के मसौदे के समर्थन में वोट डाले जबकि पहले और दूसरे चरण के कुल मतों के अनुसार संविधान के मसौदे को 64 प्रतिशत लोगों का समर्थन मिला है।
ईदगाह मस्जिद, काशगर
ईदगाह मस्जिद (उइग़ुर: ھېيتگاھ مەسچىتى, हेतगाह मॅसचिती; अंग्रेज़ी: Id Kah Mosque, ईद काह मॉस्क) पश्चिमी जनवादी गणतंत्र चीन के शिन्जियांग प्रान्त के काश्गर शहर में स्थित एक मस्जिद है।
यह चीन की सबसे बड़ी मस्जिद है, जिसमें १०,००० से २०,००० नमाज़ी समा सकते हैं। रमज़ान के दौरान यहाँ कभी-कभी १ लाख लोगों तक का जमावड़ा हो जाता है। इसका निर्माण सन् १४४२ (अनुमानित) में शक़सिज़ मिर्ज़ा (سانسىز مىرز) ने करवाया, जो उस समय काश्गर के शासक थे।[1] यहाँ पहले से सन् ९९६ से बने हुए कुछ हिस्से थे जिन्हें मस्जिद में शामिल कर लिया गया।
ईदगाह मस्जिद १६,८०० वर्ग मीटर के क्षेत्रफल पर फैली हुई है। मस्जिद के मुख और अन्य भागों में पीले रंग की टाइलें लगी हुई हैं और समय-समय पर इमारत की मरम्मत की जा चुकी है।
मस्जिद का अध्ययन करने वाले विशेषज्ञों के अनुसार इस मस्जिद की शैली मध्य एशिया और मध्य पूर्व से ज़्यादा मिलती है और चीन की अन्य मस्जिदों से कम। सामने के आँगन में पेड़ लगे हुए हैं और वहाँ पानी से भरा एक हौज़ है जहाँ अनुयायी मस्जिद के मुख्य भाग में दाख़िल होने से पूर्व वुज़ु करते हैं
हजः वैभवशाली व प्रभावी उपासना
हज एक ऐसी सर्वाधिक वैभवशाली व प्रभावी उपासना है जिसे ईश्वर की पहचान की दृष्टि से अनुपम रहस्यों और तत्वदर्शिताओं का स्वामी कहा जा सकता है। हज के संस्कार नैतिक सदगुणों का प्रतिबिंबन हैं। ये संस्कार, ईश्वर से सामिप्य तथा आत्मा के प्रशिक्षण एवं शुद्धि के सबसे अच्छे गंतव्य का मार्ग बन सकते हैं। ये पावन संस्कार, ईश्वर की बंदगी और विनम्रता के सुंदरतम दृश्य हैं। इस संबंध में ईरान के एक उच्च धर्मगुरू मीरज़ा जवाद मलेकी तबरेज़ी लिखते हैं। हज्ज और अन्य उपासनाओं का वास्तविक लक्ष्य आध्यात्मिक आयाम को सुदृढ़ बनाना है ताकि मनुष्य भौतिक चरण से आध्यात्मिक चरण की ओर बढ़े तथा ईश्वर की पहचान, उससे मित्रता और लगाव को अपने भीतर उत्पन्न करे और इस प्रकार उसके प्रिय बंदों की परिधि में आ जाए।
हज की एक महत्वपूर्ण तत्वदर्शिता, ईश्वर की बंदगी को परखना और मनुष्य के भीतर इस भावना को सुदृढ़ बनाना है। अब लोग मीक़ात में हज का सफ़ेद एहराम पहन कर एक साथ और समान रूप से मक्के की ओर प्रस्थान के लिए तैयार हैं। एक भी व्यक्ति किसी दूसरे रंग का वस्त्र धारण नहीं किए हुए है। लब्बैक अल्लाहुम्मा लब्बैक अर्थात प्रभुवर! मैं तेरी पुकार का उत्तर देने के लिए तत्पर हूं कि आवाज़ें सभी हाजियों की ज़बान पर हैं। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने लब्बैक कहने के पुण्य के बारे में कहा है कि जो कोई किसी दिन सूर्यास्त तक लब्बैक कहे तो उसके सारे पाप समाप्त हो जाते हैं और वह उस दिन की भांति हो जाता है जब उसकी मां ने उसे जन्म दिया था।
मीक़ात में एहराम पहनने के बाद हाजी, मक्का नगर में प्रविष्ट होता है। यह नगर ईश्वर के प्रिय फ़रिश्ते जिब्रईल की आवाजाही का स्थल और महान पैग़म्बरों की उदय स्थली है। ईश्वर के अंतिम पैग़म्बर हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम ने का प्रकाश भी इसी नगर से पूरे संसार में फैला था और ईश्वर का संपूर्ण धर्म इस्लाम भी इसी नगर से संसार के अन्य क्षेत्रों तक गया था। पैग़म्बरे इस्लाम को अबू सुफ़यान व अबू जहल सरीखे लोगों के हाथों मक्का नगर में कितने कष्ट व कठिनाइयां सहन करनी पड़ी थीं किंतु वे अपने मार्ग से डिगे नहीं और उन्होंने इस्लाम की कोंपल को एक मज़बूत पेड़ में परिवर्तित कर दिया। हज के लिए जाने वाले लोग मक्का नगर में प्रवेश के बाद मस्जिदुल हराम पहुंचते हैं जिसके बीच काबा स्थित है, इस प्रकार वे ईश्वर द्वारा सुरक्षित किए गए स्थान पर क़दम रखते हैं, यह वह स्थान है जहां हर कोई सुरक्षित है, चाहे वह मनुष्य हो, पशु हो या फिर पेड़ पौधा ही क्यों न हो, यहां हर व्यक्ति व हर वस्तु सुरक्षित है क्योंकि यहां हर वस्तु ईश्वर की शरण में है।
अब वह समय निकट है जिसकी सबको प्रतीक्षा है। सभी के हृदय, ईश्वर के घर को देखने के लिए बेताब हैं, तड़प रहे हैं। काबे पर दृष्टि डाल कर हृदय में उसकी महानता का आभास होना चाहिए। काबा, ईश्वर का घर, एकेश्वरवादियों के मन में बसा हुआ है। उसका अनुपम आकर्षण एक मज़बूत चुंबक की भांति दिलों को अपनी ओर खींचता है और हाजियों के तन मन उसकी प्रक्रिमा के लिए मचलने लगते हैं। काबा वह घर है जिसे ईश्वर ने हृदयों की शांति के लिए बनाया है। अधिकांश ऐतिहासिक स्रोतों के अनुसार इसका निर्माण प्रथम इंसान हज़रत आदम अलैहिस्सलाम के काल में हुआ था। उन्होंने काबे का निर्माण करने के बाद उसका तवाफ़ किया अर्थात उसकी परिक्रमा की। इसका अर्थ यह है कि यह घर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम से पूर्व ही, हज़रत आदम के धरती पर आने के समय ईश्वर की उपासना व गुणगान के लिए चुना जा चुका था। इस स्थान पर ईश्वर के अनेक पैग़म्बरों ने उपासना की है। ईश्वर ने हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम को दायित्व सौंपा कि वे एकेश्वरवाद के जलवे के रूप में काबे का पुनर्निर्माण करें तथा लोगों को ईश्वर की उपासना के लिए वहां बुलाएं। उन्होंने अपनी पत्नी और पुत्र को एकेश्वरवाद के घर के निकट बसाया ताकि वे वहां नमाज़ स्थापित करें और यह घर पूरे संसार के एकेश्वरवादियों का ठिकाना रहे।
काबा, पत्थरों से बना एक चौकोर घर है। इसकी ऊंचाई लगभग पंद्रह मीटर, लम्बाई बारह मीटर और चौड़ाई दस मीटर है। यह घर एक बड़े आंगन में स्थित है जिसे चारों ओर से मस्जिदुल हराम ने घेर रखा है। काबा, ख़ानए ख़ुदा, बैतुल्लाह या ईश्वर का घर हर प्रकार की सजावट और आभूषणों से रिक्त है। आज उसके चारों ओर बनाई जाने वाली शानदार इमारतों के विपरीत काबा एक बहुत ऊंची व सुंदर इमारत नहीं है बल्कि बड़ी ही सादा किंतु दिल में उतर जाने वाली इमारत है। इस इमारत का वैभव इसकी सादगी में है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम काबे के बारे में कहते हैं कि ईश्वर ने अपने घर को, जो लोगों की सुदृढ़ता का कारण है, धरती के सबसे अधिक कड़े पत्थरों पर रखा जो ऊंची भूमियों से सबसे कम उपजाऊ है, जो फैलाव की दृष्टि से सबसे अधिक संकरी घाटी है, उसे कठोर पहाड़ों और नर्म रेतों, कम पानी वाले सोतों और एक दूसरे से कटे गांवों के मध्य रखा। फिर उसने आदम और उनके बेटों को आदेश दिया कि वे उस पर इमारत बनाएं, अपने हृदयों को उसकी ओर आकृष्ट रखें तथा ला इलाहा इल्लल्लाह कहते हुए उसकी परिक्रमा करें। यदि ईश्वर चाहता तो अपने सम्मानीय घर को संसार के सबसे उत्तम स्थान पर और हरे पन्ने एवं लाल मणि से बना सकता था किंतु ईश्वर तो अपने दासों की विभिन्न दुखों द्वारा परीक्षा लेता है, उन्हें विभिन्न प्रकार की कठिनाइयों द्वारा सुधारता है और उन्हें विभिन्न प्रकार की अप्रिय दशाओं में ग्रस्त करता है ताकि उनके हृदय से घमंड निकल जाए और विनम्रता उनके मन में समा जाए।
ईरान के एक प्रख्यात धर्मगुरू मुल्ला महदी नराक़ी काबे के निकट हाजियों के जमावड़े के बारे में लिखते हैं कि ईश्वर ने काबे का संबंध स्वयं से जोड़ कर उसे प्रतिष्ठा प्रदान की, उसे अपने दासों की उपासना के लिए चुना, उसके आस-पास के क्षेत्र को अपना सुरक्षित ठिकाना बनाया और वहां शिकार करने और पेड़-पौधों को तोड़ने को वर्जित करके अपने घर के सम्मान में वृद्धि की। उसने इस बात को आवश्यक बनाया कि उसके घर के दर्शन को आने वाले दूर से ही उसका संकल्प करें तथा घर के मालिक के प्रति विनम्रता प्रकट करें और उसकी महानता व सम्मान के समक्ष स्वयं को हीन समझें।
काबे की सबसे बड़ी प्रतिष्ठा यह है कि यह घर, एकेश्वरवाद का घर है और इसे बनाने और बाक़ी रखने में ईश्वरीय भावना के अतिरिक्त किसी भी अन्य भावना की कोई भूमिका नहीं रही है। हाजी, ऐसे घर की परिक्रमा करते हैं जो फ़रिश्तों की परिक्रमा का स्थान है और ईश्वर के पैग़म्बरों तथा अन्य प्रिय बंदों ने इसके निकट ईश्वर का गुणगान किया है। काबे का दर्शन, जिसके आधारों को हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने सुदृढ़ किया है, मनुष्य के कंधों पर एकेश्वरवादी विचारधारा की रक्षा तथा अनेकेश्वरवाद के प्रतीकों से संघर्ष का दायित्व डालता है। काबा, इस्लामी उपासनाओं तथा मुसलमानों के सामाजिक जीवन में मूल भूमिका का स्वामी है। मुसलमान प्रतिदिन पांच बार काबे की ओर मुख करके नमाज़ अदा करते हैं। संसार के दसियों करोड़ मुसलमान जब एक निर्धारित समय में और एक निर्धारित दिशा में एक साथ नमाज़ अदा करते हैं तो इससे उनके बीच समरसता उत्पन्न होती है और उनके हृदय एक दूसरे के निकट आते हैं। ईश्वर ने मुसलमानों से कहा है कि वे संसार के जिस स्थान पर भी रहें काबे की ओर उन्मुख हों क्योंकि इस घर को सभी एकेश्वरवादियों की एकता का केंद्र होना चाहिए। ईश्वर की बंदगी का सबसे सुंदर दृश्य, काबे की परिक्रमा के रूप में सामने आता है। पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का कथन है कि जो कोई सात बार काबे की परिक्रमा करे तो उसके हर क़दम के बदले में एक पुण्य लिखा जाता है, उसके एक पाप को समाप्त कर दिया जाता तथा उसका एक दर्जा बढ़ जाता है।
काबे की परिक्रमा हर समय जारी रहती है। काबे के चारों ओर रोते और गिड़गिड़ाते हुए लोगों के हाथ ईश्वर से प्रार्थना के लिए उठे रहते हैं। मनुष्य स्वयं को, लोगों के उमंडते हुए सागर में खो देता है, एक बूंद की भांति इस सागर में समा जाता है तथा केवल ईश्वर की खोज में रह कर अपनी वास्तविक पहचान को प्राप्त करता है। काबे को ध्रुव बनाने और उसकी परिक्रमा का सबसे महत्वपूर्ण संदेश यह है कि मनुष्य के जीवन में ईश्वर और उसकी प्रसन्नता, हर वस्तु का आधार है। यही कारण है कि हाजी, ईश्वर के घर के समक्ष विनम्रता से शीश नवाता है। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह काबे की परिक्रमा का लक्ष्य मोहमाया से स्वतंत्रता को बताते हुए लिखते हैं कि ईश्वर के घर की परिक्रमा में, जो ईश्वर से प्रेम व लगाव का चिन्ह है अपने मन को दूसरी सभी बातों से रिक्त करना चाहिए, दूसरों से भय से अपने हृदय को पवित्र करना चाहिए और ईश्वर से प्रेम के साथ ही अत्याचारी शासकों और उनके पिट्ठुओं जैसी छोटी बड़ी मूर्तियों से स्वयं की विरक्तता का प्रदर्शन करना चाहिए कि ईश्वर और उसके प्रिय बंदे भी उनसे विरक्त हैं।
इस प्रकार काबे की परिक्रमा के दौरान, मनुष्य एकेश्वरवाद की धुरी पर आ जाता है और हर प्रकार के अनेकेश्वरवाद व बुराई से दूर हो जाता है। वह अपने पूरे अस्तित्व के साथ चकोर की भांति सत्य के चंद्रमा की चारों और घूमने लगता है और हर प्रकार के दिखावे व अनेकेश्वरवाद से दूर होकर शुद्ध एकेश्वरवाद की ओर उन्मुख हो जाता है। इसके बाद वह नमाज़ पढ़ता है और अपने कृपाशील व अनन्य ईश्वर के समक्ष शीश नवा कर उसका गुणगान करता है। इसके बाद वह अपनी इस आध्यात्मिक यात्रा के अगले चरण के लिए तैयार हो जाता है।
हज क्या है ?
यह जिलहिज का महीना है। यह महीना, मक्का में लाखों तीर्थयात्रियों के एकत्रित होने का काल है जिसमें वे सुन्दर एवं अद्वितीय उपासना हज के संसकार पूरे करते हैं। इस समय लाखों की संख्या में मुसलमान ईश्वरीय संदेश की भूमि मक्के में एकत्रित हो रहे हैं। विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग गुटों और जत्थों में ईश्वर के घर की ओर जा रहे हैं और एकेश्वरवाद के ध्वज की छाया में वे एक बहुत व्यापक एकेश्वरवादी आयोजन का प्रदर्शन करेंगे। हज में लोगों की भव्य उपस्थिति, हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की प्रार्थना के स्वीकार होने का परिणाम है जब हज़रत इब्राहमी अपने बेटे इस्माईल और अपनी पत्नी हाजरा को इस पवित्र भूमि पर लाए और उन्होंने ईश्वर से कहाः प्रभुवर! मैंने अपनी संतान को इस बंजर भूमि में तेरे सम्मानीय घर के निकट बसा दिया है। प्रभुवर! ऐसा मैंने इसलिए किया ताकि वे नमाज़ स्थापित करें तो कुछ लोगों के ह्रदय इनकी ओर झुका दे और विभिन्न प्रकार के फलों से इन्हें आजीविका दे, कदाचित ये तेरे प्रति कृतज्ञ रह सकें।
शताब्दियों से लोग ईश्वर के घर के दर्शन के उद्देश्य से पवित्र नगर मक्का जाते हैं ताकि हज जैसी पवित्र उपासना के लाभों से लाभान्वित हों तथा एकेश्वरवाद का अनुभव करें और एकेश्वरवाद के इतिहास को एक बार निकट से देखें। यह महान आयोजन एवं महारैली स्वयं रहस्य की गाथा कहती है जिसके हर संस्कार में रहस्य और पाठ निहित हैं। हज का महत्वपूर्ण पाठ, ईश्वर के सम्मुख अपनी दासता को स्वीकार करना है कि जो हज के समस्त संस्कारों में स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। इन पवित्र एवं महत्वपूर्ण दिनों में हम आपको हज के संस्कारों के रहस्यों से अवगत करवाना चाहते हैं।
मनुष्य की प्रवृत्ति से इस्लाम की शिक्षाओं का समन्वय, उन विशेषताओं में से है जो सत्य और पवित्र विचारों की ओर झुकाव का कारण है। यही विशिष्टता, इस्लाम के विश्वव्यापी तथा अमर होने का चिन्ह है। इस आधार पर ईश्वर ने इस्लाम के नियमों को समस्त कालों के लिए मनुष्य की प्रवृत्ति से समनवित किया है। हज सहित इस्लाम की समस्त उपासनाएं, हर काल की परिस्थितियों और हर काल में मनुष्य की शारीरिक, आध्यात्मिक, व्यक्तिगत तथा समाजी आवश्यकताओं के बावजूद उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति करती हैं। इस्लाम की हर उपासना का कोई न कोई रहस्य है और इसके मीठे एवं मूल्यवान फलों की प्राप्ति, इन रहस्यों की उचित पहचान के अतिरिक्त किसी अन्य मार्ग से कदापि संभव नहीं है। हज भी इसी प्रकार की एक उपासना है। ईश्वर के घर के दर्शन करने के उद्देश्य से विश्व के विभिन्न क्षेत्रों से लोग हर प्रकार की समस्याएं सहन करते हुए और बहुत अधिक धन ख़र्च करके ईश्वरीय संदेश की धरती मक्का जाते हैं तथा “मीक़ात” नामक स्थान पर उपस्थित होकर अपने साधारण वस्त्रों को उतार देते हैं और “एहराम” नामक हज के विशेष कपड़े पहनकर लब्बैक कहते हुए मोहरिम होते हैं और फिर वे मक्का जाते हैं। उसके पश्चात वे एकसाथ हज करते हैं। पवित्र नगर मक्का पहुंचकर वे सफ़ा और मरवा नामक स्थान पर उपासना करते हैं। उसके पश्चात अपने कुछ बाल या नाख़ून कटवाते हैं। इसके बाद वे अरफ़ात नामक चटियल मैदान जाते हैं। आधे दिन तक वे वहीं पर रहते हैं जिसके बाद हज करने वाले वादिये मशअरूल हराम की ओर जाते हैं। वहां पर वे रात गुज़ारते हैं और फिर सूर्योदय के साथ ही मिना कूच करते हैं। मिना में विशेष प्रकार की उपासना के बाद वापस लौटते हैं उसके पश्चात काबे की परिक्रमा करते हैं। फिर सफ़ा और मरवा जाते हैं और उसके बाद तवाफ़े नेसा करने के बाद हज के संस्कार समाप्त हो जाते हैं। इस प्रकार हाजी, ईश्वरीय प्रसन्नता की प्राप्ति की ख़ुशी के साथ अपने-अपने घरों को वापस लौट जाते हैं।
हज जैसी उपासना, जिसमें उपस्थित होने का अवसर समान्यतः जीवन में एक बार ही प्राप्त होता है, क्या केवल विदित संस्कारों तक ही सीमित है जिसे पूरा करने के पश्चात हाजी बिना किसी परिवर्तन के अपने देश वापस आ जाए? नहीं एसा बिल्कुल नहीं है। हज के संस्कारों में बहुत से रहस्य छिपे हुए हैं। इस महान उपासना में निहित रहस्यों की ओर कोई ध्यान दिये बिना यदि कोई हज के लिए किये जाने वाले संस्कारों की ओर देखेगा तो हो सकता है कि उसके मन में यह विचार आए कि इतनी कठिनाइयां सहन करना और धन ख़र्च करने का क्या कारण है और इन कार्यों का उद्देश्य क्या है? पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पौत्र इमाम जाफ़र सादिक़ अलैहिस्सलाम के काल में इब्ने अबिल औजा नामक एक बहुत ही दुस्साहसी अनेकेश्वरवादी, एक दिन इमाम सादिक़ (अ) की सेवा में आकर कहने लगा कि कबतक आप इस पत्थर की शरण लेते रहेंगे और कबतक ईंट तथा पत्थर से बने इस घर की उपासना करते रहेंगे और कबतक उसकी परिक्रमा करते रहेंगे? इब्ने अबिल औजा की इस बात का उत्तर देते हुए इमाम जाफ़र सादिक़ अ. ने काबे की परिक्रमण के कुछ रहस्यों की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह वह घर है जिसके माध्यम से ईश्वर ने अपने बंदों को उपासना के लिए प्रेरित किया है ताकि इस स्थान पर पहुंचने पर वह उनकी उपासना की परीक्षा ले। इसी उद्देश्य से उसने अपने बंदों को अपने इस घर के दर्शन और उसके प्रति सम्मान व्यक्त करने के लिए प्रेरित किया और इस घर को नमाज़ियों का क़िब्ला निर्धारित किया। पवित्र काबा, ईश्वर की प्रसन्नता की प्राप्ति का केन्द्र और उससे पश्चाताप का मार्ग है अतः वह जिसके आदेशों का पालन किया जाए और जिसके द्वारा मना किये गए कामों से रूका जाए वह ईश्वर ही है जिसने हमारी सृष्टि की है।
इसलिए कहा जाता है कि हज का एक बाह्य रूप है और एक भीतरी रूप। ईश्वर एसे हज का इच्छुक है जिसमें हाजी उसके अतिरिक्त किसी अन्य से लब्बैक अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया न कहे और उसके अतिरिक्त किसी अन्य की परिक्रमा न करे। हज के संस्कारों का उद्देश्य, हज़रत इब्राहीम, हज़रत इस्माईल, और हज़रत हाजरा जैसे महान लोगों के पवित्र जीवन में चिंतन-मनन करना है। जो भी इस स्थान की यात्रा करता है उसे ईश्वर के अतिरिक्त किसी अन्य की उपासना से मुक्त होना चाहिए ताकि वह हज़रत इब्राहीम और हज़रत इस्माईल जैसे महान लोगों की भांति ईश्वर की परीक्षा में सफल हो सके। इस्लाम में हज मानव के आत्मनिर्माण के एक शिविर की भांति है जिसमें एक निर्धारित कालखण्ड के लिए कुछ विशेष कार्यक्रम निर्धारित किये गए हैं। एक उपासना के रूप में हज, मनुष्य पर सार्थक प्रभाव डालती है। हज के संस्कार कुछ इस प्रकार के हैं जो प्रत्येक मनुष्य के अहंकार और अभिमान को किसी सीमा तक दूर करते हैं। अल्लाहुम्म लब्बैक के नारे के साथ अर्थात हे ईश्वर मैंने तेरे निमंत्रण को स्वीकार किया, ईश्वर के घर की यात्रा करने वाले लोग अन्य क्षेत्रों में भी एकेश्वर की बारगाह में अपनी श्रद्धा को प्रदर्शित करने को तैयार हैं। लब्बैक को ज़बान पर लाने का अर्थ है ईश्वर के हर आदेश को स्वीकार करने के लिए आध्यात्मिक तत्परता का पाया जाना।
इस प्रकार हज के संस्कार, मनुष्य को उच्च मानवीय मूल्यों और भौतिकता पर निर्भरता को दूर करने के लिए प्रेरित करते हैं। इस मानवीय यात्रा की प्रथम शर्त, हृदय की स्वच्छता है अतःहृदय को ईश्वर के अतिरिक्त हर चीज़ से अलग करना चाहिए। जबतक मनुष्य पापों में घिरा रहता है उस समय तक ईश्वर के साथ एंकात की मिठास का आभास नहीं कर सकता। ईश्वर से निकटता के लिए पापों से दूरी का संकल्प करना चाहिए। हज के स्वीकार होने की यह शर्त है। जब दैनिक गतिविधियां मनुष्य को हर ओर से घेर लेती हैं और उच्चता की ओर उसकी आध्यात्मिक उड़ान में बाधा बनती हैं तथा विभिन्न प्रकार की आवश्यकताएं ज़ंजीर की भांति ईश्वरीय मार्ग में रुकावटें उत्पन्न करती हैं तो एसी स्थिति में पवित्र पलायन हेतु हज एक उपयुक्त अवसर है। इसका अर्थ हैं घमण्ड और निर्भर्ताओं से ईश्वर की ओर पलायन। इस आधार पर हज की यात्रा का आरंभ शुद्ध नियत से करना चाहिए। इस आध्यात्मिक यात्रा के लिए मन को समस्त बंधनों से मुक्त करना होगा। इस प्रकार हज के संस्कार एसी परिस्थितियां उपलब्ध करवाते हैं कि ईश्वर के घर का दर्शन करने वाला भीतर से परिवर्तित होता है। यही कारण है कि हम देखते हैं कि हज के दौरान व्यक्ति विभिन्न प्रकार की परिस्थितियों से गुज़रता है और हर क्षण वह ईश्वर के बारे में सोचता है। हर ओर वह उसकी निशानियों के पीछे रहता है ताकि अपनी प्यासी आत्मा को ईश्वर से प्रेम के स्रोत से तृत्प कर सके।