
Super User
क़ुरआने मजीद और सदाचार
इस में कोई शक नही है कि सदाचार हर समय में महत्वपूर्ण रहा हैं। परन्तु वर्तमान समय में इसका महत्व कुछ अधिक ही बढ़ गया है। क्योँकि वर्तमान समय में इंसान को भटकाने और बिगाड़ने वाले साधन पूर्व के तमाम ज़मानों से अधिक हैं।
पिछले ज़मानों मे बुराईयाँ फैलाने और असदाचारिक विकार पैदा करने के साधन जुटाने के लिए मुश्किलों का सामना करते हुए अधिक मात्रा मे धन खर्च करना पड़ता था। परन्तु आज के इस विकसित युग में यह साधन पूरी दुनिया मे व्याप्त हैं।जो काम पिछले ज़मानों में सीमित मात्रा में किये जाते थे वह आज के युग में असीमित मात्रा में बड़ी आसानी के साथ क्रियान्वित होते हैं। आज एक ओर विकसित हथियारों के द्वारा इंसानों का कत्ले आम किया जा रहा है। तो दूसरी ओर दुष्चारिता को बढ़ावा देने वाली फ़िल्मों को पूरी दुनिया मे प्रसारित किया जा रहा है। विशेषतः इन्टर नेट के द्वारा मानवता के लिए घातक विचारों व भावो को दुनिया के तमाम लोगों तक पहुँचाया जा रहा है। इस स्थिति में आवश्यक है कि सदाचार की तरफ़ गुज़रे हुए तमाम ज़मानों से अधिक तवज्जोह दी जाये। इस कार्य में किसी भी प्रकार की ढील हमको बहुत से संकटों में फसा सकती है।
खुश क़िस्मती से हमारे पास क़ुरआने करीम जैसी किताब मौजूद है। जिसमे एक बड़ी मात्रा में अति सुक्ष्म सदाचारिक उपदेश पाये जाते हैं। दुनिया के दूसरे धर्मों के अनुयाईयों के पास ऐसी नेअमतें नही हैं। बस हमें इस बात की ज़रूरत है कि हम क़ुरआन के साथ अपने सम्बन्ध को बढ़ायें और उसके बताये हुए रास्ते पर अमल करें ताकि इस ज़माने में भटकनें से बच सकें।
सदाचार विषय का महत्व
सदाचार वह विषय है जिसको क़ुरआने करीम में विशेष महत्व दिया गया है। और तमाम नबीयों का उद्देश भी सदाचार की शिक्षा देना ही था। क्योँकि सदाचार के बिना इंसान के दीन और दुनिया दोनों अधूरे हैं। वास्तव में इंसान को इंसान कहना उसी समय शोभनीय है जब वह इंसानी सदाचार से सुसज्जित हो। सदाचारी न हो ने पर यह इंसान एक खतरनाक नर भक्षी का रूप भी धारण कर लेता है। और चूँकि इंसान के पास अक़्ल जैसी नेअमत भी है अतः इसका भटकना अन्य प्राणीयों से अधिक घातक सिद्ध होता है।और ऐसी स्थिति में वह सब चीज़ों को ध्वस्त करने की फ़िक्र में लग जाता है। और अपने भौतिक सुख और लाभ के लिए युद्ध करके बे गुनाह लोगों का खून बहानें लगता है। क़ुरआने करीम को पढ़ने से मालूम होता है कि बहुतसी आयात इस विषय की महत्ता को प्रकट करती हैं।
जैसे सूरए जुमुआ की दूसरी आयत मे ब्यान किया गया कि “वह अल्लाह वह है जिसने मक्के वालों के मध्य एक रसूल भेजा जो उन्हीं मे से था। (अर्थात मक्के ही का रहने वाला था) ताकि वह उनके सामने आयात को पढ़े और उनकी आत्माओं को पवित्र करे और उनको किताब व हिकमत(बुद्धी मत्ता) की शिक्षा दे इस से पहले यह लोग(मक्का वासी) प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।”
और सूरए आले इमरान की आयत न. 64 मे ब्यान होता है कि “यक़ीनन अल्लाह ने मोमेनीन पर एहसान (उपकार) किया कि उनके दरमियान उन्हीं में से एक रसूल भेजा जो इनके सामने अल्लाह की आयात पढ़ता है इनकी आत्माओं को पवित्र करता है और उनको किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता ) की शिक्षा देता है जबकि इससे पहले यह लोग प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।”
उपरोक्त की दोनों आयते रसूले अकरम (स.) की रिसालत के वास्तविक उद्देश्य,आत्माओं की पवित्रता और सदाचारिक प्रशिक्षण को ब्यान कर रही हैं। यहाँ पर यह कहा जा सकता है कि आयात की तिलावत, (आवाज़ के साथ पढ़ना) किताब और हिकमत की शिक्षा को आत्माओं को पवित्र बनाने और प्रशिक्षत करने के लिए आधार बनाया गया है। और आत्माओं की पवित्रता ही सदाचारिक ज्ञान का वास्तविक उद्देश्य है। शायद यही वजह है कि अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में आत्मा की पवित्रता को शिक्षा से पहले ब्यान किया है। क्योँकि वास्तविक ऊद्देश्य आत्माओं की पवित्रता ही है। जबकि क्रियात्मक रूप मे शिक्षा को आत्मा की पवित्रता पर प्राथमिकता प्राप्त है।
उपरोक्त लिखित दोनों आयतों में से पहली आयत में अल्लाह ने रसूले अकरम (स.) को सदाचार की शिक्षा देने वाले के रूप मे रसूल बनाने को अपनी एक निशानी बताया है। और प्रत्यक्ष रूप से भटके होनें को, शिक्षा और प्रशिक्षण के विपरीत शब्द के रूप मे पहचनवाया है। इससे मालूम होता है कि क़ुरआने करीम में सदाचार विषय को बहुत अधिक महत्ता दी गई है। और दूसरी आयत में रसूले अकरम (स.) को सदाचार के शिक्षक के रूप मे भेज कर मोमेनीन पर एहसान(उपकार) करने का वर्णन किया गया है। जो सदाचार की महत्ता के लिए एक खुली हुई दलील है।
नतीजा
उल्लेखित आयतों व अन्य आयतों के अध्ययन से पता चलता है कि क़ुरआन की दृष्टि में सदाचार विषय बहुत महत्व पूर्ण है। और इसको एक आधारिक विषय के रूप में माना गया है। जबकि इस्लाम के दूसरे तमाम क़ानूनों को इस के अन्तर्गत ब्यान किया गया है।सदाचार का रूर्ण विकास ही वह महत्वपूर्ण उद्देश्य है जिस पर तमाम आसमानी धर्मों ने विशेष रूप से बल दिया है। और सदाचार ही को तमाम सुधारों का मूल माना है।
ज्ञान और सदाचार का सम्बन्ध
अल्लाह ने क़ुरआने करीम की बहुत सी आयात में किताब और हिकमत(बुद्धिमत्ता) की शिक्षा को आत्मा की पवित्रता के साथ उल्लेख किया है। कहीं पर आत्मा की पवित्रता का ज्ञान से पहले उल्लेख किया और कहीं पर आत्मा की पवित्रता को ज्ञान के बाद ब्यान किया। इस से यह ज्ञात होता है कि ज्ञान और सदाचार के मध्य घनिष्ठ सम्बन्ध पाया जाता है।अर्थात अगर किसी इंसान को किसी बात की अच्छाई या बुराई का ज्ञान हो जाये तो इसका असर उसकी व्यक्तित्व पर पड़ेगा वह अच्छाई को अपनाने और बुराई से बचने की कोशिश करेगा।इंसान की बहुत सी व्यवहारिक बुराईयाँ अज्ञानता के आधार पर होती हैं। अतः अगर समाज से अज्ञानता को दूर कर दिया जाये तो समाज से बहुत सी बुराईयाँ समाप्त हो जायेंगीं। और धीरे धीरे अच्छाईयाँ बुराईयों का स्थान ले लेगीं। यह बात अलग है कि यह क़ानून पूरी तरह से लागू नही होता है।और यह भी आवश्यक नही है कि सदैव ऐसा ही हो। क्योकिं इस सम्बन्ध में दो दृष्टि कोण पाये जाते हैं
पहला दृष्टिकोण
यह है कि ज्ञान अच्छे सदाचार के लिए कारक है। तथा समस्त सदाचारिक बुराईयाँ अज्ञानता के कारण होती हैं। इस दृष्टि कोण के अनुसार सदाचारिक बुरीय़ों को समाप्त करने का केवल एक ही तरीक़ा है और वह यह कि समाज में व्यापक स्तर पर शिक्षा का प्रसार करके समाज के विचारों को उच्चता प्रदान की जाये।
दूसरा दृष्टि कोण
यह है कि ज्ञान और सदाचार मे आपस में कोई सम्बन्ध नही है। और ज्ञान बदकार और दुराचारी लोगों कोउनकी बदकारी और दुराचारी में मदद करता है। और वह पहले से बेहतर तरीक़े से अपने बुरे कामों पर बाक़ी रहते हैं।
लेकिन वास्तविक्ता यह है कि न तो ज्ञान और सदाचार के सम्बन्ध से पूर्ण रूप से मना किया जा सकता है और न ही पूर्ण रूप से ज्ञान को सदाचार का आधार माना जा सकता है। अर्थात यह भी नही कहा जा सकता कि जहाँ पर ज्ञान होगा वहाँ पर अच्छा सदाचार भी अवश्य होगा।
क्या इन्सान के अख़लाक़ मे परिवर्तन हो सकता है ?
यह एक ऐसा सवाल है जो सदाचार की समस्त बहसों से सम्बन्धित है। क्योंकि अगर इन्सान के सदाचार में परिवर्तन को सम्भव न माना जाये तो केवल सदाचार विषय ही नही अपितु तमाम नबियों की मेहनतें और तमाम आसमानी किताबो (क़ुरआन, इंजील, तौरात, ज़बूर) में वर्णित सदाचारिक उपदेश निष्फल हो जायेगें। और दण्ड विधान की समस्त सहिंताऐं भी निषकृत सिद्ध होगीं। समस्त नबियों की शिक्षा और आसमानी किताबों में सदाचार से सम्बन्धित ज्ञान का पाया जाना इस बात के लिए तर्क है कि इंसान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव है। हमने बहुत से ऐसे लोगों को देखा हैं जिनका सदाचार और व्यवहार सही प्रशिक्षण के द्वारा बहुत अधिक परिवर्तित हुआ है। यहाँ तक कि जो लोग कभी शातिर बदमाश थे आज वही लोग सही मार्ग दर्शन के कारण आबिद और ज़ाहिद व्यक्ति के रूप में परिवर्तित हो चुके हैं। अपनी इस बात को सिद्ध करने के लिए क़ुरआने करीम से कुछ उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।
1- इस दुनिया में अम्बिया और आसमानी किताबों का आना इस बात के लिए सबसे अच्छा तर्क है कि हर व्यक्ति को प्रशिक्षित करना और उसके व्यवहार को बदलना सम्भव है। जैसे कि सूरए जुमुआ की दूसरी आयत में ब्यान हुआ है जिसका वर्णन पीछे भी किया जा चुका है। और इसी के समान दूसरी आयतों से यह ज्ञात होता है कि रसूले अकरम (स.) के इस दुनिया में आने का मुख्य उद्देश्य लोगों का मार्ग दर्शन करना उनको शिक्षा प्रदान करना तथा उनकी आत्माओं को पवित्र करना है जो प्रत्यक्ष रूप से भटके हुए थे।और यह सब तभी सम्भव है जब इंसान के व्यवहार में परिवर्तन सम्भव हो।
2- क़ुरआन की वह समस्त आयतें जिन में अल्लाह ने पूरी मानवता को सम्बोधित किया है और सदाचारिक विशेषताओं को अपनाने का आदेश दिया है यह समस्त आयतें इन्सान के सदाचार मे परिवर्तन सम्भव होने पर सबसे अचछा तर्क हैं। क्योंकि अगर यह सम्भव न होता हो अल्लाह का पूरी मानवता को सम्बोधित करते हुए इसको अपनाने का आदेश देना निष्फल होगा। इन आयात पर एक आपत्ति व्यक्त की जा सकती है कि इन आयात में से अधिकतर आयात अहकाम को ब्यान कर रही हैं। और अहकाम का सम्बन्ध इंसान के क्रिया कलापो से है। जबकि सदाचार का सम्बन्ध इंसान की आन्तरिक विशेषताओं से है। अतः यह कहना सही न होगा कि इन आयात में सदाचार की शिक्षा दी गई है। इस आपत्ति का जवाब यह है कि इंसान के सदाचार और क्रिया कलापो में बहुत गहरा सम्बन्ध पाया जाता है। यह पूर्ण रूप से एक दूसरे पर आधारित हैं। और एक दूसरे को प्रभावित करते हैं। इंसान के अच्छे क्रिया कलाप उसके अच्छे सदाचार का नतीजा होते हैं।जिस तरह उसके बुरे क्रिया कलाप उसके दुराचार का नतीजा होते हैं।
3- क़ुरआने करीम की वह आयात जो स्पष्ट रूप से सदाचार को धारण करने और बुराईयों से बचने का निर्देश देती हैं वह इंसान के सदाचार मे परिवर्तन के सम्भव होने के विचार को दृढता प्रदान करती हैं। जैसे सूरए शम्स की आयत न.9 और 10 में कहा गया है कि “क़द अफ़लह मन ज़क्काहा व क़द ख़ाबा मन दस्साहा” जिस ने अपनी आत्मा को पवित्र कर लिया वह सफ़ल हो गया और जिसने अपनी आत्मा को बुराईयों मे लीन रखा वह अभागा रहा। इस आयत में एक विशेष शब्द “ दस्साहा” का प्रयोग हुआ है और इस शब्द का अर्थ है किसी बुरी चीज़ को दूसरी बुरी चीज़ से मिला देना। इस से यह सिद्ध होता है कि पवित्रता इंसान की प्रकृति मे है और बुराईयाँ इस को बाहर से प्रभावित करती हैं अतः दोनों मे परिवर्तन सम्भव है।
अल्लाह ने सूरए फ़ुस्सेलत की आयत न.34 मे कहा है कि “तुम बुराई का जवाब अच्छे तरीक़े से दो” इस तरह इस आयत से यह ज्ञात होता है कि मुहब्बत और अच्छे व्यवहार के द्वारा भयंकर शत्रुता को भी मित्रता में बदला जा सकता है। और यह उसी स्थिति में सम्भव है जब अख़लाक़ मे परिवर्तन सम्भव हो।
क़ुरआने मजीद और विज्ञान
प्यारे दोस्तों इस में कोई शक नही कि क़ुरआने करीम में विज्ञान की ओर संकेत किये गये है। क़ुरआने करीम में सैकड़ों स्थान पर प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में विज्ञान की ओर इशारे मिलते हैं। लेकिन हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि क़ुरआने करीम मार्ग दर्शन और प्रशिक्षण की एक पूर्ण किताब है।
इस मतलब को समझाने के लिए बहुत से तरीक़े अपनायें जा सकते हैं। और इन ही तरीक़ों मे से एक यह है कि लोगों का ध्यान चिंतन की ओर केन्द्रित किया जाये। और यह आयात इसी लिए नाज़िल हुईं हैं कि हम अल्लाह की महानता और उसकी शक्ति से अवगत हो सकें। लेकिन कुछ लोगों का विचार है कि क़ुरआने करीम मे विज्ञान के इशारे ही बहस का केन्द्र बिन्दु हैं और यह केवल एक विज्ञान की किताब है। मार्ग दर्शन से इसका कोई सम्बन्ध नही है। यह विचार धारा ग़लत है। इस विचार धारा से सम्बन्धित लोगों को यह ज्ञात होना चाहिए कि क़ुरआने करीम मे यह बहस केवल विशेष उद्देशय के अन्तर्गत सम्मिलित की गयी है। वास्तविकता यह है कि क़ुरआने करीम मार्ग दर्शन की ही किताब है। अतः हर वह चीज़ जो इंसान के मार्ग दर्शन और प्रशिक्षण के लिए आवश्यक है उसका वर्णन भी आवश्यक है।
क़रआने करीम में इल्म (ज्ञान) की अहमियत
इल्म और वह शब्द जिनसे इल्म की ओर संकेत होता हैं क़ुऱआने करीम में 750 स्थानों पर प्रयोग हुए हैं। इससे यह सिद्ध होता है कि क़ुराने करीम में इल्म और आलिम (ज्ञान और ज्ञानी) को अत्यधिक महत्व दिया गया है। क्योंकि यह इल्म (ज्ञान) ही है जो इंसान को अज्ञानता के अन्धाकार से बाहर निकालता है और मानवता का पराकाष्ठता की ओर मार्ग दर्शन करता है। ज्ञान के द्वारा ही इंसान क़ुरआन के आश्य और नबियों की शिक्षाओं से परिचित होता है।और ज्ञान के आधार पर ही इंसान नित नये अविश्कार करता है।इसी कारण इस्लाम धर्म में ज्ञान प्राप्ति को अनिवार्य किया गया है।
परन्तु क़ुरआने करीम में इल्म (ज्ञान) से अभिप्राय कोई विशेष इल्म (ज्ञान) नही है। अपितु इस्लाम में इल्म का अर्थ आम मअना में लिया जाता है। अर्थात प्रत्येक वह इल्म जो इंसान को सफलता की ओर ले जाये। और इस्लामी शरियत के अन्तर्गत वह हराम न समझा जाता हो।
यहाँ पर हम क़ुरआने करीम की इल्म (ज्ञान) से सम्बन्धित आयात का सक्षिप्त विवरण प्रस्तुत कर रहे हैं। जो निम्ण लिखित भागों मे विभाजित हैं।
अ- वह आयतें जो पूर्ण रूप से ज्ञान के संदर्भ में है और जिन में ज्ञान और ज्ञानी की महानता को व्यक्त किया गया है। जैसे---
1- सूरए ज़ुम्र की आयत न. 9 में वर्णन किया गया है कि क्या ज्ञानी लोग अज्ञानी लोगों के बरा बर हो सकते हैं? इस बात से केवल बुद्धिमान लोग ही सदुपदेश प्राप्त करते हैं।
2- सूरए मुजादिला की आयत न.11 में कहा गया कि अल्लाह उन लोगों के दर्जों को बलन्द करता है जिन्होंने ईमान को स्वीकार किया और जिनको इल्म दिया गया।
ब- वह आयतें जो इल्म में वृद्धि के मार्ग का वर्णन करती हैं। आँख, कान, बुद्धि और दिल की ओर इशारा करते हुए इंसान को इनसे लाभान्वित होने के लिए उत्तेजित करती हैं। ताकि वह ज्ञान को व्यापकता प्रदान कर सकें व इसको नेअमत समझें। जैसे –
1- सूरए नहल की आयत न. 78 में वर्णन हुआ है कि अल्लाह ने तुम को माँ के पेट से इस तरह निकाला कि तुम कुछ न जानते थे और इसी लिए तुमको कान आँख और दिल प्रदान किये शायद तुम शुक्र गुज़ार बन सको।
स- वह आयतें जिन में संसार की रचना और अल्लाह की निशानियोँ में चिंतन का निमन्त्रण दिया गया है। इन आयतों में उन लोगों की भर्त्सना भी की गयी है जो चिंतन नही करते। जैसे—
1- सूरए आलि इमरान की आयत न. 191 में वर्णन हुआ है कि वह लोग पृथ्वी व आकाश की रचना में चिंतन करते हैं।
2- सूरए क़ाफ़
की आयत न. 6 में उल्लेख है कि क्या उन्होंने अपने ऊपर आकाश की ओर नही देखा कि हमने उसको किस प्रकार बनाया और किस प्रकार सुसज्जित किया।
3- सूरए बक़रा की आयत न. 171 में वर्णन मिलता है कि यह (काफ़िर) बहरे गूँगे और अंधे हैं यह लोग बुद्धि से काम नही लेते।
द- वह आयतें जो क़ुदरत के मर्म को व्यक्त करती हैं जैसे—
1- सूरए शोराअ की आयत न.7 में उल्लेख किया गया है कि क्या इन लोगों ने पृथ्वी की ओर नही देखा कि हमने किस तरह अच्छी अच्छी चीज़े ऊगाई हैं।
इस आयत में अल्लाह ने वनस्पति के जोड़ों की ओर संकेत किया है और यह बात अब हज़ारों वर्षो के बाद वनस्पति विज्ञान के विशेषज्ञयों को ज्ञात हुई।
2- सूरए यासीन की आयत न. 38-39-40 में वर्णन हुआ है कि सूर्य अपनी धुरी पर घूम रहा है और यह अज़ीज़ और अलीम अल्लाह की निश्चित की हुई गति है। और हमने चन्द्रमा के लिए भी विभिन्न स्थितियाँ निश्चित की हैं यहाँ तक कि वह अन्त में खजूर की सूखी हुई शाखा के समान हो जाता है। न यह सूर्य के वश मे है कि चन्द्रमा को पकड़े और न रात के वश में है कि वह दिन से आगे बढ़ जाये और यह सब अपनी अपनी सीमा मे घूमते रहते हैं।
प्यारे दोस्तों जब पूरे संसार में खगोल शास्त्र में बतलीमूस का दृष्टिकोण प्रचलित था (बतलीमूस का दृष्टिकोम यह था कि सूर्य पृथ्वी के चारो ओर घूमता है।) उस समय क़ुरआन ने सूरज के अपनी धुरी पर घूमने के सम्बन्ध में अवगत कराया था। (न कि पृथ्वी के चारो ओर) परन्तु आज के आधुनिक वैज्ञानिकों ने यन्त्रों की सहायता क़ुरआन की इस बात को सिद्ध किया है।
यह आयत उस बड़े ग्रह के गति मय होने की घोषणा कर रही है जिसको बहुतसे ज्ञानी सैकड़ों वर्षों से गतिहीन मान रहे थे। यह तेज़ी (गति) शब्द मानव के ज्ञान में वृद्धि करा रहा है।
हर युग में खगोल शास्त्रीयों ने इन आयतों की नयी नयी तफ़्सीरें की हैं और जैसे जैसे खगोल शास्त्र विकसित होता जा रहा है इन आयतों के अर्थ प्रत्यक्ष होते जा रहे हैं।
उलूमे क़ुरआन का परिचय
क़ुरआने करीम ज्ञान पर आधारित एक आदर्श किताब है। परन्तु इसके भाव हर इंसान नही समझ सकता। जब कि क़ुरआन अपने आश्य को समझाने के लिए बार बार एलान कर रहा है कि बुद्धि से काम क्यों नही लेते? चिंतन क्यों नही करते?
हम किस तरह समझें और किस तरह चिंतन करें क्यों कि क़ुरआन के आशय को समझना क़ुरआन के उलूम पर आधारित है। तो आइये पहले क़ुरान के उलूम से परिचित होते हैं।
उलूमे क़ुरआन की परिभाषा
वह सब उलूम जो क़ुरआन को समझने के लिए प्रस्तावना के रूप में प्रयोग किये जाते हैं उनको उलूमे क़ुरआन कहा जाता है। दूसरे शब्दों में उलूमे क़ुरआन उलूम का एक ऐसा समूह है जिसका ज्ञान हर मुफ़स्सिर और मुहक़्क़िक़ के लिए अनिवार्य है। वैसे तो उलूमे क़ुरआन स्वयं एक ज्ञान है जिसके लिए शिया व सुन्नी सम्प्रदायों में बहुत सी किताबें मौजूद हैं।
उलूमे क़रआन कोई एक इल्म नही है बल्कि कई उलूम का एक समूह है। और यह ऐसे उलूम हैं जिनका आपस में एक दूसरे के साथ कोई विशेष सम्बन्ध भी नही है। बल्कि प्रत्येक इल्म अलग अलग है।
उलूमे क़ुरआन कुछ ऐसे उप विषयों पर आधारित है जिनका जानना बहुत ज़रूरी है और इनमे से मुख्य उप विषय इस प्रकार हैं।
(1) उलूमे क़ुरआन का इतिहास (2) क़ुरआन के नाम और क़ुरआन की विषेशताऐं (3) क़ुरआन का अर्बी भाषा में होना (4) वही की वास्तविकता और वही के प्रकार (5) क़ुरआन का उतरना (6) क़ुरआन का एकत्रित होना (7) क़ुरआन की विभिन्न क़िराअत (8) क़ुरआन की तहरीफ़= फेर बदल (9) क़ुरआन का दअवा (10) क़ुरआन का मोअजज़ा (11) नासिख व मनसूख (12) मोहकम व मुतशाबेह।
इन में से कुछ उप विषय ज्ञानियो व चिंतकों की दृष्टि में आधार भूत हैं इसी लिए कुछ उप विषयों को आधार बना कर इन पर अलग से किताबे लिखी गई हैं। जैसे उस्ताद शहीद मुतह्हरी ने वही और नबूवत पर एक विस्तृत किताब लिखी है।
उलूमे क़ुरआन का इतिहास
मानवता के इतिहास में कोई ऐसी किताब नही मिलती जिसकी रक्षा और व्याख्या के लिए क़ुरआन के समान अत्याधिक प्रबन्ध किये गये होँ।
क़ुरआन और उलूमे क़ुरआन के परिचय के लिए इस्लाम के प्रथम चरण में ही असहाबे रसूल, (वह लोग जो रसूल के जीवन में मुस्लमान हुए तथा रसूल के साथ रहे) ताबेईन (वह लोग जो रसूल स.के स्वर्गवास के बाद मुस्लमान हुए या पैदा हुए और रसूल के असहाब के सम्मुख जीवन यापन किया) और ज्ञानियों ने बहुत काम किया। कुछ लोगों ने क़ुरआन को हिफ़्ज़ किया तो कुछ ने इसकी तफ़सीर की। क़ुरआन की विभिन्न दृष्टिकोणो से तफ़सीर की गयी। क़ुरआन विशेषज्ञों के अनुसार हज़रत अली अलैहिस्सलाम वह प्रथम व्यक्ति है जिन्होने क़ुरआने करीम की तफ़सीर की और उलूमे क़ुरआनी की आधार शिला रखी।
सुन्नी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध ज्ञानी व मुफ़स्सिर जलालुद्दीन सयूती लिखते हैं कि वह खलीफा जिन्होने उलूमे क़ुरआन के सम्बन्ध में सबसे अधिक जानकारी प्रदान की हज़रत अली अलैहिस्सलाम हैं। हज़रत अली अलैहिस्सलाम के अलावा दूसरे असहाब ने भी उलूमे क़ुरआन पर काम किया है। जैसे अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास, अब्दुल्लाह इब्ने मसऊद, उबाई इब्ने कअब इत्यादि परन्तु इन सब ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से ही यह ज्ञान प्राप्त किया।
उलूमे क़ुरआन का संकलन
उलूमे क़ुरआन को एकत्रित करने का कार्य दूसरी शताब्दी हिजरी मे ही आरम्भ हो गया था। सबसे पहले हज़रत अली अलैहिस्सलाम के शिष्य अबुल असवद दौइली ने क़ुरआन पर ऐराब (मात्राऐं) लगाये। और फिर इनके एक शिष्य याहया बिन यअमर ने इल्मे तजवीद पर एक किताब लिखी।
हसन बसरी ने क़ुरआन के नज़ूल और क़ुरआन की आयात की संख्या के सम्बन्ध में एक किताब लिखी।
अब्दुल्लाह बिन आमिर ने क़ुरआन के मक़तूअ व मूसूल को ब्यान किया।
अता बिन इबी मुस्लिम खुरासानी ने नासिख और मनसूख पर एक किताब लिखी।
अबान बिन तग़लब ने उलूमे क़िराअत और मअनी आदि के सम्बन्ध में पहली किताब लिखी।
खलील बिन अहमद फ़राहीदी ने क़ुरआन में नुक्ते लगाये।
तीसरी शाताब्दी हिजरी में याहया बिन ज़यादफ़रा ने क़ुरआन के मअनी पर एक किताब लिखी।
चौथी शताब्दी हिजरी में अबु अली कूफ़ी ने फ़ज़ाईलुल क़ुरआन पर एक किताब लिखी।
सैय्यद शरीफ़ रज़ी ने तलखीसुल क़ुरआन फ़ी मजाज़ातुल क़ुरआन पर एक किताब लिखी।
पाँचवी शताब्दी हिजरी में उलूमे क़ुरान विषय का क्षेत्र विस्तृत हुआ और इस विषय पर बहुत सी किताबें लिखी गयीं। इस शताब्दी में इब्राहीम बिन सईद जूफ़ी ने उलूमे क़ुरआन पर अलबुरहान फ़ी उलूमिल क़ुरआन नामक किताब लिखी।
छटी और सातवी शताब्दी हिजरी में इब्ने जूज़ी और सखावी ने इस विषय पर काम किया।
आठवी शताब्दी हिजरी में बदरूद्दीन मुहम्मद बिन अब्दुल्लाह ज़र कशी ने अलबुरहान फ़ी उलूमिल क़ुरआन नामक एक महत्वपूर्ण किताब लिखी।
नवी शताब्दी हिजरी में जलालुद्दीन सयूती ने उलूमे क़ुरआन पर आश्चर्य जनक काम किया और एक ऐसी किताब लिखी जो उलूमे क़ुरआन की आधारिक किताब मानी जाती है। इसके बाद इस विषय पर कार्य की गति धीमी पड़ गई । वर्तमान समय में कुछ विद्वानों ने फिर से इस इल्म की तरफ़ ध्यान दिया और कुछ किताबें लिखी जो इस प्रकार हैं।
1- अलबयान फ़ी तफ़सीरिल क़ुरआन- आयतुल्लाह अबुल क़ासिम खूई
2- अत्तमहीद फ़ी उलूमिल क़ुरआन- आयतुल्लाह मारफ़त
3- हक़ाइक़- सैय्यद जाफ़र मुर्तज़ा आमुली
4- पज़ोहिशी दर तारीखे क़ुरआने करीम- डा. सैय्यद मुहम्मद बाक़िर हुज्जती
5- मबाहिस फ़ी उलूमिल क़ुरआन- डा. मजी सालेह
इस्लाम धर्म व शिया समप्रदाय का संक्षिप्त परिचय
यह विश्वास के साथ कहा जा सकता है कि मानव समाज व संस्कृति पर सदैव आसमानी धर्मो का प्रभाव रहा है। पिछली शताब्दी के बारे में कहा जाता है कि इस में मानव “वही” को छोड़ कर “बुद्धि” की ओर उन्मुख हुआ है।
परन्तु वास्तविक्ता यह है कि मनुष्य के बौद्धिक जीवन का मूल भी धर्म मे ही पाया जाता है।
इस समय यहूदी, इसाई व इस्लाम धर्म ही संसार के मुख्य तथा जीवित धर्म हैं। इस समय संसार में सबसे अधिक इसाई धर्म के अनुयायी पाये जाते हैं। तथाअनुयाईयों की सख्या के आधार पर इस्लाम धर्म द्वितीय स्थान पर है।
इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है और इस धर्म को हज़रत मुहम्मह (स.) के द्वारा मानव जाती के सम्मुख प्रस्तुत किया गया है। इस्लाम धर्म अपने प्रारम्भिक चरण से अब तक तीव्र गति से विकास की ओर उन्मुख है। बीसवी शताब्दी को तो इस्लाम के तीव्र विकास की शताब्दी समझा गया था। परन्तु इक्कीसवी शताब्दी को तो “इस्लामी शताब्दी”की ही संज्ञा दे दी गयी है।
आदरनीय आदम अलैहिस्सलाम के जन्म के समय से ही अल्लाह की ओर से मानव जाति के लिए “वही” व “मार्ग दर्शन” का कार्य शुरू हो गया था। आदरनीय आदम (अ.) अल्लाह के प्रथम पैगम्बर थे। उनके पश्चात एक के बाद एक नबी आते रहे और समय की माँग के अनुसार अल्लाह की ओर से मिलने वाले संदेश को मानवता तक पहुँचाते रहे।
वैसे तो सभी आसमानी धर्मों मे व्यापक स्तर पर एकता पायी जाती है। परन्तु हर नये धर्म में इतनी अच्छाइयाँ पायी जाती हैं कि वह अपने से पहले वाले धर्म को निरस्त कर देता है। और इस्लाम तो वह धर्म है जिसके सम्बन्ध में पिछले समस्त धर्मों ने अपने - अपने अनुयाईयों को अवगत कराया है कि इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है। अर्थात इस्लाम के बाद मानव पर अल्लाह की ओर से आने वाली वही के द्वार बन्द हो गये हैं। प्रकृतिक रूप से इस्लाम धर्म मे इतनी व्यापकता पाई जाती है कि वह अनंत काल तक मानव की समस्त आवश्यक्ताओं की पूर्ति कर सकता है। चाहे मानव जाति में कितने ही परिवर्तन क्यों न आजायें। इस लेख में जो कुछ भी कहा गया है वह इस्लाम धर्म के मूल भूत तत्वों और पैगम्बर के अहलेबैते द्वारा वर्णित शिया सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। यह लेख जहाँ मुसलमानों के लिए गर्व होगा वहीं अन्य धर्मों के अनुयाईयों के लिए भी विचारनीय होगा।
इस्लाम धर्म
इस्लाम का शाब्दिक अर्थ “समर्पण” है। और क़ुरआन की भाषा में इसका अर्थ “अल्लाह के आदेशों के सम्मुख समर्पित”होना है। यह इस्लाम शब्द का आम अर्थ है।
क़ुरआने करीम इस्लाम के अलावा किसी अन्य धर्म को इस अर्थ मे मान्यता नही देता। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए आलि इमरान की आयत न. 19 में वर्णन हुआ कि “इन्ना अद्दीना इन्दा अल्लाहि अलइस्लाम” अनुवाद--अल्लाह के समक्ष केवल इस्लाम धर्म ही मान्य है।
इस्लाम की दृष्टि में इस बात का महत्व है कि इस पवित्र आस्था में विश्वास रखते हुए नेक कार्य किये जाये। अर्थात केवल अपने आपको इस आस्था से सम्बन्धित कर देना ही पर्याप्त नही है।
सूरए बक़रा की आयत न. 62 में वर्णन हो रहा है कि “ इन्ना अललज़ीना आमनू व अल लज़ीना हादू व अन्नसारा व अस्साबिईना मन आमना बिल्लाहि व अलयौमिल आखिरि व अमिला सालिहन फ़लहुम अजरुहुम इन्दा रब्बिहिम वला खौफ़ुन अलैहिम वला हुम यहज़नूना” अनुवाद--- केवल दिखावे के लिए ईमान लाने वाले लोगो, यहूदी, ईसाइ व साबिईन [हज़रत यहिया को मान ने वाले] में से जो लोग भी अल्लाह और क़ियामत पर वास्तविक ईमान लायेंगे और नेक काम करेंगे उनको उनके रब (अल्लाह) की तरफ़ से सवाब (पुण्य) मिलेगा और उनको कोई दुखः दर्द व भय नही होगा।
परन्तु इन सब बातों के होते हुए भी वर्तमान समय में दीने मुहम्मद (स.) ही इस्लाम का मूल रूप है। अन्य आसमानी धर्म केवल दीने मुहम्मदी से पूर्व ही अपने समय में इस्लाम के रूप में थे, जो अल्लाह की इबादत ओर उसके सामने समर्पण की शिक्षा देते थे।
जैसे कि क़ुऱाने करीम के सूरए बक़रह की आयत न. 133 में वर्णन होता है कि “अम कुन्तुम शुहदाआ इज़ हज़र याक़ूबा अलमौतु इज़ क़ाला लिबनीहि मा तअबुदूना मिन बअदी क़ालू नअबुदु इलाहका व इलाहा आबाइका इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा इलाहन वाहिदन व नहनु लहु मुस्लीमूना ”
अनुवाद---- क्या तुम उस समय उपस्थित थे जब याक़ूब की मृत्यु का समय आया ? और उन्होंने अपनी संतान से पूछा कि मेरे बाद किसकी इबादत करोगे ? तो उन्होने उत्तर दिया कि आपके और आपके पूर्वजो इब्राहीम, इस्माईल व इस्हाक़ के अल्लाह की जो एक है और हम उसी के सम्मुख समर्पण करने वाले हैं।)
इसी प्रकार इस्लामें मुहम्मदी (स.) पूर्व के समस्त आसमानी धर्मों की सत्यता को भी प्रमाणित करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए बक़रा की आयत न. 136 में वर्णन होता है कि
“ क़ूलू आमन्ना बिल्लाहि व मा उन्ज़िला इलैना व मा उन्ज़िला इला इब्राहीमा व इस्माईला व इस्हाक़ा व यअक़ूबा वल अस्बाति वमा ऊतिया मूसा व ईसा वमा ऊतिया अन्नबीय्यूना मिन रब्बिहिम, ला नुफ़र्रिक़ु बैना अहादिम मिनहुम व नहनु लहू मुस्लिमूना।”
अनुवाद--- ऐ मुस्लमानों तुम उन से कहो कि हम अल्लाह पर और जो उसने हमारी ओर भेजा और जो इब्राहीम, इस्माईल, इस्हाक़, याक़ूब और याक़ूब की संतान की ओर भेजा गया ईमान ले आये हैं। और इसी प्रकार वह चीज़ जो मूसा व ईसा और अन्य नबीयों की ओर भेजी गयी इन सब पर भी ईमान ले आये हैं। हम नबीयों में भेद भाव नही करते और हम अल्लाह के सच्चे मुसलमान (अर्थात अल्लाह के सम्मुख समर्पण करने वाले) हैं।
इसी आधार वह लोग जिनको इस्लाम के वास्तविक मूल तत्वों के बारे में नही बताया गया या जिनको बताया गया परन्तु वह समझ नही सके, जिसके फल स्वरूप वह हक़ (इस्लाम) से दूर ही रहे इस्लामी दृष्टिकोण से क्षम्य हैं।
इस्लाम वह धर्म है जिसका वादा सभी आसमानी धर्मों ने किया
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए हज की 78वी आयत में अल्लाह ने कहा है कि “ व जाहिदू फ़िल्लाहि हक़्क़ा जिहादिहि, हुवा इजतबाकुम वमा जआला अलैकुम फ़िद्दीनि मिन हरजिन, मिल्लता अबीकुम इब्राहीमा हुवा सम्माकुमुल मुस्लिमीना मिन क़ब्लु व फ़ी हाज़ा लियकूनुर्रसूलु शहीदन अलैकुम व तकूनू शुहदाअ अलन्नासि, फ़अक़िमुस्सलाता व आतुज़्ज़काता व आतसिमु बिल्लाहि, हुवा मौलाकुम फ़ा नेमल मौला व नेमन्नसीर।”
अनुवाद--- और अल्लाह के बारे में इस तरह जिहाद करो जो जिहाद करने का हक़ है उसने तुम्हे चुना है और (तुम्हारे लिए) दीन में कोई सख्ती नही रखी है यही तुम्हारे दादा इब्राहीम का दीन है अल्लाह ने तुमको इस किताब में और इससे पहली (आसमानी) किताबों में मुसलमान के नाम से पुकारा है। ताकि रसूल तुम्हारे ऊपर गवाह रहे और और तुम लोगों के आमाल (अच्छे व बुरे काम) पर गवाह रहो अतः अब तुम नमाज़ स्थापरित करो और ज़कात दो और अल्लाह से सम्बन्धित हो जाओ वही तुम्हारा मौला(स्वामी) है और वही सबसे अच्छा मौला(स्वामी) और सहायक है।
दीने मुहम्मद इस्लाम के विशेष अर्थ में प्रयोग होता है।
इस्लाम अन्तिम धर्म के रूप
अर्थात इस्लाम अन्तिम आसमानी धर्म है जो हज़रत मुहम्मद स. के द्वारा समपूर्ण मानव जाती के लिए भेजा गया है। तथा इस्लाम का संविधान अनंतकाल तक अल्लाह पर ईमान, उसकी इबादत और उन समस्त चीज़ों को जो अल्लाह एक इंसान के जीवन में चाहता है दर्शाता रहेगा।
मानव जाति हज़रत मुहम्मद स. के पैगम्बर पद पर नियुक्ति के समय तक इतनी सक्षम व योग्य हो गया थी कि अल्लाह के पूर्ण दीन (इस्लाम) को ग्रहण कर सके और उसको अल्लाह के प्रतिनिधियों से समझ कर अनंतकाल तक अपना मार्ग दर्शक बनाये।
इस्लाम की शिक्षाऐं किसी विशेष स्थान या वर्ग विशेष के लिए नही हैं बल्कि इस्लाम क़ियामत (प्रलय) तक सम्पूर्ण मानव जाती के लिए मार्ग दर्शक है। क्योंकि इस्लाम ने मानव जीवन के समस्त संदर्भों पर ध्यान दिया है। अतः इस्लाम इतनी व्यापकता पाई जाती है कि मानव को समाजिक या व्यक्तिगत स्तर पर, भौतिक व आत्मिक विकास के लिए जिन चीज़ों की आवश्यक्ता होती हैं वह सब चीज़े इस में उपलब्ध है।
इस्लाम की शिक्षाऐं
इस्लाम की शिक्षाओं को इन तीन भागो में विभाजित किया जा सकता हैक- एतिक़ादाती (आस्था से सम्बंधित)
ख- अखलाक़ियाती (सदाचार से सम्बंधित)
ग- फ़िक़्ही (धर्म निर्देशों से सम्बंधित)
इमाम सादिक़ अलैहिस्सलाम कहते हैं कि नबी ने कहा है कि ज्ञान केवल तीन हैं आयाते मुहकिमह (आस्थिक), फ़रिज़ाए आदिलह (सदाचारिक) और सुन्नतुन क़ाइमह(फ़िक़्ह = धार्मिक निर्देश)
[उसूले काफ़ी 1/32]
“ एतिक़ादात” (धार्मिक आस्थाऐं) धर्म के मूल भूत तत्वों और अन्य शिक्षाओं का आधार हैं। इस्लाम धर्म की आस्थाऐं भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह तौहीद नबूवत व मआद हैं।
क- तौहीद अर्थात अद्वैतवाद या एक इश्वरवादिता में विश्वास
ख- नबूवत अर्थात अल्लाह द्वारा भेजे गये नबीयों(प्रतिनिधियों) पर विश्वास
ग- मआद अर्थात इस संसार के जीवन की समाप्ति के बाद परलोकिय जीवन पर विशवास।
क- तौहीद (अद्वैतवाद या एक इश्वरवाद)
यह धर्म की आधारिक शिक्षा है यह अल्लाह के एक होने पर ईमान के बाद अल्लाह की पूर्ण रूप से इबादत के साथ पूरी होती है। इस्लाम ने मानव की उतपत्ति का मुख्य उद्देश केवल इबादत को ही माना है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए ज़ारियात की आयत न. 56 में वर्णन हुआ कि “मा ख़लक़्तुल जिन्ना वल इंसा इल्ला लियअबुदूना।”
अनुवाद --मैंने जिन्नों और इंसानों को केवल इबादत के लिए पैदा किया है। अर्थात मानव की उतपत्ति का उद्देश्य केवल इबादत है।
इस्लाम केवल उतपत्ति में ही अद्वैतवाद[1] का ही समर्थक नही है बल्कि रबूबियत तकवीनी[2] और रबूबियत तशरीई[3] मे भी अद्वैतवाद का समर्थक है।
अल्लाह की रबूबियते तशरीई के काऱण नबूवत की आवश्यक्ता पड़ती है क्योंकि संचालन का कार्य आदेशों व निर्देशों के बिना नही हो सकता और इन आदेशों व निर्देशो को इंसानों तक पहुँचाने के लिए प्रतिनिधि की आवश्यक्ता है। इस्लाम में इन्ही प्रतिनिधियों को नबी (पैगम्बर) कहा जाता है।
ख- नबूवत
अर्थात उन नबियों के अस्तित्व पर विश्वास रखना जो “वही” व इलहाम के द्वारा इंसानों के लिए अल्लाह से संदेश पाते हैं। यहाँ पर “वही” से तात्पर्य वह संदेश है जो विशेष शब्दों के रूप में नबियों की ज़बान व दिल पर जारी (विद्यमान) होता है।
परन्तु नबियों पर “वही” व “इलहाम” शब्दों के बिना भी हुआ है। इस्लामी विधान में इस प्रकार के संदेशों (बिना शब्दों के प्राप्त होने वाले संदेशों ) को हदीसे क़ुदसी कहा जाता है।
हदीसे क़ुदसी अल्लाह का एक ऐसा संदेश है जो अल्लाह के शब्दों में प्राप्त न हो कर मानव को नबी के शब्दों में प्राप्त हुआ है। यह संदेश क़ुरान के विपरीत है क्योंकि क़ुरआन के शब्द व आश्य दोनों ही अल्लाह की ओर से है।
प्रत्येक धर्म में “वही” एक आधारिक तत्व है। और वह धर्म जिसके नबी पर की गयी “वही” बाद की उलट फेर से सुरक्षित रही वह धर्म “इस्लाम” है। तथा अल्लाह ने इस सम्बन्ध में प्रत्य़क्ष रूप से वादा किया है कि वह क़ुरआन के संदेश को सुरक्षित रखेगा। जैसे कि क़ुराने करीम के सूरए हिज्र की आयत न. 9 में वर्णन हुआ है कि
“इन्ना नहनु नज़्ज़लना अज़्ज़िक्रा व इन्ना लहु लहाफ़िज़ून”
अनुवाद-- हमने ही इस क़ुरान को नाज़िल किया है (आसमान से भेजा है) और हम ही इसकी रक्षा करने वाले हैं।
इतिहास भी इस बात का साक्षी है कि क़ुरआन में कोई फेर बदल नही हुई है। और इसी प्रकार हदीसें भी इस विषय पर प्रकाश डालती हैं।
वर्णन योग्य बात यह है कि इस्लाम भी अन्य आसमानी धर्मों की तरह(उन धर्मों को छोड़ कर जिनमें फेर बदल कर दी गयी है) नबीयों को मासूम मानता है। और “वही” को इंसानों तक पहुँचाने के सम्बंध मे किसी भी प्रकार की त्रुटी का खण्डन करता है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए नज्म की आयत न. 3 और 4 में वर्णन होता है कि
“व मा यनतिक़ु अनिल हवा इन हुवा इल्ला वहीयुन यूहा।”
अनुवाद--वह (नबी) अपनी मर्ज़ी से कोई बात नही कहता वह जो भी कहता है वह “वही” होती है।
क़ुरआन एक आसमानी किताब है और इसमें वह सब चीज़े मौजूद हैं जिनका इस्लाम वर्णन करता है। इस किताब में उन चीज़ों का भी वर्णन है जो इस समय मौजूद हैं और उन चीज़ों का भी वर्णन है जो भविषय में पैदा होंगी। परन्तु मानव के कल्याण के लिए आवश्यक है उन समस्त चीज़ो के बारे में ज्ञान प्राप्त करे जो वर्तमान में मौजूद हैं या जो भविषय में पैदा होंगी।
क़ुरआन जिन चीज़ों का वर्णन करता है उनके सम्बंध में कभी एक शिक्षक के रूप मे शिक्षा देता है और जो मानव नही जानते उनको सिखाता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए निसा की आयत न. 113 में वर्णन हुआ है कि-
“ व अनज़लल्लाहु अलैकल किताबा वल हिकमता व अल्लमका मा लम तकुन तअलम, व काना फ़ज़लुल्लाहि अलैका अज़ीमन। ”
अनुवाद--- अल्लाह ने आप पर किताब व हिकमत (बुद्धिमत्ता) को उतारा और आप जिन चीज़ों के बारे में नही जानते थे उन सब का ज्ञान प्रदान किया। और आप पर अल्लाह की बहुत बड़ी अनुकम्पा है।
और कभी एक सचेत करने वाले के रूप में मानव की प्रकृति में छिपी हुई चीज़ों को मानव के सम्मुख प्रस्तुत करता है, और उसको निश्चेतना से बाहर निकालता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अंबिया की आयत न. 10 मे वर्णन होता है कि--
“लक़द अनज़लना इलैकुम किताबन फ़ीहि ज़िक्रु कुम, अफ़ला तअक़िलून।”
अनुवाद-- हमने तुम्हारी ओर एक किताब भेजी जिसमें तुम्हारे लिए चेतना है, क्या तुम इतनी भी अक़्ल नही रखते।
मनुष्यों की आत्मा की शुद्धि व प्रशिक्षण भी नबियों की एक ज़िम्मेदारी है। और यह भी “वही” से ही सम्बंधित है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलबक़रा की आयत न. 151 में वर्णन हुआ है कि “कमा अरसलना फ़ीकुम रसूलन मिनकुम यतलू अलैकुम आयातिना व युज़क्किकुम व युअल्लिमुकुमुल किताबा वल हिकमता व युअल्लिमुकुम मा लम तकुनू तअलमून।”
अनुवाद--जिस तरह हमने तुम्हारे पास तुम्ही में से एक पैगम्बर भेजा जो तुम्हारे सामने हमारी आयतों को पढ़ता है, तुम्हारी आत्माओं को पवित्र करता है और तुमको किताब व हिकमत (बुद्धि मत्ता) की शिक्षा देता है और वह सब कुछ बताता है जो तुम नही जानते।
शायद इंसानों के दिलों में संतोष पैदा करना भी आत्मा के प्रशिक्षण के अन्तर्गत ही आता है जैसे कि क़ुरआने करीम ने इस ओर संकेत भी किया है। क़ुरआने करीम के सूरए अलहूद की आयत न.120 में वर्णन होता है कि—
“व कुल्लन नक़ुस्सु अलैका मिन अम्बाइर्रुसुलि मा तुसब्बितु बिहि फ़ुआदका।”
अनुवाद--और हम आप के (सामने) पराचीन रसूलों की घटनाओं का वर्णन कर रहे हैं ताकि तुम्हारे दिल में संतोष पैदा हो जाये।
शिक्षा व सचेत करने के अन्तर्गत ज्ञान के तीनों क्षेत्रों अक़ाईद (आस्था) अख़लाक़ (सदाचार) फ़िक़्ह (धर्म निर्देश) आ जाते हैं। और मानव इन तीनो क्षेत्रों में ही अल्लाह की अनुकम्पा का इच्छुक है।
अल्लाह स्वयं भी इंसान का आदर करता है और इसके आदर का आग्रह भी करता है। जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलइसरा की आयत न. 70 में वर्णन होता है कि“ लक़द कर्रमना बनी आदमा व हमलनाहुम फ़िल बर्रि वल बहरि व रज़क़नाहुम मिनत्तय्यिबाति व फ़ज़्ज़लनाहुम अला कसीरिम मिम मन ख़लक़ना तफ़ज़ीलन।”
अनुवाद-- और हम ने मानव जाती को को आदर प्रदान किया और उनको पानी व पृथ्वी पर चलने के लिए सवारियाँ तथा पवित्र भोजन प्रदान किया और बहुतसे प्राणी वर्गों पर उनको वरीयता दी।
यह सब उन गुणों के कारण है जो मानव की रचना में छिपे हुए हैं। और इन गुणों में सर्व श्रेष्ठ गुण यह है कि मानव में संसार की वास्तविकता को समझने और परखने की शक्ति पायी जाती है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलक़ की आयत न. 1-5 में वर्णन हुआ है कि “इक़रा बिस्मि रब्बिका अल्लज़ी ख़लक़ * ख़लाक़ल इंसाना मिन अलक़ *इक़रा व रब्बुकल अकरम * अल्लज़ी अल्लमा बिल क़लम * अल्लमल इंसाना मा लम याअलम।”
अनुवाद-- उस अल्लाह का नाम ले कर पढ़ो जिसने पैदा किया। उसने इंसान को जमे हुए ख़ून से पैदा किया। पढ़ो और तुम्हारा पालने वाला (अल्लाह) बहुत करीम (दयालु) है। जिसने क़लम (लेखनी) के द्वारा शिक्षा दी। और इंसान को वह सब कुछ बता दिया जो वह नही जानता था।
परन्तु यह सब होते हुए भी इंसान अल्लाह की सहायता का इच्छुक है। ताकि मूर्खता व घमंड की खाई में न गिर सके। अल्लाह ने इंसान की प्रधानता से सम्बंधित क़ुरआन की उपरोक्त वर्णित आयात का वर्णन करने फौरन बाद कहा कि—
“कल्ला इन्नल इंसाना लयतग़ा * अन राहु इसतग़ना * ”
अनुवाद-- निःसन्देह इंसान सरकशी करता है। वह अपने बारे में यह विचार रखता है कि उसे किसी चीज़ की आवश्यक्ता नही है।
बाद में वर्णित यह दोनों आयते इंसान की कमज़ोरी की ओर संकेत करती है। और क़ुरआने करीम की अन्य आयतें इंसान के सम्बंध में इस प्रकार वर्णन करती हैं।
“ इन्नहु काना ज़लूमन जहूलान ” (सूरए अहज़ाब आयत न.72)
अनुवाद--वह बहुत ज़ालिम व जाहिल था।
“ इन्नल इंसाना लज़लूमुन कफ़्फ़ारुन”(सूरए अल इब्राहीम आयत न.34)
अनुवाद--इंसान ज़ालिम व शुक्र न करने वाला है।
“ काना अल इंसानु अजूलन” (सूरए अल असरा आयत न. 11)
अनुवाद-- इंसान बहुत जल्दबाज़ था।
“ व ख़ुलिक़ल इंसानु ज़ईफ़न” (सूरए अन्निसा आयत न.28)
अनुवाद--इंसान को कमज़ोर पैदा किया गया है।
“ इन्नल इंसाना ख़ुलिक़ा हलूअन” (सूरए अल मआरिज आयत न. 19)
अनुवाद--निःसन्देह इंसान को लालची पैदा किया गया है।
इंसान की कमज़ोरियाँ
पूर्ण रूप से संसार की वास्तविक्ता को जानने में इंसान के सम्मुख जहाँ एक ओर अक़ले नज़री[4] व अक़्ले अमली[5] की कमज़ोरियाँ व्याप्त हैं वही दूसरी ओर रूह(आत्मा) की कमज़ोरियाँ उसे घेरे है। जिन के कारण--
1- वह सूक्ष्मता के साथ यह नही जानता कि उसकी भलाई किन चीज़ों में है।
2- वह अपने अन्दर पाये जाने वाले एहसास पर पूर्ण रूप से विश्वास नही कर सकता।
उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि इंसान को “वही” की आवश्यक्ता है। और “वही” दो प्रकार से इंसान की सहायता करती है।
1- धर्म शिक्षा के द्वारा।
2- इंसाने कामिल[6] प्रस्तुत करके।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अहज़ाब की आयत न. 21 में वर्णन हुआ है कि “ लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवतुन हसनतुन”अनुवाद--- निः सन्देह रसूल का जीवन तुम्हारे लिए एक आदर्श था।
ग- मआद अर्थात इन बातों पर विश्वास होना कि ---
1- इंसान का जीवन केवल इस संसार तक सीमित नही है। बल्कि क़ियामत(प्रलय) के दिन समस्त इंसान फिर से जीवित किये जायेंगे। और कभी न समाप्त होने वाले अपने नये जीवन को प्रारम्भ करेंगे।
पैगम्बर स. ने कहा है कि “ मा ख़ुलिक़तुम लिल फ़नाए बल ख़ुलिक़तुम लिल बक़ाए व इन्नमा तनक़ुलूना मिन दारिन इला दारिन।”(बिहार उल अनवार6/249)
अनुवाद---तुमको विनाश के लिए नही बल्कि सदैव बाक़ी रखने के लिए पैदा किया गया है। बस मृत्यु के द्वारा एक घर से दूसरे घर में परिवर्तित हो जाते हो।
बल्कि इस्लामी शिक्षाओं में संसार व परलोक के अलावा एक बरज़ख[7] नामक जीवन का भी वर्णन हुआ है जो कि संसार व परलोक के मध्य का जीवन काल है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अलमुमिनून की आयत न. 100 मे वर्णन हुआ है कि--
“व मिन वराइहिम बरज़ख़ुन इला यौमिन युबअसूना। ”
अनुवाद—और इसके बाद बरज़ख़ है जो क़ियामत के दिन तक रहेगा।
इस आधार पर इंसान का जीवन जन्म से शुरू हो कर निरन्तर चलता रहता है।
2- संसार परलोक की खेती है।
क्योंकि पैगम्बरे इस्लाम स. ने कहा है कि “अद्दुनिया मज़रअतुन आख़िरति।”
अनुवाद --- संसार परलोक की खेती है।
(अवालियुल लआली 1/267)
“मआद”जिसका सभी धर्म वर्णन करते हैं, वह इस बात को उजागर करती है कि इंसान का परलोकीय जीवन इस संसार के कार्यों पर आधारित है। यह संसार एक ऐसा स्थान है जहाँ पर इंसान अपने जीवन के मार्ग को स्वयं अपनी मर्ज़ी से चुनता है। इंसान इस संसार में अल्लाह द्वारा प्रदान किये गये अक़्ल व “वही” के पैमाने पर परख कर पवित्रता या अपवित्रता के आधार पर दिल से जिस मार्ग को चुनता है, वह मार्ग इस बात को निश्चित करता है कि उसका परलोकीय जीवन किस प्रकार का होगा।
अमीरूल मोमिनीन अ. ने कहा कि “इन्ना अलल्लाहा जअलद्दुनिया दारा अलआमालि व जअला अल आखिरता दारा अलजज़ाइ वल क़रारि।”
अनुवाद—अल्लाह ने संसार को अमल (कार्य करने) के लिए बनाया और परलोक को उन कार्यों का फल तथा अमरता प्रदान करने के लिए बनाया।
(बिहारूल अनवार32/46)
बल्कि परलोकीय जीवन इंसान के संसारिक कार्यों का ही रूप है। या (यह कहा जा सकता है कि परलोकीय जीवन में इंसान के कार्य वास्तविकता का रूप धारण कर लेंगे।)
क़ुरआने करीम के सूरए ज़लज़ला की आयत न. 7-8 में कहा गया है कि---
“फ़मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन खैरन यरहु व मन यअमल मिस्क़ाला ज़र्रतिन शर्रन यरहु।”
अनुवाद-- जिस ने एक कण के बराबर भी कोई अच्छाई की वह उस अच्छाई को देखेगा और जिसने एक कण के बराबर कोई बुराई की है वह उस बुराई को देखेगा।
परन्तु अल्लाह की अनुकम्पा व दया इंसान के अच्छे कार्यों को उसका दस गुना करके दिखा सकती है।
जैसे कि क़ुरआने करीम के सूरए अल अनाम की आयत न. 160 में वर्णन होता है कि---
“मन जाआ बिल हसनति फ़लहु अशरु अमसालिहा।”
अनुवाद-- जो अच्छा कार्य करेगा उसको उस कार्य का दस गुना फल मिलेगा।
संसार की एकता व उद्देश्यपूर्णता बुद्धिमत्ता पर आधारित
आसमानी धर्मों के “तौहीदी दृष्टिकोण” के अनुसार यह संसार एक इरादे से उतपन्न हुआ है और उसी के द्वारा संचालित हो रहा है। उस (अल्लाह) के इरादे से जो ज्ञानी, बुद्धिमान, सत्य व भलाई चाहने वाला है। इसी आधार पर इस संसार के समस्त अंशों में एकता विद्यमान है। इसी एकता के अनुकरण के कारण इस संसार का कोई भी अंश अल्लाह से सम्बंध स्थापित किये बिना इस संसार के अन्य अंशों को नही जान सकता। और क्योंकि इस संसार में एक अख़लाक़ी निज़ाम[8](व्यवस्था) व्याप्त है। अतः इंसान के अच्छे व बुरे कार्य उसके संसारिक व परलोकीय जीवन पर प्रभाव डालते हैं।
संसार पर बुद्धिमत्ता पूर्ण एकता का अधिपत्य
इस्लाम मे इस बात की ओर विशेष रूप से ध्यान को आकर्षित करा गया है। और इसी कारण इंसान के आध्यात्मिक जीवन के सुधार के लिए जो नीतियाँ बनाई गयीं है। उन में इस बात को ध्यान में रखा गया है कि यह नितियाँ आध्यात्मिक जीवन के साथ-साथ समाजिक व व्यक्तिगत स्तर पर मानव के भौतिक जीवन के विकास में भी सहायक हो। अतः वह प्रत्येक आदेश जो इंसान के भौतिक जीवन के किसी अंश के सम्बन्ध में जारी होता है वह आस्था के मूल तत्वों, सदाचार व आध्यात्मिकता से परिपूर्ण होता है। और यह अल्लाह की एक सुन्नत[9] है।
शिया मज़हब (सम्प्रदाय)
इस्लाम धर्म की उतपत्ति अरब के हिजाज़ प्रान्त के मक्के नामक शहर में हुई। और इस धर्म के प्रवर्तक हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा (स.) हैं। मक्का वह पवित्र शहर है जिसमें हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम ने अल्लाह की इबादत के लिए “काबे” नामक एक विशाल इबादत गाह का निर्माण किया था। हज़रत मुहम्द स. हिजाज़ के विश्व विख्यात व शक्तिशाली कबिले “क़ुरैश” से सम्बन्धित थे। और क़ुरैश क़बीले में आपका परिवार “बनी हाशिम” के नाम से पहचाना जाता था जो अपने सद्व्यवहार के लिए प्रसिद्ध था।
सन् 610 ई. में हज़रत मुहम्मद स. ने पैगम्बरी के पद को ग्रहण किया। और इसी के साथ इस्लाम प्रचार का कार्य आरम्भ हो गया। प्रारम्भ में तो हज़रत मुहम्मद स. ने केवल अपने परिवार व क़बीले से ही इस्लाम धर्म को स्वीकार करने की याचना की। परन्तु बाद में इस्लाम प्रचार ने विस्तृत रूप धारण कर लिया। और सार्वजनिक स्तर पर लोगों को इस्लाम की ओर बुलाया जाने लगा। हज़रत मुहम्मद (स). की नबूवत का सबसे अधिक विरोध क़ुरैश के उन लोगों ने किया जो बनी हाशिम से ईर्श्या रखते थे और यह विरोध इतना अधिक था कि इसके प्रभाव बाद में भी शेष रहे।
इस्लाम धर्म 13 वर्ष की समय सीमा में मक्के में धीरे धीरे विकसित होता रहा। और जब क़ुरैश व उनके समर्थकों की शत्रुता के कारण पैगम्बर ने मक्के से मदीने की ओर हिजरत[10] की तो इस विकास में और भी अधिक तीव्रता आ गयी । और अन्त में पैगम्बर (स.) व उनके साथियों के 23 वर्षीय निरन्तर प्रयास के फल स्वरूप पूरे अरब वासियों ने इस्लाम धर्म को स्वीकार कर लिया और मुसलमान हो गये।
इसी समय सीमा में “शियायाने अली” नामक एक विचारधारा का उद्य हुआ। शिया व सुन्नी दोनो सम्प्रदायों ने पैगम्बर (स.) की बहुतसी ऐसी हदीसों का वर्णन किया है जिनसे यह ज्ञात होता है कि उस समय इस विचार धारा को मान्यता प्राप्त थी। जैसे---
इब्ने असाकिर ने एक रिवायत में जाबिर इब्ने अब्दुल्लाह के इस कथन का उल्लेख किया है कि “कुन्ना इन्दा रसूलिल्लाह (स.) फ़अक़बला अलीयुन (अ.) फ़क़ालन नबीय्यु (स.) वल्लज़ी नफ़्सी बियदिहि ! इन्ना हाज़ा व शियतहु लहुम फ़ाइज़ूना यौमल क़ियामति व नज़लत “इन्ना अल लज़ीना आमिनू व अमिलुस्सालिहाति उलाइका हुम ख़ैरुल बरिय्याति” फ़काना असहाबुन्नबिय्यि (स.) इज़ा अक़बला अलीयुन क़ालू जाआ खैरुल बरिय्याति।”
अनुवाद-- जाबिर कहते हैं कि हम नबी (स.) के पास बैठे हुए थे कि हज़रत अली अलैहिस्सलाम आये और नबी (स.) ने कहा कि “मैं उसकी सौगन्ध खाकर कहता हूँ कि जिसके अधिकार में मेरी जान है कि क़ियामत के दिन यह (अली अ.) और इनके शिया सफ़ल होने वाले हैं। उस समय यह आयत नाज़िल हुई कि- निःसन्देह जो लोग ईमान लाये और उन्होंने अच्छे कार्य किये वह सब खैरि बरिय्यह हैं। इसके बाद से अली (अ.) जब भी असहाब के किसी समूह के पास जाते थे तो असहाब कहते थे कि खैरुल बरिय्यह आगये हैं।”
(दुर्रे मनसूर 6/589 दारुल फ़िक्र द्वारा प्रकाशित)[11]
इतिहास ने पैगम्बर (स.) के बहुतसे ऐसे साथियों का वर्णन किया है जिनको शियायाने अली (अ.) के रूप में जाना जाता था जैसे –अब्दुल्लाह इब्ने अब्बास, फ़ज़्ल बिन अब्बास, क़सम बिन अब्बास, अक़ील बिन अबी तालिब, सलमाने फ़ारसी, मिक़दाद, अबुज़र, अम्मारि यासिर, अबुअय्यूब अन्सारी, उबई बिन कअब, सअद इब्ने इबादह, मुहम्मद बिन अबि बक्र इत्यादि इसी समूह में आते हैं।
(इस सम्बन्ध में असदुल ग़ाब्बत[12], अल इस्तियाब[13], अल असाबा[14] सुन्नी सम्प्रदाय की किताबें व दरजातुर्रफ़िय्यह, असलुश्शियत व उसूलुहा, फ़सूलुल मुहिम्मह शिया सम्प्रदाय की किताबें हैं।)
इस विचार धारा की उतपत्ति का कारण यह था कि एक ओर तो अपनी धार्मिक विशेषताओं के कारण हज़रत अली अलैहिस्सलाम को पैगम्बर (स.) के समीप विशिष्ठ स्थान प्राप्त था। तथा दूसरी ओर पैगम्बर (स.) ने हज़रत अली (अ.) को अपना उत्तराधिकारी बनाने की वसीयतें की थी।
परन्तु क़ुरैश के वह व्यक्ति जो बनी हाशिम से पुराने समय से ईर्श्या रखते थे। उनको यह बात स्वीकारीय नही थी और बहुत से अवसरों पर उनके द्वारा अली (अ.) का विरोध करने से यह बात पैगम्बर (स.) के जीवन में ही व्यक्त हो चुकी थी। पैगम्बर ने अली (अ.) के साथ क़ुरैश के व्यवहार की कई बार भर्त्सना भी की। जैसे---
यमन के धर्म युद्ध के अवसर पर पैगम्बर (स.) के साथियों के एक गिरोह (ख़ालिद पुत्र वलीद व उसके मित्र) अली (अ.) के सेनानेतृत्व के मामले को लेतकर पैगम्बर की सेवा में पहुँचा। पहले तो पैगम्बर ने उनकी बात पर कोई ध्यान नही दिया परन्तु जब उन्होने इस बात को कई बार दोहराया तो पैगम्बर उन पर क्रोधित हो गये और कहा कि “ मा तुरीदूना मिन अली ? ”अर्थात तुम लोग अली के सम्बन्ध में क्या विचार रखते हो? और इसके फ़ौरन बाद कहा कि “इन्ना अलीयन मिन्नी व अना मिन्हु व हुवा वलियुन कुल्लि मुमिनिन बअदी।”
अनुवाद-- निःसन्देह अली मुझ से है और मैं अली से हूँ । और वह मेरे बाद समस्त मोमिनों के मौला हैं।
(मुसनदे अहमद [15] 4/438 व सही तिरमिज़ी [16] 5/296)
इन विरोधों का लाभ यह हुआ कि बहुत से लोगों लगाव हज़रत अली (अ.) की ओर होगा। जैसे कि दूसरे खलीफ़ा ने इस सम्बन्ध में गवाही भी दी है, जब उन्होनें इब्ने अब्बास से कहा कि ऐ अब्बास के पुत्र ! क्या तुम जानते हो कि वह क्या बात थी जिसके कारण पैगम्बर के बाद तुम्हारी बैअत नही हुई ? वह यह पसंद नही करते थे कि तुम लोग नबूवत की तरह खिलाफ़त को भी अपने पास रखो और अपनी क़ौम पर प्रभाव जमाओ। अतः क़ुरैश ने खिलाफ़त पर अपना अधिकार जमा लिया और यह एक सफ़ल व अच्छा कार्य था।
इसके बाद उमर ने कहा कि “मैंनें सुना है कि तुम यह कहते हो कि ख़िलाफ़त को हम से ईर्श्या के कारण बलपूर्वक छीन लिया गया। ”
इब्ने अब्बास ने उत्तर दिया कि “तुमने जो यह कहा है कि बलपूर्वक छीन लिया गया इसमें कोई सन्देह नही है इसको तो आलिम व जाहिल हर व्यक्ति जानता है। और तुमने यह जो कहा है कि यह ईर्श्या के कारण था तो यह बात सही है क्योंकि तुम जानते हो कि आदम से ईर्श्या की गई और हम उसी आदम के पुत्र हैं जिनसे ईर्श्या की गई थी।”
( अल कामिल फ़ित्तारीख़,[17] 3/24शरहे इब्ने अबिल हदीद[18] 3/107 तारीख़े बग़दाद[19] 2/97)
उपरोक्त वर्णित उमर की इस बात चीत का वर्णन याक़ूबी ने भी किया है और उसने यह भी लिखा है कि अन्त में उमर ने कहा कि “ ऐ इब्ने अब्बास!अल्लाह की क़सम आपके चचा के पुत्र अली खिलाफ़त पद के लिए सबसे अच्छे व्यक्ति हैं। परन्तु क़ुरैश तो उनको देखना भी पसंद नही करते।”
(मरूजुज़्ज़हब[20] 2/137)
हिजाज़ (अरब) की वह भूमी जहाँ पर क़बीला प्रथा का अधिपत्य था, पैगम्बर के सम्मुख इस प्रकार की ईर्श्या व विरोध का पाया जाना कोई आश्चर्य जनक बात नही है।
शिया मज़हब की वास्तविकता
शिया 12 व्यक्तियों की इमामत में विश्वास रखते हैं जिनमें पहले इमाम हज़रत अली (अ.) हैं, और शेष 11 इमाम पैगम्बर की संतान से हैं। और शियों का विशवास है कि बारहवे इमाम जीवित हैं और परोक्ष रूप से जीवन यापन कर रहे हैं।
शिया सम्प्रदाय विशेष रूप से दो बातों पर बल देता है।
1- ज्ञान के क्षेत्र में अहलिबैत[21]के संरक्षण (विलायत) को आवश्यक मानता है
और यह पैगम्बर (स.) की बहुत सी हदीसों से सिद्ध है।
आयते ततहीर- “इन्नमा युरीदुल्लाहु लियुज़हिबा अनकुमुर्रिजसा अहला अलबैति व युताह्हिरा कुम ततहीरन।”
अनुवाद-- ऐ अहलिबैत बस अल्लाह का इरादा यह है कि तुम से हर प्रकार की बुराई को दूर रखे और तुम को इस तरह पवित्र रखे जो पवित्र रखने का हक़ है।
(सूरए अहज़ाब आयत न. 33)
शिया व सुन्नी दोनों सम्प्रदायों की हदीसों से सिद्ध है कि यह आयत पैगम्बर (स.) के अहलिबैत के सम्बन्ध में नाज़िल हुई है।
हदीसे सक़लैन- क़ालन नबी (स.) या अय्युहन्नासु इन्नी तारिकुन फ़ीकुम मा इन अख़ज़्तुम बिहि लन तज़िल्लू –किताबल्लाहि व इतरती अहला बैती।
अनुवाद--ऐ लोगो मैं तुम्हारे मध्य दो चीज़े छोड़ कर जा रहा हूँ एक अल्लाह की किताब दूसरे मेरे अहलिबैत अगर तुम इन दोनों से सम्बन्धित रहे तो कभी भी भटक नही सकते।
(कनज़ुल उम्माल 1/44, मुसनदे अहमद5/ 17,26, मुस्तदरके हाकिम[22] 3/109,148 थोड़े से फ़र्क़ के साथ)
हदीसे सफ़ीनेह-क़ालन नबी (स.) “अला इन्नः मस्ला अहलुबैती फ़ीकुम मिस्लु सफ़ीनति नूह मन रकिबाहा नजा व मन तख़ल्लफ़ा अन्हा ग़रक़ा।”
अनुवाद-- पैगम्बर (स.) ने कहा कि जानलो कि निः सन्देह मेरे अहलिबैत तुम्हारे बीच नूह की किश्ती के समान हैं। जो इस पर सवार होगा वह मुक्ति प्राप्त करेगा और जो इस पर सवार नही होगा वह डूब जायेगा।
(मुस्तदरक 3/151)
यह और इनके जैसी अन्य बहुतसी हदीसें, और बहुतसी वह हदीसें जिनका वर्णन क़ुरआन की आयतों की तफ्सीर (व्याख्या) के लिए किया गया इस बात को सिद्ध करती हैं कि पैगम्बर के अहलिबैत इंसानों के लिए हुज्जत हैं। और धर्मिक व्याख्यानों के अनुसार वह मासूम भी हैं। मासूम अर्थात वह व्यक्ति जिससे किसी भी स्थिति में किसी भी प्रकार की कोई ग़लती न हो।
शिया मज़हब पैगम्बर (स.) के अहलिबैत के स्थान की महत्ता के विश्वास में विशेष स्थान रखता है। और वह इस लिए कि शिया मज़हब ही केवल वह मज़हब है जो आइम्माए अतहार (अ.) की विलायत और हिदायत में विश्वास रखता है। और जिसने इस्लामी अहकाम (निर्देशों) का वर्णन करके और समय व स्थान की आवश्यक्ता अनुसार उनको निरन्तर अनुकूलता बनाए रखकर और इसी प्रकार इमामों को हर समय में एक इंसाने कामिल के रूप में प्रस्तुत करके अल्लाह व इंसानों के बीच अल्लाह की हिदायत के सम्बन्ध को सदैव सुरक्षित रखा है। और अल्लाह की विलायत को हमेशा मौजूद माना है।
अन्य धर्मों व इस्लाम के दूसरे मज़हबों में इस (इमामत) आस्था व विश्वास के न होने के कारण उन धर्मो या मज़हबो ने जीवन के बहुतसे क्षेत्रों पर रौशनी नही डाली है। और इन मज़ाहबों में ऐसे मार्ग दर्शकों के अभाव में जिन पर “वही” आती हो सम्स्याओं के समाधान हेतू स्वंय विचार विमर्श करना पड़ा है। और इतिहास इस बात का साक्षी है कि इंसान ने जब भी “वही” को छोड़ कर अपनी समस्याओं का समाधान करना चाहा वह सामाजिक बिखराओ व पथभ्रष्टिता का कारण बना और बर्बादी के अलावा कुछ भी हाथ नही आया। हमारे लिए यही अधिक है कि वर्तमान समय में हम संसार को सबक़ लेने की दृष्टि से देखें। सिर्फ़ शिया मज़हब ही वह मजहब है जो आइम्मा-ए-मासूमीन से सम्बन्धित होने के कारण निरन्तर “वही” के द्वारा अपनी समस्याओं का समाधान करता रहा है।
हमें धर्म के सम्बन्ध में पैगम्बर (स.) के मासूम अहलिबैत की लाखों हदीसें (पवित्र कथन) प्राप्त हुई हैं। और शियों के होज़े इल्मिया(धार्मिक शिक्षण केन्द्र) कि जिनका शिलान्यास अहलिबैत (अ.) के हाथों से हुआ 1300 वर्ष से निरन्तर इन हदीसों के प्रसार, गहरे अध्ययन और प्रकाशन में व्यस्त है।
2- अहलिबैत के सियासी संरक्षण (विलायत) को आवश्यक मानता है।
शिया मज़हब की यह अवधारणा है कि पैगम्बर (स.) ने खिलाफ़त व इस्लामी समाज की इमामत बिना किसी अन्तर के हज़रत अली (अ.) और उनके बाद उनके 11 मासूम बेटों की ओर हस्तान्त्रित की है। और यह मूर्खता पूर्ण ईर्श्या का फल था कि खिलाफ़त ने दूसरा रंग ले लिया और दीने इस्लाम की खिलाफ़त वास्तविक ख़लीफ़ा के हाथों में न जा सकी।
इस दावे को पैगम्बर (स.) का एक कथन सिद्ध करता है जो कि अल्लाह के आदेश से कहा गया है।
हदीसे मंज़िलत
मुहम्मद इस्माईल बुख़ारी ने अपनी किताब सही बुखारी में पैगम्बर (स.) की इस हदीस का वर्णन किया है कि “इन्ना रसूलल्लाह (स.) ख़रजा इला ग़ज़वति तबूकिन व ख़रजा अन्नासु मअहु फ़क़ाला लहु अलीयुन अख़रजु मअक ? फ़क़ाला ला फ़बका अलीयुन फ़क़ाला लहु रसूलुल्लाहि (स.) अमा तरज़ा अन तकूनु मिन्नी बिमनज़लति हारूना मिन मूसा इल्ला इन्नहु ला नबीया बअदी ? इन्नहु ला यमबग़ी अन यज़हबा इल्ला व अन्ता ख़लीफ़ती।”
अनुवाद—पैगम्बर (स.) तबूक नामक धर्म युद्ध के लिए निकले और उनके साथ अन्य लोग भी निकले , पैगम्बर (स.) से अली (अ.) ने कहा कि क्या मैं आपके साथ चलूँ ? पैगम्बर ने कहा कि नही। (यह सुनकर) अली अ. रोने लगे तब पैगम्बर(स.) ने अली (अ.) से कहा कि क्या तुम इस बात से राज़ी नही हो कि तुमको मेरे समीप वही स्थान प्राप्त है जो स्थान हारून को मूसा के समीप प्राप्त था, इसके अलावा कि मेरे बाद कोई नबी नही है। बस जिस तरह हारून मूसा के साथ नही गये और उनके ख़लीफ़ा बन कर रहे इसी प्रकार आप भी मेरे ख़लीफ़ा के रूप में यहाँ पर रहें।
(सही बुख़ारी [23] 5/ बाबि फ़ज़ाइलि असहाबुन्नबी 24/ बाबि मनाक़िबि अली , सही मुस्लिम[24] बाबि फ़ज़ाइलि अली 120,121)
हदीसे ग़दीर अहमद ने ज़ैद पुत्र अरक़म के हवाले से उल्लेख किया है कि उसने कहा कि “नज़लना माअर रसूलिल्लाह (स.) बिवादिन युक़ालु लहु वादियि ख़ुम, फ़अमरा बिस्सलाति फ़सल्लाहा बिहुजैर क़ाला फ़ख़तबना व ज़ल्ला लिरसूलिल्लाहि (स.) बिसूबिन अला शजरतिन समरतिन मिन अश्शम्सि फ़क़ाला अलस्तुम तअलमूना अवा लस्तुम तशहदूना अन्नी अवला बिकुल्लि मुमिनिन मिन नफ़सिहि ? क़ालू बला क़ाला फ़मन कुन्तु मौलाहु फ़अलीयुन मौलाहु अल्लाहुम्मा वालि मन वालाहु व आदि मन आदाहु।”
अनुवाद--हम रसुलूल्लाह के साथ एक स्थान पर पहुँचे जिसे ख़ुम कहा जाता था। रसूलुल्लाह (स.) ने नमाज़ पढ़ने का आदेश दिया और हमने गर्मी में नमाज़ पढ़ी । वह कहता है कि इसके बाद रसूल ने एक ख़ुत्बा (भाषण) दिया और रसूलुल्लाह को धूप से बचाने के लिए एक पेड़ पर कपड़ा डाल कर साया किया गया। बस रसूलुल्लाह ने कहा कि क्या तुम नही जानते क्या तुम गवाही देते हो कि मैं मोमिनीन पर उनसे ज़्यादा अधिकार रखता हूँ ?सबने उत्तर दिया कि हाँ (आप सब पर उनसे अधिक अधिकार रखते हैं) रसूल (स.) ने कहा कि जिस जिस का मैं मौला[25] हूँ उस उस के अली मौला हैं। ऐ अल्लाह तू उसको मित्र रख जो अली को मित्र रखे और तू उससे शत्रुता रख जो अली से शत्रुता रखे। (मुसनदे अहमद 4/372, सवाइक़ुल मुहर्रिक़ह [26] 43,44, मुस्तदरके हाकिम 3/109)
यह जानना आवश्यक है कि ग़दीरे ख़ुम की घटना आयते बलाग़ के नाज़िल होने के बाद घटित हुई। इस आयत में अल्लाह ने कहा है कि “या अय्युहर रसूलु बल्लिग़ मा उनज़िला इलैका मिन रब्बिका व इन लम तफ़अल फ़मा बल्लग़ता रिसालतहु वल्लाहु यअसिमुका मिन अन्नासि इन्ना अल्लाहा ला यहदि अल क़ौमल काफ़ीरीना।”
(सूरए माइदह आयत न.67)
अनुवाद -- ऐ पैगम्बर आप उस संदेश की घोषणा कर दीजिये जो आपके अल्लाह की ओर से आप पर उतारा जा चुका है। और यदि आपने ऐसा न किया तो यह इसके समान है कि आपने अपनी पैगम्बरी का कोई संदेश नही पहुँचाया।
और जब अली अलैहिस्सलाम की मौलाइयत की घोषणा कर दी तो आयते इकमाले दीन नाज़िल हुई जिसमें अल्लाह ने कहा कि “अल यौमा यइसल लज़ीना कफ़रू मिन दीनिकुम फ़ला तख़शव हुम व इख़शवनि अल यौमा अकमलतु लकुम दीनाकुम व अतमम्तु अलैकुम नेअमती व रज़ीतु लकुम अल इस्लामा दीनन।”
(सूरए माय़दह आयत 3)
अनुवाद -- आज के दिन काफ़िर तुम्हारे दीन से मायूस हो गये अतः तुम उनसे न डरो और मुझ से डरो। आज मैने तुम्हारे दीन का पूर्ण कर दिया, और अपनी नेअमतों को भी पूरा कर दिया। और तुम्हारे लिए इस्लाम धर्म को पसंदीदा बना दिया।
उपरोक्त वर्णन जो इतिहास, बुद्धि, आयत व सुन्नी सम्प्रदाय की रिवायतों के आधार पर हुआ है यह एक सारांश है। अपितु इस सम्बन्ध में बहुत अधिक साक्ष्य मौजूद हैं।
इस्लाम धर्म के सभी सम्प्रदाय इस सम्बन्ध में उलझे हुए कि यह कैसे सम्भव है कि पैगम्बर ने अपने बाद के लिए उम्मत की इमामत की समस्या को हल न किया हो, जबकि वह उम्मत की ओर से सदैव चिंतित रहते थे ?
यह एक छोटा सा संकेत कि “यह बात असम्भव है” इस बात के महत्व को बढ़ाता है कि पैगम्बर ने खलीफ़ा की नियुक्ति की है और उम्मत को बग़ैर इमाम के नही छोड़ा है।
उपरोक्त वर्णन से यह सिद्ध हो जाता है कि शियत वास्तव में एक ऐसी विचारधारा है जो अपने अन्दर निरन्तरा लिए हुए है और इसके मार्ग दर्शक पैगम्बर (स.) हैं। दूसरे शब्दों में शियत इस्लाम का एक ऐसा व्याख्यान है जो पैगम्बर द्वारा प्रशिक्षित लोगों (अहलिबैत) के द्वारा हम को प्राप्त हुआ है।
हज़रत अली अलैहिस्सलाम नें अपने शियों को लिखे गये एक पत्र में यह लिखा है कि “बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम मिन अब्दिल्लाहि अली अमीरिल मुमिनीन इला शीअतिहि मिनल मुमिनीना व हुवा इस्मुन शर्रफ़हु अल्लाहु फ़ी अल किताबि फ़इन्नहु यक़ूलु “व इन्ना मिन शीअतिहि लिइब्राहीमा ” व अन्तुम शीअतिन नबीय्यी मुहम्दिन... इस्मुन ग़ैरु मुख़तस्सिन व अमरुन ग़ैरु मुबतदइन।”
(मुस्तदरक नहजुल बलाग़ह2/29)
अर्थात मेरा अनुसरण पैगम्बर का अनुसरण है, क्योकि पैगम्बर ने मुझे अपना उत्तराधिकारी बनाया है। शिया शब्द केवल मेरे कुछ साथियों जैसे अबुज़र, मिक़दाद, सलमान व अम्मार से विशेष नही है। बल्कि यह शिया शब्द हर उस व्यक्ति पर सत्य आता है जो मुहम्मद (स.) और उनके उत्तराधिकारी पर ईमान रखता है।
सक़ीफ़ेह की घटना के कारण आइम्मा-ए अतहार (अहलिबैत) की विलायत प्रत्यक्ष रूप से क्रियान्वित न हो सकी। और अफ़सोस है कि क्योँकि बनी उमैय्यह व बनी अब्बास को यह भय था कि कहीँ ऐसा न हो कि अहले बैत का वर्चस्प स्थापित हो जाये इस लिए अहलिबैत की इल्मी मरजीअत की ओर से भी लापरवाही की गई। अर्थात ज्ञान के क्षेत्र में भी इनसे सम्पर्क स्थापित नही किया गया। यहाँ तक कि शियों के इमामों (पैगम्बर के अहलिबैत) ने एक प्रकार से अपना पूरा जीवन तक़िय्यह में व्यतीत किया और सब शहीद हुए।
आज शिया सम्प्रदाय की प्रार्थना यह है कि जैसे कि हम सब जानते हैं कि खिलाफ़त के मामले में जो कुछ भी हुआ, जैसे भी हुआ, वह आज समाप्त हो चुका है। अब यह चाहिए कि कम से कम अहलिबैत अलैहिमुस्सलाम की इल्मी मरजिअत को जीवित रखा जाये और उनके इल्म को प्रसारित किया जाये। हमारा विश्वास है कि इस्लामी समाज, बहुतसी समस्याओं से केवल इस लिए उन्मुख है क्योँकि वह अहलिबैत अलैहिमुस्सलाम के इल्म से वंचित है। अगर इस्लाम उस नक़्शे पर चलता जो पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने बनाया था तो आज पूरा संसार इस्लामी हिदायत (मार्ग दर्शन) से लाभान्वित हो रहा होता।
शिया मज़हब के इमाम
वह मासूम इमाम जो एक के बाद एक पैगम्बर (स.) के उत्तराधिकारी बनते रहे 12 हैं। और बारहवे इमाम अब तक जीवित हैं तथा परोक्ष रूप से जीवन यापन कर रहे हैं। जिस प्रकार हज़रत पैगम्बर (स.) ने हज़रत अली अलैहिस्सलाम को अपने बाद के लिए इमाम नियुक्त किया इसी प्रकार हज़रत अली (अ.) ने भी अपने बाद के लिए इमाम नियुक्त किया और यह प्रक्रिया आगे तक चलती रही अर्थात हर इमाम अपने से बाद वाले इमाम का परिचय कराता रहा।
इसके अलावा कुछ ऐसी रिवायतें (उल्लेख) मिलती हैं जिनमें पैगम्बर (स.) ने अपने बाद आने वाले इमामों की संख्या का वर्णन किया और कुछ रिवायतें ऐसी भी पायी जाती हैं जिनमें अपने बाद आने वाले इमामों के नाम भी स्पष्ट किये हैं। और उनकी इमामत के बारे में आग्रह भी किया है।
यहाँ पर सुन्नी सम्प्रदाय की किताबों से दो हदीसें उदाहरण स्वरूप प्रस्तुत की जा रही हैं।
1- बुख़ारी ने जाबिर पुत्र समुरह के हवाले से वर्णन किया है कि है “ समितु रसूलल्लाहि (स.) यक़ूलु –यकूनु इस्ना अशरा अमीरन फ़क़ाला कलिमतन लम् असमाहा फ़क़ाला अबी इन्नहु क़ाला कुल्लुहुम मिन क़ुरैशिन।”
(सही बुख़ारी 9/ किताबुल अहकाम /बाब 51बाबि उस्तिख़लाफ़)
अनुवाद-- जाबिर ने कहा कि मैनें पैगम्बर से सुना कि उनहोंने कहा कि [मेरे बाद]बारह इमाम होंगे और इसके बाद एक वाक्य और कहा जिसको मैं सुन नही सका। मेरे पिता ने कहा कि पैगम्बर ने कहा था कि वह सब इमाम क़ुरैश से होंगे।
2- तिरमिज़ी जाबिर की इस रिवायत का उल्लेख इस प्रकार करता है “क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) यकूनु मिन बअदी इस्ना अशरा अमीरन।”
(सही तिरमिज़ी 2/45)
अनुवाद -- जाबिर ने कहा कि पैगम्बर ने कहा कि मेरे बाद बारह इमाम होंगे।
और अहमद ने इस रिवायत का उल्लेख इस प्रकार किया है कि “यकूनु लिहाजिहिल उम्मति इस्ना अशरा ख़लीफ़तन।”
(मुसनदि अहमद 5/86-108)
अनुवाद--पैगम्बर ने कहा कि इस उम्मत के लिए बारह ख़लीफ़ा होंगे।
यह रिवायत और इसी जैसी अन्य रिवायतें विभिन्न रूपों में वर्णित हुई है। परन्तु प्रश्न यह है कि क्या बारह ख़लीफ़ा या इमाम शिया मज़हब के इमामों के अलावा किसी दूसरे मज़हब के इमामों पर भी चरितार्थ होते हैं ?
यनाबिउल मवद्दत नामक किताब में इस प्रकार वर्णन हुआ है कि “अन मुजाहिदिन अन इब्ने अब्बास रज़ियल्लाहु अनहुमा क़ाला क़दिमा यहूदी युक़ालु लहु नअसलुन क़ाला या मुहम्मद ! असअलुका अन अशयाआ तुलजलिजु फ़ी सदरी....... फ़क़ाला रसूलुल्लाहि (स.) इन्ना वसीय्यी अलीयुब्नु अबी तालिब व बाअदहु सिब्ताया अल हसनु वल हुसैनु ततलुहु तिसअता आइम्मता मिन सुलबि अलहुसैनि क़ाला या मुहम्मद ! फ़सम्मिहिम ली क़ालाइज़ मज़ल हुसैनु फ़इब्नहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अली फ़इब्नुहु मुहम्मदुन फ़इज़ा मज़ा मुहम्मदुन फ़इब्नुहु जअफ़रुन फ़इज़ा मज़ा जअफ़रुन फ़इब्नुहु मूसा फ़इज़ा मज़ा मूसा फ़इब्नुहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अली फ़इब्नुहु मुहम्मदुन फ़इज़ा मज़ा मुहम्मदुन इब्नुहु अलीयुन फ़इज़ा मज़ा अलीयुन इब्नुहु हसनु फ़इज़ा मज़ा हसनु फ़इब्नुहु मुहम्मदुन अलमहदी फ़हवलाइ इस्ना अशरा इला अन क़ाला व इन्ना अस्सानि अशरा मिन वुलदी यग़ीबु हत्ता ला युरा व याति अला उम्मति बिज़मनिन ला यबक़ा मिन अल इस्लामि इल्ला इस्मुहु व ला यबक़ा मिन अल क़ुरआनि इल्ला रस्मुहु फ़हीनाइज़िन याज़ुन अल्लाहु तबारका व तअला लहु बिल ख़ुरूजि फ़यज़हरु अल्लाहु अलइस्लामा बिहि व युजद्दिदुहु।”
अनुवाद-- मुजाहिद ने इब्ने अब्बास (रजियल्लाहु अनहुमा) से उल्लेख किया है कि उन्होंने कहा कि नासल नाम का एक यहूदी पैगम्बर (स.) के पास आया और कहा कि ऐ मुहम्मद कुछ प्रश्न हैं जो मेरे हृदय मे उथल पुथल मचाये हैं मैं चाहता हूँ कि उनके बारे मैं आपसे पूछूँ, (इसके बाद उसने कुछ प्रश्न किये और उनके उत्तर प्राप्त किये उन्हीं प्रश्नों में एक प्रश्न पैगम्बर के उत्तराधिकारी के बारे में भी था।) जिसका उत्तर पैगम्बर ने इस प्रकार दिया कि मेरे उत्तराधिकारी अली हैं और उनके बाद मेरे धेवते हसन और हुसैन हैं और उनके बाद हुसैन के 9 बेटे मेरे उत्तराधिकारी होंगे। उस यहूदी ने कहा कि उनके नाम भी बताओ पैगम्बर ने कहा कि हुसैन के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे मुहम्मद और मुहम्मद के बाद उनके बेटे जाफ़र और जाफ़र के बाद उनके बेटे मूसा और मूसा के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे मुहम्मद और मुहम्मद के बाद उनके बेटे अली और अली के बाद उनके बेटे हसन और हसन के बाद उनके बेटे मुहम्मद महदी यह बारह व्यक्ति हैं। यहाँ तक कहा कि मेरी संतान से बारहवा इमाम परोक्ष हो जायेगा, और जब इस्लाम नामत्र के लिए रह जायेगा और क़ुरआन केवल एक रीति रिवाज बनकर रह जायेगा उस समय अल्लाह उनको प्रत्यक्ष होने की अनुमति देगा ताकि वह इस्लाम को जीवित करें।
(समाप्त)
[1] उतपत्ति में अद्वैतवाद अर्थात इस बात में आस्था होना कि इस संसार का रचियता एक है और वह रचियता ऐसा है जिसकी ज़ात मे किसी प्रकार का संमिश्रण नही है। ।
[2] रबूबियत तकवीनी अर्थात इस बात मे आस्था होना कि अल्लाह ने इस संसार को उतपन्न करके सवतन्त्र नही छोड़ है बल्कि इस संसार की समस्त प्रक्रियाओं में अल्लाह का इरादा विद्यमान।
[3] रबूबियते तशरीई अर्थात इस बात में आस्था होना कि अल्लाह ने इंसान को पूर्ण अधिकार प्रदान किया है, परन्तु उसकी जीवन शैली को क़ानून के द्वारा संचालित करता है। और यह केवल उसका ही अधिकार है कि वह मानव को पूर्ण रूप से संचालित करने के लिए आदेश व निर्देश जारी करे।
[4] अक़ले नजरी से अभिप्राय इंसान के अन्दर पायी जाने वह शक्ति है जिसकी सहायता से इंसान जानकारी प्राप्त कर सकता है।
[5] अक़्ले अमली से अभिप्राय इंसान के अन्दर पायी जाने वाली वह शक्ति है जिसकी सहायता से इंसान अच्छे व बुरे कार्यों को समझ सकता है और इस शक्ति को अपना मार्ग दर्शक बना सकता है।
[6] धर्म मासूम नबियों व खास वलियों को मानवता के सम्मुख एक आदर्श के रूप में परिचित कराता है। ताकि इंसान इन आदर्शों से सम्पर्क करके पहले इंसान के सही गुणों को समझे और बाद में उन आदर्शों से इस सम्बंध में सहायता ले कि शरियत की शिक्षाओं को अपने संसारिक जीवन में किस प्रकार लागू किया जाये। और मासूम उन विशेष व्यक्तियों को कहते हैं जो न जान बूझ कर ग़लती करते हैं और न ही न जानने के आधार पर पर कोई ग़लत काम करते हैं। ( इनको ही इंसाने कामिल कहा जाता है)
[7] बरज़ख़ का जीवन इंसान की मृत्यु से शुरू होता है और इस जीवन की अन्तिम सीमा क़ियामत है। कुछ रिवायतों में बरज़ख़ को सपने से उपमा दी गयी है। बरज़ख़ मे पवित्र आत्माऐं आराम से रहती हैं और बुरी आत्माऐं कष्ट में रहती हैं। और यह क़ियामत का छोटा रूप है।
[8] सभी आसमानी धर्मों का एक सामुहिक संदेश यह है कि इस संसार में जो व्यवस्था व्याप्त है वह एक अख़लाक़ी व्यवस्था है। जिसका अर्थ यह है कि वह प्रत्येक कार्य जो इंसानस्वतंत्रा के साथ अपनी मर्ज़ी सेकरता है उसका फल आवश्य है।अगर अच्छा कार्य करेगा तो उसको अच्छा फल दिया जायेगा और अगर बुरे कार्य करेगा तो उसको दण्ड दिया जायेगा। अल्लाह के न्याय से कोई भी नही बच सकता। और अल्लाह की अनुकम्पा सब पर समान व न्यायपूर्वक है।
[9] यहां पर सुन्नत से अभिप्राय वह निश्चित्ताऐं हैं जिनके द्वारा संसार का संचालन किया जा रहा है और इनमें परिवर्तन नही होता है। जैसे कि क़ुराने करीम के सूरए फ़ातिर की आयत न. 42 में कहा गया है कि “अल्लाह की सुन्नत में परिवर्तन नही आता। ”
[10] निवास स्थान परिवर्तन के लिए पैगम्बर की मक्के से मदीने की यात्रा को इस्लाम में “हिजरत” कहा जाता है।
[11] दुर्रे मनसूर क़ुरआने करीम की तफ़सीर की किताब है जिसके लेखक अब्दुर्रहमान पुत्र अबिबक्र सयूती हैं। वह एक फ़क़ीह, मुफ़स्सिर, मुहद्दिस, अदीब व इतिहासकार थे। और वह शाफ़ई मज़हब से सम्बन्धित थे। वह 849 हिजरी क़मरी में मिस्र के सयूत नामक शहर में पैदा हुए। उनके बारे में इब्ने उम्माद हंबली नामक विद्वान कहता है कि वह हदीस , व रिजाल में अपने समय के सबसे बड़े विद्वान थे।और उनकी मृत्यु सन् 911 हिजरी में हुई।
[12] असदुल ग़ाब्बह फ़ी माअरिफ़तिस् सहाबह इस किताब के लेखक अबुल हसन अली पुत्र अबि बक्र मुहम्मद पुत्र अब्दुल करीम अब्दुल वाहिद शेबानी हैं । जो इब्ने असीर जज़री के नाम से प्रसिद्ध हैं। वह सन्555 हिजरी में अलजज़ीरह में पैदा हुए और वहीँ पर पले बढ़े। और इसके बाद अपने पिता के साथ मुसल आ गये। वह हदीस व तफ़्सीर के उस्ताद और अपने समय के एक बड़े इतिहासकार थे। इतिहास विषय पर उनकी किताब “अलकामिल फ़ित्तारीख” विश्व प्रसिद्ध है। उन्होंने इब्ने समआनी की किताब अल इंसाब का संक्षिप्ती करण किया और उस पर नोट लिखे। उनकी मृत्यु सन् 630 हिजरी में मुसल में हुई।
[13]“ अल इस्तियाब फ़ी मारिफ़तिल असहाब” इस किताब के लेखक युसुफ़ पुत्र अब्दुल्लाह पुत्र मुहम्मद पुत्र अब्दुल बर्र क़रतबी हैं जो मालकी सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। वह सन् 368 हिजरी में क़रतबे में पैदा हुए थे। वह सुन्नी सम्प्रदाय के बड़े मुहद्दिस, फ़क़ीह, व इतिहासकारों में गिने जाते हैं। उनकी म़त्यु सन् 463 हिजरी में हुई।
[14] “अल असाबा फ़ी तमीज़िस्सहाबह” इस किताब के लेखक इब्ने हज्र अहमद पुत्र अली पुत्र मुहम्मद अक़लानी हैं जो शाफ़ई सम्प्रदाय से सम्बन्धित है। वह सन् 774 हिजरी में पैदा हुए और सन् 852 हिजरी में उनका देहान्त हो गया। वह क़ाहिरा में पैदा हुए और यमन, हिजाज़ आदि में शिक्षा प्राप्त की। वह अपने समय में एक बड़े फ़क़ीह , अदीब, मुहद्दिस, इतिहासकार व इल्में रिजाल के ज्ञाता थे। उनकी किताबें लिसानुल मीज़ान, तक़रीबुत्तहज़ीबुल इसाबत व फ़तहुल बारी फ़ी शरहि सही बुख़ारी उनकी प्रसिद्ध किताबें हैं।
[15] मुसनदे अहमद हदीस की एक प्रसिद्ध किताब है जिसका संकलन हम्बली सम्प्रदाय के इमाम अहमद पुत्र मुहम्मद पुत्र हम्बल, अबुअब्दुल्लाह शेबानी वायली ने किया है। यह सुन्नी सम्प्रदाय के चार इमामों में गिने जाते हैं। वह सन् 164 हिजरी में बग़दाद में पैदा हुए सन् 241 हिजरी में मुतवक्किल अब्बासी के शासन काल में इस दुनिया से गये। उन्होने बहुतसी किताबें लिखी जिनमें से मुख्य “मुसनद” है। इस किताब में लग भग 30000 हदीसों का वर्णन किया गया है।
[16] सही तिरमिज़ी सुन्नी सम्प्रदाय की छः सही कहलाई जाने वाली हदीस की किताबों में से एक है। और इस किताब का संकलन अबु ईसा मुहम्मद पुत्र ईसा तिरमिज़ी ने किया है। वह सुन्नी सम्प्रदाय में हदीस के बड़े विद्वानों में गिने जाते हैं। उनका देहान्त सन् 279 हिजरी में तिरमिज़ के एक गाँव बूग़ मे हुआ।
[17] अलकामिल फ़ित्तारीख इस किताब के लेखक इब्ने असीरे जज़री हैं।
[18] इब्ने अबिल हदीद, इज़्ज़ुद्दीन अबुहामिद पुत्र हिबतुल्लाह पुत्र मुहम्मद पुत्र हुसैन पुत्र अबिल हदीद मदाइनी एक अब्बासी शासन काल के एक बड़े विद्वान व इतिहासकार थे । वह एक पारंगत उसूली फ़क़ीह व अदीब थे। और मोतिज़ला ,सम्प्रदाय से सम्बन्धित थे। उनका जन्म सन् 586 हिजरी में मदाइन में तथा देहान्त सन् 656 हिजरी में हुआ। उन्होनें बहुतसी किताबें लिखी जिनमें से एक नहजुल बलाग़ा की शरहे भी है।
[19] तारीख़् बग़दाद नामक किताब इतिहास से सम्बन्धित है। और इस किताब के लेखक अबुबकर अहमद पुत्र अली पुत्र साबित बग़दादी हैं जो ख़तीबे बग़दादी के नाम से प्रसिद्ध हैं। वह हदीस के हाफ़िज़ व इतिहासकार थे। वह सन् 392 हिजरी में मक्के और कूफ़े के बीच उज़ैय्यह नामक स्थान पर पैदा हुए। और उनका पालन पोषण बग़दाद मे हुआ। और फिर सन् 463 हिजरी में इसी शहर में देहान्त हुआ। उन्होंने 56 किताबें लिखी हैं इनमें मुख्य किताब तारीखे बग़दाद है जिसकी 14 जिल्दे हैं।
[20] मरूजुज़्ज़हब किताब के लेखक अली पुत्र हुसैन पुत्र अली, अबुलहसन मसऊदी हैं। यह पैगम्बर के सहाबी मसऊदी के वंश में से हैं। वह बग़दाद में पैदा हुए और मिस्र में रहे और अन्त में सन् 346 हिजरी में मिस्र में ही उनका देहान्त हुआ। वह मोतिज़ला सम्प्रदाय से समबन्धित थे। उन्होनें बहुतसी किताबें लिखी जिनमें से मुख्य मरूजुज़्ज़हब, अखबारे ज़मान व मन इबादिहिल हदसान, अत्तंबीह वल अशराफ़, सिर्रूल हयात, अल इस्तबसार आदि हैं।
[21] अहलिबैत इस्लाम में हज़रत अली अलैहिस्सलाम व हज़रत अली व पैगम्बर (स.) की बेटी हज़रत फ़ातिमा की मासूम संतान को अहलिबैत कहा जाता है।
[22] अलमुस्तदरक अलस्सहीहैन इस किताब का संकलन अबु अब्दुल्लाह पुत्र मुहम्मद पुत्र हम्दवियह पुत्र हकम जो कि हाकिम नेशापुरी के नाम से प्रसिद्ध है ने किया। वह अपने समय में अहले हदीस सम्प्रदाय के इमाम थे। वह अपने ज्ञान की अधिकता के लिए प्रसिद्ध हैं। क्योंकि वह सन् 359 हिजरी में समानियों के शासन काल मेंअबि नस्र की विज़ारत के समय मे न्यायधीश के पद पर नियुक्त थे, इस लिए हाकिम(अधिकारी) के नाम से प्रसिद्ध हुए। वह सन् 321 हिजरी में नेशापुर में पैदा हुए और उनकी मृत्यु सन् 405 हिजरी में हुई। उनकी लिखी हुई किताबों में से अस्सहीहान, अल इलल, अल आमाली, फ़वाइदुश् शयूख़, आमालीयुल अशयात, तराजिमुश शयूख़, तारीखे उल्माए नेशापुर, अलमदखल इला इल्मुस्सहीह, अलमुस्तदरक अला सहीहैन हैं।
[23] - सही बुखारी सुन्नी सम्प्रदाय की छः सही कहलाई जाने वाली किताबों में से एक है। और इन किताबों में भी यह सबसे महत्वपूर्ण स्थान रखती है। इस किताब के संकलन कर्ता अबु अब्दुल्लाह मुहम्मद पुत्र अबिल हसन इस्माईल बुख़ारी हैं। वह सन् 194 हिजरी में पैदा हुए और सन् 256 हिजरी में उनका देहान्त हुआ।
[24] सही मुस्लिम भी सुन्नी सम्प्रदाय की छः सही कहलाई जाने वाली किताबों में सम्मलित है। इस किताब के संकलनकर्ता ङाफ़िज़ व मुहद्दिस अबुल हसन मुस्लिम पुत्र हज्जाज पुत्र मुस्लिम क़शीरी नेशापुरी हैं। उनका जन्म सन् 206 हिजरी में नेशापुर में हुआ तथा मृत्यु भी सन् 261 हिजरी में नेशापुर में ही हुई।
[25] मौला अर्थात हाकिम, संरक्षक या शासक।
[26] सवाइक़ुल मुहर्रिक़ा के लेखक सुलिमान पुत्र खौजह इब्राहीम क़बलान हुसैनी हनफ़ी नक़्शबन्दी क़न्दूज़ी हैं। वह बलख़ के विद्वानों में से हैं। उनका जन्म सन् 1220 हिजरी में हुआ और सन् 1270 हिजरी में क़ुसतुनतुनिया में उनका देहान्त हो गया। उनकी दूसरी प्रसिद्ध किताब यनाबिउल मवद्दत है।
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
दो बुरी सिफ़तें- ज़्यादा खाना और इधर उधर देखना
क़ाला रसूलुल्लाह (स.) इय्याकुम व फ़ुज़ूला अलमतअमि फ़इन्नाहु यसिमु अलक़
लबा बिलक़िसवति, व युबतिउ बिलजवारेहि अन अत्ताअति, व युसिम्मु अलहमामा अन समाई अलमौईज़ति; व इय्याकुम व फ़ुज़ूला अन्नज़र, फ़इन्ना यबदुरू अलहवा, व युलिदु अलग़फ़लता।[1]
तर्जमा-
हज़रत रसूले अकरम (स.) फ़रमाते हैं कि पुर ख़ोरी (ज़्यादा खाना) से बचो, क्योंकि यह आदमी को संग दिल और आज़ाए बदन (हाथ,पैर आदि) में सुस्ती लाती है, जो अल्लाह के हुक्म पर अमल करने की राह में रुकावट बनती हैं, और कानों को बहरा बना देती है जिसकी वजह से इंसान नसीहत को नही सुनता। इधर उधर देखने से परहेज़ करो क्योंकि आँखों की यह हरकत हवा व हवस को बढ़ाती है और इंसान को ग़ाफ़िल बना देती है।
हदीस की शरह-
ऊपर की हदीस में पुर ख़ोरी व निगाह करने से मना किया गया है।
1- पुर ख़ोरी-
गिज़ा में एतेदाल वह मस्अला है, हम जिसकी अहमियत से वाक़िफ़ नही है और न ही यह जानते है कि इसके जिसमानी और रूहानी नज़र से कितने अहम असरात हैं।
बस पुर ख़ोरी जिसमानी और रूहानी दोनों रुख़ों से क़ाबिले तवज्जुह है।
अ- जिस्मानी रुख
यह बात साबित हो चुकी है कि इंसान की अक्सर बीमारियाँ पुर ख़ोरी की नजह से हैं। इस के लिए कुछ डाक्टर यह इस्तदलाल करते हैं और कहते हैं कि जरासीम हमेशा चार मशहूर तरीक़ों (हवा, खाना, पानी और कभी कभी बदन की खाल के ज़रिये) से बदन के अन्दर दाख़िल होते हैं और उनको रोकने का कोई रास्ता भी
नही है।
जिस वक़्त बदन की यह खाल(जो जरासीम को बदन में दाखिल होने से रोकने के लिए एक मज़बूत ढाल का काम अंजाम देती है) ज़खमी हो जाये, तो मुमकिन है कि इसी ज़ख़्म के ज़रिये जरासीम बदन में दाख़िल हो जायें और बदन की दिफ़ाई ताक़त को तबाह कर दें। इस बिना पर हम हमेशा मुख़तलिफ क़िस्मों के जरासीमों व बीमारीयों के हमलों की ज़द में रहते हैं और हमारा बदन इसी सूरत में उन से अपना दिफ़ा कर सकता है जब इसमें अफ़ूनत के मरकज़ न पाये जाते हों। और यह भी कहा जाता है कि बदन की फ़ालतू चर्बी जो बदन में मुख़्तलिफ़ जगहों पर इकठ्ठा हो जाती है, वही बहुत से जरासीम के फूलने-फलने का ठिकाना बनती है। ठीक इसी तरह जैसे किसी जगह पर काफ़ी दिनो तक पड़ा रहने वाला कूड़ा बीमारी और जरासीम के फैलने के सबब बनता है। उन चीज़ों में से जो इन बीमारियों का इलाज कर सकती हैं एक यह है कि इस चर्बी को पिघलाया जाये और इस चर्बी को पिघलाने का आसान तरीक़ा रोज़ा रखना है। और यह वह इस्तदलाल है जिसका समझना सबके लिए आसान है। क्योंकि हर इंसान समझता कि जब बदन में फ़ालतू ग़िज़ा मौजूद हो और वह बदन में जज़्ब न हो रही हो तो बदन में इकठ्ठा हो जाती है जिसके नतीजे में दिल का काम बढ़ जाता है, बतौरे ख़ुलासा बदन के तमाम अजज़ा पर बोझ बढ़ जाता है जिसकी बिना पर दिल और बदन के दूसरे हिस्से जल्दी बीमार हो जाते हैं जिससे आदमी की उम्र कम हो जाती है। इस बिना पर अगर कोई यह चाहता है कि वह सेहत मन्द रहे तो उसे चाहिए कि पुर ख़ोरी से परहेज़ करे और कम खाने की आदत डाले, ख़ास तौर पर वह लोग जो जिस्मानी काम कम करते हैं।
एक डाक्टर का कहना है कि में बीस साल से मरीज़ों के इलाज में मशग़ूल हूँ और मेरे तमाम तजर्बों का खुलासा इन दो जुम्लों में है; खाने में एतेदाल(न कम न ज़्यादा) और वरज़िश करना।
आ- रूहानी रुख
यह हदीस पुर ख़ोरी के तीन बहुत अहम रूहानी असरात की तरफ़ इशारा कर रही है।
1- पुर ख़ोरी संग दिल बनाती है।
2- पुर खोरी अंजामे इबादात में सुस्ती का सबब बनाती है। यह बात पूरी तरह से वाज़ेह है कि जब इंसान ज़्यादा खायेगा तो फिर सुबह की नमाज़ आसानी के साथ नही पढ़ सकता और अगर जाग भी जाये तो सुस्त और मस्त लोगों की तरह रहेगा। लेकिन जब हलका व कम खाना खाता है तो आज़ान के वक़्त या उससे कुछ पहले जाग जाता है खुश होता है, और उसमें ईबादत व मुतालेए के लिए वलवला होता है।
3- पुर ख़ोरी इंसान से वाज़ को क़बूल करने की क़ूवत छीन लेती है। जब इंसान रोज़ा रखता है तो उसके अनदर रिक़्क़ते क़ल्ब पैदा होती है और उसकी मानवीयत बढ़ जाती है। लेकिन जब पेट भरा होता है तो इंसान की फ़िक्र सही काम नही करती और वह अपने आप को अल्लाह से दूर पाता है।
शायद आपने तवज्जुह की हो कि माहे रमज़ानुल मुबारक में लोगों के दिल नसीहत को क़बूल करने के लिए बहुत आमादा रहते हैं, इस की वजह यह है कि भूक और रोज़ा दिल को पाकीज़ा बनाते हैं।
2- निगाह करना
रिवायत में “नज़र” से क्या मुराद है ? पहले मरहले में तो यह बात समझ में आती है कि शायद मुराद ना महरमों को देखना हो जो कि हवा परस्ती का सबब बनती है। लेकिन बईद नही है कि इससे भी वसीअ माअना मुराद हों; यानी हर वह नज़र जो इंसान में हवाए नफ़्स पैदा करने का सबब बने; मिसाल के तौर पर एक खूबसूरत घर के क़रीब से गुज़रते हुए उसको टुकर टुकर देखना और आरज़ु करना कि काश मेरे पास भी ऐसा ही होता या कार के किसी आखरी माडल को देख कर उसकी तमन्ना करना। आरज़ु व शौक़, तलब व चाहत के साथ यह नज़र तेज़ी के साथ ग़फ़लत के तारी होने का सबब बनती है, क्योंकि यह इंसान में दुनिया की मुहब्बत पैदा करती है। वरना निगाहे इबरत व तौहीदी या वह निगाह जो फ़क़ीरों की मदद के लिए हो या वह निगाह जो किसी मरीज़ के इलाज के लिए हो इनके लिए तो खास ताकीद की गई है और यह पसंदीदह भी है।
नुक्ता- जैसा कि रिवायात और नहजुल बलाग़ा में बयान हुआ है दुनिया के बहुत से माल और मक़ाम ऐसे हैं कि “कुल्लु शैईन मिन अद्दुनिया समाउहु आज़मु मिन अयानिहि।”[2]
दुनिया की हर चीज़ देखने के मुक़ाबले सुनने में बड़ी है। बाक़ौले मशहूर ढोल की आवाज़ दूर से सुनने में अच्छी लगती है।( दूर के ढोल सुहाने) लेकिन जब कोई ढोल को करीब से देखता है तो मालूम होता है कि यह अन्दर से ख़ाली है और इसकी आवाज़ कानों के पर्दे फ़ाड़ने वाली है।
मरहूम आयतुल्लाह अल उज़मा बरूजर्दी (रह) ने एक ज़माने में अपने दर्स में नसीहत फ़रमाई कि “ अगर कोई तालिबे इल्म इस नियत से दर्स पढ़ता है कि वह उस मक़ाम पर पहुँचे जिस पर मैं हूँ तो उसके अहमक़ होने में कोई शक न करो आप लोग दूर से फ़िक्र करते हो और मरजिअत को देखते हो (जबकि वह मरजाअ अलल इतलाक़ थे और कोई भी उनकी बराबर नही था) मैं जिस मक़ाम पर हूँ न अपने वक़्त का मालिक हूँ और न ही अपने आराम का मालिक हूँ ।” तक़रीबन दुनिया की तमाम बख़शिशें ऐसी ही हैं।
[1] बिहारुल अनवार जिल्द 73/182
[2] ख़ुत्बा 114
चुनाव में भागीदारी ईरानी राष्ट्र का अधिकार है
ईरान की इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई ने अगले राष्ट्रपति पद के चुनाव में जनता की भव्य
उपस्थिति को रोकना शत्रु का रहस्मय लक्ष्य बताया।
उन्होंने मंगलवार की सुबह तेहरान के दक्षिण में स्थित क़ुम के हज़ारों लोगों से भेंट में बल दिया कि ईरान में आगामी चुनाव के भव्य आयोजन को रोकने के लिए शत्रु का एक षड्यंत्र यह है कि वह चुनाव के दिनों में लोगों को राजनैतिक, आर्थिक या सुरक्षा संबंधि घटनाओं में उलझाना चाहता है किन्तु ईरानी राष्ट्र शत्रु के झांसे में आने वाला नहीं है। वरिष्ठ नेता ने इस बात का उल्लेख करते हुए कि ग्यारहवें राष्ट्रपति चुनाव को निर्धारित समय पर आयोजित होना चाहिए और इस चुनाव के संबंध में उन्होंने विदेशियों के लक्ष्य व शैली की व्याख्या में कहा कि सभी लोग यहां तक कि जो चुनाव के संबंध में सहानुभूति के साथ सार्वजनिक अनुशंसा करना चाहते हैं वे इस ओर से सावधान रहें कि शत्रु उनकी बात से लाभ न उठा ले।
आयतुल्लाहिल उज़मा सय्यद अली ख़ामेनई ने उन लोगों की आलोचना करते हुए, जो लोगों में यह भ्रांति फैलाने का प्रयास कर रहे हैं कि चुनाव पारदर्शी नहीं हैं, इस प्रकार की बातों व व्यवहार को साम्राज्यवादी सरकारों के लक्ष्यों को व्यवहारिक बनाने में सहायता करने वाली एक शैली बताया और स्पष्ट किया कि चुनाव को पूरी पारदर्शिता व ईमानदारी से होना चाहिए और सरकारी व ग़ैर सरकारी अधिकारियों को चाहिए कि वे क़ानून का पालन करते हुए ईमानदारी से पारदर्शी चुनाव आयोजित कराएं।
उन्होंने चुनाव के पारदर्शी आयोजन के लिए क़ानून में वर्णित मार्गों व शैलियों की ओर संकेत करते हुए कहा कि इन मार्गों व क़ानून का पालन पारदर्शी चुनाव की गारेंटी है सिवाए इसके कि कुछ लोग ग़ैर क़ानूनी मार्ग अपनाएं जैसा कि वर्ष 2009 के चुनाव में कुछ लोगों ने ग़ैर क़ानूनी मार्ग अपनाया और वे जनता के लिए कष्ट और अपने दुर्भाग्य का कारण बने। ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने चुनाव में भाग लेने को एक अधिकार और एक दायित्व बताया। उन्होंने कहा कि जो लोग चुवाव में प्रत्याशी बनना चाहते हैं उन्हें चाहिये कि वे अपनी ज़िम्मेदारी का आभास करें और उन बातों पर ध्यान दें जिनका वर्णन राष्ट्रपति पद की योग्यता संबंध में संविधान में किया गया है। ईरान की इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने तेहरान के विरुद्ध अन्यायपूर्ण प्रतिबंधों को जारी रखने हुए साम्राज्यवादी सरकारों के मध्य सांठगांठ की ओर संकेत करते हुए कहा कि ये सरकारें ईरानी राष्ट्र को घुटने टेकने व थका देने के लिए प्रतिबंधों को जारी रखने पर बल दे रही हैं परंतु ईरानी जनता का लगाव, इस्लाम और क्रांति के आधारों और ईरानियों की राष्ट्रीय प्रतिष्ठा में दिन प्रतिदिन वृद्धि हो रही है और यह ठीक वही चीज़ है जिसे शत्रु बिल्कुल पसंद नहीं करते।
पाकिस्तान में ड्रोन आक्रमणों में सात लोग मारे गये
पाकिस्तान के उत्तरी वज़ीरिस्तान के मीर अली के विभिन्न क्षेत्रों में हुए दो ड्रोन आक्रमणों में सात लोग मारे गये हैं।
प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, दोनों ड्रोन आक्रमण मीर अली के विभिन्न क्षेत्रों में किए गये। पहला आक्रमण हैदर ख़ैल में एक घर पर किया गया जहां तीन मीज़ाइल फ़ायर किए गये जिससे घर में आग लग गयी और चार लोग मारे गये जबकि ख़सू ख़ैल के एक गांव पर हुए आक्रमण में तीन लोग मारे गये। आक्रमण के बाद भी काफ़ी देर तक अमरीकी जासूसी विमानों की उड़ानें जारी रहीं जिससे क्षेत्र में भय व्याप्त हो गया और लोगों को सहायता कार्यवाहियों में समस्याओं का सामना करना पड़ा। याद रहे पाकिस्तान में अमरीका के ड्रोन आक्रमणों का व्यापक स्तर पर विरोध होता है। पाकिस्तान सरकार बल देती है कि ड्रोन हमलों से लाभ कम और हानि अधिक होती है। इसमें आम नागरिकों की मौत से अमरीका के विरुद्ध घृणा में वृद्धि होती है किन्तु अमरीकी प्रशासन अंतरराष्ट्रीय मानकों एवं क़ानूनों की अवहेलना करते हुए मानवता के विरुद्ध अपनी हिंसात्मक नीति जारी रखे हुए है।
झड़पों से अधिक आत्महत्या से मरते हैं अमरीकी सैनिक
पेंटागन ने अमेरिकी सैनिकों की आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि पर चिंता व्यक्त की है।
अमेरिकी रक्षा मंत्रालय पेंटागन ने एक रिपोर्ट में अपने सैनिकों के बीच आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि पर चिंता प्रकट करते हुए कहा है कि कि वर्ष 2012 में आत्महत्या करने वाले अमेरिकी सैनिकों की संख्या युद्ध ग्रस्त क्षेत्रों में मरने वाले सैनिकों की संख्या से अधिक है।
रिपोर्ट के अनुसार पिछले वर्ष जनवरी से सितंबर तक 247 अमेरिकी सैनिकों ने आत्महत्या की जबकि इस अवधि में अफगानिस्तान में मरने वाले अमरीकी सैनिकों की संख्या 222 है।
अमरीकी सैनिकों के बीच आत्महत्या की घटनाओं में 2006 में तेज़ी आयी जो वर्ष 2009 में अपनी चरम पर पहुंची।
इसी मध्य अमेरिकी अखबार न्यूयॉर्क टाइम्स ने लिखा है कि अमेरिका में हर 80 मिनट में युद्ध से लौटने वाला एक सैनिक आत्महत्या कर लेता है। जानकारी के अनुसार हर वर्ष छह हजार पांच सौ सैनिक आत्महत्या करते हैं। पिछले 6 वर्षों के दौरान अमेरिकी सैनिकों के बीच आत्महत्या की घटनाओं में 55 प्रतिशत वृद्धि हुई है।
अमेरिकी सेना ने इस समस्या से लड़ने के लिए एक योजना भी बनाई थी लेकिन उस योजना के बावजूद वर्ष 2012 में अमेरिका में
हज़रत पैगम्बरे इस्लाम(स) का जीवन परिचय व चरित्र चित्रण
नाम व अलक़ाब (उपाधियां)
आपका नाम मुहम्मद व आपके अलक़ाब मुस्तफ़ा, अमीन, सादिक़,इत्यादि हैं।
माता पिता
हज़रत पैगम्बर के पिता का नाम अब्दुल्लाह था जो ;हज़रत अबदुल मुत्तलिब के पुत्र थे। तथा पैगम्बर (स) की माता का नाम आमिना था, जो हज़रत वहाब की पुत्री थीं।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
हज़रत पैगम्बर का जन्म मक्का नामक शहर मे सन्(1) आमुल फील मे रबी उल अव्वल मास की 17वी तारीख को हुआ था।
पालन पोषण
हज़रत पैगम्बर के पिता का स्वर्गवास पैगम्बर के जन्म से पूर्व ही हो गया था। और जब आप 6 वर्ष के हुए तो आपकी माता का भी स्वर्गवास हो गया। अतः8 वर्ष की आयु तक आप का पलन पोषण आपके दादा हज़रत अब्दुल मुत्तलिब ने किया।दादा के स्वर्गवास के बाद आप अपने प्रियः चचा हज़रत अबुतालिब के साथ रहने लगे। हज़रत आबुतालिब के घर मे आप का व्यवहार सबकी दृष्टि का केन्द्र रहा। आपने शीघ्र ही सबके हृदयों मे अपना स्थान बना लिया।
हज़रत पैगम्बर बचपन से ही दूसरे बच्चों से भिन्न थे। उनकी आयु के अन्य बच्चे गदें रहते, उनकी आँखों मे गन्दगी भरी रहती तथा बाल उलझे रहते थे। परन्तु पैगम्बर बचपन मे ही व्यस्कों की भाँति अपने को स्वच्छ रखते थे। वह खाने पीने मे भी दूसरे बच्चों की हिर्स नही करते थे। वह किसी से कोई वस्तु छीन कर नही खाते थे। तथा सदैव कम खाते थे कभी कभी ऐसा होता कि सोकर उठने के बाद आबे ज़मज़म(मक्के मे एक पवित्र कुआ) पर जाते तथा कुछ घूंट पानी पीलेते व जब उनसे नाश्ते के लिए कहा जाता तो कहते कि मुझे भूख नही है । उन्होने कभी भी यह नही कहा कि मैं भूखा हूं। वह सभी अवस्थाओं मे अपनी आयु से अधिक गंभीरता का परिचय देते थे। उनके चचा हज़रत अबुतालिब सदैव उनको अपनी शय्या के पास सुलाते थे। वह कहते हैं कि मैने कभी भी पैगम्बर को झूट बोलते, अनुचित कार्य करते व व्यर्थ हंसते हुए नही देखा। वह बच्चों के खेलों की ओर भी आकर्षित नही थे। सदैव तंन्हा रहना पसंद करते तथा मेहमान से बहुत प्रसन्न होते थे।
विवाह
जब आपकी आयु 25 वर्ष की हुई तो अरब की एक धनी व्यापारी महिला जिनका नाम खदीजा था उन्होने पैगम्बर के सम्मुख विवाह का प्रस्ताव रखा। पैगम्बर ने इसको स्वीकार किया तथा कहा कि इस सम्बन्ध मे मेरे चचा से बात की जाये। जब हज़रत अबुतालिब के सम्मुख यह प्रस्ताव रखा गया तो उन्होने अपनी स्वीकृति दे दी। तथा इस प्रकार पैगम्बर(स) का विवाह हज़रत खदीजा पुत्री हज़रत ख़ोलद के साथ हुआ। निकाह स्वयं हज़रत अबुतालिब ने पढ़ा। हज़रत खदीजा वह महान महिला हैं जिन्होने अपनी समस्त सम्पत्ति इस्लाम प्रचार हेतू पैगम्बर को सौंप दी थी।
पैगम्बरी की घोषणा
हज़रत मुहम्मद (स) जब चालीस वर्ष के हुए तो उन्होने अपने पैगम्बर होने की घोषणा की। तथा जब कुऑन की यह आयत नाज़िल हुई कि,,वनज़िर अशीरतःकल अक़राबीन(अर्थात ऐ पैगम्बर अपने निकटतम परिजनो को डराओ) तो पैगम्बर ने एक रात्री भोज का प्रबन्ध किया। तथा अपने निकटतम परिजनो को भोज पर बुलाया.। भोजन के बाद कहा कि मै तुम्हारी ओर पैगम्बर बनाकर भेजा गया हूँ ताकि तुम लोगो को बुराईयो से निकाल कर अच्छाइयों की ओर अग्रसरित करू। इस अवसर पर पैगम्बर (स) ने अपने परिजनो से मूर्ति पूजा को त्यागने तथा एकीश्वरवादी बनने की अपील की। और इस महान् कार्य मे साहयता का निवेदन भी किया परन्तु हज़रत अली (अ) के अलावा किसी ने भी साहयता का वचन नही दिया। इसी समय से मक्के के सरदार आपके विरोधी हो गये तथा आपको यातनाऐं देने लगे।
आर्थिक प्रतिबन्ध
मक्के के मूर्ति पूजकों का विरोध बढ़ता गया । परन्तु पैगम्बर अपने मार्ग से नही हटे तथा मूर्ति पूजा का खंण्डन करते रहे। मूर्ति पूजको ने पैगम्बर तथा आपके सहयोगियो पर आर्थिक प्रतिबन्ध लगा दिये। इस समय आप का साथ केवल आप के चचा अबुतालिब ने दिया। वह आपको लेकर एक पहाड़ी पर चले गये । तथा कई वर्षो तक वहीं पर रहकर पैगम्बर की सुरक्षा करते रहे। पैगम्बर को सदैव अपने पास रखते थे। रात्रि मे बार बार आपके स्थान को बदलते रहते थे।
हिजरत
आर्थिक प्रतिबन्धो से छुटने के बाद पैगम्बर ने फिर से इस्लाम प्रचार आरम्भ कर दिया। इस बार मूर्ति पूजकों का विरोध अधिक बढ़ गया ।तथा वह पैगम्बर की हत्या का षड़यंत्र रचने लगे। इसी बीच पैगम्बर के दो बड़े सहयोगियों हज़रत अबुतालिब तथा हज़रत खदीजा का स्वर्गवास हो गया। यह पैगम्बर के लिए अत्यन्त दुखः दे हुआ। जब पैगम्बर मक्के मे अकेले रह गये तो अल्लाह की ओर से संदेश मिला कि मक्का छोड़ कर मदीने चले जाओ। पैगम्बर ने इस आदेश का पालन किया और रात्रि के समय मक्के से मदीने की ओर प्रस्थान किया। मक्के से मदीने की यह यात्रा हिजरत कहलाती है। तथा इसी यात्रा से हिजरी सन् आरम्भ हुआ। पैगम्बरी की घोषणा के बाद पैगम्बर 13 वर्षों तक मक्के मे रहे।
मदीने मे पैगम्बर को नये सहयोगी प्राप्त हुए तथा उनकी साहयता से पैगम्बर ने इस्लाम प्रचार को अधिक तीव्र कर दिया। दूसरी ओर मक्के के मूर्ति पूजको की चिंता बढ़ती गयी तथा वह पैगम्बर से मूर्तियो के अपमान का बदला लेने के लिये युद्ध की तैयारियां करने लगे। इस प्रकार पैगम्बर को मक्का वासियों से कई युद्ध करने पड़े जिनमे मूर्ति पूजकों को पराजय का सामना करना पड़ा। अन्त मे पैगम्बर ने मक्के जाकर हज करना चाहा परन्तु मक्कावासी इस से सहमत नही हुए। तथा पैगमबर ने शक्ति के होते हुए भी युद्ध नही किया तथा सन्धि कर के मानव मित्रता का परिचय दिया। तथा सन्धि की शर्तानुसार हज को अगले वर्ष तक के लिए स्थगित कर दिया। सन् 10 हिजरी मे पैगम्बर ने 125000 मुस्लमानो के साथ हज किया। तथा मुस्लमानो को हज करने का प्रशिक्षण दिया।
ग़दीर
जब पैगम्बर हज करके मक्के से मदीने की ओर लौट रहे थे, तो ग़दीर नामक स्थान पर आपको अल्लाह की ओर से आदेश प्राप्त हुआ, कि हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करो। पैगम्बर ने पूरे क़ाफिले को रुकने का आदेश दिया। तथा एक व्यापक भाषण देते हुए कहा कि मैं जल्दी ही तुम लोगों के मध्य से जाने वाला हूँ। अतः मैं अल्लाह के आदेश से हज़रत अली को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करता हूँ। पैगम्बर का प्रसिद्ध कथन कि जिस जिस का मैं मौला हूँ उस उस के अली मौला हैं। इसी अवसर पर कहा गया था।
शहादत(स्वर्गवास)
सन् 11 हिजरी मे सफर मास की 28 वी तारीख को तीन दिन बीमार रहने के बाद आपकी शहादत हो गयी। हज़रत अली (अ) ने आपको ग़ुस्लो कफ़न देकर दफ़्न कर दिया। इस महान् पैगम्बर के जनाज़े (पार्थिव शरीर) पर बहुत कम लोगों ने नमाज़ पढ़ी। इस का कारण यह था कि मदीने के अधिकाँश मुसलमान पैगम्बर के स्वर्गवास की खबर सुनकर सत्ता पाने के लिए षड़यण्त्र रचने लगे थे। तथा पैगम्बर के अन्तिम संसकार मे सम्मिलित न होकर सकीफ़ा नामक स्थान पर एकत्रित थे।
हज़रत पैगम्बर(स. की चारित्रिक विशेषताऐं
हज़रत पैगम्बर को अल्लाह ने समस्त मानवता के लिए आदर्श बना कर भेजा था। इस सम्बन्ध मे कुऑन इस प्रकार वर्णन करता-लक़द काना लकुम फ़ी रसूलिल्लाहि उसवःतुन हसनः अर्थात पैगम्बर का चरित्र आप लोगो के लिए आदर्श है। अतः आप के व्यक्तित्व मे मानवता के सभी गुण विद्यमान थे। आप के जीवन की मुख्य विशेषताऐं निम्ण लिखित हैं।
सत्यता
सत्यता पैगम्बर के जीवन की विशेष शोभा थी। पैगम्बर (स) ने अपने पूरे जीवन मे कभी भी झूट नही बोला। पैगम्बरी की घोषणा से पूर्व ही पूरा मक्का आप की सत्यता से प्रभावित था। आप ने कभी व्यापार मे भी झूट नही बोला। वह लोग जो आप को पैगम्बर नही मानते थे वह भी आपकी सत्यता के गुण गाते थे। इसी कारण लोग आपको सादिक़(अर्थात सच्चा) कहकर पुकारते थे।
अमानतदारी(धरोहरिता)
पैगम्बर के जीवन मे अमानतदारी इस प्रकार विद्यमान थी कि समस्त मक्कावासी अपनी अमानते आप के पास रखाते थे। उन्होने कभी भी किसी के साथ विश्वासघात नही किया। जब भी कोई अपनी अमानत मांगता आप तुरंत वापिस कर देते थे। जो व्यक्ति आपके विरोधि थे वह भी अपनी अमानते आपके पास रखाते थे। क्योंकि आप के पास एक बड़ी मात्रा मे अमानते रखी रहती थीं, इस कारण मक्के मे आप का एक नाम अमीन पड़ गया था। अमीन (धरोहर)
सदाचारिता
पैगम्बर के सदाचार की अल्लाह ने इस प्रकार प्रसंशा की है इन्नका लअला ख़ुलक़िन अज़ीम अर्थात पैगम्बर आप अति श्रेष्ठ सदाचारी हैं। एक दूसरे स्थान पर पैगम्बर की सदाचारिता को इस रूप मे प्रकट किया कि व लव कानत फ़ज़्ज़न ग़लीज़ल क़लबे ला नग़ज़्ज़ु मिन हवालीका अर्थात ऐ पैगम्बर अगर आप क्रोधी स्वभव वाले खिन्न व्यक्ति होते, तो मनुष्य आपके पास से भागते। इस प्रकार इस्लाम के विकास मे एक मूलभूत तत्व हज़रत पैगम्बर का सद्व्यवहार रहा है।
समय का सदुपयोग
हज़रत पैगम्बर की पूरी आयु मे कहीं भी यह दृष्टिगोचर नही होता कि उन्होने अपने समय को व्यर्थ मे व्यतीत किया हो । वह समय का बहुत अधिक ध्यान रखते थे। तथा सदैव अल्लाह से दुआ करते थे, कि ऐ अल्लाह बेकारी, आलस्य व निकृष्टता से बचने के लिए मैं तेरी शरण चाहता हूँ। वह सदैव मसलमानो को कार्य करने के लिए प्रेरित करते थे।
अत्याचार विरोधी
हज़रत पैगम्बर अत्याचार के घोर विरोधि थे। उनका मानना था कि अत्याचार के विरूद्ध लड़ना संसार के समस्त प्राणियों का कर्तव्य है। मनुष्य को अत्याचार के सम्मुख केवल तमाशाई बनकर नही खड़ा होना चाहिए। वह कहते थे कि अपने भाई की सहायता करो चाहे वह अत्याचारी ही कयों न हो। उनके साथियों ने प्रश्न किया कि अत्याचारी की साहयता किस प्रकार करें? आपने उत्तर दिया कि उसकी साहयता इस प्रकार करो कि उसको अत्याचार करने से रोक दो।
बुराई के बदले भलाई की भावना
आदरनीय पैगम्बर की एक विशेषता बुराई का बदला भलाई से देना थी। जो उन को यातनाऐं देते थे, वह उन के साथ उनके जैसा व्यवहार नही करते थे। उनकी बुराई के बदले मे इस प्रकार प्रेम पूर्वक व्यवहार करते थे, कि वह लज्जित हो जाते थे।
यहाँ पर उदाहरण स्वरूप केवल एक घटना का उल्लेख करते हैं। एक यहूदी जो पैगम्बर का विरोधी था। वह प्रतिदिन अपने घर की छत पर बैठ जाता, व जब पैगम्बर उस गली से जाते तो उन के सर पर राख डाल देता। परन्तु पैगम्बर इससे क्रोधित नही होते थे। तथा एक स्थान पर खड़े होकर अपने सर व कपड़ों को साफ कर के आगे बढ़ जाते थे। अगले दिन यह जानते हुए भी कि आज फिर ऐसा ही होगा। वह अपना मार्ग नही बदलते थे। एक दिन जब वह उस गली से जा रहे थे, तो इनके ऊपर राख नही फेंकी गयी। पैगम्बर रुक गये तथा प्रश्न किया कि आज वह राख डालने वाला कहाँ हैं? लोगों ने बताया कि आज वह बीमार है। पैगम्बर ने कहा कि मैं उस को देखने जाऊगां। जब पैगम्बर उस यहूदी के सम्मुख गये, तथा उस से प्रेम पूर्वक बातें की तो उस व्यक्ति को ऐसा लगा, कि जैसे यह कई वर्षों से मेरे मित्र हैं। आप के इस व्यवहार से प्रभावित होकर उसने ऐसा अनुभव किया, कि उस की आत्मा से कायर्ता दूर हो गयी तथा उस का हृदय पवित्र हो गया। उनके साधारन जीवन तथा नम्र स्वभव ने उनके व्यक्तितव मे कमी नही आने दी, उनके लिए प्रत्येक व्यक्ति के हृदय मे स्थान था।
दया की प्रबल भावना
आदरनीय पैगम्बर मे दया की प्रबल भावना विद्यमान थी। वह अपने से छोटों के साथ प्रेमपूर्वक तथा अपने से बड़ो के साथ आदर पूर्वक व्यवहार करते थे ।वह अनाथों व भिखारियों का विशेष ध्यान रखते थे उनको को प्रसन्नता प्रदान करते व अपने यहाँ शरण देते थे। वह पशुओं पर भी दया करते थे तथा उन को यातना देने से मना करते थे।
जब वह किसी सेना को युद्ध के लिए भेजते तो रात्री मे आक्रमण करने से मना करते, तथा जनता से प्रेमपूर्वक व्यवहार करने का निर्देश देते थे । वह शत्रु के साथ सन्धि करने को अधिक महत्व देते थे। तथा इस बात को पसंद नही करते थे कि लोगों की हत्याऐं की जाये। वह सेना को निर्देश देते थे कि बूढ़े व्यक्तियों, बच्चों तथा स्त्रीयों की हत्या न की जाये तथा मृत्कों के शरीर को खराब न किया जाये
स्वच्छता
पैगम्बर स्वच्छता मे अत्याधिक रूचि रखते थे। उन के शरीर व वस्त्रों की स्वच्छता देखने योग्य होती थी। वह वज़ू के अतिरिक्त दिन मे कई बार अपना हाथ मुँह धोते थे।वह अधिकाँश दिनो मे स्नान करते थे। उनके कथनानुसार वज़ु व स्नान इबादत है। वह अपने सर के बालों को बेरी के पत्तों से धोते और उनमे कंघा करते और अपने शरीर को मुश्क व अंबर नामक पदार्थों से सुगन्धित करते थे। वह दिन मे कई बार तथा सोने से पहले व सोने के बाद अपने दाँतों को साफ़ करते थे। भोजन से पहले व बाद मे अपने मुँह व हाथों को धोते थे तथा दुर्गन्ध देने वाली सब्ज़ियों को नही खाते थे।
हाथी दाँत का बना कंघा सुरमेदानी कैंची आईना व मिस्वाक उनके यात्रा के सामान मे सम्मिलित रहते थे। उनका घर बिना साज सज्जा के स्वच्छ रहता था। उन्होने चेताया कि कूड़े कचरे को दिन मे उठा कर बाहर फेंक देना चाहिए। वह रात आने तक घर मे नही पड़ा रहना चाहिए। उनके शरीर की पवित्रता उनकी आत्मा की पवित्रता से सम्बन्धित रहती थी। वह अपने अनुयाईयों को भी चेताते रहते थे कि अपने शरीरो वस्त्रों व घरों को स्वच्छ रखा करो। तथा जुमे (शुक्रवार) को विशेष रूप से स्नान किया करो। दुर्गन्ध को दूर करने हेतू शरीर व वस्त्रो को सुगन्धित करके जुमे की नमाज़ मे सम्मिलित हुआ करो ।
दृढनिश्चयता
पैगम्बर मे दृढनिश्चयता चरम सीमा तक पाई जाती थी।वह निराशावादी न होकर आशावादी थे। वह पराजय से भी निराश नही होते थे। यही कारण है कि ओहद नामक युद्ध की पराजय ने उनको थोड़ा भी प्रभावित नही किया। तथा बनी क़ुरैज़ा(अरब के एक कबीले का नाम) द्वारा अनुबन्ध तोड़कर विपक्ष मे सम्मिलित हो जाने से भी उन पर कोई प्रभाव नही पड़ा।बल्कि वह शीघ्रता पूर्वक हमराउल असद नामक युद्ध के लिए तैयार होकर मैदान मे आगये।
सावधानी व सतर्कता
पैगम्बर(स.) सदैव सावधानी व सतर्कता बरतते थे। वह शत्रु की सेना का अंकन इस प्रकार करते कि उससे युद्ध करने के लिए कितने व किस प्रकार के हथियारों की आवश्यक्ता है। वह नमाज़ के समय मे भी सतर्क व सवधान रहते थे।
मानवता के प्रति प्रेम
पैगम्बर(स.) के हृदय मे समस्त मानवजाति के प्रति प्रेम था। वह रंग या नस्ल के कारण किसी से भेद भाव नही करते थे । उनकी दृष्टि मे सभी मनुष्य समान थे। वह कहते थे कि सभी मनुष्य अल्लाह से जीविका प्राप्त करते हैं। उन्होने जो युद्धों किये उनके पीछे भी महान लक्ष्य विद्यमान थे।वह सदैवे मानवता के कल्याण के लिए ही युद्ध करते थे। पैगम्बर सदैव अपने अनुयाईयों को मानव प्रेम का उपदेश देते थे। पैगम्बर ने मनुष्यों को निम्ण लिखित संदेश दिया
1- मानवता की सफलता का संदेश
2- युद्ध से पूर्व शान्ति वार्ता का संदेश
3- बदले से पहले क्षमा का संदेश
4- दण्ड से पूर्व विन्रमता या क्षमा का संदेश
उच्चयतम कोटी की नेतृत्व क्षमता।
आदरनीय पैगम्बर को अल्लाह ने नेतृत्व की उच्चय क्षमता प्रदान की थी। उनकी इस क्षमता को अरब जाती की स्थिति को देखकर आंका जा सकता है। उन्होने उस अरब जाती का नेतृत्व किया, जो अपनी मूर्खता व अज्ञानता के कारण किसी को भी अपने से बड़ा नही समझते थे। जो सदैव रक्त पात करते रहते थे। सदाचार उनको छूकर भी नही निकला था। ऐसे लोगों को अपने नेतृत्व मे लेना बहुत कठिन कार्य था। परन्तु इन सब अवगुणो के होते हुए भी पैगम्बर ने अपने कौशल से उनको इस प्रकार प्रशिक्षित किया कि सब आपके समर्थक बन गये। तथा अपने प्राणो की आहुती देने के लिए धर्म युद्ध के लिए निकल पड़े।
आदरनीय पैगम्बर युद्ध के लिए एक से अधिक सेना नायकों का चयन करते तथा गंभीरता पूर्वक उनके मध्य कार्यों व शक्तियों का विभाजन कर नियम बनाते थे।वह राजनीतिक तथा शासकीय सिधान्तों के मध्य सम्बन्ध स्थापित करते थे।उन्होने विभिन्न विभागों की नीव डाली। वह सेनापतियों का चुनाव सुचरित्र को आधार बनाकर करते थे
क्षमा दान की प्रबल भावना
आदरनीय पैगम्बर(स.) मे क्षमादान की भावना बहुत प्रबल थी।बदले की भावना उनके अन्दर बिल्कुल भी विद्यमान नही थी। उन्होने अपनी क्षमा भावना का पूर्ण परिचय मक्के की विजय के समय कराया। जब उनके शत्रुओं को बंदी बनाकर उनके सम्मुख लाया गया तो उन्होने यातनाऐं देनेवाले सभी शत्रुओं को क्षमा कर दिया। अगर पैगम्बर(स.) चाहते तो उनसे बदला ले सकते थे परन्तु उन्होने शक्ति होते हुए भी ऐसा नही किया। अपितु सबको क्षमा करके कहा कि जाओ तुम सब स्वतन्त्र हो।
उनकी शक्ति शाली आत्मा सदैव क्षमादान को वरीयता देती थी। ओहद नामक युद्ध मे जो पाश्विक व्यवहार उनके चचा श्री हमज़ा पुत्र श्री अब्दुल मुत्तलिब के साथ किया गया(अबु सुफियान की पत्नि व मुआविया की माँ हिन्दा ने उनके मृत्य शरीर से उनका कलेजा निकाल कर खाने की चेष्टा की) उस को देख कर वह बहुत दुखीः हुए। परन्तु पैगम्बर ने उसके परिवार के मृत्य लोगों के साथ ऐसा व्यवहार नही किया। यहाँ तक कि जब वह स्त्री बंदी बनाकर लाई गई, तो आपने उससे बदला न लेकर उसे क्षमा कर दिया। यही नही अपितु पैगम्बर ने अबुक़ुतादा नामक उस व्यक्ति को भी चुप रहने का आदेश दिया जो उसको अपशब्द कह रहा था।
खैबर नामक युद्ध मे जब यहूदियों ने मुसलमानो के सम्मुख हथियार डाल दिये व युद्ध समाप्त हो गया तो यहूदियों ने भोजन मे विष मिलाकर पैगम्बर के लिए भेजा । पैगम्बर को उनके इस षड़यन्त्र का ज्ञान हो गया। परन्तु उन्होने इसके उपरान्त भी यहूदियों को कोई दण्ड नही दिया तथा क्षमा करके स्वतन्त्र छोड़ दिया।
तबूक नामक युद्ध से लौटते समय मुनाफिकों के एक संगठन ने पैगम्बर की हत्या का षड़यन्त्र रचा। जब पैगम्बर एक पहाड़ी दर्रे को पार कर रहे थे तो मुनाफिक़ीन ने योजनानुसार आप के ऊँट को भड़का दिया। ताकि पैगम्बर ऊँट से गिर कर मर जाऐं, परन्तु वह विफल रहे। और पैगम्बर ने सब को पहचान लिया परन्तु उनसे बदला नही लिय । तथा अपने दोस्तों के आग्रह पर भी उन के नाम नही बताये।
उच्चतम सामाजिक जीवन शैली
पैगम्बर(स.) का सामाजिक जीवन बहुत श्रेष्ठ था वह लोगों के मध्य सदैव प्रसन्नचित्त रहते थे। किसी की ओर घूर कर नही देखते थे। अधिकाँश उन की दृष्टि पृथ्वी पर रहती थी। दूसरों के सामने अपने पैरो कों मोड़ कर बैठते थे। किसी के भी सम्मुख वह पैर नही फैलाते थे। जब वह किसी सभा मे जाते थे तो अपने बैठने के लिए निकटतम स्थान को चुनते थे । वह इस बात को पसंद नही करते थे, कि सभा मे से कोई व्यक्ति उनके आदर हेतू खड़ा हो, या उनके लिए किसी विशेष स्थान को खाली किया जाये। वह बच्चों तथा दासों को भी स्वंय सलाम करते थे। वह किसी के कथन को बीच मे नही काटते थे। वह प्रत्येक व्यक्ति से इस प्रकार बात करते कि वह यह समझता कि मैं पैगम्बर के सबसे अधिक निकट हूँ। वह अधिक नही बोलते थे तथा धीरे धीरे व रुक रुक कर बाते करते थे। वह कभी भी किसी को अपशब्द नही कहते थे। वह बहुत अधिक लज्जावान व स्वाभीमानी थे। जब वह किसी के व्यवहार से दुखित होते तो दुखः के चिन्ह उनके चेहरे से प्रकट होते थे, परन्तु वह अपने मुख से गिला नही करते थे। वह सदैव रोगियों को देखने के लिए जाते तथा मरने वालों के जनाज़ों (अर्थी) मे सम्मिलित होते थे। वह किसी को इस बात की अनुमति नही देते थे कि उनके सम्मुख किसी को अपशब्द कहें जायें।
कानून व न्याय प्रियता
कानून का पालन व न्याय प्रियता पैगम्बर(स.) की मुख्य विशेषताएं थीं।हज़रत पैगम्बर अपने साथ दुरव्यवहार करने वाले को क्षमा कर देते थे, परन्तु कानून का उलंघन करने वालों कों क्षमा नही करते थे। तथा कानूनानुसार उसको दणडित किया जाता था। वह कहते थे कि कानून व न्याय सामाजिक शांति के रक्षक हैं। अतः ऐसा नही हो सकता कि किसी व्यक्ति विशेष के लिए कानून को बलि चढ़ा कर पूरे समाज को दुषित कर दिया जाये। वह कहते थे कि मैं उस अल्लाह की सौगन्ध खाकर कहता हूँ जिसके वश मे मेरी जान है कि न्याय के क्षेत्र मे मैं किसी के साथ भी पक्षपात नही करूगां। अगर मेरा निकटतम सम्बन्धि भी कोई अपराध करेगा तो उसे क्षमा नही करूगां और न ही उसको बचाने के लिए कानून को बली बनाऊँगा।
एक दिन पैगम्बर ने मस्जिद मे अपने प्रवचन मे कहा कि अल्लाह ने कुऑन मे कहा है कि प्रलय मे कोई भी अत्याचारी अपने अत्याचार के दण्ड से नही बच सकेगा। अतः अगर आप लोगो मे से किसी को मुझ से कोई यातना पहुंची हो या किसी का कोई हक़ मेरे ऊपर बाक़ी हो तो वह मुझ से लेले। उस सभा मे से सबादा पुत्र क़ैस नामक एक व्यक्ति खड़ा हुआ। तथा कहा कि ऐ पैगम्बर जब आप तायिफ़(एक स्थान का नाम) से लौट रहे थे तो आप के हाथ मे एक असा (लकड़ी का ड़डां) था। आप उसे घुमा रहे थे वह मेरे पेट मे लगा जिससे मुझे पीड़ा हुई। आप ने कहा कि मैं सौगन्ध के साथ कहता हूँ कि मैंने ऐसा जान बूझ कर नही किया परन्तु तू फिर भी उसका बदला ले सकता है। यह कह कर आपने अपना असा मंगाया तथा उस असा को सबादा के हाथ मे देकर कहा कि इससे तेरे शरीर के जिस भाग को पीड़ा पहुँची हो, तू इस से मेरे शरीर के उसी भाग को पीड़ा पहुँचा। उस ने कहा कि ऐ पैगमबर मैने आपको क्षमा किया । आपने कहा कि अल्लाह तुझे क्षमा करे। यह थी इस महान् पैगम्बर की न्याय प्रियता तथा सामाजिक क़ानून की रक्षा।
जनता के विचारों का आदर
जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश मौजूद होता आदरनीय पैगम्बर(स.) उन विषयों मे न स्वयं हस्तक्षेप करते और न ही किसी दूसरे को हस्तक्षेप करने देते थे। वह स्वयं भी उन आदेशों का पालन करते तथा दूसरों को भी पालन करने पर बाध्य करते थे। क्योकि कुऑन के आदेशों की अवहेलना कुफ्र (अधर्मिता) है। इस सम्बन्ध मे कुऑन स्वयं कहता है कि व मन लम यहकुम बिमा अनज़ालल्लाहु फ़ा उलाइका हुमुल काफ़िरून। अर्थात वह मनुषय जो अल्लाह के भेजे हुए क़ानून के अनुसार कार्य नही करते वह समस्त काफ़िर (अधर्मी) हैं। जिन विषयों के लिए कुऑन मे आदेश नही होता था उनमे हस्तक्षेप नही करते थे। उन विषयों मे जनता स्वतन्त्र थी तथा सबको अपने विचर प्रकट करने की अनुमति थी।
वह दूसरों के परामर्श का आदर करते तथा परामर्श पर विचार करते थे। बद्र नामक युद्ध के अवसर पर आपने तीन बार अपने साथियों से विचार विमर्श किया । सर्वप्रथम इस बात पर परामर्श हुआ कि कुरैश से लड़ा जाये या इनको इनके हाल पर छोड़ कर मदीने चला जाये। सब ने जंग करने को वरीयता दी । दूसरी बार छावनी के स्थान के बारे मे परामर्श हुआ। तथा इस बार हबाब पुत्र मुनीज़ा की राय को वरीयता दी गयी। तीसरी बार युद्ध बन्धकों के बरे मे मशवरा लिया गया। कुछ लोगों ने कहा कि इन की हत्या करदी जाये, तथा कुछ लोगों ने कहा कि इनको फिदया (धन) लेकर छोड़ दिया जाये। पैगम्बर ने दूसरी राय का अनुमोदन किया। इसी प्रकार ओहद नामक युद्ध मे भी पैगम्बर ने अपने साथियों से इस बात पर विचार विमर्श किया, कि शहर मे रहकर सुरक्षा प्रबन्ध किये जायें या शहर से बाहर निकल कर पड़ाव डाला जाये व शत्रु को आगे बढने से रोका जाये। विचार के बाद दूसरी राय पारित हुई । इसी प्रकार अहज़ाब नामक युद्ध के अवसर पर भी यह परामर्श हुई कि शहर मे रहकर लड़ा जाये या बाहर निकल कर जंग की जाये। काफी विचार विमर्श के बाद यह पारित हुआ कि शहर से बाहर निकल कर युद्ध किया जाये। अपने पीछे की ओर पहाड़ी को रखा जाये तथा सामने की ओर खाई खोद ली जाये, जो शत्रु को आगे बढ़ने से रोक सके ।
जैसा कि हम सब जानते हैं कि सब मुसलमान आदरनीय पैगम्बर को त्रुटि भूल चूक तथा पाप से सुरक्षित मानते थे। तथा उनके कार्यों पर आपत्ति व्यक्त करने को अच्छा नही समझते थे। परन्तु अगर कोई पैगम्बर के किसी कार्य की आलोचना करता तो वह आलोचक को शांति पूर्ण ढंग से समझाते तथा उसको संतोष जनक उत्तर देकर उसके भम्र को दूर करते थे। उनका दृष्टिकोण यह था कि सृष्टि के रचियता ने चिंतन आलोचना व दो वस्तुओं के मध्य एक को वरीयता दने की शक्ति प्रत्येक व्यक्ति को प्रदान की है। यह केवल सामाजिक आधार रखने वाले शक्ति शाली व्यक्तियों से ही सम्बन्धित नही है । अतः मनुष्यों से चिंतन व आलोचना के इस अधिकार को नही छीनना चाहिये।
शासकीय सद्व्यवहार
वह सदैव प्रजा के कल्याण के बरे मे सोचते थे। पैगम्बर ने स्वंय एक स्थान पर कहा कि -मै जनता कि भलाई का जनता से अधिक ध्यान रखता हूँ। तुम लोगों मे से जो भी स्वर्गवासी होगा तथा सम्पत्ति छोड़ कर जायगा वह सम्पत्ति उसके परिवार की होगी। परन्तु अगर कोई ऋणी होगा या उसका परिवार दरिद्र होगा तो उसके ऋण को चुका ने तथा उसके परिवार के पालन पोषण का उत्तरदायित्व मेरे ऊपर होगा।
पैगम्बर(स.) ने न्याय व दया पर आधारित अपनी इस शासन प्रणाली द्वारा संसार के समस्त शासकों को यह शिक्षा दी कि समाज मे शासक की स्थिति एक दयावान व बुद्धिमान पिता की सी है। शासक को चाहिये कि हर स्थान पर जनता के कल्याण का ध्यान रखे तथा अपनी मन मानी न करे।
पैगम्बर वह महान् व्यक्ति हैं जिन्होने बहुत कम समय मे मानव के दिलों मे अपने सद्व्यवहार की अमिट छाप छोड़ी। उन्होने अपने सद्व्यवहार, चरित्र व प्रशिक्षण के द्वारा अरब हत्यारों को शान्ति प्रियः, झूट बोलने वालों को सत्यवादी, निर्दयी लोगों को दयावान, नास्तिकों को आस्तिक, मूर्ति पूजकों को एकश्वरवादी, असभ्यों कों सभ्य, मूर्खों को बुद्धि मान, अज्ञानीयों को ज्ञानी, तथा क्रूर स्वभव वाले व्यक्तियों को विन्रम बनाया।
अल्लाहुम्मा सल्ले अला मुहम्मद व आले मुहम्मद
प्रियः अध्धयन कर्ताओं आज जबकि मानव समाज आध्यात्मिक पतन की ओर उनमुख है। तथा असदाचारिता, असत्यता ,छल, कपट, द्वेष, भोग विलासिता तथा अमानवियता चारों ओर व्याप्त है। इस पतन को रोकने के लिए अति आवश्यक है कि मानव जाति के सम्मुख एक आदर्श प्रस्तुत किया जाये। जिसका अनुसरन करके मानव जाति का कल्याण हो सके।हम विशवास के साथ कहते हैं कि अगर मानवता पूर्णरूप से आदरनीय पैगम्बर मुम्मद साहिब का अनुसरण करे तो कल्याण पासकती है।क्योंकि आदरनीय पैगम्बर मुहम्मद साहिब मे एक आदर्श के समस्त गुण विद्यमान हैं।
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जीवन परिचय व चारित्रिक विशेषताऐं
माता पिता
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के पिता हज़रत इमाम अली अलैहिस्सलाम तथा आपकी माता हज़रत फ़ातिमा ज़हरा थीं। आप अपने माता पिता की प्रथम संतान थे।
जन्म तिथि व जन्म स्थान
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का जन्म रमज़ान मास की पन्द्रहवी (15) तारीख को सन् तीन (3) हिजरी में मदीना नामक शहर में हुआ था। जलालुद्दीन नामक इतिहासकार अपनी किताब तारीख़ुल खुलफ़ा में लिखता है कि आपकी मुखाकृति हज़रत पैगम्बर से बहुत अधिक मिलती थी।
पालन पोषण
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम का पालन पोषन आपके माता पिता व आपके नाना हज़रत पैगम्बर (स0) की देख रेख में हुआ। तथा इन तीनो महान् व्यक्तियों ने मिल कर हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम में मानवता के समस्त गुणों को विकसित किया।
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम की इमामत का समय
शिया सम्प्रदाय की विचारधारा के अनुसार इमाम जन्म से ही इमाम होता है। परन्तु वह अपने से पहले वाले इमाम के स्वर्गवास के बाद ही इमामत के पद को ग्रहन करता है। अतः हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने भी अपने पिता हज़रत इमाम अली की शहादत के बाद इमामत पद को सँभाला।
जब आपने इमामत के पवित्र पद को ग्रहन किया तो चारो और अराजकता फैली हुई थी। व इसका कारण आपके पिता की आकस्मिक शहादत थी। अतः माविया ने जो कि शाम नामक प्रान्त का गवर्नर था इस स्थिति से लाभ उठाकर विद्रोह कर दिया।
इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सहयोगियों ने आप के साथ विश्वासघात किया उन्होने धन,दौलत, पद व सुविधाओं के लालच में माविया से साँठ गाँठ करली। इस स्थिति में इमाम हसन अलैहिस्सलाम के सम्मुख दो मार्ग थे एक तो यह कि शत्रु के साथ युद्ध करते हुए अपनी सेना के साथ शहीद होजाये। या दूसरे यह कि वह अपने सच्चे मित्रों व सेना को क़त्ल होने से बचालें व शत्रु से संधि करले । इस अवस्था में इमाम ने अपनी स्थित का सही अंकन किया सरदारों के विश्वासघात व सेन्य शक्ति के अभाव में माविया से संधि करना ही उचित समझा।
संधि की शर्तें
1- माविया को इस शर्त पर सत्ता हस्तान्त्रित की जाती है कि वह अल्लाह की किताब (कुऑन ) पैगम्बर व उनके नेक उत्तराधिकारियों की शैली के अनुसार कार्य करेगा।
2- माविया के बाद सत्ता इमाम हसन अलैहिस्सलाम की ओर हस्तान्त्रित होगी व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के न होने की अवस्था में सत्ता इमाम हुसैन को सौंपी जायेगी। माविया को यह अधिकार नहीं है कि वह अपने बाद किसी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करे।
3- नमाज़े जुमा में इमाम अली पर होने वाला सब (अप शब्द कहना) समाप्त किया जाये। तथा हज़रत अली को अच्छाई के साथ याद किया जाये।
4- कूफ़े के धन कोष में मौजूद धन राशी पर माविया का कोई अधिकार न होगा। तथा वह प्रति वर्ष बीस लाख दिरहम इमाम हसन अलैहिस्सलाम को भेजेगा। व शासकीय अता (धन प्रदानता) में बनी हाशिम को बनी उमैया पर वरीयता देगा। जमल व सिफ़्फ़ीन के युद्धो में भाग लेने वाले हज़रत इमाम अली के सैनिको के बच्चों के मध्य दस लाख दिरहमों का विभाजन किया जाये तथा यह धन रीशी इरान के दाराबगर्द नामक प्रदेश की आय से जुटाई जाये।
5- अल्लाह की पृथ्वी पर मानवता को सुरक्षा प्रदान की जाये चाहे वह शाम में रहते हों या यमन मे हिजाज़ में रहते हों या इराक़ में काले हों या गोरे। माविया को चाहिए कि वह किसी भी व्यक्ति को उस के भूत काल के व्यवहार के कारण सज़ा न दे।इराक़ वासियों से शत्रुता पूर्ण व्यवहार न करे। हज़रत अली के समस्त सहयोगियों को पूर्ण सुरक्षा प्रदान की जाये। इमाम हसन अलैहिस्सलाम, इमाम हुसैन व पैगम्बर के परिवार के किसी भी सदस्य की प्रकट या परोक्ष रूप से बुराई न कीजाये।
हज़रत इमाम हसन अलैहिस्सलाम के संधि प्रस्ताव ने माविया के चेहरे पर पड़ी नक़ाब को उलट दिया तथा लोगों को उसके असली चेहरे से परिचित कराया कि माविया का वास्तविक चरित्र क्या है।
शहादत (स्वर्गवास)
इमाम हसन अलैहिस्सलाम की शहादत सन् 50 हिजरी मे सफ़र मास की 28 तरीख को हुई ।माविया के षड़यन्त्र स्वरूप आपकी जोदा नामक पत्नि ने आपके पीने के पानी मे विष मिला दिया था। यही विष आपकी शहादत का कारण बना।
समाधि
तबक़ाते इब्ने साद में उल्लेख मिलता है कि इमाम हसन अलैहिस्सलाम ने अपने जीवन के अन्तिम चरण में कहा कि मुझे मेरे नाना के बराबर में दफ्न करना ।
अबुल फरज इसफ़हानी अपनी किताब मक़ातेलुत तालेबीन में उल्लेख करते हैं कि जब इमाम हसन अलैहिस्सलाम को दफ़्न करने के लिए ले गये तो आयशा (हज़रत पैगम्बर की एक पत्नि जो पहले ख़लीफ़ा की पुत्री थी) उन्होंने इसका विरोध किया। तथा बनी उमैया व बनी मरवान आयशा की सहायता के लिए आगये व इमाम हसन अलैहिस्सलाम के दफ़्न में बाधक बने।
अन्ततः इमाम हसन अलैहिस्सलाम के ताबूत(अर्थी) को जन्नातुल बक़ी नामक कब्रिस्तान में लाया गया। व आपको आपकी दादी हज़रत फ़ातिमा बिन्ते असद के बराबर में दफ़्न कर दिया गया।