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विश्व खाद्य संगठन की ओर से ईरान को सम्मान
संयुक्त राष्ट्र संघ के खाद्य एवं कृषि संगठन फ़ाओ ने इस्लामी गणतंत्र ईरान में कुपोषण की दर के पांच फ़ीसद से नीचे आने पर ईरान की इस कोशिश की सराहना करते हुए उसे मानद डिप्लोमा से नवाज़ा है।
ईरान के कृषि मंत्री महमूद हुज्जती ने जो फ़ाओ की द्विवार्षिक बैठक में भाग लेने इटली गए हुए हैं, फ़ाओ के महानिदेशक ख़ोज़े डि सिल्वा से मानद डिप्लोमा हासिल किया।
फ़ाओ की नई रिपोर्ट के अनुसार, ईरान उन 72 देशों में है जो संयुक्त राष्ट्र संघ की कुल आबादी की तुलना में कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या को आधी तक पहुंचाने में सफल हुए हैं। यह संयुक्त राष्ट्र संघ के इस सहस्त्राब्दी का पहला उद्देश्य है।
इस रिपोर्ट के मुताबिक़, इस वक़्त दुनिया में भूख और कुपोषण के शिकार लोगों की संख्या 79 करोड़ 50 लाख है और इस संख्या में पिछले एक दशक की तुलना में 21 करोड़ 60 लाख की कमी आयी है।
कुछ इलाक़ो जैसे सहारा अफ़्रीक़ा के नीचे वाले क्षेत्रों की स्थिति बहुत ही चिंताजनक है जहां कुपोषण के कुल शिकार लोगों की एक चौथाई संख्या रहती है।
रोहिंग्या मुसमलानों की तस्करी में 90 गिरफ़्तार
म्यांमार पुलिस ने इस देश में मानव तस्करी के इल्ज़ाम में 90 से ज़्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया है हालांकि इनमें से कोई भी गिरफ़्तारी राख़ीन प्रांत में नहीं हुयी है जहां रोहिंग्या मुसमलान काफ़ी संख्या में हैं।
इरना के अनुसार, म्यांमार के मुसलमान, चरमपंथी बौद्धधर्मियों के हाथों यातनाओं से परेशान होकर मानव तस्करों के संपर्क में हैं और वे पिछले एक दशक से मलेशिया और थाईलैंड जैसे देशों में पलायन के लिए कोशिश कर रहे हैं। इनमें से बहुत से ग़रीब रास्ते में ही मर गए और जो तस्करों को पैसे नहीं दे पाते उन्हें उन्होंने दास के रूप में बेच दिया जाता है। रोहिंग्या औरतों ने भी तस्करों के कैंप में जो मौत के कैंप के नाम से कुख्यात है, उनके साथ हुए यौन उत्पीड़न की शिकायत की है।
93 मानव तस्करों की गिरफ़्तारी की रिपोर्ट यह दर्शाती है कि इन तस्करों का शिकार बनने वाले ज़्यादातर लोगों को या तो चीन में जबरन शादी के लिए या थाईलैंड में जबरन काम के लिए बेचा गया है।
यह रिपोर्ट ऐसे वक़्त सामने आयी है जब म्यांमार के अधिकारी इस देश को अंतर्राष्ट्रीय दबाव से निकालने की कोशिश कर रहे हैं। अंतर्राष्ट्रीय समुदाय मलेशिया और थाईलैंड में सामूहिक क़बरों और मौत के कैंपों का पता चलने और क्षेत्र के जलक्षेत्र में हज़ारों मुसलमानों के भटकने की ख़बर आने के बाद, म्यांमार की सरकार पर मानवाधिकार का पालन करने का दबाव बढ़ गया है।
हर चीज़ के रीशे(ज) तक पहुँचना चाहिए
मुक़द्दमा
इमामे हादी वह इमाम हैं जिन्होंने बहुत ज़्यादा सख्ती और महासरे में ज़िन्दगी बसर की। हज़रत को शियों से जुदा करके “अस्कर” नामी एक फ़ौजी इलाक़े में रखा गया था जिसकी वजह से आपकी ज़्यादातर अहादीस हमारी तरफ़ मुन्तक़िल न हो सकी।
बनी उमैय्या और बनी अब्बास का एक बड़ा जुर्म यह है कि उन्होंने अहलेबैत (अ.) और लोगों के दरमियान राब्ते को क़तअ कर दिया था। अगर लोगों का राब्ता अहलैबैत (अ.) से क़तअ न होता तो आज हमारे पास इन अज़ीम शख्सियतों के अक़वाल की बहुत सी किताबें मौजूद होती। हमें देखते हैं कि इमामे बाक़िर (अ.) और इमामे सादिक़ (अ.) के दौर में जो थोड़ासा वक़्त मिला उसमें बहुत ज़्यादा इल्मी काम हुआ। लेकिन बाद में यानी इमाम मूसा काज़िम (अ.) के ज़माने से फिर महदूदियत का सामना शुरू हो गया। बहर हाल इमाम हादी (अ.) के कम ही सही कुछ कलमाते क़िसार हम तक पहुँचे हैं और आज मुनसेबत की वजह से आपका एक कलमाए क़िसार नक़्ल कर रहा हूँ।
मतने हदीस—
ख़ैरुम मिनल ख़ैरि फ़ाइलुहु व अजमल मिनल जमीले क़ाइलुहु व अरजिह मिनल इल्मि हामिलुहु व शर्रुम मिनश शर्रि जालिबुहु व अहवलु मिनल हौले राकिबुहु।
तर्जमा--- नेक काम से ज़्यादा अच्छा वह शख़्स है जो नेक काम अन्जाम देता है। और अच्छाई से ज़्यादा अच्छा, अच्छाई का कहने वाला है। और इल्म से बा फ़ज़ीलत आलिम है। और शर्र को अन्जाम देने वाला शर्र से भी बुरा है। और वहशत से ज़्यादा वहशतनाक वहशत फ़ैलाने वाला है।
शरह व तफ़सीर
इमाम (अ.) इन पाचों जुम्लों में बहुत अहम नुकात की तरफ़ इशारा फ़रमा रहे हैं। इन पाँच जुम्लों के क्या मअना हैं जिनमें से तीन जुम्ले नेकी के बारे में और दो जुम्ले शर्र के बारे में हैं। हक़ीक़त यह है कि इमाम (अ.) एक बुनियादी चीज़ की तरफ़ इशारा फ़रमा रहे हैं और वह यह है कि हमेशा हर चीज़ की असली इल्लत तक पहुँचना चाहिए। अगर नेकियों फैलाना, और अच्छाईयों को आम करना चाहते हो तो पहले नेकियों के सरचश्में तक पहुँचो इसी तरह अगर बुराईयों को रोकना चाहते हो तो पहले बुराईयों की जड़ को तलाश करो। नेकी और बदी से ज़्यादा अहम इन दोने के अंजाम देने वाले हैं। समाज में हमेशा एक अहम मुशकिल रही है और अब भी है और वह यह है कि जब लोग किसी बुराई का मुक़ाबला करना चाहतें हैं तो उन में से बहुतसे अफ़राद सिर्फ़ मालूल को देखते हैं मगर उसकी इल्लत को तलाश करने की कोशिश नही करते जिसकी वजह वह कामयाब नही हो पाते। वह एक को ख़्त्म करते है दूसरा उसकी जगह पर आ जाता है वह दूसरे को ख़त्म करते हैं तो तीसरा उसकी जगह ले लेता है आख़िर ऐसा क्यों ? ऐसा इस लिए होता है क्योंकि वह इल्लत को छोड़ कर मालूल को तलाश करते हैं। मैं एक सादीसी मिसाल बयान करता हूँ कुछ अफ़राद ऐसे हैं जिनके चेहरों पर मुहासे निकल आते है। या फिर कुछ अफ़राद के बदन की जिल्द पर फुँसियाँ निकल आती है। इस हालत में कुछ लोग मरहम का इस्तेमाल करते हैं ताकि यह मुहासे या फ़ुँसियाँ ख़्तम हो जायें। मगर कुछ लोग इस हालत में इस बात पर ग़ौर करते हैं कि बदन की जिल्द का ताल्लुक़ बदन के अन्दर के निज़ाम से हैं लिहाज़ा इस इंसान के जिगर में जरूर कोई ख़राबी वाक़ेअ हुई है जिसकी वजह से यह दाने या फ़ुँसिया जिल्द पर ज़ाहिर हुए हैं। बदन की जिल्द एक ऐसा सफह है जो इंसान के जिगर के अमल को ज़ाहिर करता है । मरहम वक़्ती तौर पर आराम करता है लेकिन अगर असली इल्लत ख़त्म न हो तो यह मुहासे या फुँसियाँ दोबारा निकल आते है। इस लिए अगर इंसान वक्ती तौर पर दर्द को ख़त्म करने के लिए किसी मुसक्किन दवा का इस्तेमाल करे तो सही है मगर साथ साथ यह भी चाहिए कि उसकी असली इल्लत को भी जाने।
आज हमारे समाज के सामने दो अहम मनुश्किलें हैं जो हर रोज़ बढ़ती ही जा रही हैं। इनमें से एक मनशियात और दूसरी जिन्सी मुश्किल हैं। मंशियात के इस्तेमाल के सिलसिले में सरहे सिन बहुत नीची हो गई है कम उम्र बच्चे भी मंशियात का इस्तेमाल कर रहे हैं। एक इत्तला के मुताबिक सरहद के एक शहर में 150 ऐसी ख़ावातीन के बारे में पता चला है जो मंशियात का इस्तेमाल करती हैं जबकि यह कहा जाता है कि आम तौर पर ख़वातीन मंशियात की लत में नही पड़ती हैं। लेकिन कुछ असबाब की बिना पर मंशियात की लत बच्चों , जवानों, नौजवानो और ज़नान में भी फैल गई है। इस बुराई से मुक़ाबला करने का एक तरीक़ा तो यह है कि हम नशा करने वाले अफ़राद को पकड़े और मंशियात के इसमंगलरों को फासी पर लटकाऐं । यह एक तरीक़ा है और इस पर अमल भी होना चाहिए। मगर यह इस मुश्किल का असासी हल नही है। बल्कि हमें यह देखना चाहिए कि मंशियात के इस्तेमाल की असली वजह क्या है, क्या यह बेकारी, बेदीनी या अदबी तालीम के फ़ुक़दान की वजह से है या इसके पीछे उन ग़ैर लोगों का हाथ है जो यह कहते हैं कि अगर यह जवान मंशियात में मुबतला हो जायें तो इस मुल्क में नफ़ूज़ पैदा करने में जो एक अहम चीज़ माने है व ख़त्म हो जायेगी। हमें तारीख़ को नही भूलना चाहिए जब अंग्रेज़ों ने चीन पर तसल्लुत जमाना चाहा तो उन्होंने यह कोशिश की कि चीनियों के दरमियान अफ़ीम को रिवाज दिया जाये। चीनी इस बात को समझ गये और अंग्रेज़ों के खिलाफ़ उठ खड़े हुए। अंग्रेज़ों ने फ़ौजी ताक़त के बल बूते पर अफ़ीम को चीन में वारिद कर दिया और तारीख़ में यह वाकिया जंगे अफ़ीम के नाम से मशहूर हो गया। और उन्होंने चीन में अफ़ीम को दाखिल करके वहाँ के लोगों को अफ़ीम के जाल में फसा दिया और जब किसी मिल्लत के जवान नशे के जाल में फस जाते हैं तो फिर वह मिल्लत दुशमन का सामना नही कर पाती। उसी वक़्त से अंग्रेज़ों ने इस अफ़ीमी जंग की बुनियाद डाली और अब भी दूसरी शक्लों में इससे काम लिया जा रहा है। जब अमरीकियों ने अफ़ग़ानिस्तान पर अपना तसल्लुत जमाया तो यह समझा जा रहा था कि वह अपने नारों के मुताबिक़ मंशियात को जड़ से उख़ाड़ फेकेंगे। जबकि अब यह कहा जा रहा है कि मंशियात की खेती और ज़्यादा बढ़ गयी है। उनके हक़ूक़े बशर और फ़िसाद व मंशियात से मक़ाबले के तमाम नारे झूटे हैं। वह तो फ़क़त अपने नफ़े और नफ़ूज़ के पीछे हैं चाहे पूरी दुनिया ही क्यों न नाबूद हो जाये।
हर चीज़ के रीशे को तलाश करना चाहिए, इन जवानों को आगाह करना चाहिए, सबसे अहम आमिल मज़हब है एक मज़हबी बच्चा नशा नही करता जब ला मज़हब हो जायेगा तो नशा करेगा।
दूसरा मसला बेकारी है, जब बेकारी फैलती है तो लोग देखते हैं कि इस काम में (मंशियात की खरीदो फ़रोश) आमदनी अच्छी है तो इस काम की तलाश में निकलते हैं। और इस तरह बेकार आदमी इस जाल में फस जाते हैं। बस अगर हम इनकी फ़िक्र न करें , अगर दुशमन के प्रचार की फ़िक्र न करे तो फिर किस तरह मुक़ाबला कर सकते हैं बस हमें चाहिए कि हम इन अल्लतों को तलाश करें। सिर्फ़ मालूल को तलाश करलेना काफ़ी नही है। अल्लत को समझने के लिए जलसे व सैमीनार वग़ैरह मुनअक़िद होने चाहिए ताकि अंदेशा मन्दान बैठ कर कोई राहे हल निकालें। मामूली और सामने के मसाइल के लिए कैसे कैसे सैमीनार मुनअक़िद किये जाते हैं मगर इन अहम मसाइल के हल के लिए किसी सैमीनार का इनेक़ाद नही किया जाता।
दूसरी मुश्किल जो फैलती जा रही है वह जिन्सी रोक थाम का न होना और जवानों का इस जाल में फसना है। क्या मुख्तलिफ़ सड़कों या नज़दीक व दूर के मख़्तलिफ़ मक़ामात पर बसीजी या ग़ैरे बसीजी, सिपाही या ग़ैरे सिपही किसी गिरोह के लोगों को मामूर करने से और लड़कों और लड़कियों के ना मशरू रवाबित को रोकने से मसला ख़त्म हो जायेगा या किसी दूसरी जगह से सर उठायेगा ? यह देखना चाहिए कि इसके रीशे क्या हैं। इसका एक रीशा शादियों का कम होना है। शादीयों चन्द चीज़ों की वजह से मुश्किल हो गई है।
1- तवक़्क़ोआत ज़्यादा हो गई है।
2- तकल्लुफ़ात बढ गये हैं।
3- मेहर की रक़म बढ़ गई है।
4- खर्च बहुत बढ़ गये हैं।
और इसी के साथ साथ तहरीक करने वाले वसाइल का फैलाव । कुछ जवान कहते हैं कि इन हालात में अपने ऊपर कन्ट्रोल करना मुश्किल है। हम उनसे कहते हैं कि तुम चाहते हो कि ग़ैरे अख़लाक़ी फ़िल्में देखें लड़कियों से आँखें लड़ायें, बद अखलाकी सिड़ियाँ देखें, खराब किस्म के रिसाले पढ़े और इसके बावजूद कहते हो कि कन्ट्रोल करना मुश्किल है।तुम पहले तहरीक करने वाले अवामिल को रोको। जब तक तहरीक करने वाले अवामिल सादी शक्ल में मौजूद रहेंगे (जैसे सीडी कि उसमें फ़साद की एक पूरी दुनिया समाई हुई है। या इन्टरनेट कि जिसने फ़साद की तमाम अमवाज को अपने अन्दर जमा कर लिया और दुनिया को अखलाक़ व दूसरी जहतों से ना अमन कर दिया है) एक जवान किस तरह अपने आप पर कन्ट्रोल कर सकता है।
कभी शादी के मौक़ो पर इस तरह के प्रोग्राम किये जाते हैं जो शरियत के खिलाफ़ हैं और नापाक व तहरीक करने वाले है। सैकड़ों जवान शादी के इन्ही प्रोग्रामों में आलूदा हो जाते है। इस लिए कि मर्दो ज़न आते हैं और अपने आपको नुमाया करते है। इस हालत में कि रक़्सो मयुज़िक का ग़लबा होता है। इस तरह ग़ैरे शादी शुदा जवान चाहे वह लड़के हों या लड़किया इन प्रोग्रामों में मुहरिफ़ हो जाते हैं। जवान चाहते हैं इन प्रोग्रामों में शिरकत भी करें और बाद में यह भी कहें कि हमसे अपने आप पर कन्ट्रोल क्यों नही होता ? तहरीक करने वाले अवामिल को ख़त्म करना चाहिए, शादी के असबाब को आसान करना चाहिए। बस अगर हम यह चाहते हैं कि किसी नतीजे पर पहुँचे, तो असली रीशों के बारे में फ़िक्र करनी चाहिए।
गोश अगर गोश तू नालेह अगर नालेह।
आनचे अलबत्तेह बे जाई नरसद फ़रयाद अस्त।।
और हाल यह है कि न आपको इन बातों के सुनने वाले अफ़राद मिलेंगे और न ही यह बाते कहने वाले अफ़राद।
इस्राईल ने किया एक बार फिर ग़ज़्ज़ा पर युद्धक विमानों से हमला।
ज़ायोनी युद्धक विमानों ने एक बार फिर ग़ज़्ज़ा पर हवाई हमला किया।
फ़िलिस्तीन इन्फ़ार्मेशन सेंटर के अनुसार, ज़ायोनी युद्धक विमानों ने रविवार तड़के, उत्तरी ग़ज़्ज़ा के बैत लाहिया में हमास की सैन्य शाखा इज़्ज़ुद्दीन क़स्साम ब्रिगेड की एक छावनी पर हमला किया। ज़ायोनी युद्धक विमानों ने फ़िलिस्तीन नामक इस छावनी पर 2 मीसाईल फ़ायर किए। इस्राइली शासन ने दावा किया कि यह हमला शनिवार की रात फ़िलिस्तीनी गुटों की ओर से अस्क़लान और नक़्ब इलाक़ों पर फ़ायर किए गए रॉकेट के जवाब में किया गया है। ज़ायोनी पुलिस ने भी पिछले बुधवार को यह दावा किया था कि ग़ज़्ज़ा पट्टी से नक़ब और बेअरुस्सबअ इलाक़ों पर दो रॉकेट फ़ायर हुए थे। हमास का कहना है कि ये रॉकेट आईएसआईएल से जुड़े एक सलफ़ी गुट ने फ़ायर किए हैं।
दूसरी ओर ज़ायोनी युद्ध मंत्रालय ने फ़िलिस्तीनियों को सामूहिक रूप से यातना देने के लिए ग़ज़्ज़ा पट्टी के दक्षिण में स्थित करम अबू सालिम पास और बैत हानून पास को बंद करने का आदेश दिया है।
इस्राईल ने किए ग़ज़्ज़ा में जघन्य अपराध।
संयुक्त राष्ट्रसंघ ने घोषणा की है कि इस्राईल ने ग़ज़्ज़ा युद्ध में व्यापक स्तर पर बच्चों के विरुद्ध अपराध किये हैं।
राष्ट्रसंघ की रिपोर्ट के अनुसार ग़ज़्ज़ा युद्ध में 2200 से अधिक फ़िलिस्तीनी शहीद हुए जिनमें अधिकांश आम नागरिक थे। इस रिपोर्ट के अनुसार 50 दिनों तक जारी रहने चाले इस्राईल के आक्रमण में ग़ज़्ज़ा में 540 फ़िलिस्तीनी बच्चे शहीद हो गए। अवैध अधिकृत फ़िलिस्तीन में मौजूद संयुक्त राष्ट्रसंघ की संस्था ने बच्चों के अधिकारों का हनन करने वालों की एक सूचि तैयार करके राष्ट्रसंघ के महासचिव को भेजी है। बान की मून इस बारे में फैसला करेंगे। कूटनयिकों का कहना है कि बाल अधिकारों का हनन करने वाली रिपोर्ट इसी सप्ताह राष्ट्रसंघ के सदस्य देशों में वितरित कर दी जाएगी। यह ऐसी स्थिति में है कि जब कुछ समय पहले ही यूनीसेफ ने अपनी रिपोर्ट में बताया था कि इस्राईल की जेलों में बंद फ़िलिस्तीनी बच्चों को बुरी तरह से प्रताड़ित किया जाता है। यूनीसेफ़ की इस रिपोर्ट के अनुसार इस्राईल की जेलों में बंद अधिकांश बच्चों को यातनाएं दी जा रही हैं।
रूस S-300 मीज़ाइल सिस्टम ईरान को देगा
ईरान के एयर डिफ़ेंस सेंटर के प्रमुख ने कहा है कि रूस ने वचन दिया है कि वह समझौते के अनुसार ईरान को प्रक्षेपास्त्र भेदी सिस्टम एस-300 देगा।
फ़रज़ाद इस्माईली ने शुक्रवार को पत्रकारों से बात करते हुए कहा कि जिन प्रक्षेपास्त्रिक सिस्टमों के बारे में समझौता हो चुका है उनकी प्राप्ति बारे में रक्षा मंत्रालय प्रयास कर रहा है और रूस इस संबंध में समझौते के पालन के लिए कटिबद्ध है। उन्होंने एंटी मीज़ाइल सिस्टमों को अधिक विकसित बनाने के बारे में कहा कि इस संबंध में महत्वपूर्ण क़दम उठाए गए हैं और हम स्थानीय शस्त्रों पर अधिक भरोसा करते हैं। फ़रज़ाद इस्माईली ने बताया कि देश में मीज़ाइलों को उन्नत बनाने, उनकी मारक क्षमता में वृद्धि करने और इसी प्रकार उनकी उड़ान का स्तर नीचे लाने के संबंध में काफ़ी प्रयास किए गए हैं और कुल मिला कर देश में एयर डिफ़ेंस सिस्टम की स्थिति बहुत अच्छी है।
इस बीच विदेश मंत्री मुहम्मद जवाद ज़रीफ़ ने भी मॉस्को में शंघाई सहयोग संगठन के सम्मेलन के अवसर पर कहा है कि रूस द्वारा निर्मित प्रक्षेपास्त्र भेदी सिस्टम एस-300 ईरान के हवाले किए जाएंगे। उन्होंने बताया कि यह सिस्टम ईरान के हवाले किए जाने के चरण में है और शीघ्र ही इसे ईरान को दे दिया जाएगा।
परमाणु वार्तकार टीम होशियार रहेः इमामी काशानी
तेहरान के जुमे के इमाम ने ईरान की इस्लामी व्यवस्था के आध्यात्मिक आधार को, अन्य व्यवस्थाओं से इसके उत्तम होने का कारण बताया है।
तेहरान की जुमे के अस्थायी इमाम आयतुल्लाह मोहम्मद इमामी काशानी ने नमाज़ के ख़ुतबे में इस्लामी व्यवस्था की अहमियत और दुनिया की अन्य व्यवस्थाओं से इसकी भिन्नता की ओर इशारा किया और बल दिया कि इस्लामी गणतंत्र के संस्थापक स्वर्गीय इमाम ख़ुमैनी की व्यवहारिक शैली बहुत मूल्यवान है जिस पर समाज और युवा नस्ल को ध्यान देना चाहिए। उन्होंने विदेशियों से व्यवहार, इस्लामी जगत के संबंध में दृष्टिकोण, मुसलमानों के बीच एकता, अर्थव्यवस्था और लोगों के जीवन तथा दुश्मन की पहचान जैसे विषयों पर इमाम ख़ुमैनी के विचारों को उनकी व्यवहारिक शैली का नमूना बताया और कहा कि इमाम ख़ुमैनी की व्यवहारिक शैली में कभी भी फेरबदल नहीं किया जा सकता।
आयतुल्लाह इमामी काशानी ने, इमाम ख़ुमैनी के स्वर्गवास के बाद वरिष्ठ नेता के वजूद को इस्लामी गणतंत्र के लिए अनुकंपा बताया और कहा कि वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व इस्लामी व्यवस्था और इस्लामी समाज के लिए बहुत महत्वपूर्ण है क्योंकि वरिष्ठ नेता भी इमाम ख़ुमैनी के मार्ग पर चल रहे हैं। उन्होंने इस्लामी व्यवस्था में वरिष्ठ धार्मिक नेतृत्व को महत्वपूर्ण बताया और कहा कि जो लोग इस विषय पर उंगली उठाते हैं वे इस्लामी व्यवस्था के दुश्मन हैं।
जुमे के इमाम ने परमाणु विषय के हल और इस संदर्भ में ईरानी राष्ट्र के अधिकारों की रक्षा की कामना की और बल दिया कि परमाणु वार्ताकार टीम होशियार रहे ताकि ईरानी राष्ट्र को उसका अधिकार मिल सके।
हज़रत आयतुल्लाह ख़ामेनईः ईरान हमेशा मज़लूमों के साथ है।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा है कि सभी इब्राहीमी धर्म स्वीकार करते हैं कि एक हस्ती आएगी जो दुनिया को जुल्म व अत्याचार से नजात दिलाएगी।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने इस्लामी इंक़ेलाब के संस्थापक हज़रत इमाम खुमैनी (र.ह) की छब्बीसवीं बरसी के अवसर पर एक विशाल जनसमूह को संबोधित करते हुए कहा है कि इस्लाम ने उस नजात देने वाले का नाम भी बता दिया है, उस इलाही हस्ती और महानतम इंसान को सभी इस्लामी समुदायों के यहां महदी (अ.ज) के नाम से जाना जाता है।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि शायद सभी इस्लामी विचारधाराओं में कोई एक विचारधारा भी नहीं पाई जाती है जो यह विश्वास न रखती हो कि हज़रत इमाम महदी (अ.ज) ज़ुहूर नहीं करेंगे, आप पैगम्बर (स.अ) के वंश से हैं यहां तक हर इस्लामी विचारधारा में आपके नाम और कुन्नियत का भी उल्लेख किया गया है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने अपने भाषण में इस्लामी इंक़ेलाब के संस्थापक का जिक्र करते हुए कहा कि हमें इमाम खुमैनी (रह) के केवल सम्मानित ऐतिहासिक व्यक्तित्व के आधार पर ही उन पर ध्यान नहीं देना चाहिए बल्कि आपके व्यक्तित्व और सिद्धांतों को पहचानना भी आवश्यक है।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) उस महान आंदोलन के संस्थापक थे जिसको ईरानी जनता ने शुरू किया और अपना इतिहास बदल कर रख दिया। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) एक मजबूत सैद्धांतिक, राजनीतिक और सामाजिक विचारधारा का नाम है और ईरानी राष्ट्र ने उस विचारधारा को स्वीकार कर लिया और उसी राह पर अग्रसर है। आपने कहा कि इस रास्ते पर कदम आगे बढ़ाने के लिए सही पहचान का होना ज़रूरी है क्योंकि इमाम खुमैनी (रह) के व्यक्तित्व और उनके बताए हुए सिद्धांतों के सही पहचान के बिना इस रास्ते को समझना मुश्किल है।
आयतुल्लाहिल उज़मा सैयद अली ख़ामेनई ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) एक महान फ़क़ीह और दार्शनिक भी थे और इरफ़ान में भी आपको कमाल हासिल था। लेकिन आपका व्यक्तित्व इनमें से किसी भी क्षेत्र तक सीमित नहीं था।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने फ़रमाया कि इमाम खुमैनी (रह) ने अपनी क्षमताओं के साथ जिहाद फ़ी सबीलिल्लाह (अल्लाह के लिये संघर्ष) के क्षेत्र में प्रवेश किया और संघर्ष का यह सिलसिला आख़री उम्र तक जारी रखा। आपने एक ऐसे महान आंदोलन की स्थापना की कि जिसके नतीजे में आपको केवल ईरान, क्षेत्र और इस्लामी जगत में ही नहीं बल्कि पूरी दुनिया में बहुत महत्व मिला।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) ने दो भव्य कारनामे अंजाम दिए। एक यह कि उन्होंने क्रूर वंशानुगत शाही सरकार का तख्ता उलट दिया और दूसरे यह कि इस्लामी शिक्षाओं के आधार पर एक इस्लामी सरकार की स्थापना की जो इस्लाम के आरम्भिक युग के बाद इस्लामी इतिहास में अभूतपूर्व उपलब्धि है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर हज़रत आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनई ने इमाम खुमैनी (रह) के उसूलों और सिद्धांतों का उल्लेख करते हुए कहा कि उनका एक सिद्धांत वास्तविक इस्लाम से दुनिया वालों को परिचित कराना और अमेरिकी इस्लाम को नकारना था।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) ने हमेशा दरबारी मुल्लाओं के इस्लाम, दाईशी इस्लाम, ज़ायोनिज़्म और अमेरिका के अत्याचारों के मुकाबले में कोई मतलब न रखने वाले इस्लाम को हमेशा खारिज किया और कहा करते थे कि इस तरह के तथाकथित इस्लाम का स्रोत एक ही है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि इमाम खुमैनी (रह) अल्लाह के वादे पर हमेशा विश्वास रखते थे, साम्राज्यवादी शक्तियों पर कभी भी विश्वास नहीं करते थे और आज हम देख रहे हैं कि साम्राज्यवादी शक्तियों की बातों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
आयतुल्लाहिल उज़मा ख़ामेनई ने मज़लूम का समर्थन और अन्याय के विरोध पर आधारित इमाम खुमैनी (रह) के एक और सिद्धांत का हवाला देते हुए कहा कि आज इस्लामी रिपब्लिक ईरान इमाम खुमैनी (रह) के इसी सिद्धांत पर अमल कर रहा है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि हम ग़ज़्जा के ज़ालिमाना घेराबंदी, यमन के अवाम पर बमबारी, बहरैनी जनता पर हो रहे अत्याचार, अफ़गानिस्तान और पाकिस्तान में अमेरिका के ड्रोन हमलों के विरोधी हैं और साथ ही अमेरिका में नागरिकों के खिलाफ अमेरिकी फेडरल पुलिस की क्रूर कार्यवाहियों के भी सख्त खिलाफ़ हैं।
ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने कहा कि दुनिया को यह जान लेना चाहिए कि फ़िलिस्तीनी जनता के समर्थन की नीति इस्लामी रिपब्लिक ईरान की सैद्धांतिक नीति है और इससे हाथ नहीं खींचा जा सकता। उन्होंने मौजूदा दौर में एकता के महत्व पर जोर देते हुए दुश्मन के माध्यम से इस्लामी समुदाय के बीच मतभेद डालने के प्रयासों का उल्लेख किया और कहा कि पूरा इस्लामी समुदाय, शिया व सुन्नी दोनों को सावधान रहने की जरूरत है कहीं ऐसा न हो वह दुश्मन के झांसे में आ जायें। आपने कहा कि जिस सुन्नी विचारधारा को अमेरिकी समर्थन हासिल है और जो शिया विचारधारा लंदन से प्रसारित होती है दोनों शैतान के भाई हैं, दुश्मन आज वास्तविक इस्लाम को निशाना बनाए हुए है। ईरान के इस्लामी इंक़ेलाब के सुप्रीम लीडर ने इराक़ और सीरिया में तकफीरी आतंकवादियों की गतिविधियों की निंदा करते हुए कहा कि इन समूहों के आतंकवादी हमले, इस्लामी दुश्मनों के सहयोग से अंजाम पा रहे हैं।
इमाम ख़ुमैनी एक बेमिसाल हस्ती का नाम।
चार जून सन 1989 ईसवी को दुनिया एक ऐसी महान हस्ती से बिछड़ हो गई जिसने अपने चरित्र, व्यवहार, हिम्मत, समझबूझ और अल्लाह पर पूरे यक़ीन के साथ दुनिया के सभी साम्राज्यवादियों ख़ास कर अत्याचारी व अपराधी अमरीकी सरकार का डटकर मुक़ाबला किया और इस्लामी प्रतिरोध का झंडा पूरी दुनिया पर फहराया। इमाम खुमैनी की पाक और इलाही ख़ौफ़ से भरी ज़िंदगी इलाही रौशनी फ़ैलाने वाला आईना है और वह पैगम्बरे इस्लाम (स) की जीवनशैली से प्रभावित रहा है। इमाम खुमैनी ने पैगम्बरे इस्लाम (स) की ज़िंदगी के सभी आयामों को अपने लिये आदर्श बनाते हुये पश्चिमी और पूर्वी समाजों के कल्चर की गलत व अभद्र बातों को रद्द करके आध्यात्म एंव अल्लाह पर यक़ीन की भावना समाजों में फैला दी और यही वह माहौल था जिसमें बहादुर और ऐसे जवानों का प्रशिक्षण हुआ जिन्होने इस्लाम का बोलबाला करने में अपने ज़िंदगी को क़ुरबान करने में भी हिचकिचाहट से काम नहीं लिया।
पैगम्बरे इस्लाम हजरत मोहम्मद (स) की पैगम्बरी के ऐलान अर्थात बेसत की तारीख़ भी जल्दी ही गुज़री है इसलिये हम इमाम खुमैनी के कैरेक्टर पर इस पहलू से रौशनी डालने की कोशिश करेंगे कि उन्होने इस युग में किस तरह पैगम्बरे इस्लाम (स) के चरित्र और व्यवहार को व्यवहारिक रूप में पेश किया।
पश्चिमी दुनिया में घरेलू कामकाज को महत्वहीन समझा जाता है। यही कारण है कि अनेक महिलायें अपने समय को घर के बाहर गुज़ारने में ज़्यादा रूचि रखती हैं। जबकि पैगम्बरे इस्लाम (स) के हवाले से बताया जाता है कि पैगम्बरे इस्लाम (स) ने एक दिन अपने पास मौजूद लोगों से पूछा कि वह कौन से क्षण हैं जब औरत अल्लाह से बहुत क़रीब होती है? किसी ने भी कोई उचित जवाब नहीं दिया। जब हज़रत फ़ातिमा की बारी आई तो उन्होने कहा वह क्षण जब औरत अपने घर में रहकर अपने घरेलू कामों और संतान के प्रशिक्षण में व्यस्त होती है तो वह अल्लाह के बहुत ज़्यादा क़रीब होती है। इमाम खुमैनी र.ह भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के पदचिन्हों पर चलते हुये घर के माहौल में मां की भूमिका पर बहुत ज़्यादा ज़ोर देते थे। कभी-कभी लोग इमाम ख़ुमैनी से कहते थे कि औरत क्यों घर में रहे तो वह जवाब देते थे कि घर के कामों को महत्वहीन न समझो, अगर कोई एक आदमी का प्रशिक्षण कर सके तो उसने समाज के लिये बहुत बड़ा काम किया है। मुहब्बत व प्यार औरत में बहुत ज़्यादा होता है और परिवार का माहौल और आधार प्यार पर ही होता है।
इमाम खुमैनी अपने अमल और व्यवहार में अपनी बीवी के बहुत अच्छे सहायक थे। इमाम खुमैनी की बीवी कहती हैः चूंकि बच्चे रात को बहुत रोते थे और सवेरे तक जागते रहते थे, इस बात के दृष्टिगत इमाम खुमैनी ने रात के समय को बांट दिया था। इस तरह से कि दो घंटे वह बच्चों को संभालते और मैं सोती थी और फिर दो घंटे वह सोते थे और मैं बच्चों को संभालती थी। अच्छी व चरित्रवान संतान, कामयाब ज़िंदगी का प्रमाण होती है। माँ बाप के लिये जो बात बहुत ज़्यादा महत्व रखती है वह यह है कि उनका व्यवसाय और काम तथा ज़िंदगी की कठिनाइयां उनको इतना व्यस्त न कर दें कि वह अपनी संतान के पालन पोषण एवं प्रशिक्षण की अनदेखी करने लगें।
पैगम्बरे इस्लाम (स) की हदीस हैः अच्छी संतान, जन्नत के फूलों में से एक फूल है इसलिये ज़रूरी है कि माँ-बाप अपने बच्चों के विकास और कामयाबियों के लिये कोशिश करते रहें।
इमाम ख़ुमैनी बच्चों के प्रशिक्षण की ओर से बहुत ज़्यादा सावधान रहते थे। उन्होने अपनी एक बेटी से, जिन्होंने अपने बच्चे की शैतानियों की शिकायत की थी कहा थाः उसकी शैतानियों को सहन करके तुमको जो सवाब मिलता है उसको मैं अपनी सारी इबादतों के सवाब से बदलने को तैयार हूं। इस तरह इमाम खुमैनी बताना चाहते थे कि बच्चों की शैतानियों पर क्रोधित न हों, और संतान के पालने पोसने में मायें जो कठिनाइयां सहन करती हैं वह अल्लाह की निगाह में भी बहुत महत्वपूर्ण हैं और परिवार व समाज के लिये भी इनका महत्व बहुत ज़्यादा है।
इमाम खुमैनी र.ह के क़रीबी संबंधियों में से एक का कहना है कि इमाम खुमैनी का मानना था कि बच्चों को आज़ादी दी जाए। जब वह सात साल का हो जाये तो उसके लिये सीमायें निर्धारित करो। वह इसी तरह कहते थे कि बच्चों से हमेशा सच बोलें ताकि वह भी सच्चे बनें, बच्चों का आदर्श हमेशा माँ बाप होते हैं। अगर उनके साथ अच्छा व्यवहार करें तो वह अच्छे बनेंगे। आप बच्चे से जो बात करें उसे व्यवहारिक बनायें।
हजरत मोहम्मद (स) बच्चों के प्रति बहुत कृपालु थे। उन्हें चूमते थे और दूसरों से भी ऐसा करने को कहते थे। बच्चों से प्यार करने के संबंध में वह कहते थेः जो भी अपनी बेटी को ख़ुश करे तो उसका सवाब ऐसा है जैसे हजरत इस्माईल पैगम्बर की संतान में से किसी दास को ग़ुलामी से आज़ाद किया हो और वह आदमी जो अपने बेटे को ख़ुश करे वह ऐसे आदमी की तरह है जो अल्लाह के डर में रोता रहा हो और ऐसे आदमी का इनाम व पुरस्कार जन्नत है।
पैग़म्बरे इस्लाम हज़रत मुहम्मद मुस्तफ़ा सल्लल्लाहो अलैहे व आलेही वसल्लम की ज़िंदगी बहुत ही साधारण, बल्कि साधारण से भी नीचे स्तर की थी। हज़रत अली अलैहिस्सलाम उनके ज़िंदगी के बारे में बताते हैं कि पैग़म्बर (स) ग़ुलामों की दावत को स्वीकार करके उनके साथ भोजन कर लेते थे। वह ज़मीन पर बैठते और अपने हाथ से बकरी का दूध दूहते थे। जब कोई उनसे मिलने आता था तो वह टेक लगाकर नहीं बैठते थे। लोगों के सम्मान में वह कठिन कामों को भी स्वीकार कर लेते और उन्हें पूरा करते थे।
इमाम ख़ुमैनी र.ह भी अपनी ज़िंदगी के सभी चरणों में चाहे वह क़ुम के फ़ैज़िया मदरसे में उनकी पढ़ाई का ज़माना रहा हो या इस्लामी रिपब्लिक ईरान की लीडरशिप का समय उनकी ज़िंदगी हमेशा, साधारण स्तर की रही है। वह कभी इस बात को स्वीकार नहीं करते थे कि उनकी ज़िंदगी का स्तर देश के साधारण लोगों के स्तर से ऊपर रहे।
इमाम ख़ुमैनी के एक साथी का कहना है कि जब वह इराक़ के पाक शहर नजफ़ में रह रहे थे तो उस समय उनका घर, किराये का घर था जो नया नहीं था। वह ऐसा घर था जिसमें साधारण स्टूडेंट्स रहते थे। इस तरह से कहा जा सकता है कि इमाम ख़ुमैनी की जीवन स्तर साधारण स्टूडेंट्स ही नहीं बल्कि उनसे भी नीचे स्तर का था। ईरान में इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के बाद हुकूमती सिस्टम का नेतृत्व संभालने के बाद से अपनी ज़िंदगी के अंत तक जमारान इमामबाड़े के पीछे एक छोटे से घर में रहे। उनकी ज़िंदगी का आदर्श चूंकि पैग़म्बरे इस्लाम (स) थे इसलिये उन्होंने अपने घर के भीतर आराम देने वाला कोई छोटा सा परिवर्तन भी स्वीकार नहीं किया और इराक़ द्वारा थोपे गए आठ वर्षीय युद्ध में भी वह अपने उसी साधारण से पुराने घर में रहे और वहीं पर अपने छोटे से कमरे में दुनिया के नेताओं से मुलाक़ात भी करते थे।
पैग़म्बरे इस्लाम के आचरण, व्यवहार और शिष्टाचार के दृष्टिगत इमाम ख़ुमैनी ने इस्लामी इंक़ेलाब के नेतृत्व की कठिनाइयों को कभी बयान नहीं किया और कभी भी स्वयं को दूसरों से आगे लाने की कोशिश भी नहीं की। वह हमेशा यही मानते और कहते रहे कि “मुझे अगर जनता का सेवक कहो तो यह इससे अच्छा है कि मुझे नेता कहो”।
इमाम ख़ुमैनी जब भी जंग के जियालों के बीच होते तो कहते थे कि मैं जेहाद और शहादत से पीछे रह गया हूं इसलिये आपके सामने लज्जित हूं। जंग में हुसैन फ़हमीदे नामक नौजवान के शहीद होने के बाद उसके बारे में इमाम ख़ुमैनी का यह कहना बहुत मशहूर है कि हमारा नेता बारह साल का वह किशोर है जिसने अपने नन्हे से दिल के साथ, जिसकी क़ीमत हमारी सैकड़ों ज़बानों और क़लम से बढ़कर है हैंड ग्रेनेड के साथ ख़ुद को दुश्मन के टैंक के नीचे डाल दिया, उसे उड़ा दिया और ख़ुद भी शहीद हो गया।
लोगों के प्यार का पात्र बनना और उनके दिलों पर राज करना, विभिन्न कारणों से होता है और उनकी अलग-अलग सीमाएं होती हैं। कभी भौतिक कारण होते हैं और कभी निजी विशेषताएं होती हैं जो दूसरों को आकर्षित करती हैं और कभी यह कारण आध्यात्मिक एवं इलाही होते हैं और आदमी की विशेषताएं अल्लाह और धर्म से जुड़ी होती हैं। अल्लाह ने पाक क़ुरआन में वचन दिया है कि जो लोग अल्लाह पर ईमान लाए और भले काम करते हैं, अल्लाह उनका प्यार दिलों में डाल देता है। इस इलाही वचन को पूरा होते हम सबसे ज़्यादा हज़रत मुहम्मद (स) के कैरेक्टर में देखते हैं कि जिनका प्यार दुनिया के डेढ अरब मुसलमानों के दिलों में बसा हुआ है।
इमाम ख़ुमैनी भी पैग़म्बरे इस्लाम (स) के प्यार में डूबे हुए दिल के साथ इस ज़माने के लोगों के दिलों में बहुत बड़ी जगह रखते हैं। इमाम ख़ुमैनी के बारे में उनके संपर्क में आने वाले ईरानियों ने तो उनके कैरेक्टर के बारे में बहुत कुछ कहा और लिखा है ही, विदेशियों ने भी माना है कि इमाम ख़ुमैनी समय और स्थान में सीमित नहीं थे। दुनिया के विभिन्न नेताओं यहां तक कि अमरीकियों में भी जिसने इमाम ख़ुमैनी से मुलाक़ात की वह उनके कैरेक्टर और बातों से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। इमाम ख़ुमैनी पूरे संतोष के साथ साधारण शब्दों में ठोस और सुदृढ़ बातें करते थे। उनके शांत मन और ठोस संकल्प को बड़ी से बड़ी घटनाएं और ख़तरे भी प्रभावित नहीं कर पाते थे। दुनिया को वह अल्लाह का दरबार मानते थे और अल्लाह की कृपा और मदद पर पूरा यक़ीन रखते थे तथा यह विषय, नेतृत्व संबन्धी उनके इरादों के बारे में बहुत प्रभावी था। इस बात को साबित करने के लिए बस यह बताना काफ़ी होगा कि जब सद्दाम की फ़ौज ने इस्लामी इंक़ेलाब की कामयाबी के फ़ौरन बाद ईरान पर अचानक हमला किया तो इमाम ख़ुमैनी ने जनता से बड़े ही सादे शब्दों में कहा था कि “एक चोर आया, उसने एक पत्थर फेंका और भाग गया”। इमाम के यह सादे से शब्द, रौशनी और शांति का स्रोत बनकर लोगों में शांति तथा हिम्मत भरने लगे और चमत्कार दिखाने लगे। हमारी दुआ है कि उनकी आत्मा शांत और उनकी याद सदा जीवित रहे।
बिस्मिल्लाहिर्रहमानिर्रहीम
सिफ़ाते मोमिन
हदीस-
रुविया इन्ना रसूलल्लाहि (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि) क़ाला “यकमलु अलमोमिनु ईमानहु हत्ता यहतविया अला माइता व सलासा ख़िसालिन फेलिन व अमलिन व नियतिन व बातिनिन व ज़ाहिरिन फ़क़ाला अमिरुल मुमिनीना(अलैहिस्सलाम) या रसूलल्लाह (सलल्ललाहु अलैहि व आलिहि) मा अलमाअतु व सलासा ख़िसालिन ? फ़क़ाला (सलल्ललाहु अलैहि व आलिहि) या अली मिन सिफ़ातिल मुमिनि अन यकूना जव्वालुल फ़िक्र, जौहरियुज़्ज़िक्र, कसीरन इल्मुहु, अज़ीमन हिल्मुहु, जमीलुल मनाज़िअतुन...... ”[1]
तर्जमा-
पैग़म्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि) ने अमीरल मोमेनीन अली (अलाहिस्सलाम ) से फ़रमाया कि मोमिने कामिल में 103 सिफ़तें होती हैं और यह तमाम सिफ़ात पाँच हिस्सों में तक़सीम होती हैं, सिफ़ाते फेली, सिफ़ाते अमली, सिफ़ाते नियती और सिफ़ाते ज़ाहिरी व बातिनी इसके बाद अमीरुल मोमेनीन(अलैहिस्सलाम) ने अर्ज़ किया कि ऐ अल्लाह के रसूल वह यह 103 सिफ़ात क्या हैं ?हज़रत ने फ़रमाया कि ऐ अली मोमिन के सिफ़ात यह हैं कि वह हमेशा फ़िक्र करता है और खुलेआम अल्लाह का ज़िक्र करता है, उसका इल्म, होसला और तहम्मुल ज़्यादा होता है और दुश्मन के साथ भी अच्छा बर्ताव करता है................।
हदीस की शरह
यह हदीस हक़ीक़त में इस्लामी अख़लाक़ का एक दौरा है, जिसको रसूले अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) हज़रत अली (अलैहिस्सलाम) से ख़िताब करते हुए बयान फ़रमा रहे हैं। जिसका ख़ुलासा पाँच हिस्सों होता है जो यह हैं फ़ेल, अमल, नियत,ज़ाहिर और बातिन।
फ़ेल व अमल में क्या फ़र्क़ है ? फ़ेल एक गुज़रने वाली चीज़ है, जिसको इंसान कभी कभी अंजाम देता है, इसके मिक़ाबले में अमल है जिसमें इस्तमरार(निरन्तरता) पाया जाता है।
पैगम्बरे अकरम (सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम) फ़रमाते हैं किः
मोमिन की पहली सिफ़त “जवालुल फ़िक्र ” है यानी मोमिन की फ़िक्र कभी जामिद व राकिद(रुकना) नही होती बल्कि वह हमेशा फ़िक्र करता रहता है और नये मक़ामात पर पहुँचता रहता है और थोड़े से इल्म से क़ाने नही होता। यहाँ पर हज़रत ने पहली सिफ़त फ़िक्र को क़रार दिया है जो फ़िक्र की अहमियत को वाज़ेह करती है।मोमिन का सबसे बेहतरीन अमल तफ़क्कुर (फ़िक्र करना) है और अबुज़र की बेशतर इबादात तफ़क्कुर थी। अगर हम कामों के नतीजे के बारे में फ़िक्र करें, तो उन मुश्किलात में न घिरें जिन में आज घिरे हुए हैं।
मोमिन की दूसरी सिफ़त “जवहरियु अज़्ज़िक्र” है कुछ जगहों पर जहवरियु अज़्ज़िक्र भी आया है हमारी नज़र में दोनों ज़िक्र को ज़ाहिर करने के माआना में हैं। ज़िक्र को ज़ाहिरी तौर पर अंजाम देना क़सदे क़ुरबत के मुनाफ़ी नही है, क्योंकि इस्लामी अहकामात में ज़िक्र जली (ज़ाहिर) और ज़िक्र ख़फ़ी( पोशीदा) दोनो हैं या सदक़ा व ज़कात मख़फ़ी भी है और ज़ाहिरी भी। इनमें से हर एक का अपना ख़ास फ़ायदा है जहाँ पर ज़ाहिरी हैं वहाँ तबलीग़ है और जहाँ पर मख़फ़ी है वह अपना मख़सूस असर रखती है।
मोमिन की तीसरी सिफ़त “कसीरन इल्मुहु ” यानी मोमिन के पास इल्म ज़्यादा होता है। हदीस में है कि सवाब अक़्ल और इल्म के मुताबिक़ है।यानी मुमकिन है कि एक इंसान दो रकत नमाज़ पढ़े और उसके मुक़ाबिल दूसरा इंसान सौ रकत मगर इन दो रकत का सवाब उससे ज़्यादा हो, वाकियत यह है कि इबादत के लिए ज़रीब है और इबादत की इस ज़रीब का नाम इल्म और अक़्ल है।
मोमिन की चौथी सिफ़त “ अज़ीमन हिल्मुहु ” है यानी मोमिन का इल्म जितना ज़्यादा होता जाता है उतना ही उसका हिल्म ज़्यादा होता जाता है। एक आलिम इंसान को समाज में मुख़तलिफ़ लोगों से रूबरू होना पड़ता है अगर उसके पास हिल्म नही होगा तो मुश्किलात में घिर जायेगा। मिसाल के तौर पर हज़रत इब्राहीम (अलैहिस्सलाम) के हिल्म की तरफ़ इशारा किया जा सकता है। ग़ुज़िश्ता अक़वाम में क़ौमे लूत से ज़्यादा ख़राब कोई क़ौम नही मिलती। और उनका अज़ाब भी सबसे ज़ायादा दर्दनाक था। “ फलम्मा जाआ अमरुना जअलना आलियाहा साफ़िलहा व अमतरना अलैहा हिजारतन मिन सिज्जीलिन मनज़ूद। ”[2] इस तरह के उनके शहर ऊपर नीचे हो गये और बाद में उन पर पत्थरों की बारिश हुई। इस सब के बावजूद जब फ़रिश्ते इस क़ौम पर अज़ाब नाज़िल करने के लिए आये तो पहले हज़रत इब्राहीम अलैहिस्सलाम की ख़िदमत में पहुँचे और उनको बेटे की पैदाइश की खुश ख़बरी दी जिससे वह ख़ुश हो गये, बाद में क़ौमें लूत की शिफ़ाअत की। “फ़लम्मा ज़हबा अन इब्राहीमा अर्रवउ व जाअतहु अलबुशरा युजादिलुना फ़ी क़ौमि लूतिन इन्ना इब्राहीमा लहलीमुन अव्वाहुन मुनीब” [3] ऐसी क़ौम की शिफ़ाअत के लिए इंसान को बहुत ज़्यादा हिल्म की ज़रूरत है। यह हज़रत इब्राहीम की बुज़ुर्गी, हिल्म और उनके दिल के बड़े होने की निशानी है। बस आलिम को चाहिए कि अपने हिल्म को बढ़ाये और जहाँ तक हो सके इस्लाह करे न यह कि उसको छोड़ दे।
मोमिन की पाँचवी सिफ़त “जमीलुल मनाज़िअतुन” है यानी अगर किसी से कोई बहस या बात-चीत करनी होती है तो उसको अच्छे अन्दाज में करता है जंगो जिदाल नही करता। आज हमारे समाज की हालत बहुत हस्सास है। ख़तरा हम से सिर्फ़ एक क़दम के फ़ासले पर है इन हालात में अक़्ल क्या कहती है ? क्या अक़्ल यह कहती है कि हम किसी भी मोज़ू को बहाना बना कर, जंग के एक नये मैदान की बुनियाद डाल दें या यह कि यह वक़्त एक दूसरे की मदद करने और आपस में मुत्तहिद होने का “वक़्त” है ?
अगर हम ख़बरों पर ग़ौर करते हैं तो सुनते हैं कि एक तरफ़ तो तहक़ीक़ी टीम इराक़ में तहक़ीक़ में मशग़ूल है दूसरी तरफ़ अमरीका ने अपने आपको हमले के लिए तैयार कर लिया है और अपने जाल को इराक़ के चारो तरफ़ फैलाकर हमले की तारीख़ मुऐय्यन कर दी है। दूसरी ख़बर यह है कि जिनायत कार इस्राईली हुकुमत का एक आदमी कह रहा है कि हमें तीन मरकज़ों (मक्का, मदीना, क़ुम ) को अटम बम्ब के ज़रिये तहस नहस कर देना चाहिए। क्या यह मुमकिन नही है कि यह बात वाक़ियत रखती हो? एक और ख़बर यह कि अमरीकियों का इरादा यह है कि इराक़ में दाखिल होने के बाद वहाँ पर अपने एक फ़ौजी अफसर को ताऐय्युन करें। इसका मतलब यह है कि अगर वह हम पर भी मुसल्लत हो गये तो किसी भी गिरोह पर रहम नही करेगें और किसी को भी कोई हिस्सा नहीं देगें। एक ख़बर यह कि जब मजलिस (पार्लियामैन्ट) में कोई टकराव पैदा हो जाता है या स्टूडैन्टस का एक गिरोह जलसा करता है तो दुश्मन का माडिया ऐसे मामलात की तशवीक़ करता है और चाहता है कि यह सिलसिला जारी रहे। क्या यह सब कुछ हमारे बेदार होने के लिए काफ़ी नही है? क्या आज का दिन “व आतसिमू बिहबलिल्लाहि जमीअन वला तफ़र्रिक़ू” व रोज़े वहदते मिल्ली नही है ? अक़्ल क्या कहती है ? ऐ मुसन्निफ़ो, मोल्लिफ़ो, ओहदेदारो, मजलिस के नुमाइन्दो व दानिशमन्दों ख़ुदा के लिए बेदार हो जाओ। क्या अक़्ल इस बात की इजाज़त देती है कि हम किसी भी मोज़ू को बहाना बना कर जलसे करें और उनको यूनिवर्सिटी से लेकर मजलिस तक और दूसरे मक़ामात इस तरह फैलायें कि दुश्मन उससे ग़लत फ़ायदा उठाये ? मैं उम्मीदवार हूँ कि अगर कोई ऐतराज़ भी है तो उसको “जमीलुल मनाज़िअतुन” की सूरत में बयान करना चाहिए कि यह मोमिन की सिफ़त है। हमें चाहिए कि क़ानून को अपना मेयार बनायें और वहदत के मेयारों को बाक़ी रखें।
अक्सर लोग मुतदय्यन हैं, जब माहे रमज़ान या मोहर्रम आता है तो पूरे मुल्क का नक़्शा ही बदल जाता है, इसका मतलब यह है कि लोगों को दीन से मुहब्बत है। आगे बढ़ो और दीन के नाम पर जमा हो जाओ और इससे फ़ायदा उठाओ यह एक ज़बर्दस्त ताक़त और सरमाया है।
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मुक़द्दमा-
गुज़िश्ता अखलाक़ी बहस में पैगम्बरे इस्लाम (स.) की एक हदीस नक़्ल की जिसमें आप हज़रत अली (अ.) को खिताब करते हुए फ़रमाते बैं कि कोई भी उस वक़्त तक मोमिन नही बन सकता जब तक उसमें 103 सिफ़ात जमा न हो जायें, यह सिफ़ात पाँच हिस्सो में तक़सीम होती है। पाँच सिफ़ात कल के जलसे में बयान हो चुकी हैं और पाँच सिफ़ात की तरफ़ आज इशारा करना है।
हदीस-
“.......... करीमुल मुराजिअः, औसाउ अन्नासि सदरन, अज़ल्लाहुम नफ़सन, सहकाहु तबस्सुमन, व इजतमाअहु ताल्लुमन........”[4]
तर्जमा-
.... वह करीमाना अन्दाज़ में मिलता है, उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है, वह बहुत ज़्यादा मुतवाज़े होता है, वह ऊँची आवाज़ में नही हसता और जब वह लोगों के दरमियान होता है तो तालीम व ताल्लुम करता........।
मोमिन की छटी सिफ़त “करीमुल मुराजिअः ” है यानी वह करीमाना अनदाज़ में मिलता जुलता है। इस में दो एहतेमाल पाये जाते हैं।
1- जब लोग उससे मिलने आते हैं तो वह उन के साथ करीमाना बर्ताव करता है। यानी अगर वह उन कामों पर क़ादिर होता है जिन की वह फ़रमाइश करते हैं तो या उसी वक़्त उसको अंजाम दे देता है या यह कि उसको आइंदा अंजाम देने का वादा कर लेता है और अगर क़ादिर नही होता तो माअज़ेरत कर लेता है। क़ुरआन कहता है कि “क़ौलुन माअरूफ़ुन व मग़िफ़िरतुन ख़ैरुन मिन सदक़तिन यतबउहा अज़न”[5]
2- या यह कि जब वह लोगों से मिलने जाता है तो उसका अन्दाज़ करीमाना होता है। यानी अगर किसी से कोई चीज़ चाहता है तो उसका अन्दाज़ मोद्देबाना होता है, उस चीज़ को हासिल करने के लिए इसरार नही करता, और सामने वाले को शरमिन्दा नही करता।
मोमिन की सातवी सिफ़त “औसाउ अन्नासि सदरन ” है यानी उसका सीना सबसे ज़्यादा कुशादा होता है। क़ुरआन सीने की कुशादगी के बारे में फ़रमाता है कि “फ़मन युरिदि अल्लाहु अन यहदियाहु यशरह सदरहु लिल इस्लामि व मन युरिद अन युज़िल्लाहुयजअल सदरहु ज़य्यिक़न हरजन...। ”[6] अल्लाह जिसकी हिदायत करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत समझता है) इस्लाम क़बूल करने के लिए उसके सीने को कुशादा कर देता है और जिसको गुमराह करना चाहता है(यानी जिसको क़ाबिले हिदायत नही समझता) उसके सीने को तंग कर देता है।
“सीने की कुशादगी” के क्या माअना है ? जिन लोगों का सीना कुशादा होता है वह सब बातों को(नामुवाफ़िक़ हालात, मुश्किलात, सख़्त हादसात..) बर्दाश्त करते हैं। बुराई उन में असर अन्दाज़ नही होती है,वह जल्दी नाउम्मीद नही होते, इल्म, हवादिस, व माअरेफ़त को अपने अन्दर समा लेते हैं, अगर कोई उनके साथ कोई बुराई करता है तो वह उसको अपने ज़हन के एक गोशे में रख लेते हैं और उसको उपने पूरे वजूद पर हावी नही होने देते। लेकिन जिन लोगों के सीने तंग हैं अगर उनके सामने कोई छोटीसी भी नामुवाफ़िक़ बात हो जाती है तो उनका होसला और तहम्मुल जवाब दे जाते है।
मोमिन का आठवी सिफ़त “अज़ल्लाहुम नफ़्सन” है अर्बी ज़बान में “ज़िल्लत” के माअना फ़रोतनी व “ज़लूल” के माअना राम व मुतीअ के हैं। लेकिन फ़ारसी में ज़िल्लत के माअना रुसवाई के हैं बस यहाँ पर यह सिफ़त फ़रोतनी के माअना में है। यानी मोमिन के यहाँ फ़रोतनी बहुत ज़्यादा पाई जाती है और वह लोगों से फ़रोतनी के साथ मिलता है। सब छोटों बड़ो का एहतेराम करता है और दूसरों से यह उम्मीद नही रख़ता कि वह उसका एहतेराम करें।
मोमिन की नौवी सिफ़त “ज़हकाहु तबस्सुमन” है। मोमिन बलन्द आवाज़ में नही हँसता है। रिवायात में मिलता है कि पैग़म्बरे इस्लाम(स.) कभी भी बलन्द आवाज़ में नही हँसे। बस मोमिन का हँसना भी मोद्देबाना होता है।
मोमिन की दसवी सिफ़त “इजतमाउहु तल्लुमन ” है। यानी मोमिन जब लोगों के दरमियान बैठता है तो कोशिश करता है कि तालाम व ताल्लुम में मशग़ूल रहे और वह ग़ीबत व बेहूदा बात चीत से जिसमें उसके लिए कोई फ़ायदा नही होता परहेज़ करता है।
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इस से पहले जलसे में पैग़म्बर (स.) की एक हदीस बयान की जिसमें आपने मोमिन के 103 सिफ़ात बयान फ़माये है, उनमें से दस साफ़ात बयान हो चुके हैं और इस वक़्त छः सिफ़ात और बयान करने हैं।
हदीस- “ ...... मुज़क्किरु अलग़ाफ़िल, मुअल्लिमु अलजाहिल, ला यूज़ी मन यूज़ीहु वला यखूज़ु फ़ी मा ला युअनीहु व ला युशमितु बिमुसीबतिन व ला युज़क्किरु अहदन बिग़ैबतिन......।[7]”
तर्जमा-
मोमिन वह इंसान है जो ग़ाफ़िल लोगों को आगाह करता है, जाहिलों को तालीम देता है, जो लोग उसे अज़ीयत पहुँचाते हैं वह उनको नुक़्सान नही पहुँचाता, जो चीज़ उससे मरबूत नही होती उसमें दख़ल नही देता, अगर उसको नुक़्सान पहुँचाने वाला किसी मुसिबत में घिर जाता है तो वह उसके दुख से खुश नही होता और ग़ीबत नही करता।
मोमिन की ग्यारहवी सिफ़त “मुज़क्किरु अलग़ाफ़िल” है। यानी मोमिन ग़ाफ़िल (अचेत) लोगों को मतवज्जेह करता है। ग़ाफ़िल उसे कहा जाता है जो किसी बात को जानता हो मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जह न हो। जैसे जानता हो कि शराब हराम है मगर उसकी तरफ़ मुतवज्जेह न हो।
मोमिन की बारहवी सिफ़त “मुअल्लिमु अलजाहिलि ” है। यानी मोमिन जाहिलों को तालीम देता है। जाहिल, ना जानने वाले को कहा जाता है।
ग़ाफिल को मुतवज्जेह करने, जाहिल को तालीम देने और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर में क्या फ़र्क़ है ?
इन तीनों वाजिबों को एक नही समझना चाहिए। “ग़ाफ़िल” उसको कहते हैं जो हुक्म को जानता है मगर मुतवज्जेह नही है( मोज़ू को भूल गया है) मसलन जानता है कि ग़ीबत करना गुनाह है लेकिन इससे ग़ाफ़िल हो कर ग़ीबत में मशग़ूल हो गया है।“जाहिल” वह है जो हुक्म को ही नही जानता और हम चाहते हैं कि उसे हुक्म के बारे में बतायें। जैसे – वह यह ही नही जानता कि ग़ीबत हराम है। अम्र बिल मारूफ़ नही अनिल मुनकर वहाँ पर है जहाँ मोज़ू और हुक्म के बारे में जानता हो यानी न ग़ाफ़िल हो न जाहिल। इन सब का हुक्म क्या है ?
“ग़ाफ़िल” यानी अगर कोई मोज़ू से ग़ाफ़िल हो और वह मोज़ू मुहिम न हो तो वाजिब नही है कि हम उसको मुतवज्जेह करें। जैसे- नजिस चीज़ का खाना। लेकिन अगर मोज़ू मुहिम हो तो मुतवज्जेह करना वाजिब है जैसे- अगर कोई किसी बेगुनाह इंसान का खून उसको गुनाहगार समझते हुए बहा रहा हो तो इस मक़ाम पर मुतवज्जेह करना वाजिब है।
“जाहिल” जो अहकाम से जाहिल हो उसको तालीम देनी चाहिए और यह वाजिब काम है।
“अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर” अगर कोई इंसान किसी हुक्म के बारे में जानता हो व ग़ाफिल भी न हो और फिर भी गुनाह अंजाम दे तो हमें चाहिए कि उसको नर्म ज़बान में अम्र व नही करें।
यह तीनों वाजिब हैं मगर तीनों के दायरों में फ़र्क़ पाया जाता है। और अवाम में जो यह कहने की रस्म हो गई है कि “मूसा अपने दीन पर, ईसा अपने दीन पर” या यह कि “ मुझे और तुझे एक कब्र में नही दफ़नाया जायेगा” बेबुनियाद बात है। हमें चाहिए कि आपस में एक दूसरे को मुतवज्जेह करें और अम्र बिल मारूफ़ व नही अनिल मुनकर से ग़ाफ़िल न रहें। यह दूसरों का काम नही है। रिवायात में मिलता है कि समाज में गुनाहगार इंसान की मिसाल ऐसी है जैसे कोई किश्ती में बैठ कर अपने बैठने की जगह पर सुराख करे और जब उसके इस काम पर एतराज़ किया जाये तो कहे कि मैं तो अपनी जगह पर सुराख कर रहा हूँ। तो उसके जवाब में कहा जाता है कि इसके नतीजे में हम सब मुश्तरक (सम्मिलित) हैं अगर किश्ति में सुराख़ होगा तो हम सब डूब जायेंगे। रिवायात में इसकी दूसरी मिसाल यह है कि अगर बाज़ार में एक दुकान में आग लग जाये और बाज़ार के तमाम लोग उसको बुझाने के लिए इक़दाम करें तो वह दुकानदार यह नही कह सकता कि तुम्हे क्या मतलब यह मेरी अपनी दुकान है, क्योँकि उसको फौरन सुन ने को मिलेगा कि हमारी दुकानें भी इसी बाज़ार में हैं मुमकिन है कि आग हमारी दुकान तक भी पहुँच जाये। यह दोनों मिसालें अम्र बिल मारूफ व नही अनिल मुनकर के फ़लसफ़े की सही ताबीर हैं। और इस बात की दलील, कि यह सब का फ़रीज़ा है यह है कि समाज में हम सबकी सरनविश्त मुश्तरक है।
मोमिन की तेरहवी सिफ़त- “ला युज़ी मन युज़ीहु” है। यानी जो उसको अज़ीयत देते हैं वह उनको अज़ीयत नही देता। दीनी मफ़ाहीम में दो मफ़हूम पाये जाते हैं जो आपस में एक दूसरे से जुदा है।।
1- अदालत- अदालत के माअना यह हैं कि “मन ऐतदा अलैकुम फ़अतदू अलैहि बिमिसलिन मा ऐतदा अलैकुम” यानी तुम पर जितना ज़ुल्म किया है तुम उससे उसी मिक़दार में तलाफ़ी करो।
2- फ़ज़ीलत- यह अदल से अलग एक चीज़ है जो वाक़ियत में माफ़ी है। यानी बुराई के बदले भलाई और यह एक बेहतरीन सिफ़त है जिसके बारे में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) ने फ़रमाया कि “युअती मन हरूमहु व यअफ़ु मन ज़लमहु युसिल मन क़तअहु ” जो उसे किसी चीज़ के देने में दरेग़ करता है उसको अता करता है, जो उस पर ज़ुल्म करता है उसे माफ़ करता है, जो उससे क़तअ ताल्लुक़ करता है उससे मिलता है। यानी जो मोमिने कामिल है वह अदालत को नही बल्कि फ़ज़ीलत को इख़्तियार करता है। (अपनाता है।)
मोमिन की चौदहवी सिफ़त- “वला यख़ुज़ु फ़ी मा ला युअनीहु ”है यानी मोमिने वाक़ई उस चीज़ में दख़ालत नही करता जो उससे मरबूत न हो। “मा ला युअनीहु ” “मा ला युक़सिदुहु” के माअना में है यानी वह चीज़ आप से मरबूत नही है। एक अहम मुश्किल यह है कि लोग उन कामों में दख़ालत करते हैं जो उनसे मरबूत नही है।हुकुमती सतह पर भी ऐसा ही है। कुछ हुकुमतें दूसरों के मामलात में दख़ालत करती हैं।
मोमिन की पन्दरहवी सिफ़त- “व ला युश्मितु बिमुसिबतिन ” है। ज़िन्दगी में अच्छे और बुरे सभी तरह के दिन आते हैं। मोमिन किसी को परेशानी में घिरा देख कर उसको शमातत नही करता यानी यह नही कहता कि “ देखा अल्लाह ने तुझ को किस तरह मुसिबत में फसाया मैं पहले ही नही कहता था कि ऐसा न कर” क्योंकि इस तरह बातें जहाँ इंसान की शुजाअत के ख़िलाफ़ हैं वहीँ ज़ख्म पर नमक छिड़कने के मुतरादिफ़ भी। अगरचे मुमकिन है कि वह मुसिबत उसके उन बुरे आमाल का नतीजा ही हों जो उसने अंजाम दिये हैं लेकिन फिर भी शमातत नही करनी चाहिए, क्योंकि हर इंसान की ज़िन्दगी में सख़्त दिन आते हैं क्या पता आप खुद ही कल किसी मुसीबत में घिर जाओ।
मोमिन की सौलहवी सिफ़त- “ व ला युज़करु अहदन बिग़िबतिन” है। यानी वह किसी का ज़िक्र भी ग़िबत के साथ नही करता। ग़ीबत की अहमियत के बारे में इतना ही काफ़ी है कि मरहूम शेख मकासिब में फ़रमाते हैं कि अगर ग़ीबत करने वाला तौबा न करे तो दोज़ख में जाने वाला पहला नफ़र होगा, और अगर तौबा करले और तौबा क़बूल हो जाये तब भी सबसे आख़िर में जन्नत में वारिद होगा। ग़ीबत मुसलमान की आबरू रेज़ी करती है और इंसान की आबरू उसके खून की तरह मोहतरम है और कभी कभी आबरू खून से भी ज़्यादा अहम होती है।
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मुक़द्दमा-
पिछले जलसों में हमने पैग़म्बरे अकरम (स.) की एक हदीस जो आपने हज़रत अली (अ.) से खिताब फ़रमाई बयान की, यह हदीस मोमिने कामिल के(103) सिफ़ात के बारे में थी। इस हदीस से 16 सिफ़ात बयान हो चुकी हैं और अब छः सिफात की तरफ़ और इशारा करना है।
हदीस-
“........बरीअन मिन मुहर्रिमात, वाक़िफन इन्दा अश्शुबहात, कसीरुल अता, क़लीलुल अज़ा, औनन लिल ग़रीब, व अबन लिल यतीम.......।”[8]
तर्जमा-
मोमिन हराम चीज़ों से बेज़ार रहता है, शुबहात की मंज़िल पर तवक़्क़ुफ़ करता है और उनका मुरतकिब नही होता, उसकी अता बहुत ज़्यादा होती है, वह लोगों को बहुत कम अज़ीयत देता है, मुसाफ़िरों की मदद करता है और यतीमों का बाप होता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की सतरहवी सिफ़त- “ बरीअन मिन अलमुहर्रिमात” है, यानी मोमिन वह है जो हराम से बरी और गुनाहसे बेज़ार है। गुनाह अंजाम न देना और गुनाह से बेज़ार रहना इन दोनों बातों में फ़र्क़ पाया जाता है। कुछ लोग ऐसे होते हैं जो गुनाह में लज़्ज़त तो महसूस करते हैं मगर अल्लाह की वजह से गुनाह को अंजाम नही देते। यह हुआ गुनाह अंजाम न देना, मगर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो तहज़ीबे नफ़्स के ज़रिये इस मक़ाम पर पहुँच जाते हैं कि उनको गुनाह से नफ़रत हो जाती है और वह गुनाह से हरगिज़ लज़्ज़त नही लेते बस यही गुनाह से बेज़ारी है। और इंसान को उस मक़ाम पर पहुँचने के लिए जहाँ पर अल्लाह की इताअत से लज़्ज़त और गुनाह से तनफ़्फ़ुर पैदा हो बहुत ज़्यादा जहमतों का सामना करना पड़ता है।
मोमिन की अठ्ठारहवी सिफ़त- “ वाक़िफ़न इन्दा अश्शुबहात” है। यानी मोमिन वह है जो शुबहात के सामने तवक़्क़ुफ़ करता है। शुबहात मुहर्रेमात का दालान है और जो भी शुबहात का मुर्तकिब हो जाता है वह मुहर्रेमात में फ़स जाता है। शुबहात बचना चाहिए क्योंकि शुबहात उस ठलान मानिन्द है जो किसी दर्रे के किनारे वाक़ेअ हो। दर वाक़ेअ शुबहात मुहर्रेमात का हरीम (किसी इमारत के अतराफ़ का हिस्सा) हैं लिहाज़ा उनसे इसी तरह बचना चाहिए जिस तरह ज़्यादा वोल्टेज़ वाली बिजली से क्योंकि अगर इंसान मुऐय्यन फ़ासले की हद से आगे बढ़ जाये तो वह अपनी तरफ़ खैंच कर जला डालती है इसी लिए उसके लिए हरीम(अतराफ़ के फासले) के क़ाइल हैं। कुछ रिवायतों में बहुत अच्छी ताबीर मिलती है जो बताती हैं कि लोगों के हरीम में दाखिल न हो ताकि उनके ग़ज़ब का शिकार न बन सको। बहुत से लोग ऐसे हैं जो मंशियात का शिकार हो गये हैं शुरू में उन्होंने तफ़रीह में नशा किया लेकिन बाद में बात यहाँ तक पहुँची कि वह उसके बहुत ज़्यादा आदि हो गये।
मोमिन की उन्नीसवी सिफ़त- “कसीरुल अता ” है। यानी मोमिन वह है जो कसरत से अता करता है यहाँ पर कसरत निस्बी है(यानी अपने माल के मुताबिक़ देना) मसलन अगर एक बड़ा अस्पताल बनवाने के लिए कोई बहुत मालदार आदमी एक लाख रुपिये दे तो यह रक़म उसके माल की निस्बत कम है लेकिन अगर एक मामूली सा मुंशी एक हज़ार रूपिये दे तो सब उसकी तारीफ़ करते हैं क्योकि यह रक़म उसके माल की निस्बत ज़्यादा है। जंगे तबूक के मौक़े पर पैगम्बरे इस्लाम (स.) ने इस्लामी फ़ौज की तैय्यारी के लिए लोगों से मदद चाही लोगों ने बहुत मदद की इसी दौरान एक कारीगर ने इस्लामी फ़ौज की मदद करने के लिए रात में इज़ाफ़ी काम किया और उससे जो पैसा मिला वह पैग़म्बर (स.) की खिदमत में पेश किया उस कम रक़म को देख कर मुनाफ़ेक़ीन ने मज़ाक़ करना शुरू कर दिया फौरन आयत नाज़िल हुई
“अल्लज़ीना यलमिज़ूना अलमुत्तव्विईना मिनल मुमिनीना फ़ी अस्सदक़ाति व अल्लज़ीना ला यजिदूना इल्ला जुह्दा हुम फ़यसख़रूना मिन हुम सख़िरा अल्लाहु मिन हुम व लहुम अज़ाबुन अलीमुन।”[9] जो लोग उन पाक दिल मोमेनीन का मज़ाक़ उड़ाते है जो अपनी हैसियत के मुताबिक़ कुमक करते हैं, तो अल्लाह उन का मज़ाक़ उड़ाने वालों का मज़ाक़ उड़ाता है। पैग़म्बर (स.) ने फरमाया अबु अक़ील अपनी खजूर इन खजूरों पर डाल दो ताकि तुम्हारी खजूरों की वजह से इन खजूकरों में बरकत हो जाये।
मोमिन की बीसवी सिफ़त- “ क़लीलुल अज़ा ” है यानी मोमिन कामिलुल ईमान की तरफ़ से अज़ीयत कम होती है इस मस्अले को वाज़ेह करने के लिए एक मिसाल अर्ज़ करता हूँ । हमारी समाजी ज़िन्दगीं ऐसी है अज़यतों से भरी हुई है। नमूने के तौर पर घर की तामीर जिसकी सबको ज़रूरत पड़ती है, मकान की तामीर के वक़्त लोग तामीर के सामान ( जैसे ईंट, पत्थर, रेत, सरिया...) को रास्तों में फैला कर रास्तों को घेर लेते हैं जिससे आने जाने वालों को अज़ियत होती है। और यह सभी के साथ पेश आता है लेकिन अहम बात यह है कि समाजी ज़िन्दगी में जो यह अज़ियतें पायी जाती हैं इन को जहाँ तक मुमकिन हो कम करना चाहिए। बस मोमिन की तरफ़ से नोगों को बहुत कम अज़ियत होती है।
मोमिन की इक्कीसवी सिफ़त- “औनन लिल ग़रीब” है। यानी मोमिन मुसाफ़िरों की मदद करता है। अपने पड़ौसियों और रिश्तेदारों की मदद करना बहुत अच्छा है लेकिन दर वाक़ेअ यह एक बदला है यानी आज मैं अपने पड़ौसी की मदद करता हूँ कल वह पड़ौसी मेरी मेरी मदद करेगा। अहम बात यह है कि उसकी मदद की जाये जिससे बदले की उम्मीद न हो लिहाज़ा मुसाफ़िर की मदद करना सबसे अच्छा है।
मोमिन की बाइसवी सिफ़त- “अबन लिल यतीम” है। यानी मोमिन यतीम के लिए बाप की तरह होता है। पैग़म्बर ने यहाँ पर यह नही फरमाया कि मोमिन यतीमों को खाना खिलाता है, उनसे मुहब्बत करता है बल्कि परमाया मोमिन यतीम के लिए बाप होता है। यानी वह तमाम काम जो एक बाप अपने बच्चे के लिए अंजाम देता है, मोमिन यतीम के लिए अंजाम देता है।
यह तमाम अख़लाक़ी दस्तूर सख़्त मैहौल में बयान हुए और इन्होंने अपना असर दिखाया। हम उम्मीदवार हैं कि अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ाक़ दे और हम इन सिफ़ात पर तवज्जुह देते हुए कामिलुल ईमान बन जायें।
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मुक़द्दमा-
गुज़िश्ता जलसों में पैग़म्बरे इस्लाम (स.) की एक हदीस बयान की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमायी थी इसमें मोमिन के 103 सिफ़ात बयान फ़रमाये गये हैं जिनमें से बाईस सिफ़ात बयान हो चुके हैं और आज हम इस जलसे में चार सिफ़ात और बयान करेगें।
हदीस-
“.....अहला मिन अश्शहदि व असलद मिन अस्सलद, ला यकशफ़ु सर्रन व ला यहतकु सितरन...... ” [10]
तर्जमा-
मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा औक पत्थर से ज़यादा सख़्त होता है, जो लोग उसको अपने राज़ बता देते हैं वह उन राज़ो को आशकार नही करता और अगर ख़ुद से किसी के राज़ को जान लेता है तो उसे भी ज़ाहिर नही करता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की तेइसवी सिफ़त- “अहला मिन अश्शहद” है। मोमिन शहद से ज़्यादा मीठा होता है यानी दूसरों के साथ उसका सलूक बहुत अच्छा होता है। आइम्मा-ए- मासूमीन अलैहिमुस्सलाम और ख़ास तौर पर हज़रत अली अलैहिस्सलाम के बारे में मशहूर है कि आपकी नशिस्त और मुलाक़ातें बहुत शीरीन हुआ करती थीं, आप अहले मीज़ाह और लतीफ़ बातें करने वाले थे। कुछ लोग यह ख़्याल हैं कि इंसान जितना ज़्यादा मुक़द्दस हो उसे उतना ही ज़्यादा तुर्शरू होना चाहिए। जबकि वाक़ियत यह है कि इंसान के समाजी, सियासी, तहज़ीबी व दिगर पहलुओं में तरक़्क़ी के लिए जो चीज़ सबसे ज़्यादा असर अंदाज़ है वह नेक सलूक ही है। कभी-कभी सख्त से सख्त मुश्किल को भी नेक सलूक, मुहब्बत भरी बातों और ख़न्दा पेशानी के ज़रिये हल किया जासकता है। नेक सलूक के ज़रिये जहाँ उक़्दों को हल और कदूरत को पाक किया जासकता है, वहीँ ग़ुस्से की आग को ठंडा कर आपसी तनाज़ों को भी ख़त्म किया जासकता है।
पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि “अक्सरु मा तलिजु बिहि उम्मती अलजन्नति तक़वा अल्लाहि व हुसनुल ख़ुल्क़ि।” [11] मेरी उम्मत के बहुत से लोग जिसके ज़रिये जन्नत में जायेंगे वह तक़वा और अच्छा अखलाक़ है।
मोमिन की चौबीसवी सिफ़त- “अस्लदा मिन अस्सलदि ”है यानी मोमिन पत्थर से ज़्यादा सख़्त होता है। कुछ लोग “अहला मिन अश्शहद” मंज़िल में हद से बढ़ गये हैं और ख़्याल करते हैं कि खुश अखलाक़ होने का मतलब यह है कि इंसान दुश्मन के मुक़ाबले में भी सख़्ती न बरते। लेकिन पैग़म्बर (स.) फ़रमाते हैं कि मोमिन शदह से ज़्यादा शीरीन तो होता है लेकिन सुस्त नही होता, वह दुश्मन के मुक़ाबले में पहाड़ से ज़्यादा सख़्त होता है। रिवायत में मिलता है कि मोमिन दोस्तों में रहमाउ बैनाहुम और दुश्मन के सामने अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार का मिसदाक़ होता है। मोमिन लोहे से भी ज़्यादा सख़्त होता है (अशद्दु मिन ज़बरिल हदीद व अशद्दु मिनल जबलि) चूँकि लोहे और पहाड़ को तराशा जा सकता है लेकिन मोमिन को तराशा नही जा सकता। जिस तरह हज़रत अली (अ.) थे,लेकिन एक गिरोह ने यह बहाना बनाया कि क्योंकि वह शौख़ मिज़ाज है इस लिए ख़लीफ़ा नही बन सकते जबकि वह मज़बूत और सख़्त थे। लेकिन जहाँ पर हालात इजाज़त दें इंसान को ख़ुश्क और सख़्त नही होना चाहिए, क्यों कि जो दुनिया में सख़्ती करेगा अल्लाह उस पर आख़िरत में सख़्ती करेगा।
मोमिन की पच्चीसवी सिफ़त- “ ला यकशिफ़ु सिर्रन ” है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता , राज़ों को फ़ाश करने के क्या माअना हैं ?
हर इंसान की ख़सूसी ज़िन्दगी में कुछ राज़ पाये जाते हैं जिनके बारे में वह यह चाहता है कि वह खुलने न पाये होते हैं । क्योंकि अगर वह राज़ खुल जायेगें तो उसको ज़िन्दगी में बहुत सी मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा। अगर कोई इंसान अपने राज़ को किसी दूसरे से बयान करदे तो और कहे कि “अल मजालिसु अमानात” यानी यह बाते जो यहाँ पर हुई हैं अपके पास अमानत हैं, तो यह राज़ है और इसको किसी दूसरे के सामने बयान नही करना चाहिए। रिवायात में तो यहाँ तक आया है कि अगर कोई आप से बात करते हुए इधर उधर इस वजह से देखता रहे कि कोई दूसरा न सुन ले, तो यह राज़ की मिस्ल है चाहे वह न कहे कि यह राज़ है। मोमिन का राज़ मोमिन के खून की तरह मोहतरम है लिहाज़ा किसी मोमिन के राज़ को ज़ाहिर नही करना चाहिए।
मोमिन की छब्बीसवी सिफ़त- “ला युहतकु सितरन ” है। यानी मोमिन राज़ों को फ़ाश नही करता। हतके सित्र (राज़ो का फ़ाश करना) कहाँ पर इस्तेमाल होता है इसकी वज़ाहत इस तरह की जासकती है कि अगर कोई इंसान अपना राज़ मुझ से न कहे बल्कि मैं खुद किसी तरह उसके राज़ के बारे में पता लगालूँ तो यह हतके सित्र है। लिहाज़ा ऐसे राज़ को फ़ाश नही करना चाहिए, क्यों कि हतके सित्र और उसका ज़ाहिर करना ग़ीबत की एक क़िस्म है। और आज कल ऐसे राज़ों को फ़ाश करना एक मामूलसा बन गया है। लेकिन हमको इस से होशियार रहना चाहिए अगर वह राज़ दूसरों के लिए नुक़्सान देह न हो और ख़ुद उसकी ज़ात से वाबस्ता हो तो उसको ज़ाहिर नही करना चाहिए। लेकिन अगर किसी ने निज़ाम, समाज, नामूस, जवानो, लोगों के ईमान... के लिए ख़तरा पैदा कर दिया है तो उस राज़ को ज़ाहिर करने में कोई इशकाल नही है। जिस तरह अगर ग़ीबत मोमिन के राज़ की हिफ़ाज़ से अहम है तो विला मानेअ है इसी तरह हतके सित्र में भी अहम और मुहिम का लिहाज़ ज़रूरी है।
अल्लाह हम सबको अमल करने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
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मुक़द्दमा- इस हफ़्ते की अख़लाक़ी बहस में पैग़म्बर अकरम(स.) की एक हदीस बयान की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से बयान फरमाई थी। इस हदीस में मोमिन की 103 सिफ़तें बयान की गईं हैं जिनमें से छब्बीस सिफ़ते बयान हो चुकी हैं और इस जलसे में पाँच सिफते और बयान करनी है।
हदीस-
“.....लतीफ़ुल हरकात, हलवुल मुशाहिदति, कसीरुल इबादति, हुस्नुल वक़ारि, लय्यिनुल जानिबि.....।”[12]
तर्जमा-
मोमिन की हरकतें लतीफ़, उसका दीदार शीरीन और उसकी इबादत ज़्यादा होती हैं, उससे सुबुक हरकतें सरज़द नहीं होती और उसमें मोहब्बत व आतिफ़त पायी जाती है।
हदीस की शरह-
मोमिन की सत्ताइसवी सिफ़त-“लतीफ़ुल हरकात” होना है। यानी मोमिन के हरकातो सकनात बहुत लतीफ़ होते हैं और वह अल्लाह की मख़लूक़ के साथ मुहब्बत आमेज़ सलूक करता है।
मोमिन की अठ्ठाइसवी सिफ़त- “हुलुवुल मुशाहिदह ” होना है। यानी मोमिन हमेशा शाद होता है वह कभी भी तुर्श रू नही होता।
मोमिन की उनत्तीसवी सिफ़त- “कसीरुल इबादत ” है। यानी मोमिन बहुत ज़्यादा इबादत करता है। यहाँ पर एक सवाल पैदा होता है और वह यह कि इबादत से रोज़ा नमाज़ मुराद है या इसके कोई और माअना हैं?
इबादत की दो क़िस्में हैं-
इबादत अपने खास माअना में-
यह वह इबादत है कि अगर इसमें क़स्द क़ुरबत न किया जाये तो बातिल हो जाती है।
इबादत अपने आम माअना में-
हर वह काम कि अगर उसको क़स्द क़ुरबत के साथ किया जाये तो सवाब रखता हो मगर क़स्दे क़ुरबत उसके सही होने के लिए शर्त न हो। इस सूरत में तमाम कामों को इबादत का लिबास पहनाया जा सकता है। इबादत रिवायत में इसी माअना में हो सकती है।
मोमिन की तीसवीं सिफ़त- “हुस्नुल वक़ार” है। यानी मोमिन छोटी और नीची हरकतें अंजाम नही देता। विक़ार या वक़ार का माद्दा वक़र है जिसके माअना संगीनी के हैं।
मोमिन की इकत्तीसवीं सिफ़त- “लय्यिनुल जानिब ” है। यानी मोमिन में मुहब्बत व आतेफ़त पायी जाती है।
ऊपर ज़िक्र की गईं पाँच सिफ़तों में से चार सिफ़तें लोगों के साथ मिलने जुलने से मरबूत हैं।लोगों से अच्छी तरह मिलना और उनसे नेक सलूक करना बहुत ज़्यादा अहमियत का हामिल है। इससे मुख़ातेबीन मुतास्सिर होते हैं चाहे दीनी अफ़राद हों या दुनियावी।
दुश्मन हमारे माथे पर तुन्द ख़ुई का कलंक लगाने के लिए कोशा है लिहाज़ा हमें यह साबित करना चाहिए कि हम जहाँ “ अशद्दाउ अलल कुफ़्फ़ार है ”वहीँ “रहमाउ बैनाहुम” भी हैं। आइम्मा-ए- मासूमान अलैहिमुस्सलाम की सीरत में मिलता है कि वह उन ग़ैर मुस्लिम अफ़राद से भी मुहब्बत के साथ मिलते थे जो दर पैये क़िताल नही थे। नमूने के तौर पर, तारीख़ में मिलता है कि एक मर्तबा हज़रत अली अलैहिस्सलाम एक यहूदी के हम सफ़र थे। और आपने उससे फ़रमा दिया था कि दो राहे पर पहुँच कर तुझ से जुदा हो जाऊँगा। लेकिन दो राहे पर पहुँच कर भी जब हज़रत उसके साथ चलते रहे तो उस यहूदी ने कहा कि आप ग़लत रास्ते पर चल रहे हैं, हज़रत ने उसके जवाब में फ़रमाया कि अपने दीन के हुक्म के मुताबिक हमसफ़र के हक़ को अदा करने के लिए थोड़ी दूर तेरे साथ चल रहा हूँ। आपका यह अमल देख कर उसने ताज्जुब किया और मुस्लमान हो गया। इस्लाम के एक सादे से हुक्म पर अमल करना बहुत से लोगों के मुसलमान बनने इस बात का सबब बनता है। (यदख़ुलु फ़ी दीनि अल्लाहि अफ़वाजन) लेकिन अफ़सोस है कि कुछ मुक़द्दस लोग बहुत ख़ुश्क इंसान हैं और वह अपने इस अमल से दुश्मन को बोलने का मौक़ा देते हैं जबकि हमारे दीन की बुनियाद तुन्दखुई पर नही है। क़ुरआने करीम में 114 सूरेह हैं जिनमें से 113 सूरेह अर्रहमान अर्रहीम से शुरू होते हैं। यानी 1/114 तुन्दी और 113में रहमत है।
दुनिया में दो ततरीक़े के अच्छे अखलाक़ पाये जाते हैं।
रियाकाराना अखलाक़ (दुनियावी फ़ायदे हासिल करने के लिए)
मुख़लेसाना अखलाक़ (जो दिल की गहराईयों से होता है)
पहली क़िस्म का अख़लाक यूरोप में पाया जाता है जैसे वह लोग हवाई जहाज़ में अपने गाहकों को खुश करने के लिए उनसे बहुत मुहब्बत के साथ पेश आते हैं, क्योंकि यह काम आमदनी का ज़रिया है। वह जानते हैं कि अच्छा सलूक गाहकों को मुतास्सिर करता है।
दूसरी क़िस्म का अख़लाक़ मोमिन की सिफ़त है। जब हम कहते हैं कि मोमिन का अखलाक बहुत अच्छा है तो इसका मतलब यह है कि मोमिन दुनयावी फ़ायदे हासिल करने के लिए नही बल्कि आपस में मेल मुहब्बत बढ़ाने के लिए अख़लाक़ के साथ पेश आता है। क़ुरआने करीम में हकीम लुक़मान के क़िस्से में उनकी नसीहतों के तहत ज़िक्र हुआ है “व ला तुसाअइर ख़द्दका लिन्नासि व ला तमशि फ़िल अरज़े मरहन...”[13] “तुसाअइर” का माद्दा “सअर” है और यह एक बीमारी है जो ऊँटों में पाई जाती है । इस बीमारी की वजह से ऊँटो की गर्दन दाहिनी या बाईँ तरफ़ मुड़ जाती है। आयत फ़रमा रही है कि गर्दन मुड़े बीमार ऊँट की तरह न रहो और लोगों की तरफ़ से अपने चेहरे को न मोड़ो । इस ताबीर से मालूम होता है कि बद अख़लाक़ अफ़राद एक क़िस्म की बीमारी में मुबतला हैं। आयत के आख़िर में बयान हुआ है कि तकब्बुर के साथ राह न चलो।
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कुछ अहादीस के मुताबिक़ 25 ज़ीक़ादह रोज़े “ दहुल अर्ज़ ” और इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम के मदीने से तूस की तरफ़ सफ़र की तारीख़ है। “दह्व”के माअना फैलाने के हैं। कुरआन की आयत “ व अलअर्ज़ा बअदा ज़ालिका दहाहा ”[14] इसी क़बील से है।
ज़मीन के फैलाव से क्या मुराद हैं ? और इल्मे रोज़ से किस तरह साज़गार है जिसमें यह अक़ीदह पाया जाता है कि ज़मीन निज़ामे शम्सी का जुज़ है और सूरज से जुदा हुई है?
जब ज़मीन सूरज से जुदा हुई थी तो आग का एक दहकता हुआ गोला थी, बाद में इसकी भाप से इसके चारों तरफ़ पानी वजूद में आया जिससे सैलाबी बारिशों का सिलसिला शुरू हुआ और नतीजे में ज़मीन की पूरी सतह पानी में पौशीदा हो गई। फिर आहिस्ता आहिस्ता यह पानी ज़मीन में समा ने लगा और ज़मीन पर जगह जगह खुशकी नज़र आने लगी। बस “ दहुल अर्ज़ ” पानी के नीचे से ज़मीन के ज़ाहिर होने का दिन है। कुछ रिवायतों की बिना पर सबसे पहले खाना-ए- काबा का हिस्सा जाहिर हुआ। आज का जदीद इल्म भी इसके ख़िलाफ़ कोई बात साबित नही हुई है। यह दिन हक़ीक़त में अल्लाह की एक बड़ी नेअमत हासिल होने का दिन है कि इस दिन अल्लाह ने ज़मीन को पानी के नीचे से ज़ाहिर कर के इंसान की ज़िंदगी के लिए आमादह किया।
कुछ तवारीख़ के मुताबिक़ इस दिन इमाम रिज़ा अलैहिस्सलाम ने मदीने से तूस की तरफ़ सफर शुरू किया और यह भी हम ईरानियों के लिए अल्लाह एक बड़ी नेअमत है। क्योंकि आपके क़दमों की बरकत से यह मुल्क आबादी, मानवियत, रूहानियत और अल्लाह की बरकतों के सर चशमे में तबदील हो गया। अगर हमारे मुल्क में इमाम की बारगाह न होती तो शियों के लिए कोई पनाहगाह न थी। हर साल तक़रीबन 1,5000000 अफ़राद अहले बैत अलैहिमुस्सलाम से तजदीदे बैअत के लिए आपके रोज़े पर जाकर ज़ियारत से शरफयाब होते हैं। आप की मानवियत हमारे पूरे मुल्क पर साया फ़िगन है और हम से बलाओं को दूर करती है। बहर हाल आज का दिन कई वजहों से एक मुबारक दिन है। मैं अल्लाह से दुआ करता हूँ कि वह हमको इस दिन की बरकतों से फ़ायदा उठाने की तौफ़ीक़ अता फ़रमाये।
मुक़द्दमा-
इस हफ़्ते की अख़लाक़ी बहस में रसूले अकरम सल्लल्लाहु अलैहि व आलिहि वसल्लम की एक हदीस नक़्ल की जो आपने हज़रत अली अलैहिस्सलाम से खिताब फ़रमाई। इस हदीस में मोमिने कामिल की 103 सिफ़तें बयान की गयीं हैं, हम पिछले जलसे तक इनमें से 31 सिफ़तें बयान कर चुके हैं और आज के इस जलसें में चार सिफ़ात और बयान करेंगे।
हदीस-
“......हलीमन इज़ा जहला इलैह, सबूरन अला मन असा इलैह, युबज्जिलुल कबीरा व युराह्हिमु अस्सग़ीरा......।”[15]
तर्जमा-
मोमिने कामिलुल ईमान जाहिलों के जहल के मुक़ाबिल बुरदुबार और बुराईयों के मुक़ाबिल बहुत ज़्यादा सब्र करने वाला होता है, वह बुज़ुर्गों का एहतराम करता है और छोटों के साथ मुहब्बत से पेश आता है।
हदीस की शरह-
मोमिन की बत्तीसवीं सिफ़त-“हलीमन इज़ा जहला इलैह” है। यानी वह जाहिलों के जहल के सामने बुरदुबारी से काम लेता है अगर कोई उसके साथ बुराई करता है तो वह उसकी बुराई का जवाब बुराई से नही देता।
मोमिन की तैंतीससवीं सिफ़त- “सबूरन अला मन असा इलैह ” है। यानी अगर कोई मोमिन के साथ अमदन बुरा सलूक करता है तो वह उस पर सब्र करता है। पहली सिफ़त में और इस सिफ़त में यह फ़र्क़ पाया जाता है कि पहली सिफ़त में ज़बान की बुराई मुराद है और इस सिफ़त में अमली बुराई मुराद है।
इस्लाम में एक क़ानून पाया जाता है और एक अखलाक़, क़ानून यह है कि अगर कोई आपके साथ बुराई करे तो आप उसके साथ उसी अन्दाज़े में बुराई करो। क़ुरआन में इरशाद होता है कि “फ़मन एतदा अलैकुम फ़आतदू अलैहि बिमिसलि मा आतदा अलैकुम..।”[16] यानी जो तुम पर ज़्यादती करे तुम उस पर उतनी ही ज़्यादती करो जितनी उसने तुम पर की है। यह क़ानून इस लिए है ताकि बुरे लोग बुरे काम अंजाम न दें। लेकिन अख़लाक़ यह है कि न सिर्फ़ यह कि बुराई के बदले में बुराई न करो बल्कि बुराई का बदला भलाई से दो। क़ुरआन फ़रमाता है कि “इज़ा मर्रु बिल लग़वि मर्रु किरामन”[17] या “इदफ़अ बिल्लति हिया अहसनु सय्यिअता”[18] यानी आप बुराई को अच्छाई के ज़रिये ख़त्म कीजिये। या “व इज़ा ख़ातबा हुम अल जाहिलूना क़ालू सलामन”[19] जब जाहल उन से ख़िताब करते हैं तो वह उन्हें सलामती की दुआ देते हैं।
मोमिन की चौंतीसवीं सिफ़त-“युबज्जिलुल कबीरा” है। यानी मोमिन बुज़ुर्गों की ताज़ीम करता है। बुज़ुर्गों के एहतराम के मस्अले को बहुतसी रिवायात में बयान किया गया है। मरहूम शेख़ अब्बासे क़ुम्मी ने अपनी किताब “सफ़ीनतुल बिहार” में एक रिवायत नक़्ल की है कि “मन वक़्क़रा शैबतिन लि शैबतिहि आमनुहु अल्लाहु तआला मन फ़ज़ाअ यौमिल क़ियामति ”[20] जो किसी बुज़ुर्ग का एहतराम उसकी बुज़ुर्गी की वजह से करे तो अल्लाह उसे रोज़े क़ियामत के अज़ाब से महफ़ूज़ करेगा। एक दूसरी रिवायत में मिलता है कि “इन्ना मिन इजलालि अल्लाहि तआला इकरामु ज़ी शीबतिल मुस्लिम ”[21] यानी अल्लाह तआला की ताअज़ीम में से एक यह है कि बुज़ुर्गों का एहतराम करो।
मोमिन की पैंतीसवीं सिफ़त- “युराह्हिमु अस्सग़ीरा ” है। यानी मोमिन छोटों पर रहम करता है। यानी मुहब्बत के साथ पेश आता है।
मशहूर है कि जब बुज़ुर्गों के पास जाओ तो उनकी बुज़ुर्गी की वजह से उनका एहतराम करो और जब बच्चो के पास जाओ तो उनका एहतराम इस वजह से करो कि उन्होंने कम गुनाह अंजाम दिये हैं।
[1] बिहारुल अनवार जिल्द 64 बाब अलामातुल मोमिन हदीस 45पेज न. 310
[2] सूरए हूद /82
[3] सूरए हूद/ 74-75
[4] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310
[5] सूरए बक़रः/263
[6] सूरए अनआम/125
[7] बिहारुल अनवार जिल्द 46/310
[8] बिहारूल अनवार जिल्द 64/310
[9] सूरए तौबा आयत न. 79
[10] बिहारूल अनवार जिल्द 64 पोज न. 310
[11] बिहारूल अनवार जिल्द 68 बाब हुस्नुल ख़ुल्क़ पोज न. 375
[12]बिहारुल अनवार जिल्द 64 पेज न. 310
[13] सूरए लुक़मान आयत न. 18
[14] सूर-ए- नाज़िआत ऐयत न. 30
[15] बिहारुल अनवारजिल्द64 पेज न. 311
[16] सूरए बकरह आयत न. 194
[17] सूरए फ़ुरक़ान आयत न. 72
[18] सूरए मोमिनून आयत न. 96
[19] सूरए फ़ुरक़ान आयत न.63
[20] सफ़ीनतुल बिहार, माद्दाए (शीब)
[21] - सफ़ीनतुल बिहार माद्दाए (शीब)