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पाकिस्तान में १४वें नेशनल असेंबली के सदस्यों ने शपथ ग्रहण कीपाकिस्तान में चौदहवीं नेशनल असेंबली के 301 सदस्यों ने शपथ ग्रहण की।

पाकिस्तानी सूत्रों के अनुसार नवाज़ शरीफ लगभग साढ़े 13 वर्ष बाद संसद में आए तो इमरान खान स्वास्थ्य कारणों से शपथ ग्रहण करने नहीं पहुंच सके। 13 वर्ष 7 महीने बाद एन लीग के प्रमुख नवाज शरीफ निचले सदन में पहुंचे तो हाल शेर आया शेर आया के नारों से गूंज उठा। शपथ ग्रहण के बाद बैठक सोमवार की सुबह 11 बजे तक के लिए स्थगित कर दी गयी , जिसमें स्पीकर और डिप्टी स्पीकर का चुनाव होगा. नवनिर्वाचित सदस्यों के शपथ ग्रहण के साथ चौदहवें नेशनल असेंबली की संवैधानिक अवधि भी शुरू हो गयी। इसे पाकिस्तान में प्रजातंत्र के इतिहास में एक नया मोड़ कहा जा रहा है। (Q.A.)

४ ईरानी बैंक भारत में शाखा खोलना चाहते हैं।भारतीय व्यापार केंद्र मुंबई में ईरान के कांसलर जनरल ने कहा है कि ईरान के ४ बैंक भारत में अपनी शाखा खोला चाहते हैं। मुंबई में ईरान के कौंसिल जनरल मसूद खालेकी ने ऑल इंडिया एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रीज की एक बैठक में कहा कि भारतीय बैंकिंग प्रणाली के कड़े नियमों के कारण ईरानी बैंकों को समस्याओं का सामना है। आल इंडिया एसोसिएशन ऑफ इंडस्ट्रीज के बयान में आया है कि ईरान के पश्चिमी प्रांत आज़रबाईजान के एक प्रतिनिधिमंडल ने भारतीय वित्त मंत्रालय और रिजर्व बैंक के अधिकारियों से बातचीत की है।

ईरान का एक प्रतिनिधिमंडल इस समय भारत की यात्रा पर है जो ईरान और भारत के बीच आयात और निर्यात की समीक्षा कर रहा है

रविवार, 02 जून 2013 04:31

नमाज़ के आदाब

नमाज़ के आदाब

नमाज़ और लिबास

रिवायात मे मिलता है कि आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम नमाज़ का लिबास अलग रखते थे। और अल्लाह की खिदमत मे शरफ़याब होने के लिए खास तौर पर ईद व जुमे की नमाज़ के वक़्त खास लिबास पहनते थे। बारिश के लिए पढ़ी जाने वाली नमाज़ (नमाज़े इस्तसक़ा) के लिए ताकीद की गयी है कि इमामे जमाअत को चाहिए कि वह अपने लिबास को उलट कर पहने और एक कपड़ा अपने काँधे पर डाले ताकि खकसारी व बेकसी ज़ाहिर हो। इन ताकीदों से मालूम होता है कि नमाज़ के कुछ मखसूस आदाब हैं। और सिर्फ़ नमाज़ के लिए ही नही बल्कि तमाम मुक़द्दस अहकाम के लिए अपने खास अहकाम हैं।

 

हज़रत मूसा अलैहिस्सलाम को भी तौरात की आयात हासिल करने के लिए चालीस दिन तक कोहे तूर पर मुनाजात के साथ मखसूस आमाल अंजाम देने पड़े।

नमाज़ इंसान की मानवी मेराज़ है। और इस के लिए इंसान का हर पहलू से तैयार होना ज़रूरी है। नमाज़ की अहमियत का अंदाज़ा नमाज़ के आदाब, शराइत और अहकाम से लगाया जासकता है।

इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने अपना वह लिबास जिसमे आपने दस लाख रकत नमाज़े पढ़ी थी देबल नाम के शाइर को तोहफ़े मे दिया। क़ुम शहर के रहने वाले कुछ लोगों ने देबल से यह लिबास खरीदना चाहा मगर उन्होने बेंचने से मना कर दिया। देबल वह इंक़िलाबी शाइर है जिन्होनें बनी अब्बास के दौरे हुकुमत मे 20 साल तक पौशीदा तौर पर जिंदगी बसर की। और आखिर मे 90 साल की उम्र मे एक रोज़ नमाज़े सुबह के बाद शहीद कर दिये गये।

- नमाज़ और दुआ

क़ुनूत मे पढ़ी जाने वाली दुआओं के अलावा हर नमाज़ी अपनी नमाज़ के दौरान एहदिनस्सिरातल मुस्तक़ीम कह कर अल्लाह से बेहतरीन नेअमत “हिदायत” के लिए दुआ करता है। रिवायात मे नमाज़ से पहले और बाद मे पढ़ी जाने वाली दुआऐं मौजूद हैं जिनका पढ़ना मुस्तहब है। बहर हाल जो नमाज़ पढ़ता वह दुआऐं भी करता है।

अलबत्ता दुआ करने के भी कुछ आदाब हैं। जैसे पहले अल्लाह की तारीफ़ करे फिर उसकी मखसूस नेअमतों जैसे माअरिफ़त, इस्लाम, अक़्ल, इल्म, विलायत, क़ुरआन, आज़ादी व फ़हम वगैरह का शुक्र करते हुए मुहम्मद वा आलि मुहम्मद पर सलवात पढ़े। इसके बाद किसी पर ज़ाहिर किये बग़ैर अपने गुनाहों की तरफ़ मुतवज्जेह हो कर अल्लाह से उनके लिए माफ़ी माँगे और फिर सलवात पढ़कर दुआ करे। मगर ध्यान रहे कि पहले तमाम लोगों के लिए अपने वालदैन के लिए और उन लोगों के लिए जिनका हक़ हमारी गर्दनों पर है दुआ करे और बाद मे अपने लिए दुआ माँगे।

क्योंकि नमाज़ मे अल्लाह की हम्दो तारीफ़ और उसकी नेअमतों का ब्यान करते हुए उससे हिदाय और रहमत की भीख माँगी जाती है। इससे मालूम होता है कि नमाज़ और दुआ मे गहरा राबिता पाया जाता है।

- नमाज़ के लिए क़ुरआन का अदबी अंदाज़े ब्यान

सूरए निसा की 161 वी आयत मे अल्लाह ने दानिशमंदो, मोमिनों, नमाज़ियों और ज़कात देने वालोंकी जज़ा(बदला) का ज़िक्र किया है। लेकिन नमाज़ियों की जज़ा का ऐलान करते हुए एक मखसूस अंदाज़ को इख्तियार किया है।

दानिशमंदों के लिए कहा कि “अर्रासिखूना फ़िल इल्म”

मोमेनीन के लिए कहा कि “अलमोमेनूना बिल्लाह”

ज़कात देने वालों के लिए कहा कि “अलमोतूना अज़्ज़कात”

नमाज़ियों के बारे मे कहा कि “अलमुक़ीमीना अस्सलात”

अगर आप ऊपर के चारों जुमलों पर नज़र करेंगे तो देखेंगे कि नमाज़ियों के लिए एक खास अंदाज़ अपनाया गया है। जो मोमेनीन, दानिशमंदो और ज़कात देने वालो के ज़िक्र मे नही मिलता। क्योंकि अर्रासिखूना, अलमोमेनूना, अल मोतूना के वज़न पर नमाज़ी लोगों का ज़िक्र करते हुए अल मुक़ीमूना भी कहा जा सकता था। मगर अल्लाह ने इस अंदाज़ को इख्तियार नही किया। जो अंदाज़ नमज़ियों के लिए अपनाया गया है अर्बी ज़बान मे इस अंदाज़ को अपनाने से यह मअना हासिल होते हैं कि मैं नमाज़ पर खास तवज्जुह रखता हूँ।

सूरए अनआम की 162वी आयत मे इरशाद होता है कि “अन्ना सलाती व नुसुकी” यहाँ पर सलात और नुसुक दो लफ़ज़ों को इस्तेमाल किया गया है। जबकि लफ़ज़े नुसक के मअना इबादत है और नमाज़ भी इबादत है। लिहाज़ा नुसुक कह देना काफ़ी था। मगर यहाँ पर नुसुक से पहले सलाती कहा गया ताकि नमाज़ की अहमियत रोशन हो जाये।

सूरए अनआम की 73 वी आयत मे इरशाद होता है कि “हमने अंबिया पर वही नाज़िल की कि अच्छे काम करें और नमाज़ क़ाइम करें।” नमाज़ खुद एक अच्छा काम है मगर कहा गया कि अच्छे काम करो और नमाज़ क़ाइम करो। यहाँ पर नमाज़ का ज़िक्र जुदा करके नमाज़ की अहमियत को बताया गया है।

- खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ना ईमान की पहली शर्त

सूरए मोमेनून की पहली और दूसरी आयत मे इरशाद होता है कि बेशक मोमेनीन कामयाब हैँ (और मोमेनीन वह लोग हैं) जो अपनी नमाज़ों को खुशुअ के साथ पढ़ते हैं।

याद रहे कि अंबिया अलैहिमस्सलाम मानना यह हैं कि हक़ीक़ी कामयाबी मानवियत से हासिल होती है। और ज़ालिम और सरकश इंसान मानते हैं कि कामयाबी ताक़त मे है।

फिरौन ने कहा था कि “ आज जिसको जीत हासिल हो गयी वही कामयाब होगा।” बहर हाल चाहे कोई किसी भी तरह लोगों की खिदमत अंजाम दे अगर वह नमाज़ मे ढील करता है तो कामयाब नही हो सकता ।

- नमाज़ और खुशी

सूरए निसा की 142वी आयत मे मुनाफ़ेक़ीन की नमाज़ के बारे मे इरशाद होता है कि वह सुस्ती के साथ नमाज़ पढ़ते हैं। यानी वह खुशी खशी नमाज़ अदा नही करते। इसी तरह सूरए तौबा की 54वी आयत मे उस खैरात की मज़म्मत की गयी है जिसमे खुलूस न पाया जाता हो। और इसकी वजह यह है कि इबादत और सखावत का असल मक़सद मानवी तरक़्क़ी है। और इसको हासिल करने के लिए मुहब्बत और खुलूस शर्त है।

- नमाज़ियों के दर्जात

(अ) कुछ लोग नमाज़ को खुशुअ (तवज्जुह) के साथ पढ़ते हैं।

जैसे कि क़ुरआने करीम ने सूरए मोमेनून की दूसरी आयत मे ज़िक्र किया है “कि वह खुशुअ के साथ नमाज़ पढ़ते हैं।” खुशुअ एक रूहानी और जिसमानी अदब है।

तफ़्सीरे साफ़ी मे है कि एक बार रसूले अकरम (स.) ने एक इंसान को देखा कि नमाज़ पढ़ते हुए अपनी दाढ़ी से खेल रहा है। आपने फ़रमाया कि अगर इसके पास खुशुअ होता तो कभी भी इस काम को अंजाम न देता।

तफ़्सीरे नमूना मे नक़ल किया गया है कि रसूले अकरम (स.) नमाज़ के वक़्त आसमान की तरफ़ निगाह करते थे और इस आयत

(मोमेनून की दूसरी आयत) के नाज़िल होने के बाद ज़मीन की तरफ़ देखने लगे।

(ब) कुछ लोग नमाज़ की हिफ़ाज़त करते हैं।

जैसे कि सूरए अनआम की आयत न.92 और सूरए मआरिज की 34वी आयत मे इरशाद हुआ है। सूरए अनआम मे नमाज़ की हिफ़ाज़त को क़ियामत पर ईमान की निशानी बताया गया है।

(स) कुछ लोग नमाज़ के लिए सब कामों को छोड़ देते हैं।

जैसे कि सूरए नूर की 37वी आयत मे इरशाद हुआ है। अल्लाह के ज़िक्र मे ना तो तिजारत रुकावट है और ना ही वक़्ती खरीदो फ़रोख्त, वह लोग माल को ग़ुलाम समझते हैं अपना आक़ा नही।

(द) कुछ लोग नमाज़ के लिए खुशी खुशी जाते हैं।

(य) कुछ लोग नमाज़ के लिए अच्छा लिबास पहनते हैं ।

जैसे कि सूरए आराफ़ की 31वी आयत मे अल्लाह ने हुक्म दिया है “कि नमाज़ के वक़्त जीनत इख्तियार करो।”

नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना मस्जिद को पुररौनक़ बनाना है।

नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना नमाज़ का ऐहतिराम करना है।

नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना लोगों का ऐहतिराम करना है।

नमाज़ के वक़्त ज़ीनत करना वक़्फ़ और वाक़िफ़ दोनों का ऐहतिराम है। लेकिन इस आयत के आखिर मे यह भी कहा गया है कि इसराफ़ से भी मना किया गया है।

(र) कुछ लोग नमाज़ से दायमी इश्क़ रखते हैं।

जैसे कि सूरए मआरिज की 23वी आयत मे इरशाद हुआ है कि “अल्लज़ीना हुम अला सलातिहिम दाइमून।”“वह लोग अपनी नमाज़ को पाबन्दी से पढ़ते हैं।” हज़रत इमाम बाक़िर अलैहिस्सलाम ने फ़रमाया कि यहाँ पर मुस्तहब नमाज़ों की पाबंदी मुराद है। लेकिन इसी सूरेह मे यह जो कहा गया है कि वह लोग अपनी नमाज़ों की हिफ़ाज़त करते हैं। यहाँ पर वाजिब नमाज़ों की हिफ़ाज़त मुराद है जो तमाम शर्तों के साथ अदा की जाती हैं।

(ल) कुछ लोग नमाज़ के लिए सहर के वक़्त बेदार हो जाते हैं।

जैसे कि सूरए इस्रा की 79वी आयत मे इरशाद होता है कि “फ़तहज्जद बिहि नाफ़िलतन लका” लफ़्ज़े जहूद के मअना सोने के है। लेकिन लफ़्ज़े तहज्जद के मअना नींद से बेदार होने के हैँ।

इस आयत मे पैग़म्बरे अकरम (स.) से ख़िताब है कि रात के एक हिस्से मे बेदार होकर क़ुरआन पढ़ा करो यह आपकी एक इज़ाफ़ी ज़िम्मेदारी है। मुफ़स्सेरीन ने लिखा है कि यह नमाज़े शब की तरफ़ इशारा है।

(व) कुछ लोग नमाज़ पढ़ते पढ़ते सुबह कर देते हैं।

जैसे कि क़ुरआने करीम मे आया है कि वह अपने रब के लिए सजदों और क़ियाम मे रात तमाम कर देते हैं।

(श) कुछ लोग सजदे की हालत मे गिरिया करते हैं।

जैसे कि क़ुरआने करीम मे इरशाद हुआ है कि सुज्जदन व बुकिय्यन।

अल्लाह मैं शर्मिंदा हूँ कि 15 शाबान सन् 1370 हिजरी शम्सी मे इन तमाम मराहिल को लिख रहा हूँ मगर अभी तक मैं ख़ुद इनमे से किसी एक पर भी सही तरह से अमल नही कर सका हूँ। इस किताब के पढ़ने वालों से दरखवास्त है कि वह मेरे ज़ाती अमल को नज़र अन्दाज़ करें। (मुसन्निफ़)

- नमाज़ हम से गुफ़्तुगु करती है

क़ुरआन और रिवायात मे मिलता है कि आलमे बरज़ख और क़ियामत मे इंसान के तमाम आमाल उसके सामने पेश कर दिये जायेंगे। नेकियोँ को खूबसूरत पैकर मे और बुराईयोँ को बुरे पैकर मे पेश किया जायेगा। खूब सूरती और बदसूरती खुद हमारे हाथ मे है। रिवायत मे मिलता है कि जो नमाज़ अच्छी तरह पढ़ी जाती है उसको फ़रिश्ते खूबसूरत पैकर मे ऊपर ले जाते हैं ।और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझको इसी तरह हिफ़्ज़ करे जिस तरह तूने मुझे हिफ़्ज़ किया।

लेकिन वह नमाज़ जो नमाज़ की शर्तों और उसके अहकाम के साथ नही पढ़ी जाती उसको फ़रिश्ते सयाही की सूरत मे ऊपर ले जाते हैं और नमाज़ कहती है कि अल्लाह तुझे इसी तरह बर्बाद करे जिस तरह तूने मुझे बर्बाद किया। (किताब असरारूस्सलात इमाम खुमैनी (र)

दीन की ज़रुरत और इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीन लुग़त में इताअत और जज़ा वग़ैरह के मअना में है और इस्तेलाह में ऐसे अमली और अख़लाक़ी अहकाम व अक़ायद के मजमूए को कहते हैं जिसे ख़ुदा ने नबियों के ज़रिये इंसान की दुनियावी और आख़िरत की हिदायत व सआदत के लियह नाज़िल फ़रमाया है, उन अक़ायद को जान कर और उन अहकाम पर अमल करके इंसान दुनिया व आख़िरत में सआदत मंदी हासिल कर सकता है। जो इल्मे वुजूदे खु़दा, सिफ़ाते सुबूतिया व सल्बिया, अद्ल, नबुव्वत, इमामत और क़यामत के बारे में बहस करता है उसे उसूले दीन कहते हैं।

दीन की ज़रुरत

दीन हर इंसान के लियह ज़रुरी है इस लियह कि इँसान को फ़ुज़ूल पैदा नही किया गया है बल्कि उस की ज़िन्दगी के कुछ उसूल होते है जिन पर अमल करके वह अपनी ज़िन्दगी में कमाल पैदा कर सकता है और सआदत की मंज़िलों तक पहुच सकता है लेकिन सवाल यह है कि उन उसूल व क़वानीन को कौन मुअय्यन करे? इस सवाल के जवाब में तीन राहें मौजूद हैं जिन में से सिर्फ़ एक राह सही है:

पहला रास्ता

हर इंसान अपनी ख़्वाहिश के मुताबिक़ अपने लिये क़ानून बनाए, यह रास्ता ग़लत है इस लिये कि इंसान का इल्म महदूद है जिसके नतीजे में वह हमेशा ग़लतियाँ करता रहता है और उस की नफ़सानी ख़्वाहिशात का तूफ़ान किसी वक़्त भी उस को ग़र्क़ कर सकता है लिहाज़ा आप ख़ुद सोचें कि क्या इंसान अपनी नाक़िस और महदूद फ़िक्र के ज़रिये अपने लियह उसूल व क़वानीन बना सकता है।

दूसरा रास्ता

इंसान लोगों की फ़िक्रों और सलीक़ों के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून मुअय्यन करे, यह रास्ता भी ग़लत है इस लिये कि लोगों की तादाद भी ज़्यादा है और उन की ख़्वाहिशें, फ़िक्रें और सलीक़ें भी मुख़्तलिफ़ हैं तो इंसान किस किस की बातों पर अमल करेगा और दूसरी बात यह है कि दूसरे लोग भी तो इंसान ही हैं इस लिये उन में भी ग़लतियों का बहुत ज़्यादा इम्कान पाया जाता है लिहाज़ा जब लोग अपने लिये भी क़ानून नही बना सकते तो फिर किसी दूसरे के लिये किस तरह क़ानून बना सकते है?

तीसरा रास्ता

इंसान ख़ुद को किसी ऐसी ज़ात के हवाले कर दे जिस ने उसको बनाया है और जो उसके माज़ी, हाल और मुस्तक़िबल से आगाह है यानी इंसान अपनी ज़िन्दगी की तरीक़ा और जीने का सलीक़ा उसी से हासिल करे जिसने उसे पैदा किया है।

यह तीसरा रास्ता ही सही है इस लिये कि जिस तरह हम अपनी गाड़ी को मैकेनिक और अपने जिस्म को बीमारी के वक़्त डाक्टर के हवाले कर देते हैं क्योकि वह इस सिलसिले में हम से ज़्यादा आगाह है उसी तरह हमें अपनी ज़िन्दगी के उसूल व क़वानीन को मुअय्यन करने के लियह अपने आप को उस ज़ात के हवाले कर देना चाहिये जो हर चीज़ का जानने वाला है। वह ज़ात सिर्फ़ ख़ुदा वंदे आलम की ज़ात है जिसने इस्लाम की शक्ल में इंसान की इंफ़ेरादी और समाजी ज़िन्दगी के लियह उसूल व क़वानीन नाज़िल फ़रमाए हैं।

इस्लाम की हक़्क़ानीयत

दीने इस्लाम चूँकि आख़िरी दीन है इसी लियह उसे ख़ुदा ने कामिल बनाया है और उसी मुक़द्दस दीन के आने के बाद दूसरे आसमानी दीन ख़त्म कर दियह गयह क्योकि जब कामिल आ जाये तो नाक़िस की कोई ज़रूरत बाक़ी नही रह जाती, दीने इस्लाम को ख़ुदा वंदे आलम ने हमारे प्यारे नबी हज़रत मुहम्मद सल्लल्लाहो अलैहे वा आलिहि वसल्लम के ज़रिये इंसान की हिदायत के लियह नाज़िल फ़रमाया है, सआदत का यह चिराग़ दुनिया वालों के लियह उस वक़्त रौशन हुआ जब इँसान और इंसानियत को बुराईयों और ख़राबियों के अँधेरों ने घेर रखा था।

खु़दा की तरफ़ से भेजा गया यह मुक़द्दस दीन ऐसा है कि हर फ़र्द और हर तबक़ा उस के मुताबिक़ अपनी ज़िन्दगी गुज़ार कर दुनिया व आख़िरत की बेहतरीन ख़ुशियाँ हासिल कर सकता है।

बुढ़े व बच्चे, पढ़े लिखे व अनपढ़, मर्द व औरत, अमीर व ग़रीब सब के सब मसावी तौर पर दीने इस्लाम से फ़ायदा उठा सकते हैं इस लिये कि इस्लाम दीने फ़ितरत है और फ़ितरत इँसानों के तमाम तर इख़्तिलाफ़ात के बावजूद सब के अंदर एक जैसी होती है।

नतीजा यह हुआ कि इस्लाम एक ऐसा दीन है जो इँसानों की बुनियादी और फ़ितरी मुश्किलों को हल करता है लिहाज़ा यह हमेशा ज़िन्दा रहने वाला दीन है। यह बात भी वाज़ेह है कि इस्लाम आसान दीन है और इँसान पर सख़्ती नही करता, ख़ुदा वंदे आलम ने इस दीन के बुनियादी उसूल व क़वायद अपनी किताब क़ुरआने मजीद में बयान फ़रमाया है जो पैग़म्बरे इस्लाम (स) पर नाज़िल हुई है।

ख़ुलासा

- लुग़त में दीन, इताअत और जज़ा के मअना में है और इस्तेलाह में उन अमली व अख़लाक़ी अहकाम को दीन कहते हैं जिसे ख़ुदा वंद ने नबियों के ज़रिये नाज़िल फ़रमाया है।

- हर इँसान के लियह दीन ज़रुरी है क्योकि वह दीन के बग़ैर अपनी ज़िन्दगी में सआदत हासिल नही कर सकता।

- सिर्फ़ ख़ुदा, इँसान की ज़िन्दगी के लियह क़ानून बना सकता है क्योकि वह हर चीज़ का जानने वाला है।

- दीने इस्लाम, आख़िरी और कामिल आसमानी दीन है जिसे हमारे नबी हज़रत मुहम्मद (स) ले कर आयह हैं और उस के बुनियादी क़वानीन क़ुरआने मजीद में मौजूद हैं।

- इस्लाम दीने फ़ितरत है लिहाज़ा यह दीन बड़े छोटे, पढ़े लिखे, ज़ाहिल, मर्द व औरत, गोरे काले, अमीर व ग़रीब सब के लियह सआदत बख़्श है।

सवालात

1. इस्तेलाह में दीन के क्या मअना है?

2. दीन का होना क्यों ज़रुरी है?

3. इंसान अपनी ज़िन्दगी के लियह क़ानून क्यो नही बना सकता है?

4. क्यो सिर्फ़ ख़ुदा ही इँसान की ज़िन्दगी के लिये उसूल व क़वानीन बना सकता है?

5. क्या इस्लाम हर फ़र्द और तबक़े के लियह सआदत बख़्श है? क्यों?

रविवार, 02 जून 2013 04:15

तफ़सीरे सूरए हम्द

तफ़सीरे सूरए हम्द

तफ़सीरे सूरए हम्द

हमें ज्ञात है कि वर्तमान विकसित और औद्योगिक जगत में जो वस्तु भी बनाई जाती है

उसके साथ उसे बनाने वाली कंपनी द्वारा एक पुस्तिका भी दी जाती है जिसमें उस वस्तु की तकनीकी विशेषताओं और उसके सही प्रयोग की शैली का उल्लेख होता है। इसके साथ ही उसमें उन बातों का उल्लेख भी किया गया होता है जिनसे उस वस्तु को क्षति पहुंचने की आशंका होती है।

हम और आप ही नहीं, सारे मनुष्य, वास्तव में एक अत्यधिक जटिल व विकसित मशीन हैं जिन्हें सर्वसक्षम व शक्तिशाली ईश्वर ने बनाया है किंतु हम अपने शरीर व आत्मा की जटिलताओं और कमज़ोरियों के कारण सम्पूर्ण आत्मबोध और कल्याण के मार्ग के चयन में सक्षम नहीं है। तो क्या हम एक टीवी या फ़्रिज से भी कम महत्व रखते हैं? टीवी और फ़्रिज बनाने वाले तो उसके साथ मार्ग दर्शक पुस्तिका देते हैं किंतु हमारे लिए कोई ऐसी किताब नहीं है? क्या हम मनुष्यों को किसी प्रकार की मार्गदर्शक पुस्तिका की आवश्यकता नहीं है कि जो हमारे शरीर और आत्मा की निहित व प्रकट विशेषताओं को उजागर कर सके या जिसमें उसके सही प्रयोग के मार्गों का उल्लेख किया गया हो और यह बताया गया हो कि कौन सी वस्तु मनुष्य के शरीर और उसकी आत्मा के विनाश का कारण बनती है?

क्या यह माना जा सकता है कि ज्ञान व प्रेम के आधार पर हमें बनाने वाले ईश्वर ने हमें अपने हाल पर छोड़ दिया है और हमें सफलता व कल्याण का मार्ग नहीं दिखाया है?

पवित्र क़ुरआन वह अंतिम किताब है जिसे ईश्वर ने मार्गदर्शन पुस्तक के रूप में भेजा है। इसमें कल्याण व मोक्ष और इसी प्रकार से विनाश व असफलता के कारणों का उल्लेख किया गया है।

पवित्र क़ुरआन में सही पारिवारिक व सामाजिक संबंधों, क़ानूनी व नैतिक मुद्दों, शारीरिक व आत्मिक आवश्यकताओं, व्यक्तिगत व सामाजिक कर्तव्यों, विभिन्न समाजों की रीतियों व कुरीतियों, आर्थिक व व्यापारिक सिद्धान्तों तथा बहुत से ऐसे विषयों का वर्णन किया गया है जो व्यक्ति या समाज के कल्याण या विनाश में प्रभावी हो सकते हैं।

यद्यपि क़ुरआन में युद्धों, लड़ाइयों और अतीत की बहुत सी जातियों के रहन-सहन के बारे में बहुत सी बातों का उल्लेख किया गया है किंतु क़ुरआन कोई कहानी की किताब नहीं है बल्कि हमारे जीवन के लिए एक शिक्षाप्रद किताब है। इसीलिए इस किताब का नाम क़ुरआन है अर्थात पाठ्य पुस्तक। ऐसी किताब जिसे पढ़ना चाहिए। अलबत्ता केवल ज़बान द्वारा नहीं क्योंकि यह तो पहली कक्षा के छात्रों की पढ़ाई की शैली है, बल्कि इसे चिन्तन व मंथन के साथ पढ़ना चाहिए क्योंकि क़ुरआन में भी इसी का निमंत्रण दिया गया है।

एक बात या एक वाक्य को आयत कहते हैं और इसी प्रकार कई आयतों के समूह को एक सूरा कहते हैं। पवित्र क़ुरआन में ११४ सूरे हैं। पवित्र क़ुरआन के सबसे पहले सूरे का नाम हम्द अर्थात ईश्वर का गुणगान है और चूंकि क़ुरआन इसी सूरे से आरंभ होता है इसलिए इस सूरे को फ़ातेहतुल किताब अर्थात क़ुरआन को खोलने वाला भी कहा जाता है। सात आयतों वाले इस सूरे के महत्व का इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि समस्त मुसलमानों के लिए अपनी पांचों समय की नमाज़ों में इस सूरे को पढ़ना अनिवार्य है। इस सूरे को एक ऐसी आयत से आरंभ किया गया है जिसे हर काम से पहले पढ़ना बहुत अच्छा होता है। पहली आयत हैः

 

بسم اللہ الرحمن الرحیم

बिस्मिल्ला हिर्रहमानिर्रहीम

अनुवादः उस ईश्वर के नाम से जो अत्याधिक कृपाशील व दयावान है।

प्राचीनकाल से ही यह चलन रहा है कि लोग कोई काम करने से पूर्व शुभ समझे जाने वाले लोगों, वस्तुओं या फिर अपने देवताओं का नाम लेते हैं।

ईश्वर सबसे बड़ा है। उसी की इच्छा से ब्रह्मांड की रचना हुई है। इसलिए प्रकृति धर्म की पुस्तक अर्थात क़ुरआन और सभी ईश्वरीय ग्रंथ भी उसी के नाम से आरंभ हुए हैं। इसके साथ ही इस्लाम हमें यह आदेश देता है कि हम अपने सभी छोटे-बड़े कार्यों को بسم اللہ (बिस्मिल्लाह) से आरंभ करें ताकि उसका शुभारंभ हो सके।

 

इस प्रकार بسم اللہ से हमें यह पाढ मिलते हैं:

بسم اللہ कहना इस्लाम धर्म से ही विशेष नहीं है बल्कि क़ुरआन के अनुसार नूह पैग़म्बर की नौका भी بسم اللہ द्वारा ही आगे बढ़ी थी। सुलैमान पैग़म्बर ने जिन्हें यहूदी और ईसाई सोलोमन कहते हैं, जब सीरिया की महारानी सबा को पत्र लिखा था तो उसका आरंभ بسم اللہ से ही किया था। بسم اللہ अर्थात ईश्वर के नाम से आरंभ उसपर भरोसा करने और सहायता मांगने का चिन्ह है। بسم اللہ से मनुष्य के कामों पर ईश्वरीय रंग आ जाता है जिससे दिखावे और अनेकेश्वरवाद से दूरी होती है।

بسم اللہ अर्थात हे ईश्वर, मै तुझे भूला नहीं हूं तू भी मुझे न भूलना।

इस प्रकार بسم اللہ करने वाला स्वयं को ईश्वर की असीम शक्ति व कृपा के हवाले कर देता है।

क़ुरआने मजीद के पहले सूरे की दूसरी, तीसरी और चौथी आयतें इस प्रकार हैं:

الحمد للہ رب العالمین* الرحمن الرحیم* مالک یوم الدین*

अनुवादः सारी प्रशंसा ईश्वर के लिए है जो पूरे ब्रह्माण्ड का पालनहार है। वह अत्यन्त कृपाशील और दयावान है और वही प्रलय के दिन का स्वामी है।

हम ईश्वर के नाम और उसके स्मरण के महत्व से अवगत हो चुके हैं। अब हमारा सबसे पहला कथन ईश्वर के प्रति कृतज्ञता के संबन्ध में है। वह ऐसा ईश्वर है जो पूरे ब्रहमाण्ड और संसार का संचालक है। चाहे वे जड़ वस्तुए हों, वनस्पतियां हों, पशु-पक्षी हों, मनुष्य हों या फिर धरती और आकाश। ईश्वर वही है जिसने पानी की एक बूंद से मनुष्य की रचना की है और उसके शारीरिक विकास के साथ ही उसके मानसिक मार्गदर्शन की भी व्यवस्था की है।

ईश्वर के प्रति हमारी और सभी वस्तुओं की आवश्यकता केवल सृष्टि की दृष्टि से नहीं है बल्कि सभी वस्तुओं से ईश्वर का संपर्क अत्यन्त निकट और अनंतकालीन है। अतः हमें भी सदैव ही उसकी अनुकंपाओं पर कृतज्ञ रहना चाहिए। उसकी बंदगी का अर्थ यह है कि हम तत्वदर्शी और सर्वशक्तशाली ईश्वर की उस प्रकार से प्रशंसा करें जैसा उसने कहा है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि ईश्वर सभी प्रशंसकों की प्रशंसा से कहीं उच्च है।

अगली आयत इस ओर संकेत करती है कि हम जिस ईश्वर पर ईमान रखते हैं वह प्रेम, क्षमा और दया का प्रतीक है। उसकी दया और कृपा के उदाहरणों को मनमोहक प्रकृति, नीले आकाश और सुन्दर पक्षियों में देखा जा सकता है। यदि कुछ आयतों में ईश्वर के कोप और दण्ड का उल्लेख किया गया है तो यह लोगों को चेतावनी देने के लिए है न कि द्वेष और प्रतिशोध के लिए। अतः जब भी ईश्वर के बंदों को अपने कर्मों पर पछतावा हो और वे प्रायश्चित करना चाहें तो वे ईश्वर की अनंत दया के पात्र बन सकते हैं।

चौथी आयत ईश्वर को प्रलय के दिन का स्वामी बताती है। यह आयत ईश्वर के बंदों के लिए एक चेतावनी है कि वे ईश्वरीय क्षमा के प्रति आशा के साथ ही प्रलय के दिन होने वाले कर्मों के हिसाब-किताब की ओर से निश्चेत न रहें। ईश्वर लोक-परलोक दोनों का ही मालिक है परन्तु प्रलय में उसके स्वामित्व का एक अन्य ही दृष्य होगा। धन-संपत्ति और संतान का कोई भी प्रभाव नहीं होगा। यहां तक कि मनुष्य अपने अंगों तक का स्वामी नहीं होगा। उस दिन स्वामित्व एवं अधिकार केवल ईश्वर के पास ही होगा। उस दिन दयालु सृष्टिकर्ता, मनुष्य के किसी भी कर्म की अनेदखी नहीं करेगा और हमने जो भी अच्छे या बुरे कर्म किये हैं वह उनका हिसाब-किताब करेगा। अतः उचित है कि हम अपने भले कर्मों के साथ प्रलय में उपस्थित हों और ईश्वर की अनंत अनुकंपाओं के पात्र बनें।

सर्वोच्च शक्ति और निकटतम ईश्वर की प्रशंसा के पश्चात अगली आयतों में हम उसके समक्ष हाथ फैलाते हैं और उससे मार्ग दर्शन की प्रार्थना करते हैं।

सूरए हम्द की पांचवी, छठी और सातवीं आयतें इस प्रकार हैं:

ایاک نعبد و ایاک نستعین* اھدنا الصراط المستقیم* صراط اللذین انعمت علیھم غیرالمغضوب علیھم و لا الضآلین*

अनुवादः प्रभुवर हम तेरी ही उपासना करते हैं और केवल तुझ से ही सहायता चाहते हैं। हमें सीधे मार्ग पर बाक़ी रख। उन लोगों के मार्ग पर जिन्हें तूने अपनी अनुकंपाएं दी हैं। ऐसे लोगों के मार्ग पर नहीं जो तेरे प्रकोप का पात्र बने और न ही पथभ्रष्ट लोगों के मार्ग पर।

यह आयतें ईश्वर के प्रति उसके पवित्र बंदों की उपासना और निष्ठा से परिपूर्ण आत्मा का चित्रण करती है। ईश्वर सभी वस्तुओं से श्रेष्ठ है और इसीलिए उसकी उपासना का सही अर्थ यह है कि हम अपने हर कर्म के समय ईश्वर को उपस्थित समझें और दिल से यह बात मानें कि हम जीवित, युक्तिपूर्ण और तत्वदर्शी ईश्वर की बात कर रहे हैं और दूसरे यह कि हमारी उपासना एक उपस्थित और अवगत बंदे की उपासना हो। यह न हो कि विदित रूप से हम उपासना करें परन्तु हमारा हृदय किसी और की ओर उन्मुख हो। उपासना की इस प्रकार की समझ से हम ऐसे ईश्वर के समक्ष अपनी विनम्रता प्रकट करते हैं जिसका पवित्र अस्तित्व मानव मन में सीमित नहीं हो सकता। इस प्रकार हम यह कहते हैं कि उसके अतिरिक्त कोई भी उपासना के योग्य नहीं है और हम उसके समझ नतमस्तक रहते हुए अपने सभी मामलों में केवल उसी से सहायता चाहते हैं। फिर हम ईश्वर से प्रार्थना करते हैं कि यदि हम सीधे मार्ग पर हैं तो हमें उसी मार्ग पर बाक़ी रखे और यदि हम सीधे मार्ग पर नहीं हैं तो सीधे मार्ग की ओर वह हमारा मार्ग दर्शन करे। यह ऐसे लोगों का मार्ग है कि जिन्हें ईश्वर ने अपनी अनुकंपाएं दी हैं और जो पथभ्रष्ट नहीं हैं।

यह आयत बताती है कि जीवन के मार्ग के चयन में मनुष्यों के तीन गुट हैं। एक गुट वह है जो सीधे मार्ग का चयन करता है और अपने व्यक्तित्व तथा सामाजिक जीवन को ईश्वर के बताए हुए क़ानूनों के आधार पर संचालित करता है। दूसरा गुट उन लोगों का है जो यद्यपि सत्य को समझ चुके हैं परन्तु इसके बावजूद उससे मुंह मोड़ लेते हैं। ऐसे लोग ईश्वर के अतिरिक्त अन्य लोगों के प्रभुत्व में चले जाते हैं। ऐसे लोगों के कर्मों के परिणाम धीरे-धीरे उनके अस्तित्व में प्रकट होने लगते हैं और वे सीधे मार्ग से विचलित होकर ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनते हैं। तीसरा गुट उन लोगों का है जिनका कोई स्पष्ट और निर्धारित मार्ग नहीं है। यह लोग इधर-उधर भटकते रहते हैं। हर दिन एक नए मार्ग पर चलते हैं परन्तु कभी भी गन्तव्य तक नहीं पहुंच पाते। आयत के शब्द में यह लोग पथभ्रष्ट घोषित किए गए हैं। अलबत्ता सीधे मार्ग की पहचान सरल काम नहीं है क्योंकि ऐसे अनेक लोग हैं जो सत्य के नाम पर लोगों को ग़लत बातों और पथभ्रष्टता की ओर ले जाते हैं या ऐसे कितने मनुष्य हैं जो स्वयं अतिश्योक्ति के मार्ग पर चल पड़ते हैं। ईश्वर ने अनेक आयतों में सच्चों के व्यवहारिक उदाहरणों का उल्लख किया है।

ईश्वर ने सूरए निसा की ६९वीं आयत में कहा है कि पैग़म्बर, सत्यवादी, शहीद और भले कर्म करने वाले उसकी विशेष अनुकंपा के पात्र हैं। अतः सही मार्ग वह है जिसपर पैग़म्बर, ईश्वर के प्रिय बंदे और पवित्र तथा ईमान वाले लोग चले हैं। निश्चित रूप से कुछ लोगों के मन में यह प्रश्न आएगा कि पथभ्रष्ट और ईश्वर के प्रकोप का पात्र बनने वाले लोग कौन हैं? इस संबन्ध में क़ुरआने मजीद ने अनेक लोगों और गुटों को पेश किया है। इसका सबसे स्पष्ट उदाहरण बनी इस्राईल या यहूदी जाति है। इस जाति के लोग एक समय ईश्वरीय आदेशों के पालन के कारण ईश्वर की कृपा का पात्र बने और अपने समय के लोगों पर उन्हें श्रेष्ठता प्राप्त हो गई किंतु यही जाति अपने ग़लत कर्मों तथा व्यवहार के कारण ईश्वरीय प्रकोप और दण्ड से भी ग्रस्त हुई।

रविवार, 02 जून 2013 04:06

जन्नत

जन्नत

इंसान क़यामत में उठाये जाने के बाद अपने नाम ए आमाल को देखेगा

और उसी के मुताबिक़ जन्नत या जहन्नम में जायेगा। जन्नत एक हमेशा बाक़ी रहने वाली जगह है जिसे ख़ुदा वंदे आलम ने अपने नेक और सालेह बंदों को ईनाम देने के लिये पैदा किया है, जन्नत में हर तरह की जिस्मानी और रुहानी लज़्ज़तें मौजूद होगें।

जिस्मानी लज़्ज़तें

क़ुरआन मजीद की आयतों में बहिश्त की बहुत सी जिस्मानी लज़्ज़तों का तज़किरा हुआ है जिन में से बाज़ यह है:

1. बाग़: बहिश्त में आसमान व ज़मीन से भी ज़्यादा बड़े बाग़ होगें। (सूर ए आले इमरान आयत 133) यह बाग़ तरह तरह के फलों से भरे हुए होगें। (सूर ए दहर आयत 14, सूर ए नबा आयत 32)

2. महल: क़ुरआने मजीद में बहिश्त के घरों के बारे में ‘’मसाकिने तय्यबा’’ का लफ़्ज़ आया है जिस में समझ में आता है कि उस में हर क़िस्म का आराम व सुकून होगा। (सूर ए तौबा आयत 72)

3. लज़ीज़ खाने: क़ुरआन की आयतों से मालूम होता है कि बहिश्त में हर तरह के खाने होगें। इसलिये कि इस बारे में

مما یشتهون.

(सूर ए मुरसलात आयत 42) की ताबीर इस्तेमाल हुई है जिस के मअना हैं जन्नती जो भी चाहेगा वह हाज़िर होगा।

1. लज़ीज़ शरबत: जन्नत में तरह तरह के लज़ीज़ शरबत होगें। इस लिये कि क़ुरआन मजीद में

لذة للشاربین

1. (सूर ए मुहम्मद आयत 47) का इस्तेमाल हुआ है यानी वह शरबत, पीने वाले के लिये लज़ीज़ होता है।

2. बीवियाँ: ज़ौजा या बीवी इंसान के सुकून का सबब होती है। आयतों और हदीसों से मालूम होता है कि जन्नत में ऐसी बीवियाँ होगीं। जो हर तरह की ज़ाहिरी और बातिनी ख़ुसूसियात से आरास्ता होंगी, वह इंतेहाई हसीन, मेहरबान और पाक होगीं। (सूर ए बक़रा आयत 25, सूर ए आले इमरान आयत 15)

रूहानी लज़्ज़ते

क़ुरआने मजीद में जन्नत की जिस्मानी लज़्ज़तों की तरह बहुत सी रुहानी लज़्ज़तों का भी तज़किरा हुआ है जिन में से बाज़ यह है:

1. मख़्सूस ऐहतेराम: जन्नत में दाख़िल होते ही फ़रिश्ते उन का मख़सूस इस्तिक़बाल करेगें और हमेशा ऐहतेराम करेगें, हर दरवाज़े से फ़रिश्ते दाख़िल होगें और कहेगें कि दुनिया में इज़्ज़त और इस्तेक़ामत की वजह से तुम पर सलाम हो। (सूर ए राद आयत 23, 24)

2. मुहब्बत और दोस्ती का माहौल: बहिश्त में हर तरह की मुहब्बत और दोस्ती का माहौल होगा। (सूर ए निसा आयत 69)

3. ख़ुशी और मुसर्रत का अहसास: ख़ुशी और मुसर्रत की वजह से जन्नत वालों के चेहरे खिले होगें, उन की शक्ल व सूरत नूरानी, ख़ुश और मुस्कुराती हुई होगी। (सूर ए अबस आयत 39)

4. ख़ुदा वंदे आलम की ख़ुशनूदी: ख़ुदा के राज़ी होने का अहसास सबसे बड़ी लज़्ज़त है जो जन्नत वालों को हासिल होगी। (सूर ए मायदा आयत 119)

5. ऐसी नेमतें जिन का तसव्वुर भी नही किया जा सकता: जन्नत में ऐसी चीज़ें और नेमतें होगीं जिन का इंसान तसव्वुर भी नही कर सकता। पैग़म्बरे इस्लाम (स) फ़रमाते हैं कि जन्नत में ऐसी नेमते होगीं जिन्हे न किसी आँख ने देखा है और न किसी दिल में उन का ख़्याल भी आया होगा। (नहजुल फ़साहा हदीस 2060)

क़ुरआने मजीद में जन्नत की उन तमाम जिस्मानी व रूहानी लज़्ज़तों और नेमतों की वजह से मुसलमानों से कहा गया है:

لمثل هذا فلیعمل العاملون .

(अगर ऐसी जन्नत चाहिये तो अमल करने वाले वैसा ही अमल करें।)

ख़ुलासा

- इंसान अपने नाम ए आमाल के मुताबिक़ या जन्नत में जायेगा या जहन्नम में। जन्नत एक हमेशा बाक़ी रहने वाली जगह है जहाँ ख़ुदा वंदे आलम नेक लोगों को ईनाम देगा।

- जन्नत में बहुत से जिस्मानी व रूहानी लज़्ज़तें और नेंमतें होगीं। जिस्मानी लज़्ज़तें जैसे बाग़, महल, लज़ीज़ खाने, लज़ीज़ शरबत, ख़ूबसूरत बीवियाँ वग़ैरह।

- रूहानी लज़्ज़तें जैसे जन्नत वालों को ख़ास ऐहतेराम, मुहब्बत व दोस्ती का माहौल, ख़ुशी का अहसास, ख़ुशनूदी ए ख़ुदा और ऐसी नेमतें जिन का तसव्वुर भी नही किया जा सकता।

- ऐसी जन्नत पाने के लिये आमाल भी उसी तरह करने होगें। इस लिये कि क़ुरआन में वाज़ेह तौर पर इरशाद होता है:

لمثل هذا فلیعمل العاملون

(सूर ए साफ़्फ़ात आयत 60)

सवालात

1. जन्नत क्या है?

2. जन्नत की कम से कम तीन जिस्मानी नेमतों को बयान करें?

3. जन्नत की कम से कम तीन रूहानी लज़्ज़तों को बयान करें?

4. क़ुरआन ने जन्नत हासिल करने का क्या तरीक़ा बताया है?

आयतुल्लाह शहीद मुहम्मद बाक़िरुस सद्र

दीने इस्लाम की ताकत का एक रास्ता इत्तेहाद व एकता और इस आरज़ू के मुहक्किक़ होने में जिन उलमा व दानिशवरों नें मोवस्सर किरदार अदा किया और उम्मते इस्लामी की इस्लाह की सई व कोशिश की है उनका तआरूफ़ कराना है।

असरे हाज़िर में दुश्मनाने इस्लाम के सक़ाफ़ती व ऐतेक़ादी हमलों के मुक़ाबले में सुकूत इस्लाम को हर ज़माने से ज़्यादा नुक़सान पहुचा रहा है जिस तरह गुज़िश्ता अदवार में इस्लामी हुकूमतों के सरबराहों की नालाऐक़ी और मज़हबी इख़्तेलाफ़ात को हवा देने की वजह से हम बहुत से गरां क़द्र और क़ीमती इस्लामी आसार को खो चुके हैं और अरसे से अपने फिक्री व फ़न्नी सरमायों को बेबुनियाद इख़्तेलाफ़ात की नज़्र करते आये हैं।

दीने इस्लाम अपने तमाम तर सरमायों और बेनज़ीर अर्ज़िशों के बावजूद कभी भी ऐसा मौक़ा नहीं पा सका की मुसलमानों के दरमीयान कमा हक्क़हू और शाईस्ता तौर से अपनी आरज़ुओं को पूरा कर सके अब वक्त आ पहुचा है कि हम इस्लाम पर हक़ीकत की ऐनक लगा कर नज़र करें और सदरे इस्लाम के इख़्लास व ईमान पर दोबारा नज़र ड़ाल कर इस्लामी मज़ाहिब के गुनागूँ मुश्तरेकात को अपना नस्बुल ऐन क़रार दें ताक़ि एक बार फिर मुत्तहिद कवी और ताकत वर इस्लाम की तस्वीर पेश कर सकें।

इस मक़सद तक रसाई के लिऐ मुतअद्दिद अवामिल की फ़राहमी ज़रूरी है। जिनमें से एक आमिल इस्लामी मुल्कों के उलमा और इल्मी शख़्सियात का तआरुफ़ सरे दस्त हम दो मुसलमान दानिशवरों का तआरुफ़ पेश कर रहे हैं। जिन्होंने इस्लामी मज़ाहिब को एक दूसरे से क़रीब करने मुसलमानों को मुत्तहिद करने और ऊम्मते इस्लामी को बेदार करने में बड़ा अहम किरदार किया है।

मुकद्दिमा

वला तहसबन्नल लज़ीना क़ोतेलू फ़ी सबी लिल्लाहे अमवाता बल अहयाउन इन्द रब्बेहिम युर्ज़क़ून (सुर ए आले इमरान आयत 169)

और जिन लोगों को राहे खुदा में कत्ल कर दिया गया हैं तुम उन्हें मुर्दा न समझो बल्कि वह ज़िन्दा हैं और अपने परवरदिगार के पास से रिज़्क़ पाते हैं।

तारिख़ के वसीअ दामन में कुछ ऐसे बुज़ुर्ग और रौशन ख्याल इन्सान मौजूद रहे हैं जिनकी सादिक़ाना कोशिशों का उनके मक़ीमो मर्तबे के लायक़ तआरुफ़ नहीं हो सका है जिन्होंने कल्म ए इस्लाम की सर बुलन्दी की राह में और मुसलमान कौम के दरमियान इत्तेहाद व यकजहती की ख़ातिर बड़ी मुख़्लेसाना कोशिशें कीं और उस राह में अपनी जान का नज़राना भी पेश कर दिया।

आयतुल्लाह शहीद सैय्यद मुहम्मद बाक़िरुस सद्र उन्ही बुज़ुर्ग शख्सियात में से एक हैं जिनकी कोशिशों और बुनियादी अफ़कार व नज़रियात को इस्लामी मुआशरों में कम पहचाना गया और उनकी मुजाहिदाना ज़िन्दगी के हक़ायक़ व वाकेयात से कमतर रू शनास कराया गया है। उन्होंने आगाज़े हयात से ही अपने आपको इस्लाम के बुनियादी अफ़कार के देफाअ के लिए वक़्फ़ कर दिया था और इराक की बअस पार्टी के सर फिरे हुक्मरानों का खौफ़ अपने ऊपर तारी नहीं होने दिया। अपनी ज़बान व कलम के ज़रीए इल्हादी व इन्हेराफ़ी अफ़कार के सामने जेहाद व मुबारज़े का अलम लहरा दिया और दीनदार मुसलमानों और नई नस्ल से अपने साथ तआऊन की अपील की।

ये मुख़्तसर तहलील नस्ले पैग़म्बरे अकरम सल्लल्लाहो अलेहे व आले ही वसल्लम के इस मुजाहिद की हयात का एक मुख़्तसर तआरुफ़ है जिसने मुख़्तलिफ़ मैदानों में बड़ा कारसाज़ किरदार अदा किया और ज़बान व कलम की कुदरत व ताक़त से भरपूर फाएदा उठा कर इस्लामी अक़दार के उसूल को तमाम ऐतेकादी, मुआशरती, सेयासी मराहील में पेश करने में अपनी हमे तन कोशिशों से दरेग़ न किया। अगरचे मुख्तसर उम्र के मालिक हुए और अपने तमाम दीनी व सेयासी मक़ासिद को हासिल न कर सके लेकिन बजा तौर पर कहने दीजिये कि इस्लाम के तईं आप की 47 साला ज़िन्दगी की ख़िदमात ना क़ाबिले फरामोश हैं, खास तौर पर जब आपने मर्जेईयत की दहलीज़ पर कदम रखा और भरपूर तरीके से उम्मते इस्लामी की कलमरो की हिफाज़त का बीड़ा उठाया और दीनी साख़्त व शिनाख्त को तमाम इस्लामी सरज़मीनों पर फैला दिया क़ाबिले ज़िक्र ये है कि इस मुक़ाबले में ऐसे मनाबे व मआख़ज़ से इस्तेफादा किया गया है कि जिसके लिखने वाले आपके शागिर्द थे, और जो नज़दीक से उनके बहुत से हालात व वाकेयात के शाहिद रहे हैं।

ख़ानदाने सद्र और उसकी नुमायाँ शख्सियात

शहीद सद्र के आबा व अजदाद दो सदी से ज़्यादा ज़माने तक लेबनान, सीरिया व ईराक जैसे मुल्कों में इन्सानों के लिऐ मशअले हिदायत और दीनी सरपरस्ती के मरकज़ रहे हैं और इस तूलानी ज़माने में बहुत से अल्काब जैसे आले अबी सुबहा, आले हुसैन अलक़तई, आले अब्दुल्लाह, आले अबिल हसन, आले शरफ़ुद्दीन, और आख़िर में आले सद्र से मशहूर रहे हैं, आले सद्र की निस्बत जो इस ख़ानदान का आख़िरी सिलसिले सदरुद्दीन सद्र (मुतवफ्फी 1264) तक पहुँचती है जिनकी औलाद आले सद्र कहलाती है सैय्यद सदरुद्दीन जबले आमिल के क़रीये, मारके में 1192 हिजरी क़मरी में पैदा हुए और चार साल की उम्र में अपने बाप सैय्यद सालेह के हमराह नजफ़े अशरफ तशरीफ लाये और फिर काज़मैन गये और वहाँ से ईस्फ़हान आये फिर दोबारा नजफे अशरफय पलट गऐ और वहाँ सन 1264 हिजरी में वफ़ात पा गये और रौज़ए इमाम अली अलैहिस्सलाम के मग़रेबी सहन में बाबे सुल्तानी के क़रीब सुपुर्दे खाक़ किऐ गऐ, आप का शुमार बुज़ुर्ग तरीन शिया उलामा में होता है, बचपन से ही उलूमे इस्लामी की तहसील में बेपनाह शौक रखते थे, कहा जाता है कि सात साल की उम्र में आपने किताबे क़तरुन निदा पर तअलीका लगाया और आपका ब्यान खुद ये नक्ल हुआ है कि सन 1205 हिजरी में यानी 12 साल के सिन में उस्ताद आक़ाए बहबहानी के दर्से ख़ारिज में शरीक होते थे और सिन्ने बुलूग़ को पहुँचने से पहले ही दर्ज ए इजतेहाद पर फायज़ हो गए और अल्लामा सैय्यद अली तबॉतबाई साहिबे रियाज़ुल मसायल (शरहे कबीर) के दस्ते मुबारक से इजतेहाद की गवाही हासिल कर ली (हुसैनी हायेरी 1375 सफ़हा 116 और 17)।

इस ख़ानदान की दूसरी बड़ी शख्सीयत जनाब सैय्यद इस्माईस सद्र (मोतवफ्फी 1338 हिजरी) की है आप भी पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद सदरूद्दीन की तरह दीनी मरजईयत के ओहदे पर फायज़ थे आप सन 1264 हिजरी में अपने पेदरे बुज़ुर्गवार की रेहलत के बाद अपने भाई सैय्यद मुहम्मद अली सद्र मअरुफ बे (आका मुजतहिद) के ज़ेरे तरबीयत रहे यहाँ तक कि सिन्ने बुलूग़ को पहुँच गऐ आप इस्फ़हान में रहते थे सन 1280 हिजरी में यानी 22 साल की ऊम्र में नजफ़े अशरफ हिजरत कर गऐ और वहाँ उस्तादे आज़म शैख मुरतज़ा अंसारी (मुत्वफ्फी सन 1280 हिजरी) को हुज़ूर में फिक्ह व उसूल की तअलीम हासिल करने पहुँचे लेकिन जिस वक्त आप करबला पहुँचे तो शैख अंसारी का इंतेक़ाल हो चुका था लिहाज़ा आप करबला से नजफ़ पहुँच कर दूसरे नामी असातीद की शागिर्दी में तअलिम हासिल करके शिया उलमा की सफ़हे अव्वल में शुमार होने लगे और फिक़्ह व उसूल में तजुर्बा और दीनी मरजईयत के मुक़ाम तक रसाई के अलावा अपने ज़माने के अक़्ली उलूम जैसे कलाम, फ़लसफ़ा, रियाज़ियात, हिन्दसह, हैयत और क़दीम नुजूम से भी बहरामंद हुए (नोअमानी, 1424 क़मरी, जिल्द 1, सफ्हा 32)।

तालीमी दौर के आपके आख़िरी उस्ताद जनाब मज्द शिराज़ी उलमा मिर्ज़ा मोहम्मद हसन थे। सैय्यद इस्माईल आपके ख़ास शागिर्दों में शुमार होते थे। बाद में जब मिर्ज़ा ए शिराज़ी सामर्रा तशरीफ ले गए तो आप नजफ़े अशरफ में ही रहे और फिर पन्द्रह शाबान सन 1309 हिजरी को हज़रते ईमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के रौज़ए अक़्दस की ज़ियारत के क़स्द से करबला रवाना हुए आप करबला ही में थे कि एक खत मिर्ज़ा ए शिराज़ी की जानिब से आपको मौसूल हुआ जिसमे आपके ऊस्ताद ने आपको हुक्म दिया था कि बगैर किसी तअम्मुल और सुस्ती के फौरन सामर्रा के लिये रवाना हो जाये। सैय्यद ईस्माईल ने भी उस्ताद की आवाज़ पर लब्बैक कहते हुऐ सामर्रा की तरफ़ सफ़र किया और उस्ताद की सिफारिश के मुताबिक सामर्रा को अपना वतन व मस्कन क़रार दिया और मिर्ज़ा ए शिराज़ी की वफ़ात के बाद शिया मरजईयत की ज़िम्मेदारी आपके काँधों पर आई। (हुसैनी हायरी गुज़श्ता हवाला सफहा 22)।

सैय्यद इस्माईल कुछ वजहों के बाइस सामर्रा से करबला मुन्तकिल हो गए और उम्र के आख़िरी अय्याम में ईलाज की ग़रज़ से काज़मैन चले गऐ। आपने सन 1338 हिजरी में काज़मैन में वफ़ात पाई और अपने पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद सदरुद्दीन सद्र के जवार में अपने ख़ानदानी मक़बरे मे सुपुर्दे खाक किये गए। (गुज़श्ता हवाला, सफहा 23)

 

इस ख़ानदान की एक और बुज़र्ग शख्सीयत मरहूम सैय्यद हैदर सद्र (मुतवफ्फी 1256 हिजरी) फ़रज़न्द सैय्यद इस्माईल सद्र और शहीद सैय्यद बाक़िरूस सद्र के पेदरे बुज़ुर्गवार थे सैय्यद हैदर अपने ज़माने के यगाना इंसान और ज़ोहद व तक़्वा का मज़हर थे आपने सन 1309 हिजरी मे सामर्रा में आँखें खोंलीं और 27 जमादिस्सानी 1356 हिजरी काज़मैन में वफ़ात पाई और अपने ख़ानदानी मक़बरे में दफ़्न हुए, आपने बचपने में सन 1313 हिजरी में अपने पेदरे बुज़ुर्गवार के साथ करबला हिजरत की और इब्तेदाई दरुस वहाँ के चन्द असातीद से हासिल किए फिर अपने पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद इस्माईल के दर्से खारिज में और करबला में हुसैन फेशारकी और मरहूम शैख़ अब्दुल करीम हायरी यज़दी (मुत्वफ्फी 1355 हिजरी) के जलसाते दर्स में शरीक हुए और रफ़ता रफ़ता जवानी के आलम में ही हौज़ ए इल्मिया के नामवर उलमा में शुमार होने लगे सैय्यद हैदर के दो बेटे और एक बेटी थी,

1. आयतुल्लाह सैय्यद ईस्माईल हैदर

2. शहीद सैय्यद मोहम्मद बाक़िरुस सद्र

3. शहीदा आमिना सद्र मारुफ़ बिन्तुल हुदा (नोअमानी, 1426, जिल्द 1, सफहा 37,).

शहीद सैय्यद मोहम्मद बाकिरुस सद्र की माँ, मरहूम आयतुल्लाह शेख़ अब्दुल हुसैन आले यासीन की बेटी थीं, जो खुद भी अपने ज़माने की बुज़ुर्ग फ़क़ीहा थीं इस मायनाज़ खातून ने तुलानी उम्र और अपने दो फ़रज़न्द (शहीद बाकिरुस सद्र और उनकी बहन शहीदा बिन्तुल हुदा) की जानसोज़ हादस ए शहादत का मुशाहिदा करने के बाद रबिउस्सानी सन 1407 हिजरी में दावते हक़ को लब्बैक कही। (हुसैनी हायरी, गुज़श्ता हवाला, सफहा 32)

शहीद सद्र की वेलादत और बचपन

शहीद सैय्यद मोहम्मद बाक़िरुस सद्र ने 5 ज़िलकअदा 1353 हिजरी शहरे काज़मैन में आखें खोलीं, आपके पेदरे बुज़ुर्गवार सैय्यद हैदर मराजे तक़लीद में से थे जिनका सिलसिल ए नस्ब हज़रते इमामे मूसा काज़िम अलौहिस्सलाम से मिलता है उस ख़ानदान की ख़ुसूसियात में से एक यह है कि सबके सब अपने जमाने के उलमा व फ़ोक़हा के ज़ुमरे में शामिल थे और यह वो ख़ुसूसियत है जो एक ही ख़ानदान के तमाम अफ़राद में कमतर पाई जाती है। (नोअमानी गुज़श्ता हवाले, सफहा 47)

आप अपने आलिम बाप की रेहलत के बाद अपनी पाकदामन माँ और बड़े भाई सैय्यद इस्माईल सद्र के ज़ेरे तरबीयत परवान चढ़े कमसीनी से ही आपके अंदर ज़कावत व ज़ेहानत के आसार नुमायाँ थे आपने अपने इब्तेदाई दुरुस काज़मैन मदरस ए (मुन्तदन नश्र) में हासिल किये और आपके जिगरी दोस्त मरहूम मोहम्मद अली ख़लीली के बक़ौल जिन्होंने आपके हमराह एक ही मदरसे में तलिम हासिल की थी आपकी ज़ेहनियत व खुश अख्लाकी सबब बनी कि मदरसे के तमाम छोटे बड़े तलबा आपकी तरफ़ माएल हों और आपकी रफ्तारो किरदार को ज़ेरे नज़र रखते थे, इसी तरह असातीद भी आपका ऐहतेराम किया करते थे मदरसे के तमाम तलबा जानते थे कि आप बड़े ज़हीन हैं और मदरसे के दुरुस में अपने हमसिन व साल लड़कों से आगे आगे रहते हैं। यही वजह है कि मदरसे के असातीद हमेशा आपको बेहतरीन और मेहनती, बा अदब तालीबे इल्म के उनवान से दूसरे तलबा के सामने रू शनाश कराते थे। (हुसैनी हायरी, गुज़श्ता हवाला, सफ़हा 36)

एक अहम सबब जो आपके लिए लोगों के दर्मियान शोहरत पाने का ज़मीना फ़राहम कर गया और आपकी अज़मत और शेनाख्त का दायरा मदरसे की चहारदीवारी से निकल कर लोगो के दरमियान वुसअत पा गया वह अज़ादारी ए इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम के प्रोग्रामों में आपकी तकरीरें और शेर ख्वानी थी, शहीद सद्र इब्तेदा ए तहसील से ही हज़रत इमाम मूसा काज़िम अलैहिस्सलाम के सहने मोतहर में नस्ब मिम्बर पर तशरीफ लेजा कर ख़ुतबा दिया करते थे आपका दिल आवेज़ बयान जो बगैर किसी लुकनत के ज़ुबान पर जारी हो जाता था सबको हैरत में गर्क़ कर देता था और तअज्जुब खेज़ अम्र ये है कि आप इन मतालिब को मदरसे और हरमे काज़मी के रास्ते के दरमियान रास्ते में आमादा कर लिया करते थे। ( गुज़श्ता हवाला, सफहा 37).

शहीद सद्र फिक्री मतालिब के फ़हमो हज़्म में अपने हम कलासों से इस कदर आगे थे कि इन्टरवल के टाईम में जिन बाज़ मतालिब को वह अपने दोस्तों से नक़्ल करते थे वह उनके लिये नया होता था आप ग़ैर दर्सी किताबों के मोतलए के बाद जब फ़लसफी और जदीद मबाहिस पर मुश्तमिल ऐसे ऐसे बयानात दोस्तों के दरमियान नक़्ल करते थे कि आपके अहबाब पहली बार इस तरह के कलेमात आपसे सुनते थे और उनके मुसन्नेफ़ीन से पहली बार आशना होते थे शहीद सद्र कमसिनी में भी इस क़दर पुरवकार और बा हैबत थे कि आपके एक उस्ताद जिनका नाम (अबू बरा) था कहते हैं (जब भी वह अपने असातीद से बात करते थे तो सर को झुका कर और नज़रों को नीचा करके बात करते थे मैं उन्हें एक पाक और बेगुनाह बच्चे के बाइस दोस्त रखता था और दूसरी जानिब एक बुज़ुर्गवार शख्सियत की हैसियत से दोस्त देखता था और उनका ऐहतेराम करता था क्योंकि वह इल्मो दानिश और मारेफ़त से लबरेज़ थे यहाँ तक कि एक दिन मुझ से नहीं रहा गया और मैं ने उनसे कहा कि मैं उस दिन के इन्तेज़ार में हूँ कि आप के चश्म ए इल्मो दानिश से सैराब हो जाऊँ और आपके अफ़कारो आरा की रौशनी में रास्ता चल सकूँ लेकिन उन्होंने नेहायत अदब और ऐहतेराम और शर्मसारी के साथ जवाब दिया। उस्ताद आप मुझे माफ़ फरमाएं मैं मुसलसल आपका शागिर्द और इन मदरसे के बाहर उन बुज़ुर्ग का शागिर्द हूँ जिसने मुझे दर्स दिया है। (गुज़श्ता हवाला, सफहा 46)

रविवार, 02 जून 2013 03:48

सब्र व तहम्मुल

सब्र व तहम्मुल

رَبَّنَا أَفْرِغْ عَلَيْنَا صَبْرًا

पालने वाले हमें सब्र अता फ़रमा।

सूरः ए बक़रा आयत 250

ख़ुदावंदे आलम ने क़ुरआने मजीद में इस नुक्ते की दो बार तकरार की है कि

يسری ان مع العسر

आराम व सुकून दुशवारी व सख़्ती के साथ है। दक़ीक़ मुतालए से मालूम होता है कि निज़ामे ज़िन्दगी बुनियादी तौर पर इसी वाक़ेईयत पर चल रहा है। लिहाज़ा हर शख़्स चाहे वह मामूली सलाहियत वाला हो या ग़ैर मामूली सलाहियत वाला, अगर वह अपने लिए कामयाबी के रास्ते खोलना चाहता है और अपने वुजूद से फ़ायदा उठाना चाहता है तो उसे चाहिये कि निज़ामे ख़िलक़त की हक़ीक़त को समझते हुए अपने कामों में सब्र व इस्तेक़ामत से काम ले और हक़ीक़त बीनी व तदबीर से ख़ुद को आरास्ता करे।

बड़े काम, कभी भी चन्द लम्हों में पूरे नही होते, बल्कि उनकी प्लानिंग व नक़्क़ाशी में वक़्त और ताक़त सर्फ़ करने के अलावा सब्र व इस्तेक़ामत की भी ज़रूरत होती है। क्योंकि इंसान मुश्किलों व सख़्तियों से गुज़ार कर ही कामयाबी हासिल करता है।

इसमें कोई शक व षुब्हा नही है कि कुछ लोग ज़िन्दगी की राह में कामयाब हो जाते हैं और कुछ नाकाम रह जाते हैं। बुनियादी तौर पर कामयाब व नाकाम लोगों के दरमियान मुमकिन है बहुत से फ़र्क़ पाये जाते हों और उनकी कामयाबी व नाकामी की बहुतसी इल्लतें हो मगर कामयाबियों का एक अहम सबब, सख़्तियों और परेशानियों का सब्र व इस्तेक़ामत के साथ सामना करना है।

मामूली से ग़ौरो फ़िक्र से यह बात वाज़ेह हो जाती है कि अगर इस दुनिया के निज़ाम में सख़्तियाँ व मुश्किलें न होती तो इंसानों की सलाहियतें हरगिज़ ज़ाहिर न हो पातीं और यह सलाहियतें सिर्फ़ क़ुव्वत की हद तक ही महदूद रह जाती अमली न हो पातीं।

देहाती नौजवानों में ख़ुदकुशी का वुजूद नही है। क्योंकि बचपन से ही उनकी ज़िन्दगी ऐसे माहौल में गुज़रती है कि वह मुश्किलों के आदी हो जाते हैं। लड़कियों को दूर से पानी भर कर लाना पड़ता है, लड़के जानवरों को चराने के लिए जंगलों ले जाते हैं। वह माँ बाप की ख़िदमत के लिये खेतों और बाग़ों में अपना पसीना बहाते हैं। लेकिन चूँकि शहरी नौजवान ऐशो व आराम की ज़िन्दगी में पलते बढ़ते है, लिहाज़ा जब किसी मुश्किल में दोचार होते हैं तो ज़िन्दगी से तंग आकर ख़ुदकुशी कर लेते हैं।

इससे मालूम होता है कि इंसान सख़्तियों और दुशवारी का जितना ज़्यादा सामना करता है उसकी रुहानी व जिस्मानी ताक़त उतनी ही ज़्यादा परवरिश पाती है।

हम सभी ने टेलीवीज़न पर रिलीज़ होने वाली फ़िल्मों में देखा हैं कि अस्कीमों (बर्फ़िले इलाक़ो में रहने वाले लोग) में मायूसी व नाउम्मीदी नही पाई जाती। बल्कि उनका ख़ुश व ख़ुर्रम व खिला हुआ चेहरा, ज़िन्दगी की तमाम मुश्किलों का दन्दान शिकन जवाब हैं। क्या आप जानते हैं कि उनकी इस ख़ुशी की क्या वजह है ? इसकी वजह यह है चूँकि उनकी ज़िन्दगी में दूसरी तमाम जगहों से ज़्यादा मुश्किलें है लिहाज़ा उनमें मुशकिलों से टकराने की ताक़त भी दूसरों से बहुत ज़्यादा होती है। हालाँकि मुश्किलों का मुक़ाबला करने की ताक़त हर इंसान को अता की गयी है और हर इंसान की ज़िम्मेदारी है कि मुश्किलों के मुक़ाबले के लिये ख़ुद को तैयार रखे और मुशकिलों के वक़्त उस क़ुव्वत व ताक़त को इस्तेमाल में लाये जो ख़ुदावंदे आलम ने हर इंसान के वुजूद में वदीयत की है और उसके ज़रिये मुशकिलों का मुक़ाबला करके कामयाबी हासिल करे।

मुश्किलें इंसान को सँवारती हैं

आज, जिस इंसान ने अपने लिए ऐशो आराम के तमाम साज़ो सामान मुहिय्या कर लिए हैं, वह उसी इंसान की नस्ल से है जो शुरु में गुफ़ाओ और जंगलों में ज़िन्दगी बसर करता था और जिसको चारों तरफ़ मुशकिलें ही मुशकिलें थीं। उन्हीं दुशवारियों व मुश्किलों ने उसकी सलाहियतों को निखारा और उसको सोचने समझने पर मजबूर किया जिससे यह तमाम उलूम और टेक्नालाजी को वुजूद में आईं। इससे यह साबित होता है कि सख़्तियाँ और दुशवारियाँ इंसानों को सवाँरती हैं।

अल्लाह के पैगम्बर जो मुक़द्दस व बल्न्द मक़सद लेकर आये थे, उन्हें उस हदफ़ तक पहुँचने के लिये तमाम इंसानों से ज़्यादा मुशकिलों का सामना करना पड़ा और इन्ही मुशकिलों ने उन्हे रूही व अख़लाक़ी एतेबार से बहुत मज़बूत बना दिया था लिहाज़ा वह सख़्तियों में मायूसी व नाउम्मीदी का शिकार नही हुए और सब्र व इस्तेक़ामत के साथ तमाम दुशवारियों में कामयाब हुए।

मौजूदा ज़माने में हम सब ने अपनी आँख़ों से देखा कि अमेरिकी ज़ालिमों ने वेतनाम के लोगों पर किस क़दर ज़ुल्म व सितम ढाये, औरतों और बच्चों को कितनी बेरहमी व बेदर्दी से मौत के घाट उतारा, असहले और हर तरह के जंगी साज़ व सामान से लैस होने के बावजूद अमेरिकियों को एक मसले की वजह से हार का मुँह देखना पड़ा और वह था उस मज़लूम क़ौम का सब्र व इस्तेक़ामत।

नहजुल बलाग़ा में नक़्ल हुआ है कि हज़रत अली (अ) ने ख़ुद को उन दरख़्तों की मानिंद कहा है जो बयाबान में रुश्द पाते हैं और बाग़बानों की देख भाल से महरूम रहते हैं लेकिन बहुत मज़बूत होते हैं, वह सख्त आँधियों और तूफ़ानों का सामना करते हैं लिहाज़ा जड़ से नही उखड़ते, जबकि शहर व देहात के नाज़ परवरदा दरख़्त हल्की सी हवा में जड़ से उखड़ जाते हैं और उनकी ज़िन्दगी का ख़ात्मा हो जाता है।

الا و ان الشجرة البرية اصلب عودا و الروائع الخضرة ارق جلودا

जान लो कि जंगली दरख़्तों को चूँकि सख़्ती व पानी की क़िल्लत की आदत कर लेते है इस लिये उनकी लकड़ियाँ बहुत सख़्त और उनकी आग के शोले ज़्यादा भड़कने वाले और जलाने वाले होते हैं।

इस नुक्ते पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि कामयाबी माद्दी चीज़ों और असलहे के बल बूते पर नही मिलती बल्कि वह क़ौम जंग जीतती है जिसमें सब्र व इस्तेक़ामत का जज़्बा होता है।

रोसो कहता है: अगर बच्चे को कामयाबी व कामरानी तक पहुँचाना हो तो उसे छोटी मोटी मुश्किलों में उलझाना चाहिये ताकि इससे उसकी तरबियत हो और वह ताक़तवर बन जायें।

हम सब जानते है कि जब तक लोहा भट्टी में नही डाला जाता उसकी कोई क़द्र व क़ीमत नही होती। इसी तरह जब तक इंसान मुशकिलों और दुशवारीयों में नही पड़ता किसी लायक़ नही बन पाता।

हज़रत अली(अ) फ़रमाते हैं:

بالتعب الشديد تدرك الدراجات الرفيعة و الراحة الدائمة

दुशवारियों और मुशकिलों को बर्दाश्त करने के बाद इंसान दाइमी सुकून और बुलंद मंज़िलों को पा लेता है।

एक दूसरी जगह पर हज़रत(अ) इस तरह फ़रमाते:

المومن نفسه اصلب من الصلد

मर्दे मोमिन का नफ़्स ख़ारदार पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है।

हज़रत अली (अ) फ़रमाते है:

اذا فارغ الصبر الامور فسدت الامور

जब भी कामों से सब्र व इस्तेक़ामत ख़त्म हो जायेगें, ज़िन्दगी के सारे काम तबाही व बर्रबादी की तरफ़ चले जायेगें।

समाजी ज़िन्दगी में सब्र

इल्मी, इज्तेमाई व रूहानी कामयाबियों को हासिल करने के लिये सब को सब्र व तहम्मुल की ज़रूरत होती है। तमाम कामयाबियाँ एक दिन में ही हासिल नही की जा सकती, बल्कि बरसों तक खूने दिल बहाते हुए सब्र व तहम्मुल के साथ मुशिकिलों से निपटते हुए आगे बढ़ना पड़ता है। जो लोग दुनिया परस्त थे वह मुद्दतों खूने दिल बहा कर मुताद्दिद दरों पर सलामी देकर ख़ुद को कही पहुचाँ सके हैं।

इल्मी कामलात के मैदान में भी पहले उम्र का एक बड़ा हिस्सा इल्म हासिल करने में सर्फ़ करना पड़ता है, तब इंसान इल्म की बलन्द मंज़िलों तक पहुँच पाता है। इसी तरह मअनवी मंज़िलों के लिये भी बिला शुब्हा एक मुद्दत तक अपने नफ़्स को मारने और तहम्मुल व बुर्दबारी की ज़रूरत होती है, तब कहीं जाकर अल्लाह की तौफ़ीक़ के नतीजे में मअनवी मक़ामात हासिल हो पाते हैं।

घरवालों की अहम ज़िम्मेदारी

वालेदैन को कोशिश करनी चाहिये कि शुरु से ही अपने बच्चों को अमली तौर पर मुश्किलों से आशना करायें, अलबत्ता इस बात का ख़्याल रखें कि यह काम तदरीजन व धीरे धीरे होना चाहिये। माँ बाप को इस बात पर भी तवज्जो देनी चाहिये कि यह रविश बच्चों से प्यार मुहब्बत के मुतनाफ़ी नही है। सर्वे से यह बात सामने आयी है कि जो वालेदैन अपने बच्चों को बहुत ज़्यादा लाड प्यार की वजह से मेहनत नही करने देते, वह अपने बच्चों की तरबियत में बहुत बड़ी ख़्यानत करते है। क्योंकि लाड प्यार में पलने वाले बच्चे जब अपने घरवालो की मुहब्बत भरी आग़ोश से जुदा हो कर समाजी ज़िन्दगी में क़दम रखते हैं तो उस वक़्त उन्हे मालूम होता है कि उनकी तरबीयत में क्या कमी रह गयी है।

रविवार, 02 जून 2013 03:45

ज़िक्रे ख़ुदा

ज़िक्रे ख़ुदा

ऐ अज़ीज़म! इस राह को तै करने के लिए पहले सबसे पहले लुत्फ़े ख़ुदा को हासिल करने की कोशिश करो और कुरआने करीम के वह पुर माअना अज़कार जो आइम्माए मासूमीन अलैहिम अस्सलाम ने बयान फ़रमाये हैं, उनके वसीले से क़दम बा क़दम अल्लाह की ज़ाते मुक़द्दस से करीब हो, मख़सूसन उन अज़कार के मफ़ाही को अपनी ज़ात में बसा लो जिन में इँसान के फक़्र और अल्लाह की ज़ात से मुकम्मल तौर पर वा बस्ता होने को बयान किया गया है। और हज़रत मूसा (अ.) की तरह अर्ज़ करो कि “रब्बि इन्नी लिमा अनज़लता इलय्या मिन ख़ैरिन फ़क़ीरुन ” पालने वाले मुझ पर उस ख़ैर को नाज़िल कर जिसका मैं नियाज़ मन्द हूँ।

या हज़रत अय्यूब (अ.) की तरह अर्ज़ करो कि-“रब्बि इन्नी मस्सन्नी अज़्ज़र्रु व अन्ता अर्हमुर राहीमीन ” पालने वाले मैं घाटे में मुबतला हो गया हूँ और तू अरहमर्राहेमीन है।

या हज़रत नूह (अ.) की तरह दरख़्वास्त करो कि----- “रब्बि इन्नी मग़लूबुन फ़न्तसिर ” पालने वाले मैं (दुश्मन व हवाए नफ़्स से) मग़लूब हो गया हूँ मेरी मद फ़रमा।

या हज़रत यूसुफ़ (अ.) की तरह दुआ करो कि- “या फ़ातिरा अस्समावाति वल अर्ज़ि अन्ता वलिय्यी फ़ी अद्दुनिया वल आख़िरति तवफ़्फ़नी मुस्लिमन वल हिक़नी बिस्सालीहीन। ऐ आसमानों ज़मीन के पैदा करने वाले तू दुनिया और आख़ेरत में मेरा वली है मुझे मुसलमान होने की हालत में मौत देना और सालेहीन से मुलहक़ कर देना।

या फिर जनाबे तालूत व उनके साथियों की तरह इलतजा करो कि “ रब्बना अफ़रिग़ अलैना सब्रा व सब्बित अक़दामना वन सुरना अला क़ौमिल काफ़ीरीना ” पालने वाले हमको सब्र अता कर और हमें साबित क़दम रख और हमें क़ौमे काफ़िर पर फ़तहयाब फ़रमा।

या फिर साहिबाने अक़्ल की तरह अर्ज़ करो कि “रब्बिना इन्नना समिअना मुनादियन युनादी लिल ईमानि अन आमिनु बिरब्बिकुम फ़आमन्ना रब्बना फ़ग़फ़िर लना ज़ुनूबना व कफ़्फ़िर अन्ना सय्यिआतना व तवफ़्फ़ना मअल अबरारि।” पालने वाले हमने, ईमान की दावत देने वाले तेरे मुनादियों की आवाज़ को सुना और ईमान ले आये, पालने वाले हमारे गुनाहों को बख़्श दे, हमारे गुज़िश्ता गुनाहों को पौशीदा कर दे और हम को नेक लोगों के साथ मौत दे।

इन में से जिस जुमले पर भी ग़ौर किया जाये वही मआरिफ़ व नूरे इलाही का एक दरिया है, हर जुमला इस आलमे हस्ति के मबदा से मुहब्बतो इश्क़ की हिकायत कर रहा है। वह इश्क़ो मुहब्बत जिसने इंसान को हर ज़माने में अल्लाह से नज़दीक किया है।

मासूमीन अलैहिमुस्सलाम के अज़कार , ज़ियारते आशूरा,ज़ियारते आले यासीन, दुआ-ए- सबाह, दुआ-ए- नुदबा, दुआ-ए- कुमैल वग़ैरह से मदद हासिल करो, यहाँ तक कि दुआ-ए अरफ़ा के जुमलात को अपनी नमाज़ों में पढ़ सकते हो। नमाज़े शब को हर गिज़ फ़रामोश न करो चाहे उसके मुस्तहब्बात के बग़ैर ही पढ़ो क्योँ कि यह वह किमया-ए बुज़ुर्ग और अक्सीरे अज़ीम है जिसके बग़ैर कोई भी मक़ाम हासिल नही किया जा सकता और जहाँ तक मुमकिन हो ख़ल्क़े ख़ुदा की मदद करो (चाहे जिस तरीक़े से भी हो) कि यह रूह की परवरिश और मानवी मक़ामात की बलन्दी पर पहुँच ने में बहुत मोस्सिर है।

इन दुआओं के लिए अपने दिल को आमादा कर के अपने हाथों को उस मबदा-ए-फ़य्याज़ की बारगाह में दराज़ करो क्योँ कि उसकी याद के बग़ैर हर दिल मुरदा और बे जान है।

इसके बाद तय्यबो ताहिर अफ़राद (पैग़म्बरान व आइम्मा-ए-मासूमीन अलैहिमुस्सलाम) और इनकी राह पर चलने वाले अफ़राद यानी बुज़ुर्ग उलमा व आरेफ़ान बिल्लाह के दामन से मुतमस्सिक हो जाओ और उन के हालात पर ग़ौर करो इस से मुहाकात (बाहमी बात चीत) की बिना पर उनके बातिनी नूर का परतू तुम्हारे दिल में भी चमकने लगेगा और इस तरह तुम भी उनकी राह पर गाम ज़न हो जाओ गे।

बुज़ुर्गों की तारीख़ पर ग़ौर करना, ख़ुद उनके साथ बैठने और बात चीत करने के मुतरादिफ़ है। इसी तरह बुरे लोगों की ज़िदन्गी की तारीख़ का मुतालआ बुरे लोगों के साथ बैठने के मानिन्द है ! इन दोनो बातो में से जहाँ एक के सबब अक़्लो दीन में इज़ाफ़ा होता है वहीँ दूसरी की वजह से बदबख़्ती तारी होती है।

वैसे तो इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम की ज़ियारत के लिए जितने भी सफ़र किये तमाम ही पुर नूर और पुर सफ़ा रहे मगर इन में से एक सफ़र को मैं इस लिए नही भूल सकता क्योँ कि उस में मुझे फ़ुर्सत के लम्हात कुछ ज़्यादा ही नसीब हुए और मैंने फ़ुर्सत के इन लम्हात में अपने ज़माने के एक आरिफ़े इस्लामी (कि जिनकी ज़ात नुकाते आमुज़न्दह से ममलू है) के हालात का मुतालआ किया तो अचानक मेरे वुजूद में एक ऐसा शोर और इँक़लाब पैदा हुआ जो इस से पहले कभी भी महसूस नही हुआ था। मैंने अपने आपको एक नई दुनिया में महसूस किया ऐसी दुनिया में जहाँ की हर चीज़ इलाही रँग मे रँगी हुई थी मैं इश्क़े इलाही के अलावा किसी भी चीज़ के बारे में नही सोच रहा था और मामूली सी तवज्जोह और तवस्सुल से आँखों से अश्को का दरिया जारी हो रहा था।

लेकिन अफ़सोस कि यह हालत चन्द हफ़्तो के बाद जारी न रह सकी है, जैसे ही हालात बदले वह मानमवी जज़बा बी बदल गया, काश के वह हालात पायदार होते उस हालत का एक लम्हा भी एक पूरे जहान से ज़्यादा अहमियत रखता था

मतदाताओं को आकृष्ट करने के लिए गलत सूचनाओं का सहारा न लें।

इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने ११वें राष्ट्रपति चुनाव के प्रत्याशियों से सिफारिश की है कि वह संचार माध्यमों में अपने प्रचार के समय वास्तविकताओं और सही सूचनाओं पर भरोसा करें।

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वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने बुधवार को संसद की स्थापना की वर्षगांठ के अवसर पर सांसदों से भेंट में बल दिया कि राष्ट्रपति पद के प्रत्याशियों पर टीवी और रेडियो में प्रचार के समय भारी कर्तव्य होता और उन्हें ध्यान रखना चाहिए कि लोगों को आकृष्ट करने के लिए गलत सूचनाएं न दें और देश के बारे में केवल वास्तविकताएं ही उन्हें बताएं और मतदाताओं को आकृष्ट करने के लिए अन्य प्रत्याशियों का अपमान न करें।

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वरिष्ठ नेता ने कहा कि ईरानी जनता की सूझबूझ और टीवी व रेडियो पर उन्हें अपनी बात कहने के लिए जो अवसर दिया गया है उसके दृष्टिगत इस बात की बहुत संभावना है कि चुनाव में सही परिणाम तक पहुंच जाया जाए।

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वरिष्ठ नेता ने भारी भागीदारी के साथ चुनाव आयोजन को शत्रुओं की धमकियों को प्रभावहीन बनाए जाने का कारण बताया और कहा कि इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था एक मज़बूत और जनता पर आधारित व्यवस्था है और इस प्रकार के चुनाव आयोजन से ईरान में सुरक्षा, शक्ति तथा सम्मान में वृद्धि का वातावरण बनेगा। वरिष्ठ नेता ने बल दिया कि सब को यह प्रयास करना चाहिए कि चुनाव जनता की भारी भागीदारी और उत्साह के साथ आयोजित हों क्योंकि क्रांति के आरंभ से अब तक इस्लामी गणतंत्र ईरान की शक्ति जनता के समर्थन के कारण ही है। उन्होंने बल दिया कि न्यायपालिका और सरकार दोनों के कानून के आधार पर अपने अपने कर्तव्य हैं और उन्हें अपनी सीमा में रहते हुए एक दूसरे के साथ सहयोग करना चाहिए।