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ईरान और अमरीका ने एक दूसरे के बंदियों को आज़ाद किया
संयुक्त राष्ट्र संघ में इस्लामी गणतंत्र ईरान के राजदूत ने बताया है कि ईरान और अमरीका के मध्य कूटनैतिक वार्ता के बाद ईरान व अमरीका की दोहरी नागरिकता रखने वाले चार बंदियों को ईरान ने रिहा कर दिया है।
गुलामहुसैन खुशरू ने शनिवार को बताया कि इसी प्रकार अमरीकी जेलों में निराधार आरोपों में बंद सात ईरानी नागरिकों को अमरीका ने रिहा करने का फैसला किया है।
उन्होंने बताया कि इसके अलावा कई एेसे ईरानी भी हैं जिनकी सज़ा खत्म होने के बाद उन्हें अमरीका में निरीक्षण में नहीं रखा जाएगा और वापस ईरान भेज दिया जाएगा।
उन्होंने इसी प्रकार बताया कि 14 अन्य ईरानी नागरिक के नाम जिन्हें अमरीका की मांग पर इन्टरपोल ने वान्टेट घोषित किया था, इन्टरपोल की सूचि से हटा दिया जाएगा।
इस से पहले तेहरान के अटार्नी जनरल ने बताया था कि ईरान में जासूसी के आरोप में जेल में बंद अमरीकी ईरानी नागरिक जैसन रेज़ाइयान सहित ईरान व अमरीका की दोहरी नागरिकता रखने वाले चार बंदियों को जेल से रिहा कर दिया गया है।
जैसन रेज़ाइयान, उनकी पत्नी और दो अन्य लोगों को डेढ़ साल पहले तेहरान में गिरफ्तार किया गया था।
इन लोगों पर ईरान के खिलाफ अमरीका के लिए जासूसी का आरोप था।
सुन्नी मस्जिदों की सुरक्षा की जाएः आयतुल्लाह सीस्तानी
इराक़ के वरिष्ठ शिया धर्मगुरू ने देश की सरकार से मांग की है कि वह सुन्नी मुसलमानों की मस्जिदों की सुरक्षा करे।
आयतुल्लाहिल उज़मा सीस्तानी ने अपने एक बयान में दियाला प्रांत में सुन्नी मुसलमानों की मस्जिदों मेें हुए बम विस्फोटों की कड़ी निंदा की। उन्होंने कहा कि मस्जिदों की सुरक्षा और इस प्रकार की घटनाओं को रोकने की पूरी ज़िम्मेदारी इराक़ के सुरक्षा बलों पर है। उनका यह बयान नजफ़ के इमामे जुमा और आयतुल्लाह सीस्तानी के प्रतिनिधि शैख़ अब्दुल महदी कर्बलाई ने नमाज़े जुमा के ख़ुतबों में पढ़ कर सुनाया।
ज्ञात रहे कि गुरुवार को दियाला प्रांत के मिक़दादिया नगर में सात मस्जिदों और दसियों दुकानों में बम धमाके हुए थे। उससे एक दिन पहले भी इसी नगर में दो बम धमाके हुए थे जिनमें 23 व्यक्ति मारे गए थे। इराक़ के प्रधानमंत्री ने गुरुवार को मिक़दादिया की यात्रा करके सुरक्षा अधिकारियों से मुलाक़ात की और सुरक्षा स्थिति के बारे में रिपोर्ट तलब की थी।
मलेशिया में कुरान याद करने वाले केन्द्रों के मानकीकरण के लिऐ विशेष समिति का अनुरोध
मलेशियाई समाचार एजेंसी (Bernama) के अनुसार, ज़ुलकिफ़्ल अब्दुल ग़नी, मलेशिया के इस्लामी विज्ञान विश्वविद्यालय के एक प्रोफेसर ने कहा: इस समिति का गठन हिफ़्ज़े कुरान के स्कूलों के शिक्षण प्रोग्राम मानकीकरण की रविश को, जो कि मलेशियाई इस्लामी विकास विभाग और शिक्षा कार्यान्वित के लिए सलाहकार बोर्ड की ओर से जारी होगा, आसान कर देगा।
उन्होंने कहा, ववास्तव में,इस समय कुरआनी और वैज्ञानिक मुद्दों के एकीकरण पर एक मॉडल है जो कुछ हिफ़्ज़े कुरान केन्द्रों में अस्तित्व में आया है।
Rosenau Vang हाशिम, मलेशिया के शिक्षकों की राष्ट्रीय शिक्षा परिषद के सचिव ने बताया:यह समिति समूहों और इच्छुक पार्टियों के लिए ऐक मैदान होगा कि इकट्ठा होजाऐं और कुरान याद करने वाले केन्द्रों की कार्यक्रम प्रक्रिया को सेट करें।
हाशिम, ओतारा विश्वविद्यालय मलेशिया में एक प्रोफेसर हैं ने कहा, कुरानी केन्द्रों हफ़िज़ों के प्रवेश के लिए नींव बनाना विशिष्ट क्षेत्रों में और देश के नेतृत्व को हाथ में लेलेना हमारे लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी।
भारतीय युवाओं में मुसलमानों की संख्या सबसे अधिक
भारतीय युवाओं में इस समय मुसलमान युवाओं की संख्या सबसे अधिक है।
सर्वेक्षण के अनुसार भारत में लगभग 41 प्रतिशत जनसंख्या उन युवाओं की है जो 20 वर्षों से कम के हैं। भारत में पाए जाने वाले सभी धर्मों के किशोरों पर यदि दृष्टि डाली जाए तो पता चलेगा कि इनमें सबसे अधिक आबादी मुसलमान किशोरों की है। 2011 के आकड़ों के अनुसार भारत में 47 प्रतिशत मुस्लिम आबादी, 20 साल की उम्र से नीचे की है। हिंदू आबादी में बच्चों एवं किशोरों की हिस्सेदारी 40 प्रतिशत है।
जनगणना के आंकड़ों के अनुसार जैन समुदाय में 19 साल आयुवर्ग तक की आबादी केवल 29 फीसदी है, जबकि सिख समुदाय में 35, ईसाई समुदाय 37 और बौद्ध समुदाय में भी 37 प्रतिशत है।
ज्ञात रहे कि भारत की कुल आबादी में 41 प्रतिशत लोग 20 साल की उम्र से कम के हैं और 9 प्रतिशत लोग 60 साल से उम्र के उपर हैं। भारत में 20 साल से 59 साल के आयुवर्ग की आबादी लगभग 50 प्रतिशत है।
दो अन्य फिलिस्तीनी शहीद
इस्राईली सैनिकों ने शुक्रवार को दो अन्य फिलिस्तीनियों को गोली मार कर शहीद कर दिया।
अलअक़्सा टीवी चैनल की रिपोर्ट के अनुसार ज़ायोनी सैनिकों ने शुक्रवार को ग़ज़्ज़ा पट्टी के अलबरीज क्षेत्र में 26 वर्षीय फिलिस्तीनी युवा, मुहम्मद मज्दी क़ैता को गोली मार दी।
इस से पूर्व इस्राईली सैनिकों ने अलबरीज में ही मुहम्मद अबू ज़ायद नामक एक फिलिस्तीनी की हत्या की थी।
शुक्रवार को इन दो फिलिस्तीनी युवाओं की शहादत के बाद अक्तूबर 2015 से फिलिस्तीन में आरंभ होेने वाले इंतेफ़ाज़ा आंदोलन में शहीद होने वालों की संख्या 161 हो गयी है।
इसी मध्य अवैध अधिकृत बैतुलमुक़द्दस के अबू दैस नामक क्षेत्र में फिलिस्तीनी युवाओं और इस्राईली सैनिकों के मध्य झड़प भी हुई।
इस्राईली सैनिकों ने इसी प्रकार बैत लहम के दक्षिण में दो फिलिस्तीनी राहत कर्मियों पर फायरिंग करके उन्हें घायल कर दिया।
ईरान: घुसपैठ के लिए अमरीका माफ़ी मांगे
ईरान के इस्लामी क्रान्ति संरक्षक बल आईआरजीसी के एक वरिष्ठ कमान्डर ने कहा है कि ईरान के जलक्षेत्र में अमरीकी नौसैनिकों द्वारा अतिक्रमण की ताज़ा घटना पर विदेश मंत्री जवाद ज़रीफ़ ने अमरीका से माफ़ी की मांग की है।
रियर एडमिरल अली फ़दवी ने बुधवार को कहा कि दो अमरीकी नौसैनिक नौकाएं, जिन पर 10 नौसैनिक सवार थे, फ़ार्स खाड़ी के फ़ारसी द्वीप के पास 3 किलोमीटर ईरान जलक्षेत्र में घुस आयीं। इन समय ये अमरीकी नौसैनिक आईआरजीसी की हिरासत में हैं।
आईआरजीसी के कमान्डर ने ईरानी विदेश मंत्री का हवाला देते हुए कहा, “शुरु में ही कूटनैतिक संपर्क स्थापित हुए और श्री ज़रीफ़ से बातचीत हुयी और उन्हें विवरण दिया गया।” अली फ़दवी ने कहा कि अमरीकी विदेश मंत्री जॉन केरी ने भी जवाद ज़रीफ़ से संपर्क किया और उनसे नौसैनिकों की रिहाई की अपील की।
अली फ़दवी ने कहा, “श्री ज़रीफ़ ने मज़बूत दृष्टिकोण अपनाया और कहा कि वे (नौसैनिक) हमारे जलक्षेत्र में थे और आपको माफ़ी मांगनी होगी। किसी भी देश के जलक्षेत्र में उपस्थिति के लिए पहले से इजाज़त ली जानी चाहिए है और सूचित करना चाहिए।”
आईआरजीसी के कमान्डर अली फ़दवी ने कहा कि यह अतिक्रमण अमरीकी नौकाओं के नौवहन में तकनीकी ख़राबी के कारण हुआ और “उन्हें संभवतः आज़ाद कर दिया जाएगा।
इस्लाम कला का समर्थक है
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि इस्लाम आर्ट का विरोधी नहीं बल्कि समर्थक है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा ख़ामेनई ने 11 जनवरी को आर्ट की फ़िक़ह के शीर्षक के तहत आयोजित सम्मेलन के आयोजनकर्ताओं से मुलाक़ात में कहा कि आर्ट के मामलों में इस्लामी फ़िक़ह की राय निर्धारित करने के लिए धर्मगुरू का आर्ट और उसकी सीमाओं से अवगत होना ज़रूरी है।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने आर्ट के महत्व और इस विषय पर धार्मिक शिक्षा केन्द्र की ओर से ध्यान दिए जाने पर प्रसन्नता जताई और कहा कि आर्ट एक मानवीय व पवित्र विषय है जो इंसानी ज़िंदगी का भाग है और धार्मिक शिक्षा केन्द्रों में हमेशा ही साहित्य और शायरी जैसे आर्ट के क्षेत्रों में बड़े नामवर लोग रहे हैं।
इस्लामी क्रान्ति के वरिष्ठ नेता ने कहा कि कला आज के इंसानी समाजों में घुली हुई है और इसके सीधा प्रभाव इंसान की सोच, आत्मा और जीवनशैली पर पड़ता है और अर्ट से संबंधित पुराने फ़तवों की सघन समीक्षा करके नए विचार खोजे जा सकते हैं।
आईएईए की अंतिम रिपोर्ट संभवतः आज
ईरान के परमाणु कार्यक्रम और ईरान द्वारा परमाणु समझौते के प्रति कटिबद्धता पर आधारित अंतरराष्ट्रीय परमाणु ऊर्जा एजेन्सी की बहुप्रतिक्षित रिपोर्ट आज शनिवार को प्रकाशित हो सकती है।
रॅायटर के अनुसार एक कूटनैतिक सूत्र ने शुक्रवार को बताया है संभावित रूप से शनिवार को आईएईए अपनी वह रिपोर्ट प्रकाशित करेगी जिसमें यह बताया जाएगा कि ईरान ने परमाणु समझौते में अपने वचनों का पालन किया है या नहीं और इस रिपोर्ट के बाद ईरान के विरुद्ध लागू प्रतिबंध हटाने का मार्ग प्रशस्त हो जाएगा।
इससे पहले ईरान और अन्य कई देशों के अधिकारियों ने बताया था कि आईएईए की रिपोर्ट शुक्रवार को प्रकाशित होगी।
ईरानी अधिकारियों के अनुसार, ईरान के विदेशमंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ और युरोपीय संघ की विदेश मंत्री फेडरिका मोगरेनी शनिवार या रविवार को परमाणु समझौते के लागू होने और ईरान के विरुद्ध प्रतिबंध के अंत के दिन की औपचारिक रूप से घोषणा करेंगी।
गत जूलाई में ईरान और अमरीका, रूस, चीन, ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी के मध्य एतिहासिक परमाणु समझौते के अंतर्गत ईरान ने यह स्वीकार किया है कि वह प्रतिबंधों को समाप्त करने की दशा में अपने परमाणु कार्यक्रम को सीमित कर देगा।
क्षेत्र व दुनिया में चरपमंथ की जड़ों को राजनैतिक दृष्टि
इस्लामी क्रांति के वरिष्ट नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई के पश्चिम की युवा नस्ल के नाम पत्र में, दुनिया की वर्तमान संवेदनशील स्थिति के संबंध में एक समीक्षात्मक दृष्टि प्रस्तुत की है और इस संवेदनशील स्थिति का वर्णन भी है। यह पत्र क्षेत्र व दुनिया में चरपमंथ की जड़ों को राजनैतिक दृष्टि के अतिरिक्त, विभिन्न आयामों से पहचनवाता है। साथ ही यह पत्र सामाजिक व सांस्कृतिक मामलों को समझने का मार्ग समतल करता हैं जिससे ऐसी वास्तविकताओं की पहचान होती है जो वैचारिक दृष्टि से महत्वपूर्ण होती हैं।
एक साल पहले वरिष्ठ नेता आयुल्लाहिल उज़्मा का यूरोपीय व अमरीकी युवा पीढ़ी के नाम पहला पत्र प्रकाशित हुआ था। यह ख़त उन्होंने फ़्रांस में शार्ली एब्दो मैग्ज़ीन के कार्यालय पर हुए आतंकवादी हमले के बाद लिखा था जिसमें वरिष्ठ नेता ने युवा पीढ़ी से सही इस्लाम को समझने पर बल दिया था और साथ ही मुसलमानों के संबंध में पश्चिम के दृष्टिकोण का उल्लेख किया था। वरिष्ठ नेता का दूसरा पत्र भी इसी विषय वस्तु पर आधारित है जिसमें दूसरे आयामों का उल्लेख किया है। इस पत्र में भी वरिष्ठ नेता ने पेरिस की हालिया दुखद आतंकवादी घटना का उल्लेख किया है। इसलिए वरिष्ठ नेता के पत्र को पढ़ते समय उन सभी तत्वों पर ध्यान देने की आवश्यकता है जिनका उल्लेख इसमें किया गया है। इसी प्रकार इस पत्र के परिप्रेक्ष्य में पश्चिम में पिछले कुछ बातों की घटनाओं को देखना चाहिए। पश्चिम का, दाइश जैसे आतंकवादी गुटों से निपटने के नाम पर, दिखावटी नारों के साथ सैन्य हथकंडे का प्रयोग करना, वह आयाम है जिसका इस ख़त में उल्लेख है।
अफ़ग़ानिस्तान, इराक़ और सीरिया के युद्धों में सैन्य हथकंडे की अनुपयोगिता ने यह दर्शा दिया कि युद्ध द्वारा ज़रूरी नहीं है कि पश्चिम अपने लक्ष्य तक पहुंच जाए बल्कि इसके विपरीत अगर सैन्य क्षमता का दुरुपयोग हुआ तो इससे सामूहिक सुरक्षा ख़तरे में पड़ सकती है और इसके नतीजे में अलक़ाएदा और दाइश जैसी विचारधाराओं को पनपने का अवसर मिलता है। आज इन्हीं विचारधाराओं ने पश्चिम के सामने चुनौती खड़ी कर दी है।
पश्चिम के आतंकवाद से मुक़ाबले के दावे में कोई सच्चाई नहीं है क्योंकि अमरीका और पश्चिम का अलक़ाएदा, दाइश और इन जैसे आतंकवादी गुटों को अस्तित्व प्रदान करने में मुख्य भूमिका रहा है और इन गुटों का पश्चिम ने अपने अवैध हितों को साधने के लिए समर्थन भी किया है। पश्चिमी जगत में, जो हिंसा व चरमपंथ के विरूद्ध लड़ाई का दावा किया जाता है, अशांति की जड़ों पर ध्यान नहीं दिया जाता, यही कारण है कि वहां हमेशा हिंसक व चरमपंथी विचार पनपते और उसके प्रभाव सामने आते हैं। पश्चिम सबसे पहले मुसलमानों पर चरमपंथ का आरोप मढ़ता है हलांकि आतंकवाद का न तो मुसलमानों से और न ही किसी धर्म विशेष से संबंध है।
पश्चिम में राजनैतिक व्यवहार व बयान में मुसलमानों पर चरमपंथी होने के आरोप लगाने की प्रक्रिया, अमरीका के चुनावी मंच पर भी पहुंच गयी है। अमरीका के अगले राष्ट्रपति पद के चुनाव में रिपब्लिकन पार्टी की ओर से प्रत्याशी डोनल्ड ट्रम्प का हालिया बयान, पश्चिम में इस्लाम से शत्रुता की संस्कृति को फैलाने का एक उदाहरण है। ट्रम्प का दावा है कि सारे मुसलमान अमरीका को नुक़सान पहुंचाना चाहते हैं इसलिए उन्हें अमरीका न आने दिया जाए। इसके साथ ही अमरीकी कॉन्ग्रेस ने भी एक बिल के ज़रिए बग़ैर वीज़े के अमरीका जाने वाले कुछ देशों के नागरिकों के प्रवेश की प्रक्रिया को बदलने की कोशिश की है। इस बिल के क़ानून का रूप धारण करने के बाद पिछले पांच वर्षों के दौरान जिस व्यक्ति ने ईरान, इराक़, सीरिया और सूडान की यात्रा की होगी, वे बग़ैर वीज़े के अमरीका में दाख़िल नहीं हो सकेंगे।
इस बात के दस्तावेज़ मौजूद हैं जिनसे अलक़ाएदा और दाइश जैसी विचारधाराओं के अस्तित्व में आने और क्षेत्र को बांटने की योजनाओं के लक्ष्य का पता चलता है। ये लक्ष्य क्रान्तिकारी आंदोलनों में फूट डालना और सही इस्लाम की छवि को ख़राब करना है। यह विनाशकारी प्रक्रिया पश्चिम और ज़ायोनी शासन के हस्तक्षेप तथा पैसों, हथियारों और तकफ़ीरी विचारधारा से जुड़े संगठनों के साथ अपनी पूरी क्षमता से सक्रिय है।
इसलिए वरिष्ठ नेता ने अपने पत्र में विरोधाभासों और इन विचारधाराओं की जड़ों की ओर संकेत किया है। इस ख़त में अंतर्राष्ट्रीय हालात के संबंध में पश्चिम के राजनैतिक, सामाजिक व सांस्कृतिक मानकों के रूप में जिन सूक्ष्म बिन्दुओं पर बल दिया गया है, उस पर बहुत ध्यान देने की आवश्यकता है।
इस संदर्भ में एक विरोधाभास, ज़ायोनी शासन के अपराधों पर पश्चिम का मौन है। ज़ायोनी शासन और अमरीका एक सुनियोजित षड्यंत्र द्वारा, चरमपंथ का समर्थन व प्रचार कर रहे हैं ताकि इस तरह इस्लामी देशों की क्षमताओं को कमज़ोर करें। इसी प्रकार वे संकटों को इस प्रकार दिशा निर्देशित करना चाहते हैं कि क्षेत्र में प्रतिरोध के मोर्चे को सबसे ज़्यादा नुक़सान पहुंचे।
यह वह ख़तरा है जिसके सभी आयामों को इस्लामी जगत को पहचानना चाहिए। इसी प्रकार इस्लामी जगत को यह समझना चाहिए कि जो भी हिंसा व आतंकवाद का समर्थन कर रहा है, वह इस्लाम के दुश्मनों के राजनैतिक हित के लिए काम कर रहा है। इस षड्यंत्र के तीन लक्ष्य हैं। पहला लक्ष्य क्षेत्र में संकट पैदा करना है जो सीरिया में सुधार और राजनैतिक मांगों का समर्थन करने के बहाने, गृह युद्ध छेड़ कर शुरु हुआ। इस षड्यंत्र का दूसरा लक्ष्य मध्यपूर्व को बांटना है कि जिसके लिए वर्षों पहले अमरीका वृहत्तर मध्यपूर्व योजना के परिप्रेक्ष्य में कोशिश कर रहा है। तीसरा लक्ष्य इस्राईल से मिली सीरिया की सीमा को छोटा करना है कि जिसके लिए सीरिया में प्रतिरोध को समाप्त करने की कोशिश की जा रही है। वास्तव में अमरीका के लिए आतंकवाद के ख़िलाफ़ गठजोड़ की आड़ में जो चीज़ महत्व रखती है वह दाइश से लड़ना नहीं बल्कि इस्राईल की सुरक्षा को सुनिश्चित बनाना है जिसके लिए सीरिया, लेबनान और फ़िलिस्तीन में प्रतिरोध की कड़ी को कमज़ोर करने की कोशिश हो रही है।
यह बात भी महत्वपूर्ण है कि इस्लामी जागरुकता के बाद क्षेत्र की दशा और इस जागरुकता के परिणाम में क्षेत्र में पश्चिम पर निर्भर शासनों के पतन के बारे में अमरीका और विश्व ज़ायोनीवाद की चिंता का, इन विचारधाराओं व प्रक्रियाओं से संबंध का इंकार नहीं किया जा सकता। इस बीच मौजूदा हालात को भड़काने वाला एक तत्व उन विचारधाराओं व प्रक्रियाओं के बारे में अनभिज्ञता है जिसने अनजाने में या इस्लामी जगत में फूट डालने वाले षड्यंत्र को लागू करने की भुजा के रूप में शीया-सुन्नी सहित मुसलमानों को एक दूसरे के मुक़ाबिल में खड़ा कर दिया है। इस विनाशकारी प्रक्रिया को, जो ऊपर से धार्मिक नज़र आने वाले गुटों व संगठनों के रूप में मौजूद है, सलफ़ियों व तकफ़ीरियों की ओर से मज़बूत किया जा रहा है। अब यह प्रक्रिया व्यवहारिक रूप से इस्लामी जगत का विनाश करने वाला हथकंडा बन चुकी है।
इन वर्षों के दौरान धरती पर बहुत से निर्दोष फ़िलिस्तीनी बच्चों व महिलाओं का ख़ून बहाया गया और अपराधी ज़ायोनीवाद ने ग़ज़्ज़ा को बुरी तरह बर्बाद किया है किन्तु हिंसा व चरमपंथ से लड़ने का दावा करने वाले देश, अपने नस्लभेदी व एकपक्षीय क़दम से केवल इस्लाम को नुक़सान पहुंचाने में लगे रहे।
ऐसे हालात में पश्चिमी जगत विश्व जनमत को यह समझाने की कोशिश कर रहा है कि जो कुछ क्षेत्र और पश्चिम में घट रहा है उसका इस्लाम से संबंध है।
इस्राईल के सरकारी आतंकवाद को अमरीका की ओर से समर्थन और इस्लामी जगत पर हालिया वर्षों में चढ़ाई, पश्चिम के विरोधाभासी व्यवहार का नमूना है कि जिसका वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सय्यद अली ख़ामेनई के पत्र में उल्लेख हुआ है। वरिष्ठ नेता ने इस संदर्भ में इस्राईल के सरकारी आतंकवाद के समर्थन को पश्चिम की नीतियों में विरोधाभास का एक और उदाहरण बताया। उन्होंने यह सवाल किया कि आख़िर इस अपराधी शासन को उसके प्रभावी घटकों की ओर से फटकारा क्यों नहीं जाता या कम से कम स्वतंत्र व स्वाधीन होने का दिखाना करने वाले अंतर्राष्ट्रीय संगठन इस्राईल की भर्त्सना क्यों नहीं करते?
इस संदर्भ में उन भयानक अपराधों व अत्याचारों का उल्लेख किया जा सकता है जिनका ग़ज़्ज़ा के बेगुनाह लोगों को कई साल से सामना है। 7 साल से ज़्यादा समय से इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा की पूरी तरह नाकाबंदी कर रखी है और ग़ज़्ज़ा में जगह जगह पर फ़िलिस्तीन के पीड़ित राष्ट्र पर ज़ायोनी शासन के भयानक अपराधों के देखा जा सकता है। ग़ज़्ज़ा में बहुत सी इमारतें ढह चुकी हैं, बड़ी संख्या में बच्चे और महिलाएं मलबों में दफ़्न हो गए और संयुक्त राष्ट्र संघ के आंकड़े के अनुसार, इस्राईल के अपराध की बलि चढ़ने वालों में 20 प्रतिशत बच्चे हैं। मूल संरचनाओं के ध्वस्त होने, पानी और बिजली तक पहुंच और स्वास्थ्य सुविधाओं और खाद्य पदार्थ के अभाव ने ग़ज़्ज़ा के 15 लाख से ज़्यादा लोगों के लिए ज़िन्दगी को बहुत कठिन बना दिया है।
सच्चाई यह है कि पश्चिम ने बीसवीं जीवन में प्रजातंत्र और मानवाधिकार की रक्षा के जिन नारों की आड़ में विश्व व्यवस्था की रूपरेखा तय्यार की थी, उनका प्रभाव तीसरी सहस्त्राब्दी में समाप्त हो गया है और इन नारों का विरोधाभास स्पष्ट हो चुका है। ग्वान्तानामो बे और अबू ग़रेब जेल में भयानक यातनाओं से भरी काली करतूतों और यूरोप में गुप्त जेलों से पर्दा उठने से यह बात साबित होती है कि सभी क्षेत्रों में पश्चिम ने जिन मूल्यों का दावा किया था, उनका खोखलापन एक एक करके सामने आ रहा है।
इस संदर्भ में इस बात में शक नहीं कि अंतर्राष्ट्रीय संगठनों की कमज़ोर भूमिका भी ज़िम्मेदार रही है। संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद या सुरक्षा परिषद सहित ये संगठन व संस्थाएं बहुत से मामलों में पश्चिम की विरोधाभासी नीतियों की सेवा कर रही हैं और हिंसा की जड़ों की अनदेखी करते हुए हिसंक प्रक्रियाओं के फैलने का कारण बन रही हैं।
इस प्रक्रिया में क्षेत्र के देशों के हालात के संबंध में सबसे बड़ा विदेशी खिलाड़ी अमरीका है।
इस बात के बहुत से प्रभाव हैं जिनसे इस बात का पता चलता है कि अलक़ाएदा और दाइश को अस्तित्व प्रदान करने और क्षेत्र को बांटने के षड्यंत्र का लक्ष्य, क्रान्तिकारी आंदोलनों को दिगभ्रमित करना और सही इस्लाम की छवि को ख़राब करना रहा है। यह भी एक सच्चाई है कि इस संकट को जन्म देने में तुर्की, सऊदी अरब और क़तर सहित क्षेत्र के अन्य खिलाड़ियों का बहुत बड़ा रोल रहा है। ये देश इराक़, सीरिया और लेबनान में दाइश का समर्थन करके, क्षेत्र को बांटने के षड्यंत्र में लिप्त हैं।
इस बीच अमरीका के क्षेत्रीय घटक के रूप में सऊदी अरब ने इस पैदा किए गए संकट को भड़काने के लिए शीया विरोधी तकफ़ीरी विचारधारा को प्रयोग करने की कोशिश की। इस संदर्भ में सऊदी अरब ने अपने और ज़ायोनी शासन के बीच काम बांट लिया है। सऊदी अरब दाइश की पैसों और हथियारों से सहायत कर रहा है और ज़ायोनी शासन उसका वैचारिक दिशा निर्देशन कर रहा है।
इस षड्यंत्र का मुख्य लक्ष्य मध्यपूर्व को फिर से बांटना है जिस पर अमरीका वर्षों से वृहत्तर मध्यपूर्व योजना के तहत काम कर रहा है।
इसलिए वरिष्ठ नेता ने पश्चिम की युवा पीढ़ी के नाम ख़त में, पश्चिम के व्यवहार में मौजूद इन विरोधाभासों का उल्लेख किया और इस युवा पीढ़ी को सच्चाई तथा दुनिया में युद्ध, हिंसा और चरमपंथ की जड़ को समझने के लिए ख़ुद से विचार व शोध करने का निमंत्रण दिया है।
एएमयू का अल्पसंख्यक दर्जा यूनिवर्सिटी के लिए ज़िन्दगी और मौत का सवाल
अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी ने केंद्र सरकार के उस दावे को ख़ारिज कर दिया है, जिसमें कहा गया है कि एएमयू अल्पसंख्यक संस्थान नहीं है। यूनिवर्सिटी के वाइस चासंलर लेफ्टिनेंट जनरल ज़मीरउद्दीन शाह ने कहा है कि संस्थान का अल्पसंख्यक दर्जा यूनिवर्सिटी के लिए ज़िंदगी और मौत का सवाल है।
वास्तव में वर्तमान केंद्र सरकार ने एएमयू को अल्पसंख्यक संस्थान मानने से सुप्रीम कोर्ट में इंकार कर दिया है।
सोमवार को अटॉर्नी जनरल मुकुल रोहतगी ने जस्टिस जेएस शेखर, जस्टिस एमवाई इक़बाल और जस्टिस सी नगप्पन की बेंच को बताया कि भारत सरकार का मत है कि अलीगढ़ यूनिवर्सिटी अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी नहीं है। भारत एक धर्म निरपेक्ष राष्ट्र है और हम यहां माइनॉरिटी संस्था का गठन होते हुए नहीं दिखना चाहते।
मोदी सरकार के इस फ़ैसले पर प्रतिक्रिया देते हुए शाह ने कहा है कि यह भारतीय समाज में सामाजिक व आर्थिक रूप से पिछड़े हुए मुसलमानों के शिक्षा और तरक़्क़ी का सवाल है। सरकार ने भले ही अपना रूख़ पलट लिया है, लेकिन हम अदालत में अपने मक़सद के लिए मरते दम तक लड़ेंगे।
उल्लेखनीय है कि 4 अक्टूबर 2005 को अलाहबाद उच्च न्यायालय द्वारा एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे को ग़लत क़रार दिए जाने के बाद एएमयू और तत्कालीन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट में एक पुनर्विचार याचिका दायर की थी।
इस पुनर्विचार याचिका पर सुनवाई करते हुए मुख्य न्यायाधीश ए.एन. रे और न्यायमूर्ति अशोक भूषण की दो सदस्यीय पीठ ने कहा था कि जिस तरह मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण दिया जा रहा है वह असंवैधानिक और ग़लत है।
जबकि केंद्र सरकार ने वर्ष 2004 में 25 फ़रवरी को एक अधिसूचना जारी करके एएमयू में मुसलमानों को 50 प्रतिशत आरक्षण देने का फ़ैसला किया था। केंद्र सरकार की इसी अधिसूचना के ख़िलाफ़ एक याचिका दायर की गई थी।
एएमयू के अल्पसंख्यक दर्जे के मामले को कई बार अदालतों में चुनौती दी गई है।
1968 में सुप्रीम कोर्ट ने अपने एक फ़ैसले में कहा था कि विश्वविद्यालय केंद्रीय विधायिका द्वारा स्थापित किया गया है और इसे अल्पसंख्यक विश्वविद्यालय का दर्जा नहीं दिया जा सकता।
लेकिन तत्कालीन इंदिरा गांधी सरकार ने इस फ़ैसले को प्रभावहीन करते हुए 1981 में संविधान संशोधन विधेयक लाकर एएमयू को अल्पसंख्यक यूनिवर्सिटी का दर्जा दे दिया था।
इंदिरा गांधी सरकार के इस फ़ैसले के विरोध में बीजेपी व आरएसएस से जुड़ी अन्य संस्थाएं सबसे आगे थीं।
अलाहबाद उच्च न्यायलय के फ़ैसले के ख़िलाफ़ सुप्रीम कोर्ट में अपील के बावजूद तत्कालीन यूपीए सरकार ने इसमें ख़ास दिलचस्पी नहीं दिखाई और इसे एक राजनीतिक मुद्दे के तौर पर ज़िंदा रखने की कोशिश की गई।
ग़ौरतलब है कि 1920 में मोहम्मडन एंग्लो ओरिएंटल कॉलेज को भंग कर एएमयू एक्ट लागू किया गया था। संसद ने 1951 में एएमयू संशोधन एक्ट पारित कर इसके दरवाज़े ग़ैर मुसलमानों के लिए भी खोल दिए थे।
इस मामले की अब अगली सुनवाई 4 अप्रैल, 2016 को होनी है।