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इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह
इमाम ख़ुमैनी की नोफ़ेल लोशातो की एक यादगार तस्वीर (फ़ाइल फ़ोटो)
1970 के दशक में तेल के उत्पादन और उसके मूल्य में वृद्धि के साथ ही ईरान के अत्याचारी शासक मुहम्मद रज़ा पहलवी को अधिक शक्ति का आभास हुआ और उसने अपने विरोधियों के दमन और उन्हें यातनाए देने में वृद्धि कर दी। शाह की सरकार ने पागलपन की सीमा तक पश्चिम विशेष कर अमरीका से सैन्य शस्त्रों व उपकरणों तथा उपभोग की वस्तुओं की ख़रीदारी में वृद्धि की तथा इस्राईल के साथ खुल कर व्यापारिक एवं सैन्य संबंध स्थापित किए। मार्च 1975 के अंत में शाह ने दिखावे के रस्ताख़ीज़ नामक दल के गठन और एकदलीय व्यवस्था की स्थापाना के साथ ही तानाशाही को उसकी चरम सीमा पर पहुंचा दिया। उसने घोषणा की कि समस्त ईरानी जनता को इस दल का सदस्य बनना चाहिए और जो भी इसका विरोधी है वह ईरान से निकल जाए। इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने इसके तुरंत बाद एक फ़तवा जारी करके घोषणा की कि इस दल द्वारा इस्लाम तथा ईरान के मुस्लिम राष्ट्र के हितों के विरोध के कारण इसमें शामिल होना हराम और मुसलमानों के विरुद्ध अत्याचार की सहायता करने के समान है। इमाम ख़ुमैनी तथा कुछ अन्य धर्मगुरुओं के फ़तवे अत्यंत प्रभावी रहे और शाह की सरकार के व्यापक प्रचारों के बावजूद कुछ साल के बाद उसने रस्ताख़ीज़ दल की पराजय की घोषणा करते हुए उसे भंग कर दिया।
अक्तूबर वर्ष 1977 में शाह के एजेंटों के हाथों इराक़ में इमाम ख़ुमैनी के बड़े पुत्र आयतुल्लाह सैयद मुस्तफ़ा ख़ुमैनी की शहादत और इस उपलक्ष्य में ईरान में आयोजित होने वाली शोक सभाएं, ईरान के धार्मिक केंद्रों तथा जनता के पुनः उठ खड़े होने का आरंभ बिंदु थीं। उसी समय इमाम ख़ुमैनी ने इस घटना को ईश्वर की गुप्त कृपा बताया था। शाह की सरकार द्वारा इमाम ख़ुमैनी और धर्मगुरुओं के साथ शत्रुता के क्रम को आगे बढ़ाते हुए शाह के एक दरबारी लेखक ने इमाम के विरुद्ध एक अपमाजनक लेख लिख कर ईरानी जनता की भावनाओं को ठेस पहुंचाई। इस लेख के विरोध में जनता सड़कों पर निकल आई। आरंभ में पवित्र नगर क़ुम के कुछ धार्मिक छात्रों और क्रांतिकारियों ने 9 जनवरी वर्ष 1978 को सड़कों पर निकल कर प्रदर्शन किया जिसे पुलिस ने ख़ून में नहला दिया। किंतु धीरे धीरे अन्य नगरों के लोगों ने भी क़ुम की जनता की भांति प्रदर्शन आरंभ कर दिए और दमन एवं घुटन के वातावरण का कड़ा विरोध किया।
आंदोलन दिन प्रतिदनि बढ़ता जा रहा था और शाह को विवश हो कर अपने प्रधानमंत्री को बदलना पड़ा। अगला प्रधानमंत्री जाफ़र शरीफ़ इमामी था जो राष्ट्रीय संधि की सरकार के नारे के साथ सत्ता में आया था। उसके शासन काल में राजधानी तेहरान के एक चौराहे पर लोगों का बड़ी निर्ममता से जनसंहार किया गया जिसके बाद तेहरान तथा ईरान के 11 अन्य बड़े नगरों में कर्फ़्यू लगा दिया गया। इमाम ख़ुमैनी ने, जो इराक़ से स्थिति पर गहरी दृष्टि रखे हुए थे, ईरानी जनता के नाम एक संदेश में हताहत होने वालों के परिजनों से सहृदयता जताते हुए आंदोलन के भविष्य को इस प्रकार चित्रित कियाः “शाह को जान लेना चाहिए कि ईरानी राष्ट्र को उसका मार्ग मिल गया है और वह जब तक अपराधियों को उनके सही ठिकाने तक नहीं पहुंचा देगा, चैन से नहीं बैठेगा। ईरानी राष्ट्र अपने व अपने पूर्वजों का प्रतिशोध इस क्रूर परिवार से अवश्य लेगा। ईश्वर की इच्छा से अब पूरे देश में तानाशाही व सरकार के विरुद्ध आवाज़ें उठ रही हैं और ये आवाज़ें अधिक तेज़ होती जाएंगी”। शाह की सरकार के विरुद्ध संघर्ष को आगे बढ़ाने में इमाम ख़ुमैनी की एक शैली जनता को अहिंसा, हड़ताल और व्यापक प्रदर्शन का निमंत्रण देने पर आधारित थी। इस प्रकार ईरान की जनता ने इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व में अत्याचारी तानाशाही शासन के विरुद्ध सार्वजनिक आंदोलन आरंभ किया।
इराक़ की बअसी सरकार के दबाव और विभिन्न प्रकार के प्रतिबंधों के चलते इमाम ख़ुमैनी अक्तूबर वर्ष 1978 में इराक़ से फ़्रान्स की ओर प्रस्थान कर गए और पेरिस के उपनगरीय क्षेत्र नोफ़ेल लोशातो में रहने लगे। फ़्रान्स के तत्कालीन राष्ट्रपति ने एक संदेश में इमाम ख़ुमैनी से कहा कि वे हर प्रकार की राजनैतिक गतिविधि से दूर रहें। उन्होंने इसके उत्तर में कड़ी प्रतिक्रिया जताते हुए कहा कि इस प्रकार का प्रतिबंध प्रजातंत्र के दावों से विरोधाभास रखता है और वे कभी भी अपनी गतिविधियों और लक्ष्यों की अनदेखी नहीं करेंगे। इमाम ख़ुमैनी चार महीनों तक नोफ़ेल लोशातो में रहे और इस अवधि में यह स्थान, विश्व के महत्वपूर्ण सामाचारिक केंद्र में परिवर्तित हो गया था। उन्होंने विभिन्न साक्षात्कारों और भेंटों में शाह की सरकार के अत्याचारों और ईरान में अमरीका के हस्तक्षेप से पर्दा उठाया तथा संसार के समक्ष अपने दृष्टिकोण रखे। इस प्रकार संसार के बहुत से लोग उनके आंदोलन के लक्ष्यों व विचारों से अवगत हुए। ईरान में भी मंत्रालयों, कार्यालयों यहां तक कि सैनिक केंद्रों में भी हड़तालें होने लगीं जिसके परिणाम स्वरूप शाह जनवरी वर्ष 1979 में ईरान से भाग गया। इसके 18 दिन बाद इमाम ख़ुमैनी वर्षों से देश से दूर रहने के बाद स्वदेश लौटे। उनके विवेकपूर्ण नेतृत्व की छाया में तथा ईरानी जनता के त्याग व बलिदान से 11 फ़रवरी वर्ष 1979 को ईरान से शाह के अत्याचारी शासन की समाप्ति हुई। अभी इस ऐतिहासिक परिवर्तन को दो महीने भी नहीं हुए थे कि ईरान की 98 प्रतिशत जनता ने एक जनमत संग्रह में इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था के पक्ष में मत दिया।
इमाम ख़ुमैनी जनता की भूमिका पर अत्यधिक बल देते थे। उनके दृष्टिकोण में जिस प्रकार से धर्म, राजनीति से अलग नहीं है उसी प्रकार सरकार भी जनता से अलग नहीं है। वे इस संबंध में कहते हैः“ हमारी सरकार का स्वरूप इस्लामी गणतंत्र है। गणतंत्र का अर्थ यह है कि यह लोगों के बहुमत पर आधारित है और इस्लामी का अर्थ यह है कि यह इस्लाम के क़ानूनों के अनुसार है”। दूसरी ओर इमाम ख़ुमैनी राजनैतिक मामलों में जनता की भागीदारी को, चुनावों में भाग लेने से इतर समझते थे और इस बात को उन्होंने अनेक बार अपने भाषणों और वक्तव्यों में बयान भी किया था।
ईरान में इस्लामी क्रांति की सफलता के बाद पश्चिमी साम्राज्यवादियों ने ईरान की इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को धराशाही करने का हर संभव प्रयास किया। वे जानते थे कि ईरान की इस्लामी क्रांति अन्य देशों में भी जनांदोलन आरंभ होने का कारण बन सकती है और राष्ट्रों को अत्याचारी शासकों के विरुद्ध उठ खड़े होने के लिए प्रेरित कर सकती है। ईरान की इस्लामी क्रांति से मुक़ाबले हेतु साम्राज्य की एक शैली यह थी कि इमाम ख़ुमैनी की हत्या के लिए देश के कुछ बिके हुए तत्वों को प्रयोग किया जाए क्योंकि वे जानते थे कि सरकार के नेतृत्व में उनकी भूमिका अद्वितीय है किंतु उनकी हत्या का षड्यंत्र विफल हो गया।
इस्लामी गणतंत्र व्यवस्था को उखाड़ फेंकने हेतु शत्रुओं की एक अन्य शैली, देश को भीतर से तोड़ना और उसका विभाजन करना था। शत्रुओं ने ईरान के विभिन्न क्षेत्रों में जातीय भावनाएं भड़का कर बड़ी समस्याएं उत्पन्न कीं किंतु इसका भी कोई परिणाम नहीं निकला और इस्लामी क्रांति के महान नेता की युक्तियों और जनता द्वारा उनके आज्ञापालन से ये समस्याएं भी समाप्त हो गईं। इमाम ख़ुमैनी एकता व एकजुटता के लिए सदैव जनता का आह्वान करते रहते थे और कहते थे कि धर्म और जाति को दृष्टिगत रखे बिना सभी को समान अधिकार मिलने चाहिए और हर ईरानी को पूरी स्वतंत्रता के साथ न्यायपूर्ण जीवन बिताने का अवसर दिया जाना चाहिए।
जब साम्राज्यवादियों को ईरानी जनता की एकजुटता और इमाम ख़ुमैनी के सशक्त नेतृत्व के मुक़ाबले में पराजय हो गई तो उन्होंने ईरान के विरुद्ध आर्थिक प्रतिबंधों और विषैले कुप्रचारों को भी पर्याप्त नहीं समझा और ईरान पर आठ वर्षीय युद्ध थोप दिया। ईरान की त्यागी जनता को, जो अभी अभी तानाशाही शासन के चंगुल से मुक्त हुई थी और इस्लाम की शरण में स्वतंत्रता का स्वाद चखना चाहती थी, एक असमान युद्ध का सामना करना पड़ा। सद्दाम द्वारा ईरान पर थोपे गए युद्ध ने, इमाम ख़ुमैनी के नेतृत्व के एक अन्य आयाम को प्रदर्शित किया और वे युद्ध के उतार-चढ़ाव से भरे काल से जनता को आगे बढ़ाने में सफल रहे। अमरीका, इस्राईल, फ़्रान्स और जर्मनी के अतिरिक्त तीस अन्य देशों ने इराक़ को शस्त्र, सैन्य उपकरण तथा सैनिक दिए जबकि ईरान पर प्रतिबंध लगे हुए थे और इस युद्ध के लिए वह बड़ी कठिनाई से सैन्य उपकरण उपलब्ध कर पाता था। इस बीच ईरानी योद्धाओं का मुख्य शस्त्र, साहस, ईमान और ईश्वर का भय था। अपने नेता के आदेश पर बड़ी संख्या में रणक्षेत्र का रुख़ करने वाले ईरानी योद्धाओं ने अपने देश व क्रांति की रक्षा में त्याग, बलिदान और साहस की अमर गाथा लिख दी।
इमाम ख़ुमैनी का व्यक्तित्व अत्यंत सुंदर एवं आकर्षक था। वे जीवन में अनुशासन और कार्यक्रम के अंतर्गत काम करने पर कटिबद्ध थे। वे अपने दिन और रात के समय में से एक निर्धारित समय उपासना, क़ुरआने मजीद की तिलावत और अध्ययन में बिताते थे। दिन में तीन चार बार पंद्रह पंद्रह मिनट टहलना और उसी दौरान धीमे स्वर में ईश्वर का गुणगान करना तथा चिंतन मनन करना भी उनके व्यक्तित्व का भाग था। यद्यपि उनकी आयु नब्बे वर्ष तक पहुंच रही थी किंतु वे संसार के सबसे अधिक काम करने वाले राजनेताओं में से एक समझे जाते थे। प्रतिदिन के अध्ययन के अतिरिक्त वे देश के रेडियो व टीवी के समाचार सुनने व देखने के अतिरिक्त कुछ विदेशी रेडियो सेवाओं के समाचारों व समीक्षाओं पर भी ध्यान देते थे ताकि क्रांति के शत्रुओं के प्रचारों से भली भांति अवगत रहें। प्रतिदिन की भेंटें और सरकारी अधिकारियों के साथ होने वाली बैठकें कभी इस बात का कारण नहीं बनती थीं कि आम लोगों के साथ इमाम ख़ुमैनी के संपर्क में कमी आ जाए। वे समाज के भविष्य के बारे में जो भी निर्णय लेते थे उसे अवश्य ही पहले जनता के समक्ष प्रस्तुत करते थे। उनके समक्ष बैठने वाले लोग बरबस ही उनके आध्यात्मिक तेज व आकर्षण से प्रभावित हो जाते थे और उनकी आंखों से आंसू बहने लगते थे। लोग हृदय की गहराइयों से अपने नारों में ईश्वर से प्रार्थना करते थे कि वह इमाम ख़ुमैनी को दीर्घायु प्रदान करे। कुल मिला कर यह कि इमाम ख़ुमैनी का संपूर्ण जीवन ईश्वर तथा लोगों की सेवा के लिए समर्पित था।
अंततः 3 जून वर्ष 1989 को उस हृदय ने धड़कना बंद कर दिया जिसने दसियों लाख हृदयों को ईश्वर व अध्यात्म के प्रकाश की ओर उन्मुख किया था। कई लम्बी शल्य चिकित्साओं के बाद इमाम ख़ुमैनी रहमतुल्लाह अलैह ने 87 वर्ष की आयु में इस संसार को विदा कहा। उन्होंने अपनी वसीयत के अंत में लिखा थाः“ मैं शांत हृदय, संतुष्ट मन, प्रसन्न आत्मा और ईश्वर की कृपा के प्रति आशावान अंतरात्मा के साथ भाइयों और बहनों की सेवा से विदा लेकर अपने अनंत ठिकाने की ओर प्रस्थान कर रहा हूं और मुझे आप लोगों की नेक दुआओं की बहुत आवश्यकता है”।
ईरान में विकास की प्रक्रिया रूकने वाली नहीं- वरिष्ठ नेता
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने देश के नए राष्ट्रपति और नई सरकार से जल्दबाज़ी से बचते हुए अथक प्रयास करने की सिफ़ारिश की है। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामेनेई ने शनिवार की रात नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डाक्टर हसन रूहानी के राष्ट्रपति पद की पुष्टि समारोह में कहा कि देश में पाई जाने वाली समस्त संभावनाओं से लाभ उठाते हुए ठोस क़दम उठाए जाएं। उन्होंने नए राष्ट्रपति के इस विचार का समर्थन करते हुए कि अन्तर्राष्ट्रीय संबन्धों में दूरदर्शिता का प्रयोग किया जाए कहा कि इस विषय के दृष्टिगत कि ईरान के शत्रु एसे हैं जो तार्किक बातों और बुद्धिमानी से दूर हैं कहा कि नई सरकार का यह दायित्व बनता है कि वह इस्लामी गणतंत्र ईरान के उद्देश्यों को दृष्टिगत रखते हुए अपने कार्यों को बुद्धिमानी और दूरदर्शिता से आगे बढ़ाए। आयतुल्ला ख़ामेनेई ने डा. महमूद अहमदी नेजाद की सेवाओं की सराहना करते हुए कहा कि ईरान में प्रगति की प्रक्रिया रूकने वाली नहीं है। इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने ईरानी राष्ट्र के साथ शत्रु के मोर्चे विशेषकर अमरीका के शत्रुतापूर्व व्यवहार की ओर संकेत करते हुए कहा कि यह व्यवहार जनता के लिए समस्याओं का कारण तो बना है किंतु इसने ईरानी जनता और अधिकारियों को मूल्यवान पाठ भी दिये हैं।
ईरान में धार्मिक लोकतंत्र है
इस्लामी क्रांति के वरिष्ठ नेता ने ईरान की इस्लामी व्यवस्था को धार्मिक प्रजातंत्र बताया है। वरिष्ठ नेता आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई ने नवनिर्वाचित राष्ट्रपति डाक्टर हसन रूहानी के राष्ट्रपति पद के पुष्टि समारोह में कहा कि ईरानी राष्ट्र ने इस्लामी क्रांति की सफलता से पहले लोकतंत्र का अनुभव नहीं किया था। वरिष्ठ नेता ने कहा कि ईरान में लोकतंत्र समस्त मामलों में महत्वपूर्ण भूमिका निभा रहा है। आयतुल्लाहिल उज़्मा सैयद अली ख़ामनेई ने ईरानी राष्ट्र के विरुद्ध शत्रुओं के प्रतिबंधों के बारे में कहा कि प्रतिबंधों के दौरान जनता और ईरानी अधिकारियों ने महत्वपूर्ण एवं मूल्यवान अनुभव अर्जित किये हैं। उन्होंने कहा कि प्रतिबंध एक पाठ हैं कि हमें देश की प्रगति पर भरोसा करना चाहिये। उन्होंने बल देकर कहा कि पश्चिम ईरानी राष्ट्र की वैज्ञानिक प्रगति को न रोक सका। वरिष्ठ नेता ने दो अगस्त को होने वाले विश्व कुद्स दिवस के अवसर पर होने प्रदर्शनों एवं रैलियों में जनता की भव्य उपस्थिति की ओर संकेत करते हुए कहा कि ईरानी जनता ने अपनी भव्य उपस्थिति को विश्व वासियों के समक्ष दर्शा दिया और क़ुद्स तथा जायोनी शासन के मुकाबले में अपने दृष्टिकोण की घोषणा कर दी।
ईरान की स्वाधीनता अमेरिक का मूल समस्या है
गृहमंत्री मुस्तफा मोहम्मद नज्जार ने कहा है कि ईरान से अमेरिका की शत्रुता और उसके दबाव का मूल कारण ईरानी राष्ट्र की स्वाधीनता है। उन्होंने ईरान के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति के शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर अमेरिका के नये प्रतिबंधों की ओर संकेत करते हुए कहा कि इन प्रतिबंधों में वृद्धि का कारण साम्रज्यवादी व्यवस्था का ईरान की इस्लामी व्यवस्था से लम्बी शत्रुता है। उन्होंने कहा कि पश्चिम की ओर ईरान के परमाणु विषय और मानवाधिकार जैसे विषयों का पेश किया जाना मात्र बहाना है। उन्होंने स्पष्ट किया कि उनकी मूल समस्या ईरान की स्वाधीनता है क्योंकि वे नहीं चाहते कि ईरान में इस्लामी व्यवस्था रहे। मोहम्मद नज्जार ने ईरानी जनता के मध्य निराशा उत्पन्न करने हेतु पश्चिमी षडयंत्रों की विफलता की ओर संकेत करते हुए कहा कि अपेक्षा है कि अमेरिका और उसके घटक प्रतिबंधों से थक गये होंगे क्योंकि कई वर्ष के दबाव और प्रतिबंधों के बाद उल्टा परिणाम निकला है।
अतिक्रमणकारी इस्राईल के विरुद्ध प्रतिरोध जारी रहेगा
लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा है कि अतिक्रमणकारी इस्राईल के विरुद्ध प्रतिरोध जारी रहेगा। सैयद हसन नसरुल्लाह ने दो अगस्त को विश्व क़ुद्स दिवस के अवसर पर लेबनान की राजधानी बैरूत में अपने भाषण में कहा कि क्षेत्रीय राष्ट्र अंत में जायोनी शासन के षडयंत्रों को विफल करके रहेंगे और जो व्यक्ति, गुट एवं राष्ट्र जायोनी शासन के मुकाबले में प्रतिरोध करेगा वास्तव में उसने मुसलमानों की प्रतिष्ठा की रक्षा की। उन्होंने कहा कि क्षेत्र में जायोनी शासन के अपराध व अतिग्रहण जारी हैं इसलिए इस शासन का अंत न केवल फिलिस्तीन के हित में है बल्कि पूरे क्षेत्र, इस्लामी जगत और लेबनान के राष्ट्रीय हित में है। लेबनान के इस्लामी प्रतिरोध आंदोलन हिज़्बुल्लाह के महासचिव ने कहा कि इस समय इस्राईल क्षेत्र के समस्त राष्ट्रों एवं उनके स्रोतों के विरुद्ध खतरा है। सैयद हसन नसरुल्लाह ने कहा कि क़ुद्स और फिलिस्तीनी जनता का समर्थन एक मानवीय ज़िम्मेदारी है क्योंकि अतिग्रहण के बाद फिलिस्तीनियों ने बहुत अधिक मानवीय त्रासदियों व अपराधों का सामना किया है। उन्होंने बल देकर कहा कि फिलिस्तीनी जनता का सबसे कम समर्थन यह है कि जायोनी शासन को मान्यता प्रदान न की जाये और क्षेत्रीय राष्ट्रों को चाहिये कि वे फिलिस्तीनी जनता के प्रति अपने समर्थन में और वृद्धि करें।
ईश्वरीय आतिथ्य-14
भद्रता और शिष्टाचार
जैसा कि आप जानते हैं कि दूसरों से अच्छा व्यवहार और सदाचार रोज़े के प्रशैक्षिक प्रभावों में है। शिष्ट स्वभाव सामाजिक संबंधों पर बहुत अधिक प्रभाव डालता है। इस अच्छी आदत का अच्छे सामाजिक संबंध बनाने में बहुत अधिक प्रभाव पड़ता है।
मनुष्य स्वाभाविक रूप से सामाजिक प्राणी है। इसलिए इस्लाम ने सामाजिक संबंधों के कुछ नियम बनाए हैं जिन पर कार्यबद्ध रहकर विभिन्न मंचों पर मनुष्य सफलता व कल्याण को सुनिश्चित बनाता है। इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम से शिष्ट स्वभाव के बारे में पूछा गया तो उन्होंने कहाः अपने स्वभाव को नर्म रखो और अच्छी बात करो और अपने धर्म बंधुओं के साथ खुले मन से पेश आओ।
शिष्ट स्वभाव अच्छे गुणों का समूह है जिससे अपने मन को सुशोभित करना चाहिए। हंसमुख व्यवहार, मेल-जोल और दूसरों के साथ अच्छे ढंग से पेश आना अच्छे स्वभाव के चिन्ह हैं। इस्लाम अपने अनुयाइयों को दूसरों के साथ सदैव विनम्रता से पेश आने के लिए कहता है और उन्हें दुर्व्यवहार व हिंसक व्यवहार से मना करता है।
शिष्ट स्वभाव और प्रसन्नचित्त रहने का सामाजिक मेल-जोल और बातचीत पर सकारात्मक प्रभाव पड़ता है। यही कारण है कि ईश्वर ने दयालु व मिलनसार लोगों में से अपने पैग़म्बरों को चुना ताकि लोगों पर उनका प्रभाव पड़े और उन्हें सत्य की ओर बुलाएं। यह महापुरुष अपने उच्च उद्देश्य की प्राप्ति के लिए लोगों के साथ शिष्ट स्वभाव, मेल जोल और प्रेम व मित्रता रखते थे। वे सत्य के इच्छुक लोगों को अपनी ओर आकर्षित करते और उनकी आत्मा को मार्गदर्शन से तृप्त करते थे। ईश्वरीय पैग़म्बरों का स्वाभाव इतना प्रभावी होता था कि कभी कभी शत्रु का मन भी परिवर्तित हो जाता था। पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का अस्तित्व इस सद्गुण का उच्च उदाहरण है।
पवित्र क़ुरआन इस महानैतिक मूल्य को ईश्वर की ओर से बड़ी कृपा बताता है। जैसा कि सूरए आले इमरान की आयत क्रमांक 159 में आया हैः पैग़म्बर ईश्वर की कृपा से आप इन लोगों के साथ विनम्र हैं, यदि आप क्रूर स्वभाव व कठोर हृदय के होते तो ये सब आपके पास से भाग खड़े होते।
अच्छे ढंग से बातचीत भी संबंधों को घनिष्ठ बनाती है और यह भी शिष्ट स्वभाव का भाग है। अच्छे ढंग से भली बात कहना ईश्वरीय पैग़म्बरों व सदाचारियों की शैली रही है। ईश्वर सूरए बक़रह की आयत क्रमांक 83 में मोमिनों को मीठी वाणी में बात करने का आदेश दे रहा है। जैसा कि इस आयत की व्याख्या में इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम फ़रमाते हैः मोमिन से हंसमुख अंदाज़ में बात करनी चाहिए और विरोधियों से नरमी से ताकि वे भी ईमान की ओर आकर्षित हों। यही कारण है कि ईश्वर ने हज़रत मूसा और हज़रत हारून से कहा कि वे यहां तक कि फ़रऔन से भी नरम अंदाज़ में बात करें शायद वह प्रभावित हो जाए और नसीहत ले।
लोगों के साथ शिष्ट न नर्म व्यवहार व्यक्ति के स्थान को उनके बीच ऊंचा कर देता है। उनके मन में उस व्यक्ति से प्रेम बढ़ जाता है। इसी प्रकार शिष्ट व्यवहार करने वाले व्यक्ति के मित्र बहुत होते हैं। लोगों का दुख-दर्द बटाना और उनकी सहायता करना जनसमर्थन से संपन्न होने का रहस्य है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम का कथन हैः लोगों के साथ इस प्रकार व्यवहार करो कि यदि इस संसार से चले जाओ तो तुम पर रोएं और यदि जीवित रहो तो तुमसे मिलने के लिए उत्सुक हों।
इस बिन्दु का उल्लेख भी आवश्यक लगता है कि शिष्ट व्यवहार का अर्थ दूसरों के ग़लत कामों के संबंध में उदासीनता नहीं है। दूसरे शब्दों में ग़लत कामों पर नकारात्मक प्रतिक्रिया को दुर्व्यवहार नहीं कहा जा सकता। इस्लाम की दृष्टि में शिष्ट व्यवहार का यह अर्थ नहीं है कि यदि कोई ग़लत बात नज़र आए तो उस पर मौन धारण कर लें या दूसरों के बुरे कर्मों की आलोचना न करें।
हंसी मज़ाक़ का विषय भी शिष्ट व्यवहार से जुड़ा हुआ है। हंसी-मज़ाक़ उस सीमा तक अच्छे कर्म की श्रेणी में आता है कि जब इसके द्वारा दूसरे के मन से दुख दूर हो जाए और वह प्रसन्न हो जाए किन्तु आवश्यक है कि यह हंसी-मज़ाक़ शिष्टाचार के दायरे में रहे और बुरी बातों से दूर हो। जैसा कि इस संदर्भ में पैग़म्बरे इस्लाम सल्लल लाहो अलैहे व आलेही व सल्लम का स्वर्ण कथन हैः मैं हंसी मज़ाक़ करता हूं किन्तु उसमें भी सत्य बात के सिवा कुछ और नहीं कहता।
यूनुस शैबानी नामक व्यक्ति कहता है कि मुझसे इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने पूछाः तुम्हारे बीच हंसी-मज़ाक़ की क्या स्थिति है? मैंने कहाः बहुत कम होता है। इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सलाम ने कहाः ऐसा नहीं होना चाहिए, क्योंकि हंसी-मज़ाक़ शिष्ट व्यवहार का भाग है और तुम इसके द्वारा अपने धर्म-बन्धु को प्रसन्न कर सकते हो। पैग़म्बरे इस्लाम भी दूसरों से हंसी-मज़ाक़ करते थे। पैग़म्बरे इस्लाम का कथन हैः वह बड़ी विशिष्टता जिससे सुशोभित होने के कारण मेरे अनुयायी स्वर्ग में जाएंगे वह ईश्वर से भय तथा शिष्ट व्यवहार है।
श्रोताओ! आइये इक्कीसवीं रमज़ान को इस प्रार्थना से अपने मन को ताज़गी प्रदान करते हैं। हे प्रभु! इस दिन मुझे सदाचारियों की संगति प्रदान कर और बुरों की मित्रता से दूर कर दे और मुझे स्वर्ग में अपनी कृपा का पात्र बना। हे पूरे संसार के पालनहार।
इस्लाम धर्म के आवश्यक संस्कारों में तवल्ला और तबर्रा भी है। तवल्ला कर अर्थ होता है ईश्वरीय धर्म को मानने वालों से प्रेम करना और तबर्रा का अर्थ होता है ईश्वरीय धर्म के शत्रुओं से दूर रहना। अभी जो प्रार्थना आपने सुनी उसमें भी इसी महत्वपूर्ण बिन्दु की ओर संकेत है। अच्छे लोगों की संगति में रहना चाहिए और इस मार्ग में डटे रहना चाहिए क्योंकि नैतिकता व सहिष्णुता के आदर्श अर्थात पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों से प्रेम ही लोक-परलोक दोनों की सफलता की कुंजी है।
दुष्ट व्यक्तियों की संगति भी एक प्रकार का पाप है जिससे मना किया गया है क्योंकि व्यक्ति पर दुष्ट व्यक्ति की संगति का दुष्प्रभाव पड़ता है। भ्रष्टाचारी व्यक्ति और जिन्हें पाप करने की आदत हो गयी है, इसी श्रेणी में आएंगे। इस संदर्भ में इमाम जाफ़रे सादिक़ अलैहिस्सला कहते हैः मुसलमान को व्याभिचारी व दुष्ट व्यक्ति की संगति से बचना चाहिए।
इस बात में संदेह नहीं कि मित्रों की संगति का मनुष्य के व्यक्तित्व व आचरण पर बहुत प्रभाव पड़ता है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैः अच्छे लोगों की संगति की तुलना में कोई भी चीज़ मनुष्य को भलाई की ओर नहीं बुलाती और बुराई से नहीं बचाती। अच्छे लोगों से मित्रता व संगति मनुष्य को न चाहते हुए भी भलाई की ओर ले जाती है क्योंकि जब किसी व्यक्ति से निकट संपर्क बनता है तो उन दोनों के बीच प्रेमपूर्ण संबंध उत्पन्न हो जाता है और दोनों पर एक दूसरे के व्यवहार का प्रभाव पड़ता है जबिक उन्हें इसका पता भी नहीं होता। इसलिए इस्लाम धर्म मनुष्य को मित्र के चयन में अच्छे मित्र व साथी के चयन के लिए प्रेरित करता है। दुष्ट की संगति मनुष्य को बुराई की ओर ले जाती है। इसी बात को हज़रत अली अलैहिस्सलाम ने बहुत ही सुंदर ढंग से यूं पेश किया हैः बुरों की संगति बुराई लाती है जैसे कीचड़ व दलदल के ऊपर से गुज़रने वाली हवा अपने साथ दुर्गंध लाती है।
इस्लाम धर्म के महापुरुषों के कथन में विद्वानों, मोमिनों और ईमानदारों की संगति के लिए प्रेरित किया गया है। हज़रत अली अलैहिस्सलाम कहते हैः विद्वानों की संगति अपनाओ कि इससे तुम्हारे ज्ञान में वृद्धि, शिष्टाचार बेहतर और आत्मा पवित्र होती है।
पैग़म्बरे इस्लाम के पवित्र परिजनों की शिक्षाओं के अनुसार भले लोगों की संगति के कुछ लाभ हैः पहला लाभ यह है कि मनुष्य का विकास होता है। दूसरा लाभ यह कि अच्छा मित्र मनुष्य की ख्याति का कारण बनता है। तीसरा लाभ यह कि अच्छा मित्र परलोक में मनुष्य की सिफ़ारिश करेगा। जबकि दूसरी ओर दुष्ट लोगों की संगति का पहला प्रभाव तबाही है।
धर्म की छत्रछाया में प्रशिक्षित धर्मगुरु व महापुरुष स्वयं अच्छे स्वभाव का नमूना है। पिछली शताब्दी के प्रसिद्ध धर्मगुरु आयतुल्लाह शैख़ मोहम्मद हुसैन ग़रवी कि जो अपने समय के बहुत बड़े धर्मगुरु व परिज्ञानी थे, की जीवनी में आया हैः वे पवित्र नगर नजफ़ के धर्मगुरुओं की रीति के अनुसार हर गुरुवार की रात इमाम हुसैन अलैहिस्सलाम की मजलिस अर्थात शोक सभा आयोजित करते थे। ये शोकसभाएं मित्रों और शिक्षकों व शिष्यों के बीच भेंट का अवसर भी मुहैया करती थीं। स्वर्गीय आयतुल्लाह शैख़ मोहम्मद हुसैन जो अपने समय के बहुत बड़े धर्मगुरु थे, इन शोक सभाओं में समावर अर्थात चाय बनाने के विशेष बर्तन के पास बैठते और लोगों को चाय पिलाते थे। वे मेहमानों की जूतियों व चप्पलों को संभाल कर रखते थे। शैख़ मोहम्मद हुसैन की जीवन शैली ऐसी थी कि जो कोई उनकी शैक्षणिक गतिविधियों को देखता तो उसे लगता कि वे दिन रात सिवाए अध्ययन व शोध के कुछ नहीं करते और जो कोई उनकी उपासना को देखता तो उसे लगता कि वे उपासना के अतिरिक्त कुछ और नहीं करते। वे सदैव ईश्वर के स्मरण में रहते थे।
सुप्रीम लीडर आयतुल्लाह ख़ामेनई के बयान की रौशनी में
दुआ से क्या मिलता है ?
अल्लाह तआला क़ुरआने करीम में फ़रमाता है-
’’وَإِذَا سَأَلَكَ عِبَادِي عَنِّي فَإِنِّي قَرِيبٌ أُجِيبُ دَعْوَةَ الدَّاعِ إِذَا دَعَانِ فَلْيَسْتَجِيبُواْ لِي وَلْيُؤْمِنُواْ بِي لَعَلَّهُمْ يَرْشُدُونَ‘‘
जब मेरे बंदे आप से मेरे बारे में पूछें तो उनसे कह दें- मैं उनसे बहुत क़रीब हूँ। जब वह मुझे पुकारते हैं तो मैं जवाब देता हूँ। इसलिये वह मुझे पुकारें, मुझसे दुआ करें और मुझ पर ईमान रखें ताकि उन्हें हिदायत मिल सके।
दुआ में तीन फ़ायदे हैं और कोई भी दुआ इन दो फ़ायदों से ख़ाली नहीं है। चाहे मासूम इमामों की दुआएं हों या वह दुआएं जो इन्सान ख़ुद से अपनी ज़बान में करता है। दो चीज़ें सब दुआओं में हैं लेकिन कुछ ऐसी होती हैं जिनमें तीन चीज़ें हैं।
पहली चीज़- ख़ुदा से मांगना और पाना
इन तीन चीज़ों में से एक ख़ुदा से मांगना है और उससे पाना है। हम इन्सानों की बहुत सी ज़रूरतें हैं जो हम ख़ुदा से कहते हैं। हम इन्सानों को हमेशा ख़ुदा की ज़रूरत है। छोटे से छोटा काम करने के लिये भी हमें इसकी ज़रूरत है। हम अगर चलते हैं, खाते पीते हैं, काम काज करते हैं, देखते और सुनते हैं यहाँ तक कि साँस भी लेते हैं उसकी दी हुई ताक़त से। उसनें हमें ताक़त दी, क्षमता दी तो हम हर काम कर पाते हैं वरना अगर वह हमसे ताक़त ले ले तो हम कुछ भी नहीं कर सकते। अगर हमारे बदन के किसी एक हिस्से की ताक़त कम हो जाए या उसमें कोई समस्या हो जाए तो पूरे बदन का सिस्टम बिगड़ जाता है। इसलिये हम अपने हर काम में ख़ुदा के ज़रूरत मंद हैं। इसके अलावा जीवन की जो दूसरी ज़रूरतें हैं वह कौन पूरी करेगा? घर, पैसा, नौकरी, शादी। जीवन की जो समस्याएं हैं उनको कौन दूर करेगा?
’’وَاسْأَلُواْ اللّهَ مِن فَضْلِهِ إِنَّ اللّهَ كَانَ بِكُلِّ شَيْءٍ عَلِيمًا‘‘(سورہ نساء32- (
अल्लाह से मांगो क्योंकि वह अच्छी तरह जानता है कि तुम्हे किन चीज़ों की
ज़रूरत है। दूसरी जगह फ़रमाता है-
’’اُدْعُونِي أَسْتَجِبْ لَكُمْ‘‘(سورہ غافر60-(
मुझसे मांगो मैं तुम्हे दूँगा। अलबत्ता यह ज़रूरी नहीं है कि इन्सान जब, जिस समय जो चीज़ मांगे वह उसी समय उसे मिल जाए। हो सकता है ख़ुदा की नज़र में जो चीज़ इन्सान मांग रहा हो वह उसके लिये सही न हो या हो सकता है उस समय न दे बल्कि सही अवसर आने पर दे जब इन्सान को बहुत ज़्यादा ज़रूरत हो।
इस मांगने को बहुत ज़्यादा महत्व दिया गया है। हदीस में इसे सबसे बड़ी इबादत बताया गया है।
’’اَفضَلُ العِبَادَة الدُّعاءُ ‘‘
यह इन्सान को दुश्मनों से बचाती है और इन्सान का सबसे बड़ा दुश्मन उसका नफ़्स और शैतान है। रसूलुल्लाह नें फ़रमाया- क्या मैं तुम्हे एक ऐसे हथियार के बारे में बताऊँ जो तुम्हे दुश्मन से हमेशा बचाए? सबने कहा- हाँ ऐ अल्लाह के नबी बताइये। आपने फ़रमाया-
’’تدعون ربّكمباللّیل و النّهارفإنّ سلاح المؤمن الدّعا ‘‘
दिन रात अपने ख़ुदा को पुकारो इसलिये कि मोमिन का हथियार दुआ है। इमाम सज्जाद अ. एक हदीस में फ़रमाते हैं-
’’اَلدُّعَاءُ یَدفَعُ البَلَاءَ نَازلٍ وَ مَا لَم یَنزِل ‘‘
दुआ हर मुसीबत को दूर करती है चाहे वह आ चुकी हो या आने वाली हो।
यह एक महत्वपूर्ण चीज़ है कि ख़ुदा नें इन्सान को एक ऐसा रास्ता बताया है जिससे वह जिससे उसकी ज़रूरतें भी पूरी हो सकती हैं। उसके जीवन की समस्याएं भी दूर हो सकती हैं और उसे मुसीबतों से भी छुटकारा मिल सकता है। हज़रत अली अ. की एक हदीस है जिसमें आप फ़रमाते हैं- ख़ुदा नें अपने सारे ख़ज़ाने तुझे दे दिये और उनकी चाभी भी दे दी। अब तू जब चाहे उस चाभी द्वारा उन ख़ज़ानों के दरवाज़े खोल सकता है। वह चाभी क्या है? दुआ।
एक सवाल
यहाँ मन में कुछ सवाल उठते हैं। एक सवाल यह है कि जब दुआ के द्वारा इतना कुछ हो सकता है तो दुनिया में जो दूसरी चीज़ें हैं। साइंस व टेक्नालॉजी नें जो इतनी चीज़ें बनाई हैं उनकी क्या ज़रूरत है? जवाब यह है कि दुआ उनकी विरोधी नहीं है। ऐसा नहीं है कि अगर इन्सान सफ़र पर जाना चाहे तो गाड़ी से जाए या दुआ करे और पहुँच जाए। या ऐसा नहीं है कि अगर इन्सान को किसी चीज़ की ज़रूरत है तो वह बाज़ार न जाए और पैसे ख़र्च न करे, दुआ करे वह चीज़ हाज़िर हो जाए बल्कि दुआ का मतलब यह है कि आप ख़ुदा से यह चाहें कि वह आपके लिये पैसों का या गाड़ी का प्रबंध करे। जब आपको किसी चीज़ की ज़रूरत होती है और आप दुआ करते हैं या कोई समस्या होती है और आप ख़ुदा से दुआ करते हैं तो ख़ुदा इसी दुनिया की चीज़ों द्वारा आपकी ज़रूरत पूरी करता है या आपकी समस्या दूर करता है। आप पढ़े लिखे और मेहनती जवान हैं, आपको एक अच्छी जॉब की ज़रूरत है, आप ख़ुदा से दुआ करते हैं कि आपको एक अच्छी जॉब मिल जाए। आप उठते हैं, जॉब ढ़ूँढ़ते हैं, दौड़ धूप करते हैं, ख़ुदा आपके लिये प्रबंध करता है और आपको जॉब मिल जाती है। दुआ इस बात का कारण नहीं बनना चाहिये कि हम इल्म, साइंस, टेक्नालॉजी, मेहनत और दूसरी नेचुरल चीज़ों से मुँह मोड़ लें। दुआ इनकी विरोधी नहीं है बल्कि हमारे लिये इन्ही चीज़ों का प्रबंध करने वाली है। ज़्यादातर ऐसा ही होता है। हाँ हो सकता है कभी अल्लाह कोई चमत्कार भी दिखाए। कोई करिश्मा भी हो जाए लेकिन ऐसा बहुत कम और बहुत ख़ास अवसर पर होता है। इसलिये केवल दुआ काफ़ी नहीं है बल्कि उसके साथ मेहनत और कोशिश भी ज़रूरी है। कोई यह न सोचे कि अगर वह बिना कुछ किये, बिना मेहनत के, बिना इरादे के घर बैठे बैठे दुआ करेगा तो उसे सब कुछ मिल जाएगा। जी नहीं! ऐसा नहीं है। ऐसा कभी नहीं होता बल्कि कभी कभी ऐसा भी होता है कि हम कोशिश करते हैं, मेहनत करते हैं लेकिन कुछ नहीं होता लेकिन जब मेहनत और कोशिश के साथ दुआ करते हैं तो काम हो जाता है अलबत्ता इन्सान का ध्यान इस ओर नहीं जाता कि यह काम उसकी दुआ के कारण हुआ है। वह यह सोचता है कि यह उसकी अपनी मेहनत है। मेहनत भी बहुत कुछ करती है, लेकिन सब कुछ नहीं करती।
कुछ दुआएं क्यों पूरी नहीं होती?
कभी इन्सान दुआ करता रहता है लेकिन पूरी नहीं होती, कारण क्या है? बहुत सी हदीसों में इसका जवाब दिया गया है। जैसे हदीसों में है कि अगर दुआ उसकी शर्तों के साथ न की जाए तो वह पूरी नहीं होती। जैसे दुआ की एक शर्त यह है ऐसे कामों की दुआ न की जाए जो हो ही नहीं सकते। जैसे एक हदीस में है कि रसूलुल्लाह का का एक सहाबी उनके सामने दुआ कर रहा था, उसने ख़ुदा से दुआ की- ख़ुदाया! मुझे ऐसा बना कि दुनिया में मुझे किसी की ज़रूरत न पड़े। रसूलुल्लाह नें सुना तो उस से कहा- यह दुआ न करो। क्या यह हो सकता है कि तुम्हे दुनिया में किसी की ज़रूरत न पड़े? हम सभी इन्सानों को एक दूसरे की ज़रूरत है। हमारे बहुत से काम एक दूसरे की सहायता के बिना हो ही नहीं सकते। उसनें पूछा- अल्लाह के रसूल! फिर किस तरह दुआ करूँ? फ़रमाया- दुआ करो कि ख़ुदाया! मुझे बुरे और नीच लोगों के सामने हाथ न फैलाना पड़े। इसलिये ख़ुदा से दुआ करते समय यह ध्यान रखना चाहिये कि ऐसी दुआ न करें जो दुनिया के नैचुरल क़ानून के विरुद्ध हो।
दिल से दुआ करें
दुआ की एक शर्त यह है कि केवल ज़बान से न हो। ख़ुदाया मुझे माफ़ कर दे। ख़ुदाया मेरे रिज़्क़ में बरकत दे दे। ख़ुदाया मेरा क़र्ज़ा उतर जाए। अगर इन्सान दिल से न कहे केवल ज़बान से यह शब्द दोहराता रहे तो उसकी दुआ क़ुबूल नहीं होगी। हदीस में है कि ख़ुदा ग़ाफ़िल दिल की दुआ नहीं सुनता। यानी एक इन्सान को पता ही नहीं कि क्या मांग रहा है, किस से मांग रहा है। ज़बान कुछ कह रही है, ध्यान कहीं और लगा हुआ है, ऐसे इंसान की दुआ पूरी नहीं होती। ख़ुदा से दुआ करते हुए मांगें, यह दुआ की शर्त है।
शरमाएं नहीं, हर छोटी-बड़ी चीज़ मांगें
ख़ुदा से हर चीज़ मांगें। छोटी से चोटी चीज़ और बड़ी से बड़ी चीज़। कभी यह न सोचें कि पता नहीं इतनी बड़ी चीज़ अल्लाह से मांगनी चाहिये। ख़ुदा के यहाँ किसी चीज़ की कमी नहीं है। उसे तो इस बात का कोई डर नहीं है कि मेरा बंदा कितनी बड़ी चीज़ मुझसे मांगेगा, मैं उसे दे पाउँगा कि नहीं। वह जनाबे सुलैमान को पूरी दुनिया की हुकूमत भी दे सकता है। हमारी दुआ इससे बड़ी तो नहीं होगी। दूसरी ओर छोटी छोटी चीज़ों के मांगने में भी शरमाना नहीं चाहिये। ख़ुदाया मेरे पास जूता नहीं है, जूता चाहिये। ख़ुदाया एक जोड़ी कपड़ा चाहिये। क्या इस तरह की चीज़ें भी ख़ुदा से मांगी जा सकती हैं? जी हाँ, मांगी जा सकती हैं। इमाम मोहम्मद बाक़िर अ. फ़रमाते हैं-
’’لَا تُحَقِّرُوا صغیراً مِن حَوَائِجِكُم فَإِنَّأَحَبّ المُؤمِنِینَ إِلىٰ اللَّهِ أَسئَلُهم‘‘
अपनी छोटी छोटी ज़रूरतों को छोटा न समझिये। जान लो ख़ुदा उस बंदे से सबसे ज़्यादा मोहब्बत करता है जो उससे ज़्यादा मांगता है। इसलिये सब कुछ ख़ुदा से मांगें लेकिन उसकी शर्तों को न भूलें।
दुनिया भर में क़ुद्स दिवस मनाने की तैयारियां ज़ोरों पर
अहलेबैत न्यूज़ एजेंसी (अबना) की रिपोर्ट के अनुसार अलविदा जुमा और विश्व क़ुद्स दिवस आने के साथ ही दुनिया भर में विश्व क़ुद्स दिवस की तैयारियां ज़ोरों पर पहुँच गईं हैं और इस बार भी दुनिया भर के मुसलमान 2 अगस्त को अपने फ़िलिस्तीनी भाईयों के साथ अपनी एकता दिखाने के लिये मैदान में आएंगे।
अलविदा जुमा और विश्व क़ुद्स दिवस पूरी श्रद्धा से मनाने के लिये हिंदुस्तान, पाकिस्तान और दूसरे देशों में सभाओं और सेमिनारों का सिसिला भी शुरू हो चुका है। इसी सिलसिले में कल फ़िलिस्तीन फ़ाउंडेशन पाकिस्तान बलूचिस्तान द्वारा कोएटा प्रेस क्लब में अन्तर्राष्ट्रीय एकता फ़िलिस्तीन कांफ़्रेंस का आयोजन किया गया जिसमें जनता नेशनल पार्टी के केन्द्रीय उपाध्यक्ष कमाण्डर ख़ुदाए दाद, जमीअते अहले हदीस के केन्द्रीय लीडर क़ाज़ी अब्दुल क़दीर और जमाते इस्लामी के उपाध्यक्ष अमानुल्लाह शाद ज़ई, मजलिसे वहदते मुस्लेमीन के मौलाना मक़सूद अली डोमकी समेत विभिन्न लोगों नें भाग लिया।
फ़िलिस्तीन कांफ़्रेंस को सम्बोधित करते हुए वक्ताओं का कहना था कि इमाम ख़ुमैनी रह. नें रमज़ानुल मुबारक के आख़िरी जुमे को क़ुद्स दिवस घोषित कर के मुसलमानों को झकझोर के रख दिया है।
वक्ताओं का यह भी कहना था कि पाकिस्तान भर में होने वाली आतंकवादी गतिविधियों में अमरीका और इस्राईल प्रत्यक्ष रूप से शामिल हैं और मुख्य रूप से बलूचिस्तान कोएटा शहर में मासूम लोगों की हत्याओं की कड़ियां और ताने बाने तिला अबीब और वाशिंगटन से जा मिलते हैं। इन लोगों नें सरकार से मांग की कि पूरे देश में अलविदा जुमे के दिन विश्व क़ुद्स दिवस मनाये जाने के एलान किया जाए और क़ुद्स दिवस के जुलूसों को पर्याप्त सुरक्षा उपलब्ध कराई जाए।
विश्व क़ुद्स दिवस मुसलमानों के मध्य एकता का कारण बनेगा
भारत की राजधानी दिल्ली में शीया मुसलमानों के इमामे जुमा ने फिलिस्तीन की अत्याचारग्रस्त जनता के समर्थन के जारी रहने पर बल दिया है। मौलाना सैयद मोहसिन तक़वी ने कहा कि ईरान की इस्लामी व्यवस्था के संस्थापक स्वर्गीय इमाम खुमैनी ने रमज़ान महीने के अंतिम शुक्रवार का नाम क़ुदस दिवस रखकर फिलिस्तीन समस्या को अंतर्रराष्ट्रीय स्तर पर जीवित कर दिया है। मौलाना सैयद मोहसिन तक़वी ने दिल्ली में हमारे संवाददाता से वार्ता में कहा कि ईरान की इस्लामी व्यवस्था के संस्थापक ने न केवल फिलिस्तीन एवं मस्जिदुल अक्सा के मामले को दोबारा जीवित किया बल्कि रमज़ान महीने के अंतिम शुक्रवार का नाम कुद्स दिवस घोषित कर दिया जो इस्लामी जगत के मुसलमानों के मध्य एकता का कारण बना है। उन्होंने कहा कि स्वर्गीय इमाम खुमैनी की इसी घोषणा का परिणाम है कि आज फिलिस्तीन एक अंतरर्राष्ट्रीय समस्या व मुद्दा बन गया है। मौलाना सैयद मोहसिन तक़वी ने पश्चिमी देशों विशेषकर अमेरिकी षडयंत्रों की ओर संकेत करते हुए कहा कि जब तक विश्व के मुसलमान एकजुट नहीं होंगे तब तक अमेरिका के षडयंत्र जारी रहेंगे और विश्व क़ुद्स दिवस मुसलमानों के मध्य एकता व एकजुटता का आरंभिक बिन्दु हो सकता है।
ज़ायोनी शासन का विनाश क्षेत्रीय राष्ट्रों के हित
लेबनान के हिज़्बुल्लाह आंदोलन के महासचिव ने, ज़ायोनी शासन के विनाश को क्षेत्रीय राष्ट्रों के हित में बताया।
सैयद हसन नसरुल्लाह ने शुक्रवार की शाम बैरूत में विश्व कुद्स दिवस के अवसर पर अपने भाषण में बल दिया कि इस्राईल का विनाश केवल फिलिस्तीनियों ही नहीं बल्कि अरब जगत और लेबनान के हित में है।
उन्होंने कहा कि क्षेत्रीय राष्ट्रों को फिलिस्तीन का समर्थन करना चाहिए । सैयद हसन नसरुल्लाह ने इस बात की ओर संकेत करते हुए कि विश्व और क्षेत्र में कुछ लोगों की इच्छा है कि फिलिस्तीन के विषय को भुला दिया जाए, स्पष्ट किया कि क्षेत्र की प्राथमिकता ज़ायोनी शत्रु से मुकाबला होना चाहिए और जो व्यक्ति या गुट इस्राईल के विरुद्ध संघर्ष करता है वह वास्तव में आत्मसम्मान व अपनी प्रतिष्ठा के लिए संघर्ष करता है।
लेबनान के हिज़्बुल्लाह आंदोलन के महासचिव ने कुछ अरब सरकारों द्वारा ईरान से डराने की प्रक्रिया की ओर संकेत करते हुए कहा कि यदि यह अरब सरकारे अपना बजट, ईरान से डराने के बजाए फिलिस्तीन की मुक्ति के खर्च करती तो फिलिस्तनी इस्राईल से स्वतंत्र हो जाता। उन्होंने कहा कि महाशक्तियां क्षेत्र में विभाजन चाहे रही हैं जो इस्राईल और अमरीका के हित में है। उन्होंने क्षेत्र में तबाही और नरसंहार पर खेद प्रकट करते हुए कहा कि जो भी तकफीरी गुटों और आंतकवादियों का समर्थन करता है वही क्षेत्र के विनाश का ज़िम्मेदार है।
सैयद हसन नसरुल्लाह ने इसी प्रकार ट्यूनेशिया, सीरिया, मिस्र और लेबनान के राष्ट्रों से अपील की कि वे अपने मतभेदों को वार्ता द्वारा सुलझाएं।