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उलूमे क़ुरआन की परिभाषा
वह सब उलूम जो क़ुरआन को समझने के लिए प्रस्तावना के रूप में प्रयोग किये जाते हैं उनको उलूमे क़ुरआन कहा जाता है। दूसरे शब्दों में उलूमे क़ुरआन उलूम का एक ऐसा समूह है जिसका ज्ञान हर मुफ़स्सिर और मुहक़्क़िक़ के लिए अनिवार्य है। वैसे तो उलूमे क़ुरआन स्वयं एक ज्ञान है जिसके लिए शिया व सुन्नी सम्प्रदायों में बहुत सी किताबें मौजूद हैं।
उलूमे क़रआन कोई एक इल्म नही है बल्कि कई उलूम का एक समूह है। और यह ऐसे उलूम हैं जिनका आपस में एक दूसरे के साथ कोई विशेष सम्बन्ध भी नही है। बल्कि प्रत्येक इल्म अलग अलग है।
उलूमे क़ुरआन कुछ ऐसे उप विषयों पर आधारित है जिनका जानना बहुत ज़रूरी है और इनमे से मुख्य उप विषय इस प्रकार हैं।
(1)उलूमे क़ुरआन का इतिहास (2) क़ुरआन के नाम और क़ुरआन की विषेशताऐं (3) क़ुरआन का अर्बी भाषा में होना (4) वही की वास्तविकता और वही के प्रकार (5)क़ुरआन का उतरना (6) क़ुरआन का एकत्रित होना (7) क़ुरआन की विभिन्न क़िराअत (8) क़ुरआन की तहरीफ़= फेर बदल (9) क़ुरआन का दअवा (10) क़ुरआन का मोअजज़ा (11) नासिख व मनसूख (12)मोहकम व मुतशाबेह।
इन में से कुछ उप विषय ज्ञानियो व चिंतकों की दृष्टि में आधार भूत हैं इसी लिए कुछ उप विषयों को आधार बना कर इन पर अलग से किताबे लिखी गई हैं। जैसे उस्ताद शहीद मुतह्हरी ने वही और नबूवत पर एक विस्तृत किताब लिखी है।
अहद नामा (प्रतिज्ञा पत्र)
इस दस्ता वेज़ को मालिके अशतर नखई रहमतुल्लाह के लिये तहरीर फरमाया। जब कि मोहम्मद इबने अबी बकर के हालात बिगड़ जाने पर उन्हें मिस्र और उस के अतराफ़ की हुकूमत सिपुर्द की। यह सब से तवील अहद नामा और अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) की तौकिआत में सब से ज़ियादा महासिन पर मुशतमिल हैः
बिसमिल्लाहीर्रहमानिर्रहीम
यह है वह फरमान जिस पर कारबन्द रहने का हुक्म दिया है खुदा के बन्दे अली अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) ने मालिक इबने हारिसे अशतर को जब मिस्र का उन्हें वालू बनाया ताकि वह खिराज़ जमअ करें, दुशमनों से लड़ें रिआया (प्रजा) की फलाहो बहदूद (हित एवं कल्याण) और शहरों की आबादी का इन्तिज़ाम करें।
उन्हें हुक्म (आदेश) है कि अल्लाह का खौफ़ (भय) करें। उस की इताअत (आज्ञा पालन) को मुकद्दस (प्राथमिक) समझें और जिन फराइज़ (कर्तब्यों) व सुनन (परम्पराओं) का उस ने अपनी किताब (कुरआन) में हुक्म (आदेश) दिया है उन का इत्तिबाअ (पालन) करें कि उन्हीं की पैरवी (अनुसरण) से सआदत (सौभाग्य) और उन्हीं के ठुकराने और बर्बाद (नष्ट) करने से बद बख्ती (दुर्भाग्य) दामन गीर होता है। और यह कि अपने दील, अपने हाथ और अपनी ज़बान से अल्लाह की नुसरत (सहायता) में लगे रहें। क्यों कि खुदाए बुज़ुर्ग व बरतर ने ज़िम्मा लिया है कि जो उस की नुसरत (सहाता) करेगा, और जो उस की हिमायत (समर्थन) के लिये खड़ा होगा, वह उसे इज़्ज़त व सर फराज़ी बख्शेगा।
इस के अलावा उन्हें हुक्म है कि वह नफ्सानी ख्वाहिशों के वक्त अपने नफ्स को कुंचलें और उस की मुंह ज़ोरियों के वक्त उसे रोकें, क्यों कि नफ्स बुराइयों ही की तरफ़ ले जाने वाला है, मगर यह कि खुदा का लुत्फो करम शामिले हाल हो।
ऐ मालिक! इस बात को जाने रहो कि तुम्हें उन इलाक़ों (क्षेत्रों) की तरफ़ भेज रहा हूं कि जहां तुम से पहले आदिल (न्यायप्रिय) और ज़ालिम (अन्यायी) कई हुकूमतें (शासन) गुज़र चुकी हैं, और लोग तुम्हारे तर्ज़े अमल (कार्य प्रणाली) को उसी नज़र से देखेंगे जिस नज़र से तुम अगले हुक्मरानों (शासकों) के बारे में कहते हो। यह याद रखो! कि खुदा के नेक बन्दों का पता चलता है उसी नेक नामी से जो उन्हें बन्दगाने खुदा में अल्लाह ने दे रखी है। लिहाज़ा (अस्तु) हर ज़खीरे (भण्डार) से ज़ियादा पसन्द तुमेहें नेक अअमाल का ज़खीरा (शुभकमों का भण्डार) होना चाहिये तुम अपनी ख्वाहिशों पर क़ाबू रखो और जो मशाग़िल तुम्हारे लिये हलाल नहीं हैं उन में सर्फ़ करने स ेअपने नफ्स (आत्मा) के साथ बुख्ल करो। क्यों कि मफस के साथ बुख्ल करना ही उस के हक़ को अदा करना है, चाहे वह खुद उसे पसन्द करे या ना पसन्द। रिआया के लिये अपने दिल के अन्दर रह्मो राफ़त और लुत्फो मुहब्बत को जगह दो। उन के लिये फाड़ खाने वाला दरिन्दा न बन जाओ कि उन्हें निगल जाना ग़नीमत समझते हो। इस लिये कि रिआया में दो किस्म के लोग हैं। एक तो तुम्हारे दीनी भाई, और दूसरे तुम्हारे जैसी मख्लूके खुदा। उन से लग़ज़िशें (त्रटियां) भी होंगी, खताओं (अपराधों) से भी उन्हें साबिक़ा पडेगा, और उन के हाथों से जान बूझ कर या भूल चूक से ग़लतियां भी होगी। तुम उन से उसी तरह अफ्व व दर गुज़र (क्षमा एवं दया) से काम लेना, जिस तरह अल्लाह से अपने लिये अफ्वो दरगुज़र को पसन्द करते हो। इस लिये कि तुम उस पर हाकिम हो और तुम्हारे ऊपर तुम्हारा इमाम हाकिम है। और जिस इमाम ने तुम्हें वाली बनाया है उस के ऊपर अल्लाह है, और उस ने तुम से उन लोगों के मुआमलात की अंजाम देही चाही है और उन के ज़रीए तुम्हारी आज़माइश की है। और देखो खबरदार अल्लाह से मुकाबिले लिये न उतरना, इस के ग़ज़ब के सामाने तुम बे बस हो, और उस के अफ्व व रहमत से बे नियाज़ नहीं हो सकते। तुम्हें किसी को मुआफ़ कर देने पर पछताना और सज़ा देने पर इतराना न चाहिये। गुस्से में जल्द बाज़ी से काम न लो, जब कि उस के टाल देने की गुंजाइश हो। कभी यह न कहना कि मैं हाकिम बनाया गया हों लिहाज़ा मेरे हुक्म के आगे सरे तस्लीम खम होना चाहिये, क्यो कि यह दिल में फसाद पैदा करने, दीन को कमज़ोर बनाने, और बर्बदियों को क़रीब लाने का सबब है। और कभी हुकूमत की वजह से तुम में तमकिनत या गुरूर पैदा हो तो अपने से बाला तर अल्लाह के मुल्क की अज़मत को देखो, और ख़याल करो कि वह तुम पर वह कुदरत रखता है कि तुम खुद अपने आप पर नहीं रखते। यह चीज़ तुम्हारी रऊनत व सर कशी को दबा देगी और तुम्हारी तुग़यानी को रोक देगी और तुम्हारी खोई हुई अक़्ल को पल्टा देगी।
ख़बरदार! कभी अल्लाह के साथ उस की अज़मत मे न टकराओ और उस की शान व जबरूत से मिलने की कोशिश न करो, क्यों कि अल्लाह हर जब्बार व सर कश को नीचा दिखा देता है।
अपनी ज़ात के बारे और अपने खास अज़ीज़ों और रिआया में से अपने दिल पसन्द अफ़राद के मुआमले में हुकूकुल्लाह और हुकूकुन्नास के मुतअल्लिक़ भी इन्साफ़ करना। क्यों कि अगर तुम ने ऐसा न किया तो ज़ालिम ठहरोगे। और जो खुदा के बन्दों पर जुल्म करता है तो बन्दों के बजाय अल्लाह उस का हरीफ़ व दुशमन बन जाता है, और जिस का वह हरीफ़ व दुशमन हो उस का हरीफ़ व दुशमन बन जाता है, और जिस का वह हरीफ़ दुशमन हो उस की हर दलील को कुचल देगा, और वह अल्लाह की नेमतों को सल्ब करने वाली और उस की ऊकूबतों को बुलावा देने वाली कोई चीज़ इस से बढ़ कर नहीं है कि जुल्म पर बाक़ी रहा जाये क्यों कि अल्लाह मज़लूमों की पुकार सुनता है और ज़ालिमो के लिए मौक़े का मुन्तज़िर रहता है।
तुम्हें सब तरीक़ो से ज़ियादा यह तरीका पसन्द होना चाहिये जो हक़ के एतिबार से बेहतरीन, इन्साफ़ के लिहाज़ से सब को शामिल और रिआया के ज़ियादा से ज़ियादा अफ़राद की मर्ज़ी के मुताबिक हो। क्यों कि अवाम नाराज़ागी खवास की रज़ामन्दी को बे असर बना देती है, और खास की नाराज़गी अवाम की रज़ामन्दी के होते हुए नज़र अन्दाज़ की जा सकती है। और यह याद रखो ! कि रईयत में खास से ज़ियादा कोई ऐसा नहीं जो खुश हाली के वक्त हाकिम पर बोझ बनने वाला, मुसीबत के वक्त हमदाद से कतरा जाने वाला, इन्साफ़ पर नाक भौं चढाने वाला, तलब व सवाल के मौके पर पंजे झाड़ कर पीछे पड़ जाने वाला, बख्शिश पर कम शुक्र गुज़ार होने वाला, महरूम कर दिये जाने पर बमुश्किल उज़ सुनने वाला, और ज़माने की इब्तलाओ पर बेसबरी दिखाने वाला हो और दीन का मज़बूत सहारा मुसलमानों की कुव्वत और दुशमन के मुक़ाबिले में सामाने दिफ़ाअ यहीं यहीं उम्मत के अवाम होते है। लिहाज़ा तुम्हारी पूरी तवज्जह और तुम्हारा पूरा रूख उन्हीं की जानिब होना चाहिये।
और तुम्हारी रिआया में सब से ज़यादा दूर और सब से ज़ियादा तुम्हें नापसन्द वह होना चाहिये, जो लोगों की ऐब जूई में ज़ियादा लगा रहता हो, क्यों कि लोगों में ऐब तो होता ही हैं, हकिम के लिये इन्तिहाई शायान यह है कि उन पर पर्दा ड़ाले। लिहाज़ा जो ऐब तुम्हारी नज़रों से ओझल हों उन्हें न उछालना, क्यों कि तुम्हारा काम उन्हीं ऐबों को मिटाना कि जो तुम्हारे ऊपर ज़ाहिर हों। और जो ढके छिपे हों उन का फौसला अल्लाह के हाथ है। इस लिये जहां तक बन पड़े ऐबों को छिपाओ ताकि अल्लाह भी तुम्हारे उन उयोब की पर्दा पोशी कर के छिपए जिन्हें तुम रईयत से पोशीदा रखना चाहते हो। लोगों से कीना की हर गिरह को खोल दो और दुशमनी की ह रस्सी को काट दो, और हर ऐसे रवैये से जो तुम्हारे लिये मुनासिब नहीं बेखबर बन जाओ, और चुगुल खोर की झट से हां में हां न मिलाओ, क्यों कि वह फ़रेब कार होता है। अगरचे खैर ख्वाहों की सूरत में सामने आता है।
अपने मशविरे में किसी बखील (कंजूस) को शरीक न करना कि वह तुम्हें दूसरों के साथ भलाई करने से रोकेगा, और फ़करो इफ़लास का खतरा दिखायेगा। और न किसी बुज़दिल (कायर) से मुहिम्मात (अभियानों) में मशविरा लेना कि वह तुम्हारी हिम्मत पस्त कर देगा, और न किसी लालची से मशविरा करना कि वह ज़ुल्म की राह से माल बटोरने को तुम्हारी नज़रों से सज देगा। याद रखो! कि बुख्ल बुज़दिली और हिर्स (कंजूसी, कायरता एवं लालसा) अगरचे अलग अलग खसलतें (आदतें) हैं मगर अल्लाह से बद गुमानी इन सब में शरीक है। तुम्हारे लिये सब से बदतर वज़ीर (मंत्री) वह होगा जो तुम से पहले बद किर्दारों (चरित्रहीनों) का वज़ीर और गुनाहों में उन का शरीक रह चुका है। इस किस्म के लोगों को तुम्हारे मख्सूसीन (विशिष्ट) जनों) में से न होना चाहिये क्यों कि वह गुनाह गोरों के मुआविन (सहयोगी) और ज़ालिमों के साथी होते हैं। उन की जगह तुम्हें ऐसे लोग मिल सकते हैं जो तदबीर व राय और कारकर्दगी के एतिबार से उन के मिस्ल होंगे, मगर उन की तरह गुनाहों की गरांबारियों में दबे हुए न होंगे। जिन्हों ने न किसी ज़ालिम की उस के जुल्म में मदद की हो और न किसी गुनह गार का उस के गुनाह में हाथ बटाया हो, उन का बोझ तुम पर हल्का होगा, और यह तुम्हारे बेह्तरीन मुआविन साबित होंगे। और तुम्हारी तरफ़ महब्बत से झुकने वाले होंगे, और तुम्हारे अलावा दूसरे से रब्त न रखोंगे। इन्ही को तुम ख्लवत व जल्वत (एकान्त एवं सभा) में ज़ियादा तर्जीह उन लोगों को होना चाहिये कि हक़ की कड़वी बातें तुम से खुल कर कहने वाले हों, और उन चीज़ों में, कि जिन्हें अल्लाह अपने मख्सूस बन्दों के लिये नापसन्द करता है तुम्गारी हगुत कम नदद करने वाले हों .... चाहे वह तुम्हारी ख्वाहिशों (इच्छाओ) से कितनी मेल खाती हों। पहेंज़हारों और रास्त बाज़ों (संयमी एवं सच्चे लोगों) से अपने को वाबस्ता (संलग्र) रखना। फिर उन्हें इस का आदी बनाना कि वह तुम्हरे किसी कारनामे के बगैर तुम्हारी तअरीफ़ कर के तुम्हें खुश न करें क्यों कि ज़ियादा मद्ह सराई (प्रशंसा) गुरूर पैदा करती है, और सरकशी (विद्रोह) की मंजिल से क़रीब कर देती है। और तुम्हरे नज़दीक नेकूकार (सज्जन) और बद किर्दार (दुर्जन) दोनों बराबर न हों। इस लिये कि ऐसा करने से नेकों को नेकी से बे रग़बत करना और बदों को बदी पर पूरा एतिमाद (भरोसा) उसी वक्त करना चाहिये जब कि वह उन से हुस्ने सुलूक (सदव्यवहार) करता है, और उन पर बोझ न लादे, और उन्हें ऐसा ना गवार चीज़ों पर मजबूर न करे जो उन के बस में न हों। तुम्हें ऐसा रवैया इख्तियार करना चाहिये कि इस हुस्ने सुलूक से तुम्हें रईयत (प्रजा) पर पूरा एतिमाद हो सके। क्यों कि यह एतिमाद तुम्हारी तवील अन्दरूनी उलझनों को खत्म तर देगा और सब से जियादा तुम्हारे एतिमाद के वह मुस्तहक़ हैं जिन के साथ तुम ने अच्छा सुलूक किया हो, और सब से ज़ियादा बे एतिमादी के मुस्तहक़ वह हैं कि जिन से तुम्हारा बरताव अच्छा न रहा हो।
और देखो अच्छे तौर तरीके को खत्म न करना कि जिस पर इस उम्मत के बुजुर्ग चलते रहे हैं और जिस से इत्तिहाद व यक जेहती (संगठन एवं एकता) पैदा और रईयत की इस्लाह हुई है। और ऐसे तरीके ईजाद न करना कि जो पहले तरीकों को ज़रर पहुंचायें। अगर ऐसा किया तो नेक रविश के कायम कर जाने वालों को तो सवाब मिलता रहेगा मगर उन्हे खत्म कर देने का गुनाह तुम्हारी गर्दन पर होगा, और अपने शहरों के इस्लाही उमूर (सुधार संबन्धी कार्यों) को मुस्तहकम (सुदृढ़) करने और उन चीज़ों के कायम करने में कि जिन से अगले लोगों के हालात मज़बूत रहे थे उलमा व हुकमा (ज्ञानियों एवं विघानों) के साथ बाहमी मशविरे और बात चीत करते रहना।
और तुम्हें मअलूम होना चाहिये कि रिआया में कई तबके (वर्ग) होते हैं। जिन की सूद व बहबूद एक दूसरे से बे नियाज़ नहीं हो सकते। इन में से एक तबका वह है जो अल्लाह की राह में काम आने वाले फौजियों का है। दूसरा तबका वह है जो उमूमी व खुसूसी तहरीरों का काम अंजाम देता है। तीसरे इन्साफ करने वाले कुज़ात (न्यायाधिशों) का है। चौथा हुकूमत के वह उम्माल (कर्मचारी) हैं जिन से अम्न और इन्साफ कायम होता है। पांचवें खिराज (कर) देने वाले मुसलमान और जिज़मा देने वाले ज़िम्मियों का, छटा तिजारत पेशा व अहले हिर्फा (व्यावसायियों एवं शिल्पकारों) कार, सातवां फुकूरा व मसाकीन (मिक्षुकों एवं दरिद्रों) का वह तबका है जो सब से पस्त (निकृष्ट) है, और अल्लाह ने हर एक का हक मुअय्यन (निर्धारित) कर दिया है। और अपनी किताब या सुन्नते नबवी में उस की हद बन्दी कर दी और यह मुकम्मल दस्तूर हमारे पास महफूज़ है।
पहला तकवा फौजी दस्ते....यह बहुक्मे खुदा रईयत (जनता) की हिफाज़त का किला, फरमां रवाओं (शासकों) की ज़ीनत (शोभा) दीनो मजहूब की कुव्वत, और अम्न (शान्ति) की राह है। रईयत को नज़्मो नसक इन्हीं से कायम रह सकता है, और फौज की ज़िन्दगी का सहारा वह खिराज (कर) है जो अल्लाह ने उस के लिये मुअय्यन (निर्धारित) किया है जिस से वह दुशमनों से जिहाद करने में तकवियत हासिल करते हैं, और अपनी हालत को दुरुस्त बनाते हैं, और ज़रुरियात को बहम पहुंचाते हैं। फिर इन दोनों तबक़ों के नज़मो बका के लिये तीसरे तबक़े की ज़रुरत है कि जो कुजात उम्माल और मुंशियाने दफातिर का है, जिस के ज़रीए बाहमी मुआहदों की मज़बूती और खिराज और दीगर मुनाफा की जमअ आवरी होती है और मअमूली और गैर मअमूली मुआमलों में उन के ज़रीए वुसूक व इत्मिनान हासिल किया जाता है, और सब का दारो मदार सौदागरों और सत्राओं (शिल्पकारों) पर है कि वह उन की ज़रुरीयात को फराहम करते हैं, बाज़ार लगाते हैं और अपनी काविशों (प्रयासों) से उन की ज़रुरीयात मुहैया कर के उन्हें खुद मुहैया करने से आसूदा कर देते हैं। उस के बाद फिर फकीरों और नादारों का तबका है, जिन की इनाअत व दस्तगीरी ज़रुरी है। अल्लाह तआला ने इन सब के गुज़ारे की सूरतें पैदा कर रखी हैं, और हर तबके का हाकिम पर हक़ है, कि वह उन के लिये इतना मुहैया करे जो उन की हालत दुरुस्त कर सके। और हाकिम खुदा के उन तमाम ज़रुरी हकूक से ओहदा बर आ नहीं सकता, मगर इसी सूरत में कि पूरी तरह कोशिश करे और अल्लाह से मदद मांगे, फिर अपने हक़ को साबित व बर्करार रखे, चाहे उस की तबीअत पर आसान हो या दुशवार (सरल हो अथवा कठिन) उसे बर्दाशत करे। फौज का सरदार उसे बनान, जो अपने अल्लाह का और अपने रसूल का और तुम्हारे इमाम का सब से ज़ियादा खैर ख्वाह (शुभ चिन्तक) हो, सब से ज़ियादा पाक दामन हो, और बुर्दबारी में नुमायां हो, जलद गुस्से में न आता हो, कमज़ोरों पर रहम खाता हो, और ताकतवरों के सामने अकड़ जाता हो, न बद खूई उसे जोश में ले आती हो, और न पस्त हिम्मती उसे बिठा देती हो। फिर ऐसा होना चाहिये कि तुम बलन्द खानदान, नेक घराने, और उम्दा रिवायात (स्वस्थ परम्पराओं) रखने वालों और हिम्मत व शुजाअत और जूद व सखावत के मालिकों से अपना रब्त ज़ब्त बढ़ाओ क्यों कि यही लोग बुज़ुर्गीयों का सरमाया और नेकियों का सर चशमा होते हैं। फिर उन के हालात की इस तरह देख भाल करना जिस तरह मां बाप अपनी औलाद की देख भाल करते हैं। अगर उन के साथ कोई ऐसा सलूक करो जो उन की तकवीयत का सबब हो, तो उसे बड़ा न समझना और अपने किसी मअमूली सलूक को भी गैर अहम न समझ लेना क्यों कि इस हुस्त्रे सुलूक से उन की खैर ख्वाही का जज़बा इभरेगा और हुस्त्रे एतिमाद का इज़ाफा होगा और इस खयाल से कि तुम ने उस की बड़ी ज़रुरतों को पूरा कर दिया है कहीं उन की छोटी ज़रुरतों से आँख बन्द न कर लेना, क्यों कि यही छोटी किस्म की मेहरबानी की बात भी अपनी जगह फायदा बख्श होती है, और यह बड़ी ज़रुरतें अपनी जगह अहमियत रखती हैं, और फौजी सरदारों में तुम्हारे यहां बलन्द मंज़िलत (उच्च स्तरिय) समझा जाय, जो फौजियों की ईआनत में बराबर का हिस्सा लेता हो, और अपने रुपये पैसे से इतना सलूक करता हो कि जिस से उन का और उन के पीछे रह जाने वाले बाल बच्चों का बखूबी गुज़ारा हो सकता हो ताकि वह सारी फिक्रों (चिन्ताओं) से बे फिक्र (निशचिन्त) हो कर पूरी यकसूई के साथ दुशमन से जिहाद करें। इस लिये कि फौजी सरदारों के साथ तुम्हारा मेहरबानी के साथ पेश आना उन के दिलों में तुम्हारी तरफ़ मोड देगा।
हुकमरानों (शासकों) के लिये सब से बड़ी आँखों की ठंडक इस में है कि शहरों में अदलो इन्साफ़ (शान्ति ब्यवस्था) बरक़रार रहे, और रिआया की महब्बत ज़ाहिर होती रहे। और उन की मोहब्बत उसी वक्त ज़ाहिर हुआ करती है कि जब उन के दिलों में मैल न हो, और उन की खैर ख्वाही उसी सूरत में साबित होती है कि वह अपने हुकमरानों के गिर्द हिफाज़त के लिये घेरा डाले रहें, उन का इकतिदार (सत्ता) सप पड़ा बोझ न समझें और उन की हुकूमत के खातिमों के लिये घड़ियां गिनें। लिहाज़ा उन की उम्मीदों में वुसअत व कुशाइश रखना, उन्हें अच्छे लफ्ज़ों से सराहते रहना और उन की अच्छी कारकर्दगी दिखाने वालों के कारनामों का तज़किरा करते रहना, इस लिये कि उन के अच्छे कारनामों के ज़िक्र बहीदूरों को जोश में ले आता है और पस्त हिम्मतों को अभारता है, इंषाअल्लाह। जो शख्स जिस कारनामे को अंजाम दे उसे पहचानते रहना और एक का कारनामा दूसरे की तरफ़ मंसूब न कर देना, और उस की हुस्त्रे कार कर्दगी का सिला देने में कमी न करना, और कभी ऐसा न करना कि किसी शख्स की बलन्दी व रिफअत की वजह से उस के मअमूली काम को बड़ा समझ लो और किसीबड़े काम को उस के खुद पस्त होने की वजह से मअमूली क़रार दे लो।
जब ऐसी मुशकिलें तुम्हें पेश आयें कि जिन का हल न हो सके और ऐसे मुआमलात कि जो मुशतबह हो जायें तो उन में अल्लाह और रसूल (स0) की तरफ़ रुजूउ करो क्यों कि खुदा ने जिन लोगों को हिदायत करना चाही है उन के लिये फरमाया हैः----
ऐ ईमानदारो अल्लाह की इताअत करो और उस के रसूल (स0) की और जो तुम में से साहिबाने अम्र हों।
तो अल्लाह की तरफ़रुजूउ करने का मतलब यह है कि आप के उन मुत्तफिक इलैह इर्शादात (सर्वमान्य कथनों) पर अमल किया जाए जिन में कोई इखतिलाफ़ (मतभेद) नहीं।
फिर यह कि लोगों के मुआमलात का फैसला करने के लिये ऐसे शख्स को मुन्तखब करो जो तुम्हारे नज़दीक तुम्हारी रिआया में सब से बेहर हो, जो वाकियात की पेचीदगियों से ज़ीक में न पड़ जाता हो, और न झगड़ा करने वालों के रवैये से गुस्से में आता हो, और न अपने किसी गलत नुक्तए नज़र (दृष्टिकोण) पर अड़ता हो, और न हक़ को पहचान कर उसके इखतियार करने में तबीअत पर बार महसूस करता हो, और न उस का नफ्स ज़ाती तमअ (आत्मा व्यक्तिगत लाभ) पर झुक पड़ता हो, और न पूरी तरह बगैर छान बीन किये हुए सरसरी तौर पर किसी मुआमले को समझ लेने पर इकतिफा करता हो। शक व शुब्हा के मौक़े पर क़दम रोक लेता हो और दलीलो हुज्जत को सब से ज़ियादा अहमियत देता हो। फरीकैन की बहसा बहसी से उक्ता न जाता हो, मुआमलात की तहक़ीक में बड़े सब्र व जब्त से काम लेता हो और जब हकीकत आईना हो जाती हो तो बे धडक फैसला कर देता हो। वह ऐसा हो जिसे सराहना मगरूर (घमन्डी) न बनाये, और तमन्ना जंबादारी (पक्षपात) पर आमादा न कर दे। अगर चे ऐसे लोग कम ही मिलते हैं। फिर यह कि तुम खुद उन के फैसले का बार बार जायज़ा लेते रहना। दिल खोल कर उन्हें इतना देना कि जो उन के हर उज्र को गैर मसमूउ बना दे और लोगों की इन्हें कोई एहतियाज न रहे। अपने यहां उन्हें ऐसे बाइज़्ज़त मर्तबे पर रखो कि तुम्हारे दरबार रस लोग उन्हें ज़रर पहुंचाने का कोई ख्याल कर सकें ताकि वह तुम्हारे इलतिफात की वजह से लोगों की साज़िशों से महफूज़ रहें। इस बारे में इन्तिहाई बालिग नज़री से काम लेना क्यों कि यह दीन बद किर्दापों के पंजे में असीर रह चुका है। जिस में नफ्सानी ख्वाहिशों की कार फरमाई थी और उसे दुनिया तलबी का एर ज़रीआ बना लिया गया है।
फिर अपने ओहदे दारों के बारे में नज़र रखना, उन से खूब आज़माइश के बाद मंसब देना। कभी सिर्फ़ रिआयत और जानिबदारी की बिनी पर उन्हें मंसब अता न करना इस लिये कि यह बाते ना इनसाफी और बे ईमाना का सर चश्मा हैं, और ऐसे लोगों को मुन्तखब करना जो आज़मूदा और गैरत मन्द हों। ऐसे खानदानों में से जो अच्छे हों, और जिन की खिदमत इसलाम के सिलसिले में पहले से हो। क्यों कि ऐसे लोग बलन्द इखलाक और बेदाग इज़्ज़त वाले होते हैं। हिर्स व तमअ की तरफ़ कम झुकते हैं और अवाकिब और नताइज पर जियादा नज़र रखते हैंष फिर उन की तन्खवाहों का मअयार बुलन्द रखना क्यों कि इस से उन्हें अपने नफूस के दुरुस्त रखने में मदद मिलेगी, और उस माल से बेनियाज़ रहेंगे जो उन के हाथों में बतौरे अमानत होगा। इस के बाद भी वह तुम्हारे हुक्म की खिलाफ़ वर्ज़ी करें या अमानत में रखना अन्दाज़ी करें तो तुम्हारी हुज्जत उन पर कायम होगी। फिर उन के कामों को देखते भालते रहना और सच्चे और वफादार मुखबिरों को उन पर छोड़ देनाष क्यों कि खुफिया तौर पर उन के उमूर की निगरानी उन्हें अमानत के बरतने और रईयत के साथ नर्म रवैया रखने के बाइस होगी। खायन मददगारों से अपना बचाव करते रहना। अगर उन में से कोई खयानत की तरफ़ हाथ बढ़ाए और मुत्तफिका तौर पर जासूसों की इत्तिलाआत तुम तक पहुंच जायें तो शहादत के लिये उसे काफी समझना। उसे जिस्मानी तौर पर सज़ा देना और जो कुछ उस ने अपने ओहदे से फायदा उठाते हुए समेटा है उसे वापस लेना और उसे ज़िल्लत की मंज़िलत में खड़ा कर देना, और खियानत की रुसवाईयों के साथ उसे रुशनास कराना और नंगों रुसवाई का तौक़ उस के गले में डाल देना।
माल गुज़ारी के मुआमले में मालगुज़ारी अदा करने वालों का मफाद पेशे नज़र रखना क्यों कि बाज़ और बाज़गुज़ारों की बदौलत ही दूसरों के हालात दुरुस्त किया जा सकते हैं। सब इसी खिराज और खिराज़ देने वालों के सहारे पर जीते हैं। और खिराज की जमअ आवरी से ज़ियादा ज़मीन की आबादी का ख्याल रखना, क्यों कि खिराज भी तो ज़मीन की आबादी ही से हासिल हो सकता है, और जो आबाद किये बगैर खिराज चाहता है वह मुल्क की बर्बादी औरबंदगाने खुदा की तबाही का सामना करता है और उस की हुकूमत थोड़े दिनों से ज़ियादा नहीं रह सकती।
अब अगर वह खिराज की गरांबारी या किसी आफते नागहानी या नहरी व बारानी इलाकों में ज़राए आब पाशी के खत्म होने या ज़मीन के सैलाब में घिर जाने या सेराबी न होने के बाइस उस के तबाह होने की शइकायत करें तो खिराज में इतनी कमी कर दो जिस से तुम्हें उन के हालात के सुधरने की तवक्को हो, और उन के बोझ को हल्का करने से तुम्हें गरानी न महसूस हो। क्यों कि उन्हें ज़ेरबारी से बचाना एक ऐसा ज़खीरा है कि जो तुम्हारे मुल्क की आबादी औऱ तुम्हारी क़लमरवे हुकूमत की ज़ेब व ज़ीनत है अदल कायम करने की वजह से मसर्रत बे पांया भी हासिल कर सकोगे, और अपने इस हुस्ने सुलूक की वजह से कि जिस का ज़खीरा तुम ने उन के पास रख दिया है तुम उन की कुव्वत के बलबूते पर भरोसा कर सकोगे और रहमो राफ़त के जिलौ में जिस सीरते आदिलाना का तुम ने उन्हें खूगर बनाया है, इस के सबब से तुम्हें उन पर वुसूक व एतिमाद हो सकेगा। इस के बाद मुम्किन है कि ऐसे हालात भी पेश आयें कि जिन में तुम्हें उन पर एतिमाद करने की ज़रूरत हो तो वह उन्हें बतीबे खातीर झेल ले जायेंगे क्यों कि मुल्क आबाद है तो जौसा बोझ उस पर लादोगे, वह उठा लेगा। और ज़मीन की तबाही तो इस से आती है कि काश्तकारों के हाथ तंग हो जायें और उन की तंगदस्ती इस वजह से होती है कि हुक्काम माल व दौलत समेटने पर तुल जाते हैं और उन्हें अपने इकतिदार के खत्म होने का खटका लगा रहता है और इब्रतों से बहुत कम फ़ायदा उठाना चाहते हैं
फिर यह कि अपने मुंशियाने दफातिर की अहम्मीयत पर नज़र रखना अपने मुआमलात उन के सिपुर्द करना जो उन में बेहतर हगों। और अपने उन फरामीन को जिन में मखफी तदाबीर और ममलिकत के रुमूज़ व असरार दर्ज होते हैं खुसूसियात के साथ उन के हवाले करना जो सब से अच्छे अखलाक़ के मालिक़ हों। जिन्हें एज़ाज़ हासिल होना सर्कश न बनाये कि वह भारी महफिलों में तुम्हारे खिलाफ़ कुछ कहने की जुरअत करने लगें। और ऐसे बे पर्वा न हो कि लेन देन के बारे में जो तुम से मुतअल्लिक हों तुम्हारे कारिन्दों के खतूत तुम्हारे सामने पेश करने और उन के मुनासिब जवाबात रवाना करने में कोताही करते हों, और वह तुम्हारे हक़ में जो मुआहदा करें उस में कोई खामी न रहने दें। और न तुम्हारे खिलाफ़ किसी साज़ बाज़ का तोड करने में कमज़ोरी दिखायें, और वह मुआमलात में अपने सही मर्तबे और मकाम से ना आशना न हों। क्यों कि जो अपना सही मकाम नहीं पहचानता वह दूसरों के कदरो मकाम से और भी ना वाकिफ़ होगा। फिर यह कि उन का इन्तिखाब तुम्हें अपनी फरासत, खुश एतमादी, और हुस्त्रे ज़न की बिना पर करना चाहिय, क्यों कि लोग तसत्रों और हुस्त्रे खिदमात के ज़रीए हुकमरानों की नज़रों में समा कर तआरुफ़ का राहें निकाल लिया करते हैं। हालां कि उन में ज़रा भी खैर ख्वाहही और अमानत दारी का जज़्बा नहीं होता।
लेकिन तुम उन्हें इन खिदमात से परखो जो तुम से पहले वह नेक हाकिमों के मानहत रह कर अंजाम दे चुके हों, तो जो अवाम में नेक नाम और अमानत दारी के एतबार से ज़यादा मशहूर हों उन की तरफ़ खुसूसियात के साथ तवज्जोह करो। इस लिये कि ऐसा करना इस की दलील होगा कि तुम अल्लाह के मुखलिस और अपने इमाम के खैर ख्वाह हो। तुम्हें मुहकमए तहरीर (लिपि विभाग) के हर शोबे (प्रत्येक संप्रभाग) पर एक एक अफसर मुकर्रर करना चाहिये, जो उस शोबे के बड़े से बड़े काम से आजिज़ न हों, और काम की ज़यादती से बौखला न उठे। याद रखो। कि इन मुंशियों में जो ऐब होगा, और तुम उन से आँख बन्द रखोगे, उस की ज़िम्मेदारी तुम पर होगी।
फिर तुम्हें ताजिरो और सत्राओं (ब्यापारियों एवं उधोगपतियों) के ख्याल और उन के साथ अच्छे बर्ताव की हिदायत की जाती है, और तुम्हें दूसरों को उन के मुतअल्लिक हिदायत करना है। ख्वाह वह एक जगह रह कर ब्यापार करने वाले हों या फेरी लगा कर बेचने वाले हों, या जिस्मी मशक्कत मज़दूरी या दस्तकारी (शिल्प) से कमाने वाले हों, क्यों कि यही लोग मुनाफ़ा का सर चश्मा और ज़रुरियात के मुहैया करने का ज़रीया होते हैं। यह लोग ज़रुरियाक की खुशकियों, तरियों मैदानों इलाक़ों और पहाड़ों, ऐसे दूस उफतादा मक़ामात से दरआमद (आयात) करते हैं, और ऐसी जगहों से जहां लोग पहुंच नहीं सकते और न वहां जाने की हिम्मत कर सकते हैं। यह लोग अम्न पसंद और सुल्ह जू होते हैं। इन से किसी फसाद और शोरिस का अंदेशा नहीं होता। यह लोग तुम्हारे सामने हों या जहां जहां दूसरे शहरों में फैले हुए हों। तुम उन की थबर गीरी करते रहना। हां इस के साथ यह भी याद रखो कि उन में ऐसे भी होते हैं जो इन्तिहाई तंग नज़र और बड़े कंजूस होते हैं जो नफअ अंदोज़ी के लिये माल रोक रखते हैं और ऊंचे निर्ख मुकर्रर कर लेते हैं। यह चीज़ अवाम के लिये नुक्सान देह और हुक्काम की बद नामी का बाइस होती है। लिहाज़ा ज़खीरा अन्दोज़ी से मना करना, क्यों कि रसूलुल्लाह (स0) ने इस से मुमानिअत फरमाई है, और खरीद व फरेख्त सहीह तराज़ुओं और मुनासिब निर्खों के साथ बसहूलत होना चाहिये, कि न बेचने वाले को नुक्सान हो और न खरीदने वाले को खिसारा (घाटा) हो। इस के बाद भी कोई ज़खीरा अंदोज़ी के जुर्म का मुर्तकिब हो तो उसे मुनासिब हद तक सज़ा देना। फिर खुसूसियात के साथ अल्लाह का खौफ़ करना। पसमांदा व उफ्तादा तबके (पिछड़े एवं दलित वर्ग) के बारे में जिन का कोई सहारा नहीं होता....वह मिसकिनों मुहताजों और फकीरों का तबका है। उन में कुछ तो हाथ फैला कर मांगने वाले होते हैं, और कुछ की सूरत सवाल होती है, अल्लाह की थातिर उन बेकसों के बारे में उस के उस हक़ की हिफाज़त करना जिस का उसने तुम्हें ज़िम्मेदार बनाया है। उन के लिये एक हिस्सा बैतुल माल से मुअय्.न कर देना, और एक हिस्सा हर शहर के उस मुहल्ले में से देना जो इसलामी गनीमत ज़मीनों से हासिल हुआ हो। क्यों कि उस में दूर वालों का उतना ही हिस्सा है जितना नज़दीक वालों का। और तुम उन सब के हकूक की निगहदाशत (देख भाल) के ज़िम्मेदार बनाये गए हो। लिहाज़ा तुम्हें दौलत की सर मस्ती गाफिल न कर दे। क्यों कि किसी मअमूली बात को इस लिये नज़र अंदाज़ नहीं किया जायेगा कि तुम ने बहुत से अहम कामों को पूरा कर दिया है। लिहाज़ा अपनी तवज्जह उन से न हटाना, और न तकब्बुर (अहंकार) के साथ उन की तरफ़ से अपना रुख फेरना और खुसूसियात के साथ खबर रखो ऐसे अफराद कि जो तुम तक नहीं पहुंच सकते जिन्हें देखने से आँखें कराहत करती होंगी, और लोग उन्हें हिकारत से ठुकराते होंगे। तुम उन के लिये अपने किसी भरोसे के आदमी को जो खौफे खुदा रखने वाला और मुतवाज़ेह हो, मुकर्रर कर देना कि वह उन के हालात तुम तक पहुंचाता रहे। फिर उन के साथ वह तर्ज़े अमल इखतियार करना जिस से कियामत के दीन अल्लाह के सामने हुज्जत पेश कर सको, क्यों कि रईयत में दूसरों से ज़ियादा यह इन्साफ़ के मोहताज हैं, और यूं तो सब ही ऐसे हैं कि तुम्हें उन के हकूक से उहदा बरआ हो कर अल्लाह के सामने सुर्खुरु होना है। और देखो यतिमों और साल खुर्दा बुढ़ों का ख्याल रखना कि जो न कोई सहारा रखते हैं और न सवाल के लिये उठते हैं। और यही वह काम है जो हम पर गरां गुज़रता है। हां खुदा उन लोगों के लिये जो उक्बा के तलबगार रहते हैं उस की गरानियों को हल्का कर देता है वह उसे अपनी ज़ात पर झेल ले जाते हैं और अल्लाह ने जो उन से वअदा किया है उस की सच्चाई पर भरोसा रखते हैं।
और तुम अपने औक़ात (समय) का एक हिस्सा हाजत मन्दों के लिये मुअय्यन (निश्चित) कर देना, जिन में सब काम छोड़ कर उन्हीं के लिये मखसूस हो जाना और उन के लिये एक आम दरबार करना, और उस में अपने पैदा करने वाले अल्लाह के लिये तवाज़ो व इन्केसारी से काम लेना, और फौजीयों, निगहबानों, और पुलिस वालों को हटा देना ताकि कहने वाले बे धडक कह सकें। क्यों कि मैं ने रसूलुल्लाह (स0) को कई मौके पर फरमाते हुए सुना है कि, उस कौम में पाकीज़गी नहीं आ सकती जिस में कमज़ोरों को खुल कर ताकतवरों से हक़ नहीं दिलाया जाता। फिर यह कि अगर उन के तेवर बिगड़ें या साफ साफ मतलब न कह सकें तो उसे बर्दाशत करना और तंग दिली और निखवत को उन के मुकाबले में पास न आने देना। इस की वजह से अल्लाह तुम पर अपनी रहमत के दामनों को फैला देगा, और अपनी फरमां बरदारी का तुम्हें अज्र ज़रुर देगा। और जो हुस्त्रे सलूक करना इस तरह कि चेहरे पर शिकन न आए, और न देना तो अच्छे तरीके से उज्र ख्वाही कर लेना।
फिर कुछ उमूर ऐसे हैं कि जिन्हें खुद तुम ही को अंजाम देना चाहिये, उन में से एक हुक्काम के उन मुरासलात (पत्रों) का जवाब देना है जो तुम्हारे मुंशियों के बस में न हो, और एक लोगों की हाजतें, जब तुम्हारे सामने पेश हों या तुम्हारे अमले के अर्कान उन से जी चुरायें तो खुद उन्हें अंजाम देना है। रोज़ का काम उसी रोज़ खत्म कर दिया करो, क्यों कि हर दिन अपने ही काम के लिये मखसूस होता है, और अपने औकात का बेहतर व अफज़ल हिस्सा अल्लाह की इबादत के लिये खास कर देना। अगरचे यह तमाम काम भी अल्लाह ही के लिये हैं जब नियत बखैर हो और उन के लिये रईयत की खुशहाली हो।
उन मखसूस अशगाल में से कि जिन के साथ तुम खुलूस के साथ अल्लाह के लिये अपने दीनी फरीज़ों को अदा करते हो उन वाजिबात की अंजाम देही होनी चाहिये जो उस ज़ात से मखसूस है। तुम शबो रोज़ के अवकात में अपनी जिस्मानी ताकतों का कुछ हिस्सा अल्लाह के सिपुर्द कर दो, और जो इबादत भी तकर्रुबे इलाही की गरज़ से बजा लाना ऐसी हो कि न उस में कोई खलल हो, और न कोई नक्स, चाहे उस में तुम्हें कितनी जिस्मानी मेहनत उठाना पड़े। और देखो जब लोगों को नमाज़ पढ़ाना तो ऐसी नहीं कि तूल दे कर लोगों को बेज़ार कर दो, और न ऐसी मुख्तसर की नमाज़ बर्बाद हो जाए। इस लिये की नमाज़ियों में बीमार भी होते हैं और ऐसे भी कि जिन्हें कोई ज़रुरत दर पेश है। चुनांचे जब मुझे रसूलुल्लाह (स0) ने यमन की तरफ़ रवाना किया तो मैं ने आप से दर्याफ्त किया कि मैं उन्हें नमाज़ किस तरह पढ़ाऊँ। तो फरमाया कि जैसी उन में सब से ज़ियादा कमज़ोर व नातवां की नमाज़ हो सकती है, और तुम्हें मोमिनों के हाल पर मेहरबान होना चाहिये।
इस के बाद यह ख्याल रहे कि रिआया से बहुत दिनों तक रुपोशी इखतियार न करना, क्यों कि हुकमरानों का रिआया से छुप कर रहना एक तरह की तंग दिली और मुआमलात से बेखबर रहने का सबब है। और यह रु पोशी उन्हें भी उन उमूर पर मुत्तला होने से रोकती है जिन से वह ना वाकिफ़ हैं। जिस की वजह से बड़ी चीज़ उन की नज़र से छोटी चीज़ बड़ी, अच्छाई बुराई और बुराई अच्छाई हो जाया करती है। और हक़ बातिल के साथ मिल जुल जाया करता है। और हुकमरान भी आखीर ऐसा ही बशर होता है जो नावाकिफ़ रहेगा उन मुआमलात से जो लोग उस से पोशिदा (छिपा कर) करें। और हक़ की पेशानी पर कोऊ निशान नहीं हुआ करते कि जिस के ज़रीए झूठ की किस्मों को अलग कर के पहचान लिया जाए। और फिर तुम दो ही तरह के आदमी हो सकते हो, या तो तुम ऐसे हो कि तुम्हारा नफ्स हक़ कती अदायगी के लिये आमादा हो, तो फिर वाजिब हकूक अदा करने और अच्छे काम कर गुज़रने से मुंह छिपाने की ज़रुरत क्या। और या तुम ऐसे हो कि लोगों को तुम से कोरा जवाब ही मिलना है, तो जब लोग तुम्हारी अता (दान) से मायूस हो जायेंगे तो खुद ही बहुत जल्द तुम से मांगना छोड़ देंगे, और फिर यह कि लोगों की अकसर ज़रुरतें ऐसी होंगी जिन से तुम्हारी जेब पर कोई बार नहीं पड़ता। जैसे किसी के ज़ुल्म की शिकायत या किसी मुआमले में इन्साफ़ का मुतालबा।
इस के बाद मअलूम होना चाहिये कि हुक्काम (अधिकारियों) के कुछ खास और सर चढ़े लोग हुआ करते हैं जिन में खुद गर्ज़ू दस्त दराज़ी और बद मुआमलगी हुआ करती है। तुम को इन हालात के पैदा होने की वुजूह को खत्म कर के उस गंदे मवाद को खत्म कर देना चाहिये। और देखो। अपने किसी हाशिया नशीन और क़राबत दार को जागीर न देना, उसे तुम से तवक्को (प्रत्याशा) न बंधना चाहिये, किसी ऐसी ज़मीन पर क़बज़ा करने की जो आब पाशी या किसी मुशतर्का मुआमले में उस के आस पास के लिये ज़रर की बाइस (क्षति का कारण) हों, यूं कि उस के खुश गवार मज़े तो उस के लिये होंगे न तुम्हारे लिये। मगर यह बद नुमा धब्बा दुनिया व आखिरत में तुम्हारे दामन पर रह जायेगा।
और जिस पर जो हक़ आयद होता हो, उस पर उस हक़ को नाफिज़ करना चाहिये, वह तुम्हारा अपना हो या बेगाना (पराया) हो और उस के बारे में तहम्मुल (धैर्य) से काम लेना, और सवाब के उम्मीदवार रहना, चाहे उस की ज़द तुम्हारे किसी करीबी अज़ीज़ या किसी मुसाहिबे खास पर कैसी ही पड़ती हो, और इस में तुम्हारी तबिअत को जो गरानी महसूस हो, उस के उखरवी नतीजे के पेशे नज़र रखना कि उस का अंजाम बहर हाल अच्छा होगा।
और अगर रईयत को तुम्हारे बारे में यह बद गुमानी हो जाए कि तुम ने उस पर ज़ुल्म व ज़ियादती की है तो अपने उज्र को वाज़ेह तौर पर पेश कर दो, और उज्र वाज़ेह कर के उन के खयालात को बदल दो, इस से तुम्हारे नफ्स की तरबियत होगी और रिआया पर मेहर्बानी साबित होगी। और इस उज्र आवरी से उन के हक़ पर उस्तवार करने का मकसद तुम्हारा पूरा होगा।
और अगर दुशमन ऐसी सुल्ह (संधि) की तुम्हें दअवत दे कि जिस में अल्लाह की रिज़ा मन्दी हो तो उसे ठुकरा न देना, क्यों कि सुल्ह में तुम्हारे लशकर (सेना) के लिये आराम व राहत और खुद तुम्हारे लिये फिकरों से निजात और शहरों के लिये अम्न का सामान है। लेकिन सुल्ह के बाद दुशमन से चौकन्ना और होशियार रहने की ज़रुरत है। क्यों कि अकसर ऐसा होता है कि दुशमन कुर्ब (निकटता) हासिल करता है ताकि तुम्हारी गफलत से फायदा उठाए। लिहाज़ा एहतियात को मलहूज़ रखो और इस बारे में हुस्त्रे ज़न से काम न लो। और अगर अपने और दुशमन के दरमियान कोई मुआहदा करो, या उसे अपने दामन में पनाह दो तो फिर अहद की पाबन्दी करो, वअदे का लिहाज़ रखो। और अपने कौलो क़रार की हिफाज़त के लिये अपनी जान को सिपर बना दो। क्यों कि अल्लाह के फराइज़ में से ईफाए अहद की ऐसी कोई चीज़ नहीं कि जिस की अहम्मियत पर दुनिया अपने अलग अलग नज़रियों और मुख्तलिफ़ रायों के बावजूद यक जेहती पर मुत्तफिक़ हो, और मुसलमानों के अलावा मुशरिकों तक के अपने दरमियान मुआहदों की पाबन्दी की है इस लिये कि अहद शिकनी के नतीजे में उन्हों ने तबाहियों का अंदाज़ा किया था। लिहाज़ा अपने अहदो पैमान में गद्दारी और कौलो करार में बद अहदी न करना, और अपने दुशमन पर अचानत हमला न करना, क्यों कि अल्लाह पर जुरअत जाहिल बद बख्त के अलावा दूसरा नहीं कर सकता, और अल्लाह ने अहदो पैमान की पाबन्दी को अम्न का पैगाम करार दिया है, कि जिसे अपनी रहमत से बन्दों में आम कर दिया है। और ऐसी पाह गाह बनाया है कि जिस के दामने हिफाज़त में पनाह लेने और उस के जवार में मंज़िल करने के लिये तेज़ी से बढ़ते हैं। लिहाज़ा उस में कोई जाल साज़ी फरेब कारी और मक्कारी न होना चाहिये और ऐसा कोई मुआहदा करो ही न जिस में तवीलों की ज़रुरत पड़ने का इम्कान ही न हो और मुआहदे का पुख्ता और तय हो जाने के बाद उस के किसी मुब्हम लफ्ज़ (गूढ़ शब्द) के दूसरे मअनी निकाल कर फादा उठाने की कोशिश न करो, और इस अहदो पैमाने खुदा वन्दी में किसी दुशवारी का महसूस होना तुम्हारे लिये इस का बाइस न होना चाहिये कि तुम उसे नीहक़ मंसूख करने की कोशिश करो। क्यों कि ऐसी दुशवारियों के झेल ले जाना कि जिन से छुटकारे की और अंजाम बखैर होने की अम्मीद हो इस बद अहदी करने से बेहतर है जिस के बुरे अंजाम का तुम्हें खौफ़ और इस का अंदेशा हो कि अल्लाह के यहां तुम से इस पर कोई जवाब देही होगी और इस तरह तुम्हारी दुनिया व आखिरत दोनों की तबाही होगी।
देखो। खूं रेज़ियों (रक्त पात) से दामन बचाए रखना, क्यों कि अज़ाब् इलाही से करीब और पादाश के लिहाज़ से सख्त और नेमतों के सलब होने और उम्र के खातिमे का सबब ना हक़ खूं रेज़ी से जयादा कोई शय नहीं है। और क़ियामत के दीन अल्लाह सुब्हानहू सब से पहले जो फैसला करेगा वह उन्हीं खूनों का जो बन्दगाने खुदा ने एक दूसरे के बहाए हैं। लिहाज़ा नाहक़ खूं बहा कर अपने इक्तेदार को मज़बूत करने की कभी कोशिश न करना क्यों कि यह चीज़ तुम्हारे इक्तेदार को कमज़ोर और खोखला कर देने वाली होती है, बल्कि उस की बुनियादों से हिला कर दूसरों को सौंप देने वाली और जान बूझ कर क़त्ल के जुर्म में अल्लाह के सामने तुम्हारा कोई नउज्र न चल सकेगा, न मेरे सामने, क्यों कि उस में किसास (बदला) ज़रुरी है। और अगर गलती से तुम उस के मुर्तकिब हो जाओ और सज़ा देने में तुम्हारा कोड़ा या तलवार या हाथ हद से बढ़ जाए, इस लिये की कभी घूंसा और उस से भी छोटी ज़र्ब हलाकत का सबब हो जाया करती है, तो ऐसी सीरत में इक्तेदार के नशे में बेखुद हो कर मकतूल का खूं बहा उस के वारिसों तक पहुंचाने में कोताही न करना।
और देखो खुद पसन्दी (स्वेच्छा चारिता) से बचते रहना, और अपनी जो बातें अच्छी मअलूम हों उन पर इतराना नहीं, और न लोगों के बढ़ा चढ़ा कर सराहने को पसंद करना। क्यों कि शैतान को जो मवाक़े (अवसर) मिला करते हैं उन में यह सब से ज़ियादा उस के नज़दीक भरोसे का ज़रीआ है कि वह नेकू कारों की नेकियों पर पानी फेर दे।
और रिआया के साथ नेकी कर के कई एहसान न जताना, और जो उन के साथ हुस्त्रे सुलूक (सद ब्यवहार) करना उसे ज़ुयादा न समझना, और उन के वअदा कर के बाद में वअदा खिलाफ़ी न करना क्यों कि एहसान जताना नेकी को अकारत कर देता है। और भलाई को ज़यादा ख्याल करना हक़ की रौशनी को खत्म कर देता है, और वअदे खिलाफ़ी से अल्लाह भी नाराज़ होता है और बन्दे भी। चुनांचे अल्लाह सुब्हानहू खुद फरमाता है किः---
खुदा के नज़दीक यह लबड़ी नाराज़गी की चीज़ है कि तुम जो कहो उसे करो नहीं।
और देखो। वक्त से पहले किसी काम में जल्द बाज़ी न करना, और जब उस का मौका आ जाए तो कमज़ोरी न दिखाना। और जब सहीह सूरत समझ में न आए तो उस पर मुसिर न (आग्रही) होना, और जब तरीके कार वाज़ेह (कार्य पद्धति स्पष्ट) हो जाए तो फिर सुस्ती न करना। मतलब यह है कि हर चीज़ को उस की जगह पर रखो, और हर काम को उस के मौके पर अंजाम दो।
और देखो जिन चीज़ों में सब लोगों का हक़ बराबर होता है उसे अपने लिये मखसूस न कर लेना, और क़ाबिले लिहाज़ हकूक से गफलत न बरतना जो नज़रों के सामने नुमायां हों क्यों कि दूसरों के लिये यह ज़िम्मेदारी तुम पर आयद है। और मुस्तकबिले करीब (निकट भविष्य) में तमाम मुआमलात पर से पर्दा हटा दिया जायेगा और तुम से मज़लूम की दाद ख्वाही कर ली जायेगी।
देखो। गज़ब की तुन्दी सरकशी के जोश हाथ की जुन्बिश और ज़बान की तेज़ी पर हमेशा काबू रखो। और इन चीज़ों से बचने की सूरत यह है कि जल्द बाज़ी से काम न लो, और सज़ा देने में देर करो यहां तक कि तुम्हारा गुस्सा कम हो जाए और तुम अपने ऊपर काबू पा लो, और कभी यह बात तुम अपने नफ्स में पूरे तौर पर पैदा नहीं कर सकते, जब तक अल्लाह की तरफ़ अपनी बाज़गश्त को याद करते हुए ज़ियादा से ज़ियादा इन तसव्वुरात को कायम न रखो।
और तुम्हें लाज़िम है कि गुज़शता जमाने (बीते गुण) की चीज़ों को याद रखो, ख्वाह किसी आदिल हुकूमत का तरीके कार हो, या कोई अच्छा अमल दर आमद हो, या रसूल (स0) की कोई हदीस हो, या किताब में दर्ज शुदा कोई फरीज़ा हो, तो उन चीज़ों की पैरवी करो और जिन पर अमल करते हुए हम पर देखा है, और उन की हिदायत पर अमल करते रहना जो मैं ने इस अहद नामे में दर्ज की हैं, और इन के ज़रीए से मैं ने अपनी हुज्जत तुम पर कायम कर दी है ताकि तुम्हारा नफ्स अपनी ख्वाहिशात की तरफ़ बढ़े तो तुम्हारे पास कोई उज्र न हो।
और मैं अल्लाह तआला से उस की वसीइ रहमत और हर हाजत को पूरा करने पर अज़ीम कुदरत का वासिता दे कर उस से सवाल करता हूं कि वह मुझे और तुम्हें इस की तौफीक़ बख्शे जिस में उस की रज़ा मन्दी है कि हम अल्लाह के सामने और उस के बन्दों में नेक नामी और मुल्क में अच्छे असरात और उस के नेमत में फरावानी और रोज़ अफ़ज़ूं इज़्ज़त को क़ायम रखें, और यह कि मेरा और तुम्हारा खातिमा सआदत व शहादत पर हो। बेशक हमें उसी की तरफ़ पलटना है। वस्सलामो अला रसूलेही सल्लल्लाहो अलैहे व आलेहित्तैयिबीनत्ताहिरीन व सल्लमा तसलीमन कसीरा। वस्सलाम।
यह अहद नाम जिसे इसलाम का दस्तूरे असासी (संविधान) कहा जा सकता है, उस हस्ती का तर्तीब दिया हुआ है जो कानूने इलाही का सब से बड़ा वाकिफ़ कार और सब से ज़िया उस पर अमल पैरा था। इन औराक़ से अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के तजुर्बे के तर्ज़े जहांबानी (शासन पद्घति) का जायज़ा ले कर यह फैसला किया जा सकता है कि उन के पेशे नज़र सिर्फ़ कानूने इलाही का निफाज़ और इसलाहे मुआशरत था। न अम्ने आम्मा में खलल डालना, न लूट खसोट से खज़ानों का मूंह भरना, और न तौसीए सल्तनत के लिये जायज़ न नाजायज़ वसायल से आँख बन्द कर के सई व कोशिश करना। दुनियावी हुकूमतें उमूमन इस तरह का कानून बनाया करती हैं जिस से ज़ियादा से ज़ियादा फायदा हुकूमत को पहुंचे, और हर ऐसे कानून को बदलने की कोशिश किया करती हैं जो उस के मुफाद से मुतसादिम और उस के मक्सद के लिये नुक्सान रसां हों। मगर इस दस्तूर व आईन की हर दफआ मफादे उमूमी की निगहबान और निज़ामे इजतिमाई की मुहाफिज़ है। इस के निफ़ाज़ो इजरा में न खुद गरज़ी का लगाव है और न मफाद परस्ती का शाइबा। इस में अल्लाह से फराएज़ की निगहदाशत और बिला तफरिके मज़हबो मिल्लत हुकूके इन्सानियत की हिफाज़त और शिकस्ता हाल और फाका कश अफराद की खबर गीरी और पसमांदा व उफ्तादा तबके से साथ हुस्त्रे सुलूक की हिदायत, ऐसे बुनियादी उसूल हैं जिन से हक़ व अदालत के नशर अम्न व सलामती के कियाम, और रईयत की फलाह व बहबूद के सिलसिले में पूरी रहनुमाई हासिल की जा सकती है।जब सन 38 हिजरी में मालिक इबने हारिसे अश्तर रहमतुल्लाह मिस्र की हुकूमत पर फायज़ हुए तो हज़रत ने यह अहद नामा उन के लिये कलम बन्द फरमाया। मालिके अश्तर अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) के उन खास असहाब में से थे जो इसतिकलाल व पामर्दी दिखा कर कामिल वुसूक व ऐतिमाद और अपने अखलाक़ व किर्दार के सांचे में ढाल कर इन्तिहाई कुर्ब व इखतिसास हासिल कर चुके थे, जिस का अंदाज़ा हज़रत के इन अल्फाज़ से किया जा सकता है कि मालिक मेरी नज़रों में ऐसे ही थे कि जैसा मैं रसूलुल्लाह की नज़रों में था। चुनांचे उन्हों ने बे लौस जज़्बए खिदमत से मुतअस्सिर हो कर जंगी मुहिम्मात में बढ़ चढ़ कर हिस्सा लिया और तमाम मुहिमों और मअरिकों में हज़रत के दस्त व बाज़ू साबित हुए और हिम्मत व जुरअत के वह जौहर दिखाए कि तमाम अरब पर उन की शुजाअत की धाक बन गई। इस गैर मअमूली शुजाअत के साथ इल्म व बुर्दबारी में भी बलन्द इम्तियाज़ के हामिल थे। चुनांचे वराम इबने अबी फारस ने अपने मजमूए में तहरीर किया है कि आप एक बार टाठ का पैराहन पहने और टाठ ही का अम्मामा बांधे हुए कूफे के बाज़ार से गुज़र रहे थे कि एक सर फिरे दुकानदार ने आप को इस वज़अ लिबास में देख कर कुठ सड़े गले पत्ते और शाखें आप के ऊपर फेंक दीं। मगर इस नाशाइशता हरकत से आप की पेशानी पर बल न आया और न ही नज़र उठा कर उस की तरफ़ देखा बल्कि खामोशी के साथ आगे बढ़ गए, तो एक शख्स ने उस दुकानदार से कहा कि तुम्हें मअलूम है कि यह गुस्ताखी तुम ने किस के साथ की है उस ने कहा कि मुझे नहीं मअलूम कि यह कौन थे। कहा कि यह मालिके अश्तर थे। यह सुन कर उस के होशो हवास उड़ गए और वह उसी वक्त उन के पीछे दौड़ा ताकि उन से इस गुस्ताखी व एहानत की मुआफी मांगे। चुनांचे तलाश करता हुआ एक मस्जिद में पहुंचा जहां वह नमाज़ पढ़ रहे थे। जब नमाज़ से फारिग हुए तो यह आगे बढ़ कर उन के कदमों में गिर पड़ा, और निहायत इल्हाह व ज़ारी से अफऱ्व का तालिब हुआ। आप ने उस के सर को ऊपर उठाया और फरमाया कि खुदा की क़सम मैं मस्जिद में इस ग़रज़ से आया हूं कि तुम्हारे लिये बारगाहे खुदा वन्दी में दुआए मगफिरत करूं। मैं ने तो उसी वक्त तुम्हें मुआफ़ कर दिया था और उम्मीद है कि अल्लाह भी तुम्हें मुआफ़ कर देगा। यह है उस नबर्द आज़मा का अफ्व व दर गुज़र जिस के नाम से बहादूरों के ज़हरे आब हो जाते थे। और जिस की तलवार ने शुजाआने अरब (अरब के वीरों) से अपना लोहा मनवा लिया था और शुजाअत (वीरता) का यही जौहर है कि इन्सान ग़ैज़ो ग़ज़ब की तलखियों (मानव क्रोध की कडवाहट) में ज़ब्ते नफ्स से काम ले और ना गवारियों को सब्र और सुकून के साथ झेल ले जाए। चुनांचे हज़रत का इर्शाद है किः---
लोगों में बढ़ चढ़ कर शुजाअ वह है जो हवाए नफ्स पर गलबा पाए (काम क्रोध एवं मोह पर काबू पा ले)।
बहर हाल इन खुसूसियात और औसाफ़ के अलावा नज़मो इन्सिरामे ममलिकत की पूरी सलाहियत रखते थे। चुनांचे जब मिस्र में उसमानी गुरोह ने तखरीबी जरासीम फैलाना शुरु किये और शर व फसाद से मुल्क के नज़्म व नसक़ को दरहम बरहम करना चाहा तो हज़रत ने मोहम्मद इबने अबी बकर को वहां की हुकूमत से अलग कर के आप के तकर्रुर का फैसला किया। अगरचे वह उस वक्त नसीबैन में गवर्नर की हैसियत से मुकीम थे, मगर हज़रत ने उन्हें तलब फरमाया कि वह नसीबैन में किसी को अपना नायब मुकर्रर कर के उन के पास पहुंचें। मालिक ने इस फरमान के बाद शबीब इबने आमीरे अज़दी को अपनी जगह पर मुअय्यन किया और खुद अमीरुल मोमिनीन (अ0 स0) की खिदमत में पहुंच गए।हज़रत ने उन्हें हुकूमत का पर्वाना लिख कर मिस्र के लिये रवाना किया और अहले मिस्र को उन की इताअत व फरमां बर्दारी एवं आज्ञा पालन का तहरीरी हुक्म भेजा। जब मुआविया को अपने जासूसों के ज़रीए मालिके अश्तर के तकर्रुर का इल्म हुआ तो वह चकरा सा गया, क्यों कि वह अगर इबने आस से यह वअदा कर चुका था कि वह उसे उस की कार कर्दगियों के सिले में मिस्र की हुकूमत देगा। और उसे यह तवक्को थी कि अमर इबने आस मोहम्मद इबने अबी बकर को बाआसानी शिकस्त दे कर उन के हाथ से इकतिदार छीन लेगा। मगर मालिके अशतर को मगलूब कर के मस्र को फत्ह करने का वह तसव्वुर भी न कर सकता था। लिहाज़ा उस ने यह तहैया कर लिया कि क़ब्ल इस के कि उन के हाथों में इकतिदार मुन्तकिल हो उन्हें ठिकाने लगा दें। चुनांचे उसने शहरे उरैश के एक तअल्लुकेदार से यह साज़ बाज़ की कि जब मालिक मिस्र जाते हुए उरैश से गुज़रें तो वह किसी तदबीर से उन्हें हलाक कर दें, इस के एवज़ उस की जायदाद का मालिया व गुज़ारा कर दिया जायेगा। चुनांचे जब मालिके अश्तर अपने लाव लश्कर के साथ उरैश पहुंचे तो उस ने बड़ी आव भगत की, और आप को मेहमान ठहराने का मुसिर हुआ। आप उस की दअवत को मंज़ूर फरमाते हुए उस के यहां फरोकश हुए (निवास किया) और जब खाने से फारिग (निवृत्त) हुए तो उस ने शहद के शर्बत में ज़हर की आमोज़िश (विष कता मिश्रण) करके आप के सामने पेश किया जिस के पीते ही ज़हर का असर शुरु हो गया और देखते ही देखते तलवारों के साए में खेलने वाला और दुशमनों की सफ़ों को उलट देने वाला खामोशी से मौत की आगोश में सो गया।
जब मुआविया को अपनी इस हसीसा कारी में कामयाबी की अत्तिला हुई तो वह मुसर्रत से झूम उठा और खुशी का नारा लगाते हुए कहने लगा, (शहद भी अल्लाह का एक लश्कर है) और फिर एक खुत्बे के दौरान कहा किः---
अली इबने अबी तालिब को दो दस्ते रास्त (सीधे हाथ) थे, एक सिफ्फीन के दिन कट गया और वह अम्मारे यासिर थे, और दूसरा भी क़तअ हो गया, और वह मालिके अश्तर थे।
क्या इस्लाम औरतों का अपमान करता है?
इस्लाम औरतों को पर्दे में रखकर उनका अपमान क्यों करता है
उत्तर: इस्लाम में औरतों की जो स्थिति है, उस पर सेक्यूलर मीडिया का ज़बरदस्त हमला होता है। वे पर्दे और इस्लामी लिबास को इस्लामी क़ानून में स्त्रियों की दासता के तर्क के रूप में पेश करते हैं। इससे पहले कि हम पर्दे के धार्मिक निर्देश के पीछे मौजूद कारणों पर विचार करें, इस्लाम से पूर्व समाज में स्त्रियों की स्थिति का अध्ययन करते हैं।
1. भूतकाल में स्त्रियों का अपमान किया जाता और उनका प्रयोग केवल काम-वासना के लिए किया जाता था।
इतिहास से लिए गए निम्न उदाहरण इस तथ्य की पूर्ण रूप से व्याख्या करते हैं कि आदिकाल की सभ्यता में औेरतों का स्थान इस सीमा तक गिरा हुआ था कि उनको प्राथमिक मानव सम्मान तक नहीं दिया जाता था—
(क) बेबिलोनिया सभ्यता
औरतें अपमानित की जातीं थीं, और बेबिलोनिया के क़ानून में उनको हर हक़ और अधिकार से वंचित रखा जाता था। यदि एक व्यक्ति किसी औरत की हत्या कर देता तो उसको दंड देने के बजाय उसकी पत्नी को मौत के घाट उतार दिया जाता था।
(ख) यूनानी सभ्यता
इस सभ्यता को प्राचीन सभ्यताओं में अत्यन्त श्रेष्ठ माना जाता है। इस ‘अत्यंत श्रेष्ठ’ व्यवस्था के अनुसार औरतों को सभी अधिकारों से वंचित रखा जाता था और वे नीच वस्तु के रूप में देखी जाती थीं। यूनानी देवगाथा में ‘‘पांडोरा’’ नाम की एक काल्पनिक स्त्री पूरी मानवजाति के दुखों की जड़ मानी जाती है। यूनानी लोग स्त्रियों को पुरुषों के मुक़ाबले में तुच्छ जाति मानते थे। यद्यपि उनकी पवित्रता अमूल्य थी और उनका सम्मान किया जाता था, परंतु बाद में यूनानी लोग अहंकार और काम-वासना में लिप्त हो गए। वैश्यावृति यूनानी समाज के हर वर्ग में एक आम रिवाज बन गई।
(ग) रोमन सभ्यता
जब रोमन सभ्यता अपने गौरव की चरमसीमा पर थी, उस समय एक पुरुष को अपनी पत्नी का जीवन छीनने का भी अधिकार था। वैश्यावृति और नग्नता रोमवासियों में आम थी।
(घ) मिस्री सभ्यता
मिस्री लोग स्त्रियों को शैतान का रूप मानते थे।
(ङ) इस्लाम से पहले का अरब
इस्लाम से पहले अरब में औरतों को नीच माना जाता और किसी लड़की का जन्म होता तो कभी-कभी उसे जीवित दफ़न कर दिया जाता था।
2. इस्लाम ने औरतों को ऊपर उठाया और उनको बराबरी का दर्जा दिया और वह उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपना स्तर बनाए रखें
इस्लाम ने औरतों को ऊपर उठाया और लगभग 1400 साल पहले ही उनके अधिकार उनको दे दिए और वह उनसे अपेक्षा करता है कि वे अपने स्तर को बनाए रखेंगी।
पुरुषों के लिए पर्दा
आमतौर पर लोग यह समझते हैं कि पर्दे का संबंध केवल स्त्रियों से है। हालांकि पवित्र क़ुरआन में अल्लाह ने औरतों से पहले मर्दों के पर्दे का वर्णन किया है—
‘‘ईमान वालों से कह दो कि वे अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी पाकदामिनी (शील) की सुरक्षा करें। यह उनको अधिक पवित्र बनाएगा और अल्लाह ख़ूब जानता है हर उस काम को जो वे करते हैं।’’ (क़ुरआन, 24:30)
उस क्षण जब एक व्यक्ति की नज़र किसी स्त्री पर पड़े तो उसे चाहिए कि वह अपनी नज़र नीची कर ले।
स्त्रियों के लिए पर्दा
क़ुरआन की सूरा नूर में कहा गया है—
‘‘और अल्लाह पर ईमान रखने वाली औरतों से कह दो कि वे अपनी नज़रें नीची रखें और अपनी पाकदामिनी (शील) की सुरक्षा करें और वे अपने बनाव- श्रृंगार और आभूषणों को न दिखाएँ, इसमें कोई आपत्ति नहीं जो सामान्य रूप से ज़ाहिर हो जाए। और उन्हें चाहिए कि वे अपने सीनों पर ओढ़नियाँ ओढ़ लें और अपने पतियों, बापों, अपने बेटों....के अतिरिक्त किसी के सामने अपने बनाव-श्रृंगार प्रकट न करें।’’ (क़ुरआन, 24:31)
3. पर्दे के लिए आवश्यक शर्तें
पवित्र क़ुरआन और हदीस (पैग़म्बर के कथन) के अनुसार पर्दे के लिए निम्नलिखित छह बातों का ध्यान देना आवश्यक है—
(i) पहला शरीर का पर्दा है जिसे ढका जाना चाहिए। यह पुरुष और स्त्री के लिए भिन्न है। पुरुष के लिए नाभि (Navel) से लेकर घुटनों तक ढकना आवश्यक है और स्त्री के लिए चेहरे और हाथों की कलाई को छोड़कर पूरे शरीर को ढकना आवश्यक है। यद्यपि वे चाहें तो खुले हिस्से को भी छिपा सकती हैं। इस्लाम के कुछ आलिम इस बात पर ज़ोर देते हैं कि चेहरा और हाथ भी पर्दे का आवश्यक हिस्सा है।
अन्य बातें ऐसी हैं जो स्त्री एवं पुरुष के लिए समान हैं।
(i) धारण किया गया वस्त्र ढीला हो और शरीर के अंगों को प्रकट न करे।
(ii) धारण किया गया वस्त्र पारदर्शी न हो कि कोई शरीर के भीतरी हिस्से को देख सके।
(iii) पहना हुआ वस्त्र ऐसा भड़कीला न हो कि विपरीत लिंग को आकर्षित या उत्तेजित करे।
(iv) पहना हुआ वस्त्र विपरीत लिंग के वस्त्रों की तरह न हो।
(v) धारण किया गया वस्त्र ऐसा नहीं होना चाहिए जो किसी विशेष ग़ैर-मुस्लिम धर्म को चिंहित करता हो और उस धर्म का प्रतीक हो।
4. पर्दा दूसरी चीज़ों के साथ-साथ इंसान के व्यवहार और आचरण का भी पता देता है
पूर्ण पर्दा, वस्त्र (लिबास) की छह कसौटियों के अलावा नैतिक व्यवहार और आचरण को भी अपने भीतर समोए हुए है। कोई व्यक्ति यदि केवल वस्त्र की कसौटियों को अपनाता है तो वह पर्दे के सीमित अर्थ का पालन कर रहा है। वस्त्र के द्वारा पर्दे के साथ-साथ आँखों और विचारों का भी पर्दा करना चाहिए। किसी व्यक्ति के चाल-चलन, बातचीत एवं व्यवहार को भी पर्दे के दायरे में लिया जाता है।
5. पर्दा दुर्व्यवहार से रोकता है
पर्दे का औरतों को क्यों उपदेश दिया जाता है इसके कारण का पवित्र क़ुरआन की सूरा अल अहज़ाब में उल्लेख किया गया है—
‘‘ऐ नबी! अपनी पत्नियों, पुत्रियों और ईमान वाली स्त्रियों से कह दो कि वे (जब बाहर जाएँ) तो ऊपरी वस्त्र से स्वयं को ढाँक लें। यह अत्यन्त आसान है कि वे इसी प्रकार जानी जाएँ और दुर्व्यवहार से सुरक्षित रहें और अल्लाह तो बड़ा क्षमाकारी और बड़ा ही दयालु है।’’ (क़ुरआन, 33:59)
पवित्र क़ुरआन कहता है कि औरतों को पर्दे का इसलिए उपदेश दिया गया है कि वे पाकदामिनी के रूप में देखी जाएँ और पर्दा उनसे दुर्व्यवहार और दुराचरण को भी रोकता है।
6. जुड़वाँ बहनों का उदाहरण
मान लीजिए कि समान रूप से सुन्दर दो जुड़वाँ बहनें सड़क पर चल रही हैं। एक केवल कलाई और चेहरे को छोड़कर पर्दे में पूरी तरह ढकी हो और दूसरी पश्चिमी वस्त्र मिनी स्कर्ट (छोटा लंहगा) और ब्लाऊज पहने हुए हो। एक लफंगा किसी लड़की को छेड़ने के लिए किनारे खड़ा हो तो ऐसी स्थिति में वह किससे छेड़छाड़ करेगा। उस लड़की से जो पर्दे में है या जो मिनी स्कर्ट पहने है? स्वाभाविक रूप से वह दूसरी लड़की से दुर्व्यवहार करेगा।
ऐसे वस्त्र विपरीत लिंग को अप्रत्यक्ष रूप से छेड़छाड़ और दुर्व्यवहार का निमंत्रण (Provocation, invitation) देते हैं। क़ुरआन बिल्कुल सही कहता है कि पर्दा औरतों के साथ छेड़छाड़ और उत्पीड़न को रोकता है।
7. बलात्कारियों के लिए मौत की सज़ा
इस्लामी क़ानून में बलात्कार की सज़ा मौत है। बहुत से लोग इसे निर्दयता कहकर इस दंड पर आश्चर्य प्रकट करते हैं। कुछ का तो कहना है कि इस्लाम एक जंगली धर्म है। एक सरल-सा प्रश्न गै़र-मुस्लिमों से किया गया कि ईश्वर न करे कि कोई आपकी माँ अथवा बहन के साथ बलात्कार करता है और आप को न्यायाधीश बना दिया जाए और बलात्कारी को आपके सामने लाया जाए तो उस दोषी को आप कौन-सी सज़ा सुनाएँगे? प्रत्येक से एक ही उत्तर मिला कि मृत्यु-दंड दिया जाएगा। कुछ ने कहा कि वे उसे कष्ट दे-देकर मारने की सज़ा सुनाएँगे। अगला प्रश्न किया गया कि यदि कोई आपकी माँ, पत्नी अथवा बहन के साथ बलात्कार करता है तो आप उसे मृत्यु-दंड देना चाहते हैं परंतु यही घटना किसी दूसरे की माँ, पत्नी अथवा बहन के साथ होती है तो आप कहते हैं कि मृत्यु-दंड देना जंगलीपन है। इस स्थिति में यह दोहरा मापदंड क्यों है?
8. पश्चिमी समाज औरतों को ऊपर उठाने का झूठा दावा करता है
औरतों की आज़ादी का पश्चिमी दावा एक ढोंग है, जिसके सहारे वे उनके शरीर का शोषण करते हैं, उनकी आत्मा को गंदा करते हैं और उनके मान-सम्मान से उनको वंचित रखते हैं। पश्चिमी समाज दावा करता है कि उसने औरतों को ऊपर उठाया। इसके विपरीत उन्होंने उनको रखैल और समाज की तितलियों का स्थान दिया है, जो केवल उन जिस्मफ़रोशों और काम-इच्छुकों के हाथों का एक खिलौना हैं, जो कला और संस्कृति के रंग-बिरंगे पर्दे के पीछे छिपे हुए हैं।
9. अमेरिका में बलात्कार की दर सबसे अधिक है
अमेरिका को दुनिया का सबसे उन्नत देश समझा जाता है। 1990 ई॰ की FBI रिपोर्ट से पता चलता है कि अमेरिका में उस साल 1,02555 बलात्कार की घटनाएँ दर्ज की गईं। रिपोर्ट में यह बात भी बताई गई है कि इस तरह की कुल घटनाओं में से केवल 16 प्रतिशत ही प्रकाश में आ सकी हैं। इस प्रकार 1990 ई॰ में बलात्कार की घटना का सही अंदाज़ा लगाने के लिए उपरोक्त संख्या को 6.25 से गुना करके जो योग सामने आता है वह 6,40,968 है। अगर इस पूरी संख्या को साल के 365 दिनों में बाँटा जाए तो प्रतिदिन के लिहाज से 1756 की संख्या सामने आती है।
एक दूसरी रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका में प्रतिदिन 1900 बलात्कार की घटनाएँ पेश आती हैं। National Crime Victimization Survey Bureau of Justice Statistics (U.S. Deptt. Of Justice) के अनुसार केवल 1996 में 3,07000 घटनाएँ दर्ज हुईं। लेकिन सही घटनाओं की केवल 31 प्रतिशत घटना ही दर्ज हुईं। इस प्रकार 3,07,000-3,226 = 9,90,322 बलात्कार की घटनाएँ सन् 1996 ई॰ में दर्ज हुईं। प्रतिदिन के लिहाज से औसत 2713 बलात्कार की घटनाएँ 1996 ई॰ में अमेरिका में हुईं। ज़रा विचार करें कि अमेरिका में हर 32 सेकेंड में एक बलात्कार होता है। ऐसा लगता है कि अमेरिकी बलात्कारी बड़े ही निडर हैं। FBI की 1990 ई॰ की रिपोर्ट आगे बताती है कि बलात्कार की घटनाओं में केवल 10 प्रतिशत बलात्कारी ही गिरफ़्तार किए जा सके हैं। जो कुल संख्या का 1.6 प्रतिशत है। बलात्कारियों में से 50 प्रतिशत लोगों को मुक़द्दमा से पहले रिहा कर दिया गया। इसका मतलब यह हुआ कि केवल 0.8 प्रतिशत बलात्कारियों के विरुद्ध ही मुक़द्दमा चलाया जा सका। दूसरे शब्दों में अगर एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार की घटनाओं में लिप्त हो तो केवल एक बार ही उसे सज़ा दी जाने की संभावना है। बहुत से लोग इसे एक अच्छा जुआ समझेंगे। रिपोर्ट से यह भी अंदाज़ा होता है कि सज़ा दिए जाने वालों में से केवल 50 प्रतिशत लोगों को एक साल से कम की सज़ा दी गई है। हालाँकि अमेरिकी क़ानून के अनुसार सात साल की सज़ा होनी चाहिए। उन लोगों के संबंध में जो पहली बार बलात्कार के दोषी पाए गए हैं, जज नर्म पड़ जाते हैं। ज़रा विचार करें कि एक व्यक्ति 125 बार बलात्कार करता है लेकिन उसके विरुद्ध मुक़द्दमा किए जाने का अवसर केवल एक बार ही आता है और फिर 50 प्रतिशत लोगों को जज की नर्मी का लाभ मिल जाता है और एक साल से भी कम मुद्दत की सज़ा किसी ऐसे बलात्कारी को मिल पाती है जिस पर यह अपराध सिद्ध हो चुका है।
उस दृश्य की कल्पना कीजिए कि अगर अमेरिका में पर्दे का पालन किया जाता। जब कभी कोई व्यक्ति एक स्त्री पर नज़र डालता और कोई अशुद्ध विचार उसके मस्तिष्क में उभरता तो वह अपनी नज़र नीची कर लेता। प्रत्येक स्त्री पर्दा करती अर्था्त पूरे शरीर को ढक लेती सिवाय कलाई और चेहरे के। इसके बाद यदि कोई उसके साथ बलात्कार करता तो उसे मृत्यु-दंड दिया जाता। ऐसी स्थिति में क्या अमेरिका में बलात्कार की दर बढ़ती या स्थिर रहती या कम होती?
10. इस्लामी क़ानून निश्चित रूप से बलात्कार की दर घटाएगा
स्वाभाविक रूप से जब भी इस्लामी सभ्यता क़ायम होगी, और इस्लामी क़ानून लागू किया जाएगा तो इसका परिणाम निश्चित रूप से सकारात्मक होगा। यदि इस्लामी क़ानून संसार के किसी भी हिस्से में लागू किया जाए, चाहे अमेरिका हो या यूरोप, समाज में शान्ति आएगी। पर्दा औरतों का अपमान नहीं करता बल्कि उनके शील की पवित्रता और मान की रक्षा करके उन्हें ऊपर उठाता है।
शोहदाए बद्र व ओहद और शोहदाए कर्बला
ख़ासाने रब हैं बदरो ओहद के शहीद भी
लेकिन अजब है शाने शहीदाने करबला।
राहे ख़ुदा में शहीद हो जाने वाले मुजाहेदीन का फ़ज़्ल व शरफ़ मोहताजे तआरूफ़ नहीं है। शोहदाऐ राहे ख़ुदा के सामने दुनिया बड़ी अक़ीदत व एहतेराम से अपना सर झुकाती नज़र आती है बल्कि ग़ैर मुस्लिम हज़रात, दिन के वहां शहादत का पहले कोई तसव्वुर भी नहीं था, लफ़्ज़े शहादत को अपनाने में किसी बख़्ल से काम नबीं लेते।
अलबत्ता दरजात व मरातिब के एतबार से तमाम शोहदा को मसावी क़रार नही दिया जा सकता है। जिस तरह क़ुराने करीम के मुताबिक़ बाज़ अम्बिया को बाज़ अम्बिया और बाज़ मुरसलीन को बाज़ मुरसलीन पर फ़ज़ीलत हासिल थी उसी तरह बाज़ शोहदा को बाज़ शोहदा पर तफ़व्वुक़ व बरतरी हासिल है। हुज़ूर ख़तमी मरतबत के दौर में दीगर शोहदा के मुक़ाबले में शोहदा-ए-बद्रो ओहद एक एम्तेयाज़ी शान के मालिक थे जिसकी सनद अक़वाले मुरसले आज़म से ली जा सकती है। मगर शोहदाए बद्रो ओहद भी बाहम यकसां फ़ज़ीलतों के हामिल नहीं थे बल्कि ज़ोहदो तक़वा और शौक़े शहादत के मद्दोजज़्र नें उनके दरमियान फ़रक़े मुरातब को ख़ाएम कर रखा था। चुनान्चे जंगे ओहद में हालांकि नबीए करीम के कई मोहतरम सहाबियों ने जामे शहादत नोश फ़रमाया था मगर सय्यदुश् शोहदा होने का शरफ़ सिर्फ़ जनाबे हमज़ा को ही हासिल हो सका। मुसलमानों का एक तबक़ा अपनी जज़्बाती वाबस्तगी की बिना पर शोहदा-ए-बद्रो ओहद की मुकम्मल बरतरी का क़ाएल है लेकिन अगर निगाए इंसाफ़ से देखा जाए तो जंगे बद्रो-ओहद और ज़गे करबला के हालात में नुमायां फ़र्क़ नज़र आएगा। जंगे बद्रो-ओहद में अहले इस्लाम की तादात 313 और कुफ़्फ़ार की तादात 950 थी। यानी तनासिब एक और तीन का था। इसी तरह जंगे बद्र में लश्करे इस्लाम की तादाद कम से कम 700 और लश्करे और कुफ़्फ़ार की तादाद ज़्यादा से ज़्यादा 5000 थी। गोया यहां भी तनासिब एक और सात का था और जंगे करबला में फ़ौजे हुसैनी की तादाद सिर्फ़ 72 थी जिनमें बच्चे और बूढ़े भी शामिल थे जबकि दुश्मन की फ़ौज की तादात 80000 थी, यानी तनासिब एक और ग्यारह का था। अब अगर फ़ौजे हुसैनी की ज़्यादा से ज़्यादा तादाद वाली रिवायतों को और यज़ीदी फ़ौज की कम से कम तादात वाली रिवायतों को पेशे नज़र रखा जाए, तब भी सिपाहे हुसैनी की तादाद 127 और यज़ीदी लश्कर की तादाद 20000 थी, यानी तनासिब एक और एक सौ अट्ठावन का था।
इस के अलावा शोहदा-ए-बद्रो ओहद को बंदिशे आब का सामना भी नहीं था जबकि इमामे हुसैन (अ.) के साथ भूख और प्यास के आलम में सेरो सेराब दुश्मन से नबर्दो आज़मा होने के बावुजूद ज़बानों पर शिद्दते अतश का कोई ज़िक्र भी न लाए। जंगे बद्र में अल्लाह ने मुसलमानों की 3000 फ़रिश्तों और जंगे ओहद में 5000 मलाएका से मदद फ़रमाई, नैज़े ग़ैबी आवाज़ के ज़रिए मलाएका की नुसरत का वादा फ़रमाकर अहले इस्लाम के दिलों को तक़वीयत पहुंचाई और हक़्क़े तआला ने मुसलमानों को ख़्वाब में दुशमनों की तादाद कम करके दिखाई ताकि इस्लामी लशेकर के हौसले पस्त न होने पाएं इस के अलावा नुज़ूले बारान के ज़रिए भी मैदाने जंग को मुस्लिम मुजाहेदीन के लिए हमवार किया गया।
मज़कूरा बाला हक़ाएक़ का ज़िक्र कर सूरए आले इमरान और सूरए अनफ़ाल में मौजूद है जबकि शोहदाए करबला के लिए मन्दरजा बाला सहूलतों में से किसी एक सहूलत का भी वुजूद लज़र नहीं आता फिर भी उनके पाए इस्तेक़ामत में कोई लग़ज़िश और हौसलों में कोई कमी पैदा न हो सकी।
शोहदा-ए-बद्रो ओहद के सामने जंग के दो पहलू थे, मनसबे शहादत का अबदी इनाम या दुशमनों को फ़िन्नार करके ग़ाज़ी के ख़ेताब के साथ माले ग़नीमत का हुसूल।
बल्कि अक्सर इस्लामी जंगों में बाज़ मुजाहेदीन के लिए माले ग़नीमत में वो कशिश थी के अल्लाह को क़ुरआने करीम में हिदायत करना पड़ी, और रसूल जो तुसको अता करें वो ले लो और जिससे रोक दें उस से रुक जाओ। चुनांचे यही माले ग़नीमत की कशिश थी जिसने जंगे ओहद की फ़तह को शिकस्त में तबदील कर दिया। अब ये और बात है कि इसी माले ग़नीमत के तुफ़ैल में बाज़ मुजाहेदीन को माले ग़नीमत के बजाए शहादत की दौलत हाथ आ गई लेकिन शोहदाए करबला के पेशे निगाह सिर्फ़ और सिर्फ़ शहादत की मौत थी।
शोहदा-ए-बद्रो ओहद के वास्ते ख़ुदा और रसूल के हुक्म की तामील में जंग में शिरकत वाजिब थी बसूरत दीगर अज़ाबे ख़ुदा और ग़ज़बे इलाही से दो-चार होना पड़ता। लेकिन अंसारे हुसैन के लिए ऐसी कोई बात नहीं थी बल्कि शबे आशूर इमामे हुसैन (अ.) ने अपने असहाब की गरदनों से अपनी बैअत भी उठा ली थी। और उनको इस बात की बख़ुशी इजाज़त मुरत्तब फ़रमा दी थी कि परदए शब में जिसका जहां दिल चाहे चला जाए क्योंकि दुश्मन सिर्फ़ मेरे सर का तलबगार है, यहां तक कि आप ने शमा भी गुल फ़रमा दी ताकि किसी को जाने में शर्म महसूस न हो। मगर क्या कहना इमामे मज़लूम के बेकस साथियों का कि उन्होंने फ़रज़ंदे रसूल को दुश्मनों के नरग़े में यक्कओ तनहा छोड़कर जाना किसी ऊ क़ीमत पर क़ुबूल नहीं किया चाहे इसके लिए उन्हे बार-बार मौत की अज़ीयत से ही क्यों न गुज़रना पड़ता।
जंगे बद्रो ओहद में जामे शहादत नोश करने वाले मुजाहेदीन के दिलों में इस जज़्बे का मौजूद होना क़ुरैन अक़्लोक़यास है कि हम अपनी जानों को सरवरे काएनात पर क़ुरबान करके अपने महबूब नबी की जाने मुबारक बचा लें बल्कि मुरसले आज़म के बाज़ अन्सार की क़ुरबानियां सिर्फ़ हयाते रसूले अकरम पर मुलहसिर थीं चुनांचे जंगे ओहद में लड़ाई का पासा पलटने के बाद जब ये शैतानी आवाज़ मुजाहेदीने इस्लाम के गोश गुज़ार हुई कि माज़ अल्लाह मोहम्मद क़त्ल कर दिए गए तो इस ख़्याल के पेशे नज़र अक्सर मुसलमानों के क़दम उखड़ गए कि जब रसूल ही ज़िन्दा नहीं रहे तो हम अपनी जान देकर क्या करें जबकि रसूले अकरम उनको आवाज़ें भी दे रहे थे। लेकिन अन्सारे हुसैन इस हक़ीक़त से बख़ूबी आशना थे कि हम अपनी जानें निसार करने के बाद भी मज़लूमे करबला की मुक़द्दस जान को न बचा पाएंगे। फिर भी उन्होने अपनी जान का नज़राना पेश करने में किसी पसोपेश से काम नहीं लिया बल्कि ख़ुद को इमामे आली मक़ाम पर क़ुरबान करने में एक दूसरे पर सबक़त करते नज़र आए लेकिन शौक़े शहादत और क़ुरबानी का जोशो वलवला नुक़्तए उरूज पर होने के बावुजूद इज़्ने इमाम के बग़ैर एक क़दम भी आगे बढ़ाने की जुरअत नहीं की। हां इमाम से इजाज़त मिलने के बाद उरूसे मर्ग को गले लगाने के लिए मैदाने जंग की तरफ़ यूं दौड़ पड़ते थे जिस तरह कोई शख़्स अपनी इन्तेहाई महबूब और अज़ीज़ शै के हुसूल के वास्ते सअई करने में उजलत करता है।
चूंकि शोहदाए बद्रो ओहद असहाबे पैग़म्बरे अकरम और शोहदाए करबला असहाबे इमामे हुसैन थे लेहाज़ा मुमकिन है कि बाज़ अफ़राद को शोहदाए करबला की मंदरजा बाला फ़ज़ीलत का इज़हार नागवार महसूस हो लेकिन हमारी या आपकी क्या मजाल कि किसी को फ़ज़ीलत दे सकें क्येंकि फ़ज़्लो शरफ़ का अता करने वाला तो वो अल्लाह है जो अपने बंदों को, अन अकरम कुम इन्दल्लाहो अतक़ाकुम, के उसूल पर फ़ज़ीलतों का हामिल क़रार देता है। फिर हज़रत इमाम हुसैन (अ.) का ये क़ौले पाक कि, जैसे असहाब मुझे मिले वैसे न मेरे नाना को मिले और न मेरे बाबा को, शोहदाए करबला की अज़मतों को ज़ाहिर करने के लिए काफ़ी है। ज़ियारते नाहिया में हज़रत हुज्जतुल अस्र का मंदरजा ज़ेल इरशादे गिरामी भी शोहदाए करबला की रफ़अतों को बख़ूबी आशकार फ़रमा रहा है कि, अस्सलामो अलैका या अंसारा अबी अबदिल्लाहिल हुसैन, बाबी अनतुम वअमी तमत्तुम व ताबतलअर्ज़ल्लती फ़ीहा दफ़नतुम, ऐ अबू अबदुल्लाहिल हुसैन के नासिर व तुम पर हमारा सलाम, मेरे बाप व मां तुम पर फ़िदा, तुम ख़ुद भी पाक हुए ऐर वो ज़मीन भी पाक हो गई जिस पर तुम दफ़्न हुए नासिर उन इमामे मज़लूम को मासूम का मंदरजा बालाख़ेराज अक़ीदत उनकी अज़मतो जलालत को दीगर तमाम शोहदा पर साबित करने के लिए एक संगेमील की हैसियत रखता है।
आख़िरे कलाम में वालिदे माजिद ताबा सराह का एक क़ता अन्सारे हुसैन (अ.) की शान में पेशे ख़िदमत है-
अन्सार जुदा शाह से क्योंकर होते
गरदूं से जुदा क्या महो अख़तर होते
होते जो कहीं और ये हक़ के बंदे
उस क़ौम के मअबूद बहत्तर होते।
(मौलाना बाक़िर बाक़िरी जौरासी)
चीन की ईरान और गुट 5+1 के बीच नई वार्ता की अपील
चीन ने ईरान के परमाणु कार्यक्रम के संबंध में ईरान और गुट पांच धन एक के बीच नए चरण की वार्ता की अपील की है।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता होंग ले ने शुक्रवार को कहाः हम ईरान और गुट पांच धन एक के बीच यथाशीघ्र वार्ता के नए चरण के आयोजन की आशा करते हैं ताकि किसी व्यापक, दीर्घकालिक व मुनासिब समाधान तक पहुंचा जा सके।
चीनी विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता ने इसके साथ ही ईरान के परमाणु मामले पर मतभेद के समाधान के लिए वार्ता और सहयोग को एकमात्र मार्ग बताया।
चीनी विदेश मंत्रालय का यह बयान ऐसे समय आया है जब गुरुवार को ईरान और अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी आईएईए के बीच वार्ता समाप्त हुयी।
आईएईए के उपमहानिदेशक हरमैन नैकैर्ट्स ने शुक्रवार को वियना हवाई अड्डे पर पत्रकारों से बातचीत में ईरान और एजेंसी के बीच वार्ता में हुयी प्रगति का उल्लेख किया।
ज्ञात रहे अमरीका और उसके कुछ घटक ईरान पर शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम की आड़ में परमाणु शस्त्रों की प्राप्ति के प्रयास का आरोप लगाते हैं और इसी आरोप के बहाने अमरीका ने ईरान पर एकपक्षीय प्रतिबंध लगा दिए हैं जबकि ईरान का कहना है कि उसकी समस्त परमाणु गतिविधियां शांतिपूर्ण हैं जो आईएईए के निरीक्षण में जारी हैं और वह परमाणु अप्रसार संधि एनपीटी के सदस्य देश के नाते शांतिपूर्ण उद्देश्य के लिए परमाणु ऊर्जा के प्रयोग के अपने मूल अधिकार पर बल देता है।
आईएईए ने भी ईरान के परमाणु प्रतिष्ठानों का अनेक बार निरीक्षण किया है और उसे ऐसे कोई साक्ष्य नहीं मिले जिससे पश्चिमी देशों के आरोपों की पुष्टि हो।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने भी परमाणु शस्त्रों के निर्माण के वर्जित होने का फ़तवा दिया है।
ज़ायोनी परमाणु प्रतिष्ठान में काम करने वाले मर्दख़ाय वनूनो की सूचना के आधार पर जो उन्होंने 1980 के दशक में द संडे टाइम्ज़ को दी थी, अधिकाशं विशेषज्ञों का मानना है कि इस समय ज़ायोनी शासन के पास 200-300 परमाणु वारहेड्स हैं।
कितनी अजीब बात है कि मध्यपूर्व में 200 से अधिक परमाणु वारहेड्स से संपन्न ज़ायोनी शासन से पश्चिमी देश यह तक नहीं पूछते कि वह अंतर्राष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेंसी के निरीक्षकों को अपने परमाणु प्रतिष्ठानों के निरीक्षण की अनुमति क्यों नहीं देता और परमाणु अप्रसार संधि एनपीटी से क्यों नहीं जुड़ता।
ज्ञात रहे इस वर्ष इस्लामी गणतंत्र ईरान और गुट पांच धन एक के बीच इस्तांबूल, बग़दाद और मास्को में तीन चरणों की वार्ता हुयी जिसके दौरान दोनों पक्षों ने एक दूसरे को प्रस्तावों का पैकेज पेश किया।
उद्दंडी व विद्रोही गुट, सीरिया संकट के ज़िम्मेदारः वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सय्यद अली ख़ामेनई ने बल दिया कि जो लोग सीरिया को गृह युद्ध की ओर ले जा रहे हैं वे इस देश की जनता के वास्तव में शत्रु हैं।
मंगलवार को तेहरान में इस्लामी जागरुकता और विश्वविद्यालय के शिक्षक शीर्षक के अंतर्गत आयोजित सम्मेलन में भाग लेने वालों ने वरिष्ठ नेता से भेंट की। इस अवसर पर वरिष्ठ नेता ने उद्दंडी व विद्रोही गुटों को सीरिया के संकट के जारी रहने का मुख्य कारण बताया और कहा कि मुसलमानों की सभी मांगें हिंसा से दूर रहते हुए पूरी होनी चाहिए। उन्होंने ग़ज़्ज़ा पर अतिग्रहणकारी ज़ायोनी शासन के पाश्विक हमलों के दौरान फ़िलिस्तीन के प्रतिरोध आंदोलन के क्रियाकलाप की प्रशंसा करते हुए कहा कि किसी को यह विश्वास नहीं हो रहा था कि फ़िलिस्तीनियों और इस्राईल के बीच झड़प के पश्चात इस बार युद्ध विराम की शर्त फ़िलिस्तीनी निर्धारित करेंगे।
आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने इस बात पर बल दिया कि शत्रु इस्लामी जागरुकता शब्द से भयभीत है और वह इस शब्द के प्रयोग से बचता है क्योंकि वह आम लोगों में प्रचलित इस्लाम से डरता है।
वरिष्ठ नेता ने बल दिया कि यह कल्पना कि अमरीका की अगुवाई में विश्व साम्राज्य इस्लाम से समझौता कर लेगा, एक भूल है। (MAQ/N)
ईरान का इस्लामी इंक़ेलाब
शाह के काल में ईरान, क्षेत्र में अमरीका का सब से बड़ा घटक समझा जाता था इसी लिए अमरीका को ईरान के राजनीतिक परिवर्रतनों से गहरी रूचि थी और अमरीका को भली भांति ज्ञात था कि यदि ईरान में इस्लामी क्रान्ति सफल हो गयी तो फिर उस के हित ख़तरे में पड़ जाएंगे इसी लिए अमरीकी अधिकारियों ने इस्लामी क्रान्ति के आंदोलन के आरंभ से लेकर अंतिक दिनों तक क्रान्ति को रोकने का भरपूर प्रयास किया।
इमाम ख़ुमैनी के ईरान आगमन के पूर्व ही ईरान में जो प्रदर्शनों का क्रम आरंभ हुआ था उस से अमरीका और शाही सरकार दोनों चिंता ग्रस्त हो गये थे स्थिति यहॉ तक पहुंच गयी थी कि अब शाह के पास दो मार्ग रह गये थे या तो वह ईरान में मार्शल लॉ लागू करके देश चलाता या फिर देश से निकल कर, देश का संचालन सेना के हवाले कर देता। इसी मध्य छात्रों ने एक बार फिर पूरे ईरान में प्रदर्शन किये और अमरीकी व पश्चिमी संस्कृति के प्रलीकों और पश्चिमी केन्द्रों पर आक्रमण किये। अमरीकी राजदूत ने शाह से भेंट की और परिस्थितियों पर विचार करने के बाद यह निर्णय लिया गया कि फ़िलहाल शाह ईरान से बाहर चला जाए और जब परिस्थितियां अनुकूल हो जाएं तो वह फिर ईरान वापस आ जाए। ११ दिसम्बर सन १९७८ को लगभग चालीस लाख लोग सड़कों पर उतर आए उन की मॉग थी कि इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में एक इस्लामी सरकार का गठन किय जाए। हज़ारों लोगों को गिरफ़तार किया गया बहुत से लोग शहीद हुए और सेकड़ों को शाही जेल ख़ानों में यातनाएं सहन करनी पड़ी किंतु जनमत का दबाव कम नहीं हुआ। अमरीका ने शाह को इस बात पर तैयार कर लिया कि वह शापुर बख़्तियारी को प्रधानमंत्री बना कर इमाम ख़ुमैनी के प्रभाव को कम करे।
इमाम ख़ुमैनी के बारे में राबिन वूडस वर्थ जिस ने उन से उन के घर में भेंट की थी लिखता है: जैसे ही इमाम ख़ुमैनी द्वारा से अंदर आए मुझे लगा कि उन के अस्तित्व से आध्यात्म का पवन बह रहा है। मानों उन के कत्थई लगादे, काली पगड़ी और सफ़ेद दाढ़ी के पीछे, आत्मा व जीवन की लहरें उठ रही हैं यहॉ तक कि कमरे में उपस्थित सारे लोग, उन के व्यक्तित्व में खो गये, उस समय मुझे लगा कि उन के आते ही हम सब बहुत छोटे हो गये और ऐसा लगने लगा कि जैसे वहॉ उन के अतिरिक्त कुछ भी नहीं है।
उन्हों ने उन सारे मापदंडों और शब्दों को उलट पुलट दिया जिन के द्वारा मुझे लगता था कि मैं उन के व्यक्तित्व का बखान कर सकता हूं। उन की उपस्थिति का हम पर इतना अधिक प्रभाव पड़ा कि मुझे लगा कि माने वह मेरे पूरे अस्तित्व पर छा गये हैं तो क्या कोई साधारण व्यक्ति, ऐसा हो सकता है? मैं ने तो आज तक किसी भी बड़े नेता या बड़ी हस्ती को उन से अधिक महान नहीं पाया, मैं उन की छोटी सी प्रशंसा में बस यही कह सकता हूं कि वह मानों अतीत में ईश्वरीय दूतों की भॉति हैं या फिर यह कि वे इस्लाम के मूसा हैं जो फ़िरऔन को अपनी भूमि से बाहर निकालने के लिए आए हों।
२९ वर्ष पूर्व इमाम ख़ुमैनी देश निकाले के बाद स्वदेश लौटे और कई वर्षों से जारी उन का संघर्ष चरम सीमा की ओर बढ़ने लगा। १२ बहमन को इमाम ख़ुमैनी ईरान आए और सरकार के गठन की घोषणा की और पूरे ईरान में प्रदर्शनों का क्रम आरंभ हो गया।
सन १९७८ में शाह के संकेत पर ईरान के समाचार पत्र इत्तेलात में एक आलेख छपा जिस में खुल कर इमाम ख़ुमैनी का अपमान किया गया था दूसरे दिन इस आलेख के विरूद्ध क़ुम में छात्रों ने प्रदर्शन किया और सुरक्षा बलों के हस्तक्षेप के बाद कई छत्र शहीद हो गये जिस के बाद प्रदर्शनों का क्रम पूरे ईरान में फैल गया। इमाम ख़ुमैनी ने जनता से कहा कि अब इस्लामी सरकार के गठन के लिए सड़कों पर आने का समय आ गया है। शाह ने यह सोच कर कि यदि इमाम ख़ुमैनी को इराक़ से बाहर निकलवा दिया जाए तो प्रदर्शनों में कमी आ जाएगी, इराक़ी सरकार से इमाम ख़ुमैनी को देश निकाला देने को कहा, जहॉ पहले से ही इमाम ख़ुमैनी देश निकाले का जीवन व्यतीत कर रहे थे। इमाम ख़ुमैनी अपने अपने बेटे के साथ कुवैत गये किंतु ईरान की शाही सरकार के दबाव के कारण कुवैत की सरकार ने उन्हें इस देश में रहने की अनुमति नहीं दी जिस के बाद इमाम ख़ुमैनी ने अपने पुत्र से परामर्श करके पेरिस जाने का निर्णय लिया और दूसरे दिन ही पेरिस के निकट स्थित नोफ़ल लूशातो नामक क्षेत्र में एक ईरानी के घर में रहने लगे। फ़्रांस के अधिकारियों ने इमाम ख़ुमैनी को सूचित किया कि राष्टपति भवन यह नहीं चाहता कि वह फ़्रांस में किसी भी प्रकार की राजनीतिक गतिविधि करें जिस पर इमाम ख़ुमैनी ने कड़ी प्रतिक्रिया प्रकट करते हुए बयान दिया कि यह प्रजातंत्र के दावों के विपरीत है यदि उन्हें एक हवाई अडडे से दूसरे हवाई अडडे और एक देश से दूसरे देश तक यात्रा करते रहने पर विवश होना पड़े तब भी वह अपने उददेश्य से पीछे हटने वाले नहीं हैं। इस प्रकार से इमाम ख़ुमैनी ने पेरिस में रह कर ईरान में क्रान्ति का नेतृत्व किया क्रान्तिकारी उन के बयानों को गुप्त रूप से ईरानी जनता के मध्य बांटते थे और इस प्रकार से परिस्थितियां यहॉ तक पहुंची कि पूरे ईरान में प्रदर्शन आरंभ हो गये और इमाम ख़ुमैनी ईरान वापस आ गये। पहली फ़रवरी सन १९७९ को बहिश्ते ज़हरा में अपने इतिहासिक भाषणा के दजरान सरकार के गठन की घोषणा कर दी।
उस समय ईरान पर अमरीका का पूरा वर्चस्व था ईरान में अमरीकी राजदूत की सलाह पर शाह काम करता था। वास्तव में अमरीकी ईरान के बारे में एक चीज़ भूल गये थे और वह थी ईरानी जनता में पश्चिमी मूल्यों से पाई जाने वाली गहरी घृणा , उन्हें यह नहीं ज्ञात था कि इमाम ख़ुमैनी की गिरफ़तारी, जेल और १४ वर्ष का देश नाकला वास्तव में ईरानी समाज पर पश्चिम के प्रहाव और अमरीकियों को प्राप्त विशेषधिकार के विरोध का परिणाम था। इसी लिए यह पूरी घटना अमरीका के लिए एक मानसिक समस्या बन यही और वह अब तक इस समस्या में ग्रस्त है, ईरान के विरूद्ध अमरीका की शत्रुतापूर्ण कार्यवाहियों का एक बड़ा भाग, इस्लामी क्रान्ति के रूप में अपनी पराजय की क्षति पूरर्ति का एक प्रयास है किंतु सफलता उसे कभी नहीं मिलेगी। किसी भी क्रान्ति को सही रूप से पहचानने के लिए उस के नेता को जानना आवश्यक होता है।
लंदन से प्रकाशित होने वाली पत्रिका टाइम्ज़ ने जिसे दो सौ वर्ष से ब्रिटिश साम्राज्य का प्रवक्ता कहा जाता है, इमाम ख़ुमैनी के बारे में लिखा: इमाम ख़ुमैनी ऐसे व्यक्ति थे जो जनता को अपनी बातों से मंत्रमुग्ध कर देते थे, वे साधारण लोगों की भाषा बोलते थे और अपने निर्धन और असहाय समर्थकों में आत्मविश्वास भर देते थे जिस के कारण वे अपने सामने आने वाली हर बाधा को हटाने पर सक्षम हो जाते थे उन्हों ने अपनी जनता को यह समझा दिया था कि अमरीका जैसी शक्तियों के सामने डटा जा सकता है, वह भी बिना किसी भय के।
वर्षों तक देश निकाले की समस्याओं और कठिनाइयों को सहन करने के बाद ३० वर्ष पूर्व १२ बहमन को इस्लामी गणतंत्र ईरान के संस्थापक इमाम ख़ुमैनी क्रान्ति की विजय का संदश लिये ईरान आए थे जिस के दस दिनों के भीतर ही ईरान में ढाई हज़ार वर्ष के शाही शासन का तख़्ता उलट गया और दसवें दिन इस्लामी क्रान्ति की सफलता की घोषणा कर दी गयी। ईरान में इमाम ख़ुमैनी के आगमन से लेकर , क्रान्ति की औपचारिक सफलता के दस दिनों तक, स्वतंत्रता का जश्न मनाया जाता है जिसे दहे फ़ज्र अर्थात प्रकाश के दस दिन कहा जाता है।
क्रान्ति एक ऐसा शब्द है जिसे सुसन कर एक साथ बहुत से अर्थ मस्तिष्क में घूम जाते हैं किंतु जो सब से गहरा और स्पष्ट अर्थ होता है वह बदलाव और परिवर्तन का होता है। क्रान्ति की सब से बड़ी विशेषता पूर्ण परिवर्तन व बदलाव होता है क्रान्ति लायी ही इसी लिए जाती है ताकि परिस्थितियां बदली जा सकें लोगों के अंसतोष को संतोष में बदला जा सके किंतु क्रान्ति की पूरी प्रक्रिया में जहॉ जनता की भूमिका आवश्यक होती है वहीं क्रान्ति लाने वाले का व्यक्तितव और उस की विशेषताओं को अत्याधिक महत्व प्राप्त होता है क्योंकि क्रान्ति लाने वाला नेता ही वह होता है जो लोगों में सुधार की ललक और अत्याचार के विरूद्ध आक्रोश को एक सही दिशा देता है इसी लिए हम देखते हैं कि बहुत से क्षेत्रों और देशों में अत्याचार होते हैं शोषण होता रहता है जनता में बक्रोश भी बहुत होता है, शासकों के विरूद्ध लड़ते की ललक भी होती है और देश में सुधार की इच्छा भी किंतु इन सब के बावजूद कुछ नहीं होता और क्रान्ति की दिशा में काम करने वाले लोग एक एक करके ख़त्म कर दिये जाते हैं और फिर ऐसा भी समय आता है कि जब उस देश के किसी कोने से क्रान्ति व सुधार की हल्की सी चिंगारी भी उठती नज़र नहीं आती किंतु यदि अत्याचार व शोषण के बीच किसी समाज को योग्य क्रान्ति कारी नेता मिल जाता है तो फिर वे आम लोगों में मौजूद असंतोष व आक्रोश और अत्याचार व शोषण के विरूद्ध भावनाओं की छोटी छोटी नदियों का दिशा निर्देशन करके उन्हें एक प्रचंड तूफ़ान में बदल देता है और फिर इस तूफ़ान के सामने हज़ारों वर्षों से चल रही शासन व्यवस्था भी टिक नहीं पाती और न ही महाशक्तियां उस की कोई सहायता कर पाती हैं। ईरान में भी कुछ ऐसा ही हुआ।
क्रान्ति का अर्थ बदलाव होता है किंतु ईरान की क्रांति और आम क्रांतियों में थोड़ा सा इस दृष्टि से भी अंतर है। प्राय: क्रान्तियां बदलाव व नवीनता लेकर आती हैं किंतु ईरान की क्रान्ति बदलाव तो लेकर आयी किंतु नवीनता के स्थान पर वही जाने पहचाने और प्राचीनप मूल्यों को एक ऐसे रूप में प्रस्तुत किया जिस से तब तक विश्व वासी अनभिज्ञ थे। ईरान की इस्लामी क्रान्ति ने सिद्ध कर दिया कि धर्म में क्या शक्ति होती है और मानवीय व धार्मिक मूल्यों का प्रतिबद्धा के साथ भी कितने अच्छे ढंग से राजनीति की जा सकती और देश चलाया जा सकता है। ईरान की इस्लामी क्रान्ति नवीनता का नहीं बल्कि मानवता व अपनी प्रवृत्ति की ओर मानव की वापसी का संदेश लेकर आयी और स मशीनी युग में धर्म व नैतिकता व मानवता की उपयोगिता को व्यवहारिक रूप से सिद्ध कर दिया और ईरान की इस्लामी क्रान्ति के अन्य राष्टों तक पर्सार और साम्राज्यवादी शक्तियों की इस से शत्रुता का कारण भी इस क्रान्ति की व्यापकता व प्रभाव है हिस का एक महत्वपूर्ण कारण यह भी है कि ईरान की क्रान्ति का संदेश , हर मनुष्य के हृदय व प्रवृत्ति की गहराइयों से निकलने वाली आवाज़ है।
ईरान में इस्लामी क्रांति का आंदोलन सफलता की ओर बढ़ रहा था और ग्वाडलूप द्वीप में पश्चिम के चार बड़े देश एक सम्मेलन का आयोजन कर रहे थे। सम्मेलन का उददेश्य , इस बड़े परिवर्तन से विदेश नीति को समन्वित करना था।
सम्मेलन का सुझाव फ़्रांस के तत्कालीन राष्ट्रपति ने अमरीका, ब्रिटेन और जर्मनी के राष्ट्रपतियों को दिया था जिसे स्वीकार कर लिया गया क्योंकि उन्हों ने अपने स्थाई घटक शाह की सरकार की ख़तरनाक स्थिति को समझ लया था इस लिए यह चार देश सम्मेलन में इस बात पर विचार कर रहे थे कि कैसे उपाय किये जाएं जिस से उन के हितों को कम से कम नुक़सान पहुंचे। इस सम्मेलन का महत्वपूर्ण निर्णय यह था: इमाम ख़ुमैनी को शाही सरकार और क्रांति के मध्य का रास्ता अपनाने और बख़्तियार सरकार से समझौता करने पर तैयार किया जाए और इस के साथ ही उन्होंने अपनी मॉंग मनवाने के लिए सेना के सीधे हस्तक्षेप की धमकी भी दे दी। सम्मेलन के समापत के बाद अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर ने दावा किया कि सम्मेलन में उपस्थित कोई भी पक्ष शाह के समर्थन में रूचि नहीं रखता था उन्हों ने कहा कि सब का यही कहना था कि शाह को एक असैनिक सरकार को सत्ता सौंप कर ईरान से निकल जाना चाहिए। जिमी कार्टर के अनुसार इस पर सब सहमत थे कि सेना को एकता बनाए रखते हुए यह सिद्ध करना चाहिए उसे इमाम ख़ुमैनी और चरमपंथियों के समर्थन में कोई रूचि नहीं है यह तो जिमी कार्टर का विचार था किंतु ईरानी राष्ट्र का भविष्य एक अलग ढंग से लिखा जा चुका था।
१६ जनवरी १९७९ को ईरान का शाह, भाग कर मिस्र गया और शक्ति हीन एक कमज़ोर सरकार को सड़क को सड़क पर निकली जनता के सामने अकेला छोड़ दिया। बख़्तियार के मंत्रिमंडल का गठन हुआ और कार्यक्रम यह था कि बख़्तियार की सरकार यदि परिस्थितियों पर नियंत्रण में सफल हुई तो शाह कुछ दिनों के लिए ईरान से चला जाएगा किंतु बहुत शीघ्र ही यह स्पष्ट हो गया कि बख़्तियार परिस्थितियों पर नियंतत्र में सफल हों या न हों, शाह को प्रत्येक दशा में ईरान से जाना होगा, शाह ने अमरीकी राजदूत से कहा कि वह ईरान छोड़ने से पहले बयान जारी करेगा कि आराम करने के लिए देश से निकल रहा है किंतु बयान में वापसी होगा, शाह ने अमरीकी राजदूत से कहा कि वह ईरान छोड़ने से पहले बयान जारी करेगा कि आराम करने के लिए देश से निकल रहा है किंतु बयान में वापसी की तिथि का वर्णन नहीं होगा वास्तव में अमरीका में निर्णय लेने वाले केन्द्र इस निष्कर्ष पर पहुंच चुके थे कि अब शाही सरकार का बचना संभव नहीं है। शाह के ईरान से भागने का समाचार जंगल की आग की तरह पूरे ईरान में फैल गया और इस्लामी क्रांति के लिए संघर्ष करने वालों में उत्साह भर गया। शाही सरकार की आधारशिला खिसक गयी थी और अब इमारत गिरने की प्रतीक्षा थी।
बहुत से विचारकों ने ईरान की इस्लामी क्रांति को शताब्दी का सब से बड़ा चमत्बार कहा है क्योंकि क्षेत्र में ईरान की शाही सरकार की जो स्थिति थी और उसे जिस प्रकार से महाशक्तियों का समर्थन प्राप्त था उस के साथ कोई यह सोच भी नहीं सकता था कि कोई धर्म गुरू बिना किसी महाशक्ति से जुड़े केवल जनता की शक्ति के सहारे ढाई हज़ार वर्ष पुराने शाही शासन को इस प्रकार से उखाड़ फेंकेगा कि उसका भरपूर समर्थन करने वाली अमरीका जैसी महाशक्तियां भी मुंह तकती रह जाएंगी और इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद भी अमरीकी सरकार ने ईरान की इस्लामी क्रांति की विरूद्ध जो षडयन्त्र रचे उस का एक कारण यह भी था कि अमरीका को ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद भी विश्वास नहीं हो पा रहा था कि कोई धर्म गुरू धार्मिक आधारों पर और धर्म की सरकार चलाने के नारे के साथ,ऐसी किसी क्रांति को सफल कर सकता है उसे अंतिम क्षणों तक क्रांति की विफलता की प्रतीक्षा थी अमरीका ने अपनी इस प्रतीक्षा को समाप्त करने के लिए भरसक प्रयास किये जो अब तक जारी हैं किंतु उस की प्रतीक्षा लंबी होती चली गयी और अब तो २९ वर्षों की लंबी अवधिक बीत चुकी है और यह सब कुछ इमाम ख़ुमैनी की सूझबूझ और दूरदर्शिता के कारण था। इसी लिए समाचार पत्र हेराल्ड ट्रीब्यून ने उन की योग्यताओं को स्वीकार करते हुए लिखा:
इमाम ख़ुमैनी , कभी न थकने वाले क्रांतिकारी थे और अंतिम सांसों तक ईरान में इस्लामी समाज और सरकार के गठन की अपनी आकांक्षा के प्रतिबद्ध रहे। वे अपने प्राचीन देश के लिए जो चाहते थे उस में एक क्षण के लिए भी हिचकिचाए नहीं, वह अपना कतवर्य समझते थे कि ईरान को उन वस्तुओं से छुटकारा दिला दें जिन्हें वे पश्चिमी भ्रष्टाचार और पतन का नाम देते थे। वे शुद्ध इस्लाम को अपने राष्ट्र में वापस लाना चाहते थे।
पहली फ़रवरी बराबर १२ बहमन को इमाम ख़ुमैनी के ईरान आगमन के बाद पूरे ईरान में प्रदर्शनों का ऐसा क्रम आरंभ हो गया जिस के सामने शाही सरकार के सारे उपाय और उस के पश्चिमी समर्थकों की सारी युक्तियां प्रभावहीन हो गयीं।
५ फ़रवरी को इमाम ख़ुमैनी ने एक बयान जारी करके अपने बारे में ईरानी जनता की भावनाओं पर उन के प्रति आभार प्रकट किया। इमाम ख़ुमैनी के आदेश पर त्याग पत्र देने वाले कुछ सांसद उन की सेवा में उपस्थित हुए इन परिस्थितियों में भी शाह और कुछ पश्चिमी देशों द्वारा प्रधान मंत्री बनाए गये बख़्तियार ने बयान दिया कि वे अब भी देश का संचालन कर रहे हैं। इसी मध्य आज ही के दिन संसद ने अपनी खुली कार्यवाही में शाह की भयानक गुप्तचर संस्था सावाक को भंग करने और प्रधानमंत्री तथा अन्य मंत्रियों के विरूद्ध मुकदमा चलाने के विधेयक को पारित कर दिया इमाम ख़ुमैनी ने अंतरिम सरकार के गठन का आदेश दिया। उन्होंने इसी आदेश में इस्लामी क्रान्ति के लक्ष्यों और कार्यक्रमों का उल्लेख किया और अंतरिम सरकार को निर्दोश दिया कि वो इन लक्ष्यों के लिए प्रयास करे।
इमाम ख़ुमैनी के इस आदेश में अंतरिम सरकार का मुख्य लक्ष्य राजनैतिक शासन व्यवस्था के निर्धारण हेतु जनमत संग्रह कराना और संसदीय चुनावों का आयोजन कराना था।
अंतरिम सरकार के गठन के साथ ही शाही सरकार की कई सैनिक छावनियों में इस्लामी कान्ति के पक्ष में प्रदर्शन हुए और शाह की सरकार द्वारा देश में सैनिक शासन लागू करने और प्रदर्शों पर प्रतिबंध के बावजूद पूरे ईरान में प्रदर्शन हुए और प्रदर्शनों पर प्रतिबंध के बावजूद पूरे ईरान में प्रदर्शन हुए और ढाई हज़ार वर्ष के शाही शासन व्यवस्था पूरी तरह से चरमरा गयी। एक अभूतपूर्व क्रान्ति की आहट अब साफ़ सुनाई दे रही थी।
इमाम ख़ुमैनी के ईरान के आगमन के समय, ईरान की जो परिस्थितियां थी उस के अंतर्गत निश्चित रूप से इमाम ख़ुमैनी द्वारा ईरान आने का निर्णय अत्याधिक साहसिक था क्योंकि शाही शासन ने उन के ईरान आने से पूर्व देश के सारे हवाई अड्डों को बंद कर दिया था और यह भी बातें हो रही थीं कि हो सकता है कोई इमाम ख़ुमैनी पर आक्रमण कर दे या फिर उन के विमान को लक्ष्य बना ले किंतु निर्भीकता व साहस, ईश्वर पर भरोसा और ईश्वर के लिए संघर्ष करने वालों की विशेषता होती है। यही कारण है कि इमाम ख़ुमैनी ने इस प्रकार की समस्त आशंकाओं को महत्व दिये बिना ईरान वापसी का निर्णय लिया जिस के परिणाम में शाही सरकार का पतन हो गया।
इमाम ख़ुमैनी की जीवनी पढ़ने वालों को ज्ञात है कि उन्हों ने कितनी बार और किस प्रकार, अपने इस प्रकार के निणर्यों द्वारा कितने बड़े बड़े काम किये हैं।
मुहम्मद लिंसल, बस्ट्रिया में इस्लामी पुर्नजागरण संस्था के प्रमुख हैं वे युरोप में इमाम ख़ुमैनी के आंदोलन के प्रभाव के शीर्षक के अंतर्गत अपने एक लेख में लिखते हैं कि निश्चित रूप से इमाम ख़ुमैनी की इस्लामी क्रांति ने न केवल यह कि युरोप में इस्लाम की नयी छवि पेश की बल्कि उन की क्रांति ने गैर मुस्लिमों के जीवन में भी धार्मिक रंग भर दिये । दूसरे शब्दों में आज युरोप में भी धर्म के पालन को नये अर्थ मिल गये हैं।
आस्ट्रिया के पूर्व राष्ट्रपति ने अपनेएक भाषण में कहा था कि इस्लामी क्रांति ने धर्म पर विश्वास रखने वाले सब लोगों में नया आत्मविश्वास भर दिया।
किसी भी क्रांति के लिए क्रांति के नेता की दूर दर्शिता और सूझ बूझ के साथ ही जनता की शक्ति की भी अत्याधिक आवश्यकता होती है और जब जनता की यह शक्ति सड़कों पर नज़र आती है तो राजनीति के सारे दांव पेंच और बड़े बड़े नीतिकारों की बुद्धि धरी रह जाती है। ईरान में क्रांति की आहट सुनने के बाद अमरीका सहित कई विश्व शक्तियों ने क्रांति को रोकने के लिए अपनी पूरी शक्ति झोंक दी किंतु क्रांति के समय आज ही दिन इमाम ख़ुमैनी द्वारा अंतरिम सरकार के प्रमुख के चयन की घोषणा के बाद लाखों की संख्या में ईरानी नागरिकों ने इमाम ख़ुमैनी के इस आदेश के समर्थन में देश भर में जुलूस निकाले और प्रदर्शन किये।
लोग सड़कों पर एकत्रित हो गये और एक आवाज़ होकर शाह के पिटठू शापूर बख़्तियार की सरकार को हटाने की मांग की। इस्फ़हान सहित ईरान के अधिकांश नगरों में जनता सड़कों पर निकल कर शाही सरकार के विरूद्ध नारे लागा रही थी।
१७ बहमन के सुबह से ही संसद की ओर जाने वाली सभी सड़कें प्रदर्शनकारियों से भर गयीं और संसद को सुरक्षा बलों ने घेर लिया। जनता ने तेहरान के बहारिस्तान स्कवायर के आसपास की सड़कों पर भारी प्रदर्शन किये और आज ही कि दिन अमरीका के विशेष दूत जनरल हायज़र अपनी योजना को व्यवहारिक बनाने में असफलता के बाद ईरान से वापस अमरीका लौट गये। वास्तव में जनरल हायज़र को शाही सरकार की सहायता, शाही सेना के प्रति अमरीका के समर्थन की घोषणा और इस्लामी क्रांति के विरूद्ध विद्रोह की भूमिका प्रशस्त करने के लिए ईरान भेजा गया था। वे ईरान की ताज़ा स्थिति की जानकारी अमरीका के तत्कालीन राष्ट्रपति जिमी कार्टर को देने अमरीका वापस चले गये। क्रांति की सफलता लगभग निश्चित हो चुकी थी।
इस्लामी क्रांति की सफलता में सब से अधिक महत्वपूरण भूमिका इमाम ख़ुमैनी की थी इस में तो कोई संदेह नहीं है किंतु प्रश्न यह है कि उन के पास इतनी असीम शक्ति आयी कहॉं से थी। क्या एक साधारण मनुष्य एक साथ इतनी सारी शक्तियों से टकरा कर उन्हें पीछे हटने पर विवश कर सकता है। इस प्रश्न का उत्तर बहुत बड़ा है किंतु संक्षेप में बस यही कहा जा सकता है कि इमाम ख़ुमी की यह शक्ति, शक्ति के असीम व अनन्त स्रोत, ईश्वर से जुड़े होने और उसी के मार्ग में संघर्ष के कारण थी। जो ईश्वर से जुड़ा होता है उसे संसारिक लोभ या भय प्रभावित नहीं करता और जब ऐसे लोग किसी काम का निर्णय करते है और ईश्वर के लिए उस दिशा में क़दम बढ़ाते है तो फिर उन्हें कोई भी उन के मार्ग से हटा नहीं सकता।
इमामा ख़ुमैनी ऐसे ही थे।
इमाम ख़ुमैनी से भेंट करने वाले पश्चिम के प्रसिद्ध ईसाई पत्रकार रॉबिन वूडस वर्थ एक स्थान पर इमाम ख़ुमैनी के बारे में लिखते हैं: इमाम ख़ुमैनी एक तूफ़ान थे। इस के बावजूद इस तूफ़ान के भीतर एक पूर्ण शांति थी। वे अत्यन्त ठोस व आदेशक मुद्रा रखते थे किंतु इस के साथ ही अत्यन्त शांतिदायक, प्रहाव शाली और उत्तरदायी थे। उन के भीतर एक स्थिर और अडिग वास्तविकता थी किंतु यही स्थिरता एक देश को गति में लाने का कारण बनी।
इमाम ख़ुमैनी के ईरान आगमन के बाद से शाही सरकार के विरोध में जो तेज़ी आयी तो वह अब अपनी चरम सीमा पर पहुंच रही थी ईरान की जनता समूहों में इमाम ख़ुमैनी से भेंट के लिए तेहरान में उनके आवास पर जाती और इमाम ख़ुमैनी के आज्ञा पालन का संकल्प दोहराती। ईरान भर में हर ओर उत्साह दिखाई दे रहा था। परिस्थितियों साफ़ लग रहा था कि निकट भविष्य में कोई बहुत बड़ा परिवर्तन होने वाला हैं आज के दिन जनता के विभिन्न वर्गों के अतिरिक्त तीनों सेनाओं के सैनिकों के कुछ गुट भी अपनी वर्दी में और कुछ पूर्व सेनाध्यक्षों ने भी इमाम ख़ुमैनी के सेवा में उपस्थित होकर उनके आज्ञापालन का संकल्प लिया। इसी प्रकार इमाम ख़ुमैनी ने एक भाषण देकर शाह पर न्यायालय में मुक़द्दमा चलाए जाने पर बल दिया।
शाही सरकार की इमारत को अमरीका के समर्थन के स्तंभ भी खड़ा रखने में सफल नहीं हो पाए, शाही शासन की इमारत ढह रही थी, तत्कालीन अमरीकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर के विशेष दूत जनरल हायज़र एक दिन पूर्व ईरान स निकल चुके थे और आज ही के दिन अमरीकी सरकार ने ख़तरे को भांपते हुए, ईरान में रह रहे अमरीकियों को ईरान से निकल जानत का आदेश दे दिया। ईरान के बंदर अब्बास नगर से बहुत से सैनिक अफ़सरों ने इमाम ख़ुमैनी के नाम टेलीग्राफ़ भेज कर अपने समर्थन की घोषणा की। शाही शासन की कमज़ोर हड़िडया चरमरा गयी थी और उस की आवाज़ विश्व के कोने कोने में सुसनी गयी। विश्व को ईरान में एक बड़े परिर्वतन की प्रतीक्षा थी किंतु यह परिर्वतन इतना बड़ा और स्थायी होगा इस की आशा किसी को भी नहीं थी विशेषकर पश्चिमी जगत और अमरीका को।
किसी भी क्रान्ति के नेता के लिए राजनीतिक सूझ बूझ और विश्व की परिस्थितियों की जानकारी अत्याधिक आवश्यक होती है बल्कि किसी भी क्रांति की सफलता के लिए यह मुख्य शर्त है। इमाम ख़ुमैनी एक धर्मगुरू थे संभवत:शाही शासन में ऐसे बहुत से लोग रहे हों जो यह सोचते हों कि एक धर्म गुरू को राजनीति से क्या संबंध किंतु वह गलत समझे थे अमरीका ने भी यही गलती की थी।
जर्मनी से प्रकाशित पत्रिका इश्पिग्ल ने इमाम ख़ुमैनी के बारे में लिखा:
ईरान कीघटनाओं से हम बहुत अच्छी तरह से यह समझ सकते हैं कि इमाम ख़ुमैनी, मध्य पूर्व के समीकरण में ईरान के महत्व को, राष्ट्रपति कार्टर से अधिक बेहतर रूप में समझते हैं अमरीका ने इस ओर ध्यान नहीं दिया कि ईरान, उस की अंतरराष्ट्रीय प्रतिष्ठा के लिए कमज़ोरी बन सकता है किंतु इमाम ख़ुमैनी ने इस वास्तविकता को भली - भॉंति समझ लिया है। तेहरान में उन की सफलता केवल उस क्रांति की आरंभिक लहरें हैं जिस के बारे में उन्हें आशा है कि यह लहर पूरे मध्य पूर्व को अपनी लपेट में ले लेगी। कार्टर और उन के सलाहकारों ने इमाम ख़ुमैनी के केवल राष्ट्रीय आयाम पर ध्यान दिया किंतु इस के बाद अब निश्चित रूप से मिस्र व इस्राईल से लेकर तक सऊदी अरब व इराक़ तथा फ़ार्स की खाड़ी की राजशाही शासनों को ईरान की क्रांति के परिणामों का सामना करना पड़ेगा।
प्राय: क्रांति जनता द्वारा आती है और फिर जब सब कुछ बदल जाता है तो सेना भी अपनी निष्पक्षता की घोषणा कर देती है किंतु ईरान की क्रांति की अन्य घटनाओं की भॉंति इस संदर्भ में भी एक असाधारण घटना घटी।
इमाम ख़ुमैनी के पहली फ़रवरी को तेहरान आगमन के बाद जो प्रदर्शनों का क्रम आरंभ हुआ था वह अब अपने अंतिम चरणों में था अब सेना भी इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में आगे आने लगी थी। एक ओर तो लाखों लोग इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ पर अंतिरम सरकार के गठन के समर्थन में प्रद्रशन कर रहे थे और शाही सरकार के अपदस्त किये जाने की मांग कर रहे थे तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में वायु सैनिक इमाम ख़ुमैनी के पास पहुंचे और उनके नेतृत्व मे इस्लामी क्रान्ति के प्रति अपने समर्थन की घोषणा की।
इमाम ख़ुमैनी ने इस अवसर पर कहा कि आप लोग अब तक एक दुष्ट का आज्ञापालन करते थे। आज से आप सब क़ुरआन से जुड़ जाएं क़ुरआन आप सब का संरक्षक है। आशा करता हूं कि आपकी सहायता से मैं ईरान में न्याय पर आधारित सरकार का गठन कर सकूंगा। वायु सेना की इस टुकड़ी के क्रांति कारियों से जुड़ने के बाद शाही शासन की कमर टूट गयी और क्रांति कारियों का उत्साह कई गुना बढ़ गया।
शाही व्यवस्था में निराशा फैल गयी। आज ही के दिन पूरे ईरान में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए सूत्रों के अनुसार केवल तेहरान में ही लगभग बीस लाख लोगों ने सड़कों पर निकल कर इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में प्रदर्शन किया। वायु सेना के जवानों का समर्थन क्रांति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। इसी घटना के उपलक्ष्य में आज के दिन को ईरान में वायु सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
इमाम ख़ुमैनी की क्रांति की एक अन्य विशेषता विश्व भर के शोषितों के समर्थन का नारा है।
प्रसिद्ध अरबी समाचार पत्र अश्शअब ने लिखा।:
इमाम ख़ुमैनी ने विश्व के वंचितों व शेषितों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्राईल के झंडे को ईरान से उतार फेंका और उस के स्थान पर पहली बार फ़िलिस्तीन का ध्वज लहराया। इमाम ख़ुमैनी ने पूरे विश्व में सैंकड़ों संस्थाएं स्थापित कीं और इस प्रकार से लाखों लोग विश्व में इस्लाम से परिचित हुए इस महान हस्ती के जीवन के एक एक क्षण को इतिहास में सुनहरी शब्दों में लिखा जाना चाहिए।
प्राय: क्रांति जनता द्वारा आती है फिर जब सब कुछ बदल जाता है तो सेना भी अपनी निष्पक्षता की घोषणा कर देती है किंतु ईरान की क्रांति की अन्य घटनाओं की भॉंति इस संदर्भ में भी एक असाधारण घटना घटी।
इमाम ख़ुमैनी के पहली फ़रवरी को तेहरान आगमन के बाद जो प्रदर्शनों का क्रम आंरभ हुआ था वह अब अपने अंतिम चरणों में था अब सेना भी इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में आगे ओने लगी थी। एक ओर तो लाखों लोग इमाम ख़ुमैनी की आवाज़ पर अंतिरम सरकार के गठन के समर्थन में प्रर्शन कर रहे थे और शाही सरकार के अपदस्त किये जाने की मांग कर रहे थे तो दूसरी ओर बड़ी संख्या में वायु सैनिक इमाम ख़ुमैनी के पास पास पहुंचे और उनके नेतृत्व में इस्लामी क्रांति के प्रति अपने समर्थन की घोषणा की। इमाम ख़ुमैनी ने इस अवसर पर कहा कि आप लोग अब तक एक दुष्ट का आज्ञापालन करते थे। आज से आप सब क़ुरआन से जुड़ जाएं क़ुरआन आप सब का संरक्षक है। आशा करता हूं कि आपकी सहायता से मैं ईरान में न्याय पर आधारित सरकार का गठन कर सकूंगा। वायु सेना की इस टुकड़ी के क्रांति कारियों से जुड़ने के बाद शाही शासन की कमर टूट गयी और क्रांति कारियों का उत्साह कई गुना बढ़ गया।
शाही व्यवस्था में निराशा फैल गयी। आज ही के दिन पूरे ईरान में अभूतपूर्व प्रदर्शन हुए सूत्रों के अनुसार केवल तेहरान में ही लगभग बीस लाख लोगों ने सड़कों पर निकल कर इमाम ख़ुमैनी के समर्थन में प्रदर्शन किया। वायु सेना के जवानों का समर्थन क्रांति के इतिहास में एक महत्वपूर्ण दिन था। इसी घटना के उपलक्ष्य में 19 बहमन को ईरान में वायु सेना दिवस के रूप में मनाया जाता है।
इमाम ख़ुमैनी की क्रांति की एक अन्य विशेषता विश्व भर के शोषितों के समर्थन का नारा है।
प्रसिद्ध अरबी समाचार पत्र अश्शअब ने लिखा:
इमाम ख़ुमैनी ने विश्व के वंचितों व शेषितों के अधिकारों की रक्षा के लिए इस्राईल के झंडे को ईरान से उतार फेंका और उस के स्थान पर पहली बार फ़िलिस्तीन का ध्वज लहराया। इमाम ख़ुमैनी ने पूरे विश्व में सैंकड़ों संस्थाएं स्थापित कीं और इस प्रकार से लाखों लोग विश्व में इस्लाम से परिचित हुए इस महान हस्ती के जीवन के एक एक क्षण को इतिहास में सुसनहरी शब्दों में लिखा जाना चाहिए।
इस्लामी क्रांति की सफलता से बस एक दिन की दूरी थी। शाही सरकार सत्ता में बाक़ी रहने के अंतिम प्रयास कर रही थी। अंतरिम सरकार के गठन हेतु इमाम ख़ुमैनी के आदेश के समर्थन में लाखों लोग सड़कों पर निकल आए।
इसी के साथ वायु सेना के कई हज़ार सैनिक, प्रर्शन कारियों से जा मिले। यह स्थिति देख कर शाह द्वारा निर्धारित बख़्तियार सरकार ने घोषणा की कि आज साढ़े चार बजे शाम से पॉंच बजे सुबह तक कर्फ़यू रहेगा। इमाम ख़ुमैनी ने बयान जारी करके जनता से कहा कि वे सड़कों पर ही रहें कर्फ़यू पर ध्यान न दें उन्हों ने इस आदेश को धोखा बनाया। शाही गारद अधिक तैयारी के साथ वायु सेना की छावनी पर टूट पड़े किंतु जनता वायु सेना के साथ थी। समाचार जंगल की आग की तरह तेहरान में फैला और प्रदर्शन कारियों ने वायु सेना की छावनी का रूख़ किया।
प्रदर्शन कारियों के छावनी में प्रवेश के साथ ही तेहरान में शाही सेना और क्रांतिकारियों के मध्य सशस्त्र लड़ाई आरंभ हो गयी। जिस के दौरान बहुत से सैनिक भी जनता से जा मिले और ढाम हज़ार वर्षीय शाही शासन की इमारत भरभरा कर गिर पड़ी। क्रांति सफल हो चुकी थी।
प्रोफ़ेसर इस्माईल स्पेन के प्रसिद्ध दार्शनिक हैं वे इमाम ख़ुमैनी के कहते हैं: धर्म जीवित हो गया, गिरिजाघरों में जीवन की नयी लहर दौड़ गयी, अब विश्व विद्यालयों में धार्मिक विचारों पर ध्यान को गलत नज़रों से नहीं देखा जाता विश्व में समाजी संबंधों को सुन्दर बनाने में धर्म और आध्यात्म के आकर्षण की ओर रूझान उत्पन्न हुआ और यह सब कुछ उस नये आंदोलन के कारण था जिसे इमाम ख़ुमैनी ने अपनी धार्मिक क्रांति द्वारा विश्व समूदाय के सामने पेश किया था।
वर्ष १९७० के अंतिम वर्षों में ईरानी समाज क्रमश: व्यापक एवं राष्ट्र व्यापी प्रतिरोध की तैयारी कर रहा था। एक ओर आर्थिक दबाव, तानाशाही, अत्याचार और आंतरिक घुटन से लोग ऊब व थक चुके थे तथा दूसरी ओर ईरान की इस्लामी क्रांति के संस्थापक स्वर्गीय हज़रत इमाम खुमैनी रह, कुछ दूसरे धर्मगुरू और मुसलमान बुद्धिजीवियों ने शाह की करतूतों का रहस्योदघाटन करके लोगों को प्रतिरोध के लिए कर दिया था। दूसरे शब्दों में दो चीज़ें, एक शाह की सरकार से ऊब जाना और दूसरे वांछित व्यवस्था स्थापित करने की आशा, जो हर क्रांति के लिए आवश्यक है, ईरानी जनता के मध्य अपनी चरम सीमा पर पहुंच गयी थीं और लोगों के लिए यह स्पष्ट हो चुका था कि स्वतंत्रता एवं आज़ादी प्राप्त करने के लिए पहले क़दम के रूप में शाह की सरकार का अंत होना चाहिये।
अक्तूबर वर्ष १९७८ में इमाम ख़ुमैनी रह, के बड़े बेटे आयतुल्लाह सैयद मुस्तफा ख़ुमैनी का, जिन्हें अपने समय का एक वरिष्ठ धर्मगुरू समझा जाता था, अप्रयाशित रूप से इराक़ के पवित्र नगर नजफ में निधन हो गया। ईरान के अधिकांश लोग इमाम ख़ुमैनी के बेटे के निधन को ईरान एवं इराक़ की पूर्व सरकारों की सहकारिता एवं मिली भगत का परिणाम समझते थे कि ये सरकारें तानाशाही और विरोधियों का दमन करने के लिए विख्यात थीं। इस दुखद घटना के बाद ईरान के लोगों ने शोक सभाओं का आयोजन किया और इस घटना की भर्त्सना की।
पहली बार था जब इन शोक सभाओं में और मंचों आदि पर काफी समय के बाद इमाम ख़ुमैनी का नाम लिया गया। जबकि उस समय विशेष सभाओं में भी इमाम ख़ुमैनी रह, का नाम लेना वर्जित एवं ख़तरनाक कार्य समझा जाता था।
वर्ष १९७८ के आरंभिक दिनों में शाह की सरकार से संबंधित एक समाचार पत्र में इमाम ख़ुमैनी रह, और धर्मगुरूओं के अपमान में एक लेख लिखा गया। इस अपमान जनक लेख के प्रकाशन से ईरानी जनता का क्रोध फूट पड़ा और उसने इस कार्यवाही के प्रति कड़ी प्रतिक्रिया दिखाई तथा समाचार पत्र की प्रतियां जला डालीं। इसके दो दिन बाद पवित्र नगर क़ुम की जनता एवं धर्मगुरूओं ने शाह की सरकार के विरुद्ध प्रदर्शन किया। इस प्रदर्शन को शाह के सुरक्षा कर्मियों ने अपनी बर्बरतापूर्ण कार्यवाहियों का लक्ष्य बनाकर काफी लोगों को शहीद व घायल कर दिया।
पवित्र नगर क़ुम में लोगों के शहीद होने का समाचार तेज़ी से पूरे ईरान में फ़ैल गया और शाह की सरकार के विरुद्ध जनता के आक्रोश की लहर दौड़ गयी। ईरानी जनता के मध्य एक इस्लामी परम्परा के अनुसार, लोग मरने वाले व्यक्ति की याद और उसके सम्मान में उसके मरने के चालिस दिन के बाद शोक सभा आयोजित करते हैं। इसी उपलक्ष्य में ईरान के विभिन्न नगरों में क़ुम में शहीद कर दिये जाने वाले लोगों के सम्मान में शोक सभाओं का आयोजन किया गया पंरतु ईरान के उत्तर पश्चिम में स्थित तबरेज़ नगर के लोगों का प्रदर्शन अधिक तीव्र था और क्रोधित लोगों ने, जिन पर शाही सरकार के क्रूर सुरक्षा कर्मियों ने आक्रमण किया था, शाही सरकार से संबंधित कुछ स्थानों पर आक्रमण कर दिया। इस घटना में भी तबरेज़ नगर के कुछ लोग या शहीद हो गये। इन आपत्तियों और प्रदर्शनों का परिणाम राष्ट्रीय एकजुटता का आभास उत्पन्न होना, जनता द्वारा अपनी मांगों एवं प्रतिरोध के प्रति संकल्प में वृद्धि और पहलवी सरकार को बर्खास्त करना आदि जनता की मांग थी।
इसी परिप्रेक्ष्य में शाह के सुरक्षा कर्मियों द्वारा जनता की हत्या के विरोध में ईरानी नववर्ष के पहले महीने नौरोज़ को वर्ष १९७८ में अधिकांश लोगों ने सार्वजनिक एवं राष्ट्रीय शोक घोषित कर दिया।
तबरेज़ नगर में शहीद होने वाले व्यक्तियों की याद में भी चालिस दिन के बाद आयोजित होने वाली शोकसभाओं के अवसर पर एक अन्य त्रासदी घटी। इस बार यज़्द नगर के लोगों पर, जो ईरान के केन्द्रीय नगरों में से है, पूरी तरह लैस शाही सरकार के सैनिकों ने आक्रमण कर दिया और कुछ को शहीद कर दिया। यज़्द नगर के लोग भी जेलों से राजनीतिक बंदियों की स्वतंत्रता और शाह को सत्ता से हटाये जाने की मांग कर रहे थे। इन घटनाओं के बाद ईरान के विभिन्न नगरों में जनता का प्रदर्शन और तीव्र हो गया तथा पहलवी सरकार का अंत ईरानी जनता की सार्वजनिक मांग में परिवर्तित हो गया। स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह, भी विभिन्न अवसरों पर जनता को प्रतिरोध जारी रखने हेतु प्रोत्साहित करने और अपने बीच एकता की सुरक्षा बनाये रखने की आवश्यकता के संबंध में विज्ञप्ति एवं घोषणा पत्र जारी करते थे।
इन विज्ञप्तियों में महत्वपूर्ण विज्ञप्ति वर्ष १९७८ के जूलाई महीने में जारी की गयी जिसमें एक संकलित घोषणा पत्र की भांति इस्लामी क्रांति के मूल मार्गों और संघर्ष प्रक्रिया में समाज के विभिन्न वर्गों के दायित्वों को बयान किया गया था। इस विज्ञप्ति में इमाम ख़ुमैनी रह, ने शाह की अलोकतांत्रिक सरकार से हर प्रकार के समझौते को निषेध घोषित कर दिया था। अलबत्ता इमाम ख़ुमैनी रह, ने अपने दूसरे संदेश में शाह के सैनिकों व सुरक्षा कर्मियों से जनता पर आक्रमण न करने के लिए कहा था।
वर्ष १९७८ में अगस्त महीने के मध्य में शाह के तत्वों ने एक अत्यंत ख़तरनाक कार्यवाही की और उन्होंने ईरान के दक्षिण पश्चिम में स्थित आबादान नगर में एक सिनेमा में दर्शकों के साथ आग लगा दी। इस जघन्य व भयावह अपराध में लगभग ३८० निर्दोष लोग मारे गये। शाह की सरकार का इरादा यह था कि वह क्रांतिकारी मुसलमानों पर प्रश्न उठाये और इस जघन्य अपराध का ज़िम्मेदार उन्हें बताने की चेष्टा में थी पंरतु मौजूद समस्त साक्ष्य व प्रमाण इस बात के सूचक थे कि इस सिनेमा में शाह के तत्वों ने आग लगाई थी। इसी कारण और ईरानी जनता का प्रदर्शन विस्तृत हो जाने के बाद इस जघन्य कार्यवाही के कई दिन बाद तत्कालीन प्रधानमंत्री जमशीद आमूज़गार को, जिसे अमेरिका और शाह का समर्थन व आशिर्वाद प्राप्त था, विवश होकर त्याग पत्र देना पड़ा। उस समय मोहम्मद रज़ा पहलवी ने जनता को धोखा देने के लिए शरीफ इमामी को सरकार के मुखिया के रूप में चुना जिसकी सरकार को विदित में राष्ट्रीय एकजुटता वाली सरकार कहा जाता था। इसी प्रकार शाह ने ईरान की आधिकारिक तारीख़ को, जिसे हिजरी शम्सी से शहन्शाही तारीख में परिवर्तित कर दिया था, एक बार फ़िर उसे उसकी वास्तविक स्थिति अर्थात शहन्शाही से हिजरी शम्सी में लोटा दिया।
जिस सरकार को राष्ट्रीय एकजुटता उत्पन्न करनी थी उसने थोडे ही समय में अपने चेहरे से नक़ाब हटा दी और जनविरोधी अपनी पहचान व वास्तविकता को स्पष्ट कर दिया।
ईरानी जनता ने शाही सरकार की पाखंडता व धूर्तता से प्रभावित हुए बिना वर्ष १९७८ में नमाज़े ईद के बाद तेहरान सहित ईरान के विभिन्न नगरों में रैली निकाला और सरकार के परिवर्तित होने की आवश्यकता पर बल दिया। उसके कुछ दिन बाद एक अन्य बड़ी रैली निकाली गयी जो जनता के बीच एकता और इस्लामी क्रांति के गति पकड़ जाने की सूचक थी परंतु शाह की सरकार ने उसके बाद अर्थात शुक्रवार ८ सितंबर १९७८ को तेहरान में आयोजित होने वाली रैली को अपनी बर्बरतापूर्ण कार्यवाही से रक्तरंजित कर दिया। शाह के सैनिकों ने ज़मीन और हवा से उन महिलाओं एव पुरुषों पर गोली चला दी जो आंतरिक वर्चस्व तथा विदेशी साम्राज्य से अपने देश की स्वतंत्रता की मांग कर रहे थे। क्रूरता व बर्बरता की इस कार्यवाही में शाह के सैनिकों ने तीन हज़ार से अधिक लोगों को शहीद कर दिया। शाह के तत्वों ने इस जघन्य अपराध के पहलुओं का रहस्योदघाटन न होने के लिए शहीद होने वाले अधिकांश लोगों को सामूहिक क़ब्र में दफ्न कर दिया। ईरान की इस्लामी क्रांति के इतिहास में ८ सितंबर को इतने अधिक लोगों के शहीद होने के दिन को काला शुक्रवार और शहीद दिवस का नाम दिया गया।
काले शुक्रवार को लोगों की सामूहिक हत्या पर यद्यपि अमेरिका और अधिकांश पश्चिमी सरकारों ने चुप्पी साध ली परंतु विश्व समुदाय का आम जनमत क्रोधित हुआ। इस घटना के बाद शाह की सरकार के भीतर यहां तक कि उसके विदेशी समर्थकों के मध्य भी जनता के प्रतिरोध के विरुद्ध उसके व्यवहार के संबंध में मतभेद उत्पन्न हो गये। एक गुट जनता के दमन के लिए हिंसा व बर्बरता पर आधारित कार्यवाहियों के जारी रखने का समर्थक था और दूसरा गुट शाह की सरकार से यह सिफारिश करता था कि वह विदित में नर्मी का प्रदर्शन करके और सीमित विशिष्टता देकर लोगों को प्रतिरोध जारी रखने से रोके। अंतत शाह ने कुछ समय के लिए दूसरे सुझाव को अपनाया। उसने सितंबर वर्ष १९७८ में रस्ताखीज़ पार्टी को भंग कर दिया। यह वह पार्टी थी जिसे भंग होने से पांच वर्ष पूर्व बनाया गया था और ईरानी समाज का हर वर्ग उससे घृणा करता था। एकमात्र यह पार्टी पहलवी सरकार में तानाशाही का प्रतीक थी।
इन्हीं दिनों में तेल उद्योग के कर्मचारियों ने, जिसे शाह के दिल की धड़कन समझा जाता था, शाह के अपराधों के विरुद्ध और जनता से समरसता व्यक्त करते हुए प्रदर्शन किया। इमाम ख़ुमैनी ने भी अपने एक संदेश में तेल उद्योग के कर्मचारियों की इस क्रांतिकारी एवं साहसिक कार्यवाही की सराहना की। इन्हीं दिनों में एक अन्य महत्वपूर्ण घटना घटी जिसने ईरान की इस्लामी क्रांति को गति प्रदान करने में महत्वपूर्ण एवं प्रभावी भूमिका निभाई।
इराक़ की बासी सरकार के सुरक्षा कर्मियों ने शाह की सरकार के समन्वय के साथ, कि जो इमाम ख़ुमैनी रह, को इराक़ से निकाले जाने की इच्छुक थी, पवित्र नगर नजफ में इमाम खु़मैनी रह, के घर का परिवेष्टन कर लिया। इराक़ की पूर्व बासी सरकार ने इमाम ख़ुमैनी रह, से मांग की कि वह शाह के अत्याचारों एवं अपराधों पर मौन धारण कर लें अन्यथा उन्हें इराक़ से निकाल दिया जायेगा। आप भी इस्लामी क्रांति के मार्गदर्शन को, जिसका जनता समर्थन कर रही थी, अपना दायित्व समझते थे। अत: आपने इराक़ से पलायन का निर्णय किया। शाह और इराक़ की बासी सरकार का षड़यंत्र इस बात का सूचक था कि ईरानी जनता के आंदोलन को विस्तृत रूप देने में इमाम ख़ुमैनी रह, का मार्गदर्शन प्रभावी भूमिका निभा रहा था।
आरंभ में इमाम ख़ुमैनी रह, कुवैत जाना चाहते थे परंतु वहां की सरकार ने भी आपको स्वीकार करने से इंकार कर दिया। अंतत: आपने एक अभूतपूर्ण निर्णय में फ्रांस जाने का निर्णय किया और ईरान की इस्लामी क्रांति में नया अध्याय जुड़ गया। पहलवी सरकार यह सोचती थी कि इस कार्यवाही से वह इस्लामी क्रांति के नेतृत्व में विघ्न उत्पन्न कर देगी और इमाम ख़ुमैनी रह, तथा ईरानी जनता के मध्य दूरी उत्पन्न कर देगी परंतु इसके बाद की घटनाओं ने दर्शा दिया कि इमाम ख़ुमैनी रह, ने क्रांति के मार्गदर्शन और शाह के अपराधों को बयान करने के लिए फ्रांस में अपनी उपस्थिति से अच्छी तरह लाभ उठाया।
वर्ष १९६४ में स्वर्गीय हज़रत इमाम खुमैनी रह, के तुर्की और उसके बाद इराक़ निष्कासन के पश्चात शाह से ईरानी जनता के संघर्ष की प्रक्रिया में अस्थाई ठहराव के काल का आरंभ हो गया। उस समय शाह के दमनकारी विभाग विशेषकर सावाक नामक की गुप्तचर सेवा बहुत मज़बूत हो गयी। इस भयावह एवं निर्दयी संस्था के कर्मचारियों का मुख्य दायित्व व कार्य शाही सरकार के विरोधियों की पहचान करके उन्हें गिरफ्तार व प्रताड़ित करना और उनका अंत कर देना था। इस जनविरोधी एवं अमानवीय कार्यवाही के लिए सावाक के कर्मचारियों को अमेरिका और ज़ायोनी शासन की गुप्तचर सेवाओं सीआईए एवं मूसाद ने प्रशिक्षित किया था।
जैसा कि पिछले कार्यक्रम में कहा गया कि इमाम खुमैनी रह, के निष्कासन के बाद पहली महत्वपूर्ण घटना तत्कालीन शाही सरकार के प्रधानमंत्री हसन अली मन्सूर की हत्या थी जिसे वास्तव में शाही सरकार की दमनकारी कार्यवाहियों की प्रतिक्रिया समझा जा रहा था। हसन अली मन्सूर के स्थान पर अमीर अब्बास हुवैदा को प्रधानमंत्री बनाया गया जो शाह और अमेरिका की नीतियों का पूर्ण अनुसरण के कारण लगभग १३ वर्षों तक प्रधानमंत्री रहा। इस अवधि में तेल से होने वाली आय में असाधारण वृद्धि हो गयी जिससे शस्त्रों की खरीदारी हुई और इसी तरह यह भारी आमदनी शाह तथा उसके निकटवर्ती लोगों पर खर्च हुई। जिन कार्यों पर तेल से होने वाली असाधारण आय ख़र्च हुई उनमें से एक वह उत्सव है जो पहलवी सरकार की बुनियादों को मज़बूत करने के लिए आयोजित हुआ।
वर्ष १९६६ में शाह की सरकार का २५वां उत्सव मनाया गया। शाह ने एसी स्थिति में यह उत्सव मनाया जब उसकी सरकार ईरानी जनता के पिछड़ेपन का कारण थी। बाद के वर्ष में शाह के राज्याभिषेक के लिए अधिक धन खर्च किया गया परंतु सबसे अधिक धन तामझाम के उस विशेष उत्सव पर खर्च किया गया जो वर्ष १९७१ में शाही सरकार के २५०० वर्ष पूरा होने पर आयोजित हुआ। इन उत्सवों में बहुत से देशों के राष्ट्राध्यक्षों और वरिष्ठ अधिकारियों को आमंत्रित किया गया था तथा शाह के सत्ताप्रेम एवं आत्ममुग्धता के लिए करोड़ों डालर खर्च कर दिया गया।
अलबत्ता उसने इन उत्सवों पर संतोष नहीं किया और एक वर्ष बाद इस उत्सव की बर्सी भी मनाई। वर्ष १९७५ में पहलवी सरकार की पचासवीं बर्सी मनाई गयी जिसमें भी अपार धन खर्च किया गया। यह एसी स्थिति में था जब ईरान के बहुत से लोगों को निर्धनता का सामना था तथा उनकी आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी और उनके पास अपनी एवं अपने परिवार की प्राथमिक आवश्यकताओं की आपूर्ति की क्षमता नहीं थी। शाह की भ्रष्ठ सरकार ने इस्लाम को अलग थलग कर देने की नीति जारी रखते हुए तथा राजशाही सरकार पर गर्व करने के बहाने वर्ष १९७६ के मार्च महीने के मध्य में ईरान की आधिकारिक तारीख आरंभ होने की तिथि को राजशाही तारीख़ में परिवर्तित कर दिया। ईरान की आधारिकारिक तारीख़ का आरंभ पैग़म्बरे इस्लाम के मक्के से मदीना पलायन से होता है। शाह ने इस कार्यक्रम की बुनियाद रखने और इसी तरह अपनी अत्याचारी सरकार की आधारों को मज़बूत करने के लिए उससे एक वर्ष पहले मार्च महीने में अपने नेतृत्व में रस्ताख़ीज़ पार्टी का गठन किया और दूसरी समस्त पार्टियों को, जो सबकी सब राजशाही सरकार की समर्थक एवं उससे संबंधित थीं, भंग कर दिया था।
मोहम्मद रज़ा शाह ने इस संबंध में अंहकार से कहा था" कि सभी ईरानी रस्ताखीज़ा पार्टी के सदस्य हैं चाहे वे चाहें या न चाहें, जो लोग नहीं आना चाहते हैं वे घोषणा करें हम उन्हें पास्पोर्ट देंगे ताकि वे देश से बाहर चले जायें और यदि देश से बाहर नहीं जाना चाहते तो उनका ठिकाना जेल है" शाह के सीमा से अधिक घमंड का कारण यह था कि वह अमेरिका पर भरोसा करता था और इस्लाम विरोधी नीति को जारी रखकर अपनी तानाशाही व्यवस्था को सुदृढ़ व मज़बूत समझता था और लोगों तथा उनके विश्वासों को कोई महत्व नहीं देता था।
इसके मुक़ाबले में क्रांतिकारी और पहलवी सरकार के विरोधी लोग भी प्रभावित नहीं थे। इमाम खुमैनी रह, के देश निकाला दे दिये जाने के बाद कुछ लोग इस्लामी और ग़ैर इस्लामी रूझानों के साथ शाह की सरकार से सशस्त्र संघर्ष करना चाहते थे। इसी कारण विभिन्न छापामार गुट बन गये जो शाह की सरकार से सशस्त्र संघर्ष करने लगे परंतु इन गुटों को कोई विशेष सफलता नहीं मिली। इमाम खुमैनी रह, और उनके जैसी सोच रखने वाले बहुत से दूसरे व्यक्तियों का मानना था कि प्रतिरोध एवं क्रांति के लिए लोगों को पर्याप्त मात्रा में अवगत होना चाहिये और इसी कारण इन लोगों ने जनता को इस्लाम की क्रांतिकारी शिक्षाओं से अवगत कराने और शाह की भ्रष्ठ सरकार के क्रिया कलापों के रहस्योदघाटन की नीति अपनाई।
अलबत्ता शाह की सरकार इस प्रकार के प्रचारों के संदर्भ में बहुत संवेदनशील थी और जो लोग इस संबंध में कार्यवाही करते थे तुरंत उनकी पहचान करके गिरफ्तार कर लेती थी। इसी संबंध में बहुत से उन धर्मगुरूओं को गिरफ्तार करके प्रताड़ित किया गया या फिर उन्हें निष्कासित कर दिया गया जो अपने भाषणों में अत्याचार को स्वीकार न करने के संदर्भ में इस्लाम धर्म की शिक्षाओं को बयान करते और शाह की सरकार के अत्याचार एवं भेदभावपूर्ण कार्यो से मुक़ाबले के लिए लोगों का आहृवान करते।
घुटन इस सीमा तक थी कि वर्ष १९७० के मध्य में आयतुल्लाह सैयद मोहम्मद रज़ा सईदी को, जो एक वरिष्ठ धर्मगुरू थे, अमेरिका के विरोध और इमाम खुमैनी रह, के समर्थन के कारण गिरफ्तार कर लिया गया तथा जेल में इतनी यातनी दी गयी कि वह शहीद हो गये। वर्ष १९७४ में आयतुल्लाह हुसैन ग़फ्फारी भी इसी कारण गिरफ्तार कर लिये गये और उन्हें भी शाह की गुप्तचर संस्था सावाक के कर्मचारियों ने इतना प्रताड़ित किया कि वह भी शहीद हो गये। इसी प्रकार वर्ष १९७६ के जून महीने के मध्य में डाक्टर अली शरीअती का संदिग्ध रूप से ब्रिटेन में निधन हो गया। डाक्टर अली शरीअती ईरानी मुसलमान बुद्धिजीवी थी जो युवाओं एवं छात्रों में इस्लामी रूझान उत्पन्न करने में प्रभावी व्यक्तियों में से थे। बहुत से लोगों ने उनके संदिग्ध निधन को सावाक के षड्यंत्रों का परिणाम समझा। इन समस्त कठिनाईयों के साथ ईरानी जनता के प्रतिरोध की प्रक्रिया विस्तृत हो रही थी और धार्मिक एवं शाह के विरोधी व्यक्तियों ने वास्तविकतायें बयान करके तथा लोगों को जागरूक बनाकर बहुत से लोगों को शाह की अत्याचारी सरकार के विरुद्ध बड़े प्रतिरोध के लिए तैयार कर दिया था।
ईरान की इस्लामी क्रांति के निकट के वर्षों में तेल के मूल्यों में अचानक वृद्धि और अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति निक्सन के नि: संकोच समर्थन के कारण शाह अधिक सत्ता के घमंड का आभास करता था। विशेषकर इसलिए कि विदित में शक्तिशाली सेना होने तथा आंतरिक विरोधियों के दमन के कारण शाह की सरकार क्षेत्र में अमेरिका के थानेदार में परिवर्तित हो गयी थी। अलबत्ता शाह की विदित शक्ति के मुक़ाबले में भ्रष्टाचार, भेदभाव और अराजकता में वृद्धि हो गयी थी। इसी कारण तथा अमेरिका की डेमोक्रेटिक पार्टी के राष्ट्रपति जिमी कार्टर के सत्ता में आने से अमीर अब्बास हुवैदा को १३ वर्षों के बाद १९७७ के अगस्त महीने में प्रधान मंत्री पद से बर्खास्त कर दिया गया और जमशीद आमूज़गार को उसके स्थान पर प्रधानमंत्री बनाया गया। उस समय भी शाह अपनी सरकार को सुदृढ़ एवं तानाशाही को मज़बूत व टिकाऊ समझता था परंतु रास्ते में ऐसी घटनायें प्रतीक्षा में थीं जिन्होंने ईरानी जनता के प्रति शाह और उसके समर्थकों व निकटवर्ती लोगों के वर्षों के अत्याचार एवं विश्वासघात का अंत कर दिया।
ईरानी जनता के क्रांतिकारी संघर्ष के विस्तार से शाह के शासन को इस बात का पूर्ण रुप से आभास हो गया था कि संघर्ष की यह प्रक्रिया जारी रहने वाली है। यही कारण था कि शाह का शासन इससे बुरी तरह से भयभीत था। इसी आधार पर शाह के तत्वों ने क्रांतिकारियों की छवि को बिगाड़ने के लिए अपनी गतिविधियां आरंभ कर दीं। १८ अगस्त वर्ष १९७८ को शाह ने अपने एक साक्षात्कार में कहा था कि "इस देश में आतंक का वातावरण उत्पन्न करने के लिए काला रूढ़ीवाद जो बड़ी त्रासदी उत्पन्न करने जा रहे है उससे मैं भयभीत हूं"। "काले रूढ़ीवाद" से शाह तथा उसके प्रचारिक साधनों का तात्पर्य ईरान के क्रांतिकारी तथा देश का धार्मिक नेतृत्व था। शाह के इस साक्षात्कार के एक ही दिन के बाद ईरान के दक्षिण पश्चिमी शहर आबादान में रेक्स सिनेमाधर में हृदयविदारक घटना घटी।
इस घटना के समय आबादान के रेक्स सिनेमाघर में लगभग ७०० लोग फ़िल्म देखने में व्यस्त थे। यकायक इन दर्शकों को आग की लपटों का सामना करना पड़ा। यह आग बहुत तेज़ी से पूरे सिनेमाघर में फैल गई। इस घटना में ३७७ लोग काल के गाल में समा गए। मृत्कों में निर्दोष छोटे बच्चे और महिलाएं भी सम्मिलित थे। यह सारे लोग बहुत ही बुरी तरह से झुलस गए थे। इस अग्निकांड में बहुत से लोग दम घुटने के कारण चल बसे थे। इस घटना में बड़ी संख्या में लोग घायल भी हुए थे। शाह के संचारिक माध्यमों ने अपनी पुरानी पद्धति के विपरीत, जिसके अन्तर्गत वह ईरानी जनता के क्रांतिकारी कार्यों को बहुत ही महत्वहीन दर्शाया करते थे, इस समाचार को अधिक कवरेज दिया। शाह के संचार माध्यमों ने यह दर्शाने का प्रयास किया कि इस घटना के पीछे शाह सरकार के विरोधी धार्मिक संगठनों का हाथ है। शाही तत्वों के अनुसार क्योंकि यह लोग रूढ़ीवादी हैं अतः वे कला तथा सिनेमा को धर्म के विरूद्ध मानते हैं। इस बात के दृष्टिगत कि शाह के अत्याचारी शासन को झूठे प्रचार की आदत है, कोई भी इस दुष्प्रचार को स्वीकार नहीं कर रहा था। सिनेमघर के दरवाज़ें बंद होने तथा सिनेमा के अधिकारियों के साथ शाह के शासन की सांठ-गांठ जैसी बातों के सार्वजनिक होने के पश्चात सबको इस बात का पूर्व विश्वास हो गया था कि यह वही घटना है जिसका वचन शाह ने अपने हालिया साक्षात्कार में दिया है। जिसमें वह इस प्रकार की घटना का आरोप क्रांतिकारियों पर मढ़कर उनकी छवि बिगाड़ने के प्रयास में है।
रेक्स सिनेमाघर अग्निकांड के संबन्ध में स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी के संदेश ने इस घटना में शाह सरकार के हाथ होने का रहस्योदघाटन किया। अपने संदेश में इमाम खुमैनी ने स्पष्ट किया था कि मुझको इस बात की कदापि आशंका नहीं है कि इस प्रकार की क्रूरतम घटना किसी मुसलमान बल्कि इन्सान ने की हो। उन्होंने कहा कि इसके पीछे उन्ही लोगों का हाथ है जो इस प्रकार की घटनाएं करने के आदी हो चुके हैं और जिनकी पाश्विक्ता ने मानवता का स्थान ग्रहण कर लिया है। इमाम खुमैनी ने अपने संदेश में कहा कि इस प्रकार की क्रूर एवं अमानवीय घटना को, जो अमानवीय तथा इस्लामी नियमों के विरूद्ध है, शाह के वे विरोधी कभी भी नहीं अंजाम दे सकते जिन्होंने इस्लाम, ईरान तथा जनता की सुरक्षा के लिए अपनी जान जोखिम में डाल रखी है। इस्लामी क्रांति की सफलता के पश्चात रेक्स सिनेमाघर अग्निकांड की जांच और इसमें लिप्त कुछ लोगों के विरूद्ध चले मुक़द्दमे से यह बात पूर्ण रूस से सिद्ध हो गई कि इस अमानवीय घटना को शाह के तत्वों ने ही अंजाम दिया था।
शाह का प्रयास था कि अबादान के रेक्स सिनेमाघर अग्निकांड की घटना को वह क्रांतिकारियों की कार्यवाही दर्शाए क्योंकि उसको भलि भांति ज्ञान था कि जिस कला का वह प्रचार-प्रसार कर रहा है वह क्रांतिकारियों की दृष्टि में अस्वीकारीय एवं पथभ्रष्ट है। अपने शासन के दुष्कर्मों और उसमें व्याप्त भ्रष्टाचार से आम जनमत का ध्यान हटाने के लिए शाह ने इस्लामी क्रांति की सफलता से पूर्व, समाज में नैतिक भ्रष्टाचार और नैतिक बुराइयां फैलाने का भरसक प्रयास किया। इसी उद्देश्य की प्राप्ति के लिए पहलवी शासन के तत्व कला को नैतिक भ्रष्टाचार फैलाने के हथकण्डे के रूप में प्रयोग कर रहे थे। स्थिति इतनी बुरी हो चुकी थी की शाह शासन के पतन के पूर्व के वर्षो में "कला समारोह" के नाम से आयोजित कार्यक्रम के अन्तर्गत शीराज़ नगर में पुरूष तथा स्त्री के बीच शारीरिक संबन्धों को सार्वजनिक रूप से प्रस्तुत किया गया। यह बातें इसका कारण बनीं कि कला, जिसे जनहित तथा लोगों के वैचारिक स्तर को बढ़ाने हेतु प्रयोग किया जाना चाहिए था उसे शाह के शासन काल में नैतिक भ्रष्टाचार के विस्तार एवं राजनैतिक हितों की प्राप्ति हेतु हथकण्डे के रूप में प्रयोग किया जा रहा था।
इस्लामी क्रांति की सफलता के पश्चात ईरान में कला ने एक नई दिशा प्राप्त की और यह मानवीय तथा आध्यात्मिक मूल्यों के प्रसार की ओर उन्मुख हुई। इस काल में नैतिक तथा प्रशिक्षण विशेषकर पारिवारिक विषयों के क्षेत्र में बड़ी संख्या में फ़िल्में बनाई गईं। कलाकारों तथा अभिनयकर्ताओं ने फ़िल्मों के माध्यम से एसी कला का प्रदर्शन किया जिनमें से कुछ तो बहुत ही ख्याति प्राप्त रहीं जिन्हें विश्व स्तर पर सम्मान भी मिला। दूसरी ओर स्वतंत्रता का पाया जाना, जो क्रांति की मूल्यवान धरोहर है, इस बात का कारण बना है कि कलाकार विभिन्न दृष्टिकोणों से दर्शकों की इच्छा अनुसार कला का उच्चतम ढंग से प्रयोग करें।
ईरान में ६ महीनों से अधिक अशांति एवं प्रदर्शनों विशेषकर अबादान के रेक्स सिनेमाघर अग्निकांड के कारण, जिसमें शाह के तत्वों का हाथ था, शाह शासन के तत्काल प्रधानमंत्री जमशेद आमूज़गान ने त्यागपत्र दे दिया और उसके स्थान पर जाफ़र शरीफ़ इमामी को नया प्रधानमंत्री नियुक्त किया गया। शतरंज के मोहरों की भांति अपने शासन में एक को दूसरे के स्थान पर बैठा कर शाह जनता को इस बात का आभास देना चाहता था कि मानो उसकी नीतियों में परिवर्तन आ गया है। यही कारण था कि नए प्रधानमंत्री जाफ़र शरीफ़ इमामी ने जनता के ध्यान को केन्द्रित करने और आन्दोलन की अग्नि को शांत करने के उद्देश्य से कुछ नए क़दम उठाए। उसने एक काम तो यह किया कि ईरान में प्रचलित कैलेण्डर जो सोलर सिस्टम शम्सी पर आधारित है उसे हिजरी शम्सी में परिवर्तित कर दिया। उल्लेखनीय है कि ईरान में प्रचलित कैलेण्डर को शहनशाही कैलेण्डर में परिवर्ति करने जैसे कार्य ने, जिसे शाह ढाई वर्ष पूर्व कर चुका था, ईरानी जनता के क्रोध को भड़का दिया। उसका यह कार्य इस्लाम से शत्रुता के रूप में देखा जाने लगा। शरीफ़ इमामी ने इसी प्रकार संचार माध्यमों की स्वतंत्रता और ईरान की तत्काल क्रूरतम गुप्तचर सेवा सावाक को भंग करने का भी वचन दिया। इन सभी बातों के बावजूद इमाम ख़ुमैनी ने, जो इस शासन की वास्तविक्ता और विदेशियों पर उसके आश्रय से भलि भांति अवगत थे और यह भी जानते थे कि इस शासन के सारे ही लोग अमरीका के सेवक तथा उसके हितों के रक्षक हैं, अपने एक संदेश में शाह की धूर्रतता के प्रति ईरानी राष्ट्र से सचेत रहने का आह्वान किया।
ईरान की भव्य इस्लामी क्रांति ने वर्तमान विश्व विशेषकर इस्लामी देशों पर बहुत प्रभाव डाला है। इसी कारण वर्ष १९७९ में इस्लामी क्रांति की सफ़लता के आरंभ से ही अमेरिका की अगुवाई में वर्चस्ववादी व्यवस्था ने इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले को अपनी कार्यसूची में रखा। यह मुक़ाबला गत तीन दशकों के दौरान राजनीतिक, आर्थिक और सैनिक स्तरों पर विभिन्न रुपों में जारी रहा। पश्चिम विशेषकर अमेरिका की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले की एक शैली ईरान के विरुद्ध प्रचारिक एवं मनोवैज्ञानिक आक्रमण है। गत तीन दशकों के दौरान अमेरिका एवं उसके घटकों ने ईरानी जनता व अधिकारियों के विरुद्ध विभिन्न लक्ष्य साधने के लिए विन्नाभिन्न मार्गों से मनोवैज्ञानिक युद्ध किये हैं।
आज के विश्व में संपर्कों में विस्तार और सामूहिक संचार माध्यमों में असाधारण प्रगति के कारण मानसिक व प्रचारिक युद्ध अधिक महत्वपूर्ण हो गया है। शब्द और वाक्य इस युद्ध के सिपाही हैं और जो संचार माध्यम अपनी तकनीक व शैली से अधिक लोगों के ध्यान को अपनी ओर आकृष्ट कर लेते हैं वे अधिक सफ़ल हैं।
सखेद कहना पड़ता है कि पश्चिम के बहुत से संचार माध्यमों का आधार ही वास्तविकताओं को तोड़ मरोड़ कर पेश करना, लोगों को धोखा देना और उन्हें दिग्भ्रमित करना है। पश्चिम के अंतरराष्ट्रीय संचार माध्यमों का प्रयास, विभिन्न चालों से लोगों की सोच व ध्यान को अपनी सरकारों की अवैध मांगों की ओर ले जाना है। ईरान की इस्लामी क्रांति के साथ पश्चिम के प्रचारिक माध्यमों के व्यवहार, पश्चिमी सरकारों की धूर्ततापूर्ण कार्यवाहियों के स्पष्ट उदाहरण हैं।
ईरान की इस्लामी क्रांति के विरुद्ध पश्चिम के प्रचारिक आक्रमण का महत्वपूर्ण उद्देश्य, क्रांति की पहचान, उसके लक्ष्यों तथा उसके परिणाम में स्थापित होने वाली इस्लामी व्यवस्था की छवि को ख़राब करके पेश करना है। ईरानी जनता की क्रांति की मुख्य उपलब्धि, इस्लामी व्यवस्था है और न्याय, अत्याचार का विरोध, अत्याचारग्रस्त जनता का समर्थन, स्वाधीनता और आध्यात्म तथा धार्मिक लोकतंत्र में विस्तार इसके मूल आधार हैं।
इस प्रकार की व्यवस्था के सफ़ल होने का अर्थ, इस्लाम की सफ़लता और विश्व के दूसरे मुसलमानों के लिए आदर्श बन जाना है ताकि वे भी अपने अपने देशों में न्याय और धर्म पर आधारित लोकतंत्र स्थापित करने के प्रयास में रहें। इसी कारण पश्चिमी संचार माध्यम ईरान की इस्लामी व्यवस्था की छवि को ख़राब करके उसे असफल दर्शाने की चेष्टा में हैं। ये प्रचार माध्यम गत तीन दशकों के दौरान इस व्यवस्था को ईरान के भीतर और बाहर विभिन्न समस्याओं में उलझाने के प्रयास में रहे हैं ताकि इस्लाम की प्रगतिशील शिक्षाओं के आधार पर बनने वाली सरकार विफल हो जाये या कम से कम वह अपने मुख्य मार्ग से हट जाये।
ईरान में इस्लामी क्रांति को कमज़ोर करने के लिए पश्चिमी संचार माध्यमों की एक शैली ईरानी जनता व अधिकारियों के बीच फूट डालने तथा दोनों के मध्य दूरी उत्पन्न करने के लिए प्रयास करना है। क्योंकि इस्लामी व्यवस्था में लोग अधिकारियों विशेषकर मुख्य ज़िम्मेदारों पर विश्वास रखते हैं और वे लोगों के विश्वासपात्र हैं। स्पष्ट है कि आम जनमत के विश्वासों को कमज़ोर करने और हर सरकार के अधिकारियों से जनता को दूर करने से सरकार की शक्ति एवं उसके प्रति जनसमर्थन में कमी आ जायेगी।
ईरान की इस्लामी व्यवस्था की शक्ति को कम करने के लिए पश्चिमी प्रचार माध्यमों का एक हथकंडा, ईरानी समाज में फूट डालना एवं उसे दो भागों में बांट देना है। ये प्रचार माध्यम धार्मिक और जातीय मतभेदों को बढ़ा चढाकर पेश करते हैं ताकि वे फूट डालने पर आधारित अपने लक्ष्य को व्यवहारिक बना सकें। इन सबके बावजूद ईरानी जनता की राजनीतिक जानकारी, जागरुकता और पश्चिम के प्रचारिक षडयंत्रों से अवगत होने के कारण ईरानी समाज में उनकी कुटिल चालों का कोई प्रभाव नहीं हुआ है। इसी प्रकार पश्चिमी संचार माध्यम इस्लामी क्रांति की प्रगतियों व उपलब्धियों को ईरान के भीतर एवं बाहर महत्वहीन दर्शाने और छोटी मोटी कमियों को बड़ा चढ़ा कर पेश करने का प्रयास करते हैं। स्पष्ट है कि महंगाई और कुछ अन्य आर्थिक समस्यायें थोड़ा बहुत हर देश में मौजूद हैं और बहुत सी कठिनाइंया अंतरराष्ट्रीय परिवर्तनों से प्रभावित हैं परंतु ये प्रचार तंत्र उक्त शैली का प्रयोग करके इस्लामी गणतंत्र ईरान को विफल अनुभव दर्शाने की चेष्टा में हैं।
इस्लामी क्रांति को कमज़ोर करने के लिए पश्चिम के सामूहिक संचार माध्यमों ने क्रांतिकारी जनता विशेषकर ईरानी युवाओं के धार्मिक विश्वासों को लक्ष्य बना रखा है। ये प्रचार माध्यम झूठी व निराधार बातों को प्रकाशित करके क्रांति की वास्तविकताओं को उल्टा दिखाकर यह दर्शाने की चेष्टा में हैं कि ईरानी राष्ट्र की गौरवान्वित एवं एतिहासिक घटना परिणामहीन व समाप्त हो चुकी है। युवा पीढ़ी के धार्मिक विश्वासों के कमज़ोर होने से वे पश्चिम के सांस्कृतिक धावे का मुक़ाबला करने में अक्षम हो सकते हैं। इसी कारण पश्चिम, प्रचार माध्यमों द्वारा ईरान सहित दूसरे मुसलमान युवाओं को अराजकता, अपनी धार्मिक एवं सामाजिक परम्पराओं व सिद्धांतों से पीछे हटने और पश्चिम के खोखले व सतही मूल्यों को स्वीकार करने के लिए आमंत्रित करते हैं। यह प्रयास फिल्मों, ख़बरों और इंटरनेट की साइटों सहित विभिन्न माध्यमों से बड़ी चालाकी से पूरी क्षमता के साथ जारी है।
राष्ट्रों के ध्यान को हटाने व दिग्भ्रमित करने के लिए पश्चिम के प्रचार माध्यमों का हथकंडा वह शैली है जिसे इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने नये साम्राज्य का नाम दिया है। आप इस नीति की व्याख्या में फरमाते हैं "आज साम्राज्य की नीति नया साम्राज्य है अर्थात आधिपत्यवादी शक्तियों के संचार माध्यम इस प्रकार कार्य करते हैं कि उस राष्ट्र के तत्व, जिस पर ये शक्तियां नियंत्रण एवं क़ब्ज़ा करना चाहती हैं, यह समझ भी नहीं पाते कि वे इन शक्तियों की सहायता कर रहे हैं।
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता फरमाते हैं" वर्चस्वादी देश नये साम्राज्यवाद के प्रवेश के साथ प्रचार माध्यमों और राष्ट्रों की आत्मियता एवं मानसिकता पर प्रभाव डालने वाले संसाधनों व उपकरणों का प्रयोग करके, समाज में सक्रिय और प्रभावी लोगों को ख़रीद कर तथा दूसरी जटिल शैलियों का प्रयोग करके वही पुराने साम्राज्यवादी लक्ष्यों को प्राप्त करने की चेष्टा में हैं"
इस प्रकार पश्चिमी प्रचार माध्यम देश के भीतर कुछ बुद्धिजीवियों और मेधावी व्यक्तियों का प्रयोग अपने हितों की दिशा में करना चाहते हैं और ये प्रचार माध्यम अपने मूल्यों एवं नीतियों का प्रचार ईरान में इन व्यक्तियों की ज़बान से करना चाहते हैं परंतु विदेशी स्तर पर अमेरिका और दूसरे यूरोपीय देशों की नीति इस्लामी गणतंत्र ईरान की छवि को बिगाड़ कर पेश करना और यह सिद्ध करने की कुचेष्टा करना, कि इस्लामी व्यवस्था, सरकार के संचालन में अक्षम है। इसी परिप्रेक्ष्य में ये देश ईरान पर विभिन्न आरोप मढ़ते हैं परंतु उनमें से किसी को भी तार्किक व ठोस प्रमाणों के साथ पेश नहीं करते। इनमें से एक ईरान में मानवाधिकारों के उल्लंघन का आरोप है।
पश्चिमी प्रचार माध्यम कुछ जासूसों व अपराधियों की गिरफ्तारी, मनुष्यों का अपहरण करने वालों और मादक पदार्थों के बड़े तस्करों को फांसी का दंड देने या क़ानूनी रूप से कुछ समाचार पत्रों के बंद किये जाने को बड़े पैमाने पर कवरेज देते हैं और इन्हें मानवाधिकारों के उल्लंघन का नमूना बताते हैं जबकि यही प्रचार माध्यम ग्वांतानामों और अबुग़रेब की जेल में बंदियों को दी जाने वाली प्रताड़ना, इराक व अफ़ग़ानिस्तान में जनता की हत्या और अमेरिका के दूसरे अपराधों को या तो पूरी तरह कवरेज ही नहीं देते हैं या फ़िर उसे महत्वहीन बनाकर पेश करते हैं।
इनमें से बहुत से प्रचार माध्यम फ़िलिस्तीन विशेषकर ग़ज़्ज़ा पट्टी में ज़ायोनी शासन द्वारा नृशंस हत्या को इस शासन की ओर से आत्म रक्षा में उठाया गया क़दम बताते हैं। इसी प्रकार सउदी अरब और मिस्र जैसे देशों में अमेरिका समर्थक सरकारों की ओर से मानवाधिकारों के घोर उल्लंघन पर ये प्रचार माध्य कोई विशेष प्रतिक्रिया नहीं दिखाते परंतु चूंकि इस्लामी गणतंत्र ईरान पश्चिम विशेषकर अमेरिका की विस्तारवादी नीतियों का मुखर विरोधी है इसलिए उसकी क़ानूनी कार्यवाहियों को भी पश्चिमी प्रचार माध्यम मानवाधिकारों का उल्लंघन बताते हैं।
ईरान में प्रजातांत्रिक व्यवस्था है। इस व्यवस्था के वरिष्ठ अधिकारियों का चयन परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जनता करती है चाहे वह राष्ट्रपति हो या मंत्री व सांसद। इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद से अब तक औसतन प्रति वर्ष स्वतंत्र व निष्पक्ष वातावरण में एक चुनाव आयोजित होता है परंतु पश्चिम के प्रचार माध्यम ईरान को ग़ैर लोकतांत्रिक देश बताते हैं। पश्चिम के इस प्रकार के दावे का कारण यह है कि ईरान ने लोकतंत्र के सिद्धांत को ईश्वरीय धर्म इस्लाम से लिया है न कि पश्चिम से और ईरान में लागू धार्मिक लोकतंत्र पश्चिम के लोकतंत्र से उत्तम व परिपूर्ण है। पश्चिमी सरकारें इस परिणाम पर पहुंच गयी हैं कि इस्लाम से प्रेरित आदर्श का विस्तार, जिसमें जनता की राय एवं उसके दृष्टिकोण का बहुत अधिक महत्व है, पश्चिम की लिबरल व्यवस्था के लिए ख़तरा है।
अमेरिका एवं पश्चिमी सरकारों के प्रचार की एक अन्य शैली ईरान को ख़तरा बनाकर पेश करना है। पश्चिम इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए ईरान की सैनिक शक्ति को क्षेत्र के लिए ख़तरा बताता है। यह एसी स्थिति में है जब ईरान का रक्षा बजट क्षेत्र के दूसरे देशों की अपेक्षा बहुत कम है। इसके अतिरिक्त ईरानी अधिकारियों ने बारम्बार घोषणा की है कि ईरान की सैनिक शक्ति केवल अपनी रक्षा के लिए है और उसका प्रयोग क्षेत्र के दूसरे देशों की सुरक्षा के लिए भी हो सकता है। ईरान द्वारा परमाणु हथियार बनाने आधारित पश्चिमी देशों व संचार माध्यमों के झूठे दावे को भी इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है। यह सरकारें व प्रचार माध्यम क्षेत्रीय देशों यहां तक कुछ पश्चिमी सरकारों को यह दिखाने का प्रयास करते हैं कि ईरान का शांतिपूर्ण परमाणु कार्यक्रम उनके लिए ख़तरा है परंतु परमाणु ऊर्जा की अंतरराष्ट्रीय एजेन्सी के महानिदेशक की बारम्बार की रिपोर्टों में इस बात पर बल दिया गया है कि ईरान के परमाणु कार्यक्रम में शांतिपूर्ण लक्ष्यों से किसी प्रकार का दिशाभेद नहीं हुआ है।
दूसरी ओर चूंकि ईरान की अधिकांश जनता शीया मुसलमानों की है इसलिए पश्चिमी प्रचार माध्यम ईरान की क्रांति को शीया क्रांति तथा सुन्नी मुसलमानों के मुक़ाबले में दर्शाने में चेष्टा में हैं। उनके इस दावे की कोई वास्तविकता नहीं है। ईरान की इस्लामी क्रांति ने सदैव शीया और सुन्नी मुसलमानों के मध्य एकता की बात की है और यह क्रांति विश्व के समस्त मुसलमानों से संबंधित है। ईरान द्वारा फ़िलिस्तीन, अफ़ग़ानिस्तान और बोस्निया हिर्जेगोविना की जनता के संघर्ष के समर्थन से उसकी इस रणनीति नीति का भलिभांति पता चलता है।
अलबत्ता ईरान से डराने की पश्चिमी देशों की नीति के पीछे भी कई लक्ष्य हैं। उदाहरण स्वरूप अमेरिका और उसके घटकों का एक उद्देश्य, विषैला करके ईरान को अलग थलग करना है और जबकि इसके विपरीत वे ज़ायोनी शासन को अलग थलग पड़ी स्थिति से बाहर निकालना चाहते हैं। क्योंकि यदि ईरान को अरब देशों के शत्रु के रूप में पेश किया जायेगा तो उनका ध्यान जायोनी शासन के षडयंत्रों की ओर नहीं जायेगा।
बराक ओबामा के अमेरिका के नये राष्ट्रपति के रूप में सत्ता में आने और बुश के सत्ताकाल की अपेक्षा ईरान पर सैनिक आक्रमण की संभावना में कमी के बाद भविष्यवाणी की जा रही है कि ईरान के विरुद्ध अमेरिका के मनोवैज्ञानिक युद्ध में और वृद्धि होगी। अलबत्ता ईरान के भीतर और बाहर इस नीति का अब तक कोई परिणाम नहीं निकला है। ईरान की इस्लामी क्रांति विभिन्न राष्ट्रों में पहले अधिक पहचानी जा चुकी है तथा वह अधिक लोकप्रिय हो गयी है और बहुत से संघर्षकर्ता एवं स्वाधीन सरकारों ने वर्चस्वादी व्यवस्था से मुक़ाबले के लिए उसे अपना आदर्श बना लिया है।
देश के भीतर भी दिन प्रतिदिन बढ़ती ईरान की शक्ति और जनता एवं अधिकारियों के बीच बढ़ती एकजुटता, इस्लामी व लोकतांत्रिक व्यवस्था को कमज़ोर करने हेतु पश्चिम के प्रचार माध्यमों के प्रयासों के प्रभावहीन होने का सूचक है।
२० वीं शताब्दी के अंतिम ५० वर्षों में ईरान में इस्लामी क्रांति की सफ़लता विश्व की बड़ी एवं महत्वपूर्ण घटनाओं में से एक है। यह क्रांति भी विश्व की बहुत सी महत्वपूर्ण घटनाओं की भांति ईरान की भौगोलिक सीमा के अंदर सीमित न रह सकी। ईरान की इस्लामी क्रांति ने बहुत से देशों व राष्ट्रों को प्रभावित किया है और यह प्रभाव इस क्रांति को उदाहरण व आदर्श बनाने के रूप में प्रकट हुए हैं। इसी तरह इस क्रांति ने स्वतंत्रता के लिए संघर्ष करने वालों धड़ों एवं आंदोलनों को नया अवसर प्रदान किया। इसके प्रभाव इस्लामी क्रांति की सफ़लता के आरंभिक दिनों से ही स्पष्ट हो गये थे और क्रांति को सफ़ल हुए तीन दशक का समय बीतने के साथ यह और गहरी एवं मज़बूत हो गयी है।
बहुत से राजनीतिक टीकाकारों के अनुसार इस्लामी क्रांति की सफ़लता से अंतरराष्ट्रीय मंच पर नई राजनीतिक व्यवस्था आ गई जिसके गठन के महत्वपूर्ण तत्व न्याय प्रेम और प्रजातंत्र हैं जो धार्मिक, सांस्कृतिक और मानवीय प्रतिष्ठा व सम्मान के मूल्यों पर आधारित हैं। ये चीज़े वास्तव में उस राष्ट्र व जनता की मांगे थीं जो वर्षों से अत्याचार और ज़ोर ज़बरदस्ती करने वाली शक्तियों से मुक्ति पाने तथा अपने छिने हुए अधिकारों की प्राप्ति एवं आधिपत्यवादी शक्तियों के वर्चस्व से रिहाई पानी चाहती थी। इसी कारण ईरान की इस्लामी क्रांति की जड़ विश्व के बहुत से राष्ट्रों की धार्मिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक आकांक्षाओं में है। राजनीतिक टीकाकारों के अनुसार इस्लामी क्रांति ने राजनीतिक एवं सिद्धांतिक व वैचारिक मंच पर बहुत बड़ा परिवर्तन उत्पन्न कर दिया और वह अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में धर्म पर आधारित नये अवसरों व सम्भावनाओं के उत्पन्न होने का कारण बनी।
ये प्रभाव क्षेत्र और विश्व में ८०,९० के दशक की राजनीतिक घटनाओं में पूर्णरूप से स्पष्ट थे तथा ये प्रभाव विश्व के बहुत से राष्ट्रों के निकट स्वतंत्रता प्रेमी आंदोलनों के आगे बढ़ने और इस्लामी जागरूकता द्वारा परिपूर्णता का मार्ग तय करने के सूचक थे। इसी प्रकार ये प्रभाव न्याय प्रेम पर आधारित राजनीति की ओर वापसी के रुझान तथा वर्चस्ववादी व्यवस्था को नकार देने के सूचक थे। इस आंदोलन का कारण व लक्ष्य आर्थिक हितों से ऊपर था और यह इस बात का सूचक था कि राजनीतिक एवं सामाजिक स्तर पर जो नया परिवर्तन हुआ है उसने ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रेणा ली है कि जो समस्त रूपों में साम्राज्य को नकारता है तथा आध्यात्म की प्यासी मानवता को तृप्त करता है।
विश्व के स्वतंत्रता प्रेमी राष्ट्रों पर ईरान की इस्लामी क्रांति के प्रभाव के विभिन्न आयाम हैं जिसके एक भाग को ईरान में इस्लामी व्यवस्था और इस्लामी क्रांति के वैचारिक रुझान के परिप्रेक्ष्य में बयान किया जा सकता है परंतु दूसरे आयाम में भी इस्लामी क्रांति ने विश्व स्तर विशेषकर इस्लामी जगत में होने वाले स्वतंत्रा प्रेमी आंदोलनों को प्रभावित किया है। इन प्रभावों को उन नारों और प्रतिरोध की शैलियों को आदर्श बनाने के परिप्रेक्ष्य में देखा जा सकता है जिन्हें ईरान की जनता ने शाही सरकार से संघर्ष के दौरान अपनाया था।
पहचान की दृष्टि से क्रांति की सफ़लता के आरंभ से ही इसका एक नारा एवं मूल उद्देश्य इस्लामी राष्ट्रों की सहायता करना और एक राष्ट्र बनने की दिशा में प्रयास करना व चलना है तथा यह वह विचार है जो स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी रह, के वक्तव्यों में बारम्बार प्रतिबिम्बित हुआ है। बहुत से विश्लेषकों के अनुसार यह नहीं कहा जा सकता कि इस्लामी क्रांति के प्रभाव स्वेच्छा से सैकड़ों गुटों व धड़ों, या क्रांति के समर्थक आंदोलनों के गठन तथा संघर्ष करने वाले धड़ों के परिप्रेक्ष्य में इमाम ख़ुमैनी के मार्ग से जुड़ जाने वाले आंदोलनों तक सीमित हैं। क्योंकि आज इस्लामी क्रांति को सफ़ल हुए तीन दशक का समय बीत रहा है और इस्लाम धर्म की प्रगतिशील शिक्षाओं के प्रचार व प्रसार में विश्व स्तर पर उसके गहरे प्रभावों को देखा जा सकता है।
ईरान की इस्लामी क्रांति की सफ़लता के पहले दशक में अलजीरिया, मिस्र, पाकिस्तान, जार्डन,बहरैन, इराक़, लेबनान, सउदी अरब, और तुर्की सहित दूसरे देशों में आंदोलन अस्तित्व में आये जो सबके सब ईरान की इस्लामी क्रांति से प्रभावित थे और इनमें से हर एक का अपने देशों में लागू व्यवस्था पर ध्यान योग्य राजनीतिक प्रभाव था और आज भी यह आंदोलन व धड़े राजनीतिक पार्टियों के रूप में सक्रिय हैं।
ईरान की इस्लामी क्रान्ति को तीन दशक पूरे हुए। हर वर्ष इस्लामी क्रान्ति की सफलता की वर्षगांठ इस्लामी क्रान्ति की उपलब्धियों की समीक्षा का अच्छा अवसर होती है। हालांकि इस्लामी क्रान्ति ने अपनी तीव्र प्रगति में अनेक उतार चढ़ाव का सामना किया किंतु वह अनेक वैज्ञानिक, औद्योगिक और तकनीकी क्षेत्रों में भव्य उपलब्धियां अर्जित करने में सफल रही। यह उपलब्धियां विज्ञान एवं तकनीक के क्षेत्र में विकास और दूसरों से निर्भरता की समाप्ति जैसे इस्लामी क्रान्ति के महान सिद्धान्तों से उत्प्रेरित रही हैं। इस्लामी क्रान्ति की संस्थापक इमाम ख़ुमैनी और उनके बाद इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनई ने भी देशवासियों को अपनी क्षमताओं को पहचानने और भारी सफलताएं अर्जित करने हेतु उनके भरपूर प्रयोग के लिए प्रोत्साहित किया है।
आज के युग मे किसी भी देश की शक्ति का आधार उसके विचारक, बुद्धिजीवी और अध्ययनकर्ता होते हैं। जो देश भी मूल वैज्ञानिक अविष्कारों और खोजों तक जल्द अपनी पहुंच बना लेता है और उन्हें अपने वैज्ञानिक एवं तकनीकी विकास के लिए प्रयोग करने लगता है वह बहुत कम समय में विकास के मापदंडों से स्वयं को समन्वित कर लेता है। ईरान ने वैज्ञानिक क्षेत्र में प्राप्त होने वाले अनुभवों और क्षमताओं से उल्लेखनीय उन्नति की है। ईरान के विज्ञान एवं तकनीक सूचना केन्द्र के अध्यक्ष डाक्टर जाफ़र मेहराद ईरान में वर्ष २००८ में नए वैज्ञानिक अविष्कारों और उन्नति की ओर संकेत करते हुए कहते हैं कि हालिया वर्षों के दौरान ईरान में वैज्ञानिक उन्नति बहुत उल्लेखनीय रही है और हर सप्ताह बड़ी संख्या में ईरानी वैज्ञानिकों के अनुसंधानिक लेख अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक सूचना केन्द्र आईएसआई में पंजीकृत हो रहे हैं। तीसरी सहस्त्राब्दी के पहले दशक में यह वैज्ञानिक गतिविधियां अंतर्राष्ट्रीय वैज्ञानिक क्षेत्र में ईरान की भागादारी में वृद्धि का परिचायक हैं। आईएसआई के ताज़ा आंकड़ों के अनुसार ईरानी अनुसंधानकर्ताओं ने सत्तरह हज़ार से अधिक वैज्ञानिक लेख प्रस्तुत करके इस दृष्टि से विश्व में २४ वां स्थान प्राप्त कर लिया है।
इस्लामी क्रान्ति की एक देन यह भी है कि देश में राष्ट्रीय स्तर पर उच्च शिक्षा केन्द्रों का भारी विकास हुआ है। उच्च शैक्षिक केन्द्रों की स्थापना और विश्वविद्यालयों की संख्या में वृद्धि से लोगों विशेष कर युवाओ की शिक्षा के प्रति रूचि बढ़ी है। जानकारों के अनुसार उच्च शिक्षा केन्द्रों की संख्या जो इस्लामी क्रान्ति से पूर्व २२३ थी अब बढ़कर डेढ़ हज़ार से अधिक हो गई है अर्थात इसमंि लगभग सात गुना की वृद्धि हुई है। इसी प्रकार पीएचडी स्तर के छात्रों की संख्या क्रान्ति के आरंभिक वर्षों में लगभग १७ हज़ार थी किंतु यह संख्या बढ़कर अब एक लाख बीस हज़ार हो गई है। इस समय ईरान के विश्वविद्यालयों के छात्रों की संख्या लगभग चौबीस लाख है जो इस्लामी क्रान्त से पूर्व की संख्या की तुलना में बीस गुना अधिक है। साप्ताहिक पत्रिका न्यूज़वीक ने अपने एक ताज़ा संस्करण में लिखा कि विश्व के अति उत्तम शैक्षिक संस्थानों में से एक ईरान में स्थित है। इस रिपोर्ट में ईरानी छात्रों और ईरान के विश्वविद्यायलों विशेषकर शरीफ़ औद्योगिक विश्वविद्यालय से शिक्ष ग्रहण करने वालों की सफलताओं को रेखांकित किया गया है।
इस्लामी क्रान्ति की सफलता के बाद वैज्ञानिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और राजनैतिक क्षेत्रों में महिलाओं की भागीदारी और साझेदारी की आवश्यकता का मुद्दा गंभीरता का साथ उठाया गया। यह इस लिए भी बहुत तर्कसंगत है कि समाज के दो मूल आधारों में से एक महिलाएं हैं जिनकी देशों के विकास व उन्नति में महत्वपूर्ण भूमिका है अतः उनके अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया जाना आवश्यक है। इस समय ईरान की अस्सी प्रतिशत महिलाएं शिक्षित हैं जबकि इस्लामी क्रान्ति की सफलता से पूर्व यह दर मात्र ३५ प्रतिशत थी। इस्लामी क्रान्ति के पश्चात ईरानी महिलाओं ने विज्ञान एवं अनुसंधान के क्षेत्र में इस प्रकार अपना योगदान और साझेदारी बढ़ाई कि कुछ मामलों में तो वह पुरुषों से आगे निकल गईं। उदाहरण स्वरूप विश्वविद्यालय की प्रवेश परीक्षाओं में सफलता प्राप्त करने वालों में ६७ प्रतिशत लड़कियां और महिलाएं हैं।
इस समय हम सभी वैज्ञानिक एवं अनुसंधिक क्षेत्रों में ईरानी वैज्ञानिकों और युवाओं की प्रतिभा और नए नए अविष्कारों को देख रहे हैं। इसके साथ ही हर वर्ष ईरानी छात्र, अविष्कारक, खोजकर्ता और प्रतिभाशाली युवा गणित, भौतिक विज्ञान, जीव विज्ञान, रसायनिक विज्ञान खगोल शास्त्र तथा अन्य विषयों में अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिताओं में उच्च स्थान ग्रहण कर रहे हैं। वर्ष १९९५ और वर्ष १९९६ में ईरानी छात्रों ने रसायन शास्त्र की अंतर्राष्ट्रीय प्रतियोगिता में प्रथम स्थान प्राप्त किया जबकि वर्ष १९९८ में ईरान को गणित में पहला स्थान मिला। वर्ष १९९९ में भौतिक विज्ञान में ईरान को दूसरा स्थान मिला जबकि वर्ष २००१ में रसायन शास्त्र की प्रतियोगिता में ईरान ने दूसरा स्थान प्राप्त किया। यह सफलताएं इस्लामी क्रान्ति के बाद के वर्षों में ईरान की वैज्ञानिक उन्नति की परिचायक हैं और ईरान को वैज्ञानिक ओलंपियाडों में विश्व के दस महत्वपूर्ण देशों में गिना जाता है।
ईरान ने इस समय चिकित्सा विज्ञान, परमाणु ऊर्जा, नैनो टेक्नालोजी, बायो टेक्नालोजी, स्टम सेल्ज़ आदि जैसे अनेक वैज्ञानिक विषयों में विकास व उन्नति का नया स्थान प्राप्त किया है। नैनो टेक्नालोजी में इस्लामी गणतंत्र ईरान ने भारी विकास किया है। नैनो टेक्नालोजी २१वीं शताब्दी की अति महत्वपूर्ण तकनीक के रूप में देखी जाती है। यह टेक्नालोजी मोलक्यूल्ज़ के प्रजनन की एक प्रक्रिया पर आधारित होती है जिसे विश्व की श्रेष्ठ तकनीकों में गिना जाता है। नैनो टेक्नालोजी का शब्द, एसे अनुसंधानिक कार्यों के लिए प्रयोग किया जाता है जिसमें अनुसंधानिक प्रक्रिया नैनो की मात्रा में आगे बढ़ती है। नैनो एक मीटर का एक अरब वां भाग है। आंकड़ों के अनुसार इस समय ईरान में नैनों टेक्नालोजी से संबंधित ९० अनुसंधानिक संस्थाएं और ४० प्रयोगशालाएं काम कर रही हैं।
इस समय ईरान अपने परिश्रमी युवाओं और विशेषज्ञों की सहायता से कई प्रकार के नैनो पाउडर, कई प्रकार के नैनो मिश्रण और नैनों परतें तैयार की हैं। ईरानी अनुसंधानकर्ता एक एसा नैनो मिश्रण बनाने में भी सफल हुए जिसका दवाएं, खाने पीने की वस्तुएं, काग़ज़, सौंदर्य प्रसाधन तथा स्वास्थ्य के क्षेत्र से संबंधित अनेक वस्तुएं बनाने में बहुत अधिक प्रयोग होता है। ईरान ने नैनो मीटर की सूक्षमता के साथ काम करने वाला माइक्रोस्कोप बनाया है जो डीएनए माल्क्यूल्ज़, प्रोटीन और नैनो ढांचों के चित्र लेने में सक्षम है। यह माइक्रो स्कोप विश्व के कुछ गिने चुने देश ही अब तक बनाने में सफल हो सके हैं। नैनो टेक्नालोजी की दृष्टि से ईरान मध्यपूर्व में पहले स्थान पर, इस्लामी देशों में दूसरे स्थान पर तथा विश्व में तीसरे स्थान पर है।
इस्लाम धर्म के दृष्टिकोण से वही विज्ञान और अनुसंधान सहरानीय और मान्य है जो मानवजाति के हितों की रक्षा के लिए हो क्योंकि कभी कभी कुछ लोग एसे अविष्कार ही कर देते हैं जिससे मानव समाज को क्षति पहुंचती है। इस्लामी गणतंत्र ईरान की रणनीति समाज के लिए लाभप्रद विज्ञान व तकनीक से लाभ उठाने पर आधारित है। इस्लामी गणतंत्र ईरान परमाणु तकनीक सहित हर तकनीक और विज्ञान को इसी दृष्टिकोण से देखता है। कुछ देशों की ओर से लगाए गए भारी प्रतिबंधों के बावजूद ईरान ने शांतिपूर्ण लक्ष्यों के लिए परमाणु तकनीक के प्रयोग के संबंध में भारी सफलताएं आर्जित की हैं। परमाणु विशेषज्ञ डाक्टर बाक़ेरी कहते हैं कि इस समय विश्व के देश तेल, गैस, हवा और सौरऊर्जा के प्रयोग के साथ ही परमाणु ऊर्जा प्राप्त करने के लिए प्रयासरत हैं।
परमाणु तकनीक अब तक खोजी गई जटिलतम तकनीकों में से एक है। परमाणु तकनीक उस तकनीक को कहते हैं जिसमें अणुओं की ऊर्जा को विजली, खेती, भूविज्ञान आदि क्षेत्रों में प्रयोग किया जाता है। इस समय इस्लामी गणतंत्र ईरान ने परमाणु बिजली के विशेष महत्व और तेल तथा गैस जैसे ऊर्जा स्रोतों के सीमित होने तथा परमाणु ऊर्जा के सस्ता होने के दृष्टिगत परमाणु ऊर्जा को अपने एजेंडे में प्राथमिकता दी है। अराक का भारी पानी का परमाणु अनुसंधानिक संयंत्र ४० मेगावाट की क्षमता रखता है जिसने वर्ष २००४ से अपना काम आरंभ कर दिया है। ईरान में इस प्रतिष्ठान के निर्माण से भारी पानी के अन्य संयंत्र और प्रतिष्ठानों के निर्माण की भूमि समतल हो गई है। यह संयंत्र बनाने के बाद ईरान भारी पानी के उत्पादन की तकनीक से संपन्न विश्व का नौवा देश बन गया है।
इस समय ईरान चिकित्सा विज्ञान, कृषि और उद्योग में परमाणु ऊर्जा का प्रयोग कर रहा है। विशेषज्ञों का कहना है कि जो कृषि उत्पाद और खाद्य पदार्थ ख़राब हो सकते हैं उन्हों परमाणु विकिरण से सुरक्षित रखा जा सकता है। परमाणु विज्ञान फ़ैकेल्टी के विशेषज्ञों का कहना है कि ईरानी वैज्ञानिकों के परिश्रम के चलते ईरान अब स्वयं ही युड नामक परमाणु दवा का निर्माण करने लगा है जो कैंसर तथा थाइराइड के उपचार में प्रभावी है। देश में गामा लहरों के प्रयोग से स्वास्थय संबंधी वस्तुओं को रोगाणुओं से मुक्त बनाया जाता है। ईरान ने परमाणु तकनीक के प्रयोग से चिकित्सा, कैंसर की रोकथाम, एड्ज़ की रोकथाम, मोलक्यूल्ज़ सशक्तीकरण, डाइब्टीज़ का उपचार, रक्त की चरबी की मात्रा में कमी जैसे कार्यों में लाभ उठा रहा है। ऊर्जा के क्षेत्र में ईरान परमाणु तकनीक को बिजली के उत्पादन के लिए प्रयोग करना चाहता है। बूशहर परमाणु बिजलीघर सहित अनेक बिजलीघरों का निर्माण इसी संदर्भ में किया जा रहा है। विशेषज्ञों के अनुसार वर्ष २००९ में बूशहर परमाणु बिजलीघर से तैयार होने वाली बिजली देश के विद्युत आपूर्ति तंत्र में शामिल हो जाएगी। ईरानी वैज्ञानिकों ने अपने नए अविष्कारों से तकनीकी समस्याओं पर नियंत्रण प्राप्त कर लिया है और यह देश एक आधुनिकतम सेंट्रीफ़्यूज मशीन तैयार करने में सफल हो गया है जो भारी उत्पादक क्षमता रखती है। यह पी टू सेंट्रीफ़्यूज मशीन वर्ष २००३ में बनाई जाने वाली पी वन मशीनों की जो इस समय नतन्ज़ परमाणु केन्द्र में काम कर रही हैं आधुनिकतम पीढ़ी है। यह सेंट्रीफ़्यूज मशीनें आधुनिक तकनीक से संपन्न हैं और इनके निर्माण का अर्थ यह है कि ईरान भारी प्रतिबंधों के बावजूद विज्ञान और उन्नति के शिखर पर पहुंचने में सफल रहा है। इस प्रकार ईरान औद्योगित स्तर पर यूरेनियम के संवर्धन, भारी पानी के परमाणु संयंत्रों के निर्माण, येलो केक के उत्पादन के केन्दों के निर्माण और दूसरे अनेक क्षेत्रों में विश्व के आधुनिकतम परमाणु तकनीक से संपन्न आठ देशों में से एक है।
(यह महत्व पूर्ण लेख irib.ir से लिया गया है और आवश्यकतानुसार इस के शीर्षक में बदलाव किया गया है।)
अल्लामा इक़बाल की ख़ुदी
अल्लामा इक़बाद उन शायरों और विचारकों में शामिल हैं जिनकी ख्याति भौगोलिक सीमाओं में नहीं समा सकी और उन्होंने क्षेत्र के स्तर से ऊपर उठकर अपनी पहचान बनाई।
अल्लामा इक़बाल ने फ़ारसी भाषा में भी अपनी कला और दर्शनशास्त्र के कौशल दिखाए हैं। अल्लामा इक़बाल के समस्त विचार, उनके ख़ुदी अर्थात स्वतः के दृष्टिकोण से निकले हैं। स्पष्ट सी बात है कि जब तक उनके दृष्टिकोण के मूल बिंदु अर्थात ख़ुदी के अर्थ को नहीं समझा जाएगा तब तक उनके विचारों को पूर्ण रूप से नहीं समझा जा सकता। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का यह प्रख्यात कथन कि जिसने अपने आप को पहचान लिया उसने अपने पालनहार को पहचान लिया, इक़बाल के ख़ुदी के दृष्टिकोण का आधार है। उनके विचार में अपने आपको पहचानना मनुष्य की एक बड़ी विशेषता है और इसी बात को उन्होंने ख़ुदी के नाम से प्रस्तुत किया है। ख़ुदी को देखा या छुआ नहीं जा सकता बल्कि आंतरिक अनुभवों के माध्यम से इसका आभास किया जा सकता है।
نغمه ام از زخمه بی پرواستم
من نوای شاعر فرداستم
عصر من داننده اسرار نیست
یوسف من بهر این بازار نیست
نا امیدستم ز یاران قدیم
طور من سوزد که می آید کلیم
نغمه من از جهان دیگر است
این جرس را کاروان دیگر است
ای بسا شاعر که بعد از مرگ زاد
چشم خود بربست و چشم ما گشاد
मैं गीत हूं, मुझे घाव की कोई परवाह नहीं है
मैं कल के कवि की आवाज़ हूं
मेरा काल, रहस्यों का ज्ञानी नहीं है
मेरा युसुफ़ इस बाज़ार के लिए नहीं है
मैं अपने प्राचीन मित्रों की ओर से निराश हूं
मेरा तूर जल रहा है कि मूसा आने वाले हैं
मेरा गीत किसी दूसरे संसार का है
इस घंटी का कारवान कोई दूसरा है
कितने ऐसे कवि हैं जो मरने के बाद जीवित होते हैं
अपनी आंखें बंद कर लेते हैं और हमारी आंखें खोल देते हैं
अल्लामा इक़बाल का दृष्टिकोण, ख़ुदी के अटल व वैज्ञानिक प्रभावों के वर्णन पर आधारित है। ख़ुदी एक मानवीय व सामाजिक अर्थ है जिसे दार्शनिक विचारों के ढांचे में प्रस्तुत व वर्णित किया गया है। इक़बाल के विचार में ख़ुदी, आत्मबोध, स्वयं के भीतर झांकने और अपने व्यक्तित्व को पहचानने का नाम है। इस संबंध में उन्होंने अपने विचारों को एक वैचारिक ढांचे में प्रस्तुत किए हैं। दूसरे शब्दों में ख़ुदी की कल्पना पहले एक सामाजिक व क्रांतिकारी विचार के रूप में इक़बाल के मन में आई और इसके बाद उन्होंने इसे दर्शनशास्त्र का वस्त्र पहनाया।
अल्लामा इक़बाल ख़ुदी का स्थान, इस्लामी समाजों विशेषकर भारतीय उपमहाद्वीप में रिक्त पाया। इस विचार को उन्होंने अपने देशवासियों के भीतर साहस, शौर्य व ईमान की आत्मा फूंकने के लिए प्रस्तुत किया। उनका मानना था कि भारत के लोगों विशेष कर मुसलमानों को स्वयं को पहचानना चाहिए और अपने आप पर ही निर्भर रहना चाहिए। इक़बाल की ख़ुदी का स्रोत संकल्प तथा निर्माण की शक्ति है और इस आधार शिला को प्रेम से सुदृढ़ता प्राप्त होती है।
इक़बाल कहते हैं कि अपने आप से अनभिज्ञ न रहना, बाहरी लोगों से प्रतिरोध की मूल शर्त है। आत्मबोध मनुष्य को आवश्यकतामुकत बना देता है जबकि दूसरों के सामने हाथ फैलाने से मनुष्य की ख़ुदी या उसका अहं तुच्छ हो जाता है। ख़ुदी की आधारशिला, आत्मविश्वास, प्रेम, संकल्प एवं आत्मबोध पर रखी गई है कि जो संसार की सभी गुप्त एवं प्रकट शक्तियों को अपने नियंत्रण में ले सकती है।
ای فراهم کرده از شیران خراج
گشته ای روبه مزاج از احتیاج
می رباید رفعت از فکر بلند
می کُشد شمع خیال ارجمند
از خُم هستی می گلفام گیر
نقد خود از کیسه ایام گیر
از سؤال آشفته اجزای خودی
بی تجلی نخل سینای خودی
مشت خاک خویش را از هم مپاش
مثل مَه رزق خود از پهلو تراش
हे बाघों से भी लगान प्राप्त करने वाले
दूसरों के सामने हाथ फैलाने से तू हीन हो गया है
आवश्यकता, उच्च विचारों से उनकी महानता को छीन लेती है
महान विचारों की दिए को बुझा देती है
संसार की सुराही से सुंदर मदिरा प्राप्त कर
दिन-रात के झोले से नगद धन लेले
मांगने से ख़ुदी के भाग बिखर जाते हैं
और ख़ुदी के पर्वत के पेड़ का सौंदर्य समाप्त हो जाता है
अपनी मिट्टी को बिखराओ नहीं
चंद्रमा की भांति अपनी आजीविका स्वयं प्राप्त करो
इक़बाल इस बात पर बल देते हुए कि ख़ुदी एक अटल वास्तविकता है, कहते हैं कि मनुष्य यदि आंखें खोलकर अपने भीतर देखे तो उसे ख़ुदी की अटल वास्तविकता दिखाई दे जाएगी कि जो उसके चरित्र का वास्तविक आधार है। उनके ख़ुदी के विचार के अनुसार आत्मबोध, विभिन्न ऐतिहासिक व सामाजिक परिस्थितियों के अनुसार विभिन्न रूपों में सामने आता है। इस आधार पर विभिन्न प्रकार की ख़ुदी की शिक्षा-दीक्षा, बाहरी तत्वों अर्थात सामाजिक तत्वों से प्रभावित होती है।
वे, व्यक्ति तथा समाज में ख़ुदी को सुदृढ़ बनाने के लिए प्रेम व लगाव को आवश्यक मानते हैं क्योंकि केवल प्रेम के माध्यम से ही ख़ुदी का अस्तित्व प्रकट होता है और परिपूर्णता तक पहुंचता है। अतः जो लोग और जो समाज अपनी ख़ुदी को सुरक्षित रखना चाहते हैं उनके मन और हृदय में प्रेम होना चाहिए। वे कहते हैं। "प्रेम ने ही पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मदे मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम को अपनी पैग़म्बरी का दायित्व निभाने के लिए सुदृढ़ बनाया और उन्हें इस बात में सफलता मिली कि वे धर्म की कुंजी से मानव जाति के समक्ष बेहतर जीवन व संसार का द्वार खोलें।"
نقطه نوری که نام او خودی است
زیر خاک ما شرار زندگی است
از محبت می شود پاینده تر
زنده تر سوزنده تر تابنده تر
فطرت او آتش اندوزد ز عشق
عالم افروزی بیاموزد ز عشق
प्रकाश का वह बिंदु, जिसका नाम ख़ुदी है,
जो हमारी मिट्टी के नीचे, जीवन की ज्वाला है,
वह प्रेम से अधिक सुदृढ़ होता है,
अधिक जीवित, अधिक प्रज्वलित अधिक प्रकाशमान होता है
उसकी प्रवृत्ति प्रेम से अग्नी संजोती है
प्रेम से ही वह संसार को प्रकाशमान बनाना सीखता है
इक़बाल का कहना है कि ख़ुदी ही संसार की वास्तविकता है। वे इस बारे में कहते हैं। " ख़ुदी, जीवन का ध्रुव है, ख़ुदी, कल्पना व भ्रम नहीं बल्कि एक अटल वास्तविकता है। इसकी विशेषताएं, विभिन्न हैं तथा अच्छाई व बुराई तथा बल व कमज़ोरी सभी इसकी किरणें हैं। ख़ुदी, जितनी सुदृढ़ होगी, अस्तित्व के आयाम भी उतने ही बलवान एवं जीवनदायक होंगे।"
پیکر هستی ز آثار خودی است
هرچه می بینی ز اسرار خودی است
خویشتن را چون خودی بیدار کرد
آشکارا عالم پندار کرد
صد جهان پوشیده اندر ذات او
غیر او پیداست از اثبات او
در جهان تخم خصومت کاشته است
خویشتن را غیر خود پنداشته است
सृष्टि का अस्तित्व, ख़ुदी के परिणामों में से है
जो कुछ तुम्हें दिखाई दे रहा है वह ख़ुदी के रहस्यों में से है
जब ख़ुदी ने अंतरात्मा को जागृत कर दिया
तो कल्पना के संसार को साक्षात कर दिया
ख़ुदी के भीतर सैकड़ों संसार निहित हैं
इसके अस्तित्व से ही इसके विलोम का पता चलता है
इसने संसार में शत्रुता का बीज बोया है
अपने आपको, अपने से अलग समझा है
इक़बाल की दृष्टि में ख़ुदी एकांत में और अलग-थलग नहीं बल्कि केवल समाज में और अन्य प्रकार की ख़ुदियों के साथ ही विकसित हो सकती है क्योंकि कोई भी व्यक्ति अकेले ही अपनी सभी इच्छाओं को व्यवहारिक नहीं बना सकता। अपनी इच्छाओं को व्यवहारिक बनाने के लिए उसे समाज के लोगों के साथ रहना तथा सामाजिक संस्कृति व मान्यताओं से स्वयं को समन्वित करना होगा। इक़बाल के दृष्टिकोण के अनुसार ख़ुदी, समाज का अटूट अंग है और इसे सार्वजनिक रूप से ही पहचाना जा सकता है।
इक़बाल कहते हैं कि ख़ुदी तीन चरणों में परिपूर्णता तक पहुंचती है, पहला चरण धर्म तथा ईश्वरीय आदेशों का संपूर्ण पालन करने पर आधारित है जबकि दूसरे चरण में मनुष्य को अपनी आंतरिक पवित्रता की रक्षा करनी चाहिए और धर्म ने जिन बातों को वर्जित घोषित किया है उनसे दूर रहना चाहिए। यदि सही ढंग से इन दोनों चरणों का पालन हो गया तो ईश्वरीय उत्तरदायित्व का स्थान आता है कि जो ख़ुदी के प्रशिक्षण का तीसरा चरण है। इस चरण में मनुष्य, संसार में ईश्वर का उत्तराधिकारी बन जाता है और पूरा संसार उसके समक्ष नतमस्तक हो जाता है। जब कोई इस चरण तक पहुंच जाए तो अन्य लोगों के लिए आवश्यक है कि उसका अनुसरण करें। इक़बाल के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम इस चरण का सबसे उत्तम उदाहरण हैं।
वे कहते हैं कि मनुष्य का सबसे उच्च लक्ष्य संसार में ईश्वरीय पताका फहराना, सत्य के मार्ग में बलिदान देना, जात-पात, स्थान, भाषा तथा वर्ण की अनदेखी करते हुए सभी लोगों के बीच एकता व एकजुटता उत्पन्न करना, होना चाहिए। अल्लामा इक़बाल को सबसे अधिक दुख इस बात का है कि मुसलमान अपने आपको खो चुके हैं, जो वस्तु उनके पास पहले ही से मौजूद है, उसे दूसरों के पास खोज रहे हैं तथा अपनी धार्मिक शिक्षाओं व सृष्टि के ध्येय से दूर हो चुके हैं।
علم حق را در قفا انداختی
بهر نانی نقد دین درباختی
گرم رو در جستجوی سرمه ای
واقف از چشم سیاه خود نه ای
तूने सत्य के ज्ञान को पीछे फेंक दिया है
एक रोटी के लिए, धर्म को बेच दिया है
काजल की खोज में इधर-उधर भटक रहा है
तूझे अपनी सुंदर काली आंखों के बारे में पता ही नहीं है
पहली मस्जिदों
सबसे पहली मस्जिद काबा था। काबा अल्लाह के आसपास मस्जिद हराम का निर्माण हुआ। एक परंपरा के अनुसार काबा वह जगह है जहां सबसे पहले हज़रत आदम अलैहिस्सलाम और हज़रत हव्वा अलैहिस्सलाम ने ज़मीन पर पूजा की थी। इसी जगह पर हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने हज़रत इस्माईल अलैहिस्सलाम के साथ एक इबादत गाह निर्माण। यही जगह मस्जिद हराम कहलाई। कई परंपराओं के अनुसार यहीं हज़रत मुहम्मद स उपकरण और स्लिम ने पहले पहल प्रार्थना अदा कीं हालांकि वहां काबा में समय मूर्ति मौजूद थे। दूसरी मस्जिद, मस्जिद कबाय 'थी जिसकी नींव हज़रत मुहम्मद स उपकरण और स्लिम मदीना से कुछ बाहर उस समय रखी जब वह मक्का से मदीना हिजरत फरमा रहे थे। तीसरी मस्जिद, मस्जिदे नबवी' थी जिसकी नींव भी हज़रत मुहम्मद स उपकरण और स्लिम ने मदीने में हिजरत के बाद रखी और निर्माण में स्वयं भाग लिया। मस्जिदे नबवी मुसलमानों का धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक केंद्र था। आज मस्जिद हराम और मस्जिदे नबवी मुसलमानों की पवित्र सबसे स्थान हैं।
बादशाही मस्जिद
बादशाही मस्जिद पाकिस्तान के लाहौर में स्थित है। इस मस्जिद को 1673 ई. में मुगल सम्राट औरंगजेब ने बनवाया था। यह मस्जिद मुगल काल की सौंदर्य और भव्यता का प्रत्यक्ष प्रमाण है।
पाकिस्तान की इस दूसरी सबसे बड़ी मस्जिद में एक साथ 55000 हजार लोग नमाज अदा कर सकते हैं।
बादशाही मस्जिद का डिजाइन दिल्ली की जामा मस्जिद से काफी मिलता-जुलता है, जिसे 1648 में औरंगजेब के पिता शाहजहां ने बनवाया था। मस्जिद लाहौर किले के नजदीक स्थित है।